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अपनी खुशी के लिए : भाग 3

‘‘चलिए न मांजी. हम तीनों चलेंगे. स्कूल जाने के बाद थोड़ा घूमेंगेफिरेंगे. फिर बाहर ही खापी कर लौट आएंगे,’’ उत्तर खुशी के स्थान पर नम्रता ने दिया.

‘‘क्यों नहीं, मैं तो खुशी से पहले तैयार हो जाऊंगी,’’ पूर्णा देवी ने सहमति जताई.

तरंग ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि उस के परिवार की महिलाएं बिना उस की सहायता के घर से बाहर की खुली हवा में निकलने का साहस करेंगी. पूर्णा देवी ने परिवार में कठोर अनुशासन में दिन बिताए थे. उन के सासससुर ही नहीं उन के पति भी स्त्रियों का स्थान घर की चारदीवारी में ही होने में विश्वास करते थे. उन्होंने यही सोच कर संतोष कर लिया था? कि उन का जीवन तो किसी प्रकार कट गया पर आने वाली पीढ़ी को वे अपनी तरह घुटघुट कर नहीं जीने देंगी. पर केवल सोच लेने से क्या होता है? वे नम्रता के हंसमुख और जिंदादिल स्वभाव से ही प्रभावित हुई थीं पर विवाह के बाद तिलतिल कर बुझने लगी थी नम्रता. यों घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. तरंग की अच्छीभली नौकरी थी. उन के पति श्रीराम का फलताफूलता व्यवसाय था. पर तरंग ने अपने पिता के आचारविचार और स्वभाव विरासत में पाया था.

वह स्वयं रंगरलियां मनाने को स्वतंत्र था पर नम्रता पर कड़ा पहरा था. उस का खिड़की से बाहर झांकना तक तरंग को पसंद नहीं था. नम्रता को हर बात पर नीचा दिखाना, जलीकटी सुनाना, क्रोध में बरतन, प्लेटें आदि उठा कर फेंक देना, उस के स्वभाव के अभिन्न अंग थे. ऐसे में नम्रता अपने ही संसार में सिमट कर रह गई थी.

‘‘दादीमां, सो गईं क्या?’’ उन की विचारशृंखला शायद इसी तरह चलती रहती कि खुशी के स्वर ने उन्हें झकझोर कर जगा दिया.

‘‘मेरा स्कूल आ गया दादीमां,’’ खुशी बोली.

‘‘तेरा स्कूल नहीं आया बुद्धू. हम तेरे स्कूल आ गए,’’ पूर्णा देवी ने हंसते हुए कहा.

‘‘देखा मम्मी, दादीमां मुझे बुद्धू कह रही हैं,’’ खुशी हंसते हुए बोली. फिर मां और दादीमां का हाथ थामे अपनी कक्षा की ओर खींच ले गई.

‘‘शीरी मैम, मेरी मम्मी और मेरी दादीमां,’’ खुशी ने प्रसन्नता से अपनी टीचर से दोनों का परिचय कराया.

‘‘आप को पहली बार देखा है मैं ने. आप तो कभी आती ही नहीं. कभी मन नहीं होता हम लोगों से मिलने का?’’ शीरी मैम ने उलाहना दिया.

‘‘जी आगे आया करूंगी,’’ नम्रता ने उत्तर दिया.

‘‘हम लोग तो अभिभावकों और बच्चों के बीच मेलजोल को प्रोत्साहित करते हैं. बहुत से बच्चों की मांएं शनिवार को बच्चों को कहानियां सुनाती हैं, गेम्स खिलाती हैं, क्राफ्ट सिखाती हैं. चाहें तो आप भी अपनी रुचि के अनुसार बच्चों को कोई भी हुनरसिखा सकती हैं.’’

‘‘मेरी दादीमां को बहुत सी कहानियां आती हैं और मेरी मम्मी तो इतनी होशियार हैं कि पूछो ही मत,’’ खुशी अब भी जोश में थी.

‘‘हम तो अवश्य पूछेंगे,’’ शीरी मैम मुसकराईं.

तभी खुशी शीरी मैम के कान में कुछ कहने लगी.

‘‘हां देख लिया, तुम्हारी मम्मी तो वाकई बहुत सुंदर हैं,’’ शीरी मैम ने खुशी की हां में हां मिलाई.

‘‘बहुत नटखट हो गई है कुछ भी बोलती रहती है,’’ नम्रता शरमा गई.

‘‘सुंदर को सुंदर नहीं तो और क्या कहेगी खुशी. आप की बेटी बहुत प्यारी और होशियार है. पर किसी शनिवार को आइए न. बच्चों को कुछ भी सिखाइए या केवल उन्हें गीत सुनाइए, बातचीत कीजिए. इस से बच्चे का व्यक्तित्व विकसित होता है, आत्मविश्वास बढ़ता है. सदा चहकती रहने वाली खुशी शनिवार को अलगथलग उदास सी बैठी रहती है,’’ शीरी मैम ने पुन: याद दिलाया.

‘‘मैं भविष्य में याद रखूंगी. खुशी की खुशी में ही मेरी खुशी है,’’ नम्रता ने आश्वासन दिया.

स्कूल से निकल कर नम्रता खुशी को एक बड़े से मौल में ले गई. वहां बच्चों के लिए अनेक प्रकार के गेम्स थे, जिन का आनंद लेने के लिए वहां बच्चों की भीड़ लगी थी. खुशी के साथ ही पूर्णा देवी और नम्रता ने भी उन का भरपूर आनंद लिया. दिन भर मस्ती कर के और खापी कर जब तीनों घर पहुंचीं तो थक कर चूर हो गई थीं, अत: शीघ्र ही निद्रा देवी की गोद में समा गईं. घंटी की आवाज सुन कर नम्रता हड़बड़ा कर उठी. घड़ी में 6 बज रहे थे. द्वार खोला तो तरंग सामने खड़ा था.

‘‘सो रही थीं?’’

‘‘हां,’’ नम्रता बोली.

‘‘खुशी और मां भी सो रही हैं?’’ पूछते हुए तरंग अंदर आ गया. फिर गुस्से से बोला, ‘‘जमाना कहां से कहां पहुंच गया पर तुम सब तो बस अपनी नींद में डूबे रहो. क्या कह कर गया था मैं? यही न कि नंदिनी को फोन कर लेना और कल के व्यवहार के लिए क्षमा मांग लेना तो वह खुशी को स्कूल ले जाएगी. पर नहीं, तुम अपनी ही ऐंठ में हो. तुम ने कुछ नहीं किया, चाहे बच्ची का भविष्य चौपट हो जाए.’’

‘‘हम ने फोन नहीं किया तो क्या हुआ? आप ने तो नंदिनी को फोन किया ही होगा?’’ नम्रता ने सहज भाव से पूछा.

‘‘प्रश्न पूछ रही हो या ताना मार रही हो?’’ तरंग क्रोधित हो उठा.

‘‘मैं तो दोनों में से कुछ भी नहीं कर रही. मैं तो केवल जानना चाह रही थी.’’

‘‘तो जान लो मैं ने नंदिनी को यह जानने के लिए फोन किया था कि वह खुशी के स्कूल गई या नहीं तो पता चला कि तुम ने उसे फोन तक नहीं किया क्षमा मांगने की कौन कहे. एक बात तो साफ हो गई कि तुम्हें खुशी की कोई चिंता नहीं है.’’

‘‘खुशी की चिंता है इसीलिए नंदिनी को फोन नहीं किया तरंग. यह भी जान लो कि अजनबियों के सामने मेरी घिग्घी नहीं बंधती. मैं और मांजी खुशी के स्कूल गए थे और सच मानो कि खुशी को इतना खुश मैं ने पहले कभी नहीं देखा,’’ नम्रता हर एक शब्द पर जोर दे कर बोली.

‘‘ओह, तो अब तुम्हारे मुंह में भी जबान आ गई है. तुम यह भी भूल गईं कि नंदिनी तुम्हारी बहन है.’’

‘‘तरंग, चाहे बहन हो या पति, अन्याय का प्रतिकार करने का अधिकार तो मेरे पास होना ही चाहिए. मैं अब तक चुप थी पर अब मैं लड़ूंगी अपने लिए नहीं अपनी बेटी खुशी के लिए.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ हूं बेटी,’’ पूर्णा देवी जो अब तक चुप खड़ी थीं धीमे स्वर में बोलीं.

‘‘मां, तुम भी?’’ तरंग चौंक कर बोला.

‘‘क्या कहूं बेटे, जीवन भर अन्याय सहती रही मैं. पर अब लगता है समय बदल गया है. नम्रता के साथ मैं भी लड़ूंगी अपनी खुशी के लिए,’’ पूर्णा देवी धीमे पर दृढ़ स्वर में बोलीं. नम्रता बढ़ कर पूर्णा देवी के गले से लग गई. उस की आंखों में आभार के आंसू थे.

टूटती आशा : भाग 3

नीरा देवी जब फोन कर के आई तो उन्होंने मोहित का स्वर सुना. वह अपने पिता से कह रहा था, ‘‘पिताजीआप ने भी तो सुबह से कुछ नहीं खाया है. जा कर कुछ खा लीजिए. मैं अब पहले से अच्छा महसूस कर रहा हूं.’’ नीरा की भूख और बढ़ गई. पतिपत्नी दोनों ने मन्नू का लाया खाना रूचि के साथ खाया. खातेखाते नीरादेवी के पति बोले, ‘‘कल से मोहित को खिचड़ी बना कर खिलाना. चारछ: दिन उसे हलका और परहेजी खाना चाहिए. दवा देना और तापमान नोट करना. अच्छा तो यही होगा कि ज्यादा समय उसी के पास बिताओ ताकि उसे लगे कि उस की परवा की जा रही है. उस की लगन से की गई तीमारदारी उस के शीघ्र ठीक होने में सहायक सिद्ध होगी.’’

नीरा सुबह से सब काम ठीक ही कर रही थीं. पर खामोश थीं. आया के चारपांच साल के बच्चे की तबीयत खराब थीइसलिए नहीं आई. उस ने मन्नू को फोन करवा दिया कि जब उस के बच्चे की तबीयत ठीक हो जाएगी वह तभी आएगी. यदि साहब पैसे काटना चाहें तो काट लें. उस के पास अपना मोबाइल नहीं है वरना नीरा उसे फोन पर ही झाड़ लगा देती.

यह सुन कर नीरा देवी ने तनबदन में आगे लग गई. वह मन ही मन बुदबुदाई, ‘एक तो मुझ पर काम का बोझ बढ़ा दियाऊपर से यह सीनाजोरी. वह जब भी आएगी उसे ऐसा सबक देना पड़ेगा कि जिंदगी भर याद रखें.

मोहित की तबीयत 2-3 दिन में पूरी तरह ठीक हो गई. बसकमजोरी रह गई थी. अगले दिन उसे नहलाना था. संयोग से उसी दिन आया भी आ गई. उस का बच्चा भी ठीक हो गया था. अब नीरा ने उसे डांटा नहींक्योंकि उस के दूसरे ही दिन उन्हें देहरी ग्राम जा कर वहां के जाटव बच्चों का सामूहिक स्नान कराने का कार्यक्रम पूरा करना था. बाकी तैयारियों के लिए द्वारका देहरी ग्राम चला गया था. इसी सिलसिले में नीरादेवी ने क्लब की सदस्याओं की अपने ही घर एक बैठक बुलाई थी.

सब ने मोहित के ठीक होने पर उन की प्रशंसा करते हुए कहा ‘‘नीराजीआप सचमुच बहुत कर्मठ हैं. आप ने रातदिन एक कर अपने बच्चे की देखभाल की और मौका आने पर समाज सेवा के कार्य के लिए भी तैयार हो गईं.’’

‘‘आया भी नहीं थी. अकेली खाना बनानाबीमार बच्चे को रखना कोई सरल काम है क्या?’’ एक सदस्या ने चहक कर कहा. पास के कमरे में नीरादेवी के पति बैठे थे. उन की इच्छा हुई कि वह जा कर सब को बता दें कि कैसे खाना बना और कैसे बच्चे की देखभाल हुई. लेकिन जाने क्या सोच कर वह मौन रहे.

इसी समय आया क्लब की सदस्याओं के लिए चाय और बिस्कुट ले कर आई सदस्याओं ने बड़ी सहानुभूति से उस के बच्चे के बारे में पूछा. उन की बातों पर अधिक ध्यान न दे उस ने हांहूं कर के टाल दिया. नीरा को आया की यह बेरुखी अखर गई. वह बोल पड़ी, ‘‘अरे कुछ नहीं हुआ था इस के बच्चे को. यों ही मामूली कुछ हुआ होगा. इसी बहाने इसे भी आराम मिल गया. ये छोटे लोग इसी प्रवृत्ति के होते हैं. नहीं तो जब मुझे इतना काम था और मोहित की तबीयत खराब थीतभी इसे भी छुट्टी लेनी थी?’’

‘‘बस…बसबाई जीबहुत हो चुका. हम गरीब जरूर हैंपर आप का दिया नहीं अपनी मेहनत का खाते हैं. हम आप की तरह महंगी दवाई नहीं दे सकतेपर मां का प्यार तो दे ही सकते हैं. उधर बच्चा बीमार हो और मैं उसे छोड़ कर तुम्हारा काम करने आऊंआप एक छोड़ चार नौकर रख लेंपर मां का प्यार नहीं खरीद सकतीं.

‘‘आप को बीमार बच्चे की देखभाल से ज्यादा जरूरी समाजसेवा के काम लगते हैं. कल आप दूसरे गांव के शैड्यूल कास्ट बच्चों को नहलाने का नाटक करेंगीअखबारों में अपना फोटो छपवाएंगीपर आप का बेटा बीमारी के बाद उठने पर भी आप के हाथ से स्नान का सौभाग्य नहीं पा सकेगाक्योंकि आप को सांस लेने की भी फुरसत नहीं है.’’

आया ने थोड़ा रुक कर सकपकाई हुई अपनी मालकिन और उन की सहेलियों की ओर देखा और फिर आगे बोली, ‘‘आप को मालूम है कि मोहित कोयह मामूली नौकरानी ही जिस के पास मां का दिल हैनहला कर साफ करती है. अब तक मैं मोहित के प्रेम के कारण ही यहां बंधी रहीपर अब और अधिक नहीं सहन कर सकती.’’

इतना कह कर और मोहित के स्वस्थ होने की मंगल कामना करती हुई वह सब को हाथ जोड़ कर वहां से चली गई.

नीरा के पति आया को जाते हुए भावविह्लाल देखते रहे. उन की गीली आंखें और उन का भारी मन किसी अच्छे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे.

उधर नीरा यादव को लग रहा था कि उस की पार्षद की सीट हाथ से निकलने वाली है. अगर घर से बंध गई तो राजनीति हो ली. पिताजी कहते थे कि अब हम लोग अपना राज चलाएंगे. खाक चलाएंगे जब औरतों को घरों से बांध कर रहना हो. मोहित से उन्हें भी प्यार है पर उस से ज्यादा राजनीति रगरग में बसी है.

दयादृष्टि : भाग 3

सामने मंच पर खूबसूरत नक्काशी से युक्त सिंहासन रखा हुआ था. सिंहासन के दोनों ओर विशाल दीपक प्रज्ज्वलित थे. 2 सेवक मंच पर खड़े थे. सभी को मंच के सामने बैठने का निर्देश दिया गया.

एक सेवक ने मंच का परदा खींचा. सिंहासन दिखना बंद हो गया. यह श्रीअनंत देव के आने का संकेत था.
उस का हृदय तेजी से धड़क रहा था. कुछ ही पलों में उस के सारे दुखों का समूल नाश करने वाले, कलयुग अवतारी, भगवान श्रीअनंत देव दर्शन देने वाले थे. उस ने महिलाओं के समूह में बसंती की ओर देखा. वह हाथ जोड़े बैठी हुई थी.

वह मुसकरा उठा. कितना अच्छा हुआ कि वे इस पावन भूमि पर आ गए. सभी भक्तों की दृष्टि मंच की ओर थी.

प्रतीक्षा का अंत हुआ. परदे की डोर खींची गई. सामने भगवान श्रीअनंत देव सिंहासन पर ध्यानमुद्रा में बैठे हुए थे. सभी लोग खड़े हो गए. सेविका ने उन की आरती शुरू की. सभी भक्त तालियां बजाबजा कर साथ देने लगे. आरती पूर्ण हुई.

श्रीअनंत देव ने अपने नेत्र खोले. उन के श्वेतश्याम दाढ़ीयुक्त चेहरे पर मुसकराहट फैली हुई थी. वे अपने दाईं और बाईं ओर बैठे सभी भक्तों को धीरेधीरे, प्रेममयी नजरों से निहार रहे थे. वे श्वेत कुरता, श्वेत धोती धारण किए हुए थे. कंधे पर श्वेत उत्तरीय था जिस पर खूबसूरत किनारी बनी हुई थी. मंच का प्रकाश, उन के गोरेगुलाबी चेहरे को और दमका रहा था. वीडियोग्राफर का वीडियो कैमरा चारों ओर घूम रहा था. सेविका ने सभी को बैठने का संकेत किया. सभी भक्त बैठ गए.

वह उस पल की प्रतीक्षा कर रहा था जब भगवान श्रीअनंत देव आशीर्वाद मुद्रा में होंगे और फिर वह अपनी सारी प्रार्थनाएं उन से कह देगा. धीरेधीरे उन के दोनों हाथ आशीर्वाद मुद्रा में उठने लगे. भक्तों ने अपनेअपने हाथ भिक्षा मुद्रा में फैला दिए. उस के हाथ भी फैले हुए थे. वह दुखों को दूर करने की भिक्षा मांग रहा था.

वह देख रहा था कि उसे आशीर्वाद मिल रहा है. उस की बंजर धरती पर अंकुर फूटने लगे हैं. बसंती की गोद में बालक अठखेलियां कर रहा है. उस की झोपड़ी अदृश्य हो चुकी है. वहां एक खूबसूरत घर खड़ा हो चुका है. उस की खुशी में साथ देते हुए, रंगबिरंगे फूल आंगन में खिलखिला रहे हैं. पौधे भी हर्ष में डूबे गलबहियां कर झूम रहे हैं. उस का हर स्वप्न पूरा होता चला जा रहा है. भगवान श्रीअनंत देव की दयादृष्टि उस के सारे दुखों का निस्तार कर चुकी है.

वह कृतज्ञता से भर उठा. उस का मन अभिभूत हो रहा था. उस की आंखें स्वतः बंद हो गईं. उस के नेत्रों से अश्रु बहने लगे. उस का मन हुआ कि दौड़ कर भगवान श्रीअनंत देव के चरणों में गिर पड़े, लेकिन उस भीड़ से निकल कर यह करना संभव नहीं था.

श्रीअनंत देव की आशीर्वाद मुद्रा फिर से सामान्य हो चुकी थी. उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए. वे पुनः ध्यान में जा चुके थे. भक्त हाथ जोड़े बैठे थे.धीरेधीरे परदा बंद होने लगा. दर्शन का समय समाप्त हो चुका था.
सभी अपनेअपने स्थान पर खड़े हो गए.

धीरेधीरे सभागार खाली होने लगा.
वह वहीं बैठा रहा. उस की आंखें अभी भी भगवान श्रीअनंत देव को वहां बैठा देख रही थीं. बसंती उस के पास आ कर बैठ गई,”आप ने भगवान से क्या मांगा?” वह मुसकराते हुए पूछ रही थी.

“वही जो तू ने मांगा होगा. हमारे दुख तो समान ही हैं. सब दुख दूर हो जाएंगे,” उस के चेहरे पर निश्चिंतता तैर रही थी.

“चलो, नीचे भोजन करने चलते हैं,”वह उठ खड़ा हुआ.

“एक बात सुनो न. यहां भगवान ने दूर से दर्शन दिए. हमारी प्रार्थना सुनी तो होगी न?”

“बिलकुल. सेविकाजी ने कहा तो था. वे दूर से ही सब सुनसमझ लेते हैं.”

“हां, यह तो है लेकिन एक बार भगवान के पास बैठ कर, उन से बात करने का मन है. गांव के मंदिर में जैसे हम भोलेनाथजी के पास बैठ सब दुखदर्द सुना देते हैं, वैसा ही मन हो रहा है.”

“मुझे नहीं मालूम. गांव के मंदिर की बात अलग है. यहां तो साक्षात हैं. ऐसे कैसे उन के पास चले जाएं?”

“एक काम करो न. उधर सेविकाजी खड़ी हैं. उन के पास चल कर पूछते हैं,” उन की समीप के दर्शन की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी.

“चल, तू कह रही है तो बात करते हैं,” वह सेविका की ओर चल दिया. बसंती उस के पीछे चल दी. उन्होंने सेविकाजी को प्रणाम किया.

“जी, कहिए. कहां से आए हैं?” सेविका ने बड़े ही स्नेह से पूछा.

“जी छिंदवाड़ा के पास के गांव से,” वे दोनों एकसाथ बोल उठे.

“ओह, बहुत दूर से आए हैं. आप का शुभ नाम?” सेविका उत्सुक थी.

“मेरा नाम रमेश है, यह मेरी घरवाली बसंती है.”

“आप को यहां का पता किस ने दिया?”

“जी, शंकरलालजी ने, वे वहीं के ही हैं.”

“उन्हें जानती हूं. वे आते रहते हैं. समर्पित भक्त हैं.”

“जी, यहां के चमत्कार सुनाते हैं,” चमत्कार शब्द के साथ ही वह प्रसन्नता से भर उठा.

“जी, सुनाइए. कुछ पूछना है?” सेविका उन्हें गौर से देख रही थी.

“बसंती पूछ रही थी कि भगवान के दर्शन पास से, सामने बैठ कर हो सकते हैं?”

“बिलकुल हो सकते हैं.”

“सच?” वह खुशी से उछल पड़ा.
बसंती के चेहरे पर खुशी ऐसे नाच उठी कि दुनिया का सारा खजाना उस के सामने खोल दिया गया हो.

“कब हो सकते हैं?” अब वह बैचैन हो उठा था.

“आज संध्या को 6 बजे से. लेकिन उस के लिए दक्षिणा देनी होती है.”

“जी, दे देंगे,” वह दक्षिणा देने को तैयार था. उस के सामने 11, 21, 51 रुपए की दक्षिणा घूमने लगी.

“आप दोनों दर्शन करेंगे?” सेविका ने उन्हें ऊपर से नीचे की ओर देखा.

“जी, दोनों ही करेंगे,” वह खुशी के अतिरेक में था.

“ठीक है, आप दोनों भोजन करने के बाद मुझे ₹40 हजार की दक्षिणा दे दीजिएगा. ₹20 हजार प्रति व्यक्ति है. रुपए ले कर यहीं आ जाएं. मैं इधर ही मिलूंगी,” कहते हुए सेविका उस ओर चल दी जहां दूसरी सेविकाएं बैठी थीं.

उन दोनों के पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी. वे हताश वहीं फर्श पर बैठ गए. उन के सिर सभागार की दीवार से टिक चुके थे. उन्हें लगा कि उन की प्रार्थनाएं यहीं रह गई हैं और सभागार के चक्कर लगा रही हैं. सारे दुख फिर से कुंडली मार कर बैठ गए हैं. बंजर जमीन उन का मुंह चिढ़ा रही है. वे देख रहे थे कि अभीअभी बनाया हुआ सपनों का घरौंदा एक झटके में बिखर चुका है. बसंती की गोद में अठखेलियां करती संतान फिर से अंतरिक्ष में अदृश्य हो चुकी है. सामने मंच का परदा हवा से सरसरा रहा था. उन्हें परदे के पीछे सिंहासन पर बैठे, अनंत देव के आशीर्वाद में फैले हाथ, रुपयों से खेलते नजर आ रहे थे.

“अब चलें?” बसंती ने आहिस्ता से पूछा.

“हां, चलते हैं. भूख भी लग रही है,” वह उठ खड़ा हुआ.

“यहां का भोजन नहीं करेंगे. बाहर देखेंगे,” उस के स्वर में रोष झलक रहा था.

“हां…” उस का स्वर बुझा हुआ था.

वे सभागार के निर्गम द्वार की ओर चल दिए. सेविका उन्हें जाते हुए देख रही थी.

“तुम्हें लगता है कि वे ₹40 हजार देने आएंगे?” उस के पास बैठी सेविका ने पूछा.

“कह नहीं सकते. ऐसे गरीब दिखने वालों के पास भी बहुत पैसा होता है.”

“हां, यह तो है,” उस ने सहमति जताई.

“नहीं भी आए तो कोई बात नहीं. हमारा लक्ष्य लगभग पूरा होने वाला है. तुम्हारे 30 भक्त पैसे दे चुके हैं. मेरे 15 दे चुके. मतलब पैंतालिस का आंकड़ा हो गया है. हमारे भगवान का प्रतिदिन 50 का लक्ष्य है, पूरा हो ही जाएगा.”

“अवश्य हो जाएगा. दुखों का मारा कोई न कोई तो आता ही होगा,” उन की नजरें प्रवेशद्वार पर थीं.

“हां, जब तक लोग दुखों को चमत्कार से समाप्त करने का रास्ता ढूंढ़ते रहेंगे, भगवान श्रीअनंत देव का खजाना भरते रहेंगे,” यह उस ने दोनों हाथों और सिर हिलाते हुए, किसी गीत की तरह गुनगुनाया.

“वाहवाह… क्या तुक मिलाई है,” कहते हुए एक सेविका ने ठहाका लगाया. दूसरी का भी ठहाका सभागार में गूंज उठा. उधर वे दोनों थके कदमों से परिसर से बाहर निकल रहे थे.

“सुनो,” बसंती ने उस की बांह पकड़ते हुए कहा.

“अब क्या हुआ?” उस ने उस की ओर चेहरा घुमाया.

“अब कभी ऐसे चक्करों में मत उलझना. हमारे दुख के दिन आए हैं तो सुख के दिन भी आ ही जाएंगे…आग लगे ऐसे नकली अवतारों को,” बसंती क्रोध के आवेग में कह रही थी.

वह मुसकराते हुए, उस का तमतमाया चेहरा देखने लगा. अब वे बाहर खड़े औटो में बैठ चुके थे. उन की नजरें देवालय की ओर गईं. उन्हें श्वेत देवालय, स्याह इमारत में बदलता दिख रहा था.

फूल सी दोस्ती : भाग 3

‘‘विराट, इस में रिया की कोई गलती नहीं. हमें संस्कार ही ऐसे दिए जाते हैं कि हम भावनाओं को जीना जानते ही नहीं. अपनी संकीर्ण सोच से कुछ लोगों द्वारा बनाए गए नियमों के इर्दगिर्द ही घूमती रहती है हमारी पूरी जिंदगी. रिया को बस थोड़ा समझाने की जरूरत है. तुम परेशान मत होना, प्लीज…मैं देखती हूं अब क्या करना है.’’ मंजरी के कहने से विराट आश्वस्त हुआ और दोनों की बात वहीं समाप्त हो गई.

अगले दिन मंजरी ने बहुत सी चौकलेट्स खरीदीं और नेत्रहीन बच्चों के छात्रावास की ओर चल दी. वहां जा कर उस ने वे चौकलेट्स बच्चों में बांटने की इच्छा व्यक्त की. जैसा कि वह उम्मीद कर रही थी, उसे वहां की इंचार्ज यानी रिया के पास भेज दिया गया. गोरे रंग की लंबी, स्लिम बौडी की खूबसूरत रिया का फोटो भी विराट ने उसे अभी तक नहीं दिखाया था, क्योंकि वह दोनों को आमनेसामने मिलवाना चाहता था. मंजरी ने रिया को अपना नाम नहीं बताया. वह जानती थी कि चेहरे से रिया उसे नहीं पहचानती होगी.

रिया के साथ वह ग्राउंड में खेल रहे बच्चों के पास पहुंच गई. उन सब की उम्र लगभग 5-10 वर्ष के बीच थी. रिया ने बताया कि उसे इन बच्चों से बहुत लगाव है. यहां इन के पढ़ने, रहने, खानेपीने और कपड़ों आदि का प्रबंध एक एनजीओ की मदद से होता है. ‘‘इन बच्चों का साथ मुझे हिम्मत, हौसला और जीने की नई ताकत देता है,’’ कह कर रिया मुसकराने लगी.

बच्चों के प्रति रिया का समर्पण मंजरी को बहुत अच्छा लगा. दोनों की बातचीत चल ही रही थी एक मासूम सा बच्चा मंजरी द्वारा दी गई चौकलेट रिया के पास ले कर आया और बोला, ‘‘आधी आप खाओ न मैम.’’ रिया ने थोड़ी सी चौकलेट तोड़ी और उस के गाल चूम कर उसे खेलने भेज दिया.

‘‘यह साहिल है. इस के मातापिता एक बम विस्फोट में मारे गए थे. साहिल भी उसी दुर्घटना के कारण अपनी आंखें गंवा बैठा. मुझे बहुत अच्छा लगता है साहिल. मैं इसे दुखी नहीं देख सकती और यह भी मुझे छू कर ही मेरा दुख समझ लेता है. जब कभी मैं उदास होती हूं तो मुझे खुश करने की कोशिश करता है.’’ ‘‘ओहो… बहुत दुखभरी है साहिल की कहानी. पर अच्छा हुआ कि उसे तुम्हारे जैसी दोस्त मिल गई.’’ मंजरी ने कहा.

‘‘आप इन भावनाओं को कितना समझती हैं… साहिल और मैं सचमुच एकदूसरे को बहुत प्यार करते हैं. वह मेरा प्यारा सा दोस्त है और मैं उस की,’’ मंजरी से सहमति जताती हुई रिया चहक उठी. ‘‘तो क्या तुम नहीं चाहोगी कि ये दोस्ती आज से 20-25 साल बाद भी ऐसी ही रहे? क्या तब तुम इसे इसलिए दोस्त नहीं कहोगी कि तुम 50 के पार हो जाओगी? क्या एक उम्र के बाद भावनाओं को दबा देना चाहिए? अगर उस समय साहिल आज की तरह ही तुम से लगाव महसूस करे तो क्या तब उम्र के अंतर को ध्यान में रखते हुए उसे तुम्हारे प्रति अपने प्यार को कम कर लेना होगा? या फिर तब रिश्ते का नाम दोस्ती से बदल कर कुछ और रखोगी? क्या नाम होगा उस रिश्ते का? शायद कोई नाम नहीं. तब क्या होगा रिया, बता सकती हो तुम?’’ रिया की ओर देख कर मंजरी लगातार मुसकराने की कोशिश कर रही थी.

‘‘प्यार तो ऐसा ही होगा शायद दोनों में. और नाम… नाम तो दोस्ती ही होगा रिश्ते का. अब भी. और तब भी…’’ सोचती हुई सी रिया बोली. ‘‘अगर साहिल और तुम्हारे रिश्ते को दोस्ती का नाम दिया जा सकता है, तो विराट और मंजरी के रिश्ते को क्यों नहीं…?’’ मंजरी के सब्र का बांध टूट गया और आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

रिया जैसे सोते से जागी हो, ‘‘आप मंजरीजी हैं न?’’ कह कर वह मंजरी से लिपट गई. उस की आंखों से भी आंसू निकल पड़े. कुछ देर तक दोनों चुपचाप बैठी रहीं. फिर चुप्पी तोड़ते हुए मंजरी बोली, ‘‘अब मैं चलती हूं रिया. कल तुम मेरे घर आना. विराट को भी वहीं बुला लूंगी. खूब बातें करनी हैं मुझे तुम दोनों से.’’

रिया हामी में सिर हिला कर मुसकरा दी. आज रिश्तों का नया पाठ पढ़ा था रिया ने. सच ही तो है कि लगाव, परवाह, त्याग और प्यार जैसे शब्द मन की कोमल भावनाओं के नाम हैं और जब ये एकसाथ मिल जाएं तो बन जाती है दोस्ती. तो फिर दोस्ती का रिश्ता पूरी तरह मन का हुआ. और मन तो सदा एक सा ही रहता है… तो फिर दोस्ती क्यों हो उम्र की मुहताज?

अपने मन की बात विराट तक पहुंचाने के लिए रिया ने उसे व्हाट्सऐप पर मैसेज किया ‘‘विराट… रिश्तों की गहराई को मैं समझ नहीं पाई थीं. अपनेपन की सुगंध से भरे किसी भी रिश्ते को उम्र के अंतिम पड़ाव तक भी मुरझाना नहीं चाहिए. मेरी ख्वाहिश है कि तुम्हारी और मंजरीजी की दोस्ती हमेशा महकती रहे. सचमुच बहुत सुंदर है ये फूल सी दोस्ती.’’

राज छिपाना कोई नीरा से सीखे : भाग 3

“अब बस बहुत हुआ, केशव. पहले तो मेरा मन अनिल के साथ जाने का बिलकुल नहीं था पर अब बहुत अच्छे मन से जाऊंगी और तुम जा कर अपनी बीवी के पल्लू से बंधे रहो.”

” ठीक है, फिर अब सब खत्म.”

“ठीक है, मेरी तरफ से भी खत्म.”
नीरा के मन का एक भाग केशव के लिए गुस्से से बढ़ता जा रहा था तो कभी शांत होने पर उसे उस की बहुत याद सताने लगी.

“चलो, नीरा गाड़ी आ गई है. नहीं तो हमारी फ्लाइट छूट जाएगी,” घर का तालाचाबी, अटैची पकड़े अनिल ने दरवाजे पर खड़े हो भीतर अवाज देते कहा.

“हां, बस आ रही हूं.”

वे हाईवे तक पहुंचे ही थे कि पीछे से आती ट्रक ने उन की गाड़ी को जोरदार ठोकर मार दी. केशव को छोटीमोटी खरोचें आईं पर पीछे बैठी नीरा जिस ने सीट बैल्ट नहीं लगाया था उस का खूबसूरत चेहरा और शरीर में जहांतहां गहरी और गंभीर चोट से भर गया.

आननफानन ऐंबुलेंस बुलाई गई और नीरा को ले कर सुनिल तेज रफ्तार से अस्पताल की ओर भागा. कई रातें अस्पताल में बिताने के बीच नीरा को होश आया पर इसी बीच उस का सूक्ष्म दिमाग यह जरूर महसूस कर सकता था कि जिसे उस के दिल ने आज तक नहीं स्वीकारा, वे उस से सच में खुद से ज्यादा प्रेम करते हैं, सुनिल ने अपनी सुधबुध खो कर उस की दिनरात सेवा की, पूरे समय उस का हाथ थामे रहा, न खुद के खाने का होश न पीने का. बस, यही कामना करता रहा कि उस की नीरा जल्द से जल्द ठीक हो जाए.

आज जब हफ्तों बाद उस के चेहरे और शरीर की पट्टियां खोली गईं और जब उस ने अपनी दमकती काया देखने का प्रयास किया तो नीरा अपने चोटिल से भरे हुए भद्दे चेहरे को देख कर विचलित हो विलाप करने लगी.

“क्या हुआ नीरा, अगर तुम्हारा चेहरा पहले जैसे सुंदर न रहा. हम आजीवन अपनी खूबसूरती थोड़ी न कायम रख सकते हैं? समय के साथ तो यह ढलती जाएगी, मगर कायम रह सकता है तो हमारा अच्छा स्वभाव, अच्छा मन और हमारी अच्छी सोच. तुम्हारा बिगड़ा चेहरा मेरे प्रेम को कभी कम नहीं कर सकता है, सच कहूं तो इस हादसे ने तुम्हारे प्रति मेरी निष्ठा को और प्रबल कर दिया है, नीरा,” सुनिल की बात सुन कर नीरा खुद को रोक नहीं पाई और उन के गले लग कर अनायास बिखर पड़ी.

सच्चा प्रेम और आकर्षण से जन्मे हुए खिंचाव के बीच आज नीरा को अंतर साफसाफ समझ में आने लगा. अपने पति की सिर्फ ऊपरी साधारण छवि को देख कर उन के वास्तविक स्वभाव को नजरअंदाज कर रखा था, जो सही माने में इंसान का सब से खूबसूरत आवरण होता है.

सुनिल से कभी किसी भी प्रकार का धोखा मिलने कि वह कभी कल्पना भी नहीं कर सकती थी और नीरा ने उन की नाक के नीचे उन के साथ इतना बड़ा विश्वासघात कर दिया था. इस हरकत के लिए वह कभी अपनेआप को माफ नहीं कर पाएगी. कभी माफ नहीं कर पाएगी. वह तो कुदरत की मेहरबानी थी कि केशव के साथ उस का रिश्ता केवल मौखिक तक सीमित रहा उस के आगे नहीं. नहीं तो उस से कितना बड़ा अनर्थ हो जाता, जिस की भरपाई वह इस जन्म में तो कदापि नहीं कर सकती थी.

नीरा को अपने किए पर बहुत शर्मिंदगी थी. वह आत्मग्लानी के साथ मन ही मन अपने विवाहेत्तर संबंध का काला राज छिपाते हुए अनिल से कृतज्ञता से माफी मांगती चली गई और अपने जीवन में कभी इस हरकत को दोबारा न करने की ठान ली.

नीरा और सुनिल अपनी कालोनी में वापस लौट आए और उस के ऐक्सीडैंट की खबर सुनते ही केशव और कुसुम बिना समय बरबाद किए उन से मिलने घर आ पहुंचे.

नीरा को देख अजीब सी चुप्पी थी उस घर में और कुछ देर बाद आखिरकार कुसुम के मुंह से एक और चुभन वाली बात निकल पड़ी,”ओह भाभी, आप का चेहरा तो पूरी तरह से खराब हो गया है. कितनी सुंदर दिखती थीं आप सच में और अब कैसी दिखने लगी हैं.”

“कुसुम, डाक्टरों ने मेरी नीरा की जान बचा दी, मेरे लिए इस से बड़ी खुशी की बात और कोई नहीं है,” सुनिल ने भावुक हो कर पहले से ही इतनी दुखी नीरा के पास बैठ उस का हाथ सहलाते हुए कहा.

नीरा का खराब चेहरा देख केशव, जोकि केवल उस के रंगरूप पर ही मोहित हुआ करता था, अपना मुंह सिकोङते हुए कहने लगा,”आजकल तो प्लास्टिक सर्जरी का बहुत चलन चल रहा है, भैया. वही करा लीजिएगा.”

इतनी देर से चुप बैठी नीरा ने सब के बीच एक बात कही, जिसे सुन आए हुए मेहमान कुछ देर में नौ दो ग्यारह हो गए.

“केशव भाईसाहब, मैं कभी कोई भी सर्जरी नहीं कराने वाली क्योंकि जिन्हें मैं अपने जीवन में सब से ज्यादा प्रेम करती हूं, उन्हें मैं जैसी हूं वैसी ही पसंद हूं. ऊपरी सुंदरता से तो केवल दुनिया मोहित होती है, इंसान सामने वाले का मन परख ले तो दिखावे का कोई मोल नहीं होता,” नीरा यह बात कह कर बगल में बैठे सुनिल के कंधों पर अपना सिर टिकाया और जज्बातों में बहते हुए अपनी आंखें बंद कर लीं. वह अपने अनियंत्रित मन पर विजय पाने की खुशी से मुसकराने लगी.

चेहरे की किताब : भाग 3

डाइनिंग टेबल पर मलाई कोफ़्ता और बटर-पनीर देख कर सौम्या बोली, “हमें तो उम्मीद थी, नरगिसी कोफ़्ते और बटर-चिकन मिलेगा, यहां तो सब वेज है.”

“वह, दरअसल, पता नहीं था न कि आप…” ज़ुनैरा की बात अधूरी ही रह गई.
“अरे, सारे मुसलिम्स नौन वैजिटेरियन होते हैं जैसे यह सच नहीं है, वैसे ही माथे पर बिंदी लगाए हर लड़की वीगन हो, यह भी ज़रूरी नहीं,” सौम्या हंस दी.

“जी, पर वैज डिश सेफ़ रहती है, डाउट की कंडीशन में,” ज़ुनैरा भी मुसकराई.

“यह बात तो एकदम ठीक है,” ज़रीना बेगम उस की क़ायल हो गईं.

“बहन नाउम्मीद मत करना, बड़ी आस ले कर आई हूं,” जाते वक़्त उन्होंने मिसेज़ इक़बाल से कहा तो उन्होंने गर्मजोशी से जवाब दिया, “तमाम उम्मीदें कुदरत से रखें. फिर मिलेंगे.”

उस के बाद बिजली की फ़ुरती से सारे मामले तय हो गए. दानिश की तफ़्तीश के बाद उधर से ओके सिग्नल पास होते ही ज़रीना बेग़म दानिश को बताने को बेक़रार हो गईं.

दानिश ने कहा, “मैं तो आप की रज़ा में हमेशा से राज़ी हूं. पर आप तो ख़ुश हैं न? तसल्ली कर ली न? ऐसा न हो वक़्ती तौर की पसंदीदगी, किसी मनमुटाव के बाद नपसंदीदगी में बदल जाए और आप के पैमाने पर वह खरी न उतर पाए और आप के रवैयों में बदलाव आ जाए.”

“मेरा कोई पैमाना, कोई शर्त नहीं अब, मेरे बच्चे. बस, तुम दोनों मेरे पास रहो और कुछ नहीं चाहिए. परफैक्ट तो कुछ नहीं होता. बस, मोहब्बत मोटी हो तो हर ऐब पतला नज़र आता है. कुदरत तुम्हें शाद ओ आबाद रखे,” मां ने मोहब्बत से उस के सिर पर हाथ फेरा.

“क्या मैं उस से एक बार फ़ोन पर बात कर सकता हूं. एक बार तसल्ली हो जाए कि वह दिल से राज़ी है,” दानिश ने थोड़े संकोच से कहा.

“अरे ज़रूर. सौ बार इत्मीनान कर ले. यह ले उस का नंबर. मैं तो अब तक हैरान हूं, वह मुझे अपना ही एक हिस्सा लगती है, मुझ से अलग हो कर चलताफिरता. ऐसा कैसे मुमकिन है?”

“चेहरे की किताब से सबकुछ मुमकिन है, अम्मी,” वह बड़बड़ाया.

“क्या मतलब?” ज़रीना बेगम सुन नहीं पाईं ठीक से.

“अरे, मतलब आप का चेहरा खुली किताब है. आप हैं ही इतनी अच्छी. इतनी सादा, इतने आला ज़ौक़ वाली, कोई आप सा कहां है. बस, बनने की कोशिश ही कर सकता है.”

वह प्यार से माँ को देख रहा था.

“चल, बटर पौलिश बंद कर और फोन मिला. बहुत से काम पूरे करने हैं फिर.”

दानिश ने नंबर लिया और घर के बाहर आ गया. पार्क में खुली हवा में उस ने नंबर डायल किया और वीडियो कौल लगा ली.

“सो मिसेज़ दानिश. शादीखानाआबादी मुबारक आप को.”

“मैं ज़ुनैरा इक़बाल हूं और रहूंगी. बाय द वे, ख़ैर, मुबारक.”

“मैं तो सोच रहा था, बच्ची पासिंग मार्क्स कैसे लाएगी. पर यह तो टौप कर गई. इतनी शिद्दत से मेहनत की हमारे लिए.”

“ज़्यादा उड़ो मत. ज़ुनैरा जो करती है, परफैक्शन से करती है. वैसे, हर अजीबोग़रीब शौक तुम्हारी अम्मी को ही होना था? बेगम अख़्तर की ग़ज़लें, रूमी, गुलिस्तां, बोस्तां, एकएक चम्मच दाल टपका कर चावल खाना, आई मीन रियली…”

“ओ हेल्लो, मुझे कितना होमवर्क करना पड़ा, यह मत भूलो. अम्मी के बारे में कितना कम जानता था मैं. न जानने की कोशिश की, न ज़रूरत पड़ी. उन की जिंदगी का मक़सद अब्बू के बाद मैं ही तो था. बस, मेरी पसंदनापसंद माने रखती थी. वह तो इंदौर जा कर नानीमां से मिला, उन के बचपन और जवानी के क़िस्से, हौबीज़, रंग, खाने सब मालूम किए. उन के कालेज की सहेलियों से मिला. तुम्हें तो सारा सिलेबस पकापकाया मिल गया.”

“अच्छा, सिलेबस याद कर के थ्योरी और वाइवा तो मुझे ही देना था न. उस दिन को कोस रही हूं जब एक म्यूचुअल फ्रैंड की फेसबुक पोस्ट पर कमैंट वार चला था अपना.”

“अरे, वह तो मेरी ज़िंदगी का सब से ख़ुशगवार दिन था. इतनी छोटी सी बच्ची इतनी ज़हीन है, यह बात तभी तो पता चली थी.”

“इतनी बार बताया, वह मेरी भतीजी की डीपी थी. बाय द वे, तुम्हारी फ्रैंड रिक्वैस्ट इसीलिए ऐक्सेप्ट की थी कि तुम मेरी बातों से इंप्रैस थे, न कि डीपी से.”

“तुम तो इंप्रैस थीं न मेरी डीपी से,” दानिश ने उसे चिढ़ाया.

“बिल्ली, खरगोश पाल ले इंसान, मुग़ालते पालने से बेहतर है वह,” ज़ुनैरा ने पलटवार किया.

“यह फेसबुक, यह ‘चेहरे की किताब’ जिस ने इस हसीन किताबी चेहरे से मिलवाया, हमेशा शुक्रगुज़ार रहूंगा उस का,” दानिश ने दिल के जज़्बात को ज़बान दी.

“और मेरा भी, कितनी मुश्किल से बातचीत से इंग्लिश अल्फ़ाज़ निकाल कर कामचलाऊ उर्दू सीखी, ठहरठहर कर बोलना, चलना, खाना सीखा, मुश्किल शेर रटे,” ज़ुनैरा ने फ़र्ज़ी कौलर उचकाए.

“मैडम, मेरे एफर्ट कम मत आंकिए. जो कभी बौलीवुड मूवीज़ नहीं देखता था, सलमान और अभिषेक बच्चन को झेलने लगा, हालांकि मेरी टौलरैंस बढ़ी इस से. ज़ीरा राइस के साथ ग्वारफली की सब्ज़ी कोई गंवार ही खा सकता है और गुलाबजामुन रोटी से कौन खाता है? एकदो बजे रात को लौंग ड्राइव सिर्फ चुड़ैलें जाती हैं या भूत. ऐसे सारे पागलपन ‘मुझे पसंद हैं’ कहना पड़े मुझे अम्मी के सामने, ताकि आदत हो जाए उन्हें. एकदम सदमा न लगे उन्हें, न तुम्हें अपने शौक बदलना पड़ें. जानती हो, तुम दोनों मुझे जान से ज़्यादा अज़ीज़ हो. मैं तुम में से किसी को दुखी नहीं देख सकता कभी भी.”

“जानती हूं. जो अपनों का नहीं हो सकता वह किसी का नहीं हो सकता. अम्मी के लिए तुम्हारे प्यार और इज़्ज़त की वजह से ही मैं यह सब करने को तैयार हुई वरना कभी किसी के लिए नहीं बदलती मैं.”

“तुम्हें बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है. बस, मैं यह चाहता था कि अम्मी का आत्मविश्वास क़ायम रहे. उन्हें तसल्ली रहे कि उन की बहू उन का चुनाव है तो फुज़ूल के डर, वहम और अंदेशे उन के दिल में जगह न बना पाएं, तुम्हें ले कर कोई इनसिक्योरिटी न हो और मेरा घर जंग का मैदान न बने.”

“करनी का दारोमदार नीयत पर होता है. हमारी नीयत उन्हें धोखा देने की नहीं, बल्कि उन का मान रखने की ही थी, इसलिए हर मुश्किल आसान होती चली गई. मानना पड़ेगा यह फेसबुक हमेशा फेकबुक नहीं होती. इसी से हर ऐक्टिविटी की जानकारी मिलती रही मुझे. ख़ासकर उस दिन जब तुम ने अम्मी के आने की इत्तला दी, जल्दीजल्दी तैयारी की. जब वे डोरबेल बजाने में हिचक रही थीं, मुझे डर लगा कि वापस ही न लौट जाएं, इसलिए ख़ुद ही दरवाज़े पर आ गई.”

“ओहो, सासुमां से मिलने की इतनी बेताबी थी.”

“अब फ़ोन रखो, शौपिंग करनी है, सब तुम्हारी अम्मी की पसंद की करूंगी.”

“न, अपनी पसंद की करो. अम्मी यहां कर ही रही हैं तुम्हारे लिए. उन को यक़ीन है कि तुम दोनों की पसंद एकदम मिलती है.”

“मेरी पसंद के लिए जिंदगी पड़ी है. मुझे तुम्हारी, मतलब, हमारी अम्मी की पसंद पर पूरा भरोसा है जिन्होंने अपने ठीकठाक से बेटे के लिए दुनिया की सब से नायाब लड़की का चुनाव किया. उन की पसंद पर कौन शक कर सकता है, भला.”

विंड चाइम्स जैसी खनकती हंसी के साथ फोन कट गया था.

New Year Special : हैप्पी न्यू ईयर – भाग 3

2 साल तक यही सिलसिला चलता रहा. कभी लिखित धोखा दे जाता, कभी मौखिक गड़बड़ हो जाता. एकाध बार इन्होंने कहा, ‘हमेशा पैसों की बरबादी.’ मैं ने दर्द से कराहते हुए कहा, ‘मछुआरा हर बार जाल फेंकता है, लहरें हमेशा तो उस का साथ नहीं देतीं.’ चिढ़ कर इन्होंने कहा था, ‘जेब तो मेरी खाली होती है न? कर्ज ले कर घर बना रहा हूं, उस में से हर माह हजारदोहजार…’ मेरे आंसू निकल पड़े.

अचानक सबकुछ बदल गया. एक सरकारी टैलीग्राम ने घर में खुशियों की बौछार कर दी. मेरा भाई पदाधिकारी हो गया था. जमानत के तौर पर मेरे हस्ताक्षर एवं सरकार को 2 लाख रुपए किसी भी क्षण क्षतिपूर्ति के तौर पर लौटा सकने की क्षमता का प्रमाणपत्र उसे चाहिए था. मैं ने जमीन एवं मकान का कागज लिया, नगरनिगम कार्यालय, जिलाधिकारी कार्यालय का चक्कर लगाया तब कहीं जा कर चौथे दिन कागजात मिले. मैं ने एक माह का खर्च उस की जेब में रखा तो उस ने अश्रुपूरित नेत्रों से निहारते हुए मु झे अपनी बांहों में भर कर कहा, ‘दीदी, तुम जन्मजन्मों से मेरी मां हो.’

‘हां रे हां. चल हट. जातेजाते भी रुलाएगा क्या?’ कह कर मैं ने अपने आंसू पोंछ लिए.

6 महीने के अंदर ही सास और ससुर दोनों का देहांत हो गया. पिंटू के जाने के बाद घर यों ही खालीखाली सा लगता था. सासससुर के मरने के बाद तो घर जैसे वीरान हो गया. अब शुरू हुआ पिंटू के लिए रिश्तों का आना. रोज कहीं न कहीं से कोई रिश्ता ले कर आ जाता और लड़की की तसवीरें, कुंडली, बायोडाटा दे कर चला जाता.

लड़की वालों से मैं ने कह दिया, ‘गांव जाइए, वहां मेरे मांबाप से मिलिए…’ मांबाबूजी साफ कहते, ‘जो करना है, तुम करो. हमें तुम्हारा फैसला मंजूर है…’ लेकिन भाई की रुचि बड़ी कलात्मक थी. उसे तो शांति निकेतन में चित्रकार या मूर्तिकार होना चाहिए था. मेरी परिचिता, जिसे वर्षों से मैं ‘दीदी’ का प्यारभरा, अधिकारभरा संबोधन देती आ रही थी, उन्होंने अपनी दीदी की बेटी का जिक्र किया और शादी के लिए मनुहार भी. मैं ने उन की हथेली थाम कर कहा, ‘दीदी, आप की मैं बड़ी इज्जत करती हूं, इस रिश्ते को पक्का समझिए.’

शगुन हुआ, फलदान हुआ. मेरे पति, जिन्होंने मेरे भाई के लिए पिता की तरह कर्तव्यपालन किया था, फलदान में यों उपेक्षित हुए जैसे उन का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता हो. वर पक्ष वालों के लिए न सूट, न चादर, न रूमाल, न उपहार. मैं ने मन को डांट दिया, ‘बेचारे किसकिस को कपड़े देते? छोड़ो भी…’

तिलक हुआ, अम्मा के लिए साड़ी नहीं, मानो आग में घी पड़ गया. सारे गांव में थुक्काफजीहत मची, ‘बेटी ने बुढ़ापे में अम्मा को उपेक्षित कर डाला. लड़की वालों ने बेटे की मां को एक साड़ी तक नहीं दी, छी… छी… दहेज को मारो गोली, पर रस्मरिवाज तो जरूरी हैं, कैसे लोगों के घर रिश्ता तय किया है आप की लाड़ली ने?’

मैं ने ग्रामीण महिलाओं के अंधतर्कों से लड़ना बेकार सम झा. पंचायत भवन गई, फोन मिलाया और रेणु दी से कहा, ‘एक हजार रुपए की औकात क्या है, दीदी? एक मामूली सी साड़ी और बाबूजी के लिए जोड़ी कुरताधोती आप कल किसी के हाथों भेज दें वरना अम्मा का असहयोग विद्रोह का रूप ले लेगा…’ उधर से रेणु दी ने निश्ंिचतभाव से कहा, ‘गलती हो गई, बहन. यह तो मामूली सी बात थी. मैं कल ही भेज दूंगी.’

अम्मा सीधीसादी महिला ठहरीं. बच्चों की तरह  झट मान गईं. खुशीखुशी सारी रस्में पूरी करतीं और सहेलियों से कहतीं, ‘भूल गए बेचारे. बेटी वाले क्या करें? भूलचूक तो होती ही है.’

बरात जाने को 2 दिन रह गए पर सौगात नदारद. अम्मा कभी मु झे कोसतीं, कभी स्वयं रोने लगतीं, ‘हाय, मैं तो पूरे गांव में बेइज्जत हो गई. बेटा जनने का कौन सा सुख मिला मु झे?’ कोई धीरे से कहती, ‘साड़ी, पैसा सब तो बेटी ने दलाली खा ली, मां को क्या मिलेगा?’

मैं फूटफूट कर रोने लगी. हमारी बेबसी, मूर्खता और लोगों की तानाकशी को सुनसुन कर इन्होंने कहा, ‘चलिए, हम लोग शहर से खुद ही साड़ीवाड़ी ला कर मां को दे दें.’ मैं नल पर जा कर हाथमुंह धोने लगी. तभी किसी की आवाज आई, ‘अब ऐसा भी सतयुग नहीं आया है, बहनजी. दाल में जरूर कुछ काला है,  तभी तो मोतिहारी जा कर कपड़ा लाने का प्रोग्राम बन गया है… दलाली का रंग देखिए.’

फिर मैं ने यहां की स्थिति बताने के लिए रेणु दी को फोन किया.

फोन पर रेणु दी गरज उठीं, ‘आप लालची लोग हैं. हम कुछ नहीं भेजेंगे. कोई रस्मवस्म नहीं मानते हम. बरात तो लानी ही होगी आप को, वरना कोर्टकचहरी के लिए तैयार रहिए.’ एक तरफ कुआं दूसरी ओर खाई. पिंटू से कहती तो शादी टूट जाती. मां से कहना व्यर्थ था. कलेजे पर सिल रख ली.

शादी हो गई. दुलहन के आते ही कानाफूसियों का बाजार गरम हो गया. मैं सुबहसुबह मुजफ्फरपुर चली आई.

दिल्ली जाओ, बौंबे जाओ पर बिना मुजफ्फरपुर आए रास्ता कहां है उत्तरी बिहार में. पिंटू इसी रास्ते गया, पर मेरे घर नहीं आया. जितने मुंह उतनी बातें. ताने, छींटे, व्यंग्य, अपमान, बस, यही सब सहती रही. यही है भाईबहन का रिश्ता.

तभी घर की घंटी बजी, दरवाजा खोला तो ‘‘दीदी, दीदी, हैप्पी न्यू ईयर’’ का खिलखिलाता हुआ स्वर कानों में पड़ा. मेरी तंद्रा भंग हुई. पिंटू और उस की दुलहन ने मेरे पांव पर  झुक कर प्रणाम किया मु झ से आशीर्वाद मांग रहे थे.

‘‘युगयुग जीओ, फूलोफलो, सदा सुखी रहो. नित होली, नित दीवाली मनाते जीवन कट जाए. हंसीखुशी…’’ मैं कहती गई.

‘‘बस, बस, दीदी, कुछ अगले साल के लिए भी तो रखो,’’ पिंटू का स्वर था.

मैं खुश थी. बहुत खुश. सारे गिलेशिकवे जाने कहां गुम हो चुके थे.

गोमती पुस्तक महोत्सव : दर्शक ज्यादा खरीदार कम

मेले को देखने के दौरान एक मजेदार वाक्य दिखा. दो दोस्त टहलते हुए एक एक बुक स्टाल देख रहे थे. एक बुक स्टाल पर ‘लखनऊ के साहित्यकार’ नामक से किताब दिखी. मजाकिया लहजें में उस ने अपने दोस्त से कहा,”अरे लखनऊ में साहित्यकार भी हैं.” मजाक से हट कर इस बातचीत को देखें तो साफ लगता है कि लोगों ने किताबों को पढना बंद कर दिया है तो उन की सोच और समझ का दायरा भी सिमटता जा रहा है. लखनऊ हमेशा से ही साहित्य से जुड़ा रहा है. एक से एक साहित्यकार यहां रहे हैं.

वैसे लखनऊ का यह रिवर फ्रंट नए लड़के लड़कियों के लिए टहलने की पसंदीदा जगह है. बुक फेयर के दौरान भी वे यहां किताबों को खरीदने के बहाने आते हैं. मेले में ज्यादातर नौवल, बच्चों की बुक्स, मोटिवेशनल बुक्स, साहित्य की किताबें, जीवनी और महापुरूषों से संबंधित किताबें मौजूद थी. राधा स्वामी न्यास और वेद को ले कर दो अलग स्टाल दिखे. स्कूली बच्चों को यहां बुक फेयर दिखाने के लिए स्कूल वाले ले कर आते हैं. नैशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित होने के कारण सामान्य बुक स्टाल नहीं दिखाई दे रहे थे. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव अंबेडकर पर लिखी किताबें भी मौजूद थी. जिन में लोग रुचि दिखा रहे थे.

22 सितंबर से 2 अक्टूबर तक लखनऊ के ही बलरामपुर मैदान पर राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा था,जिस में 100 से ज्यादा बुक स्टाल लगे थे. इन के बुक स्टाल बड़े और किताबों की संख्या भी अधिक थी. यहां दलित साहित्य और धार्मिक साहित्य के साथ ही साथ हर तरह की किताबें थी. पूरे मेले में 1 करोड़ से अधिक की मूल्य की किताबों की बिक्री हुई थी.

आज के दौर में किताबें पढ़ना बेहद जरूरी है. किताबेें पढ़ने से लोगों में तर्क करने की ताकत बढ़ती है. यह जानकारी का खजाना होती है. जीवनी और संस्मरण पढ़ने से लोग कैसे आगे बढ़े इस की सीख मिलती है. इस से डिप्रैशन और तनाव जैसे हालातों से निकलने में मदद मिलती है. जब तक लोग रुचि नहीं दिखाएंगे तब तक प्रकाशक और बिक्रेता अपने स्तर से कुछ नहीं कर पाएंगे. इस तरह के मेले आयोजित होने से पाठकों में किताबों के प्रति रुचि को बढ़ाया जा सकता है. कोचिंग संस्थाओं का विज्ञापन यहां भी पहुंच गया है.

भारत और मालदीव के बीच फिर दरक रहे हैं रिश्ते

मालदीव ने आजकल ‘इंडिया आउट’ का अभियान छेड़ रखा है. अभी कुछ दिन पहले मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जू ने भारत से कहा था कि वे अपने सारे सैनिक मालदीव से वापस बुला ले और अब मोइज्जू सरकार ने द्वीप के जल का हाइड्रोग्राफिक सर्वे के समझौते को रिन्यू करने से मना कर दिया है. यह समझौता मोहम्मद मोइज्जू सरकार से पहले मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात के दौरान 8 जून 2019 को हुआ था. तब भारत को मालदीव के क्षेत्रीय जल का हाइड्रोग्राफिक सर्वेक्षण करने के साथ साथ चट्टानों, लैगून, समुद्र तट, समुद्री धाराओं और ज्वार के स्तर का अध्ययन करने और चार्ट बनाने की इजाजत दी गयी थी.

मोहम्मद मोइज्जू की सरकार बनने के बाद यह पहला द्विपक्षीय समझौता है जिसे आधिकारिक तौर पर समाप्त किया जा रहा है. इस के पीछे कारण बताते हुए कहा गया है कि इस तरह के सर्वे और ऐसी संवेदनशील जानकारी शेयर करना उन की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है. भविष्य में हाइड्रोग्राफी का काम 100 प्रतिशत मालदीव प्रबंधन के तहत होगा और केवल मालदीव के लोगों को इस की जानकारी दी जाएगी.

आखिर भारत-मालदीव जो एक समय बहुत अच्छे साथी थे उन के रिश्ते में दरार क्यों आने लगी है?

दरअसल, मालदीव के छठे राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद समेत सभी विपक्षी नेताओं को कैद करवा दिया था. मोहम्मद नाशीद भारत के बड़े समर्थक थे.सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यामीन को तुरंत सभी नेताओं को रिहा करना होगा, मगर अब्दुल्ला यामीन ने साफ कर दिया कि वह सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं मानने वाले हैं.उल्टा उन्होंने मालदीव में इमरजेंसी का ऐलान कर दिया. 45 दिनों तक चले इस आपातकाल का भारत ने कड़ा विरोध किया.

ऐसा नहीं था कि मालदीव में बदल रहे घटनाक्रम से सिर्फ भारत ही परेशान था. इस की वजह से चीन भी परेशानी में था. इसी बीच अब्दुल्ला यामीन ने अपने दूतों को चीन, पाकिस्तान और सऊदी अरब भेजा. दूत के पहुंचने के तुरंत बाद आश्चर्जनक रूप से चीन का बयान आया कि मालदीव में किसी को दखलअंदाजी नहीं करनी चाहिए. हालांकि, उस ने कुछ समय बाद खुद ही मालदीव की ओर अपने जहाज भेजने शुरू कर दिए.

वहीं, भारत ऐतिहासिक रूप से मालदीव की मदद करता रहा है. 1988 में राजीव गांधी ने सेना भेज कर मौमून अब्दुल गयूम की सरकार को बचाया था. 2018 में ही जब पानी का संकट गहराया तो भारत ने मालदीव तक जल पहुंचाया. यही वजह थी कि मोहम्मद नाशीद ने भारत से मदद की गुहार लगाई. भारत अपनी विदेश नीति के चलते अपने सैनिकों को तो नहीं भेज पाया, मगर उस ने कड़े शब्दों में अब्दुल्ला यामीन की आलोचना की और इमरजेंसी खत्म करने की मांग की.

यहीं से दोनों देशों के रिश्ते बिगड़ने की शुरुआत होने लगी. राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के वक़्त ये रिश्ते कुछ ठीक हुए और प्रधानमंत्री मोदी के मालदीव यात्रा के दौरान कुछ बड़े समझौते भी हुए. राष्ट्रपति सोलिह ने भारतीय प्रधानमंत्री को मालदीव के सर्वोच्च सम्मान ‘निशान इज्जुदीन’ से भी सम्मानित किया. मगर मोहम्मद मोइज्जू के सत्ता संभालते ही रिश्तों में फिर कड़वाहट भर रही है. भारत के लिए चिंता की बात यह है कि मोहम्मद मुइज्जू चीन समर्थक नेता हैं. चीन को मालदीव ने एक द्वीप भी लीज पर दिया हुआ है. भारत को लगता है कि अगर चीन की मौजूदगी वहां होती है, तो यह उस के लिए बड़े खतरे की बात है. ऊपर से अगर भारतीय सैनिकों की मौजूदगी भी मालदीव से खत्म हो जाती है तो दोहरी चिंता की बात होगी.

आदमी के अंदर का हिंसक जानवर परदे पर: फिल्म ‘एनिमल’ की हिंसा हमारी संस्कृति का हिस्सा

संदीप रेड्डी वांगा की फिल्म ‘एनिमल’ में अभिनेता रणवीर कपूर के अभिनय की बहुत तारीफ की जा रही है, वहीं दूसरी ओर इस की बुराई भी खूब हो रही है. फिल्म में हिंसक और इंटिमेट सीन्स को ले कर तमाम तरह की बातें कही जा रही हैं. कुछ लोग तो ‘एनिमल’ के कंटैंट पर भी सवाल उठा रहे हैं.

यही नहीं, फिल्म के मुख्य किरदार रणविजय यानी रणबीर कपूर को बहुत ही हिंसक और महिला विरोधी और स्त्रियों के अस्तित्व पर बड़ा आघात करने वाली बताया जा रहा है.

कई सेलेब्स ने इस फिल्म का विरोध भी किया है. सिंगर स्वानंद किरकिरे ने तो ‘एनिमल’ को भारतीय सिनेमा को शर्मसार करने वाली फिल्म बताया है.

मानव भावनाओं का तीव्र प्रदर्शन

संदीप रेड्डी ने इस से पहले हिंसक फिल्म कबीर सिंह बनाई थी, उस में भी उन्होंने मानव भावनाओं को तीव्र रूप में प्रस्तुत किया था, हालांकि कुछ को फिल्म में शाहिद कपूर के आक्रामक एक्टिंग को पसंद किया गया, लेकिन बहुतों को फिल्म की कौ कौन्सेप्ट पसंद नहीं आई.

अधिकतर युवा दर्शकों ने इसे बीमार मानसिकता वाले व्यक्ति की संज्ञा दी, जो आज के परिवेश में सही नहीं बैठती, जहां महिलाएं प्यार को पाने के लिए कुछ भी सहने के लिए आज तैयार नहीं होती. यही वजह है कि युवाओं में डायवोर्स की संख्या लगातार बढती जा रही है.

सेलेब्स की नापसंद की वजह

‘एनिमल’ का किरदार रणविजय भी कबीर सिंह का एक्सटेंड फौर्म है, जिस के लिए हिंसा कोई बड़ी बात नहीं है. परिवार पर किसी भी प्रकार की समस्या आने पर वह पलक झपकते निर्णय ले लेता है और हिंसा पर उतारू हो जाता है.

मनोवैज्ञानिक राशिदा मानती है कि कई सैलेब्रिटी ने इस फिल्म को नापसंद करने की वजह यह रही होगी कि आज की तारीख में पैरेंट्स बच्चों की भविष्य को सुधारने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, उन की उपेक्षा कतई नहीं करते, ऐसी फिल्में परिवार और समाज को गलत संदेश देती है.

परिवार से प्रेम करने वाला एक साधारण बच्चा इतना हिंसक नहीं हो सकता. इसे मानसिक बीमारी कही जानी चाहिए, क्योंकि सीमा से परे कोई भी व्यवहार बीमारी ही होती है और किसी भी मानसिक बीमार व्यक्ति की प्रशंसा करना उचित नहीं, क्योंकि ‘एनिमल’ का किरदार रणविजय बहुत हिंसक है. वह लोगों को गाजरमूली की तरह काटने से पहले जरा भी नहीं सोचता. शिक्षा संस्थान में भी हिंसात्मक हरकत करता है.

रणबीर कपूर की अधिकतर फिल्में फ्लौप जा रही थीं पर इस तरह की वायलैंस पर फिल्में करना वह शायद पसंद कर रहे हों यह अंदाजा शायद किसी को नहीं था.

इस तरह की फिल्म अगर किसी भी रूप में सफलता का दावा करती है तो आगे कई निर्मातानिर्देशकों को गलत मैसेज जाएगा कि जब इस फिल्म में वायलैंस और सैक्स से कोई भी आज के दर्शक खुद को रिलेट कर रहे हैं तो और क्यों नहीं बनाई जाएं. वैसे नैटफ्लिक्स और प्राइम वीडियो पर लगभग इसी तरह की वायलैंस करने वाली फिल्में देखने को मिल रही हैं.

संदीप रेड्डी वांगा को इस तरह की कहानी से निकल कर कुछ और लिखने की जरूरत है, जिस से आम इंसान रिलेट कर सकें.पर ये भी सही है कि इस तरह की फिल्में दर्शकों को परपीड़न का सुख देती हैं और उन्हें उत्तेजक और असंवेदनशील बनाती है. वे कई बार ऐसी ग्राफिकल
वायलैंस के दृश्यों को देख कर पीड़ित व्यक्ति के दर्द को समझ नहीं पाते, क्योंकि फिल्मों में ऐसे हिंसात्मक दृश्यों और उसे करने वाले को बहुत अच्छी तरह से ग्लोरिफाई कर दिखाया जाता है.

इतिहास है साक्ष्य

यही वजह है कि पिछले दिनों राजस्थान के जयपुर में राजपूत करणी सेना के मुखिया सुखदेव सिंह गोगामेड़ी की हत्या को भी ‘एनिमल’ फिल्म स्टाइल से जोड़ा गया, क्योंकि उन्हें मारने वालों ने भी थोड़ी बातचीत के बाद ताबड़तोड़ गोलियां गोगामेड़ी पर चलाई, जो हाल ही में रिलीज हुई ‘एनिमल’ फिल्म की स्टाइल से मेल खाती हुई है.

जिस शख्स के साथ दोनों शूटर आए थे, उन दोनों शूटर ने उन्हें भी गेगामेड़ी के साथ बेरहमी से शूट कर दिया.

हिंसा ने हमेशा युद्ध को ही जन्म दिया है. इसलिए किसी भी परिवार और समाज के लिए हिंसा कभी सही नहीं हो सकता और ऐसे हिंसात्मक मानसिकता वाले व्यक्ति को बीमार की संज्ञा दी जाती है, जिस का इलाज जरूरी होता है.

दिक्कत यह है कि इस तरह की वायलैंस हमें बारबार सुनाई जाती रही है. महाभारत के भीष्मपर्व में युद्ध का वर्णन कुछ इस तरह का है :
रणभूमि में जहां तहां लाखों सैनिकों का ‘मर्यादाशून्य’ युद्ध चल रहा था. न पुत्र पिता को पहचानता था, न पिता अपने  पुत्र को. न भाई भाई को जानता था, न मामा अपने भांजे को.

परस्पर धावा करने वाले शूरवीरों के चमकीले खड्ग मनुष्य के रक्त से रंगे हुए थे. कितने ही मनुष्यों के अंगभंग हो गए थे, कितनों को हाथियों ने कुचल दिया था. कितने ही योद्धा शत्रु पर बायीं पसली पर चोट कर के उसे विदीर्ण करने के लिए टूट पड़ते हैं. कितनों को हाथियों ने मसल दिया. कितनों के शरीर रथ के पहिए से कट गए. बहुतों की आंतें बाहर निकल कर बिखर गईं.

महाभारत के संग्राम में पिता ने पुत्र को, पुत्र ने पिता को, भांजे ने मामा को, मित्र ने मित्र को मार डाला. अभिमन्यु ने पितामह भीष्म के रथ के सारथी का मस्तक धड़ से अलग कर दिया.

(महाभारत: गीता प्रैस प्रकाशन, खंड 3 , भीष्मपर्व, पृष्ठ 809 से 811)

यह हिंसा तो हमारी सनातन संस्कृति का हिस्सा है और संदीप रेड्डी वांगा ने सिर्फ रणबीर कपूर के सहारे उसे सिल्वर स्क्रीन पर पेश किया है. जब देश अपनी संस्कृति को दोबारा बिना सवाल किए पहचानने के लिए उत्सुक हो रहा है तो इस तरह की फिल्में बनेंगी ही, चाहे निर्माता के दिमाग में महाभारत थी या नहीं.

मनोरंजन है गायब

कुछ लोग कहते हैं कि इतना अधिक वायलैंस और सैक्स आजकल फिल्मों में ग्लोरिफाई कर दिखाया जा रहा है कि किसी भी फिल्म को हौल में जा कर देखने की इच्छा नहीं होती.

मनोरंजन और हंसी फिल्मों से पूरी तरह गायब हो चुका है. वायलैंस वाली फिल्मों को देखने पर मन दुखी होता है. कोविड के बाद से वायलैंस वाली फिल्मों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है.

मसलन फिल्म ‘KGF’ की सीरीज, ‘आरआरआर’, ‘पुष्पा’, ‘बीस्ट’ आदि साउथ फिल्म इंडस्ट्री की कुछ ऐसी फिल्मे हैं जो पेंडेमिक के बाद की मनोरंजन वाली फिल्मों में गिना गया, जिसे पैन इंडिया के लेवल पर रिलीज भी किया गया और इन फिल्मों ने प्रचुर मात्रा में कमाई भी की. इस से निर्माता, निर्देशकों ने ये समझ लिया है कि सैक्स, क्राइम और वायलैंस ही सब से अधिक बिकने वाला कंटैंट है.

इन सभी फिल्मों में वायलैंस या तो बीटिंग, किलिंग, गन शूटिंग से ले कर किसी भी प्रकार की जितनी निर्दयता दिखाई जा सकती हो, दिखाई गई है.

पैन इंडिया मूवी अब एक मुख्य पार्ट बन गया है. फिल्मों का असर दर्शकों पर कितना होता है इसे समझने के लिए साल 1981 की फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ का उदहारण लिया जा सकता है, इस में अभिनेता कमल हासन और अभिनेत्री रति अग्न‍िहोत्री की इस फिल्म का असर इस हद तक यूथ प्रेमी जोड़े में होगा, किसी ने सोचा नहीं था.

इस फिल्म को देखने के बाद कई युगल प्रेमी जोड़े ने आत्महत्या तक कर डाली थी.

क्या है दर्शकों की पसंद

दर्शक एक्शन फिल्म पसंद करते हैं, इस के लिए वे हौल तक खींचे चले आते हैं. वायलैंस दर्शक कभी पसंद नहीं करते. वायलैंस और एक्शन में भी जमीन और आसमान के फर्क को शायद लेखक, निर्माता, निर्देशक समझ नहीं पा रहे हैं.

यही वजह है कि वे एक के बाद एक वायलैंस वाली फिल्में बना रहे हैं, लेकिन इतना सही है कि जिस दिन दर्शक इन फिल्मों को नकारना शुरू कर देंगे, फिल्म मेकर ऐसी फिल्में बनाना भी बंद कर देंगे.
जैसा तमिल फिल्म मेकर एल सुरेश ने स्वीकारा है कि उन की फिल्म ‘बीस्ट’ को भी दर्शकों ने पसंद नहीं किया और करोड़ों की लागत से बनी फिल्म फ्लौप रही. जब तक धर्मग्रंथों को आदर्श मानते रहेंगे, वायलैंस को प्रतिष्ठा मिलती रहेगी.

समाज का आईना

फिल्मों को देख कर उत्तेजित हो कर क्राइम करने की घटनाएं कई है, लेकिन ऐसी हिंसात्मक चीजों की व्यूअरशिप अधिक होने की वजह से ओटीटी से ले कर थिएटर सभी में इसे ग्लोरिफाई कर परोस रहे हैं. वर्ष 1960 के दशक की शुरुआत से ही इस तरह के शोध के सबूत जमा हो रहे हैं जो बताते हैं कि टैलीविजन, फिल्मों, वीडियो गेम, सेल फोन और इंटरनैट पर हिंसा के संपर्क में आने से दर्शकों में हिंसक व्यवहार का खतरा बढ़ जाता है, मसलन वास्तविक वातावरण को न समझ पाना, जिस से वे अनजाने में ही हिंसा कर बैठते हैं.

मनोवैज्ञानिक सिद्धांत भी इस बात से सहमत है कि हिंसा के संपर्क में आने से अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों के लिए हानिकारक प्रभाव पड़ता है.

वर्ष 2000, में फेडरल ट्रेड कमीशन ने अमेरिका के प्रेसिडैंट और कांग्रेस के रिक्वेस्ट पर एक रिपोर्ट इशू किया, जिस की सर्वे में भी पाया गया है कि हिंसात्मक फिल्मों का असर हमेशा नकारात्मक अधिक होता है.

सर्वे में सवाल पूछा ही नहीं जाता कि कितनी हिंसा लोग धर्मजनित कहानियों से सीखते हैं. इजराइल और फिलिस्तीनी तथा रूस-यूक्रेन युद्ध में भी यही हिंसा हो रही है और वहां भी धर्म इन के पीछे है.

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