मई (द्वितीय) का अंक सामने है. इसे सासबहू को समर्पित किया गया है. ‘सास और बहू’, लगता है किसी ने दुखती रग छू ली हो.

पिछले वर्ष बड़े अरमानों के साथ बेटे की धूमधाम से शादी की, सोचा जिंदगी कुछ तो आसान होगी. कट्टर परंपरावादी, रूढि़वादी व उग्र स्वभाव की सास से पटरी बैठातेबैठाते 33 साल गुजार दिए. मां के दिए संस्कार ऐसे थे कि हर स्थिति में निभा कर चलो. हमेशा वही होता जो वे चाहतीं. पापाजी (ससुरजी) बहुत शांत, गंभीर व मेरा साथ देते, मगर यह भी तनाव का कारण बन जाता. उन्होंने भी चुप्पी साध ली. बस, चुपचाप देखते रहते.

बेटे ने जब अपनी पसंद से दूसरी जाति की लड़की से विवाह करना चाहा तो सब से ज्यादा साथ मैं ने ही दिया, सारे घर वालों को मनाया. अब मुझे पहली जिम्मेदारी यह महसूस हुई कि एक ‘बेचारी’, ‘मासूम’ बच्ची घर में आ रही है, उस तक उन दुखों की आंच न जाए जो मैं ने झेली है. मगर जल्दी ही मेरा भ्रम टूट गया. न तो वह बेचारी थी न ही इतनी मासूम. बहूरानी बहुत घमंडी, तेज व मनमानी करने वाली. मेरी सासूमां के साथ हमेशा टकराव की स्थिति बनी रहती. उस के खानेपीने, उठने, पहनने की अपनी ही आदतें थीं जो वह हरगिज बदलना नहीं चाहती थी. रोजरोज घर में कलह होने लगी. मैं दोराहे पर खड़ी दोनों सिरों को संभालने की कोशिश में लगी रहती.

जिंदगी एक गंभीर चुनौती बन कर मेरे सामने खड़ी थी, एक तरफ सास दूसरी तरफ बहू. सच कहूं मैं अपनेआप को बहुत स्मार्ट व समझदार समझती थी, मगर अब मेरा आत्मविश्वास भी डगमगा गया. परिवार टूटने के कगार पर खड़ा था. मगर जो ‘सरिता’ पढ़ते हैं उन्हें कोई न कोई राह मिल ही जाती है. ‘सरिता’ ने एक सच्ची सहेली की तरह मेरा मार्गदर्शन किया. इस का एक ही उपाय था. अपना अहं छोड़ कर धैर्य व सहनशीलता का दामन थामना. क्योंकि मैं अपने बेटे को परेशान देख नहीं सकती और न ही बूढ़े सासससुर को छोड़ सकती थी. परिवार को डूबने से बचाना था. धीरेधीरे धीरज के साथ मम्मी को नए जमाने के साथ चलना सिखाया. उन का विश्वास जीता. साथ ही, बहू की सारी गलती माफ करते हुए उसे परिवार/ससुराल में रहने के तौरतरीके सिखाए. प्यार की भाषा से सबकुछ संभव होता चला गया.

साल बीततेबीतते मेरी मेहनत धैर्य व सहनशीलता रंग लाई. अब जब हम तीनों सासबहू इकट्ठे बैठ कर गपें मारते हैं, साथ चाय पीते हैं तो मुझे अपनेआप पर गर्व हो आता है कि शेरों को मारने के लिए बंदूक की नहीं, प्यार की गोली काफी है.

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि सासबहू का रिश्ता बहुत प्यारा है, मांबेटी के रिश्ते से भी बढ़ कर. बस जरूरत है थोड़ा धैर्य व बहुत सी सहनशीलता की. एक बहू के रूप में एक सास के रूप में, दोनों मोर्चों पर मैं ने सामंजस्य बैठाया है.

मंजू अग्रवाल, जोधपुर (राज.)

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मई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘रिश्ता सासबहू का : नदी के दो किनारे’ में इस रिश्ते पर नए ढंग से प्रकाश डाला गया है क्योंकि अभी तक सासों को ही उत्पीड़न का जिम्मेदार माना जाता था. आज की महिलाएं पहले की महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा पढ़ीलिखी व अपने पैरों पर खड़ी हैं. फिर ऐसी कोई वजह दूरदूर तक दिखाई नहीं पड़ती कि वे सिर झुका कर सास का अनुशासन मानेंगी. आर्थिक स्वतंत्रता ही दोनों पक्षों के लिए मुख्य चीज है, जिस में बहू नंबर वन पर है अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए. जबकि दूसरा पक्ष न केवल रिटायरमैंट या दूसरे शारीरिक, मानसिक कारणों से शिथिल हो जाता है बल्कि पोतापोती व अपनी संतान से स्वाभाविक स्नेह के कारण भी वह बहुतकुछ सहता है. 

ऐसे हालात में नीना धूलिया द्वारा बनाया गया एआईएमपीएफ दुखी सासों के लिए मील का पत्थर साबित होगा.

 कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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मुक्तक का है इंतजार

मई (द्वितीय) अंक पढ़ा. सभी कविताएं अच्छी लगीं. सासबहू से संबंधित सभी कहानियां शिक्षाप्रद लगीं. पहले ‘सरिता’ में छोटीछोटी 4-5 लाइनों की कविताएं, क्षणिकाएं, मुक्तक छपते थे. उन्हें बंद नहीं करना चाहिए था. उन्हें मैं प्रथम बार पन्ने पलटते हुए पढ़ लेता था.

केदारनाथ ‘सविता’, मीरजापुर (उ.प्र.)

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