चुनावी आंकड़ों ने साफ कर दिया है कि इस देश में अब सत्ताविरोधी दल चाहिए तो 2 से ज्यादा पार्टियां नहीं चल सकतीं. अगर एक ही चुनाव क्षेत्र से 3-4 मजबूत पार्टियां लड़ेंगी तो बिना बहुमत वाला भी जीत सकता है. भारतीय जनता पार्टी ठीक उसी तरह से इस बार सत्ता में आई है जैसे पहले कांगे्रस आती रही है, वोटों के बंटवारे के कारण.

वैसे भी बहुपार्टी सिस्टम वोटरों के साथ भी अन्याय है. चुनाव अब किसी विचारधारा को श्रेष्ठ या निकृष्ट घोषित करने के लिए नहीं होते. चुनाव सरकार चलाने के लिए होते हैं ताकि अफसरशाही तानाशाही में न बदल जाए. चुनावों में जीतने वाली पार्टी मनमानी करना चाहेगी या कर सकती है, यह प्राय: संभव नहीं होता. भारी बहुमत यानी 90-95 प्रतिशत सीटें जीतने वाले देशों में भी शासक दल विरोधियों का सामना करते रहते हैं.

दिक्कत तब होती है जब विचारधारा और कुशल प्रशासक में से चुनना पड़े. सोनिया गांधी की पार्टी के नेतृत्व वाली साझा सरकार की बुरी गत इसलिए हुई कि वह कुशल प्रशासक साबित नहीं हो रही थी. नरेंद्र मोदी ने अपने को बेहतर प्रशासक के रूप में प्रस्तुत किया जबकि सोनिया नीतियों व विचारों की ही बात करती रहीं. सोनिया ही नहीं, अन्य दल भी असल में विचारों को ले कर चले और पिट गए, चाहे विचार जाति को ले कर थे या धर्मनिरपेक्षता को.

जनता को सही प्रशासक चुनने का अवसर देने के लिए जरूरी है कि विपक्षी दल अब एक हो जाएं. जिन्हें भाजपा पसंद है वे उस में शामिल हो जाएं और बाकी अपनी प्रशासन नीतियों के सहारे एक नई पार्टी को जन्म दें. अब क्या खाएं, कैसे शादी करें, किस की पूजा करें, किन रस्मों की पोल खोलें, किस आदर्श की मूर्ति लगाएं जैसे विषय चुनावों के लिए नहीं रह गए. इन्हें किताबों, भाषणों, अखबारों और टीवी चर्चाओं तक ही रखा जाए.

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