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शिणगारी : आखिर क्यों आज भी इस जगह से दूर रहते हैं बंजारे ?

बंजारों के एक मुखिया की बेटी थी शिणगारी. मुखिया के कोई बेटा नहीं था. शिणगारी ही उस का एकमात्र सहारा थी. बेहद खूबसूरत शिणगारी नाचने में माहिर थी. शिणगारी का बाप गांवगांव घूम कर अपने करतब दिखाता था और इनाम हासिल कर अपना व अपनी टोली का पेट पालता था. शिणगारी में जन्म से ही अनोखे गुण थे. 17 साल की होतेहोते उस का नाच देख कर लोग दांतों तले उंगली दबाने लगे थे.ऐसे ही एक दिन बंजारों की यह टोली उदयपुर पहुंची. तब उदयपुर नगर मेवाड़ राज्य की राजधानी था. महाराज स्वरूप सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे थे. उन के दरबार में वीर, विद्वान, कलाकार, कवि सभी मौजूद थे.

एक दिन महाराज का दरबार लगा हुआ था. वीर, राव, उमराव सभी बैठे थे. महफिल जमी थी. शिणगारी ने जा कर महाराज को प्रणाम किया. अचानक एक खूबसूरत लड़की को सामने देख मेवाड़ नरेश पूछ बैठे, ‘‘कौन हो तुम?’’

‘‘शिणगारी… महाराज. बंजारों के मुखिया की बेटी हूं…’’ शिणगारी अदब से बोली, ‘‘मुजरा करने आई हूं.’’

‘‘ऐसी क्या बात है तुम्हारे नाच में, जो मैं देखूं?’’ मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘मेरे दरबार में तो एक से बढ़ कर एक नाचने वालियां हैं.’’

‘‘पर मेरा नाच तो सब से अलग होता है महाराज. जब आप देखेंगे, तभी जान पाएंगे,’’ शिणगारी बोली.

‘‘अच्छा, अगर ऐसी बात है, तो मैं तुम्हारा नाच जरूर देखूंगा. अगर मुझे तुम्हारा नाच पसंद आ गया, तो मैं तुम्हें राज्य का सब से बढि़या गांव इनाम में दूंगा. अब बताओ कि कब दिखाओगी अपना नाच?’’ मेवाड़ नरेश ने पूछा.

‘‘मैं सिर्फ पूर्णमासी की रात को मुजरा करती हूं. मेरा नाच खुले आसमान के नीचे चांद की रोशनी में होता है…’’ शिणगारी बोली, ‘‘आप अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार वाले टीले तक एक मजबूत रस्सी बंधवा दीजिए. मैं उसी रस्सी पर तालाब के पानी के ऊपर अपना नाच दिखाऊंगी.’’ शिणगारी के कहे मुताबिक मेवाड़ नरेश ने अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार बनेरावला दुर्ग के खंडहर के एक बुर्ज तक एक रस्सी बंधवा दी.पूर्णमासी की रात को सारा उदयपुर शिणगारी का नाच देखने के लिए पिछोला सरोवर के तट पर इकट्ठा हुआ. महाराजा व रानियां भी आ कर बैठ गए.

चांद आसमान में चमक रहा था. तभी शिणगारी खूब सजधज कर पायलें छमकाती हुई आई. उस ने महाराज व रानियों को झुक कर प्रणाम किया और दर्शकों से हाथ जोड़ कर आशीर्वाद मांगा. फिर छमछमाती हुई वह रस्सी पर चढ़ गई. नीचे ढोलताशे वगैरह बजने लगे. शिणगारी लयताल पर उस रस्सी पर नाचने लगी. एक रस्सी पर ऐसा नाच आज तक उदयपुर के लोगों ने नहीं देखा था. हजारों की भीड़ दम साधे यह नाच देख रही थी. खुद मेवाड़ नरेश दांतों तले उंगली दबाए बैठे थे. रानियां अपलक शिणगारी को निहार रही थीं. नाचतेनाचते शिणगारी पिछोला सरोवर के उस पार रावला दुर्ग के बुर्ज पर पहुंची, तो जनता वाहवाह कर उठी. खुद महाराज बोल पड़े, ‘‘बेजोड़…’’कुछ पल ठहर कर शिणगारी रस्सी पर फिर वापस मुड़ी. बलखातीलहराती रस्सी पर वह ऐसे नाच रही थी, जैसे जमीन पर हो. इस तरह वह आधी रस्सी तक वापस चली आई.

अभी वह पिछोला सरोवर के बीच में कुछ ठहर कर अपनी कला दिखा ही रही थी कि किसी दुष्ट के दिल पर सांप लोट गया. उस ने सोचा, ‘एक बंजारिन मेवाड़ के सब से बड़े गांव को अपने नाच  से जीत ले जाएगी. वीर, उमराव, सेठ इस के सामने हाथ जोड़ेंगे. क्षत्रियों को झुकना पड़ेगा और ब्राह्मणों को इस की दी गई भिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी…’ और तभी रावला दुर्ग के बुर्ज पर बंधी रस्सी कट गई. शिणगारी की एक तेज चीख निकली और छपाक की आवाज के साथ वह पिछोला सरोवर के गहरे पानी में समा गई.

सरोवर के पानी में उठी तरंगें तटों से टकराने लगीं. महाराज उठ खड़े हुए. रानियां आंसू पोंछते हुए महलों को लौट गईं. भीड़ में हाहाकार मच गया. लोग पिछोला सरोवर के तट पर जा खड़े हुए. नावें मंगवाई गईं. तैराक बुलाए गए. तालाब में जाल डलवाया गया, पर शिणगारी को जिंदा बचा पाना तो दूर उस की लाश तक नहीं खोजी जा सकी अगले दिन दरबार लगा. शिणगारी का पिता दरबार में एक तरफ बैठा आंसू बहा रहा था.मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘बंजारे, हम तुम्हारे दुख से दुखी हैं, पर होनी को कौन टाल सकता है. मैं तुम्हें इजाजत देता हूं कि तुम्हें मेरे राज्य का जो भी गांव अच्छा लगे, ले लो.’’ ‘‘महाराज, हम ठहरे बंजारे. नाच और करतब दिखा कर अपना पेट पालते हैं. हमें गांव ले कर क्या करना है. गांव तो अमीर उमरावों को मुबारक हो…’’ शिणगारी का बाप रोतेरोते कह रहा था, ‘‘शिणगारी मेरी एकलौती औलाद थी. उस की मां के मरने के बाद मैं ने बड़ी मुसीबतें उठा कर उसे पाला था. वही मेरे बुढ़ापे का सहारा थी. पर मेरी बेटी को छलकपट से तो नहीं मरवाना चाहिए था अन्नदाता.’’मेवाड़ नरेश कुछ देर सिर झुकाए आरोप सुनते रहे, फिर तड़प कर बोले, ‘‘तेरा आरोप अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. अगर तुझे यकीन है कि रस्सी किसी ने काट दी है, तो तू उस का नाम बता. मैं उसे फांसी पर चढ़वा कर उस की सारी जागीर तुझे दे दूंगा.’’

‘‘ऐसी जागीर हमें नहीं चाहिए महाराज. हम तो स्वांग रच कर पेट पालने वाले कलाकार हैं,’’ शिणगारी के पिता ने कहा.

‘‘तो तुम जो चाहो मांग लो,’’ मेवाड़ नरेश गरजे.

‘‘नहीं महाराज…’’ आंसुओं से नहाया बंजारों का मुखिया बोला, ‘‘जिस राज्य में कपटी व हत्यारे लोग रहते हैं, वहां का इनाम, जागीर, गांव लेना तो दूर की बात है, वहां का तो मैं पानी भी नहीं पीऊंगा. मैं क्या, आज से उदयपुर की धरती पर बंजारों का कोई भी बच्चा कदम नहीं रखेगा महाराज.’’

यह सुन कर सभा में सन्नाटा छा गया. वह बंजारा धीरेधीरे चल कर दरबार से बाहर निकल गया. इस घटना को बीते सदियां गुजर गईं, पर अभी भी बंजारे उदयपुर की जमीन पर कदम नहीं रखते हैं.

पीढ़ी दर पीढ़ी बंजारे अपने बच्चों को शिणगारी की कहानी सुना कर उदयपुर की जमीन से दूर रहने की हिदायत देते हैं.

दुख की छांव में सुख की धूप : बहू की बेरंग जिंदगी में रंग भरती सास

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कोहरा : किसी की मौत किसी की कमाई का जरिया बन जाती है.. उफ…

जनवरी में कड़ाके की ठंड और कोहरे के चलते दोपहर के बाद ही लगता है दिन ढल गया. पिछले एक महीने से कोहरे की यही स्थिति है. लगता है इस बार सर्दी पिछले सारे रिकार्ड तोड़ देगी.

शव यात्रा की बस जैसे ही श्मशान घाट पहुंची, कई लोगों ने आ कर बस को घेर लिया. बस के साथ 20-25 गाडि़यों का काफिला भी था. लगता था कि किसी बड़े आदमी का श्मशान पर आना हुआ है वरना आजकल 10-15 आदमी भी मुश्किल से जुट पाते हैं. अब किसे फुरसत है जो दो कदम जाने वाले के साथ चल सके.

अपनीअपनी गाडि़यों में से निकल कर लोग शव वाहन के पास आ कर जमा हो गए. अच्छी दक्षिणा मिलने की उम्मीद में राघव की आंखों में चमक आ गई. वह पिछले 20 सालों से अपने पूरे परिवार के साथ यहां है. अब तो उस का बेटा भी उस के काम में सहयोग करता है. बड़े बेटे खिल्लू ने तो चाय की गुमटी में एक छोटामोटा होटल ही खोल लिया है. अंदर बैठने की भी व्यवस्था है. 8-10 लोग कुरसियों पर बैठ कर आराम से चाय पी सकते हैं. दुकान में बीड़ी, सिगरेट, माचिस और बिस्कुट सभी कुछ मिलता है.

दुकान के करीब एक नल भी है. लोग हाथमुंह धो कर अकसर चाय की फरमाइश कर ही देते हैं. गरमियों में ठंडा भी मिलता है. कई बार भीड़ ज्यादा हो तो खिल्लू आवाज लगा कर जीवन को भी बुला लेता है. जीवन 14-15 साल का उस का छोटा भाई है. मां भी अकसर हाथ बंटाती रहती हैं. एक नौकर भी दुकान पर है. आजकल ठंड के कारण लोग भट्ठी के पास सिमट आते हैं और हाथ सेंकते रहते हैं. चाय का आर्डर भी खूब मिलता है. एक मुर्दे को जलाने में 3 साढ़े 3 घंटे तो लग ही जाते हैं.

राघव हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया, ‘‘बाबूजी, इधर आइए. यह शेड खाली है.’’

शव वाहन के साथ आए आदमियों में से एक जा कर शेड देख आया. लोग अरथी को उठा कर कंधों पर रखते तभी एक लाला टाइप आदमी ने टोक दिया :

‘‘बाबूजी, 10 मन लकडि़यां काफी होंगी?’’

तभी राघव चीखा, ‘‘अरे, पूछता क्या है? तु   झे नहीं पता कि एक मुर्दे के लिए कितनी लकडि़यां चाहिए. बाबूजी क्या मोलभाव करेंगे? कौन रोजरोज मरने आता है. बस, यही एक अंतिम खर्चा है.’’

राघव की बातें सुन कर वह आदमी जाने लगा. राघव ने फिर कहा, ‘‘रज्जो, ध्यान रखना लकडि़यां सूखी हों.’’

‘‘और बाबूजी,’’ राघव बोला, ‘‘फूल, बताशे, घी, गंगाजल आदि?’’

‘‘नहीं, हमारे पास सब हैं,’’ शव के साथ आए एक अन्य व्यक्ति ने उत्तर दिया.

‘‘और पंडित?’’

एक व्यक्ति ने गाड़ी में अंदर    झांक कर मालूम किया तो पता चला कि पंडित साथ नहीं आया था.

‘‘घबराने की बात नहीं है बाबूजी,’’ राघव बोला, ‘‘यहां सब व्यवस्था हो जाएगी,’’ फिर आवाज लगाई, ‘‘अरे, जीवन, जा जरा पंडितजी को बुला ला.’’

सबकुछ पल भर में तैयार. एक आवाज पर हर काम में पारंगत आदमी मिल जाता है. कोई    झं   झट नहीं. बस, कुछ पैसे चाहिए. पंडित भी कुछ मिनटों में हाजिर हो गया.

अरथी को एक टिन शेड के नीचे ले जाया गया. पंडित ने जमीन पर गंगाजल छिड़का, थोड़ा दूध भी छिड़का, कुछ फूलों की पंखडि़यां और बताशे डाले. फिर अरथी को नीचे रखने का इशारा किया. इस दौरान वह मंत्रों जैसा कुछ संस्कृत में बुदबुदाता रहा. इसी समय लकडि़यां भी आ गईं. साथ आए लोग चिता तैयार करने के लिए आगे बढ़े तभी 2 लोगों ने टोका :

‘‘बाबूजी, यह हमारा काम है. अभी किए देते हैं.’’

उन दोनों ने टिन शेड के एक कोने में चिता तैयार कर दी. अरथी खोल कर उस पर पड़ी चादर, कफन, रूमाल, गोले, रुपए चिता तैयार करने वालों ने समेट लिए. पंडित ने फिर गंगाजल छिड़का, फूल चढ़ाए और साथ आए लोगों से अरथी को चिता पर रखने को कहा. पंडित कर्मकांड कराता रहा और कपाल क्रिया तक वहीं बना रहा. साथ आए लोग चिता के पूरी तरह जलने के इंतजार में इधरउधर छिटक कर बैठ गए. कुछ चाय की गुमटी पर रुक गए. ठंड भी खूब पड़ रही है. कोहरा भी खूब छाया है. चाय की भट्ठी पर कुछ लोग हाथ सेंकने लगे. राघव घूमघूम कर देखता कि चिता की आग कहीं से धीमी तो नहीं पड़ गई. हाथ में पकड़े बांस से जलते लट्ठों को कुरेद देता. आग और तेज हो जाती. शेड के दूसरे कोने में भी चिता जल रही थी. राघव उधर भी जा कर देख आता और वहां भी उलटपुलट कर देता.

5 बड़ेबड़े शेड थे और सभी में 2-2, 3-3 चिताएं जल रही थीं. वैसे भी एक शेड में 5-6 चिताएं आराम से जल सकती थीं. चिताओं की लपटों की गरमी से ठंड में ठंड का एहसास नहीं होता. राघव की तरह ही बनवारी, श्यामू, जग्गू और काले खां के भी शेड्स हैं. किसी को पलक झपकाने की भी फुरसत नहीं है.

कोहरे के कारण खूब ऐक्सीडैंट हो रहे हैं. खूब चिताएं जल रही हैं. ठंड या बीमारी से जाड़ों में अधिक मौत नहीं होतीं, लेकिन इस बार सभी पर लक्ष्मी की अपार कृपा बरस रही है. लगता है पूरे साल की कमाई कुछ ही दिनों में हो जाएगी. इन सब के लिए मरने वाला आदमी 1,000-500 का नोट है. कोई मोहममता नहीं. अपने काम में मोहममता कैसी? आदमी अपना व्यवसाय देखता है. वे सभी व्यवसाय से बंधे हैं. पंडित को भी पूजा कराने की फुरसत नहीं. सभी के रेट निश्चित हैं. चाय की गुमटी के बाहर की दीवार पर रेटलिस्ट लगी है. मुर्दे के घरवाले उसी के मुताबिक सब के पैसे गिन कर खिल्लू को थमा देते हैं. वही सब का हिसाब चुकता कर देता है.

खिल्लू ने एक मोटरसाइकिल भी ले ली है. राघव का पक्का दोमंजिला मकान बन गया है. पत्नीबच्चे अब भूख से नहीं बिलखते. चिता की आग में उन की भूख जल गई है. कितना कुछ बदल गया है. शुरूशुरू में मुर्दे को छूते राघव के हाथ कांपे थे, दिल रोया था. सारा दिन मन खराब रहा कि मुर्दे की कमाई खाएगा. कफन ओढ़ेगाबिछाएगा, लेकिन धीरेधीरे आदत बन गई.

कफन और चादरें साप्ताहिक बाजार में बिक जाती हैं. सोच को एक तरफ    झटक राघव जल्दीजल्दी बांस चलाने लगा. मुर्दा पूरा फूंकने की गारंटी उसी की है. परसों अस्थियां चुनी जाएंगी. राघव पूरी तरह चुस्तदुरुस्त है. तभी ‘राम-नाम-सत्य है’ की आवाज कानों में पड़ी. एक और अरथी आ कर रुक गई. पहली अरथी के लोग धीरेधीरे खिसकने लगे. राघव भी बांस एक तरफ टिका आने वाली अरथी की ओर लपक लिया.

इजराइल-फिलिस्तीन जंग

इजराइल को पश्चिम एशिया का मिलिट्री ताकत के रूप में सब से मजबूत देश माना जाता है. वह अपने पर हमला करने वाले हर देश व गुट को जड़ से उखाड़ देने की धमकी ही नहीं देता, कितनी बार कर के दिखा भी चुका है. उस के खिलाफ फिलिस्तीनियों के एक गुट हमास द्वारा 7 अक्तूबर को किया गया जबरदस्त हमला, जिस में करीब 5,000 रौकेट एकसाथ दागे गए और समुद्र व जमीन से हमलावर इजराइल में घुसे भी, एक अचंभा था.

इजराइल की बांह मरोड़ने की आदत को अलोकतांत्रिक मानते हुए भी जो देश उस का साथ देते रहे हैं वे हमास के इस हमले से भौचक्के रह गए हैं. इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा तो है कि वे ऐसा सबक सिखाएंगे कि हमलावर आगापीछा भूल जाएंगे पर लगता है फिलिस्तीन ने अब मरनेमारने का वैसा ही फैसला किया है जैसा रूस के खिलाफ यूक्रेन के व्लोदोमीर जेलेंस्की ने पिछले साल लिया था कि वे रूस के हमले का जवाब सही ढंग से देंगे.

इजराइल असल में उन यहूदियों द्वारा बनाया गया देश है जो द्वितीय विश्वयुद्ध में 1,500 से 2,000 वर्ष पहले इस इलाके को छोड़ कर पूरे यूरोप में बस गए थे क्योंकि यहां उन पर रोमन साम्राज्य हमले कर रहा था. इसलाम बाद में आया. जो गैरयहूदी इस इलाके में थे उन में से कुछ ईसाई बने और कुछ मुसलमान.

फिलिस्तीनी भी इस इलाके में सदियों से रह रहे थे पर यूरोप ने हिटलर के जुल्मों के शिकार यहूदियों को अपना एक देश देने का फैसला किया और फिलिस्तीनियों से जगह छीन कर यहूदियों को बसा दिया.

वर्ष 1947 से अब तक इजराइल में दुनियाभर से आ कर बसे यहूदियों ने इस बंजर, पथरीले, रेतीले इलाके को आबाद कर दिया. आसपास के देशों को पछाड़ते हुए यहूदियों ने इतना उत्पादन किया कि प्रतिव्यक्ति उत्पादन वहां 52,170 डौलर है जिस के मुकाबले भारत का लगभग 2,020 डौलर और चीन का 14,000 डौलर व यूरोप के मुसलिम बहुल देश तुर्की का 10,000 डौलर के आसपास है.

फिलिस्तीनी गरीबी और गुरबत में इजराइली सेना के साथ में इजराइल से घिरे कुछ इलाकों और समुद्र के किनारे गाजा पट्टी में रहते हैं. फिलिस्तीनियों का यह ताजा हमला गाजा पट्टी से हुआ क्योंकि समुद्री रास्ते से हथियार लाना संभव था. इजराइल अब गाजा पट्टी पर बने शहरों पर जबरदस्त हमले कर रहा है पर इस लड़ाई में कौन जीतेगा, यह कहना मुश्किल है.

मोटे तौर पर यह फिलिस्तीनियों का आत्मघाती हमला है क्योंकि वे इजराइल की ताकत और उस को मिलने वाले हथियारों का मुकाबला नहीं कर सकते. फिर भी नेतन्याहू ने माना है कि उन का देश हमास के खिलाफ एक लंबी लड़ाई में फंसने वाला है. कुल 23 लाख की आबादी वाले हमास के कंट्रोल में फिलिस्तीन का यह इलाका इतनी हिम्मत दिखा रहा है, यह बड़ी बात है. सही या गलत क्या है, यह दूसरी बात है.

इजराइल असल में पश्चिम एशिया में एक बिगड़ैल बुलडौग की तरह व्यवहार करता है और पिछले युद्धों की सफलता व आर्थिक संपन्नता का नशा उस पर बहुत है. फिर भी, जैसे गुफाओं और पहाडि़यों में रहते अफगानों ने रूस, अमेरिका और पाकिस्तान को पस्त किया, यदि वैसे ही हमास ने मरने की ठान ली है तो इजराइल का एक लंबे युद्ध में फंसना तय है.

यह एक उदाहरण है उन सब देशों के लिए जहां शासक अत्याचार, पुलिस, सेना के सहारे जनता को कुचल कर राज करने की कोशिश करते हैं. यह एक ऐसा उदाहरण है जो देश के बाहर वालों और देश के अंदर अपनी ही जनता दोनों के लिए है.

अभी कुछ वर्षों पहले ट्यूनीशिया, इजिप्ट (मिस्र) और सीरिया में जनता के विद्रोह का बड़ा असर हुआ था. हमास की लड़ाई में फिलिस्तीनी जनता एकसाथ है या नहीं, पता नहीं. वह अपने घरबार न्योछावर करने को तैयार है या नहीं, पता नहीं.

यदि वह तैयार है तो जैसे यहूदियों ने 1940-45 के बीच बुरी तरह अत्याचार झेलने के बाद एक खुशहाल देश इजराइल बनाया था, हमास भी अपने लोगों को एक नई उम्मीद दे सकता है. हां, अगर वे अल्लाह पर ही निर्भर रहे, तो शायद कुछ न होगा और फिर फिलिस्तीनी मजदूर इजराइल में नौकरी करने के लिए दिनभर के परमिटों की लाइनों में खड़े मिलेंगे.

दीपोत्सव या घूसोत्सव

पिछले साल दीवाली के इन्हीं दिनों में कर्नाटक की भाजपा सरकार पर लगा यह आरोप काफी सुर्खियों में रहा था कि मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने अपने करीबी सहयोगियों के जरिए राज्य के कुछ पत्रकारों को मिठाई के डब्बों के साथ एक से ढाई लाख रुपए तक नकद भिजवाए थे. तब न केवल मीडिया बल्कि सोशल मीडिया पर भी मीम्स और प्रतिक्रियाओं की झड़ी लग गई थी. यूजर्स ने जम कर बसवराज बोम्मई को ट्रोल किया था. मामले में दिलचस्पी और हैरत तब और बढ़ी थी जब कुछ पत्रकारों द्वारा दीवाली उपहार या रिश्वत में मिला पैसा वापस कर देने की खबरें आई थीं.

कांग्रेस इस मुद्दे पर दिल्ली से ले कर बेंगलुरु तक हमलावर रही थी और सकपकाए मुख्यमंत्री सफाई देते रह गए थे. लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार हुई तो सहज लगा था कि दाल में कुछ तो काला था.

बात आईगई हो गई लेकिन दीवाली के तोहफों के एक और स्याह सच के साथ वह यह भी उजागर कर गई कि उपहाररूपी रिश्वतखोरी केवल सरकारी महकमों में ही आम नहीं है, मीडिया भी इस का हिस्सा है क्योंकि अपनी पहुंच और हैसियत के मुताबिक वह काफीकुछ बना और बहुतकुछ बिगाड़ भी सकती है. मीडिया की घटती विश्वसनीयता किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है लेकिन यह मामला एक शक को यकीन में बदल गया था कि क्यों दीवाली पर तोहफों के लेनदेन का रिवाज बढ़ रहा है.

उपहार उल्लू सीधा करने का जरिया

दीवाली पर उपहार देना बेहद आम बात है लेकिन अब यह रिश्वतखोरी का दूसरा नाम हो गया है क्योंकि मौका भी होता है, मौसम भी होता है और दस्तूर तो है ही. एक स्वस्थ परंपरा को भी कैसे घूसखोरी और घूसखोरों ने अपना उल्लू सीधा करने का जरिया बना लिया है, बड़े पैमाने पर इस की एक मिसाल अब से कोई 7 साल पहले तब सामने आई थी जब तत्कालीन केंद्रीय वित्त सचिव हसमुख आधिया को किसी ने दीवाली के तोहफे में सोने के 2 बिस्कुट भिजवाए थे. यह राज खुद हसमुख आधिया ने ही खोला था कि उन के राजस्व सचिव रहते किसी ने इतनी बड़ी घूस देने की हिमाकत की.

गौरतलब है कि हसमुख उन इनेगिने रसूखदार और पहुंच वाले अफसरों में से थे जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 8 नवंबर, 2016 को लागू होने वाली नोटबंदी की अग्रिम जानकारी थी. तब वित्त मंत्री अरुण जेटली थे. जब बवाल मचा तो सवाल भी उठने लगे. लेकिन मीडिया के सामने बड़ी मासूमियत से उन्होंने इतना भर कहा था कि यह रहस्मयी कीमती उपहार उन के मोतीबाग स्थित आवास पर भेजा गया था और इस की डिलीवरी के वक्त वे घर पर नहीं थे.

वित्त विभाग का एक बड़ा अधिकारी किसी कुबेर से कम नहीं होता जिस की जेब में सरकार यानी जनता के खरबों के खजाने की चाबी रहती है.

हसमुख आधिया ने खुद पहल करते मामला उजागर किया था. इस बाबत उन की तारीफ ही हुई थी लेकिन इस सवाल का जवाब वे टाल गए थे कि फिर क्यों इस मामले और रिश्वतदाताओं की पहचान के लिए उन्होंने केंद्रीय जांच ब्यूरो से जांच की मांग नहीं उठाई.

इस पर उन्होंने चतुराई से यह कहते बात खत्म कर दी थी कि उन्होंने सोने के उन बिस्कुटों को सरकारी तोशखाने में जमा करवा दिया है. तब सूंघने वाले हालांकि यह कहते नजर आए थे कि यह कीमती उपहार कथित रूप से नीरव मोदी ने भेजा था या भेजा होगा.

शिष्टाचार बना भ्रष्टाचार

बात यह भी आईगई हो गई लेकिन स्पष्ट यह कर गई कि दीवाली पर उपहारों की आड़ में कितनी भारीभरकम घूस ली व दी जाती होगी. अब अगर देशभर के सभी अधिकारी दीवाली पर मिले उपहारों को हसमुख आधिया की तरह सरकारी तोशखाने में ईमानदारी से जमा कराने लगें तो देश में खाने की कमी न रहेगी.

अब से कोई 40-50 साल पहले तक दीवाली पर उपहार देना शिष्टाचार माना जाता था, जो अब पूरी तरह से भ्रष्टाचार में तबदील हो गया है. दीवाली के दिनों में किसी भी बड़े नेता, मंत्री और सरकारी अधिकारियों के यहां तोहफे देने वालों की लाइन लगी रहती है. दाताओं के हाथ में दिखते तो मिठाई के डब्बे हैं लेकिन उन के अंदर होती है लक्ष्मी जो अपनी स्वार्थसिद्धि और लेने वाले की हैसियत के मुताबिक नोटों की शक्ल में पैक की जाती है. भोपाल के पौश इलाके चारइमली में आईएएस अधिकारी और मंत्री-नेता रहते हैं. दीवाली के दिनों में इस इलाके में हरेक बंगले के बाहर तरहतरह की महंगी से महंगी कारों के दर्शन होते हैं.

ऐसे ही एक आईएएस अधिकारी के पास से रिटायर हुए क्लर्क की मानें तो सिर्फ नकदी ही नहीं बल्कि साहबों के पास तोहफों या घूस कुछ भी कह लें, में सोने के जेवरात, महंगेमहंगे मोबाइल फोन, नए दौर के चपटे वाले टीवी (एलसीडी प्लाज्मा), लैपटौप, विदेशी शराब की बोतलें और, और भी जाने क्याक्या आता है. दिनभर आम और खास लोगों की आवाजाही लगी रहती है. साहब गिफ्ट के डब्बों को कुरसी के पीछे की तरफ खिसकाते जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे ब्रैंडेड मंदिरों के पुजारी चढ़ावे में आए नारियलों को फेंकते नजर आते हैं. मिठाई वह भी महंगीमहंगी तो क्ंिवटलों से आती है जिसे साहब लोग उदारतापूर्वक अपने स्टाफ को बांट देते हैं क्योंकि वे खुद इतनी मिठाई खा ही नहीं सकते.

किस ने क्या दिया, इस का हिसाब साहब लोग जेहन में रखते हैं, डायरी में नहीं लिखते. तोहफे की कीमत के हिसाब से देने वाले के काम कर दिए जाते हैं. किसी को ठेका चाहिए तो किसी को टैंडर पास कराना रहता है, किसी को मुद्दत से अटका पेमैंट या वर्कऔर्डर पास कराना होता है. तबादले के ख्वाहिशमंद भी साहबों की दीवाली की रोशनी के लिए लक्ष्मी लिफाफों में ठूंस कर दे आते हैं. बड़े उपहारों का लेनदेन दीवाली के दस दिनों पहले से शुरू हो कर देवउठनी ग्यारस तक चलता रहता है. इन तोहफों के जरिए करोड़ों के काम हो जाते हैं जिन के बारे में कहा जा सकता है कि हलदी लगे न फिटकरी, रंग भी आए चोखा. वैसे तो शायद ही कभी रहता हो लेकिन दीवाली के उपहार लेते वक्त किसी के दिल में गिल्ट नहीं रहता क्योंकि तोहफे को तोहफा ही माना व सम?ा जाता है, घूस नहीं. बेईमानी के अपराधबोध से बचने के लिए इन से बेहतर दिनरात और क्या होंगे.

इन दिनों में देने वाला भी निडर हो कर साहब के सामने पहुंच खीसें निपोर कर कहता है- ‘दीवाली की मिठाई है, सर, स्वीकार करें.’ उधर सर की चिंता यह रहती है कि सचमुच ही डब्बे में केवल मिठाई ही न हो जो मेरे किस काम की क्योंकि डायबिटीज, ब्लडप्रैशर और पाइल्स वगैरह पहले से ही घेरे हुए हैं. यानी, डब्बे में मिठाई का होना टैंशन की वजह बन जाता है. इसलिए तजरबेकार दाता 2 तरह के डब्बे ले जाता है- एक मिठाई वाला और दूसरा नोटों वाला. ड्राई फ्रूट्स वाला डब्बा साहब रख लेता है और मिठाई वाला डब्बा माली या ड्राइवर को दीवाली के ईनाम में मिल जाता है और कैश वाला, जिस में वजन कम होता है, सर की लक्ष्मी मैडम नफासत व नजाकत से तिजोरी में डाल देती हैं.

छोटे भी कम खोटे नहीं

रिश्वतखोर देवीदेवताओं की तरह होते हैं जिन की पूजा न करो यानी दक्षिणा न दो तो काम निचले लैवल पर भी अटक जाता है. यानी, घूस केवल अधिकार संपन्न क्लास वन और टू अफसर ही नहीं खाते बल्कि दीवाली पर छोटे दर्जे के मुलाजिमों की ?ाली भी तोहफों से भरी होती है. यह और बात है कि औकात के हिसाब से तोहफे बहुत ज्यादा बड़े नहीं होते. सरकारी क्लर्क यानी बाबू से होते हुए चलें तो पुलिस कौंस्टेबल, पटवारी के अलावा खाद्य और आबकारी सहित दर्जनों विभागों के इंस्पैक्टर्स भी घूसोत्सव का सुख भोगते हैं.

इन से भी छोटे होते हैं चपरासी जिन की स्थिति या गिनती वैसी ही होती है जैसी सनातन धर्म में शूद्रों की होती है. इस वर्ण के कर्मचारियों, जिन्हें हेय नजर से देखते फोर्थ क्लास वाला कहा जाता है, को हजारपांच सौ के लिफाफे ज्यादा मिलते हैं, जिस से ये सालभर कभी दाता का साहब तक पहुंचने का रास्ता न रोकें.

संक्षिप्त में कहें तो इन की स्थिति शंकर मंदिर के बाहर विराजे नंदी जैसी होती है जिसे कुछ न भी दो तो काम में कोई विघ्न नहीं आता. लेकिन चूंकि उपहार देने वाला अंधविश्वासी और आशंकित रहता है, इसलिए इन्हें भी कुछ न कुछ देता है. इस मानसिकता के पीछे एक अनैतिक कृत्य को नैतिकता का जामा पहनाने की कोशिश भी ज्यादा रहती है कि यह बेचारा भी तो आखिर घरगृहस्थी वाला आदमी ही है, इस को भी घूस ले कर दीवाली मनाने का हक है.

कई साहब लोग तो बचाव के लिए इन छोटों को ही मोहरा बना लेते हैं, इसलिए आएदिन ऐसी खबरें दिल हिला और दुखा जाती हैं कि चपरासी के यहां से करोड़ों मिले या लगभग 5 लाख रुपए सालाना की पगार लेने वाला बाबू 50 करोड़ रुपए का आसामी निकला. दिल इसलिए नहीं दुखता कि रिश्वत लेनदेन के प्रचलित प्रकारों में से एक यह भी है, बल्कि इसलिए भी दुखता है कि हम अगर ठसक छोड़ते चपरासी या बाबू ही बन जाते तो करोड़ों में खेल रहे होते.

मुंशी प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दारोगा’ में इस मानसिकता को उठाया है. कहानी का केंद्रीय पात्र मुंशी बंसीधर नौकरी की तलाश में निकलता है तो उस का बुजुर्ग पिता उसे सलाह देता है कि नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना. यह तो पीर का मजार है, निगाह चादर और चढ़ावे पर रखनी चाहिए. पगार आदमी देता है लेकिन बरकत भगवान देता है.

पहले जांच नहीं होती थी, अब चुनिंदा मामलों में होने लगी है जिन में साहब पर आंच भी नहीं आती और सालोंसाल मुकदमा चलता रहता है जिस का कोई रंज चपरासी या बाबू को नहीं होता क्योंकि जिंदगीभर की जीहुजूरी वाली नौकरी करने के बाद भी वह उतना नहीं कमा पाता जितना कि सालछह महीने साहब की लक्ष्मी पर सांप जैसे कुंडली मार कर बैठे रहने से हिस्से में आ जाता है.

अपराध नहीं है उपहार

दीवाली लक्ष्मीपूजन का त्योहार है जिस में और लक्ष्मी आने की कामना के लिए क्याक्या किया जाता है, यह घर के आसपास नजर डालने से पता चल जाता है. लोग धन की देवी को और धन आने के लिए रिश्वत देते हैं.  फलफूल, मिठाई, नकदी और सजावट सामग्री में ही तबीयत से पैसा फूंकते हैं जिस से लक्ष्मी प्रसन्न हो और बकौल प्रेमचंद, उस का बरकत वाला रूपस्वरूप हमारे द्वार पर आए. लेकिन चंचला लक्ष्मी जाती वहीं है जहां वह पहले से इफरात से होती है. अब यह घूस की या तोहफों की शक्ल में जाती है तो यह कोई जुर्म नहीं है, बल्कि सदियों से चला आ रहा शिष्टाचार है जिसे मानव मात्र ने ईश्वर की आराधना से सीखा कि जब कुछ पैसे चढ़ाने से वह खुश हो जाता है और 11 या 21 रुपए के एवज में करोड़ों के काम करवा सकता है तो साहबों और बाबुओं सहित दूसरों की औकात क्या.

अब यह शिष्टाचार लोग जरूरत से ज्यादा निभाने लगे हैं, इसलिए इस में कुछकुछ लोगों को भ्रष्टाचार नजर आने लगा है. ये वे कुंठित लोग हैं जिन्हें दीवाली के शुभ अवसर पर लाखोंकरोड़ों के उपहार नहीं मिलते.

ये वे लोग हैं जो बेईमानी नहीं कर पाते या बेईमानी से पैसे कमाने और बनाने लायक इन्हें मौके और अधिकार ही नहीं मिले. इन की तिलमिलाहट से सिस्टम तो नहीं बदलता, हां, मौका मिले तो ये खुद बदल जाते हैं. इन की भड़ास या मांग भी मूलतया बराबरी के मौकों और अधिकारों की होती है.

दीवाली का उपहार अभी घोषित जुर्म नहीं है. इस का यह मतलब नहीं कि पहले कभी था या आगे कभी होगा. इसलिए इस में कोई पकड़ा नहीं जाता और किसी को सजा भी नही होती. इस पर लगाम कसने को इनकम टैक्स एक्ट में इतना प्रावधान भर है कि अगर आप को सालभर में 50 हजार रुपए से ज्यादा के उपहार मिलते हैं तो उस पर स्लैब के मुताबिक टैक्स लगना शुरू हो जाएगा, जिसे वैल्यू टैक्स कहा जाता है. अब इसे घूस का लाइसैंसीकरण न कहने की कोई वजह नहीं है. आप इत्मीनान से 5 करोड़ रुपए के उपहार लो और वैल्यू टैक्स अदा कर रिश्वतखोर होने के अपराध व अपराधबोध दोनों से बच जाओ. लेकिन ऐसा भी नहीं होता, इनेगिने हरिश्चंद्र ही होंगे जो उपहारों की जानकारी सरकार को देते हों.

घूसखोरी सिस्टम की तरह विकसित हो चुकी है. उसे खत्म करने की कोशिश उसे और ही बढ़ावा देने वाली साबित होगी. दीवाली पर कौन किस को क्या उपहार दे रहा है, इस के लिए अलग से कोई महकमा बना दिया जाए तो उस के मुलाजिम दीवाली के दिनों में लेने वाले के यहां कुरसी डाल कर बैठ जाएंगे. कुछ दिनों बाद देने वाले उसे भी आंखें बंद रखे रिश्वत देने लगेंगे. सो, मौजूदा सिस्टम ही ठीक है.

बात निराशाजनक न लगे, इसलिए कहा जा सकता है कि इतफाक और लोकतंत्र की किस्मत से कभी कोई दृढ़ इच्छाशक्ति वाली सरकार आई तो शायद कुछ हो. हालांकि 8 नवंबर, 2016 की नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि इस से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा लेकिन वह बजाय खत्म होने के और फलफूल रहा है. सुबूत सब से ऊपर दिया गया है कि उन्हीं की पार्टी के एक मुख्यमंत्री ने पत्रकारों को उपहाररूपी घूस पिछली ही दीवाली पर दी थी.

महंगाई है पर दीवाली है

वैसे तो सालभर रहती है लेकिन महंगाई की टीस दीवाली के दिनों में कुछ ज्यादा ही सालती है क्योंकि हर कोई अपना बजट बना रहा होता है. इसी वक्त एहसास होता है कि बहुत सी चीजें हाथ से फिसल रही हैं. त्योहार खासतौर से दीवाली के मजे पर महंगाई की मार कोई नई बात नहीं है लेकिन इस साल बात वाकई जुदा है क्योंकि महंगाई बेकाबू हो कर बढ़ी है.

आटादाल से ले कर सोनाचांदी, पैट्रोल-डीजल और न जाने क्याक्या महंगा हो गया है. अर्थशास्त्र की भाषा में भले ही महंगाई की अपनी न समझ आने वाली शब्दावली और परिभाषाएं हों पर सटीक यही बैठती है कि महंगाई एक ऐसा टैक्स है जो दिखता नहीं.

लेकिन आंकड़ों के आईने में बहुतकुछ दिखता है. मसलन, यही कि ज्यादा नहीं बल्कि एक साल में खाद्य पदार्थों के दाम 50 फीसदी तक बढ़े हैं. जो आटा पिछली दीवाली 25 रुपए प्रति किलो था वह अब 38-40 रुपए प्रति किलो है. 75-80 रुपए किलो मिलने वाली दाल तो 150 रुपए से भी ज्यादा कीमत की हो गई है.

खाने का तेल चाहे सरसों का हो सोयाबीन का या फिर मूंगफली का 50-60 रुपए प्रति लिटर तक बढ़ कर 150 रुपए पार कर चुका है. दूध के दाम 15 रुपए प्रति लिटर तक बढ़े हैं. मावा 200 से 300 रुपए प्रति किलो और ड्राई फ्रूट्स तिगुने दामों पर मिल रहे हैं. हाल यह है कि फल, सब्जी महंगे, सफर महंगा, पढ़ाई महंगी और इलाज भी महंगा.

दीवाली पर अब लोग भले ही रोजमर्रा के आइटमों के बढ़ते दामों पर ज्यादा चिंतित न होते हों लेकिन एक गृहिणी ही बेहतर बता सकती है कि हजार रुपए का गैस सिलैंडर रसोई में जब मुंह चिढ़ाता है तो कोफ्त क्यों होती है. महंगाई है और अनापशनाप है तो वह दीवाली पर महसूस क्यों नहीं होती? लाख टके के इस सवाल के कई जवाब हैं, जिन में से पहला यह है कि महंगाई से लड़ने की हिम्मत कोई नहीं जुटा सकता, इसलिए इस से सम?ाता कर लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं. दूसरे, त्योहारी खुशी और उत्साह कायम रखने के लिए लोग हर चीज में कटौती करने के आदी होते जा रहे हैं.

मिठाई 2 किलो की जगह आधा किलो ले लेंगे और खुद को तसल्ली यह कहते देंगे कि ज्यादा शकर नुकसान करती है और डाइबिटीज के मरीज दिनोंदिन बढ़ रहे हैं. बच्चों की अतिशबाजी से चूंकि प्रदूषण फैलता है, इसलिए हजारपांच सौ रुपए के पटाखे बहुत हैं रोशनी की रस्म अदा करने के लिए. वैसे भी, यह फुजूलखर्ची नहीं तो और क्या है जिस में आग से जलने का डर बना ही रहता है. कपड़े पहले से ही बहुत हैं, फिर भी सभी के लिए एकएक जोड़ी सर्दी के हिसाब से खरीद लेंगे.

धनतेरस पर नया कुछ खरीदने के नाम पर छोटामोटा बरतन ले लेंगे ताकि रिवाज कायम रहे. इन दिनों बाजारों में इतनी भीड़ उमड़ती है कि पांव रखने की जगह भी नहीं मिलती. दिल बहलाने के लिए ऐसे कई खयाल मौजूद हैं.

कटौती और समझोतों के आदी हो चले लोग, जिसे बेबसी कहना ज्यादा बेहतर होगा, बड़े खर्चों के भार से भी दबे हैं. इन हजारसौ रुपयों के खर्च खींचतान कर पूरे करने के बाद मकान, कार और ज्वैलरी की सोचें जिन के इश्तिहारों में ही दीवाली की रौनक बची है और इसी के दम पर कहने वाले चैलेंज सा दे रहे हैं कि कौन कहता है कि महंगाई है. यह तो सरकार को बदनाम करने की साजिश है वरना देखिए बाजारों की रौनक, चारों तरफ हर जगह लोग खरीदारी के लिए टूटे पड़ रहे हैं.

कारों के लिए महीनों वेटिंग क्लियर होने का इंतजार लोग कर रहे हैं. इस दीवाली कारों की 3 लाख यूनिट ज्यादा बिकीं. रियल एस्टेट जो पिछली दीवाली इतने लाख करोड़ का था वह बढ़ कर इतने लाख करोड़ रुपए का हो गया है. रियल एस्टेट में ऐसा बूम पहले कभी देखने में नहीं आया.

सराफा में भी आग लगी हुई है. लोग रिकौर्ड गहने खरीद रहे हैं. सोना के 60 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम से भी ऊपर होने का भी कोई असर खरीदी और खरीदारों पर नहीं हुआ है. इलैक्ट्रौनिक्स मार्केट के तो कहने क्या, पिछले 10 वर्षों का रिकौर्ड टूट गया.

इन खबरों और दलीलों से तार्किक रूप से असहमत होने के लिए बहुत अंदर तक ?ांकने की जरूरत है कि महंगाई तो उम्मीद से ज्यादा बढ़ी है लेकिन दीवाली पर उस का असर अगर नहीं दिख रहा तो, दरअसल, लोग उसे देखने से कतरा रहे हैं. इस के लिए लोग खुद के ही बजट पर गौर नहीं कर रहे जो बहुत छोटा हो गया है. दीवाली लोग किफायत से मना रहे हैं और खर्च फूंकफूंक कर रहे हैं. इस के लिए उन्होंने अपनी खुद की कितनी जरूरतों की हत्या की है, यह वे ही जानते हैं.

हकीकत यह है

मशहूर इंटरनैश्नल डेटा एनलिस्टिक फर्म युगाव, जो बीते 3 वर्षों से भारतीयों के दीवाली खर्च के तौरतरीकों पर भी नजर रखे हुए है, की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल शहरी लोग गैरजरूरी खर्च को ले कर सतर्क हैं, यानी कम खर्च में दीवाली मना रहे हैं. जाहिर है ऐसा सिर्फ महंगाई के चलते हो रहा है नहीं तो दीवाली पर जरूरी और गैरजरूरी खर्च के बीच सीमारेखा खींचने की पहले कभी नौबत ही नहीं आई. युगाव के दीवाली खर्च सूचकांक में 52 फीसदी भारतीयों ने माना कि ज्यादा नहीं बल्कि पिछले 3 महीनों जुलाई से ले कर सितंबर तक महंगाई की वजह से हर महीने खर्च बढ़ा है जिसे पूरा करना ही चैलेंज हो गया है.

इस महंगाई से जीवनयापन की लागत में बढ़ोतरी हुई है. 32 फीसदी शहरियों ने बढ़े खर्चों को रोकने का फैसला लिया है या फिर उन्हें रद कर दिया है. वे खर्च में 31 फीसदी कटौती कर रहे हैं. सिर्फ 17 फीसदी लोग ही बचत के पैसों का इस्तेमाल इस दीवाली कर रहे हैं, बाकियों ने स्थिति को संभालने के लिए कर्ज या उधार लिया है.

हालांकि, रिपोर्ट यह भी कहती है कि बीते साल के मुकाबले लोगों की आमदनी और बचत में सुधार हुआ है और लोग सर्वाइव करने के खर्च से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं. इस बात को स्पष्ट करते युगाव इंडिया की महाप्रबंधक दीपा भाटिया कहती हैं, ‘‘आंकड़े बता रहे हैं कि इस फैस्टिव सीजन में लोगों के खर्च करने के तरीके में बदलाव देखा जा सकता है.’’

जाहिर है, अधिकतर लोगों, जिन के पास बचत लायक भी आमदनी नहीं, ने महंगाई की मार का रोना रोया है और यह भी जताया है कि वे कम खर्च में दीवाली मना कर संतुष्ट या खुश हो लेंगे लेकिन कर्ज और उधारी ले कर महंगाई से जीतने का सपना देखने वालों की तादाद भी कम नहीं है.

महंगाई पर कर्ज की चादर

युगाव के अपनी रिपोर्ट पेश करने के साथ ही देश के सब से बड़े बैंक स्टेट बैंक औफ इंडिया ने अपनी एक रिसर्च में दिलचस्प लेकिन चिंतनीय आंकड़े दिए थे जो एक तरह से सिर्फ इतना बताते हैं कि महंगाई का मजार कर्ज के चादर से ढका हुआ है. इस रिसर्च का निचोड़ कम से कम शब्दों में बयां करें तो वह यह है कि लोगों की बचत का बड़ा हिस्सा महंगाई से लड़ने में खर्च हो रहा है. बढ़ती महंगाई से लोगों के पास बचत के पैसे खत्म हो रहे हैं और उन पर कर्ज का बो?ा दोगुना हो चुका है.

इस रिसर्च के मुताबिक, लोगों की बचत वित्त वर्ष 2023 में जीडीपी के 5 फीसदी के करीब रह गई है जो पहले 10 फीसदी थी. आंकड़ों में इस स्थिति को देखें तो लोगों पर पहले के मुकाबले 8.5 लाख करोड़ रुपए का कर्ज बढ़ गया है. लोगों की बचत घट कर 55 फीसदी पर आ गई है. उलट इस के, उन पर वित्त वर्ष 2021 की तुलना में कर्ज बढ़ कर 15.6 लाख करोड़ रुपए हो गया है.

कम ब्याज दरों के चलते लोग रियल एस्टेट में ज्यादा पैसा लगा रहे हैं. यानी, इस दीवाली बाजार कर्ज की लक्ष्मी से गुलजार हैं और जो पैसा रियल एस्टेट में लग रहा है वह न तो निवेश है और न ही बचत उसे कहा जा सकता. यह एक तरह का सेविंग या रिकरिंग डिपौजिट अकाउंट ही है जिस में ब्याज मिलता नहीं, बल्कि देना पड़ता है.

इसे इस उदाहरण से सम?ाना बेहतर होगा कि अगर कोई 40 लाख रुपए का मकान बैंक से कर्ज ले कर खरीदता है तो 10-12 साल में कुल 65 लाख बैंक को चुकाता है, यानी, 25 लाख रुपए के लगभग ब्याज देता है. इसे भी और आसान शब्दों में सम?ों तो निष्कर्ष यह निकलता है कि बिना बढ़ा लोन लिए आप सेविंग भी नहीं कर सकते. 40 लाख की ईएमआई 40 हजार रुपए महीना आती है जिसे 80 हजार से ऊपर की आमदनी वाला चुकाए तो उस के पास 40 हजार रुपए ही घर और दीगर खर्चों के लिए बचते हैं वह भी उस सूरत में जब उस ने कार लोन या दूसरा कोई कर्ज न ले रखा हो. ये बचे 40 हजार रुपए भी चार दिनों में ही अपने जाने का रास्ता बना चुके होते हैं. बाकी 26 दिन जैसेतैसे कट जाते हैं.

अब दीवाली पर महंगाई इसीलिए महसूस नहीं होती कि लोगों के पास त्योहार मनाने लायक पैसा बच जाता है पर वह कंगाल होने की शर्त तक जोखिमभरा है. जैसेजैसे महंगाई बढ़ती है वैसेवैसे लोगों का आर्थिक दायरा कम होता जाता है. एक काबिलेगौर बात यह भी है कि अब शहरी परिवारों में कमाने वालों की तादाद बढ़ रही है, इसलिए भी महंगाई उन पर कोई खास असर नहीं डाल पाती. गांवदेहातों में तो शुरू से ही दीवाली का मतलब मिट्टी के दीये जलाना और मिठाई खाना रहा है. हालात कुछ खास नहीं बदले हैं. गरीबी वहां ज्यों की त्यों है. कुछ ट्रैक्टर और 60 फीसदी देहातियों के हाथ में स्मार्टफोन का होना उन के अमीर होने की निशानी नहीं है बल्कि ये जरूरत की चीजें हैं.

सरकार है जिम्मेदार

तंग होते आर्थिक दायरे का बड़ा सच यह है कि प्रति व्यक्ति औसत आय के मामले में भारत दुनिया के 197 देशों में 142वें नंबर पर है. कहने को तो नरेंद्र मोदी सरकार यह दम भरती है कि उस के अब तक के कार्यकाल की एक बड़ी उपलब्धि प्रति व्यक्ति औसत आय दोगुनी हुई है और हम दुनिया की 5वीं बढ़ी अर्थव्यवस्था से और छलांग लगाते 2030 में जापान को पछाड़ कर तीसरे नंबर पर आ जाएंगे, लेकिन सरकार यह नहीं बताती कि उस की ढुलमुल और अस्पष्ट आर्थिक नीतियों के चलते यह सब्जबाग नहीं तो और क्या है.

दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में सब से कम प्रति व्यक्ति आमदनी भारतीयों की ही क्यों है, इस सवाल को आंकड़ों की बाजीगरी और लच्छेदार धार्मिक भाषणों के मकड़जाल में उलझ दिया जाता है. अमेरिका की प्रति व्यक्ति औसत आय 80,035 डौलर है जो भारतीयों से 31 गुना ज्यादा है. भारतीयों की सालाना औसत आमदनी 2,601 डौलर है. जिस जापान को पछाड़ने का दावा किया जा रहा है उस की प्रति व्यक्ति औसत आय 14 गुना ज्यादा है. इसी तरह कनाडा, फ्रांस और जरमनी के सामने भी भारत कहीं नहीं ठहरता.

ये तो बेहद मजबूत और संपन्न देश हैं. हैरानी और अफसोस तो यह जान कर होता है कि अंगोला जैसे गरीब सम?ो जाने वाले देश की प्रतिव्यक्ति आय भारत से ज्यादा 3,205 डौलर है. वनातु, आइवरी कोस्ट और साओ टोम प्रिंसिपे जैसे छोटे और गुमनाम देशों से भी हम काफी पिछड़े हुए हैं. किस दौड़ में शामिल होने, जीतने और विश्वगुरु बनने का दावा सरकार करती है, यह बात सिरे से ही सम?ा से परे है.

ऐसा नहीं है कि सरकार महंगाई को ले कर बिलकुल ही कुंभकर्णी नींद में हो बल्कि कभीकभी वह इस का जिक्र करती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से दिए 15 अगस्त के भाषण में इसे शामिल किया था कि यह तो ग्लोबल समस्या है, हम इसे कम करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन काबू होने के बजाय महंगाई और बेकाबू हो गई तो लगता है कि मोदी सरकार महंगाई के मोरचे पर भी विफल रही है. सफल तो वह कर्मकांडों और मंदिर बनवाने में ही रही है.

दरअसल, महंगाई हवा की तरह है जो दिखती नहीं लेकिन महसूस लगातार होती है. दीवाली की गुलाबी होती सर्दी में तो यह कांटों की तरह चुभने लगी है. लेकिन लोग बाद दीवाली इस चुभन को भूल जाएंगे, जबकि आमजनों को सरकार से सवाल करना चाहिए कि वह महंगाई की बाबत अपना रुख और नियत साफ करे क्योंकि इस के लिए जिम्मेदार तो आखिरकार वही होती है. किसानों, व्यापारियों और कर्मचारियों के सिर इस का ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता. हां, चंद पूंजीपतियों की मोटी होती तिजोरियों पर जरूर हसरतभरी निगाह डाली जा सकती है जिन के यहां धन की देवी बांदी सी पड़ी है.

मैं नौकरीपेशा नहीं हूं इसलिए ससुराल वाले मुझसे चिढ़े रहते हैं, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरा भरापूरा घरपरिवार है लेकिन मुझे अकेलापन महसूस होता है. मैं शादीशुदा हूं और अपने घरपरिवार से बहुत प्यार करती हूं. मेरी ससुराल के लोग नौकरीपेशा बहू चाहते थे जो मैं नहीं हूं. पति भी मुझ से चिढ़ेचिढ़े से रहते हैं और गुस्सा भी करते रहते हैं. कई बार दिल चाहता है आत्महत्या कर लूं. क्या करूं ?

जवाब

आप के मामले में हैरत की बात यह है कि जब ससुराल वाले नौकरीपेशा वाली बहू चाहते थे तो उन्होंने बिना नौकरी वाली से क्यों शादी की. आप ने यह नहीं बताया कि आप कितनी पढ़ीलिखी और किस वर्ग से हैं. यदि आप पढ़ीलिखी हैं तो नौकरी ढूंढ़ सकती हैं. फिलहाल आप की अधूरी जानकारी से सटीक हल शायद न निकले तो क्यों न आप घर में रह कर कोई छोटामोटा व्यवसाय कर लेतीं. हमें लगता है आप के पति को आप के द्वारा कमाए पैसों की भी जरूरत होगी.

आप किसी पार्लर से कुछ माह की ट्रेनिंग ले कर घर पर ब्यूटीपार्लर चलाने का काम कर सकती हैं. इस के अलावा सिलाई का काम भी किया जा सकता है. आजकल औनलाइन बिजनैस भी औरतें कर रही हैं. सब सोचसम?ा कर पति से सलाह कर के कुछ काम करने का निर्णय लें. इस से घर में आप को सम्मान मिलेगा.

ऐसे रखें अपने दिल को हेल्दी और मजबूत

30 वर्षीय सुमित एक कौर्पोरेट कंपनी में काम करता था. एक दिन औफिस पहुंच कर अचानक तबीयत खराब हो जाने पर उसे और उस के सहयोगियों को समझ नहीं आया कि क्या करें. पहले तो उन्हें लगा कि  अधिक काम व तनाव लेने की वजह से उसे ऐसा महसूस हो रहा है, थोड़ा आराम करने पर ठीक हो जाएगा, लेकिन जब उस की असहजता कम होने के बजाय बढ़ने लगी तो उस के सहयोगियों ने उसे पास के अस्पताल में ले जाना सही समझा, लेकिन वहां पहुंचने के पहले ही उस ने दम तोड़ दिया.

यह घटना चौंकाने वाली तब लगी जब डाक्टर ने कहा कि इस 2 से 3 घंटे के दौरान उसे कई बार दिल का दौरा पड़ चुका है. इस उम्र में ऐसी घटना हर किसी के लिए सोचने वाली हो सकती है क्योंकि न तो सुमित बीमार था, न ही वह कोई दवा ले रहा था. शारीरिक रूप से भी वह बिलकुल फिट था.

मुंबई के सर एच एन रिलायंस फाउंडेशन हौस्पिटल ऐंड रिसर्च सैंटर के कार्डियो सर्जन डा. विपिन चंद्र भामरे इस बारे में कहते हैं कि आजकल के जौब में तनाव के साथ घंटों बैठ कर काम करने की वजह से युवाओं में दिल की बीमारी बढ़ी है. यहां यह समझना जरूरी है कि कैसा तनाव हो सकता है जानलेवा.

तनाव 2 तरह के होते हैं, एक्यूट और क्रौनिक स्ट्रैस. क्रौनिक स्ट्रैस की वजह से व्यक्ति में हार्मोनल बदलाव होते हैं, जिस से हाइपरटैंशन, डायबिटीज और दिल की बीमारियां हो सकती हैं. ऐसे में 30 साल की उम्र वाले व्यक्ति, जिस ने काफी समय तक तनाव को झेला है व एक स्थान पर बैठ कर काम करता है, को कौरोनरी हार्ट अटैक की संभावना अधिक बढ़ जाती है. वहीं, एक्यूट स्ट्रैस अधिकतर वयस्कों में होता है, जो उम्र की वजह से अपनेआप को संभाल नहीं पाते और तनाव में जीते हैं.

रिसर्च में पाया गया है कि 20 से 30 वर्षों की उम्र वाले लोगों में आजकल हाई कोलैस्ट्रौल लेवल पाया जाता है. जिस की वजह से कम उम्र में ही कौरोनरी हार्ट अटैक से 2 से साढ़े 3 गुना लोगों की मौत हो जाती है. इसलिए, अब 20 वर्ष की उम्र पार करते ही कई बार डाक्टर यूथ को कोलैस्ट्रौल चैक करवाने की सलाह देते हैं. अपनी जीवनशैली को सुधार कर युवा इस बीमारी को अपने से दूर रख सकते हैं. इस बारे में डा. विपिन चंद्र ने युवाओं को कुछ टिप्स दिए हैं-

हमेशा संतुलित आहार लें जिन में विटामिन्स और न्यूट्रिएंट्स अधिक मात्रा में हों. फल, दाल, सब्जियों को अपने आहार में अवश्य शामिल करें.

ऐक्टिव रहने के लिए रोज 35 से 40 मिनट व्यायाम करें, लिफ्ट के बजाय सीढि़यों का इस्तेमाल करें.

अपने वजन को हमेशा नियंत्रण में रखें, ओवरईटिंग न करें.

धूम्रपान और नशा करने से बचें.

ब्लडप्रैशर और कोलैस्ट्रौल की जांच समयसमय पर करवाते रहें.

तनाव को कम करने के लिए मैडिटेशन करें, किसी भी तनाव को अपने अंदर न रख कर अपने दोस्त या परिवार के साथ शेयर करें.

नींद पूरी लें. पर्याप्त नींद न लेने पर थकान, चिड़चिड़ापन बढ़ता है, जो हाइपरटैंशन व हृदय संबंधी बीमारियों को जन्म देता है.

परिवार और दोस्तों के साथ हमेशा जुड़े रहें, ताकि आप उन से मिल कर अपनेआप को हलका महसूस करें.

अपने ओरल हाईजीन को बनाए रखें, क्योंकि कई बार दांतों की समस्या भी हार्ट अटैक को जन्म देती है.

हृदय से संबंधित किसी भी लक्षण, जैसे छाती में दर्द, थकान आदि की उपेक्षा न करें, तुरंत डाक्टर से सलाह लें.

ब्लडशुगर को हमेशा नियंत्रण में रखें.

नई खोज और उस से होने वाले फायदे से हमेशा अपनेआप को अपडेट रखें.

जंक और औयली फूड से परहेज करें, रेशेदार भोजन अधिक लें.

अगर आप एक स्थान पर बैठ कर घंटों काम करते हैं तो बीचबीच में थोड़ीथोड़ी देर के लिए टहल लिया करें.

आप का दिल जवान रहे, इस के लिए हमेशा अपने अंदर सकारात्मक सोच रखें व खुश रहने की भरपूर कोशिश  करें.

हार्ट फेल्योर जानलेवा नहीं

17 साल की एक लड़की, जो बेहोशी की हालत में अस्पताल में लाई गई थी, का पल्स रेट 200 था. जबकि सामान्य स्थिति में पल्स रेट  60 से 90 के बीच में होता है. जांच करने पर पता चला कि उस का कार्डिएक फेल्योर हो गया है, पेसमेकर दे कर उस की जान बचाई गई. हमारे देश में बहुत कम लोगों को पता है कि हार्ट अटैक और हार्ट फेल्योर में अंतर क्या हैं. इस वजह से सही समय पर सही इलाज नहीं मिल पाता और रोगी की जान बचाना मुश्किल हो जाता है.

ग्लोबल बर्डन औफ डिजीज स्टडी के हिसाब से पूरे विश्व में 60 मिलियन से अधिक लोग हार्ट फेल्योर की बीमारी से पीडि़त हैं. भारत में इस बीमारी के बढ़ने की वजह इस के प्रति जागरूकता में कमी का होना है. अधिकतर लोग इसे हार्ट अटैक से जोड़ कर देखते हैं.

अनुमान है कि भारत में कौरोनरी हार्ट डिजीज, हाइपरटैंशन, मोटापा, मधुमेह, और रियूमेटिक हार्ट डिजीज की वजह से हार्ट फेल्योर 1.3 मिलियन से 4.6 मिलियन की रैंज में बढ़ने वाला है. सही समय पर इस बीमारी का पता चलने पर रोगी को बचाया जा सकता है. यह समझना जरूरी है कि हार्ट अटैक और हार्ट फेल्योर में क्या अंतर है.

हार्ट फेल्योर का मतलब हार्ट का अप्रभावी तरीके से काम करना होता है. हार्ट खून को पंप कर पूरे शरीर में भेजता है. अगर इस की काम करने की क्षमता कम हो जाती है तो, खून पूरे बदन में सही तरीके से नहीं पहुंच पाता. इस का अर्थ यह नहीं है कि हार्ट कभी भी रुक जाएगा. इस में हार्ट केवल उतना काम प्रभावी तरीके से नहीं कर पाता, जितना करना चाहिए. इस में रोगी को कोई दर्द महसूस नहीं होता और न ही उस की अचानक मौत होती है. वहीं, हार्ट अटैक में रोगी को सीने में दर्द होता है और उस वक्त उसे इलाज न मिले तो उस की मृत्यु हो सकती है.

हार्ट फेल्योर की बीमारी धीरेधीरे बढ़ती है.

 इस बारे में कार्डियोलौजी सोसाइटी औफ इंडिया के अध्यक्ष डा. एम एस हिरेमथ कहते हैं कि हार्ट फेल्योर के लक्षणों को समझ कर अगर रोगी समय पर डाक्टर के पास पहुंचता है तो किडनी फेल्योर और हार्ट वौल्व को क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सकता है. हार्ट फेल्योर के लक्षण में सांस लेने में मुश्किल होना, पैर या टखनों में सूजन का होना, थकान या कमजोरी महसूस होना, रात को बारबार मूत्र त्यागने की जरूरत महसूस होना, किसी प्रकार का वर्कआउट न कर पाना, भूख न लगना, उलटी महसूस करना, अचानक वजन बढ़ना, बारबार खांसना और एकाग्रता कम होना आदि शामिल हैं. ये सभी लक्षण जानलेवा नहीं हैं. हार्ट फेल्योर के रिस्क फैक्टर्स में ब्लडप्रैशर और अधिक कोलैस्ट्रौल का होना, ड्रग या शराब का सेवन करने के अलावा मधुमेह, मोटापा, डिप्रैशन के साथ हृदय की बीमारियां शामिल होती हैं. हृदय रोगों में खासकर कार्डियोमयोपेथी, हाइपोथायराइडिज्म, हार्ट वौल्व का खराब होना, अनियमित हृदय की धड़कन आदि शामिल हैं.

डा. हिरेमथ कहते हैं कि इस का इलाज संभव है. लक्षण का पता चलते ही तुरंत कार्डियोलौजिस्ट से संपर्क करें. इस के कुछ लक्षण शारीरिक होते हैं, लेकिन कुछ को जांच द्वारा पता किया जाता है. सब से आम टैस्ट इकोकार्डियोग्राम है. इस के अलावा कार्डियक स्ट्रैस टैस्ट, हार्ट कैथेटराइजेशन और हृदय की एमआरआई से भी हार्ट फेल्योर का पता लगाया जा सकता है. इस के इलाज में क्षतिग्रस्त भाग को ठीक नहीं, बल्कि उस का इलाज किया जाता है. आज की आधुनिक जीवनशैली भी इस बीमारी को बढ़ा रही है. इस से बचने के लिए कुछ बदलाव अपनी जीवनशैली में करने जरूरी हैं, ताकि इसे नियंत्रित किया जा सके, जैसे वजन पर नियंत्रण रखें, डाक्टर की सलाह के अनुसार व्यायाम करें, दवाइयां समय पर डाक्टर की सलाह से लें, नशे से अपनेआप को दूर रखें और वजन या सूजन कम करने के लिए डाक्टर से परामर्श अवश्य लें. साथ ही, दवा लेने के बावजूद अगर कोई समस्या दिखे, तो डाक्टर को बताएं.

हृदय रोग के चलते दम तोड़ती हैं एकतिहाई महिलाएं

 दुनियाभर में होने वाली महिलाओं की मौतों में से एकतिहाई मौतें दिल की बीमारी की वजह से होती हैं. हाल के आंकड़ों में यह बात सामने आई है कि पुरुषों के मुकाबले स्ट्रोक के चलते महिलाओं में मृत्युदर अधिक रही है. कैंसर, टीबी, एचआईवी, एड्स और मलेरिया जैसी अन्य बीमारियों से होने वाली मौतों की तुलना में कार्डियोवैस्कुलर डिजीज के कारण होने वाली मौतों की संख्या ज्यादा है.

ऐसा अनुमान है कि दुनियाभर में हर साल करीब 86 लाख महिलाएं हृदय रोगों के कारण दम तोड़ देती हैं. हालांकि, चिंताजनक बात यह है कि महिलाओं में हृदय रोग और स्ट्रोक के कारण मृत्यु या विकलांगता के जोखिम को गंभीरता से नहीं लिया जाता. इस का कारण यह भी है कि महिलाओं में हृदय रोग के लक्षण पुरुषों के समान नहीं होते हैं, इसलिए महिलाओं को शुरुआत में डाक्टर से परामर्श लेने की जरूरत महसूस नहीं होती है.

मुरादाबाद स्थित कौसमौस अस्पताल के चीफ इंटरवैंशनल कार्डियोलौजिस्ट डा. नितिन अग्रवाल इस बारे में कहते हैं, ‘‘महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा कुछ शुरुआती चेतावनी संकेतों का अनुभव करता है. जरूरी नहीं कि इन में छाती के दर्द जैसे लक्षण शामिल हों. यह स्थिति पुरुषों की तुलना में महिलाओं में लंबे समय तक रहती है और रजोनिवृत्ति के बाद इस का जोखिम तीनगुना बढ़ जाता है. महिलाओं में टूटा हुआ दिल यानी ब्रोकन हार्ट सिंड्रोम भी हृदय रोग को बढ़ावा देता है. इस में अत्यधिक भावनात्मक तनाव से (लेकिन अकसर कम समय के लिए) हृदय की मांसपेशी विफल होती है.

‘‘इस अवस्था को तनावप्रेरित यानी स्ट्रैस इंडयूस्ड कार्डियोमायोपैथी भी कहा जाता है. महिलाओं में हृदय रोग जोखिम के अन्य कारकों में उच्च रक्तचाप, कोलैस्ट्रौल और धूम्रपान के अलावा मधुमेह, मोटापा, खराब भोजन, शारीरिक निष्क्रियता व अत्यधिक शराब पीना शामिल है.

‘‘सामान्य जोखिम कारकों के अलावा, आज महिलाएं जीवनशैली से जुड़े अनेक अन्य कारकों के कारण भी हृदय रोगों की चपेट में आ रही हैं. इन में से कुछ में डब्बाबंद भोजन यानी प्रोसैस्ड फूड का अधिक उपभोग शामिल है जो कि संतृप्त वसा, चीनी और नमक में समृद्ध होता है. साथ ही, साबुत अनाज की कमी, उदासीन जीवनशैली और तनाव के स्तर में वृद्धि जब अन्य कौमोरबिड स्थितियों के साथ मिल जाते हैं तो महिलाओं में एस्ट्रोजेन स्तर कम होने लगता है. इसे महिलाओं के बीच हृदय रोगों में वृद्धि के लिए शीर्ष कारणों में से एक माना गया है.’’

डा. नितिन अग्रवाल आगे बताते हैं, ‘‘महिलाओं के बीच जागरूकता की कमी है, इसलिए वे हृदय रोग और स्ट्रोक के चेतावनी संकेतों को पहचान नहीं पाती हैं. हृदय रोगों को पारंपरिक रूप से केवल पुरुषों को ही प्रभावित करने वाला माना गया है. इसलिए इस स्थिति को महिलाओं में काफी हद तक नजरअंदाज किया जाता है. महिलाएं छाती के दर्द के बारे में बताती हैं जो तेज होता है और जलन भी होती है. इस में गरदन, जबड़े, गले, पेट या पीठदर्द भी होता है. कई बार हृदय रोग खामोशी से चलता है और दिल का दौरा, दिल की विफलता या स्ट्रोक के संकेत व लक्षण सामने आने तक इस का निदान नहीं किया जा सकता है.’’

महिलाओं के लिए कुछ सुझाव

 और मधुमेह पर काबू रखें :  समय पर अपने रक्तचाप और शर्करा के स्तर को जांचना महत्त्वपूर्ण है. किन्हीं भी तरह की जटिलताओं से बचने के लिए इन पर नियंत्रण रखें.

धूम्रपान छोड़ना होगा :  धूम्रपान की घातक आदत को छोड़ कर न केवल कोलैस्ट्रौल के स्तर को कम किया जा सकता है, बल्कि शरीर में खून के प्रवाह और औक्सीजन के स्तर को बेहतर भी किया जा सकता है.

स्वस्थ भोजन खाएं :  मोटापा दिल की बीमारी के लिए जोखिम वाले कारकों में से एक है, इसलिए स्वस्थ भोजन अपना कर वजन को काबू में रखना बेहतर है. अपने आहार में बहुत सारे ताजे फल, सब्जियां और साबुत अनाज शामिल करें.

पर्याप्त व्यायाम करें :  व्यायाम रक्त के प्रवाह में सुधार करता है और अनावश्यक वजन पाने की संभावना को कम करता है. हर दिन लगभग 30 मिनट की शारीरिक गतिविधि जरूर करें.

तनाव प्रबंधन :  तनाव हृदय की सेहत पर बुरा असर डालता है, इसलिए तनावमुक्त रहें.

नीतीश कुमार के बयान पर ओछी राजनीति

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आज जिस उम्र की दहलीज पर हैं उन के द्वारा महिलाओं के संदर्भ में सैक्स को ले कर के जिस तरह का वक्तव्य बिहार विधानसभा में आया और फिर थोड़े ही समय में नीतीश कुमार ने जिस विनम्रता के साथ क्षमा याचना की तो फिर नैतिकता का ताकाजा यह है कि मामला खत्म हो जाता है. मगर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जैसे नीतीश कुमार के वक्तव्य को लपक लिया और बांहे खींच रहे हैं वह यह बताता है कि भारतीय जनता पार्टी और उस का नेतृत्व आज कैसी राजनीति कर रहा है और देश को पतन की ओर ले जाने में भूमिका निभा रहा है.

दरअसल,बिहार विधानसभा में मंगलवार को जनसंख्या वृद्धि पर चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महिलाओं की शिक्षा और उनके सैक्स के प्रति रवैये को लेकर बयान दिया था. वे सैक्स एजुकेशन में समझाए जाने वाले पुलआउट मेथड के बारे में बता रहे थे. जिस तरह की उन की शब्दावली थी वह जरुर समस्या वाली थी, जिस ले कर आखिरकार नीतीश को अपने माफी मांगनी पड़ी.

पर, आप कल्पना कीजिए कि देश में अगर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होते तो क्या इस मामले को नरेंद्र मोदी की तरह तूल देते, आज देश में अगर पीवी नरसिंहा राव प्रधानमंत्री होते या फिर डाक्टर मनमोहन सिंह होते तो क्या इस तरह मामले को तुल दिया जाता शायद कभी नहीं.

प्रधानमंत्री का दोहरा रवैया

दरअसल,नरेंद्र मोदी का यह नेचर है कि वह अपने लोगों को तो हर अपराध के लिए माफ कर देते हैं मगर गैरों को माफ नहीं करते,  उनके पास व्यवहार करने के दूसरे तरीके हैं. जो कम से कम प्रधानमंत्री पद पर होते हुए उन्हें शोभा नहीं देता. देश का आम आदमी भी  जानता है कि किसी भी विधानसभा में दिया गया वक्तव्य रिकौर्ड से हटाया भी जाता है और उसे पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. मगर भाजपा जिस तरह नीतीश कुमार पर हमलावर है वह बताती है कि न तो संविधान से सरोकार है और न ही किसी नैतिकता से. किसी की छवि को खराब करना और किसी भी तरह सत्ता प्राप्त करना ही आज नरेंद्र दामोदरदास मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का लक्ष्य बनाकर रह गया है.

संभवत यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार 8 नवंबर, 2023 को बिहार विधानसभा में महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी को लेकर बिना नाम लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आलोचना की और कहा, “महिलाओं का सम्मान सुनिश्चित करने के लिए वह जो भी कर सकेंगे, करेंगे. महिलाओं का इतना अपमान होने के बावजूद विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के घटक दलों ने एक शब्द भी नहीं बोला है.”

मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम लिए बगैर नरेंद्र मोदी ने कहा, कल ‘इंडी’ गठबंधन के बड़े नेताओं में से एक, जो ब्लौक का झंडा ऊंचा रख रहे हैं और वर्तमान सरकार (केंद्र में) को हटाने के लिए तरहतरह के खेल खेल रहे हैं, उन्होंने माताओं बहनों की उपस्थिति में राज्य विधानसभा में ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता. उन्हें इसके लिए शर्म तक महसूस नहीं हुई. ऐसी दृष्टि रखने वाले आपका मानसम्मान कैसे रखेंगे? वे कितना नीचे गिरेंगे? देश के लिए कितनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है.”

जबकि यह कानून है कि विधानसभा में दिए गए वक्तव्य पर कोई कानूनी संज्ञान नहीं दिया जा सकता. इसके बावजूद भाजपा नेतृत्व में वह सब किया जा रहा है जो कानून के विरुद्ध है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है महिला आयोग द्वारा नीतीश कुमार के वक्तव्य पर संज्ञान लिया जाना.

राष्ट्रीय महिला आयोग की फटकार

राष्ट्रीय महिला आयोग ने बिहार विधानसभा के अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी को पत्र लिखकर आग्रह किया कि वह सदन के भीतर की गई अपमानजनक टिप्पणी के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करें. पत्र में आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने कहा, “जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्तियों द्वारा ऐसे बयानों की कड़ी निंदा करती हैं.”

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी जब यह कहते हैं कि महिलाओं के सम्मान कोसुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास करूंगा. तो हंसी आती है क्योंकि देश ने देखा है कि किस तरह देश की बेटियों ने जंतर मंतर पर भाजपा के एक सांसद और महत्वपूर्ण पदाधिकारी के खिलाफ अनशन किया था मगर आज तक उन्हें न्याय नहीं मिल पाया है.

लांगो पंडित : पंडितजी की कट्टरपंथी उन्हीं पर पड़ गई भारी

जन्म से ही पैर टेढ़े थे. गांव में इस ऐब को ग्रहण लगना कहते हैं और ऐसे को ‘ग्रहण लगुआ’ कहा जाता है. बचपन में साथ खेलने वाले बच्चे और बड़े होने पर साथ पढ़ने वाले सहपाठी उन्हें लंगड़ालंगड़ा कह कर चिढ़ाया करते थे. मांबाप ने बड़े प्रेम से नाम रखा चंदन त्रिवेदी.

पिता बलदेव त्रिवेदी 3 भाई थे. चचेरे भाईबहन तो कई थे पर बलदेवजी के 2 ही पुत्र हुए- चंदन और बसंत. चंदन लंगड़ा तो था पर पढ़ने में अच्छा निकला, साथ ही, शैतानी में भी तेज था. धूर्तता, चापलूसी, डींगें हांकने इत्यादि गुणों में भी अव्वल निकला. सभी हंसते कि लंगड़ा है तब ऐसा है, कुदरत ने दोनों पैर ठीक रखे होते तो दुनिया को ही बेच देता. स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद उस ने कंपीटिशन दिए, केंद्रीय सरकार का कर्मचारी बन गया और शहर में ही नौकरी लग गई. बसंत के लिए पढ़ाई मानो पहाड़ थी.

हां, उस में तोता रटंत की क्षमता कुछ ज्यादा ही थी और वह पिता के साथसाथ पुरोहिताई में लग गया. समय पर बलदेव पंडित ने अपने दोनों पुत्रों का विवाह किया. पोतेपोतियों का मुख देख उन्हें गोद में खिला कर चल बसे. उन की पत्नी भी कुछ वर्षों बाद दुनिया छोड़ गईं.

बचपन में हुआ नामकरण नौकरी में आगे चल कर साथियों द्वारा लांगो पंडित में बदल गया. इस के पीछे की कहानी यह है कि चंदन बाबू के कार्यालय में एक दिन उन के गांव का एक मित्र कुछ कार्यवश जा पहुंचा. लांगो पंडित ने कार्यालय में अपनी विद्वत्ता और परिवार के बड़प्पन की हवा फैला रखी थी और सबों से कह रखा था कि सभी उन्हें आचार्यजी के नाम से जानते हैं. बेचारे साथी ने चंदन बाबू का पुराना पुकारू नाम ले कर उन से मिलना चाहा तो कोई उसे कुछ नहीं बता पाया. उस सरल हृदय ने सरलता से बखान किया कि वह अपने मित्र ‘लांगो पंडित’ से मिलना चाहता है जिस का जन्म से ही पैर खराब है, वह इस तरह से चलता है. ऐसा कहते हुए उस ने लांगो पंडित के चलने के ढंग की नकल कर के लोगों को दिखाई. लोग हंस पड़े और उन्हें यह सम?ाते देर न लगी कि यह उन के साथी तथा कथित आचार्यजी हैं.

मित्र से मिला आचार्यजी का यह नया नाम जल्दी ही कार्यालय से हो कर पूरे विभाग में सबों की जबान पर जा चढ़ा. सामने तो नहीं पर पीठपीछे उन्हें अब सभी लांगो पंडित के ही नाम से संबोधित करने लगे.

आचार्यजी में कई गुण भी थे. काम करने और बहस करने में वे कभी पीछे नहीं हटा करते. किसी भी विषय पर अपनी सलाह देना उन की आदत बन चुकी थी. हवा के पुल बांधना और सामने वाले को दिन में रात का आभास करा देना उन के बाएं हाथ का खेल था. अपने सामने किसी को नहीं बोलने देना, खुद की प्रशंसा करते न थकना और आवश्यकता पड़ने पर सामने वाले के सामने स्वयं को बेहद दीनहीन होने का एहसास करा देना उन का विशेष गुण था.

सांस्कृतिक मामलों में वे बड़े कड़क थे. बालभर भी कोई आगेपीछे हटा नहीं कि उन की आलोचना का शिकार हुआ. उन के अनुशासन का दायरा उन के इर्दगिर्द घूमा करता चाहे वह उन का कार्यस्थल हो या फिर घर. एकएक कर उन की 4 संतानें हुईं. पहली दोनों लड़कियां थीं और फिर 2 लड़के. नौकरी छोटी थी और आवश्यकताएं उस से कहीं ज्यादा, इसलिए हमेशा कोशिश करते रहते कि कहीं से कुछ प्राप्त कर सके.

सभी तरह के कर्मकांड और पूजापाठ भी करवाया करते. पहनावे में धोतीकुरता, ललाट पर चंदनटीका और पैरों में बढि़या ब्रैंड की सब से सस्ती वाली चप्पलें. जाड़े के दिनों में चप्पलों की जगह जूता ले लेता. लोग उन की चप्पल पर टीकाटिप्पणी करते तो कहते, ‘मु?ो तो इसे छोड़ कर कोई दूसरी चप्पल पसंद ही नहीं आती.’

‘आचार्यजी, अब थोड़ा अपनेआप को बदलिए. कुछ दिनों में कंपनी इस चप्पल को बनाना ही बंद कर देंगी.’

‘अरे, आचार्यजी, इतना कमाते हैं. कमीज में चिप्पी…’ कोई व्यंग्य करता और वे बात काट कर कहते, ‘‘कपड़ों से क्या फर्क पड़ता है. आदमी का व्यक्तित्व तो उस के संस्कार से ही झलकता है. फिर मैं तो जन्मजात ब्राह्मण हूं. पूजापाठ और संस्कार तो मेरे रगरग में रचाबसा है. थोड़े में संतोष करना चाहिए. जीवन तो गरीबगुजारे का नाम है.’’

उन की भाषणबाजी चल ही रही होती कि कोई उन्हें चिढ़ा देता, ‘अरे भाई आचार्यजी तो फिर केवल तनख्वाह से संतोष क्यों नहीं करते, पूजापाठ और दानदक्षिणा, सब ढंग से क्यों बटोरते हैं?’

‘पूजापाठ कराना और दानदक्षिणा लेना यह तो ब्राह्मण का काम है. मैं नहीं कराऊंगा तो कौन कराएगा, दूसरे तो नहीं कराएंगे न…’ बात आईगई हो जाती, वे फिर से अपना दुखड़ा सुनाने लग जाते या कोई दूसरी बात निकल आती.

इन्हीं दिनों उन्होंने अपनी बड़ी बेटी का विवाह तय कर दिया. उन का भरसक प्रयास रहा कि चमकदमक में कोई कमी न रहे. लोगों से उन्होंने बताया कि उन का होने वाला दामाद एक सरकारी उपक्रम में इंजीनियर है और दिल्ली में है. इसे संयोग ही कहा जाएगा कि बरात में आए एक व्यक्ति की रिश्तेदारी कार्यालय के कर्मचारी से थी और लांगो पंडित की ढोल की पोल खुल गई. उसी ने बताया कि लड़का मामूली क्लर्क है. आने वाले कई दिनों तक लोग मुंह छिपा कर हंसते रहे. कुछ उन से खोदखोद कर पूछते भी रहे. लांगो पंडित के चेहरे पर मुर्दनी और क्रोध दोनों छाए रहे.

अभी 15 दिन ही गुजरे होंगे कि कार्यालय के एक कर्मचारी की बेटी ने अपने किसी सहकर्मी से अंतर्जातीय विवाह रचा लिया. लांगो पंडित के लिए तो मानो दाल में छौंक लग गई. उठतेबैठते, हर जगह इस प्रकरण को कुछ इस भांति उछालते कि उन के हाथ अलाउद्दीन का चिराग लग गया हो. आलोचना करते, अपनी संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देते और घुमाफिरा कर बात स्वयं पर ले आते. गर्व से कहते, ‘‘लोग मेरी बात करते हैं. अब अपने गिरेबान में झांक कर देखें.’’

‘‘अरे, आचार्यजी, समय बदल रहा है. पुराने समय में कौन सी जाति व्यवस्था थी?’’

‘‘अब तो समय के साथ सब टूट रहा है,’’ दूसरे ने कहा.

‘‘कैसे नहीं थी, जरा हम भी तो सुनें?’’

‘‘मनुष्य आदिमानव ही तो था.’’

‘‘किस युग की बात कर रहे हैं, आप? अब हमआप सब पढ़ेलिखे हैं.’’

‘‘आचार्यजी, यह बताइए कि कल आप की पुत्री या पुत्र…’’

‘‘मैं कहता हूं ऐसा हो ही नहीं सकता, असंभव.’’ बात काटते हुए वे बोल उठे.

‘‘मान लीजिए कि यदि आप के यहां ही ऐसा हो गया तो?’’ एक और साथी ने उन्हें फिर से कुछ कहने का प्रयास किया.

‘‘आप कुछ भी कह देंगे और कोई मान जाएगा?’’ वाकयुद्ध छिड़ गया और लोग बीचबचाव करने लगे. रहीसही कसर भी उस दिन पूरी हो गई जिस दिन उन की भिड़ंत उस साथी से हो गई जिस की पुत्री ने अंतर्जातीय विवाह किया था. जम कर तूतू मैंमैं हुई. मुंहफट तो वे थे ही, सीधी तरह किसी को कुछ कह देना उन के लिए कठिन नहीं था, इसलिए एक ही ?ाटके में पूरे औफिस को लपेटे में लेते हुए कहा, ‘‘मेरी बेटी की शादी में तो ऐसी कोई बात नहीं थी पर आप के साथसाथ सबों ने चटखारे लेले कर बखान किया. खूब व्यंग्यबाण चलाए, अब मेरी बारी है…’’

लोगों ने दोनों को शांत कराया और सम?ाया कि एकदूसरे पर कोई कुछ न बोले, यही अच्छा रहेगा. सबों का अपना व्यक्तिगत जीवन है और किसी को उस में ताकझांक करने का कोई अधिकार नहीं. आचार्यजी की दूसरी पुत्री थोड़ी कम खूबसूरत थी. इसलिए उस के विवाह में उन्हें काफी दौड़धूप करनी पड़ी. वर्षभर बाद उन्होंने उस का भी विवाह कर दिया. लोगों को उन्होंने बताया कि उन का दामाद एक मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत है. बात जो भी रही हो लेकिन किसी को भी उन की बातों पर विश्वास नहीं हुआ.

6 माह गुजरे थे कि आचार्यजी ने एक दिन सबों को प्रसाद में लड्डू खिलाया और बताया कि बेटे का इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा हो गया है और उसे नौकरी मिल गई है. सबों ने उन्हें बधाई दी. आचार्यजी अब बेटे के विवाह के लिए लग गए. लड़की वाले भी उन के यहां रिश्ते के लिए आने लगे. सबकुछ ठीकठाक और सामान्य ढंग से चल रहा था. आचार्यजी से थोड़ा हंसीमजाक भी कभीकभी हो ही जाया करता था.

अचानक एक दिन वे कार्यालय नहीं आए. किसी का ध्यान इस पर नहीं गया पर जब 2-3 दिन गुजर गए तो कुछ लोग चिंतित हुए. जिन से उन की पटती थी, उन में से एक व्यक्ति ने उन्हें कौल लगाई पर घंटी बजती रही और कोई उत्तर नहीं मिल सका. अगले दिन उन का छोटा बेटा छुट्टी का आवेदन ले कर आया, तब लोगों को पता चला कि वे बीमार हैं और आज ही सुबह उन्हें एक नर्सिंग होम में भरती किया गया है. लोगों ने तय किया कि उन्हें देखने तो जाना ही चाहिए. 2 दोस्तों से उन की गहरी मित्रता थी. वे दोनों उन्हें देखने गए.

आचार्यजी बैड पर लेटे हुए थे. उन की आंखें शून्य में निहार रही थीं. दोस्तों ने उन से जानना चाहा कि उन की तबीयत कैसी है और उन्हें क्या कष्ट है? उन्होंने एक बार उन की तरफ देखा, उन के होंठ फड़फड़ाए पर वे कुछ नहीं कह सके. पंडिताइन लंबा घूंघट निकाले थीं. वे गांवगंवई की सरल हृदय महिला थीं और उन्हें ज्यादा कुछ समझ में नहीं आता था. वे भी कुछ नहीं बता सकीं. उन का छोटा बेटा वहां नहीं था. डाक्टर के कक्ष में बैठे जूनियर डाक्टर ने बताया कि आचार्यजी का ब्लडप्रैशर अचानक ही बढ़घट रहा है और उन्हें डिप्रैशन यानी गहरा सदमा लगा है. उसी समय उन का छोटा बेटा लौट आया. उसी ने बताया कि दोनों में से कोई भी बड़ी बहनें अभी तक नहीं आ सकी हैं.

‘‘क्या इसी कारण वे सदमे में हैं?’’

‘‘तुम्हारा बड़ा भाई क्यों नहीं आया अभी तक?’’

‘‘भैया के कारण ही तो पापा डिप्रैशन में हैं,’’ हठात ही उस के मुंह से निकल गया.

‘‘वह कैसे?’’

‘‘अब क्या बताऊं, पापा ने किसी को कुछ बताने से मना किया था. भैया से पापा की बीमारी के विषय में कह दिया है,’’ वह सिसकने लगा.

‘‘बात क्या है, कुछ पता तो चले. हम लोगों से जो हो सकेगा, उतना तो मदद करेंगे ही.’’

‘‘घर की बात है. आप लोग किसी से न कहिएगा, वरना लोग मुझे… दरअसल, भैया ने ईसाई लड़की से विवाह कर लिया है.’’

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