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क्या मुद्दों से दूर हो रही हैं हिंदी फिल्में

आजकल हिंसा, बलात्कार, कत्ल, साजिश के चटपटे मसाले लपेट कर बनने वाली फिल्मों और टीवी सीरियलों से आम आदमी से जुड़े मुद्दे गायब हो चुके हैं. लिहाजा आम आदमी उस से कनैक्ट नहीं हो पाता. यही वजह है कि ऐसी मारधाड़ वाली फिल्में बौक्स औफिस पर एकडेढ़ हफ्ते में ही दम तोड़ देती हैं. लेकिन जबजब जनता की दुखती रग पर हाथ रखने वाली फिल्में बौलीवुड ने दीं, वे खूब चलीं और खूब सराही गईं.

समाज के सामने काले सच का परदाफाश करने के लिए कला और कलाकारों के माध्यम से अनेक कोशिशें होती हैं. भ्रष्टाचार पर नाटक खेले जाते हैं. जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं. आंदोलन होते हैं. इसी में एक तरीका फिल्में भी हैं जिन के जरिए न सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन होता है बल्कि ये हमें समाज में फैली बुराइयों से रूबरू भी कराती हैं.

भ्रष्टाचार की पोल खोलती फिल्में

भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर जबजब कोई फिल्म आई, खूब पसंद की गई. भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जो भारत की जड़ें धीरेधीरे खोखली कर रहा है. शायद ही कोई ऐसा सरकारी विभाग होगा जिसे भ्रष्टाचार ने छुआ नहीं होगा. करप्शन एक अभिशाप की तरह देशभर में फैला हुआ है. शिक्षा संस्थानों से ले कर हैल्थ सैक्टर तक भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमाए हुए है.

कई बौलीवुड फिल्में हैं, जिन में भ्रष्टाचार की पोल खोली गई है. इस लिस्ट में सब से पहला नाम आता है साल 2005 में बनी फिल्म ‘अपहरण’ का, जिस में लीड रोल निभाया था बौलीवुड ऐक्टर अजय देवगन ने. फिल्ममेकर प्रकाश ?ा के निर्देशन में बनी यह फिल्म भ्रष्टाचार के मुद्दे को उजागर करती है.

अजय देवगन, नाना पाटेकर और बिपाशा बसु स्टारर यह फिल्म बिहार में हो रहे बड़े पैमाने पर अपहरण के मुद्दे और उस से उगाही जाने वाली करोड़ों रुपयों की रकम के खेल को उजागर करती है. वर्ष 2005 में 10 करोड़ रुपए की लागत से बनी इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर 21.63 करोड़ रुपए का कलैक्शन किया था.

साल 2018 में रिलीज हुई फिल्म ‘भावेश जोशी सुपरहीरो’ एक आम आदमी के सुपरहीरो बनने की कहानी है. इस का मतलब यह नहीं है कि उस शख्स के अंदर कोई सुपर पावर थी, बल्कि फिल्म की कहानी तो उस के उस जज्बे और ताकत के बारे में थी, जो वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने में दिखाता है.

निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने के निर्देशन में बनी इस फिल्म में प्रियांशु पैन्यूली, हर्षवर्धन कपूर मुख्य किरदार में थे. फिल्म की कहानी 2011 में हुए अन्ना आंदोलन पर आधारित थी, जिस में कुछ युवा भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरते हैं. फिल्म के किरदार भावेश और सिक्कू एकसाथ मिल कर लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए सोशल मीडिया प्लैटफौर्म का इस्तेमाल करते हैं और जनता को भ्रष्टाचार के बारे में जागरूक करते हैं.

खुद को फिल्म से कनैक्ट करते दर्शक

बौलीवुड के खिलाड़ी कुमार यानी अक्षय कुमार स्टारर फिल्म ‘गब्बर इज बैक’ में भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को बहुत सशक्त तरीके से पेश किया गया है. साल 2015 में आई इस फिल्म में अक्षय कुमार के अलावा श्रुति हासन, करीना कपूर खान, चित्रांगदा सिंह, जयदीप अहलावत, सुनील ग्रोवर मुख्य किरदारों में नजर आए थे. डायरैक्टर कृष के निर्देशन में बनी यह फिल्म स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार को उजागर करती है. फिल्म एक आम इंसान के जीवन पर आधारित है, जो अपनी पत्नी के साथ खुशहाल जिंदगी गुजार रहा है, लेकिन अचानक उन की जिंदगी में ऐसा भूचाल आता है, जो उस का सबकुछ बरबाद कर देता है.

अपनी बरबादी पर रोने और अवसादग्रस्त होने के बजाय फिल्म का किरदार करप्शन को जड़ से खत्म करने और लोगों को इंसाफ दिलाने के अपने मिशन पर निकल पड़ता है और भ्रष्टाचारियों को चुनचुन कर मारता है.

ऐक्टर अजय देवगन की फिल्म ‘गंगाजल’ भी दर्शकों को खूब पसंद आई थी. फिल्म बिहार में पुलिस डिपार्टमैंट और राजनीतिक गठजोड़ के पाप और उस में पनपते भ्रष्टाचार को दर्शाती है. यह फिल्म भाईभतीजावाद, अपराध, रिश्वतखोरी के खिलाफ आवाज उठाती है. ‘गंगाजल’ में अजय देवगन के अलावा ग्रेसी सिंह, मुकेश भी मुख्य किरदारों में नजर आए थे.

समाज का काला सच उजागर

बौलीवुड में ऐसी कई फिल्में हैं जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आधारित हैं. इन में ‘खोसला का घोसला’, अनिल कपूर की फिल्म ‘नायक’ जैसी फिल्में शामिल हैं, जो करप्शन के काले सच को दर्शकों के सामने उजागर करती हैं.

‘खोसला का घोसला’ को 2006 में कारा फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित किया गया था और सकारात्मक आलोचनात्मक प्रतिक्रिया के साथ 22 सितंबर, 2006 को रिलीज किया गया था. इस ने 54वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता.

फिल्म ‘नायक’ में एक आम आदमी को मुख्यमंत्री द्वारा एक दिन के लिए राज्य को चलाने की चुनौती दी जाती है. उस एक दिन में वह भ्रष्ट अफसरों की ऐसी क्लास लगाता है कि उस का एक दिन का शासन जबरदस्त सफल होता है. उस के एक दिन के काम को देख कर राज्य के लोग उसे राजनीति में शामिल होने के लिए मजबूर करते हैं, जिस के बाद भ्रष्ट नेता द्वारा उस का घरपरिवार तहसनहस कर दिया जाता है. लेकिन वह हार नहीं मानता और भ्रष्टाचार के खिलाफ कमर कस कर खड़ा हो जाता है.

ये सभी फिल्में ब्लौकबस्टर रहीं. सिनेमाहौल में हफ्तों चलीं क्योंकि ये सभी जनता की रोजमर्रा की परेशानियों से जुड़ी थीं. आज करोड़ोंअरबों रुपए लगा कर बन रही फिल्में 2 दिनों में ही लुढ़क जाती हैं क्योंकि लोग उन से खुद को कनैक्ट नहीं कर पाते हैं.

फिल्म निर्माताओं को सोचना चाहिए कि फिल्में सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए नहीं होतीं, बल्कि इन का गहरा असर उन के दिलदिमाग पर पड़ता है, खासकर युवाओं पर. अगर उन के सामने हिंसा परोसी जाएगी तो उन का स्वभाव उग्र और आक्रामक बनेगा, अगर सामाजिक मुद्दों से उन्हें जोड़ा जाएगा तो उन मुद्दों को सम?ा कर वे समाज का कुछ भला कर सकेंगे.

थप्पड़: स्त्री के वजूद का अपमान

मेरठ के कंकरखेड़ा क्षेत्र में 26 दिसंबर, 2023 को बीटैक की एक छात्रा को सहपाठी लड़के द्वारा थप्पड़ मारने का मामला सामने आया. दरअसल, छात्रा ने साथ में पढ़ने वाले इस छात्र की दोस्ती का प्रस्ताव ठुकरा दिया था, जिस के बाद उस छात्र ने कक्षा में अन्य छात्रों के सामने ही बीटैक की सीनियर छात्रा को कई थप्पड़ जड़े. वह इतने पर ही शांत नहीं हुआ बल्कि गुस्से में कुरसी उठा कर लड़की को मारने की कोशिश की. लड़की ने भाग कर अपनी जान बचाई. बाद में लड़की ने यह घटना घर पर परिजनों को बताई और थाने में रिपोर्ट लिखवाने पहुंची. छात्रा ने आरोप लगाया कि आरोपी कई दिनों से उस पर दोस्ती करने का दबाव बना रहा था. दोस्ती स्वीकार न किए जाने पर वह हिंसा पर उतर आया.

इस बार के बिग बौस में ईशा मालवीय और अभिषेक कुमार ऐसे कंटैस्टैंट हैं जो अपने पास्ट रिलेशन को ले कर चर्चा में रहते हैं. अभिषेक ईशा के एक्स बौयफ्रैंड हैं. एक साल पहले उन का रिश्ता खत्म हो चुका है. उन का रिश्ता टूटने की वजह भी कहीं न कहीं अभिषेक का थप्पड़ और उस की तरफ अग्रेसिव व्यवहार ही था. ईशा ने अंकिता और खानजादी से बात करते वक्त बताया था कि उस ने एक बार अभिषेक को अपने दोस्तों से मिलवाया. ईशा के ज्यादा दोस्त होने की वजह से अभिषेक को गुस्सा आ गया था और उस ने ईशा को सब के सामने थप्पड़ मार दिया था. थप्पड़ की वजह से ईशा की आंख के नीचे निशान पड़ गए थे. इसी के बाद उन का रिश्ता टूटता चला गया.

कुछ समय पहले डायरैक्टर अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘थप्पड़’ ऐसे ही विषय को ले कर आई थी. इस में बात शुरू होती है सिर्फ एक थप्पड़ से लेकिन यह पूरी फिल्म महज थप्पड़ के बारे में नहीं थी बल्कि उस के इर्दगिर्द तैयार हुए पूरे तानेबाने और हर उस सवाल को कुरेद कर निकालने की कोशिश करती दिखी जिस ने इस ‘सिर्फ एक थप्पड़’ को पुरुषों के हक का दर्जा दे दिया.

इस में अमृता की भूमिका में तापसी पन्नू अपने पति विक्रम के साथ एक परफैक्ट शादीशुदा जिंदगी बिताती दिखती है. अमृता सुबह उठने से ले कर रात को सोने तक अपने पति और परिवार के इर्दगिर्द घिरी जिंदगी में बिजी है और इस ‘परफैक्ट’ सी जिंदगी में बहुत खुश है. लेकिन इसी बीच एक दिन उन के घर हुई पार्टी में विक्रम अमृता को एक जोरदार थप्पड़ मार देता है तो फिर सबकुछ बदल जाता है. किसी ने सोचा न था कि एक थप्पड़ रिश्ते की नींव हिला देगा. लेकिन अमृता ‘सिर्फ एक थप्पड़’ के लिए तैयार नहीं थी. एक औरत की जंग शुरू होती है एक ऐसे पति के साथ जिस का कहना है कि मियांबीवी में यह सब तो हो जाता है. उस के आसपास के लोगों के लिए यह बात पचा पाना बहुत मुश्किल था कि सिर्फ एक थप्पड़ की वजह से कोई स्त्री अपने ‘सुखी संसार’ को छोड़ने का फैसला कैसे ले सकती है जबकि पुरुष को तो समाज ने स्त्री को मारनेपीटने का हक दिया ही हुआ है.

सवाल स्त्री के मान का

सच यही है कि एक थप्पड़ स्त्री के मानसम्मान और अस्तित्व पर सवाल खड़ा करता है. एक थप्पड़ यह दर्शाता है कि आज भी पुरुषों ने औरत को अपनी प्रौपर्टी सम?ा रखा है, जबरन उस पर अपना हक जमाना चाहते हैं. अगर स्त्री ने हक नहीं दिया तो थप्पड़ की गूंज में उसे एहसास दिलाना चाहते हैं कि उस की औकात क्या है. समाज में उस का दर्जा क्या है.

महिलाओं के खिलाफ हिंसा

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक महिलाओं से हिंसा पूरी दुनिया का भयंकर मर्ज है.  दुनिया की 70 फीसदी महिलाओं ने अपने करीबी साथियों के हाथों हिंसक बरताव ?ोला है, फिर चाहे वह शारीरिक हो या यौनहिंसा. दुनियाभर में हर रोज 137 महिलाएं अपने करीबी साथी या परिवार के सदस्य के हाथों मारी जाती हैं.

हमारे समाज में अकसर लड़कियां और लड़के दोनों ही पुराने रिवाजों से बंधे हुए होते हैं. लड़कियों को यह सिखाया जाता है कि घर के काम करना, पति की सेवा करना और उस की हर बात मानना उन का कर्तव्य है. उन्हें सिखाया जाता है कि पुरुष महिलाओं का मौखिक, शारीरिक या यौनशोषण करने के लिए स्वतंत्र हैं. इस का उन्हें कोई नतीजा भी नहीं भुगतना होगा.

बचपन से लड़कियों का 40 फीसदी समय ऐसे कामों में जाता है जिन के पैसे भी नहीं मिलते. इस का यह नतीजा होता है कि उन्हें खेलने, आराम करने या पढ़ने का समय लड़कों के मुकाबले कम ही मिल पाता है.

प्यू रिसर्च सैंटर की स्टडी

हाल ही में अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सैंटर ने एक दिलचस्प स्टडी की थी. इस में भारत में महिलाओं के बारे में पुरुषों की सोच का अध्ययन किया गया. स्टडी में पाया गया कि ज्यादातर भारतीय इस बात से काफी हद तक सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा पति का कहना मानना चाहिए.

प्यू रिसर्च सैंटर की यह नई रिपोर्ट हाल ही में जारी की गई. रिपोर्ट 29,999 भारतीय वयस्कों के बीच 2019 के अंत से ले कर 2020 की शुरुआत तक किए गए अध्ययन पर आधारित है.

इस के अनुसार करीब 80 प्रतिशत इस विचार से सहमत हैं कि जब कुछ ही नौकरियां हैं तब पुरुषों को महिलाओं की तुलना में नौकरी करने का अधिक अधिकार है. रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 10 में 9 भारतीय (87 प्रतिशत) पूरी तरह या काफी हद तक इस बात से सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा ही अपने पति का कहना मानना चाहिए. यही नहीं,  इस रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर भारतीय महिलाओं ने इस विचार से सहमति जताई कि हर परिस्थिति में पत्नी को पति का कहना मानना चाहिए.

महिलाओं पर केंद्रित होती हैं ज्यादातर गालियां

नारीशक्ति की बात तो होती है लेकिन अभी भी महिलाएं दोयम दर्जे पर हैं. पढ़ीलिखी महिलाएं भी प्रताडि़त हो रही हैं. अगर आप को किसी को अपमानित करना है तो आप उस के घर की महिला को गाली दे देते हैं. उस का चरम अपमान हो जाता है और वह मर्दों के अहंकार को भी संतुष्ट करता है. किसी पुरुष से बदला लेना होगा तो बोलेंगे स्त्री को उठा लेंगे, महिला अपमानित करने का माध्यम बन जाती है. गांव में तो बहुत होता था पहले. अमूमन यह देखा गया था कि ये गालियां समाज के निचले पायदान पर रहने वाले लोग ही देते थे लेकिन अब आम पढ़ेलिखे लोग भी देने लगे हैं.

जब भी कोई बहस ?ागड़े में तबदील होने लगती है तो गालियों की बौछार भी शुरू हो जाती है. यह बहस या ?ागड़ा 2 मर्दों के बीच भी हो रहा हो तब भी गालियां महिलाओं पर आधारित होती हैं. कुल मिला कर गालियों के केंद्र में महिलाएं होती हैं. दरअसल, समय के साथ स्त्री, पुरुषों की संपत्ति होती चली गई और उस संपत्ति को गाली दी जाने लगी. गाली दे कर मर्द अपने अहंकार की तुष्टि करते हैं और दूसरे को नीचा दिखाते हैं. महिलाएं परिवार की इज्जत के प्रतीक के तौर पर देखी जाती हैं. इज्जत को बचाना है तो उसे देहरी के अंदर रखिए. महिलाएं समाज में कमजोर मानी जाती हैं. आप किसी को नीचा दिखाना चाहते हैं, तंग करना चाहते हैं तो उन के घर की महिलाओं- मां, बहन या बेटी को गालियां देना शुरू कर दीजिए. गाली सिर्फ गाली देना ही नहीं है, यह मानसिकता का प्रतीक भी है जो वीभत्स गाली देते हैं और उसे व्यावहारिकता में लाते हैं. इसलिए निर्भया जैसे मामले दिखाई देते हैं.

धर्म है इस सोच का जिम्मेदार

जितने भी धर्म हैं, हिंदू,, इसलाम, कैथोलिक ईसाई, जैन, बौद्ध, सूफी, यहूदी, सिख आदि सभी के संस्थापक पुरुष हैं, स्त्री नहीं. न ही स्त्री किसी धर्म की संचालिका है. न वह पूजापाठ, कथा, हवन कराने वाली पंडित है, न मौलवी है, न पादरी है. वह केवल पुरुष की आज्ञा का पालन करने के लिए इस संसार में जन्मी है. धर्म का मूल आधार ही पुरुषसत्ता है. स्त्री का दोयम दर्जा सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, हर धर्मग्रंथ में वह चाहे कुरान हो, बाइबिल हो या कोई और धर्मग्रंथ हो स्त्रियों को हमेशा पुरुष से कमतर माना गया.

धर्म की आड़ में कहानियों के माध्यम से स्त्री जीवन को दासी और अनुगामिनी के रोल मौडल दिखा कर उसी सांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है. सीता, सावित्री, माधवी, शकुंतला, दमयंती, द्रौपदी, राधा, उर्मिला जैसी कई नायिकाओं के ‘रोल मौडल’ को सामने रख कर सदियों से स्त्री का अनावश्यक शोषण चलता आ रहा है. पुरुषसत्ता स्वीकृत भूमिका से अलग किसी स्थिति में स्त्री को देखना पसंद नहीं करती. इसलिए धार्मिक आचार संहिता बना कर वह स्त्री की स्वतंत्रता और यौनशुचिता पर नियंत्रण रखती है.

दुनिया का कोई देश या जाति हो, उस का धर्म से संबंध रहा है. सभी धर्मों में स्त्री की छवि एक ऐसी कैदी की तरह रही है जिसे पुरुष के इशारे पर जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है. वह पितृसत्तात्मक समाज की बेडि़यों से जकड़ी होती है.

धर्मों में स्त्री सामान्यतया उपयोग और उपभोग की वस्तु है. उस की ऐसी छवि गढ़ी गई है जिस से स्त्री ने भी स्वयं को एक वस्तु मान लिया है. धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष की दासी के रूप में चित्रित किया. रामचरितमानस में सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है और महाभारत में द्रौपदी को चीरहरण जैसे सामाजिक कलंक से गुजरना पड़ता है.

स्त्री अधिकार की बात हमारे धर्मग्रंथों में कभी की ही नहीं गई. वह पुरुष के श्राप से शिला बन जाती है, पुरुष के ही स्पर्श से फिर से स्त्री बन जाती है. पुरुष गर्भवती पत्नी को वनवास दे देता है, पुरुष अपनी इच्छा से उसे वस्तु की तरह दांव पर लगा देता है. सभी धर्मग्रंथों में उसे नरक की खान, ताड़न की अधिकारी और क्याक्या नहीं कहा गया.

मर्द हिंसा का रास्ता केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इसी के माध्यम से सब प्राप्त कर सकता है जिन्हें वह एक मर्द होने के कारण अपना हक सम?ाता है.

इन स्थितियों से महिलाएं तभी उबर सकती हैं जब वे पुरुषसत्ता और धर्मगुरुओं के षड्यंत्र को जान सकें और अपनी शक्ति की पहचान कर सकें. अपने मान की रक्षा के लिए खुद खड़ी हों न कि दूसरों की राह देखें.

मैं पति के साथ घर में सैक्स का आनंद नहीं उठा पाती, क्या करूं?

सवाल

मेरी उम्र 26 साल है. शादी हुए 6 महीने हो गए हैं. परिवार संयुक्त और बड़ा है. ऐसी बात नहीं है कि संयुक्त परिवार से मु?ो कोई तकलीफ है. लेकिन समस्या वैवाहिक जीवन जीने को ले कर है. घर छोटा है. घर में सभी होते हैं. सासससुर, 2 ननदें, एक देवर. घर में जानपहचान वालों का आनाजाना भी बहुत है. हफ्ते के सातों दिन घर के कामों में उलझी रहती हूं. पति से खुल कर बात तक नहीं कर पाती. बस, रात में ही हमें थोड़ी प्राइवेसी मिलती है लेकिन तब भी पति के साथ खुल कर सैक्स एंजौय नहीं कर पाती. कभीकभी मन बहुत बेचैन हो जाता है. दूसरी जगह घर भी नहीं ले सकते क्योंकि पति इतना भी नहीं कमाते. अब आप ही बताएं मैं क्या करूं?

जवाब

सैक्स संबंध हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है. स्वस्थ व जोशीली सैक्स लाइफ हमारे संबंधों को मजबूत बनाती है व जीवन को खुशियों से भरती है. संयुक्त परिवारों में जानबू?ा कर औरतों को दबाने के लिए उन्हें पति से दूर रखा जाता है और वे पति के साथ खुल कर सैक्स एंजौय नहीं कर पातीं. इस के लिए आप को पति से खुल कर बात करनी होगी. सिर्फ आप ही नहीं, आप के पति भी आप की चाह रखते होंगे. बेहतर होगा कि इस के लिए कभी किसी रिश्तेदार के या कभी मायके जाने के बहाने पति के साथ बाहर घूमने जाएं. इस तरह के संबंधों को तो ?ोलना ही होता है, कोई उपाय नहीं मिलता.

 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

राजनीति पर हावी धर्म

धर्म की इतनी ‘महत्ता’ तो है कि इस का उन्माद पूरे देश या पूरी कौम को अंधा बना सकता है. इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा है जिन में धर्म के नाम पर लाखों को मारा गया, हजारों घर जलाए गए, औरतों से बलात्कार किए गए, बच्चों को जलती आग में फेंका गया. धर्म का उन्माद जगाना सरल इसलिए है क्योंकि बच्चों के पैदा होते ही धर्म के दुकानदार घरों और परिवारों पर हमला कर देते हैं. और फिर तर्क, तथ्य, अर्थ व धर्म के घिसेपिटे आदेशों के अनुसार बच्चों को पाला जाता है. बड़े हो कर वे अपने बच्चों के साथ वही करने लगते हैं जो उन के साथ किया गया था.

यह आश्चर्य की बात है कि हर पीढ़ी में कुछ लोग ऐसे हुए जिन्होंने धर्म की ज्यादती सहने से इनकार कर दिया और एक अपना ठोस रास्ता अपनाया चाहे उस में उन्हें धर्म का कोप सहना पड़ा. हर समाज ने हर युग में ऐसा किया और इसी का नतीजा है कि आज मानव सभ्यता तरहतरह के नए अनुसंधानों व खोजों का लाभ उठा रही है.

हर देश में, अफसोस है, कुछ लोग बारबार सूई को उलटा घुमाने की कोशिश करते रहते हैं. इस में धर्म का धंधा चलाने वालों का बड़ा फायदा है क्योंकि उन की कमाई इसी पर आधारित है कि धर्म के नाम पर अंधे अपनी सुरक्षा व मानसिक शांति के लुभावने-लच्छेदार वादों पर मोटा दान करें व मोटी दक्षिणा दें.

आज 2024 में 2 युद्ध भयंकर पैमाने पर लड़े जा रहे हैं और दोनों में धर्म ही कारण है. रूस-यूक्रेन युद्ध में और्थोडौक्स क्रिश्चियन चर्च का हाथ है जिस में मास्को स्थित सैंटर अपने से अलग हुए यूक्रेन के सैंटर को सबक सिखाना चाहता है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को मास्को के चर्च के किरिल ने ही युद्ध के लिए उकसाया था.

फिलिस्तीन और इजराइज का युद्ध पुराने इसलामी अरबों और यहूदी-इजराइली युद्धों को दोहरा रहा है. आज पूरा पश्चिम एशिया सुलग रहा है क्योंकि यूरोपीय ताकतों के जाने के बाद इस क्षेत्र के नाम पर खड़े हुए नेताओं ने मसजिदों के सहारे ताकत छीन ली और ऐसी छीनी कि इन देशों की जनता अपनों की ही गुलाम हो गई है.

भारत ने एक बड़ा विभाजन 1947 में धर्म के नाम पर देखा और आज तक उस का जहरीला कैंसर हमारी प्रगति में आड़े आ रहा है. पाकिस्तान अपने पड़ोसी अफगानिस्तान की राह पर चल रहा है जहां सेनाओं के सहारे कट्टर धर्मनेताओं की चलती है.

धर्मों ने शांति फैलाई हो, ऐसा नहीं लगता. शांतिप्रिय बौद्ध धर्म को मानने वाले राजाओं ने भी खूब युद्ध किए हैं, भारत में ही नहीं, वहां भी जहां बौद्ध धर्म पहुंच गया था.

आज भारत फिर धर्म की दलदल में धंस रहा है. धर्म राजनीति और परिवार पर हावी हो चुका है. धर्म के नाम पर देश बंट रहा है. हमारी प्राथमिकताएं बदल रही हैं. यूरोप और अमेरिका में भी कुछ देशों में ऐसा ही हो रहा है.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की संभावित जीत चर्च की जीत होगी और पक्का है कि ट्रंप के फैसले चर्चों को चलाने वालों की गुफाओं से निकलेंगे.

इस की कीमत समयसमय पर आम लोग देते रहे हैं जिन में धर्म के मानने वाले और उदासीन दोनों शामिल रहे हैं. यह अब गंभीर होता जा रहा है. भारत भी अब अफगानिस्तान और ईरान की राह पर है.

एक और परिणीता : शिवेन दत्त के साथ आखिर क्या हुआ  

शिवेन दत्त के चार्ज लेते ही पूरे दफ्तर में खलबली मच गई कि दादा अडि़यल इनसान हैं. हां, चपरासी और मेकैनिक खुश हैं. दोनों की खुशी की वजह अलगअलग हैं.

चपरासी तो इसलिए खुश हैं कि बाबुओं की तीमारदारी से उन्हें अब कुछ राहत मिलेगी. मेकैनिक खुश हैं कि शिवेन दत्त तकनीकी जानकारी रखते हैं और उन का चयन योग्यता के आधार पर हुआ है, किसी की सिफारिश से नहीं.

दूर संचार विभाग के मैनेजर पद पर आंखें तो बहुत से लोग गड़ाए बैठे थे मगर इन में से एक भी तकनीकी जानकारी नहीं रखता था और विभाग को ऐसे इंजीनियर की तलाश थी जो आज के तेज रफ्तार संचार माध्यमों का सही ढंग से संचालन कर सके. इसीलिए चयन कार्यक्रम में पूरी तरह से पारदर्शिता बरती गई.

दूर संचार विभाग में काम करने वाली महिलाओं का अपना एक संगठन भी था जिस की अध्यक्ष स्वर्णा कपूर थी. वह बोलती कम पर लिखती अधिक थी. आएदिन किसी न किसी पुरुषकर्मी की शिकायत लिख कर वह अधिकारी के पास भेजती रहती थी और पुरुषकर्मी अपना शिकायतीपत्र पी.ए. को कुछ दे कर हथिया लेते थे. कहने का मतलब यह कि स्वर्णा कपूर किसी का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकी.

नई झाड़ू जरा जोरदार सफाई करती है. इस कहावत को ध्यान में रखते हुए सभी पुरुषकर्मी कुछ अधिक चौकन्ने हो गए थे.

शिवेन दत्त ने स्वर्णा कपूर को पहली बार तब देखा जब वह लंबी छुट्टी मांगने उन के पास आई. साड़ी का पल्लू शौल की तरह लपेटे वह किसी मूर्ति की तरह मेज के पास जा खड़ी हुई. शिवेन दत्त खामोशी की उस मूर्ति को देखते ही हतप्रभ रह गए.

स्वर्णा पलकें झुकाए दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘अगर आप छुट्टी मंजूर नहीं करेंगे तो मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूंगी, क्योंकि मैं कभी छुट्टी नहीं लेती हूं.’’

शिवेन दत्त जैसे जाग पड़े, ‘‘तो फिर आज क्यों? और वह भी इतनी लंबी छुट्टी ली जा रही है?’’

‘‘एम.ए. फाइनल की परीक्षा देनी है मुझे.’’

शाम को काम खत्म कर शिवेन जाने लगे तो अपने पी.ए. से पूछ बैठे, ‘‘कब से हैं मिसेज कपूर यहां?’’

‘‘5 बरस तो हो ही गए हैं. पर सर, आप इन्हें मिसेज नहीं मिस कहिए.’’

‘‘शटअप,’’ शिवेन ने डांट दिया.

बचपन में मैनिंजाइटिस होने से स्वर्णा का मुंह टेढ़ा हो गया और जवानी में वह हताश व कुंठित थी, क्योंकि दोनों छोटी बहनों की शादी हो चुकी थी.

स्वर्णा को सितार सिखाने वाली महिला, जिसे पति की जगह दूर संचार विभाग में नौकरी मिली थी, ने स्वर्णा को दूर संचार विभाग में काम करने का रास्ता दिखाया और वह टेलीफोन आपरेटर बन गई.

शिवेन का अपने विभाग पर ऐसा दबदबा कायम हुआ कि हर बात में निंदा करने वाले भी अब उन की बात मानने लगे. यही नहीं, उन्होंने अपनी मेजकुरसी हाल में ही एक ओर लगवा ली ताकि सब को उन के होने का एहसास बना रहे. उन से खार खाने वाले अधेड़ उम्र के सहकर्मी भी उन के विनम्र स्वभाव से दब गए.

3 महीने पलक झपकते ही निकल गए. स्वर्णा जब लौट कर दफ्तर आई तो किसी पुराने मनचले ने फब्ती कसी, ‘‘डिगरी पर डिगरी लिए जाओ, बरात नहीं आने वाली.’’

इस फब्ती से प्रथम श्रेणी में डिगरी हासिल करने का गर्व व खुशी मटियामेट हो गई. स्वर्णा ने एक बार फिर अपने आंसू पी लिए.

शिवेन के पी.ए. ने जा कर जब यह छिछोरा व्यंग्य उन्हें सुनाया तो वह भी तिलमिला पड़े पर वह जानते थे कि स्वर्णा उन से कहने नहीं आएगी.

अगली बार वह स्वर्णा के सामने से गुजरे तो अनायास रुक गए और एक अभिभावक की तरह उन्होंने नम्र स्वर में पूछा, ‘‘पास हो गईं?’’

‘‘जी,’’ स्वर्णा ने गरदन नीची किए ही उत्तर दिया.

‘‘मिठाई नहीं खिलाओगी?’’

‘‘जी, पापाजी से कह दूंगी.’’

अगले दिन स्वर्णा मिठाई का कटोरदान ले कर शिवेन की मेज के सामने जा खड़ी हुई तो वह कुछ झेंप से गए.

‘‘अरे, आप…मैं ने तो यों ही कह दिया था.’’

‘‘मैं ने खुद बनाए हैं,’’ स्वर्णा उत्साह से बोली.

शिवेन ने 1 लड्डू उठा लिया और कहा कि बाकी लड्डुओं को अपने सहकर्मियों में बांट दो.

इस के कुछ दिन बाद ही सरकारी आदेश आया कि रात की ड्यूटी के लिए कुछ टेलीफोन आपरेटर रखे जाएंगे जिन्हें तनख्वाह के अलावा अलग से भत्ता मिलेगा. मौजूदा कर्मचारियों को प्राथमिकता दी जाएगी. स्वर्णा ने रात की शिफ्ट में काम करने का मन बनाया तो मिसेज ठाकुर भी उस के साथ हो लीं. तय हुआ कि रात को आते समय दफ्तर के ही सरकारी चौकीदार को कुछ रुपए महीना दे देंगी ताकि वह उन को घर तक छोड़ जाया करेगा. यह सबकुछ इतना गोपनीय ढंग से हुआ कि विभाग में किसी को पता ही नहीं चला.

स्वर्णा को अपनी जगह न देख कर शिवेन ने पूछताछ की तो पता चला कि स्वर्णा और मिसेज ठाकुर ने शाम की शिफ्ट ली है. उस रात जब दोनों ड्यूटी खत्म कर बाहर निकलीं तो जहां उन का रिकशा और चपरासी खड़ा होता था वहां शिवेन अपनी जीप ले कर खुद खड़े थे. दोनों को जीप में बैठने का आदेश दिया और खुद चालक की सीट पर बैठ कर जीप चलाने लगे. पहले स्वर्णा को उस के घर छोड़ा फिर मिसेज ठाकुर जब अकेली रह गईं तो उन्हें आड़े हाथों लिया.

अपनी सफाई में मिसेज ठाकुर ने सारा सच उगल दिया.

‘‘सर, आप समझने की कोशिश कीजिए. दफ्तर के लोगों ने स्वर्णा का जीना दूभर कर दिया था. कौन क्या कहता है आप को शायद इस का आभास नहीं है.’’

‘‘एक कुंआरी लड़की का रात को बाहर अकेले काम पर जाना क्या ठीक है?’’

‘‘नहीं, मगर यहां उसे कोई छेड़ता तो नहीं है. रामदेवजी बाप की तरह उसे स्नेह देते हैं. मैं उस के साथ हूं. रिकशे वाले को मैं पिछले 15 साल से जानती हूं.’’

‘‘अच्छा, आप लोगों को रात के समय घर छोड़ने के लिए कल से आरिफ रोज जीप ले कर आएगा,’’ शिवेन बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में मैं आप लोगों के लिए एक वैन का इंतजाम करा दूंगा.’’

कभीकभी शिवेन विभाग में दौरा करने आते तो स्वर्णा से हालचाल पूछ लेते. धीरेधीरे शिवेन स्वर्णा से इधरउधर की भी बातें करने लगे. मसलन, कौनकौन से लेखक तुम्हें पसंद हैं, कहांकहां घूमी हो, क्याक्या तुम्हारी अभिरुचि है.

स्वर्णा उत्तर देने में झिझकती. मिसेज ठाकुर ने उसे प्यार से समझाया, ‘‘मित्रता बुरी नहीं होती. बातचीत से आत्मविश्वास पनपता है.’’

एक दिन रामदेव ने कहा, ‘‘बेटी, शिवेन को तुम्हारी बड़ी चिंता रहती है,’’ और उस पर गहरी नजर डाल दी.

स्वर्णा संभल गई. अगली बार जब शिवेन उस के पास बैठ कर शहर में लगी फिल्मों की बात करने लगे तो वह झुंझला कर बोली, ‘‘सर, मेरे पास इतना समय नहीं है कि फिल्में देखती फिरूं.’’

उस की इस बेरुखी से शिवेन शर्मिदा हो चुपचाप वहां से हट गए.

स्वर्णा का मन फिर काम में नहीं लगा. अनमनी सी सोचने लगी कि सब तो उस के चेहरे का इतिहास पूछते हैं, फिर सहानुभूति जताते हैं और उस के अंदर की वेदना को जगा कर अपना मनोरंजन करते हैं. लेकिन इस व्यक्ति ने कभी भी उस से वह सबकुछ नहीं पूछा जो और लोग पूछते हैं.

शिवेन फिर दिखाई नहीं दिए. अगर आते भी थे तो रामदेव से औपचारिक पूछताछ कर के चले जाते थे.

उधर स्वर्णा की बेचैनी बढ़ने लगी. हर रोज उस की आंखें बारबार दरवाजे की ओर उठ जातीं. इतने सरल, स्वच्छ इनसान पर उस ने यह कैसा वार किया. क्या बुरा था. दो बातें ही तो वह करते थे. हंसनामुसकराना जुर्म है क्या. वह तो उस के संग हंसते थे न कि उस पर.

अपने ही अंतर्द्वंद्व में उलझी स्वर्णा को जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक दिन बिना किसी को कुछ बताए उस ने एक छोटा सा पत्र लिख कर डाक द्वारा शिवेन को भिजवा दिया.

कई दिनों तक कोई उत्तर नहीं आया. फिर एक पत्र उस के घर के पते पर सरकारी लिफाफे में आया जिस में उसे एक नए पद के साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था.

दिल्ली से आए 3 उच्च अधिकारियों ने उस का साक्षात्कार लिया और वह सहायक प्रबंधक के रूप में चुन ली गई.

शिवेन के सामने वाले कमरे में अब उस की मेज लगा दी गई थी. उसे प्रबंधन व नियंत्रण की सारी जानकारी शिवेन स्वयं देने लगे. वह एक चतुर शिष्या की तरह सब ग्रहण करती गई.

ऊपर से भले ही सबकुछ शांत था पर अंदर ही अंदर इस नई नियुक्ति को ले कर दफ्तर में काफी उथलपुथल थी. आतेजाते किसी ने वही पुराना राग छेड़ दिया, ‘‘यार, नया न सही, 4 बच्चों वाला ही सही.’’

स्वर्णा तिलमिला कर रह गई. घर आने के बाद रोरो कर उस ने अपनी आंखें सुजा लीं.

दशहरे पर शिवेन ने 15 दिन की छुट्टी ली तो उन की गैरमौजूदगी में स्वर्णा बिना किसी सहायता के विभाग सुचारु रूप से चलाती रही.

इसी दौरान एक दिन घर पर शिवेन का फोन आया. दफ्तर के बाबत औपचारिक बातें करने के बाद उसे बाजार की एक बड़ी दुकान के बाहर मिलने को कहा. स्वर्णा ने घर में किसी को कुछ नहीं बताया और मिलने चली गई.

शिवेन ने उस की पसंद से अपनी मां और बहन के लिए कपड़ों की खरीदारी की. फिर दोनों एक रेस्तरां में बैठ कर इधरउधर की बातें करते रहे.

बातों के सिलसिले में ही स्वर्णा पूछ बैठी, ‘‘बच्चों के लिए कुछ नहीं लिया आप ने?’’

‘‘नहीं,’’ शिवेन एकदम खिलखिला कर हंस दिए और बोले, ‘‘किस के बच्चे? मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है.’’

स्वर्णा अविश्वास से बोली, ‘‘दफ्तर में तो सब कहते हैं कि आप 4 बच्चों के बाप हैं.’’

‘‘स्वर्णा, मेरी उम्र 36 साल हो गई है पर मैं कुंआरा हूं. अगर एक 30 साल की स्त्री कुंआरी हो तो लोग कहते हैं कि किसी ने उसे पसंद नहीं किया. मगर एक पुरुष अविवाहित रहे तो जानती हो लोग उस के विषय में क्या सोचते हैं…मैं शादीशुदा हूं यही भ्रम बना रहे तो अच्छा है.’’

शिवेन ने अपना हृदय खोल कर रख दिया था और स्वर्णा जीवन में पहली बार किसी की राजदार बनी थी.

2 दिन बाद शिवेन ने स्वर्णा को अपने साथ सिनेमा देखने के लिए आमंत्रित किया. इस बार भी वह घर से बहाना बना कर शिवेन के साथ चली गई. यद्यपि इस तरह घर वालों से झूठ बोल कर जाने पर उस के मन ने उसे धिक्कारा था मगर इस खतरे में बाजी जीत जाने का स्वाद भी था.

कोई उसे भी चाह रहा था, यह एहसास होते ही उस के सपने अंगड़ाई लेने लगे थे. वह सुबह उठती तो अपनी उनींदी मुसकान उसे समेटनी पड़ती. कहीं कोई कुछ पूछ न ले.

अगली शाम वह उसी दुकान पर गई और अपने लिए सुंदर साडि़यां खरीद लाई. फिर जाने क्या सोच कर अपनी मां के लिए ठीक वैसी ही साड़ी खरीदी जैसी शिवेन की मां के लिए उस ने पसंद की थी.

मां को ला कर साड़ी दी तो वह उदास स्वर में बोलीं, ‘‘क्या मेरी तकदीर में बेटी की कमाई की साड़ी ही लिखी है?’’

‘‘मां, तुम यह क्यों नहीं समझ लेतीं कि मैं तुम्हारा बेटा हूं.’’

स्वर्णा अपनी खुशी में मिसेज ठाकुर को शरीक करने के लिए उन के घर की ओर चल दी. धीरेधीरे उन्हें सबकुछ बता दिया. वह गंभीर हो गईं. समझाते हुए बोलीं, ‘‘स्वर्णा, तुम जवान लड़की हो. आगेपीछे सोच कर कदम उठाना. शिवेन बड़े ओहदे वाला इनसान है. क्या तुम्हें अपनी बिरादरी के सामने स्वीकार करेगा? कहीं ऐसा न हो कि जिस दिन उसे अपनी बिरादरी की कोई अच्छी लड़की मिले तो तुम्हें फटे कपड़े की तरह छोड़ दे. थोड़े दिनों की खुशी के लिए जीवन भर का दुख मोल लेना कहां की समझदारी है? अब अगर शिवेन बुलाए तो मत जाना.’’

अगली बार शिवेन ने फोन पर उसे अपने घर आने के लिए कहा. स्वर्णा ने पहली बार टाल दिया. लेकिन दूसरी बार शिवेन ने फिर बुलाया तो उस ने मिसेज ठाकुर को बताया. सुनते ही वह भड़क उठीं.

‘‘देखा न, घर पर बुला रहा है. इस का इरादा कतई नेक नहीं है, कुछ करना पड़ेगा.’’

‘‘दीदी, अगर मैं नहीं गई तो भी वह बदला निकाल सकते हैं. मेरी नौकरी और पदोन्नति का भी तो खयाल करो. सब उन्हीं की मेहरबानी है. टेलीफोन पर उन की बातों से ऐसा नहीं लगता कि उन का कोई बुरा इरादा होगा. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं क्या न करूं.’’

‘‘ठीक से सोच लो, स्वर्णा. जाना तो तुम्हें कल है.’’

मिसेज ठाकुर के घर से लौटते समय आगे की सोच कर उस का गला सूखा जा रहा था. मन का तनाव उस की नसनस में बह रहा था. अनायास उस ने महसूस किया कि वह नितांत अकेली है. उस के आसपास के सभी व्यक्ति, जो उस पर अधिकार जताते हैं, किसी न किसी डर के अधीन हैं. अपनीअपनी सामाजिकता से बंधे पालतू पशुओं की तरह एक नियत जीवनयापन कर रहे हैं.

दादी को जातबिरादरी का डर, पिताजी को अपने कर्तव्य से गिर जाने का डर, मां को इन दोनों को नाराज करने का डर और इन सब के नीचे, लगभग कुचला हुआ उस का अपना अस्तित्व था.

इन सब के विपरीत उस के मन को एक शिवेन ही तो था जो बादलों तक उड़ा ले जा रहा था.

शिवेन का खयाल आते ही उस का अंगअंग झंकृत हो उठा. सहसा उसे लगा कि वह इतनी हलकी है कि कोई शिला उसे पूरी तरह दबा दे, नहीं तो वह उड़ जाएगी. वह अपने ही हाथपैरों को कस कर समेटे गठरी सी बनी खिड़की के बाहर देखती कब सो गई उसे पता ही न चला.

सुबह आंख खुली तो उस की नजर सामने अलमारी पर पड़ी जिस के एक खाने में उस की दोनों छोटी बहनों के विवाह की तसवीरें रखी थीं. उन के ठीक बीच में एक बंगाली दूल्हादुलहन की जोड़ी रखी थी जो वर्षों पहले उस ने एक मेले से खरीदी थी.

सुबह उस ने अपना फैसला फोन पर मिसेज ठाकुर को सुनाया. वह बोली, ‘‘चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं. तुम आगे जा कर दरवाजा खुलवाना. बाहर ही खड़ी रह कर बात करना. यदि अंदर आने के लिए शिवेन जोर दें तो बताना मैं भी साथ हूं. रिकशे वाला भी हमारा अपना है. यदि जरूरत पड़ी तो शोर मचा देंगे.’’

हिम्मत कर के स्वर्णा शिवेन के घर चल दी. मिसेज ठाकुर भी रिकशे में पीछेपीछे हो लीं. शिवेन का मकान कई गलियों से गुजरने के बाद मिला था.

स्वर्णा ने दरवाजा खटखटाया. अंदर से एक स्त्री कंठ ने कहा, ‘‘कौन है, दरवाजा खुला है, आ जाओ.’’

स्वर्णा ने अपना नाम बताया और दरवाजा जरा सा खोला तो वह पूरा ही खुल गया. सामने आंगन में बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला उसे बुला रही थी.

स्वर्णा ने दरवाजा खुला ही छोड़ दिया क्योंकि उस के ठीक सामने 10 गज की दूरी पर मिसेज ठाकुर उसे अपने रिकशे में बैठेबैठे देख सकती थीं.

‘‘बेटी शेफाली, देखो, स्वर्णा आई है.’’

शेफाली धड़धड़ाती हुई सीढि़यों से उतरी और स्वर्णा को प्रेम से गले लगाया.

‘‘शिबू ने बताया था कि आप आएंगी. वह कोलकाता गया है. परसों आ जाएगा. आइए, बैठिए.’’

शेफाली को देख कर स्वर्णा का मुंह खुला का खुला रह गया, क्योंकि उस का ऊपर का होंठ बीच में से कटा हुआ था. इस के बाद भी शेफाली ने सहज ढंग से उस की खातिर की. मांजी के पास रखे बेंत के मूढ़ों पर दोनों बैठीं बातचीत करती रहीं. नाश्ता किया और फिर शेफाली उसे अपना घर दिखाने के लिए अंदर ले गई. स्वर्णा ने देखा कि शिवेन के कमरे में ढेरों पुस्तकें पड़ी थीं. एक कोने में सितार रखा था.

शेफाली ने बताया, ‘‘शिबू मुझ से 3 साल छोटा है और वह तुम को बेहद पसंद भी करता है. इस से पहले शिवेन ने कभी अपनी शादी की बात नहीं की थी. तुम पहली लड़की हो जो उस के जीवन में आई हो.

‘‘आज से 20 साल पहले जब  पिताजी का देहांत हुआ था तब मैं 19 साल की थी और शिवेन 16 का रहा होगा. इतनी छोटी उम्र में ही उस पर मेरी शादी का बोझ आ पड़ा. मेरा ऊपर का होंठ जन्म से ही विकृत था. विकृति के कारण रिश्तेदारों ने मेरे योग्य जो वर चुने उन में से कोई विधुर था, कोई अपंग. स्वयं अपंग होते हुए भी लोग मुझे देख कर मुंह बना लेते थे.

‘‘एक दिन एक आंख से अपंग व्यक्ति ने जब मुझे नकार दिया तो शिवेन उसे बहुत भलाबुरा कहते हुए बोला कि चायमिठाई खाने आ जाते हैं, अपनी सूरत नहीं देखते.

‘‘इस बात को ले कर हमारे रिश्तेदारों ने हमें बहुत फटकारा. बस, उसी दिन मैं ने शिवेन को बुला कर कह दिया कि बंद करो यह नाटक. मुझे किसी से शादी नहीं करनी है. शिवेन रोते हुए बोला, ‘ऐसा मत सोचिए, दीदी. मैं अपना फर्ज पूरा नहीं करूंगा तो समाज यही कहेगा कि बाप रहता तो बेटी कुंआरी तो न बैठी रहती,’’’ शेफाली स्वर्णा को बता रही थी.

‘‘ ‘बाबा मेरी शादी करवा सकते थे क्या?’’ क्या उन के पास देने के लिए लाखों रुपए का दहेज था?’ मैं ने शिवेन से पूछा, ‘अभी तू छोटा है तभी फर्ज की बात कर रहा है. कल को जब तू शादी लायक होगा तो क्या तू मेरी जैसी लड़की से शादी कर लेगा? दूसरों को क्यों लज्जित करता है?’

‘‘बस, उसी दिन से उस ने शपथ ले ली कि विकृत चेहरे वाली लड़की से ही शादी करूंगा.’’

थोड़ा रुक कर शेफाली फिर बोली, ‘‘स्वर्णा, जिस दिन पहली बार उस ने तुम्हें देखा था उसी दिन शिबू ने तुम से शादी के लिए अपना मन बना लिया था. इस पर तुम इतनी गुणी निकलीं. अब तुम्हारी बारी है. घरबार भी तुम ने देख लिया है. बोलो, क्या कहती हो?’’

स्वर्णा ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया. उस की रुलाई फूट पड़ी. शेफाली ने उसे गले से लगाया. स्वर्णा चुपचाप उठी, साड़ी का पल्लू पीछे से खींच कर सर ढक लिया और घुटनों के बल बैठ कर मांजी के पांव छुए.

स्वर्णा जाते समय धीरे से शेफाली से बोली, ‘‘आज से चौथे दिन मैं आप सब का अपने घर पर इंतजार करूंगी.’’

उसके हिस्से की जूठन : आखिर क्यों कुमुद का प्यार घृणा में बदल गया

इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

डाक्टर हैपिटाइटिस ‘ए’ और ‘बी’ में दी जाने वाली दवाइयां और इंजेक्शन ही ‘सी’ के लिए रिपीट करते. जब तक दवाइयां चलतीं वायरस का बढ़ना रुक जाता और जहां दवाइयां हटीं, वायरस तेजी से बढ़ने लगता. दवाइयों के साइड इफैक्ट होते. कभी शरीर पानी भरने से फूल जाता, कभी उलटियां लग जातीं, कभी खूब तेज बुखार चढ़ता, शरीर में खुजली हो जाती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, सांस उखड़ने लगती और कुमुद डाक्टर तक दौड़ जाती.

पिछले डेढ़ साल से कुमुद जीना भूल गई, स्वयं को भूल गई. उसे याद है केवल निखिल और उस की बीमारी. लाख रुपए महीना दवाइयों और टैस्टों पर खर्च कर जब साल भर बाद उस ने खुद को टटोला तो बैंक बैलेंस आधे से अधिक खाली हो चुका था. कुमुद ने तो लिवर ट्रांसप्लांट का भी मन बनाया. डाक्टर से सलाह ली. खर्चे की सुन कर पांव तले जमीन निकल गई. इस के बाद भी मरीज के बचने के 20 प्रतिशत चांसेज. यदि बच गया तो बाद की दवाइयों का खर्चा. पहले लिवर की व्यवस्था करनी है.

सिर थाम कर बैठ गई कुमुद. पापा से धड़कते दिल से जिक्र किया तो सुन कर वह भी सोच में पड़ गए. फिर समझाने लगे, ‘‘बेटा, इतना खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया तो तू और बच्चे किस ठौर बैठेंगे. आज की ही नहीं कल की भी सोच.’’

‘‘पर पापा, निखिल ऐसे भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे हैं. कितनी यातना सह रहे हैं. मैं क्या करूं?’’ रो दी कुमुद.

‘‘धैर्य रख बेटी. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि तलाश जारी रखनी चाहिए. तू तानी के बारे में सोच. उस का एम.बी.ए. का प्रथम वर्ष है और मनु का इंटर. बेटी इन के जीवन के सपने मत तोड़. मैं ने यहां एक डाक्टर से बात की है. ऐसे मरीज 8-10 साल भी खींच जाते हैं. तब तक बच्चे किसी लायक हो जाएंगे.’’

सुनने और सोचने के अलावा कुमुद के पास कुछ भी नहीं बचा था. निखिल जहां जरा से संभलते कि शोरूम चले जाते हैं. नौकर और मैनेजर के सहारे कैसे काम चले? न तानी को फुर्सत है और न मनु को कि शोरूम की तरफ झांक आएं. स्वयं कुमुद एक पैर पर नाच रही है. आय कम होती जा रही है. इलाज शुरू करने से पहले ही डाक्टर ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि यदि आप 15-20 लाख खर्च करने की शक्ति रखते हैं तभी इलाज शुरू करें.

असहाय निखिल सब देख रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि कुमुद की मुश्किलें आसान हो सकें. पर मुश्किलें आसान कहां हो पा रही हैं. वह स्वयं जानते हैं कि लिवर कैंसर एक दिन साथ ले कर ही जाएगा. बस, वह भी वक्त को धक्का दे रहे हैं. उन्हें भी चिंता है कि उन के बाद परिवार का क्या होगा? अकेले कुमुद क्याक्या संभालेगी?

इस बार निखिल ने मन बना लिया है कि मनु बोर्ड की परीक्षाएं दे ले, फिर शो- रूम संभाले. उन के इस निश्चय पर कुमुद अभी चुप है. वह निर्णय नहीं कर पा रही कि क्या करना चाहिए.

अभी पिछले दिनों निखिल को नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. खून की उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं. डाक्टर ने एंडोस्कोपी की और लिवर के सिस्ट बांधे, तब कहीं ब्लीडिंग रुक पाई. 50 हजार पहले जमा कराने पड़े. कुमुद ने देखा, अब तो पास- बुक में महज इतने ही रुपए बचे हैं कि महीने भर का घर खर्च चल सके. अभी तो दवाइयों के लिए पैसे चाहिए. निखिल को बिना बताए सर्राफा बाजार जा कर अपने कुछ जेवर बेच आई. निखिल पूछते रहे कि तुम खर्च कैसे चला रही हो, पैसे कहां से आए, पर कुमुद ने कुछ नहीं बताया.

‘‘जब तक चला सकती हूं चलाने दो. मेरी हिम्मत मत तोड़ो, निखिल.’’

‘‘देख रहा हूं तुम्हें. अब सारे निर्णय आप लेने लगी हो.’’

‘‘तुम्हें टेंस कर के और बीमार नहीं करना चाहती.’’

‘‘लेकिन मेरे अलावा भी तो कुछ सोचो.’’

‘‘नहीं, इस समय पहली सोच तुम हो, निखिल.’’

‘‘तुम आत्महत्या कर रही हो, कुमुद.’’

‘‘ऐसा ही सही, निखिल. यदि मेरी आत्महत्या से तुम्हें जीवन मिलता है तो मुझे स्वीकार है,’’ कह कर कुमुद ने आंखें पोंछ लीं.

निखिल ने चाहा कुमुद को खींच कर छाती से लगा ले, लेकिन आगे बढ़ते हाथ रुक गए. पिछले एक साल से वह कुमुद को छूने को भी तरस गया है. डाक्टर ने उसे मना किया है. उस के शरीर पर पिछले एक सप्ताह से दवाई के रिएक्शन के कारण फुंसियां निकल आई हैं. वह चाह कर भी कुमुद को नहीं छू सकता.

एक नादानी की इतनी बड़ी सजा बिना कुमुद को बताए निखिल भोग रहा है. क्या बताए कुमुद को कि उस ने किन्हीं कमजोर पलों में प्रवीन के साथ होटल में एक रात किसी अन्य युवती के साथ गुजारी थी और वहीं से…कुमुद के साथ विश्वासघात किया, उस के प्यार के भरोसे को तोड़ दिया. किस मुंह से बीते पलों की दास्तां कुमुद से कहे. कुमुद मर जाएगी. मर तो अब भी रही है, फिर शायद उस की शक्ल भी न देखे.

डाक्टर ने कुमुद को भी सख्त हिदायत दी है कि बिना दस्ताने पहने निखिल का कोई काम न करे. उस के बलगम, थूक, पसीना या खून की बूंदें उसे या बच्चों को न छुएं. बिस्तर, कपड़े सब अलग रखें.

निखिल का टायलेट भी अलग है. कुमुद निखिल के कपड़े सब से अलग धोती है. बिस्तर भी अलग है, यानी अपना सबकुछ और इतना करीब निखिल आज अछूतों की तरह दूर है. जैसे कुमुद का मन तड़पता है वैसे ही निखिल भी कुमुद की ओर देख कर आंखें भर लाता है.

नियति ने उन्हें नदी के दो किनारों की तरह अलग कर दिया है. दोनों एकदूसरे को देख सकते हैं पर छू नहीं सकते. दोनों के बिस्तर अलगअलग हुए भी एक साल हो गया.

कुमुद क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि हंसतेखेलते घर में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा. कुछ समय से निखिल के पैरों पर सूजन आ रही थी, आंखों में पीलापन नजर आ रहा था. तबीयत भी गिरीगिरी रहती थी. कुमुद की जिद पर ही निखिल डाक्टर के यहां गया था. पीलिया का अंदेशा था. डाक्टर ने टैस्ट क्या कराए भूचाल आ गया. अब खोज हुई कि हैपिटाइटिस ‘सी’ का वायरस आया कहां से? डाक्टर का कहना था कि संक्रमित खून से या यूज्ड सीरिंज से वायरस ब्लड में आ जाता है.

पता चला कि विवाह से पहले निखिल का एक्सीडेंट हुआ था और खून चढ़ाना पड़ा था. शायद यह वायरस वहीं से आया, लेकिन यह सुन कर निखिल के बड़े भैया भड़क उठे थे, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? खून रेडक्रास सोसाइटी से मैं खुद लाया था.’’

लेकिन उन की बात को एक सिरे से खारिज कर दिया गया और सब ने मान लिया कि खून से ही वायरस शरीर में आया.

सब ने मान लिया पर कुमुद का मन नहीं माना कि 20 साल तक वायरस ने अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाया.

‘‘वायरस आ तो गया पर निष्क्रिय पड़ा रहा,’’ डाक्टर का कहना था.

‘‘ठीक कहते हैं डाक्टर आप. तभी वायरस ने मुझे नहीं छुआ.’’

‘‘यह आप का सौभाग्य है कुमुदजी, वरना यह बीमारी पति से पत्नी और पत्नी से बच्चों में फैलती ही है.’’

कुमुद को लगा डाक्टर ठीक कह रहा है. सब इस जानलेवा बीमारी से बचे हैं, यही क्या कम है, लेकिन 10 साल पहले निखिल ने अपना खून बड़े भैया के बेटे हार्दिक को दिया था जो 3 साल पहले ही विदेश गया है और उस के विदेश जाने से पहले सारे टैस्ट हुए थे, वायरस वहां भी नहीं था.

न चाहते हुए भी कुमुद जब भी खाली होती, विचार आ कर घेर लेते हैं. नए सिरे से विश्लेषण करने लगती है. आज अचानक उस के चिंतन को नई दिशा मिली. यदि पति पत्नी को यौन संबंधों द्वारा वायरस दे सकता है तो वह भी किसी से यौन संबंध बना कर ला सकता है. क्या निखिल भी किसी अन्य से…

दिमाग घूम गया कुमुद का. एकएक बात उस के सामने नाच उठी. बड़े भैया का विश्वासपूर्वक यह कहना कि खून संक्रमित नहीं था, उन के बेटे व उन सब के टैस्ट नेगेटिव आने, यानी वायरस ब्लड से नहीं आया. यह अभी कुछ दिन पहले ही आया है. निखिल पर उसे अपने से भी ज्यादा विश्वास था और उस ने उसी से विश्वासघात किया.

कुमुद ने फौरन डाक्टर को फोन मिलाया, ‘‘डाक्टर, आप ने यह कह कर मेरा टैस्ट कराया था कि हैपिटाइटिस ‘सी’ मुझे भी हो सकता है और आप 80 प्रतिशत अपने विचार से सहमत थे. अब उसी 80 प्रतिशत का वास्ता दे कर आप से पूछती हूं कि यदि एक पति अपनी पत्नी को यह वायरस दे सकता है तो स्वयं भी अन्य महिला से यौन संबंध बना कर यह बीमारी ला सकता है.’’

‘‘हां, ऐसा संभव है कुमुदजी और इसीलिए 20 प्रतिशत मैं ने छोड़ दिए थे.’’

कुमुद ने फोन रख दिया. वह कटे पेड़ सी गिर पड़ी. निखिल, तुम ने इतना बड़ा छल क्यों किया? मैं किसी की जूठन को अपने भाल पर सजाए रही. एक पल में ही उस के विचार बदल गए. निखिल के प्रति सहानुभूति और प्यार घृणा और उपेक्षा में बदल गए.

मन हुआ निखिल को इसी हाल में छोड़ कर भाग जाए. अपने कर्मों की सजा आप पाए. जिए या मरे, वह क्यों तिलतिल कर जले? जीवन का सारा खेल भावनाओं का खेल है. भावनाएं ही खत्म हो जाएं तो जीवन मरुस्थल बन जाता है. अपना यह मरुस्थली जीवन किसे दिखाए कुमुद. एक चिंगारी सी जली और बुझ गई. निखिल उसे पुकार रहा था, पर कुमुद कहां सुन पा रही थी. वह तो दोनों हाथ खुल कर लुटी, निखिल ने भी और भावनाओं ने भी.

निखिल के इतने करीब हो कर भी कभी उस ने अपना मन नहीं खोला. एक बार भी अपनी करनी पर पश्चात्ताप नहीं हुआ. आखिर निखिल ने कैसे समझ लिया कि कुमुद हमेशा मूर्ख बनी रहेगी, केवल उसी के लिए लुटती रहेगी? आखिर कब तक? जवाब देना होगा निखिल को. क्यों किया उस ने ऐसा? क्या कमी देखी कुमुद में? क्या कुमुद अब निखिल का साथ छोड़ कर अपने लिए कोई और निखिल तलाश ले? निखिल तो अब उस के किसी काम का रहा नहीं.

घिन हो आई कुमुद को यह सोच कर कि एक झूठे आदमी को अपना समझ अपने हिस्से की जूठन समेटती आई. उस की तपस्या को ग्रहण लग गया. निखिल को आज उस के सवाल का जवाब देना ही होगा.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, निखिल? मैं सब जान चुकी हूं.’’

और निखिल असहाय सा कुमुद को देखने लगा. उस के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था.

एक प्याला चाय : किस बात को अन्याय मानती थी मनीषा?

दफ्तर से आते ही मनीषा ने पर्स मेज पर रखा और स्नानघर में घुस गई. जातेजाते उस ने शयनकक्ष में उड़ती नजर डाली. वहां अपने पति अभिनव को किसी पुस्तक को पढ़ने में लीन पा कर वह आश्वस्त हुई. स्नानघर में से निकल कर वह रोज की तरह चाय बनाने को रसोई की ओर बढ़ी. किंतु चाय की ट्रे लिए अभिनव को आते देख उस का माथा ठनका. ठिठक कर उस ने पूछा, ‘‘तुम ने चाय क्यों बनाई?’’

‘‘बना ली,’’ लापरवाही भरे स्वर में अभिनव ने उत्तर दिया.

असमंजस की मुद्रा में कुछ देर खड़ी रह कर मनीषा ने कदम बढ़ाए. वह अभिनव के पीछे हो ली. उस की समझ में नहीं आया कि इन्होंने चाय आज क्यों बनाई. यह प्रश्न जब उसे फांस की तरह चुभने लगा तो उस ने शयनकक्ष में पहुंचने के पूर्व ही पूछ लिया, ‘‘ऐसी क्या जल्दी हो गई थी आज? आज तो मैं रोज से जल्दी आई हूं.’’

‘‘हां,’’ अभिनव ने मेज पर चाय की ट्रे रखते हुए कहा.

इस ‘हां’ से मनीषा को संतोष न हुआ, ‘‘सिर दुख रहा था क्या?’’

‘‘नहीं तो,’’ अभिनव ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘तो?’’

‘‘तो क्या?’’

‘‘तुम ने चाय क्यों बनाई?’’

‘‘यों ही बना ली.’’

‘‘यों ही बना ली?’’

‘‘हां, मन हो गया. सोचा कि तुम्हारी थोड़ी मदद कर दूं.’’

मदद वाली बात मनीषा को अच्छी न लगी क्योंकि अभिनव ने जब कभी भी ऐसी मदद के लिए हाथ बढ़ाया था, उस ने विनम्रतापूर्वक उसे रोक दिया था. साफ कह दिया था कि मुझे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं है. पिछले 3 माह से अभिनव एक केस में फंस जाने के चलते नौकरी से मुअत्तल हो कर बैठा था. इस स्थिति में बेकार होने के कारण वह मनीषा का हाथ बंटाने को उत्सुक रहता था. किंतु मनीषा ने उसे ऐसी अनुमति कभी नहीं दी थी. स्पष्ट कहती रही थी कि हाथ बंटा कर मुझे लज्जित न करो.

अभिनव ने उसे बारबार समझाने का प्रयास किया था, ‘इस में लज्जित होने की क्या बात है? जब मैं कुछ नहीं कर रहा हूं, दिनरात घर में ही बैठा रहता हूं. ऐसे में हाथ बंटाने से मन बहलता है.’

किंतु मनीषा ने उस की एक न सुनी थी. उस की तो बस यही रट थी कि यह मुझे अच्छा नहीं लगता. मेरा काम मुझे ही करने दो.

पिछले कुछ दिनों से मनीषा को लग रहा था कि अभिनव जैसे अपराधबोध की भावना से ग्रस्त हो रहा है. मनीषा के नौकरी करने एवं उस के घर में बैठने से यह ग्रंथि उस के मन में निर्मित हो रही थी इसीलिए वह घर के छोटेमोटे कामों को करने लगा था. बच्चों को बस स्टैंड तक छोड़ना, बाजार से सौदा, सब्जी लाना, आटा पिसवाना आदि काम वह बिना कहे ही करने लगा था. इन कामों की ओर उस ने पहले कभी इतना ध्यान नहीं दिया था. वह अपने दफ्तर के काम में ही व्यस्त रहता था. अब तो वह घर के कामों की राह ही देखता रहता था. मनीषा मना करती थी तब भी वह कई काम कर ही डालता था. यह चाय भी मनीषा को इसी प्रयास की एक कड़ी सी लगी थी. इसीलिए वह उद्वेलित हो उठी थी. उसे यही बात कचोट रही थी कि अभिनव अपराधबोध से क्यों ग्रस्त हो रहा है? वह घर में विवशता में बैठा है. इस में उस का क्या दोष है?

वह नौकरी कर के अभिनव पर कोई एहसान नहीं कर रही है. संयोग से उसे नौकरी मिल गई तो वह करने लगी. टाइपिंग का ज्ञान एवं अनुभव इस कठिन समय में काम आ गया. इसी के बोझ से अभिनव दबने लगा, घर के काम में हाथ बंटाने लगा. घर के सब काम तो वह विवाह के बाद से करती ही रही है. यह तो उस की आदत में है. नौकरी करने या न करने से कोई अंतर नहीं पड़ता है. अभिनव इस बात को समझता क्यों नहीं? व्यर्थ की गं्रथि मन में क्यों पाल रहा है? इसी बात का उत्तर पाने के लिए मनीषा ने अभिनव को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया. वह उलाहना देते हुए बोली, ‘‘तुम से कितनी बार कहा कि घर के कामों में मुझे तुम्हारी मदद की बिलकुल आवश्यकता नहीं है.’’

प्याले में चम्मच हिलाते हुए अभिनव मुसकराते हुए बोला, ‘‘मगर मुझे तो लगता है कि तुम्हें मेरी मदद की आवश्यकता है.’’

‘‘ऐसा क्यों लगता है?’’

‘‘क्योंकि तुम दोहरा काम कर रही हो और मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं. इसलिए कुछ तो मुझे करना ही चाहिए.’’

‘‘तुम भले ही और कोई सा भी काम करो मगर मेरा काम मत करो.’’

‘‘क्यों न करूं?’’

‘‘क्योंकि यह मेरा काम है, केवल मेरा. याद है, एक बार तुम्हें रोटी बनाते देख हमारी गुडि़या ने क्या कहा था?’’

‘‘याद है. वह नटखट बोली थी कि पिताजी, आप अब मां हो गए.’’

‘‘फिर भी तुम मेरी मदद करने को उतावले रहते हो?’’

‘‘हां, क्योंकि मैं तुम्हारे साथ न्याय करना चाहता हूं.’’

‘‘यह न्याय नहीं, अन्याय है.’’

‘‘अन्याय?’’

‘‘हां.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो, मनीषा? तुम्हारी ‘महिला मुक्ति आंदोलन’ वालियां तो पुरुषों को इस तरह झुकाना चाहती हैं, और तुम इसे अन्याय कह रही हो?’’

अपने हाथ का प्याला वापस ट्रे में रखते हुए मनीषा ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मैं उन में से नहीं हूं. मैं तो परंपरागत भारतीय नारी हूं. मैं अपने मन के सिंहासन से तुम्हें नीचे उतरने नहीं दूंगी.’’

चाय की चुसकी लेते हुए अभिनव ने कहा, ‘‘अच्छा, चाय तो पियो, बातें बाद में होंगी.’’

मनीषा ने अभिनव के पास बैठते हुए कहा, ‘‘नहीं, इस बात का फैसला आज ही हो जाने दो. यह रोजरोज की माथापच्ची मुझे पसंद नहीं.’’

चाय का प्याला मनीषा की ओर बढ़ाते हुए अभिनव बोला, ‘‘अच्छा बाबा, फैसला कर लेंगे.’’

चाय का प्याला हाथ में लेते हुए मनीषा बोली, ‘‘चाय पीने को मन नहीं हो रहा.’’

‘‘क्यों भला, मैं ने बनाई है इसलिए?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो इस में कौन सा गजब हो गया?’’

‘‘गजब हुआ है, तभी तो झगड़ रही हूं. बोलो, जवाब दो, तुम मेरे मन के सिंहासन से यों नीचे क्यों उतरे?’’

‘‘कहां उतरा?’’

‘‘उतरे हो. तुम ने मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचाई है.’’

‘‘बाप रे, एक प्याला चाय बनाने में ठेस पहुंच गई?’’

‘‘हां, यह मात्र चाय नहीं है, दूसरी दिशा में बढ़ाया गया कदम है.’’

अभिनव ने ठठा कर हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, तुम ने तो एक प्याला चाय में जाने क्याक्या अर्थ ढूंढ़ लिया.’’

चाय की चुसकियां लेते हुए मनीषा ने पूछा, ‘‘कोई गलत अर्थ लगाया क्या?’’

‘‘नहीं, अर्थ तो सही है,’’ अपने प्याले में फिर से चाय डालते हुए अभिनव ने उत्तर दिया.

‘‘बस, तो वादा करो कि भविष्य में इस राह पर कदम नहीं बढ़ाओगे.’’

‘‘नहीं, मनीषा, मैं ऐसा वादा नहीं करूंगा.’’

‘‘क्यों नहीं करोगे?’’

‘‘क्योंकि वक्त का यही तकाजा है.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘देखो, तुम जब पुरुष की तरह नौकरी करते हुए घर का सारा बोझ उठाने लगीं तो मुझ निठल्ले को अब घर में स्त्री की भूमिका निभानी ही चाहिए, यही न्यायोचित है. इस में कोई लज्जा की बात नहीं है. इसलिए घर का सारा काम अब मुझे करने दो. बचपन से परिवार से दूर अकेला रहने के कारण मुझे इन सारे कामों का अच्छा अनुभव है.’’

‘‘जानती हूं.’’

‘‘बस, तो मेरे इस कदम का और कोई अर्थ मत लगाओ.’’

‘‘अर्थ भले ही न लगाऊं, मगर…?’’

‘‘मगर क्या?’’

‘‘अपने मन के सिंहासन पर से उतरते हुए तुम्हें कैसे देखूं?’’

‘‘घर का काम करने से कोई क्या मन के सिंहासन से उतर जाता है?’’

‘‘हां, अभिनव, हां, तुम्हें अपने मन की व्यथा कैसे समझाऊं?’’

‘‘तुम थोड़ी पगली हो.’’

पगली ही सही, मगर तुम्हें मेरी बात रखनी होगी.’’

‘‘व्यर्थ की बातें मत करो, मनीषा.’’

‘‘ये व्यर्थ की बातें नहीं हैं. मेरे मन की व्यथा है. मेरा हित चाहते हो तो यथावत स्थिति रहने दो. मेरी यह विनती स्वीकार कर लो. मेरे नाथ, तुम मेरे मन के सिंहासन पर डटे रहो.’’

भौचक्का सा अभिनव अपनी जीवनसंगिनी को देखने लगा.

मनीषा ने अभिनव के चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ते हुए मोहक मुद्रा में कहा, ‘‘ये आंखें फाड़फाड़ कर मुझे क्यों देख रहे हो? पहले कभी नहीं देखा क्या?’’

‘‘देखा, खूब देखा, मगर आज तुम्हारे भीतर की अनोखी नारी के दर्शन हुए,’’ कहते हुए अभिनव ने मनीषा को बांहों में भर लिया.

गहरी नजर : मोहन को समझ आई आशु की अहमियत

इंसपेक्टर मोहन देशपांडे अदालत से बाहर निकल रहे थे तो उन के साथ चल रही आशु हाथ हिलाहिला कर कह रही थी, ‘‘मैं बिलकुल नहीं मान सकती. भले ही अदालत ने उसे बेगुनाह मान कर बाइज्जत बरी कर दिया है, लेकिन मेरी नजरों में जनार्दन हत्यारा है. वही पत्नी का कातिल है. यह दुर्घटना नहीं, बल्कि जानबूझ कर किया गया कत्ल था और इसे अचानक हुई दुर्घटना का रूप दे दिया गया था.’’

‘‘लेकिन शक की कोई वजह तो होनी चाहिए,’’ मोहन देशपांडे ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘‘हम ख्वाहमख्वाह किसी पर आरोप तो नहीं लगा सकते. अदालत ठोस सबूत मांगती है, सिर्फ हवा में तीर चलाने से काम नहीं चलता.’’

‘‘जनार्दन ने अपनी पत्नी का कत्ल किया है. यह सच है.’’ आशु ने चलते हुए मुंह फेर कर कहा, ‘‘इस में शक की जरा भी गुंजाइश नहीं है.’’

‘‘अच्छा, अब इस बात को छोड़ो और कोई दूसरी बात करो.’’ मोहन ने कहा, ‘‘कई अदालत उसे रिहा कर चुकी है.’’

‘‘मेरी बात मानो,’’ आशु ने कहा, ‘‘जनार्दन को भागने मत दो. वह वाकई मुजरिम है. अगर वह हाथ से निकल गया तो तुम सारी जिंदगी पछताते रहोगे.’’

‘‘आखिर तुम मेरा मूड क्यों खराब कर रही हो?’’ इंसपेक्टर मोहन ने नाराज होते हुए कहा, ‘‘मैं ने सोचा था कि अदालत से फुरसत पाते ही हम कहीं घूमनेफिरने चलेंगे, जबकि तुम फिर जनार्दन आगरकर का किस्सा ले बैठीं. मुझे लगता है, इस घटना ने तुम्हारे दिलोदिमाग पर गहरा असर डाला है?’’

‘‘हां, शायद तुम ठीक कह रहे हो,’’  आशु ने कहा.

उस समय उस की नजरें एक ऐसे आदमी पर जमी थीं, जो लिफ्ट से बाहर निकल रहा था. वही जनार्दन आगरकर था. मोहन देशपांडे भी उसे ही देख रहा था. आशु तेजी से उस की ओर बढ़ते हुए बोली, ‘‘मोहन, तुम यहीं रुको, मैं अभी आई.’’

मोहन ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन वह रुकी नहीं. जनार्दन आगरकर मध्यम कद का दुबलापतला आदमी था. लेकिन चेहरेमोहरे से वह अपराधी लग रहा था. उस का एयरकंडीशनर के स्पेयर पार्ट्स सप्लाई का काम था. 15 दिनों पहले उस की पत्नी पहाड़ की चोटी से गहरे खड्ड में गिर कर मर गई थी. उस समय वह उस की तसवीर खींच रहा था. उस की पत्नी सुस्त और काहिल औरत थी, सोने की दवा लेने की वजह से हमेशा नींद में रहती थी.

जनार्दन पहाड़ की उस चोटी पर उसे घुमाने ले गया था, ताकि उस की तबीयत में कुछ सुधर हो सके और वह नींद की स्थिति से मुक्त हो सके. उस पहाड़ के पीछे बर्फ से ढकी चोटियां दिख रही थीं. जनार्दन ने पत्नी से फोटो खींचने के लिए कहा. वह फोटो खींच रहा था, तभी न जाने कैसे उस की पत्नी का पैर फिसल गया और वह 50 फुट नीचे गहरी खाई में जा गिरी.

जनार्दन आगरकर के लिफ्ट से बाहर आते ही आशु ने उसे घेर लिया. दोनों में बातें होने लगीं. आशु उस से जोश में हाथ हिलाहिला कर बातें कर रही थी. जबकि जनार्दन शांति से बातें कर रहा था. वह आशु के हर सवाल का जवाब मुसकराते हुए दे रहा था.

इस बीच इंसपेक्टर मोहन देशपांडे का मन कर रहा था कि वह उस आदमी का मुंह तोड़ दे. क्योंकि उसे भी पता था इसी ने पत्नी का कत्ल किया था. लेकिन कोई सबूत न होने की वजह से वह बाइज्जत बरी हो गया था. जनार्दन चला गया तो आशु इंसपेक्टर मोहन के पास आ गई. इसंपेक्टर मोहन ने पूछा, ‘‘क्या बात है, तुम जनार्दन के पास क्यों गई थीं?’’

आशु ने जवाब देने के बजाए होंठों पर अंगुली रख कर चुप रहने का इशारा किया. इस के बाद फुसफुसाते हुए बोली, ‘‘हमें जनार्दन का पीछा करना होगा. ध्यान रखना, वह निकल न जाए. समय बहुत कम है, इसलिए जल्दी करो. मैं रास्ते में तुम्हें सब बता दूंगी.’’

आशु सिर घुमा कर इधरउधर देख रही थी. अचानक उस ने कहा, ‘‘वह रहा, वह उस लाल कार से जा रहा है, जल्दी करो.’’

उन की गाड़ी लाल कार का पीछा करने लगी. जनार्दन की कार पर नजरें गड़ाए हुए मोहन ने पूछा, ‘‘आखिर इस की क्या जरूरत पड़ गई तुम्हें?’’

‘‘देखो मोहन, जनार्दन समझ रहा है कि अदालत ने उसे रिहा कर दिया है. इस का मतलब मामला खत्म. जबकि मेरे हिसाब से उस का मामला अभी खत्म नहीं हुआ है. अब हमें उस से असली बात मालूम करनी है.’’ आशु ने कहा.

‘‘तुम ने जनार्दन आगरकर से क्या बातें की थीं?’’

‘‘मैं ने कहा था कि मैं उस की अदाकारी की कायल हूं. अदालत के कटघरे में उस ने जिस मासूमियत का प्रदर्शन किया, वह वाकई तारीफ के काबिल था. मैं ने उस के आत्मविश्वास की तारीफ की तो उस ने मुझे रायल क्लब चलने को कहा.’’

‘‘तो क्या तुम उस के साथ वहां जाओगी? यह अच्छी बात नहीं है.’’ मोहन ने कहा.

‘‘मैं क्लब में उसे खूब शराब पिला कर उस से सच उगलवाना चाहती हूं.’’ आशु ने इत्मीनान के साथ कहा.

‘‘लेकिन मैं तुम्हें इस तरह का फालतू काम करने की इजाजत नहीं दूंगा.’’ मोहन ने नाराज हो कर कहा.

‘‘अच्छा, इस बात को छोड़ो और ड्राइविंग पर ध्यान दो. जनार्दन आगरकर की कार दाईं ओर घूम रही है. उसे नजर से ओझल मत होने देना, वरना जिंदगी भर पछताओगे.’’

‘‘आखिर तुम्हारे दिमाग में चल क्या रहा है? जनार्दन आगरकर की रिहाई के बाद भी तुम उस का पीछा क्यों कर रही हो?’’ मोहन ने जनार्दन की कार पर नजरें जमाए हुए पूछा.

‘‘देखो मोहन,’’ आशु ने गंभीरता से कहा, ‘‘अदालत में जनार्दन ने खुद को इस तरह दिखाया था, जैसे वह बहुत दुखी है, लेकिन उस की आंखें भेडि़ए जैसी चमक रही थीं. उस के अंदाज में काफी सुकून लग रह था, जैसे वह पत्नी को खत्म कर के बहुत खुश हो. उस के भावनाओं का अंदाजा एक औरत ही लगा सकती है और मैं ने उस के दोगलेपन को अच्छी तह महसूस किया है.

‘‘अपनी तसल्ली के लिए ही मैं उस से बात करने गई थी. उस की बातों से मैं ने अंदाजा लगा लिया कि यह आदमी बहुत ही चालाक और दगाबाज है. उस ने पत्नी को धक्का दे कर मारा है.’’

‘‘अच्छा तो तुम ने इस हद तक महसूस कर लिया?’’ मोहन ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हें तो सीबीआई में होना चाहिए था.’’

जनार्दन की कार दाईं ओर घूमी तो आशु ने कहा, ‘‘अब यह कहां जा रहा है?’’

‘‘अपने घर… आगे इसी इलाके में वह रहता है.’’ मोहन ने कहा.

 

जर्नादन ने अदालत में माना था कि उस के अपनी पत्नी से अच्छे संबंध नहीं थे. दोनों में अकसर कहासुनी होती रहती थी. यह बात जनार्दन के पड़ोसियों ने भी बताई थी. आशु ने कहा, ‘‘जनार्दन ने अदालत में कहा था कि वह अपनी पत्नी को घुमाने के लिए पहाड़ों की उस चोटी पर ले गया था. कैमरा भी साथ ले गया था, इसलिए वहां एक सुंदर चट््टान पर उस ने पत्नी को खड़ा कर दिया, ताकि उस की यादगार तसवीर खींच सके.

‘‘इधर उस ने तसवीर खींची और उधर उस की पत्नी का पैर चट्टान से फिसल गया. जनार्दन ने उस समय की खींची हुई तसवीर भी अदालत में पेश की थी. सवाल यह है कि उस ने वह तसवीर सबूत के लिए अदालत में क्यों पेश की, उस की क्या जरूरत थी?’’

‘‘हां, यह बात तो वाकई गौर करने वाली थी,’’ मोहन ने कहा, ‘‘इस का मतलब यह है कि इस के पीछे कोई चक्कर था.’’

‘‘काश! वह तसवीर मैं देख पाती,’’ आशु ने कहा, ‘‘उस तसवीर से कोई न कोई सुराग जरूर मिल सकता है.’’

‘‘तसवीर देखनी है? वह तो मेरे पास है.’’ कह कर मोहन ने अपनी जेब से पर्स निकाला और उस में से एक तसवीर निकाल कर आशु की तरफ बढ़ा दी.

आशु ने तसवीर ले कर उसे गौर से देखते हुए कहा, ‘‘चलो, इस से एक बात तो साबित हो गई कि तुम इस फैसले से संतुष्ट नहीं हो. तभी तो यह तसवीर साथ लिए घूम रहे हो. तुम्हारी नजरों में भी जनार्दन खूनी है.’’

‘‘हां आशु, कई चीजें ऐसी थीं कि जिन्होंने मुझे उलझन में डाल दिया था.’’

तसवीर को देखते हुए आशु बोली, ‘‘कितनी प्यारी औरत थी. शायद जनार्दन ने उसे इंश्योरेंस के लालच में मार डाला है या फिर किसी दूसरी औरत का चक्कर हो सकता है. लेकिन मुझे लग रहा है कि यह तसवीर दुर्घटना वाले दिन की नहीं है. यह तसवीर पहले की उस समय की है, जब पतिपत्नी में अच्छे संबंध थे. इस में जनार्दन की पत्नी बहुत खुश दिखाई दे रही है, जो इस बात का सबूत है कि यह तसवीर अच्छे दिनों की है.’’

‘‘तुम्हारे विचार से जनार्दन ने पत्नी को कैसे मारा होगा?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘जनार्दन ने पत्नी को घर पर मारा होगा या फिर कार में.’’ आशु ने कहा, ‘‘संभव है, जनार्दन उसे जान से न मारना चाहता रहा हो, लेकिन वार जोरदार पड़ गया हो, जिस से वह मर गई हो. इस के बाद जनार्दन ने एक पुरानी तसवीर निकाली, जिस में वह पहाड़ की चोटी पर खड़ी मुसकरा रही थी. उस के बारे में उस ने यह कहानी बना दी. पत्नी की लाश को ले जा कर पहाड़ की चोटी से नीचे खड्ड में गिरा दी.’’

बातें करते हुए आशु की नजरें जनार्दन की कार पर ही टिकी थीं. उस की कार एक अपार्टमेंट में दाखिल हुई, तभी आशु ने कहा, ‘‘तुम ने मृतका के कपड़ों को देखा था? क्या वह वही कपड़े पहने थी, जो इस तसवीर में पहने है.’’

‘‘हां बिलकुल, मैं यह देख चुका हूं.’’ मोहन ने कहा.

‘‘अगर जनार्दन ने पत्नी को खत्म करने के बाद तसवीर वाले कपड़े पहनाए होंगे तो सलीके से नहीं पहनाया होगा.’’ आशु ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘कोई न कोई गलती उस ने जरूर की होगी.’’

‘‘मैं ने मुर्दाघर में लाश देखी थी. लाश पर वही कपड़े थे, जो तसवीर में है.’’ मोहन ने कहा.

‘‘वह तो ठीक है, तुम एक मर्द हो. इस मामले में कोई न कोई गलती जरूर रह गई होगी.’’ आशु ने कहा, ‘‘अगर मैं तुम्हारे साथ होती तो बहुत ही सूक्ष्मता से निरीक्षण करती.’’

आशु तसवीर को गौर से देखती हुई बोली, ‘‘इन छ: बटनों की लाइन के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? क्या यह लाइन उस के कोट पर उस समय भी थी, जब लाश मुर्दाघर में लाई गई थी?’’

‘‘हां, यह लाइन मौजूद थी.’’ मोहन ने कहा.

‘‘उस के कोट के दाईं तरफ वाले कौलर के करीब?’’ आशु ने पूछा.

‘‘हां,’’ मोहन ने सिर हिलाते हुए कहा.

जनार्दन की कार अब तक पार्किंग में दाखिल हो चुकी थी. मोहन ने भी खाली जगह देख कर अपनी कार रोक दी. जनार्दन उन दोनों को देख चुका था. वह कार से उतरा और उन की ओर बढ़ा. उस के चेहरे पर नाराजगी साफ झलक रही थी. उस ने कहा, ‘‘तुम लोग मेरा पीछा क्यों कर रहे हो? जबकि अदालत ने मुझे बेकसूर मान लिया है. मैं तुम्हारे खिलाफ मानहानि का मुकदमा करूंगा.’’

मोहन ने धैर्यपूर्वक कहा, ‘‘नाराज होने की जरूरत नहीं है. हम किसी दूसरे मामले में इधर आए हैं. उस से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है.’’

‘‘अच्छा तो फिर यह लड़की अदालत के बाहर मेरे पास क्यों आई थी?’’ जनार्दन ने पूछा.

‘‘मेरा इस मामले से कोई लेनादेना नहीं है.’’ मोहन ने कहा.

‘‘तुम मेरा पीछा कर रहे हो, मैं इस बात की शिकायत करूंगा. मेरा वकील तुम्हारे खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर करेगा.’’

‘‘जनार्दन, अदालत ने तुम्हें बरी कर दिया तो क्या हुआ, हमारी नजर में तुम अब भी अपराधी हो. तुम बच नहीं सकोगे.’’ आशु ने कहा.

आशु की बात सुन कर जनार्दन ने तीखे स्वर में कहा, ‘‘आखिर दिल की बात जुबान पर आ ही गई? मुझे शक था कि तुम मेरे पीछे लगी हो.’’

‘‘हां, मैं तुम्हारे पीछे लगी हूं,’’ आशु ने लगभग चीखते हुए कहा, ‘‘तुम ने अदालत में अपनी पत्नी की जो तसवीर पेश की थी, वह दुर्घटना वाले दिन की नहीं है. तुम ने यह तसवीर पहले कभी खींची थी. बताओ, तुम ने यह तसवीर अदालत में पेश कर के क्या साबित करने की कोशिश की?’’

आशु की बात सुन कर जनार्दन के चेहरे का रंग उड़ने सा लगा. बड़ी मुश्किल से उस ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारी किसी बात का जवाब नहीं दूंगा, क्योंकि अदालत में सवालजवाब हो चुका है. अब जो भी बात करनी है, मेरे वकील से करना.’’ कह कर वह अपार्टमेंट की सीढि़यों की तरफ बढ़ गया.

‘‘मेरे खयाल से हमें कुछ भी हासिल नहीं हुआ,’’ मोहन ने कहा, ‘‘लेकिन तुम ने मुझे एक आइडिया जरूर दे दिया. मैं उस तसवीर को दोबारा देखना चाहूंगा.’’

कह कर मोहन ने आशु से वह तसवीर ले ली और उसे गौर से देखने लगा. अचानक वह उत्साह से बोला, ‘‘तुम ठीक कह रही हो, सबूत मिल गया.’’

कह कर मोहन अपार्टमेंट की ओर बढ़ा तो आशु ने पूछा, ‘‘कहां जा रहे हो?’’

‘‘अपराधी को पकड़ने, अगर मैं ने जरा भी देर कर दी तो वह फरार होने में सफल हो जाएगा.’’ मोहन ने कहा.

आशु भी मोहन के साथ चल पड़ी. लौबी में जनार्दन के नाम की प्लेट लगी थी. जिस पर फ्लैट नंबर 102 लिखा था. दोनों उस के फ्लैट के सामने थे. मोहन ने दरवाजे पर दस्तक देने के बजाए जोरदार ठोकर मारी. दरवाजा खुल गया तो दोनों आंधीतूफान की तरह अंदर दाखिल हुए. जनार्दन बैड पर रखे सूटकेस में जल्दीजल्दी सामान रख रहा था.

दोनों को देख कर वह चीखा, ‘‘क्यों आए हो यहां, क्या चाहते हो मुझ से?’’

मोहन ने उस की नजरों के सामने उस की पत्नी की तसवीर लहराते हुए कहा, ‘‘यह लड़की बहुत अक्लमंद है. इस ने तो कमाल ही कर दिया. मुझे भी पीछे छोड़ दिया. तुम ने अपनी पत्नी को इसी फ्लैट में मारा था, फिर उस की लाश को अपनी कार में डाल कर उस पहाड़ की चोटी पर ले गए थे. जहां से उसे गहरी खाई में फेंक दिया था.’’

‘‘देखो इंसपेक्टर,’’ जनार्दन ने अकड़ने के बजाए नरमी से कहा, ‘‘इस मुकदमे का फैसला सुनाया जा चुका है और इस तसवीर ने यह साबित कर दिया है कि…’’

‘‘इसी तसवीर ने तो तुम्हें झूठा साबित किया है,’’ मोहन ने कहा, ‘‘तुम ने यह तसवीर काफी समय पहले खींची थी. लेकिन जब तुम ने अपनी पत्नी का कत्ल किया तो उसे हादसे का रूप देने के लिए उस की लाश को तसवीर वाले कपड़े पहना दिए.

‘‘लेकिन जब लाश को पुलिस ने खाई से निकाल कर अपने कब्जे में लिया तो तुम्हें लगा कि तुम ने लाश को जो कोट पहनाया है, उस में तुम से एक गलती हो गई है. उस में बटनों की लाइन दाईं तरफ थी, जबकि तसवीर में बाईं तरफ है.’’

‘‘तुम बिलकुल अंधे हो, तसवीर को गौर से देखो.’’ जनार्दन ने गुस्से में कहा.

‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई है.’’ ’’ मोहन ने कहा, ‘‘जब तुम्हें अपनी गलती का अहसास हुआ तो तुम ने तसवीर का निगेटिव पलट कर नई तसवीर बनवा ली. नई तसवीर में मृतका के कोट के दाएं कौलर के नीचे बटनों की लाइन दिखाई दे रही है, यही तसवीर तुम ने हमें दी थी. लेकिन तुम यहां एक गलती कर गए. निगेटिव को उलटने से कोट के कौलर के साथ भी सब कुछ उलटा हो गया. आमतौर पर पुरुषों के कोट के दाईं कौलर की तरफ बटन.’’

अभी मोहन की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि जनार्दन ने उस की तरफ छलांग लगा दी. लेकिन इंसपेक्टर मोहन ने उस का बाजू पकड़ लिया और उसे घुमाते हुए दीवार पर दे मारा. इस के बाद जनार्दन को उठा कर उस के सूटकेस के पास फेंक कर कहा, ‘‘मिस्टर जनार्दन, अब तुम अपना अपराध स्वीकार कर लो.’’

तभी जनार्दन ने अपनी जेब से पिस्तौल निकाल कर मोहन और आशु की तरफ तान कर कहा, ‘‘तुम दोनों अपने हाथ ऊपर उठा लो, वरना मैं गोली मर दूंगा. कोई होशियारी मत दिखाना.’’

जनार्दन ने दूसरे हाथ से सूटकेस बंद करते हुए कहा, ‘‘मेरे रास्ते से हट जाओ. मैं और लाशें अपने नाम के साथ नहीं जोड़ना चाहता.’’

‘‘मूर्ख आदमी, तुम ज्यादा दूर अपनी कार नहीं जा सकोगे, क्योंकि मैं ने उस में गड़बड़ी कर दी है.’’ मोहन ने उसे घृणा देखते हुए कहा.

‘‘ठीक है, मैं तुम्हारी कार ले जाऊंगा.’’ जनार्दन ने कहा, ‘‘लाओ, उस की चाबी मेरे हवाले करो.’’

‘‘ठीक है,’’ यह कह कर मोहन ने चाबी निकालने के लिए जेब में हाथ डालना चाहा.

‘‘खबरदार, जेब में हाथ मत डालो. मुझे बताओ कि चाबी किस जेब में है. मैं खुद निकाल लूंगा.’’ जनार्दन चिल्लाया.

‘‘मेरे कोट की दाईं जेब में.’’ मोहन ने कहा.

जनार्दन ने उस के कोट की दाईं जेब की ओर हाथ बढ़ाया. उसी समय फायर हुआ, जिस की आवाज से कमरा गूंज उठा. इस के साथ ही जनार्दन बौखला कर दूर जा गिरा और आशु जोरजोर से चीखने लगी. फिर जमीन पर गिर पड़ी. दरअसल वह फायर जनार्दन ने किया था, मगर बौखलाहट के कारण वह फायर बेकार चला गया.

इंसपेक्टर मोहन के लिए इतनी मोहलत काफी थी. उस ने जनार्दन के कंधे पर फ्लाइंग किक मार कर उसे गिरा दिया. थोड़ी ही देर में उस ने जनार्दन के हाथों में हथकडि़यां लगा दीं. फिर उस ने आशु को उठा कर बैड पर बिठाया. उसे तसल्ली दी और किचन से पानी ला कर पिलाया.

थोड़ी देर बाद आशु संभल गई. मोहन ने कहा, ‘‘सुनो आशु, पहले तो मैं ने मजाक में कहा था कि तुम जैसी लड़की हमारे पुलिस स्क्वायड में शामिल नहीं होनी चाहिए. लेकिन अब मैं पूरी गंभीरता से कह रहा हूं कि तुम हमारे पुलिस स्क्वायड की अहम जरूरत हो. अगर तुम हमारे साथ शामिल हो गईं तो न जाने कितने केस हल हो जाएंगे, तमाम अपराधी कानून की गिरफ्त में आ जाएंगे और बेकसूर लोगों को रिहाई मिल जाएगी.’’

यह सुन कर आशु मुसकराने लगी.

प्रस्तुति : कलीम उल्लाह

अगर आप भी करते है रोजाना रनिंग तो जरूर पढ़ें ये खबर

ब्रेकफास्ट हैल्दी डाइट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह दौड़ने के लिए ऊर्जा उपलब्ध कराता है. अगर आप मौर्निंग रनर हैं तो आप का पोस्ट रन ब्रेकफास्ट अगले दिन दौड़ने के लिए रिकवर करता है. अगर आप दोपहर में दौड़ते हैं, तो ब्रेकफास्ट आप को दौड़ने के लिए ऊर्जा से भरा महसूस कराएगा. अगर आप शाम को दौड़ते हैं, तो ब्रेकफास्ट सारा दिन ब्लड शुगर को स्थिर रखने में सहायता करेगा. ब्रेकफास्ट करने का दूसरा फायदा यह होगा कि आप दोपहर में हैवी लंच खाने से बच जाएंगे, जिस से आप को शाम को दौड़ते समय भारीपन महसूस नहीं होगा.

रनर्स ब्रेकफास्ट

ब्रेकफास्ट को दिन का सब से महत्त्वपूर्ण भोजन माना जाता है. 7-8 घंटे की नींद के बाद जब आप उठते हैं तो आप को अपने दिन की शुरुआत करने के लिए ऊर्जा की जरूरत होती है. आप दौड़ने में कितनी कैलोरी बर्न करते हैं यह आप की दौड़ने की गति और आप के भार पर निर्भर करता है. आप जितनी तेज गति से दौड़ेंगे आप की मैटाबोलिक दर उतनी ही अधिक होगी और उतनी ही अधिक कैलोरी बर्न होगी. वैसे

1 मील चलने की तुलना में दौड़ने में लगभग दोगुनी कैलोरी बर्न होती है. 1 मील दौड़ने में एक औसत भार का व्यक्ति 100 कैलोरी बर्न कर लेता है. अगर आप मौर्निंग रनर हैं तो आप को अपने ब्रेकफास्ट को 2 भागों में बांटना होगा- प्रीरनिंग ब्रेकफास्ट और पोस्ट रनिंग ब्रेकफास्ट.

प्री रनिंग ब्रेकफास्ट

दौड़ने के बाद पौष्टिक और संतुलित भोजन खाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है दौड़ने के पहले शरीर को ऐनर्जाइज करना. आप दौड़ने से पहले जो खाते हैं, उस पर ही आप के दौड़ने की परफौर्मैंस निर्भर करती है. यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप कब और कितना दौड़ने की योजना बना रहे हैं.

महत्त्वपूर्ण है टाइमिंग

अगर आप सुबह 6 बजे 3 मील दौड़ना चाहते हैं तो केवल 20 मिनट पहले एक संतरा खाना ठीक रहेगा. जो लोग रविवार को मैराथन दौड़ लगाना चाहते हैं उन्हें शनिवार की रात को भरपेट खाना चाहिए. खिलाडि़यों और ऐथलीटों को अपने प्रदर्शन के 3 दिन पहले से अपने खाने में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए.

पचने में हो आसान

दौड़ने के पहले के खाने में वसा और कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम होनी चाहिए ताकि वह आसानी से पच सके.

ऊर्जा से भरपूर

प्री रनिंग ब्रेकफास्ट ऊर्जा से भरपूर होना चाहिए ताकि दौड़ते समय आप के मस्तिष्क और मांसपेशियों को लगातार ऊर्जा मिलती रहे.

कितना खाएं

दौड़ने से पहले कभी भी बहुत ज्यादा न खाएं. अगर आप ज्यादा खाएंगे तो थका हुआ महसूस करेंगे, लेकिन ऐसा भी न करें कि दौड़ने से पहले कुछ भी न खाएं क्योंकि खाली पेट दौड़ने से मांसपेशियां कमजोर होती हैं.

पानी का स्तर बनाए रखें

सब से पहली और जरूरी बात यह है कि शरीर में पानी का स्तर बनाए रखें. हालांकि आप दिनभर पानी पीते रहते हैं, लेकिन दौड़ने से पहले थोड़ा ज्यादा पानी पीएं.

प्रोटीन है जरूरी

दौड़ने से पहले जो भी खाएं, उस में प्रोटीन होना सब से जरूरी है. प्रोटीन मांसपेशियों को टूटने से बचाता है और इस से शरीर को लगातार ऊर्जा मिलती रहती है.

पोस्ट रनिंग ब्रेकफास्ट

दौड़ने के 1 घंटे बाद ही कुछ खाएं. लेकिन पानी अवश्य पी लें, क्योंकि दौड़ने से शरीर में इलैक्ट्रोलाइट की बहुत कमी हो जाती है. स्वयं को पोषण देने के लिए नीबू पानी, नारियल पानी या सादा पानी ले सकते हैं. दौड़ने के बाद जो खाएं उस में अच्छी गुणवत्ता वाला प्रोटीन ले सकते हैं. अंडे, फल, दूध और दुग्ध उत्पाद, ब्रैड, बटर, साबूत और अंकुरित अनाज आदि लिए जा सकते हैं. अपने भोजन में नमक भी शामिल करें, क्योंकि पसीने से शरीर में नमक की कमी हो जाती है जिस से शरीर में सोडियम की कमी हो सकती है. रक्त में शुगर का स्तर कम न हो इसलिए थोड़ी मात्रा में शुगर भी लें.

रनर्स के नाश्ते का कंपोजीशन

कार्बोहाइड्रेट: यह मांसपेशियों के लिए सब से आसानी से उपलब्ध ऊर्जा का स्रोत है. ब्रेकफास्ट की कुल कैलोरी का 55-70% कार्बोहाइड्रेट से आना चाहिए.

प्रोटीन: नाश्ते की कुल कैलोरी का 15% प्रोटीन से आना चाहिए. प्रोटीन मांसपेशियों को शक्तिशाली बनाने के लिए बहुत जरूरी है.

वसा: जो लोग नियमित रूप से दौड़ते हैं उन्हें वसा का सेवन कम मात्रा में करना चाहिए, क्योंकि यह शरीर के सर्वाधिक सांद्रित ऊर्जा का स्रोत है.

फ्ल्यूड: रनर्स को पानी तो पीना ही चाहिए, लेकिन उस के साथ ही अन्य तरल पदार्थ का भी सेवन अधिक मात्रा में करना चाहिए. यह शरीर के ताप को नियंत्रित करने और शरीर में जल का स्तर बनाए रखने के लिए जरूरी है.

इन्हें न खाएं

रनर्स का ब्रेकफास्ट जितना पोषक होगा उन का प्रदर्शन उतना ही बेहतर रहेगा. इसलिए जरूरी है कि ब्रेकफास्ट में ऐसे भोजन को शामिल न किया जाए, जिस में कैलोरी की मात्रा तो भरपूर हो, लेकिन पोषकता अत्यधिक कम हो. नाश्ते में इन चीजों को खाने से बचें:

 

व्हाइट ब्रैड, पेस्ट्री, डोनट, हलवा, मिठाई, केक, वसा युक्त दूध और दुग्ध उत्पाद, सोडा और कोल्ड डिं्रक्स, परांठे, साबूदाना, पूरी सब्जी, कचौरी, समोसा.

क्यों जरूरी है ब्रेकफास्ट

ब्रेकफास्ट न करने से शरीर में वसा के मैटाबोलिज्म के लिए जरूरी ऐंजाइम्स उत्पन्न नहीं होते हैं. अगर आप सुबह ब्रेकफास्ट नहीं करेंगे तो रक्त में शुगर और कोलैस्टेरौल का स्तर बढ़ जाता है, जो आप को कई बीमारियों का आसान शिकार बना सकता है, साथ ही आप के लिए लंबे समय तक दौड़ना भी असंभव हो जाएगा.

ऊर्जा का स्तर बनाए रखने के लिए

ब्रेकफास्ट शरीर और मस्तिष्क को ईंधन उपलब्ध कराता है. अगर आप रनिंग करने के बाद ब्रेकफास्ट नहीं लेगे तो शरीर में ऊर्जा का स्तर कम हो जाएगा. ऊर्जा उपलब्ध करवाने के अलावा ब्रेकफास्ट महत्त्वपूर्ण पोषक का भी अच्छा स्रोत है. ब्रेकफास्ट में खाया जाने वाला साबूत अनाज, सूखे मेवे, फल और सब्जियां आदि प्रोटीन, विटामिंस और मिनरल्स के अच्छे स्रोत हैं. शरीर को इन आवश्यक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है और अगर ब्रेकफास्ट में इन का सेवन पर्याप्त मात्रा में न किया जाए तो दिन के बाकी समय में इन की पूर्ति करना संभव नहीं होता है.

अगर आप रोज रनिंग करने के बाद पोषक नाश्ता नहीं करेंगे तो आप की हड्डियां और मांसपेशियां कमजोर हो जाएंगी. इसलिए दौड़ने के 1 घंटा बाद पौष्टिक नाश्ते का सेवन बहुत जरूरी है.

ब्रेन पावर के लिए आवश्यक

ब्रेकफास्ट में अच्छे प्रकार का प्रोटीन खाने से अधिक देर तक पेट भरा लगता है. इस के अलावा यह प्रोटीन अमीनो ऐसिड टायरोसिन को मस्तिष्क में पहुंचने में सहायता करता है, जिस की सहायता से सजगता बढ़ाने वाले रसायनों डोपामाइन और ऐपिनेफ्रिन का उत्पादन होता है. अगर आप ब्रेकफास्ट नहीं करेंगे तो रक्त में शुगर का स्तर कम हो जाएगा जो नकारात्मक रूप से मस्तिष्क को प्रभावित करता है. इस से आप अगले दिन खुद को दौड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पाएंगे.

शहरियों, सरकार, आढ़तियों और कंपनियों से लूटे जा रहे हैं किसान आंदोलन पर

Farmer Protest: पहले हमारे देश में एक कहावत बहुत मशहूर थी, ‘उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी भीख निदान.’ इस का मतलब यह था कि खेती सब से अच्छा काम है. खेती के बाद कारोबार करना अच्छा है. इस के बाद चाकरी यानी नौकरी करने का काम जिसे भीख मांगने जैसा कहा गया है. तब हमारे देश के किसानों में संपन्नता थी. राजाओं, विदेशी आक्रमणकारियों, अंगरेजों से ले कर आजाद भारत की सरकारों ने खेती को चूस कर उसे बेकार बना दिया. आज किसान 500 रुपए महीने की किसान सम्मान निधि को भीख की तरह ले रहा है.

आज ‘उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी भीख निदान’ कहावत उलट गई है. सब से पहले लोग नौकरी करना चाहते हैं, इस के बाद कारोबार, फिर जोमैटो जैसी कंपनियों में डिलीवरी बौय की नौकरी तक कर रहे हैं लेकिन खेती नहीं करना चाहते. इस की वजह देश में खेती की खराब व्यवस्था है. इस की जिम्मेदार देश की सरकार और बड़ी कंपनियां हैं जो गठजोड़ से किसानों का खून चूस रही हैं. वोट लेने के लिए किसानों की आय दोगुनी करने का झांसा दिया जा रहा है, जो एक जुमला से अधिक कुछ नहीं है.

देश की अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका अहम है. इस के बाद भी भारत में कृषि की हालत लगातार खराब होती जा रही है. साल 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश की कुल जीडीपी में कृषि का हिस्सा लगभग 16 फीसदी है. करीब 49 फीसदी लोग रोजगार के लिए इस पर निर्भर करते हैं. भारत में किसानों की हालत बेहद खराब है. किसानों का मानना है कि मौजूदा सिस्टम में वे अपनी उपज से बहुत ज्यादा कमाई नहीं कर पाते. कई इलाकों में तो किसान जितना पैसा बुआई में लगाता है वह लगत मूल्य भी नहीं निकाल पाता.

आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 के अनुसार भारत में प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय 2019 में 10,218 रुपए या प्रति परिवार 1.23 लाख रुपए सालाना थी. यह 0.512 हैक्टेयर (1.26 एकड़) के औसत जोत आकार पर आधारित है. किसानों की आय दोगुनी (डीएफआई) करने के रोडमैप के अनुसार, कृषि वर्ष 2022-23 तक किसानों की औसत कृषि आधारित सालाना आय 2015-16 की 58,246 रुपए से दोगुनी हो कर 1,16,165 रुपए हो जानी थी जो अपने लक्ष्य से बहुत दूर है.

आंदोलन की राह पर किसान

16 फरवरी से हजारों किसान आंदोलन की राह पर दिल्ली का घेराव कर रहे हैं. सरकार और आंदोलन करने वाले किसानों के बीच बातचीत के कई दौर बीत गए हैं. समझौता अभी नहीं हुआ है. किसानों की मांग है कि एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानून बनाने, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू कर उस के हिसाब से फसलों का मूल्य तय किया जाए. इस के पहले भी एक साल तक किसान आंदोलन चल चुका है जब केंद्र सरकार ने 3 कृषि कानून बनाए थे. किसानों के आंदोलन के प्रभाव में सरकार को वे ‘काले’ कृषि कानून वापस लेने पड़े थे.

इस देश में सब से अधिक लूट किसानों के साथ ही होती रही है. जब बाहरी आक्रमणकारी आए तो उन्होंने किसानों को लूटा. उन की फसलों को लूट लिया. उन के जानवर लूट ले जाते थे. अंगरेजों ने भी किसानों को लूटा. फिल्म निर्माता व अभिनेता आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ में इस बात का जिक्र किया गया था. आजादी के बाद डकैत भी किसानों को लूटते थे. उन की फसल तो लूटते ही थे, घर की महिलाओं की इज्जत भी लूट लेते थे. किसानों की समस्या यह है कि वे अपनी परेशानी को समझ नहीं पाते हैं.

देश की मुसीबत में काम आए किसान

किसानों को अन्नदाता कहा जाता है. देश के सामने जब भी परेशानी आई, किसान ने ही मुकाबला किया. जब हमारा देश गेहूं की कमी से जूझ रहा था तब पंजाब के किसानों ने कमर कसी और गेहूं उत्पादन में सफलता की कहानी लिखी. 1960 के दशक में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जौनसन और रिचर्ड निक्सन से अपमान सहना पड़ता था क्योंकि इंदिरा को गेहूं मांगने उन के सामने जाना पड़ता था. अमेरिकी गेहूं की खेप के बिना भारत के सामने भूखों रहने की नौबत आ सकती थी.
इस के बाद ‘हरित क्रांति’ शुरू हुई, जिस के बाद पंजाब ही नहीं, बाकी पूरे देश के प्रदेशों में भी गेहूं का उत्पादन शुरू हो गया. वह एक अलग युग था. आज पंजाब गेहूं उत्पादन में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बाद देश का तीसरा सब से बड़ा गेहूं उत्पादक राज्य है. पंजाब में भारत के कुल गेहूं की पैदावार का 12 प्रतिशत उपज होता है. पंजाब में 14.8 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन हुआ और भारत में कुल मिला कर 114 मिलियन टन का उत्पादन हुआ.

आज भारत दुनिया के सब से बड़े चावल निर्यातक देशों में से एक है. किसानों के बल पर पूरे देश के 80 करोड़ लोग पेट भरते हैं. 1990 के दशक में सब्जी की खेती बढ़ी. भोजन की थाली में सब्जी महत्त्वपूर्ण होने लगी. अब बागबानी उत्पादन खाने का हिस्सा हो गया है. सब्जियों का उत्पादन 200 मिलियन टन से अधिक हो गया है.
भारत आज दुनिया का सब से बड़ा दूध उत्पादक देश है. दूध मौजूदा समय में भारतीय पारिवारों के भोजन का एक प्रमुख आइटम बन गया है. एक मध्यवर्गीय परिवार हैल्दी डाइट के लिए दूध को चावल और गेहूं जितना ही महत्त्वपूर्ण मानता है. किसानों ने देश का पेट भरा. इस के बाद भी किसानों को उन का हक नहीं मिला. आज भी किसानों को आंदोलन करना पड़ रहा है. किसानों की मेहनत की कमाई बिचौलिए खा रहे हैं.

भारत के किसानों से कहीं बेहतर हैं विदेशी किसान

भारत का स्थान कृषि उत्पादन के लिहाज से दुनिया में नंबर दो है. यहां बड़े पैमाने पर अन्न, दलहन, सब्जियों और फलों की पैदावार होती है. लेकिन इस सूची में भारत का स्थान नंबर चार पर है. चीन की तुलना में उस की कृषि पैदावार आधी है. खेतों की उत्पादकता की अगर बात करें तो भारत की जगह चीन, अमेरिका और ब्राजील से नीचे है. भारत में किसानों की हालत खराब है. भारत कृषि का एक बड़ा हिस्सा दूसरे देशों में निर्यात कर अपनी हालत सुधार सकता है. भारत में किसान नाराज हैं. इसी के चलते हाल के बरसों में किसानों के आंदोलनों की संख्या भी बढ़ी है.

दुनिया में कुछ ऐसे देश हैं जो जरूरत से ज्यादा अन्न और खाद्य पदार्थ पैदा करते हैं. वहां के किसान खुशहाल हैं. भारत के करीब 13 करोड़ किसानों को 5 सौ रुपए प्रतिमाह की किसान सम्मान निधि देनी पड़ रही है क्योंकि उन की आय उतनी भी नहीं है. अब इस की एक क़िस्त बढ़ाने की तैयारी चल रही है. अभी तक 2-2 हजार रुपए की 3 किस्तें दी जाती हैं यानी साल में 6 हजार रुपए. अब एक क़िस्त अधिक का मतलब यह है कि 6 हजार की जगह 8 हजार रुपए साल में दिया जा सकता है.
अमेरिका दुनिया में मक्के का सब से बड़ा उत्पादक है. वहीं गेहूं उत्पादन में इस का दुनिया में तीसरा स्थान है. अमेरिका में किसान न केवल अच्छी कमाई करते हैं बल्कि उन का जीवनस्तर बहुत बढ़िया भी है. अमेरिका के कई किसान तो इतने समृद्ध हैं कि उन के पास अपने चार्टर्ड प्लेन हैं.

अमेरिका में 2022 में कृषक परिवारों की औसत कुल घरेलू सालाना आय 95,418 डौलर थी, जो सभी गैरकिसान अमेरिकी परिवारों की औसत कुल घरेलू आय 74,580 डौलर से अधिक है. 2022 में कृषि, खाद्य और संबंधित उद्योगों ने अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद में 1.42 ट्रिलियन डौलर का योगदान दिया, जिस में अमेरिकी खेतों के उत्पादन का योगदान 223.5 बिलियन डौलर था. संयुक्त राज्य अमेरिका में 90 फीसदी खेत छोटे पारिवारिक खेत हैं.

अमेरिका के बाद चीन के किसानों की तुलना भारत के किसानों से की जाए तो यहां भी भारत के किसान बहुत पीछे है. चीन अनाज, सब्जियां और फल पैदा करता है. चीन में खुद इस पैदावार की सब से ज्यादा खपत है और वह सब से बड़ा आयातक भी है. चीन ने इस के लिए एक बहुत मजबूत सिस्टम तैयार किया है. एग्रीकल्चर डिपार्टमैंट के कर्मचारी और विशेशज्ञ खेतों पर जा कर काम करते हैं. वे किसानों को ट्रेनिंग भी देते हैं. इस के विपरीत, भारत में कृषि विभाग के विशेषज्ञ बड़ेबड़े औफिसों में बैठते हैं. एसी छोड़ कर खेतों में नहीं जाते.

चीन में खेतों से जुड़े मजदूरों की संख्या 31 करोड़ के आसपास है. चीन की सरकार अपने किसानों को हर तरह का सहयोग देती है. चीन में चावल, गेहूं, आलू, प्याज, हरी बीन्स ब्रोकली, पालक, गाजर, कद्दू, टमाटर, अंगूर, सेब, तरबूजा आदि की जबरदस्त पैदावार होती है. इन सब की पैदावार में वह दुनिया में सब से ऊपर है. चीन के नैशनल ब्यूरो औफ स्टैटिस्टिक्स के अनुसार साल 2013 के आंकड़ों मुताबिक देश की कुल जीडीपी में 10 फीसदी हिस्सा कृषि का था. पिछले एक दशक से चीन की अर्थव्यवस्था में कृषि का बड़ा योगदान बना हुआ है.

चीन में कुछ सालों में किसानों की आय लगातार बढ़ी है. 2022 में चीनी किसानों की वार्षिक प्रति व्यक्ति आय 20,133 युआन यानी 2,50, 000 रुपए थी. चीन के किसान किसी जमाने में गरीब होते थे लेकिन अब ऐसा नहीं रहा.

एक ऐसा ही देश है ब्राजील. वह हमेशा से कृषि उत्पादक देश रहा है. गन्ना उस की मुख्य फसल रही है. अब ब्राजील में बड़े पैमाने पर काफी, सोयाबीन और कौर्न की पैदावार भी होती है.

फसल उगाने वाले किसानों का औसत वेतन 99,176 ब्राजील रियल प्रतिवर्ष है जबकि शहरों में औसत वेतन 71,407 और 119,309 रियल के बीच है. यह रकम आमतौर पर सरकारी सैक्टर और प्राइवेट सैक्टर में मिलने वाले वेतन से अधिक है. खेत में काम करने वाले का औसत सकल वेतन 27,980 रियल है. भारत में खेती से अधिक वेतन होम डिलीवरी करने वालों को मिल जाता है, जिस की वजह से किसानों के बेटे खेती करने की जगह बड़े पैमाने पर बाईकों पर शहरों में डिलीवरी का काम कर रहे हैं.

एमएसपी से भी नहीं बदलेंगे हालात

एमएसपी से देश के बड़े किसानों को लाभ दिखता है पर होता नहीं है. सरकार जितना एमएसपी बढ़ाती है उस से अधिक महंगाई और टैक्स बढ़ा देती है. एमएसपी का लाभ कम फसलों पर ही होता है. किसान अपने मन से अपनी पैदावार का सौदा नहीं कर पाता है. किसान से कम कीमत पर फसल खरीद कर बिचैलिए मोटा मुनाफा कमाते हैं.
उदाहरण के लिए गेहूं की कीमत किसान को साधारण बाजार में 12 से 15 प्रतिकिलो पड़ती है. गेहूं से तैयार साधारण चक्की का आटा 30 से 35 रुपए प्रतिकिलो बिकता है. जब यही आटा ब्रैंडेड कंपनी पैकेट में बंद कर के बेचती है तो 50 से 55 रुपए प्रतिकिलो पड़ता है. बिचैलियों और कंपनियों ने सारा मुनाफा अपने बीच रख लिया. सरकार आंख मूंदे हुए है.

अब बिचैलियों को किनारे कर के बड़ी कंपनियां सीधे खरीदारी कर रही हैं. इस को कौन्ट्रैक्ट फार्मिंग कहते हैं. इस में कंपनी किसान को बीज और बाकी मदद देती है. इस के एवज में वह किसान से पैदावार खरीद लेती है. इन का तय मूल्य भी बाजार के आसपास ही होता है. यह जो फसल खरीदती है उस में अपने मापदंड का ध्यान रखती है. जैसे एक आकार और वजन वाले आलू ही लेती है. बाकी बचे छोटेबड़े आलू किसान को अलग सस्ते में बेचने पड़ते हैं. इस तरह से प्राइवेट कंपनियों की खरीद में जो मुनाफा दिखता है वह किसान का होता नहीं है.

भले ही किसान कानून में कौन्ट्रैक्ट फार्मिंग को हटा लिया गया हो, इस के बाद भी अभी यह चल रहा है. इस का लाभ बड़ी कंपनियां ले रही हैं जो सरकार के बहुत ही करीब हैं. इन कंपनियों ने जिलोंजिलों में अपने गोदाम बनवा लिए हैं. ये 15 रुपए प्रतिकिलो गेहूं किसान से खरीद कर 50 रुपए में उपभोक्ता तक पहुंचाती हैं.
35 रुपए मुनाफा में मार्केटिंग, ट्रांसपोर्ट, पैकिग और प्रोसैसिग का खर्च ही जुड़ता है. 3 माह की खेती के बाद भी किसान को जो नहीं मिलता वह कंपनी मालिक आसानी से कमा लेता है. यह काम सरकारी संरक्षण में हो रहा है. इस को पुख्ता करने के लिए ही 3 कृषि कानून लाए जा रहे थे.

 

सरकारी नीतियों का शिकार

सरकार की नीतियां ऐसी हैं जिन से किसानों का शोषण हो सके. जैसे, गेहूं और धान तो किसान बेच सकता है लेकिन पराली और भूसा बेचने में उस को दिक्कत होती है. पराली किसान जलाता है तो उस के खिलाफ मुकदमा हो जाता है. ऐसे में किसान परेशान होता है. दुनिया में जो भी उत्पादन करता है वही उस का मूल्य तय करता है. किसान ही ऐसा होता है जिस के उत्पाद की कीमत या तो फैक्ट्री मालिक तय करता है या सरकार.

जब धान की खरीद हो सकती है तो पराली की खरीद क्यों नहीं हो सकती? अगर पराली की खरीद होने लगे तो किसानों की दिक्कतें कम हो जाएं. पराली जलानी न पड़े. सस्ते में खरीद कर भी पौल्यूशन से बचा जा सकता है. इसी तरह से गाय के पालन को ले कर किसान परेशानी में हैं. गो-प्रेमी माहौल से किसान अपनी ही सूखी गाय को नहीं बेच पाते हैं. गाय ही नहीं, गाय के वंश के किसी जानवर बैल या बछड़े को भी नहीं बेच पाते. ऐसे में यह छुट्टा पशु किसानों के लिए परेशानी बने हैं. यह भी भगवा नीतियों के कारण होता है. छुट्टा पशु केवल किसान के लिए ही नहीं, सड़क पर चलने वाले लोगों के लिए भी परेशानी का सबब हैं.

असल में शहरी और सरकार यह चाहते हैं कि किसान कमजोर और गरीब बना रहे. इसलिए उस की योजनाएं किसानविरोधी होती हैं. इसीलिए किसान आंदोलन पर रहते हैं. असल में गलती किसानों की है जो एकजुट नहीं हैं. वे जाति और धर्म के नाम पर अलगअलग रहते हैं. पिछड़े किसान दलितों को साथ ले कर चलने को तैयार नहीं हैं. वे ऊंची जातियों वालों के साथ भजनपूजन में लग गए हैं. एकजुट न रहने के कारण किसान कमजोर है और सरकार उस की बात नहीं सुनती. किसान व्यापार और राजनीति में जब तक एकजुट नहीं होगा, अपनी परेशानियों को खुद नहीं समझेगा, तब तक सरकार उस का उत्पीड़न करती रहेगी. जब तक वह अपने वोट की ताकत का इस्तेमाल नहीं करेगा, गरीब बना रहेगा.

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