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गेट नंबर चार : गार्ड की दरियादली की दिल छूती कहानी

अशोक सुबह उठ कर व्यायाम कर रहा था. सुबह उठने की उस की बचपन की आदत है. आज भी उसी क्रम मे लगा हुआ था. तब तक रीमा भी उठ कर आ गई और बोली, “चाय का इंतजार तो नहीं कर रहे हो?” “हां, वह तो स्वाभाविक है” अशोक बोल पड़ा.“तो जाओ दूध ले आओ, रात ही बोला था कि दूध खत्म हो गया है.”

“ओह, मैं तो भूल ही गया था. अभी लाया,” कहता हुआ अशोक अपना मास्क लगा कर चल दिया.

जब से कोरोना की महामारी आई है सोसायटी में बिना मास्क लगाये घूमने और निकलने की इजाजत नहीं है.

जैसे ही अशोक लिफ्ट से बाहर निकल कर सोसायटी में अंदर बने मार्केट की ओर चला तभी गेट नंबर चार के पास बैठे गार्ड के सामने खड़े सोसायटी के पदाधिकारियों को खरीखोटी सुनाते हुए देख अशोक के कदम रुक गए.

किस बात पर वे लोग गार्ड को बातें सुना रहे थे यह जानने की थोड़ी उत्सुकता उसे जरुर हो रही थी, पर दूध लाने की जल्दी में ज्यादा समय न बर्बाद करते हुए अशोक दूध लेने चल दिया. दूध ले कर लौटते समय देखा तो वह गार्ड उस गेट से नदारद था.

अशोक ने चारो तरफ निगाह दौड़ाई तो उसे वह गार्ड जाता हुआ दिखाई दिया. लगभग दौड़ते हुए अशोक उस के पास पहुंच गया और पूछ ही लिया, “क्या कह रहे थे वे लोग आप से? अरे, भई बोलो तो सही …” अशोक ने दो बार कहा तो कुछ अस्फुट से शब्द गार्ड के मुंह से निकले जो अशोक को समझ नहीं आए, तो अशोक ने फिर पूछा, “भाई क्या हुआ?”

गार्ड की आंखों में आंसू थे जो आधी कहानी तो ऐसे ही कह रहे थे. फिर कुछ थोड़ा स्थिर हो कर वह बोला, “साहब ये नौकरी तो नौकर से भी बद्तर है. रात भर जाग कर पहरेदारी करो, फिर इन सब की चार बात सुनो.”

“हुआ क्या यह तो बताओ,” अशोक ने फिर पूछा तो वह कहने लगा, “सर जी, चार नंबर गेट के पास कुछ मजदूर परिवार रहते हैं. रोज उन के बच्चों को दूध के लिए बिलखता हुआ मुझ से  देखा नहीं जाता है तो रोज एक दूध का पैकेट और ब्रैड उन्हें अपने पैसों से खरीद कर देता हूं. शायद सीसीटीवी कैमरा में यही कई दिन से रिकौर्ड हो रहा होगा तो सिक्योरिटी वाले साहब तक बात पहुंच गई कि मैं सुबह इन सब से पैसे ले कर इन सब को दूध और ब्रैड बेच रहा हूं,” कहते कहते वह रोने लगा. “साहब इन गरीबो की कौन सुनेगा जो दिन भर एक ब्रेड के सहारे अपना दिन काटते हैं और बड़ी मुश्किलों से रात काट कर सुबह का इंतजार करते हैं कि मैं कब इन्हें दूध और ब्रैड दे दूं.”

अब तक अशोक की आंखों में भी पानी भर चुका था पर गार्ड की बात अभी खत्म नहीं हुई थी. “साहब, आप ये लो पैसे और उन को दूध और ब्रैड दे आइए, उन के बच्चे इंतजार कर रहे होंगे.”

अशोक ने उस को कहा, “आप बिल्कुल परेशान न हों.  उन बच्चों को दूध और ब्रैड जरुर मिलेगी,” और अशोक घर जाने के बजाय गेट नंबर  चार की ओर चल दिया.

शुक्रिया श्वेता दी : भाग 2

बूआ के बेटे की शादी थी. सब लोग पटना आए. दीपेन के मम्मीपापा, भाईभाभी और उन के दोनों बच्चे. सभी खुशमिजाज और मिलनसार थे. हां, सुंदरसलोनी भाभी बात कम कर रही थीं. शांत स्वभाव की थीं शायद. अंकिता का रिश्ता वहीं पक्का हो गया. पंडित जी ने दिन, मुहूर्त भी निकलवा दिया. दानदहेज की बात नहीं हुई. दीपेन के पापा ने मजाक में कहा- ‘समधी जी, अंकिता आप  की सब से छोटी और लाडली बेटी है. इस के लिए आप ने बहुतकुछ जोड़ कर रखा ही होगा. अब और आप को करना भी क्या है?’

शादी के दस दिन पहले दीपेन के पापा का फोन आया, ‘समधी जी, दीपेन बड़बोला लगता है लेकिन अंदर से संकोची है. उस की चाहत थी एक गाड़ी अंकिता के लिए आप उसे देते. खुद की गाड़ी खरीदने में तो काफी वक्त लग जाएगा. वैसे, वह आप से कहने को मना कर रहा था लेकिन मैं ने कहा कि इच्छा को इतना क्या दबाना. आप गाड़ी के लिए रुपए ही भेज दीजिए, दीपेन को यहां एक गाड़ी पसंद आ गई है, साढ़े दस लाख की है. लेकिन शोरूम हमारे जानपहचान वालों का है, वे डिस्काउंट दे रहे हैं. दस लाख तक में मिल जाएगी.’

पापा से कुछ कहते नहीं बना. भैया ने सुना तो ताव खा गया- ‘अरे, यह तो सरासर दहेज है. इतनी जल्दी हम कहां से लाएंगे. वे लोग लालची लग रहे हैं.’

अंकिता को बुरा लगा. एक गाड़ी मांग रहा है, वह भी मेरे लिए. भैया वह भी देना नहीं चाहता. शादी के बाद वह बदल गया है. बहन की खुशी कोई माने नहीं रखती. शादी के दिन बहुत कम बचे थे. सारी तैयारी हो चुकी थी. पैसे भी काफी खर्च हो चुके थे. मानमर्यादा की बात थी. सिर्फ इस बात के लिए शादी तोडऩा मूर्खता थी. फिर अंकिता कहां मानने वाली थी. किसी तरह रुपयों का इंतजाम कर के उन लोगों को देना ही पड़ा.

उस के बाद शादी के दिन तक बड़े सलीके से कभी चेन, कभी अंगूठी, कभी सोफा कम बैड और कभी जाने क्याक्या सामानों की डिमांड की गई. अंकिता प्यार में इस तरह अंधी थी, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह डिमांड ही दहेज है. भाई, पापा समझाना चाहते तो उसे लगता, ये लोग आज भी दीपेन को दिल से स्वीकार नहीं कर रहे. मां ठीक से समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे. बेटी का दिल भी नहीं तोडऩा चाहती थी और पति व बेटे  के तर्क भी सही लग रहे थे.

…और अंकिता शादी के बाद इलाहाबाद आ गई. बेहद खुश थी वह. घर ज्यादा बड़ा नहीं था. तीन छोटेछोटे कमरे थे. छोटा सा ड्राइंगरूम, किचन और बाथरूम. वह सोचती, यहां रहना कितने दिन है. उसे बेंगलुरू जाना है.

उस के कमरे में जेठानी के बच्चे दिनभर उधम मचाते, चहकते रहते. उसे बहुत अच्छा लगता. सभी उस से खूब बातें करते, स्नेह लुटाते. जेठानी कम ही बात करती. अंकिता किचन में जाती तब वह कहती- ‘थोड़े दिन आराम कर लो, फिर काम करना ही है.’

धीरेधीरे उस ने गौर करना शुरू किया. उस के सामने सभी ठीक से बात करते लेकिन वह कमरे में होती तो ऐसा लगता वे लोग आपस में खुसरफुसर कर रहे हैं. यदि अचानक वह उन के पास चली जाती, सभी एकाएक चुप हो जाते और उस से बात करने लगते.

एक दिन दोपहर में सभी आराम कर रहे थे. जेठ घर पर नहीं थे. दीपेन लेटेलेटे झपकी लेने लगा. वह उठ कर जेठानी के कमरे में गई. उन्होंने उसे प्यार से अपने पास बैठाया- ‘दीपेन सो रहा है क्या?’

‘हां दीदी, तभी आप के पास चली आई, उस ने मुसकरा कर कहा.

यह कैसा सवाल है, उस ने सोचा. इतने में दीपेन आ गया, ‘अरे यार, तुम यहां हो.  कम औन यार,’ उस ने ऐसी अदा से  यह सब कहा कि वह हंस कर उठ गई. बात अधूरी रह गई लेकिन जेठानी का सवाल उस का पीछा करता रहा. उस ने गौर किया कि हर वक्त कोई न कोई साए की तरह उस के साथ रहता है. वह जेठानी से ज्यादा घुलमिल न पाए, ऐसी कोशिश सब की होती है.

एक दिन शाम में जेठानी नाश्ता बना रही थी. वह किचन में हैल्प करने गई. उस ने देखा, पकौडिय़ां तलते हुए जेठानी की आंखें आंसुओं से तर हैं. उस ने पूछ लिया, ‘दीदी, आप रो रही हैं?’

‘अरे नहीं, प्याज काटे थे न? मेरी आंखों में प्याज ज्यादा लगता है,’ उस ने जल्दी से आंसू पोंछते हुए कहा.

अंकिता ने ताड़ लिया, प्याज नहीं रुला रहे हैं, कोई और बात है.

दसबारह दिन निकल गए.  उन लोगों की छुट्टियां खत्म होने वाली  थीं. दीपेन ने रात में कहा- ‘मैं बैंगलुरु जा रहा हूं. मम्मीपापा चाहते हैं, तुम कुछ दिन उन के साथ रहो.’

‘तुम्हें पता है, हमें और छुट्टी नहीं मिल पाएगी.’

‘अरे यार, अब उस की क्या जरूरत है? मैं भी किसी दूसरी कंपनी में जाने की सोच रहा हूं. वहां हमारी तनख्वाह भी कम है. कभीकभी सोचता हूं अपना काम शुरू करूं.’

‘शादी के पहले तो हमारी ऐसी कोई प्लानिंग नहीं थी?’

‘अब है न.  तुम इतने सवाल क्यों कर रही हो?’ दीपेन का स्वर बदला हुआ था.

अंकिता ने बात आगे नहीं बढ़ाई लेकिन उसे लगा इस से पहले उस का इतना रूखा व्यवहार कभी नहीं था. उस ने सोचा, हो सकता है मम्मीपापा से किसी बात पर टैंशन हुई हो. कुछ दिन यहीं रुक कर एंजौय कर लेती हूं. कौन यहां परमानैंट रहना है.

दीपेन  2 दिनों बाद चला गया. जेठानी से अभी भी वह घुलमिल नहीं पाती थी. जब भी दोनों बात कर रही होतीं, सास उन्हें किसी बहाने अलगअलग काम पर लगा देतीं. उसे लगने लगा, कोर्ई बात है. वह अपने मम्मीपापा से भी ज्यादा बात नहीं कर पाती. उस के जाने के बाद दोनों बच्चे उस के साथ ही सोते. सास भी उसी कमरे में सोने लगी थी. भला नई बहू को अकेले कैसे छोड़े.

दीपेन को गए एक हफ्ता गुजर गया. वह दिन में फोन करती तो यह कह कर बात न करता कि आजकल काम का दबाव बढ़ गया है, सारे पेंडिंग काम निबटाने हैं. रात में दोचार मिनट बात करता, थोड़ाबहुत मांपापा से बात करता और फोन कट.

एक रात बहुत तेजतेज आवाज सुन कर वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. आवाज दूसरे कमरे से आ रही थी. वह उठ कर ड्राइंग रूम में आई. आवाज भाभी के कमरे से आ रही थी. सब लोग शायद वहीं थे. वह दबे पांव कमरे की तरफ बढ़ी. दरवाजा भिडक़ा हुआ था. उस ने हलके सूराख से अंदर देखने की कोशिश की. ‘चटाक.’ उसी वक्त ससुर ने जेठानी के गाल पर तमाचा जड़ा. वह कांप गई. जेठानी ऐसे निरीह खड़ी थी जैसे कसाई के सामने मेमना.

‘पापा, गुस्से को काबू में रखिए. दूसरे कमरे में अंकिता सो रही है. मैं देखता हूं,’ जेठ ने कहा.

ससुर गुस्से से तमतमाते हुए कुछ बड़बड़ा रहे थे. वह जल्दी से दबे पांव अपने कमरे में आ गई. आंखें बंद कर सोने का नाटक किया लेकिन उस ने अभीअभी जो देखा था, वह उस की आंखों के सामने से हट नहीं रहा था. थोड़ी देर में सास आई, लाइटवाइट जला कर चैक किया कि इस बीच वह जागी तो नहीं. जब यकीन हो गया कि  सब ठीक है, तब वह भी उस के बगल में सो गई.

‘भला यह भी कहने की बात है? शादी में समधी जी दिली खोल कर खर्च करेंगे. यह शादी शानदार होगी, क्यों समधी जी?’ दीपेन की मां ने हंस कर कहा.

सुबह सब कुछ नौर्मल था. श्वेता दी की आंखें सूजीसूजी थीं  लेकिन वह हर दिन की तरह किचन में थी. नौदस बजे के करीब उस ने देखा, ड्राइंगरूम में कोई बैठा था जिस से ससुर और जेठ बातें कर रहे थे. वह आदमी धीरेधीरे लेकिन कुछ तुनक कर बात कर रहा था. ससुर और जेठ उसे आहिस्ताआहिस्ता शांत करने में लगे थे. उस की समझ में कुछ नहीं आया. हवा में तैरती बातों के टुकड़ों को मिलाने पर लगा जैसे वह आदमी अपनी बकाया रकम मांग रहा था. घर खाली करने जैसी भी बात थी शायद. उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. किससे पूछे वह? कैसे जाने इस घर की रहस्मयी बातें. उस ने पति से बात करना चाहा. हायहेलो के बाद पूछा, ‘दीपेन, तुम कब आ रहे हो?’

‘अभी थोड़ा वक्त लगेगा. अब सोच रहा हूं रिजाइन कर के ही आऊं.’

उसे शाक हुआ. वह किसी और बात के लिए फोन कर रही थी, यहां एक नया धमाका था- ‘क्यों, क्या दूसरा जौब मिल गया?’

‘दिनभर काम करता रहूंगा तो जाब कैसे मिलेगी? अब वहां आ कर इत्मीनान से ट्राई करूंगा. यार, एक बात और है. मैं खुद का काम शुरू करना चाहता हूं. अपने पापा से कहो न कि अभी कुछ मदद कर दें. मैं बाद में लौटा दूंगा. अभी चारपांच लाख ही दे दें, फिर देखते हैं.’

दीपेन ने बड़े इत्मीनान से यह सब कहा लेकिन अंकिता  के दिल में लगी.  दीपेन का ऐसा रूप अभी तक नहीं दिखा था. उस ने भरे गले से कहा- ‘पापा से  कैसे कहें, अभीअभी शादी में इतना खर्च किया है…’

‘उन्होंने नया क्या किया है? बेटी की शादी में कौन खर्च नहीं करता? तुम लाडली हो उन की, तुम्हारे लिए इतना नहीं कर सकते?’

और उस ने फोन काट दिया . अंकिता कट कर रह गई.

दोपहर में सब के खाने के बाद श्वेता किचन समेट रही थी. अंकिता पानी लेने गई, धीरे से पूछा, ‘दीदी, रात में क्या हुआ था?’ श्वेता की आंखें डबडबा गईं. उस ने इधरउधर देखा और ब्लाउज में छिपा कर रखा तुड़ामुड़ा कागज निकाल कर जल्दी से उसे थमा दिया. बहुत धीरे से फुसफुसाई- ‘सब की नजर बचा कर इसे पढ़ लेना.’ श्वेता की आंखें भरी थीं, गला भरा था लेकिन पत्र देते समय उस के चेहरे पर दृढ़ता का भाव आ गया. अंकिता भौचक थी. उस ने जल्दी से पत्र ले कर  छिपा लिया और कमरे में आ गई.

सासससुर ड्राइंगरूम में थे. सास सीरियल देख रही थी. उस  ने जल्दी से  वह  कागज निकाला और बिना सांस लिए पढऩे लगी.

‘प्रिय अंकिता,

अमेरिका जैसा मैंने देखा : अमेरिका से लौटे कर क्या कसक थी मां के मन में ?

अमेरिका पहुंचने के 2 महीने बाद ही बेटी श्वेता ने जब अपनी मां शीतल को फोन पर उस के नानी बनने का समाचार सुनाया तो शीतल की आंखों से खुशी और पश्चात्ताप के मिश्रित आंसू बह निकले. शीतल को याद आने लगा कि शादी के 4 वर्ष बीत जाने के बाद भी श्वेता का परिवार नहीं बढ़ा तो उस के समझाने पर, श्वेता की योजना सुन कर कि अभी वे थोड़ा और व्यवस्थित हो जाएं तब इस पर विचार करेंगे, उस ने व्यर्थ ही उस को कितना लंबाचौड़ा भाषण सुना दिया था. उस समय दामाद विनोद के, कंपनी की ओर से, अमेरिका जाने की बात चल रही थी. अब उस को एहसास हो रहा है कि पहले वाला जमाना तो है नहीं, अब तो मांबाप अपनेआप को बच्चे की परवरिश के लिए हर तरह से सक्षम पाते हैं, तभी बच्चा चाहते हैं.

4-5 महीने बाद श्वेता ने मां शीतल से फोन पर कहा, ‘‘ममा, आप अपना पासपोर्ट बनवा लीजिए, आप को यहां आना है.’’

‘‘क्यों क्या बात हो गई? तेरी डिलीवरी के लिए तेरी सास आ रही हैं न?’’

‘‘हां, पहले आ रही थीं लेकिन डाक्टर ने उन्हें इतनी दूर फ्लाइट से यात्रा करने के लिए मना कर दिया है, इसलिए अब वे नहीं आ सकतीं.’’

‘‘ठीक है, देखते हैं. तू परेशान मत होना.’’ फोन पर बेटी ने यह अप्रत्याशित सूचना दी तो वह सोच में पड़ गई, लेकिन उस ने मन ही मन तय किया कि वह अमेरिका अवश्य जाएगी.

पासपोर्ट बनने के बाद वीजा के लिए सारे डौक्युमैंट्स तैयार किए गए. श्वेता ने फोन पर शीतल को समझाया कि अमेरिका का वीजा मिलना बहुत ही कठिन होता है, साक्षात्कार के समय एक भी डौक्युमैंट कम होने पर या पूछे गए एक भी प्रश्न का उत्तर संतोषजनक न मिलने पर साक्षातकर्ता वीजा निरस्त करने में तनिक भी संकोच नहीं करता. उस के बाद वह कोई भी तर्क सुनना पसंद नहीं करता. अमेरिका घूमने जाने वालों को, वहां अधिक से अधिक 6 महीने ही रहने की अनुमति मिलती है, इसलिए उन की बातों से उन को यह नहीं लगना चाहिए कि वे वहीं बसने जा रहे हैं, लेकिन उन की कल्पना के विपरीत जब साक्षातकर्ता ने 2-3 प्रश्न पूछने के बाद ही मुसकरा कर वीजा की अनुमति दे दी तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. सारे डौक्युमैंट्स धरे के धरे रह गए. बाहर प्रतीक्षा कर रहे अपने बेटे को जब उन्होंने हाथ हिला कर उस की जिज्ञासा पर विराम लगाया तो उस ने उन का ऐसे अभिनंदन किया, जैसे वे कोई मुकदमा जीत कर आए हों.

अंत में शीतल का अपने पति के साथ अमेरिका जाने का दिन भी आ गया. वे पहली बार वहां जा रहे थे. सीधी फ्लाइट नहीं थी, इसलिए बेटे ने पूछा, ‘‘यदि आप लोगों को यात्रा करने में तनिक भी असुविधा लग रही है तो व्हीलचेयर की सुविधा ले सकते हैं? पूरा समय आप लोग एक गाइड के संरक्षण में रहेंगे?’’

 ‘‘नहीं, इस की आवश्यकता नहीं है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

मुंबई से 9 घंटे की उड़ान के बाद वे लंदन के हीथ्रो हवाईअड्डे पर पहुंचे. वहां से अमेरिका के एक राज्य टेक्सास के लिए दूसरे विमान से जाना था. अब फिर उन को 9 घंटे की यात्रा करनी थी. उन लोगों ने एक बात का अनुभव किया कि घरेलू विमान से यात्रा करते समय जो झटके लगते हैं, वो इस में बिलकुल नहीं लग रहे थे. उड़ान मंथर गति से निर्बाध अपनी मंजिल की ओर अग्रसर थी.

टेक्सास हवाईअड्डे के बाहर श्वेता अपने पति विनोद के साथ उन की प्रतीक्षा कर रही थी. बेटी पर निगाह पड़ते ही शीतल को एहसास हुआ कि औरत मातृत्व के रूप में सब से अधिक गरिमा से परिपूर्ण लगती है, वह बहुत सुंदर लग रही थी.

उस का चेहरा कांति से दमक रहा था. उस का मन अपनी बेटी के लिए गर्व से भर उठा. भावातिरेक में उस ने उस को गले लगा लिया. वहां से वे लोग कार से डेलस, उन के घर पहुंचे, जो कि लगभग 40 किलोमीटर दूर था. शाम हो गई थी.

बेटी ने घर पहुंचने के लगभग 1 घंटे बाद कहा, ‘‘मेरी क्लास है, यहां डिलीवरी के पहले बच्चे की होने वाली मां को जन्म के बाद बच्चे की कैसे देखभाल की जाए, समझाया जाता है. आप लोग आराम कीजिए, मैं क्लास अटैंड कर के आती हूं.’’

रास्ते की थकान होने के कारण  हम दोनों जल्दी ही गहरी नींद में सो गए. जब जोरजोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज हुई तो वह जल्दी से उठ कर दरवाजा खोलने के लिए भागी. उस को याद आया कि बेटी ने जातेजाते चौकस हो कर सोने के लिए कहा था, जिस से कि वे दरवाजा खोल सकें, क्योंकि वहां दरवाजे की घंटी नहीं होती है.

अंदर आते हुए श्वेता बड़बड़ा रही थी, ‘‘अरे ममा, यहां पर जरा सी आवाज होते ही पड़ोसी अपनेअपने दरवाजों को खोल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं.’’ जब उस ने बताया कि लगभग आधे घंटे से वह बाहर खड़ी थी तो उस को बड़ी ग्लानि हुई.

लेकिन तुरंत ही वह अपनी मां को सांत्वना देती हुई बोली, ‘‘कोई बात नहीं, जेट लैग (अमेरिका में जब रात होती है, तब भारत में दिन होता है इसलिए शरीर को वहां के क्रियाकलापों के अनुसार ढालने में समय लगता है, उसी को जेट लैग कहते हैं) में ऐसी ही नींद आती है.’’ आगे उस ने अपनी बात को जारी रखते हुए बताया, ‘‘यहां पर आप की किसी भी गतिविधि से यदि पड़ोसी को असुविधा होती है तो वे पुलिस को बुलाने में जरा भी संकोच नहीं करते. यहां तक कि ऊपरी फ्लोर में रहने वालों के छोटे बच्चों के भागनेदौड़ने की आवाज के लिए भी निचले फ्लोर में रहने वाले एतराज कर सकते हैं, यहां का कानून बहुत सख्त है.’’

श्वेता के साथ जब कभी शीतल बाजार जाती तो भारत के विपरीत वह देखती कि सड़क पार करते समय पैदल यात्री की सुविधा के लिए ट्रैफिक रुक जाता था. कहीं पर भी कितनी भी भीड़ क्यों न हो, कोई किसी से टकराता नहीं था. हमेशा एक दूरी निश्चित रहती थी, चाहे वह आम लोगों में हो या यातायात के साधनों में हो. किसी भी मौल में या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर अजनबी भी मुसकरा कर हैलो अवश्य कहते हैं. गर्भवती स्त्रियों के साथ उन का बड़ा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होता है.

घरों में कामवाली मेड के अभाव में सभी गृहकार्य और बाजार के कार्य स्वयं करने के कारण भारत में जो उन से सुविधा मिलने से अधिक जो मानसिक यंत्रणा को भोगना पड़ता है, वह न होने से जीवन सुचारु रूप से चलता है. गृहकार्य को सुविधाजनक बनाने के लिए बहुत सारे उपकरण भी घरों में उपलब्ध होते हैं. वातानुकूलित घर होने के कारण निवासियों की ऊर्जा का हृस नहीं होता. सड़क पर टै्रफिक जाम न होने के कारण समय बहुत बचता है और उस से उत्पन्न मानसिक तनाव नहीं होता. वहां पर इंडियन स्टोर्स के नाम से बहुत सारी दुकानें खुली हैं, जहां लगभग सभी भारतीय खा- पदार्थ और चाट आदि मिलती हैं. वहां जा कर लगता ही नहीं कि हम भारत में नहीं हैं.

श्वेता की ससुराल में गर्भकाल के 7वें या 9वें महीने में बहू की गोदभराई की रस्म होती है. शीतल के वहां पहुंचने की प्रतीक्षा हो रही थी, इसलिए 9वें महीने में समारोह के आयोजन का विचार किया गया. जिन को बुलाना था उन को उन की  ईमेल आईडी पर निमंत्रण भेजा गया. उन लोगों ने अपनी उपस्थिति के लिए हां या न में लिखने के साथ यह भी लिखा कि वे कितने लोग आएंगे, साथ में अपना बजट लिख कर यह भी पूछा कि उपहार में क्या चाहिए. अमेरिका में अजन्मे बच्चे के लिंग के बारे में पहले से ही डाक्टर बता देते हैं, इसलिए उपहार भी उसी के अनुकूल दिए जाते हैं. उस को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि अपने बच्चे के प्रयोग में आई हुई कीमती वस्तुओं को भी वहां के लोग उपहार में देने और लेने में तनिक भी संकोच नहीं करते. इस से समय और पैसे की बहुत बचत हो जाती है.

समारोह में जितने भी लोग आए थे, लगभग सभी भारतीय पारंपरिक वेशभूषा में सुसज्जित हो कर आए थे और हिंदी में बात कर रहे थे. उन की जिज्ञासा को उस की बेटी ने यह कह कर शांत किया कि हमेशा मजबूरी में पाश्चात्य कपड़े पहन कर और अंगरेजी बोल कर सब ऊब जाते हैं, इसलिए समारोहों में ऐसा कर के अपने भारतीय होने के सुखद एहसास को वे खोना नहीं चाहते. उस ने सोचा कि यह कैसी विडंबना है कि भारत में भारतीय पाश्चात्य सभ्यता को अपना कर खुश होते हैं.

वहां पर सभी कार्य स्वयं करने होते हैं, इसलिए जितने भी मेहमान आए थे, सब ने मिलजुल कर सभी कार्य किए और कार्यक्रम समाप्त होने के बाद सब पूरे हौल को साफ कर के सारा कूड़ा तक कूड़ेदान में डाल कर आए. और तो और, बचा हुआ खा- पदार्थ भी जिन को जितना चाहिए था, सब ने मिल कर बांट लिया.

अंत में श्वेता के डिलीवरी का दिन भी आ गया. विनोद उस को डाक्टर को दिखाने के लिए अस्पताल ले कर गए तो वहां से उन का फोन आया कि उसे आज ही भरती करना पड़ेगा. सुन कर शीतल के मन में खुशी और चिंता के मिश्रित भाव उमड़ने लगे. अस्पताल गई तो बेटी को हलके दर्द में ही कराहते देख कर उस ने कहा, ‘‘बेटा, अभी से घबरा रही है, अभी तो बहुत दर्द सहना पड़ेगा.’’ उसे अपना समय याद आ गया था. आगे की तकलीफ कैसी झेलेगी, यह सोच कर उस का मन व्याकुल हो गया. इतने में डाक्टर विजिट पर आ गईं. उस ने शीतल का परिचय श्वेता से पाना चाहा तो उस के बताने पर मुसकरा कर ‘हैलो’ कह कर उस ने उस का स्वागत किया और बेटी व दामाद से आगे की प्रक्रिया के बारे में बातचीत करने लगी. उस के बाद डाक्टर ने श्वेता को एक इंजैक्शन दिया और सोने के लिए कह कर चली गई.

जब डाक्टर ने बेटी को सोने के लिए कहा तो उसे आश्चर्य हुआ कि दर्द में कोई कैसे सो सकता है? जिस का समाधान बेटी ने किया कि जो इंजैक्शन दिया है उस से दर्द का अनुभव नहीं होगा. उस के मन में जो दुश्चिंता थी कि कैसे वह अपनी बेटी को दर्द में तड़पते देख पाएगी, लुप्त हो चुकी थी और उस ने राहत की सांस ली. विज्ञान के नए आविष्कार को मन ही मन धन्यवाद दिया. बेटी ने कहा, ‘‘ममा, आप भी सो जाइए.’’ डाक्टर बारबार आ कर श्वेता को संभाल रही थी तो उस को वहां अपनी उपस्थिति का कोई औचित्य भी नहीं लगा, इसलिए वेटिंगरूम में जा कर सो गई. वहां की व्यवस्था से संतुष्ट होने और अपने थके होने के कारण शीतल तुरंत ही गहरी नींद में सो गई.

सुबह 5 बजे के लगभग विनोद ने उसे जगाया और कहा, ‘‘औपरेशन करना पड़ेगा, चलिए.’’ अपनी नींद को कोसती हुई औपरेशन के नाम से कुछ घबराई हुई बेटी के पास गई तो उस ने देखा कि वह औपरेशन थिएटर में जाने के लिए तैयार हो रही है. शीतल को देख कर वह मुसकराने लगी तो उस ने सोचा कि बेकार ही वह उस की हिम्मत पर शक कर रही थी. मन ही मन उस को अपनी बेटी पर गर्व हो रहा था.

औपरेशन थिएटर में विनोद भी श्वेता के साथ पूरे समय रहे. उन्होंने वहां सारी प्रक्रिया की फोटो भी खींची जो देख कर वह आश्चर्यचकित रह गई, जैसे कोई खेल हो रहा है. भारत में तो उस ने ऐसा कभी देखासुना भी नहीं था. वहां पर मां को प्रसव के लिए मानसिक रूप से इतना तैयार कर देते हैं कि परिवार वालों को चिंता करने की या उसे संभालने की आवश्यकता ही नहीं होती. आधे घंटे में ही दामाद बच्चे को गोद में ले कर बाहर आ गए. चांद सी बच्ची की नानी बन कर शीतल फूली नहीं समा रही थी. उस ने देखा बच्चे की दैनिक क्रियाकलापों को सुचारु रूप से करने की पूरी जानकारी नर्स दामाद को दे रही थी. उस की तो किसी भी कार्य में दखलंदाजी की आवश्यकता ही नहीं महसूस की जा रही थी. वह तो पूरा समय केवल मूकदर्शक बनी बैठी रही.

उस ने सोचा, तभी बेटी ने वीजा के साक्षात्कार के समय भूल कर भी बेटी की डिलीवरी के लिए जा रहे हैं, ऐसा न कहने के लिए समझाया था. उस ने चैन की सांस ली कि उस की यह चिंता भी कि कैसे वह मां और बच्चे को संभालेगी, उस को तो कुछ पता ही नहीं है, निरर्थक निकली. घर आ कर बेटी ने बच्चे को संभाल कर पूरी तरह साबित भी कर दिया.

वहां पर बच्चे को अस्पताल से ले जाने के लिए कारसीट का होना अति आवश्यक है, उस के बिना बच्चे को डिस्चार्ज ही नहीं करते. इसलिए उस की भी व्यवस्था कर के उसे नियमानुसार कार की पिछली सीट पर स्थापित किया गया. अस्पताल की साफसफाई और रखरखाव किसी फाइवस्टार होटल से कम नहीं था. डाक्टर और नर्स सभी कमरे में मुसकराते हुए प्रवेश करते थे और उस को ‘हैलो’ कहना नहीं भूलते थे, जो उस की उपस्थितिमात्र को महत्त्वपूर्ण बना देता था. जिस दिन डिस्चार्ज होना था, उस दिन उन सब ने श्वेता को काफी देर बैठ कर बच्चे से संबंधित बातें समझाईं. उस के लिए ये सारी प्रक्रिया किसी सपने से कम नहीं थी.

घर आने के बाद, भारत के विपरीत, मिलने आने वालों के असमय और बिना सूचित किए न आने से बच्चे के किसी भी कार्यकलाप में विघ्न नहीं पड़ता था. बच्चे के कमरे में भी बिना अनुमति के कोई प्रवेश नहीं करता था. बच्चे को दूर से ही देखने की कोशिश करते थे और गोद में उठाने से पहले हाथ अवश्य धोते थे, जिस से उस को किसी भी संक्रमण से बचाया जा सके. वह विस्मित सी सब देखती रहती थी. बेटी से पर्याप्त बातचीत करने का समय मिल जाता था.

बातों ही बातों में उस ने बताया कि वहां पर एकल मातृत्व के कारण और एक उम्र के बाद मांबाप और बच्चों के बीच में मानसिक, शारीरिक व आर्थिक जुड़ाव न होने के चलते अवसाद की समस्या भारत की तुलना में बहुत अधिक है. लेकिन अब वे बहुतकुछ भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो कर उसे अपना रहे हैं. दूसरी ओर भारतीय उन की अच्छी बातों को न सीख कर, बुराइयों का अनुकरण कर के गर्त में जा रहे हैं. वहां दूसरी गंभीर समस्या मोटापे को ले कर है क्योंकि वहां अधिकतर डब्बाबंद खा- पदार्थों का अत्यधिक सेवन किया जाता है. इस का भी असर भारत की नई पीढ़ी में देखा जा सकता है.

अमेरिका में 6 महीने कब बीत गए, शीतल को पता ही नहीं चला. वहां के सुखद एहसासों और यादों के साथ भारत लौटने के बाद, एक कसक उस को हमेशा सालती रहती है कि यदि हर भारतीय वहां की बुरी बातों के स्थान पर अच्छी बातों को अपना ले और युवापीढ़ी को उन के बौद्धिक स्तर के अनुसार नौकरी व वेतन मिले तो कोई भी अपनों को छोड़ कर अमेरिका पलायन का विचार भी मन में न लाए.

डॉ. प्रिया आईएएस : कैसे रूढ़ियों को तोड़कर ऊंचाई पर पहुंचीं थी वो ?

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दीवारें : एक औरत की दर्द भरी कहानी

सास के आगे जबान नहीं खुलती थी मेरी और जब खुद सास हूं तो बहू के आगे जबान नहीं चलती. मन की इच्छाएं पहले भी दबी थीं और आज भी जैसे दबी की दबी ही रह गई हैं. आज ये दीवारें मुझे इतनी अपनी क्यों लग रही हैं. 30 वर्षों की गृहस्थी में मैं ने इन दीवारों को कभी भी अपना नहीं समझा. लेकिन, अब महसूस हो रहा है कि इन दीवारों से ज्यादा अपना तो कोई है ही नहीं. 30 वर्षों पहले इस घर में ब्याह कर आई थी, तो इन दीवारों को अपनी सास के घर की दीवारें मान ली थीं. उस के बाद कितनी कोशिश की थी मैं ने इन दीवारों को अपना बनाने की, पर कभी भी इतना अपनापन मेरे मन में नहीं जागा था. आते ही सास ने फरमान सुना दिया था, ‘बहू, मेरे घर में ऐसा होता है,’ वैसा होता है. कोईर् भी बात होती तो वह यही कहती थीं, ‘यह मेरा घर है, इस में ऐसा ही होगा और अगर किसी को मेरी बात नहीं माननी तो वह मेरा घर छोड़ सकता है.’

लेकिन आज दोपहर को सोते वक्त ऐसा लग रहा था जैसे ये दीवारें मुझ से कह रही हैं, ‘देखा तनु, हमें ठुकरा दिया पर हम तेरा साथ कभी भी नहीं छोड़ेंगे, हम आज भी तेरी हैं, सब तुझे धोखा दे देंगे पर हम तुझे कभी भी धोखा नहीं देंगी.’ आजकल क्या दीवारों से आवाजें आनी शुरू हो गई हैं, क्यों मैं दीवारों से बातें सुनती हूं, ऐसी तो कुछ भी अनहोनी नहीं हुई है मेरे जीवन में. हर मां के जीवन में ऐसा वक्त आता ही है, फिर मैं इतना अकेलापन क्यों महसूस कर रही हूं. पहले भी तो इतनी अकेली ही थी, फिर आज यह अकेलापन इतना ज्यादा क्यों खलने लगा है. पड़ोस वाली आंटी कहने लगी हैं, ‘अच्छा किया बेटा, फ्री हो गई है. बच्चों का ब्याह कर दिया. अब आराम कर, घूमफिर, अपने शौक पूरे कर.’ पर कौन से शौक, कौन सा घूमनाफिरना, कौन सा आराम, सबकुछ तो मन से होता है और बहुत ज्यादा पैसों से. मन अगर स्वस्थ न हो तो कुछ भी नहीं होता है और अगर जेब में पैसा न हो तो कुछ हो ही नहीं सकता. यह ठीक है कि जीवन आराम से बीत रहा है, पर इतना तो कभी भी नहीं हुआ कि रोजरोज घूमने जाऊं. कोई कहता है कि अब भगवान का नाम लो, कीर्तनों में जाओ, कथाएं सुनो. पर जीवनभर मेरा घर ही मेरा मंदिर, काशी, काबा सब रहा है, तो अब 50 बरस की उम्र में यह नया शौक कहां से पालूं. काम करने की सोची, तो लोगों ने यह कह कर काम नहीं दिया कि आप की उम्र के लोगों को अब आराम करना चाहिए.

क्या 50 साल की उम्र में मैं बूढ़ी हो गई हूं. और अब सिर्फ भगवान, जो है भी कि नहीं, का ही सहारा लूं या फिर चुपचाप बैठ कर बेकार के भजनकीर्तन ही सुनूं? बेटी का फोन आया, ‘मां, आप कोई एनजीओ जौइन कर लो. आप का मन लग जाएगा और समाजेसवा करने से संतुष्टि भी मिलेगी.’ लेकिन एक मध्यवर्गीय गृहस्थन क्या जाने यह समाजसेवा क्या होती है, जिस ने सारी उम्र अपने घर से बाहर कदम न रखा हो, वह क्या समाजसेवा करेगी. बेटे का फोन आया, ‘4 घंटे का सफर है, मम्मी. जब आप को जरूरत होगी, आ जाऊंगा.’ पर जब बहुत ज्यादा बीमार पड़ी थी. तब भी बेटे का फोन ही आया, ‘मम्मी, आ तो जाऊं पर छुट्टी नहीं मिल रही है.’ ‘नहीं बेटा, मत आओ, मैं कर लूंगी और तुम्हारे पापा तो हैं ही न,’ भरे मन से कहना पड़ा था. उस वक्त भी तो सिर्फ ये दीवारें मुझ से कह रही थीं कि कोई बात नहीं, हम हैं न तेरा खयाल रखने के लिए, तू आराम कर, हम तेरा खयाल रखेंगी, हम हैं न तेरे साथ, जब तू थक कर सो जाएगी तो हम तेरा पहरा देंगी. सारा जीवन मैं इन दीवारों से इतने अपनेपन का एहसास नहीं कर सकी. सारा जीवन सोचती रही कि कब इन दीवारों से पीछा छूटेगा और कब अपनी नई दीवारें बनेंगी. यह तो बहुत ही छोटा सा घर है. चलो, पति ने नया घर नहीं बनवा कर दिया, उन की आमदनी इतनी नहीं थी कि एक नया घर ले लें. बहनभाइयों की जिम्मेदारी उठाते रहे. फिर अपने बच्चों की. इतना समय और पैसा ही नहीं बचा था कि अपना नया घर बनवा लेते. बेटे की बहुत अच्छी नौकरी लगी थी. मन में एक उम्मीद जगी थी कि अब तो नया घर बनवा ही लेंगे, कुछ जमापूंजी हम लगाएंगे और कुछ बेटे से लेंगे और मैं स्वयं की खड़ी हुई दीवारों में जाऊंगी. पर अपने शहर से दूर अच्छी नौकरी लगते ही बेटे के ऊपर मक्खियों की तरह लड़कियां भिनभिनाने लगी थीं. आखिर, एक लड़की के प्यार में मेरा बेटा फंस ही गया और आननफानन शादी का फैसला भी हो गया. ‘बहुत अच्छी लड़की है, फिर घराना भी अच्छा है,’

पति ने समझाया. ‘मम्मी, अभी तो भाई को लड़की पसंद है, फिर बाद में ढूंढ़नी पड़ेगी,’ बेटी ने समझाया. ‘हां ये ठीक ही तो कह रहे हैं. कुछ अनहोनी तो नहीं हो रही है. सब बेटों की शादी होती है. तो फिर, मैं इतनी परेशान क्यों हूं.’ बड़े लाड़ से बहू को घर में ब्याह कर लाईर् थी. लेकिन आते ही बहू ने न सिर्फ बेटे को हथिया लिया था बल्कि सारे गहने भी अपने कब्जे में कर लिए थे. मैं अपनी खामोशी की आदत के कारण कुछ बोल ही नहीं पाई थी. ‘मम्मीजी, यह तो बहुत ही सुंदर हार है. मैं इसे ले लूं अपनी सहेली की शादी में डालूंगी.’ एक बार भी तो न नहीं कर पाई थी. मन में खीझती रहती थी. पर ऊपर से कुछ नहीं कह पाती थी. धीरेधीरे बहू प्यार से काफी गहने ले गई थी. पति भी उसी का साथ देते थे, ‘उसी के लिए तो बनवाया है. फिर उसे देने में क्या हर्ज है.’ कैसे बताती कि सारी उम्र मैं ने कभी अपनी सास से यह तक नहीं पूछा था कि मम्मीजी, मेरे गहने कहां रखे हैं. और आज मैं अपनी बहू से यह नहीं कह पा रही हूं कि बेटे, ये गहने मेरे पास ही रहने दो. हमारी पीढ़ी की सासों की यही विडंबना है कि अपनी सासों से भी सारी उम्र डरती रही और अब पढ़ीलिखी सास होने के कारण बहुओं को कुछ कह नहीं पातीं. शायद मैं ने बेटे से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगाई थीं. तभी हमेशा उस पर विश्वास कर के अपने घर का सपना देखती रही थी.

आखिरकार, वह मुबारक दिन आ ही गया था. लेकिन जमीन की रजिस्ट्री होने लगी, तो बेटे ने कहा, ‘मम्मी रजिस्ट्री तो सुनंदा के नाम से करवाते हैं, लोन लेने में आसानी होगी. वह नौकरी करती है न.’ ‘लेकिन, पैसा तो पापा का भी लग रहा है,’ सोच ही सकी पर मुंह से बोल नहीं पाई, क्योंकि उस से पहले ही पति बोल पड़े, ‘कोई बात नहीं. किसी के नाम भी करवाओ. घर तो बन ही रहा है न. वैसे भी, हमारा जो है वो इसी का तो है.’ ‘मेरा मन चीखने लगा, मेरी दीवारें कहां हैं?’ सालों तक इंतजार करने के बाद भी मेरे हाथ कुछ नहीं आया, दीवारें तक नहीं. घर बन कर तैयार हो गया था. मैं स्वार्थी नहीं थी और न ही अपने बेटे के बारे में कुछ बुरा सोच सकती थी. पर इस मन का क्या करती जो बरसों से एक ही आस मन में लगाए बैठा था कि मेरी भी अपनी दीवारें होंगी और उन दीवारों को मैं अपने हिसाब से सजा सकूंगी. लेकिन बेटे के लिए मन की सारी कुंठाएं मिटा कर उस का घर बनने का इंतजार करती रही. मुझे वह दिन याद आ रहा था जब मैं ने इस घर में बदलाव लाना चाहा था. तब मेरी सास ने साफ इनकार कर दिया. ‘इस घर में कुछ भी बदलाव नहीं होगा, यह मेरा घर है और इस में वही होगा जो मैं चाहूंगी.’ उन की वह रोबीली आवाज आज तक मेरे कानों में गूंज जाती है और उन के मरने के इतने सालों बाद भी मैं इस घर में कुछ भी नहीं बदल सकी. कुछ दिनों पहले सोफे बदलने चाहे थे तो पति ने मना कर दिया, ‘अरे, अब इस पुराने घर में पैसा लगाने का क्या फायदा. नया घर बनवाएंगे, तो फिर सोफे भी बनवा लेना.’ मन फिर से उलझ गया, ठीक ही तो है, पुराने घर में पुराने सोफे ही तो चलेंगे. नए घर में नए सोफे की बात करनी चाहिए.’ ठीक है, पर यह नया घर कब बनेगा और मुझे नई दीवारें कब मिलेंगी. अब तो जीवन की संध्या आ गई है.

बेटे का घर बन कर तैयार हो गया था. बेटे का इसलिए क्योंकि इस घर में कुछ पैसों के अलावा मेरी पसंद का कुछ भी नहीं था. सबकुछ बेटे और बहू ही पसंद कर के लाते थे. मैं मां थी, अपने ही बच्चे से ईर्ष्याभाव कैसे रख सकती थी. पर इस मन का क्या करूं जो सदा से कुछ अपनी दीवारें चाहता था. गृहप्रवेश का समय तय हो गया था. ‘मम्मा, आप जल्दी आना. आप को ही पहले घर में प्रवेश करना है,’ बेटे का मान करना अच्छा लगा था. पर गाड़ी लेट हो गईर् थी. घर में सुनंदा की मां प्रवेश कर चुकी थी. ‘आप देर से आईं, तो किसी बुजुर्ग को घर में प्रवेश करना था, सो, मोहित जिद कर के मुझे पहले ले आया था,’ उस की बात मुझे कांटे की तरह चुभी थी. पता नहीं वह व्यंग्य कर रही थी या शायद ऐसे ही कहा था पर मेरा मन ऐसा रोया कि पूरे समय मैं व्याकुल ही रही थी. ‘कैसा लगा घर, मम्मी,’ रात को मोहित पूछ रहा था. एक कमरा मेरा भी बनाया गया था, उसे ही देख कर खुश हो रही थी. ‘बहुत अच्छा बना है, बेटा,’ मैं खुश हो कर बोली थी. ‘यह घर आप का है, आप ही इस घर की मालकिन हैं, यह कमरा आप का है. जब आप आएंगी तो इस में रहेंगी.’ मैं खुश हो गई थी. अभी भी बेटे और बहू को मेरी परवा है, ऐसे ही गलत सोच रही हूं मैं, कभी नाखून भी मांस से जुदा होते हैं.’ ‘क्या सोच रही हो, मम्मी, आप का जब तक मन करेगा, यहीं रहें न,’ बेटे ने फिर से कहा. उदास हो गई थी मैं. क्या यह कहना जरूरी था. हां बेटा, ये दीवारें तू ने बड़ी मेहनत से खड़ी की हैं और अब इन दीवारों पर मेरा हक कहां, ‘नहीं बेटा, ज्यादा नहीं रह पाऊंगी, तुम्हारे पापा तो चले जाएंगे और फिर उन्हें अकेला भी तो छोड़ा नहीं जा सकता.’ कनखियों से देखा बहू और बेटे के चेहरे पर सुकून की रेखा नजर आई. सच ही तो है, जितना भी चुप रहो, पास बैठ कर कुछ तो मुंह से निकल ही आता है, ‘सुनंदा, हाथ धो कर रसोई में जाया करो.’ सुनंदा ऐसे मुंह बनाती जैसे मुझ पर एहसान कर रही हो. मन मायूस हो जाता. ‘सुनंदा रात को कपड़े बाहर से उठा लिया करो इतनी मेहनत से धुलते हैं और रात को ओस से गीले हो जाते हैं,’ फिर बोल पड़ी थी. ‘जी मम्मी’ पर लगता है यह बात भी उसे पसंद नहीं आई थी.

तभी तो सुबह तक कपड़े बाहर ही पड़े थे. फिर मन कह उठा, चुप रहा कर ज्यादा मत बोला कर. ऐसे ही कई छोटीछोटी बातें थीं. जिन्होंने मन को छलनी कर दिया था. हफ्ताभर भी न रह पाई थी बच्चों के पास. शायद, मैं ज्यादा ही दखलंदाजी करने लगी थी. पर मेरी सास भी तो करती थी और मेरी हिम्मत नहीं होती थी उन्हें कुछ कहने की और उन की बात तो जैसे मेरे लिए पत्थर की लकीर होती थी. अगर कभी कुछ मना करने की सोचो भी, तो पति से डांट अलग पड़ती थी. पर वो ही पति अपनी बहू के लिए कैसी अलग सोच रखने लगे हैं. शायद जमाना बदल गया है. पर मेरे लिए क्यों नहीं बदला. शायद, मैं ही नहीं बदल पाई हूं या फिर मैं ने सब से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा रखी हैं या फिर पता नहीं क्यों. लेकिन कुछ तो है जो मुझे तकलीफ देता है और मैं उस तकलीफ से बाहर आना भी नहीं चाहती. हफ्ते बाद ही मेरे जाने का समय आ गया था. ‘मम्मी, जा कर फोन कर देना,’ बेटे ने चिंता व्यक्त की. ‘हां जरूर, अपना खयाल रखना.’ अब मैं वापस अपनी दीवारों के पास जा रही थी.

छोटे रिश्ते बड़े काम : भाग 1

वह 13 वर्ष बाद शहर जा रहे थे. इस से पहले इरा के जन्म पर राकेश आ कर उन्हें लिवा ले गया था. आज लग रहा है कि पूरा एक युग समाप्त कर के वह एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं. ऐसा युग जो उन के कंठ से निकल कर एक समूची सृष्टि का सृजनकर्ता बन जाता था.

अपने कसबे के वहीं एकमात्र संगीतज्ञ थे. आंख मूंद कर ध्रुपद का आलाप जब वह लेते थे तो जानकार लोग झूमझूम उठते थे. सीधे हाथ की उंगलियां तानपुरे पर फिसलती रहतीं और कंठ का माधुर्य जनमानस पर बिखरता चला जाता.

कसबे में कोई प्रदर्शनी आती तो संगीत के कार्यक्रम का आरंभ उन के ही किसी गौड़सारंग या ठुमरीदादरा से होता. अंत भी उन की ही भैरवी से किया जाता. बीच में कितने ही संगीतज्ञ अपने कंठ का जादू वहां फैलातेपर कसबे वालों की वाहवाह तो उन के मंच पर पहुंचने के बाद ही सुनाई देती. उन के कंठ की यही विशेषता थी कि जो शास्त्रीय संगीत नहीं समझते थेवे भी उन के स्वर में डूब जाते थे.

बीती हुई बातें अपनेआप में पूरा एक इतिहास छिपाए हुए हैं और उसे जब भी वह दोहराने बैठते हैं तो सब से पहले उभरता है पद्मिनी का चेहरा.पद्मिनी की याद आते ही उन का एकाकी संसार सुधियों के सागर से भर उठता है. घर का कोनाकोना जैसे महक उठता हैऔर वह गीली हो उठी आंखें मूंद कर कहते हैं, ‘‘पद्माइतनी जल्दी भी क्या थी तुम्हें जाने की.’’

राकेश स्टेशन पर लेने आ गया था. उन्होंने स्नेह से उसे गले लगा लिया. चरण छू कर राकेश ने कहा, ‘‘अच्छा किया आप नेआ गए.’’‘‘हांतुम ने जिद की इलाज करवाने कीफिर क्या करताआना ही पड़ा,’’ वह अतिरिक्त प्यार उड़ेल कर बोले और राकेश के साथ जा कर कार में बैठ गए.

राकेश शहर का नामी वकील है. दो बच्चे हैं – इरा और लव. लव 7 वर्ष का हैपर उस के जन्म पर वह शहर नहीं पहुंच सकेन बहू ही उस के बाद उन के पास आई. राकेश बीच में एक  बार आया था. राकेश को भर दृष्टि प्यार से देखते वह समझते हैं. उस के चेहरे पर जैसे पद्मा के चेहरे की छाप है. वही नयननक्शवही हंसी.

कच्ची अवस्था में ही उन का व पद्मा का ब्याह हो गया था. कसबे के विद्यालय में वह संगीत के अध्यापक थे. वेतन अधिक नहीं थापर ट्यूशनें बहुत मिल जाती थींजिस से दोनों पतिपत्नी खूब अच्छा जीवन जी लेते थे.

उन के पिता भी अच्छे संगीतज्ञ थे और वह भी चाहते थे कि उन का इकलौता बेटा राकेश संगीतज्ञ ही बने. बच्चे तो बहुत हुएपर बचा केवल राकेश ही था. पद्मा की इच्छा पर ही उस ने वकालत पढ़ी थी. पद्मा चाहती थीराकेश संगीत भी जानेपर उसे जीवनयापन का साधन न बनाए. उस का बेटा अपार धन का स्वामी होकुछ ऐसी ही महत्त्वाकांक्षा थी उस की.

घर पहुंच कर दो प्यारेप्यारे बच्चों ने उन का स्वागत किया. उन्होंने ध्यान से देखाकैसा सु़ंदरकितने चुस्त हैं बच्चे. भला कसबे का गवैया अध्यापक बन कर राकेश के बच्चे इतने अच्छे दिखार्ई देतेउन्हें अहसास है उस दुख का. सीमित वेतन और ट्यूशनों के बल पर किस तरह उन्होंने राकेश को वकालत पढ़ाई थी. सोचाअच्छा ही किया पद्मा नेइसे गवैया नहीं बनने दिया. वैसेसंगीत की शिक्षा राकेश को भी दी है उन्होंने.

बहू ममता आंचल सिर पर डाल कर उन के पैर छूने झुकी तो वह विचारों की श्रृंखला तोड़ चौंक उठेबोले, ‘‘सदा सुखी रहो. बड़ा सुंदर घर बनाया हैबेटीआज तुुहारी सास होती…’’ और वह चुप हो गए.

छुट्टी का दिन था. घर के उद्यान में नौकर ने कुरसियां डाल दी थीं. बच्चे भागभाग कर हरीहरी घास में खेल रहे थे और वह मंत्रमुग्ध भाव से देख रहे थेे. इतने दिनों तक वह पद्मा की याद लिए उसी घर में पड़े रहे. वहां से कहीं जाने का मन ही नहीं होता था. पद्मा की चूड़ियों की खनकउस की प्यार भरी मीठी हंसीसुखदुख में सहारा देती मधुर वाणीउन्हें जैसे हर पल घेरे रहती. पैर में गठिया का रोग न बढ़ जाता तो शायद अब भी वह नहीं आते.

थोड़ी देर में ही हाल में गिटार की मधुर गूंज उन्हें तड़पा गई. शायद इरा बजा रही है और लोग सांस रोक कर सुन रहे हैंतभी तो सारी आवाजें बंद हैं. उन का मन हुआतुरंत उठ कर देखेंइरा कैसी लग रही हैइतने लोगों के बीच में गिटार बजाती हुई. कोई बात नहींजो इरा को वह कुछ नहीं सिखा सकेपर प्रशंसा के योग्य तो वह है ही.

आधे घंटे तक वहां गिटार और केसियो पर पौप’ संगीत ही गूंजता रहा. फिर अचानक ही बीच का परदा खिंचा और भिड़ा हुआ दरवाजा एकदम खुल गया. कमरा किशोरकिशोरियों से भर गया था. इरा आगेआगे फुदकती हुई कह रही थी, ‘‘यही हैं हमारे बाबाजीअपने घर पर सब को संगीत सिखाते थेपर अब नहीं गाते.’’‘शायद इरा को कुछ समझाना राकेश व बहू भूल गए होंगेतभी तो मेरे दर्शनार्थ अपने साथियों को वह यों समेट लाई है,’

खुसरो दरिया प्रेम का : भाग 1

63वें जन्मदिन पर अगर 18 साल की उम्र का पहला प्यार फेसबुक पर ढूंढ़ कर इतनी उम्र बीत जाने के बाद अचानक फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दे तो किसे हैरानी नहीं होगी। अपने लैपटौप पर माद्री एकटक अभिमन्यु का नाम देख रही थी। अभिवही है न… प्रोफाइल देखी तो समय के साथ आए कई बदलावों के बावजूद आसानी से पहचान लिया। यह चेहरा कौन सा स्मृतियों से कभी अलग हुआ था। जेहन में कुंडली मार कर तो बैठा रहा हमेशा। रिक्वैस्ट ऐक्सेप्ट करते ही मन सालों पहले के सफर पर उड़ चला। अभिमन्यु ने इतने में ही मैसेंजर पर मैसेज भेज दिया, “कैसी हो माद्री?”

ठीक हूं। कहां हो?”“पूना… और तुम?”“मुंबई।”“यह मेरा मोबाइल नंबर हैबात करोगी?”“क्यों नहींतुम कहां खो गए थेअभिमैं ने तुम्हें कितना ढूंढ़ा। तुम्हारा कभी कुछ पता ही नहीं चला।”“अभी दुकान पर हूंशाम को फोन करता हूं।अभी मेरा बेटा विराज मेरे साथ ही दुकान पर बैठा हुआ हैउस के सामने बात नहीं कर पाऊंगा।

डरते हो अब भी?”“हांडरना तो पड़ता ही हैसमाज के आज भी कुछ नियम हैंतब भी थेहमेशा रहेंगे।”“तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?”“पत्नी नीताबेटा विराजउस की पत्नी मधु और 2 पोतेपोती मानन और तनिका। तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?”

पति पुष्कर अब रिटायर हो चुके हैं। बेटा अंकित अपने परिवार के साथ कनाडा में रहता है। घर में अब हम दोनों ही हैं। मैं भी टीचर रहीअब तो रिटायर हो चुकी हूं।”“ठीक हैशाम को फोन करूंगा।”“अरेसुनोजन्मदिन मुबारक हो।”

तुम्हें याद है अब तक?”“तुम्हें भूला ही कब था?”माद्री के दिल पर ये शब्द जैसे शीतल फुहार से बरसे। मैं इसे याद रही। यह भी मुझे नहीं भूला था। ओहहम क्यों जुदा हुए…काश…लैपटौप बंद कर माद्री अजीब सी मनोदशा में उठी और बालकनी में रखी चेयर पर आंखें बंद कर बैठ गईं। हैरान थींयह क्या हो गयाअभि यों अचानक कैसे मिल गया। ऐसे भी होता है क्याजिसे ढूंढ़तेढूंढ़ते जीवन निकल गयाजिस का कभी कुछ सुराग न मिलावह यों सामने आ गया। वह भी जीवन के इस मोड़ पर। इस अवस्था में जब कोई ख्वाहिश शेष न रही।

भाभी चैताली का कजिन था अभिमन्यु। भाभी को अपने भाई की आंखों में जब माद्री के लिए कोमल भाव दिखेवह मन ही मन इस बात से इतनी चिढ़ गई कि जब भी अभिमन्यु आतावह सिर पर खड़ी रहतीं। दोनों ही उस समय 18-19 की उम्र के रहे होंगे। फिर दोनों ने अपने दिल की बात कहने के लिए खतों का सहारा लिया थाउस की भी भनक चैताली को पड़ गई थी। उस ने साफसाफ अभिमन्यु को आने के लिए मना कर दिया था। उस के मन में न जाने क्यों कभी किसी के लिए कोमल भाव आता ही नहीं था। फिर अभिमन्यु पढ़ने के लिए कहीं चला गया था। वह पत्र लिखता पर सब चैताली के हाथ लग जाते।

माद्री के मातापिता ने चैताली के बारबार कहने पर माद्री की शादी करने के विचार का समर्थन किया था। वे खुश थे कि भाभी को ननद की शादी की बड़ी चिंता है। माद्री धीरेधीरे यही सोचने लगी कि अभिमन्यु उसे भूल गया है। वह जीवन में उस के साथ आगे नहीं बढ़ना चाहता। ऐसा कोई वादा भी नहीं किया गया था जिस के सहारे माद्री अभिमन्यु की राह देखती। अभिमन्यु के जाने के बाद फिर लखनऊ शहर माद्री के लिए जैसे उस के सपनों का कब्रिस्तान हो गया। उस ने अभिमन्यु को इतना चाहा था कि वह जैसे उस के तनमन से हमेशा ही जुड़ा रहा। यह माद्री के प्रेम की पराकाष्ठा थी कि अभिमन्यु के उस के जीवन से जाने के बाद वह सिर्फ देखने में जीवित रहीमन तो कब का मर चुका था।

पुष्कर इतने सज्जन पति थे कि माद्री की यह प्रेमकथा सुनने के बाद भी न कभी उसे कोई ताना मारान कोई कटु शब्द कहे। जो बीत गईसो बात गई‘ में यकीन रखते थे। वैसे भी माद्री ने अपने सब फर्ज अच्छी तरह से निभाए थे।

इतने में पुष्कर के आने की आहट से माद्री ने आंखें खोलीं। पुष्कर ने उसे इतना खोए हुए देख कर पूछा, “बड़ी चिंता में लग रही होतबीयत तो ठीक है न?”माद्री ने कभी पुष्कर से कुछ नहीं छिपाया थाआज भी उन्हें बैठने का इशारा करते हुए कहा, “सुनोबताओ आज फेसबुक पर कौन मिला?”

पुष्कर हंसे, “पहले यह साफ करोमिली या मिला?”“मिला।”“कोई पुराना स्टूडैंट?”“नहीं।”“तुम्हीं बताओ।”“अभिमन्यु…पुष्कर ने शांत स्वर में कहा, “अच्छाकहां है आजकल?”“पूना,” माद्री के चेहरे की रौनक अभिमन्यु के नाम से कितना बढ़ गईयह पुष्कर ने देखा। बहुत सालों बाद उस के स्वर में यह खनक थी। वे हैरान से माद्री का चेहरा देखते रहे। वे वहां से इस समय हट जाना चाहते थेपता नहीं क्यों… पूछा, “चाय पीओगीबना कर लाऊं?”“हां…

पुष्कर चाय बनाने किचन में चले गए। उन्हें इस समय अपने मन को समझाने के लिए कुछ पल चाहिए थेयही तो कर रहे हैं वे सालों से। माद्री के साथ सामंजस्य बैठातेबैठाते वे मन ही मन थकने लगते हैं पर माद्री को खुश देखने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैंकुछ भी। अब भी उन्होंने चाय बनाते हुए अपने से ही मन ही मन बात की। अच्छा लगा होगा माद्री को जब अभिमन्यु ने उसे आज उस के जन्मदिन पर उस से संपर्क किया। किसे अच्छा नहीं लगेगा। उन्हें कोई ऐसे ढूंढ़ता तो वे भी तो खुश होते। यह अलग बात है कि माद्री के सिवा उन के जीवन में कभी कोई और लड़की आई ही नहीं।

माद्री से विवाह के बाद वे पूरी तरह से घरपरिवार को समर्पित इंसान रहे। माद्री ने उन्हें जब अभिमन्यु के बारे में बताया तो भी उन्होंने उस के असफल प्रेम से सहानुभूति ही हुई। वे हमेशा से बहुत सहृदयशांतगंभीर इंसान थे। माद्री की हर सुविधा का उन्होंने हमेशा बहुत ध्यान रखा था पर माद्री के दिल का एक कोना हमेशा अभिमन्यु के लिए छटपटाता ही रहा।

लोचाय पीयो,”पुष्कर की आवाज से माद्री भी वर्तमान में लौटी।क्या सोच रही हो?”माद्री ने मुसकराते हुए कहा, “आज का जन्मदिन तो अभिमन्यु ने स्पैशल बना दियाचलोअब बाहर चल कर बढ़िया डिनर करते हैं,” माद्री ने हमेशा ही पुष्कर से साफसाफ मन की बात की थीबिना किसी लागलपेट के। वह आज क्यों खुश थींयह भी माद्री ने सहर्ष स्वीकार किया। कनाडा से अंकितउस की पत्नी स्वरा और पोती फ्रेया ने उसे फोन पर विश कर ही दिया था। डिनर करने के लिए आज पुष्कर ने माद्री की पसंद का रेस्तरां बुक किया था। वह तैयार हो कर जैसे ही पर्स उठाने लगीअभिमन्यु का फोन आया। पुष्कर तैयार हो कर सोफे पर बैठे थे। माद्री “अभिमन्यु का फोन है,”कहते हुए वापस अंदर बैडरूम में चली गई। दोनों ने सालों बाद एकदूसरे की आवाज सुनीउम्र के अच्छेखासे अंतराल के बाद भी दोनों के मन में जो भाव थेदोनों महसूस कर रहे थेजैसे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं थी। दूर बैठे दोनों एकदूसरे का मन पढ़ रहे थे। दोनों ने आधे घंटे बात कीतय हुआअब बातें होती ही रहेंगी।

पुष्कर इस दौरान चुपगंभीर बैठे रहे थे। माद्री के स्वभाव में धैर्यस्थिरता नहीं थी। उन्हें गुस्सा भी जल्दी आतायह वे भी समझ गए थे। माद्री बिना आगापीछा सोचे फैसले लेने में भी जल्दबाजी करती थी। इस आदत के चलते उन से ज्यादा दिन कोई जुड़ा न रह पातापड़ोसीरिश्तेदार अगर मतलब रखते तो सिर्फ पुष्कर के स्वभाव के कारण।

आप भी तो नहीं आए थे : भाग 1

‘जो जैसा बोता है वैसी ही फसल काटता है,’ बड़े भैया आज दुखी थे. उन का घर उजड़ गया था. बेटे अपनी मां का मरा मुंह देखने भी न आए. क्या इस सब के लिए अप्रत्यक्ष रूप से वही दोषी नहीं थे?

सुबह 6 बजे का समय था. मैं  अभी बिस्तर से उठा ही था कि फोन घनघना उठा. सीतापुर से बड़े भैया का फोन था जो वहां के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे.

वह बोले, ‘‘भाई श्रीकांत, तुम्हारी भाभी का आज सुबह 5 बजे इंतकाल हो गया,’’ और इतना बतातेबताते वह बिलख पड़े. मैं ने अपने बड़े भाई को ढाढ़स बंधाया और फोन रख दिया.

पत्नी शीला उठ कर किचन में चाय बना रही थी. उसे मैं ने भाभी के मरने का बताया तो वह बोली, ‘‘आप जाएंगे?’’

‘‘अवश्य.’’

‘‘पर बड़े भैया तो आप के किसी भी कार्य व आयोजन में कभी शामिल नहीं होते. कई बार लखनऊ आते हैं पर कभी भी यहां नहीं आते. इतने लंबे समय तक मांजी बीमार रहीं, कभी उन्हें देखने नहीं आए, उन की मृत्यु पर भी नहीं आए, न आप के विवाह में आए,’’ शीला के स्वर में विरोध की खनक थी.

‘‘पर मैं तो जाऊंगा, शीला, क्योंकि मां ऐसा ही चाहती थीं.’’

‘‘ठीक है, जाइए.’’

‘‘तुम नहीं चलोगी?’’

‘‘चलती हूं मैं भी.’’

हम तैयार हो कर 8 बजे की बस से चल पड़े और साढ़े 10 तक सीतापुर पहुंच गए. बाहर से आने वालों में हम ही सब से पहले पहुंचे थे, निकटस्थ थे, अतएव जल्दी पहुंच गए.

भैया की बेटी वसुधा भी वहीं थी, मां की बीमारी बिगड़ने की खबर सुन कर आ गई थी. वह शीला से चिपट कर रो उठी.

‘‘चाची, मां चली गईं.’’

शीला वसुधा को सांत्वना देने लगी, ‘‘रो मत बेटी, दीदी का वक्त पूरा हो गया था, चली गईं. कुदरत का यही विधान है, जो आया है उसे एक दिन जाना है,’’ वह अपनी चाची से लगी सुबकती रही.

इन का रोना सुन कर भैया भी बाहर निकल आए. उन के साथ उन के एक घनिष्ठ मित्र गोपाल बाबू भी थे और 2-3 दूसरे लोग भी. भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे.

‘‘चली गई, बहुत इलाज कराया पर बचा न सका, कैंसर ने नहीं छोड़ा उसे.’’

मैं उन की पीठ सहलाता रहा.

थोड़ा सामान्य हुए तो बोले, ‘‘तन्मय (उन का बड़ा बेटा) को फोन कर दिया है. फोन उसी ने उठाया था पर मां की मृत्यु का समाचार सुन कर दुखी हुआ हो ऐसा नहीं लगा. कुछ भी तो न बोला, केवल ‘ओह’ कह कर चुप हो गया. एकदम निर्वाक्.

‘‘मैं ने ही फिर कहा, ‘तन्मय, तू सुन रहा है न बेटा.’

‘‘ ‘जी.’ फिर मौन.

‘‘कुछ देर उस के बोलने की प्रतीक्षा कर के मैं ने फोन रख दिया. पता नहीं आएगा या नहीं,’’ कह कर भैया शून्य में ताकने लगे.

बेटी वसुधा बोल उठी, ‘‘आएंगे… आएंगे…आखिर मां मरी है भैया की. मां…सगी मां, मां की मृत्यु पर भी नहीं आएंगे.’’

वह बोल तो गई पर स्वर की अनुगूंज उसे खोखली ही लगी, वह उदासी से भर गई.

इतने में चाय आ गई. सब चाय पीने लगे.

भैया के मित्र गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘कैंसर की एक से एक अच्छी दवाएं ईजाद हो गई हैं. तमाम डाक्टर दावा करते हैं कि अब कैंसर लाइलाज नहीं रहा…पर बचता तो शायद ही कोई मरीज है.’’

भैया बोल उठे, ‘‘आखिरी 15 दिनों में तो उस ने बहुत कष्ट भोगा. बहुत कठिनाई से प्राण निकले. वह तन्मय से बहुत प्यार करती थी उस की प्रतीक्षा में आंखें दरवाजे की ओर ही टिकाए रखती थी. ‘तन्मय को पता है न मेरी बीमारी के बारे में,’ बारबार यही पूछती रहती थी. मैं कहता था, ‘हां है, मैं जबतब फोन कर के उसे बतलाता रहता हूं.’ ‘तब भी वह मुझे देखने…मेरा दुख बांटने क्यों नहीं आता? बोलिए.’ मैं क्या कहता. पूरे 5 साल बीमार रही वह पर तन्मय एक बार भी देखने नहीं आया. देखने आना तो दूर कभी फोन पर भी मां का हाल न पूछा, मां से कोई बात ही न की, ऐसी निरासक्ति.’’

कहतेकहते भैया सिसक पड़े.

‘भैया, ठीक यही तो आप ने किया था अपनी मां के साथ. वह भी रोग शैया पर लेटी दरवाजे पर टकटकी लगाए आप के आने की राह देखा करती थीं, पर आप न आए. न फोन से ही कभी उन का हाल पूछा. वह भी आप को, अपने बड़े बेटे को बहुत प्यार करती थीं. आप को देखने की चाह मन में लिए ही मां चली गईं, बेचारी, आप भी तो निरासक्त बन गए थे,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठा.

सुलझते रिश्ते : भाग 1

आज संडे की छुट्टी में पार्क में अखिल और हर्षदा सुकून के पल बिता रहे थे. अखिल की गोद में लेटी हर्षदा उस के शर्ट के बटन से खेल रही थी, तो अखिल प्यार से हौलेहौले उस के बालों में उंगलियां फिरा रहा था. जब भी ये दोनों एकसाथ होते, तब सारी दुनिया भुला कर एकदूसरे में इस कदर खो जाते कि इन्हें यह भी याद नहीं होता था कि ये कहां हैं और इन के आसपास कौन लोग हैं.

“अखिल, बताओ तो…” हर्षदा बोली, “इन कपड़ों में मैं कैसी लग रही हूं? और ये कलर मुझ पर सूट कर रहा है न?”

“बहुत खूब…” अखिल ने आंखें बड़ी करते हुए कहा, “तुम तो हर कपड़ों में अच्छी लगती हो, क्योंकि तुम इतनी खूबसूरत जो हो. वैसे, तुम कुछ नहीं भी पहनोगी तो भी अच्छी ही लगोगी,” बोल कर अखिल खिलखिला कर हंस पड़ा.

“पागल…” हर्षदा एक प्यार की चपत अखिल के गाल पर लगाते हुए बोली, “कुछ भी बोलते हो न… अच्छा, ये सब छोड़ो, यह बताओ कि हम अपने बच्चे का नाम क्या रखेंगे?”

“बच्चे का नाम…?” अखिल सोचने लगा, फिर बोला, “बेटी हुई, तो टुकटुक और बेटा हुआ जिआन. है न कितना प्यारा नाम?”

“एकदम बकवास…’’ हर्षदा उठ बैठी और मुंह बना कर बोली, “टूकटूक और जिआन. ये भी कोई नाम हुए? हम अपने बच्चे का नाम एकदम स्टाइलिश रखेंगे. जैसे, अगर बेटी हुई तो अरिका, जीविका या महिका रखेंगे. और अगर बेटा हुआ तो हम उस का नाम अहान, युग या रेयान रखेंगे. बोलो, है न कितने प्यारेप्यारे नाम.“

“अरे, बाप रे बाप, इतने नाम कहां से सीखे तुम ने? लगता है, काफी सर्च किया है,” कहते हुए अखिल हंस पड़ा.

“सर्च नहीं किए, बल्कि ये सब नाम मेरी सहेलियों के बच्चों के और सोसाइटी के बच्चों के हैं, जो मुझे बहुत अच्छे लगे और तभी मैं ने सोच लिया कि जब हमारा बच्चा होगा न…

“बस… बस,” हर्षदा को बीच में ही टोकते हुए अखिल बोला, “बच्चे आने से पहले हमारी शादी तो हो जाने दो. वैसे, तुम कहो तो मैं अभी इसी वक्त यहीं पर तुम्हारे साथ सात फेरे लेने को तैयार हूं. और… और फिर हनीमून भी यहीं मना लेते हैं, क्यों?” शरारती अंदाज में मुसकराते हुए अखिल ने हर्षदा को चूम लिया, तो वह शरमा गई.

“धत… तुम भी न, बहुत बेशर्म हो,” हर्षदा ने उसे हौले से धक्का देते हुए कहा, “न जगह देखते हो और न कुछ, बस शुरू हो जाते हो.“

“अब इस में बेशर्म वाली क्या बात हो गई? तुम मेरी होने वाली बीवी हो,” बोल कर वह फिर हर्षदा को चूमने लगा, तभी वह उस की पकड़ से छूट कर दूर हट गई और अंगूठा दिखाते हुए बोली कि अब पकड ़कर दिखाओ तो जाने.

“अच्छाजी, तो मुझे चैलेंज किया जा रहा है… तो अब देखो,” बोल कर वह हर्षदा के पीछे भागा, तो वह उस से बचने के लिए और तेज भागी और एकदम से लड़खड़ा कर जमीन पर गिर पड़ी.

“अरे,” बोल कर अखिल उसे उठाने को दौड़ा.

“बहुत चोट आई क्या…?” उस ने पूछा, तो हर्षदा ‘नहीं’ में सिर हिला कर उठने लगी कि फिर गिर पड़ी. अखिल को लगा कि कहीं उस का पैर फ्रेक्चर तो नहीं हो गया. इसलिए उसे गोद में उठा कर बेंच पर बैठा दिया और उस का पैर रगड़ने लगा.

“कैसा लग रहा है अब? चल पाओगी न अब?’’ उसे सहारा दे कर खड़ा करते हुए अखिल बोला. लेकिन शुक्र था कि उसे कुछ नहीं हुआ. पैर एकदम सहीसलामत थे, बस जरा सी खंरोच लग गई थी.“ओह, मैं तो डर ही गया था,” अखिल ने अपने दोनों कान पकड़ते हुए सौरी कहा, तो हर्षदा खिलखिला कर हंस पड़ी. वह बोली, “अरे, इतनी छोटी सी बात पर सौरी क्यों? वैसे, मैं तो तुम्हें शेर समझती थी, लेकिन तुम तो चूहा निकले. डरपोक कहीं के,” हर्षदा की बात पर अखिल की हंसी छूट गई.

“मेरे जरा सा गिरने पर तुम इतना घबरा गए, तो मैं जब तुम से एक साल के लिए दूर हो जाऊंगी, फिर क्या करोगे तुम? कैसे रहोगे मेरे बगैर?”

“पता नहीं यार, सोचता भी नहीं हूं इस बारे में, क्योंकि सोच कर ही दिल कांप उठता है कि एक साल तुम्हारे बिना मैं कैसे रहूंगा?ं” बोलते हुए अखिल भावुक हो उठा, तो हर्षदा की भी आंखें गीली हो गईं. वह कहने लगी कि उसे भी कहां उस से दूर जाने का मन हो रहा है. लेकिन मजबूरी है, इसलिए जाना पड़ रहा है.

मेरी खातिर : भाग 1

‘‘निक्कीतुम जानती हो कि कंपनी के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं छोटेछोटे कामों के लिए बारबार बौस के सामने छुट्टी के लिए मिन्नतें नहीं कर सकता हूं. जरूरी नहीं कि मैं हर जगह तुम्हारे साथ चलूं. तुम अकेली भी जा सकती हो न. तुम्हें गाड़ी और ड्राइवर दे रखा है… और क्या चाहती हो तुम मुझ से?’’

‘‘चाहती? मैं तुम्हारी व्यस्त जिंदगी में से थोड़ा सा समय और तुम्हारे दिल के कोने में अपने लिए थोड़ी सी जगह चाहती हूं.’’

‘‘बस शुरू हो गया तुम्हारा दर्शनशास्त्र… निकिता तुम बात को कहां से कहां ले जाती हो.’’

‘‘अनिकेत, जब तुम्हारे परिवार में कोई प्रसंग होता है तो तुम्हारे पास आसानी से समय निकल जाता है पर जब भी बात मेरे मायके जाने की होती है तो तुम्हारे पास बहाना हाजिर होता है.’’

‘‘मैं बहाना नहीं बना रहा हूं… मैं किसी भी तरह समय निकाल कर भी तेरे घर वालों के हर सुखदुख में शामिल होता हूं. फिर भी तेरी शिकायतें कभी खत्म नहीं होती हैं.’’

‘‘बहुत बड़ा एहसान किया है तुम ने इस नाचीज पर,’’ मम्मी के व्यंग्य पापा के क्रोध की अग्निज्वाला को भड़काने का काम करते थे.

‘‘तुम से बात करना ही बेकार है, इडियट.’’

‘‘उफ… फिर शुरू हो गए ये दोनों.’’

‘‘मम्मा व्हाट द हैल इज दिस? आप लोग सुबहशाम कुछ देखते नहीं… बस शुरू हो जाते हैं,’’ आंखें मलते हुए अनिका ने मम्मी से कहा.

‘‘हां, तू भी मुझे ही बोल… सब की बस मुझ पर ही चलती है.’’

पापा अंदर से दरवाजा बंद कर चुके थे, इसलिए मुझे मम्मी पर ही अपना रोष डालना पड़ा था.

अनिका अपना मूड अच्छा करने के लिए कौफी बना, अपने कमरे की खिड़की के पास जा खड़ी हो गई. उस के कमरे की खिड़की सामने सड़क की ओर खुलती थी, सड़क के दोनों तरफ  वृक्षों की कतारें थीं, जिन पर रात में हुई बारिश की बूंदें अटकी थीं मानो ये रात में हुई बारिश की चुगली कर रही हों.

अनिका उन वृक्षों के हिलते पत्तों को, उन पर बसेरा करते पंछियों को, उन पत्तियों और शाखाओं से छन कर आती धूप की उन किरणों को छोटी आंखें कर देखने पर बनते इंद्रधनुष के छल्लों को घंटों निहारती रहती. उसे वक्त का पता ही नहीं चलता था. उस ने घड़ी की तरफ देखा 7 बज गए थे. वह फटाफटा नहाधो कर स्कूल के लिए तैयार हो गई. कमरे से बाहर निकलते ही सोफे पर बैठे चाय पीते पापा ने ‘‘गुड मौर्निंग’’ कहा.

‘‘गुड मौर्निंग… गुड तो आप लोग मेरी मौर्निंग कर ही चुके हैं. सब के घर में सुबह की शुरुआत शांति से होती पर हमारे घर में टशन और टैंशन से…’’ उस ने व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी भौंहें चढ़ाते हुए कहा.

‘‘चलिए बाय मम्मी, बाय पापा. मुझे स्कूल के लिए देर हो रही है.’’

‘‘पर बेटे नाश्ता तो करती जाओ,’’ मम्मी डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगाते हुए बोली.

‘‘सुबह की इतनी सुहानी शुरुआत से मेरा पेट भर गया है,’’ और वह चली गई. अनिका जानती थी अब उन लोगों के बीच इस बात को ले कर फिर से बहस छिड़ गई होगी कि सुबह की झड़प का कुसूरवार कौन है. दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराने पर तुल गए होंगे.

शाम को अनिका देर से घर लौटी. घर जाने से बेहतर उसे लाइब्रेरी में बैठ कर पढ़ना अच्छा लगा. वैसे भी वह उम्र के साथ बहुत एकांतप्रिय और अंतर्मुखी बनती जा रही थी. घर में तो अकेली थी ही बाहर भी वह ज्यादा मित्र बनाना नहीं सीख पाई.

‘‘मम्मी मेरा कोई छोटा भाईबहन क्यों नहीं है? मेरे सिवा मेरे सब फ्रैंड्स के भाईबहन हैं और वे लोग कितनी मस्ती करती हैं… एक मैं ही हूं… बिलकुल अकेली,’’ अनगिनत बार वह मम्मी से शिकायत कर अपने मन की बात कह चुकी थी.

‘‘मैं हूं न तेरी बैस्ट फ्रैंड,’’ हर बार मम्मी यह कह कर अनिका को चुप करा देतीं. अनिका अपने तनाव को कम करने और बहते आंसुओं को छिपाने के लिए घंटों खिड़की के पास खड़ी हो कर शून्य को निहारती रहती.

घर में मम्मीपापा उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. दरवाजे की घंटी बजते ही दोनों उस के पास आ गए.

‘‘आज आने में बहुत देर कर दी… फोन भी नहीं उठा रही थी… कितनी टैंशन हो गई थी हमें,’’ कह मम्मी उस का बैग कंधे से उतार कर उस के लिए पानी लेने चली गई.

‘‘हमारी इन छोटीमोटी लड़ाइयों की सजा तुम स्वयं को क्यों देती हो,’’ ?पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘किस के मम्मीपापा ऐसे होंगे, जिन के बीच अनबन न रहती हो.’’

‘‘पापा, इसे हम साधारण अनबन का नाम तो नहीं दे सकते. ऐसा लगता है जैसे आप दोनों रिश्तों का बोझ ढो रहे हो. मैं ने भी दादू, दादी, मां, चाची, चाचू, बूआ, फूफाजी को देखा है पर ऐसा अनोखा प्रेम तो किसी के बीच नहीं देखा है,’’ अनिका के कटाक्ष ने पापा को निरुत्तर कर दिया था.

‘‘बेटे ऐसा भी तो हो सकता है कि तुम अतिसंवेदनशील हो?’’

पापा के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने पापा से पूछा, ‘‘पापा, मम्मी से शादी आप ने दादू के दबाव में आ कर की थी क्या?’’

पापा को 20 साल पहले की अपनी पेशी याद आ गई जब पापा, बड़े पापा और घर के अन्य सब बड़े लोगों ने उन के पैतृक गांव के एक खानदानी परिवार की सुशील और पढ़ीलिखी कन्या अर्थात् निकिता से विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. घर वालों ने उन का पीछा तब तक नहीं छोड़ा था जब तक उन्होंने शादी के लिए हां नहीं कह दी थी.

पापा ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटे ऐसी कोई बात नहीं है… 19-20 की जोड़ी थी पर ठीक है. आधी जिंदगी निकल गई है आधी और कट ही जाएगी.’’

‘‘वाह पापा बिलकुल सही कहा आपने… 19-20 की जोड़ी है… आप उन्नीस है और मम्मा बीस… क्यों पापा सही कहा न मैं ने?’’

‘‘मम्मी की चमची,’’ कह पापा प्यार से उस का गाल थपथपा कर उठ गए.

उस दिन उस के जन्मदिन का जश्न मना कर सभी देर से घर लौटे थे. अनिका बेहद खुश थी. वह 1-1 पल जी लेना चाहती थी.

‘‘मम्मा, आज मैं आप दोनों के बीच में सोऊंगी,’’ कहते हुए वह अपनी चादर और तकिया उन के कमरे में ले आई. वह अपनी जिंदगी में ऐसे पलों का ही तो इंतजार करती थी. उस की उम्र की अन्य लड़कियों का दिल नए मोबाइल, स्टाइलिश कपड़े और बौयफ्रैंड्स के लिए मचलता था, जबकि अनकि को खुशी के ऐसे क्षणों की ही तलाश रहती थी जब उस के मम्मीपापा के बीच तकरार न हो.

पापा हाथ में रिमोट लिए अधलेटे से टीवी पर न्यूज देख रहे थे. मम्मी रसोई में तीनों के लिए कौफी बना रही थी.

तभी फोन की घंटी बजने लगी. अमेरिका से बूआ का वीडियोकौल थी. हमारे लिए दिन का आखिरी पहर था, जबकि बूआ के लिए दिन की शुरुआत थी उन्होंने अपनी प्यारी भतीजी को जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के लिए फोन किया था. बोली, ‘‘हैप्पी बर्थडे माई डार्लिंग,’’

मैं ने और पापा ने कुछ औपचारिक बातों के बाद फोन मम्मी की तरफ कर दिया.

‘‘हैलो कृष्णा दीदी,’’ कह कुछ देर बात कर मम्मी ने फोन रख दिया.

‘‘दीदी ने कानों में कितने सुंदर सौलिटेयर पहन रखे थे न, दीदी की बहुत मौज है.’’

‘‘दीदी पढ़ीलिखी, आधुनिक महिला है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है. खुद कमाती है और ऐश करती है.’’

जब भी बूआ यानी पापा की बड़ी बहन की बात आती थी पापा बहुत उत्साहित हो जाते थे. बहुत फक्र था उन्हें अपनी बहन पर.

‘‘आप मुझे ताना मार रहे हैं.’’

‘‘ताना नहीं मार रहा, कह रहा हूं.’’

‘‘पर आप के बोलने का तरीका तो ऐसा ही है. मैं ने भी तो अनिका और आप के लिए अपनी नौकरी छोड़ अपना कैरियर दांव पर लगाया न.’’

‘‘तुम अपनी टुच्ची नौकरी की तुलना दीदी की बिजनैस ऐडमिनिस्ट्रेशन की जौब से कर रही हो?’’ कहां गंगू तेली, कहां राजा भोज.

मम्मी कालेज के समय से पहले एक स्कूल में और बाद में कालेज में हिंदी पढ़ाती थीं. वे पापा के इस व्यंग्य से तिलमिला गईं.

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