उत्तर प्रदेश के बांदा से 14 दिसंबर को एक हैरानपरेशान करने वाली खबर सामने आई. बांदा में तैनात सिविल जज अर्पिता साहू ने इच्छामृत्यु की गुहार की है. इस के लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को चिट्ठी लिख कर गंभीर आरोप लगाए हैं. आरोप है कि सिविल जज अर्पिता साहू को बाराबंकी में तैनाती के दौरान शारीरिक और मानसिक यातना से गुजरना पड़ा. इस प्रताड़ना का आरोप उन्होंने खुद जिला जज पर लगाया है. उन्होंने आरोप लगाया कि रात में भी जिला जज ने मिलने के लिए दबाव डाला.

उन्होंने पत्र में लिखा, ‘मैं बड़े उत्साह के साथ न्यायिक सेवा में शामिल हुई. यह सोच कर कि मैं आम लोगों को न्याय दिला सकूंगी. पर मुझे क्या पता था कि न्याय के लिए मुझे ही हर दरवाजे का भिखारी बना दिया जाएगा. मैं बहुत निराश मन से लिख रही हूं.’

मामले की शुरुआत

अर्पिता साहू ने बताया कि 7 अक्टूबर, 2022 को बाराबंकी जिला बार एसोसिएशन ने न्यायिक कार्य के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित कर रखा था. उसी दिन सुबह साढ़े 10 बजे वह अदालत में काम कर रही थी. इसी दौरान बार एसोसिएशन के महामंत्री और वरिष्ठ उपाध्यक्ष कई वकीलों के साथ कोर्ट कक्ष में घुस आए. उन्होंने महिला जज के साथ बदसलूकी शुरू कर दी. गालीगलौज करते हुए कमरे की बिजली बंद कर दी गई.

वकीलों को जबरन बाहर निकाल दिया गया. इस के बाद उन्होंने अर्पिता को धमकी दी. अर्पिता ने अगले दिन इस की शिकायत सीनियर जज से की लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. भरी कोर्ट में उन्हें अपमानित किया गया.

अर्पिता साहू के अनुसार उन्होंने मामले की शिकायत 2022 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से की थी. मगर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई. किसी ने उन की समस्या के बारे में जाननेसमझने की जहमत तक नहीं उठाई. जुलाई 2023 में एक बार फिर इस मामले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की आंतरिक शिकायत समिति के समक्ष उठाया गया. जांच शुरू करने में 6 महीने और एक हजार ईमेल लगे. लेकिन प्रस्तावित जांच एक दिखावा बन कर रह गया क्योंकि गवाह जिला न्यायाधीश के अधीनस्थ होते हैं.

उन्होंने पत्र में लिखा, ‘मैं भारत में काम करने वाली महिलाओं से कहना चाहती हूं कि यौन उत्पीड़न के साथ जीना सीख लो. यह हमारे जीवन का सच है. मुझे लगा था कि शीर्ष न्यायालय मेरी प्रार्थना सुनेगा लेकिन रिट याचिका 8 सेकंड में ही बगैर मेरी प्रार्थना सुने और विचार किए खारिज हो गई. मुझे लगता है कि मेरी जिंदगी, मेरा सम्मान और मेरी आत्मा को भी खारिज कर दिया गया है. मेरी और जीने की इच्छा नहीं है. बीते डेढ़ सालों में मुझे चलतीफिरती लाश बना दिया गया है. बगैर आत्मा और बेजान शरीर को ले कर और घूमने का कोई मतलब नहीं है.’

अर्पिता ने चीफ जस्टिस को लिखे पत्र में कहा कि निष्पक्ष जांच तभी हो सकती है कि जब गवाह अभियुक्त के प्रशासनिक नियंत्रण से आजाद हो. उन्होंने जिला जज को ट्रांसफर किए जाने का निवेदन किया था. लेकिन उन के निवेदन पर भी ध्यान नहीं दिया गया. जांच अब जिला जज के अधीन होगी. ऐसी जांच का नतीजा क्या निकलेगा यह जगजाहिर है. इसलिए अर्पिता ने मुख्य न्यायाधीश से अपनी जिंदगी को खत्म करने की अनुमति मांगी है.

इस आरोप पर सीजेआई ने मांगी रिपोर्ट

अर्पिता की इच्छामृत्यु वाली चिट्ठी पर सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट से रिपोर्ट तलब की है. देर रात सीजेआई ने सुप्रीम कोर्ट सेक्रेटरी जनरल अतुल एम कुरहेकर को इलाहाबाद हाईकोर्ट प्रशासन से स्टेटस रिपोर्ट मांगने का आदेश दिया. सेक्रेटरी जनरल ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को पत्र लिख कर महिला जज द्वारा दी गई सारी शिकायतों की जानकारी मांगी. इस के साथ ही शिकायत से निबटने वाली आंतरिक शिकायत समिति के समक्ष कार्यवाही की स्थिति के बारे में भी पूछा.

न्याय मिलाना इतना कठिन क्यों ?

सोचने वाली बात है कि एक सम्मानित और न्याय के लिए जाना जाने वाला विभाग भी महिलाओं के सम्मान की सुरक्षा नहीं कर सका. खुद न्याय विभाग में जज हो कर अर्पिता को इस पुरुष प्रधान समाज में अपने न्याय के लिए भटकना पड़ रहा है. ऐसे में दूसरी कामकाजी महिलाओं की स्थिति हम स्वाभाविक रूप से समझ सकते हैं.

कहीं न कहीं पूरा एडमिनिस्ट्रेशन ही ऐसे मामलों को दबाने का प्रयास करता है. लोग महिलाओं से अनचाहा एडवांटेज लेना चाहते हैं. कुछ महिलाएं आगे बढ़ने के लिए अपनी स्वीकृति दे देती हैं. मगर इसे हर औरत पर नहीं थोपा जा सकता. एक महिला के इंकार का मतलब इंकार ही होता है. मगर कुछ पुरुषों को यह इंकार रास नहीं आता. तब वे अपने ईगो को संतुष्ट करने के लिए अपने अंदर या अपने नीचे काम कर रही महिलाओं को यातनाएं देने से बाज नहीं आते.

ऐसे में महिलाएं अगर आवाज उठाती हैं तो जरुरी है कि उन की शिकायत पर ध्यान दिया जाए और उन्हें न्याय मिले ताकि कोई और अर्पिता इच्छा मृत्यु की गुहार लगाती नजर न आए.

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