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तरहतरह की सरकारी वसूली

सरकार किस तरह जनता को टैक्सों से चूस रही है, इस का एक उदाहरण जीएसटी में बढ़ती बढ़ोतरी है. सरकार ने अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा है कि अक्तूबर 2023 में जीएसटी का कलैक्शन पिछले माह से 9 लाख करोड़ रुपए बढ़ गया है और अब वह 1.72 लाख करोड़ रुपए पहुंच गया है. सितंबर में 1.63 लाख करोड़ रुपए था. पिछले साल इसी माह सरकार ने 1.52 लाख करोड़ रुपए जुटाए थे.

सरकार की आमदनी सिर्फ जीएसटी, सेल्स टैक्स या नमक कानून से ही नहीं होती है जिस का विरोध करने के लिए महात्मा गांधी ने वर्ष 1930 में डांडी यात्रा की थी, बल्कि आयात करों, पैट्रोल पर कर, ठेकों पर सरकारी जमीनें देने, सरकारी जमीनें, खानें. बंदरगाहों, एयरपोर्टों, रेल आदि सैकड़ों दूसरे तरीकों से होती है. और तभी तो भारीभरकम सरकारी मशीनरी चलती है. सरकार का मोटा पैसा जनसेवा में भी खर्च होता है. वहीं, सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी की इच्छापूर्ति के लिए आठआठ हजार रुपए के 2 वीआईपी विमानों में सरकारी धन का  दुरुपयोग होता है.

अगर एक माह में 9 लाख करोड़ रुपए और एक साल में 20 लाख करोड़ रुपए का कर बढ़ गया है तो क्या कहीं से यह दिखता है कि आम आदमी की आय इसी रफ्तार से बढ़ी है. आम आदमी की आय का कोई पैमाना नहीं बताता कि वह पिछले साल से ज्यादा खुशहाल है. यह अतिरिक्त कर असल में जनता को बिना बंदूक से लूटने जैसा है. आज करों का ढांचा ऐसा बनाया गया है कि सरकार जमींदारों की तरह बिना पुलिस कार्रवाई के गरीबों से पैसा लूट सकती है.

इस के 2 बड़े तरीके हैं. एक तरीका यह है कि जो आधुनिक चीजें बन रही हैं वे केवल बड़ी फैक्ट्रियों मं बनें ताकि वहां से टैक्स वसूलना आसान रहे. इस के लिए सरकार ने ऐसा ढांचा बना दिया है कि अब कोई छोटा कारोबारी उद्योगपति बन ही नहीं सके. टैक्नोलौजी पर दुनियाभर में कुछ अमीरों का कब्जा है और उन्होंने यह उपहार सरकार को दिया है कि वह हर काम टैक्नोलौजी से जोड़ दे ताकि टैक्स के फंदे से कोई बच न सके.

पहले जो छोटे उद्योगपति रहते थे, उन को सरकार ने तरहतरह फंदों में फांस दिया है. आज छोटे उद्योग केवल बड़े उद्योगों के लिए या बड़े ब्रैंड्स के लिए काम कर रहे हैं. रिटेलिंग भी अब औनलाइन हो गई है, जिस से टैक्स वसूलना बहुत आसान हो गया है. यहां तक कि अब टैक्सी, थ्रीव्हीलर और टूव्हीलर भी किराए पर लेना हो तो इसे भी टैक्नोलौजी से जोड़ दिया गया है, ताकि हर उत्पादन, हर सेवा पर कर वसूला जा सके.

दूसरा बड़ा तरीका यह है कि हर दुकान, व्यापारी, कर्मचारी, पैसा पाने वाले आदि से पहले ही टैक्स वसूल लिया जाए. आयकर में टीडीएस जैसे तरीके निकाल लिए गए हैं जिन में भुगतान के समय पैसे देने वाले को कर कटवाना पड़ता है. हर जगह कर लगाना असल में पुरानी कहानी की लहरें गिनने जैसा है ताकि हर लहर पर कर वसूला जा सके.

टैक्स विशेषज्ञ तो इस बारे में और साफसफाई से बच सकते है. पर आमतौर पर सभी यह समझ लें कि जब हर कदम पर टैक्स देना पड़ रहा हो तो यह सरकार का जनता को निचोडऩे का एक हथकंडा है. लोकतंत्र के दौर में मौजूदा सरकार तो आज पुराने राजाओं, रजवाड़ों, जमींदारों से भी बढ़ कर वसूली कर रही है और इस के लिए उस ने अपने पास कुख्यात ठग व डकैत भी पाल रखे हैं जो टैक्स कलैक्शन में उसे मदद करते हैं. औनलाइन टैक्स भरने वालों की फौज, पैन कार्ड बनवाने वालों की फौज, संपत्ति रजिस्ट्रेशन में सुविधा दिलाने वालों की फौज आदि एक तरह से सरकारी एजेंट हैं जो सरकार के टैक्स लूट कृत्य में उस के लिए काम करते हैं.

सरकार के टैक्स कलैक्शन में वृद्धि पर हर नागरिक को डर लगना चाहिए कि वह और ज्यादा गरीब हो गया है. हर नया टैक्स सुधार असल में टैक्स बढ़ाता है. ‘हफ्तावसूली’ का सरकार का यह नया तरीका होता है जिस पर अब संसद व विधानसभाएं चुप रहती हैं क्योंकि पार्टी चाहे कोई हो, उसे पैसे आते दिखते हैं तो चुप रहती है. हम जिन्हें चुन कर भेजते हैं वे असल में हमारे टैक्स वसूली एजेंट व उन के सहायक होते हैं, हमारे बचाव की ढाल नहीं.

दीवाली उत्साह का उज्ज्वल उत्सव

दीपावली, दीवाली, दीप पर्व या दीपोत्सव कुछ भी कह लीजिए, यह दीयों और रोशनी का त्योहार है. दीप वह जो अज्ञान और मन के अंधेरों को दूर करता है. सच तो यह है कि दीप हम स्वयं ही हैं ओर ज्योति हमारे अंदर ही प्रदीप्त होनी है. यही दीवाली का असली मर्म है.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रकाश यानी रोशनी ऊर्जा का एक रूप है. पौधों से ले कर जीवजंतु तक के भोजन और जीवन के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है. बिना इस के पेड़पौधे अपना भोजन बना ही नहीं सकते क्योंकि प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) का अर्थ ही है फोटो, प्रकाश या ज्योति जिस से निर्माण कार्य संपन्न होता है. प्रकाश के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. अमावस्या की अंधेरी रात में दीये जला कर हम यही रोशनी यानी प्रकाश को प्रतीकात्मक रूप से अपने जीवन में लाते हैं.

बहुत से लोगों को लगता है कि दीवाली एक धार्मिक त्योहार है यानी इस का धर्म से गहरा जुड़ाव है. पूजापाठ, लक्ष्मीपूजन, विधिविधान ज्यादा अहम हैं पर इस में पूरा दिन लगा देना अनुचित है. दीवाली तो हंसीखुशी और रोशनी का त्योहार है. यह दिन हमें एक पारंपरिक प्रथा के रूप में मिला है जिस में हम अपनी सालभर की जिंदगी की बोरियत दूर करते हैं, दिल और दिमाग में रोशनी भरते हैं और अपनों से मिलतेजुलते हैं, परिवार, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों के साथ समय बिताते हैं. उन के सान्निध्य का खूबसूरत एहसास महसूस कर पाते हैं. इस तरह हमारी जिंदगी में एक ऊर्जा और रोशनी का संचार होता है. हम एक नया उत्साह महसूस करते हैं. यही असली दीवाली है.

दीवाली को सिर्फ हिंदुओं का त्योहार न मानें. इस तरह के त्योहार तो एक पूरे समूह द्वारा मनाए जाते हैं, जैसे क्रिसमस और न्यू ईयर. अगर आप के पड़ोस में किसी और धर्म के लोग हैं तो आप उन के साथ भी दीवाली मनाएं. उन्हें दीवाली की मिठाई दीजिए. जरूरतमंदों में गिफ्ट बांटिए और अपने घर को रोशन कीजिए. मिठाइयां खाना, मिलनामिलाना, हंसीमजाक करना, प्यार बांटना यही तो दीवाली है. इस से एकदूसरे के बीच प्यार और जुड़ाव बढ़ता है. दीवाली का पहला मकसद भी यही है.

अगर आप अपने रिश्तेदारों, अपने घर से दूर हैं, किसी और शहर, किसी और देश में हैं तो भी दीवाली मनाएं, बिना किसी के साथ मनाएं. किसी भी नागरिकता वालों के साथ मनाएं. फिर आप औनलाइन अपनों के टच में आ सकते हैं. इस दौरान आप अपने आसपास के सभी लोगों के साथ अपनी खुशियां बांट सकते हैं. सब को गिफ्ट दे सकते हैं. सब को कुछ मीठा दे सकते हैं. दीवाली का मकसद आप की जिंदगी में खुशी, रौनक और उत्साह लाना है.

दीवाली पर रंज न करें, झगड़ा न करें, दीवाली पर पटाखे इस तरह न चलाएं कि आसपास के लोगों को आपत्ति हो. यह समूह का त्योहार है. चीनी न्यू ईयर सा है जब पूरे बाजार सजते हैं. महीनों से लोग दीवाली पर विशेष खरीद की तैयारी करते हैं, पैसा जमा करते हैं. दीवाली पर खरीदी गई चीज हरदम दोगुना मजा देती है.

दीवाली पर खरीदे कपड़े, खिलौने, घरेलू सामान को त्योहार से जोड़ना विरासत में मिला है, यह सब आज आनंद देता है.

दीवाली पर हरेक से मिलें. जिन्हें भूल चुके हैं उन से भी संपर्क करने की कोशिश करें. एक कार्ड बहुत समय तक याद रहता है. व्हाट्सऐप के युग में एक छोटा कार्ड, पत्र, उपहार को ज्यादा वरीयता दें. डिजिटल मैसेज तो आज आए, घंटेभर बाद गायब.

दीवाली पर घरपरिवार का ध्यान ज्यादा रखें. हरेक को लगे कि यह त्योहार खास है.

सब से बड़ी बात है कि दीवाली प्रकाश और रोशनी देने वाले दीयों का त्योहार है. इसे किसी भी हाल में दीवालिएपन का त्योहार न बनाएं. आप सोचेंगे दीवाली से दीवालिएपन का क्या संबंध? दरअसल, संबंध बहुत गहरा और पुराना है. उतना ही पुराना जितना दीवाली और जुए खेलने का रिश्ता है. जैसे शराब का नशा कर के घरवालों से मारपीट करना या बाहर लड़ाई?ागड़ा करना इंसान के जीवन की सारी खुशियां समेट कर उसे अंधेरों में धकेल सकता है उसी तरह जुआ उस के जीवन की हर खुशी छीन कर उसे सड़कों पर ला सकता है. कहने को यह लक्ष्मी पाने को किया जाता है पर आखिरकार यह लक्ष्मी गंवाने का माध्यम बन सकता है.

संस्कारों और संस्कृति की अंधकारमय कथा

हमारी संस्कृति का सदियों से दीवाली और जुए का घनिष्ठ संबंध रहा है. महाभारत जैसा युद्ध अक्षक्रीड़ा (जुए) के कारण ही हुआ था. पाणिनि की अष्टाध्यायी तथा काशिका के अनुशीलन से अक्षक्रीड़ा के स्वरूप का पूरा परिचय मिलता है. पतंजलि ने सिद्धहस्त द्यूतकर के लिए अक्षकितव या अक्षधूर्त शब्दों का प्रयोग किया है.

इस के अलावा प्राचीन ग्रंथों में जुए का वर्णन है. मनु, याज्ञवल्क्य आदि ने राजाओं के लिए दिशानिर्देश लिखे हैं. उन के मुताबिक, जुआ उस समय खेला जाता था. ऋग्वेद में एक जुआरी के रुदन का उल्लेख है. अथर्ववेद में भी इस खेल के प्रकार, दांव लगाने और पासों का उल्लेख है.

दीवाली के साथ जुए का उल्लेख महज परंपरा या रस्मोरिवाज नहीं है बल्कि ये दोनों बहनभाई जैसे रिश्तेदार हो गए हैं. हर घर में दीयों के साथसाथ ताश खेलने की मेजें भी लग जाती हैं.

जुआ चाहे दीवाली पर रस्म के नाम पर खेला जाए या वैसे किसी और दिन, यह भी विरासत का हिस्सा है. महाभारत काल में युधिष्ठिर ने जुए की वजह से अपना सबकुछ गंवा दिया. वह अपनी अकूत धनसंपत्ति के साथ अपने भाई और अपनी पत्नी को भी हार गया. पत्नी का भरे सभागार में अपमान हुआ और वह आंखें नीची किए बैठा रहा. जुए की वजह से 5 पांडव भी अपनी पत्नी के अपमान को रोक नहीं सके.

महाभारत के उद्योग पर्व में यह कहा गया है कि-

‘अक्षद्यूतं महाप्राज्ञ सतां मति विनाशम् . असतां तत्र जायन्ते भेदाश्च व्यसनानि च’.

अर्थात द्यूत समान पाप कोई नहीं, यह समझदार की बुद्धि फेर सकता है. अच्छा व्यक्ति बुरा बन सकता है पर इसे ये ग्रंथ रोक नहीं पाए.

पर महान संस्कृति के पैरोकार मिल जाते हैं कि दीवाली पर भी संस्कृति के नाम पर जुआ खेल लिया जाता है. महाभारत के अष्टषष्टितमोऽध्याय: में राजाओं के चार कर्मों की आलोचना है- शिकार, मदिरापान, जुआ तथा विषयभोग में अत्यंत आसक्ति. यानी, उस युग में भी यह सब चलता था जो आज तक जिंदा है. हम उस युग को याद कर के दीवाली मनाएं तो गलत होगा.

चत्वार्याहुर्नरश्रेष्ठा व्यसनानि महीक्षिताम्,

मृगयां पानमक्षांश्च ग्राम्ये चैवातिरक्तताम्॥

महाभारत के रचयिता को मालूम था कि यह गलत काम है. लिखा है, ‘इन दुर्व्यसनों में आसक्त मनुष्य धर्म की अवहेलना कर के मनमाना बरताव करने लगता है. इस प्रकार व्यसनासक्त पुरुष द्वारा किए हुए किसी भी कार्य को लोग सम्मान नहीं देते हैं.

एतेषु हि नर: सक्तो धर्ममुत्सृज्य वर्तते,

यथायुक्तेन च कृतां क्त्रियां लोको न मन्यते.

दुर्योधन का सलाहकार शकुनि जानता था कि वह युधिष्ठिर को जुए के लिए आमंत्रित कर उस का सबकुछ छीन सकता है. इसलिए योजना बनाते हुए उस ने दुर्योधन से कहा था- ‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ दुर्योधन. तुम पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर की जिस लक्ष्मी को देख कर संतप्त हो रहे हो, उस का मैं जुए द्वारा अपहरण कर लूंगा.

यां त्वमेतां श्रियं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रे युधिष्ठिरे,

तप्यसे तां हरिष्यामि द्यूतेन जयतां वर.

शकुनि के शब्दों में, ‘मैं किसी संशय में पड़े बिना, सेना के सामने युद्ध किए बिना, केवल पासे फेंक कर स्वयं किसी प्रकार की क्षति उठाए बिना ही पांडवों को जीत लूंगा क्योंकि मैं द्यूतविद्या का ज्ञाता हूं और पांडव इस कला से अनभिज्ञ हैं. भरत, दावों को मेरा धनुष सम?ा और पासों को मेरे बाण.’

इतने स्पष्ट शब्दों में महाभारत में जुए की बुराई की गई है पर जिस पक्ष की ओर कृष्ण थे उसी ने इस चैलेंज को स्वीकार कर लिया. इस पर विदुर ने युधिष्ठिर को चेताते हुए कहा भी था, ‘राजकुमार, तुम द्यूतरूपी अनर्थ को ही अर्थ मान रहे हो. यह जुआ कलह को ही गूंथने वाला व अत्यंत भयंकर है. यदि किसी प्रकार यह शुरू हो गया तो तीखी तलवारों और बाणों की भी सृष्टि कर देगा.

अनर्थमर्थं मन्यसे राजपुत्र,

संग्रन्थनं कलहस्याति घोरम् .

तद् वै प्रवृत्तं तु यथाकथंचित्,

सृजेदसीन् निशितान् सायकांश्च.

विदुर ने युधिष्ठिर को समझाया, कहते हैं, ‘जुआ खेलना ?ागड़े की जड़ है. इस से आपस में फूट पैदा होती है, जो बड़े  भयंकर संकट की सृष्टि करती है. यह धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन उसी का आश्रय ले कर इस समय भयानक वैर की सृष्टि कर रहा है.’

द्यूतं मूलं कलहस्याभ्युपैति,

मिथो भेदं महते दारुणाय.

यदास्थितोऽयं धृतराष्ट्रस्य पुत्रो,

दुर्योधन: सृजते वैरमुग्रम्.

फिर भी न युधिष्ठिर माने, न आज के युवा प्रौढ़ मानते हैं और दीवाली के खुशी के त्योहार पर काला धब्बा लगा देते हैं.

वैसे तो युधिष्ठिर ने क्षत्रिय व्रत को ध्यान में रख कर दूसरों की इच्छा से जुआ खेला पर अंत में अपना सबकुछ हार गए या फिर यह कहिए कि युधिष्ठिर द्यूतरूपी दुर्व्यसन में अत्यंत आसक्त हो कर और दुश्मन पक्ष के धूर्त जुआरियों के बहकावे में आ कर अपनी प्रिय पत्नी द्रौपदी को भी दांव पर लगा बैठे और उसे भी हार गए. यह संस्कृति की डोर आज भी हमारे हाथ में है. एक तरफ लक्ष्मी पूजने को कहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ उस महाभारत और उस के नायक कृष्ण का गुणगान है जिस ने धनलक्ष्मी और गृहलक्ष्मी दोनों का अपमान करना सिखाया है.

युधिष्ठिर के अंजाम से क्रोधित भीम ने अर्जुन से अपने अंदर का विद्रोह घर की लक्ष्मी द्रौपदी के बारे में इन शब्दों में प्रकट किया था-

‘‘यह भोलीभाली, अबला पांडवों को प्रतिरूप में पा कर इस प्रकार अपमानित होने के योग्य नहीं थी परंतु आप के कारण ये नीच, नृशंस और अजितेदिं्रय कौरव इसे नाना प्रकार के कष्ट दे रहे हैं.’’

एषा ह्यनर्हती बाला पाण्डवान् प्राप्य कौरवै:

त्वत्कृते क्लिश्यते क्षुद्रैर्नृशंसैरकृतात्मभि:.

वे क्रोध में कह बैठते हैं, ‘अर्जुन, यदि मैं इस विषय में यह न जानता कि इन का यह कार्य क्षत्रिय धर्म के अनुकूल ही है तो बलपूर्वक प्रज्ज्वलित अग्नि में इन की (युधिष्ठिर की) दोनों बांहों को एकसाथ जला कर राख कर डालता.’

एवमस्मिन् कृतं विद्यां यदि नाहं धनंजय दीप्तेऽग्नौ सहितौ बाहू निर्दहेयं बलादिव.

लक्ष्मीपूजन के दिन घरों में जुआ खेल कर उन का क्या होता है, यह उस युग में भी मालूम था और अफसोस कि आज भी यह चालू है. ‘जुआरियों के घर में अकसर कुलटा स्त्रियां रहती हैं, किंतु वे भी उन्हें पाकदांव पर लगा कर जुआ नहीं खेलते. उन कुलटाओं के  प्रति भी उन के हृदय में दया रहती है.’

भारत में जुआ को नियंत्रित करने वाले कानून सार्वजनिक जुआ अधिनियम 1867, जिसे जुआ अधिनियम के रूप में भी पहचाना जाता है, भारत में जुआ को नियंत्रित करने वाला सामान्य कानून है. औनलाइन जुआ पर कोई कानून नहीं बना हुआ है, इसलिए लोग बिना डर के इसे खेल रहे हैं.

जुए के आधुनिक रूप भी अब प्रचलित हैं-

घुड़दौड़ : यह जुए के अति प्राचीन प्रकारों में से एक है. इस का अस्तित्व करीब 2 हजार सालों से है. घोड़ों को एक तयशुदा मार्ग पर दौड़ाने व उन के प्रदर्शन के आधार पर बोली लगाने की परंपरा दुनियाभर में मशहूर है और इस में अरबों रुपयों का धंधा होता है. इस के अलावा बैलों की लड़ाई, मुरगों की लड़ाई और बुलफाइटिंग जैसे खेल भी जुए की श्रेणी में ही आते हैं.

लौटरी : लौटरी भी राजस्व की कमाई का बड़ा जरिया रही है. दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि ज्यादातर लोकप्रिय सरकारें लाइसैंस के जरिए यह कारोबार निजी क्षेत्र को सौंप देती हैं और फिर टैक्स के जरिए कमाई करती हैं. भारत में भी कई राज्य सरकारें लौटरी चलाती रही हैं. रातोंरात लखपति बनने की चाह में लाखों लोग इस के पीछे पागल हो गए. हजारों घर बरबाद हो गए. लौटरी के चक्कर में फंस कर खुदकुशी करने वालों की तादाद भी हजारों में होगी. इसी कारण भारत में लौटरी बैन कर दी गई है.

औनलाइन गेमिंग : बीते कुछ सालों में जुए के इस प्रकार ने बहुत जोर पकड़ा है. औनलाइन खेल के लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण है उस का गोपनीय रहना. जुए से सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रभावित होने का खतरा बना रहता है क्योंकि शौकीन व्यक्ति को सार्वजनिक तौर पर ऐसा करते देखे जाने का खतरा बना रहता है, मगर औनलाइन गेमिंग में ऐसा नहीं है.

कैसीनो में जुआ : केवल 2 राज्यों  गोवा और सिक्किम ने कैसीनो जुआ को एक सीमित सीमा तक वैध माना है, जहां केवल पांचसितारा होटल ही राज्य द्वारा अनुमोदित लाइसैंस प्राप्त कर सकते हैं.

खेल में सट्टेबाजी : आईपीएल या दूसरे खेलों पर सट्टा लगाना कौशल माना जाता है. लोग बढ़चढ़ कर इस में हिस्सा लेते हैं. कोई भी जुआ कानून भारतीयों को क्रिकेट पर सट्टा लगाने से सख्ती से और स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित नहीं करता है.

पोकर : पोकर एक कार्ड गेम है जो तीनपत्ती गेम की तरह होता है. आज कार्ड गेम को बहुत पसंद किया जाता है. हर राज्य में अपनेअपने अलगअलग नियम बने हुए हैं.

दीवाली को प्रकाश का दिन मनाएं. संस्कृति और संस्कार का हवाला दे कर उस महाभारत की याद न दिलाएं जिस के नायक कृष्ण द्रौपदी के चीरहरण को रोकने तो आए पर युधिष्ठिर को जुआ खेलने से रोकने को नहीं आए.

पुरातन की ओर

देश को पुरातन व पौराणिक सोच की ओर लगातार धकेला जा रहा है, इस का एक और सुबूत भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय सरकार द्वारा नियुक्त दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा लेखिका अरुंधति राय के खिलाफ 2010 की एक स्पीच पर मुकदमा चलाने की अनुमति देना है. वर्ष 2010 में अरुंधति राय ने एक सभा में एक भाषण दिया था.

दो समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने और आम शांति को भंग करने के आरोप में वरिष्ठ व गंभीर लेखिका के खिलाफ मुकदमे दर्ज तो 2010 में हुए थे पर भारतीय जनता पार्टी ने सरकार में आने के बाद उन्हें कब्र खोद कर फिर से निकाला. इन मुकदमों को निचली अदालतों में महीनोंसालों घसीटा जा सकता है और वक्ता के तौर पर कहे अपने विचार 10वीं पास पुलिस कौंस्टेबलों द्वारा तय किए जाएंगे कि वे सही हैं या नहीं. कोई बड़ी बात नहीं कि इस दौरान निचली अदालत लेखिका को जमानत भी न दे कि कहीं अभियुक्त ‘तथाकथित अपराध’ करने के 13 साल बाद भाग न जाए.

भारत देश की चूलें किस तरह हिल चुकी हैं, यह इस तरह के मामलों से साफ है. कोई भी समाज तब ही उन्नति कर सकता है जब आम लोगों के पास बोलने की स्वतंत्रता और आजादी हो. वैचारिक स्वतंत्रता ही बहुत से नए प्रयोगों की जन्मदात्री होती है. जिन लोगों ने समाज, शासन, मुद्दों के बारे में नई सोच दी उन्होंने ही विज्ञान, भौतिकी, कैमिस्ट्री, ज्योग्राफी, एस्ट्रोनौमी में नई खोजों और आविष्कारों की जमीन तैयार की. आज हम पहले से ज्यादा सुखी हैं, तकनीक का सुख भोग रहे हैं तो इसलिए कि कभी कहीं किसी ने जो सोचा उस पर रिसर्च कर कामयाबी हासिल की. हालांकि, तब भी उन सोचों, आविष्कारों के खिलाफ विद्रोह किए गए.

हम कहने को चाहे 21वीं डिजिटल क्रांति वाली सदी में जी रहे हों पर असलीयत यह है कि हम में से अधिकांश आज भी पुराने रीतिरिवाजों को ढो रहे हैं और भारत की आर्थिक उन्नति में बड़ा रोड़ा बने हुए हैं. यह ऐसे ही नहीं है कि आर्थिक संपन्नता के तौर पर प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर भारत दुनिया के 180 देशों में से 132-135वां है.

यह इसलिए है कि हमें नया, परंपरा के खिलाफ सोचने की इजाजत नहीं है. इस में ‘राज्य गलत नहीं सोचता, सरकार हमेशा सही होती’ वाली पारंपरिक सोच है. अरुंधति राय जैसे लेखक सरकार व पुरातनवादियों को ?िं?ाड़ते हैं, उन्हें एहसास कराते हैं कि वे कैसे गलत हैं.

अगर औरतें आज भी दहेज की मारी हैं, छोटी लड़कियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं, विधवाएं दोबारा विवाह नहीं कर पातीं, लड़कियों को संपत्ति में से हिस्सा ही नहीं मिल रहा, उन्हें अपनी संपत्ति नहीं बनाने दी जा रही तो इसलिए कि हम सब पर पुरानी सोच आज भी सवार है और उस की आलोचना करने वालों, पोल खोलने वालों को समाज व सरकार का दुश्मन मान लिया जाता है.

अरुंधति राय जैसों के खिलाफ 2010 के भाषण पर अब पुलिसिया कार्रवाई शुरू करने का अर्थ यह है कि सारी जनता को संदेश दिया जा रहा है कि कुछ अलग, कुछ नया कहने की कोशिश न करो.

धार्मिक सामग्री से पटा बाजार

रश्मि की हार्दिक इच्छा थी कि नवरात्रों में जब उस का परिवार अपने खुद के फ्लैट में शिफ्ट हो तो उस में एक कोना मंदिर के लिए भी हो. अभी तक रश्मि का परिवार किराए के घर में रह रहा था, लेकिन उस के पति और बेटे ने पैसे जमा कर के आखिरकार उस के अपने घर का सपना इस साल पूरा कर दिया. किराए के घर में इतनी जगह नहीं थी कि अलग से मंदिर बन सके मगर नए फ्लैट में बिल्डर ने जो स्टोररूम बनाया है, उस को वह मंदिर के रूप में बदलने को उतावली थी. उस स्टोररूम में एक बढि़या सजे हुए मंदिर में ही इस बार दीवाली की पूजा हो, ऐसा उस का मन था.

आखिर बेटे ने उस की वह ख्वाहिश पूरी की और नवरात्र के पहले ही दिन वह सफेद मार्बल का एक बड़ा मंदिर खरीद लाया. इतना सुंदर मंदिर देख कर रश्मि तो ?ाम उठी. वह दूसरे ही दिन अपनी पड़ोसिन अंकिता के साथ सदर बाजार निकल गई ताकि नए मंदिर में सजाने के लिए भगवान की मूर्ति और पूजा से जुड़ी चीजें खरीद लाए. रश्मि कई सालों के बाद सदर मार्केट गई थी. वहां का तो रंगरूप ही बदला हुआ था. पहले पूजा आदि से जुड़ी चीजों की जहां सिर्फ दोतीन दुकानें होती थीं, अब पूरी एक सड़क इन्हीं सामग्रियों से भरी हुई थी.

धार्मिक चीजों की खरीदारी के लिए ग्राहक दुकानों पर जैसे टूटे पड़ रहे थे. नवरात्र के त्योहार की वजह से पूरा बाजार धार्मिक सामग्री से पटा पड़ा था. हर दुकान में जमीन से ले कर छत तक चीजें सजी हुई थीं. इतना सामान था कि कई दुकानों के तो भीतर ही नहीं समा रहा था. दुकानदारों ने दुकानों के बाहर आधीआधी सड़कें घेर कर बड़ेबड़े तख्त बिछा कर उन पर सामान डिस्प्ले कर रखा थे.

हर चीज की दसदस वैराइटियां मौजूद थीं. माता की चुन्नी 5 रुपए से ले कर 5 हजार रुपए तक की. भगवानों की मिट्टी की मूर्तियां 100 रुपए से ले कर 500 रुपए तक की थीं जबकि धातु की मूर्तियों के दाम तो आसमान छू रहे थे. 8 हजार,

10 हजार, 15 हजार रुपए कीमत की मूर्तियां थीं. जिस की जैसी श्रद्धा वैसी मूर्तियां खरीद रहा था.

रश्मि ने लक्ष्मी गणेश, राम सीता लक्ष्मण, मां दुर्गा, शिवजी, कृष्ण भगवान और साईं बाबा की एकएक मूर्ति अपने मंदिर के लिए खरीदीं.

इसी में उस के हजार रुपए खर्च हो गए. उस की सहेली अंकिता बोली, ‘दीदी, मंदिर में मूर्तियों के नीचे बिछाने का आसन और सब के लिए कपड़े व शृंगार की चीजें भी खरीद लीजिए. उन के बिना मूर्तियां कैसे स्थापित करेंगी?’

‘हां, हां’ कहते हुए रश्मि अगली दुकान पर इन चीजों को देखने के लिए घुस गई. भगवानों के कपड़े तो बड़े ही सुंदर थे. जरी, गोटे, लेस और शीशे-मोती से जड़े छोटेछोटे रेशमी कपड़े देख कर रश्मि का मन ललचा गया.

इन सुंदर वस्त्रों को पहन कर तो उस के भगवान खूब जचेंगे. 1,200 रुपए के कपड़े और 300 रुपए का आसन उन्होंने खरीदा. सामान ले कर बाहर निकली तो अंकिता बोली, ‘‘पिछली दुकान से पूजा की थाली, दीपदान और घंटी वगैरह देख लो. उन के बिना पूजा कैसे करोगी.’’

रश्मि असमंजस में पड़ गई, जितने पैसे ले कर आई थी वे तो सब इस थोड़े से सामान में ही खर्च हो चुके थे. मंदिर को पूरी तरह सजाने के लिए तो अभी इतने ही और चाहिए थे. उस को अनुमान नहीं था कि बाजार में चमक बिखेरती इन धार्मिक चीजों की कीमत इतनी ज्यादा हो चुकी होगी.

कोई 10 साल पहले जब दीवाली में वह और उस के पति लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति खरीदने आते थे तो मुश्किल से 75 रुपए में मूर्ति के साथ पूजा की सामग्री भी मिल जाती थी, जिन्हें रसोई के कोने में बने ताक में सजा कर वे दीवाली की पूजा कर लेते थे. मगर यहां तो 5 हजार रुपए खर्च हो गए और नए मंदिर के लिए अभी आधा सामान भी नहीं आया.

सामान अनगिनत

उन्होंने अंकिता से पूछा कि और क्याक्या ले सकते हैं? तो वह बोली, ‘मेरे मंदिर में तो पूजा की सिल्वर थाली, घंटी, दीपदान, अगरबत्ती स्टैंड के साथ अगरबत्ती, धूपबत्ती, गंगाजल, शहद, सरसों के तेल की शीशी, देसी घी, मिट्टी के दीये-बांती, सभी भगवानों के लिए अलगअलग आसन और मालाएं, कृष्णजी के लिए अलग से मोरमुकुट वगैरह भी हैं. इन सब चीजों की जरूरत पूजा के समय पड़ती है और तुम को तो नए घर में हवन भी करवाना है. आखिर, उस का सामान भी तो लेना होगा?’

रश्मि ने हां में सिर हिलाया, बोली, ‘चलो फिर कल आते हैं क्योंकि मैं जितने पैसे ले कर आई थी वे तो इतने सामान में ही खर्च हो गए.’

दोनों उस दिन घर लौट आईं. दूसरे दिन मंदिर के बचे हुए सामान के साथ हवन की सामग्री, 2 किलो घी, मिठाई, पंडितजी के कपड़े, उन की पत्नी के लिए साड़ी और शृंगार का सामान आदि की खरीदारी में साढ़े 5 हजार रुपए और खर्च हो गए.

रश्मि सोच रही थी कि घर में मंदिर की स्थापना करवाने का उन का खयाल तो बहुत महंगा पड़ गया. उस ने सोचा था कि हजारदोहजार रुपए में सब हो जाएगा, मगर सामान की लिस्ट तो हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ती ही चली गई और उस के करीब 8 हजार रुपए धर्म के बाजार में स्वाहा हो गए. इतने पैसे में तो उस के घर में 3 महीने का राशन आ जाता है. मगर अब क्या किया जा सकता है. चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं और पूजापाठ से जुड़ी चीजों की मार्केट तो आजकल सब से बड़े मुनाफे का व्यापार बन चुकी है.

दिल्ली के सदर मार्केट में पूजापाठ से जुड़ी चीजों का बहुत बड़ा बाजार है. अक्तूबर माह में पितृपक्ष शुरू होते ही यह मार्केट श्राद्ध के सामान से पट जाता है और फिर नवरात्र शुरू होते ही दुर्गा की पूजा से जुड़ी सामग्रियों से पूरा बाजार भर जाता है.

दीवाली आतेआते इस मार्केट की रौनक देखने लायक होती है. भारतीय धर्मसंस्कृति में चीन ने कैसे सेंध लगाई हुई है, यह भी दीवाली के अवसर पर दिखता है. चाइनीज बल्ब, रंगीन रोशनी की लडि़यां, चाइनीज मोमबत्तियां, खुशबूदार दीये, प्लास्टिक के सजावटी फूल, बेलें, नकली मखमली घास जो देखने में बिलकुल असली लगती है, दमदमाते हुए लक्ष्मी-गणेश, छोटेबड़े रंगीन रोशनी से सजे टिमटिमाते मंदिर, खूबसूरत कंदीलें, दरवाजों के बंधनवार, बनेबनाए रंगोली के पैटर्न, यहां तक कि दरवाजों पर लगाए जाने वाले लक्ष्मी के पदचिह्न तक चाइना से आ रहे हैं.

ये तमाम चीजें जितनी खूबसूरत और आकर्षित करने वाली हैं, इन के दाम भी उतने ही ऊंचे हैं.धर्म के धंधे में लगे व्यापारियों की पांचों उंगलियां घी में हैं.

मुनाफा ही मुनाफा

नवरात्र का त्योहार यों 9 दिन चलता है जिसे बंगाली बहुत धूमधाम से मनाते हैं और इस त्योहार पर खूब पैसा खर्च करते हैं. मगर हिंदू महिलाएं जब नवमी या दशमी पर दुर्गा की पूजा करती हैं तो मंदिर में चढ़ाने के लिए उन की थाली में मां की चुन्नी, नारियल, फूलों की माला, मां के शृंगार का सामान, चूडि़यां, फल, हलवापूरी और पैसे होते हैं.

ये सारा सामान कोई 300 से 700 रुपए तक का होता है. एक मध्यवर्गीय परिवार की महिला नवमी या दशमी पर कम से कम इतना सामान तो मंदिर में चढ़ाती है. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि त्योहारों के दौरान मंदिरों में कितना चढ़ावा और कितना पैसा आता है.

इस के अलावा धर्म के बाजार कितनी मुनाफा कमाते हैं. नवरात्रों के 9 दिन मंदिरों में मूर्तियों पर जो गोटेदार सुंदर लाल चुन्नियां चढ़ाई जाती हैं, वे न तो कहीं सहेज कर रखी जाती हैं और न फेंकी जाती हैं बल्कि अगली शाम को माता की मूरत से उतर कर अच्छी तरह तह कर के बाहर लगी धर्म की दुकानों पर फिर बिकने के लिए आ जाती हैं. यह क्रम चलता रहता है.

माल की कमी नहीं

सदर मार्केट में जहां तक आप की नजर जाएगी, धार्मिक वस्तुओं का बाजार आप को दिखेगा, पूजा, व्रत, आरती की चीजें, माता की चुन्नी, विभिन्न आकारप्रकार और विभिन्न धातुओं से बने दीये, घंटियां, घंटे जो 50 रुपए से ले कर 3,000 रुपए तक हैं. आरती की थाली जो स्टील, फूल, पीतल और चांदी की होती हैं, प्लास्टिक के फूलों की मालाएं, मां के शृंगार का सामान और भोलेनाथ के त्रिशूल से ले कर लक्ष्मी के वाहन उल्लू तक की खरीदारी यहां हो रही है.

70 रुपए का एक छोटा सा 2 इंच का उल्लू भी है और 500 रुपए का थोड़ा बड़ा उल्लू भी है. 700 से ले कर 1,500 रुपए की लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां, 200 रुपए का शिव का त्रिशूल तो 1,200 रुपए के लड्डू गोपाल भी हैं जो एक छोटे से ?ाले में ?ाल रहे हैं. छोटीबड़ी बोतलों में भरे गंगाजल की कीमत 100 रुपए बोतल से ले कर 1,500 रुपए बोतल तक है.

चंदन टीका, अगरबत्तियां, धूपबत्तियां, इत्र, अलगअलग पैकिंग में कपूर, 50 रुपए की मौली, रोली, 40 रुपए का इलायची का पैकेट जिस में बमुश्किल 6 इलायचियां होंगी, 20 रुपए का ज्वार के दानों का पैकेट, 40 रुपए में 9-10 दानों का लौंग का पैकेट, 60 रुपए में मेवे का छोटा सा पैकेट जिस में एक अखरोट 2 दाने किशमिश, 2 पतले टुकड़े नारियल और दोतीन बादाम हैं.

हवन सामग्री, 50 रुपए में हनुमान पर चढ़ाने के लिए सिंदूर के पैकेट अलग और सरस्वती मां पर चढ़ाने के लिए सिंदूर का पैकेट अलग. 60 रुपए की 4 पीस सुपारी का पैकेट, भगवान को बिठाने के लिए आसन, भगवान के मोती जरी, शीशे-लेस से सुसज्जित रेशमी कपड़े, माता के लिए सोलह सिंगार का पैकेट, चूडि़यां, शहद, जनेऊ, देसी घी, सरसों का तेल. तिल का तेल, स्वास्तिक, लक्ष्मी चरण, गुग्गल, लोबान, चंदन अगरबत्ती और न जाने क्या क्या बिक रहा है इस मार्केट में.

800 रुपए के कृष्ण भगवान, 50 रुपए का उन के मुकुट के लिए एक मोरपंख, भजन के दौरान बजाने वाले बाजे जैसे, ?ां?ार, ?ान?ाना आदि. दुकानें इन चीजों से ठसाठस भरी ही हैं. छोटे वेंडर भी अपनी ट्रौलीनुमा ठेलों पर इन धार्मिक चीजों को भरभर कर यहां दिनभर बेचते हैं और सुबहशाम को आसपास की कालोनियों में भी घूमघूम कर बेचते हैं.

यही हाल सैंट्रल मार्केट, लाजपतनगर और पश्चिम विहार, दिल्ली के ख्यात ज्वाला हेड़ी रिटेल मार्केटों का है.

धर्म का ऐसा बाजार मुसलमानों का भी खूब मुनाफे में जा रहा है. आप निजामुद्दीन चले जाइए. मजार पर पहुंचने से पहले एक पूरी लंबी सड़क आप को धर्म की चीजों से भरी दुकानों की कतारों से सजी दिखेगी.

500 रुपए से ले कर 5,000 रुपए तक मजार पर चढ़ाने की चादरें गोटे-जरी के काम से सजी हुई यहां बिकती मिलेंगी. फूलों की चादरों के दाम भी खूब हैं.  800 रुपए से ले कर 2,000 रुपए तक. वहीं छोटी चादरें भी हैं मगर 100 रुपए से कम की कोई चादर नहीं मिलेगी.

इस के साथ मजार पर चढ़ाने के लिए फूलों की टोकरी, अगरबत्तियों का पैकेट, मोमबत्तियों का पैकेट, मजार के चारों तरफ बनी जालियों में बांधने के लिए मन्नतों के धागे सब यहां खूब ऊंचे दामों में बिक रहा है.

दलालों की अपनी चांदी

दिनभर इस सड़क पर मन्नत मांगने वालों की भीड़ खचाखच भरी रहती है. निजामुद्दीन पर जैसे ही आप उतरेंगे सड़क के बाहर से ही दलाल आप के साथ लग जाएंगे. वे आप को सस्ता सामान दिलाने का लालच दे कर अपनी दुकानों में ले जाने की पुरजोर कोशिश करेंगे. आप की मन्नतें क्याक्या सामान चढ़ाने से पूरी होंगी, इस की पूरी जानकारी वे देंगे, जैसे आत्माएं उन को आ कर बताती हों कि मु?ो आज क्याक्या चाहिए. साथ में दलाल अपने पैसे भी आप से लेता है और आसपास भीख मांगने का धंधा करने वालों के कटोरे में भी आप से यह कह कर पैसा डलवाते हैं कि इन की दुआओं से आप का काम जल्दी होगा.

मजे की बात यह है कि आप जो महंगी चादर खरीद कर मजार पर चढ़ाएंगे वह कुछ घंटों बाद वापस उसी दुकान पर अगले ग्राहक को बिकने के लिए आ जाएगी.

लोगों की मन्नतों के धागे बंधबंध कर जब मजार की जालियों को बंद करने लगते हैं तो सप्ताह में एक दिन इन्हें काट कर कूड़े में फेंक दिया जाता है. मान लीजिए आप ने जो मन्नत मांगी और आप की कोशिशों से वह काम अगर पूरा हो गया और आप अपनी मन्नत पूरी होने पर अपना धागा खोलने आएं तो आप किसी और का धागा ही खोल कर जाते हैं. बल्कि देश में जितनी भी मजारें हैं जिन पर चादरें चढ़ाने का धंधा और मन्नतें मांगने का काम होता है, सभी का यही हाल है.

अजमेर शरीफ में तो इस से भी बुरा हाल है. वहां तो मजार के अंदरबाहर सफेद टोपी पहने अनेक कथित मौलाना तैनात हैं जो आप को वीआईपी जगह से जल्दी अंदर ले जाएंगे और आप को भीड़ में धक्के नहीं खाने पड़ेंगे, बदले में आप को इन के हाथ पर दो हजार रुपए रखने होंगे. इस के एवज में आप आराम से अंदर जाएंगे और आप को मजार के सामने कुछ देर बैठ कर दुआ करने का वक्त भी दिया जाएगा. चादर, अगरबत्ती, धूपबत्ती, मोमबत्ती, फूल आदि तो आप अपनी श्रद्धा और जेब के मुताबिक खरीदेंगे ही.

कोर्ट का ‘सरकारी’ निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने लंबी बहस के बाद बड़े प्रवचननुमा वाक्यों से अपने निर्णय को सजाते हुए आखिर वही कह दिया जो देश की कट्टरपंथी सरकार चाहती है कि भारत में समलैंगिक विवाह संभव नहीं है और इस बारे में कदम संसद को ही उठाना पड़ेगा. केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपाई सरकार विवाह को संस्कार मानती है.

समलैंगिक जोड़े जानते हैं कि इस तरह का फैसला कभी भी संसद या विधानसभाओं में नहीं हो सकता क्योंकि वहां तो वे बैठे हैं जो समलैंगिक तो क्या, किसी भी तरह के विवाह की उम्र से गुजर चुके हैं और जो धर्म की दी गई व्याख्या से बाहर नहीं जा सकते.

हर धर्म ने प्राकृतिक सैक्स को अपने दायरे में ले लिया है. मानव सुबह से शाम तक बहुत सारी प्राकृतिक क्रियाएं करता है पर सैक्स संबंध ऐसा है जिस में दुनिया के हर धर्म ने अपनी टांग घुसा दी और उस के नियम बना कर जनता पर थोप दिए. राजा और शासकों ने इसे सहज स्वीकार कर लिया क्योंकि इस का युद्ध में बहुत फायदा होता है.

सैक्स को धर्म और शासन से जोड़ कर ही औरतों को सदियों से गुलाम बनाया जा सका है. शादी के बिना सैक्स करना औरतों के लिए अपराध जैसा घोषित कर दिया गया. बिना शादी के पैदा हुए बच्चे अवैध, बास्टर्ड, हरामी बन गए, औरतें बदचलन, रंडियां. लेकिन उन के साथ जिन पुरुषों ने संबंध बनाए, वे तो इस चर्चा में आते ही नहीं.

भारत की सुप्रीम कोर्ट जब समलैंगिक विवाहों के बारे में तर्क सुन रही थी तो उस के दिमाग में यही धारणा बैठी थी कि सदियों से धर्म ने जो विवाह की परंपरा बनाई है और जिसे शासकों ने लागू किया है, उसे ज्यादा डिस्टर्ब किया तो धर्म और शासकों के पत्तों के घर कहीं ढह न जाएं. एक आम व्यक्ति के अधिकारों को कुचलते हुए 5 जजों की पीठ ने कह डाला कि विवाह का अधिकार तो मौलिक अधिकार भी नहीं है और संसद जो चाहे कानून बना सकती है और स्त्रीस्त्री, पुरुषपुरुष विवाह को अगर कानूनी संरक्षण चाहिए तो उसे तराजूनुमा अदालत का नहीं, तिकोने त्रिशूलनुमा संसद का दरवाजा खटखटाना होगा.

जैसे राममंदिर के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने किया था, शब्दजाल में तो बड़ी बातें कही गईं पर जब आखिरी लाइन लिखनी थी तो याचिकाकर्ता को सरकार के हाथों सौंप दिया.

समलैंगिक विवाहों की अनुमति देने से अदालतों का कुछ ज्यादा जाता नहीं. यह पागलपन थोड़े से लोगों का फितूर है. जो चाहते हैं कि वे एक छत के नीचे रहते हैं, एक रजाई में सोते हैं तो उन को उन लोगों से अलग नहीं समझ जाए जो विधि समान विवाह कर के कहीं काम कर रहे हैं. उस बराबरी के हक से समाज का कुछ बिगड़ता नहीं. सरकार को कुछ हानि न होती. संसद की कानून बनाने की शक्ति कम न होती.

हां, धर्म को हानि होती. उसे एक और दरार अपने महल में दिखने लगती. लोग संस्कारविहीन विवाह करें पर जिन में संतान न हो, यह भला कैसे संभव है. हर विवाह पर हमेशा धर्म टैक्स लेता रहा है. कुछ जगह राजा भी लेता था जब वर वधू को पहली रात अपने बिस्तर में सोने को मजबूर करता था और उस पर धर्म की मोहर थी.

समलैंगिक विवाह जोड़ों को संयुक्त संपत्ति रखने, एक के मरने के बाद विरासत के सवालों को हल करने, बच्चे गोद लेने, अपनेअपने घरों से आई संपत्ति के निबटान, वैवाहिक जोड़ों को गिफ्ट देने के कानून आदि का निबटान कर सकते थे. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि समलैंगिक साथ रह सकते हैं पर उन अलगअलग लकडि़यों की तरह जो नदियों या समुद्र में साथसाथ बह रही हैं पर वे मिल कर नाव नहीं बन सकतीं जिस में सवार हो कर जीवन सुखी, सफल व स्थिर हो सके. यह हमारी सुप्रीम कोर्ट का एक और सरकारी निर्णय है, बस.

घर में मेरे मुंहबोले भाई को लेकर झगड़ा होता रहता है, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 16 बरस की अविवाहिता हूं. मेरा सगा भाई नहीं है. मैं ने एक मुंहबोला भाई बनाया था जिसे मैं सगे से भी ज्यादा मानती हूं. इस शहर में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने मेरे पापा से कह कर भाई से मेरी बोलचाल बंद करवा दी. पापा से बात करने में मुझे डर लगता है. पूरे 6 महीने से भाई से मेरी बात भी नहीं हुई, मेरी मानसिक स्थिति बिगड़ गई है, क्या करूं?

जवाब

मुंहबोला यानी तथाकथित रिश्ता अकसर ऐसी ही कड़वाहट के दौर से गुजरता है. इसे टूटते देर भी नहीं लगती. होता यह है कि भाईबहन के ये मुंहबोले रिश्ते दरक जाते हैं और चूंकि रिश्ता खून का तो होता नहीं, सो, ये दूसरे कगार पर पहुंच जाते हैं. आप के मम्मीपापा ने ऐसा कुछ जरूर महसूस किया होगा जो आप का किशोर मन नहीं सम?ा पा रहा है. आप खुद स्वीकारती हैं कि आप का उस से दोस्ती का भी रिश्ता है. रिश्तों की मर्यादा को बनाए रखना आसान नहीं है. एक तरह से ये रिश्ते तलवार की धार पर रहते हैं. हो सकता है आप के मुंहबोले भाई ने रिश्तों की गरिमा ठीक से न समझ हो और इस बात को आप न सम?ा पा रही हों. इस बारे में आप को अपने मम्मीपापा से बात करनी चाहिए. घर में चचेरे, ममेरे किसी भाई को भी आप अपना सगा भाई जैसा मान सकती हैं जिस से आप का खून का रिश्ता भी होगा.

डायबिटीज : चपेट में परिवार भी

भारत में हर व्यक्ति किसी न किसी ऐसे व्यक्ति को जानता होगा जिसे डायबिटीज की बीमारी होगी क्योंकि यहां 6.20 करोड़ लोग इस मर्ज से पीडि़त हैं. अनुमान है कि 2030 तक पीडि़तों की संख्या 10 करोड़ तक पहुंच जाएगी. अस्वस्थ खानपान, शारीरिक व्यायाम की कमी और तनाव डायबिटीज का मुख्य कारण बनते हैं. इस बीमारी से भविष्य में मरीजों के साथसाथ उन के परिवारों और देश पर पड़ने वाले आर्थिक व मानसिक बोझ को देखते हुए इस से बचाव और समय पर इस का प्रबंधन बेहद जरूरी है. एक अध्ययन के मुताबिक, डायबिटीज और इस से जुड़ी बीमारियों के इलाज व मैनेजमैंट का खर्च भारत में 73 अरब रुपए है.

पेनक्रियाज जब आवश्यक इंसुलिन नहीं बनाती या शरीर जब बने हुए इनसुलिन का उचित प्रयोग नहीं कर पाता तो डायबिटीज होती है जो कि एक लंबी बीमारी है. इंसुलिन वह हार्मोन है जो ब्लडशुगर को नियंत्रित करता है. अनियंत्रित डायबिटीज की वजह से आमतौर पर ब्लडशुगर की समस्या हो जाती है. इस के चलते आगे चल कर शरीर के नाड़ी तंत्र और रक्त धमनियों सहित कई अहम अंगों पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है.

रोग, रोगी और बचाव

डायबिटीज बचपन से ले कर बुढ़ापे तक किसी भी उम्र में हो सकती है. गोरों के मुकाबले भारतीयों में यह बीमारी 10-15 साल जल्दी हो जाती है. चूंकि इस का अभी तक कोई पक्का इलाज नहीं है और नियमित इलाज पूरी उम्र चलता है, इसलिए बाद में दवा पर निर्भर होने से बेहतर है अभी से बचाव कर लिया जाए. जीवनशैली में मामूली बदलाव कर के डायबिटीज होने के खतरे को कम किया जा सकता है, कुछ मामलों में तो शुरुआती दौर में इसे ठीक भी किया गया है.

परिवार पर मार

दूसरी बीमारियों के मुकाबले डायबिटीज एक पारिवारिक रोग सरीखा है. इस के प्रभाव एक व्यक्ति पर नहीं पड़ते. घर के किसी सदस्य के डायबिटीज से पीडि़त होने पर पूरे परिवार को अपने खानपान व जीवन के अन्य तरीके बदलने पड़ते हैं. रोग का परिवार के बजट पर भी गहरा असर पड़ता है.

पर्सन सैंटर्ड केयर इन द सैकंड डायबिटीज एटीट्यूड, विशेज ऐंड नीड्स: इंसपीरेशन फ्रौम इंडिया नामक एक मल्टीनैशनल स्टडी में पता चला कि डायबिटीज की वजह से शारीरिक, आर्थिक व भावनात्मक बोझ पूरे परिवार को उठाना पड़ता है. इस के तहत दुनियाभर के 34 प्रतिशत परिवार कहते हैं कि किसी परिवारजन को डायबिटीज होने से परिवार के आर्थिक हालात पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है, जबकि भारत में ऐसे परिवारों की संख्या 93 से 97 प्रतिशत तक है.

दुनियाभर में 20 प्रतिशत पारिवारिक सदस्य मानते हैं कि डायबिटीज की वजह से लोग उन के अपनों से भेदभाव करते हैं. दरअसल, जिस समाज में वे रहते हैं उसे डायबिटीज पसंद नहीं है जबकि भारत में ऐसे 14-32 प्रतिशत परिवार ऐसा ही महसूस करते हैं.

वक्त पर इस का प्रबंधन करने के लिए डायबिटीज के रोगी के परिवार की भूमिका अहम होती है. यह साबित हो चुका है कि परिवार का सहयोग न मिलने पर रोगी अकसर अपनी दवा का नियमित सेवन और ग्लूकोज पर नियंत्रण नहीं रख पाता. इसलिए जरूरी है कि परिवार का एक सदस्य शुरुआत से ही इन सब बातों का ध्यान रखने में जुट जाए. डाक्टर के पास जाते वक्त साथ जा कर पारिवारिक सदस्य न सिर्फ काउंसलिंग सैशन का हिस्सा बन सकता है बल्कि यह भी समझ सकता है कि इस हालत को वे बेहतर तरीके से कैसे मैनेज कर सकते हैं.

कैसे करें शुगर प्रबंधन

डायबिटीज को मैनेज किया जा सकता है. अगर उचित कदम उठाए जाएं तो इस के रोगी लंबा व सामान्य जीवन गुजार सकते हैं. प्रबंधन के लिए कुछ कदम इस प्रकार हैं :

–  पेट के मोटापे पर नियंत्रण रख के इस से बचा जा सकता है क्योंकि इस का सीधा संबंध टाइप 2 डायबिटीज से है. पुरुष अपनी कमर का घेरा 40 इंच और महिलाएं 35 इंज तक रखें. सेहतमंद और संतुलित खानपान, नियमित व्यायाम मोटापे पर काबू पाने में मदद कर सकता है.

– गुड कोलैस्ट्रौल 50 एमजी रखने से दिल के रोग और डायबिटीज से बचा जा सकता है.

–  ट्रिग्सीसाइड एक आहारीय फैट है जो मीट व दुग्ध उत्पादों में होता है जिसे शरीर ऊर्जा के लिए प्रयोग करता है और अकसर शरीर में जमा कर लेता है. इस का स्तर 150 एमजी या इस से ज्यादा होने पर यह डायबिटीज का खतरा बढ़ा सकता है.

–  आप का सिस्टौलिक ब्लडप्रैशर 130 से कम और डायस्टौलिक ब्लडप्रैशर 85 से कम होना चाहिए. तनावमुक्त रह कर ऐसा किया जा सकता है.

– खाली पेट ग्लूकोज 100 एमजी या ज्यादा होने से डायबिटीज का खतरा बढ़ जाता है.

– दिन में 10,000 कदम चलने की सलाह दी जाती है.

परिवार मिल कर सप्ताह में 6 दिन सेहतमंद खानपान और रविवार को चीट डे के रूप में अपना सकते हैं ताकि नियमितरूप से हाई ट्रांस फैट और मीठा खाने से बचा जा सके. रविवार को बाहर जा कर शारीरिक व्यायाम करने के लिए भी रखा जा सकता है. परिवार में तनावमुक्त जीवन जीने की प्रभावशाली तकनीक बता कर सेहतमंद व खुशहाल जीवन जीने के लिए उत्साहित कर के एकदूसरे की मदद की जा सकती है.

(लेखक एंडोक्राइनोलौजिस्ट हैं.)

मझली : एक पिता के मन को छू देने वाली कहानी

ठाकुर साहब के यहां मैं छोटी के बाद आई थी, लेकिन मझली मैं ही कहलाई. ठाकुर साहब के पास 20 गांवों की मालगुजारी थी. महलनुमा बड़ी हवेली के बीच में दालान और आगे ठाकुर साहब की बैठक थी. हवेली के दरवाजों पर चौबीसों घंटे लठैत रहते थे. हां, तो बड़ी ही ठाकुर साहब के सब से करीब थीं. जब ठाकुर साहब कहीं जाते, तब वे घोड़े पर कोड़ा लिए बराबरी से चलतीं. उन में दयाधरम नहीं था. पूरे गांवों पर उन की पकड़ थी. कहां से कितना पैसा आना है, किस के ऊपर कितना पैसा बकाया है, इस का पूरा हिसाब उन के पास था.

ठाकुर साहब 65 साल के आसपास हो चले थे और बड़ी 60 के करीब थीं. ठाकुर साहब को बस एक ही गम था कि उन के कोई औलाद नहीं थी. इसी के चलते उन्होंने पहले छोटी से शादी की थी और 5 साल बाद अब मुझ से. छोटी को राजकाज से कोई मतलब नहीं था. दिनभर ऐशोआराम की जिंदगी गुजारना उस की आदत थी. वह 40 के आसपास हो चली थी, लेकिन उस के आने के बाद भी ठाकुर साहब का गम कम नहीं हुआ था. कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है, इसीलिए ठाकुर साहब ने मुझ से ब्याह रचाया था. मेरी उम्र यही कोई 20-22 साल के आसपास चल रही थी. मैं गरीब परिवार से थी. एक बार धूमरी गांव में जब ठाकुर साहब आए थे, तब मैं बच्चों को इकट्ठा कर के पढ़ा रही थी. ठाकुर साहब ने मेरे इस काम की तारीफ की थी और वे मेरी खूबसूरती के दीवाने हो गए थे. और न जाने क्यों उन के दिल में आया कि शायद मेरी वजह से उन के घर में औलाद की खुशियां आ जाएंगी.

मेरी मां तो इस ब्याह के लिए तैयार नहीं थीं, लेकिन पिताजी की सोच थी कि इतने बड़े घर से रिश्ता जुड़ना इज्जत की बात है. खैर, बहुत शानोशौकत के साथ ठाकुर साहब से मेरा ब्याह हुआ. जैसा कि दूसरी जगह होता है, सौतन आने पर पुरानी औरतें जलन करती हैं, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था. बड़ी ने ही मेरी नजर उतारी थी और छोटी मुझे ठाकुर साहब के कमरे तक ले गई थी. मेरे लिए शादीब्याह की बातें एक सपने जैसी थीं, क्योंकि गरीब घर की लड़की की इज्जत से गांव में खेलने वाले तो बहुत थे, पर इज्जत देने वाले नहीं थे, इसलिए जब ठाकुर साहब के यहां से रिश्ते की बात आई, तब मैं ने भी नानुकर नहीं की. अब बड़ी और छोटी के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए आपसी तनातनी वाली कोई बात भी नहीं थी.

हां, तो मैं बता रही थी कि बड़ी ही ठाकुर साहब के साथ गांवगांव जाती थीं और वसूली करती थीं. ऐसे ही एक बार वे रंभाड़ी गांव गईं. वहां सब किसानों ने तो अपने कर्ज का हिस्सा ठाकुर साहब को भेंट कर दिया था, लेकिन सिर्फ रमुआ ही ऐसा था, जो खाली हाथ था. वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘ठाकुरजी… ओले गिरने से फसल बरबाद हो गई. पिछले दिनों मेरे मांबाप भी गुजर गए. अब इस साल आप कर्ज माफ कर दें, तो अगले साल पूरा चुकता कर दूंगा.’’ लेकिन बड़ी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने लठैतों से कहा, ‘‘बांध लो इसे. इस की सजा हवेली में तय होगी.’’

मैं जब ठाकुर साहब के यहां आई, तब पहलेपहल तो किसी बात पर अपनी सलाह नहीं दी थी, लेकिन ठाकुर साहब चाहते थे कि मैं भी इस हवेली से जुड़ूं और जिम्मेदारी उठाऊं. धीरेधीरे मैं हवेली में रचबस गई और वक्तजरूरत पर सलाह देने के साथसाथ हवेली के कामकाज में हिस्सा लेने लगी. रात हो चली थी कि तभी हवेली में हलचल हुई. पता करने पर मालूम हुआ कि ठाकुर साहब आ गए हैं. बड़ी ने अपना कोड़ा हवा में लहराया, तब मुझे एहसास हुआ कि आज भी किसी पर जुल्म ढहाया जाना है. अब मैं भी झरोखे में आ कर बैठ गई. रमुआ को रस्सियों से बांध कर आंगन में डाल दिया गया था. अब बड़ी ठाकुर साहब के इशारे का इंतजार कर रही थी कि उस पर कोड़े बरसाना शुरू करे. मैं ने अपनी नौकरानी से उस को मारने की वजह पूछी, तब उस ने बताया, ‘‘मझली ठकुराइन, यहां तो यह सब होता ही रहता है. अरे, कोई बकाया पैसा नहीं दिया होगा.’’ रमुआ थरथर कांप रहा था.

तभी मैं ने उस नौकरानी से ठाकुर साहब के पास खबर भिजवाई कि मैं उन से मिलना चाहती हूं और मैं झरोखे के पीछे चली गई.

तभी वहां ठाकुर साहब आए और उन्होंने मेरी तरफ देखा

मैं ने कहा, ‘‘ठाकुर साहब, यह रमुआ मुझे ईमानदार और मेहनती लगता है, इसलिए इसे यहीं पटक देते हैं. पड़ा रहेगा. हवेली, खेतखलिहान के काम तो करेगा ही, यह मजबूत लठैत भी है.’’ ठाकुर साहब को मेरी सलाह पसंद आई, लेकिन दूसरों पर अपना खौफ बनाए रखने के लिए उन्होंने रमुआ को 10 कोड़े की सजा देते हुए हवेली के पिछवाड़े की कोठरी में डलवा दिया. एक दिन मैं ने नौकरानी से रमुआ को बुलवाया. हवेली में कोई भी मर्द औरतों से आमनेसामने बात नहीं कर सकता था, इसलिए बात करने के लिए बीच में परदा डाला जाता था. रमुआ ने परदे के दूसरी तरफ आ कर सिर झुका कर कहा, ‘‘मझली ठकुराइनजी आदेश…’’ झीने परदे में से मैं ने रमुआ को एक निगाह देखा. लंबा कद, गठा हुआ बदन. सांवले रंग पर पसीने की बूंदें एक अजीब सी कशिश पैदा कर रही थीं. उसे देखते ही मेरे तन की उमंगें और मन की तरंगें उछाल मारने लगीं.

मैं ने रमुआ पर रोब गांठते हुए कहा, ‘‘तो तू है रमुआ. अब क्या हवेली में बैठेबैठे ही खाएगा, यहां मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है… समझा?’’

यह सुन कर रमुआ घबरा गया और बोला, ‘‘आदेश, मझली ठाकुराइन.’’

मैं ने कहा, ‘‘इधर आ… यह जो ठाकुरजी की बैठक है, उस के ऊपर मयान (पुराने मकानों में छत इन पर बनाई जाती थी) में हाथ से झलने वाला पंखा लगा है. उस की डोरी निकल गई है. जरा उसे अच्छी तरह से बांध दे.’’ मैं अब भी परदे के पीछे नौकरानी के साथ खड़ी थी. रमुआ बंदर की तरह दीवार पर चढ़ कर मयान तक पहुंच गया और उस ने पंखे की सभी डोरियां बांध दीं. इस के बाद बैठक को साफ कर अच्छी तरह जमा दिया. दोपहर को ठाकुर साहब ने बैठक का इंतजाम देखा, तो उन्हें बहुत अच्छा लगा. जब उन्होंने इस बारे में नौकरानी से पूछा, तब उस ने मेरा नाम बताया. ठाकुर साहब की निगाह में मेरी इमेज अच्छी बनती जा रही थी.

एक दिन मैं ने ठाकुर साहब से कहा, ‘‘इस रमुआ को हवेली की हिफाजत के लिए रख लेते हैं और कहीं जाते समय मैं भी अपनी हिफाजत के लिए नौकरानी के साथ इसे भी रख लिया करूंगी.’’ ठाकुर साहब ने मेरी बात मान ली और मेरी हिफाजत की जिम्मेदारी रमुआ के ऊपर सौंप दी. हवेली से कुछ ही दूरी पर खेत था. खेत में मकान बना था, जिस से हवेली का कोई आदमी वहां जाए, तो उसे कोई परेशानी न हो. एक दिन मैं ने नौकरानी को बैलगाड़ी लगाने के लिए कहा. बैलगाड़ी के चारों डंडों पर चादर बांध दी गई थी, जिस से बाहर के किसी मर्द की निगाह हवेली की औरतों पर नहीं पडे़. चूंकि बड़ी अब 60 के पार हो चुकी थीं, इसलिए ये सब बंदिशें उन पर तो नहीं थीं, छोटी पर कम और मेरे ऊपर सब से ज्यादा थीं.

खैर, हवेली के दरवाजे से बैलगाड़ी तक दोनों तरफ परदे लगा दिए गए और मैं उन परदों के बीच से हो कर बैलगाड़ी में बैठ गई और रमुआ बैलगाड़ी पर लाठी रख कर हांकने लगा. खेत पर जा कर मैं ने रमुआ को मेड़ बांधने और पानी की ढाल ठीक करने के लिए कहा. थोड़ी देर में काली घटाएं उमड़घुमड़ कर बरसने लगीं. रमुआ अभी भी खेत पर काम कर रहा था. नौकरानी को मैं ने ऊपर के कमरे में भेज दिया और कहा, ‘‘जब चलेंगे, तब बुला लूंगी,’’ और बाहर से कुंडी लगा दी. बरसात तेज हो गई थी और रमुआ छपरे में खड़ा हो कर पानी से बच रहा था. मैं ने रमुआ को अंदर आने के लिए कहा, तभी जोर से बिजली कड़की और ऐसा लगा कि वह मकान पर ही गिर रही है. मैं ने डरते हुए रमुआ को जोर से जकड़ लिया. उस समय मैं रमुआ के लिए औरत और रमुआ मेरे लिए मर्द था.

थोड़ी देर में बरसात थम गई. मेरा मन सुख से भर गया था. रमुआ मुझ से आंखें नहीं मिला पा रहा था. मैं ने उसे फिर से खेत पर भेज दिया और ऊपर के कमरे में नौकरानी, जो अभी भी सो रही थी, को झिड़क कर उठाते हुए कहा, ‘‘क्या रात यहीं गुजारने का इरादा है?’’ नौकरानी हड़बड़ा कर उठी और बैलगाड़ी लगवाई. वापस हवेली में आ कर मैं ने रमुआ को दालान में बुलवाया और बड़ी से कोड़ा ले कर रमुआ पर एक ही सांस में 10-20 कोड़े बरसा दिए. मेरे इस बरताव की किसी को उम्मीद नहीं थी, लेकिन ठाकुर साहब और बड़ी खुश हो रहे थे कि मझली भी अब हवेली के रंगढंग में रचबस रही है. और उधर रमुआ अब भी यह नहीं समझ पाया कि आखिर मझली ठकुराइन ने उस पर कोड़े क्यों बरसाए?

पहली बात तो यह कि रमुआ को मैं ने एहसास दिलाया कि जो खेत पर हुआ है, उस के लिए उसे चुप रहना है, वरना… दूसरी, ठाकुर साहब और नौकरानी को यह एहसास दिलाना कि मुझे रमुआ से कोई लगाव नहीं है. तीसरी यह कि अगर हवेली में मेरे से वारिस आता है, तो उस के हक के लिए मैं कोडे़ भी बरसा सकती हूं. इस के बाद मैं ने ठाकुर साहब को रात मेरे कमरे में गुजारने की गुजारिश इतनी अदाओं के साथ की कि वे मना नहीं कर सके. मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि यह औरतों वाला तिरिया चरित्तर मुझ में कहां से आ गया, जिस के बल पर मैं अपने इरादे पूरे कर रही थी.

अगले दिन मैं पहले की तरह सामान्य थी. नौकरानी से रमुआ को बुला कर हवेली की साफसफाई कराई. वह अभी भी डरा और सहमा हुआ था. समय अपनी रफ्तार से गुजर रहा था. आज ठाकुर साहब की खुशियों का पारावार नहीं था. हवेली दुलहन की तरह सजी हुई थी. दावतों, कव्वाली और नाचगानों का दौर चल रहा था. कब रात होती, कब सुबह, मालूम नहीं पड़ता. जो पैसा अब तक हवेली की तिजोरियों में पड़ा था, खुशियां मनाने में खर्च हो रहा था, जगहजगह लंगर चल रहे थे, दानधर्म चल रहा था और हो भी क्यों नहीं, ठाकुर साहब का वारिस जो आ गया था. बड़ी और छोटी भी औरत थीं और इतने दिनों तक हवेली को वारिस नहीं देने की वजह वे जानती थीं, लेकिन इस के बावजूद वे यह समझ नहीं पा रही थीं कि मझली ने यह कारनामा कैसे कर दिया?

सीलन : दो सहेलियों की दर्द भरी कहानी

बचपन से ही वह हमेशा नकाब में रहती थी. स्कूल के किसी बच्चे ने कभी उस का चेहरा नहीं देखा था. हां, मछलियों सी उस की आंखें अकसर चमकती रहती थीं. कभी शरारत से भरी हुई, तो कभी एकदम शांत और मासूम. लेकिन कभीकभी उन आंखों में एक डर भी दिखाई देता था. हम दोनों साथसाथ पढ़ते थे. पढ़ाई में वह बेहद अव्वल थी. जोड़घटाव तो जैसे उस की जबां पर रहता था. मुझे अक्षर ज्ञान में मजा आता था. कहानियां, कविताएं पसंद आती थीं, जबकि गणित के समीकरण, विज्ञान, ये सब उस के पसंदीदा सब्जैक्ट थे.

वह थोड़ी संकोची, किसी नदी सी शांत और मैं एकदम बातूनी. दूर से ही मेरी आवाज उसे सुनाई दे जाती थी, बिलकुल किसी समुद्र की तरह. स्कूल में अकसर ही उसे ले कर कानाफूसी होती थी. हालांकि उस कानाफूसी का हिस्सा मैं कभी नहीं बनता था, लेकिन दोस्तों के मजाक का पात्र जरूर बन जाता था. मैं रिया के परिवार के बारे में कुछ नहीं जानता था. वैसे भी बचपन की दोस्ती घरपरिवार सब से परे होती है. बचपन से ही मुझे उस का नकाब बेहद पसंद था, तब तो मैं नकाब का मतलब भी नहीं जानता था. शक्लसूरत उस की अच्छी थी, फिर भी मुझे वह नकाब में ज्यादा अच्छी लगती थी.

बड़ी क्लास में पहुंचते ही हम दोनों के स्कूल अलग हो गए. उस का दाखिला शहर के एक गर्ल्स स्कूल में हो गया, जबकि मेरा दाखिला लड़कों के स्कूल में करवा दिया गया. अब हम धीरेधीरे अपनीअपनी दिलचस्पी के काम के साथ ही पढ़ाई में भी बिजी हो गए थे, लेकिन हमारी दोस्ती बरकरार रही. पढ़ाईलिखाई से वक्त निकाल कर हम अब भी मिलते थे. वह जब तक मेरे साथ रहती, खुश रहती, खिली रहती. लेकिन उस की आंखों में हर वक्त एक डर दिखता था. मुझे कभी उस डर की वजह समझ नहीं आई. अकसर मुझे उस के परिवार के बारे में जानने की इच्छा होती. मैं उस से पूछता भी, लेकिन वह हंस कर टाल जाती.

हालांकि अब मुझे समझ आने लगा था कि नकाब की वजह कोई धर्म नहीं था, फिर ऐसा क्या था, जो उसे अपना चेहरा छिपाने को मजबूर करता था? मैं अकसर ऐसे सवालों में उलझ जाता. कालेज में भी मेरे अलावा उस की सिर्फ एक ही सहेली थी उमा, जो बचपन से उस के साथ थी. मेरे मन में उसे और उस के परिवार को करीब से जानने के कीड़े ने कुलबुलाना शुरू कर दिया था. शायद दिल के किसी कोने में प्यार के बीज ने भी जन्म ले लिया था. मैं हर मुलाकात में उस के परिवार के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन उस की खिलखिलाहट में सब भूल जाता था. अकसर मैं अपनी कहानियों और कविताओं की काल्पनिक दुनिया उस के साथ ही बनाता और सजाता गया.

बड़े होने के साथ ही हम दोनों की मुलाकात में भी कमी आने लगी. वहीं मेरी दोस्ती का दायरा भी बढ़ा. कई नए दोस्त जिंदगी में आए. उन्हें मेरी और रिया की दोस्ती की खबर हुई. एक दिन उन्होंने मुझे उस से दूर रहने की नसीहत दे डाली. मैं ने उन्हें बहुत फटकारा. लेकिन उन के लांछन ने मुझे सकते में डाल दिया था. वे चिल्ला रहे थे, ‘जिस के लिए तू हम से लड़ रहा है. देखना, एक दिन वह तुझे ही दुत्कार कर चली जाएगी. गंदी नाली का कीड़ा है वह.’ मैं कसमसाया सा उन्हें अपने तरीके से लताड़ रहा था. पहली बार उस के लिए दोस्तों से लड़ाई की थी. मैं बचपन से ही अकेला रहा था. मातापिता के पास समय नहीं होता था, जो मेरे साथ बिता सकें. उमा और रिया के अलावा किसी से कोई दोस्ती नहीं. पहली बार किसी से दोस्ती हुई और

वह भी टूट गई. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह एक सर्द दोपहर थी. सूरज की गरमाहट कम पड़ रही थी. कई महीनों बाद हमारी मुलाकात हुई थी. उस दोपहर रिया के घर जाने की जिद मेरे सिर पर सवार थी. कहीं न कहीं दोस्तों की बातें दिल में चुभी हुई थीं.

मैं ने उस से कहा, ‘‘मुझे तुम्हारे मातापिता से मिलना है.’’

‘‘पिता का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरी बहुत सी मांएं हैं. उन से मिलना है, तो चलो.’’ मैं ने हैरानी से उस के चेहरे की ओर देखा. वह मुसकराते हुए स्कूटी की ओर बढ़ी. मैं भी उस के साथ बढ़ा. उस ने फिर से अपने खूबसूरत चेहरे को बुरके से ढक लिया. शाम ढलने लगी थी. अंधेरा फैल रहा था. मैं स्कूटी पर उस के पीछे बैठ गया. मेन सड़क से होती हुई स्कूटी आगे बढ़ने लगी. उस रोज मेरे दिल की रफ्तार स्कूटी से भी ज्यादा तेज थी. अब स्कूटी बदनाम बस्ती की गलियों में हिचकोले खा रही थी.

मैं ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘रास्ता भूल गई हो क्या?’’

उस ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल सही रास्ते पर हूं.’’ उस ने वहीं एक घर के किनारे स्कूटी खड़ी कर दी. मेरे लिए वह एक बड़ा झटका था. रिया मेरा हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचते हुए एक घर के अंदर ले गई. अब मैं सीढि़यां चढ़ रहा था. हर मंजिल पर औरतें भरी पड़ी थीं, वे भी भद्दे से मेकअप और कपड़ों में सजीधजी. अब तक फिल्मों में जैसा देखता आया था, उस से एकदम अलग… बिना किसी चकाचौंध के… हर तरफ अंधेरा, सीलन और बेहद संकरी सीढि़यां. हर मंजिल से अजीब सी बदबू आ रही थी. जाने कितनी मंजिल पार कर हम लोग सब से ऊपर वाली मंजिल पर पहुंचे. वहां भी कमोबेश वही हालत थी. हर तरफ सीलन और बदबू. बाहर से देखने पर एकदम छोटा सा कमरा, जहां लोगों के होने का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था. ज्यों ही मैं कमरे के अंदर पहुंचा, वहां ढेर सारी औरतें थीं. ऐसा लग रहा था, मानो वे सब एक ही परिवार की हों.

मुझे रिया के साथ देख कर उन में से कुछ की त्योरियां चढ़ गईं, लेकिन साथ वालियों को शायद रिया ने मेरे बारे में बता रखा था, उन्होंने उन के कान में कुछ कहा और फिर सब सामान्य हो गईं.

एकसाथ हंसनाबोलना, रहना… उन्हें देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि मैं किसी ऐसी जगह पर आ गया हूं, जो अच्छे घर के लोगों के लिए बैन है. वहां छोटेछोटे बच्चे भी थे. वे अपने बच्चों के साथ खेल रही थीं, उन से तोतली बोली में बातें कर रही थीं. घर का माहौल देख कर घबराहट और डर थोड़ा कम हुआ और मैं सहज हो गया. मेरे अंदर का लेखक जागा. उन्हें और जानने की जिज्ञासा से धीरेधीरे मैं ने उन से बातें करना शुरू कीं.

‘‘यहां कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस आ गई… मजबूरी थी.’’

‘‘क्या मजबूरी थी?’’

‘‘घर की मजबूरी थी. अपना, अपने बच्चों का, परिवार का पेट पालना था.’’

‘‘क्या घर पर सभी जानते हैं?’’

‘‘नहीं, घर पर तो कोई नहीं जानता. सब यह जानते हैं कि मैं दिल्ली में रहती हूं, नौकरी करती हूं. कहां रहती हूं, क्या करती हूं, ये कोई भी नहीं जानता.’’

मैं ने एक और औरत को बुलाया, जिस की उम्र 45 साल के आसपास रही होगी.

मेरा पहला सवाल वही था, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘‘मजबूरी.’’

‘‘कैसी?’’

‘‘घर में ससुर नहीं, पति नहीं, सिर्फ बच्चे और सास. तो रोजीरोटी के लिए किसी न किसी को तो घर से बाहर निकलना ही होता.’’

‘‘अब?’’

‘‘अब तो मैं बहुत बीमार रहती हूं. बच्चेदानी खराब हो गई है. सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए गई. डाक्टर का कहना है कि खून चाहिए, वह भी परिवार के किसी सदस्य का. अब कहां से लाएं खून?’’

‘‘क्या परिवार में वापस जाने का मन नहीं करता?’’

‘‘परिवार वाले अब मुझे अपनाएंगे नहीं. वैसे भी जब जिंदगीभर यहां कमायाखाया, तो अब क्यों जाएं वापस?’’

यह सुन कर मैं चुप हो गया… अकसर बाहर से चीजें जैसी दिखती हैं, वैसी होती नहीं हैं. उन लोगों से बातें कर के एहसास हो रहा था कि उन का यहां होना उन की कितनी बड़ी मजबूरी है. रिया दूर से ये सब देख रही थी. मेरे चेहरे के हर भावों से वह वाकिफ थी. उस के चेहरे पर मुसकान तैर रही थी. मैं ने एक और औरत को बुलाया, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर थी. मैं ने कहा, ‘‘आप को यहां कोई परेशानी तो नहीं है?’’

उस ने मेरी ओर देखा और फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘जब तक जवान थी, यहां भीड़ हुआ करती थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी. लेकिन अब कोई पूछने वाला नहीं है. अब तो ऐसा होता है कि नीचे से ही दलाल ग्राहकों को भड़का कर, डराधमका कर दूसरी जगह ले जाते हैं. बस ऐसे ही गुजरबसर चल रही है. ‘‘आएदिन यहां किसी न किसी की हत्या हो जाती है या फिर किसी औरत के चेहरे पर ब्लेड मार दिया जाता है. ‘‘अब लगता है कि काश, हमारा भी घर होता. अपना परिवार होता. कम से कम जिंदगी के आखिरी दिन सुकून से तो गुजर पाते,’’ छलछलाई आंखों से चंद बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं और वह न जाने किस सोच में खो गई.मुझे अचानक वह ककनू पक्षी सी लगने लगी. ऐसा लगने लगा कि मैं ककनू पक्षियों की दुनिया में आ गया हूं. मुझे घबराहट सी होने लगी. धीरेधीरे उस के हाथों की जगह बड़ेबड़े पंख उग आए. ऐसा लगा, मानो इन पंखों से थोड़ी ही देर में आग की लपटें निकलेंगी और वह उसी में जल कर राख हो जाएंगी. क्या मैं ऐसी जगह से आने वाली लड़की को अपना हमसफर बना सकता हूं? दिमाग ऐसे ही सवालों के जाल में फंस गया था.

अचानक ही मुझे बुरके में से झांकतीचमकती सी रिया की उदास डरी हुई आंखें दिखीं. मुझे अपने मातापिता  की भागदौड़ भरी जिंदगी दिख रही थी, जिन के पास मुझ से बात करने का वक्त नहीं था और साथ ही, वे दोस्त भी दिखे, जो अब भी कह रहे थे, ‘निकल जा इस दलदल से, वह तुम्हारी कभी नहीं होगी.’ मेरा वहां दम घुटने लगा. मैं वहां से बाहर भागा. बाहर आते ही रिया की अलमस्त सुबह सी चमकती हंसी ने हर सोच पर ब्रेक लगा दिया. मैं दूर से ही उसे खिलखिलाते देख रहा था. उफ, इतने दमघोंटू माहौल में भी कोई खुश रह सकता है भला क्या?

गुड्डन : कामवाली के प्यार से परेशान मालकिन की कहानी

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