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अति निराश करती मनोज बाजपेयी की सौंवी फिल्म भैयाजी

(एक स्टार)

लगभग एक साल पहले मनोज बाजपेयी के अभिनय से सजी व अपूर्व सिंह कर्की के निर्देशन में बनी फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ ओटीटी प्लेटफौर्म ‘जी5’ पर स्ट्रीम हुई थी. इसे काफी पसंद किया गया था. निर्देशक के साथ ही मनोज बाजपेयी ने भी जम कर तारीफें बटोरी थीं. इस से मनोज बाजपेयी इस कदर हवा में उड़े कि उन्होंने अपूर्व सिंह कर्की के निेर्देशन में फिल्म ‘भैयाजी’ में न सिर्फ शीर्ष भूमिका निभाई बल्कि विनोद भानुशाली व समीक्षा शैल ओसवाल के संग इस का निर्माण भी किया.

फिल्म में निर्माता के तौर पर मनोज बाजपेयी की पत्नी शबाना रजा बाजपेयी का नाम है. ‘भैयाजी’ मनोज बाजपेयी के कैरियर की सौंवी फिल्म है, जिस में वह पहली बार एक्शन हीरो बन कर आए हैं. अति कमजोर कहानी व पटकथा के चलते यह फिल्म काफी निराश करती है. फिल्म ‘भैयाजी’ देख कर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि इसी फिल्म के लेखक व निर्देशक अपूर्व सिंह कर्की ने एक साल पहले ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ का लेखन व निर्देशन कर चुके हैं.

फिल्म की कहानी बिहार के पूपरी गांव, सीतामढ़ी से शुरू होती है. जहां रामचरण त्रिपाठी उर्फ भैयाजी (मनोज बाजपेयी) का अपना रूतबा है. कभी उन के पिता की ही तरह वह भी बहुत बड़े दबंग, खूंखार माफिया थे. एक वक्त वह था जब अपने फावड़े से भैयाजी ने अच्छेअच्छे वीरों को मौत के घाट उतारा था और गरीबों की मदद किया करते थे. अब उन के परिवार में उन की सौतेली मां (भागीरथी बाई) व उन का सौतेला भाई वेदांत (आकाश मखीजा) है.

पिता के मरने के बाद उन की सौतेली मां ने उन्हें कसम दिलाई कि अब वह शरीफ बन कर ही जिएंगे. अधेड़ उम्र में पहुंच चुके भैयाजी अब मिताली (जोया हुसेन) से शादी करने जा रहे हैं. सीतामढ़ी में संगीत का कार्यक्रम चल रहा है. छोटा भाई वेदांत दिल्ली से आ रहा है लेकिन वेदांत सीतामढ़ी नहीं पहुंचता. वेदांत के साथ ही उस के सभी दोस्तों के फोन भी बंद मिलते हैं. तभी दिल्ली के कमलानगर पुलिस स्टेशन से सब इंस्पैक्टर मगन (विपिन शर्मा) का फोन भैयाजी के पास आता है कि वेदांत का एक्सीडैंट हो गया है, आप दिल्ली आ जाइए.

उधर दिल्ली में चंद्रभान (सुविंदर विक्की) दिखने में शरीफ मगर अति खूंखार माफिया सरगना है. उस का बेटा अभिमन्यू (जतिन गोस्वामी) है. अभिमन्यू किसी भी लड़की की इज्जत लूट सकता है, किसी की भी हत्या कर सकता है. यदि किसी ने चंद्रभान या उन के बेटे अभिमन्यू का विरोध किया तो चंद्रभान कसाई बन कर उस की हड्डी पसली काट कर, उन टुकड़ों को बोरे में भर कर फेंकवा देता है. सब इंस्पैक्टर मगन, गुज्जर का ही साथ देता है.

दिल्ली पहुंचने पर भैयाजी को पता चलता है कि अभिमन्यू ने ही उस के भाई वेदांत की हत्या की है. अब भैयाजी अभिमन्यू की हत्या करना चाहते हैं पर चंद्रभान ऐसा नहीं होने देना चाहते. अब भैयाजी प्रतिशोध लेने पर उतारू है तो वहीं चंद्रभान, भैयाजी को खत्म कर देना चाहता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः भैयाजी, चंद्रभान व उन के बेटे अभिमन्यू को घायल कर जिंदा ही आग के हवाले कर अपना प्रतिशोध पूरा करते हैं.

अति कमजोर व बेसिरपैर की कहानी वाली फिल्म ‘भैयाजी’ की तुलना हिंदी फिल्म की बजाय भोजपुरी फिल्मों से ही की जा सकती है. भोजपुरी फिल्मों में जिस तरह के गाने होते हैं, उसी तरह के गाने के साथ फिल्म की शुरूआत होती है. प्रतिशोध की कहानी पर हजारों फिल्में बन चुकी हैं पर ‘भैयाजी’ सब से ज्यादा कमजोर फिल्म है.

इंटरवल तक तो दर्शक बर्दाश्त कर लेते हैं, मगर इंटरवल के बाद फिल्म इतनी घटिया है कि दर्शक सोचता है कि कब खत्म होगी. फिल्मकार ने फिल्म में एक जगह बताया है कि सीतामढ़ी से नई दिल्ली की दूरी को ट्रैन से 16 घंटे में पूरा किया जा सकता है. सीतामढ़ी से गोरखपुर सड़क मार्ग से 4 घंटे में पहुंचा जा सकता है लेकिन फिल्म के दृष्य कब नई दिल्ली, कब सीतामढ़ी में होते हैं, पता ही नहीं चलता. फिल्म में कुछ एक्शन दृष्य अवश्य अच्छे बन पड़े हैं तो वहीं फिल्म में मेलोड्रामैटिक दृष्यों की भरमार है.

इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने ‘यूए’ प्रमाणपत्र दिया जाना भी आश्चर्य की बात है. फिल्म में गुज्जर को कसाई के छूरे से एक इंसान के शरीर के टुकड़े करते हुए दिखाया गया है, तो वहीं जिंदा इंसान को आग के हवाले करते हुए भी दिखाया गया है. इस के अलावा कई एक्शन दृष्य ऐसे हैं जिन का बच्चों के मन मस्तिष्क पर गलत असर पड़ सकता है. पर सेंसर बोर्ड की सोच कुछ और ही है.

फिल्म में मिताली को शूटर बताया गया है, जिसे कई अर्वाड मिल चुके हैं. मगर मिताली यानी कि अभिनेत्री जोया हुसेन तो हवा में उड़ कर बंदूक चलाती हैं. वाह! क्या बात है. सिनेमा के नाम पर कुछ भी दिखा दो. क्या मिताली सुपर हीरो या सुपर हीरोईन है जो कि हवा में उड़ सकती हैं. फिल्म के कई दृष्य अति बनावटी नजर आते हैं, फिर चाहे वह भैयाजी को नदी में फेंकने का दृष्य ही क्यों न हो.

इस फिल्म का प्रचार जिस स्तर पर होना चाहिए था, उस तरह का नहीं हुआ. फिल्म के रिलीज से पहले मनोज बाजपेयी ने चंद पत्रकारों के साथ ग्रुप में बात कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. फिल्म का पार्श्वसंगीत भी कानफोड़ू है.

इस फिल्म की सब से बड़ी कमजोर कड़ी भैयाजी के किरदार में अभिनेता मनोज बाजपेयी हैं. 55 वर्ष की उम्र में वह एक्शन हीरो बनने चले हैं जबकि एक्शन करना उन के जौनर की बात नहीं है.

फिल्म में भैयाजी को जितना खतरनाक व खूंखार संवादों के माध्यम से बयां किया गया है, वह भैयाजी के कारनामों में नजर नहीं आता. कुछ इमोशनल दृष्यों में जरुर उन का अभिनय अच्छा है. मनोज बाजपेयी राजनीति में माहिर हैं, इस में कोई दो राय नहीं. बिहार निवासी मनोज बाजपेयी हमेशा अंग्रेजीदां पत्रकारों को ही पसंद करते हैं. उन के साथ एक दो हिंदी भाषी पत्रकार हैं, जो कि उस वक्त यह रोना रोने लगते हैं कि हिंदी भाषी कलाकारों का कोई पत्रकार साथ नहीं देता, जब मनोज बाजपेयी की कोई फिल्म रिलीज होने वाली होती है.

क्या इस तरह के विक्टिम कार्ड को खेल कर वह अपनी फिल्म को सफल बनाना चाहते हैं…काश! ऐसा होता. मगर सच यह है कि अपने कैरियर की सौंवी फिल्म में मनेाज बाजपेयी ने निराश किया है. एकदो एक्शन दृष्यों में मिताली का किरदार निभा रही अभिनेत्री जोया हुसेन, मनोज बाजपेयी पर भारी पड़ती नजर आती हैं. कमजोर पटकथा व कमजोर चरित्र चित्रण के चलते किसी भी कलाकार के अभिनय का जादू परदे पर नजर नहीं आता.

चुनाव में दुष्प्रचार का अड्डा बना सोशल मीडिया

भारत में लोकसभा चुनाव से पहले मेटा ने वादा किया था कि वह अपने सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर गलत सूचना फैलाने के लिए एआई जनित सामग्री के दुरुपयोग को रोकेगी और ऐसे कंटैंट का पता लगाने और हटाने को प्राथमिकता देगी जो हिंसा, उग्रता और नफरत को बढ़ावा देते हैं. मगर अफसोस कि मेटा पर्याप्त सबूतों के बावजूद सुधारात्मक उपायों को लागू करने में न सिर्फ विफल रही, बल्कि भड़काऊ विज्ञापनों को मंजूरी दे कर उस ने चुनाव के दौरान खूब आर्थिक लाभ कमाया. फेसबुक-इंस्टाग्राम ने नफरत फैलाने वाले विज्ञापनों से खूब मोटी कमाई की. इन दोनों प्लेटफौर्म पर मुसलमानों के खिलाफ अपशब्दों वाले विज्ञापनों की भरमार रही. 8 मई से 13 मई के बीच मेटा ने 14 बेहद भड़काऊ विज्ञापनों को मंजूरी दी. इन विज्ञापनों में मुसलिम अल्पसंख्यकों को निशाना बना कर उन के खिलाफ बहुसंख्यकों को हिंसा के लिए उकसाने का प्रयास किया गया.

आम चुनाव में सोशल मीडिया मंचों के दुरुपयोग की आशंकाएं पहले से ही थीं जो सच साबित हुईं हैं. इंडिया सिविल वाच के सहयोग से कौर्पोरेट जवाबदेही समूह ‘एको’ के हाल में किए गए एक अध्ययन में इस तथ्य का खुलासा हुआ है कि फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफौर्म को संचालित करने वाली मेटा कंपनी चुनावी दुष्प्रचार, नफरतभरे भाषण और हिंसा को बढ़ावा देने वाले एआई जेनरेटेड फोटो वाले विज्ञापनों का पता लगाने और उन्हें ब्लौक करने में विफल रही. इस से उसे मोटी कमाई हुई. एको ने पहले भी आगाह किया था कि कई दल भ्रामक विज्ञापनों के लिए बड़ी रकम खर्च करने के लिए तैयार हैं.

पूरे चुनावभर सोशल मीडिया दुष्प्रचार का अड्डा बना रहा. इस पर हिंदू वर्चस्ववादी कहानियां सुना कर जनता को भड़काने का प्रयास किया गया. भारत के राजनीतिक परिदृश्य में भ्रामक सूचनाएं प्रसारित की गईं. एक विज्ञापन में तो भारत के गृहमंत्री अमित शाह के वीडियो से छेड़छाड़ कर उसे ऐसा बनाया गया जिस में वे दलितों के लिए बनाई गई नीतियों को हटाने की धमकी देते नजर आ रहे हैं. इस वीडियो के वायरल होने के बाद कई विपक्षी नेताओं को नोटिस दिया गया और कुछ लोगों की गिरफ्तारियां हुईं. कुछ भाजपा नेताओं के प्रचार के लिए एआई का इस्तेमाल कर हिंदू वर्चस्ववादी भाषा का इस्तेमाल किया गया.

ऐसे हर विज्ञापन में एआई टूल का इस्तेमाल कर फोटो गढ़े गए. इस से यह पता चलता है कि हानिकारक कंटैंट को बढ़ाने में इस नई तकनीक का कितनी जल्दी और आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है. ब्रिटिश अखबार ‘द गार्जियन’ के साथ साझा किए गए एको के अध्ययन में बताया गया है कि फेसबुक ने भारत में मुसलमानों के प्रति अपशब्दों वाले विज्ञापनों को मंजूरी दी. ऐसे विज्ञापनों में ‘आओ इस कीड़े को जला डालें’ और ‘हिंदू खून खौल रहा है, इन आक्रमणकारियों को जला दिया जाना चाहिए’ जैसे वाक्यों का इस्तेमाल चुनाव के दौरान नफरत और हिंसा को उकसाने के लिए किया गया.

चुनावी दुष्प्रचार और कांस्पिरेसी थ्योरी के प्रसार को सुविधाजनक बना कर मेटा ने अमेरिका और ब्राजील की तरह भारत में भी सामुदायिक झगड़े पैदा करने व हिंसा भड़काने में योगदान दिया है.

4 वर्षों पहले 13-19 जुलाई, 2020 को अमेरिकी वयस्कों पर किए गए प्यू रिसर्च सैंटर के सर्वेक्षण में लगभग दोतिहाई अमेरिकियों (64 फीसदी) का कहना था कि सोशल मीडिया का अमेरिका में चल रही राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों पर अधिकतर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. केवल 10 में से एक अमेरिकी का कहना था कि सोशल मीडिया साइट्स का चीजों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और एकचौथाई का कहना है कि इन प्लेटफौर्मों का न तो सकारात्मक और न ही नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

सोशल मीडिया के प्रभाव के बारे में नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले लोग खासतौर पर गलत सूचना और सोशल मीडिया पर देखी जाने वाली नफरत और उत्पीड़न का जिक्र करते हैं. उन्हें इस बात की भी चिंता है कि उपयोगकर्ता जो कुछ भी देखते या पढ़ते हैं, उस पर यकीन कर लेते हैं. बहुत से लोग वास्तविक और नकली समाचारों और सूचनाओं के बीच अंतर नहीं कर पाते हैं और उचित शोध किए बिना उसे साझा करते हैं. लोग तथ्य को राय से अलग नहीं कर सकते, न ही वे स्रोतों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कर सकते हैं. वे जो कुछ भी पढ़ते हैं उस पर विश्वास कर लेते हैं. सोशल मीडिया वह जगह है जहां कुछ लोग सब से घृणित बातें कहने जाते हैं जिन की वे कल्पना करते हैं परंतु किसी के समक्ष नहीं बोल पाते.

दरअसल आज लगभग पूरी दुनिया में ऐसा वातावरण बन गया है कि लोग दूसरों की राय का सम्मान नहीं करते हैं. वे अपनी राय को ही महत्त्व देते हैं. अगर कोई उन के सामने अपनी राय रखे तो वे इसे व्यक्तिगत रूप से लेते हैं और दूसरे समूह या व्यक्ति से लड़ने की कोशिश करते हैं. आमनेसामने की लड़ाई में तो घायल होने की संभावना होती है, इसलिए सोशल मीडिया ऐसी लड़ाई के लिए बिलकुल सेफ जगह है. यहां गंदी से गंदी भाषा, गालीगलौज, आरोपों का इस्तेमाल कर सामने वाले को नीचा दिखाया जा सकता है. बुरी भावनाएं, गंदे वाक्य और खराब भाषा बिना एडिट हुए सोशल मीडिया पर ज्यों की त्यों चलती हैं.

यहां कोई सैंसर की कैंची नहीं है. कोई जवाबदेह नहीं है. मेटा इस हिंसा, नफरत, विवाद, झगड़े रोकने की जहमत नहीं उठाती. कोई संपादक वहां नहीं बैठा है जो यह देखे कि उस के प्लेटफौर्म से जो चीजें सीधे पब्लिक में जा रही हैं और पब्लिक की जिंदगी को प्रभावित कर रही हैं, किसी देश की शांति, सुरक्षा, सद्भाव और भाईचारे को नुकसान पहुंचा रही हैं, उस को देखे और रोके. मेटा कभी जवाबदेह नहीं होता है.

गौरतलब है कि दुनिया का ज्यादातर हिस्सा अब सोशल मीडिया पर संवाद करता है. दुनिया की लगभग एकतिहाई आबादी अकेले फेसबुक पर सक्रिय है. विशेषज्ञों का कहना है कि जैसेजैसे ज्यादा से ज्यादा लोग औनलाइन होते जा रहे हैं, नस्लवाद, स्त्री-द्वेष या समलैंगिकता के प्रति झुकाव रखने वाले लोगों ने ऐसे स्थान खोज लिए हैं जो उन के विचारों को पुष्ट कर सकते हैं और उन्हें हिंसा के लिए उकसा सकते हैं. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म हिंसक लोगों को अपने कृत्यों को प्रचारित करने का अवसर भी देते हैं. अकेले मेटा इस के लिए फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप, मैसेंजर, फेसबुक वाच, फेसबुक पोर्टल, थ्रेड्स, मेटा क्वेस्ट और होराइजन वर्ल्ड्स जैसे प्लेटफौर्म मुहैया कराता है.

शोध से पता चलता है कि पिछले 2 सालों में 60 प्रतिशत बच्चों ने सोशल मीडिया पर हिंसा के कृत्य देखे हैं. लगभग एकतिहाई ने हथियारों से जुड़े फुटेज देखे हैं और एकचौथाई ने महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देने वाली सामग्री देखी हैं. टिकटौक का उपयोग करने वाले लगभग आधे बच्चों ने हिंसक सामग्री देखी हैं. वर्तमान में फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम और ट्विटर भारत में प्रमुख रूप से प्रयोग किए जाते हैं, जिन पर बड़ी संख्या में बच्चे भी इन्वौल्व हैं.

जरमनी में धुर दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फौर जरमनी पार्टी के शरणार्थी विरोधी फेसबुक पोस्ट और शरणार्थियों पर हमलों के बीच एक संबंध पाया गया. विद्वान कार्स्टन मुलर और कार्लो श्वार्ज ने देखा कि आगजनी और हमलों में वृद्धि के बाद नफरत फैलाने वाली पोस्ट में भी वृद्धि हुई.

संयुक्त राज्य अमेरिका में हाल के श्वेत वर्चस्ववादी हमलों के अपराधियों ने नस्लवादी समुदायों के बीच औनलाइन प्रचार किया और अपने कृत्यों को प्रचारित करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया.

म्यांमार में सैन्य नेताओं और बौद्ध राष्ट्रवादियों ने जातीय सफाए के अभियान से पहले और उस के दौरान रोहिंग्या मुसलिम अल्पसंख्यकों को बदनाम करने व उन का अपमान करने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया. हालांकि रोहिंग्या आबादी वहां मात्र 2 प्रतिशत ही थी, लेकिन जातीय राष्ट्रवादियों ने दावा किया कि रोहिंग्या जल्द ही बौद्ध बहुमत का स्थान ले लेंगे. बिलकुल वैसे ही जैसे इन दिनों चुनावप्रचार के दौरान भाजपा नेता मुसलमानों की आबादी को हिंदुओं पर खतरा बता रहे हैं और सोशल मीडिया प्लैटफौर्म्स- फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब के माध्यम से अपनी गलत बातों का प्रचार कर रहे हैं.

श्रीलंका में भी तमिल मुसलिम अल्पसंख्यकों को निशाना बना कर औनलाइन फैलाई गई अफवाहों से प्रेरित उत्तेजना और सतर्कता देखी गई. मार्च 2018 में हिंसा की एक श्रृंखला के दौरान सरकार ने एक हफ्ते के लिए फेसबुक और व्हाट्सऐप के साथसाथ मैसेजिंग ऐप वाइबर तक पहुंच को अवरुद्ध किया, तब जा कर शांति बहाली हुई.

फेसबुक उन लोगों के लिए एक उपयोगी उपकरण रहा है जो नफरत फैलाना चाहते हैं. भारत में 2014 में हिंदू-राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद से भीड़ द्वारा हत्या और अन्य प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा, जिन में से कई मामले व्हाट्सऐप समूहों पर अफवाहों के कारण फैले. हर चुनाव में ऐसी राजनीतिक ताकतें सोशल मीडिया प्लेटफौर्म के जरिए ध्रुवीकरण की कोशिश करती हैं. लोगों के बीच भय, नफरत, गुस्से, दंगे को भड़काती हैं और अपना उल्लू सीधा करती हैं.

इन दिनों फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर प्रधानमंत्री से ले कर तमाम भाजपा नेताओं द्वारा मुसलमानों को जम कर गालियां दी जा रही हैं. कभी उन के बच्चों को कोस रहे हैं, कभी उन को मिलने वाले आरक्षण को जो संविधान से उन्हें प्राप्त हुआ है. सारी कोशिश ध्रुवीकरण के जरिए किसी तरह वोट पाने की है. मगर यह कृत्य देश की जनता को आपस में बांटने और आमजन के बीच नफरत की खाई पैदा करता है. चुनाव के बाद 5 साल तक तमाम नेता अपने बिलों में घुस जाएंगे मगर उन के द्वारा तैयार की गई नफरत की खाई पाटने में जनता को समय लग जाएगा.

जरूरत है कि सोशल मीडिया प्लेटफौर्म के मालिक अब चेत जाएं. अपने आर्थिक फायदे के लिए दुनिया के देशों में रहने वालों के बीच घृणा और गुस्सा पैदा करने के जिम्मेदार न बनें. हर अखबार, हर पत्रिका और हर टीवी चैनल की तरह फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और यूट्यूब में से प्रत्येक को एक सख्त और निष्पक्ष संपादक की जरूरत है. जो चीजों पर नजर रखे, सैंसर की कैंची चलाए और मानवता को शर्मसार करने वाली हर घटना के प्रति जवाबदेह हो.

मई का तीसरा सप्ताह, कैसा रहा बौलीवुड का कारोबारः जंगल में मोर नाचा,किस ने देखा…

बौलीवुड के हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. एक तरफ 80 प्रतिशत सिनेमाघर बंद चल रहे हैं तो दूसरी तरफ फिल्म निर्माता सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं.
फिल्म निर्माता जिस तरह से अपनी फिल्मों को प्रदर्शित कर रहे हैं. उस से अहसास होता है कि वह ‘सब्सिडी’ की रकम बटोरने या ओटीटी प्लेटफार्म पर अपनी फिल्म बेचने के लिए आवश्यक शर्त पूरी करने के लिए फिल्म को प्रदर्शित कर खाना पूर्ति मात्र ही कर रहे हैं. उन्हें इस बात की परवाह ही नहीं है कि उन की फिल्म से दर्शक परिचित हों और उन की फिल्म कमाई करे.
इसी तरह से मई माह के तीसरे सप्ताह यानी कि 17 मई को निर्देशक सोहम शाह की फिल्म ‘‘करतम भुगतम’’ प्रदर्शित हुई, जिस में श्रेयश तलपडे़, विजय राज,मधु व अक्षा पारदर्शिनी ने अहम किरदार निभाए हैं. यह सायकोलौजिकल थ्रिलर फिल्म कर्म और उस के फल के साथ ही ज्योतिष की भी बात करती है.
फिल्म ‘‘करतम भुगतम’’ को प्रदर्शित करने से पहले कोई प्रचार नहीं किया गया. इस फिल्म का टीजर या ट्रेलर कब आया, यह भी पता नहीं चला. यहां तक कि 17 मई को फिल्म चुपचाप प्रदर्शित कर दी गई. आम दर्शक को तो छोड़िए, पत्रकारों को भी पता नहीं चला कि ‘करतम भुगतम’ नाम की कोई फिल्म प्रदर्शित हो रही है.
यानी कि ‘जंगल में मोर नाचा, किस ने देखा..’ वाली कहावत चरितार्थ हो गई. इतना ही नहीं भूले भटके जो दर्शक सिनेमाघर पहुंच गए, वे इस फिल्म के साथ जुड़ नहीं सके. फिल्म के निर्माता फिल्म के बजट को ले कर चुप्पी साधे हुए हैं. तो वहीं यह फिल्म की कमाई पूरे एक सप्ताह में एक करोड़ भी नहीं हुई. निर्माता के हाथ में चाय पीने के भी पैसे नहीं आए…
बिना किसी प्रचार के फिल्म ‘करतम भुगतम’ को प्रदर्शित करने के पीछे निर्माता की क्या सोच रही है, यह तो वही जाने. आखिर उस ने अपने सारे पैसे क्यों डुबाए यह भी वही जाने. इस तरह फिल्म को प्रदर्शित कर निर्माता सरकार से ‘सब्सिडी’ भले हासिल कर ले, पर कोई ओटीटी प्लेटफार्म इस तरह की फिल्म में रूचि दिखाएगा, ऐसा हमें तो नहीं लगता.

एससी/एसटी महामंडलेश्वर बना कर अब दलित औरतों को घेरने की साजिश

बात हैरानी के साथसाथ चिंता की ज्यादा है कि कल तक जिन तबकों के लोगों की परछाई पड़ने से भी साधुसंयासियों सहित आम सवर्ण का भी धर्म भ्रष्ट हो जाता था, आज उन्हीं के समुदाय के 100 और महामंडलेश्वर बनाए जाएंगे. यह ऐलान अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के मुखिया रविंद्र पुरी ने उज्जैन से ऐसे वक्त में किया है जब लोकसभा चुनाव का प्रचार शबाब पर है जिस में संविधान और आरक्षण को ले कर जोरदार बहस छिड़ी हुई है. भाजपा और इंडिया गठबंधन एकदूसरे पर संविधान खत्म कर देने का आरोप मढ़ रहे हैं.

संविधान का धर्म, उस के गुरुओं, ग्रंथों और दलित व सवर्णों से भी गहरा कनैक्शन है. जब संविधान का मसौदा सामने आया तो तमाम हिंदुवादियों ने जम कर इस का विरोध किया था. उन का कहना था कि मनुसमृति ही असल संविधान है. आरएसएस और हिंदू महासभा ने तो जगहजगह संविधान के विरोध में प्रदर्शन भी किए थे लेकिन आश्रमों, मंदिरों और मठों में रह रहे साधुसंयासियों ने भी कम आग नहीं उगली थी.

वाराणसी के नामी संत और राम राज परिषद् नाम की राजनीतिक पार्टी के मुखिया करपात्री महाराज ने तो दो टूक कह दिया था कि वे एक अछूतदलित डाक्टर भीमराव आंबेडकर के हाथों लिखे संविधान को नहीं मानेंगे, इस से उन का धर्म और संस्कृति नष्टभ्रष्ट हो जाएंगे.

इन लोगों की तकलीफ यह थी कि संविधान में दलित आदिवासियों, मुसलमानों और औरतों को सवर्णों के बराबर के अधिकार दिए जा रहे थे जिस से धर्मगुरुओं की दुकान खतरे में पड़ रही थी. समाज पर से उन का दबदबा कम हो रहा था.

75 साल में इतनी तबदीलियां तो संविधान के चलते आईं कि पहली बार बड़े पैमाने पर सवर्णऔरतें, दलित और आदिवासी शिक्षित हुए जिस के चलते उन के पास पैसा आया (लेकिन अक्ल और जागरूकता उम्मीद के मुताबिक नहीं आईं). सवर्ण औरतें तो तबीयत से व्रतउपवास, धर्मकर्म करते दानदक्षिणा, चढ़ावा यानी धार्मिक टैक्स देती रहीं लेकिन दलित आदिवासियों ने ऐसा कम किया. इस की बड़ी वजह यह थी कि उन्हें मंदिरों में दाखिल होने की इजाजत ही नहीं थी और न ही ब्राह्मण उन के लिए कर्मकांड करने को राजी था क्योंकि उसे अपने सवर्ण यजमानों से ही इफरात में दानदक्षिणा मिल जाती थी. आज भी ऐसी खबरें आना आम है कि दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया और न मानने पर उन के साथ मारपीट की गई.

इस से होने यह भी लगा कि दलित हल्ला मचाते थाने और अदालत भी जाने लगे. इस पर भी भेदभाव और अत्याचार कम नहीं हुए तो वे बौद्ध, ईसाई और मुसलमान बनने लगे जिस से हिंदुओं की तादाद कम होने लगी.

इन स्थितियों से बचने के लिए अब अखाड़ा परिषद का दलित आदिवासी समुदाय से थोकबंद महामंडलेश्वर बनाने का फैसला धर्म की दुकानदारी को और एक्स्टेंशन यह सोचते हुए लेना है कि जब मनुस्मृति से बात नहीं बन रही तो इन तबकों को गले लगा कर ही लूटो और इन के संपर्क में आने से बचने के लिए इन के तबके के ही महामंडलेश्वर बना दो जिस से वे सवर्णों के लिए बने ब्रैंडेड मंदिरों में जाने की जिद पर न अड़ें और धर्मांतरण पर भी लगाम लगे.

इस बाबत इन नए महामंडलेश्वरों का सनातन धर्म का ज्ञान अनिवार्य किया गया है. महामंडलेश्वर बनने के लिए जरूरी है कि उम्मीदवार दलित आदिवासियों को वेदपुराणों और दूसरे धर्मग्रंथों का ज्ञान हो. यानी, इस पद के लालच में वे इन्हें पढ़ तो लें और इस बात से सहमत हो जाएं कि इन में अगर शूद्रों के साथ भेदभाव करने की हिदायत है तो इस पर उसे कोई एतराज नहीं बल्कि महामंडलेश्वर बन जाने के बाद वह अपने तबके के लोगों को भी इन बातों से सहमत करने की कोशिश करेगा कि यह तो भगवान का आदेश है जिस ने हमेंतुम्हें पैर से बनाया. इसलिए इस पर एतराज जताने का कोई मतलब नहीं.

अब जो भी दलित आदिवासी इस ओहदे पर आएगा वह दान का हिस्सा अखाड़ा परिषद् को भी देगा और बड़े पैमाने पर दलित आदिवासियों को पूजापाठी बनाने का काम भी करेगा जैसे भी आए आने दो, आखिर, पैसे से क्या दुश्मनी वह तो हाथ का मेल है और उस की जाति या धर्म नहीं होता. प्रयोग के तौर पर अखाड़ा परिषद् ने बीती 19 अप्रैल को गुजरात में 4 दलित आदिवासी महामंडलेश्वरों का पट्टाभिषेक किया था, प्रयोग सफल रहा तो अब थोक में भरतियां की जा रही हैं.

इस फैसले का एक अहम मकसद सवर्ण औरतों की तर्ज पर दलित औरतों को भी धर्मकर्म का संक्रामक रोग लगाना है जिस से यह समुदाय तरक्की की दौड़ में पिछड़ा ही रहे. धर्म के प्रभाव में आने से ये भी भाग्यवादी, पूजापाठी और भक्तिन बन जाएंगी और हरेक बात या परेशानी के लिए व्रतउपवास रखने लगेंगी.

इस से भी बात नहीं बनेगी तो ज्योतिषियों और तांत्रिकों के चक्कर काटने लगेंगी, जहां से परेशानियां कम होने के बजाय और बढ़ती हैं. यही इन के बच्चे सीखेंगे कि नौकरी पढ़ाई और मेहनत से नहीं बल्कि पूजापाठ और गुरुओं के आशीर्वाद से मिलती है जिस के लिए अब हमारे तबके के भी धर्मगुरु महामंडलेश्वर जैसे रुतबेदार ओहदे पर बैठा दिए गए हैं.

ऐसे आएगी समानता

हिंदू या सनातन धर्म की एक बड़ी खामी इस में पसरी वर्णव्यवस्था है जिस के चलते जातिगत भेदभाव, छुआछूत, अत्याचार और शोषण इस की रगरग में खून के साथ दौड़ने लगे हैं. इस बीमारी का इलाज किसी से नहीं हो पा रहा तो नए बीमार पैदा किए जा रहे हैं. रविंद्र पुरी ने यह घोषणा करते हुए कहा भी कि सालों से पिछड़े इस तबके को मुख्यधारा से जोड़ना जरूरी है. बकौल रविंद्र पुरी, पुरानी सोच बदलने की जरूरत है.

दिल को बहलाने का खयाल अच्छा है जिस के लिए जाने क्यों यह नहीं सोचा जा रहा कि पुरानी सोच के स्रोत ही क्यों न खत्म कर दिए जाएं. मसलन, भेदभाव फैलाते धर्मग्रंथ ही नष्ट कर दिए जाएं जिस से न बांस रहेगा न बांसुरी बजेगी. फिर सब बराबर हो जाएंगे और संविधान पर भी बवंडर मचाने की जरूरत नहीं रहेगी. लेकिन असल मकसद धर्म की बांसुरी पर अब दलितों को भी नचाने का है जिस के लिए मुख्यधारा जैसे साहित्यिक और समाजवादी शब्दों का सहारा लिया जा रहा है.

बाबाओं और महाराजाओं का डर यह भी है कि कहीं धीरेधीरे ये दलित, आदिवासी ही मुख्यधारा न बन जाएं, इसलिए इन्हें भी अफीम चटाई जाए. इस के लिए बेहतर यह है कि इस अफीम की सप्लाई के नए अड्डे खोले जाएं और सप्लायर भी इन्हीं के तबके के बनाए जाएं जिस से नशा करने में आसानी रहे.

अगर मंशा वाकई बराबरी की है तो सब से पहले जन्मकुंडली में जाति और गोत्र लिखना बंद किया जाए जो फसाद की बड़ी जड़ और धार्मिक पहचान का आधारकार्ड है. धर्म के दुकानदार यह हिम्मत दिखा पाएंगे, ऐसा लगता नहीं.

आधी दुनिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं

दुनिया भर की आधी आबादी को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है. औक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा 161 देशों पर किए गए अध्ययन के बाद यह तथ्य सामने आया है कि दुनिया की आधी से ज्यादा जनसंख्या को अपने मन की बात कहने की स्वतंत्रता नहीं है. 2022 में यह आंकड़ा 34 फीसदी था मगर 2023 में यह बढ़ कर 53 फीसद पर पहुंच गया है. जाहिर है जिस तरह दुनिया के देशों में धार्मिक कट्टरता और धर्म के आधार पर लड़ाइयां बढ़ रही हैं, अभिव्यक्ति की आजादी पर उतना ही ज्यादा अंकुश लगाने की कोशिशें हो रही हैं.

जिन 161 देशों पर अध्ययन हुआ है और जहां लोगों के बोलने के अधिकार पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी रोक लगी हुई है, उस सूची में भारत 123वें स्थान पर है. गणतंत्र देश होने के बावजूद यहां लोगों को खुल कर अपनी बात कहने का हक न होना इतने बड़े लोकतंत्र के लिए बेहद शर्म की बात है. इसे जनता के ऊपर तानाशाही ही कहा जाएगा. पाकिस्तान में भी लोगों को बोलने की आजादी पर रोकटोक होती है, सूची में उस का स्थान 108वां है, वहीं अफगानिस्तान के वाशिंदों के पास भी अभिव्यक्ति का हक नहीं है. अफगानिस्तान इस सूची में 155वें स्थान पर है.

अध्ययन के अनुसार अधिक प्रतिबंधित क्षेत्र वाले देशों की संख्या 24 है, जहां की 77 करोड़ आबादी के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कमी है. कुछ अन्य देश जहां हाल में ज़्यादा प्रतिबन्ध लगे हैं उन में बुर्किना, फासो, केंद्रीय अफ्रीकन गणराज्य, इक्वाडोर, सेनेगल और टोगो जैसे देश हैं.

भारत में जब से मोदी सरकार केंद्र की सत्ता में आयी है लोगों से अभिव्यक्ति की आजादी जैसे छीन ली गई है. सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले को देशद्रोही घोषित करना एक आम चलन हो गया है. जबकि एक लोकतंत्र में कार्यपालिका, न्यायपालिका और नौकरशाही की आलोचना करना जनता का अधिकार है, इसे देशद्रोह नहीं माना जा सकता है. मगर मोदी सरकार को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं है. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर सरकार की आलोचना करने वाली सामग्री गायब कर दी जाती है. गूगल पर ऐसी कोई सामग्री ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी जिस में मोदी सरकार की नीतियों, कार्यों आदि का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया हो. साफ है कि एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र में लोक को अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कोई स्थान मुहैया नहीं है.

बीते कुछ सालों में उन तमाम टीवी चैनलों को सरकार के करीबी उद्योगपतियों द्वारा खरीद लिया गया है जो सरकार की नीतियों की समीक्षा करते थे और विश्लेषण जनता के सामने प्रस्तुत करते थे. वे तमाम जर्नलिस्ट नौकरियों से निकाल बाहर किए गए जो सरकार की आंख में आंख डाल कर सवाल पूछने की हिम्मत रखते थे, सरकार को समयसमय पर आईना दिखाने का काम करते थे और जनता के सामने सच परोसते थे. बीते 10 सालों के दौरान सरकार की आलोचना को राजद्रोह के रूप में परिभाषित करके मोदी सरकार ने भारत का लोकतंत्र एक पुलिस राज्य के रूप में विकसित कर दिया है. जो बोले पुलिस के डंडे खाए और जेल जाए.

अभिव्यक्ति की आजादी का सीधा सा अर्थ है देश के संविधान के दायरे में रहते हुए किसी भी राजनीतिक विषय,राजनीतिज्ञ, दल,व्यक्ति के नीतियों या सोच पर अपनी सहमति या असहमति व्यक्त करना. सरकार की नीतियों से अपनी असहमतियों को जाहिर करना, इस के खिलाफ धरनाप्रदर्शन, आंदोलन के साथ मीडिया में अपनी असहमति को दर्ज करना कोई अपराध नहीं, एक स्वतंत्र लोकतंत्र का हक़ है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनुष्य का एक सार्वभौमिक और प्राकृतिक अधिकार है और लोकतंत्र, सहिष्णुता में विश्वास रखने वालों का कहना है कि कोई भी राज्य और धर्म इस अधिकार को छीन नहीं सकता. भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज की गारंटी देता है. संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सब से महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है. लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल में इस अधिकार को सबसे ज़्यादा कुचला गया है.

इस के अलावा भारत सहित दुनिया भर में जैसेजैसे धार्मिक पागलपन बढ़ रहा है वैसेवैसे लोगों को बोलने, सवाल करने या तर्क करने की आजादी छीनी जा रही है. धर्म अपने आगे कोई सवाल नहीं चाहता. हजारों साल पहले जो बातें धर्मग्रंथों में लिख दी गईं उस पर आज कोई तर्कवितर्क धर्म के ठेकेदारों (वर्तमान समय में सरकार) बर्दाश्त नहीं है. भारत सरकार हो या अफगानिस्तान में शासन कर रहा तालिबान, धर्म की बेड़ियों में जनता को जकड़ कर उसे गूंगा बनाने की मुहिम हर जगह जारी है.

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धर्म के बीच टकराव जगजाहिर है. राज्य द्वारा पुस्तकों और फिल्मों पर सेंसरशिप और मुसलिम कट्टरपंथी और हिंदू धार्मिक-राष्ट्रवादी समूहों द्वारा पत्रकारों, लेखकों, फिल्म निर्देशकों और शिक्षाविदों का उत्पीड़न पूरे देश में जारी है. दिलचस्प बात यह है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता को कट्टरपंथी मुसलमानों और हिंदू राष्ट्रवादियों दोनों ने ही नापसंद किया है. अपनेअपने धर्म के खिलाफ वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं.

धार्मिक रूप से आहत करने वाले भाषण (या अभिव्यक्ति) को प्रतिबंधित करने की कई लोगों की इच्छा धार्मिक-कट्टरपंथी समूहों और स्वतंत्र विचारकों के बीच संघर्ष का केंद्र बिंदु बन गई है. भारतीय दंड संहिता के प्रावधान 298 और 295ए के परिणामस्वरूप कई लेखकों, पत्रकारों और शिक्षाविदों का उत्पीड़न हुआ है. इस के अलावा, कट्टर मुसलमानों और हिंदू कट्टरपंथी समूहों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए हिंसा और फतवे का पुरजोर इस्तेमाल किया जा रहा है.

हिंदू धार्मिक-राष्ट्रवादियों का मुख्य उद्देश्य भारत में हिंदू शासन स्थापित करना है. हिंदू मूल्यों के प्रचार प्रसार की राह में वे कोई अवरोध, कोई सवाल. कोई आलोचना नहीं चाहते हैं. प्रमुख हिंदू कट्टरपंथी समूहों में आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), वीएचपी (विश्व हिंदू परिषद) और शिवसेना 1980 के दशक की शुरुआत से ही भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए जिम्मेदार रहे हैं. यह हिंदू कट्टरपंथी समूह इस विचार के भी सख्त खिलाफ हैं कि अल्पसंख्यकों को हिंदुओं के समान अधिकार मिलें. इन समूहों के भीतर, विशेष रूप से आरएसएस, अंततः भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने का लक्ष्य रखता है और धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और पश्चिमीकरण के राजनीतिक विचारों को भारतीय संस्कृति के खिलाफ मानता है. हिंदू कट्टरपंथी ताकतें तब और भी मजबूत हुईं जब भारतीय जनता पार्टी 2014 में सत्ता में आई और नरेंद्र मोदी जो कि एक पूर्णकालिक आरएसएस सदस्य रहे, को भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया.

हिंदू कट्टरपंथी प्रकाशकों को प्रकाशन वापस लेने की धमकी देने, अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए आपत्तिजनक मानी जाने वाली फिल्मों को सेंसर करने के लिए दबाव बनाने और हिंदू धार्मिक मिथकों और किंवदंतियों का विरोध करने वाली आलोचनात्मक आवाजों को चुप कराने में सफल रहा है. 2017 में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या, जो दक्षिणपंथी और हिंदू राष्ट्रवाद की आलोचक थीं, यह दर्शाता है कि ऐसी कट्टरपंथी ताकतें भय का माहौल बना कर स्वतंत्र अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित कर रही हैं.

अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात का इस से बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि अदालत के आदेश के बाद भी जेम्स डब्ल्यू लेन की शिवाजी पर लिखी किताब पर प्रतिबंध हटा दिए जाने के बाद भी, किताबों की दुकानें इसे स्टोक करने के लिए तैयार नहीं हुईं. कट्टरपंथी हिंदुत्व की ताकतें भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उदारवादी आवाजों के लिए गंभीर चुनौतियां पेश कर रही हैं, इस में कोई शक नहीं है.

इस्लामिक कट्टरपंथी ताकतों ने भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है. आमतौर पर, कट्टरपंथी इस्लामी समूह – जैसे देवबंद और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड धर्मविरोधी विचार या आलोचना पर हिंसा, धार्मिक फतवे और सार्वजनिक निंदा का सहारा लेते हैं, या अगर उन्हें लगता है कि उन के धर्म के लिए कुछ भी अपमानजनक है तो वे अदालत में मामला दर्ज करते हैं.

भारत ने 1988 में मुस्लिम राजनीतिक समूहों के दबाव के कारण ही सैटेनिक वर्सेज नामक पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया था. बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की किताब ‘द्वीखंडिता’ को भी मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगा कर भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था. यहां तक कि इस्लामी कट्टरपंथियों के दबाव में, भारत सरकार ने तसलीमा नसरीन को नागरिकता देने से भी इनकार कर दिया था. उर्दू अखबार की संपादक शिरीन दलवी को फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका चार्ली हेब्दो के विवादित कवर को छापने के लिए गिरफ्तार किया गया. दलवी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 295 ए के तहत दुर्भावनापूर्ण इरादे से धर्म का अपमान करने और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया गया.

अदालत में, स्वतंत्र विचारकों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) 298, 295 ए, 153 ए का इस्तेमाल किया गया है. स्वतंत्र विचारकों को आम तौर पर दो स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है; या तो आहत पक्ष उन्हें अदालत में घसीटता है या उन्हें डरानेधमकाने, शारीरिक हिंसा और सामाजिक दबाव के साथ माफी मांगने के लिए मजबूर करता है. जैसे अपनी राय रख कर उस ने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो.

तलाक के सिवा कोई औप्शन नहीं बचा, क्या मैं उसे तलाक दे सकता हूं?

सवाल

मैं 30 वर्षीय विवाहित पुरुष हूं, विवाह को 3 साल हो चुके हैं. मेरी पत्नी में यौन विकार है और उस का व उस के परिवार वालों का हमारे प्रति इतना ज्यादा दुर्व्यवहार है कि  हमारा पूरा परिवार तंग है. मेरे लाख समझाने पर भी उस के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया है. तलाक के सिवा कोई विकल्प रह ही नहीं गया है, क्या मैं उसे तलाक दे सकता हूं.

जवाब

यों तो सरिता कभी भी तलाक की पक्षधर नहीं रही है, हमारा काम घरपरिवार जोड़ना है, तोड़ना नहीं, परंतु कभी स्थिति इतनी विकट हो जाए कि कोई विकल्प ही न रहे तो तलाक के सिवा कोई चारा भी नहीं रह जाता. आप के लिए बेहतर होगा इस बारे में आप किसी स्थानीय सुयोग्य वकील से परामर्श लें, तभी तलाक जैसा कदम सोचसमझ कर उठाएं.

 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

ऐसे करें अपनी सेंसिटिव आंखों का ख्याल

आंख जिस्म का सब से नाजुक और संवेदनशील अंग है. इस में मामूली चोट या संक्रमण गंभीर रूप धारण कर सकता है और आंखों की रोशनी भी जा सकती है. इसलिए आंखों के मामलों में सतर्क रहना बेहद जरूरी है.

टैलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल, लेजर किरणें आदि का लगातार लंबे समय तक उपयोग किया जाए तो इन का दुष्प्रभाव आंखों पर भी पड़ता है. इसी तरह तेज रोशनी वाले हाईलोजन, बल्ब, बारबार जलनेबु?ाने वाली रोशनियां भी आंखों पर बुरा असर डालती हैं. वैल्ंिडग से निकली नीली रोशनी आंख के परदे को बहुत नुकसान पहुंचाती है.

आंखें इंसान की सब से बड़ी जरूरत होती हैं. इन को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है कि आंखों में होने वाली बीमारियों के बारे में पूरी जानकारी हो. इस संबंध में पेश हैं नेत्र रोग विशेषज्ञ डा. सौरभ चंद्रा से हुई बातचीत के अंश :

आंखों की बीमारियों में बदलते मौसम की भूमिका कितनी होती है?
आंखें हैं तो सबकुछ है. मौसम के साथ होने वाले बदलावों का आंखों पर गहरा असर पड़ता है. गरमी के मौसम में धूप और धूल से आंखों में संक्रमण हो जाता है. यह प्रदूषण और धूप से आंखों में आने वाले बैक्टीरिया के कारण होता है. बरसात में फंगल इन्फैक्शन ज्यादा होता है. इस में आंखें लाल हो जाती हैं, चिपकने लगती हैं. सर्दी का आंखों पर कम प्रभाव पड़ता है.

इन का इलाज क्या है?
गरमी में जब भी आप बाहर से वापस आएं तो अपनी आंखों को हलके गरम पानी से धो लें. इस से धूल और बैक्टीरिया को आंखों से दूर करने में मदद मिलती है. बरसात में अगर आंखें लाल हों तो इन की साफसफाई का ध्यान रखें.

क्या उम्र के हिसाब से भी आंखों में बीमारियां हो जाती हैं?
बच्चों में आंखों का भेंगापन, पानी बहना जैसी बीमारियां ज्यादा होती हैं. इस उम्र में आंखों में चोट भी बहुत लगती है. 20 से 30 साल की आयु के बीच काम का बो?ा ज्यादा होता है. इस से माइग्रेन होने की संभावना ज्यादा रहती है. 30 से 40 साल की उम्र में ब्लडप्रैशर, डायबिटीज जैसी बीमारियों का शरीर पर हमला होता है. ये भी आंखों की रोशनी को प्रभावित करती हैं. 50 से 60 साल की उम्र में आंखों में मोतियाबिंद और ग्लूकोमा हो सकता है.

इन परेशानियों से बचने के लिए क्या करें?
कभीकभी इलाज आंखों की ऐक्सरसाइज करने से हो जाता है. सही ढंग से काम करने और अपनी डाइट पर ध्यान देने से भी आंखों को सेहतमंद रखा जा सकता है.

आंखों पर पड़ने वाली तेज धूप या लेजर किरणें, एक्सरे व दूसरी तरह के विकिरण और प्रदूषण भी नुकसानदेय होते हैं. इन से भी आंखों की सुरक्षा करना जरूरी है. प्राकृतिक रूप से आंखों की रक्षा के लिए पलकें होती हैं तब भी हमें आंखों की उचित देखभाल की जरूरत होती है.

आंखों को सुरक्षित रखने के लिए कुछ सावधानियां अपेक्षित हैं :

आंखों की चोटें

आंखों को चोटों से बचाना बेहद जरूरी है. एक आंख में गंभीर चोट लगने पर दूसरी आंख भी प्रभावित हो जाती है. देश में लोगों के अंधे होने का एक बड़ा कारण असावधानियों या दुर्घटनावश आंखों में चोट लगना भी है. चोटें कई बार कार्य करते वक्त, खेलने के दौरान, पटाखे चलाने में व अन्य दुर्घटनाओं में लग जाती हैं.

चोटों का आंखों पर दुष्प्रभाव :

नेत्रश्लेष्मा की साधारण चोटों में आंख लाल हो जाती है. यदि आंख में दर्द नहीं है और दृष्टि में कोई फर्क नहीं है तो फिर चिंता करने की जरूरत नहीं होती. आंख में कचरा, जहरीला कीट या तिनका चले जाने पर यदि उसे जोर से मला जाए तो कौर्निया में खरोंच आ सकती है और घाव भी हो सकता है.

कुछ चोटों से नेत्र ज्योति भी जा सकती है. नुकीली या पैनी वस्तु आंख में घुस कर स्वच्छ पटल यानी कौर्निया को फाड़ कर अंदर लैंस को भी अपने स्थान से हटा सकती है. लैंस और अंदर का जैल बाहर निकल सकता है. ऐसे में यदि आंख का इलाज न किया जाए तो दूसरी स्वस्थ आंख में सूजन आ जाती है और वह भी खराब हो सकती है.

जब आंखों में चोट लग जाए

– तुरंत नेत्र रोग विशेषज्ञ या जो भी अच्छा चिकित्सक उपलब्ध हो, उसे दिखलाएं.
– आंख पर न दबाव दें न उसे मलें. पट्टी कस कर न बांधें.
– यदि आंख में रसायन या अम्ल पड़ गया हो तो आंख को पानी से तुरंत धोएं.
– आंख में पड़ा कचरा, कूड़ा या तिनका यदि पानी से आंख धोने पर भी न निकले तो तुरंत नेत्ररोग विशेषज्ञ को दिखलाएं.

आंखों की साफसफाई

– आंखों को गंदे हाथों से न छुएं.
– दिन में 2-3 बार ठंडे पानी से आंखों को धोएं या हलके छींटे मारें फिर उन्हें साफ कपड़े से पोंछें.
– आंखों को तेज धूप, धुएं व वैल्ंिडग की किरणों से बचाएं. इस के लिए गहरे रंग के चश्मे का प्रयोग किया जा सकता है.
– लगातार टैलीविजन देखना या कंप्यूटर पर कार्य करना नुकसान पहुंचा सकता है. इसलिए बीचबीच में आंखों को आराम दें. लेजर बीम वाले उपकरणों के प्रयोग में सावधानी रखें.
– पूरी नींद लें. इस से आंखें स्वस्थ रहेंगी.
– संतुलित भोजन लें अर्थात उस में आवश्यक मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा, खनिज और विटामिंस भी हों. विशेषकर विटामिन ‘ए’ आंखों के लिए जरूरी है जोकि घी, मक्खन और दूध के साथसाथ गाजर व दूसरी हरी सब्जियों व फलों में होता है.
– मोतियाबिंद का शीघ्र इलाज करवाएं.
– उच्च रक्तचाप और मधुमेह रोगी आंखों में तकलीफ होने पर तुरंत नेत्र रोग विशेषज्ञ से जांच करवाएं. प्रत्येक वर्ष अपनी आंखों की पूरी जांच करवाएं.

पुनर्विवाह में झिझक सही नहीं

हर व्यक्ति को उम्र के हर पड़ाव में साथी की जरूरत जरूर पड़ती है चाहे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए या शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए. इंसान सामाजिक प्राणी है तो समाज से अलग कट कर नहीं रह सकता. जीवनसाथी की जरूरत भी सामाजिक जरूरत के दायरे से अलग नहीं है. 28 वर्षीय श्रेया के पति की मौत कोरोना वायरस से हो गई. उस के 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. इतनी कम उम्र में पति की मौत के कारण उस के ऊपर दुखों का पहाड़ आ गिरा है. उस के घर में कोई कमाने वाला भी नहीं है. वह अपने पति की मौत के बाद बिलकुल ही अकेली हो गई है. पति के मौत के बाद उस के मायके वाले उसे पुनर्विवाह के लिए राजी करना चाह रहे थे. सब चाहते थे कि श्रेया का पुनर्विवाह हो जाए. लेकिन श्रेया ने सिरे से नकार दिया. वह अपने पति की यादों को भुलाना नहीं चाहती.

भावनाओं में बह कर अकेला जीवन गुजारने का प्रण कर चुकी है. परंतु जीवन भावनाओं से नहीं चलता है. कुछ दिनों बाद ही वह बिलकुल सचाई के धरातल पर आ गई थी. पति की मौत के समय जो नातेरिश्तेदार संवेदना प्रकट करने आए थे, वे एकएक कर के चले गए थे. उस के अपने जो मदद करने का आश्वासन दे रहे थे, अपनेअपने कामों में व्यस्त हो चुके थे. कुछ दिनों बाद ही अपने लोगों से मिलने वाली सहानुभूति बंद हो गई थी. कोई पलट कर भी हालचाल नहीं ले रहा था. दरअसल, किसी के पास आज की भागदौड़ की जिंदगी में इतना समय नहीं है. सिर्फ उस के मातापिता द्वारा हालचाल लिया जाता था. अब उस पर दोनों बच्चों के पालनपोषण की जिम्मेदारी आ पड़ी है. पति द्वारा छोड़े गए पैसे और संपत्ति बच्चे के पालनपोषण में मददगार तो साबित हो रहे हैं परंतु जीवन नितांत अकेला हो गया है. उसे लग रहा है कि वह दोनों बच्चों के लिए आया बन कर रह गई है. रहरह कर उस का अपना अकेलापन खाए जा रहा है. पत्नी की मौत के बाद पुरुष तो दोबारा शादी कर लेता है. लेकिन आज भी औरतों के पुनर्विवाह में कहीं न कहीं धार्मिक सीखें रुकावट पैदा करती हैं. औरतों को धर्म यह सिखाता है कि पति की मृत्यु के बाद विधवा के रूप में जीवन व्यतीत करना चाहिए.

सफेद साड़ी पहननी है. सिंगार नहीं करना है. रूखासूखा भोजन करना है. और यही बातें औरतों को पुनर्विवाह करने से रोकती हैं. यही श्रेया के साथ भी हुआ है. इसलिए वह खुद को विधवा के रूप में ढालने की कोशिश कर रही थी. ओम प्रकाश की उम्र मात्र 35 साल थी जब उन की पत्नी का देहांत हुआ था. उस समय उन की पत्नी तीसरे बच्चे को जन्म देने वाली थी. लेकिन डाक्टर उन की पत्नी और नवजात शिशु को बचा नहीं सके थे. पत्नी की मौत के बाद उन्होंने निर्णय लिया था कि वे पुनर्विवाह नहीं करेंगे. उन का मानना था कि एक औरत से जब सुख नहीं मिला तो क्या गारंटी है कि दूसरी औरत से सुख मिलेगा ही? हालांकि उन दिनों पुनर्विवाह के लिए रिश्ते आ रहे थे.

उन्होंने अपने दोनों बच्चों की अच्छे से परवरिश की. उन के बच्चों ने अच्छी तालीम हासिल कर ली थी. सब से पहले उन्होंने अपनी बड़ी बेटी का विवाह किया था. उन की बेटी अपने घर चली गई थी. कुछ वर्षों बाद उन्होंने अपने बेटे का भी विवाह कर दिया. बेटा पढ़लिख कर अच्छी जौब करने लगा था और अपनी पत्नी सहित दूसरे शहर में रहने लगा था. सालों बाद उन्हें अपने लिए खुद ही खाना बनाना पड़ रहा है. तब उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ. उन का कहना है, ‘‘काश, मैं ने पुनर्विवाह कर लिया होता तो आज जिंदगी के आखिरी पड़ाव में मु झे अपने हाथों से भोजन नहीं पकाना पड़ता, इतने बड़े घर में अकेला नहीं रहना पड़ता. इस उम्र में खुद के लिए भोजन पकाना मेरे वश की बात नहीं है. ऐसे में अब अफसोस हो रहा है कि मैं ने जो भावना में बह कर निर्णय लिया था वह गलत था.’’ उन का आगे कहना था, ‘‘मैं ने अपने बेटेबेटी के सुख के लिए अपने सुख का त्याग कर दिया. लेकिन मेरे बच्चों ने अपने सुख के लिए अपने पापा को अपने हाल पर छोड़ दिया. हालांकि उन दोनों की अपनी मजबूरी भी है.

आज मैं बिलकुल अकेला हो गया हूं. यह अकेलापन बहुत परेशान कर रहा है. कभीकभार बेटाबेटी मिलने आ जाते हैं वरना फोन से हालचाल लेते रहते हैं. लेकिन जीवनसाथी के बिना जिंदगी अधूरी ही लग रही है. मन में रिक्तता का अनुभव हो रहा है. ‘‘जब इंसान शारीरिक रूप से सक्षम होता है तो कई प्रकार के कामों में व्यस्त रहता है. उसे समय काटने में ज्यादा दिक्कत नहीं आती है. अपने काम के दबाव के कारण समय बीत जाता है. परंतु बुढ़ापे में काम करने की शक्ति क्षीण हो जाती है. दिनभर खाली बैठे रहना पड़ता है. आदमी कहीं जा भी नहीं सकता है. ऐसे में वह अपनी भावनाओं को किस के पास अभिव्यक्त करे. इंसान जब अकेला होता है तो उसे ऐसा महसूस होता है कि कोई उस की बातों पर भी गौर करे, उस की बातें सुने. लेकिन आज की नई पीढ़ी के पास दूसरों के पास बैठने के लिए भी समय कहां है. आज के युवा अपने बीवीबच्चों में व्यस्त हो जाते हैं. वे दूसरों पर कहां ध्यान दे पाते हैं.’’ जीवनसाथी की मौत के बाद पुनर्विवाह से इनकार करना खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है. यह भी सत्य है कि पति या पत्नी के बिछुड़ जाने के बाद शारीरिक जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. भूखे पेट तो कुछ दिन तक रहा जा सकता है लेकिन शारीरिक जरूरतों की उपेक्षा करना हर इंसान के बस की बात नहीं होती.

कुछ दिनों तक तो इस की उपेक्षा की जा सकती है लेकिन लंबे समय तक इस की उपेक्षा कर पाना हर इंसान के लिए असंभव सा प्रतीत होता है. वहीं अकेली औरतों को कई प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. समाज भी उन्हें अच्छी नजरों से नहीं देखता है. चाहे घर हो या औफिस, हर जगह औरतों को पराए पुरुषों से सामना करना पड़ता है. अकेली औरतों को मर्दों द्वारा आसानी से पाने का जरिया सम झा जाता है. इस प्रकार के पुरुषों से औरतों को घरबाहर कहीं न कहीं सामना करना ही पड़ता है. प्रत्येक इंसान को किसी न किसी उम्र के पड़ाव में साथी की जरूरत पड़ती है चाहे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए या शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए. इंसान सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज में ही रहना चाहता है. जीवनसाथी की जरूरत भी सामाजिक जरूरत के दायरे से अलग नहीं है. चाहे पति हो या पत्नी. एक उम्र के बाद शरीर थकने लगता है.

ऐसा लगता है कि उस की जरूरतों का ध्यान कोई तो रखे. और यह सिर्फ पति का पत्नी और पत्नी का पति ही रख सकता है. बेटाबेटी की अपनी निजी जिंदगी होती है. वे शादी के बाद अपने सुनहरे भविष्य के सपनों में खो जाते हैं. एक उम्र के पड़ाव के बाद मातापिता के लिए वह स्थान बेटेबहुओं की नजर में नहीं रह पाता है. उन का अपना जीवनसाथी होने से दूसरों पर वे बो झ नहीं बनते. यह देखा गया है कि वृद्ध पतिपत्नी ही एकदूसरे का बो झ उठाते में सक्षम होते हैं. एकदूसरे की जरूरतों को पूरा करते हैं, देखरेख करते हैं, खयाल रखते हैं, सेवा करते हैं, एकदूसरे की तारीफ करते हैं, एकदूसरे से प्यार करते हैं,

एकदूसरे की भावनाओं का आदर करते हैं, सम्मान करते हैं, आपस में लड़ते झगड़ते हैं. और यही तो जीवन है. सो, पति या पत्नी की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह कर लेना चाहिए. पुनर्विवाह करने से इनकार करना उचित नहीं है. आप जिन बेटेबेटियों के लिए अपना सुख त्याग करते हैं. वह त्याग आप के बच्चों के बड़े हो जाने पर छूमंतर हो जाता है. इसलिए आप उन के लिए सिर्फ जरूरत का हिस्सा न बनें, बल्कि अपनी जिंदगी के बारे में भी सोचें. अपनी जिंदगी की खुशियों का खयाल रखना भी जरूरी है

खुशहाल जीवन के लिए जरूरी जौब सैटिस्फैक्शन

एक मार्केटिंग फर्म के मार्केटिंग डिपार्टमैंट में काम कर रही महिमा शुरू में अपने काम को ले कर बहुत उत्साही थी, लेकिन साल पूरा होतेहोते उसे अपने काम से ऊब और थकान सी होने लगी. पैसे उसे जरूर अच्छे मिल रहे थे लेकिन टूरिंग जौब और ज्यादा देर तक काम करने से उस की सेहत पर भी खराब असर पड़ रहा था. साथ ही, अपने आसपास का माहौल और वहां काम करने वाले लोग भी उसे सूट नहीं कर रहे थे.

लेकिन घर की माली हालत ठीक न होने के कारण वह नौकरी छोड़ कर दूसरे विकल्प तलाश करने का जोखिम भी नहीं उठा सकती थी. पता नहीं दूसरी नौकरी मिले न मिले, मिले भी तो वहां का काम भी उस के मनमाफिक हो या नहीं. लिहाजा,  मन मार कर वह अपनी नौकरी करती रही और धीरेधीरे डिप्रैशन में आ गई.

दूसरी तरफ कृतिका एक मल्टीनैशनल कंपनी में कंप्यूटर औपरेटर थी. कुछ समय बाद उसे वह काम बोरिंग लगने लगा, फिर उस ने इनफौरमेशन टैक्नोलौजी में अपना कैरियर बनाना चाहा.

जब मन में ठान लिया तो पहले उस ने अपने बचे समय में एक अच्छे संस्थान से संबंधित पढ़ाई की. इनफौर्मेशन टैक्नोलौजी में पूरी जानकारी हासिल की और सालभर बाद ही उसे उस क्षेत्र में कामयाबी भी मिल गई. आईटी में जौब मिलने के बाद ही उस ने अपनी पहली नौकरी छोड़ दी. अब वह अपने मनमुताबिक कैरियर से बहुत संतुष्ट है.

मशहूर विद्वान विंस्टन चर्चिल ने कहा था, “हर संस्थान अथवा व्यक्ति को समय के साथ बदलते रहना चाहिए. अगर ऐसा नहीं है तो धीरेधीरे विकास रुक जाएगा. वास्तव में परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन से ही विकास संभव है. जो समय और परिस्थिति के अनुसार अपनेआप को बदलते रहते हैं, वही सफल होते हैं.

हद से ज्यादा जौब सैटिस्फैक्शन के नुकसान 

हम अकसर कहतेसुनते हैं कि किसी भी नौकरी में ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ होना बेहद जरूरी है. इसी से जौब व कैरियर में हमारी तरक्की तय होती है. अगर यह न हो, इस का बुरा असर हमारे प्रदर्शन पर पड़ता है. लेकिन हद से ज्यादा ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ के कुछेक नुकसान भी होते हैं, जिन से हमें बच कर रहना चाहिए. आइए जानते हैं इन नुकसानों में बारे में…

कंफर्ट जोन से कभी बाहर नहीं निकलना : ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ होने पर आप की प्रोफैशनल लाइफ तो अच्छी रहती है लेकिन इस का एक बुरा असर यह पड़ता है कि आप अपने कंफर्ट जोन से कभी बाहर नहीं निकलना चाहते. आप को उस में रहने की आदत पड़ जाती है. आप वही टास्क करना चाहते हैं जो कि आप को कंपनी जौइन करते वक्त दिया गया था. कोई भी नई चीज करने या सुझाने से आप कतराते हैं.

खुद को चैलेंज करने से हमेशा बचना : अत्यधिक ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ होने पर आप किसी भी चुनौतीपूर्ण कार्य के आने की स्थिति में उसे स्वीकार करने से हिचकिचाते हैं. आप में पूरी टीम के बीच किसी नए कार्य को आगे बढ़ कर स्वेच्छा से करने की हिम्मत कम हो जाती है. ऐसे में ध्यान रखें कि जौब के प्रति संतुष्टि होना कहीं आप के कैरियर में रोड़ा न बन जाए.

चली जाती है कैरियर में रिस्क लेने की उम्र : अपने लक्ष्य को पाने के लिए कैरियर में प्लानिंग की जरूरत होती है. कैरियर के किसी पड़ाव पर की गई एक गलती आगे जा कर अपने भयावह परिणाम छोड़ती है. इसलिए सही वक्त पर सही कदम उठाना बेहद जरूरी होता है. कैरियर में बड़े रिस्क लेने की भी एक उम्र होती है. जितने लेट होते हैं, रिस्क लेने की क्षमता भी उतनी कम होती जाती है. जरूरत से ज्यादा ‘जौब सैटिस्फैक्शन’ होने पर हम रिस्क लेने से हमेशा डरते हैं. आप को यह सवाल हमेशा असमंजस में रखता है कि नई कंपनी में आप को ऐसा माहौल, काम और सहूलियतें मिलेंगी या नहीं.

क्यों जरूरी हैं जौब सैटिस्फैक्शन?

जौब सैटिस्फैक्शन हमारे जीवन का बहुत जरूरी हिस्सा है. यह हमें सफलता के एक कदम और नजदीक ले कर जाता है. साथ ही, हमें इस से पता चलता है कि हम अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम हैं और आर्थिक रूप से मजबूत हैं. लेकिन सब से बढ़ कर अपने काम के प्रति संतुष्टि हमारे मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बना सकती है. जब आप प्रोफैशनली अपने जौब से संतुष्‍ट होते हैं, तो यह आप की मैंटल हैल्थ को प्रभावित करता है.

हम पहले से ही एक बहुत ही प्रतियोगी दुनिया में रह रहे हैं. हालांकि, दूसरा कदम और भी जरूरी है. वह यह कि अपनी नौकरी को अपनी मैंटल हैल्थ को प्रभावित करने देने के बजाय वर्तमान में जो आप कर रहे हैं उस में शांति पाने और संतुष्ट रहने की कोशिश करें. ऐसे में आप कुछ चीजों को करने की कोशिश कर सकते हैं.

दोस्त जरूरी

आप जहां भी काम करते हैं, वहां अपने कुछ दोस्त बनाइए. आप का दिन कैसा रहा, इस सब को शेयर करने के लिए एक दोस्त का सपोर्ट होना आप के लिए बहुत जरूरी है. ऐसा करना आप के लिए बहुत फायदेमंद होता है. इस तरह एक नया संबंध बनाना भी आप के कार्यस्थल की खुशी को बढ़ाता है.

इस के लिए कुछ ऐसे लोगों को ढूंढें जिन के काम करने का लक्ष्य आप के जैसा ही हो. यह आप के काम के दौरान अधिक सकारात्मक वातावरण बनाएगा. साथ ही, ऐसा करने से आप को आप की नौकरी से अधिक संतुष्टि भी महसूस होगी.

एक नया शौक 

आप को यह समझने की जरूरत है कि आप वह नहीं है जो आप का काम है. अपनी नौकरी से कुछ अलग करने से नौकरी से संतुष्टि का स्तर बढ़ सकता है. एक नया शौक आप को आप के सभी उद्देश्य के लिए अधिक लाभ और आनंद प्राप्त करने में मदद कर सकता है.अगर आप अपनी नौकरी में खुश नहीं रह पा रहे हैं तो उस गतिविधि को करने की कोशिश करें जिसे आप हमेशा से आगे बढ़ाना चाहते हैं. यह आप के समग्र जीवन और स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार लाने में मदद करेगा.इस के अलावा आप यह भी कोशिश कर सकते हैं कि आप की नौकरी का कौन सा पहलू आप को सब से ज्यादा पसंद है. इस तरह प्रोडक्टिविटी से कोई समझौता न करते हुए खुद को खुश रखने पर ध्यान दें.

टालमटोली की आदत बुरी

टालमटोल करना एक स्पायरल की तरह है जिस के गिरने का कोई अंत नहीं है. जब आप ऐसा करते हैं तो आप के काम करने की क्षमता और प्रेरणा में कमी आती है. ऐसा करने से आप की कार्यसंतुष्टि पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं. टालमटोली की आदत आप का बर्डन बढ़ा देती है.

तय करें हर दिन के छोटे लक्ष्य

हर दिन छोटे लक्ष्य निर्धारित करें और उन्हें अपने दैनिक आधार पर पूरा करने की कोशिश करें. यह आप को अगले दिन अपनी नौकरी के लिए तत्पर रहने के एहसास और उद्देश्य को बढ़ाएगा. साथ ही, इस से आत्मसम्मान भी बढ़ेगा.

हम जानते हैं कि स्थिति अभी आप के लिए ठीक नहीं है. लेकिन जब तक नौकरी का बाजार आप की महत्त्वाकांक्षाओं के अनुकूल नहीं हो जाता है तब तक आप जो कर रहें, उसी में संतुष्टि महसूस करने की कोशिश करें.

जोसफ की मारिया : गोपाल ने उससे माफी क्यों मांगी ?

सोमेश सर अपने एक दोस्त को विदा कर स्टेशन से तेज कदमों से लौट रहे थे। अभी 9 बजे हैं। 1 घंटा हाथ में है। जल्दीजल्दी तैयार हो कर स्कूल पहुंचना है। देर होना उन्हें पसंद नहीं। वे इस से बचना चाहते हैं। देर से पहुंचने वाले शिक्षकों को स्कूल के प्रिंसिपल जिस अंदाज में देखते हैं, वे नहीं चाहते कभी उसी अंदाज में उन्हें भी देखा जा।

रेलवे कालोनी अभी दूर थी। और 10 मिनट का वक्त लगेगा क्वार्टर पहुंचने में। वे चाहते तो स्टेशन तक आने के लिए अपनी बाइक का इस्तेमाल कर सकते थे। लेकिन कोई फायदा नहीं। क्वार्टर से निकल कर लगभग 100 मीटर का फासला तय करने के बाद बाइक को स्टैंड में खड़ा कर देना पड़ता है। बाइक चला कर स्टेशन तक नहीं पहुंचा जा सकता। एक लंबा ओवरब्रिज पार करने के बाद स्टेशन पहुंचा जाता है। उन्होंने ओवरब्रिज पार करते ही कदमों की रफ्तार बढ़ा ली।

“नमस्कार सोमेश सर…”

उन्होंने चलतेचलते मुड़ कर देखा, अपनी कालोनी के गोपालजी उन के पीछेपीछे चले आ रहे हैं।

“क्या बात है गोपाल बाबू, कहीं बाहर गए थे?”

“नहीं, अखबार लेने गए थे,” उन्होंने अखबार दिखाते हुए कहा।

“अब मुझे भी आपलोगों की तरह सुबहसवेरे अखबार बांचने की आदत लग गई है।”

“अच्छी आदत है…लेकिन हौकर गणेशी रोजाना दे जाता है न?”

“हां, इधर 2-4 रोज से नहीं आ रहा है। इसलिए स्टेशन जा कर चौबेजी के स्टौल से ले आते हैं।”

“आज हैडलाइन में क्या है?” कदम बढ़ाते हुए सोमेश सर ने यों ही पूछ डाला।

“अभी तो पूरा पढ़ा नहीं है लेकिन देख रहे हैं बड़ेबड़े अक्षरों में 2-3 तस्कर के पकङाने की खबर छपी है।”

“तस्कर…”

“अरे वही सर, गाय वाले तस्कर… बहुत मन बढ़ गया है इन ससुरों का. जगहजगह पिटने पर भी नहीं चेताते हैं। हम जिस को पूजते हैं उसी को हत्या कर के…कैसा घोर पाप करते हैं। आप ही कहिए कि यह सब बरदाश्त करने लायक है सर। सही करते हैं गौभक्त लोग, निकाल दें कचूमर इन का… तुम अगर कानून नहीं मानोगे तो भगत लोग कानून हाथ में लेंगे ही…जैसे को तैसा वाला मामला यहां लागू होना चाहिए… गोपाल बाबू अपने रौ में बोलते रहे। इधर सोमेश सर चुप्पी साध कर आगे बढ़ते रहे। बोलतेबोलते जब उन्हें यह एहसास हुआ कि सोमेश सर उन की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं तो चुप हो गए। कुछ पल तक खामोशी भी उन के साथ चलती रही। बाद में सोमेश सर ने ही विषय बदलते हुए चुप्पी तोड़ी,“कौन सी ड्यूटी चल रही है?”

“डे शिफ्ट। अभी तैयार हो कर जाना है।

गोपाल बाबू रेलवे के डीजल इंजन शेड में फ्यूल क्लर्क हैं। अपने नाम के अनुरूप गोपालक भी हैं। अपने क्वार्टर के पीछे खाली पड़े हिस्से को लोहे के एंगलों और चदरों से घेर कर एक ग्वालघर बना रखा है। जाहिर है, लोहे की ये सामग्रियां जर्जर अवस्था में पड़े लोकोशेड की हैं। ढहतेगिरते लोकोशेड की लौह संपत्ति के इस छोटे से हिस्से का अनाधिकृत उपयोग पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई। चूंकि गऊ माता का घर बनाने का मामला था, गोपाल बाबू दिनदहाड़े लौह सामग्रियों को खुद ढो कर ले आए थे। 3 गाएं पाल रखी हैं। तीनों गायों को वे देश की तथाकथित पवित्र नदियों के नाम से संबोधित करते हैं- गंगा, जमुना और सरस्वती।

ड्यूटी से बचे हुए समय का उपयोग तीनों गायों की सेवा में लगाते हैं। गाय के प्रति उन का अतिरिक्त प्रेम, भक्ति और आस्था से पूरी कालोनी परिचित है। कहीं भी गौकशी कोई मामला सामने आता है तो वे फूट पड़ते हैं। खुल कर अपना विरोध जताते हैं। पूरी कालोनी उन्हें सच्चे गौभक्त के रूप में देखती है। गायों की सानीपानी, नहानधोआन, ग्वालघर की सफाई आदि कामों के लिए उन्होंने कभी किसी सहायक की आवश्यकता नहीं समझी। ये सारे कार्य बड़े प्रेम और मनोयोग से करते हैं।

गायों के चारे के लिए पुआल से कुट्टी (पुआल के छोटेछोटे टुकड़े ) बनाने वाली बिजली से संचालित मशीन भी उन्होंने ग्वालघर के एक कोने में लगा रखी है। स्वीचऔन किया, मशीन चालू। 10 मिनट में ही चारा तैयार। क्वार्टर के आसपास के लोगों के कानों में सुबहशाम जब गोपाल बाबू का लयबद्ध स्वर पड़ता है तो समझ जाते हैं कि वे दूध दुहने के काम में लग गए हैं।

वे अकसर कहा करते हैं कि दूध दुहना बड़ा पुण्य काम है। धूपबत्ती जला कर सब से पहले तीनों गायों को प्रणाम करते हैं। गायों के दूध देने के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं। दुहने के दौरान कुमार विशु की ‘गऊ महिमा…’ वाला गीत का मुखड़ा उसी सुर में गुनगुनाना नहीं भूलते,”गौमाता के श्रीचरण बसते जिस घरग्राम, बारह ज्योतिर्लिंग वहीं चारों धाम। घरघर जब भी पालते गौमाता को लोग, सुख वैभव भरपूर हो, निकट न आवे रोग…”

तीनों गायों से मिलने वाला भरपूर दूध का थोड़ा सा हिस्सा घर में उपयोग के लिए रख कर शेष हिस्सा बेच डालते हैं। कुछ होटल वाले, आसपास के क्वार्टर वाले स्वयं आ कर दूध ले जाते हैं।

सोमेश सर का क्वार्टर गोपाल बाबू के क्वार्टर से 5 ब्लौक की दूरी पर है। गोपाल बाबू अपने क्वार्टर वाले ब्लौक के करीब आते ही एक क्वार्टर की ओर अंगुली उठा कर फुसफुसाए,“देख रहे हैं सर…”

“क्या?”

“यहां भी गाय पाली जा रही है.”

वह क्वार्टर जोसफ का है. वह भी डीजलशेड में फ्यूल क्लर्क है. कहें तो वह गोपाल बाबू का सहकर्मी है। कुछ दिन पहले वह भी पालने के लिए एक गाय खरीद कर ले आया। उस का परिवार बड़ा है। परिवार में 4 बच्चों के अलावा वृद्ध मांपापा भी हैं। क्लर्की की तनख्वाह से घर चलाना मुश्किल हो रहा था, सो उस ने दूध बेच कर अतिरिक्त आय की प्राप्ति के मकसद से गाय खरीद कर ले आया। अपने क्वार्टर के पिछवाड़े मिट्टी से बने एक छोटे से घर को ग्वालघर का रूप दे कर अपनी गाय को बड़े जतन से पोस रहा है। जितनी सेवा, देखभाल की जरूरत है, उस से कहीं ज्यादा वह करता है। गाय की सेहत, उस की तंदरुस्ती इस बात की पुष्टि करती है।
जोसफ और उस के परिवार वाले अपनी गाय को मारिया कह कर संबोधित करते हैं। गाय को घर ले आने के 10-15 दिनों तक परिवार वाले उसे मैया ही कह कर पुकारते थे।

एक दिन जोसफ की पत्नी मार्था ने सुझाव दिया,“ क्यों न हम इसे मारिया कह कर पुकारें,” पत्नी के मुख से मारिया का नाम उच्चारित होते ही उस के भीतर कुछ हरहराने लगा। एक हूक सी उठी थी उस के सीने में। अंतस भीगने लगा था। आंखें भी पनीली हो गईं थीं। मरिया उस की 10 वर्षीया बेटी का नाम था, जो अब नहीं है। उस दर्दनाक हादसे की याद ने उसे हिला कर रख दिया था। क्वार्टर से निकली थी मुख्य सड़क पर। एक बाइक वाले ने सामने आए कुत्ते को बचाने के कवायद में अपनी बाइक मारिया पर चढ़ा दी थी। अंगअंग चूर हो गया था। इलाज का मौका भी नहीं दिया उस ने…

जोसफ ने कोई आपत्ति नहीं जताई पत्नी के सुझाव पर। अब वह मारिया में अपनी दिवंगत बेटी की छवि देखने लगा है। मारिया उस के लिए एक गाय नहीं रही, वरन बेटी थी। जोसफ और मार्था के बेटी सदृश्य प्यारदुलार, स्नेह, ममत्व पा कर मारिया भी अभिभूत थी।

जिस दिन जोसफ मारिया को खरीद कर लाया, उसी दिन से ही गोपाल बाबू दबी जबान में पूरी कालोनी में उलटीसीधी बातें सुनाने लगे थे। कुछ इस अंदाज में कि जैसे गाय पालने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ एक ही समुदाय को है। गाय के प्रति भक्तिभावना किसी दूसरे समुदाय में नहीं देखी जा सकती…गौभक्षक के घर में गऊ मैया की दुर्गति होने जा रही है अदि।

जोसफ के प्रति गोपाल बाबू का कटाक्ष उन्हें समझने में देर नहीं लगी। कहने की भंगिमा ही ऐसी थी। सोमेश सर किंचित पल के लिए थोड़ी तिक्तता से भर उठे। वे चाहते तो करारा जवाब दे सकते थे। जोसफ दूसरे समुदाय का है, इसलिए उस का गाय पोसना उन्हें नागवार गुजर रहा है। तब तो मुसलिमम और यूरोपीय देशों में पाली जा रही गायों को ले कर उन्हें घोर आपत्ति होनी चाहिए। उन्होंने बात आगे नहीं बढ़ाई, बस इतना ही कहा, “इस में आप को कोई दिक्कत नहीं होनी चहिए गोपाल बाबू,” उन का स्वर अपनेआप अपेक्षाकृत शुष्क और तीखा हो गया था। शायद इसे गोपाल बाबू ने महसूस कर लिया था।

“अच्छा सर चलते हैं, ड्यूटी पर पहुंचना है।”

सोमेश सर ने घड़ी देखी,”ओह, 10 मिनट का रास्ता तय करने में 15 मिनट लग गए। अगर रास्ते में गोपाल बाबू न मिलते तो अब तक मैं अपने क्वार्टर पहुंच जाता,” लंबेलंबे डग भरते हुए वे क्वार्टर पहुंचे।

“ट्रेन लेट थी क्या?”

“नहीं, रस्ते में गोपाल बाबू मिल गए थे। उन की चाल में चाल मिलाते, बतियाते देर हो गई,” पत्नी को जवाब दे कर जल्दीजल्दी तैयार होने लगे।

रविवार का दिन था। घड़ी दिन का 10 बजा रही थी। सोमेश सर बाजार से कुछ सब्जियां लेने निकले थे। हाथ में झोला ले कर अपने क्वार्टर से कुछ कदम बढ़े ही थे कि दूर से मुख्य सड़क के किनारे वाली रेल की पटरियों के आसपास कालोनी के लोगों का अच्छाखासा हुजूम दिखा। ऐसी रेल कालोनी कम ही देखने को मिलती है जिस में दाखिल होने वाली मुख्य सड़क के 2-3 मीटर की दूरी से ही रेल की पटरियां शुरू हो जाती हैं। ये पटरियां सीधे लोकोशेड से जा मिलती हैं। लोकोशेड एक ऐसा कार्यस्थल, जहां स्टीम इंजन की मरम्मती, पैसेंजेर, गुड्स ट्रेनों से जुड़ कर उस की रवानगी से पहले जांचपड़ताल होती थी।

लोकोशेड का अपना वर्कशौप भी होता था, जिस में इंजनों के मुत्तालिक छोटेमोटे कलपुरजे भी बनाए जाते थे। लोको ड्राइवरों की ड्यूटी का रोस्टर भी यहीं मैंटेन होता था। अब तो लोकोशेड जर्जर अवस्था में है। स्टीम इंजन का जमाना लदे एक लंबा समय बीत गया। आहिस्ताआहिस्ता जमींदोज होते लोकोशेड के पीछे एक डीजलशेड बना दिया गया था, जहां फ्यूल के रूप में डीजल तेल की रिफिलिंग के लिए डीजल इंजन इन रेल की पटरियों से गुजरती हुई यहां पहुंचती हैं।

कालोनी का नाम है लोकोपाड़ा।ब्रिटिश हुकूमत के जमाने में लोकोशेड के सामने बनी इस कालोनी का नामकरण शायद इसी को ध्यान में रख कर कर दिया गया था। कालोनी की मुख्य सड़क के किनारेकिनारे लोहे की लंबीलंबी रैलिंग और उस के ढाई मीटर की दूरी से शुरू होती है पटरियां। उस के बाद लगभग 50 मीटर चौड़ी खाली जगह। यही खाली जगह अब मैदान का रूप ले चुका है।

सोमेश सर को पटरियों पर 3 डीजल इंजन एक के पीछे एक खड़ी दिखीं। माजरे को समझने के लिए उन्होंने अपने कदम तेज कर लिए। सामने से खटारा साइकिल पर सवार हौकर गणेशी को आता देखा तो उन्होंने अधीरतापूर्वक पूछा,“क्या हुआ है गणेशी?”

“रनओवर हो गया।”

“रनओवर… किस का?”

“गाय का।”

“किस की गाय?”

“पता नहीं सर।”

सोमेश सर जब भीड़ के करीब पहुंचे तो उन्होंने देखा कि रेलवे के सभी विभागीय प्रभारी लोको फोरमैन, कैरिज फोरमैन, आईओडब्ल्यू, पीडब्ल्यूआई, स्टेशन मैनेजर, रेलवे सुरक्षा बल के निरीक्षक पहुंचे हुए थे। साथ में कई जवान लुंगी बांधे, खुला बदन, सिर पर गमछा धरे बगल में शुक्लाजी खड़े थे। इत्मीनान से खैनी मल रहे थे। सोमेश सर ने उन्हें कुरेदा, “कैसे हुआ यह सब शुक्लाजी?”

“अरे, क्या बताएं सरजी, इधर मैदान में बच्चा सब क्रिकेट खेल रहे थे। 3 गाएं उधर से आ कर मैदान में घुस गई थीं। एक बच्चा एक गाय को पत्थर उठा कर इतना जोर से मारा कि वह बिलबिला कर लाइन की तरफ भागी। ऐन वक्त यही डीजल इंजन आई थी। मास्टर (चालक) कोशिश किया कि ब्रेक मार कर रोक दें, लेकिन तब तक धक्का खा कर गाय लाइन के बीच में आ गई और बस…”

“जल्दीजल्दी बोलो यह किस की गाय है?”

रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ ) के सब इंस्पैक्टर मुखर्जी सर भीड़ से मुखातिब थे। कुछ दिन पहले ही मुखर्जी सर बंगाल के किसी रेलवे स्टेशन से तबादला हो कर यहां ओहदानशीं थे।

“देखो, बाद में पता लग जाएगा कि किस की गाय है तो भारी केस बन जाएगा….रेललाइन में घर का जानवर का घूमनाफिरना रेल के नियमकानून का खिलाफ है।”

भीड़ में फुसफुसाहट थी,”देखिए, रेल का काम कितना हंपर हो रहा है। स्टेशन मैनेजेर ने बताया कि यह जो 2 डीजल इंजन खड़ा है उन को तेल भर कर मालगाड़ी और पैसेंजर ट्रेन ले जाना है। कितना डिटेन हो रहा है डीजल इंजन। इस के चलते दोनों ट्रेन भी डिटेन हुआ तो डीआरएम लेबल से पूछताछ शुरू हो जाएगी।”

इसी बीच मुखर्जी सर के बगल में खड़े सुरक्षा बल के एक जवान दबी जबान में कुछ फुसफुसाया,”गोपाल मिश्रा कौन हैं? वे इधर हैं क्या?”

“जी, हम हैं सर…” गोपाल बाबू नमूदार हुए. अतिरिक्त विनम्रता के साथ हाथ जोड़े सब इंस्पैक्टर के सामने खड़े हो गए।

“यह आप की गाय है?”

“कैसी बात करते हैं हुजूर। अगर मेरी गऊ मैया होती तो अब तक हम इस को ऐसे ही पड़े रहने देते? अपने हाथों से क्लीयर कर देते और विधिविधान के साथ क्रियाकर्म भी कर देते. रामराम…ब्रह्महत्या का इतना घोर पाप ले कर हम जीवित रह पाएंगे?सर, हम भी रेल के मुलाजिम हैं, हम भी समझते हैं कि कितना डिटेन हो रहा है रेल का परिचालन…”

“आप के पास कितनी गाएं हैं?”

“सर, 3 हैं- गंगा, जमुना, सरस्वती. तीनों ग्वालघर में हैं… अभी तो सानीपानी दे कर आ रहे हैं। विश्वास नहीं हो तो सर चल कर जांच कर लें।”

सब इंस्पैक्टर ने अपने 2 जवानों को इशारा किया। वे दोनों गोपाल बाबू के साथ हो लिए। वहां पहुंच कर उन दोनों ने देखा कि एक ही नाद में तीनों गाय भोजन कर रही हैं। गोपाल बाबू की तीनों गायों का सशरीर मौजूद होने का सुबूत पा कर सब इंस्पैक्टर ने लावारिस गाय का रनओवर केस दर्ज कर मैडिकल डिपार्टमैंट के सैनेटरी इंस्पैक्टर को लाइन क्लीयर करने की हिदायत दी और अपने जवानों के साथ औफिस के लिए रवाना हो गए।

जोसफ को गाय खरीदे कुछ ही दिन हुए थे, इसलिए इस की खबर कालोनी वालों को भी नहीं थी। सिर्फ पड़ोसी ही जानते थे पर किसी ने मुंह नहीं खोला।

भीड़ जब छंटने लगी तो सहसा सोमेश सर की नजर जोसफ पर पड़ी, जो रनओवर स्पौट पर रेलवे ट्रैक को क्लीयर करने वाले सफाईकर्मियों की मदद कर रहा था। बिजली की मानिंद उन के जेहन में एक शंका कौंधी। कहीं यह मृत गाय जोसफ की तो नहीं? वे लंबेलंबे डग भरते हुए जोसफ के पास पहुंचे और उस के कंधे पर हाथ रख कर धीरे से पूछा, “तुम्हारी गाय?”

“नहीं…वह तो गोपाल बाबू के ग्वालघर में है।”

“क्या?” सोमेश सर जैसे आसमान से गिरे। जिस व्यक्ति को जोसफ का गाय पालना नागवार गुजर रहा है, उस के घर में जोसफ की गाय… उन के मन में एक और शंका उभरी कि कहीं जोसफ ने मारिया को बेच तो नहीं दिया। जोसफ के मुंह से ही शंका का निवारण चाह रहे थे, “लेकिन तुम्हारी गाय वहां क्यों?”

“उन की तीनों गायों के जिंदा होने के सुबूत के लिए।”

“मतलब…मैं समझा नहीं जोसफ… साफसाफ कहो न…”

“गंगा, जमुना और सरस्वती ये तीनों गायों को जीवित दिखाने के लिए वे मेरी मारिया को ले गए।”

“उन की 3 गाएं और तुम्हारी 1 कुल 4 हुए न?” जोसफ की बातें उन्हें पहेली जैसी लग रही थीं। गुस्सा भी आ रहा था उन्हें। सीधी सी बात को पेचीदा बना कर क्यों उलझा रहा है।
जोसफ तफसील से बताने लगा कि घंटाभर पहले गोपाल बाबू उस के पास दौड़तेहांफते आए और हाथपैर जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगे,”कुछ घंटे के लिए मारिया को मुझे दे दो जोसफ भाई।”

“लेकिन क्यों?” जोसफ ने हैरानी से पूछा।

“देख भाई, मेरी गाय गंगा रेलवे ट्रैक पर रनओवर हो गई है। अब कानूनी काररवाई शुरू हो जाएगी और हम बुरी तरह फंस जाएंगे।”

“तो मारिया को ले कर क्या करेंगे?”

“मारिया को गंगा बना कर दिखा देंगे कि हमारी तीनों गाय जिंदा हैं।”

“लेकिन…” जोसफ की दुविधा वाली स्थिति को भांपते हुए गोपाल बाबू उस के पैर पर गिर पड़े, “देख भाई, न मत कहो…इस मुसीबत से तुम ही मुझे उबार सकते हो…जीवनभर नहीं भूलेंगे तुम्हारा यह उपकार।”

जोसफ इनकार नहीं कर सका। गोपाल बाबू ने मारिया को घर ले जा कर झटपट जमुना और सरस्वती के साथ बांध दिया। गोपाल बाबू की प्यारी गंगा जा चुकी थी। अब उस की भूमिका में मारिया थी, मुसीबत के फंदे से उन्हें बचाने वाली मारिया।

मामले की असलीयत से वाकिफ होते ही सोमेश सर का मुंह अचरज से खुला का खुला रह गया। उन्हें गौभक्त गोपाल बाबू के चेहरे पर किसी कसाई का चेहरा चस्पां नजर आने लगा।

लेखिका-मार्टिन जौन

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