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पासा पलट गया: मेघा अपने पति से क्यों तंग आ गई थी

सुबह के 9 बजे थे. दरवाजे की घंटी बजी  और लगातार बजती रही. दरवाजा खोलने के लिए मेघा बाथरूम से दौड़ी. घंटी बजाने वाले की अधीरता से ही वह समझ गई थी कि महेश के सिवा कोई और नहीं हो सकता. अभी तो औफिस के लिए निकले थे फिर वापस आए हैं. कुछ भूल गए होंगे. मेघा ने सपाट चेहरा लिए दरवाजा खोला.

‘‘कहां मर गई थी? इतनी देर लगा दी,’’ महेश गुस्से में चिल्लाए. साइड में होते हुए मेघा ने कठोर स्वर में कहा, ‘‘सुबह का वक्त है, मुझे नहाना धोना नहीं होता है क्या?’’

‘‘जबान लड़ा रही है सुबहसुबह?’’

मेघा ने एक बार फिर संयत रहने की कोशिश करते हुए पूछा, ‘‘आज क्या भूल गए?’’

‘‘मोबाइल फोन. तू यह भी याद नहीं दिला सकती मेरे जाते समय?’’

‘‘30 साल से याद दिला रही हूं, एक दिन तो खुद याद रखो.’’

‘‘तेरी ड्यूटी है मेरी हर चीज का ध्यान रखने की.’’

‘‘अपनी कोई ड्यूटी पूरी की है कभी?’’

‘‘सुबहसुबह बकवास कर रही है, तंग आ गया हूं मैं.’’

‘‘मैं भी.’’

‘‘तो चली जा मायके.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं? आप भी तंग हैं न, आप क्यों नहीं चले जाते? जहां चाहो चले जाओ, यह मेरा घर है और अब सच तो यह है कि मुझे आप की जरूरत ही नहीं है. मेरे बच्चे बड़े हो गए हैं. मैं अब उन के सहारे जी सकती हूं. आप को अपने काम करवाने के लिए मेरी जरूरत है, मुझे आप की नहीं. मैं अपने बच्चों के साथ बहुत खुश हूं.’’

मेघा की बात सुन कर महेश का मुंह खुला का खुला रह गया, कुछ बोल नहीं सके. मेघा कठोर शब्दों के बाण चलाती हुई सीधी तन कर खड़ी थी. महेश चुपचाप अपना मोबाइल फोन उठा कर चले गए. मेघा ठंडी सांस भरते हुए चौथी मंजिल पर स्थित अपने फ्लैट की बालकनी में खड़ी नीचे जाते हुए महेश को देखती रही. महेश कार स्टार्ट कर के औफिस चले गए. वह वहीं रखी कुरसी पर अनमनी सी बैठ गई और महेश को कही अपनी कठोर बातों पर गौर करने लगी. उसे अपनी बातों की कटुता पर जरा भी दुख नहीं हुआ.

30 साल उस ने महेश जैसे पति को कैसे झेला है, यह वही जानती है. महेश हद से ज्यादा आत्मकेंद्रित, गुस्सैल, भुलक्कड़, किसी के सुखदुख से कभी कोई मतलब नहीं रखने वाले इंसान हैं. मेघा को याद नहीं आता कि इन 30 सालों में महेश ने किसी दिन एक पल भी उस का ध्यान रखा हो. बस, अपना आराम, अपनी जरूरतें, अपना काम. वह अकेली ही तो जी रही है इतने सालों से. 2 दिन बाद वह 50 की हो जाएगी, कितना लंबा समय उस ने घुटघुट कर बिताया है.

नीरस सी उस की दिनचर्या में न कभी कोई उमंग रही, न उत्सुकता, न आकर्षण, न कोई आमोदप्रमोद. सुबह उठना, गृहस्थी संभालना, बच्चों को पालना, गाहेबगाहे पति की जरूरत पूरी कर निढाल हो कर सो जाना, यही दिनचर्या रही उस की.कई बार मन ही मन उसे अपने मातापिता पर भी गुस्सा आता जिन्होंने उस का विवाह करते समय एक बार भी महेश के परिवार व महेश के स्वभाव के बारे में पूछताछ किए बिना अपने सिर से जैसे बोझ उतारा था. 8 भाईबहन थे महेश. सब के सब स्वार्थी और गुस्सैल. ससुर तो बहुओं को घर की नौकरानी समझते थे. जरा सा गुस्सा आने पर वे लगीलगाई थाली उठा कर फेंक देते थे. वे उठतेबैठते गालियों की बौछार करते थे और किसी पर भी हाथ उठा देते थे. सास भली थीं. लेकिन उन की कोई सुनता नहीं था.

पिता की देखादेखी महेश ने शादी के कुछ ही महीनों बाद मेघा पर हाथ उठाने की जब कोशिश की थी तो मेघा ने कहा था, ‘बस, यह गलती मत करना, जिस दिन हाथ उठाया उसी दिन इस घर से चली जाऊंगी.’ मेघा के शब्दों में कुछ ऐसा था कि महेश ने फिर कभी हाथ उठाने की तो कोशिश नहीं की पर शब्दों के ऐसेऐसे तीर छोड़ते रहे कि मन के कोनेकोने में उभरे घाव आज तक रिसते हैं. मेघा कभी नहीं भूलती कि जब आकाश और अवनि का जन्म हुआ, महेश उस दिन भी यह कह कर रोज की तरह औफिस चले गए थे, ‘मेरा यहां क्या काम, मां तो हैं ही, मैं औफिस जा रहा हूं.’ प्रसवपीड़ा से अधिक दर्द दिया था महेश की इस रुखाई ने. उस दिन वह समझ गई थी कि यह आदमी कभी पत्नी का दुखदर्द नहीं समझेगा. आकाश अवनि से 5 साल बड़ा है. दोनों बच्चों को उस ने अपने दम पर पालापोसा है. तब तो संयुक्त परिवार था तब भी बच्चों की परवरिश में किसी ने उस का हाथ नहीं बंटाया था. मेघा कई बार सोचती, यह कैसा परिवार है. सब अपने लिए जीते हैं. इतने सदस्यों के होते हुए भी एक खालीपन रहता, वह खालीपन मेघा को कभी अच्छा नहीं लगा. वह सोचती, ‘खालीखाली बिना संवेदना के, बिना दूसरों की परवा किए जीना भी कैसा जीना है. हम इंसान हैं पशु तो नहीं.’

सासससुर के देहांत के बाद, धीरेधीरे समय के साथ सब अपनेअपने परिवार के साथ अलग और व्यस्त होते गए और भावनात्मक रूप से भी एकदूसरे से दूर होते गए.

महेश का भी दिल्ली से यहां मुंबई ट्रांसफर हो गया था. नया शहर, नए लोग. तब आकाश 10 साल का था. स्कूल में ऐडमिशन से ले कर इस घर की छोटीबड़ी व्यवस्था मेघा ने खुद की थी. महेश तो अगले दिन ही औफिस चले गए थे. वह जानती थी कि महेश घर में भी रहेंगे तो उस का जीना मुश्किल ही करेंगे. वह हर बात में गालियां सुनती रहेगी. नौकरों की तरह भागभाग कर उन के काम करती रहेगी. महेश की बातें किसी ताने से कम नहीं रहीं कभी, हमेशा व्यंग्यात्मक लहजा रहा उन का. उस ने कई बार सोचा, कहीं चली जाऊं या फिर अलग हो जाऊं पर हर बार कभी संस्कारों ने तो कभी बच्चों के भविष्य की चिंता ने रोक लिया. परेशानियों और दुखों से घबरा कर कहीं भाग जाना भी तो समस्या का हल नहीं लगा उसे. शरीर घरबाहर के सारे कर्तव्य निभाता चला गया. हर दिन के अंत में यही लगता रहा कि चलो, एक दिन और कट गया.

जैसेजैसे अवनि और आकाश बड़े हो रहे थे, वे मां का दर्द समझ रहे थे. मेघा के लिए दोनों के दिलों में प्यार और सम्मान बढ़ता ही गया. आकाश तो एक बार पिता से उलझ गया था, ‘आप मम्मी से ऐसे बात नहीं कर सकते, पापा.’

बेटे के स्वर पर महेश चौंके थे, ‘तू मुझे सिखाएगा?’

‘सिखाना ही पड़ेगा किसी न किसी को तो, पापा,’ आकाश निडर हो कर बोला.

मेघा ने टोका था, ‘आकाश, ऐसे बात नहीं करते.’

‘करनी पड़ेगी, मम्मी.’

महेश गुस्सा हो गए, ‘तेरी इतनी हिम्मत?’ उन्होंने आकाश को मारने के लिए हाथ उठाया तो वहीं बैठी अवनि डट कर खड़ी हो गई, चिल्लाई, ‘स्टौप इट, पापा, यह नहीं चलेगा.’

आकाश ने कहा, ‘पापा, हमें मजबूर मत करना अपने साथ कोई गलत बात करने के लिए. हम मम्मी नहीं हैं कि आप का हर बुरा व्यवहार चुपचाप सहन करते जाएंगे.’

महेश गुस्से में इधरउधर रखा सामान फेंकते बाहर निकल गए थे. एकदम सन्नाटा छा गया था घर में. मेघा ने कहा, ‘तुम दोनों को पापा के साथ ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी. जैसे भी हैं पिता हैं तुम्हारे.’

आकाश ने कहा था, ‘नहीं, मम्मी, बस घर के खर्चों के लिए आप के हाथ पर पैसे रख कर उन की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है क्या? बचपन से ही उन को हर बात पर गुर्राते ही देखा है. याद नहीं आता कभी हमारे सिर पर उन्होंने प्यार से हाथ रखा हो. अपने दोस्तों के पिता को देखा है हम ने, कसक सी उठती रही है हमेशा. आप उन की तरफदारी न करें, आप ने बहुत दुख उठाए हैं. अब आप सम्मान से जिएंगी, किसी से दबने की जरूरत नहीं है आप को. अपने आत्मसम्मान के साथ डट कर रहिए. वी लव यू, मां,’ कहते हुए दोनों बच्चे उस से चिपट गए थे.

झरझर आंसू बह चले थे मेघा के गालों पर. वह सोचने लगी, ‘मेरे बच्चे कब इतने बड़े हो गए, अपनी मां के दुख को इतना समझ गए.’ उसे लगा था जैसे जलते घाव पर किसी ने ठंडी रुई का फाहा रख दिया हो. अब आकाश इंजीनियर बन कर एक बड़ी कंपनी में कार्यरत था, उस ने अपनी सहकर्मी नीलिमा से विवाह करने की इच्छा प्रकट की तो मेघा ने सहर्ष हामी भर दी. महेश ने देखा, मना करने का कोई फायदा नहीं है, अब उन की कोई नहीं सुनेगा तो उन्होंने भी हां में सिर हिला दिया. अब तक महेश काफी हद तक यह समझ चुके थे कि गए वे दिन जब घर में उन का एकछत्र राज था.

दोनों बच्चे हर बात में, हर काम में मां की ही सलाह लेते थे. महेश, बस, चुपचाप देखते रहते. वे अपने को उपेक्षित महसूस करते. आकाश ने कह दिया था, ‘पापा, अब तक आप को मम्मी से जैसे बात करनी थी, कर चुके. कुछ ही दिनों में नीलिमा आ जाएगी तो उस के सामने ऊंची आवाज और गालियां देना आप भूल जाएंगे तो अच्छा रहेगा. वह बहुत ही संस्कारी परिवार की लड़की है. आप के जैसा बात करने वाला उस के पूरे खानदान में नहीं होगा. और अगर आप को शांति से रहना बहुत मुश्किल लगता हो तो मैं कोई और रास्ता निकाल सकता हूं.’

आकाश के स्वर की गंभीरता महेश को जैसे आसमान से जमीन पर पटक गई थी. उन्होंने सोचा, क्या रास्ता निकालेगा आकाश, क्या मेघा, अवनि और पत्नी को ले कर कहीं चला जाएगा, अलग घर लेगा, वे क्या अकेले रह जाएंगे? ये सब सोच कर उन के रोंगटे खड़े हो गए.

मेघा बच्चों का साथ पा कर जी उठी. उस ने भी सोचा, मैं क्यों घुटघुट कर मरूं अब. इतने लायक बच्चे हैं, जी ही लूंगी इन्हीं के सहारे. इस उम्र में भी चैन से नहीं जी पाई तो एक दिन ऐसे ही मर जाऊंगी. अब बच्चों ने उस के सोए स्वाभिमान को जगा दिया है. पति के झूठे अहं की तुष्टि के लिए वह अपना सबकुछ बलिदान करती आई है. क्यों वह ही कर्तव्य की वेदी पर अपनी आकांक्षाओं, भावनाओं की बलि देती चली आई. यह जीवन उस का अपना है, आखिर क्यों वह शादी के हवनकुंड में स्वाहुति देती चली गई? इस पीड़ादायक यात्रा का कहीं तो अंत होना ही चाहिए. महेश के दुर्व्यवहार का जवाब तो देना ही पड़ेगा, बस.

उस ने खुद को बदल लिया था और महसूस भी कर चुकी थी. महेश अब थोड़ा शांत रहने लगे थे. वह जब कहती है मुझे आप की नहीं, आप को मेरी जरूरत है, आप का सब काम मैं ही करती हूं, मेरे बिना आप का कोई नहीं है तो वे चुप हो जाते हैं. आज सुबह की घटना बिना गालीगलौज और तोड़फोड़ के घट गई थी. सालों पुरानी आदत है महेश की, इतनी जल्दी नहीं बदलेगी. महेश कोशिश तो कर रहे हैं, यह वह जानती थी. महेश भी अच्छी तरह समझ चुके हैं कि पासा पलट चुका है.

मैदान : फुटबौल में स्वर्णिम काल दिलाने वाले कोच सैययद अब्दूल रहीम की कहानी

रेटिंग: 2 स्टार

निर्माता : बोनी कपूर, अरुनव जौय सेनगुप्ता और आकाश चावला
लेखक : सायविन क्वाड्रस, अमन राय, आकाश चावला, अरुनव जौय सेनगुप्ता, अतुल शाही और रितेश शाह
निर्देशक : अमित रवींद्रनाथ शर्मा
कलाकार : अजय देवगन, प्रियामणि, गजराज राव और रुद्रनील घोष व अन्य
अवधि : 3 घंटे 2 मिनट

हमारे देश में इन दिनों क्रिकेट खेल की चर्चा होती रहती है. लोगों को तो यह भी नहीं पता है कि भारत में कभी फुटबौल के खेल का स्वर्णिम काल हुआ करता था. उसे ब्यूरोक्रेट्स की लाल फीताशाही, उन के स्वार्थ व क्षेत्रीयवाद के जहर ने चौपट कर दिया.

1962 में भारतीय फुटबौल टीम ने एशियन गेम्स में स्वर्ण पदक जीता था. तब से 62 साल गुजर गए पर भारतीय फुटबौल टीम कुछ भी अर्जित नहीं कर पाई. यों तो फुटबौल खेल के प्रति जागरूकता लाने के मकसद से ‘हिप हिप हुर्रे’, ‘गोल दे दनादन’, ‘झुंड’ जैसी कुछ फिल्में अतीत में बनी हैं मगर अफसोस कि किसी भी फिल्मकार ने इतिहास के दबेकुचले अध्याय को उधेड़ कर देश की जनता के सामने रखा हो.

फिल्मकार रवींद्रनाथ शर्मा के साहस को सलाम कि उन्होंने भारतीय फुटबौल टीम के कोच व हैदराबाद निवासी सैय्यद अब्दुल रहीम के जीवन व कृतित्व को फिल्म ‘मैदान’ से परदे पर उकेरा है, जिन्हें न इतिहास में जगह मिली है और न ही पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाता है.

हमें 1962 में घटित घटनाओं की विस्तृत जानकारी नहीं है, मगर वर्तमान समय के राजनीतिक माहौल के अनुसार फिल्म में पश्चिम बंगाल बनाम हैदराबाद का जामा पहना कर पश्चिम बंगाल को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास भी किया गया है. यह फिल्म करीबन 5 साल बाद सिनेमाघरों में 11 अप्रैल को रिलीज होगी.

कहानी

फिल्म की कहानी के केंद्र में फुटबौल खेल के कोच सैय्यद अब्दुल रहीम उर्फ रहीम साहब (अजय देवगन) व उन का परिवार है. सैय्यद के परिवार में उन की मां, पत्नी रूना रहीम (प्रिया मणि ), बेटा एस एस हकीम (रिषभ जोषी) व बेटी है.

सैय्यद अब्दुल रहीम फेफड़े के कैंसर से जूझते हुए बिना किसी को अपनी जिंदगी के इस सच को बताए भारतीय फुटबौल टीम को 1962 में एशियन गेम्स में स्वर्ण पदक दिलवाने में सफल हुए थे. उस के बाद 62 साल गुजर गए पर भारतीय फुटबौल टीम को कोई सम्मान नहीं मिला.

फिल्म की शुरुआत 1951 में यूगोस्लाविया से भारतीय टीम के हारने से होती है. इस हार के लिए फुटबौल फैडरेशन टीम के कोच सैय्यद अब्दुल रहीम को कठघरे में खड़ा करता है. मगर सैय्यद अब्दुल रहीम कहते हैं कि टीम की हार की जिम्मेदारी तब उन की बनती है जब टीम के चयन की जिम्मेदारी भी उन की हो.

फुटबौल फैडरेशन के अध्यक्ष जयंत की दखलंदाजी के चलते बाकी सदस्य चुप रह जाते हैं, जबकि फुटबौल संघ के सदस्य रुद्रनील, रहीम को पसंद नहीं करते. रहीम हैदराबाद जा कर वहां से खिलाड़ियों का चयन कर उन्हें कलकत्ता ला कर ट्रेनिंग देते हैं. जब यह टीम ओलिंपिक खेलने जा रही होती है तो स्पोर्ट्स पत्रकार प्रभु घोष (गजराज राव) बंगाल बनाम हैदराबाद की बात करते हैं, जिस का रहीम साहब कड़ा जवाब देते हैं. इस से अब प्रभु घोष, रहीम को बरबाद करने की ठान लेते हैं.

ओलिंपिक में टीम कई मैच जीतती है, पर अंतिम मैच हार जाती है, जिस के लिए पत्रकार प्रभु घोष के इशारे पर रुद्रनील खेमेबाजी कर अध्यक्ष जयंत की इच्छा के खिलाफ जा कर रहीम को कोच के पद से हटा देते हैं. बाद में रुद्रनील ही फुटबौल फैडरेशन के अध्यक्ष बन जाते हैं.

इधर रहीम को पता चलता है कि उन्हें फेफड़े का कैंसर है. पूरे 2 साल तक भारतीय टीम सारे मैच हारती रहती है. रहीम घर पर पड़े रहते हैं. उन के दर्द को समझ कर रहीम की पत्नी रूना उन से कहती है कि आप अपने सपने को पूरा करें, तभी चैन की मौत नसीब होगी. तब रहीम फिर फुटबौल फैडरेशन के औफिस में जा कर एशियन गेम्स के लिए भारतीय टीम का कोच बनने की बात करते हैं.

जयंत के प्रयास से उन्हें यह पद मिलता है और रहीम द्वारा प्रशिक्षित टीम 1962 में एशियन गेम्स में कोरिया को हरा कर स्वर्ण पदक हासिल करती है. इस के 9 माह बाद रहीम की मौत हो जाती है.

समीक्षा

4 कहानी लेखक, 6 पटकथा लेखक होने के बावजूद फिल्म की पटकथा कई जगह कमजोर है. पूरी पटकथा सिर्फ रहीम तक ही सीमित है. एकदो खिलाड़ियों के जीवन पर दोचार मिनट का फोकस है, अन्यथा नहीं.

कुछ दृष्य तो पुरानी फिल्म से चुराए गए नजर आते हैं. इंटरवल तक फिल्म सपाट गति से चलती है, पर इंटरवल के बाद नाटकीयता बढ़ती है. हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उस वक्त एक खेल पत्रकार की इतनी हैसियत होती थी कि उस से सलाह ले कर केंद्र सरकार का वित्त मंत्रालय किसी टीम को एशियन गेम्स में भेजने की इजाजत देने से इनकार कर देता था.

फिल्म की 3 घंटे लंबाई इस की सफलता में बाधक है. फिल्मकार ने फुटबौल मैच के दौरान उन दर्शकों को बांध कर रखने के लिए मैच की कमैंट्री का सहारा लिया है जो फुटबौल खेल के शौकीन नहीं हैं. फिल्म का गीतसंगीत और पार्श्वसंगीत भी इस के कमजोर पक्ष हैं.

‘तेवर’ व ‘बधाई हो’ जैसी फिल्मों के निर्देशक अमित रवींद्रनाथ शर्मा ने अपनी निर्देशकीय छाप छोड़ी है. इस फिल्म में देशभक्ति की बात है पर ज्यादातर जोर पश्चिम बंगाल बनाम हैदराबाद करने पर ही रहा.

तमाम खामियों व कमजोरियों के बावजूद यह फिल्म देखी जानी चाहिए क्योंकि यह फिल्म उस शख्स के बारे में बात करती है जिसे न इतिहास में सही जगह मिली और न ही पाठ्यक्रमों में, जबकि भारतीय फुटबौल टीम को सम्मान दिलाने में जो योगदान सैय्यद अब्दुल रहीम का रहा है, वह किसी का नहीं रहा.

अभिनय

कम बोलने वाले व फुटबौल के प्रति समर्पित सैय्यद अब्दुल रहीम के किरदार को जीवंतता प्रदान करने में अजय देवगन ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी. पटकथा का पूरा सहयोग न मिलने पर भी वे कई दृष्यों में काफी बेहतरीन परफौर्मेंस देने में सफल रहे हैं.

पत्नी रूना व बेटे हकीम के साथ रिश्ते वाले दृष्यों में उन के अंदर का अभिनेता उभर कर आता है. भयानक विग और स्थायी मुसकराहट के साथ, एक द्वेषपूर्ण खेल पत्रकार के किरदार में गजराज राव ने जानदार परफौर्मेंस दी है. रहीम की पत्नी रूना के छोटे किरदार में भी प्रिया मणि अपनी छाप छोड़ जाती हैं. खिलाड़ियों के किरदार में हर किसी का अभिनय अच्छा है. भारतीय कमैंटेटर के किरदार में विजय मौर्य और अभिलाष थपलियाल भी अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं.

महंगा हो रहा है सैक्स करना

मोहन और नीता पिछले 2 साल से रिलेशनशिप में हैं. उन में सैक्स संबंध भी बने हैं. पर मोहन को अब लगने लगा कि उसे इस बात की बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है. नीता को सब से ज्यादा दिक्कत इस बात की रहती है कि सैक्स करने के बाद बच्चा ठहरने का खतरा होता है और बच्चे ठहरने की दिक्कतों से बचने के जो उपाय हैं, वे महंगे होते जा रहे हैं.

मोहन और नीता को अपना रिश्ता छिपाने की जरूरत पड़ती है. ऐसे में सैक्स करने के लिए वे जिन जगहों का इस्तेमाल करते हैं, वे महंगी हैं. आमतौर पर 4-5 घंटे के लिए मिलने वाले होटल के रूम का किराया 1,500 रुपए से शुरू होता है, पर यहां भी रिस्क ज्यादा होता है. ऐसे में कई बार जल्दीजल्दी में पूरा मजा नहीं मिल पाता. सैक्स महज मशीनी हो कर रह जाता है.

अगर किसी प्राइवेट जगह का इस्तेमाल होता है तो वहां के खतरे अलग होते हैं. जिस तरह से जगहजगह सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, उस से पकड़े जाने का खतरा बढ़ गया है. कई बार जोड़े रिस्क ले कर कभी पार्क या कार में भी सैक्स करने की जगह तलाश लेते हैं. दोनों में से अगर किसी का घर खाली है, तो वहां भी चले जाते हैं. पर वहां पड़ोसी की नजरों में आने का खतरा बना रहता है.

इस रिस्क फैक्टर के अलावा कई बार मसाज सैंटरों पर इस तरह की सुविधाएं मिलती हैं, पर वे भी सामान्य परिवार के नौजवानों की रेंज से बाहर होती हैं.

जगह के बाद दूसरे नंबर पर गर्भ रोकने के लिए इस्तेमाल होने वाले साधन भी महंगे हो गए हैं. कंडोम की कीमत आमतौर पर 5 रुपए होती है, पर उस की क्वालिटी की गारंटी नहीं होती है. नौर्मल कंडोम 35 रुपए से 65 रुपए में 3 का पैकेट आता है. डूरैक्स क्वालिटी का कंडोम 320 रुपए का 5 का पैकेट से शुरू हो कर 620 रुपए का 5 का पैकेट मिलता है. इन के अलग प्रकार और क्वालिटी के हिसाब से कीमतें होती हैं.

कुछ कंडोम अल्ट्राथिन होते हैं, जिन से यह पता ही नहीं चलता कि स्किन पर कुछ है भी या नहीं. ये महंगे होते हैं. कुछ कंडोम में डौट होते हैं. डौट के हिसाब से कंडोम की कीमत बढ़ती जाती है. कई अलगअलग फ्लेवर वाले कंडोम भी होते हैं. उन की कीमत उस फ्लेवर के हिसाब से होती है. कीमत के अलवा कंडोम की परेशानी यह होती है कि कई बार इस को लगाने को लोग अच्छा नहीं मानते हैं. कई बार यह सैक्स के दौरान निकल भी जाता है.

गर्भ रोकने के लिए इस्तेमाल होने वाले साधन भी महंगे हो गए हैं
गर्भ रोकने के लिए इस्तेमाल होने वाले साधन भी महंगे हो गए हैं

औरतों के लिए भी कंडोम आता है, पर इस का चलन ज्यादा नहीं है. एक गोली भी आती है. सैक्स करने के 30 मिनट पहले इस को वैजाइना में डालना होता है. इस से झाग सा निकल कर वैजाइना में फैल जाता है, जिस से शुक्राणु वैजाइना के अंदर प्रवेश नहीं कर पाते हैं और बच्चा ठहरने का खतरा नहीं रहता है.

अगर बिना गर्भ निरोधक के सैक्स हो या फिर कंडोम निकल जाए या फट जाए तो सैक्स के 72 घंटे के अंदर एक गोली खानी पड़ती है, जिस को इमरजैंसी पिल कहते हैं. इस की कीमत 110 रुपए से 220 रुपए तक होती है. यह पिल अलगअलग दवा कंपनियों की आती है. इस को सैक्स के बाद जितनी जल्दी हो सके, ले लेना चाहिए.

अगर इमरजैंसी पिल कामयाब नहीं हुई और बच्चा ठहर गया तो पेट गिराने के लिए भी गोलियां आती हैं. इन का पैकेट 350 रुपए से ज्यादा का आता है. इस में 3 गोलियां होती हैं. 3 दिनों के बीच इन को खाना होता है. 75 फीसदी में इस से पेट गिर जाता है. अगर इस से पेट नहीं गिरता है, तब अस्पताल जा कर अबौर्शन कराना होता है, जिस का खर्च 20,000 से 35,000 रुपए तक होता है. इस में पैसे से ज्यादा वहां जा कर बच्चा गिराना मुश्किल होता है. इस में अकेली लड़की के जाने से काम नहीं चलता, उस के परिवार का कोई सदस्य साथ होना चाहिए. इस की और भी दिक्कतें होती हैं.

ऐसे में कह सकते हैं कि सैक्स करना मुश्किल ही नहीं, बल्कि महंगा काम भी होता है. नौजवानों के पास जानकारियों की कमी तो होती ही है, इन साधनों को मंगाना भी मुश्किल होता है.

हिंदू सवर्णों को बहकाने की नीयत से सीएए

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार ने  ध्रुवीकरण का अब एक और दांव चल दिया है. सोचसमझ कर तारीख भी रमजान की चुनी. सीएए यानी नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 से केवल कुछ गैरमुसलिमों को फायदा होगा पर आपसी मनमुटाव बढ़ेगा.

केंद्रीय गृहमंत्रालय ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 यानी सीएए के लिए अधिसूचना जारी कर दी है. इस के साथ ही सीएए कानून देशभर में लागू हो गया है. केंद्र सरकार की मानें तो इस से पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान देशों से आए गैरमुसलिम शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता मिलने का रास्ता साफ हो गया है. तो क्या बाहरी लोगों को नागरिकता दे कर बीजेपी के कट्टर पाखंडी सोच वाले बैंक में कुछ इजाफा होगा? नि:संदेह.

माना जा रहा है कि इस कानून के लागू होने से बंगलादेश से आए कुछ जातियों के हिंदू शरणार्थियों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी. बंगलादेश से लगी अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पास के जिलों में इन समूहों का जबरदस्त बसाव है.

देश का बंटवारा होने और बाद के वर्षों में बंगलादेश से आ कर बंगाल के सीमाई इलाकों में बसे मतुआ समुदाय की आबादी राज्य की आबादी की 10 से 20 फीसदी है. राज्य के दक्षिणी हिस्से की 5 लोकसभा सीटों में उन की खासी आबादी है, जहां से 2 सीटों- गोगांव और रानाघाट- पर 2019 में भाजपा को जीत हासिल हुई थी. 2019 के चुनाव से ऐन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने मतुआ समुदाय के लोगों के बीच पहुंच कर उन्हें संबोधित किया था. अगर उन के वोटों का कोई मतलब है तो वे पहले से ही नागरिक होंगे. उन्हें अब नए संशोधन से नागरिकता के लिए आवेदन करने की जरूरत ही नहीं है.

इसी तरह उत्तरी बंगाल के जिस इलाके में राजवंशी और नामशूद्र की आबादी का बसाव है, वहां भी भाजपा ने 2019 में 3 सीटों पर जीत दर्ज की थी. जलपाईगुड़ी, कूचविहार और बालुरघाट संसदीय सीटों के इलाकों में इन हिंदू शरणार्थियों की आबादी 40 लाख से ऊपर है. से वोट दे सकते हैं तो पहले से ही नागरिक हैं. राज्य के दक्षिणी क्षेत्र में करीब 30-35 विधानसभा क्षेत्रों में मतुआ समुदाय की आबादी 40 फीसदी के करीब है. ये विधानसभा इलाके 5 से 6 लोकसभा क्षेत्रों के तहत आते हैं. यानी, इतनी सीटों पर मतुआ समुदाय हारजीत का आंकड़ा तय कर सकता है. इन को भारतीय नागरिकता मिलने पर नि:संदेह इन का वोट बीजेपी की झोली में जाएगा. फिलहाल 2024 में तो उन का वोट मिलेगा नहीं.

केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा लोकसभा चुनाव से पहले 11 मार्च, 2024 को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 की अधिसूचना जारी की गई. केंद्र सरकार का कहना है कि दिसंबर 2014 से पहले 3 पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से भारत में आने वाले 6 धार्मिक अल्पसंख्यकों- हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई व्यक्तियों को भारत की नागरिकता दी जाएगी.

नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019, दिसंबर 2019 में संसद में पारित किया गया था. गृहमंत्री अमित शाह ने 9 दिसंबर को इसे लोकसभा में पेश किया था. नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 (सीएए) संसद में 11 दिसंबर, 2019 को पारित किया गया था. सीएए के साथ ही केंद्र सरकार ने देशभर में एनआरसी लागू करने की बात भी कही थी. एनआरसी के तहत भारत के नागरिकों का वैध दस्तावेज के आधार पर रजिस्ट्रेशन होना था. सीएए के साथ एनआरसी को मुसलमानों की नागरिकता खत्म करने के रूप में देखा गया था.

फिलहाल केवल सीएए को ही लागू किया गया है. लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राम मंदिर का मुद्दा ठंडा पड़ने के बाद चूंकि बीजेपी के हाथ अब खाली हो गए थे, लिहाजा सीएए पर दांव खेला गया है. दरअसल, बीजेपी को सब से बड़ा खतरा बंगाल में ममता बनर्जी से है, जिन्हें किसी भी कीमत पर वह सत्ता से हटाना चाहती है. ममता से मोदी को बड़ी असुरक्षा रहती है. मोदी के बाद यदि कोई प्रधानमंत्री पद पर बैठने के काबिल नजर आता है तो वह ममता बनर्जी हैं.

बता दें कि सीएए के लिए आवेदन की प्रक्रिया औनलाइन रखी गई है. आवेदकों को बस इतना बताना होगा कि वे भारत कब आए. उन्हें भारतीय नागरिकता बिना वैध पासपोर्ट और बिना भारतीय वीजा के मिल सकती है. नागरिकता दिए जाने के लिए पाकिस्तान?, बंगलादेश या अफगानिस्तान के पासपोर्ट और भारत की ओर से जारी रिहायशी परमिट की आवश्यकता को बदला गया है. इस के बजाय जन्म या शैक्षणिक संस्थानों के सर्टिफिकेट, लाइसैंस, सर्टिफिकेट, मकान होने या किराएदार होने के दस्तावेज पर्याप्त होंगे. ऐसे किसी भी दस्तावेज को सबूत माना जाएगा.

उन दस्तावेजों को भी मान्यता दी जाएगी जिन में मातापिता या दादादादी के 3 में से एक के देश के नागरिक होने की बात होगी. इन दस्तावेजों को स्वीकार किया जाएगा, फिर चाहे ये वैधता की अवधि को पार ही क्यों न कर गए हों. इस से पहले नागरिकता हासिल करने के लिए जिन चीजों की जरूरत होती थी, वो थे- वैध विदेशी पासपोर्ट,  रिहायशी परमिट की वैध कौपी, 1,500 रुपए का बैंक चालान, सैल्फ एफिडेविट,

2 भारतीयों की ओर से आवेदक के लिए लिखा एफिडेविट, 2 अलग तारीखों या अलग अखबारों में आवेदक की नागरिकता हासिल करने की मंशा. लेकिन सीएए में नियम बहुत साधारण कर दिए गए हैं. सरकार ने उस नियम को भी हटा दिया है जिस के तहत किसी शैक्षणिक संस्थान से संविधान की 8वीं सूची की भाषाओं में से एक का ज्ञान होने का दस्तावेज जमा करना होता था.

सरकार का कहना है कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 से भारतीय नागरिकों का कोई सरोकार नहीं है. संविधान के तहत भारतीयों को नागरिकता का अधिकार है. सीएए कानून भारतीय नागरिकता को नहीं छीन सकता. फिलहाल सरकार दावा कर रही है कि इस कानून से देश के करोड़ों भारतीय मुसलिम बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होंगे. यह कानून किसी भी मुसलिम की नागरिकता नहीं छीनने वाला है. सिर्फ गलतफहमियों के कारण पहले विरोध प्रदर्शन हुए थे. मगर मुसलिम तबकों में एक डर जरूर कायम है और इस डर का फायदा भी बीजेपी लोकसभा चुनाव में हिंदू वोटरों को बहका कर उठाना चाहती है.

विपक्ष शासित कई राज्यों ने घोषणा की है कि वे अपने प्रदेश में सीएए लागू नहीं होने देंगे लेकिन नागरिकता के मामले में राज्यों के पास अधिकार बहुत कम होता है. कानून में ऐसे बदलाव किए गए हैं कि नागरिकता दिए जाने की प्रक्रिया में राज्य सरकारों की भूमिका कम होगी. इस बदलाव से राज्य सरकारों के इस कानून के विरोध करने से निबटा जा सकेगा.

पहले नागरिकता हासिल करने का आवेदन जिलाधिकारी के पास देना होता था. जिलाधिकारी राज्य सरकार के अंतर्गत आते हैं. नए नियमों में एम्पावर्ड कमेटी और जिला स्तर पर केंद्र की ओर से ऐसी कमेटी बनाई जाएगी जो आवेदनों को लेगी और प्रक्रिया शुरू करेगी. एम्पावर्ड कमेटी का एक निदेशक होगा, डिप्टी सैक्रेटरी होंगे, नैशनल इंफौर्मेटिक्स सैंटर के स्टेट इंफौर्मेटिक्स औफिसर, राज्य के पोस्टमास्टर जनरल बतौर सदस्य होंगे. इस कमेटी में प्रधान सचिव, एडिशनल चीफ सैक्रेटरी और रेलवे से भी अधिकारी होंगे.

जिला स्तर की कमेटी के प्रमुख ज्यूरिस डिक्शनल सीनियर सुपरिटेंडैंट या सुपरिटेंडैंट होंगे. इस कमेटी में जिले के इंफौर्मेटिक्स औफिसर और केंद्र सरकार की ओर से एक नामित अधिकारी होगा. इस में 2 और लोगों को जगह दी जाएगी, जो तहसीलदार या जिलाधिकारी स्तर के होंगे. नए कानून के तहत रजिस्टर्ड हर भारतीय को डिजिटल सर्टिफिकेट दिया जाएगा. इस सर्टिफिकेट पर एम्पावर्ड कमेटी के अध्यक्ष के हस्ताक्षर होंगे.?

 

 

बच्चों के साथ टाइम स्पैंड नहीं कर पाता क्या करूं?

सवाल

बच्चों के साथ टाइम स्पैंड नहीं कर पाता क्या करूं?

जवाब

मेरे 2 बच्चे हैं. एग्जाम खत्म हो चुके हैं. नैक्स्ट क्लास अभी शुरू नहीं हुई है. फिलहाल घर पर ही रहते हैं. वाइफ का देहांत पिछले साल हो गया. मेरी मां जिन की उम्र 66 साल है उन की देखरेख करती हैं. मैं जितना हो सकता है बच्चों के साथ टाइम स्पैंड करता हूं. लेकिन जौब ऐसी है कि मु?ो अकसर दिल्ली से बाहर मीटिंग के लिए जाना पड़ जाता है. बच्चे घर में शैतानी करते हैं तो मम्मी डांटती हैं. अब उन की उम्र हो गई है, ज्यादा भागदौड़ नहीं कर सकतीं. बच्चे फिर भी मोबाइल से चिपके रहते हैं. मु?ो यह भी अच्छा नहीं लगता. आप ही बताएं कि मैं क्या करूं जिस से बच्चों का ध्यान दूसरी ओर लगे?

आप की जो समस्या है उस में बच्चों की कोई गलती नजर नहीं आ रही. आप अपने काम में बिजी रहते हैं. बच्चों की दादी बच्चों के साथ खेलकूद नहीं कर सकतीं. बच्चे शरारत करते हैं तो उन्हें डांट देती हैं. अब बच्चों से हम बड़ों की तरह व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते. उन्हें कुछ न कुछ करने के लिए चाहिए, जो नहीं मिलता तो वे मोबाइल से अपना दिल बहलाने लगते हैं लेकिन बच्चों का ध्यान मोबाइल डिवाइस से हटाना बहुत जरूरी है.

इस के लिए आप कुछ प्रयत्न कर सकते हैं, जैसे उन्हें कुछ नए बोर्ड गेम्स, कला सामग्री, कलरिंग बुक्स, पिक्चर-स्टोरी बुक्स ला कर दें. इन के साथ नईनई एक्टिविटी में उन्हें बिजी रखें.

आउटडोर गेम्स में उन्हें बिजी रखें. बच्चों के साथ आप गार्डनिंग करें और उन्हें इस के गुर सिखाएं. इस के अलावा आप बच्चे को साइकिल चलाना सिखाएं और उसे डेली कम से कम 15 से 30 मिनट के लिए साइकिल चलाने के लिए प्रेरित करें. आप बच्चों को बैडमिंटन, क्रिकेट और अन्य गेम्स के लिए भी मोटिवेट कर सकते हैं.

यदि आप बच्चे को अपना पूरा समय नहीं दे पा रहे हैं तो पूरी जांचपड़ताल के बाद या कोई जानपहचान वालों के बच्चों के साथ खेलनेकूदने के लिए 12-15 साल का बच्चा रख लें, जो सुबह से शाम तक बच्चों के साथ रहे, उन के साथ खेले, उन के साथ अच्छीअच्छी बातें करे. पार्क में उन के साथ रहे, खेले.

आप की समस्या काफी हद तक हल हो जाएगी. उस का काम सिर्फ बच्चों के साथ खेलनाकूदना, उन्हें अलगअलग एक्टिविटी में बिजी रखना होना चाहिए. घर के काम उस से न कराएं. घर के काम के लिए अलग मेड रखें.

 

बाढ़: जब अनीता ने फंसाया अपने सीधे-सादे पति अमित को

लेखिका- नमिता दुबे

अनिता बचपन से मनमौजी, महत्त्वाकांक्षी और बिंदास थी. दोस्तों के साथ घूमना, पार्टी करना और उपहार लेनादेना उसे बहुत पसंद था. बहुतकुछ करना चाहती थी, किंतु वह अपने लक्ष्य पर कभी केंद्रित न हो सकी. बमुश्किल वह एमबीए कर सकी थी, तब उस के मातापिता अच्छे दामाद की खोज मे लग गए.

उस समय अनिता मानसिकतौर पर शादी के लिए तैयार नहीं थी. अपनी लाड़ली की मंशा से अनजान पिता जब सीधेसादे अमित से मिले तो उन्हें मुराद पूरी होती दिखी.

अमित डाक्टर था. वह प्रैक्टिस करने के साथ ही एमएस की तैयारी कर रहा था. अमित के पिता की 7 वर्षों पहले एक दुर्घटना में मौत हो गई थी. अमित का बड़ा भाई अमेरिका मे डाक्टर था, वह विदेशी लड़की से शादी कर वहीं बस गया था. घर में सिर्फ मां थी जो बहुत ही शालीन महिला थी और गांव के घर में रहती थी. इस विश्वास के साथ कि उस घर में उन की लाड़ली सुकून से रह सकती है, उन्होंने अमित से अनिता की शादी तय कर दी. अमित पहले तो शादी के लिए तैयार ही नहीं था किंतु अनीता के पापा में अपने पापा की छवि की अनुभूति ने उसे राजी कर लिया.

डाक्टर अमित को जीवन के थपेड़ों ने बचपन में ही बड़ा बना दिया था. पिता की मृत्यु के बाद मां को संभालते हुए डाक्टरी की पढ़ाई करना आसान न था. अमित आधुनिकता से दूर, अपने काम से काम रखने वाला अंतर्मुखी लड़का था. उस की दुनिया सिर्फ मां तक ही सीमित थी.

शादी के बाद अमित पत्नी अनिता को ले कर भोपाल आ बसा. उस ने अनिता को असीम प्यार और विश्वास से सराबोर कर दिया. अल्हड़ अनिता आधुनिकता के रंग में रंगी अतिमहत्त्वाकांक्षी लड़की थी. वह खुद भी नहीं जानती थी कि वह चाहती क्या है? अनिता अपने पिता के इस निर्णय से कभी खुश नहीं हुई, किंतु परिवार के दबाव में आ कर उसे अमित के साथ शादी के लिए हां कहना पड़ा.

अमित अपनी एमएस की तैयारी में लगे होने से अनिता को ज्यादा समय नहीं दे पा रहा था. वह उस की भावनाओं का सम्मान तो करता था लेकिन वक्त की नज़ाकत को देख उस ने अनिता को समझाया कि, बस, 2 वर्षों की बात है, उस का एमएस पूरा हो जाए, फिर उस के पास समय की कमी नहीं होगी. तब दोनों जीवन का भरपूर आनंद लेंगे.

क्लब, दोस्तों और पार्टियों मे समय बिताने वाली अनिता को अमित के साथ चल रही नीरस ज़िंदगी रास नहीं आ रही थी. अमित का पूरा फोकस पढ़ाई पर था. वह चाहता था अनिता भी आगे पढ़े. उस ने उसे प्रोत्साहित भी किया. उस की हर इच्छा पूरी करता, उस के सारे नखरे उठाता था क्योंकि कहीं न कहीं उसे समय न दे पाने की मजबूरी उसे परेशान करती थी.

अमित की भावनाओं से बेखबर अनिता बहुत मनमौजी होती जा रही थी. वह कई रातें अपनी दोस्तों के साथ होस्टल मे बिताने लगी. उसे पता ही नहीं चला वह कब गलत संगत मे फंस चुकी थी. उस की सहेलियां अमित को ले कर ताने भी मारतीं. अब उसे भी अमित से नफरत होने लगी थी. इस के लिए अब वह अपने मांपिता को जिम्मेदार समझने लगी. जितना अमित उस के प्यार को समेटने की कोशिश करता, उतनी ही उस में नफरत की आग भड़क उठती.

अमित की परीक्षा नजदीक आ गई थी. इधर अनीता का व्यवहार पल में तोला पल में माशा होता. कभी तो वह अमित को मोहब्बत के सुनहरे सब्जबाग दिखाती, कभी सीधे मुंह बात भी न करती.

एक दिन अमित की नाइट ड्यूटी थी. तब अनिता ने अपनी दोस्त सारिका को अपने घर बुला लिया. दोनों ने दिनभर पिक्चर देखी और खूब गपें मारीं. रात में बहुतरात तक लैपटौप पर पिक्चर देखती रहीं. सुबह जब अमित हौस्पिटल से लौटा तब दोनों नींद से उनींदी हो रही थीं.

नाइट ड्यूटी से लौटा अमित थका हुआ था. अनिता पति अमित को वहीं खीच लाई जहां सारिका सो रही थी. पलभर के लिए तो अमित सकपका गया, फिर संभलते हुए कहा कि तुम आराम करो, मैं बाहर सोफे पर सो जाऊंगा. उसे समझ पाना अमित के लिए मुश्किल हो रहा था.

उस दिन अनिता अपनी पहली वैडिंग एनिवर्सरी की तैयारी में जुटी थी. उस ने अमित के लिए इम्पोर्टेड महंगी घडी और्डर कर दी थी. अमित भी बहुत खुश था और मन ही मन एक रोमांटिक डिनर प्लान कर चुका था. अमित जल्दी से अपना काम निबटा कर हौस्पिटल से निकल गया. हालांकि परीक्षा होने में सिर्फ 10 दिन थे लेकिन आज वह अपना पूरा दिन अनिता को देना चाहता था, इसलिए ही उस ने नाइट ड्यूटी की थी.

लाल शिफौन की साड़ी पर खुली हुईं घुंघराली व लहराती काली जुल्फ़ें अनिता की सुंदरता में चारचांद लगा रही थीं. अमित जैसे ही घर आया, अनिता की बला की खूबसूरती और उसे बेसब्री से अपना इंतज़ार करते देख मंत्रमुग्ध हो गया. घर में हर सामान बहुत सलीके से रखा था. पूरा घर रजनीगंधा की महक से महक रहा था. अमित के आते ही अनिता बांहों का हार डाल उस से लिपट गई, धीरे से कान में फुसफुसाई, ‘आय लव यू अमित. रियली, आय मिस यू अमित. मिस यू वेरी मच माय डियर.’

अमित इस बदलाव से आश्चर्यचकित था, मन ही मन सोच रहा था कहीं गलती से वह दूसरे घर में तो नहीं आ गया. उस ने खुद को चिकोटी काटी. तभी अनीता ने उसे प्यार से धक्का देते हुए कहा, “अब यों ही बुत बने खड़े रहोगे या…?” “ओह, मैं अभी आया फ्रेश हो कर.” अमित को आज पहली बार अनिता के निश्च्छल प्रेम की अनुभूति हुई थी और वह उस में पूरी तरह डूब जाना चाहता था. अनिता ने जल्दी से 2 गिलास शरबत तैयार किया. जब तक अमित फ्रेश हो कर आया तब तक अनिता अपना शरबत ख़त्म कर चुकी थी. अमित के आते ही उस ने अपने हाथों से उसे शरबत पिलाया. फिर दोनों ने मिल कर केक काटा, साथ ही, अपना वीडियो भी बनाया. और फिर गिफ्ट में अनिता ने अमित को सुंदर घड़ी पहना दी. अमित भी कहां मौका चूकने वाला था, उस ने भी हीरे के लौकेट की प्लेटिनम चेन अनिता को पहना दी.

लेकिन, यह क्या… थोड़ी देर बाद ही अमित उलटियां करने लगा. पूरा कमरा उलटी से भर चुका था. फिर वह धीरेधीरे होश खोते फर्श पर गिर पड़ा. कुछ देर बाद खुद को जख्मी कर, अनिता पड़ोस में रहने वाली आंटी को बता रही थी कि आज अमित नशा कर के आया और देखो आंटी, उस ने मुझे मारा भी!

“अरे, ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ. कहां है वो? मैं उस से जा कर बात करती हूं, कहती हुई आंटी उठ खड़ी हुईं.

“अरे नहीं आंटी, वह तो उलटियां कर के औंधा पड़ा है,” कहती हुई अनिता ने आंटी को रोक दिया.

अमित की ऐसी बदसलूकी पर कोई यकीन नहीं कर रहा था. थोड़ी देर बाद अमित को अस्पताल ले जाया गया जहां इलाज़ के दौरान पता चला कि यह ज्यादा मात्रा में नींद की गोली का परिणाम है.

अनिता का एक नया रूप सामने आ चुका था. अमित की सज्जनता से सभी परिचित थे, इसलिए अनिता द्वारा लगाए आरोपों को किसी ने भी सच नहीं माना, यहां तक कि अनिता के मांबाप ने भी अमित की खूबियां बताते हुए अनिता को समझाने का असफल प्रयास किया.

बौखलाई अनिता की नफ़रत अब अपने चरम पर थी. अमित कुछ समझ पाता, इस से पहले ही अनिता ने अमित के विरुद्ध मोरचा तान दिया. थाने में घरेलू हिंसा, प्रताड़ना, दहेज़ के केस दायर हो चुके थे. पढ़ाई छोड़ अमित कोर्ट और थाने के चक्करों में उलझ कर रह गया. 10 दिनों बाद होने वाली परिक्षा को पास करने में उसे 2 वर्ष लग गए.

3 वर्षों बाद 15 लाख रुपए दे कर आपसी सुलह से जैसेतैसे केस निबटा कर अमित जब घर आया तो मां की सूनीनिरीह आंखों से अश्रुधारा बह निकली. आखिर क्या दोष था अमित का? अमित तो जैसा कल था वैसा ही आज भी है, फिर यदि अनिता को अमित उस के ख्वाबों का राजकुमार नहीं लगा था तो अनिता शादी के लिए तैयार ही क्यों हुई? क्या अनिता की महत्त्वाकांक्षा से उस के मांबाप परिचित न थे? आज अमित की मां भी इसी निष्कर्ष पर थी कि लड़की की इच्छाओं को, उस की महत्त्वाकांक्षाओं को समझना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि मांबाप योग्य लड़का देख, अपनी बेटी की शादी कर, अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें और उधर लड़की की उछलती महत्त्वाकांक्षाओं की लहरें बाढ़ बन कर, न जाने कितनों को हताहत कर जाएं.

आत्मसाथी: क्या रघुबीर और राधा को आश्रम में सहारा मिला?

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

इंसुलिन भरे इंजेक्शन की छोटी सुई लगते ही रघुबीर के मुंह से सिसकारी निकल गई. उन्हें यह रोज सहना पड़ता था, क्योंकि इंसुलिन अब उन की जिंदगी की डोर बन गई थी. और अब तो राधा के साथ जीने की लालसा ने इस कष्ट को सामान्य कर दिया था. उन की इस सिसकारी पर राधा ने कहा, ‘‘इतने सालों से इंजेक्शन लगवा रहे हो, पर सिसकारी मारना नहीं भूले. कोई छोटे बच्चे तो हो नहीं, जो इंजेक्शन लगते ही सिस्स… सिस्स… करने लगते हो.’’

‘‘अरे राधा, तुम्हें मैं बड़ा लगता हूं,’’ रघुबीर ने हमेशा की तरह कहा. अब उन के लिए तो राधा ही सर्वस्व थी. एक मित्र, साथी और प्रेमी. हां, प्रेमी भी, इसीलिए तो… जबजब राधा अपनी चश्मा चढ़ी आंखों को फैला कर इंजेक्शन भरने लगती, रघुबीर एकटक उन के चेहरे को ताकते रहते. और जब वह इंजेक्शन लगाती, रघुबीर सिसकारी जरूर भरते.

राधा को पता था कि रघुबीर ऐसा जानबूझ कर करते हैं. फिर भी वह जरूर कहतीं, ‘‘सच में इंजेक्शन से बहुत दर्द होता है.’’

इस के बाद रघुबीर के ‘न’ के साथ शुरू हुआ संवाद राधा की जिंदगी की डोर था.

2 साल हो गए थे रघुबीर और राधा को इस वृद्धाश्रम में आए. यहां पहला कदम रखने का दुख आज हृदय के किसी कोने में दब कर रह गया है. जब ये आए थे, तब दोनों के पैर साथ चलते थे और अब हृदय की धड़कन भी साथ चलती है. जैसे एक की थम जाएगी तो दूसरे की भी.

“मैं भी यहां बैठ जाऊं?’’ राधा ने पार्क में लगे झूले पर बैठे रघुबीर से पूछा. पर, रघुबीर का ध्यान तो कहीं और था. वह सामने रखे गमले में लगे कैकटस को एकटक ताक रहे थे.

‘‘मैं भी यहां बैठ जाऊं?’’ राधा ने दोबारा पूछा. इस बार भी जब कोई जवाब नहीं मिला, तो राधा झूले पर बैठ गई. थोड़ी देर तक झूले के साथ मौन भी झूलता रहा. राधा ने अचानक पैरों को जमीन पर रख कर झूले को रोकते हुए पूछा, ‘‘आप केवल कैकटस को ही क्यों देखते हैं?’’

‘‘मुझे लगता है, इस जीवन में मैं ने केवल कैकटस ही बोए हैं, इसीलिए कैकटस मुझे अच्छा लगता है. शायद इसी वजह से मैं यहां हूं भी,’’ अचानक झूले के रुकने से रघुबीर जैसे नींद से जागे थे.

‘‘कैकटस में भी फूल खिलते हैं. हो सकता है कि यह आश्रम भी तुम्हारे लिए कैकटस बन जाए,’’ राधा ने आशावादी विचार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘कभीकभी कैकटस से भी संबंध की शुरुआत हो सकती है.’’

रघुबीर जब से इस आश्रम में आए थे, उन के चेहरे पर हमेशा उदासी ही छाई रही. आश्रम में रहने वालों से वह बातचीत भी बहुत कम करते थे. हमेशा वह अकेले ही बैठे रहते थे.

एक रात 2 बजे राधा ने उन्हें झूले पर बैठे देखा था. शायद उस आश्रम में राधा ही एक ऐसी थी, जिस से रघुबीर कभीकभार दोचार बातें कर लिया करते थे. राधा ने उन के पास जा कर पूछा था, ‘‘इस समय यहां क्या कर रहे हो?’’

‘‘नींद नहीं आ रही थी, इसलिए यहां आ कर बैठ गया,’’ जवाब मेें रघुबीर ने कहा.

‘‘नींद क्यों नहीं आ रही है?’’ राधा ने पूछा. शायद वह उन से बातें करना चाहती थीं.

‘‘हर चीज की वजह नहीं होती.’’

‘‘होती तो है. बस, हम जानना नहीं चाहते,’’ राधा ने रात की हवा में जैसे नमी मिल आई हो, इस तरह कहा, ‘‘आप अपने मन की बात कह दीजिए, इस से दिल का बोझ थोड़ा हलका हो जाएगा. बात सुन लेने के बाद शायद मैं वजह खोज सकूं.’’

‘‘मैं मेजर डिप्रेशन का रोगी नहीं था,’’ रघुबीर ने रात को खुले आकाश में फैले अनगिनत सितारों को ताकते हुए कहा.

“तो…’’ राधा ने छोटा सा सवाल किया. उन्होंने ‘डिप्रेशन’ शब्द सुना न हो, ऐसा नहीं था.

राधा अध्यापिका थीं. स्वभाव से वह आशावादी थीं. हर परिस्थिति को मुसकराते हुए वह स्वीकार करती थीं.

राधा के इस सवाल से रघुबीर उत्तेजित हो कर बोले, ‘‘तो क्या… आज इसी बीमारी की वजह से मैं यहां इस वीरान वृद्धाश्रम में हूं. मैं ने अपने पोते पर हाथ उठा दिया था. और जानती हो क्यों…?’’ कहते हुए रघुबीर का शरीर कांप रहा था. आंखें सहज ही चौड़ी और लाल हो गई थीं. उन की आंखों में ठहरी बातें पाला तोड़ कर बह रही थीं.

‘‘केवल… उस से मेरी इंसुलिन की सिरिंज टूट गई थी. मैं… मैं अभी भी उस दृश्य को देख रहा हूं, क्योंकि वह दृश्य मेरी आंखों के सामने हमेशा ही नाचता रहता है. वह दृश्य मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा है. उसी की वजह से बेटे ने मुझे अस्पताल में भरती कराया और अस्पताल से सीधे इस वीरान आश्रम में छोड़ गया.

“मैं ने अपने पोते पर हाथ उठाया?’’ रघुबीर ने यह अंतिम वाक्य इस तरह से कहा, जैसे वह खुद से ही सवाल कर रहे हों. इतना कहतेकहते उन की सांस फूलने लगी थी.

उन्होंने एक लंबी सांस ले कर आगे कहा, ‘‘वह मेरा कितना खयाल रखता था, मुझे कितना खुश रखता था. अपनी दादी के जाने के बाद वही एक सहारा था मेरा.

“आप को पता है, वह रोजाना मेरे साथ मंदिर जाता था. मेरे पास बैठ कर होमवर्क करता. कोई भी बात होती, ‘दादाजी… दादाजी’ कह कर पहले मुझे ही बताता और मैं ने…?

“मैं ने यह क्या किया…? उस की दादी का खालीपन मुझे खा गया. अकेलापन मुझ से सहन नहीं हुआ,’’ इतना कह कर रघुबीर रोने लगे. राधा ने भी उन्हें रोने दिया. वह केवल उन्हें देखती रही और उन की बातें सुनती रही. जब तक रघुबीर के मन की भड़ास न निकल गई. किसी को इस तरह सुनना भी एक कला ही है. यह कला भी सब के पास नहीं होती.

उस रात के बाद राधा रघुबीर का खयाल ही नहीं रखने लगीं, बल्कि हर तरह से उन की देखभाल करने लगीं. वह उन की देखभाल में कोई कसर नहीं रखती थीं. रोजाना याद कर के उन की दवाएं देना, इंसुलिन का इंजेक्शन लगाना, अब यह सब वही करती थीं. दोनों साथ बैठ कर भगवद्गीता का पाठ करते, उस का अर्थ समझने के लिए दोनों एकदूसरे के साथ लंबे समय तक पार्क में टहलते हुए चर्चा करते. कभीकभी बातों में विरोधाभास होता, तो ‘तुम ही सच्चे हो, मैं गलत हूं’ पर बात खत्म हो जाती. इस तरह दोनों में मीठा झगड़ा भी होता. सालों बाद रघुबीर के लिए अब यह वीरान आश्रम रंगबिरंगा, फूलों से भरा उपवन लगने लगा था.

एक दिन राधा का बेटा उन से मिलने आया. उस ने मां से घर चलने को बहुत कहा, पर वह घर जाने को राजी नहीं हुईं. उस समय रघुबीर को पता चला कि राधा स्वेच्छा से आश्रम में रहने आई थीं. वह तो अपने गांव में ही रहना चाहती थीं, जबकि बेटा गांव का सबकुछ बेच कर शहर में बस जाना चाहता था. वह सादगी से जीने की आदी थीं, इसलिए उन्होंने बेटे से कहा था, ‘‘मैं वृद्धाश्रम में रहूंगी.’’

बेटे और बहू ने बहुत समझाया कि समाज में उन की बड़ी बदनामी होगी, पर वह नहीं मानीं और वृद्धाश्रम में रहने आ गई थीं. एकांत उन की प्रवृत्ति थी. वह रहती भी एकांत में ही थीं.

पर, राधा और रघुबीर को कहां पता था कि वृद्धाश्रम में आने के बाद उन्हें एक साथी मिल जाएगा, जिस से निरंतर बातें की जा सकेंगी, नाराज भी हुआ जा सकेगा और मनाया भी जा सकेगा. इतने सालों से साथ रहतेरहते उन के बीच सात्विक प्रेम का सेतु बंध गया था. दोनों एक बार फिर युवा हो गए थे. उन में फिर से प्रेम हो गया था और जिंदगी एक बार फिर से प्रेममय हो गई थी. प्रेम तो कभी भी, कितनी भी बार हो सकता है. पर प्रेम व्यक्ति से नहीं, उसके व्यक्तित्व से होता है.

रघुबीर कभी फूल तोड़ कर राधा को देते तो कभी कोई माला बना कर जूड़े में लगाते. यह सब करने में वह जरा भी नहीं शरमाते. उसी तरह राधा भी प्रेमभाव से यह सब स्वीकार करतीं. ऐसा करते हुए वह सहज हंस भी देते. इतना ही नहीं, अब दोनों एक ही थाली में साथ खाने भी लगे थे. ऐसे में ही एकदूसरे को खिला भी देते थे. बस, एक ही कौर में पेट भर जाता था.
उन दोनों के प्रेम को देख कर वृद्धाश्रम के लोग तरहतरह की बातें करने लगे थे. पर उन की बातों पर न राधा ध्यान दे रही थी और न रघुबीर. दोनों खुद ही में मस्त थे. लोग कहते, ‘‘इस उम्र में इन्हें यह सब करते शर्म भी नहीं आती. जिस उम्र में भगवान का नाम लेना चाहिए, इन्हें देखो, ये प्रेम के गीत गा रहे हैं.’’

शायद उन लोगों को राधा और रघुबीर जो कर रहे थे, उस बात पर गुस्सा नहीं था, उन्हें उन दोनों का साथ रहना खल रहा था. उन्हें इस बात की ईर्ष्या थी कि उन के साथ ऐसा क्यों नहीं है. इसी ईर्ष्या की वजह से एक बार फिर राधा और रघुबीर के जीवन में कैकटस उग आया था. उन लोगों ने आश्रम के संचालक से शिकायत कर दी कि इस उम्र में ये दोनों यह कौन सा तमाशा कर रहे हैं?

एक वृद्ध ने तो यहां तक कह दिया कि अगर इन दोनों को किसी ने इस तरह एकसाथ देख लिया तो जो लोग आश्रम को दान देते हैं, वे दान देना बंद कर देंगे कि यह आश्रम है या ऐयाशी का अड्डा.

इन्हीं लोगों की बातों में आ कर संचालक ने रघुबीर और राधा के घर वालों को फोन कर के सारी बात बताई.

रघुबीर के घर से तो कोई जवाब नहीं आया, कहा गया कि ‘आप को उन के बारे में जो निर्णय लेना हो, लीजिए. हम लोगों को अब उन से कोई मतलब नहीं है.’ जबकि राधा का बेटा राधा को ही नहीं, रघुबीर को भी अपने घर ले जाना चाहता था, पर इस बार भी राधा ने साफ मना कर दिया. तब बेटे ने यह जरूर कहा कि, ‘मुझे पता नहीं था कि मम्मी इसीलिए अकेली रहना चाहती थीं.’

यह कह कर राधा के बेटे ने एक फाइल निकाल कर राधा के सामने रखते हुए कहा, “मम्मी, मैं ने अपने एक परिचत वकील से वसीयत तैयार कराई है. ये उसी के कागज हैं. आप इस पर दस्तखत कर दीजिए, जिस से आप के न रहने पर मकान वगैरह अपने नाम कराने में मुझे कोई परेशानी न हो. बैंक से पैसे निकलवाने में भी किसी तरह की अड़चन न आए.”

राधा कुछ देर तक उस फाइल को घूरती रही. उस के बाद उस ने फाइल उठाते हुए कहा, “जरा मैं इसे रघुबीर को दिखा लूं, उस के बाद दस्तखत कर दूंगी…

“तुम अभी जाओ. इसे जानसमझ कर जब मैं दस्तखत कर दूंगी, तब तुम आ कर ले जाना.”

राधा का बेटा निराश हो कर चला गया. फिर भी उसे यह तो उम्मीद थी ही कि अपनी मां का वह एकलौता वारिस है, इसलिए मां उस के अलावा किसी और को तो कुछ देंगी नहीं.

बेटे के जाने के बाद जब राधा रघुबीर के साथ बैठीं, तो उन्होंने बेटे द्वारा लाई फाइल उन के सामने रखते हुए कहा, “जरा इसे देख कर मुझे समझाइए तो इस में क्या लिखा? बेटा मुझ से क्या चाहता है?”

“बेटा, आप की प्रोपर्टी, बैंक में जमा पैसे. आप के मरने के बाद आप के खाते में आप की पेंशन के जो पैसे बचेंगे, वह सब चाहता है. वह आप के जीतेजी ही सारे कागजात तैयार करा लेना चाहता है, जिस से आप के मरने के बाद उसे यह सब अपने हक में करने में किसी तरह की कोई परेशानी न हो,” रघुबीर ने राधा के बेटे द्वारा लाए कागज पढ़ कर बताया.

“यह सब तो मेरे मरने के बाद वैसे ही उसे मिल जाता. उसे यह सब करने की क्या जरूरत थी. क्या उसे मुझ पर विश्वास नहीं रहा कि यह सब मैं किसी दूसरे को दे दूंगी.”

“आजकल के बच्चे ऐसे ही हैं राधा. उन्हें सबकुछ शार्टकट में चाहिए. देखा नहीं, उस ने संचालक के सामने क्या कहा था. कहा था कि उसे पता नहीं था कि मम्मी इसीलिए यहां रह रही हैं. क्या हम लोग साथ रह कर कुछ गलत कर रहे हैं राधा?” रघुबीर ने राधा को सवालिया नजरों से देखते हुए कहा.

“इस बात को छोड़ो. यह बताओ कि जैसे हम अपनी प्रोपर्टी, पैसे बेटे को न देना चाहें तो…?”

“कोई बात नहीं. चीज तुम्हारी है. जिसे मन हो, उसे दो. इस पर तुम दस्तखत नहीं करोगी तो वह तुम्हारी प्रोपर्टी और पैसा कैसे ले लेगा?”

“अच्छा, मैं जिस किसी को अपनी प्रोपर्टी या पैसा देना चाहती हूं, उस के लिए मुझे क्या करना होगा?” राधा ने पूछा.

“इस के लिए कई विकल्प हैं. आप कोई भी विकल्प अपना सकती हैं. जैसे कि वसीयत, रजिस्टर्ड वसीयत, रजिस्ट्री, पावर औफ अटार्नी वगैरह,” रघुबीर ने बताया.

“इन में सब से बढ़िया विकल्प कौन सा है?”

“सब से बढ़िया तो रजिस्ट्री है. रजिस्ट्री होने के बाद कोई कुछ नहीं कर सकता. क्योंकि इस में रजिस्ट्री करने वाले के जीतेजी ही उसे कब्जा मिल जाता है. पर बाकी विकल्प भी बुरे नहीं हैं. हां, उन का भी रजिस्ट्रेशन तहसील में जा कर करा दिया जाए तो. रजिस्टर्ड वसीयत हो या पावर औफ अटार्नी, इन का भी उतना ही महत्व है, जितना रजिस्ट्री का. पर, इन में बाद में कोई हकदार अड़ंगा लगा सकता है. पर अंत में सबकुछ मिलता उसी को है, जिस के नाम रजिस्टर्ड वसीयत या पावर औफ अटार्नी होती है,” रघुबीर ने समझाया.

“अच्छा, वसीयत और पावर औफ अटार्नी में क्या अंतर है?”

“वसीयत में हम अपनी प्रोपर्टी किसी को अपने मरने के बाद देने की बात करते हैं, जबकि पावर औफ अटार्नी में हम अपनी प्रोपर्टी पर अधिकार प्राप्त करने की बात करते हैं.

“यह दो तरह की होती है. एक में जीवित रहने तक ही अधिकार होता है, जबकि दूसरी में मरने के बाद भी अधिकार बना रहता है,” रघुबीर ने कहा, “पर, तुम यह सब जान कर क्या करोगी?”

“सामने ये जो कागजात रखे हैं, उस पर दस्तखत करने के पहले यह सब जान लेना जरूरी था न?” कह कर राधा ने बेटे द्वारा दी गई वह फाइल एक किनारे रख दी.

राधा और रघुबीर के बीच का प्रेम आखिर आश्रम में रहने वाले लोगों से देखा नहीं गया. सभी ने मिल कर निर्णय लिया कि किसी भी तरह रघुबीर और राधा को आश्रम से बाहर किया जाए. आखिर किया भी वही गया. निर्णय सुन कर दोनों में से किसी ने कारण नहीं पूछा. उन्होंने तो तय कर लिया था कि अब कुछ भी हो, दोनों साथ रहेंगे. आर्थिक रूप से वे सुदृढ़ थे ही. केवल शरीर से ही थोड़ा कमजोर थे. लेकिन दोनों के मन मजबूत थे, इसलिए तन की चिंता नहीं थी. वे खुश थे, क्योंकि दोनों एकदूसरे की सांस बन चुके थे. राधा ने आश्रम के गेट से निकलते हुए कहा, ‘‘हमारा आगे का रास्ता शायद अब कैकटस का फूल होगा.’’

सचमुच उन का आगे का रास्ता कैकटस का फूल ही साबित हुआ. राधा और रघुबीर एकदूसरे का हाथ थाम कर आश्रम से निकले तो अंत तक दोनों एकदूसरे का हाथ थामे रहे.

आश्रम से निकल कर उन्होंने अपना अलग घर बसा लिया था. घर का काम करने के लिए उन्होंने नौकरानी रख ली थी. दोनों मिल कर खाना बनाते, साथ बैठ कर प्रेम से खाते. सुबहशाम साथ घूमने जाते. उन के दिन हंसीखुशी से बीतने लगे. एक दिन राधा रघुबीर के साथ तहसील गई और अपनी सारी प्रोपर्टी रघुबीर के नाम कर दी.

राधा के इस प्रेम को देख कर रघुबीर ने भी अपना सबकुछ राधा के नाम कर दिया. इसी के साथ उन्होंने अपनी वसीयत में यह भी लिखवा दिया कि अंत में जो बचेगा और उस की देखभाल जिस अस्पताल में होगी, सारी प्रोपर्टी और पैसा उस अस्पताल को मिलेगा.

मोक्ष: अंधविश्वास की कहानी

Writer- रितु वर्मा

रोहन को लेटेलेटे आभास हो रहा था कि वह किसी हौस्पिटल में हैं. उस ने बड़ी मुश्किल से आंखें खोलीं तो अपने परेशान दादा, दादी के चेहरे उस को नज़र आए थे. उसे अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था कि क्यों वह यह सब करता है.

तभी रोहन ने देखा, यमुना टिफ़िन ले कर अंदर आई. यमुना दादाजी से कह रही थी, “दादाजी, आप ने कल रात से कुछ नही खाया, थोड़ा सा मुंह जुठार लीजिए.”

दादी यमुना की तरफ देख कर गुस्से में बोली, “तेरे ही कारण मेरे रोहन की यह दशा है.”

यमुना अपनी कजरारी आंखों को और बड़ा करते हुए बोली, “मैं ने क्या किया है, दादी? मैं तो रोहनजी को शांति के लिए कनावनी वाले गुरुजी के पास ले कर गई थी.”

दादाजी दादी से मुखातिब होते हुए बोले, “अरे, तुम चुप करोगी, यह सब घर जा कर सुलटा लेना.”

रोहन यमुना की तरफ प्यारभरी नजरों से देख रहा था.

“एक यमुना ही तो हैं जो उस का सारा कहना मानती है. वह उसे मारे, डांटे या कैसा भी व्यवहार करे, वह फिर भी रोहन के आसपास ही बनी रहती है.”

तभी यमुना के मोबाइल की घंटी बजी. उस ने फ़ोन उठाया और रोहन के कानों में फुसफुसा कर कहा, “रोहनजी, सुरुचि मैडम का फ़ोन है.”

इस से पहले रोहन कुछ कहता, दादी चिल्लाती हुई बोली, “तू इस घर की मालकिन हैं या मैं, मेरा पोता किसी सुरुचिवुरुचि से बात नहीं करेगा?”

“जब यही सुरुचि इसे 6 साल की उम्र में छोड़ कर अपने प्रेमी के पास चली गई थी तो मैं ने अपनी रातों की नींद खराब कर इसे पाला था. अब रहे खुश वह अपने नए परिवार में. क्यों फ़ोन करती रहती है.”

शायद सुरुचि ने सुन लिया था क्योंकि फोन कट गया था.

2 दिनों बाद रोहन डिस्चार्ज हो गया था. डाक्टर शांतनु रोहन के पापा मुनीश के बचपन के मित्र थे, इसलिए रोहन को उन्होंने बिना हीलहवाला किए अपने हौस्पिटल में एडमिट कर लिया था.

अपने मित्र के इस बेटे पर उन्हें आगाध स्नेह था. जब रोहन छोटा था तो शांतनु ने एक तरह से उसे अपनी बेटी के लिए चुन लिया था. मगर तब क्या उन्हें पता था कि मुनीश के परिवार को समयकाल यों लील जाएगा.

रोहन के पीठ पर हाथ फेरते हुए शांतनु बोले, “बेटे, तुम मेरे मुनीश के बेटे हो. मुनीश ने जिंदगी के हर चैलेंज का डट कर सामना किया है. तुम भी इस जिंदगी को नशे में जाया मत करो. मैं मुनीश की जगह तो नही ले सकता हूं मगर तुम्हारे लिए हमेशा खड़ा रहूंगा. अंदर कोई बात खाए जा रही हो तो उसे बाहर निकालो, मगर खुद को अंधेरे में मत धकेलो.”

जब रोहन घर पहुंचा, तब तक यमुना ने रोहन का  कमरा साफ़ कर दिया था.

घर में यमुना के अलावा 2 नौकर और थे, मगर यमुना का पूरे घर पर दबदबा था.

रोहन नहा कर निकला तो यमुना आंखों में आंसू लाती हुई बोली, “रोहनजी, क्या मेरी वजह से आप को नशे की आदत लग गई है?”

रोहन रूखे स्वर में बोला, “यह गंगा बहाना बंद करो. मेरी पत्नी बनने की कोशिश मत करो.”

यमुना फिर बिना कुछ बोले रोहन के कपड़े धोने लगी थी.

रोहन को यमुना की यह खामोशी बेहद बुरी लगती थी. बाहर से ही आवाज़ दे कर वह बोला, “कुछ खाने को मिलेगा या भूखा ही मारोगी?”

यमुना कपड़े निचोड़ती हुई बोली, “आप के पसंदीदा दालचावल बना रखे हैं, अभी लाती हूं.”

यमुना ट्रे में चटनी, सलाद, रायता, फुल्के, भिंडी, दाल और चावल ले कर आई. रोहन को कस कर भूख लगी हुई थी. खातेखाते वह बोला, “यमुना, तुम भी खा लो.”

यमुना भी पास रखी हुई कुरसी पर अपना खाना ले कर बैठ गई.

तभी दादी आई और बोली, “बस, इसी बात की कमी रह गई थी कि अब यह यमुना, तेरे साथ बैठ कर खाना भी खाए? अरे, रोहन का दिमाग काम नहीं करता, तो क्या हुआ, तू तो कुछ लिहाज कर?”

यमुना तीर की तरह खाने की प्लेट हाथ मे ले कर निकल गई.

रोहन दादी से बोला, “दादी, क्या हुआ अगर यमुना हमारे यहां काम करती है. उस ने हमेशा हमारा साथ निभाया हैं. कम से कम मेरे मम्मी, पापा की तरह मुझे छोड़ कर तो नहीं गई है? दादी, वह मेरा हर हिसाब से ध्यान रखती है.”

दादी गुस्से में बोली, “बेटा, पैर की जूती को सिर का  मुकुट नहीं बनाते हैं.”

रोहन सोचता सा बोला, “दादी, चाहे मुकुट सिर का दर्द बन जाए?”

दादी रोहन को गले से लगाती हुई बोली, “रोही, मैं तेरा दर्द समझती हूं बेटा. तेरे लिए मैं एक अच्छे परिवार की लड़की ले कर आऊंगी जो तेरे दुखदर्द साझा कर लेगी.”

रोहन बोला, “अच्छा दादी, आप को तो पता हैं न कि शांतनु अंकल, जो 2 वर्षों पहले तक मान्या का विवाह मुझ से करना चाहते थे, अब उन्होंने भी जन्मपत्री का बहाना बना दिया है. दादी, मुझे मेरे मांबाप ने ही त्याग दिया है, कोई और क्या मुझे अपनाएगा?”

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दादी सुबकती हुई रोहन के कमरे से निकल गई थी.

रोहन 23 वर्ष का नवयुवक था. ऊंचा, 6 फुट का कद, भूरे बाल और आंखें, तीखे नैननक्श और गोरा रंग… सबकुछ उस ने अपने मातापिता से विरासत में पाया था. रोहन मोटर्स के नाम से परिवार का अच्छाखासा बिज़नैस है. मगर सबकुछ होते हुए भी परिवार में खुशी का अंश ढूंढने से भी नहीं मिलता था.

रोहन के पिता मुनीश ने 24 वर्षों पहले सब से लड़ कर रोहन की मां सुरुचि से विवाह किया था. एक वर्ष के भीतर ही रोहन हो गया था. रोहन के होने के बाद मुनीश और सुरुचि दोनों को ही लगा कि उन्होंने एक गलत फैसला ले लिया है. कोई दिन न बीतता जब सुरुचि और मुनीश की लड़ाई न होती.

दोनों ने  घर से बाहर अपनीअपनी अलग दुनिया बसा ली थी. रोहन छोटा था मगर सब समझता था. वह अंतर्मुखी होता जा रहा था. रोहन जब 6 वर्ष का था तब सुरुचि ने  अपने मित्र मुकेश के साथ  अलग रहने का फैसला कर लिया था.

रोहन आज 23 वर्ष का हो चुका हैं पर उसे अभी भी वह रात याद है जब सुरुचि अपना सामान पैक कर रही थी. रोहन टुकुरटुकुर अपनी मां को देख रहा था. मुनीश गुस्से में कह रहा था, ‘मेरा नहीं तो कम से कम रोहन का ख़याल तो किया होता.’

सुरुचि बोली, ‘क्यों, क्या रोहन, बस, मेरी ज़िम्मेदारी है?’

मुनीश बोला, ‘क्यों, तुम्हारी आज़ादी में रोड़ा है न रोहन?”

सुरुचि हंसती हुई बोली, ‘क्यों, क्या तुम्हारी गर्लफ्रैंड कनिका ने मना कर दिया है रोहन को साथ रखने के लिए?’

तभी रोहन की दादी आई और रोहन को अपनी गोद में उठाती हुई बोली, ‘तुम दोनों को प्रकृति ने यह बच्चा दे कर गलती की है. कैसे मातापिता हो तुम दोनों?’

तभी रोहन के दादाजी आए और शांतस्वर में बोले, ‘तुम दोनों रोहन की ज़िम्मेदारी से आज़ाद हो, मेरा पोता मेरी ज़िम्मेदारी है.’

मगर क्या रोहन के दादादादी अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से निभा पाए थे?

उस रात के बाद से सुरुचि 4 वर्षो तक रोहन की जिंदगी से गायब हो गई थी. उधर मुनीश ने भी दूसरा विवाह कर लिया था. रोहन की नई मां  कनिका को सासससुर के साथ रहना पसंद नहीं था. उस रात जब मुनीश अपना समान पैक कर रहा था तो रोहन टुकुरटुकुर अपने पापा को देख रहा था.

जब मुनीश सूटकेस ले कर बाहर निकला तो रोहन बोला, ‘पापा, आप भी मुझे मम्मी की तरह छोड़ कर जा रहे हो?’

रोहन के दादा बोले, ‘बेटे रोहन, आज से तेरे दादा और दादी ही तेरे मम्मीपापा हैं.’

उस दिन से ले कर आज तक रोहन के दादादादी ने उसे कभी किसी भी बात के लिए नहीं टोका. उन्हें लगता कि ऐसा करने से रोहन को उस के मम्मीपापा की कमी महसूस नहीं होगी.

रोहन धीरेधीरे अपने दादादादी की कमज़ोरी समझ गया था और अपनी हर छोटीबड़ी जिद पूरी करवाने लगा था. जो इच्छा रोहन के दादादादी पूरी न कर पाते, वह रोहन के मम्मीपापा गिल्ट के कारण पूरी कर देते थे. कुल मिला कर रोहन पूरी तरह से निरंकुश हो चुका था.

धनदौलत की कोई कमी न थी मगर रोहन अंदर से एकदम खाली था. रोहन एक परिवार के प्यार के लिए तरस रहा था. उस का मन करता कि कभी तो उस के मम्मीपापा उसे किसी बात के लिए टोकें. मगर मुनीश और सुरुचि दोनों ही रोहन की हर मांग को बिना कोई सवाल किए पूरा कर देते थे.

अपने टूटे हुए परिवार के कारण रोहन हीनभावना से ग्रस्त हो गया था. अपने उम्र के लोगों में वह उठताबैठता नहीं था. रोहन को हमेशा अंदर ही अंदर लगता जैसे सब लोग उस पर तरस खा रहे हैं. उसे लोगों की आंखों में अपने लिए ढेरों सवाल तैरते हुए नज़र आते थे. वह अकेला ही रहता था, उस का कोई दोस्त न था. रोहन के अंदर अपने मम्मीपापा के लिए बहुत अधिक  कड़वाहट थी.

तभी रोहन की जिंदगी में यमुना का पदार्पण हुआ था. यमुना की मां रोहन के घर बहुत सालों से काम कर रही थी. उसी के साथ यमुना आती थी और रोहन की हर छोटीबड़ी फरमाइश को पूरा कर देती थी.

धीरेधीरे रोहन और यमुना एकदूसरे की तरफ खिंचने लगे थे. यमुना की मां ने जानबूझ कर आंखें मूंद ली थीं क्योंकि रोहन यमुना को खूब पैसे देता था. रोहन के दादादादी इस नए पनपते हुए रिश्ते से अनभिज्ञ थे.

तभी 2020 में कोरोना के कारण लौकडाउन लग गया था. यमुना को रोहन की दादी ने घर पर ही रख लिया था. अब यमुना धीरेधीरे रोहन की जरूरत बन गई थी. एक रात अचानक रोहन के दादाजी के पेट में बहुत तेज़ दर्द उठा तो रोहन की दादी घबराती हुई रोहन के कमरे में चली गई. वहां यमुना और रोहन को एकसाथ देख कर वह हक्कीबक्की रह गई थी.

उस रात के बाद  से  यमुना दादी की आंखों की किरकिरी बन गई थी. मगर रोहन की जिद के आगे वह लाचार हो उठी थी. रोहन की दादी ने इस बारे में जब मुनीश और सुरुचि से भी बात की तो उन्हें कोई फ़र्क  ही नहीं पड़ा था. दोनों के लिए रोहन, बस, एक अनचाही ज़िम्मेदारी था जिसे वे पैसा दे कर पूरा करते थे.

लौकडाउन के दौरान  धीरेधीरे यमुना पूरे घर पर हावी होती चली गई थी. यमुना को रोहन से लगाव था लेकिन उसे मालूम था कि उस का रोहन के साथ कोई भविष्य नहीं हैं. लेकिन यमुना की अपनी मजबूरी थी, घर में बीमार पिता और शराबी भाई के खर्चों को पूरा करने के  लिए यमुना ने खुद के अस्तित्व को गिरवी रख दिया था.

अब धीरेधीरे रोहन का मन यमुना से ऊबने लगा था. यमुना को यह समझ भी आ रहा था पर वह कुछ कर नहीं पा रही थी. तभी यमुना ने एक तरकीब सोची और रोहन को विश्वास में ले कर वह एक बाबा के पास ले गई थी. बाबा को यमुना की मां ने पहले ही सबकुछ बता रखा था. रोहन अंदर से दर्द में था, कमजोर था. बाबा ने उसे जल्द ही अपनी चिकनीचुपड़ी बातों से वश में कर लिया था. बाबा बोले, ‘बेटा, तुम बहुत दर्द में हो, पर इस दर्द का इलाज है  मेरे पास. तुम ध्यान लगाओ, एक चुटकी भभूति रोज़ खाओ और तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति मिल जाएगी, कम उम्र में ही तुम्हें सिद्धि मिल जाएगी.’

बाबा प्रसाद में  रोहन को नशा मिला कर देते थे. उस प्रसाद को खाने के बाद रोहन को अंदर से बेहद सुकून मिलता था. रोहन अब न गुस्सा करता था और न ही चिल्लाता था. रोहन की दादी ने  जब रोहन के व्यवहार में परिवर्तन देखा तो वह भी बाबाजी की भक्ति में लीन हो गई थी.

रोहन अब रातदिन बाबा के आश्रम में बना रहता था. वे जितनी भी दक्षिणा मांगते, रोहन ला कर देता था. रोहन को इस बात का सपने में भी भान नहीं था कि ये भभूति का नहीं, नशे की गोलियों का कमाल है.

रोहन का दिमाग अब पूरी तरह से नशे का गुलाम था. यमुना इस कोठी की बेनाम मालकिन बन गई थी. रोहन के दादा सबकुछ समझते थे, उन्हें ज्ञात था  कि रोहन गलत राह पर है. मगर रोहन की दादी अंधविश्वास में इतनी जकड़ी हुई थी कि वह अपने पति की बात सुनने को तैयार न थी.

रोहन और उस की दादी पूरी तरह से गुरुजी के वश में थे. नशे की ओवरडोज़ के कारण ही आज रोहन की यह हालत हो गई थी कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा था.

रोहन के दादा और दादी को समझ नहीं आ रहा था कि उन से क्या गलती हो गई है.

रोहन के अस्पताल से आने के अगले दिन मुनीश और सुरुचि दोनों आए थे. दोनों आते ही  रोहन के दादा, दादी को रोहन की इस हालत का जिम्मेदार ठहरा रहे थे.

मुनीश बोला, “आप लोगों ने रोहन की जिंदगी बरबाद कर दी है. आज वह शांतनु के सामने में आंखें उठा कर भी नहीं देख पा रहा था.”

सुरुचि बोली, “पता नहीं, इस एक गलती की सजा मुझे कब तक मिलती रहेगी?”

उधर रोहन के दादा, दादी के सब्र का बांध भी आज टूट गया था. रोहन के दादाजी चिल्लाते हुए बोले, “रोहन के कारण हम ने इस उम्र में भी अपने आराम की परवा नहीं की. और तुम लोग हमें ही जिम्मेदार  ठहरा रहे हो?”

रोहन अपने कमरे में बैठा सब सुन रहा था. उसे लग रहा था कि वह इस संसार में एकदम अकेला है.

रोहन अब यमुना से बोला, “यमुना, मुझ से और दर्द सहन नहीं होता, मुझे गुरुजी की भभूति चाहिए.”

यमुना ने धीरे से कहा, “उस के लिए 10 हज़ार रुपए चाहिए.”

रोहन दादाजी के कमरे में रखे उन के बटुए से पैसे निकाल कर ले आया.

बाहर उसे अपने मातापिता और दादादादी के लड़ने की आवाज़ आ रही थी.

रोहन इधरउधर समान पटकने लगा कि तभी उसे यमुना ने एक छोटी सी पुड़िया पकड़ाई और दबेपांव बाहर निकल गई थी.

रोहन को यमुना सदा एक चुटकी देती थी. मगर आज रोहन ने पूरी की पूरी पुड़िया गटक ली थी.

रोहन अब हर दर्द से आजाद था. रोहन को लग रहा था कि उसे मोक्ष की प्राप्ति मिल गई है.

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