वह देखने में अच्छा नहीं था. अच्छी नस्ल का भी नहीं था. आम कुत्तों की तरह ही था. इधरउधर की चीजें खा कर जिंदा रहने वाला कुत्ता था. उस की चालढाल भी बहुत अच्छी नहीं थी. भूंकता कम था. बड़ी आशा से 2 महीने पहले खरीदा था कि बड़ा हो कर खूंखार होगा और अपना नाम सार्थक करेगा. लेकिन उस की चालढाल से ऐसा कुछ लग नहीं रहा था. उसे इसलिए खरीदा गया था कि महल्ले में चोरियां अचानक बहुत बढ़ गई थीं. कोरोना के कारण लोगों की नौकरियां चली गई थीं. महंगाई चरम सीमा पर थी. गरीब लोगों को खाने के लाले पड़ गए थे. जगहजगह रात को चोरियां हो रही थीं. इसलिए इसे खरीदा गया कि कम से कम बाहर वह चौकीदारी तो करेगा. जब खरीद कर लाया तो सभी लोग उसे घेर कर बैठ गए थे. उस का नाम क्या रखा जाए, इस पर बहस होने लगी.

बड़े लड़के ने कहा, ‘टाइगर नाम अच्छा होगा. यह बहुत ही फेमस नाम है, हर गलीमहल्ले में टाइगर नाम का कुत्ता मिल जाएगा.

फिर छोटी बिटिया कहने लगी कि, ‘पापा, ‘सीजर’ नाम कैसा होगा?’ इस पर भी लोगों की सहमति नहीं बनी, क्योंकि उत्तर भारत में इस नाम के हजारों कुत्ते मिल जाएंगे. आखिरकार आधे घंटे की बहस के बाद ‘पिंकू’ नाम पर सहमति बन गई.

आदमी हो या जानवर, उस का नाम उस के काम से जाना जाता है. धीरेधीरे समय बीतने लगा. पिंकू में क्रूरता के स्थान पर मानवता झलकने लगी. जब छोटा था तो बच्चों को काटने को दौड़ता था. लेकिन बड़ा होते ही सब की गोद में जा कर बैठ जाता. पूंछ हिलाहिला कर पैरहाथ चाटने लगता. बाहरी के साथ भी उस का यही व्यवहार था. जिस उम्मीद के साथ उसे खरीद कर लाए थे, उस पर वह खरा नहीं उतर रहा था. खिलापिला कर इतना बड़ा किया, सोचा था कि घर की रखवाली मुस्तैदी से करेगा. बाहरी लोगों को अंदर नहीं आने देगा. लेकिन यह सब उलटा होने लगा.

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