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अपनी बरबादी के खुद जिम्मेदार हैं चौकलेटी ऐक्टर शाहिद कपूर

2003 में फिल्म ‘इश्कविश्क’ से अभिनय कैरियर की शुरूआत करने वाले अभिनेता शाहिद कपूर ने बौलीवुड में 20 वर्ष पूरे कर लिए हैं.मशहूर अभिनेता पंकज कपूर और अभिनेत्री नीलिमा अजीम के बेटे शाहिद कपूर का इन 20 वर्षों में अभिनय कैरियर जिस मुकाम पर पहुंचना चाहिए था,वहां तक नहींपहुंच पाया.उनके कैरियर में कई हिचकौले आए,उन्होंने कई बार असफलता का स्वाद चखा,पर वह हाशिए पर कभी नहीं गए.

पंकज कपूर व नीलिमा अजीम के बेटे होने के नाते अभिनय तो उनके खून में है पर वह डांसर के रूप में अपना कैरियर शुरू करना चाहते थे.इसीलिए उन्होंने शामक डावर से नृत्य का प्रशिक्षण लियाफिर 90 के दशक में वह ‘दिल तो पागल है’ व ‘ताल’ सहित कुछ फिल्मों में बैकड्रोप डांसर के रूप में काम किया.

कुमार सानू के स्वरबद्ध गाने के वीडियो मेंउन्हें काफी पसंद किया गया था.उनके कुछ म्यूजिक वीडियो को एडिट करने वाले केन घोष को शाहिद कपूर का चेहरा पसंद आ गया.वह बतौर निर्देशक अपने कैरियर की अगली पारी शुरू करना चाह रहे थेतो उन्होंने2003 में अपने कैरियर की पहली फिल्म ‘इश्कविश्क’ में शाहिद कपूर को अभिनय करने का अवसर दे दिया.इस तरह शाहिद कपूर के अभिनय कैरियर की शुरूआत हुई थी.

इश्कविश्क से शुरुआत

शाहिद कपूर एक अच्छे डांसर व अच्छे अभिनेता हैंपर रोमांस के पीछे भागने व अहम के शिकार होने के चलते उनके कैरियर में काफी उतारचढ़ाव आए.इसके लिए काफी हद तक खुद शाहिद कपूर ही जिम्मेदार हैं.शाहिद कपूर की पहली फिल्म ‘इश्कविश्क’ की लागत साढ़े 8 करोड़ थी और इसने 12 करोड़रुपए की कमाई कर ली थी.जबकि 2004 में आई दूसरी फिल्म ‘फिदा’ महज 10 करोड़रुपए में बनी थी और 16 करोड़ कमाए थे.

इन दोनों फिल्मों के निर्देशक एडीटर से निर्देशक बने केन घोष थे.मगर पूरे 7 वर्ष बाद जब केन घोष ने शाहिद कपूर को लेकर फिल्म‘चांस पे डांस’ बनाई,जिसे रौनी स्क्रूवाला ने बनाया था.30 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म महज 16 करोड़रुपए ही कमा सकी थी.इसके बाद रौनी स्क्रूवाला ने आज तक केन घोष व शाहिद कपूर के साथ कोई फिल्म नहीं बनाई.

उधर ‘चांस पे डांस’ के बाद सभी निर्माताओं ने केन घोष से किनारा कर लिया था. पूरे 7 वर्ष बाद केन घोष को एकता कपूर ने वैब सीरीज ‘देव डी’ निर्देशित करने का अवसर दिया था.उसके बाद से वह 5वैब सीरीज निर्देशित कर चुके हैं.मगर उन्हें फिल्म निर्देशित करने का अवसर नहीं मिला.केन घोष आज भी शाहिद कपूर के नाम से ही दूर भागते हैं.

फिर कपूर की ‘दिल मांगे मोर’, ‘दीवाने हुए पागल’,‘वाह लाइफ हो तो ऐसी’फिल्में आईं.यह तीनों फिल्में अपनी लागत वसूल करने में कामयाब रहीपर अब तक शाहिद कपूर अपनेआपको स्टार मानने लगे थे.लेकिन 2005 में प्रदर्शित छठी फिल्म ‘शिखर’अपनी लागत भी वसूल नहीं कर पाई.इस फिल्म की लागत 14 करोड़ रुपए थी और बौक्स औफिस पर बमुश्किल10 करोड़रुपए ही कमा सकी थी.पर इसके बाद ‘36 चाइना टाउन’ व ‘चुप चुप के’ को जबरदस्त सफलता मिली थी.

इन फिल्मों ने अपनी लागत से दोगुनी कमाई की थीपर 10 नवंबर,2006 को ‘राजश्री प्रोडक्शन’ निर्मित फिल्म ‘विवाह’ ने कमाल किया था. 8 करोड़ रुपए की लागत वाली इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर 53 करोड़रुपए कमा कर एक रिकौर्ड बनाया था.पर इस फिल्म की सफलता का सारा श्रेय शाहिद कपूर की बजाय ‘राजश्री प्रोडक्शन’ के हिस्से ही गया थालेकिन इसके बाद उनकी फिल्म ‘फुल एंड फाइनल’ बमुश्किल अपनी लागत वसूल कर पाई.

कैरियर पर पड़ता असर

वास्तव में 2004 में फिदा के फिल्मांकन के दौरान शाहिद कपूर ने करीना कपूर को डेट करना शुरू किया और उन दोनों ने सार्वजनिक रूप से इस रिश्ते के बारे में बात की.शाहिद व करीना के रिश्ते का शाहिद के कैरियर पर असर पड़ रहा था,जिसकी शाहिद को परवाह नहीं थी.2007में इम्तियाज अली ने शाहिद कपूर व करीना कपूर के निजी जीवन को भुनाते हुए दोनों को एक साथ लेकर 2007 में रोमांटिक कौमेडी फिल्म ‘जब वी मेट’बना डाली.

दोनों के निजी जीवन की केमिस्ट्री ने परदे पर भी अपना रंग दिखाया. महज 15 करोड़ रुपए में बनी फिल्म ‘जब वी मेट’ ने 51करोड़ रुपए कमा कर एक बार फिर शाहिद कपूर को सफल कलाकार बना दिया था.

तभी एक अखबार ने सार्वजनिक रूप से चुंबन करते हुए शाहिद कपूर व करीना कपूर की कई तस्वीरें छाप दींतो बवाल हो गया.जोड़े ने दावा किया कि यह फोटो मनगढंत है.पर यहीं से दोनों के रिश्ते में दरार आ गई. दोनों एकदूसरे से दूर हो गए.

कभी उतार कभी चढ़ाव

‘जब वी मेट’ के बाद जब शाहिद कपूर की अजीज मिर्जा निर्देशित फिल्म ‘किस्मत कनेक्शन’ आई,तो इसने निराश किया था.जबकि इस फिल्म में उस वक्त की स्टार जुही चावला व विद्या बालन थी.उसके बाद 2009 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘कमीने’ ने लागत से दोगुनी कमाई की थी.लेकिन यहां भी शाहिद कपूर बदकिस्मत रहेक्योंकि ‘कमीने’ की सफलता की वजह विशाल भारद्वाज माने गए.मगर इस फिल्म से उनकी निजी जिंदगी में बहारें आ गई.

फिल्म ‘कमीने’ में शाहिद कपूर को प्रियंका चोपड़ा संग काम करने का अवसर मिला.दोनों के बीच प्यार का टांका भी भिड़ गया.उसके बाद चर्चाएं गर्म रहीं कि शाहिद कपूर अभिनय की बजाय प्रियंका चोपड़ा संग रोमांस फरमाने में ज्यादा समय बिताते हैं.

‘कमीने’ के बाद मिलिंद उके निर्देशित ‘पाठशाला’के अलावा ‘बदमाश कंपनी’,‘मिलेंगे मिलेंगे’, ‘मौसम’ आदि फिल्में ठीकठाक चली.जबकि 22 जून,2012 को प्रदर्शित30 करोड़ रुपए की लागत में बनी कुणाल कोहली निर्देशित फिल्म ‘तेरी मेरी कहानी’ ने बौक्स औफिस पर 53 करोड़ रुपए कमा कर शाहिद कपूर के कैरियर को एक नई उंचाई दी थी.

इस रोमांटिक कौमेडी फिल्म में शाहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा की जोड़ी थी.निजी जीवन की केमिस्ट्री ने परदे पर भी कमाल दिखाया.शाहिद कपूर के साथ ही प्रियंका चोपड़ा की भी तिहरी भूमिका थी.

फिर वह 30 करोड़ रुपए की लागत में बनी करण जोहर की फिल्म ‘‘बौम्बेटौकीज’ बौक्स औफिस पर महज10 करोड़ रुपए ही कमा सकी थी.इससे शाहिद कपूर के कैरियर पर खास असर नहींपड़ा थाक्योंकि इस फिल्म में शाहिद कपूर ने किसी किरदार को निभाने की बजाय शाहिद कपूर के रूप में ही मौजूद थे.इस फिल्म में रानी मुखर्जी,रणदीप हुडा सहित काफी कलाकार थे.

‘कमीने’ से कला को पहचान

फिर 20 सितंबर,2013 को राज कुमार संतोषी निर्देशित और ‘टिप्स’ कंपनी निर्मित फिल्म ‘फटा पोस्टर निकला हीरो’ में इलियाना डी क्रूज संग शाहिद कपूर नजर आए थे.इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर ठीकठाक कमाई कर ली थी.मगर निर्देशक राज कुमार संतोषी शायद शाहिद कपूर के व्यवहार से खुशनहीं थे. क्योंकि इस फिल्म के प्रमोशन के दौरान हमसे राज कुमार संतोषी ने कहा था, ‘‘जल्द ही वह वक्त आने वाला है जब हर कलाकार घर घर जाकर अपने फैंस व दर्शक को टिकट बेचता या मुफ्त में देता हुआ नजर आएगा.’’राज कुमार संतोषी ने उस वक्त जो कुछ कहा था,वह पिछले कुछ माह से होता हुआ नजर आ रहा है.

इसके बाद प्रभूदेवा निर्देशित रोमांटिक एक्शन फिल्म ‘आर राजकुमार’मेंशाहिद कपूर ने सोनाक्षी सिन्हा व सोनू सूद के साथ अभिनय किया था. फिल्म आलोचकों को यह फिल्म पसंद नहीं आई थी. 6 दिसंबर,2013 में प्रदर्शित इस फिल्म की लागत 38 करोड़ रुपए थीपर बौक्स औफिस पर इसने 100 करोड़रुपए कमा लिए थे.

‘कमीने’ को मिली अपार सफलता के बावजूद पूरे 5 वर्ष बाद विशाल भारद्वाज ने फिल्म ‘हैदर’ में शाहिद कपूर को तब्बू,श्रृद्धा कपूर,के के मेनन,इरफान खान जैसे कलाकारों के साथ जोड़ा.2 अक्टूबर,2014 को प्रदर्शित35 करोड़रुपए की लागत में बनी इस फिल्म ने 85 करोड़रुपए कमाकर विशाल भारद्वाज को खुश कर दिया था.यहां से शाहिद कपूर के अंदर ‘स्टार’ हो जाने का भाव ऐसा गहराया कि प्रियंका चोपड़ा संग रिश्ते का खत्मा हो गया.

जीवन में आई मीरा

मार्च 2015 में शाहिद कपूर की मुलाकात अपनी उम्र से 13 साल छोटी नई दिल्ली के एक विश्वविद्यालय की छात्रा मीरा राजपूत से हुई,जिसके सामने शाहिद कपूर ने शादी का प्रस्ताव रखा.फिर इस जोड़े ने 7 जुलाई,2015 को गुड़गांव में एक निजी समारोह में शादी रचा ली. अगस्त 2016 में बेटी मिशा और सितंबर 2018 में बेटे जैन के वह मातापिता बने.

लेकिन अक्टूबर 2015 बाद विकास बहल के निर्देशन में बनी फिल्म ‘शानदार’ ने सब कुछ चौपट कर दिया था.यह फिल्म अपनी लागत वसूल नहीं कर पाई थी.इस फिल्म में शाहिद कपूर के साथ आलिया भट्ट और शाहिद कपूर की सौतेली बहन सना कपूर भी थी.पर उस वक्त ‘हैदर’ की वजह से शाहिद कपूर का पलड़ा इतना भारी था कि फिल्म की असफलता का सारा दोषारोपण विकास बहल के मत्थे मढ़ दिया गया था.दूसरी बात शाहिद कपूर अपनी वैवाहिक जिंदगी में भी रमे हुए थे.

उसके बाद पंजाब में फैले ड्रग्स के कारोबार व ड्रग्स में डूबी युवा पीढ़ी को चित्रित करती फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ प्रदर्शित हुई. प्रदर्शन से पहले यह फिल्म काफी विवादों में रही. सैंसर बोर्ड इसे पारित करने को तैयार नहीं था.पर अदालती आदेश के बाद ‘उड़ता पंजाब’ को सैंसर प्रमाणपत्र मिला था.17 जून,2016 को प्रदर्शित फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ मेंशाहिद कपूर,आलिया भट्ट के साथ करीना कपूर थी.34 करोड़ रुपए में बनी इस फिल्म ने लगभग 100 करोड़ रुपए कमा लिए थे.पर किस्मत ने शाहिद कपूर का साथ नहीं दिया. लोगों ने कहा कि विवादों की वजह से इस फिल्म को बौक्स औफिस पर सफलता मिली.

‘कमीने’ और ‘हैदर’ की सफलता से उत्साहित विशाल भारद्वाज ने 2017 में शाहिद कपूर को लेकर तीसरी फिल्म ‘रंगून’ बनाई.इसमें सैफ अली खान व कंगना रनौत भी थी. 80 करोड़ रुपए की लागत में बनी यह फिल्म बौक्स औफिस पर अपनी आधी लागत भी वसूल नहीं कर पाई.

2018 में संजय लीला भंसाली की विवादास्पद फिल्म ‘‘पद्मावत’ ने बौक्स औफिस पर अच्छी सफलता दर्ज कराकर एक बार फिर शाहिद कपूर के अंदर उत्साह का संचार किया.यह अलग बात है कि इस फिल्म में शाहिद कपूर के अभिनय की फिल्म आलोचकों ने जमकर आलोचना की थी. लोगों ने फिल्म की सफलता का सारा श्रेय निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण को दिया था.लेकिन 2018 में ही ‘वेलकम टू न्यूयौर्क’ और ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ फिल्मों की असफलता ने शाहिद कपूर के कैरियर पर सवालिया निशान लगा दिया था. बौलीवुड में चर्चाएं शुरू हो गई थी कि शाहिद कपूर का कुछ नहीं हो सकता.

अहम का नशा

तभी 2019 में मलयाली फिल्म निर्देशक संदीप रेड्डी वेंगा की फिल्म ‘कबीर सिंह’ में शाहिद कपूर ने शीर्ष भूमिका निभाकर हंगामा बरपा दिया.फिल्म में शाहिद कपूर और किआरा आडवाणी के बीच के चुंबन दृश्यों व शाहिद कपूर के हिंसात्मक रूप सर्वाधिक चर्चा में रहा.महज 8 करोड़ रुपए की लागत से बनी इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर 379 करोड़ रुपए कमाकर इतिहास रच दिया था.

मगर इस फिल्म की सफलता के नशे में शाहिद कपूर इस कदर चूर हुए कि खुद ही अपने कैरियर में कील ठोंक दी.वास्तव में लोगों को उम्मीद थी कि ‘कबीर सिंह’ को जितनी बड़ी सफलता मिली है,उसे देखते हुए शाहिद कपूर के पास कम से कम दर्जन भर नई फिल्मों की कतार लग जाएगी.मगर शाहिद कपूर निजी जीवन में भी कबीर सिंह बनकर खुद को ही सब से बड़ा समझदार सुपर स्टार साबित करते हुए निर्माताओं के सामने अजीबोगरीब शर्तें रखने लगे.

शर्ते न माने जाने पर शाहिद कपूर ने पटकथा पसंद नहीं आ रही है,कहकर फिल्में ठुकरानी शुरू कर दी.बड़ी मुश्किल से अक्तूबर 2019 में शाहिद कपूर ने निर्देशक गौतम तिन्नूरी की फिल्म ‘जर्सी’ को साइन किया,जो कि गौतम निर्देशित तेलगू फिल्म ‘जर्सी’ का हिंदी रीमेक थी.

इस फिल्म की शूटिंग के दौरान उनके स्टारी नखरों की जबरदस्त चर्चा रही.22 अप्रैल,2022 को जब यह फिल्म सिनेमाघरों में पहुंची तो 80 करोड़रुपए की लागत में बनी यह फिल्म महज 27 करोड़रुपए ही कमा सकी.जिसका खामियाजा शाहिद कपूर को ही भुगतना पड़ा.माना कि इस फिल्म के कई दृष्यों में शाहिद कपूर ने फिल्म ‘कबीर सिंह’ की ही तरह अभिनय किया था,मगर पूरी फिल्म में उनके अभिनय की तारीफ की गई थी.

‘जर्सी’ की वजह से निर्माता को 60 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ,जिसके चलते उनकी फिल्म ‘ब्लडी डैडी’ को वितरक नहीं मिले.निर्माता निर्देशक अली अब्बास जफर ने इस फिल्म को ‘जियो सिनेमा’ पर दे दिया.सभी जानते हैं कि जियो सिनेमा मुफ्त में देखा जाने वाला ओटीटी प्लेटफौर्म है.फिर भी इसे दर्शकनहीं मिले.इस फिल्म में शाहिद कपूर के अभिनय की कटु आलोचनाएं भी हुईं.

देवा का क्या होगा

शाहिद कपूर की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपनी सफलता व असफलता दोनों को ही पचा नहीं पाते.इसके अलावा वह हमेशा अहम में जीते हैं.उन्हें लगता है कि वह जो सोचते हैं,वही सच है.कई बार वह पत्रकारों से भी उलझ जाते हैं.इतना ही नहीं उनके अंदर खुद को महान साबित करने की बड़ी बीमारी है.इसी के चलते शाहिद कपूर से बौलीवुड के कई फिल्म सर्जकों ने दूरी बना ली है.‘कबीर सिंह’ को मिली सफलता के बाद दक्षिण भारत के कुछ फिल्मकार उनको लेकर प्रयोग करना चाहते हैं.मगर शाहिद कपूर हकीकत को समझना नहीं चाहते.उनकी हकरतों की ही वजह से उनकी नई फिल्म ‘देवा’ का भविष्य भी अंधकारमय नजर आने लगा है.

ज्ञातब्य है कि इसी साल दशहरे के अवसर पर खुद शाहिद कपूर ने सोशल मीडिया पर बड़े जोश के साथ घोषणा की थी कि वह मलयालम सिनेमा के लोकप्रिय निर्देशक रोशन एंड्रयूज के निर्देशन में फिल्म ‘देवा’ कर रहे हैं,जिसमें पूजा हेगड़े उनकी हीरोइन हैं और वह इस फिल्म में पुलिस अधिकारी के किरदार में नजर आने वाले हैं.

यह फिल्म अगले वर्ष दशहरे के अवसर पर 11 अक्टूबर,2024 को प्रदर्शित होगीलेकिन इस फिल्म के निर्माण को लेकर अच्छी खबरेंनहीं आ रही हैं.कुछ दिन पहले खबर आई थी कि ‘देवा’ के सेट पर शर्ट पहनने को लेकर शाहिद कपूर व निर्देशक रोशन एंड्रयूजके बीच तूतूमैंमैं हो गई.अंततः शाहिद कपूर को वही शर्ट पहनकर दृष्य फिल्माना चाहते थे,जिसे वह पहनना नहीं चाहते थे,पर रोशनएंड्रयूज उसी शर्ट में वह दृष्य फिल्माना चाहते थेतो शाहिद कपूर को निर्देशक के आगे झुकना पड़ा था.

इस खबर के उड़ने के बाद शाहिद कपूर ने निर्देशक रोशन एंड्रयूजकी प्रशंसा भी की थी.पर ‘देवा’ के सेट पर सब कुछ ठीक नहीं है.फिलहाल खबरें गर्म हैं कि शाहिद कपूर ने 10 दिन लगातार शूटिंग कर जिन दृष्यों को फिल्माया था,उन्हें देखने के बाद अब शाहिद कपूर ने निर्देशक से कहा है कि 10 दिन में से 6 दिन की शूटिंग के दृष्यों को पुनः फिल्माया जाए.

शाहिद कपूर का कहना है कि 6 दिन के दृष्यों में उनके साथ जो दूसरे कलाकार हैं,वह उन्हें पसंद नहींहैं.इसलिए वह उन कलाकारों की जगह नए कलाकारों का चयन कर दृश्यों को पुनः फिल्माए.शाहिद कपूर के इस रवैए से निर्देशक हैरान हैं.कुछ सूत्रों का मानना है कि इस तरह शाहिद कपूर अपनेआपको स्टार साबित करने के साथ ही निर्देशक द्वारा एक दृष्य में उनकी पसंद की शर्ट न पहनने देने के लिए सबक भी सिखाना चाहते हैं.

तो वहीं कुछ सूत्रों का दावा है कि निर्देशक रोशन एंड्रयूज,शाहिद कपूर की बात नहीं मानने वाले हैं.वर्तमान हालात ऐसे हैं जहां फिल्म ‘देवा’ की सबसे ज्यादा जरुरत शाहिद कपूर को हैक्योंकि उनका कैरियर इस वक्त दांव पर लगा हुआ हैजबकि रोशन एंड्रयूजकी गिनतीतो सफलतम निर्देशकों में होती है.

कुछ लोगों की राय में यह मसला आगामी फरवरी माह तक अधर में लटका रह सकता है.क्योंकि शाहिद कपूर व कृति सैनन की एक अनाम फिल्म 9 फरवरी, 2024 को रिलीज होने वाली है,जिसमें कृति सैनन एक रोबोट की भूमिका में और शाहिद कपूर एक वैज्ञानिक की भूमिका में हैं.

धर्मेंद्र इस फिल्म में शाहिद के दादा की भूमिका में हैं.यदि यह फिल्म 9 फरवरी,2024 को प्रदर्शित हो गई और सफलता मिल गई,तब ‘देवा’के बंद होने के आसार पैदा हो सकते हैं.पर यदि फिल्म ने बौक्स औफिस पर पानी भी नहीं मांगा,तब शाहिद कपूर के सामने निर्देशक रोशन एंड्रयूजके आगे घुटने टेकने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा.

समाज सेवा भी

पर्यावरण जागरूकता का समर्थन करने और ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली आपूर्ति में सुधार करने की पहल के तहत 2010 में शाहिद कपूर ने 3 गांव गोद लिए थे.2012 में कपूर ने श्यामक डावर द्वारा स्थापित विक्ट्री आर्ट्स फाउंडेशन एनजीओ को पुनर्जीवित करने में मदद की, जो नृत्य चिकित्सा कार्यक्रमों के माध्यम से वंचित बच्चों की मदद करता है.2012 में ही कैंसर पर जागरूकता पैदा करने के लिए जोया अख्तर की एक लघु फिल्म ‘बिकौज माई वर्ल्ड इज नौट द सेम’ में अन्य बौलीवुड हस्तियों के साथ दिखाई दिए.

खुद को इमेज में न बंधने देने की चुनौती स्वीकार की

शुरूआती दौर में शाहिद कपूर की इमेज ‘बौय नेक्स्ट डोर’ की रही है.राजश्री की फिल्म ‘विवाह’ में भी उनकी यह इमेज उभरकर आई थी.पर धीरेधीरे फिल्म आलोचकों ने शाहिद कपूर की इस इमेज को उनकी कमजोरी कहना शुरू कर दिया.आलोचकों की इस बात का जवाब देने के लिए शाहिद ने 2009 में ‘कमीने’ की और अपनेआपको ‘कमीना’ इंसान के रूप में पेश किया.

इतना ही नहीं शहरी रोमांटिक भूमिकाओं में पहचान हासिल करने के बाद कपूर ने एक्शन फिल्मों में विभिन्न किरदार निभाकर अपनी इमेज को तोड़ा.इस वजह से भी उनके कैरियर में कई उतारचढ़ाव आए.शाहिद कपूर उन कलाकारों में से हैं,जिनके मोम के पुतले का 2019 में मैडम तुसाद सिंगापुर में अनावरण किया गया.

बेअसर एक और युद्ध फिल्म पिप्पा

भारतपाक के बीच जितने भी युद्ध हुए हैं उन में सिनेप्रेमियों की दिलचस्पी हमेशा से रही है. फिल्म ‘शेरशाह’ भी भारतपाक युद्ध पर थी जिस का नायक एक युवा था. अब आगे ‘इक्कीस’ पर काम शुरू हो चुका है. इसी बीच भारतपाक युद्ध पर एक और फिल्म आई है, जिस का नाम है ‘पिप्पा’.

इस फिल्म में भारत ने एक ऐसे टैंक का इस्तेमाल किया था जो जमीन पर चलने के साथसाथ पानी में भी तैर सकता था और इसलिए पंजाब रैजीमैंट के जवानों ने उसे प्यार से पिप्पा नाम दिया. पिप्पा घी का वह कनस्तर होता है जो पानी में आराम से तैर सकता है.

यह उभयचर टैंक जिसे पीटी-76 और पलावुशी टैंक कहा जाता है, एक अनोखा टैंक था जिसे उभयचर अभियानों के लिए डिजाइन किया गया था और इस का उपयोग युद्ध के दौरान नदियों को पार करने के लिए किया गया था.

यह टैंक युद्ध के दौरान बहुत महत्त्वपूर्ण था जिस ने युद्ध में जीत के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सेना के पास बचा इकलौता असली पीटी-76 टैंक इस फिल्म में दिखाया गया है. बताते हैं कि फिल्म की शूटिंग के आखिरी दिन इस टैंक ने भी जलसमाधि ले ली थी.

निर्देशक राजाकृष्णा मेनन ने अपनी इस फिल्म में पिप्पा यानी पीटी-76 टैकों से पाकिस्तान के टैंकों को आग लगा दी थी. इस फिल्म में उस ने बलराम सिंह (ईशान खट्टर), उन के परिवार, उन की यूनिट और पूर्वी पाकिस्तान के हालात के साथसाथ पिप्पा की भूमिका को भी दिखाया है.

पिप्पा एक युद्ध फिल्म है, जिस में कुछ हीरो हैं, उन की बैकस्टोरी है, उन का दर्द है. फिल्म में कुछ अगलबगल के ट्रैक भी हैं. फिर भी यह फिल्म दिल को छू नहीं पाती, दिमाग पर असर नहीं कर पाती. इसे देख कर मुट्ठियां नहीं भिचतीं, भुजाएं नहीं फड़कतीं, हालांकि इस के युद्ध सीन सजीव हैं.

यह फिल्म अमृतसर, अहमदनगर, पश्चिम बंगाल के अंदरूनी इलाकों की पृष्ठभूमि पर आधारित है. यह फिल्म देशभक्ति और वीरता की कहानी है जिस में 45 कैवेलरी टैंक स्क्वाड्रन के कैप्टन बलराम मेहता की जिंदगी की झलकियां दिखती हैं.

पिप्पा को ले कर सीओ कमांडिंग ने उसे चुनौती दी पीटी-76 टैंक की 3 फौजियों को बढ़ा कर 4 फौजियों की जगह बनाने की. बलराम ने उसे कर दिखाया. मानेक्क्षा ने इस काबिल लड़के को तुरंत फ्रंट पर रवाना करने का हुक्म दिया. वह नौजवान अपने शहीद फौजी पिता के बूट्स उठा कर चल निकला एक ऐसे मिशन पर जिस की मिसाल दुनिया में दूसरी नहीं मिलती. भारत ने पाकिस्तान से युद्ध किया और बनाया एक नया देश बंगलादेश.

इस फिल्म में बलराम के साथ जो टैंक परदे पर आया वह असली पीटी-76 टैंक ही है. इस टैंक के हमले से धूधू कर जलते पाकिस्तान के चैफी टैंकों के नाम पर ही ब्रिगेडियर मेहता ने अपनी किताब का नाम रखा ‘द बर्निंग चैफीज’.

यह फिल्म पाकिस्तान से बंगलादेश की आजादी पर आधारित है. ‘पिप्पा’ में ईशान खट्टर एक सैनिक की भूमिका में है, जो बंगलादेश के 6 करोड़ लोगों को आजाद कराने के लिए पाकिस्तान से युद्ध लड़ रहा है. फिल्म में प्रियांशु ईशान खट्टर के बड़े भाई का किरदार निभा रहे हैं.

प्रियांशु राम जबकि ईशान खट्टर बलराम मेहता का किरदार निभा रहे हैं. फिल्म के शौट्स अच्छे बने हैं, जैसे युद्ध के लिए एक नदी पार करने के लिए एक टैंक का उपयोग करने वाला सीन.

भारतपाकिस्तान और 1971 के युद्ध पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं. इस बार ईशान खट्टर कुछ अलग ले कर आए हैं. इस में पारिवारिक ड्रामा और युद्ध की भयावहता दोनों दिखाई गई है. साथ ही, देशभक्ति की भावना और खुद को साबित करने की उत्सुकता भी है.

फिल्म के प्रोडक्शन डिजाइनर ने दर्शकों को 5 दशक पीछे ले जा कर पूरा एहसास कराने का काम किया है. इतिहास गवाह है कि पूर्वी पाकिस्तान के आजाद हो कर बंगलादेश बनने के उस संघर्ष को दबाने के लिए वहां के करीब 30 लाख लोगों को मार दिया गया था और करीब 3 लाख औरतों के साथ बलात्कार किए गए थे.

मुक्तिवाहिनी के उस संघर्ष में भारत की प्रमुख भूमिका थी और पूर्वी मोरचे पर पाकिस्तान को हराने में वहां के गरीबपुर में हुई निर्णायक लड़ाई की थी. गरीबपुर की लड़ाई के हीरो कैप्टन बलराम सिंह मेहता थे.

‘पिप्पा’ फिल्म बुरी नहीं बनी है. शुरू से ही यह अपने मुख्य किरदारों की सोच को स्पष्ट कर देती है. बलराम के बागी तेवर दिखा कर यह स्थापित करती है कि यह बंदा कल को मैदान में क्या रुख अपनाएगा. अपने बड़े भाई और 1965 की लड़ाई के हीरो मेजर राम से बलराम का खुंदक रखना अजीब लगता है. बलराम की बहन (मृणाल ठाकुर) की शादी वाला ट्रैक भी मिसफिट है. पूरी फिल्म में दृश्यों के बीच का तालमेल बारबार टूटता है.

सैम के किरदार में कंवल सदाना जंचे हैं. बलराम बने ईशान खट्टर ने अपने किरदार में जोर लगाया है. कलाकार अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. इनामउल हक ने शानदार काम किया है. ‘परवाना…’ वाले गाने को छोड़ कर बाकी का गीतसंगीत औसत है.

सच यह है, यह फिल्म पूरी तरह से पिप्पा की कहानी नहीं है न ही बलराम की और न ही बंगलादेश के जन्म की. यह फिल्म आधे भरे कनस्तर की तरह है. यही अधूरापन इस फिल्म की कमी है.

सर्दी के मौसम में क्यों बढ़ जाते हैं फेफड़ों के रोग

सर्दी का मौसम शुरू होते ही देश की राजधानी दिल्ली प्रदूषण से बेहाल हो जाती है. पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान धान की कटाई के बाद उन की जड़ों को खोद कर निकालने की जगह पर उन को जलाने का काम करते हैं. धान के इन बचे सूखे पौधों को ही पराली कहा जाता है. किसान धान की कटाई मशीनों से करते हैं. मशीन धान के पौधे को 6 इंच ऊपर से काट लेती है. 6 इंच के ये सूखे धान के पौधे खेत में बच जाते हैं. इन को एकएक कर खोद कर निकालना महंगा पड़ता है. ऐसे में किसान इन को जला देता है. इन का धुआं दिल्ली की सेहत को खराब कर देता है.

इस वक्त सर्दी का मौसम होता है, इस कारण पराली का धुआं ऊपर नहीं जा पाता. इस के अलावा दीवाली भी इसी दौरान होती है जिस में पटाखों का खूब प्रयोग किया जाता है. कई बार लोग सर्दी से बचने के लिए खराब प्लास्टिक टायर भी जलाते हैं. इन सब का मिलाजुला प्रभाव दिल्ली वालों की सेहत को बिगाड़ देता है, जिस वजह से दिल्ली दिल वालों की जगह प्रदूषण वालों की नगरी होती जा रही है.

इस प्रदूषण की वजह से लोगों की तकलीफें काफी बढ़ गई हैं, खासकर उन लोगों के लिए दिल्ली बेहद खतरनाक हो जाती है जिन को श्वास संबंधी किसी भी तरह की दिक्कत होती है.

यूपीए की चेयरपर्सन और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को डाक्टरों की सलाह पर प्रदूषण से बचने के लिए दिल्ली छोड़ कर जयपुर जाना पड़ा. हवा में प्रदूषण का प्रभाव सभी पर पड़ता है. जिन लोगों को श्वास संबंधी दिक्कतें होती हैं उन के सामने खतरे बढ़ जाते हैं. इस की वजह यह होती है कि औक्सीजन की कमी और धुएं का लंग्स यानी फेफड़ों पर असर पड़ता है. फेफड़ों की सेहत खराब होती है, जिस से शरीर को सही तरह से औक्सीजन नहीं मिल पाती है. सांस लेने की दिक्कत हो जाती है. कई बार यह जानलेवा हो जाता है. यही वजह है कि लोगों को इस तरह के वातावरण में रहने से मना किया जाता है.

जीवन पर खतरे को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट तक इस पर गंभीर है. दिल्ली सरकार को नकली बारिश करानी पड़ी. प्रदूषण को रोकने के लिए कई तरह के फैसले दिल्ली में लेने पड़े. इस के बाद भी श्वास संबंधी रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है. ऐसे में जरूरी है कि हम फेफड़ों के महत्त्व को समझें और उन को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी उपाय करें.

फेफड़ों का महत्त्व

मानव का शरीर जीवित रहने के लिए सांस लेता है. सांस के रूप में हवा में मौजूद औक्सीजन हम लेते हैं. फेफड़ों का काम सांस लेने और औक्सीजन को पूरे शरीर में पहुंचाने का होता है. फेफड़ों की रचना इस प्रकार होती है कि वे शरीर की बाहरी क्षति से हिफाजत कर सकें. फेफड़े बिना किसी जानकारी के अपना काम लगातार करते रहते हैं.

इस के बाद भी कुछ वजहों से फेफड़ों को भी नुकसान पहुंच सकता है और वे हवा से औक्सीजन लेने व कार्बन डाइऔक्साइड को बाहर निकालने की अपनी क्षमता खो सकते हैं.

शरीर की कोशिकाओं को जीवित रहने और सही तरह से काम करने के लिए औक्सीजन की आवश्यकता होती है. जिस हवा में हम सांस लेते हैं उस में औक्सीजन और अन्य आवश्यक गैसें मौजूद होती हैं. श्वसन तंत्र का पहला काम नई वायु को शरीर में अंदर लेना और अपशिष्ट गैसों को शरीर से बाहर निकालना होता है.

फेफड़ों में प्रवेश करने के बाद औक्सीजन शरीर के रक्तप्रवाह में प्रवेश करती है. फिर शरीर में प्रत्येक कोशिका से अपशिष्ट गैस कार्बन डाइऔक्साइड का औक्सीजन से आदानप्रदान हो जाता है. उस के बाद रक्तप्रवाह से यह अपशिष्ट गैस फिर से फेफड़ों तक लाई जाती है जहां इसे शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है. यह गैस विनिमय कहलाता है, जो फेफड़ों और श्वसन तंत्र द्वारा स्वाभाविक रूप से किया जाने वाला एक अहम कार्य होता है. यह मूलभूत जीवन के लिए बेहद जरूरी होता है.

इस के अलावा श्वसन तंत्र श्वसन संबंधी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों को भी पूरा करता है. यह शरीर को हानिकारक विषैले पदार्थों से बचाता है.

यह कार्य वह खांसी और छींक के जरिए करता है. गंध लेने की क्रिया के जरिए भी यह शरीर को खतरों से बचाने का काम करता है. जैसे, हम कोई खराब चीज खाने जा रहे होते हैं तो सब से पहले हमें उस की गंध बताती है कि यह खाने वाला है या नहीं, उसी तरह से जब हम कोई खराब चीज खा लेते हैं तो शरीर उसे रक्त में घुलने से पहले ही शरीर से उलटी के जरिए बाहर करने का काम करता है.

फेफड़ों की संरचना

फेफड़े छाती में पसलियों के पीछे और हृदय के दोनों ओर स्थित होते हैं. ये लगभग शंकु के आकार के होते हैं. इन का आधार समतल होता है जो डायफ्राम से जुड़ता है और इन का शिखर एक गोलाकार सिरा सा होता है.

जिस्म में फेफड़ों की संख्या 2 होती है. ये आकार व रूप में एकदूसरे से थोड़ा भिन्न होते हैं. दाहिना फेफड़ा नीचे लिवर के लिए जगह बनाने के लिए आकार में थोड़ा छोटा होता है. वहीं, बाएं फेफड़े में हृदय के स्थान के पास एक इंडेंटेशन शामिल होता है जिसे कार्डियक नौच कहते हैं. यही उस क्षेत्र की सीमा बनाता है जहां हृदय उपस्थित होता है. बाएं फेफड़े का वजन और क्षमता दाएं फेफड़े की तुलना में थोड़ा कम होती है.

फेफड़े 2 ?िल्लियों से घिरे होते हैं, जिन्हें प्लूरा कहा जाता है. बाहरी ?िल्ली पसली के पिंजरे की अंदरूनी दीवार से जुड़ी होती है. आंतरिक ?िल्ली फेफड़ों की बाहरी सतह से सीधी जुड़ी होती है. 2 ?िल्लियों के बीच के प्लूरा अंतराल में फुफ्फुस द्रव मौजूद होता है जो प्लूरा को आर्द्र रखता है और सांस लेने के दौरान होने वाले घर्षण को कम करता है.

फेफड़ों का पहला कार्य बाहरी वातावरण से वायु लेना और उस में मौजूद औक्सीजन को रक्त में प्रवाहित करना होता है. यह औक्सीजन रक्त से शरीर के बाकी हिस्सों में फैल जाती है. शरीर के अंग, जैसे डायफ्राम मांसपेशी, पसलियों के बीच के इंटरकोस्टल मांसपेशी, पेट की मांसपेशियां और कभीकभी गरदन की मांसपेशी भी सांस लेने में सहायता करती हैं.

डायफ्राम मांसपेशी फेफड़ों के नीचे स्थित होती है और इस का ऊपरी भाग गुंबदाकार होता है. जब डायफ्राम संकुचित होती है तो यह नीचे चली जाती है जिस के कारण छाती की गुहा बढ़ जाती है और वह फेफड़ों की फैलने की क्षमता को बेहतर बनाती है.

जैसेजैसे जगह बढ़ती है वैसेवैसे ही छाती की गुहा में दबाव कम होता जाता है जिस के परिणामस्वरूप वायु मुंह या नाक के माध्यम से फेफड़ों में आने में सक्षम हो जाती है. जब डायफ्राम अपनी आराम स्थिति में वापस आती है और इस की मांसपेशियां शिथिल होती हैं तब फेफड़ों की क्षमता कम हो जाती है. जिस के कारण छाती की गुहा में दबाव बढ़ जाता है और फेफड़े वायु को बाहर छोड़ते हैं.

मुंह या नाक में प्रवेश करने के बाद वायु ट्रेकिआ, जिसे आमतौर पर श्वासनली भी कहते हैं, से हो कर गुजरती है. इस के बाद यह कैरिना नामक स्थान में पहुंचती है. कैरिना में श्वासनली 2 भागों में विभाजित हो जाती है जिस से 2 मुख्य स्टेम ब्रांकाई बन जाती हैं. उन में से एक दाईं ओर दूसरी बाईं ओर जाती है.

पाइप की आकार की ब्रांकाई पहले छोटे ब्रांकाई में विभाजित होती है और फिर वृक्ष की शाखाओं की तरह और भी छोटी ब्रोंकिओल में विभाजित हो जाती है. यह श्वासनलिका लगातार छोटी होती जाती है और अंत में एल्विओली नामक छोटी वायु थैलियों में समाप्त होती है, जहां गैस का विनिमय होता है.

औक्सीजन की कमी का लंग्स पर प्रभाव

कोविड संक्रमण के दौरान औक्सीजन की महत्ता लोगों की सम?ा में आ गई. इस की वजह यह थी कि कोरोना वायरस का संक्रमण सीधे फेफड़ों पर असर करता था, जिस से कुछ मरीजों में औक्सीजन लैवल कम होने लगता था. औक्सीजन की कमी ने कुछ मरीजों के दिल पर भी असर डाला, जिस का प्रभाव उन के जीवन पर पड़ा. फेफड़ों के खराब होने पर पूरी तरह सांस लेने में दिक्कत होने लगती है. सांस फूलने लगती है. लंबी सांस लेने पर खांसी आने लगती है. कई बार सांस लेने में दर्द महसूस होता है. सांस लेते समय चक्कर आता है. अगर शरीर में औक्सीजन के लैवल में गिरावट नहीं है तो दिल और फेफड़े दोनों को ही सेहतमंद माना जाता है.

लंग्स को मजबूत करने के लिए ऐक्सरसाइज करना बेहद जरूरी होता है. इस के लिए ‘ब्रीथ होल्ंिडग ऐक्सरसाइज’ कर सकते हैं. इस में पहले सांस मुंह में भर लें और फिर रोकें. अगर आप 25 सैकंड तक सांस रोकने में सफल रहते हैं तो आप के फेफड़े सेहतमंद हैं. इसे कम से कम 6 महीने तक करने से लंग्स को लाभ होगा.

फेफड़े बैलून की तरह होते हैं. कई बार जब हम सांस लेते हैं, फेफड़ों के बाहरी हिस्से तक सांस नहीं पहुंचती. लेकिन जब हम इस तरह की ऐक्सरसाइज करते हैं तो उन हिस्सों में भी औक्सीजन जाती है. वे खुल जाते हैं, सिकुड़ते नहीं हैं. लंग्स को मजबूत करने के लिए ब्रीदिंग ऐक्सरसाइज करनी चाहिए. रोजाना भाप लेने, गरारे करने और मास्क पहने रखने से फेफड़ों को सेहतमंद रखा जा सकता है. साथ ही, खाने में मिर्च और मसालों का सेवन कम करना भी आप के फेफड़ों के लिए अच्छा है.

लंग्स पर धुएं का असर

लंग्स पर धुएं का प्रभाव पड़ता है. यही कारण है कि जब पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में धान के किसानों द्वारा पराली जलाई जाती है तो दिल्ली तक इस का असर होता है. दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ जाता है, जिस से सांस की बीमारियों के साथ ही साथ शरीर में औक्सीजन का लैवल कम होने लगता है.

सरकार से ले कर कोर्ट तक इस की चिंता करने लगते हैं. इस से बचने के लिए धुएं को खत्म करने को नकली बरसात तक करानी पड़ती है. टीबी यानी क्षय रोग का भी सब से बड़ा कारण धुआं होता है. पहले गांवों में लकड़ी और कंडों को जला कर खाना बनाया जाता था जिस का प्रभाव औरतों की सेहत पर पड़ता था. उन की आंखें और फेफड़े दोनों खराब होते थे. उन की उम्र कम हो जाती थी. वे कम उम्र में ही बूढ़ी नजर आने लगती थीं.

धुएं में छोड़े गए रसायनों, जैसे हाइड्रोजन क्लोराइड, फौस्जीन, सल्फर डाइऔक्साइड, विषाक्त एल्डिहाइड रसायन और अमोनिया आदि खतरनाक कैमिकल पाए जाते हैं. सांस लेने की प्रक्रिया में ये फेफड़ों यानी लंग्स के अंदर पहुंच जाते हैं. ये फेफड़ों में जमने लगते हैं, जिस से फेफड़ों में सूजन आ जाती है और फेफड़े बीमार हो कर अपना काम सही तरह से नहीं कर पाते. फेफड़ों की ओर जाने वाले छोटे वायुमार्ग संकरे हो जाते हैं, जिस से वायुप्रवाह में और रुकावट आती है. सांस लेने में दिक्कत के साथ ही साथ औक्सीजन कम मात्रा में पहुंचने लगती है, जिस का प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता है.

धूल, धुआं और धूम्रपान का प्रभाव लंग्स पर पड़ता है. इस संबंध में जागरूकता के लिए हर साल 12 नवंबर को विश्व निमोनिया दिवस मनाया जाता है. धूल, धुआं और धूम्रपान के प्रभाव से लंग्स को निमोनिया नामक बीमारी हो जाती है. इस कारण ही इस से बचने की सलाह दी जाती है. धूल, धुआं और धूम्रपान वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण होते हैं. वायु प्रदूषण के कारण लंग्स की बीमारियां बढ़ रही हैं.

जो महिलाएं या पुरुष धूम्रपान करते हैं उन का असर उन के साथ ही साथ उन के बच्चों पर भी पड़ता है. बच्चों में दमा, निमोनिया, ब्रोंकाइटिस एवं फेफड़े के संक्रमण होने का खतरा अधिक होता है. इसलिए घरों में धूमपान न करने की सलाह दी जाती है. निमोनिया के कारण फेफड़ों में इन्फैक्शन हो जाता है. फेफड़ों में सूजन आ जाती है. कई बार पानी भर जाता है. धूल, धुआं और धूम्रपान का असर सभी पर पड़ता है. यही कारण है कि जब हम इस तरह की जगहों पर जाते हैं तो सांस लेने में दिक्कत होने लगती है. जहां वायु प्रदूषण कम होता है वहां के लोग अधिक स्वस्थ होते हैं.

मेरे पति को मेरा मायके जाना पसंद नहीं हैं, अब आप ही बताइएं कि मैं उन्हें कैसे मनाऊं ?

सवाल

मेरे पति बिलकुल भी सोशल नहीं हैं. वे यह तो चाहते हैं कि मैं उन की तरफ के हर रिश्ते को निभाऊं, उन की मां की दिनरात सेवा करूं. लेकिन अब जब मेरी मां बीमार हुईं तो उन्होंने साफ कह दिया कि मुझे आएदिन तुम्हारा मायके जाना पसंद नहीं और अब तुम्हें उस घर के लिए चिंतित होने की ज्यादा जरूरत भी नहीं है. उन की इस बात ने मुझे अंदर तक तोड़ दिया है?

जवाब

शादी का यह मतलब नहीं कि मायके से बिलकुल ही ताल्लुक खत्म कर दिए जाएं, बल्कि यह है कि दोनों तरफ रिश्तों के बीच सामंजस्य बनाए रखना है.

आप को उन्हें यह बात समझानी होगी कि जैसे उन की मां है वैसे ही आप की भी मां है. ऐसे वक्त उन्हें भी अपनों की, अपनों के साथ की जरूरत है. और जब आप उन के परिवार की तनमन से सेवा कर रही हैं तो आप भी यही उम्मीद रखती हैं. अगर फिर भी वे आप को मना करें तो उन्हें बताएं कि ऐसी परिस्थिति में कोई अपनी मां को अकेले नहीं छोड़ सकता और मैं भी नहीं.

आप के इस फैसले से उन्हें समझ आ जाएगा कि उन की दादागीरी आप के सामने नहीं चल सकती. इस से आप को अपनी मां की सेवा करने का मौका मिल जाएगा.

जोरू का गुलाम : मां और पत्नी के बीच पिसते पति की कहानी

‘‘अरे, ऋचा दीदी, यहां, इस समय?’’ सुदीप अचानक अपनी दीदी को देख हैरान रह गया.

‘‘सप्ताहभर की छुट्टी ले कर आई हूं. सोचा, घर बाद में जाऊंगी, पहले तुम से मिल लूं,’’ ऋचा ने गंभीर स्वर में कहा तो सुदीप को लगा, दीदी कुछ उखड़ीउखड़ी सी हैं.

‘‘कोई बात नहीं, दीदी, तुम कौन सा रोज यहां आती हो. जरा 5 मिनट बैठो, मैं आधे दिन की छुट्टी ले कर आता हूं. आज तुम्हें बढि़या चाइनीज भोजन कराऊंगा,’’ लाउंज में पड़े सोफों की तरफ संकेत कर सुदीप कार्यालय के अंदर चला गया.

ऋचा अपने ही विचारों में डूबी हुई थी कि अचानक ही सुदीप ने उस की तंद्रा भंग की, ‘‘चलें?’’

ऋचा चुपचाप उठ कर चल दी. उस की यह चुप्पी सुदीप को बड़ी अजीब लग रही थी. यह तो उस के स्वभाव के विरुद्ध था. जिजीविषा से भरपूर ऋचा बातबात पर ठहाके लगाती, चुटकुले सुनाती और हर देखीसुनी घटना को नमकमिर्च लगा कर सुनाती. फिर ऐसा क्या हो गया था कि वह बिलकुल गुमसुम हो गई थी?

‘‘सुदीप, मैं यहां चाइनीज खाने नहीं आई,’’ ऋचा ने हौले से कहा.

‘‘वह तो मैं देख ही रहा हूं, पर बात क्या है, अक्षय से झगड़ा हुआ है क्या? या फिर और कोई गंभीर समस्या आ खड़ी हुई है?’’ सुदीप की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

‘‘अक्षय और झगड़ा? क्या सभी को अपने जैसा समझ रखा है? पता है, अक्षय मेरा और अपनी मां का कितना खयाल रखता है, और मांजी, उन के व्यवहार से तो मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं उन की बेटी नहीं हूं,’’ ऋचा बोली.

‘‘सब जानता हूं. सच पूछो तो तुम्हारी खुशहाल गृहस्थी देख कर कभीकभी बड़ी ईर्ष्या होती है,’’ सुदीप उदास भाव से मुसकराया.

‘‘सुदीप, जीवन को खुशियोंभरा या दुखभरा बनाना अपने ही हाथ में है. सच पूछो तो मैं इसीलिए यहां आई हूं. कम से कम तुम से व प्रेरणा से मुझे ऐसी आशा न थी. आज सुबह मां ने फोन किया था. फोन पर ही वे कितना रोईं, कह रही थीं कि तुम अब विवाहपूर्व वाले सुदीप नहीं रह गए हो. प्रेरणा तुम्हें उंगलियों पर नचाती है. सनी, सोनाली और मां की तो तुम्हें कोई चिंता ही नहीं है,’’ ऋचा ने शिकायत की.

‘‘और क्या कह रही थीं?’’ सुदीप ने पूछा.

‘‘क्या कहेंगी बेचारी, इस आयु में पिताजी उन्हें छोड़ गए. 3 वर्षों में ही उन का क्या हाल हो गया है. सनी और सोनाली का भार उन के कंधों पर है और तुम उन से अलग रहने की बात सोच रहे हो,’’ ऋचा के स्वर में इतनी कड़वाहट थी कि सुदीप को लगा, इस आरोपप्रत्यारोप लगाने वाली युवती को वह जानता तक नहीं. उसे उम्मीद थी कि घर का और कोई सदस्य उसे समझे या न समझे, ऋचा अवश्य समझेगी, पर यहां तो पासा ही उलटा पड़ रहा था.

‘‘अब कहां खो गए, किसी बात का जवाब क्यों नहीं देते?’’ ऋचा झुंझला गई.

‘‘तुम ने मुझे जवाब देने योग्य रखा ही कहां है. मेरे मुंह खोलने से पहले ही तुम ने तो एकतरफा फैसला भी सुना डाला कि सारा दोष मेरा व प्रेरणा का ही है,’’ सुदीप तनिक नाराजगी से बोला.

‘‘ठीक है, फिर कुछ बोलते क्यों नहीं? तुम्हारा पक्ष सुनने के लिए ही मैं यहां आई हूं, वरना तुम से घर पर भी मिल सकती थी.’’

‘‘मैं कोई सफाई नहीं देना चाहता, न ही तुम से बीचबचाव की आशा रखता हूं. मैं केवल तुम से तटस्थता की उम्मीद करता हूं. मैं चाहूंगा कि तुम एक सप्ताह का अवकाश ले कर हमारे साथ आ कर रहो.’’

‘‘पता नहीं तुम मुझ से कैसी तटस्थता की आशा लगाए बैठे हो. मां, भाईबहन आंसू बहाएं तो मैं कैसे तटस्थ रहूंगी?’’ ऋचा झुंझला गई.

‘‘हमें अकेला छोड़ दो, ऋचा. हम अपनी समस्याएं खुद सुलझा सकते हैं,’’ सुदीप ने अनुनय की.

‘‘अब तुम्हारे लिए अपनी सगी बहन पराई हो गई? मां ठीक ही कर रही थीं कि तुम बहुत बदल गए हो. प्रेरणा सचमुच तुम्हें उंगलियों पर नचा रही है.’’

‘‘ऋचा दीदी, प्रेरणा तो तुम्हारी सहेली है, तुम्हीं ने उस से मेरे विवाह की वकालत की थी. पर आज तुम भी मां के सुर में सुर मिला रही हो.’’

‘‘यही तो रोना है, मैं ने सोचा था, वह मां को खुश रखेगी, हमारा घर खुशियों से भर जाएगा, पर हुआ उस का उलटा…’’

‘‘मैं कोई सफाई नहीं दूंगा, केवल एक प्रार्थना करूंगा कि तुम कुछ दिन हमारे साथ रहो, तभी तुम्हें वस्तुस्थिति का पता चलेगा.’’

‘‘ठीक है. यदि तुम जोर देते हो तो मैं अक्षय से बात करूंगी,’’ ऋचा उठ खड़ी हुई.

‘‘तो कब आ रही हो हमारे यहां रहने?’’ सुदीप ने बिल देते हुए प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारे यहां?’’ ऋचा हंस दी, ‘‘तो अब वह घर मेरा नहीं रहा क्या?’’

‘‘मैं तुम्हें शब्दजाल में उलझा भी लूं तो क्या. सत्य तो यही है कि अब तुम्हारा घर, तुम्हारा नहीं है,’’ सुदीप भी हंस दिया.

लगभग सप्ताहभर बाद ऋचा को सूटकेस व बैग समेत आते देख छोटी बहन सोनाली दूर से ही चिल्लाई, ‘‘अरे दीदी, क्या जीजाजी से झगड़ा हो गया?’’

‘‘क्यों, बिना झगड़ा किए मैं अपने घर रहने नहीं आ सकती क्या? ले, नीनू को पकड़,’’ उस ने गोद में उठाए हुए अपने पुत्र की ओर संकेत किया.

सोनाली ने ऋचा की गोद से नीनू को लिया और बाहर की ओर भागी.

‘‘रुको, सोनाली, कहां जा रही हो?’’

‘‘अभी आ जाएगी, अपनी सहेलियों से नीनू को मिलवाएगी. उसे छोटे बच्चों से कितना प्यार है, तू तो जानती ही है,’’ मां ने ऋचा को गले लगाते हुए कहा.

‘‘लेकिन मां, अब सोनाली इतनी छोटी भी नहीं है जो इस तरह का व्यवहार करे.’’

‘‘चल, अंदर चल. इन छोटीछोटी बातों के लिए अपना खून मत जलाया कर. माना अभी सोनाली में बचपना है, एक बार विवाह हो गया तो अपनेआप जिम्मेदारी समझने लगेगी,’’ मां हाथ पकड़ कर ऋचा को अंदर लिवा ले गईं.

‘‘हां, विवाह की बात से याद आया, सोनाली कब तक बच्ची बनी रहेगी. नौकरी क्यों नहीं ढूंढ़ती. इस तरह विवाह में भी सहायता मिलेगी,’’ ऋचा बोली.

‘‘बहन का विवाह करना भैयाभाभी का कर्तव्य होता है, उन्हें क्यों नहीं समझाती? मेरी फूल सी बच्ची नौकरी कर के अपने लिए दहेज जुटाएगी?’’ मां बिफर उठीं.

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था. पर आजकल अधिकतर लड़कियां नौकरी करने लगी हैं. ससुराल वाले भी कमाऊ वधू चाहते हैं. इन की दूर के रिश्ते की मौसी का लड़का आशीष बैंक में काम करता है, पर उसे कमाऊ बीवी चाहिए. वैसे भी, इस में इतना नाराज होने की क्या बात है? सोनाली काम करेगी तो उसे ?इधरउधर घूमने का समय नहीं मिलेगा. फिर अपना भी कुछ पैसा जमा कर लेगी. तुम्हें याद है न मां, पिताजी ने पढ़ाई समाप्त करते ही मुझे नौकरी करने की सलाह दी थी. वे हमेशा लड़कियों के स्वावलंबी होने पर जोर देते थे,’’ ऋचा बोली.

‘‘अरे दीदी, कैसी बातें कर रही हो, जरा सी बच्ची के कंधों पर नौकरी का बोझ डालना चाहती हो?’’ तभी सुदीप का स्वर सुन कर ऋचा चौंक कर मुड़ी. प्रेरणा व सुदीप न जाने कितनी देर से पीछे खड़े थे. सुदीप के स्वर का व्यंग्य उस से छिपा न रह सका.

‘‘बड़ी देर कर दी तुम दोनों ने?’’ ऋचा बोली.

‘‘ये दोनों तो रोज ऐसे ही आते हैं, अंधेरा होने के बाद.’’

‘‘क्या करें, 6 साढ़े 6 तो बस से यहां तक पहुंचने में ही बज जाते हैं. फिर शिशुगृह से तन्मय को लेते हुए आते हैं, तो और 10-15 मिनट लग जाते हैं.’’

‘‘क्या? तन्मय को शिशुगृह में छोड़ कर जाती हो? घर में मां व सोनाली दोनों ही रहती हैं, क्या तुम्हें उन पर विश्वास नहीं है? जरा से बच्चे को परायों के भरोसे छोड़ जाती हो?’’

प्रेरणा बिना कुछ कहे तन्मय को गोद में ले कर रसोईघर में जा घुसी.

‘‘मां, तुम इन लोगों से कुछ कहती क्यों नहीं, जरा से बच्चे को शिशुगृह में डाल रखा है.’’

‘‘मैं ने कहा है बेटी, मेरी दशा तो तुझ से छिपी नहीं है, हमेशा जोड़ों का दर्द, ऐसे में मुझ से तो तन्मय संभलता नहीं. सोनाली को तो तू जानती ही है, घर में टिकती ही कब है. कभी इस सहेली के यहां, तो कभी उस सहेली के यहां.’’

ऋचा कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध बैठी रही. उसे लगा, उस के सामने उस की मां नहीं, कोई और स्त्री बैठी है. उस की मां के हृदय में तो प्यार का अथाह समुद्र लहलहाता था. वह इतनी तंगदिल कैसे हो गई.

तभी प्रेरणा चाय बना लाई. तन्मय भी अपना दूध का गिलास ले कर वहीं आ गया. अचानक ही ऋचा को लगा कि उसे आए आधे घंटे से भी ऊपर हो गया है, पर किसी ने पानी को भी नहीं पूछा. शायद सब प्रेरणा की ही प्रतीक्षा कर रहे थे. सोनाली तो नीनू को ले कर ऐसी अदृश्य हुई कि अभी तक घर नहीं लौटी थी.

झटपट चाय पी कर प्रेरणा फिर रसोईघर में जा जुटी थी. ऋचा अपना कप रखने गई तो देखा, सिंक बरतनों से भरी पड़ी है और प्रेरणा जल्दीजल्दी बरतन साफ करने में लगी है.

‘‘यह क्या, आज कामवाली नहीं आई?’’ अनायास ही ऋचा के मुंह से निकला.

‘‘आजकल बड़े शहरों में आसानी से कामवाली कहां मिलती हैं. ऊपर से मांजी को किसी का काम पसंद भी नहीं आता. सुबह तो समय रहता ही नहीं, इसलिए सबकुछ शाम को ही निबटाना पड़ता है.’’

‘‘अच्छा, यह बता कि आज क्या पकेगा? मैं भोजन का प्रबंध करती हूं,’’ ऋचा ने कहा.

‘‘फ्रिज में देख लो, सब्जियां रखी हैं, जो खाना है, बना लेंगे.’’

‘‘क्या कहूं प्रेरणा, लगता है, मेरे आने से तो तेरा काम और बढ़ गया है.’’

‘‘कैसी बातें कर रही है? सुदीप की बहन होने के साथ ही तू मेरी सब से प्यारी सहेली भी है, यह कैसे भूल गई, पगली. इतने दिनों बाद तुझे मेरी याद आई है तो मुझे बुरा लगेगा?’’ अनजाने ही प्रेरणा की आंखें छलछला आईं.

फ्रिज से सब्जियां निकाल कर काटने के लिए ऋचा मां के पास जा बैठी.

‘‘अरे, यह क्या, 4 दिनों के लिए मेरी बेटी मायके क्या आ गई, तुरंत ही सब्जियां पकड़ा दीं,’’ मां का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया.

‘‘ओह मां, किसी ने पकड़ाई नहीं हैं, मैं खुद सब्जियां ले कर आई हूं. खाली ही तो बैठी हूं, बातें करते हुए कट जाएंगी,’’ ऋचा ने बात पूरी नहीं की थी कि सुदीप ने आ कर उस के हाथ से थाली ले ली और कुरसी खींच कर वहीं बैठ कर सब्जियां काटने लगा.

‘‘यह बैठा है न जोरू का गुलाम, यह सब्जी काट देगा, खाना बना लेगा, तन्मय को नहलाधुला भी देगा. दिनरात पत्नी के चारों तरफ चक्कर लगाता रहेगा,’’ मां का व्यंग्य सुन कर सुदीप का चेहरा कस गया.

वह कोई कड़वा उत्तर देता, इस से पहले ही ऋचा बोल पड़ी, ‘‘तो क्या हुआ, अपने घर का काम ही तो कर रहा है,’’ उस ने हंस कर वातावरण को हलका बनाने का प्रयत्न किया.

‘‘जो जिस काम का है, उसी को शोभा देता है. सुदीप को तो मैं ने उस के पैर तक दबाते देखा है.’’

‘‘उस दिन बेचारी दर्द से तड़प रही थी, तेज बुखार था,’’ सुदीप ने धीरे से कहा.

‘‘फिर भी पति, पत्नी की सेवा करे, तोबातोबा,’’ मां ने कानों पर हाथ

रखते हुए आंखें मूंद कर अपने भाव प्रकट किए.

‘‘मां, अब वह जमाना नहीं रहा, पतिपत्नी एक ही गाड़ी के 2 पहियों की तरह मिल कर गृहस्थी चलाते हैं.’’

‘‘सब जानती हूं, हम ने भी खूब गृहस्थी चलाई है. तुम 4 भाईबहनों को पाला है और मेरी सास तिनका उठा कर इधर से उधर नहीं रखती थीं.’’

‘‘इस में बुराई क्या है? अक्षय की मां तो घर व हमारा खूब खयाल रखती हैं.’’

‘‘ठीक है, रखती होंगी, पर मुझ से नहीं होता. पहले अपनी गृहस्थी में खटते रहे, अब बेटे की गृहस्थी में कोल्हू के बैल की तरह जुते रहें. हमें भी घूमनेफिरने, सैरसपाटे के लिए कुछ समय चाहिए कि नहीं? पर नहीं, बहूरानी का दिमाग सातवें आसमान पर रहता है, नौकरी जो करती हैं रानीजी,’’ मां ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘यदि नौकरी करने वाली लड़की पसंद नहीं थी तो विवाह से पहले आप ने पहली शर्त यही क्यों नहीं रखी थी?’’ ऋचा ने मां को समझाना चाहा.

‘‘इस में भी हमारा ही दोष है? अरे, एक क्या तेरी भाभी ही नौकरी करती है? आजकल तो सभी लड़कियां नौकरी करती हैं, साथ ही घर भी संभालती हैं,’’ मां भला कब हार मानने वाली थीं. ऋचा चुप रह गई. उसे लगा, मां को कुछ भी समझाना असंभव है.

दूसरे दिन सुबह ही ऋचा भी तैयार हो गई तो प्रेरणा के आश्चर्य की सीमा न रही, ‘‘यह क्या, आज ही जा रही हो?’’

‘‘सोचती हूं, तुम लोगों के साथ ही निकल जाऊंगी. फिर कल से औफिस चली जाऊंगी…क्यों व्यर्थ में छुट्टियां बरबाद करूं. सोनाली के विवाह में तो छुट्टियां लेनी ही पड़ेंगी,’’ वह बोली.

‘‘तुम कहो तो मैं भी 2 दिनों की छुट्टियां ले लूं? आई हो तो रुक जाओ.’’

‘‘नहीं, अगली बार जब 3-4 दिनों की छुट्टियां होंगी, तभी आऊंगी. इस तरह तुम्हें भी छुट्टियां नहीं लेनी पड़ेंगी.’’

‘‘बेचारी एक दिन के लिए आई, लेकिन मेरी बेटी काम में ही जुटी रही. रुक कर भी क्या करे, जब यहां भी स्वयं ही पका कर खाना है तो,’’ मां ऋचा को इतनी जल्दी जाते देख अपना ही रोना रो रही थीं.

‘अब जो होना है, सो हो. मैं आई थी सुदीप व प्रेरणा को समझाने, पर किस मुंह से समझाऊं. प्रेम व सद्भाव की ताली क्या भला एक हाथ से बजती है?’ ऋचा सोच रही थी.

‘‘अच्छा, दीदी,’’ सुदीप ने बस से उतर कर उस के पैर छुए. प्रेरणा पहले ही उतर गई थी.

‘‘सुदीप, मुझे नहीं लगता कि तुम्हें उपदेश देने का मुझे कोई हक है. फिर भी देखना, सनी की नौकरी व सोनाली के विवाह तक साथ निभा सको तो…’’ कहती हुई ऋचा मुड़ गई. पर उसे लगा, मन जैसे बहुत भारी हो आया है, कहीं थोड़ा एकांत मिल जाए तो फूटफूट कर रो ले.

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क्या महिलाओं ने भाजपा को ज्यादा वोट किया और किया तो क्यों किया ?

खासतौर से मध्य प्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगढ़ के बारे में दावा किया जा रहा है कि भाजपा के पक्ष में महिलाओं ने बढ़चढ़ कर मतदान किया. तकरीबन 50 फीसदी महिलाओं के वोट भाजपा को मिले. हालांकि इस अनुमान को वास्तविक कहने न कहने की कोई प्रमाणिक वजह नहीं है. विभिन्न एजेसियां ऐसे आंकड़े जारी किया करती हैं लेकिन बात हैरानी की इस लिहाज से है कि साल 1980 तक भाजपा महिलाओं की तरफ कोई खास ध्यान नही देती थी.

इस की इकलौती वजह यह थी कि हिंदू राष्ट्र के उस के एजेंडे में महिलाओं की कोई भूमिका ही नहीं समझी जाती थी. आजादी के बाद से ही तमाम हिंदूवादी दल मसलन रामराज्य परिषद हिंदू महासभा और जनसंघ धर्म आधारित राजनीति करते रहे थे, वही आज की भाजपा दूसरे तरीके से ही सही कर रही है. लेकिन फर्क है ,जो अस्सी के दशक के बाद से आना शुरू हुआ था. भाजपा के पहले की हिंदूवादी राजनीतिक पार्टियां केवल पुरुषों तक सिमटी थीं. भाजपा ने इस कमी को समझा और 1980 में महिला प्रकोष्ठ का गठन किया.

यह इंदिरा गांधी का दौर था जिन के महिला होने के नाते कांग्रेस की स्वाभाविक दावेदारी महिला वोटों पर बनती थी. इंदिरा गांधी न केवल सवर्ण बल्कि पिछड़ी, दलित अल्पसंख्यक और आदिवासी महिलाओं में भी भारी लोकप्रिय थीं. उन की सभाओं में महिलाओं का उमड़ता हुजूम एक अलग आकर्षण पैदा करता था, जिस का तोड़ निकालने के लिए भाजपा ने कई प्रयोग किए लेकिन कोई भी सफल नहीं हो पाया. तब भाजपा के पास इकलौता बड़ा चेहरा ग्वालियर घराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया का हुआ करता था लेकिन लोकप्रियता और स्वीकार्यता के मामले में वह इंदिरा गांधी से बहुत पीछें रहीं. दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में तो कोई उन्हें जानता तक नही था.

धर्म ने दी पहचान और आकर्षण

महिला प्रकोष्ठ के गठन का भी कोई फायदा भाजपा को नहीं हुआ क्योंकि अभी भी उस पर पितृसत्तात्मक होने और ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी होने का ठप्पा लगा था और अविवाहितों वाला उस का पितृ संगठन आरएसएस भी अपनी यह पहचान बदलने के लिए कतई उत्सुक नहीं था. कमोबेश स्थिति आज भी नहीं है क्योंकि महिलाओं को शूद्रों की तरह किसी भी तरह के अधिकार या बराबरी का दर्जा देना सनातन धर्म के मूलभूत सिद्धांतों से मेल नही खाता.

सत्ता के जरिए हिंदू राष्ट्र भी बन जाए और मनुवादी मानसिकता पर भी चलते रहा जाए, ये दोनों काम सामानांतर होना कोई आसान काम नहीं था . देश का माहौल 80 के दशक तक काफी बदल चुका था . महिलाएं तेजी से शिक्षित जागरूक और नौकरीपेशा हो रहीं थीं लेकिन एक और सुखद बाद यह थी कि वे वोट भी उत्साहपूर्वक करने लगी थीं पर दिक्कत यह थी कि भाजपा उन की प्राथमिकता नही होती थी.

इत्तफाक से इसी वक्त में दो धाकड़ नेत्रियों की भाजपा में एंट्री हुई ये थीं सुषमा स्वराज और उमा भारती. सुषमा स्वराज की इमेज शुद्ध भारतीय हिंदू गृहिणी की थी. वे माथे पर बड़ी बिंदी लगाती थी, मांग में सिंदूर भरती थीं. इंदिरा गांधी के सामने तो वे भी कहीं ठहरती थीं लेकिन उन्हीं की तरह आधुनिकता और परंपरा का मिश्रण उन में था. विधायक बनने से ले कर सांसद और फिर दिल्ली की मुख्यमंत्री और इस के बाद मोदी मंत्रिमंडल में मजबूती से जम जाने के सफर में न्यूज चैनल्स पर करवा चौथ के उन के व्रत और पूजापाठों ने सवर्ण महिलाओं का उन की तरह झुकाव बढ़ाया.

उलट इस के उमा भारती बुंदेलखंड के देहाती इलाके से थीं. वे भागवत बांचती थीं और कट्टर हिंदुत्व की बातें करती थीं. एक धक्का और दो बाबरी मसजिद तोड़ तो का भड़काऊ नारा बुलंद करने वाली और अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने वालों में से एक इस तेजतर्रार साध्वी को भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली और 2003 में मध्य प्रदेश की कांग्रेसी सत्ता भी उन्होंने दिग्विजय सिंह से छीन कर भाजपा को दिलाई एवज में उन्हें मुख्यमंत्री भी बनाया गया.

इसी दौरान एक और हिंदूवादी और पूर्णकालिक हिंदुत्व की छवि वाली साध्वी ऋतंभरा भी अप्रत्यक्ष रूप से राम मंदिर निर्माण आंदोलन के जरिए भाजपा से जुड़ी वे भी उमा की तरह उत्तेजक और भड़काऊ भाषण देने के लिए कुख्यात थीं.

इन तीनों की धार्मिक इमेज से महिलाएं भाजपा और उस के हिंदुत्व की तरफ आकर्षित हुईं तो यह सिलसिला अभी तक बरक़रार है. इसी दौरान भाजपा ने पिछड़ी दलित महिलाओं को अहमियत देना शुरू की जिस के चलते उसे 2014 और 2019 में हाहाकारी कामयाबी मिली. केंद्र में उस ने मजबूती से पैर जमाए और अपनी कल्याणकारी योजनाओं के जरिए उन्हें लुभाए और पार्टी से जोड़े रखा.

लेकिन महिला पूजापाठी बनी रही

लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि महिला सामाजिक या वैचारिक रूप से स्वतंत्र हो गई उलटे वह पहले से और तेजी से धार्मिक और पूजापाठी होती गई. यही भाजपा चाहती थी कि आधी आबादी के ये वोट ज्यादा से ज्यादा तादाद में उसे मिलते रहें. महिलाओं ने भी उस हिंदुत्व के एजेंडे को आत्मसात कर लिया जो उसे दोयम दर्जे की करार देता है. पुरुषों को भी यह मनमाफिक लगा क्योंकि धार्मिक महिला ज्यादा चूंचपड़ नहीं करती. वह पूरी जिम्मेदारी और समर्पण से बच्चे और घरगृहस्थी संभालती है और कलश यात्राओं में भी धार्मिक आयोजनों की शोभा बढ़ाती है.

इस वोट बैंक को कायम रखने नरेंद्र मोदी ने शौचालय और रसोई वाली योजनाएं शुरू करते महिलाओं को आश्वासन दिया कि यह सब उन के लिए खासतौर से किया जा रहा है. हर योजना का बखान उन्होंने बतौर एहसान महिलाओं पर थोपा कि अब वे सुरक्षित हैं, स्वाभिमानी हैं और पहले से बेहतर जिंदगी जी रही हैं.

कोई कल्याणकारी योजना कभी सौ तो क्या 25 फीसदी भी अमल में नहीं आ पाती. लेकिन इन का ढिंढोरा कुछ इस तरह पीटा जाता रहा कि इन्हीं की बदौलत औरतों की जिंदगी में क्रांति और बदलाव आ रहे हैं, जनधन योजना में बैंक खाते खुलने से महिलाओं को खुद के आर्थिक अस्तित्व का एहसास हुआ अब यह और बात है कि इन खातों में फूटी कौड़ी भी सरकार ने जमा नहीं की. हां, कल्याणकारी योजनाओ का पैसा जरुर इन में आता है जिस से औरतों को लगता है कि वे अथाह दौलत की मालकिन हो गई हैं.

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहिना योजना के चलते बिलाशक भाजपा को उम्मीद से ज्यादा वोट और सीटें मिलीं लेकिन यह सोचने और पूछने वाला कोई नहीं कि इस से महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक हैसियत कितनी सुधरी. शिवराज सिंह 40 रुपए रोज दे कर ये काल्पनिक दावे और सपने देहाती अंदाज में महिलाओं को दिखाते रहते हैं कि अब उन्हें पैसों के लिए पति सास या पिता का मुंह नहीं ताकना पड़ता.

अब महिलाओं को लखपति बनाने की योजना गढ़ रहे हैं लेकिन यह नहीं कह पा रहे कि मैं अपनी बहनों को स्थायी रोजगार दूंगा उन के होने वाले अपराध कम करने कोशिश करूंगा वे ऐसा कह और कर भी नहीं सकते क्योंकि मध्य प्रदेश महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में 2003 से ही अव्वल 5 राज्यों में से एक है. यानी उन के मुख्यमंत्री रहते महिलाओं की जिंदगी ज्यादा मुश्किल और दुश्वार हुई है जिसे लाड़ली बहिना के चादर से ढकने में तो हालफ़िलहाल वे और भाजपा कामयाब हो गए हैं लेकिन कबतक ?

यह सवाल अब खुद लाड़ली बहनाएं करने लगी हैं. भाजपा ने धर्म और पूजापाठ को उस तबके का भी हिस्सा बना दिया है जो सुबह से शाम तक होड़तोड़ मेहनत कर पेट भर पाता है. गरीब दलित बस्तियों में अब दुर्गा और गणेश की झांकिया लगने लगी हैं, भंडारे होने लगे हैं और तो और राम कथाएं तक होने लगी हैं जिन में कथावाचक लोकल ब्राह्मण या उन्हीं की जाति का हिमालय से अवतरित कोई सन्यासी होता है. इन आयोजनों में गरीब दलित तबीयत से पैसा फूंकते हैं.इन में महिलाओं की भागीदारी और उत्साह देखते ही बनता है लेकिन सियासी तौर पर कांग्रेस इस की चिंता नहीं कर रही जो उस की जिम्मेदारी होना चाहिए. यह नहीं यह उस के शीर्ष नेताओं को गंभीरता से सोचना ही पड़ेगा.

इसी धार्मिक दिखावे और आडंबरों से कांग्रेस कैसे मात खा रही है. इस की एक मिसाल भोपाल की दक्षिण पश्चिम सीट है जहां से उस के वजनदार नेता पीसी शर्मा भाजपा के भगवान दास सबनानी से अप्रत्याशित रूप से हारे. असल में कांग्रेसी उम्मीदवार भी पूरे वक्त कुछ करने के नाम पर धार्मिक आयोजनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते रहे और यह मान बैठे कि अब तो लोग उन्हें वोट देंगे ही.

असल में तीनों राज्यों में यही हुआ कि कांग्रेस आम लोगों की बुनियादी परेशानियों बेरोजगारी महंगाई और भ्रष्टाचार पर फोकस न कर गरीब बस्तियों में भाजपाइयों की तरह सुंदर काण्ड, कथाएं और भंडारे करतीकराती रही. कमलनाथ और भूपेश बघेल ने ऐसा ज्यादा किया इसलिए मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की दुर्गति हद से ज्यादा हुई. राजस्थान में अशोक गहलोत ने इन दोनों से कम किया इसलिए वहां कांग्रेस की दुर्गति अपेक्षाकृत कम हुई.

कांग्रेस इन तीनों राज्यों में महिलाओं से वह भावनात्मक लगाव और संवाद पैदा नहीं कर पाई जो कि भाजपा ने कर डाला. इस की बड़ी वजह उस का भी धर्म का दिखावा रहा जब महिलाओं को यह समझ आ ही गया कि हम हमें तो ऐसे ही रहना है जैसे हम रह रहे हैं तो वोट उस पार्टी को क्यों न करें जो धर्म के नाम पर ज्यादा पाखंड और दिखावा करती है. हमारी बेटियों को लव जिहाद से बचाने भगवा गमछाधारी युवा दावा तो करते हैं लेकिन इन से बेटियों को कौन बचाएगा यह महिलाएं अभी नहीं सोच पा रही हैं और जब तक सोचेंगी तब तक नर्मदा गंगा का पानी सिर से उपर होगा.

यह सिर्फ कहने भर की बात नहीं है बल्कि दुनिया भर में पाकिस्तान व अफगानिस्तान और कई यूरोपीय देशों के उदाहरण हैं जहां धार्मिक लोगों का शासन है और वहीँ महिलाएं दासियों और गुलामों सरीखी जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं.

कांग्रेस को भारी पड़ा ‘दोस्ती में दगा’

राजनीति में धारणा का सब से बड़ा महत्त्व होता है. कई बार चुनाव मैदान में इस धारणा से ही माहौल बदल जाता है. राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने पूरे देश में एक धारणा को स्थापित होने में मदद की कि मोदी से राहुल ही लड़ सकते हैं. इस के बाद ही भाजपा के खिलाफ लामबंद हो रहे विपक्ष को एक दिशा मिल गई. वह कांग्रेस की अगुवाई में आगे बढ़ने लगे. कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा का अगला कदम ‘इंडिया गठबंधन’ के रूप में तैयार किया. यह गठबंधन एक सार्थक दिशा में बढ़ने लगा था. कई विरोधी विचारधारा के दल अपने विरोध को छोड़ कर मोदी को सत्ता से हटाने के लिए एक मंच जुट गए थे.

इंडिया गठबंधन इस बात के लिए भी करीबकरीब सहमत था कि कांग्रेस की अगुवाई में वह आगे बढ़ेंगे. राहुल गांधी को ले कर भी कोई विरोध नहीं रह गया था. लालू यादव ने इंडिया गठबंधन की मीटिंग में यह कह भी दिया था कि ‘हमारे दूल्हा राहुल गांधी है. हम सब बाराती हैं.’ इसी बीच नवंबर माह में 5 राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव आ गए. इन चुनावों में इंडिया गठबंधन को साथ मिल कर चुनाव लड़ना था. लेकिन इस की नीति नहीं बन सकी.

साथियों से दगा

कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता इंडिया गठबंधन का विरोध कर रहे थे. कांग्रेस अपने क्षेत्रीय नेताओं को समझाने में सफल नहीं हो रही थी. इंडिया गठबंधन की एक मीटिंग भोपाल में प्रस्तावित थी. राहुल गांधी चाहते थे कि भोपाल में यह मीटिंग हो जिस से मध्य प्रदेश के चुनावी माहौल को गर्मी दी जा सके. यह बात मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नेता कमलनाथ को पसंद नहीं थी. कमलनाथ का तर्क यह था कि इंडिया गठबंधन में शामिल कई दल हिंदू धर्म को ले कर उल्टे सीधे बयान दे रहे हैं. ऐसे में अगर मीटिंग के बाद पत्रकारों के सवाल जवाब या अपने से किसी ने कुछ बोल दिया तो मध्य प्रदेश का चुनावी माहौल खराब हो जाएगा.

कमलनाथ ने कांग्रेस हाई कमान को यह समझाया था कि वह हिंदुत्व का विरोध नहीं कर सकते थे. कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव में हनुमान के मंदिर बनवाने की बात कर के चुनाव जीत लिया था तो उसे कमलनाथ की बात समझ आ गई. इस के बाद इंडिया गठबंधन की भोपाल मीटिंग टाल दी गई.

जब सवाल इस बात का हुआ कि विधानसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन एक साथ मिल कर चुनाव लडेगा तो कांग्रेस ने कोई साफ नीति नहीं बनाई. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने की बात समाजवादी पार्टी ने की. कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी की बात भी हुई. समाजवादी पार्टी 6-7 सीटों की मांग मध्य प्रदेश में कर रही थी.

कांग्रेस का अति आत्मविश्वास

हाई कमान स्तर पर यह बात तय हो गई कि समाजवादी पार्टी के साथ मध्य प्रदेश में चुनावी तालमेल करना है. इस तालमेल का जिम्मा कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को सौंप दिया गया. यह लोग सपा प्रमुख अखिलेश यादव से बात कर रहे थे. कमलनाथ मध्य प्रदेश में कांग्रेस के प्रस्तावित मुख्यमंत्री थे, उन को लग रहा था कि मध्य प्रदेश में सपा का कोई वोट नहीं है.
ऐसे में उन को 6-7 सीटें देना नुकसानदायक हो सकता है. सपा सीटें जीत नहीं पाएगी. कांग्रेस का नुकसान होगा. उन के सामने बिहार का उदाहरण था जहां राजद के साथ गठबंधन में कांग्रेस ने ज्यादा सीटें मांग ली चुनाव जीत नहीं पाई जिस से राजद को बहुमत से कम सीटों पर सिमटना पड़ा.

कांग्रेस ने सपा से सीटें देने की बात तो कहीं पर एक भी सीट नहीं दी. इस से खफा समाजवादी पार्टी ने मध्य प्रदेश में 70 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए. चुनाव प्रचार में दोनों ही दलों के बीच जुबानी जंग भी हुई. इस से इंडिया गठबंधन की साख पर सवाल खड़े हो गए. कांग्रेस इस भुलावे में रही कि वह मध्य प्रदेश जीत रही है. इसलिए उस ने केवल सपा का ही निरादर नहीं किया, बहुजन समाज पार्टी के साथ भी कोई तालमेल नहीं कर पाई.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बसपा ने गोंड़वाना गणतंत्र पार्टी यानि जीजीपी से गठबंधन किया. इस के तहत बसपा ने 178 और जीजीपी ने 52 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे. इसी तरह से छत्तीसगढ़ में बसपा ने 53 और जीजीपी ने 37 सीटों पर चुनाव लड़ा. पिछले चुनावों में बसपा ने दोनों ही राज्यों में 2-2 सीटें जीती थीं, इस चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं हुई.

अगर कांग्रेस इन विरोधी दलों से तालमेल किया होता तो भाजपा के साथ मुकाबला हो सकता था. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों में ही कांग्रेस को अति आत्मविश्वास था. इसलिए उस ने किसी दल से तालमेल की जरूरत नहीं समझी और उस की सत्ता डूब गई.

राजस्थान में भी कांग्रेस ने बसपा और लोकदल को तबज्जो नहीं दिया. वहां जादूगर अशोक गहलोत अपने ही साथी सचिन पायलेट के साथ पूरे कार्यकाल लड़ते नजर आए. जिस से जनता को यकीन हो गया कि अशोक गहलोत सही तरह से राज चलाने की हालत में नहीं है. कभी वह हाई कमान से लड़ रहे थे तो कभी सचिन पायलेट से.

उन की जादू वाली झप्पी जनता को रास नहीं आई. कांग्रेस यहां भी इंडिया गठबंधन को साथ ले कर नहीं चल पाई, जिस का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा. राजस्थान में कांग्रेस को 1 करोड़ 56 लाख 66 हजार और भाजपा को 1 करोड़ 65 लाख 23 हजार के करीब वोट मिले. अगर कांग्रेस की नीति साफ और संगठन में झगड़े नहीं होते तो जादूगर का जादू काम कर जाता.

विचारों से समझौता

राजनीति में विचारों का अपना महत्व होता है. कांग्रेस में हिंदूवादी विचारों के नेता पहले भी थे. 1948 में फैजाबाद सीट पर उपचुनाव हो रहा था. सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के बतौर आचार्य नरेंद्र देव उपचुनाव लड़ रहे थे. कांग्रेस ने बाबा राघव दास नामक साधु को अपना उम्मीदवार बनाया. वह मूलतः पुणे महाराष्ट्र के रहने वाले थे. कांग्रेस ने आचार्य नरेंद्र देव को नास्तिक बताया. पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी चुनाव प्रचार में आचार्य की नास्तिकता का सवाल उठाया. बाबा राघवदास ने स्वयं घरघर जा कर तुलसी की माला बांटी. वह धर्म के नाम पर चुनाव भी जीत गए.

आजाद भारत में धर्मनिरपेक्षता पर कट्टर हिंदुत्व की यह पहली जीत थी. इस जीत के बाद ही 1949 में बाबरी मस्जिद में रामलला प्रकट हुए. असल में कांग्रेस में कई नेता ऐसे थे जो ब्राहमणवाद के समर्थक थे. इन में महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद जैसे लोग भी थे. उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत के विचार अयोध्या विवाद मसले में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से अलग थे. पंत धार्मिक विचार वाले नेता थे और नेहरू धर्म की राजनीति के खिलाफ थे.

1949 में 22 और 23 दिसंबर की आधी रात मस्जिद के अंदर कथित तौर पर चोरी छिपे रामलला की मूर्तियां रख दी गईं. अयोध्या में शोर मच गया कि जन्मभूमि में भगवान प्रकट हुए हैं. मौके पर तैनात कांस्टेबल के हवाले से लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट में लिखा गया है कि इस घटना की सूचना कांस्टेबल माता प्रसाद ने थाना इंचार्ज राम दुबे को दी. ‘50-60 लोगों का एक समूह परिसर का ताला तोड़ कर, दीवारों और सीढ़ियों को फांद कर अंदर घुस आए और श्रीराम की प्रतिमा स्थापित कर दी. साथ ही उन्होंने पीले और गेरुआ रंग में श्रीराम लिख दिया.’

इस के बाद अयोध्या में मंदिर मस्जिद की राजनीति शुरू हो गई. अयोध्या का राम मंदिर मुददा बन चुका था. ‘युद्ध में अयोध्या’ किताब में लेखक पत्रकार हेमंत शर्मा ने मूर्ति रखने के विवाद पर लिखा है कि केरल के अलप्पी के रहने वाले के के नायर 1930 बैच के आईसीएस अफसर थे. फैजाबाद के जिलाधिकारी रहते इन्हीं के कार्यकाल में बाबरी ढांचे में मूर्तियां रखी गईं. बाबरी मामले से जुड़े वह ऐसे व्यक्ति हैं जिन के कार्यकाल में इस मामले में सब से बड़ा टर्निंग प्वाइंट आया.

नायर 1 जून 1949 को फैजाबाद के कलैक्टर बने. 23 दिसंबर 1949 को जब भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में स्थापित हुईं तो तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत से फौरन मूर्तियां हटवाने को कहा. उत्तर प्रदेश सरकार ने मूर्तियां हटवाने का आदेश भी दिया. जिला मजिस्ट्रेट नायर इस के लिए तैयार नहीं थे. उन्होने दंगों और हिंदुओं की भावनाओं के भड़कने के ड़र से इस आदेश को पूरा करने में असमर्थता जताई.

इस के बाद नेहरू ने दोबारा मूर्तियां हटाने को कहा तो केके नायर ने सरकार को लिखा कि मूर्तियां हटाने से पहले मुझे हटाया जाए. देश के सांप्रदायिक माहौल को देखते हुए सरकार पीछे हट गई. इस पूरे विवाद में कांग्रेस की नीति आजादी के बाद से ही मंदिर समर्थक की रही. विभाजन की त्रासदी के बाद देश में जो सांप्रदायिक हालात थे उस के आगे तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने घुटने टेके. मूर्तियों की पूजा-अर्चना शुरू हुई. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी धर्म के नाम पर झुकते रहे. अयोध्या में ताला खुलवाने और शिलान्यास में राजीव गांधी की धर्म के प्रति स्पष्ठ नीति सामने नहीं रही. कांग्रेस का सौफ्ट हिंदुत्व उस की नीतियों पर भारी पड़ने लगा.

न राम काम आए न हनुमान

कर्नाटक चुनाव में जब हनुमान का नाम ले कर कांग्रेस को जीत हासिल हुई तो पूरी कांग्रेस हनुमान के रंग में रंग कई. मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने इंडिया गठबंधन की मीटिंग इसलिए नहीं होने दी कि कहीं धर्म के विरोध में कोई बयान न मुददा बन जाए जिस से उन की बनी हुई हवा खराब हो जाए. मध्य प्रदेश से भी अधिक भरोसे में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल थे. उन की सरकार ने राम के नाम पर राम वन गमन मार्ग बनवाया था. इस के नाम पर कई बड़े आयोजन कराए थे. उन को लग रहा था जब हिंदुत्व और धर्म के नाम पर वोट मिल रहे हैं तो फिर वह तो सब से बड़े राम के पुजारी है.

एक तरफ छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को राम के नाम पर भरोसा था तो दूसरी तरफ कमलनाथ को हनुमान पर पूरा भरोसा था. कांग्रेस की मजबूरी यह थी कि वह जिस भाजपा के साथ धर्म की राजनीति पर आमनेसामने दोदो हाथ कर रही थी वह धर्म के सब से ताकतवर खिलाड़ी थी. कांग्रेस ने न केवल अपने इंडिया गठबंधन के साथियों के साथ दगा किया बल्कि जो चुनावी मुददे वहां इंडिया गठबंधन के थे उन को भी छोड़ कर सौफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़ी. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सौफ्ट हिंदुत्व बनाम हार्ड हिंदुत्व की दो पाटन की चक्की के बीच फंस गई. ऐसे में उस का साबुत बचना संभव नहीं था वह दोनों प्रदेश हार गई.

देखा जाए तो कांग्रेस और भाजपा के बीच वोट प्रतिशत में बहुत अंतर नहीं रहा है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 1 करोड़ 75 लाख 64 हजार वोट मिले जबकि सरकार बनाने वाली भाजपा को 2 करोड़ 11 लाख 13 हजार वोट मिले. इसी तरह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को 66 लाख 2 हजार 588 वोट मिले और भाजपा को 72 लाख 34 हजार 968 वोट मिले.

अगर जनता में साफ संदेश गया होता तो कांग्रेस के लिए सत्ता हासिल करना कठिन नहीं था. साफ राजनीतिक विचार न होने के कारण कांग्रेस को भाजपा की बी टीम मान कर जनता ने ए टीम को ही चुन लिया. 3 राज्यों की हार से इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की ताकत घटी है.
इस के बाद भी कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जो टूटे दिलों को जोड़ कर भाजपा के खिलाफ 2024 के लोकसभा चुनाव में एक विकल्प दे सकती है. उस के पहले उसे अपने साथियों को जादू की एक झप्पी देनी होगी.

अच्छी बात यह है कि क्षेत्रीय दलों का झगड़ा कांग्रेस के हाई कमान से नहीं है. ऐसे में घाव भरना सरल होगा. क्षेत्रीय दलों की लड़ाई कांग्रेस के प्रदेश स्तर के नेताओं तक ही सीमित है. कांग्रेस हाई कमान को इंडिया गठबंधन को ले कर जल्द सक्रिय होना पड़ेगा और बड़ा दिल दिखाते हुए सब को साथ ले कर चलने और लोकसभा की सीटों के बटवारे पर काम करना होगा. आपसी मतभेद दूर करने होंगे क्योंकि टूटे मन से कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती है.

लंग्स की बीमारियां : झाड़फूंक के चक्कर में न पड़ें

सांस की बीमारियों में मरीज को कई बार चक्कर आ जाते हैं. ऐसे में कुछ लोग इस को भूतप्रेत व झड़फूंक से जोड़ कर इस का इलाज शुरू कर देते हैं. इस से बचना चाहिए. श्वास की बीमारी का कारण फेफड़े भी हो सकते हैं. ऐसे में पहले यह समझ लें कि फेफड़े यानी लंग्स किस तरह से बीमार होते हैं और उन का क्या इलाज है. अगर झड़फूंक से इस का इलाज करेंगे तो नुकसान हो सकता है, जिस का प्रभाव मरीज के जीवन पर पड़ता है.

डाक्टर शिवम त्रिपाठी कहते हैं, ‘‘जब लंग्स और हार्ट हैल्दी होते हैं तो उन का प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ता है. शरीर स्वस्थ होता है तो कार्यक्षमता बढ़ती है और काम करने में मन लगता है. लंग्स की बीमारियों के बारे में लोगों को कम जानकारी होती है.’’

कोई भी असामान्य स्थिति या बीमारी जो फेफड़ों को ठीक से काम करने से रोकती है उसे फेफड़े की बीमारी कहा जाता है. फेफड़ों की बीमारी में कई प्रकार की बीमारियां शामिल हैं जो फेफड़ों की सामान्य रूप से कार्य करने की क्षमता को खराब कर देती हैं. इन में बैक्टीरिया, वायरल और फंगल संक्रमण सहित फेफड़ों के संक्रमण विभिन्न प्रकार की बीमारियों का कारण बनते हैं. फेफड़ों की अन्य बीमारियों में अस्थमा, मेसोथेलियोमा और फेफड़ों का कैंसर शामिल हैं.

फेफड़ों की बीमारियां 3 कारणों से फैलती हैं. वायु प्रदूषण इन में सब से प्रमुख है. इस के कारण फेफड़ों से सांस अंदर लेना और छोड़ना मुश्किल हो जाता है. दूसरा, फेफड़ों के संक्रमण के कारण सांस लेने वाली नली प्रभावित होती है. लंबे समय तक सीने में दर्द, अत्यधिक बलगम बनना, घबराहट, लगातार खांसी, सूजन या दर्द, लगातार थकावट महसूस होना, खांसी के साथ खून आना, सांस लेने में तकलीफ, वजन कम होना और लगातार सांस में संक्रमण फेफड़ों की कमजोरी की निशानी है.

इस से अस्थमा, क्रौनिक औब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और ब्रोंकाइटिस की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. इस के अलावा फेफड़े में घाव या सूजन आ जाती है जिस से फेफड़े फैल नहीं पाते हैं और तब फेफड़ों को औक्सीजन लेने व कार्बन डाइऔक्साइड छोड़ने में कठिनाई होती है. ऐसे में मरीज गहरी सांस लेने में असमर्थ होते हैं.

कई बार रक्त संचार प्रभावित होता है जिस से फेफड़ों की रक्त धमनियां प्रभावित होती हैं. ऐसे में रक्त नलियों में थक्का जमना, घाव होना या सूजन होना आम होता है. अस्थमा और निमोनिया जैसे फेफड़ों के रोगों के कारण सांस लेने में परेशानी होती है. यदि आप का हृदय आप के शरीर में औक्सीजन पहुंचाने के लिए पर्याप्त रक्त पंप करने में असमर्थ है तो आप को सांस लेने में परेशानी और घबराहट के दौरे पड़ सकते हैं. इतना ही नहीं, चलने, सीढि़यां चढ़ने, दौड़ने या चुपचाप बैठने के दौरान भी सांस की तकलीफ होती है.

लंग्स की बीमारियों के लक्षण

यदि किसी को खांसी व सीने में दर्द के साथ बहुत अधिक खून आ रहा है तो यह फेफड़ों की बीमारी का संकेत हो सकता है. यदि सीढि़यां चढ़ने, चलने पर सांस फूले तो यह भी फेफड़ों की बीमारियों का संकेत हो सकता है. फेफड़ों के रोग का सब से बड़ा कारण धूम्रपान होता है. जो लोग धूम्रपान करते हैं उन में फेफड़े के कैंसर सहित फेफड़ों की बीमारियां विकसित होने की संभावना अधिक होती है. कई बार एलर्जी के कारण भी फेफड़ों के रोग बढ़ते हैं. इस से फेफड़ों की वायु थैलियों और उस के आसपास सूजन हो सकती है जो दर्द का कारण बनती है.

इलाज

फेफड़ों के रोगों में ब्रोंकोडाइलेटर्स का प्रयोग किया जाता है. ब्रोंकोडाइलेटर्स ऐसी दवाएं हैं जो फेफड़ों की मांसपेशियों को आराम देती हैं. ये नलियों को खोलती हैं, जिस से सांस लेना आसान हो जाता है. इस के अलावा इनहेल्ड स्टेरौयड का उपयोग किया जाता है. इनहेल्ड कौर्टिको स्टेरौइड्स फेफड़ों की कार्यक्षमता को बढ़ाते हैं और बीमारियों को आगे बढ़ने से रोकते हैं. जो लंबे समय तक इस का उपयोग करते हैं, उन में निमोनिया होने की संभावना अधिक होती है क्योंकि दवा सीधे फेफड़ों में जाती है और कुछ दुष्प्रभाव पैदा कर सकती है.

दवाओं के अलावा कुछ उपाय हैं जिन से फेफड़ों की बीमारियों से बचा जा सकता है. इस के लिए धूम्रपान न करें. वायु प्रदूषण से बचें. शुद्ध हवा का प्रयोग करें. उन लोगों से दूर रहें जो संक्रमण वाली बीमारियों से ग्रसित हों. उन से सावधानी से मिलें. जहरीली गंध, गैस, धुआं और अन्य खतरनाक पदार्थों से बचना चाहिए. फ्लू या सर्दी से पीडि़त लोगों के निकट संपर्क से बचें. नियमित जांच कराएं. फेफड़े कितने प्रभावी ढंग से काम कर रहे हैं, इस की जांच कराएं.

सावधानियां

फेफड़ों की बीमारियां बैक्टीरियल, वायरल या फंगल बीमारियां हो सकती हैं. निमोनिया जैसे फेफड़ों के रोग एक या दोनों फेफड़ों को प्रभावित करते हैं. खांसी, बलगम, बुखार और सीने में दर्द ये सभी निमोनिया के लक्षण हैं. फेफड़ों का संक्रमण और बीमारियां किसी को भी हो सकती हैं. बुजुर्ग लोग इस बीमारी के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं. फेफड़ों को स्वस्थ रखने के लिए धूम्रपान से बचें. अधिक गहराई से सांस लेने का प्रयास करें. प्रदूषण से हर कीमत पर बचना चाहिए.

खाने में लहसुन, पानी, मिर्च, सेब, कद्दू, हलदी, टमाटर, ब्लू बेरी और ग्रीन टी का प्रयोग फेफड़ों को हैल्दी रखने में मदद करता है. दवा और ऐक्सरसाइज से फेफड़ों को हैल्दी रखा जा सकता है. इस के लिए झड़फूंक और झलाछाप डाक्टरों से बचें. कई बार लोग इन बीमारियों का इलाज झड़फूंक में ढूढ़ने लगते हैं जो ठीक नहीं.

पत्नी के नाम से मकान खरीदने से क्या है फायदे, आप भी जानिए

नैशनल हाउसिंग बैंक की सालाना रिपोर्ट में एक सुखद और चौका देने वाली बात यह कही गई है कि लोग अब तेजी से होम लोन ले रहे हैं जो कि अर्थव्यवस्था के लिहाज से उल्लेखनीय बात है. रिपोर्ट के मुताबिक 50 लाख से ज्यादा कीमत वाले होम लोन 120 फीसदी तक बढ़े हैं. लोग किस तेजी से अपना घर बनाने के लिए कर्ज ले रहे हैं यह बात इस तथ्य से भी उजागर होती है. पिछले एक साल में बैंकों के कुल लोन में 65 फीसदी हिस्सा 50 लाख से ज्यादा के लोन का रहा.

साफ दिख रहा है कि मिडिल क्लास के लोगों की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा मकान खरीदने में लग रहा है. यह जरूरत भी है और निवेश भी है जिस के चलते कोविड के बाद 57 हजार से भी ज्यादा के हाउसिंग प्रोजैक्ट लौंच हुए हैं . दिलचस्प बात यह है कि प्रौपर्टी की कीमतों में भी बढोतरी हुई है जो ज्यादा असर लोगों की जेब पर नहीं डाल रही है. जाहिर है होम लोन का सहूलियत से मिल जाना इस की बड़ी वजह है.

होम लोन अब खुली किताब की तरह हो गए हैं जिन को बारीकी से देखें तो कुछ फायदे की गुंजाइश भी नजर आती है बशर्ते यह पत्नी के नाम पर लिया जाए तो. पत्नी के नाम पर लिया जाने वाला होम लोन आपसी प्यार और बौंडिंग बढ़ाने के अलावा कुछ पैसे भी बचाता है.

ये हैं फायदे

– कई बैंक पत्नी के नाम पर होम लोन लेने पर ब्याज में छूट देते हैं जो देखने में बहुत मामूली लगती है लेकिन पूरी किश्तें चुकता होने तक यह राशि काफी बढ़ जाती है. प्रचलित ब्याज दर में 0.05 फीसदी की छूट बैंक देते हैं.

– पत्नी के नाम होम लोन लेने से एक बड़ा फायदा टैक्स में छूट का भी मिलता है. अगर पति पत्नी दोनों आवेदन देते हैं तो सैक्शन 80 सी के तहत 2 लाख रुपए और मूलधन पर 5 लाख रुपए का फायदा वे उठा सकते हैं.

– पत्नी को सह आवेदक बनाने पर यानी जौइंट होम लेने का एक और फायदा ईएमआई का है जिस का भार किसी एक पर नहीं पड़ता . जौइंट होम लोन में पति पत्नी दोनों के बैंक अकाउंट लिंक होते हैं. इस में यह ध्यान रखना जरूरी है कि दोनों में से किसी एक के अकाउंट में ईएमआई का पैसा होना चाहिए. नहीं तो सिविल स्कोर पर फर्क पड़ता है.

– पत्नी के नाम होम लेने पर रजिस्ट्री शुल्क में छूट मिलती है जो अलगअलग राज्यों में अलगअलग है. आमतौर पर यह एक फीसदी है यानी रजिस्ट्री फीस अगर 8 लाख रुपए है तो 8 हजार रुपए का लाभ होता है. दिल्ली में यह छूट 2 फीसदी है.

– अगर पत्नी का सिविल स्कोर ठीकठाक है और पति का कम है तो लोन मिलने में दिक्कत नहीं आती. आप के लोन का प्रस्ताव खारिज होने की आशंका कम हो जाती है.

– अगर पत्नी भी कामकाजी है तो ईएमआई चुकाना सहूलियत वाला काम हो जाता है.

पति पत्नी का रिश्ता आपसी विश्वास पर टिका होता है. पत्नी के नाम मकान खरीदने से आपसी रिश्ते और भी मजबूत होते हैं. इस से किसी तीसरे से कानूनी विवाद होने की संभावना भी कम हो जाती है और पत्नी का आत्मविश्वास भी बढ़ता है. यह ठीक है कि ब्याज आयु टैक्स में छूट शुरू में बहुत बड़ी नहीं दिखती लेकिन आखिरी मासिक किश्त तक हिसाब आप लगाएंगे तो जो पैसा बचता है वह 2 से 5 लाख रुपए तक का होता है.

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