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कर्तव्य निर्वाह (अंतिम किस्त)

पिछले अंक में आप ने पढ़ा

कि चुनावों के चलते सरकारी कर्मचारियों के लिए ड्यूटी पर तैनात होने के सरकारी फरमान से मानो कार्यालय में खलबली मच जाती है. सख्त आदेश के आगे ड्यूटी से बचने के सभी उपाय बेकार साबित हुए. भगतजी जैसे आरामपरस्त व्यक्ति के लिए ड्यूटी निभाना पहाड़ पर चढ़ने जैसा था. खैर, कर्तव्य निर्वाह हेतु जरूरत के साजोसामान सहित मतदान केंद्र जाने की तैयारी कर ली.

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शौचालय तो स्कूल में था लेकिन उस में सुविधा के स्थान पर टूटा फर्नीचर व अन्य कबाड़ भरा था. शौच क्रिया निबटाने के लिए खेत को ही शौच का कर्मक्षेत्र बनाना था. चुनाव अधिकारी की सख्ती का ही कमाल था कि अधिकतर लोगों ने पुलिसलाइन के बड़े मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर नए परिचयपत्र प्राप्त कर लिए थे. अब वे नाम से नहीं पोलिंग पार्टी संख्या के नाम से जाने जा रहे थे. सभी को चुनावकर्मी कह कर संबोधित किया जा रहा था. वे भूलते जा रहे थे कि वे बैंककर्मी हैं. सभी को पता चल गया था कि किस की ड्यूटी किस चुनाव क्षेत्र में किस पोलिंग बूथ पर लगी है. ज्यादातर बैंककर्मियों को पीठासीन अधिकारी बनाया गया था और अन्य सहायकों के रूप में स्कूल अध्यापक और विभिन्न विभागों के चपरासी भी थे.

पंडालों की संख्या पर्याप्त न होने के कारण वे मैदान के किनारे खडे़े पेड़ों की छाया पर अपनाअपना कब्जा कर के चुनाव सामग्री का मिलान, छपी हुई सूची से कर रहे थे. जो लोग नहीं पहुंच पाए थे उन को नाम और विभाग के साथ लाउडस्पीकर से पुकारा जा रहा था. यह आदेश प्रसारित किया जा रहा था कि वे अपनीअपनी चुनाव सामग्री प्राप्त कर लें अन्यथा उन के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी जाएगी, जिस के गंभीर परिणाम उन लोगों को भुगतने पड़ सकते हैं. जिन्होंने चुनाव सामग्री प्राप्त कर के मिलान कर लिया हो, प्रस्थान करें. पोलिंग बूथ तक पहुंचाने और मतदान समाप्त होने पर वापसी का उचित और पर्याप्त प्रबंध किया गया है.

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उचित और पर्याप्त परिवहन व्यवस्था के नाम पर कुछ खटारा बसें और मालवाहक ट्रक पंक्तियों में खड़े थे, जिन्हें सड़कों से प्रशासन ने जबरदस्ती रुकवा कर पुलिसलाइन में इकट्ठा किया था. चुनाव- कर्मियों ने अपनीअपनी पोलिंग पार्टी की संख्या के अनुसार अपना वाहन ढूंढ़ लिया जो एक ट्रक था, जिस पर अन्य 4 पोलिंग पार्टियों को भी सवार हो कर जाना था.

ट्रक में ड्राइवर की सीट के बगल की जगह पर सुरक्षाकर्मियों ने पूरी तरह कब्जा कर लिया था यानी यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई कि ट्रक के पीछे ही सभी पोलिंग पार्टियों को अपनाअपना स्थान ग्रहण करना है.

ट्रक ड्राइवर और उस का हैल्पर ट्रक के पास ही कोयले से काले हुए कपड़े पहने थे. ड्राइवर अपना दुखड़ा रो रहा था कि 2 दिन बाद उस की लड़की की शादी है. इन लोगों ने उस का ट्रक पकड़ लिया. बहुत गिड़गिड़ाया मगर पुलिस वालों ने एक नहीं सुनी. ऊपर से कह रहे थे, अबे, तेरी लड़की की शादी टल सकती है, चुनाव नहीं. 2 दिन से ट्रक पकड़े हुए हैं. ऐसा मालूम होता तो कोयला पहुंचा कर ट्रक वहीं छोड़ आता और बस से घर चला जाता.

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‘‘तो क्या इस में कोयला लदा था?’’ एक चुनावकर्मी ने सवाल किया.

‘‘हां बाबू, कह तो रहा हूं कि कोयला लाद कर गया था, वापसी में खाली ट्रक देख कर पुलिस वालों ने चुनाव के लिए पकड़ लिया.’’

‘‘ट्रक की सफाई हो गई?’’

‘‘हां, बाबूजी,’’ हैल्पर ने जवाब दिया, ‘‘खूब अच्छी तरह झाड़ू लगा दी है. चलिए, देख लीजिए,’’ उस ने पीछे चलने का इशारा किया.

‘‘यह तो पूरा काला है.’’

‘‘बाबू, खूब साफ किया, कोयला है अपना रंग छोड़ता ही है. काजल की कोठरी में बिना काले हुए कैसे रहा जा सकता है,’’ वह मुहावरा जड़ कर हंस पड़ा और पानमसाले से रंगे दांत दिखा दिए.

‘‘तो क्या इसी कोयले की गंदगी में हम लोगों को जाना पड़ेगा?’’

‘‘हां, बाबूजी, कोयला जल्दी साफ नहीं होता,’’ हैल्पर ने स्पष्ट किया.

‘‘हां, दूसरा माल लदतेलदते साफ हो जाता है. आप लोग बैठेंगे तो यह थोड़ा साफ हो जाएगा,’’ ड्राइवर ने अपनी बात बड़ी सहजता से कह दी.

‘‘इस के ऊपर छाया के लिए तिरपाल नहीं है?’’

उस ने सिर हिला कर साफ इनकार कर दिया.

‘‘कोयले को तिरपाल की जरूरत नहीं होती, धूप और पानी से इस का कुछ बिगड़ता नहीं. इसलिए हम लोग तिरपाल ले कर नहीं चलते,’’ वह प्रसन्न हो कर बड़ी सहजता से कहता जा रहा था.

‘‘बिना तिरपाल लगाए हम लोग नहीं जाएंगे,’’ सब की तरफ से एक चुनावकर्मी ने निर्णय सुना दिया.

‘‘तो मत जाओ. जब हमारे पास तिरपाल नहीं है तो कहां से लगा दें.’’

कुछ लोग बोले कि इस से बहस करने से कोई फायदा नहीं, चलिए अपने सैक्टर मजिस्ट्रेट से बात करते हैं.

आयुर्वेद अस्पताल के एक डाक्टर को सैक्टर मजिस्ट्रेट का पद दे दिया गया था. वे इसी ट्रक की तरह पकड़ी गई डग्गामार जीप पर अपने गंजेपन को छिपाए कैप लगाए बैठे थे. उन के चेहरे पर मजिस्ट्रेटी रौब था क्योंकि उन की जीप के कांच पर ‘सैक्टर मजिस्ट्रेट’ लिखा कागज चिपका था. उन्होंने तिरपाल न होने की समस्या को गंभीरतापूर्वक सुना. अपनी जीप बढ़वा कर ट्रक के पास रुकवाई. ड्राइवर को बुलवाया. ड्राइवर अपनी बेटी की शादी में समय से न पहुंच पाने के कारण खिन्न तो था ही, उस ने दोटूक जवाब दिया, ‘‘कह दिया, जब तिरपाल है ही नहीं तो कहां से तान दूं. जब ट्रक पकड़ा था तब पूछ लेते तिरपाल है कि नहीं. अब आप तिरपाल का इंतजाम करवा दीजिए, तनवा दूंगा ट्रक पर बिना बंबू के. मुझे तो अपनी बेटी की शादी की चिंता खाए जा रही है.’’

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सैक्टर मजिस्ट्रेट ने अपनी असमर्थता बताई तो कुछ लोगों ने सलाह दी कि कुछ ट्रक तो रिजर्व होंगे. ट्रक ही बदलवा दीजिए. यह ट्रक तो वैसे भी कोयले से काला हो रहा है.

‘‘रिजर्व में हैं तो जरूर पर उन का प्रयोग हमारे स्तर पर नहीं किया जा सकता. हां, जब ट्रक चलने लायक न हो तो डी.एम. के आदेश पर उन का प्रयोग किया जा सकता है,’’ उन्होंने यह कहते हुए जीप आगे बढ़वा दी. चलतेचलते कहते गए, ‘‘आप लोगों की समस्या कोई विशेष नहीं है. आप लोगों को ऐसी ही परिस्थिति में जाना पड़ेगा. देखिए, एनाउंसमैंट हो रहा है, आप रवानगी करिए.’’

सभी एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. नियति से मुकाबला करना पड़ेगा. सभी चुनावकर्मियों के चेहरे पर विवशता के अतिरिक्त कुछ नहीं था.

शहर पार करने के बाद ट्रक राष्ट्रीय राजमार्ग पर चल पड़ा. सड़क किनारे लगे ऊंचे शीशम के पेड़ और उन की घनी छाया सभी को अच्छी लग रही थी. यह अस्थायी सुख ज्यादा देर नहीं टिक पाया. एक तिराहे से बायीं ओर संकरी सड़क पर ट्रक ने मोड़ ले लिया. मुश्किल से 2 किलोमीटर जाने के बाद सड़क, सड़क ही नहीं रही. बस, सड़क का नाम रह गया.

सड़क टूटीफूटी थी. किनारे पर  पेड़ भी नहीं थे. ट्रक धचके खाता हुआ धीमी गति से आगे बढ़ रहा था. लोग ट्रक की बौडी को पकड़े हिचकोले खाते हुए संभलसंभल कर यात्राकष्ट भोग रहे थे. सूरज भी सिर के ऊपर आ टिका था. सूरज ने सब को इतना तपा दिया था कि सभी इस यात्रा को तपस्या समझ कर सहन कर रहे थे.

2 घंटे की इस अनवरत, ऊबड़खाबड़ सड़कयात्रा ने सभी को बुरी तरह तोड़ दिया. ड्राइवर ने कुछ आराम की नीयत से एक घने पेड़ की छाया में ट्रक रोका. धूप और गरमी से परेशान लोगों ने राहत की सांस ली. सभी नीचे उतर पड़े.

यह संकरी सड़क को खड़ंजे से काटता हुआ चौराहा था. इस छोटे से चौराहे पर कुछ छायादार पेड़ थे जिन के नीचे जलपान की दुकानें थीं, जिन्हें होटल तो नहीं कहा जा सकता, हां, कुछ बैंच बैठने के लिए पड़ी थीं और सरकारी हैंडपंप चालू हालत में था. जो ताजा और ठंडा पानी उगल रहा था यानी  पीने और हाथमुंह धोने का चौकस साधन था.

होटलनुमा दुकानों में चाय, समोसे, मिठाई की उपलब्धता थी जिन में निश्चित ही वातावरण की प्राकृतिक ऊष्मा का संचार था. आधे घंटे के विराम ने सभी को हाथपांव व शरीर को सीधा करने का अवसर दे दिया था. नष्ट हुई ऊर्जा की थोड़ी पूर्ति हुई.

ट्रक के हौर्न ने सभी को सचेत कर दिया कि अब फिर चलना है. सभी फिर वैसे ही सवार हो गए. अब दिन का उत्तरार्ध आरंभ हो चुका था.

आधे घंटे बाद पहली पोलिंग पार्टी का गंतव्य आया. वह उतरी तो ट्रक में कुछ जगह खाली हुई. इस तरह धीरेधीरे 3 पोलिंग पार्टी उतरती गईं. अब आखिरी पोलिंग पार्टी को उतरना बाकी था.

शाम 4 बजे उतरती धूप में ट्रक भरभरा कर इंजन सहित रुक गया. आगे रास्ता ही नहीं था. ड्राइवर और उस का हैल्पर ट्रक से नीचे उतर आए और अपना पसीना पोंछने लगे. यही उन की आखिरी मंजिल थी. बचे हुए सवार भी अपने सामान सहित ट्रक के नीचे उतर आए. इस में भरत भी थे. सामने सूखी नदी थी. नदी पार इस पोलिंग पार्टी का मतदान केंद्र था. एक जानकार ने बताया कि नदी को पैदल ही पार किया जा सकता है. यही सब से निकटतम रास्ता है. नदी के उस पार जो पीले रंग का स्कूल दिखाई दे रहा है वही मतदान केंद्र है.

इतना कष्ट सह लेने के बाद यह कोई खास बाधा नहीं जान पड़ी. सभी अपनेअपने सामान के साथ नदी पार करने को बढ़ने लगे. सब के कपड़े व हाथपैरों में कोयले का रंग चढ़ चुका था. पूरी पार्टी नदी के गोलगोल पत्थरों पर पैर संभालते हुए नदी पार जल्दी पहुंचना चाहती थी. बीच में एक पतली सी जलधारा को सभी ने घुटनेघुटने पानी में चलते हुए पार किया.

आखिर वे अपने गंतव्य तक पहुंच ही गए. 4 कमरों का भवन एक प्राइमरी पाठशाला थी, जिस की दीवारों पर सर्व शिक्षा अभियान के बारे में लिखा था. वहां काली यूनिफार्म में तैनात सुरक्षाकर्मियों ने मुसकरा कर सभी का स्वागत किया. सुरक्षाकर्मियों के चेहरे आम भारतीयों से अलग थे. उन के हाथों में अलग ढंग के आग्नेयास्त्र थे. अंदर जा कर पोलिंग पार्टी के लोगों को लगा कि वे किसी छावनी में आ गए हैं.

पसीने से तर कपड़े शरीर को ठंडक पहुंचा रहे थे. मंजिल पर पहुंच कर पोलिंग पार्टी ने राहत की सांस ली थी. डूबते सूरज की मलिन पड़ी अंतिम धूप थक कर लगभग खो जाना चाहती थी. स्कूल के घने पेड़ों में शाम जल्दी ही उतर आना चाहती थी. मंदमंद शीतल हवा एक सुखद एहसास दे रही थी.

स्कूल के 4 कमरों में से 1 में ताला जड़ा था. 1 सुरक्षाकर्मियों ने हथिया रखा था. 1 कमरे को मतदान कक्ष बनाया गया था और 1 कमरा सभी मतदानकर्मियों के ठहरने के लिए उपलब्ध था. हां, चारों कमरों को जोड़ते हुए एक बड़ा सा संयुक्त बरामदा जरूर था जो स्थान के अभाव को दूर कर रहा था.

स्कूल के अहाते में लगे हैंडपंप के शीतल जल से स्नान कर के सभी मतदानकर्मियों ने अपनी कालिख छुड़ाई और तनमन को तरोताजा किया. रात होने लगी थी. गैसबत्ती की रोशनी में बरामदे में बैठ कर घर से लाए भोजन को डिनर मान कर पेट भरा.

बिजली न होने के कारण यह तय किया गया कि स्कूल की छत पर सोया जाए. वहां गरमी भी नहीं लगेगी और मच्छरों से भी बचाव रहेगा. छत पर जाने के लिए सीढि़यां तो थीं नहीं, अहाते में रखी बांस की सीढ़ी के सहारे छत के ऊपर चढ़ गए. अपनीअपनी चादर बिछाई गई. मच्छरों से बचाव के लिए क्वाइल जलाए गई. कुछ लोगों ने अपने शरीर पर ऐसी क्रीम मली जिस से मच्छर नफरत करते थे.

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थके होने के कारण नींद अपने आगोश में लेने लगी. नींद ठीक से आ भी नहीं पाई कि सियारों की हुआंहुआं ने सब को चौंका दिया. सियारों का एक झुंड स्कूल के आसपास चहलकदमी कर रहा था. आधी रात बीतने के बाद सुबह की चिंता सताने लगी. सुबह 7 बजे के पहले पोलिंग बूथ की सारी व्यवस्था कर लेनी थी. कई आवश्यक प्रक्रियाएं थीं, जिन में चूक होने पर कानूनी जुर्म का भागीदार होना पड़ सकता था. इसलिए सुबह जल्दी उठ कर आवश्यक शारीरिक कर्म भी पूरे कर लेने थे. शौचालय तो स्कूल में था जरूर लेकिन उस में सुविधा के स्थान पर टूटा फर्नीचर व अन्य कबाड़ भरा था. शौच क्रिया निबटाने के लिए किसी खेत को ही शौच का कर्मक्षेत्र बनाना था. फसल कट चुकने के बाद खेत खाली थे, ओट के लिए कुछ नहीं था. किसी भी शर्मदार के लिए प्राकृतिक अंधेरा ही सहारा था.

अंधेरा भी इन दिनों जल्दी भाग जाता है. साथ में पानी ले जाने के लिए मिट्टी सने खाली प्लास्टिक के डब्बे जरूर उपलब्ध थे, जिन का प्रयोग पहले भी इस काम के लिए होता रहा होगा. आज धड़ल्ले से उपयोग में लाए जा रहे थे.

आखिर वह समय आ गया जिस के लिए सभी ने इतने कष्ट सहे थे. सुबह 7 बजे मतदान आरंभ हो गया था. तेज गरमी के मौसम के कारण सुबह 10 बजे मतदाताओं की लंबी कतार लग गई थी. तेजी से मतदान जारी था. दोपहर 12 बजे तक मतदाताओं का आना बहुत कम हो गया था. बाहर तेज लू चलने लगी थी. मतदान केंद्र यानी गांव के स्कूल के अहाते में घने पेड़ थे इसलिए वहां राहत थी. पेड़ों के मोटे तने को घेर कर गोल चबूतरे बनाए गए थे, जिन पर लोग कुछ देर बैठते, सुस्ताते और चले जाते. अब मतदान की गति कुछ धीमी हो गई थी. मतदानकर्मी भी राहत की सांस ले रहे थे. बाहर बरामदे में पानी का घड़ा रखा था. पानी या पेशाब के बहाने बाहर टहल आते और बाहर का दृश्य भी देख आते. सभी के संज्ञान में आया कि किनारे के एक पेड़ के नीचे एक गोरेचिट्टे, हट्टेकट्टे नागालैंड के युवा सुरक्षाकर्मी से एक महिला कुछ अधिक निकटता बनाए बैठी बातें कर रही है. यह महिला सुबह से ही मतदान केंद्र से बाहर सक्रिय थी. शायद किसी राजनीतिक पार्टी की कार्यकर्ता रही होगी.

गहरा श्यामवर्ण लिए, क्षीण काया पर चमकीले रंगों वाली साड़ी लपेटे काफी चपलता दिखा रही थी. अपनी ओर से यह जताने की सफल कोशिश कर रही थी कि वह भी इस ‘क्षेत्र’ की ‘कुछ’ है. अनाकर्षक होते हुए भी लोगों की नजरों में चढ़ चुकी थी. एक मतदानकर्मी, जो किसी स्कूल का चपरासी था, भरत के कान में फुसफुसाया कि कैसी खराब तो लगती है लेकिन सुरक्षाकर्मी इस में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहा है?

भरत ने उस की जिज्ञासा एक ही संवाद में शांत कर दी, ‘‘बुरे काम के लिए कोई चीज बुरी नहीं होती.’’

हंसी का एक फौआरा उस के मुंह से बाहर निकल पड़ा.

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‘‘कई दिनों से चुनाव चल रहे हैं. सुरक्षाकर्मी कई दिनों से घर से बाहर होगा. अपनी बीवी से मिले बहुत दिन हो गए होंगे,’’ एक अनुमान लगाया गया.

मतदान समाप्ति के समय से पहले ही मतदाताओं का आना लगभग बंद हो गया था. इस चुनाव ड्यूटी में 2 अध्यापक भी थे. उन्हें प्रधानी से ले कर विधायक और सांसद के कई चुनाव कराने का पर्याप्त अनुभव था. वोटिंगमशीन के साथ जमा किए जाने वाले अनेक प्रपत्रों को पूरा करने में लग गए थे, जोकि एक बहुत समय लेने वाला काम होता है, जितना काम यहीं निबट जाए उतना अच्छा. चूंकि यह आखिरी पोलिंग पार्टी थी, इस को ले कर ट्रक को वापसी की शुरुआत करनी थी. शेष प्रपत्र जमाकेंद्र पर ही भर लिए जाने की बात मान कर सभी अपनाअपना सामान ले कर वापसी के लिए खड़े हो गए. उन्हें पहले की तरह पैदल नदी पार कर के इंतजार कर रहे ट्रक में सवार होना था.

वापसी में पोलिंग पार्टी के साथ आधुनिक आग्नेय अस्त्र थामे 2 चुस्त- दुरुस्त सुरक्षाकर्मी थे. वे वोटिंगमशीन लिए जा रहे मतदानकर्मी के इर्दगिर्द ही चल रहे थे. अब वोटिंगमशीन बहुमूल्य थी. उस में कई प्रत्याशियों के भविष्य का फैसला था. वोटिंगमशीन थामने वाला मतदानकर्मी वीआईपी लग रहा था, जैसे उस की सुरक्षा के लिए काली यूनिफौर्म वाले सुरक्षाकर्मी मुस्तैदी से तैनात किए गए हों.

ट्रक में सभी सवार हो गए. शाम अभी घिरी नहीं थी. ट्रक की कालिख बहुतकुछ साफ हो चुकी थी, यह नहीं लगता था कि ट्रक में हाल ही में कोयला लादा गया है. वापसी में अन्य तीनों पोलिंग पार्टी भी ट्रक में सवार होती गईं. हर पार्टी के साथ 2-2 सुरक्षाकर्मी भी बढ़ते रहने के कारण ट्रक ठसाठस भर गया. असुविधा तो बढ़ी परंतु मौसम के ढलते तेवर और कार्य समाप्त कर घर लौटने के उत्साह से सभी आश्वस्त थे.

ठंडी हवाओं में कुछ लोग समूह गीत गाना चाहते थे. कुछ लोग बातें ही खत्म नहीं कर पाए कि ट्रक शहर के करीब पहुंच कर धीमेधीमे चलतेचलते एकाएक रुक गया. ट्रक के सामने रुके हुए वाहनों की लंबी पंक्ति थी. शहर का मुख्य चौराहा 1 किलोमीटर दूर था. बाजार शुरू हो गया था. आधा घंटा इंतजार करने के बाद लगा कि जाम खुल नहीं पाएगा. चारों दिशाओं से आने वाले वाहनों का गंतव्य एक था. किसी वाहन ने सभी के रास्ते रोक दिए थे. जल्दी जाम न खुल पाने की संभावना को देखते हुए एक ही विकल्प था कि ट्रक छोड़ कर पैदल ही आगे बढ़ा जाए. किसी तरह गंतव्य पर पहुंचना भी कर्तव्य निर्वाह का एक हिस्सा था.

शहर के पार कृषि उत्पादन मंडी समिति के विशाल परिसर में सील की हुई वोटिंग मशीन व अन्य निर्धारित प्रपत्र जमा कर के प्राप्त रसीद को ही पूर्ण कर्तव्य निर्वाह का प्रमाण समझा जाता था.

रात के 9 बज चुके थे. शहर से हो कर मंडी समिति की ओर जाने वाली सड़क पर लंबी पंक्ति में वाहन ठहरे थे. उन के अगलबगल पैदल जाने वालों का हुजूम था.

मंडी समिति परिसर में सचमुच मेले जैसी भीड़ थी. जमीन पर यहांवहां झुंड बनाए हर पोलिंग पार्टी अपनेअपने प्रपत्र पूर्ण कर लिफाफे तैयार करने में जुटी थी. सभी को इस बात की जल्दी थी कि अपनी सील्ड वोटिंग मशीन और लिफाफे निर्धारित काउंटर पर जमा कर के इतिश्री कर लें.

रात के 11 बज चुके थे. पीठासीन अधिकारी का पद ओढ़े लोगों के चेहरे पर थकान और आंखों में नींद की आहट थी. लंबी पंक्ति बनाए हुए वे खड़े थे. अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़ेखड़े शरीर का भार कभी बाएं पैर पर डालते तो कभी दाएं पैर पर. मन में प्रशासन और चुनाव के लिए गालियों का गुबार लिए थे.

धैर्य की परीक्षा देतेदेते रात के डेढ़ बजे भरत को भी मुक्ति मिल गई. शरीर का मारे थकान से बुरा हाल था और अगले दिन सुबह चेहरे पर दिखने वाले दाढ़ी के सफेद बाल उग आए थे. किसी तरह लड़खड़ाते हुए अपना ब्रीफकेस थामे मंडी समिति परिसर से बाहर आए कि किसी साधन से घर पहुंच जाएं. बाहर रात का सन्नाटा पसरा था. लोग पैदल ही घर लौट रहे थे. उन के लिए दो कदम चलना भी बहुत मुश्किल था. सड़क किनारे कहीं बैठने की जगह भी नहीं थी. उन के पास एक ही उपाय था कि पत्नी को फोन कर के जगाया जाए और कहा जाए कि गाड़ी ले कर जल्दी आओ और मुझे ले जाओ. मोबाइल जेब से निकाला और औन किया. बैटरी चार्ज न होने के कारण खत्म होने लगी थी तो उन्होंने मोबाइल दिन में ही औफ कर दिया था. ‘लो’ बैटरी का संदेश उन्होंने पढ़ा और शीघ्रता से पत्नी का मोबाइल मिलाया.

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काफी देर बाद पत्नी की धीमी ‘हैलो’ सुनाई दी. शायद वे गहरी नींद में थीं. वे जल्दी में इतना ही कह पाए, ‘कोई साधन नहीं है. फौरन गाड़ी ले कर आओ और मुझे ले जाओ, मैं मंडी के गेट के बाहर खड़ा हूं.’ और उन का मोबाइल बैटरी समाप्त होने के कारण बंद हो गया.

उन्हें पूरा विश्वास था कि पत्नी ने उन की पूरी बात सुन ली है. वे जरूर आएंगी. हां, थोड़ी देर लग सकती है. गाड़ी गैरेज से निकालेंगी. गेट का ताला खोलेंगी. गेट पर ताला लगाएंगी. घर यहां से 5 किलोमीटर दूर है. बहुत जल्दी करेंगी तो 15 मिनट तो लग ही जाएंगे. समय काटने के लिए वे चिंतन करने लगे कि चुनावकाल में प्रशासन के हाथ में ऐसा कौन सा हथियार आ जाता है जिस की धार के डर से सभी विभाग के कर्मचारी पूरे आज्ञाकारी हो जाते हैं, पूरी जिम्मेदारी से कर्तव्य निर्वाह करते हैं. चुनाव के बाद पूरे 5 वर्ष हथियार धार क्यों खो देता है. सब अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं.

छत्तीसगढ़: धान घोटालेबाजों के हौसले बुलंद

32 करोड़ रुपए का एक और धान घोटाला सामने आया है. कांग्रेस नेता मोहम्मद अकबर का मानना है कि रायगढ़ जिले के धान खरीदी केंद्रों में साल 2012-13, 2013-14 व 2014-15 के दौरान यह घोटाला हुआ. घोटाले में बडे़ लेवल के लोग शामिल हैं, लेकिन छोटे मुलाजिमों व अफसरों को ही जिम्मेदार ठहरा कर जांच की खानापूरी की जा रही है. उन्होंने पूरे मामले की जांच सीबीआई को सौंपने की मांग की है. उल्लेखनीय है कि तकरीबन 2-3 महीने पहले उन्होंने बलौदा बाजार व भाटापारा जिले में तकरीबन 30 करोड़ रुपए का धान घोटाला उजागर किया था. पंजीयक सहकारी संस्थाओं ने इस मामले में फंसे संबंधित अधिकारियों से वसूली के निर्देश जारी कर दिए हैं.

कांग्रेस नेता मोहम्मद अकबर ने उपपंजीयक सहकारी संस्थाएं, रायगढ़ द्वारा पंजीयक सहकारी संस्थाएं, रायपुर को सौंपी गई रिपोर्ट के दस्तावेज जारी किए. रिपोर्ट के मुताबिक, रायगढ़ जिले में 32 करोड़, 17 लाख रुपए का धान घोटाला हो चुका है. इस में यह भी बताया गया है कि धान संग्रहण केंद्र, लोहर सिंह में साल 2012-13, 2013-14 व 2014-15 में धान व बारदाना में 11 करोड़, 61 लाख रुपए तक का नुकसान हुआ.

रिपोर्ट में धान संग्रहण केंद्र, लोहर सिंह के संग्रहण केंद्र प्रभारी व जिला विपणन अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया गया. रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि धान संग्रहण हरदी यानी हवाई पट्टी, सारंगढ़ में साल 2013-14 में कुल 20 करोड़, 56 लाख रुपए के धान की कमी कर नुकसान पहुंचाया गया है. इधर कांग्रेस नेता मोहम्मद अकबर ने सत्ता पक्ष पर आरोप लगाते हुए कहा कि करोड़ों रुपए का धान घोटाला करने वाले सत्ता पक्ष के लोगों को रमन सरकार बचाने में लगी है, जिस के चलते सैकड़ों करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है. उन्होंने कबूला कि ऐसे घोटाले करने से घोटालेबाजों के हौसले बुलंद हैं, क्योंकि किसी भी जिले में घोटाले की वसूली के लिए सरकार ने जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया.

कच्चे तेल में गिरावट से खत्म हो जाएंगी कई कंपनियां

दुनिया की सब से बड़ी मनी मैनेजर कंपनी ब्लैकराक इंक के सीईओ ने आशंका जताई है कि कच्चे तेल में भारी गिरावट आ जाने की वजह से 400 कंपनियों का वजूद ही मिट सकता है. सीईओ ने आशंका को जाहिर करते हुए आगे कहा कि कच्चे तेल में लगातार गिरावट का माहौल बने रहने की वजह से कंपनियों को कर्ज से उबरने में मुश्किल आ रही है. यही वजह है कि पेट्रो उत्पादों में आने वाले लंबे समय तक गिरावट का दौर बना रह सकता है. साथ ही, कर्ज में डूबी कंपनियों को सिर्फ  कीमतों में इजाफे से ही राहत मिल सकती है, जो आने वाले दिनों में मुमकिन नहीं दिखता. एक रिपोर्ट के मुताबिक, तेल की कीमतों को ले कर कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती और न ही यह दावा किया जा सकता है कि किन कंपनियों को नुकसान उठाना पड़ेगा. हालांकि उन्होंने कहा कि कच्चे तेल के बाजार में मंदी का नहीं, बल्कि आत्मसमर्पण का दौर है, जो बहुत ही खतरनाक है.

अमेरिकी बाजार में तुलनात्मक सुस्ती और ईरान की ओर से ज्यादा तेल उत्पादन के चलते इस साल कच्चे तेल की कीमतों में 15 फीसदी तक की कमी हुई है. स्वतंत्र अमेरिकी तेल अन्वेषकों का भी यही अनुमान है कि साल 2015 में तेल कीमतों में गिरावट के चलते अमेरिकी कंपनियों को तकरीबन 14 अरब डालर यानी तकरीबन 95,402 करोड़ रुपए का भारी नुकसान होगा. क्रूड तेल की कीमतों में भारी गिरावट आ जाने से कंपनियों में भले ही हाहाकार मचेगा, लेकिन उपभोक्ताओं को फायदा होने वाला है. बता दें कि क्रूड तेल के दाम में भारी गिरावट आ जाने की वजह से तकरीबन 4 अरब लोगों को फायदा होगा. वैसे तो यह मसला यूरोपियन यूनियन के भविष्य के लिए चिंता की बात है. हालांकि निवेशक भी क्रूड आयल मामले में चीन के बाजार से अपने पैर खींच रहे हैं. अनुमान है कि इस साल जापान की इकोनोमी भी 1 से 1.5 फीसदी तक बढ़ने की उम्मीद है, पर यह तो आने वाला समय ही बताएगा.

अब देश में राशन दुकानें होंगी औनलाइन

आगामी 14-15 महीनों में देश भर की तमाम राशन की दुकानें औनलाइन यानी डिजिटल हो जाएंगी. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की तमाम दुकानों पर ‘प्वाइंट आफ सेल’ (पीओएस) डिवाइस लगाए जाएंगे. सरकार ने मार्च 2017 तक सभी दुकानों पर पीओएस लगाने का फरमान जारी किया है. केंद्रीय खाद्य मंत्रालय के मुताबिक, पीडीएस की तमाम दुकानों पर पीओएस लगने के बाद फर्जी राशनकार्ड पूरी तरह यानी जड़ से खत्म हो जाएंगे.

इस मसले को ले कर केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने सभी सूबों को खत भी लिखे हैं. सूत्रों के मुताबिक, बीते पिछले 1 साल के दौरान करीब 60 हजार पीडीएस दुकानों पर पीओएस लगाए गए हैं. केंद्रीय खाद्य मंत्रालय की कोशिश है कि मार्च तक यह आंकड़ा डेढ़ लाख की तादाद तक पहुंच जाए. इस आंकड़े को छूने के बाद अगले 1 साल में पीडीएस की तमाम यानी करीब साढ़े 5 लाख दुकानों पर भी पीओएस लगा दिया जाएगा. इसे लगाने का खास मकसद खाद्यान्न के लीकेज पर लगाम लगाना है.

केंद्रीय खाद्य मंत्रालय का कहना है कि खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अब तक जारी किए जा चुके सभी राशन कार्डों को औनलाइन करना बेहद जरूरी है और इस के बाद तो यही सिलसिला लोगों की जिंदगी में शामिल हो जाएगा यानी नए लोग तो सीधे औनलाइन ही राशन की दुकानों से जुड़ेंगे. विभाग के एक सीनियर अधिकारी के मुताबिक, जैसे ही तमाम सूबे खाद्य सुरक्षा कानून लागू कर देंगे, वैसे ही सार्वजनिक राशन वितरण प्रणाली के तहत होने वाली खाद्यान्न की लीकेज काफी हद तक कम हो जाएगी यानी करीबकरीब बंद हो जाएगी.

ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि पीओएस के जरीए हर राशनकार्ड पर जारी होने वाले खाद्यान्न का विवरण वेबसाइट पर सार्वजनिक हो जाएगा. केंद्रीय खाद्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक सभी राशन कार्डों पर एक इलैक्ट्रोनिक कोड होगा. इस के जरीए पीओएस में राशन कार्ड पर जारी खाद्यान्न का ब्योरा कंप्यूटर के स्क्रीन पर आ जाएगा. साथ ही, अगर उस आधारकार्ड पर कोई और राशनकार्ड भी जारी हुआ है, तो इस का खुलासा भी हो जाएगा. पिछले 2 सालों में सरकार ने 61.43 लाख फर्जी राशनकार्ड रद्द किए हैं. इन से करीब 4200 करोड़ रुपए की सब्सिडी बची है. पिछले साल दिसंबर तक करीब 40 फीसदी राशनकार्ड आधारकार्ड से जोड़े जा चुके हैं.

कालेज फैस्टिवल्स: लर्न और फन साथ-साथ

स्टडैंट्स के लिए कालेज फैस्टिवल्स बड़ा महत्त्व रखते हैं, क्योंकि इन में खूब धमाल और मौजमस्ती होती है. इन फैस्टिवल्स में, कंपीटिशन, दोस्तों के साथ मस्ती तो होती ही है साथ ही ये खुद को स्मार्ट और आत्म्विश्वासी बनाने का अवसर भी प्रदान करते हैं. स्टूडैंट्स फैस्टिवल्स के बहाने नईनई स्किल्स सीखते हैं, ड्रैसिंग सैंस डैवलप करते हैं, संवाद की कला सीखते हैं और नएनए लोगों से अपनी पहचान भी बढ़ाते हैं. इस से उन का सोशल नैटवर्क तो बढ़ता ही है, आत्मविश्वास और पर्सनैलिटी में भी निखार आता है.

खुद से व शिक्षकों से नई पहचान

अंतरा करवड़े, जो रेडियो लेखन के साथसाथ इंदौर में ‘अनुध्वनि’ नामक अनुवाद वाणी सेवा संस्थान का संचालन भी करती हैं, का मानना है कि कालेज में होने वाले समारोह हमें अपने उन गुणों से परिचित करवाते हैं, जिन के बारे में हमें ही जानकारी नहीं होती. किसी में नेतृत्वक्षमता अच्छी होती है तो किसी में तुरंत समाधान खोजने की, कोई बड़े समूह का बड़ी आसानी से प्रबंधन कर सकता है तो किसी के संपर्क इतने अच्छे होते हैं कि उस का हर काम आसानी से हो जाता है. साथ ही वे प्राध्यापक जो अब तक केवल पढ़ाई, परीक्षा, अंक और अनुभव की बातें करते दिखाई देते थे, उन का एक मित्र के रूप में परिचय होता है.

इस प्रकार बने कुछ अनौपचारिक रिश्ते आगे चल कर बड़े महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं. ऐसे में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने के लिए मंच तो मिलता ही है साथ ही मंचीय शिष्टाचार, भाषा, हावभाव और स्थिति के मुताबिक चीजों को तुरंत मैनेज करने जैसी बातें भी सीखने को मिलती हैं, इन कालेज के मंचों पर.

अपने अनुभव के आधार पर अंतरा बताती हैं, ‘‘एक बार मैं सहेली के नृत्यप्रदर्शन देखने के लिए गई तो अचानक एंकर के न आने पर संचालन का भार मुझे दे दिया गया. बाद में यह पूछने पर कि मुझे ही क्यों चुना गया, प्रधानाचार्य ने बताया कि उन्होंने एक बार मुझे कक्षा में एक क्विज संचालित करते देखा था. इस प्रकार आगे चल कर मुझे इस क्षेत्र का अच्छा अनुभव मिल गया.’’

भावी जीवन के लिए नई राह

कविता विकास, जो सीनियर टीचर एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम समन्वयक, डीएवी इंस्टिट्यूट, धनबाद में पिछले 8 साल से बतौर सांस्कृतिक संयोजक कार्यरत हैं, बताती हैं, ‘‘सत्र के बीच होने वाले ये इवैंट्स पढ़ाई की एकरसता से बाहर निकलने में मदद करते हैं. बच्चों में छिपी प्रतिभा बाहर आती है तथा उचित प्लेटफौर्म मिलने पर निखर जाती है. कई बार तो बच्चे अपने हुनर को ही अपना कैरियर बना लेते हैं भले ही उन्होंने पढ़ाई कुछ और की हो.

‘‘लगातार इन कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से मन की झिझक भी दूर हो जाती है. सब से बड़ा फायदा यह है कि विद्यार्थियों में मिलजुल कर काम करने की भावना विकसित होती है. उन अनुभवों को महसूस करने की क्षमता पनपती है, जो सफलता या असफलता से जुड़े होते हैं. परोक्ष रूप से कालेज फैस्टिवल्स विद्यार्थियों को भावी जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने में मदद करते हैं.’’

जौब के लिए करते हैं तैयार

कैरियर काउंसलर जतिन मित्तल कहते हैं, ‘‘कालेज की पढ़ाई पूरी तरह एकेडमिक होती है, इस में संवाद क्षमता, टीम के नेतृत्व या मल्टीटास्किंग जैसे स्किल्स सिखाने के अवसर बहुत कम होते हैं. लेकिन कालेज फैस्टिवल्स व्यक्तित्व का बहुआयामी विकास कर के उन्हें वर्तमान में जौब के लायक बनाते हैं. अगर आप का कालेज फैस्टिवल्स और्गेनाइज करता है, तो इस में हिस्सा लेने के साथसाथ तरहतरह के काम हाथ में ले कर उन्हें अंजाम देने की जिम्मेदारी निभाएं. आप अपनी रुचि के मुताबिक रजिस्ट्रेशन, इवैंट हैंडलिंग और होस्टिंग सहित कार्यक्रम की अन्य छोटीबड़ी जिम्मेदारियां ले सकते हैं. कालेज में होने वाले किसी भी इवैंट में आयोजक की भूमिका निभाना आप की डायनैमिक पर्सनैलिटी का परिचायक है. इस से आप की इमेज एक अच्छे प्रबंधक की बनती है और भावी नियोक्ता पर अच्छा इंप्रैशन भी पड़ता है.’’

सिखाते हैं प्लानिंग, लीडरशिप, मल्टीटास्किंग

एक रिकू्रटिंग फर्म के कार्यकारी वरिष्ठ अधिकारी कुणाल सेन का कहना है, ‘‘कालेज में फैस्टिवल यानी इवैंट और्गेनाइज करने वाले स्टूडैंट्स 3 महत्त्वपूर्ण बातें बहुत अच्छी तरह सीख जाते हैं. पहली, प्लानिंग स्किल. किसी भी इवैंट के लिए आप को योजना बनानी पड़ती है कि आप को किन लोगों से संपर्क करना है, सामान की आपूर्ति किन वैंडरों से करनी है आदि. दूसरा, लीडरशिप स्किल यानी टीम वर्क. जब आप कई लोगों के साथ मिल कर काम करते हैं, तो आप को नेतृत्व करना, लोगों के साथ मिल कर काम करना और लोगों से उन की योग्यता व शारीरिक, बौद्धिक क्षमता के मुताबिक काम लेना अच्छी तरह आ जाता है. तीसरा, मल्टीटास्किंग. भले ही आप कालेज फैस्टिवल्स में बेहद व्यस्त रहते हैं लेकिन फिर भी आप को अपनी पढ़ाईलिखाई और घरेलू कामों का ध्यान रखना पड़ता है यानी आप पर्सनल लाइफ और बिजनैस लाइफ के बीच संतुलन बनाना बखूबी सीख जाते हैं. आगे चल कर ये तीनों स्किल्स आप की प्रोफैशनल जिंदगी में भी बहुत काम की साबित होती हैं.’’

टीमवर्क और प्रबंधन के गुण

कालेज फैस्टिवल्स विद्यार्थियों को व्यक्तिगत खींचातानी से दूर रह कर समूह के साथ मिल कर काम करना सिखाते हैं. इन में सक्रिय हिस्सेदारी निभाने के लिए विद्यार्थियों को खूब दौड़धूप करनी पड़ती है. जैसे स्पौंसर ढूंढ़ना पड़ता है, कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करनी पड़ती है, ऐक्सपर्ट्स से मिलना पड़ता है आदि. इस से उन्हें अपने व्यक्तित्व विकास में काफी मदद मिलती है. उन के ऐटिट्यूड में भी बदलाव आता है और व्यावहारिक जीवन की बहुत सी बातें सीखने को मिलती हैं. कालेज फैस्टिवल्स में सक्रिय रहने वाले स्टूडैंट्स को जानेअनजाने नए लोगों से मिलनाजुलना पड़ता है और उन से बातें करनी पड़ती हैं. वैंडरों से मोलभाव करना सीखते हैं तो उन में प्रबंधन के गुणों का अनजाने में ही विकास हो जाता है.

भवानीपुर ऐजुकेशन सोसाइटी का पूर्व विद्यार्थी सौफ्टवेयर इंजीनियर यश गांधी कहता है, ‘‘अगर आप कालेज फैस्टिवल्स में और्गेनाइजर की भूमिका नहीं निभाते हैं तो भी आप को इस में भागीदारी तो करनी ही चाहिए. चाहे यह डांस हो, क्रिएटिव राइटिंग हो, डिबेट हो या ऐड स्पूफ. यहां हर किसी की रुचि का कुछ न कुछ तो जरूर होता ही है. आप चाहें तो और्गेनाइजर से बात कर के कविता पाठ, व्यंग्य पाठ या कहानी पाठ भी कर सकते हैं. लोगों से मिली सराहना और प्रोत्साहन आप को आगे बढ़ने की ऊर्जा देंगे और आप खुद को एक बेहतर कलाकार के रूप में निखार सकेंगे. जौब के लिए इंटरव्यू लेने वाली कंपनियां भी ऐसे उम्मीदवारों को अधिक गंभीरता से लेती हैं, जो कालेज फैस्टिवल्स और कंपीटिशंस में हिस्सा ले चुके होते

हैं. इस से पता चलता है कि ऐसे उम्मीदवार महत्त्वाकांक्षी होने के साथसाथ आत्मविश्वासी भी होते हैं और उन्हें प्रतिद्वंद्विता से डर नहीं लगता.’’

नैटवर्क बढ़ाने का मिलता है मौका

कालेज फैस्टिवल्स को सोशल नैटवर्क बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करें. किसी भी सीनियर या स्मार्ट स्टूडैंट से अपना परिचय देनेलेने में न हिचकें. खुल कर बातें

करें. अपने पूरे सहयोग का आश्वासन दें और पूछें कि आप उन की क्या मदद कर सकते हैं.

इसी प्रकार कोई बड़े इंस्टिट्यूट का अधिकारी, कोच, ट्रेनर आदि नजर आए तो बेहिचक उस से विजिटिंग कार्ड मांग लें और अपना परिचय भी दें. ऐसे लोगों से फेसबुक पर भी जुड़ें. हां, इन से मिलते ही सब से पहले बताएं कि आप इन्हें नाम से बहुत अच्छी तरह जानते हैं और काफी समय से इन से मिलने के इच्छुक थे. आज मिलने का अवसर मिला तो आप को बड़ी खुशी हुई. इन से हुआ परिचय आगे चल कर बहुत काम आ सकता है.

सीखें इवैंट मैनेजमैंट की कला

कालेज फैस्टिवल्स का उपयोग आप इवैंट मैनेजमैंट सीखने में भी कर सकते हैं. इवैंट मैनेजमैंट एक आकर्षक तथा शानदार माध्यम है जो किसी की भी रचनात्मक संभावनाओं को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के अवसर प्रदान करता है.

इस में संगीत समारोह, फैशन प्रदर्शनी, विवाह समारोह, थीम पार्टी आदि इवैंट्स के कौन्सैप्ट, बजट, संयोजन तथा इवैंट को पूरा करना शामिल है. यह एक अच्छा कैरियर विकल्प है. यदि आप में इवैंट संचालन की इच्छा, अच्छी संयोजनशीलता और लंबे समय तक कार्य करने की क्षमता है तो आप इस क्षेत्र में एक सफल कैरियर बना सकते हैं.

होंठों को होंठों से मिलने दो जरा

हर युवक अपनी प्रेमिका के साथ जीभर कर वक्त बिताना चाहता है, उसे किस करना चाहता है. लेकिन प्यार का मतलब यह तो नहीं कि सारी सीमाएं ही लांघ दी जाएं, सारी मर्यादाएं तोड़ दी जाएं. ऐसे में जरूरी है प्रेमिका की रजामंदी. बिना प्रेमिका की अनुमति के किस करने की भूल न करें, क्योंकि इस से बात बिगड़ सकती है.

पहले प्यार की पहली मुलाकात और पहले प्यार की पहली किस हमेशा यादगार रहती है. इसे और अच्छा बनाने के लिए आप को निम्न बातों पर अमल करना होगा

– डेट पर जाते समय फ्रैश हो कर जाएं.

– अगर आप की बौडी से पसीने की बदबू आती है तो डियो लगाना न भूलें.

– काफी लंबा सफर तय कर के अगर आप अपनी प्रेमिका से मिलने जा रहे हैं तो माउथफ्रैशनर चबा कर ही अपनी प्रेमिका से बात करें.

– गाड़ी से जा रहे हैं तो उस के बैठने के लिए कार का दरवाजा आप खुद खोलें. इस से अच्छा प्रभाव पड़ेगा.

– डेट पर जाते समय धूम्रपान करने की भूल बिलकुल न करें.

– अपने होंठों पर खास ध्यान दें कि वह फटे या ड्राई तो नहीं हैं. अगर ड्राई हों तो लिपगार्ड का प्रयोग करें.

– प्रेमिका से मिलते ही किस न करें.

– जब पहली बार मिलें तो उस से उस का हालचाल जरूर पूछें फिर दिल खोल कर अपने मन की बात करें.

– प्रेमिका की तारीफ करना न भूलें, क्योंकि तारीफ सुन कर वह आप की ओर आकर्षित होगी.

– ऐसा माहौल क्रिऐट करने की कोशिश करें जिस से वह खुद ब खुद आप को किस देने के लिए तैयार हो जाए.

– उस की आंखों में आंखें डाल कर अपने प्यार का इजहार करें. इस से उसे लगेगा कि आप सच में उस से प्यार करते हैं.

– अगर आप उसे किस करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं और आप को अपनी तरफ बढ़ता देख वह मुसकरा रही है तो इस का मतलब इस में उस की भी सहमति है. ऐसे में आप पहले उस के हाथों पर, माथे पर फिर होंठों पर किस करें.

– पहली बार चूमते वक्त आक्रामक हो कर चुंबन की बौछार न करें. होंठों के बिलकुल पास होंठ ले जाएं और सांसों से सांसें मिलने दें. यह अंदाज आप को और भी रोमांटिक बना देगा.

– प्रेमिका के होंठों पर पहला किस बहुत धीरे से और प्यार से करें.

– सिर्फ किस तक ही सीमित रहें. कोई भी अश्लील हरकत न करें.

चुंबन लेना बहुत ही अंतरंग क्षण हैं. लेकिन इस का प्रदर्शन न हो इस बात का खास ध्यान रखें. जैसे :

– चुंबन लेने के लिए एकांत स्थान का चुनाव करें.

– सार्वजनिक स्थलों पर किस न लें.

– आप के निजी क्षण राह चलते लोग देखें तो यह सही नहीं होगा.

फायदे भी हैं चुंबन के :

– किस करने से मन खुश रहता है.

– किस आप के चेहरे की रौनक को और बढ़ाती है.

– किस करने से होंठ गुलाबी हो जाते हैं.

– किस करने से तनाव दूर होता है.

– किस करने से प्यार बढ़ता है.

मजहब बना महिला का संकट

मजहब को आधार बना कर अगर किसी को मकान तक देने में आनाकानी की जाती है, तो ऐसे समाज से उम्मीद टूटती है. तो क्या अन्य शहरों में जा कर पढ़ने, रोजगार करने की पर परिपाटी को त्याग अपने, समाज तक ही सीमित रहना पड़ेगा? पिछले दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक लैक्चरर रीमा शम्सुद्दीन ने यू ट्यूब पर एक वीडियो जारी किया, जिस में उस ने शिकायत की कि मुसलिम होने के कारण उसे घर किराए पर नहीं दिया गया.

उस ने मकान मालिक को एडवांस किराया भी दे दिया था, पर जब वह अपनी मां के साथ वहां रहने पहुंची तो उसे चाबी नहीं दी गई. मकान मालिक का कहना था कि वह मुसलमान है, जिस कारण उसे यह फ्लैट नहीं दिया जा सकता. यह समस्या दिल्ली में ही नहीं बल्कि मुंबई में भी है. वहां पर भी मिस्बाह कादरी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. वह जिस फ्लैट में रहती थी उसे एक सप्ताह के भीतर खाली करने को कहा गया. जब उस ने विरोध किया तो उस के सामने ऐसी शर्तें रख दी गईं कि वह खुद ही घर छोड़ने को विवश हो जाए.

जैसे वह घर में खाना नहीं बना सकती. उसे आपत्ति प्रमाणपत्र पर हस्ताक्षर करने को कहा गया, जिस में लिखा था, ‘अगर धर्म या पड़ोसियों की वजह से उन्हें किसी भी तरह के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा तो बिल्डर, मकान मालिक, दलाल कानूनी तौर पर जिम्मेदार नहीं होंगे.’ जब मिस्बाह को उस का सामान घर से बाहर फेंकने की धमकी दी गई तो उस ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से संपर्क किया.

नकारात्मक दृष्टि

हम बचपन से ही सुनते आए हैं कि धर्म तोड़ता नहीं जोड़ता है, जबकि यह युक्ति आज तक अपनी प्रामाणिकता सिद्ध नहीं कर पाई है. ऐसे कई किस्से दलितों के साथ हुए भेदभाव को भी बयान करते हैं. धर्म ने सब से अधिक महिलाओं को प्रताडि़त किया है. धर्म और जाति जैसी मानसिकता समाज में इस कदर घुल गई है, जिसे हम चाह कर भी नहीं निकाल सकते. ऐसा नहीं है कि इस के समाधान के लिए कानून नहीं बने या उन पर अमल नहीं हो रहा, पर यहां तो एक  ही बात समझ आती है कि हमारी कम्युनिटी अधिक है तो हम लोग ही यहां विचरण करेंगे.

इस प्रकार की मानसिकता सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देशों में भी है. समयसमय पर ऐसी खबरें आती रही हैं, जिन में यूरोप और इंगलैंड हमेशा सुर्खियों में रहे हैं. वहां रह रहे प्रवासियों को कभी रंगभेद का सामना करना पड़ता है तो कभी अमीरीगरीबी के  पाटों में पिसना पड़ता है. हद तो तब हो जाती है जब एक ही रंग, एक ही धर्म, एक ही आर्थिक स्थिति होने के बावजूद प्रवासियों को यह कह कर प्रताडि़त किया जाता है कि वे किसी दूसरे देश से आए हैं. इस का सीधा मतलब तो यही हुआ जिस की लाठी उस की भैंस.

सकारात्मक पहलू 

यह अत्यंत अमानवीय सोच है जो स्वतंत्रता के अधिकार पर कटाक्ष करती है, पर इस समस्या का दूसरा पक्ष खंगालें, जो युवती अपना शहर छोड़ कर पढ़ने या आजीविका के लिए दूसरे शहर जाती है उस के सामने अनजान शहर में कई समस्याएं मुंहबाए खड़ी रहती हैं जैसे रहने के लिए घर की व्यवस्था करना, पानी, बिजली, काम वाली के बारे में जानना, रास्तों से अनजान होने के कारण भी दूसरों पर निर्भरता रहती है, उसे मैडिकल सहायता की आवश्यकता पड़ती है. जब इस प्रकार की समस्याएं उस के सामने आती हैं तो उस अनजान शहर में अकेली युवती के आसपास के लोग ही इन्हें सुलझाते हैं और उस की मदद करते हैं. फिर धीरेधीरे वह वहां के वातावरण के अनुकूल बन जाती है.

यदि हम रीमा और मिस्बाह की ही बात करें तो दोनों ही अकेली रहती हैं. रीमा अपनी मां के साथ रहती है जो काफी वृद्ध भी हैं. यदि उन्हें आकस्मिक चिकित्सा की आवश्यकता पड़ती है और परिवार उन के साथ नहीं होता तो ऐसे में सब से पहले पड़ोसियों से ही सहायता की गुहार लगाई जाती है. लेकिन जिस समाज में सिर्फ मजहब के आधार पर उन्हें मकान किराए पर नहीं दिया गया और कोई पड़ोसी भी बीच में नहीं बोला तथा सभी मकान मालिक का समर्थन करते दिखाई दिए, उस से हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि जरूरत पड़ने पर कोई भी हाथ उन की मदद के लिए आगे बढ़ाएगा?

जहां अपने जीवन की शुरुआत में उन्हें इतनी दिक्कतें आई हैं वहां वे कैसे सरवाइव कर पाएंगी? ऊपर से सब की संस्कृति, खानपान, वेशभूषा अलग है. वहां घुलमिल पाना नामुमकिन है. इसलिए उन्हें ऐसा आशियाना तलाशना चाहिए जहां अपना जीवन शांतिपूर्ण और सम्मान के साथ बिता सकें. मदद के लिए एक हाथ की जरूरत हो तो कई हाथ उन के साथ हों, उन के लिए आगे आएं.

धार्मिकता और जातीयता हमारे मस्तिष्क में इतनी गहराई तक अपनी पैठ बना चुकी हैं, जिन्हें एक दिन, एक महीने या एक साल में मिटाया नहीं जा सकता, पर इस समस्या से दूर रहने के लिए यह बेहतर है कि हम अपने लोगों, अपने समाज में रहे और बिना किसी कठिनाई से अपना जीवन बिता सकें.

क्या करें, मन ही तो है

कालेज हो या कोई अन्य जगह, जहां चार हमउम्र युवकयुवतियों में मित्रता होती है, वहीं कुछ साथी एकदूसरे को अपना दिल भी दे बैठते हैं. इस का कारण है उन का एकदूसरे के प्रति आकर्षण, क्योंकि युवावस्था आते ही युवकयुवतियों में शारीरिक व मानसिक कई तरह के बदलाव आते हैं. साथ ही विपरीत लिंगी के प्रति उन में आकर्षण भी पैदा होने लगता है. आखिर मन ही तो है, यह किसी के बस में नहीं होता.

युवावस्था भटकने वाली अवस्था होती है. इस में युवाओं को सही राह दिखाना अति आवश्यक होता है. प्रेम के चक्कर में पड़ कर वे अपना भविष्य खराब कर बैठते हैं.

स्नेहा आज बहुत उदास थी. जब उस के घर के सदस्यों ने उस की उदासी का कारण पूछा तो उस ने बताया कि उस का मित्र सुरेश अब उस से बोलता तक नहीं है. वह उस की सहेली का मित्र बन गया है. लेकिन वह मुझे बहुत अच्छा लगता है. अब मैं क्या करूं?

युवकयुवतियों का आपस में दोस्त होना तथा एकदूसरे के प्रति आकर्षित होना आम बात है. युवावस्था में युवकयुवतियों के मन में रंगीन सपने होते हैं, ऐसे में यदि उन्हें सही राह न मिले तो वे भटक जाते हैं और गलत राह अपना लेते हैं. उन का मन बस में नहीं रहता. वे खोएखोए से रहने लगते हैं. वे अपने साथी के साथ हर समय रहना चाहते हैं. यदि कोई उन्हें रोकता है, तो उन्हें बहुत बुरा लगता है. ऐसे में वे अपने दिमाग से नहीं बल्कि मन के अनुसार चलते हैं. ऐसी परिस्थिति में चाहे युवक हो अथवा युवती दोनों का हाल बुरा होता है. आखिर वे क्या करें? इन परिस्थितियों में उन्हें दुलार की आवश्यकता होती है. मातापिता अथवा घर का कोई सदस्य ही सही ढंग से समझा कर उन्हें सही राह दिखा सकता है.

शानू के सहपाठी ने एक दिन कहा कि तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो, क्या तुम मेरी दोस्त बनना पसंद करोगी? शानू ने भी उसे हां कर दी, क्योंकि शानू को भी उस से दोस्ती करने का मन था. मन यदि कुछ कहे, तो वह काम स्वत: हो जाता है. मन के अनुसार यदि अच्छे दोस्त बन जाएं तो समझो सही मंजिल मिल गई. यदि मन नहीं है, तो वह कार्य भी व्यक्तिविशेष नहीं कर सकता है.

युवा मन तो बहुत चंचल होता है, इसलिए वह अच्छाबुरा कम ही सोच पाता है. युवाओं में बहुत उत्साह होता है, किसी भी कार्य को करने का, नएनए दोस्त बनाने का व दोस्तों के साथ घूमने का. कहने का तात्पर्य यह है कि युवाओं का मन जो चाहे वह करता है. बस, उन को कोई रोकेटोके नहीं. चाहे वे गलत हों या सही.

रोकने पर वे विरोधी स्वभाव के बन जाते हैं, लेकिन यदि उन्हें प्यार से समझा कर गलतसही का एहसास कराया जाए तो वे सही राह पर चलेंगे और उन का मन सही कार्यों को करने का करेगा. फिर वे सहीगलत का निर्णय लेते हुए सही मंजिल की तरफ बढ़ेंगे और न यह कह सकेंगे कि मन नहीं होता बस में.

होस्टल में वृद्धाओं संग युवतियां

हर शहर में कामकाजी या स्टूडैंट युवतियों के लिए होस्टल्स की मांग बढ़ रही है. गांवों या दूसरे शहरों से आने वाली युवतियों को सुरक्षित छत के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं और पैसे से ज्यादा व्यावहारिक कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं. जो लोग इन्हें मकान किराए पर देते हैं उन्हें डर लगा रहता है कि युवतियां उन पर यौन शोषण का आरोप न लगा दें या फिर वास्तव में वहां वेश्यावृत्ति जैसे मामले होने लगें.

इस समस्या से छुटकारा आसान है. युवतियों के होस्टल्स में 20 फीसदी जगह वृद्ध महिलाओं के लिए सुरक्षित होने लगे जो एकमुश्त पैसा जमा कर लंबे समय तक रहने का हक पा सकें. होस्टल का निर्माण ही ऐसा हो कि युवतियों के टू टीयर, थ्री टीयर कमरों के साथ थोड़े बड़े स्टूडियो कमरे जिन में किचनपैंट्री का इंतजाम भी हो, बनें, जिन में वृद्ध महिलाएं रह सकें.

ये वृद्ध महिलाएं जानेअनजाने उन युवतियों की हमदर्द बन जाएंगी, कुछ की दादीमां बन जाएंगी और उन्हें सुरक्षा भी देंगी और अपने लिए भी सुरक्षा पाएंगी. वृद्ध महिलाओं के लिए वृद्धाश्रम का कौंसैप्ट ही खराब है. यह जेल सा लगता है, जो छवि सामने आती है, वह बेचारी बीमार, अशक्त महिलाओं के समूह की आती है जो वृंदावन की विधवाओं की याद दिलाती है. उधर युवतियां अपने घरों से दूर किसी ऐसे का सहारा चाहती हैं जिस से सलाह ले सकें, जिस के साथ अपने दुख शेयर कर सकें. मिश्रित ग्रुप होने के कारण छेड़खानी भी नहीं होगी और होस्टल पूरे साल चलते रहेंगे. कुछ मामलों में तो होस्टल का पूरा प्रबंध अनुभवी और युवा मिल कर खुद चला लेंगे.

सरकार से अपेक्षा करना बेकार है. अगर सरकार मुफ्त पानी, गृहकर से, भारी लाइसैंसों से मुक्ति दे दे तो ही काफी है, आज सरकार से कुछ मांगने जाना अपना मखौल उड़वाना है, क्योंकि सरकारी अफसर तो कफन से भी हिस्सा ले लें और मुरदे को जलाने या दफनाने की अनुमति देने में 2 साल लगा दें. यह समस्या आम समाज की है और समाज को ही निबटानी होगी.

आखिर रिचा क्यों पहुंची स्वर्ण मंदिर…?

मूलतः अमृतसर निवासी अदाकारा रिचा चड्ढा का इन दिनों धार्मिक स्थलों के प्रति कुछ ज्यादा ही लगाव नजर आ रहा है. सूत्रों की माने तो जब वह अमृतसर रहा करती थी, तब वह अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में माथा टेकने नहीं गयी. लेकिन ‘‘गैंग आफ वासेपुर’’ व ‘‘मसान’’ जैसी फिल्मों में अभिनय कर कान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल सहित कई फिल्म समारोहों में शिरकत करने के बाद रिचा चड्ढा का धार्मिक स्थलों के प्रति कुछ ज्यादा ही रूझान हो गया है. इन दिनों वह अमृतसर में फिल्म ‘‘सरबजीत’’ की शूटिंग कर रही हैं और शूटिंग बीच में ही छोड़कर एक दिन वह स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने पहुंच गयीं तथा वहां पर लंगर का हिस्सा बनकर भोजन भी किया.

सूत्रों की माने तो जब से रिचा चड्ढा को ऐश्वर्या राय बच्चन के साथ फिल्म ‘‘सरबजीत’’ करने का अवसर मिला है, तब से वह कुछ ज्यादा ही चिंतिंत हैं. रिचा चड्ढा के नजदीकी सूत्रों के सूत्रों के अनुसार रिचा चड्ढा चाहती हैं कि फिल्म ‘सरबजीत’ में ऐश्वर्या राय से ज्यादा उनके अभिनय की तारीफ हो. इसीलिए वह हर धार्मिक स्थाल का चक्कर लगा रही हैं. मगर खुद रिचा चड्ढा कहती हैं-‘‘मैं पहली बार स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने पहुंची और मुझे बहुत ही ज्यादा रहस्यमय व सुखद अनुभव हुए.

इस अनुभव को शब्दों में बयां करना मुश्किल है. इस तरह के अनुभव मुझे पहली बार नही हुए. बल्कि मैं जब भी किसी धार्मिक स्थल पर गयी हॅूं, तो मुझे सुखद व रहस्यमय अनुभव हुए हैं. मैं अपने आपको धन्य मानती हूं कि मुझे स्वर्ण मंदिर में कुछ समय बिना किसी तरह की बंदिश के बिताने का मौका मिला. स्वर्ण मंदिर ही क्यों किसी भी धार्मिक स्थल पर जाने के पीछे मेरी कोई वजह नहीं होती है. मैं किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं करती हूं. मैं तो सिर्फ अपने हिस्से के काम को बेहतर तरीके से अंजाम देने का प्रयास करती हूं. मैं एक धार्मिक इंसान हूं और ईश्वर की आराधना करने से मुझे सकून मिलता है.’

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