मजहब को आधार बना कर अगर किसी को मकान तक देने में आनाकानी की जाती है, तो ऐसे समाज से उम्मीद टूटती है. तो क्या अन्य शहरों में जा कर पढ़ने, रोजगार करने की पर परिपाटी को त्याग अपने, समाज तक ही सीमित रहना पड़ेगा? पिछले दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक लैक्चरर रीमा शम्सुद्दीन ने यू ट्यूब पर एक वीडियो जारी किया, जिस में उस ने शिकायत की कि मुसलिम होने के कारण उसे घर किराए पर नहीं दिया गया.

उस ने मकान मालिक को एडवांस किराया भी दे दिया था, पर जब वह अपनी मां के साथ वहां रहने पहुंची तो उसे चाबी नहीं दी गई. मकान मालिक का कहना था कि वह मुसलमान है, जिस कारण उसे यह फ्लैट नहीं दिया जा सकता. यह समस्या दिल्ली में ही नहीं बल्कि मुंबई में भी है. वहां पर भी मिस्बाह कादरी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. वह जिस फ्लैट में रहती थी उसे एक सप्ताह के भीतर खाली करने को कहा गया. जब उस ने विरोध किया तो उस के सामने ऐसी शर्तें रख दी गईं कि वह खुद ही घर छोड़ने को विवश हो जाए.

जैसे वह घर में खाना नहीं बना सकती. उसे आपत्ति प्रमाणपत्र पर हस्ताक्षर करने को कहा गया, जिस में लिखा था, ‘अगर धर्म या पड़ोसियों की वजह से उन्हें किसी भी तरह के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा तो बिल्डर, मकान मालिक, दलाल कानूनी तौर पर जिम्मेदार नहीं होंगे.’ जब मिस्बाह को उस का सामान घर से बाहर फेंकने की धमकी दी गई तो उस ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से संपर्क किया.

नकारात्मक दृष्टि

हम बचपन से ही सुनते आए हैं कि धर्म तोड़ता नहीं जोड़ता है, जबकि यह युक्ति आज तक अपनी प्रामाणिकता सिद्ध नहीं कर पाई है. ऐसे कई किस्से दलितों के साथ हुए भेदभाव को भी बयान करते हैं. धर्म ने सब से अधिक महिलाओं को प्रताडि़त किया है. धर्म और जाति जैसी मानसिकता समाज में इस कदर घुल गई है, जिसे हम चाह कर भी नहीं निकाल सकते. ऐसा नहीं है कि इस के समाधान के लिए कानून नहीं बने या उन पर अमल नहीं हो रहा, पर यहां तो एक  ही बात समझ आती है कि हमारी कम्युनिटी अधिक है तो हम लोग ही यहां विचरण करेंगे.

इस प्रकार की मानसिकता सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देशों में भी है. समयसमय पर ऐसी खबरें आती रही हैं, जिन में यूरोप और इंगलैंड हमेशा सुर्खियों में रहे हैं. वहां रह रहे प्रवासियों को कभी रंगभेद का सामना करना पड़ता है तो कभी अमीरीगरीबी के  पाटों में पिसना पड़ता है. हद तो तब हो जाती है जब एक ही रंग, एक ही धर्म, एक ही आर्थिक स्थिति होने के बावजूद प्रवासियों को यह कह कर प्रताडि़त किया जाता है कि वे किसी दूसरे देश से आए हैं. इस का सीधा मतलब तो यही हुआ जिस की लाठी उस की भैंस.

सकारात्मक पहलू 

यह अत्यंत अमानवीय सोच है जो स्वतंत्रता के अधिकार पर कटाक्ष करती है, पर इस समस्या का दूसरा पक्ष खंगालें, जो युवती अपना शहर छोड़ कर पढ़ने या आजीविका के लिए दूसरे शहर जाती है उस के सामने अनजान शहर में कई समस्याएं मुंहबाए खड़ी रहती हैं जैसे रहने के लिए घर की व्यवस्था करना, पानी, बिजली, काम वाली के बारे में जानना, रास्तों से अनजान होने के कारण भी दूसरों पर निर्भरता रहती है, उसे मैडिकल सहायता की आवश्यकता पड़ती है. जब इस प्रकार की समस्याएं उस के सामने आती हैं तो उस अनजान शहर में अकेली युवती के आसपास के लोग ही इन्हें सुलझाते हैं और उस की मदद करते हैं. फिर धीरेधीरे वह वहां के वातावरण के अनुकूल बन जाती है.

यदि हम रीमा और मिस्बाह की ही बात करें तो दोनों ही अकेली रहती हैं. रीमा अपनी मां के साथ रहती है जो काफी वृद्ध भी हैं. यदि उन्हें आकस्मिक चिकित्सा की आवश्यकता पड़ती है और परिवार उन के साथ नहीं होता तो ऐसे में सब से पहले पड़ोसियों से ही सहायता की गुहार लगाई जाती है. लेकिन जिस समाज में सिर्फ मजहब के आधार पर उन्हें मकान किराए पर नहीं दिया गया और कोई पड़ोसी भी बीच में नहीं बोला तथा सभी मकान मालिक का समर्थन करते दिखाई दिए, उस से हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि जरूरत पड़ने पर कोई भी हाथ उन की मदद के लिए आगे बढ़ाएगा?

जहां अपने जीवन की शुरुआत में उन्हें इतनी दिक्कतें आई हैं वहां वे कैसे सरवाइव कर पाएंगी? ऊपर से सब की संस्कृति, खानपान, वेशभूषा अलग है. वहां घुलमिल पाना नामुमकिन है. इसलिए उन्हें ऐसा आशियाना तलाशना चाहिए जहां अपना जीवन शांतिपूर्ण और सम्मान के साथ बिता सकें. मदद के लिए एक हाथ की जरूरत हो तो कई हाथ उन के साथ हों, उन के लिए आगे आएं.

धार्मिकता और जातीयता हमारे मस्तिष्क में इतनी गहराई तक अपनी पैठ बना चुकी हैं, जिन्हें एक दिन, एक महीने या एक साल में मिटाया नहीं जा सकता, पर इस समस्या से दूर रहने के लिए यह बेहतर है कि हम अपने लोगों, अपने समाज में रहे और बिना किसी कठिनाई से अपना जीवन बिता सकें.

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