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जी उठी हूं मैं: नेहा के आने से क्यों खुश थी रिया

रिया ने चहकते हुए मुझे बताया, ‘‘मौम, नेहा, आ रही है शनिवार को. सोचो मौम, नेहा, आई एम सो एक्साइटेड.’’

उस ने मुझे कंधे से पकड़ कर गोलगोल घुमा दिया. उस की आंखों की चमक पर मैं निहाल हो गई. मैं ने भी उत्साहित स्वर में कहा, ‘‘अरे वाह, तुम तो बहुत एंजौय करने वाली हो.’’

‘‘हां, मौम. बहुत मजा आएगा. इस वीकैंड तो बस मजे ही मजे, 2 दिन पढ़ाई से बे्रक, मैं बस अपने बाकी दोस्तों को भी बता दूं.’’

वह अपने फोन पर व्यस्त हो गई और मैं चहकती हुई अपनी बेटी को निहारने में.

रिया 23 साल की होने वाली है. वह बीकौम की शिक्षा हासिल कर चुकी है. आजकल वह सीए फाइनल की परीक्षा के लिए घर पर है. नेहा भी सीए कर रही है. वह दिल्ली में रहती है. 2 साल पहले ही उस के पापा का ट्रांसफर मुंबई से दिल्ली हुआ है. उस की मम्मी मेरी दोस्त हैं. नेहा यहां हमारे घर ही रुकेगी, यह स्पष्ट है. अब इस ग्रुप के पांचों बच्चे अमोल, सुयोग, रीना, रिया और नेहा भरपूर मस्ती करने वाले हैं. यह ग्रुप 5वीं कक्षा से साथ पढ़ा है. बहुत मजबूत है इन की दोस्ती. बड़े होने पर कालेज चाहे बदल गए हों, पर इन की दोस्ती समय के साथसाथ बढ़ती ही गई है.

अब मैं फिर हमेशा की तरह इन बच्चों की जीवनशैली का निरीक्षण करती रहूंगी, कितनी सरलता और सहजता से जीते हैं ये. बच्चों को हमारे यहां ही इकट्ठा होना था. सब आ गए. घर में रौनक आ गई. नेहा तो हमेशा की तरह गले लग गई मेरे. अमोल और सुयोग शुरू से थोड़ा शरमाते हैं. वे ‘हलो आंटी’ बोल कर चुपचाप बैठ गए. तीनों लड़कियां घर में रंगबिरंगी तितलियों की तरह इधरउधर घूमती रहीं. अमित औफिस से आए तो सब ने उन से थोड़ीबहुत बातें कीं, फिर सब रिया के कमरे में चले गए. अमित से बच्चे एक दूरी सी रखते हैं. अमित पहली नजर में धीरगंभीर व्यक्ति दिखते हैं. लेकिन मैं ही जानती हूं वे स्वभाव और व्यवहार से बच्चों से घुलनामिलना पसंद करते हैं.  लेकिन जैसा कि रिया कहती है, ‘पापा, मेरे फ्रैंड्स कहते हैं आप बहुत सीरियस दिखते हैं और मम्मी बहुत कूल.’ हम दोनों इस बात पर हंस देते हैं.

तन्मय आया तो वह भी सब से मिल कर खेलने चला गया. नेहा ने बड़े आराम से आ कर मुझ से कहा, ‘‘हम सब डिनर बाहर ही करेंगे, आंटी.’’

‘‘अरे नहीं, घर पर ही बनाऊंगी तुम लोगों की पसंद का खाना.’’

‘‘नहीं आंटी, बेकार में आप का काम बढ़ेगा और आप को तो पता ही है कि हम लोग ‘चाइना बिस्ट्रो’ जाने का बहाना ढूंढ़ते रहते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, जैसी तुम लोगों की मरजी.’’

डिनर के बाद सुयोग और अमोल तो अपनेअपने घर चले गए थे, तीनों लड़कियां घर वापस आ गईं. रीना ने भी अपनी मम्मी को बता दिया था कि वह रात को हमारे घर पर ही रुकेगी. हमेशा किसी भी स्थिति में अपना बैड न छोड़ने वाला तन्मय चुपचाप ड्राइंगरूम में रखे दीवान पर सोने के लिए चला गया. हम दोनों भी सोने के लिए अपने कमरे में चले गए. रात में 2 बजे मैं ने कुछ आहट सुनी तो उठ कर देखा, तीनों मैगी बना कर खा रही थीं, साथ ही साथ बहुत धीरेधीरे बातें भी चल रही थीं. मैं जानती थी अभी तीनों लैपटौप पर कोई मूवी देखेंगी, फिर तीनों की बातें रातभर चलेंगी. कौन सी बातें, इस का अंदाजा मैं लगा ही सकती हूं. सुयोग और अमोल की गर्लफ्रैंड्स को ले कर उन के हंसीमजाक से मैं खूब परिचित हूं. रिया मुझ से काफी कुछ शेयर करती है. फिर तीनों सब परिचित लड़कों के किस्से कहसुन कर हंसतेहंसते लोटपोट होती रहेंगी.

मैं फिर लेट गई थी. 4 बजे फिर मेरी आंख खुली, जा कर देखा, रीना फ्रिज में रखा रात का खाना गरम कर के खा रही थी. मुझे देख कर मुसकराई और सब के लिए उस ने कौफी चढ़ा दी. मैं पानी पी कर फिर जा कर लेट गई.

मैं ने सुबह उठ कर अपने फोन पर रिया का मैसेज पढ़ा, ‘मौम, हम तीनों को उठाना मत, हम 5 बजे ही सोए हैं और मेड को मत भेजना. हम उठ कर कमरा साफ कर देंगी.’

मैसेज पढ़ कर मैं मुसकराई तो वहीं बैठे अमित ने मुसकराने का कारण पूछा. मैं ने उन्हें लड़कियों की रातभर की हलचल बताते हुए कहा, ‘‘ये लड़कियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं, न कोई फिक्र न कोई चिंता, पढ़ने के समय पढ़ाई और मस्ती के समय मस्ती. क्या लाइफ है इन की, क्या उम्र है, ये दिन फिर कभी वापस नहीं आते.’’

‘‘तुम क्या कर रही थीं इस उम्र में? याद है?’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं.’’

‘‘तुम तो इन्हें गोद में खिला रही थीं इस उम्र में.’’

‘‘सही कह रहे हो.’’

20 वर्षीय तन्मय रिया की तरह मुझ से हर बात शेयर तो नहीं करता लेकिन मुझे उस के बारे में काफीकुछ पता रहता है. सालों से स्वाति से उस की कुछ विशेष दोस्ती है. यह बात मुझे काफी पहले पता चली थी तो मैं ने उसे साफसाफ छेड़ते हुए पूछा था, ‘‘स्वाति तुम्हारी गर्लफ्रैंड है क्या?’’

‘‘हां, मौम.’’

उस ने भी साफसाफ जवाब दिया था और मैं उस का मुंह देखती रह गई थी. उस के बाद तो वह मुझे जबतब उस के किस्से सुनाता रहता है और मैं भरपूर आनंद लेती हूं उस की उम्र के इन किस्सों का.

अमित ने कई बार मुझ से कहा है, ‘‘प्रिया, तुम हंस कर कैसे सुनती हो उस की बातें? मैं तो अपनी मां से ऐसी बातें करने की कभी सोच भी नहीं सकता था.’’

मैं हंस कर कहती हूं, ‘‘माई डियर हस- बैंड, वह जमाना और था, यह जमाना और है. तुम तो बस इस जमाने के बच्चों की बातों का जीभर कर आनंद लो और खुश रहो.’’

मुझे याद है एक बार तन्मय का बेस्ट फ्रैंड आलोक आया. तन्मय के पेपर्स चल रहे थे. वह पढ़ रहा था. दोनों सिर जोड़ कर धीरेधीरे कुछ बात कर रहे थे. मैं जैसे ही उन के कमरे में किसी काम से जाती, आलोक फौरन पढ़ाई की बात जोरजोर से करने लगता. जब तक मैं आसपास रहती, सिर्फ पढ़ाई की बातें होतीं. मैं जैसे ही दूसरी तरफ जाती, दोनों की आवाज धीमी हो जाती. मुझे बहुत हंसी आती. कितना बेवकूफ समझते हैं ये बच्चे बड़ों को, क्या मैं जानती नहीं सिर जोड़े धीरेधीरे पढ़ाई की बातें तो हो नहीं रही होंगी.

तन्मय फुटबाल खेलता है. पिछली जुलाई में वह एक दिन खेलने गया हुआ था. अचानक उस के दोस्त का फोन आया, ‘‘आंटी, तन्मय को चोट लग गई है. हम उसे हौस्पिटल ले आए हैं. आप परेशान मत होना. बस, आप आ जाओ.’’

अमित टूर पर थे, रिया औफिस में, उस की सीए की आर्टिकलशिप चल रही थी. मैं अकेली आटो से हौस्पिटल पहुंची. बाहर ही 15-20 लड़के खड़े मेरा इंतजार कर रहे थे. बहुत तेज बारिश में बिना छाते के बिलकुल भीगे हुए.

एक लड़के ने मेरे पूछने पर बताया, ‘‘आंटी, उस का माथा फट गया है, डाक्टर टांके लगा रहे हैं.’’

मेरे हाथपैर फूल गए. मैं अंदर दौड़ पड़ी. कमरे तक लड़कों की लंबी लाइन थी. इतनी देर में पता नहीं उस के कितने दोस्त इकट्ठा हो गए थे. तन्मय औपरेशन थिएटर से बाहर निकला. सिर पर पट्टी बंधी थी. डाक्टर साहब को मैं जानती थी. उन्होंने बताया, ‘‘6 टांके लगे हैं. 1 घंटे बाद घर ले जा सकती हैं.’’

तन्मय की चोट देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था पर वह मुसकराया, ‘‘मौम, आई एम फाइन, डोंट वरी.’’

मैं कुछ बोल नहीं पाई. मेरी आंखें डबडबा गईं. फिर 5 मिनट के अंदर ही उस के दोस्तों का हंसीमजाक शुरू हो गया. पूरा माहौल देखते ही देखते बदल गया. मैं हैरान थी. अब वे लड़के तन्मय से विक्टरी का ङ्क साइन बनवा कर ‘फेसबुक’ पर डालने के लिए उस की फोटो खींच रहे थे. तन्मय लेटालेटा पोज दे रहा था. नर्स भी खड़ी हंस रही थी.

तन्मय ने एक दोस्त से कहा, ‘‘विकास, मेरा क्लोजअप खींचना. डैड टूर पर हैं. उन्हें ‘वाट्सऐप’ पर भेज देता हूं.’’

देखते ही देखते यह काम भी हो गया. अमित से उस ने बैड पर बैठेबैठे ही फोन पर बात भी कर ली. मैं हैरान थी. किस मिट्टी के बने हैं ये बच्चे. इन्हें कहां कोई बात देर तक परेशान कर सकती है.

रिया को बताया तो वह भी औफिस से निकल पड़ी. रात 9 बजे तन्मय के एक दोस्त का भाई अपनी कार से हम दोनों को घर छोड़ गया था. तन्मय पूरी तरह शांत था, चोट उसे लगी थी और वह मुझे हंसाने की कोशिश कर रहा था. तन्मय को डाक्टर ने 3 हफ्ते का रैस्ट बताया था. अमित टूर से आ गए थे. 3 हफ्ते आनेजाने वालों का सिलसिला चलता रहा. एक दिन उस ने कहा, ‘‘मौम, देखो, आप की फ्रैंड्स और मेरे फ्रैंड्स की सोच में कितना फर्क है. मेरे फ्रैंड्स कहते हैं, जल्दी ठीक हो यार, इतने दिन बिना खेले कैसे रहेगा और आप की हर फ्रैंड यह कह कर जाती है कि अब इस का खेलना बंद करो, बस. बहुत चोट लगती है इसे.’’

उन 3 हफ्तों में मैं ने उस के और उस के दोस्तों के साथ जो समय बिताया, इस उम्र के स्वभाव और व्यवहार का जो जायजा लिया, मेरा मन खिल उठा.

इन बच्चों की और अपनी उस उम्र की तुलना करती हूं तो मन में एक कसक सी होती है. मन करता है कि काश, कहीं से कैसे भी उस उम्र में पहुंच जाऊं. इन बच्चों के बेवजह हंसने की, खिलखिलाने की, छोटीछोटी बातों पर खुश होने की, अपने दर्दतकलीफ को भूल दोस्तों के साथ ठहाके लगाने की, खाने की छोटी से छोटी मनपसंद चीज देख कर चहकने की प्रवृत्ति को देख सोचती हूं, मैं ऐसी क्यों नहीं थी. मेरी तो कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि घर में किसी बात को नकार अपनी मरजी बताऊं. जो मिलता रहा उसी में संतुष्ट रही हमेशा. न कभी कोई जिद न कभी कोई मांग.

13 साल की उम्र में पिता को खो कर, मम्मी और भैया के सख्त अनुशासन में रही. अंधेरा होने से पहले भैया का घर लौटने का सख्त निर्देश, ज्यादा हंसनेबोलने पर मम्मी की घूरती कठोर आंखें, मुझे याद ही नहीं आता मैं जीवन में कभी 6 बजे के बाद उठी होऊं, विशेषकर विवाह से पहले. और यहां मेरे बच्चे जब मैसेज डालते हैं, ‘उठाना मत.’ तो मुझे कभी गुस्सा नहीं आता. मुझे अच्छा लगता है.

मेरे बच्चे आराम से अपने मन की बात पूरी कर सकते हैं. मेरी प्लेट में तो जो भी कुछ आया, मैं ने हमेशा बिना शिकायत के खाया है और जब मेरे बच्चे अपनी फरमाइश जाहिर करकर के मुझे नचाते हैं, मैं खुश होती हूं. मेरी कोई सहेली जब अपने किसी युवा बच्चे की शिकायत करती है जैसे देर से घर आने की, ज्यादा टीवी देखने की, देर तक सोने की आदि तो मैं यही कहती हूं–जीने दो उन्हें, कल घरगृहस्थी की जिम्मेदारी संभालनी है, जी लेने दो उन्हें.

मुझे लगता है मैं तो बहुत सी बातों में हमेशा मन मार कर अब तक जीती आई थी पर इन बच्चों को निश्ंिचत, खुश, अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बात मनवाते देख कर सच कहती हूं, जी उठी हूं मैं.

हम साथ-साथ हैं: कुनिका को अपनी कौन सी गलती का पछतावा हो रहा था

‘‘क्या बात है, पापा, आजकल आप अलग ही मूड में रहते हैं. कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते हैं. पहले तो आप को इस रूप में कभी नहीं देखा. इस का कोई तो कारण होगा,’’ कुनिका के इस सवाल पर कुछ पल मौन रहे. फिर ‘‘हां, कुछ तो होगा ही’’ कह राजेशजी चाय का घूंट भरते हुए अखबार ले कर बैठ गए.

इकलौती लाड़ली कुनिका कब चुप रहने वाली थी, ‘‘कोई ऐसावैसा काम न कर बैठना, पापा. अपनी उम्र और हमारी इज्जत का ध्यान रखना.’’

क्या यह उन की वही नन्ही बिटिया है जिसे पत्नी के गुजर जाने के बाद मातापिता दोनों का लाड़ दिया. तब बेटी और नौकरी बस 2 ही तो लक्ष्य रह गए थे. पर जब 19 वर्षीया कुनिका, असगर के साथ भाग गई थी तब भी बिना किसी शिकायत और अपशब्द के बेटी की इच्छा को पूरी तरह मान देने की बात, अखबारों में अपील कर के प्रसारित करवा दी. 4 दिन बाद कुनिका, असगर को छोड़ वापस आ गई थी और अपने इस गलत चुनाव के लिए पछताई भी थी.

तब शर्मिंदगी से बचने व बेटी के भविष्य के लिए उन्होंने अपना तबादला भोपाल करा लिया. अब समय का प्रवाह, उन्हें 65 बसंत के पार ले आया था. जीवन यों ही चल रहा था कि पिछले 1 वर्ष से पार्क में सैर करते हुए रेनूजी से परिचय हुआ. उन की सादगी, शालीनता, बातचीत में मधुरता देख उन के प्रति एक अलग सा मोह उत्पन्न हो रहा था. रेनूजी, यहां छोटे बेटेबहू के साथ रह रही थीं. बड़ा बेटा परिवार सहित अमेरिका में रह रहा था.

‘‘अपने बारे में कुछ सोचती हैं कभी?’’ एक दिन बातों ही बातों में राजेशजी ने कहा.

‘‘अपने बारे में अब सोचने को रहा ही क्या है? हाथपांव चलते जीवन बीत जाए,’’ कहते हुए रेनूजी का चेहरा उदास हो उठा था.

कुछ दिनों बाद, राजेशजी ने जीवनभर का साथ निभाने का प्रस्ताव रेनूजी के समक्ष रख दिया, ‘‘क्या आप मेरे साथ बाकी का जीवन बिताना चाहेंगी? अकेलेपन से हमें मुक्ति मिल जाएगी.’’

‘‘इस उम्र में यह मेरा परिवार, आप का परिवार, समाज, हम…’’ शब्द गले में ही अटक गए थे.

‘‘एक विधवा या विधुर को जीवन बसाने की तमन्ना करना क्या गुनाह है? हम ने अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हैं. अब कुछ अपने लिए तलाश लें तो भला गलत क्या है? तुम्हारी स्वीकृति हम दोनों को एक नया जीवन देगी.’’

‘‘हां, यह सच है कि अकेलापन, मन को पीडि़त करता है. पर जीवन तो बीत ही गया, अब कितना बचा है जो…’’ कंपित स्वर था रेनूजी का, ‘‘अब मैं चलती हूं,’’ तेजी से वे चली गईं.

इधर, 10-12 दिनों से वे घर से नहीं निकलीं. उस दिन माला, रोहन से कह रही थी, ‘‘आजकल मम्मी घूमने नहीं जातीं. गुमसुम बैठी रहती हैं. मातम जैसा बनाए रखती हैं चेहरे पर.’’

‘‘कोई बात नहीं. अपनेआप ठीक हो जाएगा मूड. तुम टाइम से तैयार हो जाना. लंच पर रमेश के घर जाना है.’’

बेटे के इस उत्तर पर, रेनूजी की आंखें भर आईं. न जाने क्या सोच कर राजेशजी को मोबाइल पर नंबर लगा दिया. उधर से राजेशजी का मरियल स्वर सुन वे घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, 8 दिनों से तबीयत थोड़ी खराब चल रही है. बेटीदामाद लंदन गए हुए हैं. 2-4 दिनों में ठीक हो जाऊंगा,’’ और हलकी सी हंसी हंस दिए वे.

उस दिन 2 घंटे बाद, रेनूजी दूध, फल आदि ले राजेशजी के घर पहुंच गईं. तब राजेशजी के चेहरे की खुशी व तृप्ति, रेनूजी को अपने अस्तित्व की महत्ता दर्शा गई. आज का दिन उन की ‘स्वीकृति’ बन गया.

2 हफ्तों बाद, एकदूसरे को माला पहना, जीवनसाथी बन, रेनूजी के चेहरे पर संतोष के साथसाथ दुश्चिंता केभाव भी स्पष्ट थे. दोनों परिवारों के बच्चों से सामना करने का संकोच गहराता जा रहा था.

‘‘मुझे तो घबराहट व बेचैनी हो रही है कि बच्चे क्या कहेंगे? आसपास के लोग क्या कहेंगे? पांवों में आगे बढ़ने की ताकत जैसे खत्म हो रही है.’’

‘‘सब ठीक होगा. मैं हूं न तुम्हारे साथ. हर स्वीकृति कुछ समय लेती है. अब हमारे कदम रुकेंगे नहीं पहले मेरे घर चलो.’’

छोटी बिंदी और मांग में सिंदूरभरी महिला को पापा के साथ दरवाजे पर खड़ा देख कुनिका के अचकचा कर देखने पर परिचय कराते हुए राजेशजी बोले, ‘‘बेटी, ये तुम्हारी मां हैं. हम ने आज ही विवाह किया है. और…’’

‘‘यह क्या तमाशा है, पापा? शादी क्या कोई खेल है जो एकदूसरे को माला पहनाई और बन गए…’’

‘‘पहले पूरी बात तो सुनो, अगले माह कोर्टमैरिज भी होगी,’’ बीच में ही राजेशजी ने जवाब दे डाला.

‘‘कुछ भी हो, यह औरत मेरी मां नहीं हो सकती. इस घर में यह नहीं रह सकती,’’ वह उंगली तानते हुए बोली.

‘‘पर यह घर तो मेरा है और अभी मैं जिंदा हूं. इसलिए तुम इन्हें रोक नहीं सकतीं.’’

तभी रेनूजी ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘‘सुनो तो, बेटी.’’

‘‘मैं आप की बेटी नहीं हूं. मत करिएयह नाटक,’’ कुनिका पैर पटकती अंदर चली गई.

‘‘आओ रेनू, तुम भीतर आओ,’’ रेनूजी का उतरा चेहरा देख, राजेशजी ने समझाते हुए कहा, ‘‘हमारे इस फैसले को ये लोग धीरेधीरे अपनाएंगे. थोड़ा सब्र करो, सब ठीक हो जाएगा.’’

चाय बनाने के लिए रेनूजी के रसोई में घुसते ही, कुनिका ‘हुंह’ के साथ लपक कर बाहर निकल आई. पीछेपीछे राजेशजी भी वहीं पहुंच गए.

‘‘मेरे बच्चे भी न जाने क्याकुछ कहेंगे, कैसा व्यवहार करेंगे,’’ उन के पास जाने की सोच कर ही दिल बैठा जा रहा है,’’ चाय कपों में उड़ेलते हुएरेनूजी कह रही थीं, ‘‘मैं ने रोहन को बता दिया है मैसेज कर के. बस, अब बच्चों को एहसास दिलाना है कि हम उन के हैं, वे हमारे हैं. हम अलग रहेंगे पर सुखदुख में साथ होंगे. कोशिश होगी कि हम उन पर बंधन या बोझ न बनें और उन की खुशी…’’

तभी कुनिका की दर्दभरी चीख सुन सीढि़यों की तरफ से आती आवाज पर दोनों उस ओर लपके. वह कहीं जाने के लिए निकली ही थी कि ऊंची एड़ी की सैंडिल का बैलेंस बिगड़ने से 4 सीढि़यों से नीचे आ गिरी. रेनूजी व राजेशजी ने सहारा दिया और उस के कक्ष में बैड पर लिटा दिया. पहले तो दर्दनिवारक दवा लगाई फिर रेनूजी जल्दी से हलदी वाला गरम दूध ले आईं. कुनिका का पांव देख रेनूजी समझ गईं कि मोच आई है. राजेशजी से मैडिकल बौक्स ले कर उस में से पेनकिलर गोली दी. साथ ही, पांव में क्रेपबैंडेज भी बांध दिया.

‘‘परेशान न हो, कुनिका. कुछ ही घंटों में यह ठीक हो जाएगा,’’ कहते हुए रेनूजी ने पतली चादर उस के पैरों पर डाल उस के माथे पर हाथ फेर दिया.

धीरेधीरे दर्द कम होता गया. अब कुनिका आंखें बंद किए सोच रही थी, ‘सच में ही इस औरत ने पलक झपकते ही यह स्थिति सहज ही संभाल ली. अकेले पापा तो कितने नर्वस हो जाते.’ कुछ बीती घटनाओं को याद करते हुए वह सोचने लगी, ‘पापा वर्षों से अकेलेपन में जीते आए हैं. अब उन्हें मनपसंद साथी मिला है तो मैं क्यों चिढ़ रही हूं?

‘‘बेटी, अब कैसा लग रहा है?’’ माथे पर रेनूजी का गुनगुना स्पर्श, मन को ठंडक दे गया.

‘‘मैं ठीक हूं, आप परेशान न हों,’’ एक हलकी मुसकान के साथ कुनिका का जवाब पा रेनूजी का मन हलका हो गया.

अगले दिन रेनूजी अपने द्वार की घंटी बजा, राजेशजी के साथ दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में खड़ी थीं. दरवाजा खुला, माला ने दोनों को एक पल देखा और बिना कुछ कहे भीतर की ओर बढ़ गई. सामने लौबी में रोहन चाय पी रहा था. वह न तो बोला, न उस ने उठने का प्रयास किया और न इन लोगों से बैठने को कहा. राजेशजी स्वयं ही आगे बढ़ कर बोले, ‘‘हैलो बेटे, मैं राजेश हूं. तुम्हारी मां का जीवनसाथी. हम जानते हैं कि हमारा यह नया रिश्ता तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा पर तुम्हें अब अपनी मां की चिंता करने की जरूरत नहीं होगी. हम दोनों…’’

‘‘बेकार की बातें न करें. हमारे बच्चे, समाज, आसपास के लोगों के बारे में कुछ तो सोचा होता. इतनी उम्र निकल गई और अब शादी रचाने की इच्छा जागृत हो गई आप लोगों की. क्या हसरत रह गई है अब इस उम्र में? मेरी मां तो ऐसा स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थीं. यह सब आप का फैलाया जाल है. क्या इस वृद्धावस्था में यह शोभा देता है? आखिर, कैसे हम अपने रिश्तेदारों में गरदन उठा पाएंगे?’’ क्रोध और तनाववश रोहन का चेहरा विदू्रप हो उठा था.

तभी रेनूजी सामने आ गईं, ‘‘कौन से रिश्तेदारों की बात कर रहा है. जब मैं 2 छोटे बच्चों के साथ मुसीबतों से जूझ रही थी तब तो कोई अपना सगा सामने नहीं आया. तुम्हारे पापा की मृत्यु के साथ जैसे मेरा अस्तित्व भी समाप्त हो गया था. पर मैं जिंदा थी. सच पूछो तो मुझे स्वयं पर गर्व है कि मैं ने अपना कर्तव्य पूरी तरह निभाया, तुम बच्चों को ऊंचाई तक पहुंचाया.’’

तभी पास रखी कुरसी खींच, उस पर बैठते हुए राजेशजी बोले, ‘‘तुम्हारा कहना कि हमारी उम्र बढ़ गई है, तभी तो यह रिश्ता हसरतों का नहीं, साथ रहने व संतुष्टि पाने का है. बेटे, एक बार हमारी भावना, संवेदना पर गौर करना, सोचना और हमें अपना लेना. हम तो तुम्हारे हैं ही, तुम भी हमारे हो जाना. तुम्हारा छोटा सा साथ, हमें ऊर्जा व खुशी से लबालब रखेगा. अब हम चलते हैं.’’

उसी शाम कुनिका को भी फोन कर दिया, ‘‘आज गौरव भी भारत आ जाएगा. परसों रविवार की सुबह तुम लोग, साकेत वाले फ्लैट पर आ जाना. और हां, रेनूजी का परिवार भी निमंत्रित है. तुम सब की प्रतीक्षा होगी हमें.’’ फोन डिसकनैक्ट करने ही वाले थे कि उधर से आवाज आई, ‘‘पापा, हम जरूर आएंगे. बायबाय.’’ राजेशजी के चेहरे पर मुसकराहट छा गई.

वर्षों पूर्व छुटी एक ही रूम में सोने की आदत, अपनाने में असहजता व कुछ अजीब सा लग रहा था राजेशजी व रेनूजी को. फिर भी बातें करतेकरते एक सुकून के साथ कब वे दोनों नींद की आगोश में समा गए, पता ही न लगा. गहरी नींद में सोई हुई रेनूजी, अलार्म की घंटी पर, हलकी सी चीख के साथ जाग पड़ीं, ‘‘क्या हुआ? कौन है?’’

‘‘अरे, कोई नहीं. यह तो घड़ी का अलार्म बजा है.’’

‘‘अभी तो शायद 4 या साढ़े 4 ही बजे होंगे और यह अलार्म?’’

‘‘हां, मैं इतनी जल्दी उठता हूं, फिर फ्रैश हो कर सैर करने के लिए निकल जाता हूं. तुम चलोगी?’’ राजेशजी के पूछने पर, ‘‘अरे नहीं, मैं आधी रात के बाद तो सो पाई हूं कि…’’ परेशानी युक्त स्वर में जवाब आया.

‘‘क्यों? क्या तुम्हें नींद न आने की समस्या है?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. असल में नई जगह पर नींद थोड़ी कठिनाई से आ पाती है.’’

जीवन में कई ऐसी बातें होती हैं जिन पर गौर नहीं किया जाता, खास महत्त्व नहीं दिया जाता. और फिर अचानक ही वे महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं, जैसे कि राजेशजी को चटपटी सब्जी, एकदम खौलती हुई चाय, मीठे के नाम पर बूंदी के लड्डू बहुत पसंद हैं. इस के विपरीत रेनूजी को सादा, हलके मसाले की सब्जी और बूंदी के लड्डू की तो गंध भी पसंद नहीं आती. पर अब वे दोनों ही एकदूसरे की पसंद पर ध्यान देने लगे हैं, एकदूसरे की खुशी का ध्यान पहले करते हैं.

रविवार की दोपहर, राजेशजी व रेनूजी के घर में दोनों परिवारों के बच्चे एकदूसरे से परिचित हो रहे थे. रोहन और माला चुपचुप थे पर कुनिका और गौरव बातों में पहल कर रहे थे. तभी राजेशजी की आवाज पर सब चुप हो गए.

‘‘बच्चों, हम कुछ कहना चाहते हैं. हमारी इस शादी से किसी के परिवार पर भी आर्थिक स्तर पर कोई दबाव नहीं होगा. प्रौपर्टी बंट जाएगी या ऐसी ही कुछ और समस्या का सामना होगा, ऐसा कुछ भी नहीं होगा. हम दोनों ने कोर्ट में ऐफिडेविट बनवा कर निश्चय किया है कि हम पतिपत्नी बन कर एकदूसरे की चलअचल संपत्ति पर हक नहीं रखेंगे. अपनी इच्छा से अपनी संपत्ति गिफ्ट करने की स्वतंत्रता होगी. अपनीअपनी पैंशन अपनी इच्छा से खर्च करने की मरजी होगी. खास बात यह कि तुम्हारी मां अपनी पैंशन को हमारे घर के खर्च पर नहीं लगाएंगी. यह खर्च मैं वहन करूंगा. आर्थिक सहायता नहीं, पर भावनात्मक या कभी साथ की जरूरत हुई तो हम बच्चों की राह देखेंगे. हम तो तुम्हारे हैं ही, बस, तुम्हें अपना बनता हुआ देखना चाहेंगे. और भी कुछ जिज्ञासा हो तो आप पूछ सकते हैं,’’ इतना कह राजेशजी, प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में चुप हो गए.

‘‘हम आप के साथ हैं, आप की खुशी में हम भी खुश हैं,’’ दोनों परिवारों के सदस्यों ने समवेत स्वर में कहा. तभी राजेशजी ने रेनूजी का हाथ धीरे से थामते हुए कहा, ‘‘शेष जीवन, कटेगा नहीं, व्यतीत होगा.’’

पैरों का फैट कम करने के ये हैं आसान उपाय

मोटापा जाल लोगों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. इससे निजात पाने के लिए लोग तरह तरह के इलाज अपनाते हैं. मोटापा भी कई तरह का होता है. कई बार पूरा शरीर फैट के चपेट में आ जाता है. तो कभी शरीर के कुछ हिस्से, जैसे शरीर का उपरी हिस्सा या नीचे का हिस्सा मोटा  जाता है.

इस खबर में हम आपका बताएंगे कि आप शरीर के निचले हिस्से में बढ़ रहे फैट से कैसे छुटकारा पा सकते हैं. हमारे बताए कुछ स्मार्ट टिप्स आपको इस परेशानी से आजादी देंगे. तो आइए जानते हैं इन ट्रिक्स के बारे में.

खूब पिएं पानी

वेटलौस के लिए जरूरी है कि आप हाइड्रेटेड रहें. ज्यादा पानी पीने से आपके शरीर से एक्स्ट्रा साल्ट निकल जाता है.

कार्डियो में मदद

वजन कम करने के लिए लोग तरह तरह के एक्सरसाइज करते हैं. पर क्या आपको पता है कि एक्सरसाइज से अधिक असरदार कार्डियो होता है. जौगिंग, रनिंग और रस्सी कूदने जैसी चीजें इसमें काफी कारगर हैं.

लो कार्बोहाइड्रेट

अधिक कार्बोहाइड्रेट लेने से शरीर के कई जरूरी हिस्सों में, जैसे मांसपेशियों में, लिवर में पानी भर जाता है जिससे आप अधिक वेट महसूस करते हैं. लो कार्बोहाइड्रेट का सेवन शरीर के लिए काफी अच्छा होता है इससे इससे वाटर वेट निकल जाता है.

कम करें नमक का सेवन

आमतौर पर नमक को संतुलित मात्रा में सेवन करने की बात लोगों के दिमाग में जल्दी नहीं आती. पर जिस तरह से चीनी का अधिक सेवन सेहत पर नकारात्मक असर डालता है, नमक भी आपके लिए काफी हानिकारक हो सकता है. इस रोग के मरीजों को तुरंत नमक का सेवन कम करना चाहिए. ऐसा करने से जल्दी ही उन्हें शरीर में बदलाव महसूस होगा.

फ्लूड बैलेंस

शरीर में फ्लूड का बैलेंस रहना बेहद जरूरी है. इसके लिए जरूरी है कि आप ऐसे खआद्य पदार्थों का सेवन करें जिनमें पानी की मात्रा अधिक हो. जैसे हरी साग सब्जियां, फल, दही आदि का सेवन काफी लाभकारी होगा. इन चीजों से आपको कैल्शियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम मिलता है.

चाय कौफी को कहें ना

चाय या कौफी का सेवन कम कर दें. इनसे दिन की शुरुआत करने से सेहत का काफी नुकसान होता है. इसकी जगह पर आप जीरा पानी, सौंफ पानी का सेवन कर सकते हैं. फैट कम करने में काफी लाभकारी होते हैं.

तुम हो नागचंपा- भाग 1

“आज तो आप बहुत ही सुंदर लग रही हैं,” दर्पण में अपनेआप को निहारती, अपनी आवाज को अपने पति महीप जैसी भारी बना कर स्नेह रस उड़ेलती कामिनी खिलखिला कर हंस पड़ी. स्वयं पर वह न्यौछावर हुई जा रही थी.

गुलाबी सिक्वैंस साड़ी के साथ डीप बैक नैक का ब्लाऊज शादी से पहले मां से छिप कर बनवाया था. महीप का कामिनी के प्रति रवैया किसी नवविवाहित पति सा क्यों नहीं है, यह सोचसोच कर व्यथित होने के स्थान पर पति को रिझाना उचित समझा था उस ने. आज अपनेआप को नख से शिखा तक श्रृंगार में लिपटाए वह पति को खुद में डूबो देना चाहती थी.

कामिनी की शादी 2 माह पहले महीप से हुई थी. एक मध्यम श्रेणी का व्यापारी महीप कासगंज में रह रहा था. पास के एक गांव में पहले वह बड़े भाइयों, पिता, चाचाताऊ आदि के साथ खेतीबाड़ी का काम देखता था. गांव छोड़ कासगंज आने का कारण पास के एक आश्रम में रहने वाले स्वामी के प्रति आस्था के अतिरिक्त कुछ न था.

स्वामीजी ने एक बार गांव में प्रवचन क्या दिया कि महीप उन के विचारों को प्रतिदिन सुनने की आस लिए आश्रम के समीप जा बसा. पिता से पैसा ले कर गत्ते के डब्बे बनाने का एक छोटा सा धंधा शुरू किया. धीरेधीरे जीवनयापन योग्य कमाई होने लगी.

कामिनी यूपी के रामनगर की थी. परिवार की सब से बड़ी संतान कामिनी से छोटे 2 भाई पढ़ रहे थे. पिता स्कूल मास्टर थे और मां घर संभालती थी. रामनगर के सरकारी कालेज से बीए करते ही कामिनी का हाथ महीप के हाथों में दे दिया गया. रिश्ता पिता के एक मित्र ने करवाया था. मध्यवर्गीय परिवार में पलीबङी कामिनी की कामना रुपयापैसा नहीं केवल पति का प्रेम था, जो विवाह के 2 माह बीत जाने पर भी वह अनुभव नहीं कर पा रही थी. सखीसहेलियों से सुने तमाम किस्से ऐसी कहानियां लग रही थीं जिन का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं. अब तक कुल 2 रातें ऐसी गुजरी थीं, जब पति के प्रेम में डूब स्वयं को वह किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी, लेकिन बाकी के दिन महीप से हलका सा स्पर्श पाने को तरसते हुए बीते थे.

आज गुलाबी साड़ी के साथ गले में कुंदन का चोकर नैकलेस, कानों में मैचिंग लटकते झुमके, गुलाबी और सिल्वर रंग की खनखनाती चूड़ियों का सैट और गुलाब की हलकी रंगत और महक लिए शिमर लिपस्टिक लगा कर वह महीप को मोहपाश में जकड़ लेना चाहती थी. अपने चांद से रोशन चेहरे को आईने में देख मुसकराई ही थी कि याद आई परफ्यूम की वह शीशी जो पारिवारिक मित्र आकाश ने विवाह से 2 दिन पहले कामिनी को देते हुए कहा था, “मैं नागचंपा की सुगंध वाला परफ्यूम उपहार में इसलिए दे रहा हूं ताकि तुम को याद रहे कि शादी के बाद नागचंपा के पेड़ सी बन कर रहना है. कोमल भी कठोर भी। पता है न कि यह पेड़ खुशबूदार फूलों के साथ साथ लंबी व घनी पत्तियों से लद कर खूब छाया देता है, लेकिन इस की लकड़ी इतनी सख्त और मजबूत होती है कि काटने वालों की कुल्हाड़ी की धारें मुड़ जाती हैं.”

कामिनी ने अलमारी खोल कर गिफ्ट निकाला. शीशी का ढक्कन खोला तो उस की सुगंध में डूब गई, ‘आज तो महीप का मुझ में खो जाना निश्चित है.’ आकाश को मन ही मन धन्यवाद देते हुए कामिनी ने नागचंपा परफ्यूम लगा लिया.

नईनवेली ब्याहता कामिनी के पायल की रुनझुन से महीप का 2 कमरे वाला मकान पहले ही झनक रहा था, आज नागचंपा की खुशबू से पूरा घर महक उठा.

महीप का दुपहिया घर के सामने रुका तो कामिनी ठुमकते हुए दरवाजे तक पहुंची. महीप के भीतर दाखिल होते ही वह तिरछी मुसकराहट बिखरा कर प्रेम भरे नेत्रों से उसे देखने लगी. महीप माथे पर बल लिए उड़ती सी नजर कामिनी पर डाल आगे बढ़ गया.
कामिनी ने चाय बना ली. ट्रे में 2 कप चाय और नमकीन लिए मुसकराती सोफे पर बैठे महीप के पास जा कर खड़ी हो गई.

“यहां क्यों खड़ी हो गईं? वहां रख दो न चाय,” टेबल की ओर इशारा कर रुखाई से महीप बोला.

ट्रे टेबल पर रख कामिनी महीप से सट कर बैठ गई. महीप मूर्ति सा बना बैठा रहा. कामिनी ने उस के बालों को सहलाते हुए कान को हौले से चूम लिया.

‘चटाक…’ की तेज आवाज कमरे में गूंजी, कामिनी गाल पर हाथ रख भय मिश्रित आश्चर्य से महीप को देखती रह गई. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती महीप का कठोर स्वर सुनाई दिया, “शर्म नहीं आती? इस तरह सजधज कर पति के सामने कुलटाओं सी हरकतें कर रही हो.”

“आप मेरे पति हैं. शादी हुई है आप से. पतिपत्नी में कैसी शर्म? पिछले 2 महीनों में आप का रवैया पति जैसा तो बिलकुल भी नहीं है. ऐसा क्यों है? क्या कमी है मुझ में?”

“कमी यह है कि तुम पतिपत्नी के मिलन को मौजमस्ती समझती हो. जानती भी हो कि क्या कारण होता है इस का?”

“मेरे विचार से तो दोनों के बीच इस संबंध से प्रेम पनपता है, वे इस मिलन के बहाने एकदूसरे के नज़दीक आते हैं. भविष्य में सुखदुख बांट लेने से जीवन जीना आसान हो जाता है. बहुत जरूरी है यह संबंध. यह सच नहीं है क्या?” कामिनी एक सांस में बोल गई.

“मुझे पता था कि तुम्हारी सोच भी बिगड़े लोगों जैसी ही होगी. आज जान लो कि पतिपत्नी संबंध का कारण केवल संतान उत्पत्ति है और वह एक बार संबंध बनाने के बाद ही हो जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो इस का अर्थ है कि पत्नी ने कुछ पाप किए हैं. मैं जान गया था कि तुम पापी हो. आज तुम्हारे निर्लज्ज रूप ने समझा दिया कि बदचलन भी हो.”

“पापी? बदचलन? यह कैसी बातें कर रहे हैं आप?”

“मेरे सामने इस तरह लुभावना स्वरूप बनाए क्यों चली आईं? तम्हें लगा कि मैं इतना मूर्ख हूं जो तुम पर फिदा हो कर अभी संबंध बनाने लगूंगा? संतान के लिए पत्नी के पास मैं महीने में एक बार जाने वालों में से हूं. मुझे अपने जैसा समझ लिया क्या?”

कामिनी की रुलाई फूट पडी. सुबकते हुए बोली, “मैं ने तो ऐसा कभी नहीं सुना कि संबंध केवल बच्चे के लिए बनते हैं, न ही महीने में एक बार मिलन से गर्भवती होने की बात किसी ने मुझ से की है. आप को किस ने कहा यह सब?”

“कभी साधु लोगों की संगत में जाओ तो कुछ अच्छी बातें पता लगेंगी. घर बैठे कौन तुम्हें ज्ञान देने आएगा. होंगी 2-4 तुम्हारे जैसी मूर्ख सहेलियां जो स्त्रीपुरुष संबंधों को तुम्हारी तरह ही मजे की चीज समझती हैं. उन से ही सीख ली होगी अब तक तुम ने. कल चलना मेरे साथ स्वामीजी के आश्रम में. बहुत कुछ जान पाओगी वहां. पास ही है अपने घर के,” स्वयं को ज्ञानी समझ अकड़ता हुआ महीप उठ खड़ा हुआ. कामिनी टूटे हुए मन के टुकड़ों को सहेज पीड़ा से भरी अपने कमरे में चली गई.

क्या थी सलोनी की सच्चाई: भाग 2

मुकेश चला गया , सलोनी को कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ा , उसकी एक अलग सोच थी , वह इस टाइम को खुलकर एन्जॉय करती , जहाँ मन होता , जाती , जो अच्छा लगता , वो करती

मुकेश को यही कहती , मुकेश , मैं अपने घर में ही ठीक हूँ , जगह छोटी है , आसपास का पड़ोस तो अच्छा है ही , तुम मेरी चिंता न करो , अपना ध्यान रखना.’

दोनों रोज फ़ोन पर बात करते ,  सलोनी अकेली जरूर थी , पर परेशान नहीं  हो रही थी.अचानक सामने वाले घर में रहने वाले परिवार के सुनील ने  एक दिन उसका दरवाजा खटखटाया , कहा , सलोनी , मेरी पत्नी नीता को तेज बुखार है , गुड्डू छोटा है , मैं संभाल नहीं पा रहा हूँ , तुम थोड़ी देर के लिए उसे संभाल सकती हो ? बड़ी मेहरबानी होगी.” सलोनी ने ख़ुशी ख़ुशी गुड्डू की जिम्मेदारी ले ली , गुड्डू ही क्या , सुनील भी आते जाते सलोनी को ऐसे दिल दे बैठा कि बात बहुत दूर तक पहुँच गयी. सलोनी कई दिन से अकेली थी ही , सुनील की पत्नी बीमार , दोनों ने एक दूसरे का अकेलापन ऐसा बांटा कि कानोकान किसी को खबर नहीं हुई. दोनों  के सम्बन्ध बनने लगे , सारी दूरियां ख़तम हो गयी. सुनील धीरे धीरे सलोनी के लिए बहुत कुछ करने लगा , उसके खर्चों को खूब संभालता , मुकेश कई दिन से उसे पैसे ट्रांसफर नहीं कर पाया था , पर सुनील सलोनी की पैसों से खूब  मदद करने लगा.

मुकेश को अपनी पत्नी पर नाज हो आता , कितनी सहनशक्ति है , सलोनी में , जरा नहीं घबराती. सलोनी की सुनील के साथ रासलीला दिनोदिन बढ़ती जा रही थी , उसकी पत्नी ठीक हो गयी थी और सलोनी की अहसानमंद थी कि उसने परेशानी के समय गुड्डू को संभाल कर बहुत हेल्प की. अब भले ही गुड्डू का बहाना नहीं था पर सुनील अब भी सबसे नजरें बचा कर सलोनी के साथ  समय बिताता.अचानक सलोनी की एक सहेली उसके पास कुछ दिन रहने आ गयी , वह बीमार चल रही थी और सलोनी के कहने पर पीर बाबा  का आशीर्वाद  लेने आ गयी थी , सलोनी उसे बाबा  के पास ले गयी , बाबा ने झाड़ फूंक शुरू की , कहा , रोज आना होगा.” सहेली मंजू तैयार हो गयी , मंजू का पति अनिल भी उसके साथ आया था , सलोनी का रंग रूप देख अनिल का दिल मचल उठा , मंजू और सलोनी एक ही गांव की थी , मंजू का एक बेटा था जिसे वह इस समय अपने ससुराल छोड़ कर आयी थी , अनिल आया तो था कि बस मंजू को छोड़कर चला जायेगा पर सलोनी के पास से जाने का उसका मन ही नहीं हुआ. मंजू रोज पीर  बाबा के पास अकेली ही चली जाती , पीछे से अनिल ने मर्यादा लांघने की कोशिश की तो सलोनी को कहाँ ऐतराज हो सकता था , वह मुकेश की अनुपस्थिति को जी भर कर एन्जॉय कर रही थी. सलोनी ने उसके साथ कई बार सम्बन्ध बनाये , अभी सुनील नहीं आ सकता था , वह फ़ोन पर सलोनी से तड़प तड़प कर बात  किया करता , मन ही मन उसे मूर्ख कहती हुई सलोनी इस समय तो अनिल में डूबी थी , उसे न तो मुकेश की याद आती , न सुनील की.

मंजू की झाड़ फूंक इक्कीस दिन चली , अनिल इस बीच कई बार आता रहा था , बाइक पर आता , इस तरह आता कि मंजू को भी पता नहीं चल पाया कि जब वह पीर बाबा के सामने बैठी होती है , अनिल उसकी सहेली के साथ बैठा होता है. झाड़फूंक और अंधविश्वास में डूबे लोग न जाने कितने तरीके से अपने आप को नुकसान पहुंचा लेते हैं . अनिल फिर आते रहने का वायदा करके मंजू को लेकर चला गया , सलोनी ने कह दिया था , फ़ोन करके ही आना , उसे पता था अब वह कुछ दिन सुनील के साथ गुजारेगी। अनिल और मंजू चले गए  सलोनी ने फौरन सुनील को फोन किया , बहुत दिन हो गए , मैं तो मेहमानो में ही घिरी रही , कब आओगे ? बड़ी मुश्किल से कटे ये दिन ”

”जल्दी ही आता हूँ , सलोनी , बड़ा मुश्किल रहा तुम्हारे बिना जीना , आता हूँ ”

सलोनी मुकेश से पूछती रहती , ”कब तक काम ख़तम होने वाला है ? अब तो बहुत दिन हो गए ” वह कहता , बस जल्दी ही आता हूँ ‘  काम ऐसा ही था , मुकेश को पता ही नहीं होता था कि वह कब घर आ पायेगा , पर सलोनी की याद उसे खूब सताती , रोज फ़ोन पर बात हो जाती थी , सलोनी उसे बताती कि वह अपना सारा टाइम पूजा पाठ में , स्वामीजी की कुटीर में , पीर बाबा  के पास जाकर लगाती है , मुकेश खूब खुश हो जाता  कुछ दिन और बीते , मस्ती करने के चक्कर में सलोनी भूल ही गयी कि उसे काफी दिनों से पीरियड नहीं हुआ है , ध्यान गया तो हिसाब लगाया कि तीन महीने से ऊपर हो चुके हैं , खुद ही किट लेकर प्रेगनेंसी चेक भी कर ली , होश उड़ गए उसके , वह प्रेग्नेंट थी  मुकेश को गए तो चार महीने से ऊपर हो चुके थे , अनिल उसके पास आता रहा था , सुनील से भी सम्बन्ध चल ही रहे थे , उसने हिसाब लगाया , बच्चा मुकेश का तो नहीं था , इतना बेवक़ूफ़ तो मुकेश भी नहीं था कि इतना न सोचता  वह कुछ दिन सोचती रही , फिर एक लेडी डॉक्टर के पास पहुँच गयी , एबॉर्शन के लिए बात की तो डॉक्टर ने कहा ,” टाइम कुछ ज्यादा ही हो गया है , तुम कुछ कमजोर भी हो , यह तुम्हारे भविष्य के लिए ठीक नहीं रहेगा , अपने पति को ले आना , मैं उन्हें भी समझा दूंगी ” टाइम गुजरता जा रहा था , उसने दो और डॉक्टर्स से बात की , कोई भी एबॉर्शन के लिए तैयार नहीं हुआ  उसने सुनील को बता दिया , सुनील ने तो सुनते ही हाथ झाड़ लिए ,” देखो , सलोनी , मैं कुछ नहीं कर सकता , तुम ही सोचो , क्या करना है , मैं इतना ही कर सकता हूँ कि  आज के बाद तुमसे न मिलूं ” और वह सचमुच फिर कभी सलोनी से मिला भी नहीं  सलोनी को जैसे बड़ा धक्का लगा

गाड़ियों में दिखाते हैं मर्दानगी

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशों की बात करें तो जमाना भौकाल का है. भौकाल बनता है मर्दानगी से. मर्दानगी दिखाने के लिए आजकल सब से अधिक प्रयोग इस तरह की गाड़ियों का किया जा रहा है जिन को देखते ही लगे कि कोई भौकाली चला आ रहा है. भौकाल दिखाने से रुतबा बढ़ता है. इस के लिए शुरू से ही लोग खास किस्म की गाड़ियों से चलते हैं. एक दौर था जब गाड़ियों में बोलैरो का प्रयोग इस के लिए किया जाता था. इस की लोकप्रियता का यह आलम था कि इस को ले कर ‘मैडम बैठ बोलैरो पर’ गाना भी बना.

उत्तर प्रदेश, बिहार ही नहीं हरियाणा और पंजाब तक इन का जलवा था. भोजपुरी ही नहीं, हरियाणवी में भी ‘मैडम बैठ बोलैरो बहुत लोकप्रिय हो गया था. बोलैरो महिंद्रा कंपनी की गाड़ी थी और इस की कीमत 9 लाख से शुरू होती थी. इस को चलाने वाला अपनी मर्दानगी दिखाता था. यही कारण है कि ‘मैडम बैठ बोलैरो…’ जैसे गाने खूब लोकप्रिय हो गए थे. अपनी बड़े पहिए और ताकतवर इंजन के बल पर यह शान और दमदारी से अच्छे और खराब दोनों रास्तों पर दौड़ती थी.
कुछ ही दिनों में बोलैरो से मर्दों का दिल भर गया. सड़कों पर महिंद्रा की ही महिंद्रा स्कौर्पियो उतर पड़ी. इस के आगे बोलैरो फीकी पड गई. अब सड़कों पर मर्दानगी की निशानी स्कौर्पियो हो गई, जिस की शुरुआती कीमत वह थी जो बोलैरो की टौप मौडल की होती थी. स्कौर्पियो की कीमत 13.59 लाख से शुरू होती है. 25 लाख से ऊपर की कीमत की गाड़ियां हैं. स्कौर्पियो को ले कर भी म्यूजिक अलबम बने. हरियाणा के कलाकार प्रदीप बूरा और पूजा हुड्डा ने ‘काली स्कौर्पियो तेरा यार जमानत पर आया…’ बहुत मशहूर हुआ.

स्कौर्पियो के बाद टाटा की सफारी बहुत मशहूर है. इस का प्रयोग भी सड़क पर मर्दानगी दिखाने के लिए किया जाता है. इस की कीमत 16 लाख से 35 लाख रुपए तक है. काली सफारी और उस के काले रंग के शीशे इतने लोकप्रिय हुए कि दंबगई और मर्दानगी का दूसरा नाम हो गए. इस के बाद इन पर नियंत्रण के लिए पुलिस विभाग ने काले रंग के शीशे पर प्रतिबंध लगा दिया. टाटा की सफारी भी म्यूजिक बनाने वालों की पहली पंसद बन गई. भोजपुरी के गायकों ने सफारी पर बहुत से म्यूजिक अलबम बनाए. इन में ‘गाड़ी में गाड़ी, गाड़ी सफारी…’, ‘कहिया घुमाईभो गाड़ी सफरिया में…’ और ‘बैठी के आइबो सफारी मा…’ जैसे तमाम गाने हैं.

बोलैरो, स्कौर्पियो और सफारी के बाद सब से अधिक एसयूवी फौर्च्यूनर को पसंद किया जा रहा है. इस का पहला कारण यह देखने में मर्दाना लुक रखती है. इस की कीमत उतनी है जिस में 5 बोलैरो, 3 स्कौर्पियो और 2 सफारी मिल जाएं. मर्दानगी में गाड़ी की कीमत का भी असर होता है. एसयूवी फौर्च्यूनर 60 लाख रुपए से शुरू होती है. इस पर भी म्यूजिक अलबम वालों ने खूब काम किया. बहुत सारे म्यूजिक अलबम बनाए. भोजपुरी में मोनू अलबेला और शिल्पी राज ने ‘गाड़ी फौच्यूनर लेल…’ गाया. राजस्थानी में एक गाना ‘बन्ना फौरच्यूनर लायो…’ बहुत मशहूर है. भोजपुरी में परवेश लाल, नीलम गिरी और शिल्पी राज ‘करिया ब्लाउज करिया साडी में फौच्यूनर लागे…’ खूब पसंद किया गया.

इन सब के बीच एक और गाड़ी मशहूर है जिस का नाम ‘थार’ है. यह तब और मशहूर हुई जब उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में किसान आंदोलन के समय केंद्रीय मंत्री के बेटे पर थार से कुचल कर 4 किसानों के मार देने की घटना घटी. ‘थार’ सड़क पर चलती एक दहशत के रूप में देखी जाने लगी. सोशल मीडिया पर वायरल हुआ कि ‘थार’ सड़क पर जा रही हो तो किनारे खड़े हो जाओ.

कम कीमत में महिंद्रा की ‘थार’ का रुतबा भी कम नहीं है. 12 लाख रुपए की कीमत से यह शुरू होती है. सड़क पर मर्दानगी दिखाने वालों की यह एक अलग पसंद बन चुकी है. इस की बड़ी दिक्कत यह है कि इस में एक ही गेट होने के कारण कम पसंद की जा रही है. मर्दानगी दिखाने वाली दूसरी गाड़ियों की तरह ‘थार’ को ले कर भी खूब म्यूजिक अलबम बने हैं. लव कटारिया और खुशी बालियान ‘सिक्का मेरे यार का चले थार में…‘ खूब पसंद किया गया. भोजपुरी में शिल्पी राज और रानी का गाना ‘हमार बलाम लेके खूमें थार मा…’ भी पसंद किया गया.

 

मर्दानगी की निशानी बनी गाड़ियां

14 करोड़ रुपए से अधिक कीमत वाली बेंटले मल्सैन ईडब्ल्यूबी सेंटेनरी एडिशन भारत की सब से महंगी कार भले हो पर यहां जलवा मर्दानगी दिखाने वाली गाड़ियों का ही है. बात कार तक ही सीमित नहीं है. सड़कों पर मर्दानगी दिखाने वाली बाइक भी हैं. इन में पहला नंबर आज भी रौयल फील्ड बुलेट का है. इस की कीमत 2 लाख से शुरू होती है. वैसे तो रौयल फील्ड ने बुलेट के कई मौडल बाजार में उतारे हैं, इस के बाद भी जो बात काले रंग की बुलेट क्लासिकल की है वह दूसरे की नहीं. कम कीमत में यह अपने आवाज और अंदाज से सड़कों पर राज करती है. बुलेट की खासीयत उस की आवाज होती है. अब इस आवाज को कम करने के लिए साइलैंसर पर कई तरह के प्रयोग होने लगे हैं.

मर्दानगी दिखाने वाली चारपहिया गाड़ियों की तरह से बुलेट को ले कर भी खूब म्यूजिक अलबम बने हैं. इन में शिल्पी राज और विनय पांडेय का गाना ‘बुलेट पर जीजा…’ बहुत पसंद किया गया है. इस के अलावा ‘पंडित जी के बुलैट पै बईठ ए गोरी…’ और हरियाणवी गाना ‘बुलैट पर मारे गेढिंया…’ भी मशहूर हैं, जिन को कप्तान, फिजा चौधरी अषू टिविंकल ने गाया है. इस तरह से सड़कों पर कार और बाइक दोनों के जलवे हैं. इन के जरिए मर्दानगी का दिखावा होता है.

दबंगई और मर्दानगी दिखाने वाले ये लोग अधंविश्वास से दूर होते हैं. इन की सब से पहली पंसद काले रंग की गाड़ी होती है चाहे वह बाइक हो या कार. ये खुद तो इस तरह की गाड़ी से चलते ही हैं, इन के काफिले में भी एक ही रंग और मौडल की गाड़ियां चलती हैं. काले रंग को अशुभ माना जाता है. इस के बाद भी इन की पसंद काला रंग होता है. दूसरी बात इन की गाड़ी पर लाल रंग की चुनरी भी नहीं दिखती है. इन को अपनी काबिलीयत पर भरोसा अधिक होता है. इसी वजह से वे अंधविश्वास नहीं मानते हैं.

अधेड़ उम्र में शादी पर सवाल कैसा ?

बौलीवुड में कई ऐसे स्टार्स हैं जिन्होंने 40 की उम्र के बाद शादी की है. सैफ अली खान, नीना गुप्ता, प्रीति जिंटा, कबीर बेदी, उर्मिला मातोंडकर जैसे अनेक आर्टिस्ट हैं जिन की सुहागसेज अधेड़ावस्था में सजी. 18 वर्षीय ऐक्टर और मौडल मिलिंद सोमन ने अपने से आधी उम्र की गर्लफ्रैंड अंकिता कोंवर संग साल 2018 में शादी रचाई थी. हाल ही में 56 वर्षीय अरबाज खान ने अपनी गर्लफ्रैंड शूरा खान के साथ निकाह किया है.

साउथ फिल्मों के स्टार प्रकाश राज ने भी 56 वर्ष की उम्र में अपने से 12 साल छोटी पोनी वर्मा से शादी की है. फिल्म इंडस्ट्री के लोग उन की शादी में शामिल हुए और पार्टी एंजौय की. 1950 से 1980 के बीच तमिल सिनेमा के सब से रोमांटिक हीरो रहे जेमिनी गणेशन ने 3 शादियां की थीं. उन्होंने अपनी तीसरी शादी 78 साल में की थी. इस बार उन्होंने अपने से 36 साल छोटी लड़की से शादी की थी, जिस की चर्चा खूब हुई थी. जेमिनी गणेशन मशहूर अभिनेत्री रेखा के पिता थे.

चकाचौंध और ग्लैमर की दुनिया के बाहर भी कई ऐसी हस्तियां हैं जिन्होंने अधेड़ावस्था में शादी की और उन की शादी पर कोई सवाल नहीं उठा. सुप्रीम कोर्ट के जानेमाने वकील हरीश साल्वे ने हाल ही में तीसरी शादी की है. उन की उम्र 68 वर्ष है. हरीश साल्वे ने त्रायना से तीसरी शादी रचाने के बाद लंदन में शानदार दावत दी, जिस में जानीमानी हस्तियां शामिल हुईं. आम समाज में भी इस तरह की शादियां होती रहती हैं.

साल 2021 में रामपुर के शमी अहमद का निकाह भी काफी चर्चा में रहा था. उन्होंने 90 साल की उम्र में 75 साल की महिला से निकाह कर लिया था. हाल ही में पाकिस्तान से एक अनोखा मामला सामने आया है जहां 110 साल की उम्र में एक व्यक्ति ने चौथी शादी कर ली है.

पिछले साल फरवरी के महीने में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एक अनोखी शादी देखने को मिली. यहां 70 साल के व्यक्ति ने 75 साल की महिला के साथ शादी की थी. बता दें कि दोनों की मुलाकात वृद्धाश्रम में हुई थी. वहीं से दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे. जिस के बाद दोनों ने शादी करने का फैसला किया. इस शादी की चर्चा उस वृद्धाश्रम से ले कर पूरे राज्य तक में हुई थी. कई कारणों से कोई व्यक्ति यदि जवानी में शादी के बंधन में नहीं बांध पाता, तो क्या वह कभी शादी न करे? ऐसा तो कहीं नहीं लिखा है.

आयु का इच्छाओं से कोई संबंध नहीं है. अगर आप अपने बलबूते पर, खुद के भरोसे 60 की आयु में भी शरीर बनाना चाहते हैं, दुनिया की सैर करना चाहते हैं, किसी हसीना के साथ डेट पर जाना चाहते हैं या शादी करना चाहते हैं तो भाई इस पर सवाल कैसा? क्यों हम यह मानें कि एक आयु के बाद रेखा खींच देनी चाहिए, कि बस इस के बाद तुम्हारा जीवन नीरस और उबाऊ ही होगा? इस उम्र के बाद तुम्हें घर के कोने में बैठ कर माला ही जपनी है या भगवान भजन ही करना है?

नही हुजूर, जब तक जान है, अपनी पसंद से जीने का अधिकार हर व्यक्ति को है और खास कर अधेड़ावस्था के उन लोगों को, जिन्होंने अपने बच्चों और अपने मातापिता की सेवा में इतने वर्ष बिता दिए और अपने बारे में सोचा ही नहीं. बच्चों की इच्छाएं पूरी करतेकरते बाल सफेद हो गए. बच्चे जवान हो कर उन को अकेला छोड़ कर फुर्र हो गए तो क्या अब बाकी का जीवन एकाकी और अवसाद में बिता दें? यह तो बिलकुल उचित नहीं है.

विदेशों में लोग 80-90 साल की उम्र तक ऊर्जावान और स्वस्थ रहते हैं, क्योंकि उन्होंने भारतीय समाज के लोगों की तरह इच्छाओं को उम्र से नहीं बांधा. जवानी में लड़केलड़कियां डेट पर जाते हैं, साथ समय बिताते हैं, दिल करता है तो शादी कर लेते हैं, नहीं करता तो आराम से अलग हो जाते हैं. लड़कियां बिना शादी के मां बनना चाहती हैं तो उन से कोई सवाल नहीं पूछता कि क्यों? उन की इच्छा है मां बनने की, वे बन रही हैं. इस से समाज को क्या?

कई बार पूरी जवानी डेट में गुजर जाती है और लोग बुढ़ापे में शादी करते हैं. उस समय तक उन पर कोई जिम्मेदारी नहीं होती तो फ्री हो कर अपने जीवनसाथी के साथ शादीशुदा जिंदगी को एंजौय करते हैं, घूमतेफिरते हैं, दुनिया की सैर करते हैं, नया घर खरीदते हैं, साथ मिल कर घर सजाते हैं, दोस्तों को इनवाइट करते हैं और पार्टी करते हैं.

पश्चिमी देशों के बूढ़ों और भारत के बूढ़ों की तुलना करें. पश्चिमी देशों के बुजुर्ग चाहे स्त्री हों या पुरुष, कैसे खुशमिजाज नजर आते हैं, छोटेछोटे फैशनेबल कपड़े पहन कर मार्केट में घूमते हैं, पार्टियां करते हैं, बीच पर सनबाथ लेते हैं. समुद्र की लहरों के बीच अपने हमसफर के साथ अठखेलियां करते हैं. उन के चेहरे जोश और ऊर्जा से चमक रहे होते हैं. वे जिंदा हैं, तो जिंदा नजर भी आते हैं. अब अपने यहां के बुजुर्गों पर नजर डालिए. कैसे पूरा शरीर कपड़ों से ढके घर के एक कोने में उदास और खामोश बैठे दिखाई देते हैं. कभी झोला उठा कर पास की दुकान से सामान ले आए. मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे में समय काट लिया. पोतेपोतियों को स्कूल छोड़ आए, ले आए. बस, यही दोचार काम उन के पास रह जाते हैं.

अगर जीवनसाथी का साथ छूट गया है तो किसी और महिला या पुरुष की तरफ आंख उठा कर नहीं देख सकते, दोस्ती या शादी की बात तो भूल ही जाइए. कुछ ही लोग हैं जो बुढ़ापे में शादी की हिम्मत कर पाते हैं. वरना ‘लोग क्या कहेंगे’ इस डर में ही अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं. अवसाद के कारण बीमारियों का घर बन जाते हैं. हर चीज के लिए दवा फांकते हैं. अधिकांश तो मौत के इंतज़ार में समय काट रहे होते हैं.

धर्म ने भारतीयों का जीवन घोर निराशा और अंधकार से भर रखा है. चार आश्रमों की व्यवस्था ने तो इच्छाओं का दमन कर जीवन को नरक कर दिया है. जवानी ढलते ही धर्म हाथ में माला पकड़ा देता है कि लो, अब जिंदा दिखने की जरूरत नहीं है, माला फेरो और मौत का इंतजार करो.

पश्चिम में ऐसा नहीं है. वहां अधेड़ावस्था से जीवन जीना शुरू होता है. लोग अनुभव और ज्ञान की खोज में बाहर निकलते हैं, दोस्त और हमसफर बनाते हैं और उन के साथ शारीरिक व मानसिक संबंध बनाते हैं, शादी करते हैं, हनीमून पर जाते हैं, सैरसपाटा करते हैं और लाइफ को पूरे उत्साह से जीते हैं.

जिंदगी में अगर उत्साह और ऊर्जा चाहिए, स्वस्थ मनमस्तिष्क चाहिए, तो हमें पाश्चात्य समाज से बहुतकुछ सीखने और ग्रहण करने की आवश्यकता है. यदि कोई पुरुष जवानी में शादी नहीं कर पाया और अधेड़ावस्था या बुढ़ापे में उस को कोई ऐसी स्त्री मिल जाए जो उस की पसंद की हो तो दोस्ती करने या शादी का कदम उठाने से झिझकने की जरूरत नहीं है.

घर के सदस्यों से बात करें, सब राजी हों तो ठीक वरना कोर्ट मैरिज कर लें और अपनी जिंदगी अपनी इच्छानुसार बिताएं. दोस्त यार, रिश्तेदार साथ हों तो दूल्हा बनें, बरात निकालें, भांगड़ा करें, गानाबाजाना करें और सब को शादी की पार्टी दें. कोई साथ न हो तो पत्नी को थ्रीस्टार या फाइवस्टार में डिनर पर ले जाएं, कहीं कैंडल लाइट डिनर करें और दोनों अपनी शादी को एंजौय करें.

लोग क्या कहेंगे, धर्म क्या कहेगा, नरक में जाएंगे आदि जैसे खयालों से अब मुक्त होने का समय है. इंसान की 70-80 साल की उम्र होती है. जिस में से 25 साल तक वह अपने मांबाप की इच्छानुसार चलता है. पढ़ाईलिखाई करता है और कैरियर बनाने की चिंता में डूबा रहता है. किसी कारणवश शादी समय से न हो पाई या शादी हुई और जीवनसाथी बिछुड़ गया तो 40 साल के बाद ही वह सामाजिक बंधनों और मान्यताओं के चलते निराशा में बूढ़ा नजर आने लगता है. निराशा बीमारियों को दावत देती है और फिर बाकी का जीवन मरने के इंतजार में कटता है.

इस से बेहतर है कि अपनी जिंदगी को अपनी इच्छानुसार जिया जाए और जब कोई ऐसा व्यक्ति जीवन में टकराए जो हमसफर बनाने लायक हो तो उस मौके को गंवाने से बचें. मौका लपक लें और जी लें अपनी जिंदगी. क्योंकि जिंदगी फिर न मिलेगी दोबारा.

फरवरी का तीसरा सप्ताह, कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार

फरवरी के तीसरे सप्ताह यानी कि 16 फरवरी को वक्फ एक्ट की आड़ में जमीन हड़पने की कहानी बयां करती मुकुल विक्रम निर्देशित फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक’, शांतनु अनंत तांबे निर्देशित ‘दशमी’, रिजवान सिद्दीकी निर्देशित ‘इमामदस्ता’, जी अशोक निर्देशित फिल्म ‘कुछ खट्टा हो जाए’ सहित 4 फिल्में प्रदर्शित हुईं. इन में से एक भी फिल्म पूरे सप्ताह में एक करोड़ रुपए भी बौक्सऔफिस पर इकट्ठा नहीं कर पाई. पूरे सप्ताह बौक्सऔफिस पर मायूसी छाई रही. इस से बुरी दुर्गति भारतीय सिनेमा की और क्या हो सकती है.

शांतनु अनंत तांबे निर्देशित फिल्म ‘दशमी’ बामुश्किल पूरे सप्ताह में मात्र 60 हजार रुपए एकत्र कर सकी. फिल्म उन बलात्कारियों को मारने की कहानी बयां करती है जो बच्चियों का बलात्कार कर रहे हैं. मगर फिल्म का पोस्टर और फिल्म का नाम इसे दशहरा पर्व से जोड़ता महसूस होता है.

फिल्म ‘दशमी‘ पारंपरिक सिनेमा की सीमाओं को पार कर नैतिक आत्मनिरीक्षण और सामाजिक परिवर्तन की अनिवार्य आवश्यकता पर एक मार्मिक बयान के रूप में उभरती है. वास्तव में दक्षिणापंथियों के दबाव में फिल्मकार ने अपने धन की होली जला डाली. भरणी रंग, संजना विनोद तांबे और सारिका विनोद तांबे निर्मित इस फिल्म में अपने समय के मशहूर खलनायक अमरीश पुरी के पोते वर्धन पुरी, आदिल खान, मोनिका चौधरी, गौरव सरीन, राजेश जैस, दलजीत कौर, संजय पांडे, मनोज टाइगर और कई अन्य प्रतिभाशाली कलाकारों ने अहम किरदार निभाए हैं. यह फिल्म इस कदर असंवेदनशील है कि दर्शकों ने इस से दूरी बनाए रखा.

भोजपुरी फिल्मों की ही तरह पंजाबी फिल्मों में भी गायक के रूप में शोहरत मिलते ही फिल्मों में हीरो बनने का चलन है. पर पंजाबी गायक गुरु रंधावा ने एक कदम आगे बढ़ते हुए पंजाबी के बजाय हिंदी फिल्म ‘कुछ खट्टा हो जाए’ से बतौर अभिनेता कदम रखा.

फिल्म का संदेश यह है कि प्यार से बड़ा दोस्त होता है. इस फिल्म के निर्देशक जी अशोक है जो कि पहले ‘दुर्गामती’ जैसी फिल्म निर्देशित कर चुका है. वह यहां बुरी तरह से मात खा गया है. फिल्म की कहानी कई पुरानी फिल्मों की खिचड़ी के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म में गुरु रंधावा के अलावा अनुपम खेर व साई मांजरेकर हैं.
इस फिल्म में हर कलाकार अपने अभिनय से यह बताने में असफल रहा कि उसे अभिनय आता है. परिणामतया यह फिल्म सप्ताहभर में बौक्सऔफिस पर बामुश्किल एक करोड़ रुपए ही कमा सकी.

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16 फरवरी को ही प्रदर्शित निर्माता सोहनी कुमार और निर्माता मुकुल विक्रम ने अपनी फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक’ की सफलता के बड़ेबड़े दावे किए थे. मगर फिल्म के नाम से ही एहसास हो गया था कि यह फिल्म दक्षिणापंथियों को खुश करने के मकसद से बनाई गई है. ऊपर से फिल्म के ट्रेलरलौंच के अवसर पर हिंदू महासभा के पदाधिकारी के नेतृत्व में कुछ पीड़ितों को बुला कर मुसलिम समुदाय के खिलाफ नारेबाजी से फिल्म का बंटाधार कर डाला.

निर्देशक मुकुल विक्रम ने दावा किया कि उन की फिल्म उस कानून की बात करती है जिसे दबा कर रखा गया और उस कानून की वजह से एक खास समुदाय के लोगों ने देश के कई शहरों व गांवों से हिंदुओं को पलायन करने पर मजबूर किया और आज भी हिंदू परिवार पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं.

वैसे भी कहा जाता है कि जब इंसान के इरादे नेक न हों तो उसे अच्छे परिणाम नहीं मिलते. 20 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म बौक्सऔफिस पर महज 25 लाख रुपए ही एकत्र कर सकी. यानी, फिल्म निर्माण के दौरान चाय पीने पर खर्च की गई धनराशि भी नहीं वसूल कर पाई.

फिल्म की कहानी व पटकथा काफी लचर है. वक्फ एक्ट 1995 का जिक्र फिल्म में क्लाइमैक्स से चंद मिनट पहले बहुत हलके से होता है. मतलब, फिल्मकार इस कानून की जटिलता व इस के चलते आम इंसानों को जिन मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है, उस की कोई बात नहीं करता. पूरी फिल्म तो हिंदूमुसलिम के बीच की दरार के अलावा एक ताकतवर मुसलिम नेता द्वारा हिंदुओं की जमीन हड़पने वाली कहानी बन कर रह गई है.

परिणामतया फिल्म का जो असर लोगों तक पहुंचना चाहिए, वह नहीं पहुंचता. यह लेखक व निर्देशक की सब से बड़ी कमजोरी है. फिल्म देख कर एहसास होता है कि फिल्मकार जमीन हड़पने की कहानी बयां कर रहे थे पर अचानक दक्षिणापंथियों के दबाव में आ कर अंतिम चंद मिनटों में वक्फ एक्ट 1995 को जोड़ा जिस से फिल्म की कहानी पर भी असर पड़ा और वे फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पाए. पता नहीं फिल्मकार अपनी फिल्म को येनकेन प्रकारेण प्रोप्रगंडा या दक्षिणापंथी फिल्म का रूप दे कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने को क्यों उतारू हैं.

Delivery Boy: पीठ पर लदे, सपने हुए राख

‘यार, डिलीवरी बौय अभी तक पिज्जा ले कर नहीं आया. आधे घंटे से ऊपर हो गया है. आज तो पक्का हमारे पैसे बचेंगे. आज मुफ्त पिज्जा खाने का मौका मिला है,’ श्याम ने उत्साहित हो कर कहा.

‘अभी 2 मिनट ही ऊपर हुए हैं,’ रीना ने जवाब दिया, पर इस से पहले कि श्याम कुछ बोलता, दरवाजे की घंटी बजी और पिज्जा वाला और्डर ले कर हाजिर हो गया.

श्याम ने गुस्से में दरवाजा खोला और पिज्जा वाले पर चिल्ला कर बोला, ‘कितनी देर से और्डर दिया हुआ है. तू अब ले कर आया है. आधे घंटे का टाइम ओवर हो गया है. इस और्डर के कोई पैसे नहीं मिलेंगे.’

पिज्जा वाला गिड़गिड़ाया, ‘सर, बस 2 मिनट ऊपर हुए हैं. आप ने गली नंबर नहीं बताया था, इसलिए मकान ढूंढ़ने में 2 मिनट की देरी हुई. प्लीज पेमैंट कर दीजिए वरना मेरा नुकसान हो जाएगा.’

श्याम ने उस के हाथ से पैकेट छीना और धड़ से दरवाजा उस के मुंह पर बंद कर दिया. बेचारा पिज्जा वाला काफी देर तक उन के दरवाजे पर खड़ा रहा. कई बार घंटी बजाई. मगर श्याम और रीना ने दरवाजा नहीं खोला.

ऐसी घटनाएं डिलीवरी बौयज के साथ आएदिन घटती हैं. तय समय के अंदर फूड पैकेट डिलीवर करने के चक्कर में कई बार ये डिलीवरी बौयज इतनी तेज रफ्तार में बाइक चलाते हैं कि ऐक्सिडैंट हो जाते हैं, लोगों से ?ागड़ा हो जाता है या वे ट्रैफिक नियम तोड़ देते हैं. कई बार सामान और्डर करने वाले लोग अपना पता ठीक नहीं बताते तो डिलीवरी बौय को जगह ढूंढ़ने में वक्त लगता है, ऐसे में उन्हें गालियां खानी पड़ती हैं.

डिलीवरी बौयज के साथ लोग अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं. उन के साथ गालीगलौज तो बहुत आम हो गया है. अमीरों की ऐयाशियों को पूरा करता डिलीवरी बौयज का वर्ग समाज में पैदा हो गया है जिसे लोग बड़ी हिकारत की दृष्टि से देखते हैं. वे इन्हें मजदूर से ज्यादा अहमियत नहीं देते, जबकि कई डिलीवरी बौयज उच्च शिक्षा प्राप्त भी होते हैं.

बड़ीबड़ी इंटरनैशनल कंपनियों ने औनलाइन शौपिंग के जरिए एक ऐसे समाज का सृजन किया है जो अब खानेपीने की चीजों के लिए बाजार जाना पसंद नहीं करता है. वह तो आराम से घर बैठ कर टीवी देखता हुआ अपनी सुविधा और समय के अनुसार औनलाइन खाना और्डर करता है. अब कोई हलवाई के वहां जा कर समोसे नहीं खरीदता, बल्कि फोन पर और्डर दे कर मोमोज मंगाता है.

समाज के इस बदलते स्वरूप ने जहां छोटे दुकानदारों का धंधा चौपट कर दिया है वहीं सेवा देने वाले युवाओं की एक बहुत बड़ी तादाद सड़कों पर उतार दी है, जिन्हें डिलीवरी बौय कहा जाता है मगर इन का न कोई भविष्य है और न बहुत आमदनी.

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ सरकार भी मिली हुई है. दरअसल सरकार के पास देश के युवाओं के लिए नौकरियां नहीं हैं. देश के युवाओं को मोदी सरकार चाय बेचने, समोसे बेचने से ले कर डिलीवरी बौय बनने या अग्निवीर बन जाने के लिए मजबूर कर रही है. थोड़ेथोड़े समय के ऐसे कामों में युवाओं को फंसाया जा रहा है जिन में तत्काल तो आमदनी लगती है मगर कुछ वर्षों बाद जब ये काम करने के लायक वे नहीं रहेंगे तब एक अच्छा और स्थायी कैरियर बनाने का उन का समय भी खत्म हो जाता है.

सरकार ने सेना में स्थायी जवान रखने की जगह चारचार साल के लिए अग्निवीरों की भरती शुरू की है. इन युवाओं को इन 4 सालों में बंदूक चलाना, गोलाबारूद का इस्तेमाल करना आ जाता है. 4 वर्षों बाद जब सरकार इन की नौकरी खत्म कर के इन्हें फिर बेरोजगार कर देगी तब इन के सामने क्या भविष्य होगा? न तो ये सरकारी नौकरी के लायक होंगे और न ही कोई अच्छी प्राइवेट नौकरी में इन्हें लिया जाएगा. क्या सरकार ऐसे बेरोजगारों की फौज देश में बनाना चाहती है जो हथियार चलाने में माहिर है, नौकरी खत्म होने पर फ्रस्टे्रशन और गुस्से से भरे हैं और जिन को अपना पूरा भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है. सोचिए, ऐसे बेरोजगार युवा समाज के लिए कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं.

बिलकुल यही हालत डिलीवरी का काम करने वाले युवाओं की है. पढ़ने और अच्छा कैरियर प्राप्त करने के लिए कंपीटिशन की तैयारी करने के वक्त में वे कुछ पैसों के लिए आसानी से डिलीवरी बौय बनने को तैयार हो जाते हैं लेकिन कुछ साल यह काम करने के बाद उन को एहसास होता है कि अब वे किसी भी अच्छी नौकरी के लायक नहीं रह गए हैं.

आज हर दिन लाखों की संख्या में डिलीवरी बौय सड़कों पर उतर रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां बहुत आसान से इंटरव्यू के जरिए डिलीवरी बौय बनने और इनकम के साथ अच्छी प्रोत्साहन राशि का लालच दे कर बड़ी संख्या में युवाओं की भरती कर रही हैं. इन की सेवाओं के जरिए एमेजौन, स्विगी, जोमैटो, डोमिनोज जैसी हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनियां अमीर से अमीर होती जा रही हैं.

फास्टफूड का चस्का बच्चों और किशोरों को लगा कर एक ओर उन्हें मोटापा व अन्य गंभीर किस्म की बीमारियां बांटी जा रही हैं, वहीं डिलीवरी बौयज के रूप में युवाओं की एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे काम में अपनी जवानी ?ांक रही है जिसे एक तरफ तो हिकारत की नजर से समाज देखता है और दूसरी तरफ इस तरह की नौकरी कुछ सालों की ही होती है. इस में न तो कोई बहुत बड़ी आमदनी है, न प्रोविडैंट फंड या पैंशन की कोई व्यवस्था. भारत में इंटरनैट शौपिंग का धंधा जिस तेज गति से फलफूल रहा है उस के मुकाबले इस माध्यम से खरीदे जाने वाले सामान को आप के घर पहुंचाने वाले डिलीवरी बौयज के हिस्से में इस मुनाफे का एक प्रतिशत भी नहीं आता है.

लखनऊ के रहने वाले राजू पहले अपने पिता के कपड़ों की दुकान पर काम करते थे. इस से दुकान का खर्च और उन के परिवार का खर्च बहुत मुश्किल से निकल पाता था. राजू ने डिलीवरी बौय का काम करने की सोची. रुपए उधार ले कर उन्होंने एक बाइक खरीदी. उन्हें बाइक होने की शर्त पर ही फ्लिपकार्ट में सामान पहुंचाने का काम मिला.

राजू बताते हैं, ‘‘मैं फ्लिपकार्ट में अच्छा काम कर रहा था, लेकिन फिर मेरी बाइक चोरी हो गई. वहां काम करने के लिए आप के पास अपनी बाइक होनी जरूरी है. बाइक नहीं रही तो मु?ो नौकरी से निकाल दिया गया. अब मु?ो उधार के पैसे भी चुकाने हैं और मेरी कोई इनकम भी नहीं है. मु?ा पर तो दोहरी गाज गिरी है.’’

डिलीवरी बौय बनना किसी भी युवा का ड्रीम जौब नहीं होता. जो भी लोग इस जौब में हैं या आना चाहते हैं उन के सामने कुछ न कुछ मजबूरियां या बंधन हैं. जो युवक इस जौब से जुड़ रहे हैं, उन को हर कदम पर अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

समय पर डिलीवरी की चुनौती

हर ग्राहक, जो औनलाइन किसी सामान का और्डर कर रहा है, को अपना मंगाया हुआ सामान समय पर चाहिए. ऐसे में हर मौसम में डिलीवरी बौयज के सामने समय पर डिलीवरी देने की चुनौती बनी रहती है. धूप, प्रदूषण, बारिश, भीड़, ट्रैफिक जाम आदि सब से जू?ाते हुए उन का मकसद समय पर सामान डिलीवर करना होता है. इस चक्कर में लास्ट मिनट डिलीवरी पहुंचाने वाले तो कई बार बहुत तेज बाइक चला कर आते हैं. ऐसे में उन के ऐक्सिडैंट भी होते हैं, रैडलाइट क्रौस कर जाने पर चालान भी होता है और कई बार तो चौराहे आदि पर पुलिस उन को रोक कर गालीगलौज करती है या उन पर डंडे फटकारती है या जुर्माना लगाती है.

लोगों की बदतमीजी का शिकार

लोगों की या ग्राहक की बदतमीजी का सामना करना डिलीवरी बौयज के जीवन की बड़ी चुनौती है. अधिकतर लोग उन से तमीज से पेश नहीं आते. भीषण गरमी में भी समय से सामान डिलीवर करने पर उन को पानी तक के लिए नहीं पूछते, देर से आने पर तो बहुत उलटासीधा बोलते हैं, उन को वेट करवाते हैं, निर्धारित पते की जगह दूसरे पते पर सामान पहुंचाने का आदेश तक दे देते हैं. कंपनी या मूल स्रोत की गलती के लिए भी डिलीवरी बौयज को ही खरीखोटी सुननी पड़ती है.

सामाजिक भेदभाव

डिलीवरी बौयज के साथ समाज में कई तरह के भेदभाव किए जाते हैं, मसलन कई सोसाइटीज वाले उन को अलग लिफ्ट का उपयोग करने को बोलते हैं, जबकि वे औन ड्यूटी हैं. उन का भी समय का मूल्य है. और्डर करने वाले घरों में बैठे कई बेरोजगार लोग काम में लगे हुए डिलीवरी बौयज को बेकार सम?ाते हैं.

कई बार कुछ सोसाइटी गेट पर खड़े गार्ड डिलीवरी बौयज को बाइक के साथ सोसाइटी के भीतर नहीं जाने देते. उन को बाइक बाहर गेट पर लगा कर सामान देने पैदल ही अंदर जाना पड़ता है. कालोनी कितनी बड़ी है, इस का कोई आइडिया नहीं होने पर अकसर उन को पैदल चल कर सामान पहुंचाने में देर हो जाती है. इस पर या तो वे गाली खाते हैं या फिर ग्राहक पैसे नहीं देता है.

व्यक्तिगत जीवन उपेक्षित रहता है

आमतौर पर डिलीवरी बौयज की उम्र 18 से 30 साल के बीच की होती है. यह उम्र उन की शादी की भी होती है. लेकिन कोई भी लड़की डिलीवरी बौय से शादी की इच्छुक नहीं होती. किसी भी लड़की का ड्रीम बौय स्थायी व मजबूत जौब वाला ही होगा, न कि कोई डिलीवरी बौय. कोई भी मातापिता यह नहीं चाहते कि वे अपनी बेटी की शादी ऐसे किसी लड़के से करें जिस की नौकरी आज तो है लेकिन कल नहीं.

35-40 साल की उम्र के बाद सड़कों पर फर्राटे से बाइक भगाने का रिस्क कोई भी नहीं लेना चाहता है और यह वह उम्र होती है जब उन के बच्चे भी स्कूल-कालेज में आ जाते हैं, उन के अलग खर्चे होते हैं. ऐसे में डिलीवरी बौय का काम ज्यादा से ज्यादा 30 साल तक किया जा सकता है. मगर उस के बाद जौब के औप्शन न के बराबर रह जाते हैं.

18 से 25 साल की उम्र एक युवा पढ़ाई में लगा कर कोई स्थाई जौब, जिस में कुछ सुविधाएं और बचत हो, ढूंढ़ सकता है, सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश के चलते कुछ पैसे के लालच में वह समय डिलीवरी बौय के रूप में गवां देता है और आखिर में उस के हाथ में कुछ नहीं आता. परिवार की भी उस से कई अपेक्षाएं रहती हैं, जिन को पूरा करने की जिम्मेदारी उन पर होती है, लेकिन जौब की प्रकृति के कारण वे परिवार को समय कम दे पाते हैं.

जौब का स्थायी नहीं होना

डिलीवरी बौयज की जौब स्थायी नहीं है, कंपनी नुकसान में गई, बंद हो गई या छंटनी हो गई तो या तो जौब गई या प्रति डिलीवरी मिलने वाला कमीशन कम हो जाता है. इस काम में पैंशन या प्रोविडैंट फंड जैसी कोई व्यवस्था नहीं है. यहां तक कि वाहन और पैट्रोल का खर्च भी कंपनियां नहीं देती हैं. कोई मैडिकल बीमा भी नहीं होता है.

‘स्नैपडील’ में डिलीवरी का काम देखने वाले सीनियर एसोसिएट गौरव भारद्वाज कहते हैं, ‘‘जैसेजैसे ईकौमर्स का बाजार बड़ा हो रहा है, डिलीवरी बौयज की मांग उसी तेजी से बढ़ रही है. मगर डिलीवरी बौयज के काम के साथ एक परेशानी यह है कि ज्यादातर कंपनियां इन्हें हायर नहीं करती हैं. बल्कि वे इस काम के लिए किसी कूरियर या मैनपावर कंपनी से करार कर लेती हैं.

‘‘ऐसे में इन डिलीवरी बौयज के काम की शर्तों और नियमों के पालन में किसी कंपनी का सीधासीधा हाथ नहीं होता. स्नैपडील में हम एक कूरियर कंपनी के जरिए अपने पैकेज ग्राहकों को भिजवाते हैं. इस कूरियर कंपनी के राइडर्स को स्नैपडील का बैग या वरदी दे दी जाती है. इस से ज्यादा हम डिलीवरी बौयज से संपर्क नहीं रखते हैं.’’

शारीरिक चुनौती

भारीभरकम सामान के साथ चलने से थकान, लगातार दुपहिया वाहन चलाने से होने वाले शारीरिक नुकसान, लगातार धूप, प्रदूषण में रहने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर भी डिलीवरी बौयज के सामने एक चुनौती है. चोट लगने या ऐक्सिडैंट होने पर कंपनी की तरफ से कोई मदद नहीं मिलती.

पैसे छीन लेने की घटनाएं

डिलीवरी बौयज के साथ मारपीट या उन से पैसे छीन लेने की घटनाएं कई बार सामने आई हैं. यह इस काम से जुड़ा जोखिम है, जो वे उठाते हैं. कई बार ग्राहक ही पैसे नहीं देते, कई बार यातायात पुलिस के जवान लाइट क्रौस करने पर डंडा फटकार कर उन से पैसे छीन लेते हैं. ग्राहकों से ?ागड़े की घटनाएं तो आम होती जा रही हैं.

थिंकटैंक के रूप में काम कर रहे सैंटर फौर इंटरनैट एंड सोसाइटी ने पिछले साल 1,500 गिग श्रमिकों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 3 में से एक डिलीवरी बौय पैसे चोरी होने या उस पर हमला होने की आशंका से ग्रस्त है. सीआईएस में अनुसंधान प्रमुख आयुश राठी कहते हैं, ‘‘काम पर जाते समय 3 में से एक व्यक्ति को यह डर सताता है कि आज उसे लूट लिया जाएगा या शारीरिक हमले का सामना करना पड़ेगा.’’

हरियाणा के जींद जिले के रहने वाले सूरज पांचाल जोमैटो कंपनी में बतौर डिलीवरी बौय काम कर रहे हैं. 22 वर्षीय सूरज कहते हैं, ‘‘मैं यह काम मजबूरी में कर रहा हूं और कमा भी रहा हूं मगर यह काम जोखिमभरा है और एक अंधकारमय भविष्य प्रदान करता है. मैं अभी यंग हूं और इस प्रोफैशन में परफौर्म कर सकता हूं लेकिन इसे जिंदगीभर के प्रोफैशन के तौर पर नहीं अपना सकता. इस काम को करने पर पैसे तुरंत मेरे अकाउंट में क्रैडिट हो जाते हैं लेकिन इस काम में घुसने के बाद मु?ो पढ़ाई के लिए समय ही नहीं बचता है. इस काम को ज्यादा से ज्यादा 10 साल कर लूंगा. उस के बाद क्या काम करूंगा, मु?ो नहीं मालूम.’’

वहीं गुरुग्राम में स्विगी की डिलीवरी देने वाले रमन का कहना है कि कुछ ग्राहक रात के समय और्डरों के दौरान दुर्व्यवहार करते हैं लेकिन मैं परेशान नहीं होता क्योंकि वे नशे में होते हैं. हमें अपने प्रशिक्षण के दौरान सिखाया गया है कि ग्राहकों के साथ अनावश्यक बकबक न करें. हम सिर्फ सौरी कहते हैं और आगे बढ़ते हैं. मगर यह सब बड़ा अपमानजनक लगता है. कई बार तो मेरा हाथ ग्राहक पर उठतेउठते रुक जाता है.

रमन की शिकायत है कि बारिश होने पर हमें कोई आश्रय नहीं मिलता. और्डर के लिए रैस्तरां के बाहर ही हमें इंतजार करना पड़ता है. कभीकभार ग्राहक उचित दिशानिर्देश नहीं देता और फिर कई ग्राहक अपने पते की पुष्टि के लिए फोन भी नहीं उठाते हैं तो सामान डिलीवर करने में बड़ी कठिनाई आती है. कुछ कालोनी वाले डिलीवरी बौयज की बाइक को अंदर नहीं जाने देते तो कुछ लोग अपनी मुख्य लिफ्ट का उपयोग करने की अनुमति नहीं देते हैं. इस से हमें काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है.

रमन बताते हैं, ‘‘पिछले साल 22 मार्च को गुरुग्राम में गोल्फ कोर्स रोड पर एक तेज रफ्तार कार ने उन की बाइक को टक्कर मार दी थी, जिस में उन्हें काफी चोट आई थी, मगर कंपनी ने कोई पैसा इलाज के लिए नहीं दिया.’’

गौरतलब है दिसंबर 2022 में गुरुग्राम के कन्हाई गांव में भी एक एसयूवी की मोटरसाइकिल से टक्कर के बाद एक 34 वर्षीय डिलीवरी बौय की मौत हो गई थी.

गुड़गांव में, ऐसे मामले सामने आए हैं जहां डिलीवरी बौय को बीच रास्ते में रोका गया, बंदूक की नोक पर रखा गया, पीटा गया और लूट लिया गया. कुछ इलाके तो इतने सुनसान हैं कि आपातकालीन स्थिति में कोई मदद भी नजर नहीं आती और पुलिस को भी मदद की जरूरत वाले व्यक्ति तक पहुंचने में समय लगता है.

धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है

हाल ही में एक मुसलिम फूड डिलीवरी बौय का वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुआ. हैदराबाद के एक शख्स ने फूड डिलीवरी कंपनी स्विगी की ओर से मुसलिम डिलीवरी बौय न भेजने का आग्रह किया. उस ने अपने और्डर के साथ लिखा कि कृपया किसी मुसलिम के हाथ खाना न भेजें. इस पर काफी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आई थीं.

पिछले साल के अंत में, हैदराबाद में एक मुसलिम उबर ड्राइवर सैयद लतीफुद्दीन पर 6 लोगों ने हमला किया था, जिन्होंने उसे जयश्री राम बोलने के लिए मजबूर किया और उस की कार पर पथराव किया. तेलंगाना में गिग और प्लेटफौर्म श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था गिग एंड प्लेटफौर्म वर्कर्स यूनियन (टीजीपीडब्ल्यूयू) का कहना है कि हमला होने के बाद लतीफुद्दीन ने मदद के लिए उबर की आपातकालीन सेवाओं को कई बार फोन किया, लेकिन उस को उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. ये घटनाएं डिलीवरी बौयज के साथ होने वाली अनैतिक घटनाओं का उदाहरण हैं.

हम डिलीवरी बौयज को चमकदार टीशर्ट पहने, चौकोर बैग ले कर जाते हुए चौबीसों घंटे शहर के ट्रैफिक में घूमते हुए देखते हैं. अब तो इस काम में लड़कियां भी उतर चुकी हैं. कोरोना महामारी के दौरान जब लोगों का घर से बाहर निकलना बंद हो गया,  होटल और रैस्तरां बंद हो गए और किराने का सामान खरीदने के लिए भी बाहर जाना कोई विकल्प नहीं था तो ये डिलीवरी बौयज हर शहरवासी की मदद के लिए आगे आए. मगर अफसोस कि सरकारों ने उन पर बहुत कम ध्यान दिया.

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने युवाओं की इस क्षमता को तुरंत भुनाना शुरू कर दिया तो सरकार को भी मौका मिल गया कि देश में व्याप्त बेरोजगारी की भयावह स्थिति को इस तरीके से कम किया जाए. मगर युवावर्ग इस छलावे में फंस कर एक अंधकारमय भविष्य की ओर बढ़ रहा है. इस भीड़ में बहुत बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से अच्छे भविष्य का सपना आंखों में ले कर महानगरों का रुख करने वाले युवाओं की है.

रियलिटी शोज से बौलीवुड सैलिब्रिटीज कैसे कमाते हैं इजी मनी, जानें यहां

टीवी की दुनिया में रिऐलिटी शो समय बिताने का एक अच्छा औप्शन है. एक रिऐलिटी शो के ख़त्म होने के बाद दूसरा शो कुछ दिनों बाद ही शुरू हो जाता है. ये शो बहुत ग्लैमरस बनाए जाते हैं, जिन में सैलिब्रिटीज के महंगे कौस्टयूम से ले कर साजसज्जा सभी में ग्लैमर का तड़का लगाया जाता है, जिसे दर्शक काफी पसंद करते हैं. इन सबकुछ में बनावटी प्यार, नोंकजोंक, रोनाधोना आदि सब होता है, जिसे देखने में रियल तो लगता है पर हकीकत में ऐसा होता नहीं है. रिऐलिटी शो के नाम पर यहां सब नकली होता है, केवल दर्शकों की वोटिंग रियल होती है.

भुगतना पड़ता है खमियाजा

यहां ताली बजाने से ले कर शोरशराबा और हंसने तक सब बनावटी और क्रिएट किए जाते हैं. लेकिन एक रिऐलिटी शो की टीआरपी हमेशा अधिक होती है. फलस्वरूप, निर्माता इन शो को बनाने के लिए आगे आते हैं. हालांकि, कई बार शो की टीआरपी कम होने पर उसे बंद भी करना पड़ता है. इन सैलिब्रिटीज को कौन्ट्रैक्ट के आधार पर पूरे पैसे देने पड़ते हैं और इस का खमियाजा चैनल को भुगतना पड़ता है.

टीआरपी है जरूरी

इस का असर इस बार रिऐलिटी शो ‘बिग बौस 17’ पर पड़ा, जिस के एंकर अभिनेता सलमान खान रहे जो करोड़ों रुपए सालों से इस शो के जरिए कमाते हैं. इस बार शो को एक्सटैंशन नहीं मिला, क्योंकि मुश्किल से टीआरपी इस शो को मिल रही थी, इसलिए शो को बंद करना पड़ा.

इस बारे में ‘ऐज यू लाइक इट प्रोडक्शन्स’ के निर्मातानिर्देशक अनुज कपूर कहते हैं कि किसी भी रिऐलिटी शो में सैलिब्रिटी को लेने का अर्थ उस शो का अधिक पौपुलर दर्शकों के बीच होना होता है. ऐसे में चैनल्स को विज्ञापन अधिक मिलते हैं, क्योंकि दर्शक उन्हें देखते हैं. टीआरपी हाई होती हैं. विज्ञापनों से मिले पैसे से सैलिब्रिटीज की फीस का भुगतान किया जाता है.

इस में भी सैलिब्रिटीज के साथ कौन्ट्रैक्ट साइन होता है, जिस में उन्हें शो की पूरी फीस देने की बात होती है. कई बार शो अच्छा न चलने पर टीआरपी में कमी आ जाती है. विज्ञापनदाता अपना हाथ खींच लेते हैं लेकिन चैनल्स को सैलिब्रिटीज की फीस की पूरी रकम देनी पड़ती है, जिस से उन्हें लौस होता है.

इतना ही नहीं, कई बार इन सैलिब्स के काम को एक बार में शूट कर के भी रख लिया जाता है, जिसे बाद में धीरेधीरे चैनल्स औनएयर करते हैं. इस से सैलिब्रिटीज के समय की भी बचत होती है. उन्हें यहां कम समय और कम काम में काफी पैसा मिल जाता है.

इजी मनी

देखा जाए तो रिऐलिटी शो में जज बन कर या एंकरिंग कर पैसे कमाना सैलिब्स के लिए इजी मनी होती है. कुछ घंटे काम किया, करोड़ों कमा लिए, झंझट भी अधिक नहीं. यही वजह है कि कई ऐक्ट्रैस ने अपने बच्चों के साथ रिऐलिटी शोज करना पसंद कर दिया है. निर्मातानिर्देशक करण जौहर ने एक इंटरव्यू में कहा है कि उन्हें रिऐलिटी शो में काम करना इसलिए पसंद है क्योंकि इस में अधिक मेहनत नहीं है और पैसे भी आसानी से मिल जाते हैं जबकि फिल्म का निर्माण करना काफी मेहनत, समय और जोखिमभरा होता है.

कई हैं रिऐलिटी शोज

रिऐलिटी शोज कई तरह के होते हैं,

गेम शो – कौन बनेगा करोड़पति, दस का दम

सैलिब्रिटी रिऐलिटी शो – नच बलिए, झलक दिखला जा

टैलेंट रिऐलिटी शो – इंडियन आइडल, डांस इंडिया डांस

एडवैंचर रिऐलिटी शो – खतरों के खिलाड़ी, फियर फैक्टर

कैप्टिव रिऐलिटी शो – बिग बौस

डेटिंग रिऐलिटी शो – टू हौट टू हैंडल, स्पिलिट्सविला

कुकिंग बेस्ड रिऐलिटी शो – मास्टर शेफ आदि.

रियलिटी शो का इतिहास

भारत में रिऐलिटी शो की दुनिया साल 2000 के बाद तब तेजी से बदली जब अमिताभ बच्चन ने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ शो से छोटे परदे पर एंट्री ली. एक विदेशी शो के शुद्ध हिंदी पारिवारिक वर्जन ने टीवी के रास्ते जल्द लोगों के दिल में जगह बना ली. ‘कौन बनेगा करोड़पति’ शो की बढ़ती लोकप्रियता और ईनाम में मिलती रकम से आई खुशियों ने दर्शकों का दिल जीत लिया.

शो में जा कर या देख कर लोग किसी न किसी तरह केबीसी से जुड़े रहते हैं. फिर वर्ष 2004 में ‘अमेरिकन आइडल’ की तर्ज पर ‘इंडियन आइडल’ की शुरुआत हुई. देश के अलगअलग हिस्सों से काबिल सिंगर चुने जाने लगे. ऐसे ही रिऐलिटी शो की भरमार धीरेधीरे चैनल्स पर होने लगी और बौलीवुड स्टार्स भी इन शो में जज बन कर, इसे कमाई का अच्छा जरिया मानने लगे.

भले ही वे एक फिल्म से ही करोड़ों रुपए की कमाई करते हैं लेकिन फिल्म को करने में उन की सालों की मेहनत होती है, जबकि रिऐलिटी शोज में थोड़ी हंसी, रोनाधोना, अपना थोड़ा परफौरमेंस आदि कर वे आसानी से करोड़ों कमा लेते हैं. कुलमिला कर उन्हें दोनों तरफ से मोटी कमाई करने का मौका बराबर मिल रहा है. आइए जानते हैं उन सैलिब्रिटीज के बारे में जो रिऐलिटी शोज में दोनों हाथों से भरभर कर रुपए कमा रहे हैं.

अमिताभ बच्चन

बौलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन का तो कोई सानी ही नहीं है, क्योंकि उन का एक ही रिऐलिटी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ देश में ही नहीं, विदेशों में भी प्रसिद्ध है. अमिताभ बच्चन इस शो की शुरुआत 25 लाख रुपए प्रति एपिसोड से किया था, आज उन की फीस आसमान छू रही है. अभी उन की फीस प्रति एपिसोड लगभग 6 करोड़ रुपए है. अमिताभ बच्चन ने इस शो को कर खुद को कर्ज के बोझ से मुक्त किया है. उन की माली हालत तब इतनी खराब हो गई थी कि उन्हें अपना बंगला तक गिरवी रखना पड़ा था.

अक्षय कुमार

जजों की लिस्ट में बौलीवुड के खिलाड़ी कुमार यानी अक्षय कुमार का भी नाम आता है. वैसे तो अक्षय को छोटे परदे पर कई रिऐलिटी शोज में देखा गया है, लेकिन बात ‘लाफ्टर चैलेंज’ की जिस में उन्हें प्रति एपिसोड के लिए 1.65 करोड़ रुपए फीस दी जाती थी.

शिल्पा शेट्टी

इस कड़ी में ऐक्ट्रैस शिल्पा शेट्टी का भी नाम आता है. उन्होंने दुनियाभर में अपनी फिटनैस के लिए एक अलग पहचान बनाई है. 90 की दशक की इस ऐक्ट्रैस का फिल्मी सफर तो हिट रहा ही, साथ ही फिल्मों से दूर होने के बाद रिऐलिटी शोज में जज बन कर करोड़ों रुपए की कमाई कर रही हैं. शिल्पा ने डांस रिऐलिटी शो की शुरुआत में जज बनने के लिए 14 करोड़ रुपए की मोटी फीस ली थी.

माधुरी दीक्षित

बौलीवुड की ‘धकधक गर्ल’ और अपनी खूबसूरती से सब को दिवाना बना देने वाली ऐक्ट्रैस माधुरी दीक्षित का फिल्मी कैरियर काफी अच्छा रहा. उन्होंने एक से एक हिट फिल्म दे कर बौलीवुड पर राज किया. डांस में नंबर वन माधुरी ने फिल्मों से पूरी तरह से किनारा तो नहीं किया, लेकिन डांस रिऐलिटी शो में वे एक एपिसोड के 1 से 2 करोड़ रुपए चार्ज करती थीं पर आज उन की फीस बढ़ चुकी है. माधुरी आज किसी फिल्म के 4 से 5 करोड़ रुपए चार्ज करती हैं, जबकि रिऐयलिटी शो का एक सीजन जज करने के 24 से 25 करोड़ रुपए वे लेती हैं.

करण जौहर

लव स्टोरी की फिल्में डायरैक्ट करने में प्रसिद्ध फिल्ममेकर करण जौहर बौलीवुड में डायरैक्टर की लिस्ट में सब से टौप पर होने और अपनी फिल्मों से करोड़ों की कमाई करने के बावजूद रिऐलिटी शोज में दिखाई पड़ते हैं. करण जौहर के पास न तो काम करने की कमी है और न ही काम करवाने की. वे कई रिऐलिटी शोज में बतौर जज नजर आते हैं. एक डांस रिऐलिटी शो में उन्होंने प्रति सीजन 10 करोड़ रुपए चार्ज किया है.

शाहरुख खान

बौलीवुड के ‘बादशाह’ अभिनेता शाहरुख खान, छोटे परदे पर भी अपना जलवा कायम करते हैं. उन्हें कई रिऐलिटी शोज में देखा गया है. यहां तक कि उन्होंने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के सीजन की जिम्मेदारी भी संभाली है. उन के लैटेस्ट रिऐलिटी शो ‘टेड टौक’ की जिस के प्रति एपिसोड के लिए शाहरुख ने 3 करोड़ रुपए लिए हैं. किंग खान इस शो के सिर्फ 10 एपिसोड की ही डील की थी.

सलमान खान

बौलीवुड के ‘दबंग खान’ यानी कि सलमान खान भी रिऐलिटी शो की एंकरिंग कर काफी कमा लेते हैं. फिल्म भले ही न चले, वे रिऐलिटी शोज में चल जाते हैं. सलमान ने बड़े और छोटे परदे पर अपना सिक्का चला रखा है. सलमान रिऐलिटी शो ‘बिग बौस’ के बौस हैं. बिग बौस का हर सीजन 4 महीने के लिए चलता है. अगर सलमान खान की हर हफ्ते की फीस का हिसाब लगाएं तो उन की कुल फीस 200 करोड़ रुपए होती है, जो इतने कम समय में किसी फिल्म से कमाना उन के लिए असंभव होगा.

रोहित शेट्टी

निर्मातानिर्देशक रोहित शेट्टी की फिल्में कुछ हजार करोड़ों में व्यवसाय करती हैं लेकिन उन्हें रिऐलिटी शोज में जज का काम करना भी पसंद है. ‘खतरों के खिलाड़ी’ रिऐलिटी टीवी शो को फेमस डायरैक्टर रोहित शेट्टी ही होस्ट करते हैं. इस के एक एपिसोड के लिए वे 50 लाख रुपए चार्ज करते हैं.
यहां यह समझना जरूरी हो गया है कि अगर ये सैलिब्रिटीज रिऐलिटी शोज को अधिक महत्त्व देने लगेंगे, तो वे अपना सामाजिक दायित्व पूरा करने में असमर्थ होंगे, उन की क्रिएटिविटी कम हो सकती है. ऐसे में अच्छी फिल्मों का निर्माण कम हो सकता है और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री खतरे में पड़ सकती है.

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