अग्रलेख ‘राजनीति का जातीय गणित’ (मई/द्वितीय) की यथार्थ पड़ताल पढ़ी. बेशक हम स्वयं को राष्ट्रवादी कहे जाने के लिए कितना ही ‘हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाईभाई’ का राग अलापते हों मगर जब भी बात ‘हित’ की आती है तो हम न केवल समाज, राज्य या राष्ट्र में बल्कि अपने स्वयं के वंश (परिवार) तक में इस बुरी तरह बंट जाते हैं कि खून के रिश्तों को तिलांजलि देने तक से नहीं सकुचाते.

दोष मात्र राजनीतिज्ञों का ही नहीं है बल्कि हम तथाकथित देश के जागरूक मतदाताओं/देशवासियों का भी है कि भाईभाई का गला काटने से भी नहीं कतराते. हम मात्र अपने ही परिवार या फिर वर्ग, धर्म, समुदाय के नाम पर इतनी बुरी तरह विभाजित हो जाते हैं कि चोर, लुटेरे, खूनी, हत्यारे, ईमानदार, बेईमान, पापी, परमार्थी या अपराधी तत्त्वों की पहचान तक भूल जाते हैं. ऐसे में दोष किसी और को देने से क्या फायदा.

देश में क्या अनुसूचित जाति/जनजाति, दहेजउत्पीड़न, महिला सशक्तीकरण, भ्रष्टाचार उन्मूलन आदि से संबंधित कायदेकानून नहीं हैं? दरअसल, ईमानदारी से उन्हें लागू नहीं किया जाता. ऐसे में राजनीतिज्ञ ‘बंदर’ समान आपस में ही लड़तेमरतों की मानसिकता का फायदा उठाएं भी क्यों नहीं? लेकिन इस बार आम चुनावों में जिस तरह मतदाताओं ने धर्म, वर्ग, समुदाय को नजरअंदाज कर मतदान किया है वह शायद अच्छे लक्षणों/दिनों को ही इंगित कर रहा है.

टी सी डी गाडेगावलिया, करोलबाग (न.दि.)

 

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