शहरों के बड़े पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों के मातापिता उन स्कूलों की चमकदमक से प्रभावित तो हैं लेकिन उन के द्वारा वसूली जा रही भारीभरकम फीस से दुखी व परेशान भी हैं. हजारों रुपए खर्च करने के बावजूद बच्चे स्कूल के बाद ट्यूशन पढ़ने को विवश हैं. इतना ही नहीं, शैक्षिक व अशैक्षिक गतिविधियों के नाम पर भी धन बटोरने में ये तथाकथित स्कूल कोताही बरतने से बाज नहीं आते. बातबात पर पैसा, कदमकदम पर डांटफटकार और न्याय की बात करने पर बच्चों को स्कूल से निकाल देने या उन का कैरियर खराब कर देने की धमकी, यही सब कुछ हो रहा है इन धन बटोरने की दुकानों में.
बड़ेबड़े नामधारी स्कूल प्रवेश फौरम की बिक्री से ले कर परीक्षा के नतीजों तक अभिभावकों की जेब पर कैंची चलाने में लगे रहते हैं. विकास शुल्क व सुविधा शुल्क के नाम पर की जा रही खुली लूट तो कई जगह बेशर्मी की हद को पार कर गई है. इन स्कूलों में बच्चों की शिक्षा व ज्ञान पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है जितना उन की यूनिफौर्म, टाई, जूतों, महंगी किताबकौपियों व अन्य स्टेशनरी की खरीद पर दिया जा रहा है.
ये सब बातें तब खुल कर सामने आईं जब पिछले दिनों जयपुर के सीबीएसई स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के अभिभावकों को एक ही कक्षा व एक ही कोर्स की अलगअलग कीमत चुकानी पड़ी तथा जयपुर के एक नामी स्कूल ने अभिभावकों से डैवलपमैंट के नाम पर मनमानी फीस मांगी. इसी बीच कई स्कूलों, बच्चों व अभिभावकों से की गई बातचीत से और कई बातें सामने आईं.
किताबों की कीमतें अलगअलग
सभी जानते है कि एनसीईआरटी की किताबें देश के मशहूर माहिर विद्वान तैयार करते हैं और उन किताबों को अंतिम रूप दिए जाने से पहले उन का परीक्षण किया जाता है कि वे उस आयुवर्ग के बच्चों के मानसिक स्तर के काबिल है या नहीं. लेकिन बावजूद इस के, निजी स्कूल एनसीईआरटी पब्लिकेशंस की किताबों से पढ़ाई न करवा कर बच्चों को अपने पसंदीदा प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबों से पढ़ाई करवा रहे हैं. तमाम स्कूल वाले प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबों को एनसीईआरटी के करिकुलम पर आधारित बताते हैं. लेकिन सचाई यह है कि इन किताबों के पाठ एनसीईआरटी की किताबों से काफी अलग हैं. यही नहीं, इन किताबों की कीमतें एनसीईआरटी की किताबों से 5 से 6 गुना ज्यादा भी हैं.
ज्यादातर स्कूल एनसीईआरटी की ओर से बेसिक करिकुलम में सालाना बदलाव नहीं होने के बावजूद हर सत्र में अभिभावकों को नएनए पब्लिशर्स की किताबें खरीदने के लिए कहते हैं. कुछ किताबों का कवर पेज बदलते हुए कंटैंट के पेज बदलवा देते हैं. ऐसा किए जाने के चलते अभिभावक चाह कर भी अपने बच्चों के लिए पिछले सत्र की पुरानी किताबों का उपयोग नहीं कर पाते हैं. नियम तो यह कहता है कि सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों में कक्षा 1 से 12वीं तक एनसीईआरटी का करिकुलम ही चलना चाहिए. इस के लिए सीबीएसई की ओर से तमाम स्कूलों को सख्त निर्देश दिए हुए हैं. बावजूद इस के, स्कूल संचालक अपनी मनमरजी से प्राइवेट पब्लिशर्स से किताबें छपवाते हैं और उन की कीमत भी खुद ही तय करते हैं.
इन किताबों की महंगी कीमत का आलम यह है कि कईकई स्कूलों में तो पहली कक्षा में पढ़ाई जाने वाली हिंदी व अंगरेजी की किताबें यूनिवर्सिटीज में ग्रेजुएशन में पढ़ाई जाने वाली इसी सब्जैक्ट की किताबों से 3 से 4 गुना ज्यादा महंगी हैं. वहीं, इन स्कूलों में छठीसातवीं कक्षा में पढ़ाई जाने वाली मैथ और साइंस की किताबों की कीमतें इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों की किताबों की कीमतों से कहीं ज्यादा हैं. सीबीएसई की कक्षा 6 की मैथ व साइंस की किताबों की कीमतें क्रमश: 1053 रुपए व 1090 रुपए हैं, जबकि राजस्थान विश्वविद्यालय की बीएससी फर्स्ट ईयर की फिजिक्स की 6 किताबों की कीमत महज 850 रुपए है. 11वीं कक्षा की कौमर्स सब्जैक्ट की 9 किताबों की कीमत 2,400 रुपए है, वहीं बीकौम की फर्स्ट ईयर की 10 किताबें महज 1,250 से 1500 रुपए में बाजार में उपलब्ध है ं.
निजी स्कूल खास बुक स्टोर का नाम बता कर वहीं से किताबें खरीदने के लिए अभिभावकों को बाध्य करते हैं. बाजार में बुक स्टोर प्रिंट रेट पर ही किताबें बेचते हैं, जिन्हें विवश हो कर अभिभावकों को खरीदना पड़ता है. निजी स्कूलों व प्रकाशकों के मुनाफे के इस खेल में अभिभावक खुद को ठगा सा महसूस करता है, वह लुट जाता है.
शिक्षा महकमे के अफसर सबकुछ जानतेसमझते हुए भी बंद आंख से तमाशा देख रहे हैं. आखिर एक ही कक्षा, एक सा कोर्स और एकसमान बोर्ड होने के बावजूद किताबों की कीमतों में कई गुने का फर्क अफसरों को दिखाई क्यों नहीं देता?
पढ़ाई पर भारी फीस
देश में बढ़ती महंगाई के बीच अभिभावकों को सब से ज्यादा बच्चों के स्कूल की महंगी फीस की मार झेलनी पड़ रही है. निजी स्कूल महंगाई सूचकांक के अनुपात को नजरअंदाज कर मनमरजी से कई गुना फीस बढ़ा रहे हैं और यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. स्कूल हर साल 10 से 40 फीसदी तक फीस बढ़ा देते हैं और फीस लिस्ट हर साल लंबी हो जाती है.
हालांकि राजस्थान में फीस कानून के बाद अस्तित्व में आई ‘फीस निर्धारण कमेटी’ ने निजी शिक्षण संस्थानों को अनुमति के बिना फीस नहीं बढ़ाने के सख्त निर्देश दिए हुए हैं लेकिन बावजूद इस के स्कूल मनमरजी से फीस बढ़ा रहे हैं. राजस्थान फीस निर्धारण कमेटी के अध्यक्ष व न्यायाधीश रह चुके शिव कुमार शर्मा ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के सी जे कपाडि़या, स्वतंत्र कुमार और के एस राधाकृष्णन की बैंच के 12 अप्रैल, 2012 के फैसले के पैरा नंबर 99 के मुताबिक, स्कूल सिर्फ रीजनेबल फीस ही बढ़ा सकते हैं. किसी भी निजी स्कूल को मुनाफाखोरी करने और फीस कमेटी की अनुमति के बिना फीस बढ़ाने का हक नहीं है.
राजस्थान फीस अधिनियम की धारा 2 ‘ड’ के अनुसार, निजी स्कूल की ओर से अभिभावकों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ली गई रकम फीस ही मानी जाएगी, चाहे यह किसी भी नाम से वसूली गई हो. फीस कमेटी को स्कूल की फीस निर्धारित करने का हक है. वह मुनाफाखोरी करने वाले स्कूलों के खिलाफ सजा व आर्थिक जुर्माना लगाने के साथ मान्यता खत्म करने की अनुशंसा भी कर सकती है.
अभिभावकों से हुई बातचीत के मुताबिक, अच्छे स्कूल में ऐडमिशन की इच्छा को स्कूल पूरा भुनाते हैं. दाखिले के लिए अभिभावकों को मजबूरन स्कूल की मनमरजी के हिसाब से चलना पड़ता है.
कदमकदम पर लूट
अभिभावक बच्चों की शिक्षा के लिए मोटी रकम खर्च करने को तो तैयार हैं लेकिन उन्हें स्कूल संचालकों का आएदिन किसी न किसी बहाने से पैसा वसूलना गवारा नहीं है. ये स्कूल इतनी तरह की फीस वसूलते हैं कि अभिभावकों की समझ में ही नहीं आता. जयपुर पेरैंट्स वैलफेयर सोसायटी के संयोजक दिनेश कावंट ने बताया कि स्कूल प्रौस्पैक्टस, रजिस्ट्रेशन, ट्यूशन फीस, मैंबरशिप, ट्रांसपोर्टेशन, डैवलपमैंट, ऐक्टिविटी, ऐनुअल फीस, मैगजीन, एमएमएस, लेट फीस, स्मार्ट क्लासरूम, लाइब्रेरी, स्पोर्ट्स फीस के साथसाथ यूनिफौर्म, कौपीकिताबों के अलावा साल में कई और चीजों के नाम पर पैसा वसूला जाता है.
जयपुर के एक नामी स्कूल की छात्रा महिमा कुंतल ने बताया कि उस के स्कूल में हर 3 महीने बाद 700 रुपए ऐक्टिविटी फीस के रूप में लिए जाते हैं जबकि यहां ऐक्टिविटी के नाम पर खेलकूद के अलावा कुछ भी खास नहीं होता. स्कूल में हर महीने 200 रुपए लाइब्रेरी के नाम पर भी लिए जाते हैं जबकि लाइब्रेरी तो स्कूल की मूल जरूरत है. जयपुर के एसबीआई बैंक में कैशियर सौरभ राजदान का कहना है कि यह सब वसूली और लूटखसोट जैसा काम है. मेरा बेटा सुबोध पब्लिक स्कूल में पढ़ता है. पिछले दिनों उसे चौकलेट पर प्रोजैक्ट दिया गया, जिस के लिए मुझे काफी परेशान होना पड़ा.
एक अन्य अभिभावक अशोक गुप्ता ने बताया कि ऐडमिशन के समय विद्यालय के शानदार भवन और ढेरों सुविधाओं की बात कही गई थी, लेकिन पहले ही दिन बच्चे ने आ कर बताया कि उसे टिनशेड के नीचे बैठाया गया. हैरत की बात तो यह है कि शिक्षा में सब से आगे बच्चों का सर्वांगीण विकास, कुदरती विकास, नैतिकता, आध्यात्मिकता, अनुशासन और शतप्रतिशत परीक्षा परिणाम जैसे भारीभरकम दावे वाले बड़ेबड़े पब्लिक स्कूलों के प्रशासन की पेशानी पर उस वक्त बल पड़ जाते हैं जब उन से फीस की बात की जाती है.
स्कूल की प्रशंसा करते वे नहीं थकते, लेकिन फीस की जानकारी मांगने पर बिफर पड़ते हैं. इस प्रतिनिधि ने जब एक स्कूल रौयल इंटरनैशनल की प्राचार्या ज्योति खंडेलवाल से फीस की जानकारी चाही तो सुनना पड़ा, ‘‘यह हमारा अंदरूनी मामला है, मीडिया वालों को इस से क्या मतलब?’’
हिंदी बोलने पर जुर्माना
कई अंगरेजी स्कूलों में हिंदी में बातचीत करने पर पाबंदी ही नहीं, जुर्माना भी है. ऐसे स्कूलों में शिक्षक बच्चों के साथसाथ उन के अभिभावकों से भी अंगरेजी में ही बात करते हैं. जो अभिभावक अंगरेजी में कमजोर हैं वे शिक्षकों को अपनी बात तक नहीं बता पाते. जयपुर में एक पब्लिक स्कूल में तो हिंदी का एक शब्द बोलने पर 10 रुपए जुर्माना होता है, जो अगले दिन न दिए जाने पर 20 रुपए हो जाता है. इस के अलावा शारीरिक सजा अलग. इन स्कूलों में अंगरेजी पर ज्यादा जोर की वजह से बच्चे स्कूल में अंगरेजी ही बोलते हैं पर बाहर तो हिंदी में ही बात करनी पड़ती है. इस से बच्चों को टूटीफूटी अंगरेजी में बात करना तो आ जाता है लेकिन वे अपने घर व परिवेश से कट जाते हैं.
भव्य इमारतों में बिकता ज्ञान
बड़ीबड़ी भव्य इमारतों और उस से भी बड़ेबड़े दावों के साथ निजी स्कूल शान से खड़े हैं. एक हैक्टेअर क्षेत्रफल में विद्यालय परिसर, तीन मंजिला भव्य इमारत, विद्यार्थियों के शारीरिक विकास के लिए खेलकूद की उचित व्यवस्था, बच्चों की सुविधा हेतु स्कूल परिसर में कैंटीन की व्यवस्था आदि विद्यालय की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं हैं. निजी स्कूलों के प्रौस्पैक्टस पर अंकित इस तरह की बातें बच्चों के परिजनों को कोरा सब्जबाग दिखाने के लिए होती हैं. चमचमाती भव्य इमारत को देख कर कोई भी जरूर भ्रमित हो सकता है कि इस इमारत में ही भारत के इंटैलीजैंट भविष्य का निर्माण होता है. आज के दौर में शिक्षा का पूरी तरह व्यवसायीकरण हो चुका है. शिक्षा की दुकानें ही क्या, पूरा का पूरा बाजार सज चुका है.
ट्रांसपोर्ट के जरिए वसूली
निजी स्कूल कमाई का कोई भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते. बच्चों को स्कूल लाने, ले जाने के लिए वाहन सुविधा के नाम पर वे लाखों रुपए की उगाही कर रहे हैं. जयपुर के संताकेबा बाल भारती स्कूल में बच्चों के परिजनों से 3 स्तर पर वाहन का भाड़ा वसूला जाता है. 5वीं तक के बच्चे से 900, छठी से 8वीं तक के बच्चों से 1,200 व 9वीं से 12वीं तक के बच्चों से 1,500 रुपए प्रतिमाह किराया वसूला जाता है. कईकई जगह बच्चे के घर की स्कूल की दूरी के हिसाब से वसूली की जाती है. इस के लिए कई स्कूलों ने अपने खुद के वाहन खरीद रखे हैं, तो कइयों ने किराए के वाहनों की व्यवस्था कर रखी है.
निजी स्कूलों में किताबों से सीधे कंप्यूटर पर छलांग मार ली गई है. इस से बच्चा ज्यादा ऐक्टिव तो नहीं हो पाया है, हां, उस के लिए पढ़ाई मुश्किल जरूर हो गई है. पढ़ाई के दौरान पब्लिक स्कूल में 8वीं की छात्रा स्मृति बताती है कि उस के यहां टिग्नोमेट्री टैलीविजन पर ग्राफिक से पढ़ाई जाती है. क्लिपिंग्स के जरिए भी पढ़ाई होती है.
कैसे रुके शिक्षा के नाम पर लूट
निजी स्कूलों की मनमानी रोकने के लिए उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के तहत बने ‘राजस्थान विद्यालय अधिनियम 2013’ से प्रदेश के लोगों को काफी उम्मीदें थीं लेकिन इस कानून से अभी तक निजी स्कूलों की मनमानी पर किसी भी तरह की लगाम नहीं लग पाई है. ज्यादातर निजी स्कूल फीस निर्धारण कमेटी के निर्देशों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. स्कूल में पाठ्यसामग्री व स्कूल यूनिफौर्म न देने के प्रावधानों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है.
निजी स्कूल फीस निर्धारण कमेटी के निर्देशों को ज्यादा तवज्जुह नहीं दे रहे हैं, तो इस की खास वजह यह है कि कमेटी ने अभी ज्यादा सख्ती नहीं बरती है. मनमानी रोकने के लिए फीस निर्धारण कमेटी ही नहीं, शिक्षा महकमे और कलैक्टरों को भी सक्रियता दिखानी होगी. इस मामले में प्रदेश के श्रीगंगानगर शहर का उदाहरण सामने है. मामले के अनुसार, स्कूल में ही किताबें, कौपियां, यूनिफौर्म वगैरह बेचने की शिकायत मिलने पर शिक्षा महकमे के अफसर सक्रिय हुए और स्कूल के खिलाफ कार्यवाही हुई.
इस का मतलब यह है कि स्कूलों की मनमानी रोकने के लिए पर्याप्त कानून व एजेंसियां मौजूद हैं पर वे सुस्त हैं. वे अगर सजगता व सक्रियता दिखाएं तो लोगों को स्कूल संचालकों की लूट से मुक्ति मिल सकती है. लूट के केंद्र के रूप में तबदील हो चुके इन शिक्षा के मंदिरों के संचालकों को राजनीतिक व प्रशासनिक संरक्षण मिला हुआ है. इसलिए ये स्कूल किसी की परवा नहीं करते और लूट का कोई न कोई नया जरिया अपनाते रहते हैं. असरदार लोगों के बच्चों को फीस में भारी रियायत दे कर वे उन के आंख, कान, मुंह को बंद कर देते हैं.
ऐसा भी नहीं है कि इन स्कूलों को मान्यता देने वाली एजेंसियों व श्रम विभाग को इस की जानकारी न हो. सरकार से मामूली दरों पर जमीन हासिल कर के स्कूल खोलने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि कानून की गलियों से कैसे निकला जा सकता है और किसे खुश कर के अपनी जिम्मेदारी से बचा जा सकता है.
निजी स्कूलों पर नकेल
निजी स्कूलों की मनमानी पर दिल्ली सरकार (फिलहाल उपराज्यपाल कामकाज देख रहे हैं) ने जरूर कुछ कड़े कदम उठाने की तैयारी की है. छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के नाम पर मनमाने ढंग से फीसवृद्धि करने वाले दिल्ली के 364 प्राइवेट स्कूलों पर गाज गिर सकती है. गौरतलब है कि दिल्ली सरकार ने सर्कुलर जारी कर मनमाने ढंग से स्कूल फीस बढ़ाने वाले सभी स्कूलों को वसूली गई अतिरिक्त फीस लौटाने को कहा था. लेकिन किसी भी स्कूल प्रबंधन ने इस संबंध में न तो जवाब दिया और न ही आदेश माना. अब दिल्ली सरकार आदेश न मानने वाले सभी स्कूल संचालकों पर कड़ी कार्यवाही की तैयारी कर रही है. दिल्ली के 364 स्कूलों को करीब 100 करोड़ रुपए अभिभावकों को लौटाने के लिए कहा गया था.
यह जानकारी दिल्ली सरकार की ओर से दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति बी डी अहमद व न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल की खंडपीठ के समक्ष दी गई है. दिल्ली सरकार कार्यवाही संबंधी स्टेटस रिपोर्ट 28 अक्तूबर तक अदालत के समक्ष पेश करेगी. ज्ञात हो कि 28 अक्तूबर को ही स्कूल फीसवृद्धि मामले को ले कर दिल्ली हाई कोर्ट में सुनवाई होगी. दरअसल, दिल्ली के स्कूलों द्वारा मनमाने ढंग से स्कूल फीसवृद्धि किए जाने के विरोध में बच्चों के अभिभावकों ने अधिवक्ता अशोक अग्रवाल के माध्यम से फरवरी 2009 में जनहित याचिका दायर की थी. इस पर सुनवाई करते हुए अगस्त 2011 में हाई कोर्ट ने मामले की जांच के लिए कमेटी गठित की थी. कमेटी को दिल्ली के 1200 प्राइवेट स्कूलों के खातों की जांच कर रिपोर्ट तैयार करनी थी.
कमेटी अब तक 725 स्कूलों के खातों की जांच कर चुकी है. कमेटी ने364 स्कूलों को मनमाने ढंग से फीसवृद्धि करने का दोषी पाया और वसूली गई अतिरिक्त फीस वापस लौटाने की अनुशंसा भी सरकार से की. कमेटी ने पहली रिपोर्ट 13 जनवरी, 2013 को हाई कोर्ट को सौंपी थी. कमेटी अब तक 6 रिपोर्ट हाई कोर्ट को दे चुकी है. अभी करीब 500 स्कूलों के खातों की जांच होनी बाकी है. अगर झारखंड की बात करें तो रांची में निजी स्कूलों में ऐनुअल फीस व रीऐडमिशन के नाम पर बच्चों से 2 हजार से 4 हजार रुपए तक वसूले जाते हैं. एक आंकड़े के मुताबिक, वहां सीबीएसई व आइसीएसई बोर्ड से मान्यताप्राप्त लगभग 65 स्कूल हैं और 50 प्ले ग्रुप के स्कूल ऐसे हैं, जिन्हें किसी बोर्ड से मान्यता नहीं प्राप्त है, पर वे दूसरे स्कूल की 10वीं की परीक्षा में अपने बच्चों को शामिल कराते हैं.
एक स्कूल में औसत 2 हजार बच्चे पढ़ते हैं, इस तरह 100 स्कूल में बच्चों की कुल संख्या 2 लाख हुई. एक बच्चे से औसत वार्षिक शुल्क, रीऐडमिशन, मिसलेनिएस चार्ज 2 हजार रुपए भी मान लिया जाए तो प्रतिवर्ष सत्र शुरू होने के साथ रांची के स्कूल बच्चों से लगभग 40 करोड़ रुपए की वसूली कर लेते हैं. इतना ही नहीं, किताब और नोटबुक के नाम पर लूट पूरे झारखंड में जारी है. इस खेल में पब्लिशर्स, स्कूल प्रबंधन और दुकानदार खूब पैसा कमा रहे हैं. आमतौर पर जिस किताब की कीमत 100 रुपए होनी चाहिए, उस की कीमत 190 रुपए प्रिंट की जाती है. दुकानदार कम कीमत वाली एनसीईआरटी की पुस्तकें बेचने से बचते हैं क्योंकि इन में कमीशन बहुत कम मिलता है. एक आंकड़े के अनुसार, सिर्फ रांची के किताब दुकानदार स्कूली किताबों और कौपियों से लगभग 12 करोड़ रुपए कमीशन से कमाते हैं.
चौंकाने वाले आंकड़े
अध्ययन बताता है कि मुंबई के म्युनिसिपल स्कूलों में 2007-08 में 7.26 फीसदी, 2008-09 में 6.32 फीसदी और 2009-10 में 6.63 फीसदी छात्रों ने ड्रौपआउट किया. कुछ ऐसा ही हाल हिमाचल प्रदेश का भी है. यहां भी सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या एकतिहाई कम हो गई है. हिमाचल सरकार की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के सरकारी स्कूलों के छात्र 90 फीसदी से घट कर 65 फीसदी रह गए हैं. इस का सीधा फायदा निजी स्कूलों को मिला है और प्राइवेट स्कूलों के छात्रों की संख्या 10 फीसदी से बढ़ कर 35 फीसदी पहुंच गई है.
सर्वशिक्षा ने वर्ष 2007 से ले कर 2012 तक के सरकारी व प्राइवेट स्कूलों के छात्रों की अध्ययन रिपोर्ट तैयार की है. इस के अनुसार, वर्ष 2007 में प्रदेश के कुल छात्रों की संख्या के 90 फीसदी छात्र सरकारी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करते थे. इस के मुकाबले प्राइवेट स्कूलों में मात्र 10 फीसदी छात्र ही पढ़ रहे थे. अब 2012 तक किए गए इस अध्ययन में सर्वशिक्षा अभियान के चौंकाने वाले आंकड़े मिले हैं. प्रदेश के महज 10 फीसदी छात्रों को शिक्षा देने वाले प्राइवेट स्कूलों ने सरकारी स्कूलों के 25 फीसदी छात्र उन से छीन लिए हैं. सरकारी स्कूलों में बड़े स्तर पर उलटफेर होते हुए 90 फीसदी छात्रों का ग्राफ 65 फीसदी चला गया है. जाहिर है, बच्चे निजी स्कूलों का रुख कर रहे हैं. दरअसल, सरकारी शिक्षा में बदहाली भी अभिभावकों को निजी स्कूलों में जाने पर मजबूर कर देती है. फिर भले ही उन्हें कर्ज लेना पड़े.
शिक्षकों की कमी
वर्ष 2010 में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने राज्यसभा में कहा था कि भारत में 12 लाख शिक्षकों की कमी है और 5.23 लाख पद रिक्त पड़े हैं. अगर शिक्षा का अधिकार कानून 2009 की बात करें तो इस में 30 छात्रों पर 1 शिक्षक होने की बात की गई है पर वास्तविकता कुछ और ही है. देश के 11 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में मात्र 1 शिक्षक है. कई राज्यों में स्थिति और भी बदतर है.
ऐसा नहीं है कि देशभर में योग्य शिक्षक नहीं हैं, इस के लिए सरकारें ही गंभीर नहीं हैं. सरकारें चाहती हैं कि स्थायी पद भरने के बजाय शिक्षकों को कम पैसों में कौन्ट्रैक्ट बेसिस पर रखा जाए. वर्ष 1990 में जब देश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी तब ऐसा किया गया था और आज सिर्फ दिल्ली की बात करें तो तकरीबन 20 हजार शिक्षक कौन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे हैं. राज्यों में कौन्ट्रैक्ट पर जो शिक्षक काम करते हैं उन्हें अलगअलग वेतनमान दिए जाते हैं. देशभर में सरकारी विद्यालयों की संख्या तकरीबन 10.9 लाख है और देशभर के विद्यालयों में तकरीबन 65.3 लाख शिक्षक हैं जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की संख्या तकरीबन 46.1 लाख है.
फलताफूलता कोचिंग कारोबार
रातोंरात अमीर बनने के मंसूबों ने शिक्षा को धंधा बना दिया है. मिडल व हायर सैकंडरी स्कूल एसोसिएशन, जयपुर से मिली जानकारी के मुताबिक, अकेले जयपुर शहर में 355 कोचिंग इंस्टिट्यूट हैं. इन में से 170 कोचिंग इंस्टिट्यूट निजी स्कूल संचालकों के हैं. चौधरी ग्रुप औफ स्कूल ऐंड कालेज, परिश्कार एजुकेशन ग्रुप, पोद्दार स्कूल ऐंड कालेज, माहेश्वरी एजुकेशन सैंटर, पूर्णिमा, आकाश दीप, नैशनल एजुकेशन इंस्टिट्यूट जैसे दर्जनों नाम हैं, जिन के पब्लिक स्कूलों के साथसाथ कोचिंग इंस्टिट्यूट व कालेज चलते हैं.
पब्लिक स्कूलों की आड़ में कोचिंग व ट्यूशन सैंटर भी धड़ल्ले से चलाए जा रहे हैं. यहां निजी स्कूल बनाम कोचिंग संस्थानों का तगड़ा नैटवर्क है. पिछली 16 जुलाई को निजी स्कूलों व कोचिंग संस्थानों की मिलीभगत व मनमानी के खिलाफ छात्रों व उन के परिजनों का गुस्सा कहीं से भी गलत नहीं था. परिजनों का आरोप था कि निजी स्कूल संचालक 9वीं से 12वीं कक्षा तक के बच्चों को स्कूल के साथसाथ उन के कोचिंग संस्थान में दाखिला लेने को मजबूर करते हैं. उन का यह भी आरोप था कि कोर्स पूरा कराने के एवज में कोचिंग संस्थान उन से स्कूल फीस के अलावा 15 से 45 हजार रुपए प्रति महीना अतिरिक्त वसूलते हैं.
12वीं की पढ़ाई कर रही छात्रा सोनाली के पिता गोविंद सिन्हा कहते हैं, ‘‘अगर बच्चे को स्कूल में ही मेहनत कराई जाए, तो फिर कोचिंग का क्या मतलब है? पब्लिक स्कूल आजकल क्या पढ़ा रहे हैं? अगर नंबर लाने और रिजल्ट के अच्छे होने का सारा दारोमदार कोचिंग सैंटरों पर निर्भर करता है तो फिर ये पब्लिक स्कूल किस बात का दम भर रहे हैं और बतौर फीस मोटी रकम किस बात की वसूल रहे हैं?’’ सुधा चोपड़ा एक कामकाजी महिला हैं और उन के दोनों बच्चे इस साल बोर्ड की परीक्षाएं देंगे. वे कहती हैं, ‘‘ऐसा क्यों है कि टीचरपेरैंट्स मीटिंग में टीचर सीधे पेरैंट्स से पूछता है कि क्या आप का बच्चा ट्यूशन, स्पैशल क्लासें वगैरह ले रहा है? ‘‘ऐसी बातों से साफ जाहिर होता है कि हम पढ़ाएं या न पढ़ाएं, बच्चा ट्यूशन पढ़े ही पढ़े.़’’
मैं, मेरा बेटा तथा भाभी गांधीधाम, गुजरात से दिल्ली जा रहे थे. हमारी सीटें अहमदाबाद से दिल्ली जाने वाली साबरमती ऐक्सप्रैस में रिजर्व थीं. हम गांधीधाम से अहमदाबाद के लिए एक लोकल ट्रेन से चले. रास्ते में ट्रेन एक जगह रुक गई. हमारी ट्रेन का टाइम हो गया था और लोकल ट्रेन आगे जा ही नहीं रही थी. हम लोग लोकल ट्रेन से उतर गए. एक आटो के पैसेंजर से आग्रह कर उस में सवार हो कर अहमदाबाद स्टेशन पहुंचे. वहां पता चला कि साबरमती ऐक्सप्रैस चली गई. तभी आश्रम ऐक्सप्रैस आई, उसी में सवार हो गए.
रिजर्वेशन इस ट्रेन का नहीं था, सो खड़े रहे. इतने में ट्रेन में एक फुटबाल टीम हिपहिप हुर्रे करती हुई चढ़ी. टीम के सदस्यों ने हमें खड़ा देखा कि महिलाएं खड़ी हुई हैं, उन्होंने अपनी 2 बर्थ हमें दे दीं. हम ने उन का बहुत शुक्रिया अदा किया तथा जाना कि खेलभावना उन के जीवन में भी है.
चंद्रिका जागानी, बर्दवान (प.बं.)
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मैं और मेरी पत्नी ट्रेन से भोपाल से दिल्ली जाने के लिए रात 9 बजे स्टेशन पहुंचे. वहां मालूम हुआ कि हमारा सैकंड एसी वेटिंग नंबर 1 और 2 कन्फर्म नहीं हुआ. हम बहुत परेशान हो गए. हमारा दिल्ली जाना बहुत जरूरी था. हम दोनों सीनियर सिटीजन ने ट्रेन कंडक्टर से निवेदन किया. उस ने कहा कि सैकंड एसी में तो नहीं हो पाएगा, आप थर्ड एसी के कोटा नंबर एबी वन में 7 नंबर बर्थ पर बैठ जाएं. मैं देखता हूं, क्या हो सकता है.
ट्रेन चलने के आधा घंटे बाद कंडक्टर आया. उस ने बताया कि पोजीशन बहुत टाइट है और कोई भी सीट खाली नहीं है. इस बर्थ की सवारी भी विदिशा स्टेशन से आ जाएगी. तभी एक महिला, जो सामने बैठी थी, हमारे पास आई. पूछने पर हम ने अपनी समस्या बताई. उस ने कहा कि आप 2 मिनट रुकें. वह जल्द ही वापस आई और उस ने कहा कि आप बर्थ नंबर 9 और 10 ले लें. हम ने उन का बहुत शुक्रिया अदा किया और सो गए. सुबह जब हमारी नींद खुली तो मालूम पड़ा कि वह महिला एक मानसिक विकलांग संस्था की संचालिका है. और वह ऐसे 40 बच्चों का टूर ले कर दिल्ली जा रही थी.
महिला ने बताया कि रात को जब आप की समस्या मैं ने बच्चों को बताई तो बच्चों ने कहा कि हम छोटे बच्चे 1 बर्थ पर 2 सो सकते हैं और उन्होंने आप को 2 बर्थ दे दीं. समझ में नहीं आ रहा था कि वे विकलांग हैं या हम लोग जो अपनी पूरी बर्थ पर किसी का जरा सा बैठना भी सहन नहीं कर पाते. उन की एक रात का एहसान हमारी तमाम रातों के आराम पर भारी था.
अबरार सैय्यद, भोपाल (म.प्र.)
भारत के महान टैनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस ने पिछले दिनों कहा कि वे पेले और मोहम्मद अली की तरह शीर्ष पर रहते हुए टैनिस को अलविदा कहना चाहते हैं. और वर्ष 2016 में रियो ओलिंपिक में पदक जीतने के बाद यह मौका मिल सकता है.
इन दिनों लिएंडर पेस निजी जीवन में बहुत कठिन दौर से गुजरे हैं और उन का टैनिस को अलविदा कहने का खयाल भी शायद इस से जुड़ा हुआ है. बेटी की परवरिश की जिम्मेदारी के लिए उन्हें अपनी पार्टनर रिया पिल्लई से कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी. इस पारिवारिक उलझन में इस का असर उन के प्रदर्शन में भी पड़ना लाजिमी है.
41 वर्षीय पेस ओलिंपिक कांस्य और 14 ग्रैंडस्लैम खिताब जीत चुके हैं. उन का मानना है कि मैं इंसान हूं और मैं वही भावनाएं महसूस करता हूं जो कोई अन्य कठिन समय के दौरान महसूस करता है. जब उन से पूछा गया कि उन की 8 वर्षीय बेटी अयाना इस बात को समझती है कि उस के मातापिता के बीच क्या चल रहा है तो पेस ने इस पर ज्यादा कुछ नहीं कहा.
लेकिन साफ प्रतीत हो रहा था कि वे दुखी हैं और एक पिता का दर्द क्या होता है उन के चेहरे पर साफ दिखाई पड़ रहा था. उन्होंने इस बात को भी स्वीकार किया कि वे एक जनूनी पिता हैं और टैनिस के प्रति भी वे काफी जनूनी हैं. उन का मानना है कि मेरे पास बेटी है जो बहुत मजबूत है और उस का मुझ से बहुत ईमानदारी भरा संबंध है. जैसेजैसे वह बड़ी हो रही है उसे मार्गदर्शन की जरूरत है. लिएंडर पेस पिता की जिम्मेदारियों को अच्छी तरह समझते हैं. लेकिन मेहनत से हासिल खेल की दुनिया में कमाया नाम वे गिराना नहीं चाहते. स्थितियां जो भी रहें फिलहाल रियो ओलिंपिक के लिए उन से काफी उम्मीदें हैं.
वर्ष 1951 में एशियाई खेलों की शुरुआत के बाद देश ने कई दिग्गज खिलाड़ी पैदा किए. उन दिग्गजों में से एक उत्तर प्रदेश के निशानेबाज जीतू राय हैं जिन्होंने इंचियोन एशियाई खेलों में भारत को स्वर्ण पदक दिला कर खाता खोला. जीतू ने ओंगनियोन शूटिंग रेंज में 50 मीटर पुरुष पिस्टल स्पर्धा में पदक जीता. जबकि श्वेता ने महिला 10 मीटर एअर पिस्टल स्पर्धा में कांस्य पदक हासिल किया.
जीत के बाद जीतू ने कहा, ‘‘मैं काफी दबाव में था और हर हाल में स्वर्ण पदक जीतना चाहता था.’’ जीतू वर्ष 2016 में होने वाले रियो ओलिंपिक में भी इसी तरह लय बनाए रखना चाहते हैं. 25 वर्षीय जीतू राय हाल ही में स्पेन के ग्रेनाड में विश्व निशानेबाजी चैंपियनशिप में रजत पदक जीत कर ओलिंपिक कोटा स्थान प्राप्त कर चुके हैं और इसलिए वे बिलकुल रिलैक्स करने के मूड में नहीं हैं.
भारतीय सेना के जूनियर अधिकारी हैं जीतू राय. वे अभी आईएसएसएफ विश्व रैंकिंग में 5वें स्थान पर हैं और इस वर्ष ग्लास्गो में संपन्न हुए राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण जीतने के बाद से उन का यह वर्ष शानदार रहा है. इस वर्ष वे 5 अंतर्राष्ट्रीय पदक जीत चुके हैं. साथ ही, विश्व चैंपियनशिप से कोटा हासिल करने वाले वे एकमात्र भारतीय निशानेबाज बन गए हैं.
लेकिन इन सब के बीच एशियाई खेलों में दल भेजने को ले कर जिस तरह नाटक हुआ और खेल मंत्रालय, भारतीय खेल प्राधिकरण यानी साई, भारतीय ओलिंपिक संघ यानी आईओए आदि खेल संघों के बीच जिस तरह का टकराव रहा, वह वाकई निंदनीय है. खेल मंत्रालय और साई का रवैया बिलकुल गैर पेशेवराना रहा और महीनों तक खेल फाइलों में ही खेला जाता रहा. इस बार आईओए ने एशियाई खेलों के लिए 662 खिलाडि़यों और 280 अधिकारियों सहित कुल 942 प्रतियोगियों की सूची भेजी थी लेकिन खेल मंत्रालय ने 516 खिलाडि़यों और 163 कोच को ही स्वीकृति दी.
इस खेल का खिलाडि़यों पर कितना असर पड़ेगा, इस से इन अधिकारियों को कोई लेनादेना नहीं. सभी के सुर और बोल अलगअलग. बाबुओं ने खेलों का सत्यानाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और इस की सुध लेने वाला कोई नहीं. लेकिन इन सब के बीच जब जीतू राय जैसा मेहनती खिलाड़ी स्वर्ण पदक देश को दिलाता है तो क्रैडिट लेने में बाबुओं से ले कर मंत्री तक पीछे नहीं रहते.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ योजना का गर्मजोशी के साथ आगाज किया है. योजना के तहत देश को आर्थिक तरक्की की नई मंजिल तक पहुंचाने का सपना दिखाया गया है. धूमधड़ाके के साथ प्रधानमंत्री ने इस मौके पर मौजूद 30 देशों की 3 हजार से अधिक कंपनियों के प्रतिनिधियों और उन के 500 प्रमुखों को भरोसा दिलाया कि उन का पैसा डूबेगा नहीं, उन्हें यह पैसा विनिर्माण क्षेत्र में लगाना है.
विनिर्माण क्षेत्र में पर्यटन, अतिथि सत्कार, रेलवे, चमड़ा, उड्डयन, बंदरगाह, दवा, कपड़ा, आटोमोबाइल आदि शामिल हैं. इन क्षेत्रों में छोटी से ले कर बड़ी से बड़ी वस्तु के निर्माण की योजना है. प्रधानमंत्री के अनुसार इन सभी क्षेत्रों का निवेश कभी नुकसान देने वाला साबित नहीं हो सकता. यह घरघर की मांग है और भारत जैसे देश में इस तरह के घरेलू उत्पाद बनाने वाली कंपनियां कभी घाटे में नहीं रह सकतीं. शायद यही विश्वास है मोदी का जो निवेशकों को यह भरोसा दिला रहा है कि उन का पैसा डूबने वाला नहीं है. मोदी ने इस काम के लिए बाकायदा एक लोगो भी जारी किया है.
इस महत्त्वाकांक्षी योजना के जरिए सरकार का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 15 से 25 फीसदी करना है. इस के लिए 25 क्षेत्र चुने गए हैं और हर क्षेत्र को जीडीपी में इस तरह से एक फीसदी का योगदान देना है.
मोदी कहते हैं कि काम करो तो सबकुछ संभव हो जाता है. इस काम के लिए एक टीम ही बना दी गई है जो सातों दिन 24 घंटे इस महत्त्वाकांक्षी योजना को साकार करने के लिए काम करेगी. तर्क यह है कि जब जीरो बैलेंस वालों के बल पर आम आदमी का बैंक बैलेंस 1,500 करोड़ से अधिक पहुंच सकता है तो मेक इन इंडिया के बल पर वह विश्व के कारोबारी देशों में भारत को वर्तमान 134वें स्थान से 50वें स्थान पर लाने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए. ये बातें करने में तो अच्छी लगती हैं लेकिन इन्हें अमलीजामा पहनाना टेढ़ी खीर है. सरकार जितना बोल रही है वह लुभावनी स्थिति है और लोगों को भी लग रहा है कि जितना बोला जा रहा है उतना हासिल करना कठिन है. यदि सचमुच मोदी जो बोल रहे हैं वह सब हो जाता है अथवा उस का आधा भी हासिल कर लिया जाता है तो वह असंभव को संभव बनाने वाली बात होगी.
शायद ऐसे ही किसी एहसास की वजह से मोदी का करिश्मा हाल के उपचुनाव में धीमा पड़ता नजर आया है. उम्मीद की जानी चाहिए, ये सब सपने साकार होंगे.
सुर्खियों में रहना अभिनेता सलमान खान की फितरत बन चुकी है. फिल्म प्रचार के दौरान हुए फोटोग्राफरों से झगड़े हों या अदालती मामले, सलमान चर्चा में आ ही जाते हैं. इन दिनों सलमान खान सोशल साइट्स पर मजाक का विषय बने हुए हैं.
दरअसल, इंटरनैट पर पिछले दिनों एक वीएफएक्स कंपनी का वीडियो वायरल हुआ, जिस में दिखाया गया कि किस तरह तकनीकी मदद से उन के सिक्स पैक्स ऐब्स बनाए गए हैं. फिर क्या था, वीडियो रिलीज होते ही सलमान के नकली ऐब्स का मजाक बनने लगा. वैसे इस मामले पर सलमान खान ने कोई टिप्पणी नहीं की है. यह भी हो सकता है कि यह सोशल साइट्स पर किसी सिरफिरे की शरारत हो.
निर्देशक हबीब फैजल आम मुंबइया निर्देशकों से कुछ अलग सोच रखते हैं. अपना हुनर वे फिल्म ‘इश्कजादे’ और ‘दो दूनी चार’ में दिखा चुके हैं. ‘दावते इश्क’ में भी उन्होंने दहेज और दहेज प्रताड़ना कानून 498ए के दुरुपयोग को दर्शाया है. फिल्म में एक पत्नी अपने पति पर दफा 498ए लगवा कर उस से 10 करोड़ रुपए नकद और एक फ्लैट देने की मांग करती है, साथ ही कहती है ‘लौंग लिव 498ए.’ निर्देशक हबीब फैजल ने अपनी इस फिल्म का तानाबाना दहेज समस्या पर जरूर बुना है. दहेज की वजह से जिस लड़की को बारबार रिजैक्ट किया जा रहा था, वह अपने पिता के साथ मिल कर दहेज लोभियों को लूटने का प्लान बनाती नजर आती है. निर्देशक ने कहानी को लव स्टोरी में तबदील कर दिया है.
‘दावते इश्क’ के इस दस्तरख्वान में दर्शकों को लखनऊ और हैदराबाद के लजीज पकवानों का जायका भी मिलेगा. फिल्म में मुगलई पकवानों को जिस अंदाज में दिखाया गया है उसे देख कर तो मुंह में पानी आ जाता है.
फिल्म की कहानी शुरू होती है हैदराबाद से. गुल्लू उर्फ गुलरेज कादरी (परिणीति चोपड़ा) अपने अब्बा कादरी साहब (अनुपम खेर) के साथ रहती है. गुल्लू एक शू कंपनी में सेल्समैन है और कादरी साहब कोर्ट में क्लर्क हैं. कादरी साहब को गुल्लू की शादी की चिंता है. हर बार गुल्लू की शादी की बात दहेज पर अटक जाती है. तंग आ कर गुल्लू अमीरजादों से झूठा निकाह कर उन्हें लूटने का प्लान बनाती है. काफी नानुकुर के बाद वह अपने अब्बा को भी इस प्लान में शामिल कर लेती है. दोनों लखनऊ पहुंच जाते हैं. उन का पहला शिकार बनता है तारिक हैदर (आदित्य राय) जो एक छोटामोटा रैस्तरां चला रहा होता है. वह उस से निकाह कर उसे 80 लाख रुपए की चपत लगा कर भाग जाती है. भाग कर बापबेटी हैदराबाद वापस लौटते हैं.
इधर तारिक हैदर उसे ढूंढ़ताढूंढ़ता हैदराबाद आ जाता है. उधर गुल्लू को अपने किए पर पछतावा होता है और वह अपने अब्बा के साथ तारिक हैदर को पैसे लौटाने को निकल पड़ती है. स्टेशन पर दोनों एकदूसरे से टकराते हैं. दोनों की गलतफहमियां दूर होती हैं और दोनों फिर से निकाह करने का फैसला कर लेते हैं. तारिक के मातापिता भी दहेज न लेने की कसम खाते हैं. निर्देशक ने फिल्म की इस कहानी को बिना लागलपेट के कह दिया है. उस ने नायकनायिका के बीच अच्छाखासा रोमांस दिखाया है. वैसे भी यशराज फिल्मों के बैनर की फिल्मों में रोमांस को ही प्रमुखता से दिखाया जाता है. निर्देशक हबीब फैजल ने उस परिपाटी को बनाए रखा है. फिल्म का निर्देशन अच्छा है. गीतसंगीत कानों को अच्छा लगता है. गाने 1990 के दशक की फिल्मों की याद दिलाते हैं. ‘है कबूल दावते इश्क है…’ गाना काफी अच्छा बन पड़ा है.
याद कीजिए 1980 में आई हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘खूबसूरत’ को, जिस में एक साधारण से घर की लड़की रेखा ने घरवालों को हंसना और खुल कर जीना सिखाया था. हृषिकेश मुखर्जी की यह फिल्म सच में बड़ी ही खूबसूरत थी. फिल्म एक फैमिली ड्रामा थी और रेखा के चुलबुलेपन ने दर्शकों को खुश कर दिया था. शशांक घोष की यह ‘खूबसूरत’ हृषिकेश मुखर्जी की ‘खूबसूरत’ से प्रेरित है. कुछ लोग इसे उस फिल्म का रीमेक भी मानते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है. इस फिल्म की नायिका सोनम कपूर की तुलना रेखा से नहीं की जा सकती. रेखा का चुलबुलापन नैचुरल लगा था, जबकि सोनम कपूर का चुलबुलापन आर्टिफिशियल लगता है.
फिल्म की कहानी परियों जैसी है. कहानी दर्शकों को परीलोक में तो नहीं ले जाती, हां, राजमहलों में जरूर ले जाती है. राजस्थान के संभलगढ़ के राजा शेखर राठौड़ (आमिर रजा हुसैन) पिछले कई सालों से व्हीलचेयर पर हैं. महल की देखरेख उन की पत्नी निर्मला राठौड़ (रत्ना पाठक) करती हैं. उन का एक बेटा विक्रम राठौड़ (फवाद खान) है. राजा शेखर राठौड़ के लिए एक फिजियोथेरैपिस्ट डा. मिली चक्रवर्ती (सोनम कपूर) को महल में बुलाया जाता है. मिली चक्रवर्ती पंजाबी परिवार से है. दिल्ली में उस का परिवार रहता है. मंजु (किरण खेर) उस की मां है.
महल में हर काम कायदेकानून से होता है. लेकिन मिली कायदेकानूनों की परवा न कर राजा शेखर राठौड़ के इलाज में जुट जाती है. कुछ ही दिनों में मिली के खुशमिजाज स्वभाव और खुश कर देने वाली बातों का जादू महल के परिवार के लोगों पर चलने लगता है, खासतौर से युवराज विक्रम राठौड़ की तो सोच ही बदल जाती है. वह मिली को चाहने लगता है. उधर मिली की मां मंजु चाहती है कि मिली की शादी युवराज से हो जाए. धीरेधीरे शेखर राठौड़ के स्वास्थ्य में सुधार होने लगता है. वह खुद मिली से काफी खुश है. इधर विक्रम भी मिली के प्रति काफी आकर्षित हो चुका होता है. अंतत: विक्रम मिली के परिवार वालों से मिली का हाथ मांगता है और दोनों परिवारों की रजामंदी हो जाती है.
फिल्म की पटकथा कहींकहीं ढीली पड़ जाती है. निर्देशक ने पूरा ध्यान सोनम कपूर पर ही केंद्रित किया है. इस से बाकी किरदार दब से गए लगते हैं. फिल्म का क्लाइमैक्स जोरदार है. क्लाइमैक्स पूरा का पूरा किरण खेर के नाम है. उस ने इतनी अच्छी ऐक्टिंग की है कि दर्शक ठहाके लगाते रह जाते हैं. नायक के करने लायक फिल्म में कुछ है ही नहीं. फवाद खान पाकिस्तानी ऐक्टर है. रत्ना शाह पाठक का अभिनय अच्छा है. छायांकन काफी अच्छा है.