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विधानसभा चुनाव नतीजों में धर्म की धमक

धर्म बहुत बड़ी राजनीतिक शक्ति है या अब राजनीति बहुत बड़ी धार्मिक शक्ति हो गई, यह तय कर पाना कभी कोई मुश्किल काम नहीं रहा. 3 दिसंबर को आए 5 में से 4 राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे खास इस धारणा की पुष्टि करते हैं. नतीजों के बाद हार और जीत का विश्लेषण करना ज्यादा आसान काम होता है.

नतीजों में हिंदी पट्टी के 3 राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तमाम अनुमानों को पीछे छोड़ते हुए भारतीय जनता पार्टी अप्रत्याशित तरीके से बाजी मार ले गई और सकते में पड़े कांग्रेसी व सियासी पंडित गिनाते रह गए कि दरअसल भाजपा का संगठन बूथ लैवल तक मजबूत था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गारंटियों पर लोगों ने भरोसा किया और कांग्रेस हवाहवाई राजनीति करती रही.

इन में से तीसरी वजह सियासी तौर पर हकीकत के ज्यादा नजदीक लगती है लेकिन इसे बारीकी से अभी भी कम ही लोग समझ पा रहे हैं. चुनाव किस या किन मुद्दों पर लड़ा गया जिन के चलते वोटिंग के आखिरी दिनों में जीत भाजपा की झोली में जा गिरी, इस के लिए एक सनातनी संत राम भद्राचार्य का चुनाव के पहले दिया एक बयान काफी अहम है जिस में उन्होंने कहा था कि यह चुनाव धर्म की लड़ाई है जिस में भाजपा जीतेगी.

जगतगुरु के खिताब से नवाज दिए गए राम भद्राचार्य जन्मांध हैं जिन की दूरदृष्टि का कायल हर कोई रहता है. वे कई भाषाओँ के जानकार हैं. वे निहायत ही लुभावने और पेशेवर अंदाज में भागवत और रामकथा बांचते हैं. इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि वे राम मंदिर मुकदमे के अहम गवाह हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की इस शंका को सनातनी धर्मग्रंथों के हवाले से दूर किया था कि राम दरअसल उसी स्थान पर जन्मे थे जिसे उन की जन्मभूमि बताया जा रहा है.

धर्म का कार्ड और मोदी

कहने का मतलब यह नहीं कि लोगों ने उन के कहने पर ही वोट किया बल्कि हुआ यह कि हिंदीभाषी राज्यों के लोगों के दिलोदिमाग में जो कशमकश चुनाव के 6 महीने पहले से चल रही थी, वह इस और ऐसे कई संतों की सक्रियता से दूर हो गई. लोगों को ज्ञान प्राप्त हो गया कि हमंे दिमाग की नहीं, बल्कि दिल की आवाज पर वोट करना है. हमें लोकतंत्र के लिए नहीं, बल्कि धर्मतंत्र के लिए वोट करना है. हमें उस पार्टी के लिए वोट करना है जो हमें धार्मिक सुरक्षा की गारंटी देती है, हमारी औरतों और मंदिरों की हिफाजत की बात करती है. ऐसी कई और बातों के अंदरूनी व खुले प्रचार ने एक नशे सा असर किया और बाजी कुछ इस तरह पलटी कि लोग खुद की रोजमर्राई जिंदगी से ताल्लुक रखते बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे अहम मुद्दों को भूल गए.

यह सब रातोंरात नहीं हुआ, बल्कि सालों से जो डर हिंदुओं के दिमाग में बैठाया जा रहा है उस का राजनीतिक और चुनावी इजहार भर एक बार फिर 3 दिसंबर को था. इन राज्यों के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिहाज से बेहद अहम हो गए थे क्योंकि इसी साल उस ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों की सत्ता कांग्रेस के हाथों गंवाई है. पश्चिम बंगाल में तो उसे गांवों के चुनावों तक में मुंह की खानी पड़ी. ये हारें 2024 के चुनावों के मद्देनजर बेहद अहम थीं जिन के चलते उसे खासतौर से हिंदीभाषी राज्यों में भगवा परचम लहराना करो या मरो वाली बात हो गई थी.

पहली बार मोदी पर संशय

10 साल में पहली बार ऐसा हुआ था कि लोग नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता को शक की निगाह से देखने लगे थे और एक हद तक उन्होंने राहुल गांधी में वैकल्पिक संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी थीं. दो टूक कहें तो मतदाता के मन से धर्म की राजनीति का सुरूर उतरने लगा था. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के लोगों ने भाजपा के धार्मिक एजेंडे को नकारते साफ मैसेज दे दिया था कि अब यह नहीं चलेगा.
तो क्या चलेगा? यह भाजपा को भी समझ नहीं आ रहा था लेकिन उस ने हथियार नहीं डाले और अब तक का सब से बड़ा जुआ खेला. आमतौर पर विधानसभा चुनाव क्षेत्रीय क्षत्रपों के चेहरे बतौर मुख्यमंत्री पेश कर ही चुनाव लड़े जाते हैं जिस से वोटर के मन में प्रदेश के विकास और भविष्य को ले कर आशंकाएं न रहें.

सितंबर आतेआते राज्यों की तसवीर और माहौल बेहद साफ हो गया था कि भाजपा की राह आसान नहीं रह गई है तो चुनाव नरेंद्र मोदी के चेहरे और नाम पर लड़ने का फैसला भाजपा ने ले लिया. हालांकि यह उस वक्त के लिहाज से बहुत बड़ा जोखिम था लेकिन भाजपा के पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं बचा था.

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया सहित छत्तीसगढ़ में डाक्टर रमन सिंह दरअसल बहुत कट्टरवादी इमेज वाले नेता नहीं थे. ये औसत से बेहतर उदारवादी इमेज वाले नेता थे जिन के नाम पर लड़ने में भाजपा हिचक रही थी. उसे इन राज्यों के साथसाथ 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा जैसे कट्टर हिंदुत्व की इमेज वाले चेहरों की दरकार थी जो सरेआम मुसलमानों और इसलाम से नफरत प्रदर्शित करने में हिचकते न हों बल्कि फख्र महसूस करते हों. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के हश्र से पार्टी को समझ आ गया था कि केवल राम, हनुमान और शंकर की जयजयकार से बात नहीं बनती. समाज के माहौल को मुसलिमविरोधी और हिंदुत्वहिमायती बनाया जाना चाहिए.

तब उस की चिंता दलित और आदिवासी कम वे सवर्ण ज्यादा थे जो उस का कोर वोटबैंक हुआ करता है. अगर यह भी हाथ से खिसक गया तो हथेलियां ही मलते रहना पड़ेगा. चूंकि बहुत कम वक्त में कट्टर चेहरे छांट कर उन्हें बतौर मुख्यमंत्री पेश कर जनता को लुभाना मुश्किल काम था, इसलिए उस ने नरेंद्र मोदी के नाम पर दांव खेला.

और फिर यों बिसात बिछाई

नरेंद्र मोदी के नाम पर विधानसभाओं के चुनाव लड़ने से जरूरी यह था कि माहौल इतना धर्ममय कर दिया जाए कि वोटर को सिवा सनातन और हिंदू राष्ट्र के कुछ और दिखे ही न.

देखते ही देखते बहुत हैरतअंगेज तरीके से चारों तरफ नए पुराने बाबा ही बाबा दिखने लगे, हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में ताबड़तोड़ और धुआंधार तरीके से भागवत कथाएं होने लगीं. आसमान में यज्ञ और हवनों का धुआं उठता दिखाई देने लगा.

अगस्त सितंबर के चुनावी समय में नेताओं की सभाओं से बहुत ज्यादा तादाद में बाबाओं के प्रवचन हुए, दिव्य दरबार लगे, आम और खास लोगों की व्यक्तिगत व सार्वजनिक समस्याएं परचियों और हनुमान शंकर के नाम और मंत्रों व टोटकों से हल होने लगीं.

इन्हीं दिनों में एक नएनवेले बाबा बागेश्वर यानी धीरेंद्र शास्त्री का नशा लोगों के सिर चढ़ कर बोला, जो दिव्य दरबार लगा कर लोगों की समस्याएं हल कर नाम और दक्षिणा बटोरते नजर आए. लेकिन मकसद कुछ और, यानी हिंदुत्व भी था, जिस के नाम पर इस बाबा ने अपने प्रवचनों का पैटर्न बदलते भड़काऊ हिंदुत्व की जम कर आहुतियां दीं. हनुमान को अपना इष्ट बताने वाले बागेश्वर बाबा ने मुसलमानों और ईसाईयों का जम कर डर अपने प्रवचनों में दिखाया.

भव्य धार्मिक आयोजन

बात हलके में न ली जाए, इस के लिए उस में घरवापसी का तड़का लगाते एक मुहिम भी जगहजगह चलाई. मुसलमान और ईसाई बन चुके कुछ दलितों व आदिवासियों को समारोहपूर्वक उन की हिंदू धर्म में वापसी कराई गई.

यह जाल कितने बड़े पैमाने पर बुना गया था, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा ने छोटेबड़े बाबाओं की फौज मैदान में उतार रखी थी. इन में प्रमुख नाम पंडोखर सरकार, कमल किशोर नागर, जया किशोरी, देवकीनंदन ठाकुर, रावतपुरा सरकार रविशंकर और एक और ब्रैंडेड बाबा प्रदीप मिश्रा थे.

इन बाबाओं की 3 महीनों में सौ से भी ज्यादा कथाएं जगहजगह हुईं. लग ऐसा रहा था कि क्रिकेट टीम का कोई अनुभवी और पेशेवर कप्तान फील्डिंग कुछ इस तरह जमा रहा है कि औफ और औन साइड का कोई भी कोना खाली न छूटे.

अब कहने को ही मैच चुनाव का रह गया था जिस पर मैदान में खेल ये 50 छोटेबड़े धर्मगुरु कर रहे थे. हर जगह इन के यजमान भाजपा नेता ही थे, मसलन भोपाल में विश्वास सारंग, आलोक शर्मा, रामेश्वर शर्मा सहित खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जो खुलेआम धर्म और हिंदुत्व के इन ठेकेदारों के चरणों में शीश नवाते नजर आए. प्रिंट मीडिया और नेशनल न्यूज चैनल्स ने इन बाबाओं के भव्य और खर्चीले आयोजनों को हाथोंहाथ लपका. सोशल मीडिया के तो ये सुपर हीरो हमेशा से रहे ही हैं.

भाजपा के कार्यकर्ताओं और आरएसएस के स्वयंसेवकों ने इन धार्मिक समारोहों को सफल बनाने में जीजान लगाते दिनरात एक कर दिया. उन्होंने गांवगांव से लाखों की भीड़ इन आयोजनों में जुटाई, भंडारों में खाना परोसा और भक्तों के रहने, खानेपीने व ठहरने का इंतजाम भी किया. यह सम्मोहन कितने बड़े पैमाने पर छाया था, इसे सटीक तरीके से तो वही बता सकता है जिसे जुलाई से ले कर सितंबर तक का मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का भगवामय माहौल याद हो.

नतीजा यह हुआ कि जिन गलीचौराहों, चाय की गुमटियों से ले कर क्लबों और कौफीहाउसों में चुनावी चर्चा हो रही थी वह धर्म के चमत्कारों और हिंदुत्व की तथाकथित बदहाली के चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह फंस कर रह गई. जो लोग कल तक यह कह और पूछ रहे थे कि हम भाजपा को क्यों वोट दें वे अब यह पूछने और सोचने लगे थे कि हम कांग्रेस को क्यों वोट दें जो हर जगह मुसलमानों के हित साधती है और हिंदुओं के हित किनारे कर देती है. इस से न केवल मध्यप्रदेश की एंटीइंकम्बेंसी हवा हो गई, उलटे लोगों को राजस्थान और छत्तीसगढ़ में एंटीइंकम्बेंसी नजर आने लगी.

अघोषित एजेंट

इस माहौल को और हवा दी गलीकूचों में बने छोटे मंदिरों ने जहां बैठा पंडा भी भाजपा का अघोषित एजेंट होता है. ये पंडेपुजारी आम लोगों के ज्यादा नजदीक रहते हैं. सुबहशाम पूजा करने आते लोगों में महिलाओं की तादाद खासी रहती है, जिन्हें धर्म की घुट्टी ये एजेंट पिलाते रहते हैं. ये पंडेपुजारी व्रत, तीज, त्योहारों का महत्त्व बताने के साथसाथ यह एहसास भी भक्तों को कराते रहते हैं कि देश का माहौल दिनोंदिन क्यों और कैसे खराब हो रहा है.

लोग परेशान हैं क्योंकि उन्होंने धर्मकर्म करना कम कर दिया है वरना तो पूजापाठ में इतनी शक्ति होती है कि भगवान भक्तों को दुखों से दूर रखता है. बच्चों के कम नंबर इसलिए आते हैं क्योंकि वे पूजापाठ नहीं करते. घर में कलह फलां देवी और देवता के पूजनपाठ से दूर होती है और दुखों की परछाई तक नहीं पड़ती.

इन के चलताऊ, रैडीमेड धार्मिक किस्सों का असर यह होता है कि लोग अपनी समस्याओं का हल धर्म व भगवान में ढूंढ़ने लगते हैं, मसलन नौकरी मिलना, न मिलना भाग्य की बात है, सरकार और उस की नीतियों का इस से कोई लेनादेना नहीं. शिक्षा और इलाज महंगे हो रहे हैं तो सरकार से सवाल मत करो क्योंकि यह संसार भाग्य प्रधान है. सुखी जिंदगी के लिए इतने या उतने सोमवार या शुक्रवार का व्रत महिलाएं परेशानी के मुताबिक रखें तो दुर्भाग्य या परेशानियां या तो कम हो जाती हैं या खत्म ही हो जाती हैं. लोगों को भाग्यवादी बनाते इन मंदिरों और पुजारियों का रोल चुनाव के दिनों में अहम हो जाता है.

इसे समझने के लिए भोपाल की दक्षिणपश्चिम विधानसभा सीट सटीक उदाहरण है जिस में कोई 60 मंदिर हैं. इस विधानसभा से भाजपा ने जिन भगवानदास सबनानी को टिकट दिया था उन्हें लोग ढंग से जानते भी नहीं थे जबकि कांग्रेसी उम्मीदवार पी सी शर्मा वोटर के लिए जानामाना नाम था, जो पिछला चुनाव भाजपाई दिग्गज उमा शंकर गुप्ता को हरा कर जीते थे. लिहाजा, उन की जीत में किसी को कोई शक नहीं था क्योंकि भाजपा उम्मीदवार अनजान से थे. जब नतीजा आया तो सियासी पंडित तो दूर की बात है, खुद वोटर भी हैरान रह गए थे क्योंकि भगवानदास सबनानी 15 हजार वोटों के ज्यादा अंतर से जीते थे. कब और कैसे धर्म के एजेंट उन्हें जिता ले गए, यह किसी को समझ न आया.

लोगों का ब्रेनवाश

न केवल इस सीट पर बल्कि अधिकतर सीटों पर भाजपाई उम्मीदवारों की जीत में इन मंदिरों और पंडेपुजारियों का खासा रोल रहा, जिन्हें भाजपा का प्रचार करने कहीं नहीं जाना पड़ता बल्कि वोटर इन के पास चल कर आता है. गलीगली खुल गए इन मंदिरों में सुंदर कांड और भंडारे जैसे आधा दर्जन धार्मिक आयोजन भी आएदिन होते रहते हैं जिन में दलित और गरीब अब बढ़चढ़ कर शिरकत करने लगे हैं. इन्हें भाजपा की तरफ मोड़ने में नेताओं के भाषणों और कार्यकर्ता की सक्रियता से ज्यादा पूजापाठ कारगर साबित होता है और इस चुनाव में भी यही हुआ जिसे, यानी भाजपा की मंदिर नीति को समझने में कांग्रेस नाकाम रही कि दलित आदिवासियों का हिंदूकरण होना उस की शिकस्त की बड़ी वजह है.

अक्तूबर आतेआते लोगों का ऐसा ब्रेनवाश इन पंडेपुजारियों और बाबाओं ने किया कि लोगों को सपने में भी मुगल और अंगरेज दिखने लगे कि कैसे उन्होंने सोने की सी चिड़िया हमारे देश को लूटा, तबाही मचाई, मंदिरों को ध्वस्त किया,,हमारी मांबहनों की अस्मिता से चौराहों पर सरेआम खिलवाड़ किया और आज भी यह खतरा पूरी तरह से टला नहीं है.

इस तरह का प्रचार भी जम कर किया गया कि कांग्रेसी कहने को ही हिंदू हैं वरना तो ये नेहरू युग से ले कर मनमोहन सिंह के जमाने तक हमारे वोटों के दम पर मुसलमानों को सिर चढ़ाते रहे हैं. एक मोदी नाम का शेर ही है जो 10 साल से हमें दुश्वारियों से बचा रहा है और आगे भी बचाने की गारंटी ले रहा है. उस ने ही कश्मीर से 370 खत्म करने की हिम्मत दिखाई, हमारी अगाध आस्था के प्रतीक राम मंदिर के निर्माण का रास्ता खोला और अब जनसंख्या नियंत्रण कानून की तैयारी कर रहा है जिस से मुसलमानों की मुश्कें और कसी जा सकें.

56 इंच के सीने वाले इस शेर का साथ देने हमें इन राज्यों में भाजपा को जिताना ही होगा जिस से लोकसभा के साथसाथ राज्यसभा में भी भाजपा मजबूत हो ताकि हिंदुत्व और देश के भले वाले बिल बिना किसी रुकावट के पास हों. मनोविज्ञान के लिहाज से देखें तो आम लोगों के अचेतन मन में उमड़तीघुमड़ती दमित धार्मिक इच्छाओं को बाबाओं ने बाहर निकाल कर खड़ा कर दिया जिन से घबराए लोगों को अपना ट्रीटमैंट भी उसी धर्म और डर में दिखा जो इस की जड़ या उत्पत्ति स्थान है.

इत्तफाक से इन्हीं दिनों में इजराइल और हमास की जंग शुरू हो गई थी जिस का प्रचार यह कहते किया गया कि कट्टरवादी मुसलमान सीधेसादे बेकुसूर यहूदियों का कत्लेआम कर रहे हैं और भारतीय मुसलमान देशभर में इन्हीं कट्टरवादियों के पक्ष में प्रदेशन कर रहे हैं. एक और इत्तफाक तमिलनाडू के मंत्री उदयनिधि स्टालिन का सनातन धर्म विरोधी बयान रहा जिसे भगवा गैंग ने सीधेसीधे कांग्रेस से जोड़ते मनमाना प्रचार किया और कांग्रेस सलीके से इस का खंडन नहीं कर पाई.

बाबाओं ने बाजी और मोहरे जहां छोड़े थे, उन्हें वहीं से सोशल मीडिया वीरों और फिर नेताओं ने लपक लिया. फिर कोई खास मुश्किल नहीं रह गई थी. जो कशमकश लोगों के दिलोदिमाग में चल रही थी उसे सकपकाए कांग्रेसियों ने, अनजाने में सही, दूर करने में मदद की.

नहीं चला कांग्रेस का धर्म कार्ड

ऊपरी तौर पर अभी भी माहौल कांग्रेस के पक्ष में दिख रहा था जिसे और पुख्ता करने की गरज से कांग्रेस वही गलती कर बैठी जिसका इंतजार भगवा खेमा कर रहा था. मध्यप्रदेश में कांग्रेस मुखिया और मुख्यमंत्री पद के चेहरे कमलनाथ ने एक के बाद एक बागेश्वर बाबा और पंडित प्रदीप मिश्रा की कथाएं अपने गृहनगर छिंदवाड़ा में आयोजित कर डालीं और यजमान खुद सपरिवार बने. कमलनाथ की मंशा यह जताने की थी कि वे भी हिंदू हैं और धार्मिक आयोजन भी उन बाबाओं के करवा सकते हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के एजेंट कहे जा रहे हैं.

लेकिन कमलनाथ यह नहीं समझ पाए कि परोक्ष नहीं, बल्कि घोषिततौर पर ये लोग भाजपा के ही एजेंट हैं और अपने प्रवचनों के जरिए कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करते रहते हैं. यह बात राजनीति में मामूली सी दिलचस्पी रखने वाला आदमी भी समझ सकता है कि जिस हिंदू राष्ट्र निर्माण या घोषणा की बात रामभद्राचार्य, बागेश्वर बाबा और प्रदीप मिश्रा जैसे हिंदूवादी संतमहंत करते रहते हैं उस का टैंडर भाजपा ने भर रखा है.

न केवल कमलनाथ बल्कि तमाम छोटेबड़े कांग्रेसी इस गलतफहमी का भी शिकार थे कि 2018 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धर्मकर्म की जो राजनीति की थी उस के चलते ही तीनों राज्यों में कांग्रेस को वोटर ने चुना था. तब कमलनाथ छिंदवाडा और भोपाल में हनुमान का पूजापाठ करते नजर आए थे तो राहुल गांधी ने भी तब पहली बार राजस्थान से खुद का गौत्र उजागर किया था. उसी चुनाव के पहले पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी नर्मदा नदी की परिक्रमा की थी.

बस, उसी को जीत का तंत्र और मंत्र मानते कांग्रेसियों ने भी धर्म और पूजापाठ का खेल शुरू कर दिया. इधर भाजपाई हमलावर हो कर कांग्रेसियों को नकली और चुनावी हिंदू बताते रहे जो सच इस लिहाज से था कि भाजपाई तो सत्ता में हों न हों, बारहों महीने चौबीसों घंटे धर्म की राजनीति करते रहते हैं क्योंकि इस के सिवा उन्हें कुछ और आता नहीं.

विकास जितना हो जाता है वह प्रशासन की देन होता है वरना इन का बस चले तो पूरा खजाना मंदिरों के निर्माण-पुनर्निर्माण, भव्यता, पूजापाठ और दक्षिणा में ही लुटा दें. ऐसा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने खासतौर से आखिरी दिनों में खूब किया भी था. छोटे मंदिरों के पुजारियों को भी उन्होंने खूब सौगातें व खैरातें बांटीं.

शिवराज सिंह ने उज्जैन, दतिया, ओंकारेश्वर सहित हर शहर के मंदिर पर सरकारी खजाना लोक और महालोक बनाने के नाम पर लुटाया. छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राम वन पथ गमन के विज्ञापन करते रामराम जपते नजर आए. राजस्थान में हालांकि अशोक गहलोत ने मंदिरों से यथासंभव परहेज किया लेकिन वे भी खुद को हिंदू बताते यह कहते रहे कि धर्म की राजनीति देश को बरबाद कर देगी.

जोशजोश में कमलनाथ, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत ने धर्म नाम का अंगारा तो हथेली पर रख लिया लेकिन इस की जलन से कैसे बचना है, इस के टोटके इन्हें नहीं मालूम थे. यह एक जटिल और गंभीर बात है जिस पर कांग्रेस मात खा गई, वरना उस का प्रशासन भाजपा से कहीं ज्यादा बेहतर रहता है.

भाजपा वोटर को यह जताने में कामयाब रही जो हकीकत भी है कि कांग्रेस धर्म की दिखावटी राजनीति ही करती है. अगर इस किस्म की राजनीति देश को बरबाद करती है तो क्यों अशोक गहलोत जयपुर के खाटू श्याम मंदिर कौरीडोर के लिए 100 करोड़ रुपए स्वीकृत करते हैं और इसी मंदिर में महिला भक्तों से आशीर्वाद मांगते हैं. क्यों भूपेश बघेल को 5 साल यह चिंता सताती रही कि वन गमन के दौरान छत्तीसगढ़ में राम जहांजहां से हो कर गुजरे थे उन जगहों को सरकारी पैसे से जितना हो सके, चमका दें. क्यों कमलनाथ करोड़ों का हनुमान मंदिर छिंदवाड़ा में बनवाते हर कभी सुंदरकांड और हनुमान चालीसा का पाठ करते रहते हैं.

ऐसे हुआ नुकसान ?

बात सौ फीसदी सच है जिसे कांग्रेसियों को स्वीकारना आना चाहिए कि धर्म की राजनीति उन के बस की बात नहीं क्योंकि इस का सीधा सा मतलब होता है वर्णव्यवस्था से सहमति जताने के अलावा सवर्णों और उन में भी ब्राह्मणों को खुश रखने की कवायद जिसे दलित, पिछड़े और मुसलमान सब बारीकी से समझते हैं. धर्म की राजनीति करने का हक भाजपा को ही है क्योंकि उस का तो जन्म ही इस के लिए हुआ है. वह अयोध्या सहित सोमनाथ, काशी और मथुरा की भी बात करती है और काफीकुछ कर के दिखा भी देती है, फिर इस खेल में सैकड़ोंहजारों जानें जाएं तो चली जाएं, इस की परवा वह नहीं करती.

यह बहस बहुत लंबीचौड़ी है जिस का निष्कर्ष यही निकलता है कि तीनों राज्यों में कांग्रेस का परंपरागत वोटबैंक दलित, आदिवासियों का जो उस के नजदीक 5 साल पहले आया था वह धर्म की आधीअधूरी राजनीति के चलते उस से छिटक गया है. इसी धर्म की राजनीति के होहल्ले में जातिगत जनगणना का मुद्दा दब कर रह गया.

राहुल गांधी लाख जनेऊ दिखाएं, अपना गोत्र बताएं और कैलाश पर्वत या महाकाल जाएं, इस देश में उन्हें हिंदू होने की मान्यता कभी नहीं मिलने वाली. कांग्रेस को सफलता तभी मिलती है जब वह धर्मनिरपेक्षता की बात करती है जिस से दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को ब्राह्मण राज के चंगुल से छूटने की गारंटी मिलती है. अब खुद कांग्रेस ही इन लोगों के वोट धर्मकर्म करते मांगेगी तो इन का भरोसा खोने का ही काम करेगी और मुसलमानों को छोड़ कर ये तबके भाजपा को वोट करने को मजबूर होंगे.

भाजपा और नरेंद्र मोदी ने अपना धार्मिक चेहरा इन चुनावों में उधेड़ कर दिखाने से परहेज नहीं किया जबकि कांग्रेस ने अपने चेहरे पर धर्म का घूंघट ढकने की गलती की तो वोटर ने उसे सबक भी सिखा दिया. लेकिन, एक उम्मीद और मौका भी इन नतीजों में छिपा है कि जनता ने कांग्रेस को चुनावी रेस से बाहर नहीं किया है.

आस बाकी है अभी

कांग्रेस के लिए सुकून देने वाली बात यह है कि वोटर ने उसे महज चेतावनी दी है कि वह धर्म को छोड़ते, मुद्दों की राजनीति करे तो वह उस पर भरोसा भी कर सकता है जो पूरी तरह टूटा नहीं है, थोड़ा दरका भर है. नतीजों में आंकड़े इस की गवाही भी देते हैं. सब से ज्यादा 230 सीटों वाले मध्यप्रदेश में उसे 66 सीटें 40.4 फीसदी वोटों के साथ मिली हैं. पिछले चुनाव के मुकाबले उस की सीटें भले ही 48 कम हुई हों लेकिन वोट शेयर में महज आधा फीसदी की ही गिरावट आई है.

इसी तरह, 199 सीटों वाले राजस्थान में तो 2018 की 99 में से 69 यानी 30 सीटें कम मिलने के बाद भी उस का वोट शेयर, मामूली ही सही, बढ़ा ही है. 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में 2018 में मिली 68 के मुकाबले 33 सीटें कम मिलने पर वोट शेयर महज 1.3 फीसदी ही कम हुआ है. तीनों राज्यों में यह इतना बड़ा नुकसान नहीं है जिस की भरपाई संभव न हो.

दिल्ली सहित भोपाल, जयपुर और रायपुर में हार का विश्लेषण करते कांग्रेसी गलत टिकट बंटवारे, आपसी फूट, पैसों और कार्यकर्ताओं की कमी सहित ईवीएम मशीनों पर ठीकरा फोड़ते नजर आए तो सहज लगा कि वे हार के सही कारणों की चर्चा करने से कतरा रहे हैं कि कैसे भाजपा ने उन्हें धर्मजाल में फंसाया और बाजी मार ले गई.

तेलंगाना में उसे सत्ता मिलने की एक बड़ी वजह वहां के दलित, आदिवासी और मुसलमानों का भी साथ मिलना रहा, जहां के मुख्यमंत्री बीआरएस के मुखिया केसीआर ने बौखलाहट में अनापशनाप पैसा और सहूलियतें मंदिरों को देना शुरू कर दिया था. वहां किसी कांग्रेसी दिग्गज, खासतौर से मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश किए गए रेवंत रेड्डी, ने हिंदी पट्टी के कांग्रेसी नेताओं जैसी गलती धर्म की राजनीति करने की नहीं की, इसलिए कांग्रेस 119 में से 64 सीटें 39.4 फीसदी वोटों के साथ ले गई.

अब अगर रेवंत रेड्डी गलती करेंगे तो उस का फायदा भाजपा को ज्यादा मिलेगा जो 7 सीटें 14 फीसदी वोटों के साथ ले जाने में कामयाब रही है. हालांकि, भाजपा की प्राथमिकता तेलंगाना में भी तोड़फोड़ कर सत्ता हथियाने की रहेगी जिस से बचने के लिए कांग्रेस को सावधान रहना पड़ेगा वरना कर्नाटक, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र सहित गोवा के उदाहरण उस के सामने हैं.

चेहरे की किताब : भाग 1

ज़रीना बेग़म ख़ामोशी से आनेजाने वाले मेहमानों का जायज़ा ले रही थीं. वे वलीमे की दावत में शामिल होते हुए भी शामिल नहीं थीं. उन को लग रहा था कि उन को नीचा दिखाने के लिए देवरानी ने आननफानन बेटे की शादी कर दी है. उन का दानिश 4 साल बड़ा था माहिर से.

वे सोच रही थीं कि माहिर की उम्र ही क्या है, 26 का ही तो हुआ है, क्या हर्ज था एकाध साल रुक जाती तो. ख़ानदान भर में मेरा और दानिश का मज़ाक बना कर रख दिया, लोग तरहतरह की बातें कर रहे होंगे. हालांकि उन्होंने किसी को बातें करते सुना तो नहीं था पर जो भी उन की तरफ़ देख कर कुछ कहता या हंसता, उन्हें लगता, उन्हीं पर कटाक्ष किया जा रहा है.

‘दानिश मेरा बच्चा. मेरी रूह की ठंडक, मेरी आंखों का नूर. इकलौता होने के नाते कितना ज़िद्दी, नख़रीला सा था, जब लाड़ उठाने वाले, मुंह से निकलने के पहले हर ख़्वाहिश पूरी कर देने वाले वालिदैन हों तो होना ही था न,’ ज़रीना के दिमाग में कशमकश जारी थी.

पर 12 साल की उम्र में ही अब्बू को खो देने के बाद वह जैसे एकदम बड़ा हो गया था. बिलकुल ख़ामोश, संजीदा, मां का हद से ज़्यादा ख़याल रखने वाला, पढ़ाई जितना ही अब्बू के बिज़नैस को भी सीरियसली लेने लगा था. अम्मी की कभी नाफ़रमानी न हो, यही कोशिश रहती थी.

उस ने अपनी ज़िंदगी के फैसले लेने का हक अपनी मां को दे दिया था. बस, उस की एक ही शर्त थी, जब उन की तरफ से रिश्ता फाइनल हो जाए, उन का दिल लड़की को बहू मान ले, तभी लड़की देखनेदिखाने का सिलसिला शुरू हो. वह कभी किसी लड़की को रिजैक्ट कर के उस को एहसासे कमतरी में मुब्तिला कर के अपने ज़मीर पर बोझ नहीं ले सकता.

उस की बात से पहले तो ज़रीना बेग़म मानो निहाल हो गईं, पर वक़्त गुज़रने के साथ उन पर जेहनी दबाव बढ़ता जा रहा था. उन को लगने लगा था कि अदब व तहज़ीब में ढली, नफ़ासत और क़ाबिलीयत से लबरेज़ इंसान पैदा होना बंद ही हो गए हैं जैसे ज़मीन पर. फूहड़, बेढंगी लड़कियां एक आंख नहीं सुहाती थीं उन को. ऊपर से ग़ज़ब यह कि कुलसूम, उन की देवरानी, अपने बेटे माहिर के रिश्ते के सिलसिले में सलाह लेने आ गईं.

‘अरे माहिर की उम्र ही क्या है, अभी और सुघड़ सलीकेमंद लड़कियां…’ वे बात पूरी करतीं, उस से पहले कुलसूम बोल पड़ीं, ‘भाभी साहिबा, हम भी अल्हड़, चंचल थे जब ब्याह कर आए थे इस घर में. हमारी सास ने सब्र से, प्यार से हमें इस घर के सांचे में ढाल ही लिया न. 26 का हो गया है माहिर. तालीम मुकम्मल हो गई. 2 साल से अपने अब्बू के साथ हाथ बंटा रहा है बिज़नैस में. इफ़रा, उस की दुल्हन, 22 की है. ग्रेजुएशन कर चुकी है. सही उम्र है दोनों की. एडजस्ट करने में दिक़्क़त नहीं आएगी. सब से बड़ी बात, उन दोनों की यही मरजी है.’

‘ए हे बीबी, ये कहो न आंख लड़ गई है दोनों की, चक्कर चल रहा है, तो अब कोई रास्ता तो है नहीं तुम्हारे पास. फिर यह सलाह का ढोंग क्यों?’ ज़रीना बेग़म तुनक कर बोलीं.

कुलसूम ने उन्हें अफ़सोस से देखा और कहा, ‘पसंद की शादी इतनी बुरी बात तो नहीं. जब हर लिहाज़ से जोड़ी क़ाबिलेक़ुबूल है तो इस बात पर एतराज़ कि लड़के ने पसंद कर ली लड़की, फुज़ूल है.’

‘हां, जब उड़ा कर ले जाएगी वह चंट बला लड़के को अपने साथ, तब रोते बैठी रहना,’ ज़रीना बेगम कब हथियार डालने वालों में से थीं.

‘अच्छा न कहें तो बुरा भी न कहें. मैं किसी की फूल सी बच्ची के लिए ऐसी सोच नहीं रख सकती. आख़िर, मेरी भी एक बच्ची है जो कल को किसी के घर की रौनक बनेगी. मैं रिश्ता पक्का करने जा रही हूं. आप का दिल गवारा करे, तो आ जाइएगा. कुदरत दानिश पर रहम करे.’

उन का आख़िरी जुमला ज़रीना बेग़म को सिर से पांव तक सुलगा गया था. वे सोचने लगी थीं, ‘क्या होगा जब दानिश को माहिर की शादी पक्की होने की ख़बर मिलेगी. क्या सोचेगा वह कि अम्मी मेरे लिए एक अदद हमसफ़र न तलाश सकीं. कहीं वह ख़ुद ही किसी को ले आया तो’

उन की तबीयत बिगड़ गई थी. अपनी मां को अच्छे से समझने वाला दानिश इस बार भी सब समझ गया था. ढेरों तसल्लियों के साथ उस ने मां को मना लिया था कि ख़ुशी से शादी में चलें और किसी को कुछ कहने का मौका न दें.

ओह मेरा सब्र वाला बच्चा, कैसे आगे बढ़बढ़ कर हर काम संभाले हुए है. क्या मैं सचमुच नकारी मां हूं?

इन्हीं सब ख़यालों से घबरा कर वे शोरशराबे से दूर गार्डन के पिछले हिस्से में आ बैठी थीं.

उन के ख़यालों के सिलसिले को तोड़ती एक मीठी आवाज़ कानों से टकराई, “माफ़ कीजिएगा आपी, क्या मैं इस चेयर पर बैठ सकती हूं?”

उन्हें बेवक़्त का यह ख़लल पसंद नहीं आया. बड़ी मुश्किल से तो यह कोना नसीब हुआ था शोरगुल से दूर, चिड़चिड़े अंदाज़ में जवाब दिया, “कुरसी मेरे अब्बू की तो है नहीं, बैठ जाओ जहां बैठना हो.”

“ओह, दोबारा माफ़ी चाहती हूं, शायद आप को डिस्टर्ब कर दिया, मैं चलती हूं.”

ज़रीना बेग़म के होश बहाल हुए तो देखा, 20-22 साल की ताज़ा गुलाब की तरह खिली हुई परी चेहरा लड़की उन से मुख़ातिब है.
अपनी बदएख़लाकी पर अफ़सोस करते हुए उन्होंने कहा, “अरे नहीं, मैं पता नहीं किस धुन में थी माफ़ी चाहती हूं. बैठ जाओ यहीं, प्लीज़.”

“कोई बात नहीं, आप बड़ी हैं, माफ़ी न मांगें,” कह कर वह लड़की मुसकरा कर बैठ गई.

अब ज़रीन बेग़म का पूरा ध्यान उसी पर था. उन्होंने जब उस का जायज़ा लिया तो चौंक पड़ीं. बेबी पिंक और स्काई ब्लू कौम्बिनेशन की वे दीवानी थीं कालेज टाइम में.

हालांकि एक बार पति ने टोक दिया था- ‘बेगम, मेरी आंखें कालीसफ़ेद के बजाय गुलाबीफिरोज़ी होने को हैं इस रंग को देखदेख कर.’

तब चिढ़ और कुढ़न में उन्होंने कुछ जोड़े हाउसहैल्प को और कुछ छोटी बहन को दे दिए थे. बाद में लाख मनाने पर भी दोबारा वह रंग नहीं पहना, पति की मौत के बाद तो बिलकुल नहीं, 16 साल से.

उसी कौम्बिनेशन में मोतियों के वर्क वाला दुपट्टा, मोतियों के ही छोटेछोटे इयरिंग्स और मोती की नोज़पिन. किसी सीप से निकल कर आई हुई लग रही थी वह. एकदम लाइट मेकअप और पिंक लिपस्टिक. उस के फैशन सैंस की वे कायल हो गईं.

दूसरी हैरत उन्हें तब हुई जब उन्होंने देखा कि उस की प्लेट में एक बाउल में रसगुल्ला रखा है, एक में दाल. एकएक चम्मच दाल ले कर वह चावल में मिक्स कर के खाती जा रही थी. यही उन का तरीक़ा था. चावल में एकसाथ ख़ूब सारी दाल डाल कर भकोस लेने वाले जाहिल लगते थे उन्हें.

दयादृष्टि : भाग 1

वह बहुत देर से कतार में खड़ा था. उस के पीछे उस की पत्नी खड़ी थी. उन्हें नियमानुसार, जूतेचप्पलें देवालय से बहुत दूर उतारना पड़े थे. तपती जमीन पर उन के तलवे जल रहे थे. वे सोच रहे थे कि भगवान का दर्शन चाहिए तो कष्ट तो उठाने ही होंगे.

वे मन में असीम श्रद्धा लिए, लंबी कतार के साथ धीरेधीरे आगे बढ़ने लगे. उन के सामने बहुत दूर, श्वेत संगमरमर से बना भव्य देवालय चमक रहा था. वहीं साक्षात भगवान मिलेंगे, यह सोच वे गदगद हुए जा रहे थे.

धीरेधीरे वे देवालय के प्रवेशद्वार पर पहुंच गए. वहां खड़े कर्मचारियों ने उन की जांच की,”मोबाइल हो तो अंदर लौकर में रखिए,” कर्मचारी ने निर्देश दिया.

” नहीं है,” मोबाइल न खरीद पाने की असमर्थता को उस ने चेहरे पर आने से रोका.

“ठीक है. उधर चले जाइए, उधर सभागार है,” कर्मचारी ने सभागार के मार्ग की ओर संकेत किया. अब वे मंदिर के विशाल सभागार में थे.
सभागार में श्रीअनंत देव की विशाल तसवीर लगी हुई थी. उन के दोनों हाथ आशीर्वाद मुद्रा में थे. भक्त तसवीर से आशीर्वाद ले रहे थे. श्रद्धा से उन की आंखें सजल हो रही थीं.

सभागार में पुरुषों और महिलाओं को अलगअलग स्थान पर बैठने का कहा गया. वातानुकूलित सभागार की शीतल हवा सुकून दे रही थी. वह बुदबुदा उठा, ‘भगवान आप की माया, कभी धूप कभी शीतल छाया.”

उस ने पत्नी की ओर देखा. भीड़ के बीच वह आंखें बंद कर बैठी हुई थी. शांति का भाव उस के चेहरे पर थिरक रहा था. उस ने भी ध्यान लगाना चाहा. वह आंखें बंद कर ही रहा था कि एक श्वेत वस्त्रधारी सेविका सभागार के मंच पर उपस्थित हुई. सभागार में सन्नाटा छा गया.

“सभी को नमस्ते,”सेविका ने सभी के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा.

“आप सभी कैसे हैं?” सेविका ने मुसकराते हुए पूछा.

“बढ़िया हैं…बढ़िया हैं…” के समवेत स्वर से सभागार गूंज उठा.

टूटती आशा : भाग 1

‘‘ओफ्फोकितना काम हैसुबह बाढ़ पीड़ितों के लिए चंदा और कपड़ा इकट्ठा करना है. दोपहर में राजदूत’ में भोजन तो शाम को राजभवन में चायसांस तक लेने की फुरसत नहीं है,’’ महिला ग्रुप की अध्यक्षा नीरादेवी अपने चेहरे पर परेशानी के भाव लाते हुए सदस्याओं से बोलीं.

‘‘नीराजीआप वास्तव में समाज के लिए कितना करती हैं,’’ एक सदस्या ने उन की प्रशंसा करते हुए कहा.

‘‘आप सचमुच बड़ी कर्मठ हैं. सुना है आप को उच्च रक्तचाप भी हैफिर भी आप इतनी मेहनत करती हैं,’’ दूसरी ने पहली से बाजी मारते हुए कहा.

‘‘भईऐसे समाजसेवियों के कारण ही तो हमारा समाज रसातल में जाने से बचा हैनहीं तो देश की आज जो स्थिति है वह क्या किसी से छिपी है?’’ तीसरी ने तो जोरदार प्रमाणपत्र ही दे डाला.

नीरा ग्रुप की सदस्यों से इतनी प्रशंसा पा कर फूल कर कुप्पा हो गई. वह बड़ी अदा से अपनी गवींली मुसकान छिपाने का प्रयत्न करती हुई ऐसा अभिनय करने लगीमानो वह इन सब बातों से बेजार हो रही हों. वह बोलीं, ‘‘आप सब इस तरह अपने विचार प्रदर्शित कर ठीक नहीं कर रही हों. मैं यह सब कार्य प्रशंसा के लिए नहीं वरन सैटिस्फैक्शन के लिए करती हूं. यदि देश और समाज के लिए हम अपना इतना सा भी योगदान न दे पाएं तो लानत है हमारे जीवन को.’’ फिर उन्होंने प्रसंग को नया मोड़ देते हुए कहा, ‘‘खैरअब हम लोग ग्रुप के उद्देश्यों पर ध्यान दें. कल का हमारा कार्यक्रम देहरी ग्राम जाने का है. वहां हमें 8 साल से कम उम्र के बच्चों को नहलानाधुलाना और वहां के लोगों को सफाई का महत्त्व समझाना है. हमें सुबह 9 बजे तक वहां पहुंच जाना है. नीरा यादव के पिता ने एमएलए का चुनाव कई बार लड़ा था और लीडरी उस के खून में आ गई थी. हालांकि पार्टियां बदलने के कारण वह कभी जीत नहीं पाए पर उन की तमन्ना थी कि नीरा कम से कम नगरपालिका पार्षद का चुनाव तो लड़ ले और अकसर उसे उकसाते रहते थे.

नीरा यादव का प्रेम विवाह हुआ था. तब वह पढ़ने में होशियार थी और उसे उम्मीद थी कि किसी अच्छी सरकारी नौकरी में लग जाएगी पर उस के पैसे वाले पिता उसे राजनीति में ला कर अपने सपने पूरा करना चाहते थे. उन्हें मालूम था कि जो रौब नेतागीरी में हैवह अफसर गीरी में नहीं और रौब गांठने का गुण नीरा ने उन से सीख लिया था.

यदि प्रत्येक सदस्या तीनतीन बच्चों को भी नहलाधुला दे तो कम से कम 24-25 बच्चों के शरीर की कल सफाई हो जाएगी. निश्चित ही यह करतेकरते बारहएक तो बज ही जाएंगे. इसलिए मैं सोच रही हूं कि वहीं आम्रकुंज में दालबाटी और चूरमा का कार्यक्रम रखें और शाम तक लौट आएं.’’ अभी पिछली किट्टी में रेखा सरिया वहां की दालबाटी की तारीफ कर रही थी.

‘‘वाहनीराजीफिर तो मजा आ जाएगा. समाजसेवा भी हो जाएगी और मौजमस्ती भी.’’ एक कम उम्र सदस्या चहक कर बोली. एकदूसरी सदस्या को भय हुआ कि समाजसेवा के इस काम में कहीं दोपहर का यह भोजन महंगा न पड़ जाए. यदि खुद की जेब से कुछ जाना हो तो दालबाटी पेट को माफिक न आने का बहाना कर देना ही अच्छा है. इस ग्रुप की सारी महिलाएं बहुत पैसे वाली नहीं थी. सब के घरवाले पहली पीढ़ी के पढ़ेलिखे नौकरी वाले थे और समाज की सीढ़ियांचढ़ने की कोशिश कर रहे थे और इसीलिए नीरा यादव से चिपकीं थीं.

‘‘मैं ने सब सोच लिया है. आम्रपाली का मालिक पिताजी का जानकार है और पिताजी ने उसे एक बार फूड इंस्पेक्टर से पकड़े जाने से बचाया था. वह आधे 50 परसेंट डिस्काउंट देगा.

इतने में नीरा का मोबाइल बजामैम घर से फोन हैये बात कर हैं.’’ कहते हुए नीरा फोन पर लग गई. ‘‘ओहमेरे बिना आप का कोई काम ही नहीं होता. मैं बेचारी निश्चिंत हो कर समाज सेवा का कार्य करूं तो कैसेकितना भी इंतजाम कर के आओपर आप चाहते होमेरे को घर में चौकीदार की तरह निगरानी के लिए रहना ही चाहिए.’’

फिर रुक मुड़ कर बोलीं, ‘‘मैं जल्दी ही घर पहुंच रही हूं.’’

फिर उन्होंने बाकी महिलाओं की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘आप सब कल ठीक साढ़े 7 बजे यहां पहुंच जाएं. जरा सी भी देर होने से कार्यक्रम तो बिगड़ ही जाता हैमन भी खिन्न हो उठता है.’’

इस के बाद सभी सदस्याएं चहचहाती हुई बाहर निकलने लगीं. अलगअलग बिरादरियों की होते हुए भी तो औरतें आजकल नीरा यादव के साथ थी कि नहीं उन का भी भला हो जाए. 5 स्टार होटलों में होने वाली अमीरों की बीवियों को किट्टियों के लायक तो इन के पास पैसे नहीं थे पर कोशिश करती थी कि कुछ न कुछ तो करा जाए. इसलिए सरकारी बंगले में बने इस टूटे से क्लब से काम चलाना पड़ता था. इन लोगों को नीरा जाटव बस्ती में ले जाना चाहती थी ताकि वहां वोट पक्के हो सकें. बाहर दो कारें खड़ी थीं. उन में क्लब की सदस्याएं जा लदीं. अभी सब के पास कारें नहीं थीं.

दोनों कारें ठसाठस भर गईं. दोनों ही कारों की मालकिनें नीरादेवी को मक्खन लगाने की गरज से अपनी कार में ले जाना चाहती थी. पर उन में से एक के घर का रास्ता नीरादेवी के घर के आगे से हो कर जाता थाइसलिए वह उसी में बैठीं. दूसरी कार की मालकिन अपने लिपस्टिक से रंगे होंठों पर एक जबरदस्ती की मुसकान बिखेरती चली गई. नीरा के पास एक ही कार थी जो उस के पति इस्तेमाल करते थे. वे अपनी दुकान चलाते थे. उन्होंने मेहनत से बड़ी दुकान बनाई थी.

पहली महिला का घर आते ही उस ने नीरा देवी से निवेदन किया कि 5 मिनट को ही सहीवह उस के घर को गुलजार कर के जाएं. उस के आग्रह पर सभी महिलाएं कार से उतर गईं. उस महिला का पति दफ्तर जाने की तैयारी में था.

‘‘तुम ने खाना ठीक से खाया या नहीं?’’ उस महिला ने प्रेमपगी आवाज में पति से पूछा, ‘‘स्वीटडिश ली या नहींमैं ने कितने प्रेम से तुम्हारे लिए सुबह जल्दी उठ कर बनाई थी.’’

‘‘स्वीटडिश.’’ पति को मन ही मन हंसी आ गई. कल रात का बना कस्टर्ड. हां…हां…हां… पर जोर से हंस नहीं सका. संयत हो कर अपरोक्ष भाव में बोला, ‘‘हांहांली.’’ यह कह कर सभी महिलाओं को नमस्ते करते हुए वह स्कूटर स्टार्ट कर के भागा. मानो इन सब से बचना चाहता हो.

‘‘हाय पुष्पातुम ने ड्राइंगरूम कितना अच्छा सजा रखा है.’’

पर रग के नीचे जमा हो गई धूल की 2 इंच परत कोजिस से रग और मोटा हो रहा थाकौन देखता है?

‘‘शुक्रिया. भईइन्हें घर बिलकुल साफसुथरा चाहिए. जरा सी धूल दिखी नहीं कि नाक पर गुस्सा आया. इसीलिए नौकर के सफाई करने के बाद भी मैं अपने हाथ से साफ करती हूं. अच्छा आप लोग बैठेंमैं अभी दो मिनट में आई.’’ कहती हुई पुष्पा अंदर चली गई.

‘‘कुछ तकलीफ मत करना. अभी घर जा कर खाना खाना है.’’ नीरा पति का फोन और घर सब भूल चुकी थीं. पर भूख ने उन्हें घर की याद दिला दी.

फूल सी दोस्ती : भाग 1

आजकल मंजरी का मन घर में बिलकुल भी नहीं लग रहा था. उस के पति शिशिर बिजनैस के सिलसिले में ज्यादातर बाहर रहा करते थे और बेटा अतुल एमएस करने अमेरिका गया, तो वहीं का हो कर रह गया. साक्षी से ही वह अपने मन की बातें कर लिया करती थी. साक्षी भी मंजरी को मां नहीं सहेली समझती थी. तभी तो पिछले सप्ताह उसे एअरपोर्ट तक छोड़ते समय मन बहुत उदास हो गया था मंजरी का. हालांकि इस बात से वह बहुत खुश थी कि मिलान से फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई करने के लिए स्कौलरशिप मिली साक्षी को. शिशिर ने उसे सोसाइटी की महिलाओं का क्लब जौइन करने का सुझाव दिया.

पर मंजरी ने सोचा कि पहले की तरह फिर उसे क्लब छोड़ना पड़ गया तो वह सब की आंखों की किरकिरी बन जाएगी. उस की दिलचस्पी औरों की तरह लोगों की कमियां निकालने, गहनों की चर्चा करने और साडि़यों की सेल के बारे में जानने की नहीं थी. किट्टी पार्टी में महंगी क्रौकरी के प्रदर्शन और ड्राइंगरूम में नित नए शो पीसेज से अपना रुतबा बढ़ाचढ़ा कर दिखाने का स्वांग रचना भी नहीं जानती थी वह. उसे कुछ अच्छा लगता था तो बस देर तक प्रकृति की गोद में बैठे रहना या फिर बच्चों के साथ हंसतेखिलखिलाते हुए बचपन को फिर से महसूस करना. उसे कभी एहसास ही नहीं हुआ कि वह 50 वर्ष पार चुकी है.

साक्षी के चले जाने के बाद मंजरी अकसर किसी पार्क में जा कर बैठ जाया करती थी. एक दिन पार्क में बैंच पर बैठी हुई वह व्हाट्सऐप पर मैसेज पढ़ने में तल्लीन थी कि ‘एक्सक्यूज मी’ सुन कर उस का ध्यान भंग हुआ. सामने एक 28-29 वर्षीय लंबा, हैंडसम युवक उसे बैंच पर रखा उस का पर्स हटाने को कह रहा था. मुसकराते हुए उस ने पर्स उठा लिया और वह युवक बैंच पर बैठ गया.

लगभग 5 मिनट यों ही बीत गए. युवक बेचैन सा कभी पार्क के गेट की ओर देखता तो कभी अपने मोबाइल को. ऐसा लग रहा था कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है. मंजरी ने पूछ लिया, ‘‘किसी का इंतजार कर रहे हो क्या?’’ लेकिन प्रश्न पूछते ही उसे लगा कि उस से गलती हो गई. एक अजनबी, वह भी नवयुवक….अब जरूर यह खीज उठेगा. परंतु उस की आशा के विपरीत युवक ने मुसकरा कर उस की ओर देखा और कहा, ‘‘मैं… हां… इतंजार कर रहा हूं… आप… अकेली बैठीं हैं?’’

‘‘हां…जब बोर होती हूं तो यहां आ कर बैठ जाती हूं. मेरे अलावा घर के सब लोग बिजी हैं…लगता है यह बैंच उन लोगों के लिए ही बनी है जो अपनों का साथ पाने को बेचैन हैं,’’ वह निराश, पर थोड़े से मजाकिया लहजे में बोली. ‘‘हां… शायद… मेरी गर्लफ्रैंड… नहीं, हाफ गर्लफ्रैंड भी बिजी रहती है. वह ऐसे बच्चों के हौस्टल में औफिसर इन चार्ज है जो देख नहीं सकते. काफी काम रहता है उसे वहां. शायद इसीलिए टाइम पर नहीं पहुंच पाती मेरे पास.’’ निराशा छिपाते हुए एक सांस में ही नवयुवक ने सब कह डाला.

फिर अपना परिचय देते हुए उस ने मंजरी को अपना नाम बताया, ‘‘जी, मेरा नाम विराट है. और आप?’’ ‘‘मैं मंजरी,’’ थोड़ा हिचकिचाते हुए मंजरी ने भी अपना परिचय दिया.

‘‘काम तो अच्छा कर रही हैं आप की साहिबा. नाम क्या है और हाफ गर्लफ्रैंड क्यों?’’ ‘‘रिया नाम है मैडम का… हम दोनों मुंबई में 5वीं क्लास तक एकसाथ पढ़ते थे, फिर उस के पापा का ट्रांसफर हो गया और वे लोग दिल्ली आ गए. 3 महीने पहले एक दिन अचानक ही उस से मुलाकात हो गई. उस के बाद से ही हमारा मिलनाजुलना शुरू हो गया. हम दोनों एकदूसरे को पसंद भी बहुत करते हैं. बस…वो ‘3 वर्ड्स’ अभी तक नहीं कह पाए एकदूसरे को,’’ विराट ने शरमाते हुए कहा.

‘‘फिर तो तुम भी हाफ बौयफ्रैंड हुए न उस के,’’ मंजरी ने विराट की बातों में दिलचस्पी लेते हुए कहा. ‘‘नहींनहीं, रिया तो कब की मेरे मन की बात जान चुकी होगी, क्योंकि मेरे वाट्सऐप और फेसबुक के स्टेटस मेरे मन के राज खोल देते हैं. पर रिया…वह तो इस मामले में पूरी साइलैंट मूवी की हीरोइन है,’’ और विराट होंठों पर उंगली रख, चुप्पी का इशारा करते हुए मुसकराने लगा.

और फिर मंजरी के ‘‘ओह…नौटी गर्ल’’ कहते ही दोनों हंस पड़े. ‘‘आप से एक बात पूछूं?… पुरानी हिंदी फिल्मों में हीरो हमेशा हीरोइन के पीछे भागता दिखाई देता था. क्या सच में ऐसा तब भी होता था? आजकल की लड़कियां तो अपने पीछे भगाभगा कर थका ही देती हैं. अब मुझे ही देख लीजिए,’’ कह विराट ने अपना निचला होंठ बाहर निकालते हुए मंजरी की ओर इस तरह देखा कि उस की मासूमियत पर स्नेह बरस पड़ा मंजरी के मन में.

‘‘विराट, यह जमाने पर नहीं व्यक्ति पर निर्भर करता है. मैं ने तो किसी को अपने पीछे भागने का मौका ही नहीं दिया कभी. शिशिर के लिए प्यार महसूस करते ही बिना समय गंवाए उसे बता दिया था मैं ने तो. जब मिलती थी तब भी पटरपटर बोलती रहती थी. वैसे शिशिर क्या मैं तो किसी के सामने छिपा ही नहीं सकती अपनी फीलिंग्स. चाहे फिर वे मेरे बच्चे हों या दोस्त,’’ थोड़ा भावुक हो कर मंजरी बोली. ‘‘वही तो, मैं भी नहीं रह सका चुप. अपरोक्ष रूप से ही सही बता ही दिया रिया को कि कितना बेताब हूं उस के लिए मैं. अब मैं भी तो सुनना चाहता हूं कि मेरे लिए वह क्या महसूस करती है?’’ बेचैन सा होता हुआ वह बोला.

‘‘मैं ने बहुत कुछ सीखा है अपने बड़बोले स्वभाव से. मैं तुम्हें बता दूंगी कि रिया से कैसे उस के दिल की बात उगलवानी है तुम्हें… ठीक?’’ ‘‘डील?’’

‘‘डील.’’ और दोनों ने हंसते हुए एकदूसरे से हाथ मिलाया. मोबाइल नंबरों के आदानप्रदान के बाद मंजरी घर की ओर चल पड़ी.

विराट दिल्ली में स्थित एक इंटरनैशनल कंपनी में वाइस प्रैसिडैंट था. उस के मातापिता मुंबई में रहते थे. यों तो विराट बहुत बातूनी था, पर कम ही लोग उस के दिल को छू पाते थे. मंजरी के अपनेपन और दोस्ताना व्यवहार ने विराट के दिल में जगह बना ली और दोनों के बीच फोन और व्हाट्सऐप के द्वारा बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया. कुछ ही दिनों में वे इतना घुलमिल गए कि अपनी रोज की बातें शेयर करने लगे. विराट जब भी मंजरी से मिलता, अपने मन में हलचल मचा रहे कई सवाल पूछ डालता. मंजरी भी आराम से उस के सवालों का जवाब देती. जब कभी वह मंजरी से अपने और रिया के संबंधों को ले कर कोई सवाल करता तो मंजरी की प्रेम के विषय में इतनी गहरी समझ देख कर हैरान रह जाता.

हमेशा रहती है थकान ? जानें कारण और इलाज

हम कई बार थका हुआ महसूस करते हैं. इसका कारण हम ठीक से समझ नहीं पाते. हमेशा कमजोरी के लिए हम अपनी खराब लाइफस्टाइल को प्रमुख कारण मानते हैं. पर असल में इस परेशानी की वजह कुछ और ही है. और भी ऐसी कई बातें हैं जिन पर ध्यान ना देने से हमें दिनभर कमजोरी महसूस होती रहती है. इन कारणों को जनना जरूरी भी है, क्योकि हमेशा ऐसा होना किसी गंभीर बीमारी का लक्षण भी हो सकता है.

ऐसे और भी कई कारण हैं, आइये जानते हैं इनके बारे में:

पूरी नींद ना लेना:

ठीक से नींद ना लेने से दिन भर कमजोरी महसूस होती है. एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए जरूरी है कि वो 6 से 8 घंटे की नींद ले.

बड़ी बीमारी का खतरा:

हमेशा थकान किसी गंभीर बीमारी का संकेत भी हो सकता है. लगातार ऐसा होना एनीमिया या थायराइड जैसी बीमारी के संकेत हो सकते हैं.

खराब लाइफस्टाइल:

ये परेशानी शहर में काम करना वाले लोगों के प्रमुखता से पाई जाती है. शहरी लाइफस्टाइल में जिसमें लोगों के खाने का अनिश्चित समय, कम आराम का समय, ज्यादा ट्रेवल के चक्कर में बहुत सी चीजें अस्तव्यस्त हो जाती हैं और आपको हमेशा थकान महसूस होती है.

आहार:

भाग दौड़ भरे अपनी दिनचर्या में आपको अपने आहार पर खासा ध्यान देना चहिए. कई लोग डायटिंग और वजन कम करने के चक्‍कर में पौष्‍टिक आहार नहीं लेते और इस वजह से उन्‍हें थकान का अनुभव होता है.

मोटापा:

मोटे व्‍यक्‍तियों को पतले व्‍यक्‍यतियों के मुकाबले ज्‍यादा थकान का अनुभव होता है. इसलिये अपने वजन को कम कीजिये और थकान से दूर रहिये.

मेरी बेटी मुझसे अब अपनी बातें शेयर नहीं करती है, बताए कि मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी उम्र 41 वर्ष है. मेरी 19 वर्षीया एक बेटी है. वह अक्सर अपनी बातें मुझसे शेयर करती है. लेकिन, पिछले 2 महीने से मैं उस के व्यवहार में कुछ नोटिस कर रही हूं. वह अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से बारबार तसवीरें आर्काइव करती है तो कभी अनआर्काइव. ऐसा उस ने एकदो बार नहीं, कम से कम 10-12 बार कर लिया है. मैं ने उस से कारण पूछने की कोशिश की तो कहती है कि कुछ गंभीर नहीं है, बस उस का मन तसवीरों को ले कर बनताबिगड़ता रहता है. सुनने में तो यह छोटी बात लगती है मगर मैं जानती हूं कुछ तो गलत है इस में. क्या मेरा अंदेशा सही है?

जवाब

मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो आप का अंदेशा लगभग सही है. जब व्यक्ति लगातार अपनी तसवीरों से या इंस्टाग्राम अकाउंट से या किसी भी और चीज से छेड़छाड़ करता रहे तो उस से साफ है कि कुछ गड़बड़ है. आप की बेटी बारबार अपनी तसवीरें आर्काइव और फिर अनआर्काइव करती है, इस का अर्थ है कि उस के दिमाग में कुछ न कुछ जरूर चल रहा है.

हो सकता है कि कुछ है जो वह आप से छिपा रही हो. उस से तसल्ली से बैठ कर बात कीजिए और उस की मनोस्थिति जानने की कोशिश कीजिए. सोशल मीडिया के इस युग में बच्चे अपनी ऐक्टिविटीज और पोस्ट्स के जरिए अपने मन का हाल बताने की कोशिश तो करते हैं लेकिन कोई उसे सम झने में समर्थ नहीं हो पाता.

हो सकता है बिना कहे आप की बेटी कुछ कहने की कोशिश कर रही हो. आप उस से बात कीजिए, हो सकता है वह एंग्जाइटी से गुजर रही हो या किसी और समस्या से.

कैसा यह इश्क है : भाग 1

गाड़ी में बैठते ही पूर्वी ने कार की खिड़कियां खोल दीं. हवा के तेज झोंके से बालों की गिरहें खुलने लगीं और शायद पूर्वी के मन की भी. महिमा मयंक की सिर्फ पत्नी नहीं थी, उस की बहू भी थी. यह बात समझने और मानने में उस को वक्त जरूर लगा पर आज उसे महिमा से कोई शिकायत नहीं थी.

मयंक उस की इकलौती संतान थी. हर मां की तरह अपने बेटे के लिए उस के भी कुछ अरमान थे. मयंक ने पूर्वी को उस के लिए बहू ढूंढने का मौका तक नहीं दिया. इस बात के लिए कहीं न कहीं वह महिमा को ही दोषी मानती थी, हर मां की तरह उसे अपना बेटा भी मासूम और नासमझ ही लगता था.

महिमा ने ही उसे अपने रूपजाल में फंसा लिया होगा, मेरा मयंक तो गऊ है. माना वह मां थी, अपने बेटे से बहुत प्यार करती थी लेकिन जिसे विशाल बरगद होना है उसे बोनसाई बना कर घर में सजा देना यह प्रेम तो नहीं है, एक कैद है जिसे वह अपना प्यार समझ रही थी. दरअसल, मयंक के लिए वह जंजीर जैसा बन गया था.

मयंक और महिमा के प्यार की डगर भी कहां आसान थी. मयंक की बेरोजगारी और दोनों परिवार की असहमति, कुछ भी तो नहीं था उन के पास. था तो बस एकदूसरे पर विश्वास. वह दिन था और आज का दिन, कार के आगे की सीट पर मयंक और महिमा बैठे हुए थे. प्रखर ने जबरदस्ती उसे मयंक के साथ आगे बैठा दिया था.

“मयंक, आज तुम गाड़ी चलाओ, मैं पीछे आराम से तुम्हारी मम्मी के साथ बैठूंगा.”

महिमा की आंखों में संकोच उभर आया पर प्रखर की जिद के आगे उस की एक न चली. शादी के बाद उस का रंग कितना निखर आया था. लाल साड़ी में सिमटी महिमा की काया उस के गोरे रंग में घुलमिल गई थी. मयंक की आंखों और चेहरे से उस के लिए प्यार बारबार छलक आता था.

पूर्वी का मायका बगल वाले शहर में ही था. मुश्किल से डेढ़ घंटे का रास्ता था. पूर्वी की मां का स्वास्थ्य कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रहा था. वह बारबार मयंक और महिमा को देखने की जिद कर रही थी. प्रखर को तो ससुराल जाने का बहाना चाहिए होता था. एक हफ्ते पहले उन्होंने फरमान जारी कर दिया-

‘अगले हफ्ते शनिवार और रविवार को छुट्टी है. सुबह ही निकल जाएंगे और 2 दिन रह कर वापस आ जाएंगे. महिमा को आसपास घुमा भी देंगे. जब से शादी हो कर आई है, घर से बाहर निकलना ही नहीं हुआ.’

वे लोग बड़े सवेरे ही निकल लिए थे. मौसम खुशगवार था. हलकीहलकी धूप निकल आई थी. प्रखर बड़े उत्साह से रास्ते में पड़ने वाली चीजों को महिमा को दिखा रहे थे.

“मयंक, आगे मोड़ पर गाड़ी रोकना.”

“क्या हुआ, पापा?”

“वह जो ढाबा है न, बस वहीं, वहां की चाय और प्याज की पकौड़ियां बड़ी शानदार होती हैं. महिमा को भी तो पता चले कि तेरी ननिहाल किसी से कम नहीं.”

प्रखर ने पूर्वी को शरारत से देखा. प्रखर पूर्वी को छेड़ने से बाज नहीं आते. प्रखर कहीं भी शुरू हो जाते थे. सब गाड़ी से उतर गए. ढाबा वाकई बहुत सुंदर था. बांस की लकड़ियों को बीच से काट कर बाड़ बनी थी जिसे लाल और हरे रंग के पेंट से करीने से पोता गया था. गेरू से पुती हुई ईंटों की बनी क्यारियों में पीले और नारंगी रंग के गेंदे के फूल खिले हुए थे. एक लड़का लोटे में पानी भर कर उस के मुंह को हाथ से दबाए मिट्टी पर पानी का छिड़काव कर रहा था.

मिट्टी की सोंधी खुशबू मन को तरोताजा कर रही थी. पूर्वी सोच रही थी, महंगे से महंगा परफ्यूम भी इस खुशबू का मुकाबला नहीं कर सकता. ढाबे के बाहर एक तरफ चारपाई बिछी हुई थी और दूसरी तरफ गोल मेज के चारों ओर कुछ कुरसियां रखी हुई थीं. धूप में पड़ेपड़े कुरसियों के रंग फीके पड़ चुके थे.

खालिश सरसों के तेल में तलती पकौड़ियों की खुशबू ढाबे के बाहर तक आ रही थी. पकौड़ियां बनाने वाला व्यक्ति शायद ढाबे का मालिक था. उस के हाथ तेजी से बेसन को फेंट रहे थे. कितना नपातुला हाथ था, न किसी चम्मच की जरूरत थी और न ही तराजू की. लकड़ी के खांचे में रंगबिरंगे मसाले भरे हुए थे, वह एक हाथ से बेसन फेटता जाता और दूसरे हाथ से बीचबीच में मसाले डालता जाता. हलदी, लालमिर्च, नमक, अजवाइन और शायद चाट मसाला.

“यह क्या है?” महिमा ने उत्सुकता से पूछा था,

“हमारे ढाबे का खास मसाला है, घर में बनाते हैं.”

महिमा निराश हो गई. उस का चेहरा उतर गया. पूर्वी के चेहरे पर मुसकान आ गई. जब वह भी नईनवेली थी तब उस की आंखें भी इसी तरह नए मसाले व स्वाद ढूंढा करती थीं. बगल में खड़ा लड़का ग्राहक को आता देख आरी जैसे चाकू से तेजी से प्याज काटने लगा. ढाबे का मालिक अपने सधे हाथों से प्याज को बेसन में घोलता और उन की एकसमान गोलियों को गरम तेल में सरका देता. पकौड़ियां गहरी कड़ाही में खौलते गरम तेल में नाचने लगतीं. गरम तेल में छोटेछोटे बुलबुले उठने लगते जो नाचती हुई पकौड़ियों को अपनी आगोश में ले लेते. थोड़ी ही देर में वो पकौड़ियां उन बुलबुलों के घेरे से बाहर निकल आतीं और तेल की ऊपरी सतह पर तैरने लगतीं. उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था मानो बच्चे खुशी से खिलखिला रहे हों या फिर बारिश की बूंदें पड़ने से प्रकति नाच उठी हो.

New Year Special : हैप्पी न्यू ईयर – भाग 1

पिंटू को अपने बेटे की तरह पाला था मीरा ने. बहन होते हुए मां की तरह अपना कर्तव्यपालन किया था, जिस का फल मीरा को देर से मिला. पर क्या वह फल मीठा था?

डाकिए ने अपनी साइकिल की घंटी जोर से टनटनाई. उस की इस आदत से मु झे चिढ़ सी है. वह तब तक घंटी बजाता रहता है जब तक कि कोई गेट पर जा कर उस से चिट्ठियां न ले ले. मैं ने कितनी बार उसे सम झाया है कि तुम चिट्ठियां गेट के भीतर डाल दिया करो, लेकिन वह मानता ही नहीं.

एक दिन जब नाराज हो कर मैं ने उस से कहा था कि तुम्हारी यह आदत किसी दिन मेरी टांग तुड़वा कर रहेगी, भागती हुई आती हूं, तो उस ने हंस कर कहा था, ‘मैं आ कर सेवा करूंगा, मांजी. गेट के भीतर किसी लावारिस बच्चे की तरह चिट्ठियों को छोड़ जाना भला अच्छा लगता है? कोई उठा ले, हवा में उड़ जाएं या बारिश में भीग जाएं, तो? मैं कब से कहता हूं कि एक लेटरबौक्स टांग दीजिए.’

मैं ने उसे  झिड़कते हुए कहा था, ‘कभीकभार तो कोई चिट्ठी आती है, उस के लिए रुपए खर्च कर के लैटरबौक्स टांग दूं?’

‘‘मांजी, लीजिए, आज 3 न्यू ईयर ग्रीटिंग्स लाया हूं,’’ कह कर उस ने चिट्ठियां मेरे हाथ में रखीं और नमस्ते मांजी कहता हुए पड़ोसियों के गेट की ओर बढ़ गया था. मेरे मन के भीतर का चोर फुसफुसाया, लो, आ गई न भाईभावज की चिट्ठी. तुम कहती थीं अब तुम्हारा पिंटू से कोई रिश्ता ही नहीं रहा. अब क्या कहोगी? मैं सोचसोच कर मन ही मन खुश हुई जा रही थी, चलो, मेरे लाड़ले को अपनी भूल का एहसास तो हुआ. मैंने मुसकरा कर अपने मन के चोर को  झड़का, चुप रहो. अपनों से भला कोई कब तक रूठ सकता है? मैं ने तो गुस्से में कह दिया था कि पिंटू से मेरा कोई वास्ता नहीं. गुस्से में तो आदमी क्याक्या नहीं बोल जाता है. मैं ने तेजी से गेट बंद कर दिया और भीतर आ गई.

बरामदे में रखे सोफे पर बैठ कर मैं ने पहला लिफाफा खोला. मेरे कर्नाटक वाले दोस्त ने भेजा था. उस की पत्नी हर साल मु झे न्यू ईयर ग्रीटिंग भेजती है. ये लोग कभीकभार मु झे चिट्ठियां भी लिखते रहते हैं.

मैं ने दूसरा लिफाफा खोला. दिल्ली से गुडि़या ने ग्रीटिंग भेजा था, स्नेहिल शब्दों में ढेर सारी शुभकामनाएं.

दिल की धड़कनों को बड़ी मुश्किल से संभाल कर मैं ने तीसरा लिफाफा खोला. ‘शुभकामनाओं के साथ’ शाहिद कमाल का नाम पढ़ कर मन की खुशी गुब्बारे की हवा की तरह फुस्स कर के निकल गई. कोई और दिन होता तो मैं कितना खुश होती अपनी धोबिन सकीना के इंजीनियर बेटे शाहिद का न्यू ईयर कार्ड पा कर. अपने इसी घर में रख कर मैं ने उसे पढ़ायालिखाया था. पर आज मैं बहुत उदास हुई. मेरा यह दुख, यह दर्द बहुआयामी था. एक तो पिंटू की कोई चिट्ठी नहीं आई. फिर उस की नकचढ़ी बीवी का बरताव और उस पर से बूढ़े अम्माबाबूजी के हमेशा यह पूछते रहने के बारे में सोच कर कि ‘पिंटू की कोई चिट्ठी आई? उस का फोन आया? उस की पत्नी अपने मायके आई थी? मोतिहारी से मुजफ्फरपुर गए बिना तो जबलपुर की गाड़ी मिलेगी नहीं, क्या वह तुम से मिले बिना चली गई?’ आदि न जाने कितनी बातें सोचती रही.

मुझे बेचैनी होने लगी. लगा, जैसे दम घुट रहा हो. नीलू नाम की एक महिला दमे की मरीज हैं, उन की पीड़ा कई बार मैं ने अपनी आंखों से देखी है. उन्हें ऐसी ही छटपटाहट, ऐसी ही बेचैनी रहती है. कहीं मु झे भी दमे का अटैक तो नहीं हुआ है? मैं ने खुद से सवाल किया. मन के भीतर से आवाज आई, दमावमा कुछ नहीं है, यह अपनों का दिया दर्द है. पराए तो यों ही बदनाम हैं, अपनों का दिया घाव न इस करवट चैन लेने देता है न उस करवट. पिंटू को तुम ने अपने बेटे की तरह पालापोसा, पढ़ायालिखाया. आज उस के लिए उस का ससुराल ही घरपरिवार हो गया है. बस, यही कष्ट है तुम को. उठो, हिम्मत करो.

मैं उठ कर खड़ी हो गईर्. बरामदा पार कर डाइनिंग हौल में आई. फ्रिज खोल कर ठंडा पानी निकाला. उस में थोड़ी सी इलायची की बुकनी डाली और गटागट पी गई. फिर दूसरा गिलास तैयार किया और उसे भी पी गई. मु झे खुद पर आश्चर्य हो रहा था. मैं गरमी में भी एक गिलास से ज्यादा पानी नहीं पी पाती थी और आज इतनी ठंड में भी 2 गिलास पानी पी गई.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने रिसीवर उठाया. मेरे पति का फोन था. ‘‘मैं आज जरा देर से आऊंगा, लगभग 10 बजे तक. आप चिंता न करें, इसलिए फोन कर दिया. औफिस में आज नए साल की पूर्र्व संध्या पर एक पार्टी है.’’

मैं ने घड़ी की ओर देखा, 2 बज कर 10 मिनट हुए थे. क्या करूं? वापस जा कर गेट बंद किया. बरामदे का दरवाजा बंद कर, कुंडी लगा दी. बैडरूम में आ गई. लता के दर्दीले गानों का कैसेट लगाया. कमरे में ‘आ जा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियां थक गईं पंथ निहार, आ जा रे…’ की मधुर धुन बिखर गई. कालेज में जब भी कोई टैंशन होती है, मैं घर आ कर यही कैसेट सुनती रहती हूं. जाने कौन सा नाता है इन गीतों से. बड़े अपने से लगते हैं.

मैं पलंग पर तकिए के सहारे लेट गई. गीत की धुन पर मेरे प्राण भी किसी को ‘आ जा रे, आ जा रे’ पुकार रहे थे. पर पिंटू तो सार्वजनिक संपत्ति है, जिसे भ्रमवश मैं अपना मान बैठी थी. सभी बहनों का भाई. अपनी भावनाशून्य बीवी का पति, अपने फ्रौड साले का बहनोई, अपनी मायावी मौसिया सास का दामाद, वह भला मेरा कहां रहा? क्यों उसे याद करता है यह पागल मन? फिर मन अतीत की गहराइयों में खोता चला गया.

बाबूजी के सीबीआई द्वारा ट्रैप किए जाने की बुरी खबर टीवी पर आई थी. मेरे सीधेसादे बाबूजी को आर्थिक अनियमितताओं के बेतुके आरोप में फंसाया गया था. उस घटना को सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

बिना अपना नफानुकसान सोचे, बिना किसी स्वार्थ के मैं भागी हुई गरीबां चली आई थी. आंचल में मां के सारे आंसू और 3 छोटे भाईबहनों को समेट लाई थी. अपने 3 बच्चों एवं 3 भाईबहनों को मैं ने एकसाथ पालना शुरू कर दिया था. बहनें तो ब्याह कर अपनी ससुराल चली गईं लेकिन भाई को तो बिरवा से वृक्ष बनने में अभी देर थी.

उस ने हाईस्कूल पास किया, इंटर पास किया, बीएससी में इलैक्ट्रौनिक लेने की मासूम सी जिद की. उस समय मुजफ्फरपुर जैसे शहर में इस विषय को लोग अलादीन का चिराग सम झते थे. भयानक अफरातफरी मची थी और सीटें थीं मात्र 14. कई बार हिम्मत जवाब दे जाती लेकिन जब पिंटू की भोली आंखें मेरी तरफ प्रश्नवाचक भाव से निहारतीं तो मैं उसे अपनी असमर्थता नहीं बता पाती.

मन में लाखों आशंकाएं लिए मैं स्थानीय विधायक के दरबार में गई. बाप रे, वहां इतनी भीड़ थी कि आदमी की चमड़ी उधड़ जाए. धक्कमधुक्का, मारामारी लगी थी और बाहुबली विधायक एक राजा की तरह सिंहासनारूढ़ हो कर फरियादियों की फरियाद सुनता. क्षणभर में ही दूसरा फरियादी पहले को धकिया कर आगे कर देता. मैं तो हिम्मत ही हार गई. घबरा कर एक कोने में बैठ गई. तभी विधायक का एक चमचा मेरी ओर आया और उस ने पूछा, ‘आप प्रोफैसर मीरा हैं न?’ मैं ने ‘जी हां’ कहा तो  झट बोला, ‘अरे, तब बैठी क्यों हैं, आइए, हम आप को विधायकजी से मिलवा देते हैं.’

मैं नहीं मानती : भाग 1

‘एक विधवा जवान औरत जो घुटघुट कर नहीं, खुल कर जीना चाहती है,  सब के मुंह कैसे बंद किए उस ने?
तर्क देती ऐसी कहानियां पढ़ने को मिलती हैं सिर्फ सरिता में.’

 

“अरे, नीलिमा, घर नहीं चलना है क्या?” उस के कंधे पर हाथ रख कर अनु बोली.

“नहीं यार, मुझे देर लगेगी,” कंप्यूटर पर आंखें गड़ाए नीलिमा बोली, “आज मुझे कैसे भी कर यह असाइनमैंट पूरा करना ही है. इसलिए तू निकल, मैं दूसरी ट्रेन से आ जाऊंगी,” काम जल्दी खत्म कर के नीलिमा स्टेशन पहुंच तो गई मगर उस ट्रेन में इतनी ज्यादा भीड़ थी कि चढ़ना मुश्किल लग रहा था उसे. जो यात्री ट्रेन के अंदर थे वे बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे और जो प्लेटफौर्म पर खड़े थे वे ट्रेन के अंदर घुसने के लिए धक्कामुक्की कर रहे थे. नीलिमा को तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वह ट्रेन में चढ़ेगी कैसे.

‘कैसे भी कर के चढ़ना तो पड़ेगा ही, वरना, अगर यह ट्रेन भी छूट गई, तो और ज्यादा मुसीबत हो जाएगी,’ अपने मन में सोच नीलिमा ने अपने पांव आगे बढ़ाए ही थे ट्रेन में चढ़ने के लिए कि एक आदमी उसे धकेलते हुए ट्रेन में चढ़ गया और वह गिरतेगिरते बची.

‘कैसेकैसे लोग हैं, जरा भी तमीज नहीं है इन्हें,’ खुद में ही बड़बड़ाती हुई नीलिमा पूरी ताकत के साथ ट्रेन में चढ़ तो गई, मगर ट्रेन में तिल रखने की भी जगह नहीं थी. लोगों को खड़े होने के लिए भी जगह बड़ी मुश्किल से मिल पा रही थी. वह एक तरफ जा कर खड़ी हो गई. गिर न जाए इसलिए कस कर सीट का हत्था पकड़ लिया.

कई यात्री तो जान की बाजी लगा कर ट्रेन में लटक कर यात्रा कर रहे थे.

‘गलती हो गई मुझ से. मुझे अनु के साथ ही घर चले जाना चाहिए था,’ नीलिमा मन में सोच ही रही थी कि अचानक से उसे अपने हाथ पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ. देखा, तो पास खड़ा वह काला मोटा सा आदमी उसे अजीब तरह से घूर रहा था. नीलिमा ने झट से अपना हाथ खींच लिया लेकिन जब गिरने लगी, तो फिर से उस ने सीट का हत्था थाम लिया.

लेकिन उस आदमी ने तो इस बार नीलिमा का हाथ इतना कस कर दबाया कि वह ‘सी’ कर उठी.  मन तो किया उस को एक जोर का थप्पड़ उस के कनपट्टी पर जड़ दें. लेकिन इतने लोगों के बीच वह कोई तमाशा नहीं करना चाहती थी, इसलिए कुछ बोली नहीं और खिड़की के बाहर देखने लगी.

लेकिन वह बेशर्म इंसान तो नीलिमा की चुप्पी का गलत फायदा उठा कर उसे यहांवहां छूने की कोशिश करने लगा. एक तो उस के शरीर से इतनी गंदी बदबू आ रही थी और ऊपर से वह नीलिमा को परेशान भी कर रहा था.

“ऐस्क्यूज मी, आप यहां आ कर बैठ जाइए,” उस आदमी को कब से नीलिमा को परेशान करते देख एक युवक से रहा नहीं गया. इसलिए उस ने अपनी सीट नीलिमा को बैठने के लिए दे कर खुद उस की जगह पर जा कर खड़ा हो गया. उस युवक ने जब घूर कर उस आदमी को देखा तो वह घबरा कर वहां से खिसक गया.  शायद उस का स्टेशन आ गया होगा या डर के मारे कहीं और जा कर बैठ गया होगा.

खैर, नीलिमा ने चैन की सांस ली और मन ही मन उस युवक को धन्यवाद किया. अगली स्टेशन पर जब नीलिमा के पास बैठा आदमी उतरा, तो उस ने वह सीट उस युवक के लिए घेर लिया और इशारों से उसे यहां आ कर बैठने को कहा.

“शुक्रिया,” उस युवक ने मुसकराते हुए कहा.

“शुक्रिया, तो मुझे आप का कहना चाहिए,” नीलिमा बोली और एक पल के लिए दोनों की आंखें चार हुईं और फिर वे खिड़की से बाहर देखने लगे. नीलिमा ने पलट कर एक बार फिर उस युवक को भरपूर नजरों से देखा और अपने लटों को कानों के पीछे ले जाते हुए सोचने लगी कि दुनिया में अच्छे इंसान भी हैं.

“आप रोज क्या इसी ट्रेन से घर जाते हैं?” नीलिमा के सवाल पर उस युवक ने ‘हां’ में सिर हिला दिया और फिर खिड़की से बाहर देखने लगा. उस युवक में गजब का आकर्षण था.

6 फिट लंबा, सांवला वह युवक किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं जान पड़ रहा था. ऊपर से उस का धीरगंभीर चेहरा नीलिमा का मन मोह रहा था.

वह युवक तिरछी नजर से नीलिमा को ही देखे जा रहा था. हवा के झोंके से जब नीलिमा के बाल उड़उड़ कर उस के चेहरे पर आ कर उसे परेशान कर रहा था तो वह उन बालों को समेट पर फिर से कानों के पीछे खोंसने की बेकार कोशिश कर रही थी. तब वह इतनी खूबसूरत लग रही थी कि क्या कहें.  मन तो कर रहा था कि उस का कि हाथ आगे बढ़ा कर उस के उड़ते बालों को संवार दे ताकि नीलिमा परेशान न हो.

जब उस ने धीरे से पूछा कि नीलिमा को कहां उतरना है, तो उस के आंखों की गहराई नीलिमा के दिल में उतर गई. यह जान कर वह युवक मन ही मन मुसकरा उठा कि नीलिमा को भी उसी स्टेशन पर उतरना है, जहां उसे.

जैसे ही ट्रेन स्टेशन पर रुकी लोग पागलों की तरह धक्कामुक्की कर बाहर निकलने लगे जबकि उन्हें पता है कि ट्रेन की स्टोपेज यहीं तक है. फिर भी लोगों में सब्र नाम की चीज नहीं है. नीलिमा उतरने के लिए उठने ही लगी थी कि उस युवक ने यह कर कर उस का हाथ पकड़ लिया कि भीड़ छंट जाने दीजिए…

उस के स्पर्श से नीलिमा को लगा जैसे उस के मन में संगीत के तार बज उठे हों. वहीं जब उस शख्स ने उसे छूआ था तब वह कैसे विचलित हो उठी थी. मगर इस लड़के के छुअन में ऐसी क्या बात है कि नीलिमा का रोमरोम सिहर उठा.

“आप के लिए वही ट्रेन सही है. इस में बहुत ज्यादा भीड़ होती है,” अभी भी वह नीलमा का हाथ वैसे ही थामे हुए था जैसे वह कोई छोटी बच्ची हो.  लेकिन क्यों? वह तो नीलिमा को जानता तक नहीं. अभीअभी तो मिले हैं दोनों? कहीं यह उन का पहली नजर का प्यार तो नहीं.

“चलिए, मैं आप को, आप के घर तक छोड़ दूं क्योंकि रात बहुत हो चुकी है,” वह युवक बोला.

“अरे नहीं, मेरा भाई आता ही होगा मुझे लेने. वैसे, थैंक्स,” मुसकराते हुए बोल नीलिमा आगे बढ़ी ही थी कि हवा से लहराता उस का दुपट्टा उड़ कर उस लड़के के सिर पर जा गिरा.

“अरे, यह हवा भी न,” कह कर वह  जैसे ही अपना दुपट्टा लेने के लिए मुड़ी, देखा वह लड़का एकटक उसे ही निहार रहा था. उसे अपनी तरफ  इस तरह से निहारते देख नीलिमा लजा गई. घर पहुंच कर फ्रैश होने के बाद जब नीलिमा खाने बैठी तो उस युवक का चेहरा उस के आंखों के सामने नाचने लगा.

“क्या हुआ, खा क्यों नहीं रही है? खाना अच्छा नहीं बना क्या?”  नीलिमा को रोटी से खेलते देख कर उस की मां संध्या ने पूछा.

“नहीं, म… मेरा मतलब है खाना तो अच्छा बना है, लेकिन मुझे भूख नहीं है मां. वह अनु ने समोसे मंगवाए थे न तो वही खा लिया था,” नीलिमा झूठ बोल गई लेकिन उस की भूख तो वह लड़का खा गया था जिस का वह नाम भी नहीं जानती.

‘नाम पूछा ही नहीं तो कैसे पता चलेगा?’

‘अरे, कैसे पूछती? अब क्या पहली मुलाकात में, वह भी ट्रेन में कोई किसी का नाम पूछता है भला?’

‘लेकिन फोन नंबर तो मांग ही सकती थी न उस से?’

‘क्या कह कर फोन नंबर मांगती? कहीं वह बुरा मान जाता तो?’

‘अरे, इस में बुरा मनाने वाली क्या बात है? फोन नंबर ही तो मांग रही थी, कोई उस की जायदाद थोड़े ही, जो वह बुरा मान जाता…’ नीलिमा का एक दिल कुछ और कहता, तो दूसरा कुछ और.

‘वह कौन है, कहां रहता है, क्या काम करता है नीलिमा को कुछ नहीं पता, लेकिन फिर भी वह लड़का उसे अपना सा क्यों लगने लगा था? क्या रिश्ता है उस का उस से?’ सोचसोच कर नीलिमा करवटें बदल रही थी और फिर पता नहीं कब उस की आंखें लग गईं.

सुबह किचन में चाय बनाते हुए भी वही लड़का उस के दिलोदिमाग पर छाया रहा. उस की बातें, उस की मुसकराहटें याद कर नीलिमा मुसकरा उठी. जिस हक से उस ने उस का हाथ पकड़ा हुआ था, याद कर नीलिमा रोमांच से भर उठी. लंबे समय से सुखी पड़ी दिल की मिट्टी पर जैसे किसी ने पानी का छींटा मार दिया था.

उधर उस लड़के का, जिस का नाम साहिल था, उस का भी यही हाल था. नीलिमा के दुपट्टे से आती परफ्यूम की खुशबू अभी भी उस के नथुनों में बसी थी. सोच रहा था कि काश, कल वह फिर मिल जाए. दूसरे दिन नीलिमा को फिर उसी ट्रेन में देख साहिल  का दिल धड़का. पर उस ने यह बात उस पर जाहिर नहीं होने दी.

“आप की ट्रेन फिर से मिस हो गई?” साहिल हंसा, तो नीलिमा बोली कि दरअसल, उस के औफिस में औडिट चल रहा है तो अभी उसे रोज इसी ट्रेन से घर जाना पड़ेगा.

“ओह, फिर तो अच्छा है,” बोल कर वह झेंप गया लेकिन नीलिमा मुसकरा उठी. पूछने पर दोनों ने अपनाअपना नाम बताया और फोन नंबर का भी आदानप्रदान हो गया. कहीं न कहीं दोनों के दिल के तार आपस में जुड़ चुके थे क्योंकि ट्रेन में चढ़ते ही दोनों की आतुर नजरें गौरैया की तरह यहांवहां फुदकने लगती थीं और जैसे ही वे एकदूसरे को देख लेते राहत की सांस भरते थे.

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