छत्तीसगढ़ के छोटे से जिले महासमुंद के नामी अधिवक्ता जयनारायण दुबे को शहर में हर कोई जानता है क्योंकि वे ज्योतिष के भी अच्छे जानकार हैं लेकिन यह उन का पेशा नहीं है. 28 जुलाई को जयनारायण  ने 1-2 नहीं बल्कि धर्म से जुड़े लोगों और धर्म को हांकने वाली 40 संस्थाओं को कानूनी नोटिस भेज एक ऐसे मुद्दे मुहूर्त पर सवालिया निशान लगा दिया जिसे ले कर आम लोग रोज लुटतेपिटते रहते हैं और आज तक यह नहीं समझ पाए कि मुहूर्त आखिर है क्या बला और इस की तुक और जरूरत क्या है?

जयनारायण दुबे का एतराज इस बात को ले कर था कि अगस्त के महीने में ही पड़े त्योहारों–हल षष्ठी और जन्माष्टमी के बाबत पंचांग अलगअलग तारीखें बता रहे थे यानी ये त्योहार 2 दिन मनाए जाने की व्यवस्था धर्माचार्यों और मठाधीशों ने कर रखी थी. तमाम त्योहारों, तिथियों और पर्वों के 2 दिन पड़ने पर अलगअलग मुहूर्त होने पर इन वकील साहब की दलील यह है कि इस से भक्तों में भ्रम फैलता है. जब ग्रहों की संख्या वही है, साल के दिन भी सभी के लिए उतने ही हैं तो पंचांगों की गणना में फर्क क्यों आ रहा है? अपनी बात में दम लाने के लिए जयनारायण बीते 3 वर्षों से जरूरी कागजात जुटा रहे थे. नोटिस देने से पहले उन्होंने वर्ष 1967 से ले कर 2014 तक के 10 प्रमुख पंचांगों का बारीकी से अध्ययन भी किया और साबित किया कि मुहूर्त में बड़ा गड़बड़झाला है.

ऐसा पहली बार हुआ कि कोई मुहूर्त को ले कर कानूनी रूप से जागृत हुआ और उसे कठघरे में खड़ा करने की हिम्मत भी दिखाई वरना मुहूर्त की गुलामी करते लोग कभी इस तरफ नहीं सोचते कि यह उन से पैसा झटकने भर की साजिश है. जयनारायण की इस दलील से हर कोई परिचित है कि हिंदुओं के अधिकांश त्योहार अब 2 दिन मनाए जाने लगे हैं ताकि लोग 2 दिन पैसा दें.

मुहूर्त : तुक क्या?

पंडेपुजारियों ने हर शुभ कार्य का पूजन शुभ मुहूर्त में ही किए जाने के इंतजाम कर रखे हैं वरना वे फल नहीं देते. हां, अशुभ कार्य लोग जब चाहें करने के लिए स्वतंत्र हैं.

शुभ और अशुभ का खौफ हमेशा से ही लोगों के सिर चढ़ कर बोलता रहा है जिस का सार यह है कि अगर शादी शुभ मुहूर्त में नहीं की गई तो दांपत्य टूट जाएगा, संतान नहीं होगी, किसी एक की मौत हो जाएगी या पतिपत्नी में कलह होती रहेगी. वे दुखी और तनाव में रहेंगे. हर टूटती शादी के बाबत यही कहा जाता है कि यह गलत मुहूर्त में हुई होगी. पतिपत्नी की जिद अहं और स्वभाव में भिन्नता की चर्चा कोई नहीं करता. नए घर में जा कर अगर सुखशांति से रहना है तो इस का भी मुहूर्त होता है, सोना या वाहन खरीदना है तो इस के भी मुहूर्त हैं. यात्रा के भी मुहूर्त होते हैं और व्यापारव्यवसाय शुरू करने के भी.

हमारा दैनिक जीवन किस तरह मुहूर्त के मकड़जाल में उलझा है, यह जान कर हैरत होती है कि शौच जाने का भी मुहूर्त (प्रथम) होता है और पुत्रप्राप्ति हेतु सहवास का भी विशेष मुहूर्त होता है. बिलाशक पिछड़ेपन और दयनीयता की इस से बेहतर मिसाल कोई और हो भी नहीं सकती. अदालतों में तलाक के और घरेलू विवादों के जो करोड़ों मुकदमे चल रहे हैं उन में कहीं इस मुहूर्त नाम के अजूबे का जिक्र नहीं होता. जाहिर है ऐसा सिर्फ इसलिए कि धर्म के दुकानदारों ने खुद को बचाने के लिए तलाक और घरेलू विवादों के लिए लोगों को कर्मों और किस्मत को कोसने का भी पाठ पढ़ा रखा है.

दिक्कत की बात यह नहीं है कि किसी भी पर्व या पूजन के 2-2 मुहूर्त क्यों हैं बल्कि अहम सवाल यह है कि मुहूर्त है ही क्यों.

सट्टे सा मुहूर्त

आम लोग नहीं जानते, न ही जानने की कोशिश करते और न बताया जाता कि मुहूर्त निकालता कौन है. दरअसल, मुहूर्त किसी सट्टे के नंबर की तरह है जो मुंबई और कल्याण से चल कर चंद सैकंडों में देश भर में फैल जाता है जिस में जीते हुए लोग खुश हो लेते हैं और हारे हुए अगली बार कौन सा नंबर लगाएं, इस सोचविचार में डूब जाते हैं. ग्रहनक्षत्रों का अपना विज्ञान है. धर्म और उस के तमाम क्रियाकलाप इन से कैसे संचालित हो सकते हैं. सट्टा प्रमुख रूप से 2 लोग खिलाते हैं. वैसे ही मुहूर्त भी प्रमुख रूप से 2 जगह से जारी होता है. पहला, पुरी पीठ से और दूसरा, ज्योतिष पीठ से, जिस के मुखिया इन दिनों शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद हैं जो इन दिनों साईंबाबा पूजन विवाद और हिंदू पुरुषों को संतान न होने पर दूसरे विवाह का अधिकार देने के बयान पर चर्चाओं में हैं.

पुरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती भी स्वरूपानंद की तरह करोड़ों के आसामी हैं. इन दोनों का ही सनातन धर्म पर दबदबा इस कहावत से लगाया जा सकता है कि सूर्य दिशाओं के अधीन नहीं होता बल्कि वह जहां से उगता है वही पूर्व दिशा कहलाने लगती है. ठीक इसी तरह, शंकराचार्य धर्म के अधीन नहीं हैं. ये जो कह देते हैं वही धर्म हो जाता है.

अरबों की बादशाहत के शहंशाह ये दोनों हर साल हिंदू नववर्ष पर सालभर के तीजत्योहारों, पर्वों और शुभ कार्यों के मुहूर्त ठीक सट्टे के नंबरों की तरह जारी करते हैं जो देखते ही देखते हर घर में पंचांग की शक्ल में पहुंच जाते हैं. दैनिक अखबार भी रोजाना पंचांग और चौघडि़या प्रकाशित कर इस अंधविश्वास को हवा देने का काम करते हैं. हर जिले के प्रमुख पंडित यानी धर्माधिकारी के पास शंकराचार्यों के मठों से छपे हुए पंचांग पहुंचते हैं. इन्हीं पंचांगों की वजह से वे अपनी दुकान विश्वसनीयता का हवाला दे कर बगैर किसी विघ्न के चलाते हैं. पर इस का यह मतलब नहीं कि पंचांग या अखबार हाथ में होने पर लोगों को अपने मन से मुहूर्त निकालने का अधिकार मिल जाता है. दरअसल, यह इतनी गहरी साजिश है कि लोगों को आखिरकार जाना तो पंडों के पास ही पड़ता है. केवल पूजा के मुहूर्त लोग अखबारों में देख कर या न्यूज चैनल्स पर देख, बगैर पंडे के परामर्श के कर सकते हैं.

हालत ठीक वैसी ही है कि बुखार और हलका दर्द होने पर पैरासिटामोल की गोली खा लो. आराम न मिले तो जेब में पैसे ले कर डाक्टर के पास भागो. मुहूर्त के मामले में पंडा एक विशेषज्ञ डाक्टर की तरह होता है. शादी का मुहूर्त निकलवाने पंडे के पास ही जाना पड़ता है जो वर व वधू की जन्मपत्रियों, राशियों और ग्रहनक्षत्रों की गणना कर बताता है कि कौन सा समय शुभ रहेगा. यह दीगर बात है कि वह शुभ मुहूर्त उस वक्त का निकालता है जब उसे किसी दूसरे यजमान के यहां नहीं जाना होता. इसी तरह गृहप्रवेश का मुहूर्त गृहस्वामी की राशि के आधार पर तय किया जाता है.

कड़की का नाम नहीं

पूजन या पर्व के 2 दिनों या एक से ज्यादा मुहूर्तों से फायदा पंडों को ही है इसलिए जयनारायण दुबे को एतराज इस बात पर जताना चाहिए था कि जब कभी भी पूजन पाठ किया जा सकता है और पर्व मनाए जा सकते हैं तो मुहूर्त की जरूरत क्या है. और इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि जब इन के बगैर भी काम चल सकता है तो इन की जरूरत ही क्या है.

दरअसल, जरूरत पंडों को है जिन की रोजीरोटी ही मुहूर्त जैसे अंधविश्वासों से चलती है. मुहूर्त बताने के लिए दक्षिणा ली जाती है और पूजापाठ करने के लिए भी. फिर क्यों इन मुफ्तखोरों की जमात यह चाहेगी कि मुहूर्त को ले कर कोई अदालत जाए. अब पंडेपुरोहित कम हो चले हैं और यजमान बढ़ रहे हैं. मुहूर्त निकलवाने के लिए अब सनातनी चौखटों पर पैसे वाले पिछड़े और दलित भी बहुतायत से जाने लगे हैं. लिहाजा 2 दिन त्योहारपर्व मनाने की स्वीकृति और बहुत से मुहूर्तों का होना धर्माचार्यों व मठाधीशों के खुराफाती दिमाग की ही उपज समझ आती है जो अकसर धार्मिक विवाद फैला कर अपने शोरूम, अपने से छोटों की दुकानें और उन से भी छोटों की गुमटियां चलाए रखने के इंतजाम करते रहते हैं.

अब तो इन लोगों, जो धर्म के निर्माता और पालक हैं, ने पैसा कमाने के लिए नएनए हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए हैं. आमतौर पर धार्मिक मान्यता यह है कि पितृपक्ष के दिनों में खरीदारी नहीं करनी चाहिए, शुभकार्य भी इस दौरान वर्जित रहते हैं. अपनी ही थोपी इस मान्यता से पंडे 15 दिन बेरोजगार बैठे रहने को मजबूर होते हैं, इसलिए अब अखबारों और न्यूज चैनल्स के जरिए फतवा सा जारी कर देते हैं कि पितृपक्ष के दौरान ही फलां दिन इतने ग्रहनक्षत्रों का शुभ मुहूर्त बन रहा है जिस में सोने, चांदी और दीगर आइटमों की खरीदारी शुभ है.

इस बार तो पितृपक्ष में भी खरीदारी का मुहूर्त पंडों ने निकाल दिया. बीते 1 सितंबर को भोपाल के अखबारों में प्रमुखता से एक धर्माचार्य भंवरलाल शर्मा के हवाले से यह खबर छपी थी कि पितृपक्ष में इस बार खरीदारी शुभ है और वह समृद्धिकारक भी होगी. इस बाबत बाकायदा पितृपक्ष के दौरान पड़ने वाली तारीखों 11, 15, 16 और 19 सितंबर को शुभ बताया गया था. यह सलाह किस पंचांग या शंकराचार्य से ली गई थी, यह भंवरलाल शर्मा ने नहीं बताया, न ही यह कि किस धर्मग्रंथ में यह उल्लेख है. जाहिर है मकसद व्यापारियों को और खुद को फायदा पहुंचाना था.

यानी धर्म के इन ठेकेदारों की नजर में अशुभ सिर्फ एक ही काम है, वह है इन्हें दक्षिणा न देना और दक्षिणा लेने का कोई मौका ये चूकते नहीं. उलटे नएनए मौके पैदा करने लगे हैं. अब अकसर पुष्य नक्षत्र नाम का शुभ योग प्रकाशित, प्रसारित और प्रचारित किया जाता रहता है.

अक्ल से काम लें

इन योगों और मुहूर्तों से फायदा व्यापारियों को भी होता है और मीडिया को भी. लिहाजा यह तिकड़ी जम कर धर्म और मुहूर्त के नाम पर चांदी काट रही है. त्योहारों के दिनों में विज्ञापनों की बारिश मीडिया पर हो, यह हर्ज या एतराज की बात नहीं पर यह जरूर है कि कारोबार बढ़ाने के लिए वह मुहूर्त जैसे अंधविश्वासों को बढ़ावा देने की गलती करता है.

व्यापारी भी जानते हैं और एक हद तक मान भी लेते हैं कि मुहूर्त कुछ नहीं होता. असल मुहूर्त और धर्म पैसा होता है. इसे ग्राहकों की जेब से निकलवाने के लिए उन्हें पंडों का सहारा लेना पड़ रहा है तो बात हर्ज की उन्हें नहीं लगती. हजार दो हजार की दक्षिणा में अगर कोई पंडित पितृपक्ष में भी खरीदारी का मुहूर्त घोषित कर दे तो पूरे व्यापारी समुदाय को लाखों का फायदा होता है. इसी बात से एक मामूली सी बात यह भी साबित होती है कि मुहूर्त का कोई औचित्य वास्तव में है नहीं, यह पंडों की कारगुजारी भर है. अगर वाकई मुहूर्त में दम होता तो शुभ मुहूर्त में की गई शादियां टूटती नहीं, शुभ मुहूर्त में किए गए गृहप्रवेश में गृहकलह नहीं होती. लोगों को बीमारियां व रोजमर्राई परेशानियां नहीं होतीं.

आसानी से समझ आने वाली मुहूर्त की हकीकत बताती मिसाल आम चुनाव है जिन में सभी दलों के प्रत्याशी पंडित से शुभ मुहूर्त पूछ कर ही परचा दाखिल करने के लिए चुनाव अधिकारी के यहां जाते हैं, फिर भी जीतता एक ही है. यह तो पंडों की धूर्तता की इंतहा ही है कि इस बाबत पूछने पर वे बड़ी ढिठाई से जवाब यह देते हैं कि जीते प्रत्याशी के ग्रहनक्षत्र हारे हुए से ज्यादा प्रबल थे. अब पंडितजी से यह कोई नहीं पूछता कि जब प्रबल ग्रहनक्षत्र ही जिताते हैं तो मुहूर्त की जरूरत क्या थी? यह बात सीधे पहले चुनाव आयोग को क्यों नहीं बता दी जाती जिस से अरबों का चुनावी खर्च बचे.

आजादी पर अंकुश

ऐसे जवाब सीता वनवास और कृष्ण की असमय मौत सहित ढेरों प्रसंगों में वे देते हैं. धर्म का तानाबाना दरअसल बुना ही इस तरह गया है कि कोई इस की प्रासंगिकता पर उंगली उठाए तो उसे निरुत्तर कैसे किया जाए. इस पर भी बात न बने तो हरि या ऊपर वाले की इच्छा का ब्रह्मास्त्र चला कर बात समाप्त कर दी जाती है. मुहूर्त के चक्कर में नुकसान आम लोगों का होता है. शादीविवाह के मौसम में उस से जुड़ी हर चीज महंगी हो जाती है, त्योहारों पर घासफूस तक महंगे दामों में पूजा के लिए खरीदनी पड़ती है. और सब से नुकसानदेह बात एक जकड़न भरी मानसिकता में जिंदगीभर के लिए खुद और आने वाली पीढ़ी को भी फंसा देना है जो आजादी और अपनी मरजी से जीने की इजाजत नहीं देती.

ऐसे में जयनारायण दुबे की पहल स्वागत योग्य है. यह और भी प्रभावी साबित हो सकती है जब कोई यह नोटिस धर्म के दुकानदारों को दे कि मुहूर्त की प्रामाणिकता और जरूरत क्यों है. इस का दूसरा मतलब सीधा सा यह भी निकलता है कि मुहूर्त कुछ होता ही नहीं. जब भी अच्छे मन से बगैर किसी डर या आशंका के शुभ कार्य किया जाए वही असली मुहूर्त है. शुभ मुहूर्त बताने वाला कोई पंडा कार्यसिद्धि की लिखित गारंटी क्यों नहीं लेता, इस पर भी लोगों को विचार करना चाहिए.   

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