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वृद्धों की सेवा या आफत

ऋचा बढ़ेबूढ़ों का जिक्र आते ही मुसकरा पड़ती हैं और कहती हैं, ‘‘बच्चेबूढ़े एक समान होते हैं. उन्हें जिस काम को करने से मना किया जाता है वे उसे करने के लिए अतिउत्साहित रहते हैं.’’ ऋचा आगे कहती हैं, ‘‘एक बार मेरी सासूमां को मौडर्न बनने का भूत सवार हुआ. वे घर में काम करने वाली लड़की से बाल ट्रिम करवाने और आईब्रो बनवाने की जिद पकड़ बैठीं. जब उस ने ऐसा करने से मना कर दिया तो उन्होंने उस के हर काम में गलती निकालना शुरू कर दिया.’’

न्यूकासेल यूनिवर्सिटी के हैल्थ प्रमोशन रिसर्च ग्रुप के बुजुर्गों में पनपे सामाजिक अलगाव और एकाकीपन को ले कर किए गए अध्ययन के अनुसार, ‘बढ़ती उम्र के साथ बुजुर्ग अकेलेपन और सामाजिक अलगाव का शिकार होने लगते हैं और इसी अकेलेपन और भावनात्मक अलगाव का परिणाम होता है कि बुजुर्ग अपना महत्त्व दिखाने के लिए बच्चों जैसे काम करने लगते  हैं और तब समस्या शुरू होती है उन से जुड़ी अगली पीढ़ी की जो अपने बुजुर्गों की सेवा करना चाहती है मगर बड़ेबूढ़ों की जिद और आदतों के चलते उन की सेवा करना आसान नहीं रह जाता.’

एक डाक्टर का कहना है कि उन के पास अकसर ऐसे ओल्डऐज पेशेंट्स आते हैं जिन की समस्याएं निराली होती हैं जिन्हें सुलझाने के लिए कई बार उन के बच्चों से भी बात करनी पड़ जाती है. उन के पास एक ऐसी बुजुर्ग पेशेंट आती हैं जिन की बेटी ने बताया कि उन की मां अचानक रात को उन के कमरे का दरवाजा भड़भड़ाने लगती हैं क्योंकि वे चाहती हैं कि बेटी उन के पास आ कर सोए. अपने जीवनसाथी की मृत्यु के बाद उन्हें अकेलापन इतना काटता है कि उन्हें अकेले रहने से डर लगता है. दिन का सूनापन वे अपने छोटेछोटे नातीनातिन से बांट लेती हैं मगर रात का भयावह सूनापन उन्हें इतना खलता है कि वे चाहती हैं कि उन का कोई अपना पास हो, जिस के साथ वे अपना एकाकीपन बांट सकें. उन की मां की ऐसी आदत से उन की स्थिति बड़ी असमंजस वाली हो गई है. समझ नहीं आता कि वे इस पसोपेश से कैसे निकलें.

अकेलापन ऐसी समस्या है जो किसी उम्र में हो सकती है मगर बुढ़ापे में उपजे अकेलेपन के कई कारण होते हैं. मसलन, एकाएक जीवनसाथी का ढलती उम्र में साथ छूट जाना, जीवनसाथी के होते हुए भी उस का अपनेआप में मस्त रहना, परिवार में 2 पीढि़यों के बीच अस्तित्व की लड़ाई आदि.

असुरक्षा की भावना

वर्षों के अटूट साथ के बाद जब पतिपत्नी में से कोई एक दुनिया छोड़ देता है तो दूसरे के लिए पनपा अकेलापन उसे असुरक्षा का अनुभव कराने लगता है. ऐसे में अपने एकाकी होने की भावना से बचने के लिए अकेला रह गया इंसान अपने बच्चों व आसपास रहने वालों से अपनेपन की उम्मीद करता है और जब वह प्रत्युत्तर में बेरुखी पाता है तो सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नएनए तरीके अपनाता है.

कुछ ऐसा ही हाल 65 वर्षीय वीणा का भी है. बेटेबहू की परेशानी का सब से बड़ा कारण यह है कि वीणा रात को किसी भी पल घबराहट और सीने में दर्द की शिकायत करती हैं. ऐसा होने पर बेटाबहू डाक्टर बुलाते हैं और उन का पूरा चैकअप करवाते हैं. मगर अकसर डाक्टर चैकअप के बाद किसी भी तरह की स्वास्थ्य समस्या के होने से इनकार करते हैं.

वीणा के बेटेबहू के अनुसार, ‘‘हमारी समस्या यह है कि अगर हम मां की कंप्लेंट्स को बहाना मान कर इग्नोर कर दें और कभी वास्तव में उन्हें कोई मैडिकल प्रौब्लम हो जाए तो हम अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाएंगे.’’

दरअसल, अपने अकेलेपन से भागते बुजुर्ग अपने प्रति निष्ठावान बच्चों को अपनी अटपटी आदतों से ऐसे परेशान कर देते हैं जिस से कई बार स्थिति ऐसी हो जाती है कि न चाह कर भी बच्चे मातापिता को इग्नोर करने लगते हैं.

अकेलेपन से बचें

कई बार जीवनसाथी का साथ होते हुए भी एक की मस्तमौला फितरत दूसरे लाइफपार्टनर को एकाकी का एहसास कराती है. ऐसे में पनपा अकेलापन भी उस में कुंठाएं और अतृप्तता का भाव जगा देता है. तब ऐसी कुंठाओं का उद्गार वह अपनी अजीबोगरीब हरकतों से करने लगता है. श्रेया के 62 वर्षीय पति दिवाकर हाल ही में हुए रिटायरमैंट के बाद घर पर रहने लगे हैं.

नौकरी के दौरान अपने काम और सहयोगियों में मस्त रहने वाले दिवाकर सेवानिवृत्ति के बाद खाली हो गए और इस उम्र में वे पत्नी का साथ और सहयोग की इच्छा रखते हैं पर अपने कामों, गृहस्थी और आसपड़ोस में मस्त रहने वाली श्रेया अपनी बेफिक्री में पति की जरूरतों को समझ नहीं पाई और अकेलेपन को झेलते दिवाकर बाबू ने अपने अकेलेपन से छुटकारे का अजीबोगरीब तरीका ढूंढ़ निकाला.

वे सुबहसुबह ही तेज आवाज में रेडियो चलाने लगे. उन की इस झक के कारण आसपास के घरों में रहने वाले, पढ़ने वाले बच्चे सभी परेशान रहने लगे. दिवाकर परिवार का लिहाज करने वाले पड़ोसी कुछ दिन तो चुप रहे पर असह्य होने पर शिकायतें उन के घर पहुंचने लगीं. बुजुर्गवार की झक और भूल ने परिवार को परिहास का निशाना बना दिया.

बुजुर्गों का करें सम्मान

2 पीढि़यों के बीच उम्र का अंतराल उन के अनुभव, समझ और उम्र के फर्क के कारण उन की सोच अलगअलग होती है जिस से दोनों पीढि़यों की एकदूसरे को समझने की प्रक्रिया अकसर नाकामयाब हो जाती है. इस समस्या को जेनरेशन गैप कह कर जस का तस छोड़ दिया जाता है.

परिवारों के बुजुर्गों की एकाकीपन की समस्या के लिए किसी एक पीढ़ी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. नई पीढ़ी जहां अपने बड़ेबूढ़ों के तजरबे और अनुभवों को पुरानी सोच कह कर नकारती है वहीं पुरानी पीढ़ी समय के अनुसार अपनेआप में बदलाव नहीं ला पाती. घर के बड़ेबूढ़े चाहते हैं कि जैसे आज तक घर के शासन की बागडोर उन के हाथों में रही वैसे ही आगे भी रहे. यथार्थ न स्वीकार कर पाने की स्थिति उन में कुंठा भरने लगती है क्योंकि जो बच्चे मातापिता का हाथ पकड़े बिना घर से बाहर नहीं निकलते थे, अपना परिवार, बच्चे होते ही, वे अपना प्रमोशन चाहते हैं.

परिवार में अपने अस्तित्व की लड़ाई 2 पीढि़यों में अलगाव बढ़ा देती है. जबकि ऐसे में जरूरत होती है कि नई पीढ़ी बुजुर्गों के प्रति सम्मान और उन के लिए अपने दायित्वों को समझे और दूसरी ओर परिवार के बुजुर्गों का कर्तव्य है कि वे नई पीढ़ी की सोच और समझ को अपने अनुभवों से परिपक्व बनाएं.

कई लोग ऐसे हैं जो अपने मातापिता या बुजुर्गों की सेवा करना चाहते हैं, उन्हें सुख देना चाहते हैं मगर बड़ेबूढ़ों की बालहठ और उन का जड़ स्वभाव बच्चों की सकारात्मक सोच को नकारात्मक बना देता है. इस से एक बात स्पष्ट होने लगती है कि बड़ेबूढ़ों की सेवा करना आसान काम नहीं.

ना ना करते ब्याह तुम्हीं से कर बैठे

ढलती उम्र में देश के प्रमुख नेता 88 वर्षीय नारायणदत्त तिवारी ने अपनी पहले की प्रेमिका 70 साल की उज्ज्वला शर्मा के साथ शादी कर ली है. देश में वे पहले ऐसे हाई प्रोफाइल राजनेता हैं जिन्होंने ऐसा किया है. नारायणदत्त तिवारी को ऐसा करने का साहस इसलिए हो सका क्योंकि अब उन का राजनीतिक जीवन खत्म सा हो गया है. कांग्रेस पार्टी ने उन से किनारा कर लिया है. 15 मई, 2014 को जब नारायणदत्त तिवारी ने उज्ज्वला शर्मा से लखनऊ के मालएवेन्यू स्थित सरकारी आवास में शादी की तो उन के परिवार की तरफ से कोई भी मौजूद नहीं था. शादी में शामिल मेहमानों से ज्यादा मीडिया के लोग थे. नारायणदत्त तिवारी के साथ लंबे समय से रह रहे उन के निजी सचिव यानी ओएसडी भवानी भट्ट इस शादी से खुश नहीं थे. वे उन का साथ छोड़ कर चले गए.

नारायणदत्त तिवारी की शादी लखनऊ के जिस आवास में हो रही थी उस से मात्र 5 किलोमीटर दूर महानगर में उन के बडे़ भाई रमेश तिवारी का परिवार रहता है. 84 साल के रमेश तिवारी इस शादी से बेहद दुखी और परेशान थे.

भवानी भट्ट कहते हैं, ‘‘नारायणदत्त तिवारी की इस समय तबीयत ठीक नहीं रहती है. उन की मानसिक हालत ठीक नहीं रहती है. इस समय उन से कुछ भी कराया जा सकता है. इस का मतलब यह नहीं कि उस में नारायणदत्त तिवारी की सहमति है.’’ भवानी आगे कहते हैं कि जिस समय नारायणदत्त तिवारी की उज्ज्वला शर्मा से शादी हो रही थी उस समय तिवारी का परिवार रो रहा था. 

यही नहीं, इस शादी के दौरान उज्ज्वला और नारायणदत्त तिवारी के पुत्र रोहित शर्मा को भी नहीं देखा गया. उज्ज्वला शर्मा की ओर से उन के परिवार के कुछ करीबी लोग ही शामिल थे. नारायणदत्त तिवारी उत्तर प्रदेश के 3 और उत्तराखंड के 1 बार मुख्यमंत्री रहे. केंद्र सरकार में मंत्री और आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे. इस के बाद भी उन की शादी में कोई बड़ा नेता शामिल नहीं हुआ. इस से साफ पता चलता है कि समाज अभी ऐसी शदियों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है.

नारायणदत्त तिवारी की पहली पत्नी का निधन हो चुका है और उन के कोई संतान न थी. इस कारण खुल कर किसी ने इस शादी का विरोध भले न किया हो पर उज्ज्वला शर्मा के लिए आगे की जिंदगी सरल नहीं है. नारायणदत्त तिवारी बडे़ नेता हैं, ऐसे में उन का खुल कर विरोध करने का साहस किसी में भले न हो सका हो पर दबी जबान से सभी इस कदम को सही नहीं मान रहे हैं.

नारायणदत्त तिवारी और उज्ज्वला शर्मा के रिश्ते को नाम तबमिला जब 88 साल के नारायणदत्त तिवारी ने 70 साल की उज्ज्वला शर्मा से विधिवत शादी की. इस शादी में 100 से अधिक मेहमान हिस्सा ले रहे थे. दिन में करीब 12 बजे सोलहशृंगार किए उज्ज्वला शर्मा बाहर निकलीं.

दूल्हा बने नारायणदत्त तिवारी बारबार उज्ज्वला की भाभी को बातचीत के लिए अपने पास बुला रहे थे. उज्ज्वला की भाभी ने ही उन का सिंदूरदान किया. उज्ज्वला ने खुद ही मंडप सजाया था. दोनों ने सात फेरे ले कर अपने संबंधों को शादी का रूपदिया. 

शादी को कानूनी जामा पहनाने के लिए 19 मई को उज्ज्वला शर्मा के साथ नारायण दत्त तिवारी लखनऊ कचहरी गए और अपनी शादी का रजिस्ट्रेशन कराया. शादी का प्रमाणपत्र पा कर उज्ज्वला शर्मा को लग सकता है कि उन की जीत हो गई है. लेकिन सही मानों में उन की जीत तभी होगी जब समाज उन को स्वीकार कर लेगा. यह शादी अपनेआप में बहुत अलग है.

गिरतीसंभलती जिंदगी

लंबी अदालती लड़ाई लड़ने के बाद रोहित शर्मा यह साबित कर पाए कि वे नारायणदत्त तिवारी और उज्ज्वला शर्मा के पुत्र हैं. ‘पितृत्व विवाद’ के नाम से मशहूर हुए इस मुकदमे का फैसला डीएनए टैस्ट रिपोर्ट के जरिए किया गया जिस से रोहित शर्मा को नारायणदत्त तिवारी का ‘जैविक पुत्र’ माना गया. इस पूरे घटनाक्रम को याद कर आज भी उज्ज्वला की आंखें भर आती हैं.

उज्ज्वला कहती हैं, ‘‘तिवारीजी के कोई संतान न थी. इसलिए वे खुद बच्चों का जन्म चाहते थे. रोहित के जन्म के 14 साल तक मैं इंतजार करती रही कि वे अपनी तरफ से पहल करें लेकिन हुआ कुछ नहीं. वे मिलने आते थे, रोहित के लिए उपहार लाते थे, उसे प्यार करते, उस का जन्मदिन मनाते थे. फिर धीरेधीरे रिश्तों का रंग उतरने लगा.

‘‘साल 2002 में एक बार हमारा रिश्ता बना. पर 2005 तक फिर सब खत्म हो गया. इस के बाद रोहित ने साल 2008 में अपने हक की लड़ाई शुरू की. अंत में अदालत ने डीएनए टैस्ट के बाद रोहित को उन का बेटा मान लिया. इस के बाद तिवारीजी के साथ रहने वाले कुछ लोग नहीं चाहते थे कि हम साथसाथ रहें पर अब सब ठीक हो गया है.’’

 उज्ज्वला ने नारायणदत्त तिवारी की पूरी जिम्मेदारी खुद पर ले ली है. वे खुद सुबह उठती हैं. इस के बाद 10 बजे नारायणदत्त तिवारी उठते हैं. शाम को दोनों सैर पर जाते हैं. घर में आने वाले मेहमानों से मिलते हैं. उज्ज्वला कहती हैं, ‘‘दोनों के बीच फिलहाल नई शादी होने जैसा प्यार है.

2020 तक सामाजिक क्षेत्र में नौकरियों की बहार

सरकार ने अप्रैल में नया कंपनी अधिनियम बनाया है. इस कानून के तहत कंपनियों को सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन आवश्यक रूप से करना है. उस कानून के दायरे में आने वाली कंपनियों को अपनी कुल कमाई का 2 फीसदी खर्च सामाजिक जिम्मेदारियों पर करना पड़ेगा. नए कानून के तहत जिन कंपनियों का कुल लाभ 5 करोड़ रुपए अथवा कुल कारोबार 1 हजार करोड़ रुपए है उन्हें आवश्यक रूप से 2 फीसदी पैसा अपने कुल लाभ का सामाजिक विकास के लिए खर्च करना होगा. कंपनियों को यह पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला तथा बाल कल्याण जैसी योजनाओं पर खर्च करना होगा.

यदि सरकार के इस नियम का सख्ती से पालन होता है तो इन संगठनों के लिए कंपनियों को आज के हिसाब से एक अनुमान के अनुसार 22000 करोड़ रुपए इस क्षेत्र में लगाने होंगे. यह निधि यदि सामाजिक विकास के लिए सही तरीके से खर्च होती है तो अगले 6 साल में इस क्षेत्र में 1 लाख से अधिक युवकों के लिए नौकरी के अवसर उपलब्ध हो सकेंगे. नए नियम के तहत 16 हजार से अधिक कंपनियां आ रही हैं. इस कानून का ज्यादा फायदा दूसरी और तीसरी श्रेणी के शहरों को मिलेगा. इसलिए रोजगार के ज्यादा अवसर भी उन्हीं शहरों में उपलब्ध होंगे. जाहिर है इस क्षेत्र में भी प्रोफैशनलों को ही महत्त्व दिया जाएगा. उस में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, गरीबी उन्मूलन, कौशल विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों के प्रोफैशनलों के लिए ही नौकरी के अवसर होंगे. मतलब, जिन युवकों के पास उन क्षेत्रों में अच्छी काबिलियत होगी, विशेषज्ञता हासिल होगी उन्हें 3 से 6 लाख रुपए तक की सालाना सैलरी आसानी से इस क्षेत्र में मिल जाएगी. यह खुलासा ईवाई (अर्नस्ट ऐंड यंग) के अध्ययन में हुआ है. यह एक सलाहकार कंपनी है.

भारत डेढ़ दशक में सब से निचले पायदान पर

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को किसी भी विकासशील देश के ढांचागत विकास की धुरी माना जाता है. विकासशील ही नहीं विकसित, देशों को भी अपने सतत विकास के लिए ढांचागत सुधार की सुविधा को जारी रखना आवश्यक है और इस प्रक्रिया के सुचारु संचालन के लिए विदेशी निवेश यानी एफडीआई का प्रवाह आवश्यक है. एफडीआई उसी देश में ज्यादा होता है जहां निवेशकों को लगता है कि देश की आर्थिक नीति अनुकूल है और उन्हें इस निवेश से फायदा होगा. ताजा सूचना के अनुसार, भारत विदेशी निवेशकों का विश्वास अर्जित करने वाले प्रमुख देशों की सूची से फिसल कर 7वें स्थान पर चला गया है. वैश्विक सलाहकार संस्था एटी कीर्नी ने करीब 300 निवेशक कंपनियों में एक सर्वेक्षण कराया है जिस में कहा गया है कि भारत के प्रति निवेशकों का सम्मान घटा है.

वर्ष 2005, 2007 तथा 2012 में भारत दूसरे स्थान पर था और 2010 में हम इस क्रम में तीसरे स्थान पर रहे लेकिन इस बार भारत 7वें स्थान पर आ गया है. जून के पहले पखवाड़े में जारी इस सूची के अनुसार, 2001 के बाद भारत की रैंकिंग इस क्षेत्र में सब से निचले पायदान पर है. इस बार अमेरिका पहले स्थान पर है जबकि पिछले वर्ष चीन को पहला स्थान हासिल था. भारत के आर्थिक विकास के लिए एफडीआई का प्रवाह निरंतर बना रहना आवश्यक है और निवेशकों का विश्वास तब ही अर्जित किया जा सकता है जब राजनीतिक स्थिरता, सरकार की आर्थिक नीतियां आक्रामक और विकासपरक हों.

जानकारों का कहना है कि एफडीआई विकास की प्रक्रिया में तेजी लाता है, इसलिए विदेशी निवेशकों का भरोसा जीतना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए.

बैंक का पैसा डकारना आसान नहीं होगा

जालसाजी हमारी धड़कनों में इस तरह से रचबस गई है कि बेईमान आज सामाजिक प्रतिष्ठा का हकदार बन गया है. बेईमानी कर के पैसा कमाने वाला स्मार्ट है, समझदार है, प्रगतिशील है, परिवार का नाम रोशन करने वाला है और प्रतिष्ठा का हकदार है. शादीविवाह की बात हो तो जरूर पूछा जाता है कि लड़के की ऊपर की कितनी कमाई होती है. भ्रष्टाचार को मिटा कर राजनीति की नौका पर सवार हो कर देश का भाग्यविधाता बनने का सपना देख रहे आम आदमी पार्टी का नेता अरविंद केजरीवाल जब कहता है कि मुझे पैसे ही कमाने होते तो आयकर कमिश्नर रह कर ही कमा लेता. इस का सीधा मतलब है कि आयकर विभाग का आयुक्त भ्रष्टाचारी होता है. भ्रष्टाचार का खेल जिस भूमि पर चल रहा हो और उसे नियंत्रित करने के बजाय इस तरह से उसे महिमामंडित किया जा रहा है तो यह उम्मीद करना ठीक नहीं है कि ‘अच्छे दिन आने वाले हैं.’

बहरहाल, जिन लोगों ने बैंकों से पैसा लिया है और उस पैसे को हजम करना चाहते हैं, हालांकि उन की पैसा लौटाने की क्षमता है, ऐसे बेईमानों पर नकेल कसने के लिए आयकर विभाग और सरकारी क्षेत्र के बैंकों के बीच सहमति बनी है. सहमति के तहत आयकर विभाग कर्जदार की संपत्ति की पूरी सूचना बैंकों को उपलब्ध कराएगा. सूचना के आधार पर बैंक अपना पैसा वसूल करने का प्रयास करेगा. बैंक कानूनी तौर पर कर्जदार की संपत्ति जब्त नहीं कर सकता लेकिन उस के पास कर्जदार का जो विवरण होगा और उस की जो जानबूझ कर पैसा नहीं लौटाने की मंशा है, उस आधार पर बैंक ऋणवसूली न्यायाधिकरण यानी डीआरटी में शिकायत दर्ज कर सकता है और ट्रिब्यूनल बैंक को जानबूझ कर कर्ज लौटाने से बच रहे कर्जदार की संपत्ति को बेचने का आदेश दे सकता है.

सार्वजनिक बैंकों का इस तरह के लोगों पर करीब पौने 2 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है जिस की वापसी की बैंकों को कम उम्मीद है लेकिन यदि यह सूत्र काम कर गया तो सरकारी बैंकों में एक तरह से डूबे हुए ऋण की वसूली से नया उत्साह आएगा.’

शेयर बाजार में रिकौर्ड उत्साह

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने केंद्र की नई सरकार के कार्यकाल में पहली बार मौद्रिक नीति की घोषणा की और बैंक दरों को यथावत बनाए रखा. ब्याज दरों को पहले की तरह यथावत बनाए रखने के साथ ही उन्होंने बैंकिंग क्षेत्र के लिए अच्छीखासी निधि देने की भी घोषणा की ताकि ऋण का प्रवाह बना रहे. उन की इस नीति का शेयर बाजार ने स्वागत किया और सूचकांक रिकौर्ड 25000 अंक पर बंद हुआ.

हालांकि रुपए को यह रास नहीं आया और रुपया 3 सप्ताह के निचले स्तर पर चला गया. मई के आखिरी सप्ताह में रुपया शुरुआती बढ़त के बावजूद गिरावट पर रहा. 29 मई को डौलर के मुकाबले रुपया लगातार चौथे सत्र में गिरावट पर बंद हुआ.

जून का पहला कारोबारी दिवस शेयर बाजार के लिए उत्साह भरा रहा और बाजार ने 3 सप्ताह में एक दिन में सर्वाधिक 467 अंक की छलांग लगाई. बाजार में यह तेजी वैश्विक बाजार के असर के कारण भी देखने को मिली. विदेशी निवेशकों के साथ ही खुदरा निवेशकों ने बाजार में खूब उत्साह बनाए रखा. यही उत्साह है कि सूचकांक कारोबार के दौरान 25 हजार अंक का रिकौर्ड छू चुका है.

टीवीएस स्टार सिटी प्लस का स्मार्ट लुक

बाजार में वैसे तो विभिन्न कंपनियों के अनेक मौडल मौजूद हैं लेकिन टीवीएस ने मोटरसाइकिल की सवारी करने वालों के लिए अपने स्टार सिटी मौडल को नए रूप में उतारा है. यह नई मोटरसाइकिल ‘टीवीएस स्टार सिटी प्लस’ है. प्लस का अर्थ पहले से कुछ बेहतर है और नया होना है.

इस मोटरसाइकिल के इंजन की बात करें तो इस में 109.7 सीसी का इकोथ्रस्ट इंजन है. यह नया इंजन 8.3 हौर्सपावर की शक्ति देता है. 50-60 किलोमीटर प्रतिघंटे की स्पीड में चलाने पर इस में कोई वाइबे्रशन या आवाज नहीं होती. अगर आप 90 की स्पीड में भी इसे टौप गियर में चलाते हैं तो भी थोड़ी सी ही आवाज या वाइबे्रशन होती है लेकिन यह किसी भी तरह से आप के ड्राइविंग के आनंद को कम नहीं करती. यह एक तेज गति की मोटरसाइकिल है.

109 किलोग्राम की यह हलकी मोटरसाइकिल स्टीयरिंग के साथ बखूबी मेल खाती है. इस का सस्पैंशन बेहतर है जो वाहन चलाने वाले को अच्छा अनुभव देता है. टेढ़ेमेढ़े, गड्ढे वाले रास्तों पर यह बिना संतुलन खोए तेज गति से चलती है. इस का एनवीएच स्तर बहुत ही अच्छा है.

स्टार सिटी प्लस एक स्मार्ट दिखने वाली मोटरसाइकिल है. इस के नए डिजाइन को टीवीएस द्वारा ‘मौडर्न फ्लो मोशन’ का नाम दिया गया है. नई बाइक को अपमार्केट अपील देने के लिए डिजाइनर्स ने स्टार सिटी के कर्व्स की जगह शार्प लाइंस दी हैं. इस में फाइव स्पोक के एलौय व्हील्स हैं जो सड़क पर अधिक ग्रिप देते हैं. इस में एनालौग/ डिजिटल इंस्ट्रूमैंट क्लस्टर के साथ सर्विस इंडिकेटर, क्लीयर लैंस, इंडीकेटर, क्रोम हैंडल बार, रंगीन शौक औब्जर्वर स्ंिप्रग जैसे नए फीचर्स हैं, जो इसे स्टाइलिश लुक देते हैं. हैंड्सबार, सीट व फुट पैग्स के बीच सही अंतर दिया गया है. इस की फोम की सीट न ज्यादा मुलायम है न ज्यादा सख्त यानी बैठने में आराम.

नई स्टार सिटी सुपर रिफाइंड और सुपर कंफर्टेबल है. हालांकि नई स्टार सिटी प्लस में डिस्क बे्रक का विकल्प नहीं है लेकिन बाइक के ड्रम बे्रक इस की प्रतियोगियों को टक्कर देने के लिए काफी हैं. कुल मिला कर टीवीएस के हाथों में एक विजेता है जो बाइकलवर्स को अवश्य पसंद आएगा.

-दिल्ली प्रैस की अंगरेजी पत्रिका मोटरिंग वर्ल्ड से

देवदासियां: धर्मगुरुओं की हवसपूर्ति

सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को कर्नाटक के मुख्य सचिव को दिए एक निर्देश में कहा था कि वे सुनिश्चित करें कि किसी भी मंदिर में किसी लड़की को देवदासी की तरह इस्तेमाल न किया जाए. इस के बावजूद धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण का सिलसिला थमता नहीं दिखता. कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों सहित मुल्क के तमाम हिस्सों में औरत को देवदासी बना कर धर्म की बलि चढ़ाया जा रहा है. लंबे अरसे से प्रशासन इस कुप्रथा से बेखबर बना हुआ है.

मंदिरों में देवदासियों द्वारा सेवा करना नई बात नहीं है. खासतौर से दक्षिण भारतीय मंदिरों में देवदासियों का चलन प्राचीन समय से चला आ रहा है. ये देवदासियां सफेद साड़ी पहनती हैं और मंदिरों के पुजारियों के हर आदेश का पालन करना अपना धार्मिक फर्ज समझती हैं. इन देवदासियों को बताया जाता है कि पुजारी का स्थान भगवान से भी बड़ा होता है और उस के हर आदेश का पालन करना उन की जिंदगी का एकमात्र मकसद होना चाहिए.

कई वर्ष पहले दक्षिण भारत के एक मंदिर में एक 10 वर्षीय अबोध बालिका को देवदासी बनाया गया था, जो वहां के पुजारी के हर आदेश को मानने के लिए विवश थी. बाद में उस की बड़ी बहन भी देवदासी बनी और ये बहनें पुजारी के शोषण और जुल्म का शिकार होती रहीं.

इसी तरह आंध्र प्रदेश के एक मंदिर में 5 देवदासियां वहां के पुजारी की हवस का शिकार होती रहीं. दिलचस्प बात यह है कि इन लड़कियों के मातापिताओं के धर्मगुरुओं ने इन्हें यहां देवदासी के रूप में सौंपने का आदेश दिया था क्योंकि वे भी जल्द धर्म का प्रसाद और भगवान की कृपा हासिल करना चाहते थे. इतनी कम उम्र में देवदासी के रूप में लड़कियों को सौंपने के पीछे अंधविश्वास तो है ही, गरीबी भी एक बहुत बड़ा कारण है. इन देवदासियों की स्थिति ‘रखैल’ जैसी है, यह बात इन के मातापिता और ग्रामसमाज के लोग भी जानते हैं. लेकिन कोई प्रतिरोध नहीं करता है. कारण साफ है, सभी को यह डर सताता है कि यह धर्म के खिलाफ हो जाएगा.

जिन मंदिरों में ये देवदासियां रहती हैं, वहां खूब भीड़ होती है. मंदिर के पुजारी की आज्ञा के बगैर इन देवदासियों को किसी से बात करने की मनाही होती है.

देवदासी प्रथा का प्रचलन सनातन धर्म में शताब्दियों से है. दक्षिण भारत के कई राज्यों में हजारों की तादाद में सनातन हिंदू धर्म के मंदिरों में देवदासी धर्मगुरुओं, पुरोहितों, ब्राह्मणों, स्वामियों और धर्माधिकारियों की सेवा करती थीं. वैसे तो यह कहा जाता था कि ये मंदिर और देवमूर्तियों की सेवा (सफाई और साजसज्जा) करती हैं लेकिन परदे की आड़ में ये मंदिर के पुजारी की ‘रखैल’ के रूप में रहती थीं. देवदासियां जाति के मुताबिक ‘निम्न’ जाति की ही होती थीं, आज भी दक्षिण में नीची कही जाने वाली जाति की ही देवदासियां मंदिरों में तथाकथित ‘देवसेवा’ में लगी हुई हैं.

इस तरह आज भी आधुनिक समाज में हजारों लड़कियां धर्म के नाम पर देवदासी बनने के लिए मजबूर की जाती हैं. हैरानी की बात यह भी है कि जिन राज्यों में हजारों की तादाद में देवदासियों का खुल्लमखुल्ला शोषण होने की बात कही जा रही है उन राज्यों में देवदासी प्रथा के खिलाफ अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है.

जिन देवदासियों का मानसिक व यौन शोषण होता है वे उस परिवार से संबंध रखती हैं जो अमूमन निर्धन तो होता ही है, अशिक्षित और अंधविश्वासी भी होता है. पहले ऐसे परिवार की खोज मंदिर के पुजारी के जरिए करवाई जाती है. और ऐसे परिवारों को वरीयता दी जाती है जहां लड़कियां सुंदर और मांसल हों. फिर मंदिर के पुजारी का आमंत्रण ‘देवपूजा’ के नाम पर उस परिवार को दिया जाता है और यह भी बताया जाता है कि तुम्हारे भाग्य चमके हैं, अब तुम्हारी खराब आर्थिक स्थिति का अंत होने वाला है. तुम परिवार के साथ ‘देवता की सेवा में’ फलां तारीख को आ जाना.

आमंत्रण पा कर वह मजबूर और धर्मभीरु परिवार निर्धारित तारीख को परिवार के साथ पहुंच जाता है. पहुंचते ही उस के परिवार की शानदार आवभगत की जाती है. इतनी इज्जत पा कर वह सबकुछ मानने को तैयार हो जाता है, जो पुजारी कहता है. धर्म की दुहाई, आर्थिक मदद और स्वर्ग दिलाने की ठेकेदारी पुजारी की तरफ से दी जाती है. परिवार पुजारी को लड़कियां सौंप कर चला जाता है. पुजारी लड़कियों को यह समझाने में कामयाब हो जाता है कि उन की शादी मंदिर की मूर्ति से कर दी जाएगी. इस से देवता प्रसन्न होंगे और उन की सारी (हर तरह की) परेशानियां दूर हो जाएंगी. नाम तो होता है पत्थर के देवता के साथ शादी होने का लेकिन हनीमून उन के संग मंदिर का पुजारी ही मनाता है.

यह भी होता है

यह एक देवदासी की आपबीती है. बात कुछ साल पहले की है. आंध्र प्रदेश का एक गांव, जहां जोगरी पैदा हुई और पलीबढ़ी. परिवार दलित और गरीब. प्रथम दरजे का अंधविश्वासी और अशिक्षित भी. पास के ही एक गांव से एक दिन वहांके मंदिर के पुजारी का आमंत्रण आया. आमंत्रण पुजारी ने एक नौकर के जरिए भिजवाया था. परिवार के साथ एक खास उत्सव में बुलवाया गया था. साथ में यह भी लिखा था कि देवता की कृपा हासिल करने के लिए मेरे मातापिता को चढ़ावे के रूप में अपनी 1 या 2 लड़कियों की देवता से शादी कर देनी चाहिए.

जोगरी का मानना था कि मैं खुशीखुशी मंदिर गई क्योंकि मुझे बताया गया था कि मंदिर के देवता की कृपा मुझे मिलेगी और परिवार की सारी दिक्कतें हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी. एक दिन परिवार के साथ मैं मंदिर पहुंची. शाम हो चुकी थी. गरीब होने के कारण हम सब पैदल ही आए थे. उस दिन 6 घंटे पैदल चलना पड़ा था. मैं थक चुकी थी. मंदिर परिसर में पहुंचते ही मैं ने एक हट्टाकट्टा आदमी देखा जो कंट्ठीमाला गले में डाले हुए था और जिस के माथे पर चंदन से बना हुआ त्रिशूल चमक रहा था. मैं देखते ही डर गई थी लेकिन मातापिता ने मुझे समझाते हुए कहा कि डरो नहीं, ये हमारे देव हैं, इन के निमंत्रण से ही हम सब यहां आए हैं.

इस के बावजूद मैं डर रही थी. थोड़ी देर बाद उत्सव शुरू हो गया. मुझे खूब सजाया गया और फिर मुझे बताया गया कि मैं आज से देवता की जोगिन बन कर यहीं रहूंगी. मंदिर के पत्थर के देवता से मेरी मरजी के खिलाफ मेरीशादी कर दी गई. फिर चुपके से मेरे पापा और मां मुझे छोड़ कर चले गए.

रात में वह हट्टाकट्टा पुजारी मेरे पास आया. मैं देखते ही डर गई थी. तब मेरी उम्र केवल 12 वर्ष थी. मैं न शादी का मतलब जानती थी और न ही हनीमून का. उस पुजारी ने मेरे साथ हरकत करनी शुरू की तो मैं ने उसे मना किया. मैं बहुत डर रही थी, उस रात तो उस ने मेरी प्रार्थना पर मुझे और परेशान नहीं किया लेकिन अगली रात उस ने जबरन मेरे साथ बलात्कार किया. मैं चीखतीचिल्लाती रही और हबशी मेरी इज्जत लूटता रहा.

पुजारियों की स्थिति

देवदासियों की स्थिति जहां बद से बदतर है वहीं देवदासियों के रूप में और आंध्र प्रदेश की जोगिन कही जाने वाली महिलाओं की हालत भी बद से बदतर है. लेकिन मंदिर के पुजारियों की ऐयाशी भरी जिंदगी पर उंगली उठाने वाला कोई नहीं. न तो सामाजिक संस्थाएं और न ही राज्य सरकारें इन के खिलाफ कोई कठोर कदम उठाती हैं.

पुजारियों के घर में उन के इस कुकृत्य के खिलाफ न तो उन की पत्नियां कदम उठाती हैं और न घर के दूसरे सदस्य ही. बल्कि घर वाले हर तरह से इन की मदद ही करते हैं. ऐसा लगता है ‘रखैल’ के रूप में देवदासियों के साथ ताल्लुकात रखने की यहां एक लंबी परंपरा चल रही है.

गीता, रामायण या पुराणों में देवदासियों का कोई जिक्र भले ही न हो लेकिन दक्षिण के राज्यों की तमाम पौराणिक पुस्तकों में इस के बारे में वर्णन किया गया है. दरअसल, दक्षिण भारत में देवदासीप्रथा को धर्म का एक हिस्सा ही मान लिया गया है. दक्षिण के पौराणिक ग्रंथों में धर्मगुरुओं, पुरोहितों और पुजारियों को भगवान जैसी प्रतिष्ठा दी गई है. इन का कोई भी कुकर्म अपराध नहीं माना गया है. आम आदमी धर्मग्रंथों के मकड़जाल में फंस कर अपनी लड़कियों को इन्हें सौंप आता है, जिन की हालत जानवरों से भी गईबीती कर दी जाती है.

जिल्लतभरी जिंदगी

जिन धर्मस्थानों और मंदिरों को मानवता के रक्षक के रूप में प्रचारित किया जाता है उन जगहों पर सदियों से कैसीकैसी काली करतूतें की जाती रही हैं, उन्हें समझना है तो देवदासियों की जिंदगी में झांक कर देखा जा सकता है. युवावस्था तो त्रासदी में कटती ही है, ढलती उम्र में उन्हें लावारिस गाय की तरह छोड़ दिया जाता है.

आज जरूरत है इस प्रथा को जड़ से खत्म करने की. जो महिलाएं मंदिरों पर धर्मगुरुओं की हवस की शिकार हैं उन्हें नई जिंदगी दे कर, रोटी, कपड़ा और मकान का सहारा दिया जाए. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को इस प्रथा को खत्म करने के लिए आगे आना चाहिए और उन समाजकर्मियों को भी जो अंधविश्वासों, पाखंडों, गंदी प्रथाओं व सामाजिक बुराइयों के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं

भोपाल के नवाब की जायदाद सैफ ने उलझाया विवाद

पारिवारिक बंटवारा जज्बाजी तौर पर तो तकलीफदेह होता ही है लेकिन वक्त रहते न हो तो जायदाद के लिहाज से भी नुकसानदेह साबित होने लगता है जैसा कि भोपाल रियासत के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह खान के वारिसों के बीच हो रहा है.  तकरीबन 1 हजार करोड़ रुपए की जायदाद के बंटवारे को ले कर मामला फिर अधर में लटक गया है और ऐसा लग भी नहीं रहा कि यह जल्द सुलझ पाएगा.

 इस दफा तीसरी पीढ़ी के वारिसों के अहं, महत्त्वाकांक्षाएं, पूर्वाग्रह, जिद और लालच आड़े आ रहे हैं. मौजूदा जायदाद के 7 वारिसों में से कोई भी समझौता करने के मूड में नहीं दिख रहा. सो, गेंद अब अदालत और सरकार के पाले में है. इस लड़ाई से नवाब मंसूर अली खान उर्फ नवाब पटौदी की बेगम आयशा सुल्तान यानी अपने जमाने की मशहूर फिल्म ऐक्ट्रैस शर्मिला टैगोर की अदालत के बाहर समझौता कर जायदाद बांट लेने की कोशिशों को तगड़ा झटका लगा है और इस दफा यह झटका देने वाले कोई और नहीं उन के ही बेटे बौलीवुड के कामयाब अभिनेता सैफ अली खान हैं, वरना वे अपनी मंशा में कामयाब होती दिख रही थीं.

क्या है फसाद

भोपाल रियासत की त्रासदी या खूबी यह रही है कि यहां अधिकांश वक्त बेगमें काबिज रहीं जो कोई हर्ज की बात न थी पर अब जिस तरह बंटवारे का मसौदा और मामला उलझ रहा है उसे देख लगता है कि पुरुष बेहतर तरीके से बंटवारे को अंजाम दे सकते हैं, फिर चाहे वे मध्यवर्गीय परिवारों के हों, रियासतों के हों या रजवाड़ों के.

1926 में भोपाल के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह खान ने रियासत संभाली थी.  हमीदुल्लाह के चूंकि कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी मंझली बेटी साजिदा सुल्तान को शासक नियुक्त कर दिया था. कायदे से यह जिम्मेदारी उन की बड़ी बेटी आबिदा सुल्तान को मिलती पर वे शादी करने के बाद अपने बेटे शहरयार के साथ पाकिस्तान जा कर बस गईं. छोटी बेटी राबिया सुल्तान भी अपनी ससुराल में चली गईं.

साजिदा बेगम की शादी पटौदी राजघराने के नवाब इफ्तिखार अली खान के साथ हुई थी. इन दोनों के 3 संतानें हुईं जिन में सब से बड़े थे मंसूर अली खान पटौदी, जिन्हें टाइगर के नाम से भी जाना जाता है. वे अपने जमाने के मशहूर क्रिकेटर थे और सिने तारिका शर्मिला टैगोर से प्यार कर बैठे और शादी हुई तो शर्मिला ने धर्म के साथ नाम भी बदल कर आयशा सुल्तान रख लिया.

साजिदा और इफ्तिखार की 2 बेटियों यानी मंसूर अली की दोनों बहनों सालेहा सुल्तान और सबीहा सुल्तान की शादी हैदराबाद में हुई थी.  बेटा होने के कारण मंसूर अली खान घोषित तौर पर नवाब मान लिए गए पर तब देश आजाद हो चुका था और राजेरजवाड़ों के दिन लदने लगे थे. सरकार ने दबाव बना कर रियासतों का विलीनीकरण करना शुरू कर दिया था जो उस वक्त के हालात को देखते जरूरी भी था.

आमतौर पर बेटियां पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए कानून का सहारा कम ही लेती थीं. भोपाल रियासत के मामले में भी यही होता लेकिन विवाद की शुरुआत एक छोटे से अहं और असुरक्षा को ले कर हुई. मंसूर अली खान की छोटी बहन सबीहा अपने पति मीर अर्जुमंद अली के साथ साल 2002 में रुकने के लिए भोपाल स्थित अपने घर यानी फ्लैग स्टाफ हाउस पहुंचीं तो उन्हें यह कह कर मुलाजिमों ने चलता कर दिया कि यह नवाब मंसूर अली खान का घर है जो उन्हें उन की मां साजिदा दे कर गई थीं.

यह मालिकाना हक जता कर बहनों को टरकाने की नाकाम कोशिश थी.  इस से पहले सबीहा ने कभी जायदाद को ले कर भाई से किसी तरह का विवाद या फसाद खड़ा नहीं किया था लेकिन सालेहा जरूर मंसूर अली खान को जायदाद की बाबत नोटिस देती रही थीं.

जाहिर है फ्लैग स्टाफ हाउस, जिसे अहमदाबाद पैलेस के नाम से भी जाना जाता है, से यों चलता कर देने से सबीहा ने खुद को बेइज्जत महसूस किया और सीधे अदालत में मामला दायर कर दिया. इस पर मंसूर अली ने थोड़ी समझदारी दिखाते यह व्यवस्था कर दी कि अगर बहनों को फ्लैग स्टाफ हाउस में रुकना ही है तो वे अपने खानेपीने और मुलाजिमों का खर्च खुद उठाएं. यानी मंसूर अली उन भाइयों में से नहीं थे जो अपनी बहनों, बहनोइयों और भांजे, भांजियों के आने पर खुश होते हैं और उन का स्वागतसत्कार करते हैं. उलटे, वे तो बहनों को नसीहत दे रहे थे कि मां के मकान में ठहरो तो खानेपीने के और दीगर खर्चे खुद उठाओ.

यह बात सबीहा और सालेहा दोनों को नागवार गुजरी और उन्होंने अदालत से गुजारिश की कि उन्हें फ्लैग स्टाफ हाउस का संयुक्त स्वामी घोषित किया और माना जाए. यह वाद हालांकि सबीहा ने दायर किया था लेकिन इस का फायदा सालेहा को भी मिला. अक्तूबर 2005 में जिला अदालत ने सबीहा के पक्ष में फैसला दिया जिस का फायदा सालेहा को भी मिला.  जल्द ही उन का बेटा फैज बिन जंग सामान ले कर फ्लैग स्टाफ हाउस में जा कर रहने लगा.

कानूनी पचड़े में रियासत

हैरत की बात यह रही कि अपने स्वभाव के विपरीत जाते मंसूर अली खान ने भांजे का स्वागत किया और बहनों समेत उन के बच्चों के लिए भी कमरे आरक्षित कर दिए. एक दफा ऐसा लगा कि भाई व बहनों के बीच अब कड़वाहट खत्म हो रही है पर मामला उलट निकला. हुआ यह था कि मंसूर अली खान ने गुपचुप तरीके से फ्लैग स्टाफ हाउस का सौदा 64 करोड़ रुपए में कर दिया था.  सौदे की भनक लगते ही सबीहा फिर भड़क उठीं और इस दफा उन्होंने भाई के साथसाथ सालेहा को भी पक्षकार बना डाला.

इन दोनों ने ही सबीहा के नोटिसों का कोई जवाब नहीं दिया तो मामला और उलझ गया. हमीदुल्लाह के एक भाई औबेदुल्ला खान ने भी जायदाद पर हक जताते हुए खुद को वारिस बताया. फिर तो वारिसों की बाढ़ सी आ गई. हर कोई अदालत जा कर खुद को नवाब भोपाल की जायदाद का हिस्सेदार बताने लगा. इन में बेगम साजिदा की बहन यानी मंसूर अली खान की खाला राबिया सुल्तान की संतानें भी हैं.

दर्जनभर मुकदमे अभी भी अदालतों में चल रहे हैं. हालांकि साजिदा बेगम की संतानों के अलावा किसी का हिस्सा कानूनी तौर पर नहीं बनता है लेकिन दिक्कत यह है कि अब साजिदा के ही बेटेबेटी और उन की भी संतानें बंटवारे को ले कर अपनीअपनी मरजी और ख्वाहिशें थोप रही हैं जिस से बंटावारे का बंटाधार हो चुका है.

समझदारी शर्मिला की

नवाब मंसूर अली खान की मौत के बाद शर्मिला टैगोर ने समझदारी दिखाते हुए भोपाल की जायदाद को ले कर सुलह की पेशकश ननदों से की तो बीती अप्रैल के महीने में बात बनती नजर आई.

समझदारी के अलावा सुलह के लिए जिस शांत दिमाग और सब्र की जरूरत होती है वह शर्मिला में है, इसलिए उन्होंने बाकायदा अपनी ननदों को भोपाल बुलाया और खुद अपनी तरफ से पहल की. अब तक सबीहा और सालेहा को भी समझ आ गया था कि बेवजह की अदालती लड़ाई से किसी को कुछ हासिल नहीं होना. दूसरे, उन का बैरविवाद या अहं जो भी था वह भाई मंसूर अली खान से था, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं.

अरसे बाद शर्मिला की पहल पर नवाब खानदान के सभी सदस्य अप्रैल के तीसरे हफ्ते में फ्लैग स्टाफ हाउस में इकट्ठा हुए और बंटवारे पर बातचीत की. बातचीत का पहला दौर पुरानी कड़वाहटों से लबरेज रहा जिस में यह चर्चा भी हुई कि सैफ अली खान की पत्नी करीना कपूर ने क्यों इसलाम कुबूल नहीं किया और उस ने कैसे सैफ अली की पहली पत्नी अमृता सिंह के बच्चों को बहलाफुसला लिया है.

इन बातों के कोई माने या ताल्लुक बंटवारे से नहीं हैं, न ही यह अधिकृत है. आमतौर पर होता यह है कि जब भी नवाबों या राजघरानों के सदस्य मिलबैठ कर सुलह की कोशिश करते हैं तो उन के मुलाजिम, जिन में ड्राइवर, रसोइए, घरेलू नौकर और माली भी शामिल रहते हैं, अपने मन से टुकड़ोंटुकड़ों में सुनी गई बातों में नमकमिर्च लगा कर उन्हें चटपटा बना कर मीडिया के सामने परोस देते हैं.

इस मामले में भी यही हुआ पर शर्मिला बंटवारे को ले कर संजीदा थीं, इसलिए उन्होंने मुकम्मल सब्र रखा और बातचीत जारी रखी. तुम ने यह किया था, उस ने यह कहा था, यह गलत था जैसी बातों पर उन्होंने तवज्जुह नहीं दी और सभी की भड़ास निकल जाने दी. इस का फायदा यह हुआ कि सभी वारिस अदालत के बाहर समझौता कर बंटवारे पर राजी हो गए और 16 अप्रैल को छोटेमोटे सामानों का बंटवारा भी हो गया. उन में फानूस, पेंटिंग्स, क्रौकरी, स्टैच्यू, कालीन, पलंग और दूसरे फर्नीचर सहित चांदी के बरतन भी शामिल थे.

सैफ ने अड़ाई टांग

बंटवारे का फार्मूला क्या था, यह तो नवाब परिवार के सदस्यों ने दीवारों के बाहर नहीं जाने दिया पर अंदाजा यह लगाया गया कि शरीयत के मुताबिक, मंसूर अली खान के वारिसों को कुल जायदाद का 50 फीसदी और दोनों बहनों को 25-25 फीसदी मिलना तय हुआ है. पर इस फार्मूले की अहम शर्त यह थी कि फ्लैग स्टाफ हाउस भी मंसूर अली खान के किए सौदे के मुताबिक बेच दिया जाएगा. यही शर्मिला चाहती थीं क्योंकि मुंबई के खरीदार, जिन के नाम अभी उजागर नहीं हुए हैं, सौदे के बाबत दबाव बना रहे थे.

लेकिन 26 अप्रैल को सैफ अली खान ने मां के किएधरे पर यह कहते पानी फेर दिया कि वे फ्लैग स्टाफ हाउस नहीं बेचना चाहते और बाकी वारिसों यानी बूआओं को उन के हिस्से की कीमत देने के लिए तैयार हैं. इस से लगता है कि सैफ खरीदारों से संपर्क कर चुके थे.

सैफ अली के इस कदम के पीछे उन की बड़ी बूआ सालेहा खान का भी हाथ है और पत्नी करीना कपूर का भी, जो तकरीबन 10 एकड़ में फैली इस इमारत में शानदार होटल खोलना चाहती हैं और पति को इस बाबत अपनी इच्छा से अवगत करा कर राजी भी कर चुकी हैं. निर्देशक प्रकाश झा की एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में करीना भोपाल आई थीं तब पहली नजर में ही उन्हें अपने ससुराल की यह कोठी फ्लैग स्टाफ हाउस भा गई थी और इस का व्यावसायिक उपयोग करने का मन उन्होंने बना लिया था. इस के उलट, दूसरी तरफ सालेहा की मंशा आज के भाव में इस कोठी को बेचने की लग रही है जिस से ज्यादा पैसा मिले.  आज के हिसाब से इस की कीमत 200 करोड़ रुपए से भी ज्यादा आंकी जाती है.

सच कुछ भी हो पर इस विवाद से किसी का भला नहीं हो रहा है. शर्मिला टैगोर की पहल का असर इतना भर हुआ कि छोटेमोटे सामान का बंटवारा हो गया. अपने हिस्से में आया सामान उन्होंने बांध कर सुरक्षित रख दिया और ननदों ने जो चाहा था उन्हें दे दिया.

अब क्या होगा

जायदाद बंटवारे के इस विवाद को 3 पीढि़यों ने भुगता है पर कोई नतीजा कुछ नहीं निकला. जैसे ही सैफ अली ने फ्लैग स्टाफ हाउस बेचने पर एतराज जताया तो प्रदर्शनकारी संगठन भी इकट्ठा हो कर हायहाय करने लगे.

29 अप्रैल को जब शर्मिला टैगोर अपने हिस्से का सामान बंधवा रही थीं तब सहारा सामाजिक संगठन समिति ने बंटवारे के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया.  इस पर शर्मिला घबरा गईं और पुलिस को बुला लिया. इस संस्था के मुखिया मेराज खान मस्तान का कहना है कि नवाब भोपाल की कई निशानियां भोपाल शहर की ऐतिहासिक धरोहर हैं, इन्हें न तो बेचा जाना चाहिए न ही बाहर जाने देना चाहिए.

ऐसा हुआ भी. 30 अप्रैल को ही दायर एक याचिका पर जबलपुर हाइकोर्ट की डबल बैंच के चीफ जस्टिस एम खानविलकर व जस्टिस के के द्विवेदी ने बंटवारे पर रोक लगाने के आदेश जारी कर दिए. साफतौर पर हालफिलहाल हाईकोर्ट इस दलील से सहमत है कि जमीनों के अलावा पुरातत्त्व महत्त्व की वस्तुएं न बेची जाएं.

विवाद को हवा मिली तो 22 मई को मुंबई से शत्रु संपत्ति संचालनालय की टीम भी भोपाल आ कर नवाब हमीदुल्लाह की जमीनजायदाद खंगालने में जुट गई. यह टीम बेवजह नहीं आई थी. दरअसल, नवाब खानदान के ही किसी सदस्य ने ही मुंबई में या मुंबई जा कर दरख्वास्त लगाई थी. यह टीम निष्कांत और शत्रु संपत्तियों की जांच करेगी.

आजादी के दिन यानी 15 अगस्त, 1947 के बाद से 7 मई, 1954 तक जो जायदादें लावारिस रह गई थीं उन्हें निष्कांत और 1954 के बाद की लावारिस पड़ी संपत्तियों को शत्रु संपत्ति कहा जाता है.  यहां दिलचस्प बात यह है कि बंटवारे के वक्त जो लोग भारत छोड़ कर पाकिस्तान चले गए पर उन की जमीनें भारत में ही छूट गईं, उन जमीनों को निष्कांत संपत्ति माना गया. और जो लोग पाकिस्तान छोड़ कर भारत आए उन्हें ये जमीनें यानी निष्कांत संपत्तियां एक तरह से एवज में दी गईं.

बेवजह की कवायद

अब इस संचालनालय को नवाब भोपाल की कुछ और जायदादों का पता चल रहा है. जाहिर है इस के वारिस भी वही लोग होंगे जो अभी झगड़ रहे हैं लेकिन इस काम में बड़ी खामियां और पेचीदगियां भी हैं. मसलन, आजादी के बाद से अब तक का रिकौर्ड खंगाला जाएगा कि कब कौन सी जमीन किस के नाम और कहां दर्ज थी, दर्ज थी भी कि नहीं.

बंटवारा विवाद से परे देखें तो यह बेवजह की कवायद है. जो लोग नवाबों और राजाओं की लावारिस जमीनों पर सालों से रह रहे हैं उन्हें अब बेदखल करना या परेशान करना उन के साथ ज्यादती होगी. नवाबी काल में जो जमीन किसी की नहीं होती थी वह स्वत: ही नवाब की हो जाती थी. यही अब लोकतंत्र में हो रहा है. तो दोनों में फर्क क्या कि जो जमीन किसी की नहीं वह सरकारी हो जाती रही है.

बहरहाल, मामला उलझता दिख रहा है. ऐसे में पेशियां होती रहेंगी और किसी के हाथ कुछ न लगेगा. नवाब खानदान के सभी सदस्य काफी रईस हैं. सभी बंटवारे में अपनेअपने स्वार्थ और अहं अड़ा रहे हैं सिवा शर्मिला टैगोर के, जिन्हें अपनी कोशिश पर पानी फिरते देख, मायूस हो कर, खाली हाथ जाना पड़ा. उन के बेटे सैफ अली खान के पास भी करोड़ों की जायदाद है और बहू करीना कपूर खान तो अरबों की मालकिन हैं ही.

फिर क्या होगा, यह सवाल अब दिलचस्प होता जा रहा है जिस का सार यह है कि अब अगली पीढ़ी भी यह मुकदमा लड़ेगी और नवाब खानदान के मुंहलगे लोग मलाई चाटेंगे. इन खुशामदियों की हर मुमकिन कोशिश यह रहती हैकि बंटवारा न हो. अगर हुआ तो उन्हें बैठेबिठाए की खीरपूरी मिलनी बंद हो जाएगी.

भोपाल रियासत की 1 हजार करोड़ रुपए की जायदाद पर दर्जनभर मुकदमे विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं. बेगम साजिदा सुल्तान की मौत के 20 साल बाद भी जायदाद का बंटवारा नहीं हो सका है. अब इकलौती तरकीब मंसूर अली खान के वारिसों और बहनों सालेहा व सबीहा के बीच यह बची है कि वे एक बार फिर अदालत के बाहर समझौता करें और एकसाथ अदालत में पेश हो कर समझौते पर कानूनी ठप्पा लगवाएं. वरना जैसा होता है कि तीसरी पीढ़ी के बीच बैर बेवजह बढ़ेगा जिस से किसी को कोई फायदा नहीं. पर ऐसा तभी मुमकिन होगा जब ये ‘नवाब’ अपनी ठसक छोड़ते हुए जायदाद की कीमत और अहमियत समझें.  इस बाबत उन्हें भड़काने वाले और गुमराह करने वालों की कमी नहीं, मगर समझाने वालों का जरूर टोटा है.

इस से साबित यह भी होता है कि पैतृक संपत्ति का बंटवारा अगर वक्त रहते न हो तो रिश्तों में खटास तो डालता ही है, साथ ही, बेवजह अदालतों के भी चक्कर कटवाता है जिस से किसी को फायदा नहीं होता.

यह है जायदाद

भोपाल नवाब की सही जायदाद का अंदाजा तो किसी को नहीं पर इस की देखरेख के लिए बनी एजेंसी औकाफ ए शाही, जिस की मुखिया इन दिनों मंसूर अली खान और शर्मिला टैगोर की बेटी सोहा अली खान हैं, के मुताबिक फ्लैग स्टाफ हाउस के अलावा नवाब की कोई 400 एकड़ जमीन भोपाल में है.

भोपाल के नजदीक रायसेन की दरगाह भी नवाब की है. और उस से लगी जमीन भी नवाब की है. इस के अलावा पुराने भोपाल के पौश इलाके भारत टाकीज के सामने की बेशकीमती 4 एकड़ जमीन भी नवाब की है. सीहोर में भी नवाब की जमीनें हैं और भोपाल से ही सटे इसलाम नगर में भी हैं. अंदाजा है कि सोनेचांदी का बंटवारा 16 अप्रैल, 2014 में शर्मिला टैगोर और मंसूर अली खान की बहनों के बीच रजामंदी से हो गया है.

भोपाल की जमीन में से अधिकांश को सरकार अधिगृहीत कर चुकी है पर उस का मुआवजा अभी तक नहीं मिला है.  इस बाबत भी नवाब के वारिस कोई पहल नहीं कर रहे. दूसरी तरफ, राज्य सरकार भी यह सोचती हुई खामोश है कि वह मुआवजा किसकिस को दे, पहले नवाब खानदान बंटवारा तो कर ले. यानी जमीन अधिग्रहण के वक्त विवाद नहीं देखे गए थे पर मुआवजा देने के नाम पर देखे जा रहे हैं. इस की वजह नवाब के वारिसों में फूट होना ही है.

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