पिछले अंक में आप ने पढ़ा

कि चुनावों के चलते सरकारी कर्मचारियों के लिए ड्यूटी पर तैनात होने के सरकारी फरमान से मानो कार्यालय में खलबली मच जाती है. सख्त आदेश के आगे ड्यूटी से बचने के सभी उपाय बेकार साबित हुए. भगतजी जैसे आरामपरस्त व्यक्ति के लिए ड्यूटी निभाना पहाड़ पर चढ़ने जैसा था. खैर, कर्तव्य निर्वाह हेतु जरूरत के साजोसामान सहित मतदान केंद्र जाने की तैयारी कर ली.

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शौचालय तो स्कूल में था लेकिन उस में सुविधा के स्थान पर टूटा फर्नीचर व अन्य कबाड़ भरा था. शौच क्रिया निबटाने के लिए खेत को ही शौच का कर्मक्षेत्र बनाना था. चुनाव अधिकारी की सख्ती का ही कमाल था कि अधिकतर लोगों ने पुलिसलाइन के बड़े मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर नए परिचयपत्र प्राप्त कर लिए थे. अब वे नाम से नहीं पोलिंग पार्टी संख्या के नाम से जाने जा रहे थे. सभी को चुनावकर्मी कह कर संबोधित किया जा रहा था. वे भूलते जा रहे थे कि वे बैंककर्मी हैं. सभी को पता चल गया था कि किस की ड्यूटी किस चुनाव क्षेत्र में किस पोलिंग बूथ पर लगी है. ज्यादातर बैंककर्मियों को पीठासीन अधिकारी बनाया गया था और अन्य सहायकों के रूप में स्कूल अध्यापक और विभिन्न विभागों के चपरासी भी थे.

पंडालों की संख्या पर्याप्त न होने के कारण वे मैदान के किनारे खडे़े पेड़ों की छाया पर अपनाअपना कब्जा कर के चुनाव सामग्री का मिलान, छपी हुई सूची से कर रहे थे. जो लोग नहीं पहुंच पाए थे उन को नाम और विभाग के साथ लाउडस्पीकर से पुकारा जा रहा था. यह आदेश प्रसारित किया जा रहा था कि वे अपनीअपनी चुनाव सामग्री प्राप्त कर लें अन्यथा उन के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी जाएगी, जिस के गंभीर परिणाम उन लोगों को भुगतने पड़ सकते हैं. जिन्होंने चुनाव सामग्री प्राप्त कर के मिलान कर लिया हो, प्रस्थान करें. पोलिंग बूथ तक पहुंचाने और मतदान समाप्त होने पर वापसी का उचित और पर्याप्त प्रबंध किया गया है.

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उचित और पर्याप्त परिवहन व्यवस्था के नाम पर कुछ खटारा बसें और मालवाहक ट्रक पंक्तियों में खड़े थे, जिन्हें सड़कों से प्रशासन ने जबरदस्ती रुकवा कर पुलिसलाइन में इकट्ठा किया था. चुनाव- कर्मियों ने अपनीअपनी पोलिंग पार्टी की संख्या के अनुसार अपना वाहन ढूंढ़ लिया जो एक ट्रक था, जिस पर अन्य 4 पोलिंग पार्टियों को भी सवार हो कर जाना था.

ट्रक में ड्राइवर की सीट के बगल की जगह पर सुरक्षाकर्मियों ने पूरी तरह कब्जा कर लिया था यानी यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई कि ट्रक के पीछे ही सभी पोलिंग पार्टियों को अपनाअपना स्थान ग्रहण करना है.

ट्रक ड्राइवर और उस का हैल्पर ट्रक के पास ही कोयले से काले हुए कपड़े पहने थे. ड्राइवर अपना दुखड़ा रो रहा था कि 2 दिन बाद उस की लड़की की शादी है. इन लोगों ने उस का ट्रक पकड़ लिया. बहुत गिड़गिड़ाया मगर पुलिस वालों ने एक नहीं सुनी. ऊपर से कह रहे थे, अबे, तेरी लड़की की शादी टल सकती है, चुनाव नहीं. 2 दिन से ट्रक पकड़े हुए हैं. ऐसा मालूम होता तो कोयला पहुंचा कर ट्रक वहीं छोड़ आता और बस से घर चला जाता.

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‘‘तो क्या इस में कोयला लदा था?’’ एक चुनावकर्मी ने सवाल किया.

‘‘हां बाबू, कह तो रहा हूं कि कोयला लाद कर गया था, वापसी में खाली ट्रक देख कर पुलिस वालों ने चुनाव के लिए पकड़ लिया.’’

‘‘ट्रक की सफाई हो गई?’’

‘‘हां, बाबूजी,’’ हैल्पर ने जवाब दिया, ‘‘खूब अच्छी तरह झाड़ू लगा दी है. चलिए, देख लीजिए,’’ उस ने पीछे चलने का इशारा किया.

‘‘यह तो पूरा काला है.’’

‘‘बाबू, खूब साफ किया, कोयला है अपना रंग छोड़ता ही है. काजल की कोठरी में बिना काले हुए कैसे रहा जा सकता है,’’ वह मुहावरा जड़ कर हंस पड़ा और पानमसाले से रंगे दांत दिखा दिए.

‘‘तो क्या इसी कोयले की गंदगी में हम लोगों को जाना पड़ेगा?’’

‘‘हां, बाबूजी, कोयला जल्दी साफ नहीं होता,’’ हैल्पर ने स्पष्ट किया.

‘‘हां, दूसरा माल लदतेलदते साफ हो जाता है. आप लोग बैठेंगे तो यह थोड़ा साफ हो जाएगा,’’ ड्राइवर ने अपनी बात बड़ी सहजता से कह दी.

‘‘इस के ऊपर छाया के लिए तिरपाल नहीं है?’’

उस ने सिर हिला कर साफ इनकार कर दिया.

‘‘कोयले को तिरपाल की जरूरत नहीं होती, धूप और पानी से इस का कुछ बिगड़ता नहीं. इसलिए हम लोग तिरपाल ले कर नहीं चलते,’’ वह प्रसन्न हो कर बड़ी सहजता से कहता जा रहा था.

‘‘बिना तिरपाल लगाए हम लोग नहीं जाएंगे,’’ सब की तरफ से एक चुनावकर्मी ने निर्णय सुना दिया.

‘‘तो मत जाओ. जब हमारे पास तिरपाल नहीं है तो कहां से लगा दें.’’

कुछ लोग बोले कि इस से बहस करने से कोई फायदा नहीं, चलिए अपने सैक्टर मजिस्ट्रेट से बात करते हैं.

आयुर्वेद अस्पताल के एक डाक्टर को सैक्टर मजिस्ट्रेट का पद दे दिया गया था. वे इसी ट्रक की तरह पकड़ी गई डग्गामार जीप पर अपने गंजेपन को छिपाए कैप लगाए बैठे थे. उन के चेहरे पर मजिस्ट्रेटी रौब था क्योंकि उन की जीप के कांच पर ‘सैक्टर मजिस्ट्रेट’ लिखा कागज चिपका था. उन्होंने तिरपाल न होने की समस्या को गंभीरतापूर्वक सुना. अपनी जीप बढ़वा कर ट्रक के पास रुकवाई. ड्राइवर को बुलवाया. ड्राइवर अपनी बेटी की शादी में समय से न पहुंच पाने के कारण खिन्न तो था ही, उस ने दोटूक जवाब दिया, ‘‘कह दिया, जब तिरपाल है ही नहीं तो कहां से तान दूं. जब ट्रक पकड़ा था तब पूछ लेते तिरपाल है कि नहीं. अब आप तिरपाल का इंतजाम करवा दीजिए, तनवा दूंगा ट्रक पर बिना बंबू के. मुझे तो अपनी बेटी की शादी की चिंता खाए जा रही है.’’

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सैक्टर मजिस्ट्रेट ने अपनी असमर्थता बताई तो कुछ लोगों ने सलाह दी कि कुछ ट्रक तो रिजर्व होंगे. ट्रक ही बदलवा दीजिए. यह ट्रक तो वैसे भी कोयले से काला हो रहा है.

‘‘रिजर्व में हैं तो जरूर पर उन का प्रयोग हमारे स्तर पर नहीं किया जा सकता. हां, जब ट्रक चलने लायक न हो तो डी.एम. के आदेश पर उन का प्रयोग किया जा सकता है,’’ उन्होंने यह कहते हुए जीप आगे बढ़वा दी. चलतेचलते कहते गए, ‘‘आप लोगों की समस्या कोई विशेष नहीं है. आप लोगों को ऐसी ही परिस्थिति में जाना पड़ेगा. देखिए, एनाउंसमैंट हो रहा है, आप रवानगी करिए.’’

सभी एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. नियति से मुकाबला करना पड़ेगा. सभी चुनावकर्मियों के चेहरे पर विवशता के अतिरिक्त कुछ नहीं था.

शहर पार करने के बाद ट्रक राष्ट्रीय राजमार्ग पर चल पड़ा. सड़क किनारे लगे ऊंचे शीशम के पेड़ और उन की घनी छाया सभी को अच्छी लग रही थी. यह अस्थायी सुख ज्यादा देर नहीं टिक पाया. एक तिराहे से बायीं ओर संकरी सड़क पर ट्रक ने मोड़ ले लिया. मुश्किल से 2 किलोमीटर जाने के बाद सड़क, सड़क ही नहीं रही. बस, सड़क का नाम रह गया.

सड़क टूटीफूटी थी. किनारे पर  पेड़ भी नहीं थे. ट्रक धचके खाता हुआ धीमी गति से आगे बढ़ रहा था. लोग ट्रक की बौडी को पकड़े हिचकोले खाते हुए संभलसंभल कर यात्राकष्ट भोग रहे थे. सूरज भी सिर के ऊपर आ टिका था. सूरज ने सब को इतना तपा दिया था कि सभी इस यात्रा को तपस्या समझ कर सहन कर रहे थे.

2 घंटे की इस अनवरत, ऊबड़खाबड़ सड़कयात्रा ने सभी को बुरी तरह तोड़ दिया. ड्राइवर ने कुछ आराम की नीयत से एक घने पेड़ की छाया में ट्रक रोका. धूप और गरमी से परेशान लोगों ने राहत की सांस ली. सभी नीचे उतर पड़े.

यह संकरी सड़क को खड़ंजे से काटता हुआ चौराहा था. इस छोटे से चौराहे पर कुछ छायादार पेड़ थे जिन के नीचे जलपान की दुकानें थीं, जिन्हें होटल तो नहीं कहा जा सकता, हां, कुछ बैंच बैठने के लिए पड़ी थीं और सरकारी हैंडपंप चालू हालत में था. जो ताजा और ठंडा पानी उगल रहा था यानी  पीने और हाथमुंह धोने का चौकस साधन था.

होटलनुमा दुकानों में चाय, समोसे, मिठाई की उपलब्धता थी जिन में निश्चित ही वातावरण की प्राकृतिक ऊष्मा का संचार था. आधे घंटे के विराम ने सभी को हाथपांव व शरीर को सीधा करने का अवसर दे दिया था. नष्ट हुई ऊर्जा की थोड़ी पूर्ति हुई.

ट्रक के हौर्न ने सभी को सचेत कर दिया कि अब फिर चलना है. सभी फिर वैसे ही सवार हो गए. अब दिन का उत्तरार्ध आरंभ हो चुका था.

आधे घंटे बाद पहली पोलिंग पार्टी का गंतव्य आया. वह उतरी तो ट्रक में कुछ जगह खाली हुई. इस तरह धीरेधीरे 3 पोलिंग पार्टी उतरती गईं. अब आखिरी पोलिंग पार्टी को उतरना बाकी था.

शाम 4 बजे उतरती धूप में ट्रक भरभरा कर इंजन सहित रुक गया. आगे रास्ता ही नहीं था. ड्राइवर और उस का हैल्पर ट्रक से नीचे उतर आए और अपना पसीना पोंछने लगे. यही उन की आखिरी मंजिल थी. बचे हुए सवार भी अपने सामान सहित ट्रक के नीचे उतर आए. इस में भरत भी थे. सामने सूखी नदी थी. नदी पार इस पोलिंग पार्टी का मतदान केंद्र था. एक जानकार ने बताया कि नदी को पैदल ही पार किया जा सकता है. यही सब से निकटतम रास्ता है. नदी के उस पार जो पीले रंग का स्कूल दिखाई दे रहा है वही मतदान केंद्र है.

इतना कष्ट सह लेने के बाद यह कोई खास बाधा नहीं जान पड़ी. सभी अपनेअपने सामान के साथ नदी पार करने को बढ़ने लगे. सब के कपड़े व हाथपैरों में कोयले का रंग चढ़ चुका था. पूरी पार्टी नदी के गोलगोल पत्थरों पर पैर संभालते हुए नदी पार जल्दी पहुंचना चाहती थी. बीच में एक पतली सी जलधारा को सभी ने घुटनेघुटने पानी में चलते हुए पार किया.

आखिर वे अपने गंतव्य तक पहुंच ही गए. 4 कमरों का भवन एक प्राइमरी पाठशाला थी, जिस की दीवारों पर सर्व शिक्षा अभियान के बारे में लिखा था. वहां काली यूनिफार्म में तैनात सुरक्षाकर्मियों ने मुसकरा कर सभी का स्वागत किया. सुरक्षाकर्मियों के चेहरे आम भारतीयों से अलग थे. उन के हाथों में अलग ढंग के आग्नेयास्त्र थे. अंदर जा कर पोलिंग पार्टी के लोगों को लगा कि वे किसी छावनी में आ गए हैं.

पसीने से तर कपड़े शरीर को ठंडक पहुंचा रहे थे. मंजिल पर पहुंच कर पोलिंग पार्टी ने राहत की सांस ली थी. डूबते सूरज की मलिन पड़ी अंतिम धूप थक कर लगभग खो जाना चाहती थी. स्कूल के घने पेड़ों में शाम जल्दी ही उतर आना चाहती थी. मंदमंद शीतल हवा एक सुखद एहसास दे रही थी.

स्कूल के 4 कमरों में से 1 में ताला जड़ा था. 1 सुरक्षाकर्मियों ने हथिया रखा था. 1 कमरे को मतदान कक्ष बनाया गया था और 1 कमरा सभी मतदानकर्मियों के ठहरने के लिए उपलब्ध था. हां, चारों कमरों को जोड़ते हुए एक बड़ा सा संयुक्त बरामदा जरूर था जो स्थान के अभाव को दूर कर रहा था.

स्कूल के अहाते में लगे हैंडपंप के शीतल जल से स्नान कर के सभी मतदानकर्मियों ने अपनी कालिख छुड़ाई और तनमन को तरोताजा किया. रात होने लगी थी. गैसबत्ती की रोशनी में बरामदे में बैठ कर घर से लाए भोजन को डिनर मान कर पेट भरा.

बिजली न होने के कारण यह तय किया गया कि स्कूल की छत पर सोया जाए. वहां गरमी भी नहीं लगेगी और मच्छरों से भी बचाव रहेगा. छत पर जाने के लिए सीढि़यां तो थीं नहीं, अहाते में रखी बांस की सीढ़ी के सहारे छत के ऊपर चढ़ गए. अपनीअपनी चादर बिछाई गई. मच्छरों से बचाव के लिए क्वाइल जलाए गई. कुछ लोगों ने अपने शरीर पर ऐसी क्रीम मली जिस से मच्छर नफरत करते थे.

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थके होने के कारण नींद अपने आगोश में लेने लगी. नींद ठीक से आ भी नहीं पाई कि सियारों की हुआंहुआं ने सब को चौंका दिया. सियारों का एक झुंड स्कूल के आसपास चहलकदमी कर रहा था. आधी रात बीतने के बाद सुबह की चिंता सताने लगी. सुबह 7 बजे के पहले पोलिंग बूथ की सारी व्यवस्था कर लेनी थी. कई आवश्यक प्रक्रियाएं थीं, जिन में चूक होने पर कानूनी जुर्म का भागीदार होना पड़ सकता था. इसलिए सुबह जल्दी उठ कर आवश्यक शारीरिक कर्म भी पूरे कर लेने थे. शौचालय तो स्कूल में था जरूर लेकिन उस में सुविधा के स्थान पर टूटा फर्नीचर व अन्य कबाड़ भरा था. शौच क्रिया निबटाने के लिए किसी खेत को ही शौच का कर्मक्षेत्र बनाना था. फसल कट चुकने के बाद खेत खाली थे, ओट के लिए कुछ नहीं था. किसी भी शर्मदार के लिए प्राकृतिक अंधेरा ही सहारा था.

अंधेरा भी इन दिनों जल्दी भाग जाता है. साथ में पानी ले जाने के लिए मिट्टी सने खाली प्लास्टिक के डब्बे जरूर उपलब्ध थे, जिन का प्रयोग पहले भी इस काम के लिए होता रहा होगा. आज धड़ल्ले से उपयोग में लाए जा रहे थे.

आखिर वह समय आ गया जिस के लिए सभी ने इतने कष्ट सहे थे. सुबह 7 बजे मतदान आरंभ हो गया था. तेज गरमी के मौसम के कारण सुबह 10 बजे मतदाताओं की लंबी कतार लग गई थी. तेजी से मतदान जारी था. दोपहर 12 बजे तक मतदाताओं का आना बहुत कम हो गया था. बाहर तेज लू चलने लगी थी. मतदान केंद्र यानी गांव के स्कूल के अहाते में घने पेड़ थे इसलिए वहां राहत थी. पेड़ों के मोटे तने को घेर कर गोल चबूतरे बनाए गए थे, जिन पर लोग कुछ देर बैठते, सुस्ताते और चले जाते. अब मतदान की गति कुछ धीमी हो गई थी. मतदानकर्मी भी राहत की सांस ले रहे थे. बाहर बरामदे में पानी का घड़ा रखा था. पानी या पेशाब के बहाने बाहर टहल आते और बाहर का दृश्य भी देख आते. सभी के संज्ञान में आया कि किनारे के एक पेड़ के नीचे एक गोरेचिट्टे, हट्टेकट्टे नागालैंड के युवा सुरक्षाकर्मी से एक महिला कुछ अधिक निकटता बनाए बैठी बातें कर रही है. यह महिला सुबह से ही मतदान केंद्र से बाहर सक्रिय थी. शायद किसी राजनीतिक पार्टी की कार्यकर्ता रही होगी.

गहरा श्यामवर्ण लिए, क्षीण काया पर चमकीले रंगों वाली साड़ी लपेटे काफी चपलता दिखा रही थी. अपनी ओर से यह जताने की सफल कोशिश कर रही थी कि वह भी इस ‘क्षेत्र’ की ‘कुछ’ है. अनाकर्षक होते हुए भी लोगों की नजरों में चढ़ चुकी थी. एक मतदानकर्मी, जो किसी स्कूल का चपरासी था, भरत के कान में फुसफुसाया कि कैसी खराब तो लगती है लेकिन सुरक्षाकर्मी इस में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहा है?

भरत ने उस की जिज्ञासा एक ही संवाद में शांत कर दी, ‘‘बुरे काम के लिए कोई चीज बुरी नहीं होती.’’

हंसी का एक फौआरा उस के मुंह से बाहर निकल पड़ा.

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‘‘कई दिनों से चुनाव चल रहे हैं. सुरक्षाकर्मी कई दिनों से घर से बाहर होगा. अपनी बीवी से मिले बहुत दिन हो गए होंगे,’’ एक अनुमान लगाया गया.

मतदान समाप्ति के समय से पहले ही मतदाताओं का आना लगभग बंद हो गया था. इस चुनाव ड्यूटी में 2 अध्यापक भी थे. उन्हें प्रधानी से ले कर विधायक और सांसद के कई चुनाव कराने का पर्याप्त अनुभव था. वोटिंगमशीन के साथ जमा किए जाने वाले अनेक प्रपत्रों को पूरा करने में लग गए थे, जोकि एक बहुत समय लेने वाला काम होता है, जितना काम यहीं निबट जाए उतना अच्छा. चूंकि यह आखिरी पोलिंग पार्टी थी, इस को ले कर ट्रक को वापसी की शुरुआत करनी थी. शेष प्रपत्र जमाकेंद्र पर ही भर लिए जाने की बात मान कर सभी अपनाअपना सामान ले कर वापसी के लिए खड़े हो गए. उन्हें पहले की तरह पैदल नदी पार कर के इंतजार कर रहे ट्रक में सवार होना था.

वापसी में पोलिंग पार्टी के साथ आधुनिक आग्नेय अस्त्र थामे 2 चुस्त- दुरुस्त सुरक्षाकर्मी थे. वे वोटिंगमशीन लिए जा रहे मतदानकर्मी के इर्दगिर्द ही चल रहे थे. अब वोटिंगमशीन बहुमूल्य थी. उस में कई प्रत्याशियों के भविष्य का फैसला था. वोटिंगमशीन थामने वाला मतदानकर्मी वीआईपी लग रहा था, जैसे उस की सुरक्षा के लिए काली यूनिफौर्म वाले सुरक्षाकर्मी मुस्तैदी से तैनात किए गए हों.

ट्रक में सभी सवार हो गए. शाम अभी घिरी नहीं थी. ट्रक की कालिख बहुतकुछ साफ हो चुकी थी, यह नहीं लगता था कि ट्रक में हाल ही में कोयला लादा गया है. वापसी में अन्य तीनों पोलिंग पार्टी भी ट्रक में सवार होती गईं. हर पार्टी के साथ 2-2 सुरक्षाकर्मी भी बढ़ते रहने के कारण ट्रक ठसाठस भर गया. असुविधा तो बढ़ी परंतु मौसम के ढलते तेवर और कार्य समाप्त कर घर लौटने के उत्साह से सभी आश्वस्त थे.

ठंडी हवाओं में कुछ लोग समूह गीत गाना चाहते थे. कुछ लोग बातें ही खत्म नहीं कर पाए कि ट्रक शहर के करीब पहुंच कर धीमेधीमे चलतेचलते एकाएक रुक गया. ट्रक के सामने रुके हुए वाहनों की लंबी पंक्ति थी. शहर का मुख्य चौराहा 1 किलोमीटर दूर था. बाजार शुरू हो गया था. आधा घंटा इंतजार करने के बाद लगा कि जाम खुल नहीं पाएगा. चारों दिशाओं से आने वाले वाहनों का गंतव्य एक था. किसी वाहन ने सभी के रास्ते रोक दिए थे. जल्दी जाम न खुल पाने की संभावना को देखते हुए एक ही विकल्प था कि ट्रक छोड़ कर पैदल ही आगे बढ़ा जाए. किसी तरह गंतव्य पर पहुंचना भी कर्तव्य निर्वाह का एक हिस्सा था.

शहर के पार कृषि उत्पादन मंडी समिति के विशाल परिसर में सील की हुई वोटिंग मशीन व अन्य निर्धारित प्रपत्र जमा कर के प्राप्त रसीद को ही पूर्ण कर्तव्य निर्वाह का प्रमाण समझा जाता था.

रात के 9 बज चुके थे. शहर से हो कर मंडी समिति की ओर जाने वाली सड़क पर लंबी पंक्ति में वाहन ठहरे थे. उन के अगलबगल पैदल जाने वालों का हुजूम था.

मंडी समिति परिसर में सचमुच मेले जैसी भीड़ थी. जमीन पर यहांवहां झुंड बनाए हर पोलिंग पार्टी अपनेअपने प्रपत्र पूर्ण कर लिफाफे तैयार करने में जुटी थी. सभी को इस बात की जल्दी थी कि अपनी सील्ड वोटिंग मशीन और लिफाफे निर्धारित काउंटर पर जमा कर के इतिश्री कर लें.

रात के 11 बज चुके थे. पीठासीन अधिकारी का पद ओढ़े लोगों के चेहरे पर थकान और आंखों में नींद की आहट थी. लंबी पंक्ति बनाए हुए वे खड़े थे. अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़ेखड़े शरीर का भार कभी बाएं पैर पर डालते तो कभी दाएं पैर पर. मन में प्रशासन और चुनाव के लिए गालियों का गुबार लिए थे.

धैर्य की परीक्षा देतेदेते रात के डेढ़ बजे भरत को भी मुक्ति मिल गई. शरीर का मारे थकान से बुरा हाल था और अगले दिन सुबह चेहरे पर दिखने वाले दाढ़ी के सफेद बाल उग आए थे. किसी तरह लड़खड़ाते हुए अपना ब्रीफकेस थामे मंडी समिति परिसर से बाहर आए कि किसी साधन से घर पहुंच जाएं. बाहर रात का सन्नाटा पसरा था. लोग पैदल ही घर लौट रहे थे. उन के लिए दो कदम चलना भी बहुत मुश्किल था. सड़क किनारे कहीं बैठने की जगह भी नहीं थी. उन के पास एक ही उपाय था कि पत्नी को फोन कर के जगाया जाए और कहा जाए कि गाड़ी ले कर जल्दी आओ और मुझे ले जाओ. मोबाइल जेब से निकाला और औन किया. बैटरी चार्ज न होने के कारण खत्म होने लगी थी तो उन्होंने मोबाइल दिन में ही औफ कर दिया था. ‘लो’ बैटरी का संदेश उन्होंने पढ़ा और शीघ्रता से पत्नी का मोबाइल मिलाया.

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काफी देर बाद पत्नी की धीमी ‘हैलो’ सुनाई दी. शायद वे गहरी नींद में थीं. वे जल्दी में इतना ही कह पाए, ‘कोई साधन नहीं है. फौरन गाड़ी ले कर आओ और मुझे ले जाओ, मैं मंडी के गेट के बाहर खड़ा हूं.’ और उन का मोबाइल बैटरी समाप्त होने के कारण बंद हो गया.

उन्हें पूरा विश्वास था कि पत्नी ने उन की पूरी बात सुन ली है. वे जरूर आएंगी. हां, थोड़ी देर लग सकती है. गाड़ी गैरेज से निकालेंगी. गेट का ताला खोलेंगी. गेट पर ताला लगाएंगी. घर यहां से 5 किलोमीटर दूर है. बहुत जल्दी करेंगी तो 15 मिनट तो लग ही जाएंगे. समय काटने के लिए वे चिंतन करने लगे कि चुनावकाल में प्रशासन के हाथ में ऐसा कौन सा हथियार आ जाता है जिस की धार के डर से सभी विभाग के कर्मचारी पूरे आज्ञाकारी हो जाते हैं, पूरी जिम्मेदारी से कर्तव्य निर्वाह करते हैं. चुनाव के बाद पूरे 5 वर्ष हथियार धार क्यों खो देता है. सब अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं.

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