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मुक्तिद्वार : भाग 1

माधुरी और उस के पूरे ग्रुप का आज धनोल्टी घूमने का प्रोग्राम था. माधुरी ने सारी तैयारी कर ली थी. एक छोटी सी मैडिसिन किट भी बना ली थी. तभी कुमुद चुटकी काटते हुए बोली, “मधु, 2 ही दिनों के लिए जा रहे हैं.” और विनोद हंसते हुए बोला, “भई, माधुरी को मत रोको कोई, पूरे 10 वर्षों बाद कहीं जा रही हैं. कर लेने दो उसे अपने मन की.” तभी जयति और इंद्रवेश अंदर आए, दोनों गुस्से से लाल पीले हो रहे थे.

विनोद बोले, “क्या फिर से प्रिंसिपल से लड़ कर आ रहे हो?” जयति गुस्से में बोली, “वो क्या हमें अपना गुलाम समझते हैं, क्या छुट्टियों पर भी हमारा हक नही हैं?” कुमुद तभी दोनों को चाय के कप पकड़ाते हुए बोली, “अरे, विजय समझा देगा. अभी वह टैक्सी की बात करने गया है.”

माधुरी को अपना यह ग्रुप बड़ा भला लगता था. कहने को किसी के साथ खून का रिश्ता नहीं था मगर 2 ही सालों में सभी लोग माधुरी के लिए अपनों से भी अधिक अजीज हो गए थे. माधुरी 56 वर्ष की थी, कुमुद 52 वर्ष की, वहीं विनोद था 63 वर्ष का. मगर पूरे ग्रुप में सब से एनरजेटिक सदस्य थे विजय जो 50 की लपेट में था. वहीं, जयति और इंद्रवेश 32 वर्ष के थे. ये सभी लोग देहरादून के एक रैजिडेंशियल स्कूल में कार्य करते हैं. सभी अपनी जीवनयात्रा में अकेले ही चल रहे थे और धीरेधीरे 2 वर्षों के भीतर सब एक ही राह पर चलने लगे थे.

विनोद का इस स्कूल से बहुत पुराना रिश्ता था. वे 30 वर्षों से इस स्कूल से जुड़े हुए थे. उन के दोनो बच्चे यहीं पढ़े और काबिल बने. विनोद की पत्नी की मृत्यु भी यहीं हुई थी. जब विनोद 60 वर्ष के हुए तो उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उन के बच्चे उन्हें अब काम करने नहीं देंगे. मगर विनोद प्रतीक्षा करते रहे और फिर स्वेच्छा से उन्होंने इसी स्कूल में वार्डन की सेवा देनी आरंभ कर दी थी. जब कभी छुट्टियां होती तो विनोद बेहद उदास हो उठते थे. उन के पास कहने के लिए घर था मगर अपना घर नहीं था. जब कभी छुट्टियों में जाते तो बच्चों के कमरे में उन्हें एडजस्ट कर दिया जाता था. दोनों ही बच्चों के घर में उन के लिए कोई कोना सुरक्षित नहीं था.

उन्हें बारबार अपनी पत्नी शोभा की याद आ जाती थी. शोभा ने उन्हें बहुत समझाया था कि भले ही वे लोग रैसिडेंशियल स्कूल में रह रहे हैं मगर एक छोटा सा घर ले लें. पहले विनोद फुजूलखर्ची करते रहे, बाद में बच्चों के खर्चे, विवाह और फिर शोभा के लंबे कैंसर के इलाज के कारण उन की लगभग जमापूंजी समाप्त हो गई थी. उन के पास 20 लाख रुपए बचे थे. मगर इतने पैसों में आजकल मकान आना असंभव ही है. ऐसी ही कहानी लगभग सभी की थी.

सब लोग एक लंबे अरसे से स्कूल से जुड़े हुए थे और खुश थे. बस, छुट्टियां ही होती थीं जब सब एकाकी हो जाते थे. पूरे ग्रुप को पता था कि उन के पास उन का घर नही हैं और इसी बात का फायदा उठाते हुए स्कूल वाले हर छुट्टियों में पूरे ग्रुप को उलझा कर रखते थे. प्रिंसिपल साहब हमेशा बोलते, ‘अरे, यह स्कूल ही तो तुम लोगों का घर हैं. घर पर भी तो हम लोग छुट्टियों में काम करते हैं. फिर जब यहां रहते हो तो इतना तो करना ही होगा, इसलिए इस बार पूरे ग्रुप ने 2 दिनों के लिए बाहर घूमने का प्रोग्राम बनाया था जो प्रिंसिपल महोदय को पसंद नहीं आ रहा था. मगर फिर भी पूरा ग्रुप निकल ही पड़ा.

माधुरी बेहद खुश थी. उसे घूमने का बहुत शौक़ था. मगर पहले घर की जिम्मेदारियों के कारण माधुरी को फुरसत नही मिली और बाद में माधुरी की जिंदगी ही बदल गई. विनोद गुनगुना रहे थे और उन की मीठी आवाज़ के साथसाथ माधुरी अपने अतीत में घूमने लगी. माधुरी के पति का पिछले वर्ष देहांत हो गया था. वे सिंचाई बिभाग में इंजीनियर के पद पर दमोह में कार्यरत थे. दमोह कसबे से थोड़ा बड़ा और शहर से थोड़ा छोटा, धीमा और शांत नगर था. माधुरी एक स्थानीय स्कूल में बच्चो को पढ़ाती थी. साथ ही साथ, एक किटी पार्टी की सदस्य भी थी. बेटे पार्थ और बेटी सोनाक्षी का समय से विवाह कर दिया था. पति के रिटायरमैंट में, बस, 2 वर्ष बचे थे.

माधुरी और उन के पति उपेंद्र ने पोस्ट रिटायरमैंट की पूरी रूपरेखा तैयार कर रखी थी. पर अचानक से एक रात उपेंद्र ऐसे सोए कि सुबह उठे ही नहीं. पहला हार्टअटैक ही वे झेल नहीं पाए थे. माधुरी की तो पूरी दुनिया ही उजड़ गई थी. उन के बेटा और बेटी उन्हें अकेला छोड़ना नहीं चाहते थे. उधर, बहू पंखुड़ी भी मिन्नतें कर रही थी मम्मी घर पर आप रहेंगी तो मुझे भी सुकून रहेगा, नौकरों को भी थोड़ा डर रहेगा.

माधुरी को अपना घर और नौकरी छोड़ने का मन नहीं था. मगर फिर भी वो बेटे के पास इंदौर चली गई थी. माधुरी का घर से बाहर निकलने का मन करता था पर इंदौर में उस की पहचान का दायरा न के बराबर था. पति का विछोह और नए परिवेश के कारण माधुरी एकाएक से बुजुर्ग लगने लगी थी. जब सुबह पंखुड़ी बनसंवर के निकलती तो माधुरी उसे बड़ी हसरत से देखती. उसे भी बनावश्रृंगार का बहुत शौक था. माधुरी के पास सूट और साड़ियों का बहुत अच्छा कलैक्शन था. धीरेधीरे पंखुड़ी माधुरी के कपड़ों का एकएक कर के इस्तेमाल करने लगी थी. अरे मम्मी, आप के पास इतने सुंदर सूट औऱ साड़ियां हैं, अब क्यों ये आलमारी के अंदर गलें. मैं पूरी कीमत वसूल लूंगी.

माधुरी का मन कहता था कि उस के जीवन से, बस, उपेंद्र गया हैं पर वह खुद अभी ज़िंदा है. उस का भी मन है बनावश्रृंगार करने का. लेकिन माधुरी का बुरा समय यह था कि वह विधवा थी और वह भी 56 वर्ष की. मतलब, समाज के हिसाब से वह पूरी तरह संन्यासी है. हमारे देश में तो 50-55 वर्ष की औरतों को, बस, पूजापाठ के या बच्चों के बच्चों की चाकरी के योग्य समझा जाता है. अगर वे अपने लिए ज़ीना चाहें तो वह उन का स्वार्थ समझा जाता है.

शुक्रिया श्वेता दी : भाग 1

बालकनी में अकेली बैठी अंकिता की टेबल पर रखी काफी ठंडी हो रही थी. हलकी बूंदाबांदी अब मूसलाधार बारिश में बदल गई थी. वह पानी की मोटीमोटी धारों को एकटक निहार रही थी लेकिन उस का दिमाग कहीं और था. मम्मीपापा वकील से बात करने गए थे, घर में वह अकेली थी. उस की नजरों के सामने बारबार श्वेता दी का चेहरा आ रहा था.

श्वेता दी… उस की जेठानी.  कहने को उन दोनों का रिश्ता देवरानीजेठानी का था लेकिन श्वेता ही सही माने में उस की बड़ी बहन साबित हुई. अगर वह न होती तो न जाने क्या होता उस के साथ. उन्होंने उसे उस नर्क से निकाला जहां वह स्वर्ग की तलाश में गई थी.

हां, स्वर्ग से भी सुंदर अपना घर बसाने की चाहत में उस ने दीपेन का साथ चुना था. दोनों एक ही औफिस में काम करते थे. दोनों में दोस्ती हुई जो धीरेधीरे प्यार में बदल गई. यह कब, कैसे हुआ, अंकिता को पता ही न चला. हर प्रेमी जोड़े की तरह वे साथ जीनेमरने की कसमें खाते, हाथों में हाथ डाले मौल में घूमते, लंचडिनर साथ में करते. दीपेन उस के आगेपीछे डोलता रहता. उस की खूब केयर करता. अंकिता उस के इसी केयरिंग नेचर पर फिदा थी.

उसे याद है, औफिस का वाटर प्यूरीफायर खराब हो गया था. गरमी इतनी थी कि  एयरकंडीशन औफिस में भी गला सूख रहा था. उस ने कहा, ‘दीपेन, मैं प्यास से मर जाऊंगी. मुझे प्यास कुछ ज्यादा ही लगती है और नौर्मल पानी सूट नहीं करता.’

‘यह बंदा किस दिन काम आएगा, अभी पानी की बोतल ले कर आता हूं, यार.’

‘तीनचार किलोमीटर जाना होगा यार. शहर से इतनी दूर, ऐसी साइट पर हमें जौइन ही नहीं करना चाहिए था.’

‘मैडम, एक दिन पानी क्या नहीं मिला, आप ने नौकरी छोडऩे का प्लान कर लिया. बंदे को सेवा का मौका तो दीजिए…’ अदा से झुक कर उस ने ऐसे कहा जैसे प्रपोज कर रहा हो और तीर की तरह निकल गया. अंकिता खिडक़ी के पास आ कर, उस का मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के जाना देखती रही. जब आंखों से ओझल हो गया, उस ने मुसकरा कर हौले से सिर हिलाया ‘पागल’ और टेबल पर आ कर काम निबटाने लगी.

मम्मीपापा शादी की बात चलाने लगे थे. एक दिन अंकिता ने मां को फोन पर दीपेन के बारे में बताया. मां अचकचा गई, ‘यह क्या कह रही हो? अपने पापा को नहीं जानती? एक तो लडक़ा तुम्हारी पसंद का, उस पर जाति भी अलग. तुम जितना आसान समझ रही हो, उतना आसान नहीं है.’

‘मम्मी जातिवाति से कुछ नहीं होता. दिल मिलना चाहिए, बस. और, मैं पहली लडक़ी नहीं जो दूसरी जाति के लडक़े संग ब्याह रचाऊंगी. कितनी शादियां हो रही हैं समाज में. वह कितना अच्छा और केयरिंग है, तुम लोग एक बार मिल लो, फिर पता चल जाएगा.’

पापा नहीं माने. वह जिद पर अड़ गई. मां दोनों के बीच थी. बड़ी बहन और भाई की शादी हो चुकी थी. उन लोगों ने भी पापा को समझाया. मां निश्चित थीं कि उस में काई उस से छोटा नहीं था कि उस की शादी के बाद किसी तरह की परेशानी होगी. कुछ वक्त लगा. पापा थोड़ेथोड़े नरम पड़े. दीपेन से मिलने को तैयार हुए.

पांचछह दिनों तक वे लोग बेंगलरु के होटल में रुके. अंकिता गर्ल्स होस्टल में रहती थी. उस ने औफिस से छुट्टी ले ली. दीपेन मांपापा को भा गया. लंबा, इकहरा, गोरागोरा दीपेन खूब बातें करता और दिल खोल कर हंसता. सचमुच इतना केयरिंग न उन का बेटा था, न दामाद ही. मम्मी के हाथ में एक छोटा पैकेट भी देखता, तो झट ले लेता- ‘अरे आंटी, बेटे के होते आप सामान क्यों ढो रही हैं?’

रास्ते में सब का खयाल रखता. छोटीछोटी बातों का भी उसे ध्यान रहता. किसी चीज की जरूरत तो नहीं, प्यास लगी है क्या, थकावट हो रही होगी, आराम कर लें…

उस के बाद दोतीन बार वे लोग दीपेन से और मिले. वह हर बार हंसतामुसकराता एनर्जी से भरपूर मिला. आखिर पापा ने शादी के लिए हां कर दी. जब उस के मम्मीपापा से मिलने की बारी आई, उस ने कहा कि आप लोग इतनी दूर कहां जाइएगा, मम्मीपापा पटना  जाने वाले हैं, वहीं उन से मिल लीजिएगा. उस का अपना घर इलाहाबाद था. उन लोगों को आइडिया ठीक लगा.

संविधान का मखौल उड़ाते राज्यपाल

नरेंद्र दामोदरदास मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राज्यपाल पद का पतन, अधोपतन अपनी सीमाओं को तोड़कर इतिहास में दर्ज हो चुका है. यह कलंक आज देश की सबसे बड़ी अदालत उच्चतम न्यायालय की चिंता का सबब बना हुआ है.

केंद्र की सत्ता पर काबिज़ भारतीय जनता पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी थी तब राष्ट्रपति कांग्रेस के प्रणब मुखर्जी थे. अगर कांग्रेस के इशारे पर प्रणब मुखर्जी नरेंद्र मोदी के रास्ते पर रोड़े अटकाते तब भाजपा को कैसा लगता.

खुद को ज्यादा होशियार समझना और होशियारी करना आखिरकार गलत साबित हो ही जाता है जिसका खमियाजा आगेपीछे खुद को ही भुगतना होता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए. आजादी मिलने के बाद जो संविधान बना है उसकी शपथ ले करसत्यनिष्ठा से देश के संविधान के संरक्षण में संवैधानिक भूमिका निभा कर ही आप एक सच्चे नागरिक कहला सकते हैं. मगर जिस तरह आज संवैधानिक पदों पर बैठे हुए चेहरे केंद्र सरकार के इशारे पर गैरसंवैधानिक कार्य कर रहे हैं वह देशहित में नहीं कहा जा सकता.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण आज हमारे सामने है. केंद्र सरकार ने जिन राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं वहां जो राज्यपाल नियुक्त किए हैं वे सारे के सारे वहां की चुनी हुई सरकारों के मुख्यमंत्रियों को संविधान से मिली हुई शक्तियों के बावजूद उन्हें काम करने नहीं दे रहे. इन राज्यपालों की निष्ठा संविधान के प्रति नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी और उस की केंद्र सरकार के प्रति दिखाई देती है.वे भाजपा व प्रधानमंत्री के कठपुतली बन गए हैं जबकि उन की निष्ठा देश और संविधान के प्रति होनी चाहिए.मामला अब सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर है, जहां चिंता जाहिर की जा रही है.

मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल

जहांजहां विपक्ष है चाहे वह पंजाब, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु या हो कर्नाटक, मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल की स्थिति निर्मित हो रही है. चुनी हुई राज्य सरकार को राज्यपाल संविधान के अनुरूप भूमिका निभाने नहीं दे रहे.

उच्चतम न्यायालय ने विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने को लेकर पंजाब की सरकार और वहां के राज्यपाल के बीच जारी गतिरोध को 10 नवंबर को ‘गंभीर चिंता का विषय बताया और कहा, “राज्य में जो हो रहा है उससे पीठ खुश नहीं है.”

पीठ ने राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति नहीं देने के लिए पंजाब के राज्यपाल पर अप्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा, “आप आग से खेल रहे हैं.” साथ ही, पीठ ने विधानसभा सत्र को असंवैधानिक करार देने की उनकी शक्ति पर सवाल भी उठाया.

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़,न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने पंजाब सरकार और राज्यपाल दोनों से कहा, “हमारा देश स्थापित परंपराओं और परिपाटियों से चल रहा है और उनका पालन करने की जरूरत है.”

उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार की उस याचिका पर भी केंद्र से जवाब मांगाजिसमें राज्यपाल पर राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी करने का आरोप लगाया गया है. प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़,न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने केंद्र को नोटिस जारी किया और मामले में अटौर्नी जनरल या सौलिसिटर जनरल से सहायता मांगी.

पीठ ने मामले की अगली सुनवाई के लिए 20 नवंबर की तारीख तय की है. तमिलनाडु सरकार की तरफ से सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने बताया कि राज्य विधानसभा द्वारा पारित 12 विधेयक राज्यपाल आरएन रवि के कार्यालय में रुके हुए हैं.

सोचने की बात है कि पीठ ने कहा कि वह विधेयकों को मंजूरी देने की राज्यपाल की शक्ति के मुद्दे पर कानून तय करने के लिए एक संक्षिप्त आदेश पारित करेगी. 6 नवंबर को शीर्ष अदालत ने कहा था कि राज्य के राज्यपालों को इस तथ्य से अनजान नहीं रहना चाहिए कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं.

पीठ ने राजभवन द्वारा राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई नहीं करने पर अपनी चिंता व्यक्त की और सौलिसिटर जनरल तुषार मेहता को विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित द्वारा की गई कार्रवाई का विवरण दस्तावेज में रखने का निर्देश दिया था.

पंजाब सरकार ने पूर्व में राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल बनवारीलाल  की ओर से मंजूरी देने में देरी का आरोप लगाते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया था. याचिका में कहा गया है कि इस तरह की ‘असंवैधानिक निष्क्रियता’ ने पूरे प्रशासन को ‘ठप’ कर दिया है.

ये सारी स्थितियां यह बता रही हैं कि जब से देश में नरेंद्र मोदी की सरकार सत्तारूढ़ हुई है, राज्यपाल संविधान से ऊपर उठकर राज्यों की चुनी हुई सरकारों को काम करने से रोक कर उन्हें अलोकप्रिय बनाने का कार्य कर रहे हैं ताकि आगामी समय में वहां भाजपा की सरकार बन सके.

आइए, पुण्य कमाएं : आप भी जान लें क्या है तरीका

अपने देश में पुण्यात्माओं का टोटा नहीं, खूब भरमार है. थोक के भाव पुण्यात्मा मिल जाएंगे. आप जिधर भी देखें, अपनी नजर जिस दिशा में फेंकें, उधर पुण्यात्मा ही पुण्यात्मा दिखाई देंगे. चोर, उचक्के, नेता, अभिनेता, राजनेता, विद्वान, मूर्ख तथा आम और खास सभी पुण्य कमाने, पुण्य करने पर उतारू दिखाई देते हैं. जब भी जहां भी मौका लगता है, लगेहाथ पुण्य कमा लेते हैं. ऐसा लगता है कि भारतीयजन पुण्य की गठरियां लादे फिर रहे हैं. लोगों ने पुण्य कमाने के इतने आयाम और तरीके खोज लिए हैं कि पुण्य बिखरा पड़ रहा है तथा जबरदस्ती पुण्यात्माओं की पैदावार बढ़ा रहा है.

अभी हाल ही में गाय की पूंछ पकड़ कर राजनीतिक दल अपनेअपने राजनीतिक पुण्य कमाने में जुटे हैं. ऐसा लगता है कि गायों पर आफत न आ जाए. अभी तक तो मरते समय गाय का दान दिया जाता था ताकि गाय की पूंछ पकड़ कर मनुष्य की आत्मा भवसागर पार कर सके, लेकिन अब तो राजनीतिक दल जीतेजी चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए गाय की पूंछ पकड़ने पर उतारू हो गए हैं.

भाजपा की देखादेखी कांगे्रस और अन्य दल भी गाय की पूंछ से पुण्य कमाने के लिए तैयार हैं. पुण्य कमाने के सब से अधिक साधन और संसाधन तो अपने देश में ही हैं. व्रत रख कर के, पूजाअर्चना कर के, त्योहार और पर्वों पर मंदिरों, मसजिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों में दर्शन और प्रार्थना कर के, नदी व तालाबों में स्नान कर के और दान दे कर पुण्य कमाए जा रहे हैं. पुण्यों की गठरियां बांधी जा रही हैं, ताकि मरने पर स्वर्ग या जन्नत मिल सके तथा पीने को सोमरस व आबेहयात और भोगने के लिए अप्सराएं व हूरें मिल सकें.

कुछ लोग इसी लोक के लिए पुण्य कमाते हैं, कुछ परलोक के लिए और कुछ दोनों लोकों के लिए. देश में दान देने वाले और लेने वाले बहुत हैं सो दान दे कर और ले कर भी पुण्य कमाया जा रहा है. यों तो अपना देश सोने की चिडि़या कहलाता था लेकिन चिडि़या पर लोगों को आपत्ति है, अत: ‘सोने का चिड़वा’ कहना उपयुक्त होगा. इस सोने के चिड़वा में गरीब बहुत हैं क्योंकि जिसे देखिए, जिस से पूछिए वही गरीब है. अमीर आदमी से पूछा जाए तो वह कहेगा, ‘‘भैया, हम तो गरीबगुरबा हैं, हमारे ‘गरीबखाने’ पर तशरीफ लाइएगा.’’ इसलिए गरीबों की भरमार है, अत: गरीबों को दान दे कर, सहायता कर के पुण्य कमा रहे हैं.

अपनी सरकार भी पुण्यात्मा है तथा हमेशा पुण्य कमाने, पुण्य बटोरने पर उतारू दिखाई देती है. जो भी सरकारी योजना बनती है उस में गरीबों को पहले घुसेड़ दिया जाता है, क्योंकि पुण्य जो कमाना है. पुण्य का लाभ चुनावों में मिलता है और उस पुण्यप्रताप से फटाक से कुरसी मिल जाती है. गरीब तो जैसे थे वैसे आज भी हैं और कल भी रहेंगे. गरीबी मिट जाएगी तो पुण्य का स्रोत ही सूख जाएगा. अपने देश में सब से बड़ा पुण्य का स्रोत तो गरीब और उन की गरीबी ही है.

यों तो लोग पुण्य कमाने की रोज ही जुगत लगाते हैं कि कब मौका मिले और पुण्य बटोरें, लेकिन जब कोई मानव निर्मित आपदा या दैवीय विपदा आती है, तो पुण्य कमाने के विराट अवसर पैदा होते हैं. अभी पीछे कई सरकारों के पुण्यप्रताप से कई राज्यों में गरीबों के भूखों मरने, ठंड से मरने या किसानों द्वारा आत्महत्याएं करने के समाचार अखबारों में छपे थे. अखबार वाले भी बड़े भले हैं जो ऐसी खबरें छाप कर पुण्य कमा लेते हैं.

गरीबों के भाग्य में तो वैसे भी मरना लिखा है, चाहे ठंड से मरें या गरमी से. भूख से मरें या आपदाविपदा में मरें. नेताओं, राजनीतिक दलों की जनसभाओं, रैलियों, रथयात्राओं, चक्का जामों और बंद में गरीब ही मरते आए हैं. एक प्रकार से मरने का ठेका उन के पास ही है. इन सब मदों में या इन कारणों से कभी कोई नेता, अभिनेता, सेठ, साहूकार, बड़ा अफसर कभी नहीं मरा.

गरीब मरते हैं, तो फायदे होते हैं. एक तो गरीबी हटती है, दूसरे, मुआवजा दे कर सरकार को पुण्य मिलता है. मरना तो शाश्वत और एक समयबद्ध कार्यक्रम है. भूख, प्यास से मरना, आत्महत्या करना तो निमित्त मात्र है. सरकार बयान ठोकती है कि देश में अन्न का भंडार है अत: भूख से कोई नहीं मर सकता है, कपड़ों की मिलें हैं अत: ठंड से नहीं मर सकता है. सही भी है भूख से नहीं, अधिक खाने से मरते हैं, ठंड से नहीं कपड़े कम पहनने से मरते हैं. पर इस बात में भी बहुत गोलमाल लग रहा है. यदि ठंड से मरते तो सिनेमा की कोई नायिका जिंदा न बचती क्योंकि वे तो नाममात्र के कपड़े धारण करती हैं. जो हो, सो हो. सरकार जो कहती है वह हमेशा सच बयान देती है, अत: इस में भी पुण्य कमा लेती है.

अखबारों में भूख, प्यास, ठंड से मरने की खबर छपते ही, आटा, कपड़ा और अन्य खाद्य सामग्री जनता से उगाह कर कुछ जन नेता गरीबों में बांटने के कार्यक्रम चलाते हैं और पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं. पुण्य कमाने का इस से अच्छा तरीका क्या हो सकता है? खुद की हर्रा लगै न फिटकरी और पुण्य का रंग चोखा प्राप्त होता है. अपनी गिरह का कुछ नहीं जाना है, इधर से लिया, कुछ रखा कुछ दिया और पुण्य मिला सो फोकट में. ऐसे फोकटिया पुण्य कमाने वालों की प्रजातंत्र में काफी भरमार है.

आपदाएं, विपदाएं आती हैं, आदमी मरते हैं, लेकिन ‘कितने मरे कौन जाने.’ जितनों को मुआवजा मिला, उतने ही मरे, बाकी नहीं मरे, वे और कहीं घूमने निकल गए. मुआवजे में सरकार पुण्य कमा लेती है. मुआवजा भी मरने की स्थितियों, परिस्थितियों पर निर्भर करता है. गरीब को गरीब जैसा मुआवजा और पैसे वालों को भरपूर पैसों का मुआवजा. यों ही मरे तो 25-50 हजार, बस से मरे तो 1 लाख, रेल से मरे तो 2-3 लाख और हवाई जहाज से मरे तो 10-15 लाख का मुआवजा दे कर पुण्य लाभ ले लिया जाता है.

बिहार की सरकार इस माने में काफी पुण्यात्मा है. वहां हादसे, हमले, कुटाई, पिटाई, फर्जी मुठभेड़ आदि के मामले खूब होते हैं अत: सरकार को पुण्य कमाने के अवसर भी बहुत मिलते हैं. कई लोग बड़े पैमाने पर यज्ञ, हवन, धार्मिक प्रवचन करा कर पुण्य कमा लेते हैं.

राजनेता जब कुरसी से नीचे टपकते हैं तो रथयात्रा, सद्भावना यात्रा आदि निकाल कर पुण्य अर्जन करते हैं. जब तक कुरसी पर रहते हैं पुण्यों की कमी नहीं रहती है, दूसरे लोग भी उन के लिए पुण्य कमाते हैं, पुण्य का अवसर देते हैं. पुण्य क्षीण होने पर ही जनता के बीच घूम कर पुण्य कमाने की सू?ाती है. नगर संपर्क, ग्राम संपर्क अभियान भी इसी राजनीतिक पुण्य कमाने के साधन और स्रोत हैं. रथयात्रा, सद्भावना यात्रा, संपर्क अभियान से पुण्य कमा कर राजनीति के रथ एवं सिंहासन पर बैठने का जुगाड़ बनाया जाता है.

प्रजातंत्र में पुण्यों के स्रोतों, कामों की कमी नहीं है. किसी भी पोल में घुस कर पुण्य कमाया जा सकता है. आप भी कुछ अच्छे से काम खोज कर पुण्य कमाइए. पुण्य कमा कर इहलोक में कुरसी और परलोक में परियां प्राप्त करने का प्रयास कीजिए.

पुलिस का एक अलग चेहरा : भारतीय पुलिस के निकम्मेपन की एक झलक

मैं कार से आफिस जा रहा था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. कार किनारे लगा कर फोन उठाया.

‘‘सिंगापुर पुलिस.’’ उधर से आवाज आई.

एक क्षण के लिए दिमाग घूम गया. सबकुछ कुशल तो है. सिंगापुर में मेरे बेटेबहू हैं. 2 बार मैं भी वहां जा चुका हूं. बेटेबहू ने कुछ ऐसा तो

नहीं कर डाला कि वहां की पुलिस

को मु   झे फोन करना पड़ गया. दिमाग

में एक के बाद एक बुरे खयाल आते रहे.

‘‘आप मिस्टर दत्त हैं?’’

‘‘जी…’’ मैं ने कहा.

‘‘कविता दत्त, जो सिंगापुर में रहती हैं, आप की डौटर इन ला हैं…’’

‘‘जी हां. क्या बात है. सबकुछ ठीक तो है?’’

‘‘घबराने जैसा या नर्वस होने जैसा कुछ नहीं है. कविता दत्त के फादर का नाम?’’

‘‘के.के. शर्मा.’’

‘‘कविता दत्त की आयु और उस के पति का नाम?’’

थोड़ी देर की खामोशी के बाद फिर…

‘‘सुबह से उस का कोई फोन आप के पास आया…उस ने आप को कुछ बताया?’’ सिंगापुर पुलिस पूछती है.

‘‘नहीं तो…’’

‘‘कविता दत्त को भूलने की आदत है. वह भुलक्कड़ है?’’

मैं हंसा, ‘‘यह बात तो उस की मदर इन ला बेहतर बता सकती हैं या उस के फादर.’’

‘‘ऐनी वे…वे अपना मोबाइल टैक्सी में भूल गई हैं. टैक्सी ड्राइवर ने पुलिस स्टेशन में मोबाइल फोन जमा कर दिया है. हम उसे फोन कर रहे हैं. आप भी उसे फोन कर दें कि वे पुलिस स्टेशन से आ कर अपना मोबाइल ‘कलैक्ट’ कर लें.’’

पुलिस का यह आचरण आश्चर्य- जनक लगा. मु   झे सहज भरोसा नहीं हुआ कि पुलिस इस तरह की अप्रत्याशित सहायता भी कर सकती है.

‘‘आप धन्यवाद के, बधाई के, प्रशंसा के पात्र हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘इस में प्रशंसनीय कुछ नहीं. नागरिकों की सहायता करना पुलिस का कर्तव्य है. आप को धन्यवाद देना ही है तो उस टैक्सी ड्राइवर को दीजिए जो अपना पैट्रोल खर्च कर पुलिस स्टेशन आया,’’ सिंगापुर की पुलिस ने कहा.

आगे कहने को कुछ नहीं था. मैं ने कविता को फोन कर दिया. सहसा मु   झे अपना मोबाइल खोने का प्रसंग याद आ गया.

 

प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए मु   झे 300 रुपए देने पड़े थे. प्राथमिकी दर्ज कराने के दौरान मैं ने पुलिस वाले से पूछा था कि मेरा मोबाइल तो मिल जाएगा.

‘‘मोबाइल मिल जाएगा,’’ वह आश्चर्य से हंसा, ‘‘यहां आदमी नहीं मिलता और आप मोबाइल मिलने की बात कर रहे हैं. उम्मीद कम ही है, सम   झ लीजिए नहीं है.’’

मैं चुपचाप बाहर निकल आया. मोबाइल तो गया. ऊपर से 300 रुपए और गए. तब जा कर प्राथमिकी की प्रति मिली, जिस से मोबाइल कंपनी मेरे मोबाइल नंबर को ‘लौक’ कर देगी ताकि मेरे नंबर का अनुचित उपयोग न हो सके.

मैं यही सोच रहा हूं कि हम भारतीय उस स्तर पर कभी पहुंच पाएंगे? या ऐसा व्यवहार यहां अविश्वसनीय और कपोल कल्पित ही रहेगा.

कुछ देर बाद कविता का फोन आया. वह पुलिस स्टेशन से अपना मोबाइल ले आई थी.

‘‘कुछ पैसे लगे?’’

‘‘दिस इज नौट इंडिया, पापा,’’ उस ने हंस कर कहा.

मेरा सिर कुछ इस तरह    झुक गया जैसे यहां की पुलिस का मैं कोई प्रतिनिधि होऊं.

मेरे विवाहित महिला से शारीरिक संबंध बन गए हैं, मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 24 बरस का अविवाहित हूं. एक वर्ष पहले एक विवाहित महिला से प्रेम हुआ और फिर शारीरिक संबंध भी बने. उस महिला के पति को शारीरिक व मानसिक कमजोरी है. मैं उस महिला को जीजान से चाहता हूं, उस के कारण घरपरिवार छोड़ कर यहां नौकरी कर रहा हूं. उस महिला को रोज देख कर तनाव में रहता हूं. क्या करूं ?

जवाब

आप एक चरित्रहीन विवाहिता के जाल में फंसे एक मूर्ख प्रेमी हैं. जो महिला अपने पति के प्रति समर्पित नहीं है वह आप के प्रति कैसे होगी. आप का यह प्रेम एक छलावा भर है. उस का पति भी ठीकठाक होगा, यह महिला ऐसा कह कर आप की हमदर्दी हासिल करती होगी. एक बात और समझ लीजिए, जिस दिन उस के पति को उस के इन प्रेमप्रसंगों की जानकारी लगेगी, आप कहीं के नहीं रहेंगे क्योंकि उस के स्थापित प्रेमी तो आप ही हैं बाकी तो सब टाइमपास भर हैं.

दरअसल, आप एक मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे हैं, उस के प्रति आप का आकर्षण इतना ज्यादा है कि आप तो आत्महत्या की भी सोच बैठे. जरा विवेक से काम लें और बेशक नौकरी छोड़नी पड़े, यहां से निकल कर अपने परिवार के बीच रहिए. अभी तो आप के जीवन की शुरुआत है और नौकरियां भी मिल जाएंगी. कोई अच्छा साथी ढूंढ़ लें तो चुटकियों में इस रिश्ते को भूल जाएंगे. सोचसम?ा कर फैसला करें.

पेनकिलर एडिक्शन से बचें

आज की भागतीदौड़ती जिंदगी में हमारे पास आराम करने का बिलकुल भी समय नहीं है. ऐसे में भीषण दर्द की वजह से हमें बैठना पड़े तो उस से बड़ी मुसीबत कोई नहीं लगती है. कोई भी दर्द से लड़ने के लिए न तो अपनी एनर्जी लगाना चाहता है और न ही समय. इसलिए पेनकिलर टैबलेट खाना बहुत आसान विकल्प लगता है. बाजार में हर तरह के दर्द जैसे बदनदर्द, सिरदर्द, पेटदर्द आदि के लिए कई तरह के पेनकिलर मौजूद हैं.

अलगअलग तरह के पेनकिलर शरीर के विभिन्न दर्दों के लिए काम करते हैं और वह भी इतने बेहतर ढंग से कि कुछ ही मिनटों में दर्द गायब हो जाता है और व्यक्ति फिर से काम करने को तैयार हो जाता है.

शरीर में हलका सा दर्द होते ही हम एक पेनकिलर मुंह में डाल लेते हैं. इस से होता यह है कि शरीर की दर्द से लड़ने की क्षमता घट जाती है और हम शरीर को दर्द से स्वयं लड़ने देने के बजाय उसे यह काम करने के लिए पेनकिलर्स का मुहताज बना देते हैं. काम को सरल बनाने के लिए तरीकों का इस्तेमाल करना मानव प्रवृत्ति है और ईजी पेनकिलर एडिक्शन उसी प्रवृत्ति का परिणाम है.

क्या है पेनकिलर एडिक्शन

पेनकिलर ऐसी दवाइयां हैं जिन का इस्तेमाल मैडिकल कंडीशंस जैसे माइग्रेन, आर्थ्राइटिस, पीठदर्द, कमरदर्द, कंधे में दर्द आदि से अस्थायी तौर पर छुटकारा पाने के लिए किया जाता है. पेनकिलर बनाने में मार्फिन जैसे नारकोटिक्स, नौनस्टेरौइडल एंटी इन्फ्लेमेटरी ड्रग्स और एसेटेमिनोफेन जैसे नौननारकोटिक्स कैमिकल का इस्तेमाल होता है. पेनकिलर एडिक्शन तब होता है जब जिसे ये पेनकिलर दिए गए हों और वह शारीरिकतौर पर उन का आदी हो जाए.

इस एडिक्शन के कितने बुरे प्रभाव हो सकते हैं, यह बात हमारे दिमाग में जब चाहे मुंह में पेनकिलर टैबलेट्स डालते हुए आती ही नहीं है. अन्य एडिक्शन की तरह इस के भी साइड इफैक्ट्स समान ही होते हैं. कई बार दर्द न होने पर भी इस के एडिक्ट पेनकिलर खाने लगते हैं. इन्हें खाने वालों को तो लंबे समय तक पता ही नहीं चलता है कि वे इस के शिकार हो गए हैं. उन का मनोवैज्ञानिक स्तर अस्तव्यस्त हो जाता है. इस एडिक्शन से बाहर आने के लिए उन्हें चिकित्सीय मदद लेनी पड़ती है.

साइड इफैक्ट्स

पेनकिलर्स में सेडेटिव इफैक्ट्स होते हैं जिस की वजह से हमेशा नींद आने का एहसास बना रहता है. पेनकिलर लेने वालों में कब्ज की शिकायत अकसर देखी गई है. पेट में दर्द, चक्कर आना, डायरिया और उलटी इन्हें लेने वालों में आम देखी जाती है. इस के अतिरिक्त भारीपन महसूस होने के कारण सिरदर्द और पेट में दर्द रहने लगता है. मूड स्ंिवग्स और थकावट इन में आम बात हो जाती है. साथ ही, कार्डियोवैस्कुलर और रैस्पिरेट्री गतिविधियों पर भी असर होता है, हार्टबीट व ब्लडप्रैशर में तेजी से उतारचढ़ाव तक ऐसे मरीजों में देखा गया है. पेनकिलर एडिक्शन लिवर पर भी असर डालता है और इन का अधिक मात्रा में सेवन करने से जोखिम और बढ़ जाता है.

मिचली आना, उलटी होना, नींद आना, मुंह सूखना, आंखों की पुतली का सिकुड़ जाना, रक्तचाप का अचानक कम हो जाना, कौंसटिपेशन होना दर्दनिवारक दवाइयों के सेवन से होने वाले कुछ आम साइड इफैक्ट्स हैं. इस के अलावा खुजली होना, हाइपोथर्मिया, मांसपेशियों में तनाव जैसे साइड इफैक्ट्स भी पेनकिलर के सेवन से होते हैं.

फोर्टिस अस्पताल, वसंत कुंज, नई दिल्ली के कंसल्टैंट फिजिशियन डा. विवेक नांगिया के अनुसार, ‘‘अकसर मरीज हमारे पास यह शिकायत ले कर  आते हैं कि उन की किडनी ठीक ढंग से कार्य नहीं कर रही है. जब हम विस्तृत जानकारी लेते हैं तो पता चलता है कि मरीज एनएसएआईडी नौन स्टीरौयड एंटी इंफ्लेमेटरी ड्रग्स गु्रप की दवाइयां लंबे समय से ले रहा है.

‘‘न केवल किडनी फेलियर, बल्कि मरीज अल्सर या पेट में ब्लीडिंग की शिकायत ले कर भी हमारे पास आते हैं, जो अत्यधिक मात्रा में पेनकिलर लेने की वजह से होती है. पेनकिलर लेना ऐसे में एकदम बंद कर देना चाहिए. पैरासिटामोल जैसी सुरक्षित दवाइयां बिना डाक्टर की सलाह के ली जा सकती हैं, पर बहुत कम समय के लिए.’’

अकसर महिलाएं पीरियड्स के दिनों में भी दर्द से बचने के लिए पेनकिलर लेती हैं. हालांकि इस से राहत महसूस होती है पर इस का अधिक मात्रा में सेवन करने से एसिडिटी, गैसट्राइटिस, पेट में अल्सर आदि की समस्याएं हो सकती हैं. इस के अलावा, अगर पेनकिलर खाने से दर्द से राहत मिलती है तो भी चिकित्सकों की राय लें. अगर पेनकिलर्स का उपयोग गलत ढंग से किया जाए तो उस से दर्द और बढ़ सकता है. इसलिए दर्द कम करने के लिए अगर पेनकिलर ले रहे हों तो यह भी याद रखें कि इस से दर्द बढ़ भी सकता है.

अपने पैर कुल्हाड़ी : दो सहेलियों के बीच पिघलते मनमुटाव की कहानी

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जातपात : मायके की जातपात की बेड़ियां तोड़ती दबंद लड़की की कहानी

निर्मला अपने पति राजन के साथ जिद कर के अपनी दादी के श्राद्ध में मायके आई थी. हालांकि राजन ने उसे बारबार यही कहा था कि बिन बुलाए वहां जाना ठीक नहीं है, फिर भी वह नहीं मानी और अपना हक समझते हुए वहां पहुंच ही गई. निर्मला ने सोचा था कि दुख की इस घड़ी में वहां पहुंचने पर परिवार के सभी लोग गिलेशिकवे भूल कर उसे अपना लेंगे और दादी की मौत का दुख जताएंगे. पर उस का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ.

सभी ने निर्मला को देख कर भी नजरअंदाज कर दिया, मानो वह कोई अजनबी हो. इस के बावजूद भी निर्मला को उम्मीद थी कि परिवार वाले भले ही उसे नजरअंदाज करें, मां ऐसा नहीं कर सकतीं. तभी निर्मला ने राजन की तरफ इस तरह देखा, मानो वह मां के पास जाने की उस से इजाजत ले रही हो. फिर वह अकेली ही मां की तरफ बढ़ गई.

उस समय निर्मला की मां औरतों के हुजूम में आगे बैठी हुई थीं. जब मां ने निर्मला को अपने करीब आते देखा, तो वे उठ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गईं. मां के पीछेपीछे निर्मला भी वहां पहुंच गई और प्यार से बोली, ‘‘मां, यह सब कैसे हुआ? क्या दादी बहुत दिनों से बीमार थीं?’’

‘‘तुम से मतलब? आखिर तुम पूछने वाली होती कौन हो? चली जाओ यहां से. फिर कभी भूल कर भी इस घर की तरफ मत देखना, नहीं तो तुम मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी,’’ गुस्से से चीखते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘ऐसा न कहो, मां. नहीं तो मैं अनाथ हो जाऊंगी. आखिर तुम्हारा ही तो सहारा है मुझे. मां हो कर भी तुम मेरे मन की भावना को नहीं समझोगी, तो और कौन समझेगा?’’ रोते हुए निर्मला बोली.

‘‘नहीं समझना है मुझे. कुछ नहीं समझना,’’ चीखते हुए उस की मां ने कहा.

‘‘क्यों नहीं समझना है, मां? तुम्हें समझना ही पड़ेगा. अपनी बेटी के दुख को महसूस करना ही पड़ेगा. आखिर मेरा इतना ही कुसूर था न कि मैं ने राजन से सच्चा प्यार किया? उस से शादी की, जो हमारी बिरादरी का नहीं है?

‘‘लेकिन मां, तुम मुझे गौर से देखो कि मैं राजन के साथ कितनी खुश हूं. मुझे किसी बात का दुख नहीं है,’’ खुशी जताते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं देखना है और न ही सुनना है, बस. तुम अभी और इसी समय उस राजन को ले कर यहां से चली जाओ, ताकि तुम्हारी दादी का श्राद्ध शांति से पूरा हो सके,’’ मां बोलीं.

‘‘हम यहां से चले जाएंगे, मां, रहने के लिए नहीं आए हैं. केवल दादी के श्राद्ध में आए हैं. बस, उसे पूरा हो जाने दो. क्योंकि दादी से मेरा और मुझ से उन का कितना गहरा लगाव था, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो. मेरे बिना तो वे कुछ भी नहीं खातीपीती थीं,’’ सुबकते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘इसीलिए तो तुम उस कलमुंहे राजन के साथ भाग गई और कोर्ट में जा कर शादी कर ली. तब तुम्हें दादी का इतना खयाल नहीं था, जबकि उन्होंने तुम्हारी याद में अपनी जान दे दी?’’

‘‘मुझे दादी का बहुत खयाल था, मां. परंतु मैं क्या करती, आप सभी तो मुझ से खफा थे. डर के चलते मैं नहीं आ सकी,’’ रोते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘बड़ी आई डर वाली. जब इतना ही डर था, तो घर से कदम बाहर निकालते समय हजार बार सोचती? फिर भी कुछ नहीं सोचा.

‘‘अरे, क्या अपनी बिरादरी में लड़कों की कमी हो गई थी, जो उस नाशपीटे राजन के साथ भाग गई?’’ तीखी आवाज में उस की मां ने कहा.

मां के सवालों का जवाब देने के बजाय निर्मला ने कहा, ‘‘मां, मुझे जी भर कर कोस लो, लेकिन उन्हें कुछ न कहो, क्योंकि अब वे मेरे पति हैं.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे दुनिया में केवल एक तुम ही पति वाली हो, बाकी सब दिखावे वाली हैं,’’ खिल्ली उड़ाते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मेरी अच्छी मां, तुम तो मुझे ऐसा न कहो. हर मांबाप का सपना होता है कि मेरी बेटी अच्छे घर में ब्याहे, सुखशांति से रहे. उन्हीं में से मैं एक हूं.

‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मैं ने अपने जीवनसाथी का खुद ही चुनाव कर तुम लोगों की परेशानी को दूर किया है. इस के बावजूद भी सभी की तरह तुम भी मुझे नजरअंदाज कर रही हो?’’ दुखी हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘हां, तुम इसी काबिल हो, इसीलिए नहीं मिलेगा अब तुम्हें वह लाड़प्यार और अपनापन, जो कभी यहां मिला करता था…’’

निर्मला की मां की बातें अभी पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि पिता, भाई, बहन व भाभी सभी वहां आ गए और गुस्से से निर्मला को घूरने लगे.

तभी उस के पिता दयाशंकर ने गुस्से में कहा, ‘‘कलंकिनी, मुझे तो तेरा नाम लेते हुए भी नफरत हो रही है. आखिर तुम ने मेरे घर में कदम रखने की हिम्मत कैसे की?’’

‘‘ऐसा न कहिए, पापा. आखिर इस घर से मेरा भी तो कोई रिश्ता है? उसी रिश्ते के वास्ते तो मैं यहां आई हूं. मुझे और मेरे पति को अपना लीजिए, पापा,’’ रोतेगिड़गिड़ाते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे पापा कहा. तेरा पापा तो उसी दिन मर गया था, जिस दिन तू इस घर को छोड़ कर गई थी. रहा सवाल अपनाने का, तो यह हक अब तुम खो चुकी हो.’’

‘‘नहीं, पापा नहीं. ऐसा न कहो और ठंडे दिमाग से सोचो कि प्यार करना क्या कोई जुर्म है?

‘‘आखिर मैं भी तो बालिग हूं. जब मैं अपना भलाबुरा सोचसमझ सकती हूं, तो फिर मुझे फैसला लेने का हक क्यों नहीं है? और फिर चाहे बातें भविष्य की हों या जीवनसाथी चुनने की, लड़कियों को यह हक जरूर मिलना चाहिए,’’ थोड़ा खुश हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘तू मुझे हक के बारे में समझा रही है? अगर तू इतनी ही समझदार होती, तो अपनी ही जाति के लड़के से शादी करती, न कि किसी दूसरी जाति के लड़के से,’’ निर्मला के पिता ने कहा.

‘‘दूसरी जाति के लड़के क्या इनसान नहीं होते? क्या उन में समझदारी नहीं होती? इस की मिसाल तो राजन ही हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी की सारी खुशियां दे रखी हैं, कोई कमी महसूस नहीं होने दी है उन्होंने. मैं इस तरह के जातपांत के भेदभाव को नहीं मानती, जो एक इनसान को दूसरे इनसान से अलग करता हो, आपस में दूरियां बढ़ाता हो…

‘‘मैं केवल इनसानियत की जात को जानती व मानती हूं,’’ निर्मला बोलती चली गई.

‘‘बस करो अपनी यह बकवास और उस राजन के साथ यहां से चलती बनो,’’ इस बार चीखते हुए निर्मला का भाई विशाल बोला.

‘‘भैया, मुझे जो चाहो कह लो, मैं सब बरदाश्त कर लूंगी. लेकिन उन के बारे में कुछ भी नहीं सुन सकती. क्योंकि एक पत्नी अपने सामने पति की बेइज्जती कभी बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

‘‘अच्छा, तब तो मुझे तुम्हारे पति की बेइज्जती करनी ही होगी, वह भी तुम्हारे सामने,’’ नजरें तिरछी करते हुए विशाल बोला.

‘‘क्या…? यह तुम कह रहे हो? जबकि तुम भी किसी के पति हो और तुम्हारी पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी है. महाभारत मचा दूंगी मैं यहां. तुम क्या समझते हो अपनेआप को कि वे तुम से कमजोर हैं?

‘‘वे जूडोकराटे में ब्लैकबैल्ट हैं और साथ ही पुलिस में भी हैं. उन से टकराना तुम्हें महंगा पड़ेगा, भैया.

‘‘हां, मैं यदि चाहूं, तो तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी बेइज्जती जरूर करवा सकती हूं, ताकि तुम बेइज्जती के दर्द को महसूस कर सको.

‘‘लेकिन, मैं इतनी बेवकूफ भी नहीं हूं कि तुम्हारी तरह कुछ करने से पहले कुछ सोचसमझ न सकूं. औरत हूं, इसलिए औरत का दर्द समझती हूं. लिहाजा, ऐसा कुछ नहीं करना चाहूंगी, जिस से कि भाभी के मन में दुख हो.’’

निर्मला की बातें सुन कर उस की भाभी सुबक पड़ी और उस ने आगे बढ़ कर निर्मला को गले लगा लिया.

‘‘माधुरी, यह तुम क्या कर रही हो? दूर हटो उस से. इस से हमारा कोई रिश्ता नहीं है,’’ चीखते हुए विशाल बोला.

‘‘रिश्ता है क्यों नहीं? खून का रिश्ता है हमारा, इसलिए अपनी बहन को अपना लीजिए. इस ने ठीक ही कहा है कि जातपांत कुछ नहीं होता. होती है तो केवल इनसानियत, और इनसानियत का रिश्ता,’’ निर्मला की तरफदारी लेते हुए उस की भाभी माधुरी ने कहा, मानो वह भी इनसानियत के रिश्ते को ही अहमियत दे रही हो.

लेकिन माधुरी की बातें सुन कर विशाल बौखला गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘माधुरी, लगता है इस के साथसाथ तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है, कहीं…’’

अभी विशाल अपनी बातें पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी वहां राजन आ गया और सूझबूझ का परिचय देते हुए गंभीरता से बोला, ‘‘निर्मला, अब चलो यहां से. बहुत हो चुकी तुम्हारी बेइज्जती. मैं अब और सहन नहीं कर सकता.

‘‘मैं ने सबकुछ सुन लिया है और जान लिया है कि ये लोग ऐसे पत्थरदिल इनसान हैं, जो जातपांत का ढोंग रच कर समाज को गंदा करते हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. अब मुझे समझ में आया कि मैं ने यहां आ कर कितनी बड़ी भूल की है?

‘‘ले चलिए मुझे. अब एक पल भी मैं यहां रुकना नहीं चाहूंगी,’’ उठते हुए निर्मला बोली और अपने पति राजन का हाथ थाम कर घर से बाहर जाने लगी.

उस की छोटी बहन उर्मिला ने दौड़ कर निर्मला का हाथ थाम लिया और सिसकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मत जाओ. मुझे छोड़ कर मत जाओ.’’

‘‘पगली, मैं कहां तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं? हां, जातपांत और उन बुरे रिवाजों को छोड़ कर जा रही हूं, जिसे मां, पापा व भैया ने अपनी मुट्ठियों में जकड़ रखा है.

‘‘मैं यहां नहीं आऊंगी तो क्या हुआ, तुम तो अपनी दीदी के घर आ सकती हो?’’ निर्मला बोली.

‘‘जरूर आऊंगी दीदी,’’ उर्मिला ने खुश हो कर कहा.

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’?प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेरते हुए निर्मला ने कहा और अपने पति राजन के साथ घर से बाहर निकल गई.

गुड गवर्नेंस या बैड गवर्नेंस

आधार कार्ड को आज सरकार ने सिर्फ पहचानपत्र नहीं रहने दिया बल्कि उस के सहारे हर नागरिक को अपना गुलाम बना डाला है ताकि देशवासियों पर चौबीसों घंटे निगरानी रखी जा सके कि वह क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है, क्यों कर रहा है. टैक्नोलौजी के सहारे पूरे देश को एक बड़ी खुली जेल में बदल डाला गया है जहां जेब में बिना आधार कार्ड रखे कोई चल नहीं सकता.

मजेदार बात यह है कि आधार बनाया ही ऐसे गया है कि जिस से इस की जानकारी सिर्फ सरकार के पास रहे और वह जब चाहे इसे बदल दे. हर औनलाइन ट्रांजैक्शन पर आधार नंबर कहीं न कहीं आ जाता है. जो लोग डैबिट या क्रैडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं उन्हें आधार कार्ड का नंबर एक स्टेज पर देना पड़ता है जिस के जरिए उन की हर गतिविधि पर सरकार की नजर रहती है. रेल, बस, मैट्रो पर चढऩे पर आप को पहचान बताने के लिए आधार दिखाना होता है.

सरकार मनमानी पर उतारू है, वह अपने फायदे के लिए कोई भी बहाना बना कर जब चाहे आधार कार्ड के नियम बदल सकती है. गुड गवर्नेंस रूल्स 2020 के नाम पर सरकार का शिकंजा अकसर कसा जाता है जबकि सब को यह मालूम नहीं हो पाता. सरकार ने गुड गवर्नेंस और प्राइवेसी की भाषा ऐसी तैयार कर रखी है मानो वह कह रही हो कि किसी को जेल में तो उस की सुरक्षा के लिए डाला जाता है ताकि कोई उसे लूट न सके. आधार नंबर का इस्तेमाल गैरसरकारी संस्थाएं भी कर सकें, इस के लिए बड़ी लच्छेदार भाषा में पिरो कर रूल्स में एक संशोधन कर दिया गया, कि आधार नंबर का इस्तेमाल गैर केंद्र सरकारी संस्थाएं भी कर सकती हैं. लंबेचौड़े, उलझी भाषा वाले नियमों पर जनता से राय भी मांगी गई पर उन्हें केवल वे जानते हैं जिन्हें सरकारी वैबसाइटें खंगालने का मर्ज है.

अखबारों में कोई विज्ञापन नहीं, कोई टीवी पर सूचना नहीं, कोई एक्स (x) या ब्रैंड्स पर सूचना नहीं. 20 अप्रैल से 20 मई तक का समय देश की 140 करोड़ जनता को दिया गया कि देख लो, तुम्हारी नई जंजीर ठीक है न. तुम्हारे पैर की छोटी उंगली बांधी जा रही है ताकि वह किसी मेज से न टकरा जाए. चिंता न करो, हम हैं न, तुम्हारी चुनी सरकार. तुम्हारा भला करेंगे. जंजीरों का यह जाल जिस में तुम बंधे हो, यह जनता की मरजी के हिसाब से है. अरे, 30 दिन कमैंट करने के लिए काफी नहीं हैं, तो हम 15 दिन और दिए देते हैं. अब न कहना कि हम तानाशाह हैं.

इस तरह की लफ्फाजी से घिरे शब्दों की इतनी भरमार है कि जनप्रतिनिधि, पत्रकार, कानून कुछ नहीं जान पाते कि क्या हो रहा है और आपहम सब एक और बंधन में बंध जाते हैं गुड गवर्नेंस के नाम पर.

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