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हेल्दी डाइट से क्यों दूर हो रहे हैं युवा ?

आज युवाओं में फास्टफूड की आदत तेजी से पनप रही है. इस से उन की सेहत को कितना नुकसान हो रहा है, इस बात का अंदाजा उन्हें तब लगता है जब उन का शरीर इस छोटी सी आयु में ही रोगग्रस्त होने लगता है. संतुलित भोजन के अभाव में शरीर कईर् तरह की बीमारियों से घिरने लगता है. इन बीमारियों में मुख्यरूप से मोटापा, मधुमेह, उच्च रक्तचाप असमय आंखों में चश्मा लगना और बालों का सफेद होना शमिल है :

कैसे जिएं स्वस्थ जीवन

युवाओं को चाहिए कि वे युवावस्था से ही ताउम्र स्वस्थ जीवन जीने के लिए अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग रहें.

–  सुबह साढ़े 5 से 6 बजे के बीच नियमित उठने की आदत डालें.

– उठते ही रोज 2-3 गिलास कुनकुना पानी पिएं. इस से पेट साफ रहेगा और पूरे दिन शरीर में ताजगी बनी रहेगी.

– नियमित रूप से दांत साफ करें और चेहरा अच्छी तरह धोएं. इस से रात को चेहरे पर आई मृत चमड़ी के साफ होने से चेहरे के रोमकूप खुल जाते हैं और चेहरा चमकने लगता है.

– हर रोज सुबह व्यायाम करें.

–  व्यायाम के बाद थोड़ा आराम कर स्नान अवश्य करें, इस से शरीर के रोमकूप साफ हो कर खुलते हैं और दिनभर पसीने के रूप में शरीर की गंदगी के लिए बाहर निकलने का रास्ता बनता है. इस तरह त्वचा में ताजगी बनी रहती है.

– जब भी समय मिले, 1-2 घंटे मैदान में जा कर खूब खेलें और पसीना बहाएं.

– हमेशा संतुलित भोजन ही करें.

भोजन हमें स्वाद के लिए नहीं करना चाहिए बल्कि स्वस्थ रहने के लिए करना चाहिए, इसलिए बिना भूख के खाना न खाएं. मनुष्य यह आदत जानवरों से भी सीख सकता है. जानवरों का पेट भरा होने के बाद आप चाहे उन के सामने कितना ही अच्छा चारा क्यों न डालें, वे नहीं खाते. यही कारण है कि जानवर कभी मोटापे का शिकार नहीं होते.

भोजन के समय को हम 3 भागों में बांट सकते हैं:

1. सुबह का नाश्ता, 2. दोपहर का भोजन, 3. रात्रि का भोजन.

नाश्ता : नाश्ते में दूध, अंडा, मक्खन, पनीर, अंकुरित अनाज, कच्चा सलाद, दलिया, उपमा, चपाती, हरी सब्जियां, सूखे मेवे, फल इत्यादि हर रोज अपनी इच्छानुसार बदलबदल कर ले सकते हैं. इन में से मनपसंद चीजें रोटी में डाल कर रोल बना कर खाया जा सकता है. इस तरह का पौष्टिक नाश्ता शरीर को स्वस्थ और तरोताजा रखता है.

कुछ लोग नाश्ता करना आवश्यक नहीं समझते जोकि सरासर गलत है. चूंकि हम रातभर लंबे समय तक बिना कुछ खाए रहते हैं इसलिए अगले दिन शरीर में ऊर्जा और स्फूर्ति बनाए रखने के लिए सुबह का नाश्ता अनिवार्य है. यदि हम अधिक शारीरिक परिश्रम करते हैं और भूख लगती है तो  दोपहर के भोजन से 2 घंटे पहले और शाम को जूस या अन्य हलका भोजन भी ले सकते हैं.

दोपहर का भोजन :  दोपहर का भोजन आवश्यकतानुसार भरपेट खाएं. इस समय हमारा भोजन कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण विटामिनयुक्त संतुलित भोजन होना चाहिए.

रात्रि भोजन :  रात्रि का भोजन सोने से 2-3 घंटे पहले अवश्य कर लेना चाहिए. भोजन करने के तुरंत बाद सोने से भोजन ठीक से पचता नहीं है. रात्रि का भोजन संतुलित होने के साथसाथ दोपहर के भोजन से हलका और सुपाच्य होना चाहिए, क्योंकि इस समय हमारे शरीर को केवल आराम ही करना होता है.

संतुलित भोजन के स्रोत

कार्बोहाइड्रेट्स : यह शरीर को शक्ति देता है. शारीरिक परिश्रम करने वालों को इस की अधिक आवश्यकता होती है. यह हमें स्टार्च वाले खा- पदार्थों जैसे चावल, आटा, मैदा, आलू विभिन्न प्रकार के अनाजों, दालों आदि से प्राप्त होता है. यह मीठे फलों खजूर, गन्ना, शलजम, चुकंदर, मेवा, चीनी, गुड़, शक्कर, शहद इत्यादि से प्राप्त होता है. इस की कमी से शरीर में निर्बलता आती है और भोजन भी ठीक से पचता नहीं है.

प्रोटीन : शारीरिक शक्ति प्रदान करने, कोशिकाओं की टूटफूट में सुधार करने, नई कोशिकाएं बनाने, मानसिक शक्ति बढ़ाने, रोग निवारणशक्ति उत्पन्न करने और शारीरिक वृद्धि के लिए भोजन में प्रोटीन का सेवन बहुत आवश्यक है. प्रोटीन में नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है जो शारीरिक वृद्धि के लिए बहुत जरूरी है. नाइट्रोजन प्रतिदिन मूत्र के साथ काफी मात्रा में हमारे शरीर से बाहर निकलता रहता है. इसलिए इस कमी को पूरा करने के लिए हमें प्रतिदिन प्रोटीन का सेवन अवश्य करना चाहिए.

यह हमें 2 प्रकार से प्राप्त होता है :

1. वनस्पति प्रोटीन, 2. पशु प्रोटीन.

वनस्पति प्रोटीन हमें मटर, मूंग, अरहर, चना, अंकुरित अनाजों और हरी सब्जियों से प्राप्त होता है जबकि पशु प्रोटीन हमें दूध, मक्खन, पनीर, मांस, अंडे, मछली आदि से प्राप्त होता है जो उच्चकोटि का प्रोटीन माना जाता है.

इस की कमी से शारीरिक विकास रुक जाता है, त्वचा पर झाइयां पड़ जाती हैं, बाल झड़ जाते हैं, लिवर बढ़ जाता है. और बच्चों को सूखा रोग हो जाता है. इस की अधिकता से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता.

वसा : भोजन में पोषक तत्त्वों में वसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस के प्रयोग से शरीर में गरमी और शक्ति उत्पन्न होती है. यह शरीर के ऊतकों की क्षय हुई चरबी को पूरा करती है, त्वचा में चमक बनी रहती है और कार्बोहाइड्रेट्स को पचाने में सहायता मिलती है.

यह हमें 2 प्रकार से प्राप्त होती है :

1. वनस्पति वसा,  2. प्राणीजन्य वसा.

वनस्पति वसा हमें विभिन्न प्रकार के   खा- तेलों, बादाम, अखरोट, सोयाबीन, नारियल, काजू, पिस्ता, मूंगफली इत्यादि से प्राप्त होती है जबकि प्राणीजन्य वसा हमें घी, दूध, मक्खन, क्रीम, मछली के तेल आदि से प्राप्त होती है.

इस की कमी से त्वचा शुष्क हो जाती है और अधिकता से शरीर मोटा होने लगता है, पाचनक्रिया ठीक नहीं रहती, शरीर में बहुत अधिक मात्रा में वसा के एकत्रित होने से पित्ताशय में पथरी का डर रहता है.

खनिज लवण : हमारे शरीर में कैल्शियम, पोटैशियम, सोडियम, मैगनीशियम, फास्फोरस, लोहा, आयोडीन, क्लोरीन, सिलोकौन, सल्फर आदि अनेक क्षारीय पदार्थ पाए जाते हैं जो शरीर को रोग और निर्बलता से बचाते हैं. ये हमें विभिन्न प्रकार के खा- पदार्थों, हरी पत्तेदार सब्जियों में पालक, चौलाई, सरसों का साग, मूली के पत्ते आदि से प्राप्त होता है. दूध से हमें कैल्शियम और फास्फोरस नामक खनिज लवण मिलते हैं.

कैल्शियम तथा फास्फोरस हड्डियों और दांतों का निर्माण व उन्हें मजबूत बनाते हैं. सोडियम, पोटैशियम, क्लोरीन और फास्फोरस घुलनशील लवण हैं जो शरीर को तरल द्रव पहुंचाते हैं.

इन की कमी से स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. कैल्शियम की कमी से दांत और हड्डियां कमजोर होती हैं. बच्चों की वृद्धि रुक जाती है. लोहे की कमी से शरीर पीला पड़ जाता है जबकि आयोडीन की कमी से गलगंड नामक रोग हो जाता है. फास्फोरस की कमी से हड्डियों में विकार आ जाता है और मांसपेशियां दिखाई देने लगती हैं. पोटैशियम की कमी से हृदय की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं और घबराहट होने लगती है.

विटामिन :  फल, दूध, कच्चे अंडे और हरी सब्जियों में अधिकता से पाए जाते हैं. ये ताप सहन नहीं कर सकते, इसलिए खा- पदार्थों को उबालने, तलने, गलने और सूखने से विटामिन नष्ट हो जाते हैं. विटामिन कई प्रकार के होते हैं :

विटामिन ‘ए’ :  यह ताजा घी, मांसाहारी पदार्थों, बंदगोभी, गाजर, मेथी के साग आदि में पाया जाता है. इस की कमी से रात को कम दिखाई देता है, लिवर में पथरी बनने लगती है, शरीर दुर्बल हो जाता है, दांतों में पायरिया नामक रोग हो जाता है.

विटामिन ‘बी’ :  यह ताजे फलों, सब्जियों, दूध, अनाज के ऊपरी छिलकों में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है. इस की कमी से बेरीबेरी नामक रोग होता है जबकि विटामिन ’बी 12‘ की कमी से एनीमिया हो जाता है.

विटामिन ‘सी’ :  यह आंवला, नीबू, संतरे, मौसमी, टमाटर, अंकुरित अनाज आदि में पाया जाता है. इस की कमी से स्कर्बी नामक रोग होता है.

विटामिन ‘डी’ :   यह सूर्य के प्रकाश से मानव शरीर में बनता है. इस के अतिरिक्त यह दूध, अंडे, मक्खन, पनीर, हरी पत्तेदार सब्जियों, मछली के तेल आदि में भी मिलता है. इस की कमी से रिकेट्स नामक रोग होता है जिस में हड्डियां विकृत और कमजोर हो जाती हैं.

आप भी तो नहीं आए थे : भाग 2

भैया का दूसरा बेटा कनाडा में साइंटिस्ट है. उस का नाम चिन्मय है.

मैं ने पूछा, ‘‘चिन्मय को सूचना दे दी?’’

‘‘हां… उसे भी फोन कर दिया है,’’ भैया बोले, ‘‘जानते हो क्या बोला?

‘‘ ‘ओह, वैरी सैड…मौम चली गईं, खैर, बीमार तो थीं ही, उम्र भी हो चली थी. एक दिन जाना तो था ही, कुछ बाद में चली जातीं तो आप को थोड़ा और साथ मिल जाता उन का. पर अभी चली गईं. डैड, एक दिन जाना तो सब को ही है. धैर्य रखिए, हिम्मत रखिए. आप तो पढ़ेलिखे हैं, बहुत बड़े डाक्टर हैं. मृत्यु से जबतब दोचार होते ही रहते हैं. टेक इट ईजी.’

‘‘मैं सिसक पड़ा तो बोला, ‘ओह नो, रोइए मत, डैड.’

‘‘मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘जल्दी आ जाओ बेटा.’

‘‘ ‘ओह नो, डैड. मेरे लिए यह संभव नहीं है. मैं आ तो नहीं सकूंगा, जाने वाली तो चली गईं. मेरे आने से जीवित तो हो नहीं जाएंगी.’

‘‘ ‘कम से कम आ कर अंतिम बार मां का चेहरा तो देख लो.’

‘‘ ‘यह एक मूर्खता भरी भावुकता है. मैं मन की आंखों से उन की डेड बाडी देख रहा हूं. आनेजाने में मेरा बहुत पैसा व्यर्थ में खर्च हो जाएगा. अंतिम संस्कार के लिए आप लोग तो हैं ही, कहें तो कुछ रुपए भेज दूं. हालांकि उस की कोई कमी तो आप को होगी नहीं, यू आर अरनिंग ए वैरी हैंडसम अमाउंट.’

‘‘यह कह कर वह धीरे से हंसा.

‘‘मैं ने फोन रख दिया.’’

भैया फिर रोने लगे. बोले, ‘‘चिन्मय जब छोटा था हर समय मां से चिपका रहता था. पहली बार जब स्कूल जाने को हुआ तो खूब रोया. बोला, ‘मैं मां को छोड़ कर स्कूल नहीं जाऊंगा, मां तुम भी चलो?’ कितना पुचकार कर, दुलार कर स्कूल भेजा था उसे. जब बड़ा हुआ, पढ़ने के लिए विदेश जाने लगा तो भी यह कह कर रोया था कि मां, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा. अब बाहर गया है तो बाहर का ही हो कर रह गया. मां के साथ सदा चिपके  रहने वाले ने एकदम ही मां का साथ छोड़ दिया. मां को एकदम से मन से बाहर कर दिया. मां गुजर गई तो अंतिम संस्कार में भी आने को तैयार नहीं. वाह रे, लड़के.’’

‘ऐसे ही लड़के तो आप भी हैं,’ मैं फिर बुदबुदा उठा.

धीरेधीरे समय सरकता गया. इंतजार हो रहा था कि शायद तन्मय आ जाए. वह आ जाए तो शवयात्रा शुरू की जाए, पर वह न आया.

जब 1 बज गया तो गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘भाई सुकांत, अब बेटे की व्यर्थ प्रतीक्षा छोड़ो और घाट चलने की तैयारी करो. उस को आना होता तो अब तक आ चुका होता. जब श्रीकांत 10 बजे तक आ गए तो वह भी 10-11 तक आ सकता था. लखनऊ यहां से है ही कितनी दूर. फिर उस के पास तो कार है. उस से तो और भी जल्दी आया जा सकता है.’’

प्रतीक्षा छोड़ कर शवयात्रा की तैयारी शुरू कर दी गई और 2 बजे के लगभग शवयात्रा शुरू हो गई. शवदाह से जुड़ी क्रियाएं निबटा कर लौटतेलौटते शाम के 6 बज गए.

तब तक कुछ अन्य रिश्तेदार भी आ चुके थे. सब यही कह रहे थे कि तन्मय क्यों नहीं आया? चिन्मय तो खैर विदेश में है, उस का न आना क्षम्य है, लेकिन तन्मय तो लखनऊ में ही है, उस को तो आना ही चाहिए था, उस की मां मरी है. उस की जन्मदात्री, कितनी गलत बात है.

किसी तरह रात कटी, भोर होते ही सब उठ बैठे.

मेरी बहन पूरे दिन घर पर रहती है और कोई काम भी नहीं करती, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी एक छोटी बहन है जो 23 वर्षीया है. वह घर के किसी काम में हाथ नहीं बंटाती है और न ही नौकरी करने जाती है. मैं नौकरी करती हूं और मेरी उम्र 27 वर्ष है. मुझे यह देख कर सब से ज्यादा अटपटा लगता है कि घर की लाड़ली होने के नाते उसे सभी ने सिर पर चढ़ा रखा है और मेरे साथ इस तरह का व्यवहार होता है. मैं औफिस से आती हूं और घर के काम में मम्मी का हाथ भी बंटाने लगती हूं जिस से मैं हद से ज्यादा थक जाती हूं. मैं सोच रही हूं कि औफिस के पास ही किराए पर रहना शुरू कर दूं. पर समझ  नहीं आ रहा कि सबकुछ कैसे हैंडल करूंगी और मम्मीपापा को कैसे मनाऊंगी. कृपया कुछ हल बताइए.

जवाब

आप समझदार, पढ़ीलिखी युवती हैं और आप को पूरा अधिकार है कि आप अपने फैसले खुद ले सकें. आप को बाहर आनेजाने की आदत भी है, कमाऊ भी हैं और घर के काम भी खुद कर सकती हैं तो टैंशन कैसी. आप अपने बलबूते पर अकेली रह सकती हैं.

हां, शुरुआती दिनों में थोड़ी परेशानी हो सकती है लेकिन धीरेधीरे आप को सभी चीजों को हैंडल करना आ जाएगा. रही बात मम्मीपापा को सम झाने की, तो उन्हें सम झाइए कि आप के अपने काम पर फोकस करने के लिए आप का अलग रहना जरूरी है. और फिर आजकल लड़कियां खुद अपने पैरों पर खड़ी हैं तो फिर अकेले रहने में हर्ज कैसा. वैसे भी आप के घर में आप की बहन तो है ही, तो ऐसा भी नहीं है कि मम्मी को काम करने में परेशानी होगी. हो सकता है आप के न होने पर वह कुछ काम करना शुरू कर दे.

ऐनी तुम कहां हो : भाग 2

वह मेरी जिंदगीभर की नौलेज को बेरहमी से काट कर बोली, ‘सर, जिंदगी नहीं, शरीर का बारे में…’

‘अच्छा मजाक छोड़ो, मेरे सवाल का उत्तर दो.’

उस ने शायद पहली बार स्पीड ब्रेकर का इस्तेमाल किया, सोची, फिर बोली, ‘सर, जिंदगी…ज़िंदगी के बारे में…मैं तो सर बाईक के बारे में सोचती हूं जिसे मैं चलाना चाहती हूं. पर…पर वह मेरे पास है नहीं. मैं ब्लैक जींस और टौप के बारे में सोचती हूं जो मुझे पसंद है पर मां पहनने नहीं देती. अपने छोटे भाई को होने वाली हर कमी के बारे में सोचती हूं कि उसे कभी कोई तकलीफ़ न हो. अपने पापा के बारे में सोचती हूं जिन की कमी मुझे हमेशाहमेशा महसूस होता है. काश, आज पापा होते… हर उस कमी के बारे में सोचती हूं जो जीवन की खुशी और खूबसूरती को कम कर देती है.’ फिर वह थोड़ा रुक कर बोली, ‘लेकिन सर, जिंदगी के बारे में तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं. वह तो मेरे पास भरपूर थी, भरपूर है. कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मेरे पास जिंदगी जैसा चीज़ की कोई कमी हो और मुझे उस के बारे में सोचना पड़े.’ बोलतेबोलते ही अचानक उस ने सवाल किया, ‘लेकिन सर, आप जिंदगी के बारे में क्यों सोचते हैं, आप को क्या  कमी…’ मैं उस का पूरा सवाल सुने बिना ही कुहरे की अदृष्य चादर में लिपट कर खो गया था. पीछे जवाब छोड़ गया था. ‘हां ऐनी, मेरी जिंदगी में… कुछ तो कमी है.’

इस के बाद ऐनी के सामनें मैं हर अर्थ में पराजित ही रहा क्योंकि मैं विजयी नहीं था. धीरेधीरे मेरा मन हीनभावना को आमंत्रित करने लगा था. क्लास में ऐनी की उपस्थिति मुझे हतोत्साहित करती थी. जबकि वह मुझे सहज भाव से देखती रहती. मैं क्या पढ़ा रहा हूं, कहां से शुरू कर कहां खत्म कर रहा हूं, मुझे पता नहीं चलता था. जल्दी ही मुझे इस बात का एहसास हो चुका था कि मैं अपनेआप पर अपना नियंत्रण खो चुका हूं. अब ऐनी मेरी कंट्रोलर थी.

एक दिन अचानक वह मेरे पास आई और बोली, ‘सर, मैं बुद्ध हूं या बुद्धू? शाह सर हमें बुद्ध कहता है जबकि लड़के बुद्धू.’ मैं एक बार फिर संकट में था. मैं ने संभल कर कहा, ‘देखो ऐनी, लड़कियों के बारे में निर्णय करना थोड़ा कठिन होता है. वैसे भी एक ‘उ’ की मात्रा का ही फर्क है.’ वह पहली बार अड़ी थी- ‘सर, आप किस ग्राउंड पर ऐसा कहता है?’ मैं ने संभल कर कहा, ‘एनी, लड़कियां सामान्यतौर पर उथली श्वांस लेती हैं जिस के कारण मस्तिष्क की कोशिकाओं में औक्सीजन का प्रवाह शिथिल हो जाता है. इस से तंतु पर्याप्त रूप से सक्रिय नहीं हो पाते न ही कोशिकाएं त्वरित रूप से चैतन्य रह पाती हैं. परिणामस्वरूप प्रजेन्स औफ़ माइंड (प्रत्युन्नमति)  की कमी कुछ लड़कियों में स्पष्ट दिखती है.’ मैं ने एनी को समझाया था थोड़ा निर्णायक स्वर में भी ताकि आगे सवाल न उठे. लेकिन ऐनी उस दिन मानने वाली नहीं थी. वह लड़कियों पर मेरे कमैंट से कुछ ज्यादा ही चैतन्य हो चुकी थी. बोली, ‘सर, लड़कियां गहरा श्वांस क्यों नहीं लेती हैं?’ अचानक उठे सवाल पर जानें कैसे मैं कह उठा, ‘देखो ऐनी, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है जिस का संबंध स्त्री के वक्षस्थल की प्रोजैक्टेड ब्यूटी से है, उस की सुंदरता से है.’ अबोध ऐनी तपाक से पूछ बैठी, ‘सर, यह वक्ष क्या होता है?’ जानें क्यों मैं अंदर तक सिहर उठा था. मेरा हाथ कब प्यार से उस के कंधे पर रखा गया, खुद मुझे भी पता न चला. मैं उसे एक गहरी श्वांस के साथ स्टाफरूम के बाहर छोड़ आया था.

ऐनी को देख कर लगता जैसे वह दुनिया का सब से बेखबर, बेसुध जीव है जो सिर्फ मजे से जीना जानता हो. बाकी हम स्साले…जीवन का आनंद भी टेबलेट की तरह नाप कर लेते थे. हमें यह खुशफ़हमी थी जैसे जिंदगी हमारी ब्याहता है जो हमारे ही हिसाब से चलेगी. सच कहूं तो हम सारे प्रोफैसर एकदूसरे से डरे हुए थे. कहीं कोई हमें ज्यादा सुखी या ज्यादा दुखी न देख ले.

ऐनी हर मामले में सपाट थी. वह खुश होने के लिए कारण नहीं खोजती थी. जिंदगी उस की निर्दोष गोदी में किलकारियां मारती थी. उसे देखदेख कर खुशी, आनंद, उत्सव, उमंग की व्याख्या एक ही शब्द में करने में सारे प्रोफैसर समर्थ हो गए थे और वह एकमात्र शब्द था- ‘एनी.’ यार जियो तो ऐनी की तरह. मैं फिर भी चुप ही रहता था. क्योंकि मेरे पास एक शब्द और था जिस की व्याख्या भी ‘ऐनी’ से ही पूर्ण होती थी. वह शब्द था- ‘प्यार.’ …मेरा प्यार ऐनी, जिस से सब बेखबर थे, शायद ऐनी भी.

फिर एक दिन, इस कहानी के अंत का भी समय आ गया. प्रो. शर्मा ने सब को खबर दी कि ‘किलकारी 3 माह की छुट्टी पर दिल्ली जा रही है.’

स्टाफरूम में कोलाहलभरा समवेत स्वर उभरा था- ‘क्या हुआ ऐनी को?’

प्रतिवचन : भाग 2

मेरे दुख को मेरी छोटी ननद जया और देवर समय समझते थे, परंतु जब आप खुद के लिए खड़े नहीं हो सकते तो किसी और से क्या उम्मीद कर सकते हैं. सुमित ने तो बहुत पहले ही अपना फैसला मुझे सुना दिया था.

जब भी बाबूजी मेरी ससुराल से अपमानित हो कर जाते, मेरे अंदर कुछ टूट जाता और कानों में विवाह के दूसरे वचन की ध्वनि सुनाई पड़ती थी. ‘जिस प्रकार आप अपने मातापिता का आदर करते हो उसी प्रकार मेरे मातापिता का आदर करो.’

जब सुमित का तबादला नोएडा हुआ तब पहली बार मेरे ससुर अपनी पत्नी के खिलाफ बोले थे, ‘सरला, जाने दो माधुरी को सुमित के साथ. अपनी गृहस्थी संभालेगी और तुम्हें सुमित के खानेपीने की चिंता भी नहीं रहेगी.’ ‘अरे वाह, मां, पापा को तो भाभी की बड़ी चिंता है,’ विमला ने व्यंग्य कसा था.

‘जिसे जहां जाना है जाए. मुझे तो सारी उम्र रोटियां ही बेलनी हैं,’ सासूजी बड़बड़ाती रहीं. मेरे आज्ञाकारी पति कैसे पीछे रह जाते, ‘नहीं मां, माधुरी यहां रहेगी आप के पास. मैं ने वहां एक कुक का इंतजाम कर लिया है. वैसे भी, रमेश के साथ रहूंगा तो पैसे कम खर्च होंगे.’

‘मेरा राजा बेटा, यह जानता है कि इस पर अपने छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी है.’ ‘तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं निठल्ला बैठा हूं…घर जैसे इस की कमाई से चलता है,’ ससुरजी ने एक कोशिश और की.

‘चुप होगे अब. हर शनिवार को तो घर आ ही जाएगा,’ सासूजी ने यह कह कर पति की बोलती बंद कर दी. सुमित नोएडा चले गए थे. अपनी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मैं अपनी सास पर मुहताज थी. कई बार सुमित से कहा भी कि मुझे कुछ पैसे भेज दिया करो.

‘तुम्हें क्या जरूरत है पैसों की? जब कभी जरूरत हो तो मां से मांग लिया करो. मां ने कभी मना किया है क्या?’ उन्होंने कभी किसी वस्तु के लिए मना नहीं किया. परंतु उस वस्तु की उपयोगिता बताने के क्रम में जो कुछ भी मुझे सहना पड़ता था, वह मैं सुमित को नहीं समझा सकती थी.

मैं कपड़ों की जगह सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल करना चाहती थी. हिम्मत बटोर कर यह बात जब मैं ने अपनी सास को बताई थी, उन की प्रतिक्रिया आज भी मेरे रोंगटे खड़े कर देती है-

‘अरे, सुनते हो…समय…जया…’ घर के सभी लोग, नौकर तक, बरामदे में आ गए थे.

‘मांजी गलती हो गई, माफ कर दीजिए, प्लीज चुप हो जाइए.’ ‘तू होती कौन है मुझे चुप कराने वाली…’

‘अरे, बताओगी भी हुआ क्या?’ ससुरजी की आवाज थी. ‘आप की बहू को अपना मैल उतारने के लिए पैसे चाहिए.’

‘मांजी, प्लीज चुप हो जाइए,’ रो पड़ी थी मैं. ‘तेरे बाप ने भी देखा है कभी पैड, बेटी को पैड चाहिए.’

सारा माजरा समझते ही मेरे ससुर और देवर सिर झुका कर अंदर चले गए थे और मेरे बगल में खड़ी जया मेरे आंसू पोंछती रही थी. कई घंटे तक वे लगातार मुझे अपमानित करती रही थीं.

इस घटना के बाद मैं ने अपनी सारी अभिलाषाओं तथा जरूरतों को एक संदूक में बंद कर के दफन कर दिया था. मेरे बेटे के जन्म ने मुझे मां बनने का गौरव तो प्रदान किया परंतु जब उस की छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मुझे हाथ फैलाना पड़ता, तब मेरा हृदय चीत्कार कर उठता था.

विवाह का तीसरा वचन भी मेरे कानों के पास आ कर दबी आवाज में चीखा करता था. ‘आप अपनी युवावस्था से ले कर वृद्धावस्था तक कुटुंब का पालन करोगे.’

मेरी एक पुरानी सहेली रम्या मुझे एक दिन बाजार में घूमते हुए मिल गई. औपचारिकतावश मैं ने उसे घर आने को कह दिया था. परंतु मैं उस समय अवाक रह गई जब शनिवार को वह अपने पति व बच्चों के साथ अचानक आ गई. मेरा आधुनिक वस्त्र पहनना न तो सुमित को पसंद था और न ही उन की मां को. बिना बांहों का ब्लाउज पहनना भी उन के परिवार में मना था. रम्या को जींस और स्लीवलैस टौप में देख कर मैं समझ गई कि आज पति और सास दोनों की ही बातें सुननी पड़ेंगी.

परंतु उस दिन मैं ने सुमित का अलग ही रूप देखा था. जितने वक्त रम्या रही, सुमित मेरे कमरे में ही मौजूद रहे. दिन के समय सुमित हमारे कमरे में बहुत कम आते थे, इसलिए यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य था. रम्या की तारीफ करते नहीं थक रहे थे वे. और तो और, अगले दिन बाहर घूमने का प्लान भी बना लिया उन्होंने.

रात में मैं ने सुमित से पूछा भी था, ‘बिना मां से पूछे कल घूमने का प्लान कैसे बना लिया तुम ने?’ ‘ उस की चिंता तुम छोड़ो. क्या औरत हैं रम्याजी, कितना मेंटेन किया है. उन की फिगर को देख कर कौन कहेगा कि 2 बच्चों की मां हैं.’

‘सौरभजी भी तो कितने अच्छे हैं.’ ‘क्या अच्छा लगा तुम्हें सौरभजी में?’

‘नहीं, बस रम्या से पूछ कर निर्णय…’ ‘जोरू का गुलाम है. और तुम्हें शर्म नहीं आती अपने पति के सामने किसी और मर्द की तारीफ करती हो. सो जाओ चुपचाप.’

अगले दिन पिकनिक में बातोंबातों के दौरान रम्या ने सुमित को मेरे बारे में बताया कि मैं अपने कालेज की मेधावी छात्राओं में आती थी. इतना सुनना था कि सुमित जोरजोर से हंसने लगे. ‘रम्याजी, क्या आप के कालेज में सभी गधे थे? माधुरी और मेधावी में सिर्फ अक्षर की समानता है. रसोई में खाने में नमक तो सही से डाल नहीं पाती. न चलने का ढंग, न कपड़े पहनने की तमीज. शरीर पर चरबी देखिए, कितनी चढ़ा रखी है,’ इतना कह कर वे अपनी बात पर खुद ही हंस पड़े थे. मेरा चेहरा शर्म और अपमान से काला पड़ गया था.

‘चलिए, बातें बहुत हो गईं, अब बैडमिंटन खेलते हैं,’ सौरभजी ने बात बदलते हुए कहा. खेल के दौरान सुमित ने फिर एक ऐसी हरकत कर दी जिस की उम्मीद मुझे भी नहीं थी. स्त्री के चरित्र का आकलन आज भी उस के पहने गए कपड़ों से किया जाता है. सुमित ने भी रम्या को ले कर गलत विचारधारा बना ली थी. खेल के दौरान सुमित ने कई बार रम्या को छूने की कोशिश की थी, यह बात मुझ से भी छिपी नहीं रह पाई थी.

इसलिए जब रम्या सुमित को किनारे पर ले जा कर दबे परंतु कड़े शब्दों में कुछ समझा रही थी, मैं समझ गई थी कि वह क्या कह रही है.

घर लौटते ही सुमित की मां रम्या की चर्चा ले कर बैठ गईं. सुमित जैसे इंतजार ही कर रहे थे. ?‘अरे मां, बड़ी तेज औरत है. उस से तो दूर रहना ही ठीक होगा.’

‘मैं न कहती थी. अरी ओ माधुरी, तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हें चरित्रवान पति मिला है.’ दिल कर रहा था कि चरित्रवान बेटे की झाड़ खाने की बात मां को बता दूं. परंतु कह नहीं पाई. विवाह के वचन फिर कानों के पास आ कर चुगली करने लगे.

‘मैं अपनी सखियों के साथ या अन्य स्त्रियों के साथ बैठी हूं, आप मेरा अपमान न करें. आप दूसरी स्त्री को मां समान समझें और मुझ पर क्रोध न करें.’ सप्तक को मैं ने सदा प्रश्न करना सिखाया था. सुमित अकसर उस के सवालों से चिढ़ जाया करते थे, परंतु मैं सदा उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करती थी. मेरे और सप्तक के प्रश्नोत्तर के खेल में ही मुझे मेरे जीवन के सब से बड़े सवाल का जवाब मिल गया था.

छोटे रिश्ते बड़े काम : भाग 2

इरा ने कल ही तो उन से पूछा था, ‘‘बाबाजीवहां अकेले आप को डर नहीं लगता.’’सुनते ही वह हंस दिए थे, ‘‘डर… नहीं तो,’’ कहतेकहते उन्हें चैतू और कृष्णा की याद आ गई थी. ये दोनों उन के पुराने शिष्य हैं. उसी कसबे में इन का ब्याह हुआ हैघरबार है. जब से पद्मा नहीं रहीकृष्णा उन का पिता समान ध्यान रखती है और चैतू बाजार से सामान आदि ला दिया करता है. जब भी जी घबराता हैवह कृष्णा या चैतू के घर चले जाते हैं. दोनों कैसेकैसे भाग कर उन का सत्कार करते हैं. कृष्णा गिलास में चाय भर लाती है और तस्तरी में मिठाई या फल. ब्राह्मïण हैंअत: कप में चाय नहीं पीते. अपने हाथ से उठाउठा कर आग्रहपूर्वक देती है. तब भी उन्हें पद्मा बहुत याद आती है. उस की मृत्यु के बाद उतने आग्रहपूर्वक खिलाने वाली बस कृष्णा ही तो बची है. वह हमेशा से जातिपांति के खिलाफ थे और उसे गांव के बहुत से ऊंची जाति के लोग उन की पीठ पीछे उन्हें बुराभला भी कहते थे. पर चूंकि उन की संगीत पर पकड़ थीकोई मुंह पर कुछ न कह पाता था.

राकेश आ कर दूसरी कुरसी पर बैठ गया था. बहू भी मोबाइल हाथ में लिए आ बैठी. थोड़ी देर वह राकेश से वकालत की पूछताछ करते रहेफिर हंस कर बोले, ‘‘अच्छाराकेशतुम्हें अब संगीत का अभ्यास तो रहा नहीं होगाइन बच्चों को सिखा देते.’’

राकेश ने पत्नी की ओर देखा और सगर्व बोला, ‘‘अपने काम से छुट्टी कहां मिलती हैबाबूजी. वैसेइरा गिटार सीख रही हैएक म्यूजिक टीचर आते हैं सिखाने.’’

उन्होंने एक आह सी भर ली. शहर की बात है. भले ही वह संगीतज्ञ हैंपर गिटार बजाना तो उन्हें भी नहीं आता. वायलिन बजा लेते थे. तबलासितारहारमोनियम भी बजा लेते थेपर गिटार… पद्मा को कितना शौक था कि वह अधिक से अधिक वाद्य बजाना सीखेंकहती थी, ‘‘जब बूढ़े हो जाओगे और गाना नहीं गा सकोगेतब बजाना ही काम आएगा.’’

एक बार पद्मा ने उन्हें इन नए इंस्ट्रूमेंट्स के सीखने के लिए उकसाया थापर वह हंस कर बोल उठे थे, ‘‘पद्माइस कसबे में ड्रम सीखने वाले बच्चे भी नहीं हैं जितने मुझे आते हैंये नए इंस्ट्रूमैंट तो बहुत महंगे हैंजो यहां किसी के काम के नहीं हैं.’’‘‘अपने लिए सीखोअपने बच्चों के लिए सीखोसब दूसरों के लिए थोड़े ही सीखा जाता है. पैसे चाहिए तो बताओ. मैं गहने बेच कर दे दूंगी. अब कोई और जिम्मेदारी तो है नहीं.’’

सोचतेसोचते उन की आंखें गीली होने लगींतो चुपके से उन्हें पोंछ डाला. ‘‘सुनोराकेश,’’ एक दिन उन्होंने बैठेबैठे राकेश से कहा, ‘‘मेरे होते हुए बच्चों को बाहर का अध्यापक आ कर कुछ सिखाएयह अच्छा नहीं लगता.’’राकेश कचहरी जाने को तैयार हो रहा थाबोला, ‘‘पर बाबूजीआप गिटार और केसियो नहीं सिखा सकेंगे.’’‘‘कोई बात नहींबेटाइरा सितार सीखेगीवायलिन सीखेगी. लड़कियां ये दोनों वाद्य बजाती हुई बहुत अच्छी लगती हैं.’’

‘‘अरे नहीं बाबूजी,’’ राकेश ने लापरवाही से टाई का नाट’ ठीक करते हुए कहा, ‘‘वे पुराने फैशन के वाद्य हैं… अब तो गिटार पर पोप’ संगीत ही आधुनिक घरानों में चलता है. और उन के सारे इंस्ट्रूमैंट विदेशी हैं.’’राकेश बिना उन के चेहरे को देखे ही चला गया. उन्हें लगाजैसे बेटे ने उन के मुंह पर तमाचा मारा है. जिन की विद्या पर सारा कसबा गर्व करता हैउन्हें ही निरर्थक बता कर वह चला गया है. अभी आने से पहले कृष्णा उन से कह रही थी, ‘‘गुरुजीआप जा रहे हैंमेरी रत्ना को कौन संगीत सिखाएगा.’’

वह हंस कर बोले थे, ‘‘रत्ना की मां को सबकुछ मैं ने सिखा दियाअब गुरुपद तुम्हीं संभालो.’’कृष्णा की दृष्टि झुक गर्ई थी. ‘‘आप के होते हुए मैं गुरुपद कैसे संभाल सकती हूं.’’इस पल वह सब याद आयातो मन भर आया. अभी इरा और लव दौड़ते हुए आएबोले, ‘‘बाबाजीकल मेरा जन्मदिन है.’’

‘‘अच्छा…’’ वह अपनी कसक बच्चों की हंसी में मिटाने लगे.‘‘इत्तेसारे लोग आएंगे. वह शची आंटी हैं नबड़ा अच्छा गाती हैं. आप भी सुनेंगे न?’’वह सिर हिला कर मुसकरा दिए. इरा निकट आ कर उन की गरदन से लटक गई. ‘‘बाबाजीआप भी तो गाना गाते हैं न?’’

उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘गाता थाबेटीअब नहीं गाता.’’‘‘अब क्यों नहीं गाते?’’‘‘अब बूढ़ा हो गया हूंमुझ से अच्छी तरह गाया नहीं जाता.’’इरा नासमझ सी उन्हें देखती रही.

वह पूरी रात उन्होंने आंखों में काट दी. कल इरा की वर्षगांठ है और उन्हें पता भी नहीं. कसबे में जीवन के पूरे 65 वर्ष व्यतीत किए हैं. कौन नहीं जानता पंडित मधुकरनाथ को. आठ वर्ष के थे वहतब से ही गायन विद्या में निपुण हो चले थे. पिता शास्त्रीय संगीत के ही विद्वान थेपर उन्होंने बड़े हो कर पद्मा की प्रेरणा के बाद ही वाद्य संगीत में निपुणता प्राप्त की. छोटे से कसबे का एक छोटा सा व्यक्ति अपनी कला व परिश्रम से बहुत बड़ा दिखाई देने लगा. जबतब नौकरी में रहेतब भी पूरे कसबे के एकमात्र लोकप्रिय गायक वही रहेऔर उन से पहले के उन के पिता.

जब वह सेवानिवृत्त हुएतब भी कसबे के छोटेछोटे दिलों में धड़कते रहे. ट्यूशन तब भी मिलती रही. स्कूल के नए संगीत अध्यापक पर किसी ने उतना ध्यान नहीं दियाजितना स्नेह उन के हिस्से में आया. कई बार वह कृष्णा या चैतू से पूछ बैठते, ‘‘अब तो नए जमाने के अध्यापक आ गए हैं. मुझ पंडित को फिर भी लोग अपने बच्चों की ट्यूशन के लिए क्यों चिरौरी करते हैं?’’

उन्हें चैतू की भी याद थी. वह एक डोम का बेटा था और संगीत सीखना चाहता थापर उन्हें उस घर में घुसने की इजाजत वे कैसे दे देते. पूरा समाज उन्हें जाति से बाहर निकाल देता.उन्होंने चैतू के बहुत पांव पकड़ने और रोनेधोने के बाद डरडर कर खेतों में जा कर उसे संगीत की थोड़ीबहुत शिक्षा दी. उन्हें नहीं मालूम था कि चैतू इतनी जल्दी हर चीज समझ जाएगा. फिर उस का बाप उसे दूसरे शहर ले गया. जातेजाते चैतू उन की ड्योढ़ी पर बहुत सोचता था. जो शास्त्रीय गायन नहीं जानते. आप को कैसे कोई भुलाएगा. सब से बढ़ कर है आप का विनम्र स्वभाव.’’

कृष्णा कहती, ‘‘सच्ची गुरुजी. यह तो आप की महानता थी कि हमारे इतने परदादार मांबाप भी हमें संगीत सिखाने पर तैयार हो गए. हरेक को थोड़े ही मांबाप अपनी बेटियों का अध्यापक रख सकते हैं.’’पूरी रात उन्हें कृष्णा और चैतू के साथ उन तमाम छात्रछात्राओं की याद आईजो एकदो वर्ष उन के संपर्क में रहे या पूरी पढ़ाई वहां कर के किसी बड़े कालेज में पढ़ने के लिए कसबा छोड़ गए या किसी के मातापिता का स्थानांतरण ही बाहर हो गया. पर जातेजाते कैसे हरेक उन के पैर छू कर कहता था, ‘‘गुरुजीपता नहींवहां आप जैसा अध्यापक कोई मिलेगा या नहीं?’’

वह हंस कर आशीर्वाद देते, ‘‘देखोबड़े आदमी बन कर इस छोटे से गुरु को भूल मत जाना.’’सब की आंखें भरभर आतीं, ‘‘आप ने तो हमें पितातुल्य प्यार दिया हैआप को भला कैसे भूल सकते हैं.’’यह अलग बात हैउन में से फिर किसी को वह  देख नहीं सके.

अंधेरे में देर तक वह उन तमाम चेहरों को याद करते रहे. फिर पलट कर राकेश का चेहरा उन के सामने आ खड़ा हुआ. कितना कष्ट सह कर भी उसे इतना बड़ा आदमी बना दिया. संगीतज्ञ बनाना चाहते हुए भी वकील बना दियापद्मा के सपनों को पूरा देखने के लिए. पर क्या सपना पूरा हुआपद्मा कब चाहती थी कि उस का बेटा धनी वकील बन कर अपने पिता के ज्ञान की अवहेलना करने लगे. उसे भी तो संगीत की शिक्षा दी थीपर वह संगीत के महात्म्य को भी आधुनिकता के कलेवर से लपेट रहा हैअपने पिता की सब से अमूल्य संपत्ति संगीत’ की अवहेलना कर रहा है. बड़ी कठिनाई से उन्होंने उमड़ते हुए उद्गारों को आंखों से टपकने से रोका था.

पूरा घर शोर से भरता जा रहा था. बड़े हाल में खूब गुब्बारे सजाए गए थे और वहीं अल्पाहार का प्रबंध भी था.सुबह ही राकेश ने दबे स्वर में उन से पूछा था, ‘‘मेरे कमरे में ही कलई के गिलास में चाय भिजवा देना. मैं करूंगा भी क्या वहां.’’राकेश अति सकुचाया सा बोला था, ‘‘वास्तव में मैं ने अपने नए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय को भी बुलाया है. अभी एक माह पहले ही स्थानांतरित हो कर यहां आए हैं.’’

‘‘कोई बात नहींराकेश. तुम लोग राजीखुशी अपना कार्यक्रम करो. मैं देहाती आदमी बीच में कुछ गड़बड़ करने नहीं आऊंगा.’’राकेश ने लाज से उन के हाथ दबा दिए थे.बड़ी बैठक के बराबर में ही उन को कमरा मिला था. बीच के दरवाजे के किवाड़ पहले ही भिड़ा दिए गए. दरवाजे के आगे साटन का परदा झूल रहा थाअत: वे निश्चिंत थे. कानों में हर आवाज निरंतर पहुंच रही थी. ढेर सी हंसी लड़केलड़कियों कीये लोग शायद इरा के साथी थे. फिर ठहाकेदार स्त्रीपुरुषों की आवाजेंआलोचनाओं व अफवाहों से भरी हुईशायद इन्हीं कहकहों के मध्य राकेश के नए न्यायाधीश महोदय भी होंगेउन्होंने सोचा.

बहू अपने हाथ से उन के लिए एक मेज पर कलई की तस्तरियों से नाश्ते का सामान चाय के साथ परोस गई थी. उन्होंने आंखें मूंद कर सोचा था, ‘शायदयह भी सुख का अच्छा सा रूप होगाविनम्रता की स्नेहिल मुसकान के साथ उन्हें यह एकाकी आदरसत्कार मिला.

सुलझते रिश्ते : भाग 2

दरअसल, हर्षदा दिल्ली की जिस कंपनी में नौकरी कर रही है, वह कंपनी एक साल के लिए उसे कंपनी के हैडक्वार्टर पेरिस भेजा जा रहा है. वैसे, हर्षदा का वहां उतना जाने का मन नहीं था. मगर अखिल ही कहने लगा कि इतना अच्छा मौका उसे अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहिए. और हो सकता है कि कल को उसे कंपनी के हैडक्वार्टर पेरिस में ही शिफ्ट कर दिया जाए, तो कितना अच्छा होगा न.

अखिल ने हर्षदा से यह भी कहा कि अगर तुम वहां चली गई, तो फिर वह भी वहां जाने की कोशिश करेगा. और फिर दोनों वहां अपनी नई दुनिया बसाएंगे.

“ये लो… अरे भाई, मैं तो मजाक कर रहा था और तुम हो कि हिंदी फिल्मों की हीरोइन की तरह आंसू टपकाने लगी,” अखिल ने माहौल को हलका करने की कोशिश की, “अच्छा, वो दिन याद है तुम्हें, जब हम पहली बार डेट पर गए थे? कितनी देर तक तो हम एकदूसरे से कुछ बोल ही नहीं पाए थे, है न? फिर मैं ने ही बात शुरू की थी.”

अखिल की बात पर हर्षदा हंसते हुए बोली, ‘‘हां, याद है उसे. और यह भी कि कैसे अखिल ने उसे देखने के चक्कर में अपना कोल्डड्रिंक्स अपने ही कपड़ों पर गिरा लिया था.’’

“हां, तुम कितना हंसी थी उस पर. और मैं तुम्हारी हंसी देख अपने कपड़े पर लगे कोल्डड्रिंक्स साफ करना भी भूल गया, जिस का दाग आज भी मेरे कपड़ों पर लगा है.“

“जानती हो हर्षु,” अखिल हर्षदा को प्यार से हर्षु बुलाता था, कहने लगा, “मैं ने जब तुम्हें पहली बार अपने एक दोस्त की पार्टी में देखा था, तो तुम पर ऐसा फिदा हुआ कि तुम पर से मेरी नजर ही नहीं हट रही थी. हलके पीले रंग की ड्रैस में तुम वहां सब से अलग दिख रही थी.

‘‘और सच कहूं, तो तुम्हारे गोरे रंग पर पीला सूट तुम्हारी खूबसूरती में और चारचांद लगा रहा था. जब मैं ने अपने दोस्त के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘ये खूबसूरत सी लड़की कौन है? मिलवाओ न मुझ से,’ तो उस ने मेरी बांह पकड़ कर हिलाते हुए कहा था कि ये कर्नल साहब की बहन है. वह उस के साथ उस के ही औफिस में काम करती है. जरा सावधान… क्योंकि, अगर उन की बहन की तरफ आंख उठा कर भी देखा न तू ने, तो गोलियों से भून दिए जाओगे.

उस पर मैं ने अपना सीना चैड़ा करते हुए कहा था, ‘भले ही भून दे गोलियों से मुझे. लेकिन, मेरी जीवनसंगनी तो अब यही लड़की बनेगी. तय कर लिया है. बस, तू इतनी मेहरबानी कर कि मुझे इस लड़की से मिलवा दे.’’

सुनते ही मेरा दोस्त खिलखिला कर हंस पड़ा था कि चल, मिलवाता हूं उस से.

“हां, मुझे भी याद है. उस पार्टी में तुम्हें ब्लू जींस और ब्लैक शर्ट में पहने देख मेरे मुंह से निकला था, ‘हाय, कितना हैंडसम है यह. और एक सच बात और बताऊं…? चुपके से मैं ने अपने मोबाइल में तुम्हारी फोटो भी ले ली थी. तुम से मिलने के बाद जब मुझे लगा कि तुम्हीं मेरे हसफर बन सकते हो, तब मैं ने तुम्हारी फोटो अपने भैया को दिखाते हुए कहा था कि मैं इसी लड़के से शादी करूंगी.“

“फिर, भैया तो बहुत गुस्सा हुए होंगे?” अखिल बोला.

“नहीं, गुस्सा क्यों होंगे? लेकिन इतना जरूर कहा था कि पहले वे अपनी तरफ से पता करेंगे तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के बारे में, फिर ही इस शादी के लिए ‘हां’ करेंगे, क्योंकि ये उन की बहन की जिंदगी का सवाल है.

“ओहो… तो फिर मेरे और मेरे परिवार की जासूसी हो रही थी और हमें खबर तक नहीं?” अखिल हंसा, तो हर्षदा भी हंसने लगी.

“आज सोचती हूं, तो खुद पर हंसी आती है कि कैसे मैं ने भैया से कह दिया था कि मैं ने इसी लड़के से यानी तुम से शादी करूंगी.”

अखिल के सीने से लग हर्षदा कहने लगी, “जानते हो अखिल, मुझे अपने मम्मीपापा का चेहरा ठीक से याद नहीं है, क्योंकि जब मैं बहुत छोटी थी, तभी एक कार एक्सीडेंट में उन की मौत हो गई थी. भैया उस समय महज 13 साल के अबोध बालक थे. फिर हमारी नानी ने हमें संभाला. लेकिन कुछ साल बाद नानी भी नहीं रहीं, तो फिर भैया ही मेरे मम्मीपापा बन कर मुझे संभाला. मुझे बहुत प्यार दिया, मेरी केयर की. आज भी वे अपनी खुशियों से पहले मेरी खुशियों के बारे में सोचते हैं. जानते हो अखिल, आज मैं जोकुछ भी हूं, अपने भैया की बदौलत हूं. सच कहती हूं, अगर भैया इस रिश्ते के लिए न कर देते न, तो मैं उन से कोई बहस नहीं करती. क्योंकि, पता है मुझे कि वे मेरे लिए अच्छा ही सोचेंगे. ”

“हर्षु, तुम बिलकुल सही कह रही हो. और ऐसा भाई तो किस्मत वाले को ही मिलता है,” अखिल कहने लगा कि उस के निखिल भैया भी उस से बहुत प्यार करते हैं. उस की गलती अपने सिर ले कर कई बार उसे मम्मीपापा की डांट खाने से बचाया है.

अखिल हंसते हुए फिर कहता है कि वह अपने निखिल भैया से मात्र डेढ़ साल ही छोटा है. पर, देखने में वही बड़ा लगता है. उस के भैया निखिल इंडियन एयरफोर्स में फाइटर पाइलट हैं और अभी 2 साल पहले ही उन की शादी निकिता से हुई है.

अखिल के मम्मीपापा चाहते थे कि अब उस की भी शादी हो जाए, तो उन की जिम्मेदारी पूरी हो जाएगी. इसलिए वे लोग अखिल के लिए लड़की भी देखने लगे थे. लेकिन अखिल ने उन से साफसाफ कह दिया कि अभी वो 1-2 साल शादी नहीं करेगा. उस ने हर्षदा के बारे में अभी इसलिए नहीं बताया उन्हें कि जब वह पेरिस से लौट आएगी, तब बता देगा. उसे विश्वास है कि उस के मम्मीपापा ‘न’ नहीं कहेंगे इस रिश्ते के लिए. क्योंकि वे लोग बिलकुल भी दकियानूसी सोच के लोग नहीं हैं.

हर्षदा को एयरपोर्ट तक छोड़ने जाते समय अखिल का दिल रो रहा था, पर वह दिखा नहीं रहा था, बल्कि हर्षदा को ही समझाबुझा रहा था कि वह वहां मन लगा कर काम करे. और एक साल तो यों ही देखतेदेखते हवा की तरह उड़ जाएंगे.

हर्षदा और अखिल भले ही दोनों अपनेअपने कामों में बिजी होते थे, पर रात में दोनों एकदूसरे से जीभर कर बातें करते और बताते कि आज उन का दिन कैसा बीता.

जहां अखिल उसे दिल्ली की बातें बताता, वहीं हर्षदा उसे पेरिस के किस्से सुनाती. इसी तरह 6 महीने बीत गए.

अखिल ने हर्षदा को जब एक दुखद खबर सुनाते हुए कहा कि उस के निखिल भैया प्लेन क्रेश में चल बसे, तो हर्षदा ऊपर से नीचे तक हिल गई.

वह बोली, “हाय, ये क्या अनर्थ हो गया एकदम से.“

अखिल कहने लगा, “उस की मां को बेहोशी का इंजैक्शन लगाया जा रहा है और उस के पापा एकदम गुम से हो गए हैं, कुछ बोल ही नहीं रहे हैं. लेकिन, सब से बड़ा नुकसान तो निकिता भाभी का हुआ है. उन की शादी को महज ढाई साल ही हुए हैं और भैया… “ बोलतेबोलते अखिल फफकफफक कर रो पड़ा और कहने लगा कि आखिर क्यों, क्यों हुआ ऐसा उन के साथ? क्या बिगाड़ा था उन्होंने किसी का, जो पहाड़ जैसा दुख उन के सिर पर आ गिरा. अब क्या होगा निकिता भाभी का…? उस के मम्मीपापा दोनों ही शुगर व बीपी के मरीज हैं, अगर उन्हें कुछ हो गया तो क्या करेगा वह…?“

खुसरो दरिया प्रेम का : भाग 2

इतने में पुष्कर के आने की आहट से माद्री ने आंखें खोलीं। पुष्कर ने उसे इतना खोए हुए देख कर पूछा, “बड़ी चिंता में लग रही होतबीयत तो ठीक है न?”माद्री ने कभी पुष्कर से कुछ नहीं छिपाया थाआज भी उन्हें बैठने का इशारा करते हुए कहा, “सुनोबताओ आज फेसबुक पर कौन मिला?”

पुष्कर हंसे, “पहले यह साफ करोमिली या मिला?”“मिला।”“कोई पुराना स्टूडैंट?”“नहीं।”“तुम्हीं बताओ।”“अभिमन्यु…पुष्कर ने शांत स्वर में कहा, “अच्छाकहां है आजकल?”“पूना,” माद्री के चेहरे की रौनक अभिमन्यु के नाम से कितना बढ़ गईयह पुष्कर ने देखा। बहुत सालों बाद उस के स्वर में यह खनक थी। वे हैरान से माद्री का चेहरा देखते रहे। वे वहां से इस समय हट जाना चाहते थेपता नहीं क्यों… पूछा, “चाय पीओगीबना कर लाऊं?”“हां…

पुष्कर चाय बनाने किचन में चले गए। उन्हें इस समय अपने मन को समझाने के लिए कुछ पल चाहिए थेयही तो कर रहे हैं वे सालों से। माद्री के साथ सामंजस्य बैठातेबैठाते वे मन ही मन थकने लगते हैं पर माद्री को खुश देखने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैंकुछ भी। अब भी उन्होंने चाय बनाते हुए अपने से ही मन ही मन बात की। अच्छा लगा होगा माद्री को जब अभिमन्यु ने उसे आज उस के जन्मदिन पर उस से संपर्क किया। किसे अच्छा नहीं लगेगा। उन्हें कोई ऐसे ढूंढ़ता तो वे भी तो खुश होते। यह अलग बात है कि माद्री के सिवा उन के जीवन में कभी कोई और लड़की आई ही नहीं।

माद्री से विवाह के बाद वे पूरी तरह से घरपरिवार को समर्पित इंसान रहे। माद्री ने उन्हें जब अभिमन्यु के बारे में बताया तो भी उन्होंने उस के असफल प्रेम से सहानुभूति ही हुई। वे हमेशा से बहुत सहृदयशांतगंभीर इंसान थे। माद्री की हर सुविधा का उन्होंने हमेशा बहुत ध्यान रखा था पर माद्री के दिल का एक कोना हमेशा अभिमन्यु के लिए छटपटाता ही रहा।

लोचाय पीयो,”पुष्कर की आवाज से माद्री भी वर्तमान में लौटी।क्या सोच रही हो?”माद्री ने मुसकराते हुए कहा, “आज का जन्मदिन तो अभिमन्यु ने स्पैशल बना दियाचलोअब बाहर चल कर बढ़िया डिनर करते हैं,” माद्री ने हमेशा ही पुष्कर से साफसाफ मन की बात की थीबिना किसी लागलपेट के। वह आज क्यों खुश थींयह भी माद्री ने सहर्ष स्वीकार किया। कनाडा से अंकितउस की पत्नी स्वरा और पोती फ्रेया ने उसे फोन पर विश कर ही दिया था। डिनर करने के लिए आज पुष्कर ने माद्री की पसंद का रेस्तरां बुक किया था। वह तैयार हो कर जैसे ही पर्स उठाने लगीअभिमन्यु का फोन आया। पुष्कर तैयार हो कर सोफे पर बैठे थे। माद्री “अभिमन्यु का फोन है,”कहते हुए वापस अंदर बैडरूम में चली गई। दोनों ने सालों बाद एकदूसरे की आवाज सुनीउम्र के अच्छेखासे अंतराल के बाद भी दोनों के मन में जो भाव थेदोनों महसूस कर रहे थेजैसे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं थी। दूर बैठे दोनों एकदूसरे का मन पढ़ रहे थे। दोनों ने आधे घंटे बात कीतय हुआअब बातें होती ही रहेंगी।

पुष्कर इस दौरान चुपगंभीर बैठे रहे थे। माद्री के स्वभाव में धैर्यस्थिरता नहीं थी। उन्हें गुस्सा भी जल्दी आतायह वे भी समझ गए थे। माद्री बिना आगापीछा सोचे फैसले लेने में भी जल्दबाजी करती थी। इस आदत के चलते उन से ज्यादा दिन कोई जुड़ा न रह पातापड़ोसीरिश्तेदार अगर मतलब रखते तो सिर्फ पुष्कर के स्वभाव के कारण।

मेरी खातिर : भाग 2

‘‘बहुत गर्व है न तुम्हें अपनी दीदी और खुद पर… हम लोगों ने आप को किसी धोखे में नहीं रखा था. बायोडेटा पर साफ लिखा था पोस्टग्रैजुएशन विद हिंदी मीडियम. हम लोग नहीं आए थे आप लोगों के घर रिश्ता मांगने… आप के पिताजी ही आए थे हमारे खानदान की आनबान देख कर हमारी चौखट पर नाक रगड़ने…’’

‘‘निकिता, जुबान को लगाम दो वरना…’’

‘‘पहली बार अनिका ने पापा का ऐसा रौद्र रूप देखा था. इस से पहले पापा ने मम्मी पर कभी हाथ नहीं उठाया था.’’

‘‘पापा, आप मम्मी पर हाथ नहीं उठा सकते हैं. आप भी बाज नहीं आएंगे… मम्मी का दिल दुखाना जरूरी था?’’

‘‘तू भी अपनी मम्मी का पक्ष लेगी. तेरी मम्मी ठीक तरह से 2 शब्द इंग्लिश के नहीं बोल पाती.’’

‘‘पापा, आप मम्मी की एक ही कमी को कब तक भुनाते रहोगे, मम्मी में बहुत से ऐसे गुण भी हैं जो मेरी किसी फ्रैंड की मम्मी में नहीं हैं.’’

क्षणभर में अनिका की खुशी काफूर हो गई. वह भरी आंखों के साथ उलटे पैर अपने कमरे में लौट गई.

पापा ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए किया था जबकि मम्मी ने सूरत के लोकल कालेज से एमए. शायद दोनों का बौद्धिक स्तर दोनों के बीच तालमेल नहीं बैठने देता था.

अनिका ने एक बात और समझी थी पापा के गुस्से के साथ मम्मी के नाम में प्रत्ययों की संख्या और सर्वनाम भी बदलते जाते थे. वैसे पापा अकसर मम्मी को निक्कु बुलाते थे. गुस्से के बढ़ने के साथसाथ मम्मी का नाम निक्की से होता हुआ निकिता, तुम से तू और उस में ‘इडियट’ और ‘डफर’ जैसे विशेषणों का समावेश भी हो जाता था. अपने बचपन के अनुभवों से पापा द्वारा मम्मी को पुकारे गए नाम से ही अनिका पापा का मूड भांप जाती थी.

इस साल मार्च महीने से ही सूरज ने अपनी प्रचंडता दिखानी शुरू कर दी थी. ऐग्जाम की सरगर्मी ने मौसम की तपिश को और बढ़ा दिया था. वह भी दिनरात एक कर पूरे जोश के साथ अपनी 12वीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा में जुटी हुई थी. सुबह घर से निकलती, स्कूल कोचिंग पूरा करते हुए शाम 8 बजे तक पहुंच पाती. मम्मीपापा के साथ बिलकुल समय नहीं बिता पा रही थी. इतवार के दिन उस की नींद थोड़ी जल्दी खुल गई थी. वह सीधे हौल की तरफ गई तो नजर डाइनिंग टेबल पर रखे थर्मामीटर की तरफ गई.

‘‘मम्मा यह थर्मामीटर क्यों निकला है?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘तेरे पापा को कल से तेज बुखार है. पूरी रात खांसते रहे. मुझे जरा देर को भी नींद नहीं लग पाई.’’

‘‘एकदम से गला इतना कैसे खराब हो गया? डाक्टर को दिखाया?’’

‘‘बच्चे थोड़े हैं जो हाथ पकड़ कर डाक्टर के पास ले जाऊं,’’ मम्मी के स्वर में झुंझलाहट थी.

‘‘मम्मा आप भी हद करती हैं… पापा को तेज बुखार है और आप… मानती हूं आप सारी रात परेशान हुईं. पर अपनी बात को रखने का भी एक समय होता है.’’

‘‘तू भी अपने पापा की ही तरफदारी करेगी न…’’

मेरी हालत भी पेंडुलम की तरह थी… कभी मेरी संवेदनाएं मम्मी की तरफ और कभी मम्मी से हट कर बिलकुल पापा की तरफ हो जाती थी. प्रकृति पूरा साल अपने मौसम बदलती पर हमारे घर में बारहों मास एक ही मौसम रहता था कलह और तनाव का. मैं उन दोनों के बीच की वह डोर थी जिस के सहारे उन के रिश्ते की गाड़ी डगमग करती खिंच रही थी.

उस दिन मेरा अंतिम पेपर था. मैं बहुत हलका महसूस कर रही थी. मैं अपने अच्छे परिणाम को ले कर आश्वस्त थी. आज बहुत दिनों बाद हम तीनों इकट्ठे डिनर टेबल पर थे. मम्मी ने आज सबकुछ मेरी पसंद का बनाया था.

‘‘मम्मीपापा, मैं आप दोनों से कुछ कहना चाहती हूं.’’ आज अनिका की भावभंगिता कुछ गंभीरता लिए थी, जिस के मम्मीपापा अभ्यस्त नहीं थे.

‘‘बोलो बेटे… कुछ परेशान सी लग रही हो?’’ वे दोनों एकसाथ बोल चिंतित निगाहों से उसे देखने लगे.

उस ने बहुत आहिस्ता से कहना शुरू किया जैसे कोई बहुत बड़ा रहस्य उजागर करने जा रही हो, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई सूरत में नहीं, बल्कि अहमदाबाद से करना चाहती हूं.’’

‘‘ये कैसी बातें कर रही हो बेटा… तुम्हें तो सूरत के एनआईटी कालेज में आसानी से एडमिशन मिल जाएगा.’’

‘‘मिल तो जाएगा पापा, पर सूरत के कालेजों की रेटिंग काफी नीचे है.’’

‘‘बेटे, यह तुम्हारा ही फैसला था न कि ग्रैजुएशन सूरत से ही कर पोस्टग्रैजुएशन विदेश से कर लोगी, तुम्हारे अचानक बदले इस फैसले का कारण क्या हम जान सकते हैं?’’ पापा के माथे पर तनाव की रेखाएं साफ झलक रही थी.

घर में अनजानी खामोशी पसर गई. यह खामोशी उस खामोशी से बिलकुल अलग थी जो मम्मीपापा की बहस के बाद घर में पसर जाती थी…बस आ रही थी तो घड़ी की टिकटिक की आवाज.

अपनी जान से प्यारे अपने मम्मीपापा को उदास देख अनिका के गले से रोटी कैसे उतर सकती थी. वह एक रोटी खा कर वाशबेसिन पर पर हाथ धोने लगी. मुंह धोने के बहाने नल से निकलते पानी के साथ उस के आंसू भी धुल गए. वह नैपकिन से अपना मुंह पोंछ रही थी तो सामने लगे आइने में उस ने देखा मम्मीपापा की निगाहें उस पर ही टिकी हैं जिन में बेबस सी अनुनय है.

‘‘आज मुझे महसूस हो रहा है कि सच में जमाना बहुत फौरवर्ड हो गया है… आखिर हमारी बेटी भी इस जमाने के तौरतरीकों बहाव में खुद को बहने से नहीं रोक पाई,’’ पापा के रुंधे स्वर में कहा.

‘‘ये सब आप के लाडप्यार का नतीजा है, और सुनाओ उसे अपने हौस्टल लाइफ के किस्से चटखारे ले कर… तुम तो चाहते ही थे न कि तुम्हारी बेटी तुम्हारी तरह स्मार्ट बने. तो चली हमारी बेटी आजाद पंछी बन जमाने के साथ

ताल मिलाने. उस ने एक बार भी हमारे बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘पापामम्मी के बीच चल रही बातचीत के कुछ अंश अनिका के कानों में भी पड़ गए थे. मम्मी ने रोरो कर अपनी आंखें सुजा ली थीं, नाक लाल हो गई थी. पर क्या किया जा सकता था, आखिर यह उस की पूरी जिंदगी का सवाल था.’’

जिंदगी धूप, तुम घना साया : भाग 2

समय की एक खूबसूरत विशेषता है कि वह सब को पुराना करता जाता है. हर नया एक दिन पुराना होना होता है. प्रेम भी पुराना होता है, लोग भी. कई तो पुराने होने के साथ परिपक्व होते है, कई मानो में बहुत समृद्ध होते हैं जैसे पुराने चावल, शराब, प्रेम, यादें. प्रेम भी पुराना होने पर अपनी असलियत पर आ जाता है. आकर्षण से जुड़ा प्रेम पुराना होते ही लड़खड़ा जाता है, गिर पड़ता है.

बलवंत, अनुराधा भी पुराने होने लगे तो एकदूसरे की आदतें, जो कभी आकर्षण के तहत स्वीकार कर रखी थीं, अब चुभने लगी थीं. अनुराधा का उतावलापन बलवंत के लिए खीझ बनने लगा. कभी अपनी अनु का यह उतावलापन सिरमाथे पर ले कर घूमते थे बलवंत. और आज, ‘थोड़ी शांत नहीं रह सकती. हमेशा घोड़े पर ही सवार क्यों रहती हो?’ तक आ गया था. इधर बलवंत हर काम अपने ढंग से करने की आदत कभी भी कहीं किसी काम को हाथ में लेना और फिर छोड़ देना… और तब करना जब मन करे. यह सब अनुराधा के लिए भी असहनीय होता, “तुम एक काम ठीक से नहीं कर सकते. चार काम पिछले ही पड़े हैं. कुछ तो करो, 2 घंटे से बस बिस्तर पर पड़े हो.” छोटीछोटी तकरारें बढ़ती जाती हैं यदि स्वीकार्यता में परिपक्वता की कमी हो. फिर दौड़ शुरू होती है सामने वाले को अपने जैसा बनाने की. जरा भी अपने मन का नहीं हुआ तो शिकायतें शुरू. वास्तव में जिस के साथ भी हम पुराने होते रहते हैं, हमारे असली चेहरे सामने आते जाते हैं, मुखौटे उतरते जाते हैं.” …तुम तो कहते थे मैं शराब को हाथ नहीं लगाता. फिर यह क्या है?” अनुराधा थोड़े गुस्से में बलवंत से पूछती है. बलवंत अपने असली स्वरूप में आ कर बस टाल जाता. इधर अनुराधा को देर तक जागने की आदत और बलवंत अपना पैग लगा कर जल्दी सोने का आदी. इसी बात पर तकरार हो जाती और कई दिन अबोला रहता. यह स्कूटर पर स्कूल जाने तक भी बना रहता. जगजीत सिंह और मुकेश भी बंट गए थे दोनों में. एक को जगजीत सिंह नहीं भाते तो दूसरे को मुकेश. शुरूशुरू में तो खुमारी में सब जायज था. दोनों के बीच ऊंची आवाजों में झगड़े होने लगे. कई बार आवाजें ऊंची हो जातीं तो बाहर भी सुनाई देतीं.

महल्ले वालों के लिए बलवंत, अनुराधा के झगड़े किसी फिल्मी कानाफूसी से कम न थे, चटखारे लेले कर महिलाएं एकदूसरे को सुनातीं. मनोरंजन के इसी साधन का महल्ले और समाज में उपयोग होता था. किसी बात पर दोनों में फिर सुलह हो जाती. लेकिन 2 दिनों बाद नई तकरार, झगड़े… बात कई बार स्टेटस, मातापिता, खानदान पर आ जाती तो बात बढ जाती थी. इन्हीं के बीच अनुराधा गर्भवती हुई. तकरार झगड़ों का स्तर मानक स्तर से ज्यादा ही था. जितनी पतिपत्नी की नोकझोंक होती है, उस से ज्यादा. कई बार तो अलग रहने तक की नौबत आ गई. अनुराधा एक बार तो गुस्सा हो कर सामने वाली काकी के यहां सामान सहित चली गई थी. कुछ बूढ़ी, सयानी महिलाओं ने समझाया कि गर्भावस्था में इतना तनाव नहीं पालना चाहिए, तब जा कर घर लौटी. ‘लव मैरिज’ का यह अनुभव कई महिलाओं के लिए उदाहरण बन गया.” और करो लव मैरिज.”, “हमें तो जहां बांध दी, वहीं की हो गई. अच्छा, बुरा जैसा भी है, सुखी हैं हम तो.”

बात इतनी बड़ी नहीं थी पर अपनेअपने अहं की लड़ाई कई बार इतनी बड़ी हो जाती है कि एक बार रेडियो पर जिंदगी धूप, तुम घना साया गाना बज रहा था, बलवंत ने आव देखा न ताव, रेडियो ही उठा कर पीछे जाने वाली सड़क पर फेंक दिया था. एक अजीब सा तनाव था दोनों के बीच जो बच्ची के जन्म के बाद और उभर आया. दोनों अच्छाखासा कमाते थे, भौतिक सुखसुविधाओं से परिपूर्ण जो उस समय अधिकांश लोगों के पास न थीं. लेकिन मन, अहं, वहम के खेल बहुत निराले. छावं में भी धूप लग रही होती है यदि हमारा अंतर्मन सही नहीं है तो.

बेटी के जन्म के बाद की जिम्मेदारियों ने भी अनु ने बलवंत को जोड़ने से मना कर दिया. अनु ठहरी स्वतंत्र और आत्मसम्मान वाली, उसे लगता था पति का भी गृहस्थी में उतना ही योगदान हो. वह भी बाहर काम करती है तो बलवंत घर में भी सहयोग दे. उस दिन शाम को फिर तकरार छिड़ी,

“बल्लू, तुम जरा सुशी को उठा लो, बहुत देर से कुनमुना रही है.” अनु ने लगभग पुचकारते हुए कहा.

“अरे, इस ने तो पोटी कर ली है. तुम ही देखो,” बलवंत ने हाथ खड़े कर दिए.

“अरे भई, मैं दोतीन बार बदल चुकी हूं, आप बदल दो न.”

“मैं… पागल हो गई हो. यह काम महिलाओं का है.”

“.क्यों और कैसे, मैं भी तुम्हारे साथ कमाने जाती हूं. अभी बस मेटरनिटी पर हूं,” अनु ने तैश में बोला था.

बलवंत कछ नहीं बोले और गुस्से में उठ कर चले गए. दूसरा दिन, रात हुई, बच्ची आधी रात को रोने लगी.

“चुप कराओ न इस को. पूरी नींद खराब कर दी,” बलवंत नींद से उठकर गुस्से से बोला.

“मैं वैसे ही 12 बजे सोई हूं, आप भी करा सकते हैं चुप.”

“सुन, ये सब मेरे से नहीं होगा. यह तेरा काम है. तू कर.”

अपना चादर, तकिया उठा कर पैर पटकते हुए बलंवत बाहर के कमरे में चला गया था. कभी अनुराधा को तुम कह कर बुलाने वाला बलवंत तू पर उतर ही आया.

बस, यही छोटीछोटी बातें बलवंत और अनुराधा को हर्ट कर जातीं और उस रात दोनों को नींद नहीं आई. बच्चे होने के बाद खुशियां आना थीं लेकिन एकल परिवार, दोनों नौकरीपेशा और जिम्मेदारियों का बोझ; फिर ऊपर से दोनों के अहं कुल मिला कर थोड़ी खुशी और ज्यादा गम वाली स्थिति निर्मित कर देता था. पहले धीरेधीरे शौक दम तोड़ने लगते हैं, फिर समय प्रबंधन, फिर खानापीना और जिंदगी में भौतिकता, सांसारिकता तो बढ़ जाती है परंतु मन का प्रबंधन बिगड़ जाता है.

महल्ले वाले अब कहीं भी लव मैरिज सुनते, तो सीधा उदाहरण देते अनु-बलवंत का और नमकमिर्ची मिला कर. “देखा नहीं लैला-मजनूं के हाल, सड़क पर लड़ते हैं. सब निकल गया प्यारव्यार 2 साल में ही.” तब कोई दोनों से सेंपैथी रखने वाला कहता, “किशन दादा, चमन, दिनकर इनने तो कोई न किया लव मैरिज, फिर भी जूतमपैजार हो जाती है. और एक को तो तलाक ही हो गया समझो. इस पे क्या कहोगे??” नमकमिर्ची वाला बस सामने वाले के कान उमेठ कर कहता, “हां, इस को जरूर लव मैरिज करना है. तभी वकील बना फिर रहा है.”

रिश्ते बनाने में देर नहीं लगती लेकिन उन्हे निभाने के लिए बहुत जतन करने होते हैं. यह बात कहने में बहुत आसान है लेकिन व्यावहारिक धरातल पर उतनी ही मुश्किल. 2 लोग शिक्षक जैसे पेशे से जुड़े हो कर भी इस एक लाइन को नहीं समझ पा रहे थे. बात मारपीट तक पहुंच गई जब अनुराधा को पता चला कि बलवंत के एकदूसरे स्कूल की शिक्षिका से अंतरंग संबंध हैं. और तो और, यह सब पिछले 6 महीनों से चल रहा है. कुछ लोगों को हर बात, हर चीज यहां तक कि रिश्तों में भी बोरियत लगती है. बलवंत उसी में से एक. एक जोड़ी कपड़े चारपांच बार से ज्यादा बार पहनना तो दूर देखता भी नहीं. यही आदत क्या रिश्तों के लिए भी हो गई, पता ही नहीं चला. छाया बहुत दिनों तक सहज बनी रहे, तो भी इंसान उक्ताहट का शिकार हो जाता है और उसे वह धूप की भांति लगने लगती है.

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