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बदायूं बलात्कार कांड : धूमिल होती देश की अस्मत

भारत का शुमार विश्व के सब से तेजी से विकसित होने वाले देशों में है. ऊंची इमारतें, सड़कें और सड़क पर दौड़ती महंगी गाडि़यां ही विकास की निशानी नहीं हैं, विकास का सही अर्थ है समाज के हर तबके का विकास हो, उस का सम्मान हो और हर तबके की पूरी सुरक्षा हो.

देश के एक सूबे उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के कटरा सआदतगंज में घटी घटना देश के चेहरे से विकास के मुखौटे को नोच कर अलग फेंक देती है. इस गांव में रहने वाली 2 नाबालिग लड़कियों के साथ गैंगरेप कर के उन का गला दबा कर पेड़ पर टांग दिया जाता है. पूरे मसले पर जिस तरह से जातीयता खुल कर सामने आई उस से साफ पता चलता है कि रूढि़यों और धार्मिक आडंबरों में फंसा यह देश आज भी अनपढ़ ही है.

पुराने धार्मिक ग्रंथों में बलात्कार या धोखे से संबंध बनाने की घटनाओं को देखें तो दोष औरत को ही दिया जाता था. अहल्या और गौतम ऋषि की कहानी कुछ ऐसी ही है. इंद्र ने अहल्या के पति गौतम ऋषि का छद्म रूप धर अहल्या कोधोखे में रख कर उस के साथ अनैतिक संबंध बनाए. यह बात जब अहल्या के पति गौतम ऋषि को पता चली तो उन्होंने सारा दोष अहल्या के मत्थे ही मढ़ दिया. उस को श्राप दे कर पत्थर की मूर्ति बना दिया. आज भी बलात्कार की शिकार महिला को ही दोषी माना जाता है. जबकि बलात्कार करने में पूरा दोष पुरुष का होता है. लिहाजा, दोष औरत के सिर मढ़ने की प्रवृत्ति के चलते बहुत सारी औरतें सचाई नहीं बतातीं. औरतों के खिलाफ अपराध करने वालों के हौसले बढ़ते हैं.

बदायूं की घटना में अपराध करने वालों का हौसला इसीलिए बढ़ा क्योंकि औरतें लंबे समय से वहां इस तरह के उत्पीड़न झेलती रही हैं.

ऐसी घटनाओं से देश की इज्जत पूरे विश्व के सामने धूल में मिल जाती है. बदायूं की घटना पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा कि भारतीय समाज को ‘लड़के तो लड़के हैं’ वाली सोच छोड़ देनी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने भारत को महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामलों में नाइजीरिया और पाकिस्तान के बराबर ला खड़ा किया है.

कुछ दिन पहले समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने मुंबई बलात्कार कांड को ले कर चुनावी भाषण में कहा था, ‘लड़के तो लड़के हैं. छोटीमोटी गलतियां हो जाती हैं. इस का मतलब यह नहीं कि उन को फांसी की सजा दी जाए.’ संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने इस बयान को सामने रखते हुए कहा कि देश के विकास में आधी आबादी का प्रमुख हाथ होता है. ऐसे में उस को नजरअंदाज कर के आगे नहीं बढ़ा जा सक ता है. 

उत्तर प्रदेश एसटीएफ यानी स्पैशल टास्क फोर्स के आईजी आशीष गुप्ता ने कहा, ‘‘उत्तर प्रदेश में दुराचार की रोज 10 घटनाएं घट रही हैं. जनसंख्या के हिसाब से देखें तो यह संख्या कम है.’’ आशीष गुप्ता ने दुराचार की सामाजिक वजहों पर चर्चा करते हुए आगे कहा कि ऐसे मामलों में 60 से 65 फीसदी घटनाएं शौच जाते समय होती हैं. गांव के घरों में शौचालय का न होना एक बड़ी परेशानी है. आशीष गुप्ता की यह बात सच हो सकती है. शर्म की बात यह है कि आजादी के इतने दिन बीत जाने के बाद भी गांव में घरों में शौचालय बनाने को प्रमुखता नहीं दी गई. जब देश में ऐसे हालात हों तो उसे विकसित राष्ट्र की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है?

उत्तर प्रदेश में पिछले 20 सालों से ज्यादातर बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी की ही सरकारें रही हैं जो दलित और पिछड़ी जातियों की बेहतरी का दावा करती हैं. इस के बाद भी इन जातियों की हालत क्या है, यह बदायूं की घटना में साफ दिखाई देती है. इन सरकारों ने दलित और पिछड़ों को शौचालय तक देने लायक काम नहीं किया. 10 हजार की आबादी वाले कटरा सआदतगंजके एक भी घर में शौचालय नहीं है.2 लड़कियों के साथ बलात्कार और हत्या के बाद अब इस गांव में शौचालय बनाने की मुहिम चल पड़ी है. आग लगने पर कुआं खोदने वाले ऐसे काम प्रशासन पहले भी करता रहा है.  

जाति पर सफाई

बदायूं से 25 किलोमीटर दूर कटरा सआदतगंज गांव उसहैत थाने के अंतर्गत आता है. यहां की ज्यादातर आबादी दलित, पिछड़ी, अनुसूचित जनजाति की है. यहां की रहने वाली लड़कियां स्कूल कम ही जाती हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि यहां लड़कियां या औरतें पूरी तरह से अपने को असुरक्षित महसूस करती हैं. अकेली किसी लड़की या औरत का, रात तो क्या दिन में भी, बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं होता. गांव के आदमी इतने दबंग हैं कि राह चलती औरत पर किसी भी तरह की टिप्पणी कर देते हैं. औरत पर संबंध बनाने के लिए तरहतरह के दबाव डाले जाते हैं. औरतों को जबरन उठा लिया जाता है और 2-3 दिनों बाद छोड़ दिया जाता है. खेत में काम करने गई औरत के साथ जोरजबरदस्ती किया जाना आम बात है. दबंगों के डर से औरतें थाना पुलिस में शिकायत नहीं करतीं. अगर कोई औरत ऐसा करे भी तो पुलिस उस की सुनती नहीं है. पुलिस कई बार तो पीडि़ता को ही मुकदमे में फंसा देती है. ऐसे में दबंगों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं.

कटरा सआदतगंज गांव में पैदा हुई रानी (बदला हुआ नाम) की मां का देहांत 3 साल पहले हो चुका था. पिता ने दूसरी शादी कर ली थी. रानी की दादी उस का पालनपोषण कर रही थी. रानी स्कूल पढ़ने जाती थी. पढ़ने और घर के कामकाज में होशियार होने के कारण उस की सौतेली मां भी उस को पसंद करने लगी थी. रानी सरस्वती ज्ञान मंदिर में पढ़ने जाती थी. उस की चचेरी बहन भी उसी के साथ पढ़ने जाती थी.

रानी के पिता किसान हैं. रानी खूब पढ़ कर अपने परिवार का सहारा बनना चाहती थी. उस के पिता उसे बेटी से ज्यादा बेटा मानते थे. उन को लगता था कि बड़ी हो कर वह उन का सहारा बनेगी. जब घर के लोग खेतों में काम करने के लिए चले जाते तो वह घर में खाना बनाती, सब के कपड़े धोती और पानी भरती थी. इस के बाद भी वह अपनी पढ़ाई में होशियार थी. 

 27 मई, 2014 की शाम बुधवार के दिन रानी अपनी चचेरी बहन के साथ शौच के लिए घर से बाहर गई. 15 साल की रानी की बहन उस से केवल 1 साल छोटी (14 साल की) थी. देर शाम तक दोनों वापस घर नहीं आईं तो रानी की सौतेली मां उस के पिता के साथ गांव में उन को ढूंढ़ने के लिए निकली. दोनों बेटियां नहीं मिलीं तो ये लोग थाने गए. पुलिस ने उन को वापस भगा दिया. पुलिस ने कहा कि 2 घंटे के बाद आना. रोतेकलपते उस परिवार की रात बीत गई. अगले दिन सुबह ये लोग पुलिस के पास गए. पुलिस के रूखे व्यवहार को देखते ये लोग फरियाद करने के लिए बदायूं जाने की तैयारी में लग गए. इस बीच, पुलिस ने गाली देते हुए कहा, ‘जाओ देखो, किसी पेड़ पर लटकी मिल जाएंगी दोनों’.

उधर, गांव की एक औरत दूध लेने के लिए जा रही थी तो गांव के बाहर आमों के बाग में आम के एक पेड़ पर दोनों लड़कियों को लटकते देखा. वह भाग कर आती है और गांव में इस बारे में बताती है. पुलिस मौके पर पहुंच कर मामले को रफादफा करने की कोशिश करती है लेकिन गांव के लोग पुलिस को पेड़ से लाश उतारने नहीं देते हैं.

हत्या और बलात्कार की शिकार ये लड़कियां ओबीसी यानी अति पिछड़ी जातियों की शाक्य बिरादरी में आती थीं. यह बिरादरी सामाजिक और आर्थिक हालात में दलित जातियों जैसी ही होती है. कमजोर जाति की होने के कारण पुलिस ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया. घटना की जानकारी जब बदायूं से बाहर निकल कर आती है तो पूरे समाज में गुस्सा फैल जाता है. राजनीतिक दल भी सक्रिय हो जाते हैं. बसपा प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के बदायूं जाने के बाद दलित उत्पीड़न की बात सामने आती है. केंद्र सरकार इस बात पर आपत्ति जाहिर करती है कि मुकदमे में दलित उत्पीड़न की धारा को क्यों शामिल नहीं किया गया? प्रदेश सरकार ने तब बताया कि हादसे की शिकार लड़कियां दलित नहीं, ओबीसी जाति की हैं. 

पुलिसिया करतूत का खुलासा

पुलिस ने गुनाहगारों के साथ मिल कर न केवल गुनाह को अंजाम दिया बल्कि अपराध को छिपाने का भी काम किया. इस को ले कर प्रदेश की पुलिस कठघरे में है. बदायूं की इस घटना ने दिल्ली में हुए निर्भया कांड की याद दिला दी. केवल देशभर के मीडिया ने ही इस घटना को प्रमुखता से नहीं छापा बल्कि  बीबीसी, न्यूयार्क टाइम्स और डेलीमेल जैसे बड़े विदेशीमीडिया ने इस घटना को प्रमुखता से जगह दी. हर घटना की तरह सत्तापक्ष में बैठी अखिलेश सरकार ने दबाव में आ कर पुलिस के अफसरों को इधरउधर करना शुरू किया. बदायूं कोई ऐसावैसा जिला भी नहीं है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव यहां से सांसद चुने गए. लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को जो 5 सीटें मिली हैं उन में बदायूं भी एक है. इस के बाद भी यहां के हालात ऐसे हैं.

बदायूं के कटरी क्षेत्र में गुंडई, दबंगई और बदमाशों का बोलबाला है. यहां कभी अपहरण एक उद्योग की तरह चलता था. यहां गंगा और रामगंगा नदी की कटरी में 9 ऐसे थाने हैं जहां पर अपराध का बोलबाला है. कटरा सआदतगंज कांड के बाद यह क्षेत्र सब की नजर में आ गया है. समाजवादी पार्टी के लिए बदायूं सब से प्रमुख जिला है. इस वजह से जिले के22 थानों में से 11 थानों में यादव बिरादरी के थानेदार तैनात हैं. कटरी क्षेत्र में आने वाले 9 थानों में से 6 में एक ही जाति के पुलिसदारोगा तैनात हैं. यहां पर घटना के समय गंगा सिंह यादव तैनात थे. अब उन की जगह पर विजय गौतम को तैनात किया गया है. 

?पूर्व आईपीएस अधिकारी और दलित चिंतक एस आर दारापुरी कहते हैं, ‘‘गांव में आज भी सामंती सोच कायम है. पुराने सामंतों की जगह नए सामंत पैदा हो चुके हैं जो पुरानी व्यवस्था को अपने प्रभाव से चलाना चाहते हैं. यही वजह है कि गांवों में घटने वाली ऐसी घटनाओं में दलित समाज और कमजोर तबके की औरतों को निशाना बनाया जाता है. पुलिस जाति और प्रभाव देख कर काम करती है. इस के लिए पुलिस का जातिकरण और राजनीतिकरण दोनों ही जिम्मेदार हैं. थाने पर पुलिस का व्यवहार सभी तबकों के लिए समान नहीं है. शिकायत दर्ज करने से पहले उस की जाति को पूछा जाना इस बात का प्रमाण है कि कमजोर तबके के साथ जातिगत व्यवहार किया जाता है. पुलिस को और अधिक संवेदनशील बनाने की जरूरत है. इस के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बताए गए पुलिस सुधारों को लागू करने की जरूरत है.’’

कैसे बदलेंगे हालात

वास्तविकता यह है कि समाज में आज भी कमजोर तबके  के हालात नहीं बदले हैं. उस की बहुओं और बेटियों को अपनी जागीर समझने कीकोशिश की जाती है. बदायूं की दोनों लड़कियां जाति से पिछड़ी जरूर थीं पर उन के हालात दलित जैसे ही थे. इसी कारण पुलिस ने समय पर उन की बात नहीं सुनी. अखिलेश सरकार मसले को समझे बगैर जिस तरह के कदम उठा रही है उस से किसी तरह के सामाजिक बदलाव की उम्मीद नजर नहीं आ रही. और जब तक सामाजिक बदलाव नहीं होगा, ऐसी घटनाओं से देश का सिर शर्म से झुकता रहेगा.

कर्मठता की अहमियत

कर्मठता, परिश्रम, उत्साह, साहस प्रकृति में चारों ओर बिखरे हैं. हर जीव या जीवित वस्तु अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अद्भुत कर्मठता व साहस दिखाती है. सैकड़ों किस्म की तितलियों के रंग आसपास के माहौल जैसे होते हैं ताकि वे उन में छिप कर शत्रु से बच सकें. पेड़पौधे धूप पाने के लिए टेढ़ेसीधे बढ़ते हैं और पानी व मिनरल पाने के लिए अपनी जड़ों को नीचे और नीचे ले जाते हैं. प्रकृति में जो भी जीवित है वह संघर्ष करता रहता है.

यही मानव के साथ है. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने 2014 के चुनावों में साबित कर दिया कि एक ऐसी विचारधारा, जिस के अनुयायी जनता के मात्र 10-12 प्रतिशत हैं, पर आधारित होने पर भी वे कर्मठता से, परिश्रम से, एकजुटता से, प्रतिबद्धता से 31 प्रतिशत वोट पा कर जीत सकते हैं.

जब यूनानी, हूण, शाक, फारसी, मुगल, अंगरेज, पुर्तगाली, फ्रांसीसी भारत आए थे, उन की तादाद मुट्ठी भर थी. लेकिन अपनी कर्मठता से, अपनी गहरी सोच से, प्रकृति के गुणों से सीख कर उन्होंने न केवल भारत में पैर जमाए, यहां राज भी किया. यहां के बहुसंख्यक लोग, जिन के पास न साधनों की कमी थी, न हथियारों की, इन लोगों के हाथों शिकस्त खाते रहे क्योंकि वे कर्मठ न थे. वे प्रकृति की दया पर जीना चाहते थे. कांगे्रस ने गांधी के नेतृत्व में उस समय की सक्षम अंगरेज सरकार के सामने कर्मठता की राह अपनाई और बिना हथियारों के ही उन्हें देश से निकल जाने को मजबूर कर दिया. उस के बाद कांगे्रस का रंगरूप बदलने लगा. उस ने ‘जो मिल गया उस पर मौज करो’ की संस्कृति अपना ली. न देश के लिए कुछ करना, न अपने सिद्धांतों के लिए. नतीजा यह हुआ कि 1967 तक वह लड़खड़ाने लगी.

बीचबीच में कर्मठ नेता आए तबतब वह संभली भी पर इस बार ज्यादा कर्मठ, परिश्रमी, उत्साही लोगों ने उस को ऐसी पटकनी दी कि शायद वह कभी न उठ सके. जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा होता है. कोई भी अपनी कर्मठता को नहीं छोड़ सकता. अगर छोड़ेगा तो शिकस्त खाएगा. प्रकृति का नियम है कि सदा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहो या फिर गुलामी करो. यदि सफल बनना है तो कर्मठता कभी न छोड़ो. अगर सुरक्षित भविष्य चाहिए तो होश संभालते ही कर्मठता का पाठ सीखो. अगर 2 घंटे पढ़ने से काम चल जाता है तो भी 6 घंटे पढ़ो. घर के कामों को बोझ न समझो, उन्हें कर्मठता की टे्रनिंग समझो. घर को पेंट करने के काम को चुनौती समझ कर हाथ में लो. मां या पिता का हाथ बंटा कर अपने को हीन नहीं, श्रेष्ठ समझो. जो करोगे वह सिखाएगा, आने वाले कल के लिए तैयार करेगा.

कर्मठता इंसान को स्वस्थ बनाती है. चेहरे पर आत्मविश्वास की छाप छोड़ती है. कर्मठ ही कक्षा में सब से ज्यादा पूछा जाता है. दूसरों के काम करना अपनी कर्मठता की परीक्षा लेना है. पेड़ अपने किसी लक्ष्य को ले कर ऊंचा नहीं होता. उसे अपने को बचाना है, दूसरों के मुकाबले ज्यादा टिकना है इसलिए और ऊंचा होता है और जड़ें फैलाता है. इसी तरह अपने को ऊंचा करना, अपनी पहुंच फैलाना हरेक की जरूरत है.

जो मातापिता की दया पर जीना चाहते हैं उन के कुछ साल तो सही गुजरते हैं पर बाद में दशकों उन्हें पिसना पड़ता है. अगर अभाव न भी हो तो यह साफ होता है कि उन के वश में कुछ करना नहीं है. वे आत्ममुग्ध हो सकते हैं पर आत्मविश्वासी नहीं. वे बड़बोले होते हैं, कर्मठ नहीं. आप को खुद तय करना है कि क्या करना है.

मजबूत विपक्ष की दरकार

चुनावी आंकड़ों ने साफ कर दिया है कि इस देश में अब सत्ताविरोधी दल चाहिए तो 2 से ज्यादा पार्टियां नहीं चल सकतीं. अगर एक ही चुनाव क्षेत्र से 3-4 मजबूत पार्टियां लड़ेंगी तो बिना बहुमत वाला भी जीत सकता है. भारतीय जनता पार्टी ठीक उसी तरह से इस बार सत्ता में आई है जैसे पहले कांगे्रस आती रही है, वोटों के बंटवारे के कारण.

वैसे भी बहुपार्टी सिस्टम वोटरों के साथ भी अन्याय है. चुनाव अब किसी विचारधारा को श्रेष्ठ या निकृष्ट घोषित करने के लिए नहीं होते. चुनाव सरकार चलाने के लिए होते हैं ताकि अफसरशाही तानाशाही में न बदल जाए. चुनावों में जीतने वाली पार्टी मनमानी करना चाहेगी या कर सकती है, यह प्राय: संभव नहीं होता. भारी बहुमत यानी 90-95 प्रतिशत सीटें जीतने वाले देशों में भी शासक दल विरोधियों का सामना करते रहते हैं.

दिक्कत तब होती है जब विचारधारा और कुशल प्रशासक में से चुनना पड़े. सोनिया गांधी की पार्टी के नेतृत्व वाली साझा सरकार की बुरी गत इसलिए हुई कि वह कुशल प्रशासक साबित नहीं हो रही थी. नरेंद्र मोदी ने अपने को बेहतर प्रशासक के रूप में प्रस्तुत किया जबकि सोनिया नीतियों व विचारों की ही बात करती रहीं. सोनिया ही नहीं, अन्य दल भी असल में विचारों को ले कर चले और पिट गए, चाहे विचार जाति को ले कर थे या धर्मनिरपेक्षता को.

जनता को सही प्रशासक चुनने का अवसर देने के लिए जरूरी है कि विपक्षी दल अब एक हो जाएं. जिन्हें भाजपा पसंद है वे उस में शामिल हो जाएं और बाकी अपनी प्रशासन नीतियों के सहारे एक नई पार्टी को जन्म दें. अब क्या खाएं, कैसे शादी करें, किस की पूजा करें, किन रस्मों की पोल खोलें, किस आदर्श की मूर्ति लगाएं जैसे विषय चुनावों के लिए नहीं रह गए. इन्हें किताबों, भाषणों, अखबारों और टीवी चर्चाओं तक ही रखा जाए.

यदि भाजपा का पर्याय तैयार करना है तो कांगे्रस, नैशनल कौन्फ्रैंस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोकदल व अन्य दलों को एकसाथ काम करने की आदत डालनी होगी. भाजपा सही काम तभी करेगी जब उसे मालूम हो कि उस की नकेल खींची जा सकती है. जनता के प्रति जिम्मेदारी अब कांगे्रस और दूसरे दलों की बढ़ गई है. पार्टियों के मुखिया अपनी पार्टियों को अब पारिवारिक कंपनियों की तरह नहीं चला सकते. अगर चलाएंगे तो उन की पार्टी के बिखरने में देर नहीं लगेगी.

प्रधानमंत्री का सचिवों से संपर्क

नरेंद्र मोदी ने मंत्रियों के बिना मंत्रालयों के सचिवों को बुला कर मंत्रालयों के काम की समीक्षा का काम शुरू कर के प्रारंभ से ही बता दिया है कि वे प्रशासन को चुस्त रखना चाहते हैं और उस पर अपनी पूरी पकड़ भी बनाए रखना चाहते हैं. अब तक विभागों के सचिव अपने मंत्री को जवाब दिया करते थे या प्रमुख सचिव तक अपनी बात पहुंचाते थे. पिछली सरकार ने पेचीदा मामलों के लिए मंत्रियों के समूह गठित कर रखे थे जिन का काम अपरोक्ष रूप से मंत्रियों के काम की जानकारी लेना और गड़बड़ होने पर ब्रेक लगा देना था.

सचिवों से जवाब तलब करना अच्छा है. अब तक अपने विभागों के शहंशाह बने ये सचिव अब सीधे उस प्रधानमंत्री की आंखों में आ गए हैं जिसे जनता ने भारी बहुमत से जिताया है और मंत्री जिस की कृपा पर हैं. देश की दुर्गति के पीछे सचिवों की बढ़ती ताकत रही है जिन्हें केवल अपने हितों से मतलब रहता था. वे लोग आसानी से मंत्री को पटखनी दे सकते थे और अकसर मंत्री उन के सामने गिड़गिड़ाते थे.

सरकार को ढंग से चलाना आज देश की पहली आवश्यकता है. वर्षों से सरकार चल रही थी, ऐसा कोई सुबूत कहीं नहीं है. वह तो धकेली जा रही थी और मंत्री, सचिव व सारी नौकरशाही मजे से जनता के कंधों पर झूल रही थी. सचिवों के नेतृत्व में नौकरशाही दिनबदिन खूंखार, निकम्मी और भ्रष्ट होती जा रही थी. हर सचिव के बारे में 100-200 करोड़ रुपए बना लेने की बातें गलियारों में गूंजती थीं, चाहे वे सच हों या न हों.

नेताओं के कामों को ये सचिव नष्ट कर देने में माहिर थे. नेता एक छूट दिलाते तो सचिव और नौकरशाह तरहतरह के नियमकानून बना कर नेता की योजना की धज्जियां उड़ा देते थे.

नरेंद्र मोदी इस सचिवशाही को काबू कर उस को सही दिशा पर चला सके तो देश के लिए भला होगा. मंत्रीगण इस काम को खुद कतई नहीं कर सकते क्योंकि जैसे ही किसी सचिव की ताकत कम होने लगती या उस से पूछताछ होती, वह प्रमुख सचिव के जरिए प्रधानमंत्री के कान भर आता कि मंत्री तो अपनी राजनीतिक पहचान बनाने में लग गया है.

नरेंद्र मोदी का यह कदम मंत्री पदों का लालच भी खत्म कर देगा. मंत्री अब अपने समर्थकों को जमीनें, ठेके, विदेश यात्राएं, कमेटियों में नियुक्तियां कराना तो दूर, 2 प्याले चाय भी न पिला सकेगा क्योंकि उस के काम की खोजखबर सीधे प्रधानमंत्री सचिव से खुल्लमखुल्ला लेंगे. प्रशासनिक गलियारों में फुसफुसाहट नहीं साफगोई से बातें होंगी क्योंकि प्रधानमंत्री की नीतियों के शायद मिनट्स रखे जाएंगे.

प्रधानमंत्री, मंत्री का कद छोटा कर रहे हैं पर पिछली सरकार में जिस तरह मंत्रियों ने मनमानी की थी उस के मद्देनजर यह लाजमी भी था.

सरकार की सकारात्मक शुरुआत

नरेंद्र मोदी की भारी जीत से देश का एक वर्ग थोड़ा चिंतित है कि कहीं नरेंद्र मोदी देश को किसी कट्टरवादी मोड़ पर न ले जाएं पर शुरू के पहले महीने की गतिविधि से उन्होंने यह संदेश दिया है कि वे सरकार चलाने में गंभीर हैं, भारतीय जनता पार्टी के अपेक्षित एजेंडे में नहीं. नरेंद्र मोदी को जनता से जो समर्थन मिला है वह विकास व अच्छे प्रशासन के नाम पर मिला है, हिंदू संस्कृति की पुनर्स्थापना के नाम पर नहीं.

नरेंद्र मोदी ने सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को शपथग्रहण में बुला कर यह संकेत दे दिया है कि उन की सरकार न तो पाकिस्तान से दोदो हाथ कर के अपना वोटबैंक पक्का करना चाहती है और न ही यह चाहती है कि पाकिस्तान भारत के लोगों में धर्म के नाम पर फूट फैलाए. आने वालों में श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे भी थे जिन से तमिलनाडु के लोग श्रीलंका में तमिल संहार के लिए खार खाए बैठे हैं पर उन के विरोध की नरेंद्र मोदी ने अनसुनी कर के अपनी स्वतंत्रता का स्पष्ट प्रदर्शन किया है.

प्रधानमंत्री पद है ही ऐसा जिस पर बैठा व्यक्ति अपनी धार्मिक, आर्थिक, संस्कारी, सामाजिक अवधारणाओं को भूल जाता है. मुख्यमंत्री पद पर इतनी जिम्मेदारी नहीं होती पर प्रधानमंत्री के निर्णय दूरगामी प्रभाव दिखा सकते हैं.

इंदिरा गांधी ने 1977 और 1981 के बीच पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरावाले को छिपा समर्थन दिया था पर 1981 में फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने उसे मरवाया, इनाम नहीं दिया. यह बात दूसरी है कि औपरेशन ब्लू स्टार के कारण वे खुद जान से चली गईं.

भारत को आज ऐसे शासन की जरूरत है जिस में नागरिक भयमुक्त हो कर काम कर सके और इस बार चुनावों में यह नारा केवल भारतीय जनता पार्टी ने दिया था. यह जरूरी भी है. आज देश का नागरिक संकटों से घिरा है, डरा है. यह डर आतंकवाद का कम, सरकारवाद का ज्यादा है. कब, कौन सा इंस्पैक्टर आ कर हमला कर दे, पता नहीं. हर नागरिक सैकड़ों कानूनों के घेरों में है. करों की भरमार है. हर काम में सैकड़ों फौर्म भरने होते हैं, सैकड़ों प्रमाणपत्र चाहिए होते हैं. ऐसा लगता है कि सरकार अपने किसी नागरिक पर भरोसा नहीं करती.

जनता इस भय से मुक्त होना चाहती है कि उस की जमीन, उस की झोंपड़ी, उस का खेत, उस का व्यवसाय, उस की नौकरी उस की ही है, कोई ले नहीं जाएगा. नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में एक भी हठधर्मी चेहरा न होने का अर्थ है कि नरेंद्र मोदी जनता के इस दर्द के मर्म को समझ रहे हैं और वे उदार, समझदार व अनुभवी लोगों को ही साथ ले कर चलना चाहते हैं. नरेंद्र मोदी के पहले 30 दिन सुहावने रहे हैं और यह सुखदायक बात है.

आप के पत्र

अग्रलेख ‘राजनीति का जातीय गणित’ (मई/द्वितीय) की यथार्थ पड़ताल पढ़ी. बेशक हम स्वयं को राष्ट्रवादी कहे जाने के लिए कितना ही ‘हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाईभाई’ का राग अलापते हों मगर जब भी बात ‘हित’ की आती है तो हम न केवल समाज, राज्य या राष्ट्र में बल्कि अपने स्वयं के वंश (परिवार) तक में इस बुरी तरह बंट जाते हैं कि खून के रिश्तों को तिलांजलि देने तक से नहीं सकुचाते.

दोष मात्र राजनीतिज्ञों का ही नहीं है बल्कि हम तथाकथित देश के जागरूक मतदाताओं/देशवासियों का भी है कि भाईभाई का गला काटने से भी नहीं कतराते. हम मात्र अपने ही परिवार या फिर वर्ग, धर्म, समुदाय के नाम पर इतनी बुरी तरह विभाजित हो जाते हैं कि चोर, लुटेरे, खूनी, हत्यारे, ईमानदार, बेईमान, पापी, परमार्थी या अपराधी तत्त्वों की पहचान तक भूल जाते हैं. ऐसे में दोष किसी और को देने से क्या फायदा.

देश में क्या अनुसूचित जाति/जनजाति, दहेजउत्पीड़न, महिला सशक्तीकरण, भ्रष्टाचार उन्मूलन आदि से संबंधित कायदेकानून नहीं हैं? दरअसल, ईमानदारी से उन्हें लागू नहीं किया जाता. ऐसे में राजनीतिज्ञ ‘बंदर’ समान आपस में ही लड़तेमरतों की मानसिकता का फायदा उठाएं भी क्यों नहीं? लेकिन इस बार आम चुनावों में जिस तरह मतदाताओं ने धर्म, वर्ग, समुदाय को नजरअंदाज कर मतदान किया है वह शायद अच्छे लक्षणों/दिनों को ही इंगित कर रहा है.

टी सी डी गाडेगावलिया, करोलबाग (न.दि.)

 

आप के पत्र

मई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कहानी ‘रिटायर्ड आदमी’ के संदर्भ में कहना चाहूंगा कि सर्विस एक यात्रा है, तो रिटायरमैंट एक तीर्थयात्रा है. सेवानिवृत्ति के बाद जीवन फिर नए अंदाज में प्रारंभ करें. समाज, मानवसेवा के क्षेत्र में अपना योगदान करने पर विचार करें.

राधाकृष्ण सहारिया, जबलपुर (म.प्र.) द्य

 

आप के पत्र

फुजूलखर्च

मैं कई वर्षों से ‘सरिता’ की नियमित पाठिका हूं. आप की पत्रिका के माध्यमसे मैं देश में शादियों के दौरान होरहे फुजूल खर्चों की ओर ध्यानखींचना चाहती हूं. पटाखे, खानेपीने, कपड़ेगहनों में हम लाखों रुपए खर्च कर देते हैं.यदि इस खर्च का एक प्रतिशत भी किसी गरीब बच्चे की पढ़ाई में लगाएं, तो पैसे का सदुपयोग होगा. बैंडबाजे, खानेपीने में पैसा बरबाद करने के बजाय किसी गरीब की शादी में पैसा लगाने से नवदंपती के जीवन की शुरुआत किसी की दुआओं से होगी. 

रानी भागचंदानी, पुणे (महाराष्ट्र)

 

आप के पत्र

मई (द्वितीय) का अंक सामने है. इसे सासबहू को समर्पित किया गया है. ‘सास और बहू’, लगता है किसी ने दुखती रग छू ली हो.

पिछले वर्ष बड़े अरमानों के साथ बेटे की धूमधाम से शादी की, सोचा जिंदगी कुछ तो आसान होगी. कट्टर परंपरावादी, रूढि़वादी व उग्र स्वभाव की सास से पटरी बैठातेबैठाते 33 साल गुजार दिए. मां के दिए संस्कार ऐसे थे कि हर स्थिति में निभा कर चलो. हमेशा वही होता जो वे चाहतीं. पापाजी (ससुरजी) बहुत शांत, गंभीर व मेरा साथ देते, मगर यह भी तनाव का कारण बन जाता. उन्होंने भी चुप्पी साध ली. बस, चुपचाप देखते रहते.

बेटे ने जब अपनी पसंद से दूसरी जाति की लड़की से विवाह करना चाहा तो सब से ज्यादा साथ मैं ने ही दिया, सारे घर वालों को मनाया. अब मुझे पहली जिम्मेदारी यह महसूस हुई कि एक ‘बेचारी’, ‘मासूम’ बच्ची घर में आ रही है, उस तक उन दुखों की आंच न जाए जो मैं ने झेली है. मगर जल्दी ही मेरा भ्रम टूट गया. न तो वह बेचारी थी न ही इतनी मासूम. बहूरानी बहुत घमंडी, तेज व मनमानी करने वाली. मेरी सासूमां के साथ हमेशा टकराव की स्थिति बनी रहती. उस के खानेपीने, उठने, पहनने की अपनी ही आदतें थीं जो वह हरगिज बदलना नहीं चाहती थी. रोजरोज घर में कलह होने लगी. मैं दोराहे पर खड़ी दोनों सिरों को संभालने की कोशिश में लगी रहती.

जिंदगी एक गंभीर चुनौती बन कर मेरे सामने खड़ी थी, एक तरफ सास दूसरी तरफ बहू. सच कहूं मैं अपनेआप को बहुत स्मार्ट व समझदार समझती थी, मगर अब मेरा आत्मविश्वास भी डगमगा गया. परिवार टूटने के कगार पर खड़ा था. मगर जो ‘सरिता’ पढ़ते हैं उन्हें कोई न कोई राह मिल ही जाती है. ‘सरिता’ ने एक सच्ची सहेली की तरह मेरा मार्गदर्शन किया. इस का एक ही उपाय था. अपना अहं छोड़ कर धैर्य व सहनशीलता का दामन थामना. क्योंकि मैं अपने बेटे को परेशान देख नहीं सकती और न ही बूढ़े सासससुर को छोड़ सकती थी. परिवार को डूबने से बचाना था. धीरेधीरे धीरज के साथ मम्मी को नए जमाने के साथ चलना सिखाया. उन का विश्वास जीता. साथ ही, बहू की सारी गलती माफ करते हुए उसे परिवार/ससुराल में रहने के तौरतरीके सिखाए. प्यार की भाषा से सबकुछ संभव होता चला गया.

साल बीततेबीतते मेरी मेहनत धैर्य व सहनशीलता रंग लाई. अब जब हम तीनों सासबहू इकट्ठे बैठ कर गपें मारते हैं, साथ चाय पीते हैं तो मुझे अपनेआप पर गर्व हो आता है कि शेरों को मारने के लिए बंदूक की नहीं, प्यार की गोली काफी है.

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि सासबहू का रिश्ता बहुत प्यारा है, मांबेटी के रिश्ते से भी बढ़ कर. बस जरूरत है थोड़ा धैर्य व बहुत सी सहनशीलता की. एक बहू के रूप में एक सास के रूप में, दोनों मोर्चों पर मैं ने सामंजस्य बैठाया है.

मंजू अग्रवाल, जोधपुर (राज.)

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मई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘रिश्ता सासबहू का : नदी के दो किनारे’ में इस रिश्ते पर नए ढंग से प्रकाश डाला गया है क्योंकि अभी तक सासों को ही उत्पीड़न का जिम्मेदार माना जाता था. आज की महिलाएं पहले की महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा पढ़ीलिखी व अपने पैरों पर खड़ी हैं. फिर ऐसी कोई वजह दूरदूर तक दिखाई नहीं पड़ती कि वे सिर झुका कर सास का अनुशासन मानेंगी. आर्थिक स्वतंत्रता ही दोनों पक्षों के लिए मुख्य चीज है, जिस में बहू नंबर वन पर है अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए. जबकि दूसरा पक्ष न केवल रिटायरमैंट या दूसरे शारीरिक, मानसिक कारणों से शिथिल हो जाता है बल्कि पोतापोती व अपनी संतान से स्वाभाविक स्नेह के कारण भी वह बहुतकुछ सहता है. 

ऐसे हालात में नीना धूलिया द्वारा बनाया गया एआईएमपीएफ दुखी सासों के लिए मील का पत्थर साबित होगा.

 कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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मुक्तक का है इंतजार

मई (द्वितीय) अंक पढ़ा. सभी कविताएं अच्छी लगीं. सासबहू से संबंधित सभी कहानियां शिक्षाप्रद लगीं. पहले ‘सरिता’ में छोटीछोटी 4-5 लाइनों की कविताएं, क्षणिकाएं, मुक्तक छपते थे. उन्हें बंद नहीं करना चाहिए था. उन्हें मैं प्रथम बार पन्ने पलटते हुए पढ़ लेता था.

केदारनाथ ‘सविता’, मीरजापुर (उ.प्र.)

आप के पत्र

मई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित अग्रलेख ‘राजनीति का जातीय गणित’ पढ़ा. यह लेख देश का अखंड नारा ‘अनेकता में एकता’ कितना खोखला है, दर्शाता है. राजनीति के अंतर्गत ‘वादे हैं वादों का क्या’ के प्रत्युत्तर में सौ सुनार की एक लोहार की वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए जनता कहेगी जो वादा किया वह निभाना पड़ेगा. इस बार जनता ने वोटों की भीख नहीं दी है बल्कि आशा व विश्वास की थाली अच्छे दिन के आने की आशा में योग्य नेताओं को थमा दी है.

अब यह देखना है कि नई सरकार जनता की उम्मीदों पर कितना खरा उतरती है.     

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

 

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