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Romantic Story : अनुभव – परेश के साथ आखिर उस रात क्या हुआ

Romantic Story : पहाड़ियों पर कार सरपट भागी जा रही थी. ड्राइवर को शायद घर पहुंचने की ज्यादा जल्दी थी, वरना सांप जैसे टेढ़ेमेढ़े रास्तों पर इस तरह कौन खतरा मोल लेता है?

सूरज तेजी से डूबने वाला था. परेश का मन भी शायद सूरज की तरह ही बैठा हुआ था, लेकिन पहाड़ों की जिंदगी उसे बहुत सुकून देती आई थी. जब भी छुट्टी मिलती वह भागा चला जाता था.

परेश की जिंदगी बहुत अजीब थी. नाम, पैसा, शोहरत सब था लेकिन मन के अकेलेपन को दूर करने वाला साथी कोई नहीं था.

पहाड़ों पर सूरज छिपते ही अंधेरा तेजी से पसरने लगता है. जल्दी ही रात जैसा माहौल छाने लगता है. अचानक एक मोड़ पर जैसे ही कार तेजी से घूमी, परेश की नजर घाटी की एक चट्टान पर पड़ी. एक लड़की वहां खड़ी थी. इस मौसम में अकेली लड़की की यह हालत परेश को खटक गई.

उस ने ड्राइवर को कार रोकने को कहा. ड्राइवर ने फौरन कार रोक दी. ‘चर्र… चर्र…’ की तेज आवाज पहाड़ों के शांत माहौल को चीर गई.

ड्राइवर ने हैरानी से परेश की ओर देखा और पूछा, ‘‘क्या हुआ साहबजी?’’

परेश ने बिना कोई जवाब दिए कार का दरवाजा खोला और बिजली की रफ्तार से उस ओर भागा जहां वह लड़की खड़ी दिखी थी.

परेश ज्यों ही वहां पहुंचा लड़की ने नीचे छलांग लगा दी. लेकिन परेश ने गजब की फुरती दिखाते हुए उसे नीचे गिरने से पहले ही पकड़ लिया.

परेश ने फौरन उस लड़की को पीछे खींचा. वह पलटी तो परेश की ओर अजीब सी नजरों से देखने लगी.

‘‘क्या कर रही थी?’’ परेश ने उस लड़की का हाथ पकड़े हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं…’’ लड़की बोली.

‘‘कहां जाना है? इस वक्त सुनसान इलाके में इतनी खतरनाक जगह… क्या करना चाहती थी?’’ परेश ने फिर गुस्से से पूछा.

‘‘अरे, मैं तो सैरसपाटे के लिए… बस यों ही… पैर फिसल गया शायद…’’ कहते हुए लड़की ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

परेश उस लड़की को अपनी कार की ओर ले आया. लड़की ने कोई विरोध भी नहीं किया. ड्राइवर उस लड़की को शक भरी नजरों से घूरने लगा. परेश की पूछताछ अभी भी जारी थी. थोड़ी देर बाद वह लड़की अपने मन का गुबार निकालने लगी.

परेश यह जान कर हैरान हुआ कि वह घर से भागी हुई थी और किसी भी कीमत पर वापस लौटने को तैयार नहीं थी. उस के अशांत मन का गुस्सा साफ झलक रहा था.

‘‘अब कहां ठहरी हो आप?’’ परेश ने पूछा.

‘‘मैं… अरे, मुझे मरना है, जीना ही नहीं, इसलिए ठहरने की क्या बात आई?’’ इतना कह कर वह लड़की खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘यह क्या बात हुई. आप को पता है कि आप के मातापिता कितना परेशान होंगे…’’ परेश ने शांत लहजे में उसे समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ वह लड़की बेतकल्लुफ अंदाज से बोली.

‘‘मैं परेश… लेखक. यहां किताब पूरी करने आया हूं.’’

‘‘अच्छा, आप लेखक हैं? फिर तो मेरी कहानी भी जरूर लिखना… एक पागल लड़की, जिस ने किसी की खातिर खुद को मिटा दिया.’’

‘‘आप ऐसी बातें न करें. जिंदगी बेशकीमती है, इसे खत्म करने का हक किसी को नहीं,’’ परेश ने कहा.

‘‘मेरा नाम है गरिमा सिंह… एक हिम्मती लड़की जिसे कोई नहीं हरा सकता, पर नकार जरूर दिया.’’

‘‘आप ऐसा मत कहिए…’’ परेश अपनी बात पूरी करता उस से पहले ही गरिमा ने उस की बात काट दी, ‘‘आप मुझे यहीं उतार दीजिए…’’

‘‘मैं आप को अब कहीं नहीं जाने दूंगा. क्या आप मेरे साथ रहेंगी?’’

गरिमा ने पहले परेश की तरफ देखा, फिर अचकचा कर हंस पड़ी, ‘‘देख लीजिए, कोई नई कहानी न बन जाए?’’

परेश को शायद ऐसे सवाल की उम्मीद न थी. उस की सोच अचानक बदल गई. आखिर था तो वह भी मर्द ही. जोश को दबाते हुए वह बोला, ‘‘कोई नहीं जो कहानी बने, लेकिन अब अपने साथ और खिलवाड़ मत कीजिए.’’

‘‘मरने वाला कभी किसी चीज से डरा है क्या सर…?’’ इस बार गरिमा की आवाज में गंभीरता झलक रही थी.

अचानक ड्राइवर ने कार रोकी. दोनों ने सवालिया नजरों से उसे देखा. कार में कोई खराबी आ गई थी जिसे वह ठीक करने में जुटा था.

अब रात होने लगी थी. तभी ड्राइवर ने परेश को आवाज लगाई, ‘‘साहब, बाहर आइए.’’

परेश हैरानी से कार से बाहर निकला. ड्राइवर बोनट खोले इंजन को दुरुस्त करने में बिजी था. उस ने गरदन ऊपर उठाई और परेश के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘साहबजी, कार को कुछ नहीं हुआ है. आप को एक बात बतानी थी, इसलिए यह ड्रामा किया.’’

‘‘क्या?’’ परेश ने पूछा.

‘‘साहबजी, यह लड़की मुझे सही नहीं लग रही. आजकल पहाड़ों में… मुझे डर है कि कहीं आप के साथ कुछ गलत न हो जाए.’’

‘‘अरे, तुम चिंता मत करो… मैं सब समझता हूं.’’

‘‘ठीक है साहब, आप की जैसी मरजी,’’ ड्राइवर ने लाचारी से कहा.

‘‘अच्छा, हमें ऐसी जगह ले चलो जहां भीड़भाड़ न हो,’’ परेश ने कहा.

सीजन नहीं होने से भीड़भाड़ नहीं थी. शहर से थोड़ा दूर एक बढि़या लोकेशन पर उन्हें ठहरने की शानदार जगह मिल गई. ड्राइवर उन्हें होटल में छोड़ कर वापस चला गया.

कमरे में आते ही गरिमा का अल्हड़पन दिखने लगा था. अब ऐसा कुछ नहीं था जिस से लगे कि वह थोड़ी देर पहले जान देने जा रही थी.

रात के 9 बज रहे थे. डिनर आ गया था. गरिमा बाथरूम में थी. थोड़ी देर बाद परेश की ड्रैस पहन कर वह बाहर निकली तो एकदम तरोताजा लग रही थी. उस की खूबसूरती परेश को मदहोश करने लगी.

डिनर निबट गया. एक बैड पर लेटे दोनों उस मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे जिस की वजह से गरिमा इतनी परेशान थी.

गरिमा की कहानी बड़ी अजीब थी. कालेज के बाद उस ने जिस कंपनी में काम शुरू किया वहीं उस के बौस ने उसे प्यार के जाल में ऐसा फंसाया कि वह अभी तक उस भरम से बाहर नहीं निकल पा रही थी. अधेड़ उम्र का बौस उसे सब्जबाग दिखाता रहा और उस से खेलता रहा.

जब गरिमा के मम्मीपापा को इस बात की भनक लगी तो उन्होंने उसे बहुत समझाया. सख्ती भी की लेकिन एक बार तीर कमान से निकल जाए तो फिर उसे वापस कमान में लौटाना मुमकिन नहीं होता. कुछ परवरिश में भी कमी रही. न पापा को फुरसत और न मम्मी को.

गरिमा को पुलिस का डर नहीं था. वह पहले भी 4 बार ऐसा कर चुकी थी, इसलिए उस के मातापिता अब पुलिस में शिकायत करा कर अपनी फजीहत नहीं कराना चाहते थे.

गरिमा सो चुकी थी. परेश उस के बेहद करीब था. उस की सांसों की उठापटक एक अजीब सा नशा दे रही थी. आहिस्ता से उस का हाथ गरिमा की छाती पर चला गया. कोई विरोध नहीं हुआ. कुछ पल ऐसे ही बीत गए.

परेश कुछ और करता, उस से पहले ही गरिमा ने अचानक अपनी आंखें खोल दीं, ‘‘आप की क्या उम्र है सर?’’

‘‘यही कोई 40 साल…’’ परेश ने जवाब दिया.

‘‘गुड, मैच्योर्ड पर्सन… अच्छा, एक बात बताओ… मैं कैसी लग रही हूं?’’ मुसकराते हुए गरिमा ने पूछा.

‘‘बहुत ज्यादा खूबसूरत,’’ परेश ने जोश में कहा.

इस में कोई शक नहीं था कि गरिमा की अल्हड़ जवानी, मासूमियत से लबरेज खूबसूरती सच में बड़ी दिलकश लग रही थी.

‘‘सच में…?’’

‘‘सच में आप बहुत खूबसूरत हैं,’’ परेश ने अपनी बात दोहराई.

‘‘लेकिन मैं खूबसूरत ही होती तो वह मुझे क्यों छोड़ता… दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया उस ने…’’

‘‘प्लीज गरिमा, आप हकीकत को मान क्यों नहीं लेतीं? जो हुआ सही हुआ. पूरी जिंदगी पड़ी है आप की. वहां उस के साथ क्या फ्यूचर था, यह भी सोचो?’’

‘‘इतना आसान नहीं है सर, किसी को भुला देना. प्यार किया है मैं ने…’’

‘‘मान लिया लेकिन तुम में समझ ही होती तो क्या ऐसे प्यार को अपनाती?’’

‘‘सर, यह सही है कि हम में थोड़ा उम्र का फर्क था लेकिन उस के बीवीबच्चे थे, यह मुझे अब पता चला… धोखा किया उस ने मेरे साथ…’’

‘‘तो फिर तुम उसे अब क्यों याद कर रही हो? बुरा सपना बीत गया. अब तो वर्तमान में लौट आओ?’’

गरिमा ने कोई जवाब नहीं दिया. वह परेश के बहुत करीब लेटी थी. सच तो यह था कि परेश अब बहुत दुविधा में था.

गरिमा का हाथ परेश की छाती पर था. उस का इस तरह लिपटना उसे असहज कर रहा था. उस के अंदर शांत पड़ा मर्द जागने लगा. गरिमा के मासूम चेहरे पर कोई भाव नहीं थे.

‘‘क्या तुम्हें मुझ से डर नहीं लगता?’’ परेश ने पूछा.

‘‘नहीं, मुझे आप पर भरोसा है,’’ गरिमा ने शांत आवाज में जवाब दिया.

‘‘क्यों… मैं भी मर्द हूं… फिर?’’ परेश ने पूछा.

‘‘कोई नहीं सर… अब मैं इनसान और जानवर में फर्क करना सीख गई हूं.’’

गरिमा के जवाब से परेश को ग्लानि महसूस हुई. वह फौरन संभल गया. गरिमा क्या सोचेगी… हद है मर्द कितना नीचे गिर सकता है? परेश का मन उसे कचोटने लगा.

लेकिन गरिमा का अलसाया बदन परेश में भूचाल ला रहा था. गरिमा का खुलापन अजीब राज बन रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था कि इस इम्तिहान में कैसे पास हो…

गरिमा अब भी उस से लिपटी हुई थी. उस की आंखों में नींद की खुमारी झलक रही थी.

परेश सोच रहा था कि गरिमा का ऐसा बरताव उस के लिए न्योता था या अपनेपन में खोजता विश्वास…

परेश की दुविधा ज्यादा देर नहीं चली. उस की हालत को समझ कर गरिमा बोली, ‘‘अगर आप इस समय मुझ से कुछ चाहते हैं तो मैं इनकार नहीं करूंगी… आप की मैं इज्जत करती हूं… आप ने मुझे आज नई जिंदगी दी है.’’

‘‘अरे नहीं, प्लीज… ऐसा कुछ भी नहीं… तुम दोस्त बन गई हो… बस यही बड़ा गिफ्ट है मेरे लिए,’’ सकपकाए परेश ने जवाब दिया.

‘‘उम्र में छोटी हूं सर लेकिन एक बात कहूंगी… शरीर का मिलन इनसान को दूर करता है और मन का मिलन हमेशा नजदीक, इसलिए फैसला आप पर है…’’

परेश को महसूस हुआ, सच में समझ उम्र की मुहताज नहीं होती. छोटे भी बड़ी बात कह और समझ सकते हैं. 2 दिन सैरसपाटे में बीत गए. परेश की किताब का काम शुरू ही न हो पाया, लेकिन गरिमा अब बिलकुल ठीक थी. वह वापस अपने घर लौटने को राजी हो गई थी.

परेश ने फोन नंबर ले कर उस के पापा से बात की. घर से गुम हुई जवान लड़की की खबर पा कर गरिमा के मम्मीपापा ने सुकून की सांस ली.

परेश और गरिमा अब दोस्त बन गए थे. पक्के दोस्त, जिन में उम्र का फर्क  तो था लेकिन आपसी समझ कहीं ज्यादा थी. परेश की मेहनत रंग लाई और गरिमा अपने घर वापस लौट गई. कुछ दिन बाद उस की शादी भी हो गई. अब वह अपनी गृहस्थी में खुश थी.

परेश के लिए यह सुकून की बात थी. अकसर उस का फोन आ जाता, वही बिंदास, अल्हड़पन लेकिन अब सच में उस ने जिंदगी जीनी सीख ली थी. दिखावा नहीं बल्कि औरत की सच्ची गरिमा का अहसास और जिम्मेदारी उस में आ गई थी.

परेश सोचता था कि गरिमा को उस ने जीना सिखाया या गरिमा ने उसे? लेकिन यह सच था कि गरिमा जैसी अनोखी दोस्त परेश को औरत के मन की गहराइयों का अहसास करा गई.

Online Hindi Story : पतरसुटकी – समाज के दोगलेपन को दर्शाती कहानी

Online Hindi Story : 6 फुट 2 इंच का कद, ऊंचा माथा, सांवला रंग, इतालवी मुखकृति, तिरछी मुसकराहट, नए स्टाइल का चश्मा, कनपुरिया टशन और बातों में विनोदभाव आदि सबकुछ तो है सक्सेनाजी के पास जो महिलाओं को उन से निकटता बढ़ाने को मजबूर कर देता है. उम्र भले ही 50 वर्ष के करीब हो पर कदकाठी से अभी 10 साल कम ही लगते हैं और चेहरा भले ही हिंदी फिल्मों के नायक जैसा न हो पर उस में बसी सचाई सब को यह बता देती है कि सक्सेनाजी किसी का बुरा नहीं चाहते हैं.

आजकल सक्सेनाजी नौकरी में स्थानांतरण के चलते धामपुर में रहने लगे हैं. भई, धामपुर ठहरा एक छोटा सा कसबा और जैसा कि छोटे कसबों में होता है, यहां की जिंदगी भी बड़ी सरल है. जल्दी सुबह लोगों का जग जाना, पुरुषों का अपनी आजीविका में जुट जाना, शाम सूरज की तपिश कम होते ही महल्ले की महिलाओं का अपनी छत पर आ कर पड़ोसिनों से खाने में क्या बनाया के साथसाथ पूरे महल्ले की खबरें चटकारों के साथ साथ करना और आखिरकार रात के 9 बजते ही सड़क पर सन्नाटा हो जाना, बस यही जिंदगी है धामपुर की.

सक्सेनाजी तो बोरियत में समय काट रहे थे, वह तो भला हो धर्मपत्नीजी का जो साथ रहने और गृहस्थी सैट करने धामपुर आ गईं. तब जा कर धर्मपत्नी के माध्यम से सक्सेनाजी को पता चला कि सामने के मकान वाली घर में बिना काम के बोर होती रहती हैं और पीछे वाले घर की जो 2 चचेरी नवयौवना बहनें हैं, एकदम बिलरिया माफिक हैं और जब तक सड़क के चार चक्कर न मार लें, उन का खाना नहीं पचता है और मिसेज वर्मा थोड़ी सी दिलफेंक हैं वगैरहवगैरह. मकान मालकिन ने आते ही घर में लगे आम के पेड़ से एक डलिया आम दिए और साथसाथ यह भी बता दिया कि सामने किराने की दुकान वाली का पंडित से और बगल में ढेर सारे कुत्ते पालने वाली शुक्लाइन का अपने किराएदार से चक्कर चल रहा है. सक्सेनाजी तो भौचक रह गए कि कैसे इतना छोटा कसबा इतना जीवंत हो सकता है और फिर चेहरे पर उन के एक मुसकान तैर गई.

अब वैवाहिक जीवन के इतने वर्षों बाद उन्हें यह समझ आ पाया कि आप ने भले ही देशदुनिया की तमाम खबरें याद कर के प्रतियोगी परीक्षाएं पास कर ली हों पर ये धर्मपत्नियां ही हैं जो महल्ले की सूचनाओं से पुरुषों को अपडेट रख सकती हैं. सक्सेनाजी को मुसकराते हुए देख धर्मपत्नीजी ने अपनी बड़ीबड़ी गोल आंखों को नचा कर नसीहत दी कि, ‘‘अपने काम से काम रखना और महल्ले की लड़कियों व भाभियों से दूर ही रहना वरना तिल का ताड़ बनते यहां देर नहीं लगेगी. वैसे भी, मिसेज वर्मा आप को बड़े स्टाइल से देखती हैं और मुझ ही से कह रही थीं कि अच्छा हुआ आप आ गईं वरना भाईसाहब को तो बहुत बोरियत होती होगी जैसे बोरियत मिटाने को वे ही उत्सुक हों.’’

धर्मपत्नी के आने से अब सक्सेनाजी की जिंदगी भी आसान हो गई. होटलों के खाने से मुक्ति मिल कर घर का भोजन मिलने लगा उन्हें और शाम को पत्नी से अपने पैर दबवातेदबवाते, टैलीविजन देखते हुए सोने का सुख. धामपुर जैसे छोटे कसबे में इस से बढ़ कर जिंदगी और कितनी आसान हो सकती थी कि सुबह उठने के बाद बालकनी में बैठ अपने जीवनसाथी के साथ कड़क चाय की चुस्कियां लेने का समय मिल जाए.
बालकनी के सामने सड़क पार गन्ना समिति का कार्यालय है जो पेड़पौधों से भरपूर होने की वजह से आंखों को प्रकृति का महत्त्व समझते हुए एक अलग ही सुकून देता है. एक मिनी जंगल ही कह लीजिए, इतने पेड़ हैं यहां और इन पेड़ों पर पक्षियों की चहचहाहट, कोयल की कूक, तितलियों की मटरगश्ती, चील के एक परिवार की गुंडागर्दी करती आवाजें सबकुछ तो था यहां जो प्रकृति से आप को जोड़ कर रख सकता है.

अजी साहब, कानपुर में तो यह सब देखने के लिए टिकट ले कर चिडि़याघर ही जाना पड़ जाता पर प्रकृति से इतना जुड़ाव महसूस तब भी नहीं हो पाता. उस के ऊपर सुबह की चाय के समय बालकनी में बैठ कर महल्ले वालों से नमस्कार भी हो जाता है. कुछ लोग तो सुबह के रैगुलर ही हैं जैसे सामने वाली मोना की मम्मी, परचून वाले ताऊ, दूध वाला बनवारी और कूड़ा बिनने वाली एक हड्डी की मैलाकुचैला कपड़ा पहने एक अनाम किशोरी जिस को सक्सेनाजी की धर्मपत्नी ने पतरसुटकी नाम दिया है. कानपुर में रह कर तो रविवार को बालकनी में साथ बैठ चाय ही पी लें, यह भी कम ही संभव हो पाता था.

बहरहाल सक्सेनाजी की गृहस्थी सज गई और धर्मपत्नी का धामपुर प्रवास समाप्त होने का समय आ गया. सरकारी विद्यालय में धर्मपत्नीजी प्रधानाचार्या हैं, अवकाश खत्म हो गया तो विरह की बेला भी आ गई. ट्रेन में बैठ कर धर्मपत्नीजी की आंखों की कोर गीली हो चली थीं, सक्सेनाजी का भी गला रूंधा था और वे ट्रेन की चाल के साथ यथासंभव पदचाल कर, रेंगती ट्रेन में बैठी पत्नी को जाता हुआ देख विदा कर घर वापस पहुंच गए. घर में अब फिर से एक बार सन्नाटा पसर चुका है और पायलों की रुनझुन गायब है. शादी के बाद से यह पहला मौका है जब अपनी धर्मपत्नी से सक्सेनाजी को दूर रहना पड़ रहा है तो जनाब दुख तो बनता है. एक बार फिर से शाम अकेली और सुबह आलसी हो चली है.

हां, सुबह बालकनी में बैठ कर चाय की चुस्कियां लेते हुए नाश्ता करने की ऐसी आदत पड़ी है कि यही एक काम ऐसा बचा है जिस को सक्सेनाजी अभी भी तत्परता से करते हैं. भला हो व्हाट्सऐप का कि चाय के साथ वीडियोकौल चल रही होती है और दूसरी तरफ धर्मपत्नीजी फोन पर मुसकराते हुए गुडमौर्निंग कर लेती हैं. अंडे उबालते हैं सक्सेनाजी नाश्ते में ब्रैड के साथ खाने के लिए तो धर्मपत्नीजी हर बार याद दिलाती हैं कि अंडे की सिर्फ सफेदी खानी है, बीच का पीला हिस्सा नहीं वरना कोलैस्ट्रौल की शिकायत जो थोड़ीथोड़ी शुरू हो चुकी है, घर जमा लेगी शरीर में.

सक्सेनाजी स्वयं भी स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं, सो अंडे में से पीला हिस्सा निकाल कर प्रोटीन वाला सफेद हिस्सा ही नमक व पिसी कालीमिर्च डाल कर खाते हैं और साथ में नीचे गली से गुजरने वाले लोगों से नमस्कार भी होता रहता है. गली के कुत्ते शुक्र मनाते हैं मुए कोलैस्ट्रौल का कि अब उन को रोज ही अंडे का पीला हिस्सा मिलता है खाने को और वह भी उबला हुआ.

वहीं, कूड़ा बीनने वाली किशोरी पतरसुटकी अपनी दुर्बल काया पर कूड़े की एक बड़ी सी गठरी लिए कूड़ा बीनती है और रोज की तरह कूड़ा बीनने के बाद ताऊ की दुकान से 5 रुपए वाला एक बन खरीद कमर में खोंस लेती है. फिर फुटपाथ पर गठरी रख सुस्ताते हुए बन खा कर सड़क के हैंडपंप से पानी पीती और अपनी राह चल देती. पता नहीं गली के कुत्तों को इन कूड़ा बीनने वालियों से क्या दुश्मनी होती है कि उन को देखते ही ये ऐसे भूंकने लगते हैं जैसे पिछले सात जन्मों की दुश्मनी हो. एकबारगी अपने जानी दुश्मन बिल्लियों को ये माफ कर दें पर बंदरों और कूड़ा बीनने वालों को तो गली के बाहर पहुंचा कर ही ये दम लेते हैं. इसलिए जब तक ये कुत्ते अंडे का पीला हिस्सा खाने के लालच में मुंह उठा कर सक्सेनाजी को घूरते रहने में व्यस्त रहते हैं, कूड़ा बीनने वाली पतरसुटकी शांति से गली पार कर लेती है. बस, अब यही रूटीन बचा है सक्सेनाजी की सुबह का.

आज लेकिन एक अचंभे वाली बात हो गई, बालकनी पर सक्सेनाजी अंडे का नाश्ता कर रहे हैं, परचून वाले ताऊ ने अपनी दुकान खोल ली है, बनवारी साइकिल में दूध के पीपे बांध दूध देने आ गया है, पतरसुटकी कूड़ा बीन रही है पर रोज समय के पाबंद कुत्ते आज गली में कहीं नहीं दिख रहे हैं. लगता है आज उन को अंडे के पीले हिस्से से ज्यादा लजीज नाश्ता कहीं मिल गया है. सक्सेनाजी को अंडे के पीले हिस्से को देख बुरा लग रहा है कि आज ये बेकार ही जाएंगे, इस से तो कुत्ते आ जाते तो कम से कम किसी के पेट में जाते. यह सोचतेसोचते सक्सेनाजी सीढि़यों से नीचे उतरे और अंडों के पीले हिस्से को एक दोने में गेट के बाहर रख आए ताकि जब भी कुत्ते आएं उन को पीले हिस्से खाने को मिल जाएं.

वापस बालकनी में पहुंचे ही थे कि देखा, पतरसुटकी ने आ कर पीतक को बन के बीच में लगा कर बर्गर बनाया और खाने लगी. उस की मिचमिची सी आंखों में सादे बन की जगह अंडे वाला बर्गर खाने की खुशी साफ दिख रही थी.

सक्सेनाजी ने पतरसुटकी से कहा, ‘‘क्यों री, तू तो देखती ही होगी कि मै अंडे का पीला हिस्सा नहीं खाता हूं, तू ने कभी अपने लिए क्यों नहीं मांगा? जानवर के पेट में तो जाने से अच्छा है कि वह तुम्हें मिल जाता.’’

पतरसुटकी ने सकुचाते हुए बताया, ‘‘मुझे कुत्तों से डर लगता है और मांगने में शर्म आती है, इसलिए कभी कहने की हिम्मत नहीं हुई.’’
‘‘कोई बात नहीं, अब तुम कल से जीने में आ कर मुझ से अंडा ले लिया करना, कुत्ते परेशान नहीं करेंगे,’’ यह कह कर सक्सेनाजी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए और पतरसुटकी भी अपने रास्ते पर बढ़ गई.

तो अब अगले दिन से रूटीन बदल गया. सक्सेनाजी पतरसुटकी के ‘साहब’ आवाज लगाते ही जीने पर आते और अंडे का पीला हिस्सा अब कुत्तों की जगह पतरसुटकी को मिलने लगा. सक्सेनाजी रात का बचा भोजन भी अब पतरसुटकी को ही देने लगे. एक सुकून अब उन के दिल में था कि चलो अन्न बरबाद नहीं हो रहा है. अब किसी इंसान का भला हो जाएगा. ऐसे तो अन्न खराब नहीं होता, किसी न किसी का ग्रास बनता ही है, फिर चाहे वह मनुष्य हो या कोई सूक्ष्म जीव लेकिन किसी इंसान के पेट में चला जाए तो अन्न उगाने वाले किसान की मेहनत सफल रहती है.

जैसे सूखी धरती पर बारिश का पानी पड़ते ही मिट्टी के नीचे दबे बीजों में कोंपलें फूट पड़ती हैं वैसे ही पतरसुटकी के कुपोषित शरीर में अंडा और भोजन जाते ही निखार आने लगा था. मिचमिचाई सी आंखें सक्सेनाजी के प्रति कृतज्ञता के भाव में अब बड़ी दिखने लगी थीं और पिचके हुए गाल अब फूलने लगे थे. चेहरे पर भरे हुए पेट का सुकून झलकने लगा था.

जैसा कि धामपुर जैसे छोटे कसबों में होता है, यह खबर भी बाकी अन्य खबरों की तरह महल्ले में फैल गई. समय बीता तो धीरेधीरे तिल का ताड़ और राई का पहाड़ भी बनने लगा. अब महल्ले में बात यह नहीं हो रही थी कि कुत्तों की जगह पतरसुटकी को अंडा मिलता है बल्कि चर्चा का केंद्र इस बात पर था कि पतरसुटकी अंडा लेने जाते समय जीने में कितनी देर रुकती है, सक्सेनाजी और उस के बीच इतनी देर में क्याक्या होता और हो पाता होगा. और सब से बड़ी बात यह कि सक्सेनाजी का इस दरियादिली के पीछे का छिपा वाला मकसद क्या हो सकता है.

मिसेज वर्मा ने महल्ले में अपने गुप्त सूत्रों के माध्यम से पता कर के बताया कि शरीफों के इस महल्ले में बाहर से आने वाले सक्सेनाजी जरूर पत्नी न होने के चलते चक्कर चलाने की कोशिश कर रहे हैं. ‘‘पता नहीं इस कूड़ा बीनने वाली में क्या है जो सक्सेनाजी इस के पीछे पड़े हैं,’’ मिसेज वर्मा द्वारा बालों को पीछे करते हुए महल्ले की महिलाओं से प्रश्न दागा गया.

उत्तर में परचून वाले ताऊ की ताई ने मुंह से पल्लू निकाल कर अपने अनुभवों का निचोड़ सांझ किया कि, ‘‘मर्द होते ही ऐसे हैं, इन के जब आग लगती है तो ये शक्ल और उम्र नहीं देखते.’’

मौका देख शुक्लाइन ने अपने पशुप्रेम को जाहिर किया कि ‘‘इस से तो कुत्तों को ही अंडा मिल जाता, इंसान तो अपनी खुराक का इंतजाम कहीं न कहीं से कर ही लेता है पर बेजबान क्या करे.’’

‘‘हायहाय अब तो इस महल्ले में शरीफों का सांस लेना दूभर हो जाएगा,’’ एक आंख दबा कर मिसेज वर्मा ने जो यह कहा तो बाकी औरतें हंस पड़ीं.

ऐसे तो कोई बात नहीं थी पर सक्सेनाजी की मकान मालकिन को यह चुभ गई, आखिरकार सक्सेनाजी रहते तो उन्हीं के मकान में हैं. वह कहते हैं न कि बात फैली है तो दूर तलक जाएगी तो साहब यह बात भी दूर तक चलतेचलते मोबाइल के माध्यम से सक्सेनाजी की श्रीमती तक पहुंच ही गई. मकान मालकिन ने श्रीमती सक्सेना की शुभचिंतक होने के नाते महल्ले की बातों को हमराज किया और सलाह दी कि पतियों को टाइट रखने की जरूरत होती है. फिर क्या था, ट्रिंगट्रिंगट्रिंग आखिरकार सक्सेनाजी के फोन की घंटी बज ही गई.

‘‘समझया था न कि महल्ले की लड़कियों से दूर रहो. परोपकार करना था तो क्या वही पतरसुटकी मिली आप को. अब देखो, पीठपीछे क्याक्या बातें चल रही हैं महल्ले में. मैं आप को जानती हूं तो मुझे आप पर विश्वास है पर वह कहते हैं न कि बद अच्छा और बदनाम बुरा तो मुफ्त की बदनामी मोल क्यों ले रहे हो?’’ श्रीमतीजी का पारा सातवें आसमान पर था और बिना सांस लिए धाराप्रवाह में उन्होंने सक्सेनाजी को फोन पर ही अच्छे से दुनियादारी की हकीकत समझ दी.

सक्सेनाजी अपनी सफाई में सिर्फ इतना बोल पाए, ‘‘मैं तो पतरसुटकी का असली नाम तक नहीं जानता, बाकी तो बहुत दूर की बातें हैं.’’ लेकिन श्रीमतीजी की बात में भी दम था, ‘आखिर जहां रहना है वहां के मिजाज से ही रहना चाहिए’ जो बात सक्सेनाजी के दिल में तो न घुसी पर दिमाग में उस ने घर बना लिया.

अगले दिन ही सक्सेनाजी ने जीने में पूरी बात सम?ाते हुए पतरसुटकी से बड़ी झिझक के साथ अपनी मजबूरी को साझ किया. पतरसुटकी बदन से भले कमजोर थी पर दिमाग की सही थी, रोज कूड़ा बीनने के बाद भी दिमाग में कूड़ा नहीं भरा था उस के. बात का सार समझ गई और भरी आंखों से उस के मुंह से बस यह निकला कि, ‘‘कोई बात नहीं.’’

अचानक उस ने आगे बढ़ कर सक्सेनाजी के पैर छू लिए और अब सक्सेनाजी भी भरी आंखों से सिर्फ इतना कह पाए कि ‘‘खुश रहो.’’

शायद कलियुग में निस्वार्थ अबोध रिश्तों का अंजाम भरी आंखों पर ही होता है. बहरहाल, महल्ले में शराफत फिर से जिंदा हो गई है, कुत्तों को भरपेट भोजन मिलने लगा है और बहूबेटियां भी अब खुल कर सांस ले पा रही हैं. ताऊ दुकान खोल चुके हैं, मोना घर के बाहर झाड़ू लगा रही है, दूधवाला आ चुका है, पतरसुटकी आज भी 5 रुपए वाला बन कमर में खोंसे कूड़ा बिन रही है. बस, सक्सेनाजी अब छज्जे पर बैठ कर नाश्ता नहीं कर पा रहे हैं. पतरसुट्की, जिस का सही नाम उन को आज भी नहीं पता, से निगाह मिलने का डर जो है कि कैसे किसी कुपोषित इंसान के सामने अंडे की सफेदी का नाश्ता कर पाने की विलासिता को वे जी पाएंगे.

लेखिका – एकता सक्सेना

Hindi Kahani : तुम बिन जीया जाए कैसे – क्या अमन और अपर्णा फिर से एक हो सके

Hindi Kahani : जबसे अपर्णा अमन से लड़झगड़ कर अपने मायके चली गई थी तब से अमन खुद को दुनिया का सब से खुशहाल इनसान समझने लगा था. अब घर में न तो उसे कोई कुछ कहने वाला था और न ही हुक्म चलाने वाला. औफिस से आते ही आराम से सोफे पर पसर जाता. फिर कुछ देर बाद कपड़े उतार कर दरवाजे या डाइनिंग टेबल की कुरसी पर ही टांग देता. जूतों को भी उन के स्टैंड पर न रख कर डाइनिंग टेबल के नीचे सरका देता. खाना बनाने की तो कोई फिक्र ही नहीं थी. सुबह दूधब्रैड खा कर औफिस चला जाता और दोपहर का खाना औफिस की कैंटीन में खा लेता. रात के खाने की भी कोई चिंता नहीं थी. कभी बाहर से मंगवा लेता तो कभी एकाध दोस्त को भी अपने घर बुला लेता अथवा कभी किसी दोस्त के घर जा कर खा लेता था.

हमेशा की तरह आज अमन ने अपने दोस्त प्रेम को फोन कर के अपने घर बुलाया ताकि आराम से गप्पे मार सके. अपर्णा के जाने के बाद अमन की दिनचर्या कुछ ऐसी ही हो चुकी थी. बड़ा मजा आ रहा था उसे अपने मनमुताबिक जीने में. अपर्णा के रहते तो रोज किसी न किसी बात को ले कर घर में कलह होती रहती थी. मजाल जो अमन टीवी का रिमोट छू ले, क्योंकि अमन के औफिस से घर आने के समय अपर्णा का मनपसंद धारावाहिक चल रहा होता था. चिढ़ उठता था वह. उसे लगता जैसे यह घर सिर्फ अपर्णा का ही है और अपर्णा इस बात से चिढ़ उठती कि आते ही अमन अपने जूतेकपड़े खोल कर यहांवहां फैला देता.

‘‘यह क्या है अमन… देखो, तुम ने अपने कपड़े कहां लटका रखे हैं… तुम से कितनी बार कहा है कि इस तरह कपड़े, जूते यहांवहां न रखा करो. पर तुम्हें समझाने का कोई फायदा नहीं,’’ कह अपर्णा ने अमन के जूते उठा कर जूता स्टैंड पर दे मारे.

‘‘अच्छा ठीक है कल से याद रखूंगा,’’ अमन अजीब सा मुंह बनाते हुए बोला.

‘‘तुम कभी याद नहीं रखोगे, क्योंकि तुम्हारी आदत बन चुकी है यह. अरे, कपड़े हैंगर में लगा कर रख दोगे तो क्या बिगड़ जाएगा… मोजे भी कभी दोनों नहीं मिलते… तंग आ गई हूं मैं तुम से… बीवी नहीं एक नौकरानी बना कर रख छोड़ा है तुम ने मुझे,’’ बड़बड़ाते हुए अपर्णा किचन में चली गई.

‘‘तो मैं क्या तुम्हारा नौकर हूं जो दिनरात तुम्हारी सुखसुविधा के लिए खटता हूं? अरे, मैं भी तो थक जाता हूं औफिस में… आ कर इसीलिए थोड़ा सुस्ताने लगता हूं. तुम्हारी तरह घर में आराम नहीं फरमाता हूं, समझी?’’ अमन भी गुस्से से बोला.

अपर्णा चाय के कप को लगभग टेबल पर पटकते हुए बोली, ‘‘क्या कहा तुम ने मैं घर में आराम फरमाती हूं? घर का काम क्या कोई और कर जाता है? तुम मर्दों को तो हमेशा यही लगता है कि औरतें घर में या तो टीवी देखती रहती हैं या फिर आराम. कभी एक रूमाल भी धोया है खुद? बस और्डर किया और सब हाजिर मिल जाता है… कितना भी खटो पर कोई कद्र नहीं है हमारी,’’ अपर्णा बोली.

अमन भी चुप रहने वाला नहीं था. बोला, ‘‘तो क्या घरबाहर सब मैं ही करूं? पता नहीं अपनेआप को क्या समझती है… जब देखो हुक्म चलाती रहती है. औफिस में बौस की सुनो और घर में बीवी की. सोचता हूं घर में चैन मिलेगा, पर वह भी मेरे हिस्से में नहीं है… इस से तो अच्छा है घर ही न आया करूं.’’

यह इन का रोज का झगड़ा था. प्रेम विवाह किया था दोनों ने. जीवन भर साथ जीनेमरने का वादा किया था. पर प्रेम तो कहीं दिख ही नहीं रहा था. बस विवाह किसी तरह निभ रहा था.

इन का झगड़ा पासपड़ोस में चर्चा का विषय बन चुका था. हां, अमन था भी बेफिक्र इनसान. अपनी मस्ती में जीने वाला और उस की इसी बेफिक्री पर तो मरमिटी थी अपर्णा. तो आज क्यों उसे अमन की इस आदत से नफरत होने लगी? वैसे भी इनसान में सारी अच्छाइयां नहीं हो सकतीं न? अपर्णा को भी तो समझना चाहिए कि आखिर किस के लिए वह इतनी मेहनत करता… अपने परिवार के लिए ही न? क्या कभी किसी बात की कमी होने दी उस ने अपर्णा को? बस जबान से निकली नहीं और खरीद लाता… कभीकभी तो वह इस बात के लिए भी अमन से झगड़ पड़ती थी कि क्या जरूरत थी इतने पैसे खर्च करने की? तब अमन कहता कि कमाता किस के लिए हूं, तुम्हीं सब के लिए ही न?

मगर अपर्णा को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था. जराजरा सी बात पर चिड़चिड़ा उठती थी. बेचारा अमन औफिस से थकाहारा यह सोच कर घर आता कि थोड़ा रिलैक्स करेगा पर सब बेकार. अपर्णा के तानाशाह व्यवहार के कारण उसे लगने लगा था कि या तो अपर्णा कहीं चली जाए या फिर वह खुद अपर्णा से दूर हो जाए. वह हमेशा उस वक्त को कोसता रहता था जब उस ने अपर्णा से शादी करने का फैसला किया था.

तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उसे लगा जैसे किसी अंधेरी गली से बाहर निकल आया हो.

‘‘आओआओ प्रेम, बड़ी देर लगा दी?’’ अमन ने कहा.

घर के अंदर कदम रखते ही प्रेम ने एक नजर अमन के पूरे घर पर दौड़ाई और फिर बोला, ‘‘सच में अमन तुम्हारा घर, घर नहीं कबाड़खाना लग रहा… क्या यार कैसे रह लेते हो इस घर में? छोड़ो गुस्सावुस्सा और जाओ जा कर भाभी और संजू को ले आओ… भाभी के लिए न सही पर संजू के लिए ही अपना गुस्सा थूक दो.’’

‘अकेले हैं तो क्या गम है…’ गाना गाते हुए अमन हंस पड़ा. फिर कहने लगा, ‘‘हां, सही कह रहा है तू… संजू के बिना मन कभीकभी बेचैन हो उठता है, पर अपर्णा… पागल हो गया है क्या? भले ही घर कबाड़खाना लगे पर मेरे मन को कितना सुकून मिल रहा है यह तू क्या जाने… बहुत घमंड था उसे कि उस के बिना मैं 1 दिन भी नहीं रह पाऊंगा… अरे जरा उसे भी तो पता चले कि उस के बिना भी मैं अच्छी तरह जी सकता हूं. चल, छोड़ ये सब… बता तेरा कैसा चल रहा है?’’

प्रेम बोला, ‘‘मैं तो ठीक हूं पर तू कितनी अच्छी तरह जी रहा है वह मैं देख रहा हूं. पतिपत्नी में नोकझोंक चलती रहती है. इस का यह मतलब थोड़े न है कि दोनों अपनेअपने रास्ते बदल लें. अब भी कहता हूं जा कर भाभी को ले आओ.’’

थोड़ी देर बैठने के बाद प्रेम यह कह कर वहां से चला गया कि उस की पत्नी उस का इंतजार कर रही होगी.

रात को अमन को नींद नहीं आ रही थी. वह सोच रहा था कि क्या उस ने अपर्णा को मायके जाने को मजबूर किया या वह खुद अपनी मरजी से गई? और संजू, वह बेचारा क्यों पिस रहा है उन के बीच? उस का कभी मन होता कि जा कर अपर्णा को मना कर ले आए, फिर मन कहता नहीं बिलकुल नहीं, खुद गई है तो खुद ही वापस आएगी. उसे फिर अपर्णा की जलीकटी बातें याद आने लगीं…

‘‘जब तुम्हारे औफिस में मीटिंग थी और डिनर भी वहीं था तो मुझे बताया क्यों नहीं? कब से भूखीप्यासी तुम्हारे इंतजार में बैठी हूं… और अभी आ कर बोल रहे हो कि खा कर आया हूं. आखिर समझते क्या हो अपनेआप को? क्या तुम मालिक हो और मैं तुम्हारी नौकरानी?’’

अमन के औफिस से आते ही चिल्लाते हुए अपर्णा ने कहा.

‘‘ऐसी बात नहीं है अपर्णा, मुझे तो पता भी नहीं था कि आज औफिस में डिनर का भी प्रोग्राम है. जब मुझे पता चला तो मैं तुम्हें फोन करने ही जा रहा था, पर नमनजी मुझे खींच कर खाने के लिए ले गए और फिर मेरे दिमाग से बात निकल गई,’’ अमन ने सफाई देते हुए कहा.

मगर अपर्णा कहां सुनने वाली थी. कहने लगी, ‘‘नहीं अमन, बात वह नहीं है. बात यह है कि तुम कमा कर लाते हो न इसलिए अपनी मन की करते हो… जानबूझ कर मुझे सताते हो… जानते हो जाएगी कहां?’’

‘‘अरे, मैं कह रहा हूं न कि मुझे पता नहीं था कि वहां डिनर का भी प्रोग्राम है. कब से दिमाग खराब किए जा रही हो… जाओ जो समझना है समझो,’’ अमन ने खीजते हुए कहा.

‘‘इस में समझना और समझाना क्या है? देखना, एक दिन मैं तुम्हें और इस घर को छोड़ कर चली जाऊंगी. तब तुम्हें पता चलेगा… तुम यह न समझना कि मेरा कोई ठिकाना नहीं है… क्योंकि अभी भी मेरा मायका है जहां मैं जब चाहूं जा कर रह सकती हूं,’’ अपर्णा गुस्से से बोली.

आखिर सहन करने की भी एक सीमा होती है. अब अमन का गुस्सा 7वें आसमान पर पहुंच चुका था. अत: बोला, ‘‘जाओ, मैं भी तो देखूं, मेरे अलावा कौन तुम्हारे नखरे उठाता है… मेरी भी जान छूटेगी… तंग आ गया हूं मैं तुम्हारे रोजरोज के झगड़ों से.’’

अपर्णा यह सुन कर अवाक रह गई, ‘‘क्या कहा तुम ने जान छूटेगी तुम्हारी मुझ से? तो फिर ठीक है, मैं कल ही जा रही हूं अपनी मां के घर और तब तक नहीं आऊंगी जब तक तुम खुद लेने नहीं आओगे.’’

‘‘मैं लेने आऊंगा, भूल जाओ… खुद ही जा रही हो तो खुद ही आना… न आना हो तो मत आना,’’ अमन ने दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘क्या तुम मुझे चैलेंज कर रहे हो?’’

‘‘यही समझ लो.’’

‘‘तो फिर ठीक है, अब मैं इस घर में तभी पांव रखूंगी जब तुम मुझे लेने आओगे,’’ कह वह दूसरी तरफ मुंह कर सो गई. पूरी रात दोनों दूसरी तरफ मुंह किए सोए रहे. सुबह भी दोनों ने एकदूसरे से बात नहीं की. अमन के औफिस जाते वक्त अपर्णा ने सिर्फ इतना कहा कि घर की दूसरी चाबी लेते जाना.

आज अपर्णा और संजू को गए 2 महीने हो चुके थे पर न तो अपर्णा की आने की कोई उम्मीद दिख रही थी और न ही अमन की उसे बुलाने की… पर तड़प दोनों रहे थे. और बेचारा संजू… उसे किस गलती की सजा मिल रही थी…

शाम को औफिस से आते ही अमन ने हमेशा की तरह अपने दोस्त को फोन लगाया, ‘‘हैलो विकास, क्या कर रहा है यार? अगर फुरसत हो तो आ जा… बाहर से ही कुछ खाना और्डर कर देंगे.’’

‘‘ठीक है, देखता हूं,’’ विकास बोला.

विकास ने भी आते ही यही बात दोहराई कि अपर्णा के न रहने से उस का घर घर नहीं लग रहा है.

थोड़ी देर बैठने के बाद वह भी जाने लगा तो अमन बोला, ‘‘अरे बैठ न यार… क्या जल्दी है… मैं ने पिज्जा और्डर किया है खा कर जाना.’’

तो विकास कहने लगा, ‘‘नहीं रुक पाऊंगा यार… तुम्हें तो पता है मेरी बेटी मेरे बगैर सोती नहीं है और पिज्जा तो मैं खाता ही नहीं हूं… चल गुडनाइट,’’ कह वह चला गया.

‘यही सब दोस्त, कभी घंटों मेरे घर में गुजार देते थे और आज एक पल भी रुकना इन्हें भारी पड़ने लगा है,’ किसी तरह पिज्जे का 1 टुकड़ा अपने मुंह में डाला, पर खाया नहीं गया. कितने प्यार से उस ने पिज्जा और्डर किया था पर अब खाने का मन नहीं कर रहा था. तभी उसे याद आ गया कि कैसे संजू पिज्जा खाने के लिए बेचैन हो उठता था.

बड़ी मुश्किल से देर रात गए अमन को नींद आई. सुबह वक्त का पता ही नहीं चला कि कब घड़ी ने 8 बजा दिए. जल्दी से तैयार हो कर बिना कुछ खाएपिए औफिस चल दिया. जातेजाते पलट कर एक बार पूरे घर को देखा और फिर कुछ सोचने लगा… शायद उसे भी अब यह एहसास होने लगा था कि अपर्णा के बिना यह घर कबाड़खाना बन चुका है. धिक्कार रहा था वह खुद को. शाम को जब वापस घर आया तो और दिनों के मुकाबले आज मन बिलकुल बुझाबुझा सा लग रहा था. न तो टीवी देखने का मन हो रहा था और नही कुछ और करने का. आज उसे अपर्णा और संजू की बहुत कमी खल रही थी. घर काटने को दौड़ रहा था. सोचा दोस्तों से ही बातें कर ले पर किसी का फोन नहीं लग रहा था, तो कोई फोन नहीं उठा रहा था. वह समझ गया, भले ही लोग बीवीबच्चों से परेशान हो जाते हों पर अगर वे न हों तो फिर जिंदगी बेमानी बन कर रह जाती है.

उधर अपर्णा भी कहां खुश थी. कहने को तो वह अपने मायके आई थी, पर यहां भी रोज किसी न किसी बात को ले कर उस की भाभी सुमन बखेड़ा खड़ा कर देती थी. बातबात पर यह कह कर उसे ताना मारती, ‘‘पता नहीं कैसे लोग लड़झगड़ कर मायके पहुंच जाते हैं… भूल जाते हैं कि यह उन का अपना घर नहीं है.’’

अपर्णा अपने पर झल्ला उठती कि आखिर वह यहां आई ही क्यों?

एक शाम अपर्णा पड़ोस की एक औरत से बातें कर रही थी. तभी सुमन बड़बड़ाती हुई आई और कहने लगी, ‘‘दीदीदीदी देखिए तो जरा, कैसे आप के संजू ने मेरे बबलू का खिलौना तोड़ दिया.’’

अपर्णा ने गुस्से से अपने बेटे की तरफ देखा और फिर उसे डांटते हुए बोली, ‘‘क्यों संजू, तुम ने बबलू का खिलौना क्यों तोड़ा? यह तुम्हारा छोटा भाई है न? चलो सौरी बोलो.’’

‘‘मम्मी, मैं ने इस का खिलौना नहीं तोड़ा. मैं ने तो सिर्फ खिलौना देखने के लिए मांगा था और इस ने गुस्से से फेंक दिया… मैं तो खिलौना उठा कर उसे दे रहा था, पर मामी को लगा कि मैं ने इस का खिलौना तोड़ा है,’’ संजू रोते हुए बोला.

‘‘देखो कैसे झूठ बोल रहा है आप का बेटा… मैं बता रही हूं दीदी, संभाल लो इसे नहीं तो बड़ा हो कर और कितना झूठ बोलेगा और क्याक्या करेगा पता नहीं… अब क्या बबलू अपने घर में अपने खिलौने से भी नहीं खेल सकता? यह तो समझना चाहिए लोगों को.’’

सुमन की व्यंग्य भरी बातें सुन कर अपर्णा को लगा जैसे उस के दिल में किसी ने तीर चुभो दिया हो. जब उस ने अपनी मां की तरफ देखा, तो वे भी कहने लगीं, ‘‘सच में अपर्णा, तुम्हारा संजू बड़ा ही जिद्दी हो गया है… जरा संभालो इसे, बेटा.’’

अपर्णा स्तब्ध रह गई. बोली, ‘‘पर मां, आप ने देखेसुने बिना ही कैसे संजू को गलत बोल दिया?’’ उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मां अचानक नातेपोते में इतना भेद क्यों करने लगीं.

अपर्णा संजू को ले कर अपने कमरे में जाने  ही लगी थी कि तभी सुमन ने फिर एक व्यंग्यबाण छोड़ा, ‘‘अब जब मांबाप ही आपस में झगड़ेंगे तो बच्चा तो झूठा ही निकलेगा न.’’

सुन कर अपर्णा अपने कमरे में आ कर रो पड़ी. फिर सोचने लगी कि सुमन भाभी ने इतनी बड़ी बात कह दी और मां चुप बैठी रहीं. कल तक मां मेरा संजू मेरा संजू कहते नहीं थकती थीं और आज वही संजू सब की आंखों में खटकने लगा? आज मेरी वजह से मेरे बच्चे को सुनना पड़ रहा है. फिर वह खुद को कोसती रही. संजू कितनी देर तक पापापापा कह कर रोता रहा और फिर बिना खाएपीए ही सो गया.

अपर्णा के आंसू बहे जा रहे थे. सच में कितने घमंड के साथ वह यहां आई थी और कहा था जब तक लेने नहीं आओगे, नहीं आऊंगी. पर अब किस मुंह से वह अपने पति के घर जाएगी… अमन तो यही कहेगा न कि लो निकल गई सारी हेकड़ी… ‘जो भी सुनना पड़े पर जाना तो पड़ेगा यहां से,’ सोच उस ने मन ही मन फैसला कर लिया.

बड़ी हिम्मत जुटा कर अपर्णा की मां उस के कमरे में उसे खाने के लिए बुलाने आईं और कहने लगीं, ‘‘अपर्णा, मुझे माफ कर देना… मैं भी क्या करूं… आखिर रहना तो मुझे इन लोगों के साथ ही है न… बेटा, मेरी बात को दिल से न लगाना,’’ और वे रो पड़ीं.

अपर्णा को अपनी मां की बेबसी पर दया आ गई. कहने लगी, ‘‘मां, आप शर्मिंदा न हों. मैं सब समझती हूं, पर गलती तो मेरी है, जो आज भी मायके को अपना घर समझ कर बड़ी शान से यहां रहने आ गई. सोचती हूं अब किस मुंह से जाऊंगी, पर जाना तो पड़ेगा.’’

रात भर यह सोच कर अपर्णा सिसकती रही कि आखिर क्यों लड़की का अपना कोई घर नहीं होता? आज अपर्णा अपनेआप को बड़ा छोटा महसूस कर रही थी. फिर सोचने लगी कि जो भी हो पर अब वही मेरा अपना घर है. यहां सब की बेइज्जती सहने से तो अच्छा है अपने पति की चार बातें सुन ली जाएं. फिर कहां गलत थे अमन? आखिर वे भी तो मेहनत करते हैं. हमारी सारी सुखसुविधाओं का पूरा खयाल रखते हैं और मैं पागल, बेवजह बातबात पर उन से झगड़ती रहती थी.

सच में बहुत कड़वा बोलती हूं मैं… बहुत बुरी हूं मैं… न जाने खुद से क्याक्या बातें करती रही. फिर संजू की तरफ देखते हुए बड़बड़ाई कि बेटा मुझे माफ कर देना. अपने घमंड में मैं ने यह भी न सोचा कि तुम अपने पापा के बगैर कैसे रहोगे… पर अब हम अपने घर जरूर जाएंगे बेटा.

सुबह भी अपर्णा काफी देर तक अपने कमरे में ही पड़ी रही. शाम को ट्रेन से जाना था उन्हें. अपना सारा सामान पैक कर रही थी कि तभी उस की मां आ कर कहने लगीं, ‘‘बेटा, मैं चाह कर भी यह नहीं कह सकती कि बेटा और कुछ दिन रुक जाओ.’’

अपर्णा मां को गले लगाते हुए बोली, ‘‘आप मेरी मां हैं और यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है. रही जाने की बात, तो आज नहीं तो कल मुझे जाना ही था. आप अपने को दोषी न मानें.’’

दोनों बात कर ही रही थीं कि उधर से संजू, पापापापा कहते हुए दौड़ता हुआ आया.

‘‘क्या हुआ संजू? पापापापा चिल्लाता हुआ क्यों दौड़ा आ रहा..’’

अपर्णा अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही उस की नजर सामने से आते अमन पर पड़ी तो वह चौंक उठी. बोली, ‘‘अमन आप?’’

अमन को देख अपर्णा के दिल में उस के लिए फिर वही पहले वाला प्यार उमड़ पड़ा. उस की आंखों से आंसू बह निकले. कहने लगी, ‘‘अमन, हम तो खुद ही आ रहे थे आप के पास.’’

अपर्णा का हाथ अपने हाथों में कस कर दबाते हुए अमन बोला, ‘‘अपर्णा, मुझे माफ कर दो और चलो अपने घर… तुम्हारे बिना हमारा घर घर नहीं लगता… तुम्हारे न होने से मेरे सारे दोस्त भी मुझ से किनारा करने लगे हैं. नहीं अब नहीं जीया जाता तुम बिन… हां मैं बहुत अव्यवस्थित किस्म का इनसान हूं पर जैसा भी हूं… अब तुम ही मुझे संभाल सकती हो. अपर्णा मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं,’’ कहतेकहते अमन की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘अमन, गलत आप नहीं मैं…’’

‘‘नहीं,’’ अमन ने अपना हाथ अपर्णा के होंठों पर रखते हुए कहा, ‘‘कोई गलत नहीं था, बस वक्त गलत था. जितना लड़नाझगड़ना था लड़झगड़ लिए, अब और नहीं,’’ कह कर अमन ने अपर्णा को अपने सीने से लगा लिया.

अपर्णा भी पति की बांहों के घेरे में सिमटते हुए बोली, ‘‘मैं भी तुम बिन नहीं जी सकती.’’

Hindi Story : उतरन – जिंदगी भर का बदला

Hindi Story : शोभा के मातापिता की मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हो जाने के बाद उसे उस के मामा अपने साथ ले आए. उस के परिवार में कोई नहीं था जो उस की देखभाल कर सके. उस के दादादादी की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी और पिता अपने मातापिता की इकलौती संतान थे. मामा के अतिरिक्त उस का और कोई ठिकाना नहीं था.

सात वर्ष की शोभा को देख कर मामी नाकभौंह सिकोड़ती बोलीं– “कैसी अभागी है, मांबाप को खा गई और अब हमारे सिर पर बोझ बन कर आ गई है. हम अपने बच्चों को देखें या इसे.”

शोभा, जिसे अभागी का अर्थ भी पता नहीं था, मामी के मुंह से ऐसी फटकार सुन कर घबरा गई. यही मामी जब वह अपने मम्मीपापा के साथ आती थी तब कितना प्यार दिखाती थी. मामामामी के एक बेटा और एक बेटी थे. मिनी शोभा से छोटी थी, वह 4 वर्ष की थी और छोटा दीपू अभी मात्र एक वर्ष का ही था.

मामी के नहीं चाहने पर भी शोभा मामा जी के दबाव के कारण उस घर में रह रही थी. धीरेधीरे मामी ने शोभा से घरेलू काम लेना प्रारंभ किया.

समय आदमी को सबकुछ सिखा देता है. शोभा समय से पहले समझदार हो गई. वह धीरेधीरे घर के सभी काम सीख गई और मामी के अधिकतर काम वह कर देती. उन की अपनी बेटी मिनी तो नाजों पली थी, वह उन की प्यारी दुलारी थी. उसे कुछ भी न कहतीं और सारा काम शोभा से करवातीं. शोभा को घर में पढ़ाई का बहुत कम अवसर मिलता था. वह तो मामाजी के कारण उस के स्कूल और कालेज की पढ़ाई चल रही थी वरना मामी तो उसे पढ़ाने के पक्ष में बिलकुल न थीं. मामा के आगे उन की एक नहीं चली.

लेकिन एक मामले में मामा जी ने भी आंखें बंद कर लीं, आखिर वे मामी से कितना विरोध करते. मामी ने कभी भी शोभा को नए कपड़े नहीं दिए. वह हमेशा मिनी की उतरन ही पहनती. मिनी भरेपूरे शरीर की मल्लिका थी जबकि शोभा बहुत दुबलीपतली. उसे भरपूर पौष्टिक भोजन नहीं मिलता था, इसलिए उस का शारीरिक विकास अधिक नहीं हो पाया था. सो, मिनी के कपड़े उसे आ जाते.

तीनों बच्चे बड़े हुए. शोभा जहां शांत और गंभीर थी वहीं मिनी और दीपू बहुत अधिक चंचल और कुछ जिद्दी भी थे. उन्हें अपनी पसंद की हर वस्तु मांग करने के साथ मिल जाती, कभीकभी तो मांगने की भी आवश्यकता न होती थी. वहीं शोभा को स्कूल की कौपीकिताबों के लिए भी मामी की मिन्नतें करनी पड़तीं. जब मामी से मिन्नत कर के थक जाती और न मिलता तब वह मामाजी से कहती थी.

मामाजी उस की आवश्यकता की वस्तुएं ला तो देते थे लेकिन उस के बाद मामी और मामा में बहुत अधिक लड़ाई होती थी. सलिए शोभा का प्रयास होता था कि वह मामा तक बहुत मजबूरी होने पर ही अपनी आवश्यकता ले कर पहुंचे.

शोभा हर क्लास में फर्स्ट आती रही. उस ने मैट्रिक और इंटर में भी अपने विद्यालय में टौप ही किया था, इसलिए उसे प्रत्येक वर्ग में छात्रवृत्ति मिलती थी. इस कारण भी मामी उस की पढ़ाई रोक पाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थीं.

जिस समय वह स्नातक में पढ़ रही थी उसी समय से रवि, जो स्नातकोत्तर का विद्यार्थी था, उस से बहुत प्रभावित था. उस की पारिवारिक पृष्ठभूमि को भी वह जानता था क्योंकि वह उसी की कालोनी में रहता था.

वह शोभा को पढ़ाई में भी सहायता करता. धीरेधीरे उन का आपस का सामान्य सा संबंध कब अमिट प्यार में बदल गया, उन दोनों को ही पता नहीं चला. एक दिन अवसर देख कर रवि ने उस के सामने अपना प्रेम प्रकट भी कर दिया और कहा- “मेरा लक्ष्य यूपीएससी करना है, मैं उस की तैयारी भी कर रहा हूं. तुम तब तक मेरी प्रतीक्षा करना. कहीं विवाह मत कर लेना. मैं तुम से ही विवाह करूंगा. दोनों का प्रेम बहुत शालीन था. उन्होंने अपने प्रेम की पवित्रता बनाए रखा. रवि ने कभी शोभा को छूने का भी प्रयास नहीं किया. उन दोनों का प्रेम आत्मिक था.

समय बीतता रहा. शोभा स्नातकोत्तर कर नेट परीक्षा पास कर चुकी थी. जेआरएफ मिला था, इसलिए उस की पीएचडी में भी कोई अड़चन नहीं आने वाली थी. उस की पीएचडी के लिए शोधकार्य प्रारंभ हो गया था.

रवि प्रथम प्रयास में चयनित नहीं हो पाया था. उस ने पीटी. और मुख्य परीक्षा पास की परंतु साक्षात्कार में नहीं पास हो पाया था. दूसरी बार उस ने पूरी शक्ति से तैयारी की. दीनदुनिया भुला कर बस दिनरात पढ़ाई में लगा रहा और इस बार वह चयनित हो गया था. उसे प्रशासनिक सेवा मिली थी. रिजल्ट आने के बाद रवि ने शोभा को मिठाई खिलाते हुए कहा- “मैं अपनी मां को तुम्हारे घर भेजूंगा तुम्हारे मामामामी से तुम्हें मांगने के लिए. मैं चाहता हूं प्रशिक्षण के लिए जाने से पहले हमारी शादी हो जाए. मैं प्रशिक्षण प्राप्त करूंगा और तुम अपनी पीएचडी पूरी करना.”

दोनों हाथों में हाथ डाल सपने संजो रहे थे. उन्हें पता नहीं था भविष्य में क्या होना है. उन के प्रेम के विषय में शोभा के घर में मिनी सबकुछ जानती थी. उस ने एकदो बार कालेज में शोभा को रवि के साथ अकेले बैठे बात करते देख लिया था. एकदो बार बाहर भी वह दोनों को साथसाथ देख चुकी थी. फिर तो उस ने जोड़घटावगुणाभाग सब कर दिया और शोभा के पीछे पूरे साजोसामान के साथ पिल पड़ी थी. पहले तो शोभा ने बात को टालना चाहा कि वह पढ़ाई में मदद ले रही थी रवि से कह कर, परंतु मिनी कहां मानने वाली थी. आखिर उस ने शोभा से उन दोनों के आपसी प्रेम की बात स्वीकार करवा ही ली. पहले तो उस ने शोभा का बहुत मजाक उड़ाया-

“क्या दीदी, तुम्हें पूरी दुनिया में सिर्फ वही मिला था. अरे, उस का घर देखा है? दो कमरे का कितना साधारण सा घर है. सुना है उस पर भी कर्जा लिया हुआ है उन लोगों ने महाजन से. उस के पिता भी नहीं हैं. दोदो सयानी बहनें. रुपए के अभाव में उन की शादी नहीं हो रही है. रवि ने तो अच्छा तुम्हें फंसाया. उसे पता है तुम पढ़ने में बहुत तेज हो, तुम अवश्य कोई अच्छी नौकरी करोगी और फिर उस का घर चलाने में उस की सहायता करोगी. तुम जिंदगीभर कमा कर उस के घरवालों का पेट भरती रहना.”

शोभा ने उसे आगे कुछ भी कहने से रोक दिया और अभी यह बात घर में किसी को नहीं बताने का वचन मांगने लगी-

“देख मिनी, हम ने तय किया है, पढ़ाई समाप्त होने के बाद मेरी भी नौकरी हो जाएगी और वह भी नौकरी करने लगेगा. तब हम विवाह करेंगे. रवि यूपीएससी की तैयारी कर रहा है. यूपीएससी में वह यदि चयनित हो जाता है तो उस की अच्छी नौकरी हो जाएगी और मेरी नौकरी कालेज में नहीं भी हुई तो स्कूल में तो हो ही जाएगी.”

मिनी बोली, “हांहां, सपने देखो तुम दिन में. तुम्हारी नौकरी तो अवश्य हो जाएगी स्कूल में, इस की मैं गारंटी लेती हूं. यदि ऐसे नहीं भी होगी तो पापा ही कहीं तुम्हारी नौकरी अवश्य लगवा देंगे. हां, तुम पापा से कहोगी तो वे उसे भी कहीं न कहीं सेट करवा ही देंगे. जहां तक यूपीएससी की बात है, बड़ेबड़े लगे रह जाते हैं तैयारी करते हुए, यूपीएससी क्रैक नहीं कर पाते. इस के पास तो कोई साधन भी नहीं है. कोचिंग के लिए कहां से इतने पैसे खर्च करेगा. अभी तक तो मैं ने जितने लोगों का भी सुना है, सभी ने दिल्ली में रह कर बड़ेबड़े कोचिंग संस्थान में जा कर तैयारी की थी. बड़ेबड़े कोचिंग संस्थान में जा कर तैयारी करने के बाद भी सभी कहां निकाल पाते हैं यूपीएससी. उन में से कुछ ही निकाल पाते हैं. फिर रवि बिना साधन के कहां क्रैक कर पाएगा.”

शोभा ने उस से बहस करना उचित नहीं समझा और कहा- “अच्छा, जाने दो छोड़ो इस बात को. तुम मुझे वचन दो कि घर में किसी को नहीं बताओगी रवि के विषय में.”

“चलो, तुम कहती हो तो मैं वचन देती हूं, जब तक तुम स्वयं नहीं कहोगी मैं किसी को नहीं बताऊंगी.”

मिनी ने उसे वचन दिया. बात आईगई हो गई थी.

शोभा ने मिनी द्वारा ही अपना प्रेम मामामामी तक पहुंचाने की सोचा था. जब घर पहुंची तो देखा, रवि की मां निकल कर जा रही थीं. उन्हें देखते ही उन के कदमों में झुक गई शोभा. बहुत श्रद्धा से उन का चरण स्पर्श किया. उन्होंने भी बहुत प्रेम से उसे आशीर्वाद देते हुए कहा- “सुखी रहो बिटिया. आओ कभी हमारे घर भी. अब तो तुम हमारी संबंधी बनने वाली हो.”

सिर झुकाए उन का आशीर्वाद लेती उन की बातें सुनती रही. तभी पीछे खड़ी मामी ने रवि की मां को गले लगा कर उन्हें विदाई दी- “हम ने पिछले जन्म में अवश्य मोती दान किए होंगे जो हमें घर बैठे इतना अच्छा लड़का और ऐसा परिवार मिला. मैं तो कभी सोच भी नहीं सकती थी हमारी बेटी के लिए घर बैठे ही हमें इतना अच्छा रिश्ता मिल जाएगा. आप तो जाने के लिए इतना हड़बड़ा गई हैं, मिनी के पापा अभी आते ही होंगे, उन से मिल कर जातीं तो अच्छा होता.”

“अगले दिन कभी उन से बात कर लूंगी, अभी बहुत आवश्यक काम है, इसलिए जा रही हूं. अब आप तो हमारे संबंधी हो गए, आनाजाना लगा ही रहेगा.” कहती हुई रवि की मां वहां से चली गईं. कुछ देर तक शोभा दरवाजे पर विमूढ़ सी खड़ी रह गई. एक बात उस की समझ में नहीं आ रही थी, उन्होंने ऐसा क्यों कहा, ‘तुम तो हमारी संबंधी बनने वाली हो.’ वह संबंधी कहां, उन के परिवार की सदस्य होने जा रही है. तभी मामी ने उसे आवाज दी- “शोभा, अब बाहर क्यों खड़ी हो, किस का इंतजार कर रही हो, कोई आने वाला है क्या. क्या अच्छी लड़कियों के यही लक्षण हैं, भीतर आ जाओ.”

मामी की तीखी आवाज से वह चौंक गई और चुपचाप भीतर आ गई. उसे कुछ अनहोनी की आशंका होने लगी थी. मामी ने उसी तीखे स्वर में फिर कहा- “ऐसा न हो तुम्हारे इन लक्षणों के कारण हमारा परिवार बदनाम हो जाए और मिनी की लगीलगाई बात में कुछ अड़चन आ जाए.”
“मैं समझी नहीं, मामी. आप कहना क्या चाहती हैं, मिनी की किस बात में मेरे कारण अड़चन आएगी, मैं ने क्या किया?”

“यों ही, सुबह की निकली हुई शाम ढले तक घर आती हो. ऐसे बाहर खड़ी रहोगी, बाहर किसकिस से मिलती हो, इस से बदनामी होगी कि नहीं?” मामी ने उस पर कटाक्ष करते हुए कहा.

“मामी, मैं अपनी रिसर्च के लिए जाती हूं. अधिकतर लाइब्रेरी में बैठ कर पढ़ाई करती हूं या विभाग में रहती हूं. कहीं जाती भी हूं तो रिसर्च के काम से और फिर वापस घर आती हूं. मैं कहीं व्यर्थ इधरउधर नहीं घूमती, इसलिए मेरे कारण आप की बदनामी होने की बात सोचना निराधार है. निश्चिंत रहिए, मेरे कारण आप की किसी तरह की कोई बदनामी नहीं होगी.”

उस का मूड खराब हो गया था, दिल में कड़वाहट भर गई थी. कहां तो सोच रही थी आज मिनी को मनाएगी अपने और रवि के विषय में मामामामी से बात करने के लिए. उस का सिर इतना अधिक दर्द करने लगा था कि अब उसे कुछ भी इच्छा नहीं हो रही थी. वह कमरे में आ कर कपड़े निकाल कर बाथरूम में जाने लगी फ्रैश होने के लिए, तभी मिनी ने उसे घेर लिया- “देखो दीदी यह लौकेट, बताओ कैसा है, मुझे कहां से मिला?”

“क्या मामी ने नया बनवाया तुम्हारे लिए?” न चाहते हुए भी उसे मिनी की बातों का जवाब देना पड़ा.

“नहीं, मेरी ससुराल से, रवि की माताजी ले कर आई थीं.”

“क्या, तुम्हारी ससुराल, रवि की माताजी. मैं कुछ समझी नहीं. तुम्हारी ससुराल से रवि की माताजी का क्या संबंध, और तुम्हारी शादी कब तय हुई?”

“दीदी, तुम्हें नहीं पता, आज दिन में पापा और मम्मी रवि के घर गए थे. वे रवि का रोका कर आए. अभी कुछ देर पहले रवि की मां यहां आ कर मुझे यह पहना कर गईं.”

यह सुन कर शोभा तो सन्न रह गई. यह क्या हो गया! रवि ने तो अपनी मां को उस के लिए बात करने के लिए भेजने की बात कही थी, फिर उस ने अपना रोका मिनी के साथ कैसे करवा लिया, क्या उस ने धोखे से रोका करवाया?

“दीदी, क्या तुम्हें सुन कर खुशी नहीं हुई, क्या सोचने लगीं तुम?” मिनी ने उस के चेहरे के समक्ष चुटकी बजाई.

“मिनी, तुम जानती थी न मेरा और रवि का संबंध, फिर भी…”

शोभा की बात अधूरी रह गई, मिनी ने बीच में ही कहा, “मुझे कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिला, पापा और मम्मी रवि का रोका कर के आ गए थे. रवि की मां आईं और यह लौकेट पहना कर मेरा रोका कर दिया. छेका, तिलक, रिंग सेरामनी और विवाह सब का दिन तय हो चुका है. अब मैं क्या कर सकती थी?”

“परंतु मिनी, तुम्हें पता है रवि का मुझ से प्यार है, क्या वह तुम्हें प्यार दे पाएगा, तुम उस के साथ सुखी जीवन बिता पाओगी? तुम्हें तो रवि और उस का परिवार अपने स्तर का नहीं लगता था?”

शोभा को अभी भी उम्मीद थी, मिनी शायद इस विवाह से इनकार कर दे और उन दोनों के प्यार की बात घर में सब को बता दे.

“अरे दीदी, वह तो तब की बात थी, अब तो उच्च श्रेणी का सरकारी अधिकारी बनने पर उस के परिवार की स्थिति ऐसे ही सुधर जाएगी. और उस का कौन सा बड़ा परिवार है, उस की बहनों की शादियां तो हमारी शादी के पहले ही हो जाएंगी. पापा उन दोनों की शादी अपने खर्चे पर करवा रहे हैं. अब घर में सिर्फ उस की मां ही तो रहेंगी और रह जाएगी शानशौकत वाली जिंदगी. दीदी, फिर सुखी जीवन क्यों नहीं रहेगा?”

मामी और मिनी की बात तो वह समझ सकती थी. वे सिर्फ अपने लिए सोचती थीं. मामी ने तो ऐसे भी शोभा को कभी अपने परिवार का हिस्सा माना ही नहीं, परंतु मामा ने कैसे ऐसा किया? माना उन्हें शोभा और रवि के आपसी संबंध की जानकारी नहीं थी परंतु मिनी से 4 वर्ष बड़ी होने के कारण उन्हें पहले उस के विवाह के लिए सोचना चाहिए था.

“दीदीदीदी,” दीपू की आवाज सुन कर वह सजग हुई. इतनी देर में उस ने कपड़े भी नहीं बदले थे, ऐसे ही बैठी हुई थी.

“दीदी, मां कब से बुला रही हैं आप को खाना खाने के लिए. क्या सोच रही हैं?”

“तू चल, मैं आ रही हूं.”

कपड़े ले कर बाथरूम में चली गई. देर तक पानी के छींटे आंखों पर डालती रही और कपड़े बदल कर भोजनकक्ष में आ गई. आज उस ने रसोई का कोई काम नहीं किया था, इसलिए वह अपने को तैयार कर के आई थी मामी की जलीकटी सुनने के लिए. लेकिन मामी आज अत्यंत प्रसन्न थीं, इसलिए या फिर हो सकता है सामने मामा थे इसलिए भी उन्होंने कुछ भी नहीं कहा और प्लेट में रखी हुई मिठाई से एक टुकड़ा उठा कर उस के मुंह में डाल दिया और कहा- “शुभ समाचार है, मिनी की शादी तय हो गई है. अगले महीने ही विवाह होगा. समय बहुत कम बचा है. इस बीच छेका, तिलक, रिंग सेरामनी और विवाह सभी की तैयारियां करनी है. तुम कुछ दिन रिसर्च के काम से अवकाश ले लो.”

उस ने खामोशी से सिर उठा कर मामी और मामा की ओर देखा. मामा की नजरें झुकी हुई थीं-

“हम तो चाहते थे पहले तेरी डोली उठती यहां से, परंतु तेरा पीएचडी प्रारंभ हुआ है. मिनी बीए की परीक्षा दे ही चुकी है. उस की आगे पढ़ाई में कोई रुचि नहीं है, इसलिए हम ने पहले उस का विवाह तय किया.”

अपने दिल पर पत्थर रख कर उस ने मामी और मामा के साथ ही मिनी को भी शुभकामनाएं दीं. जानती थी, इस घर के एहसान का बदला उसे चुकाना होगा. लेकिन रवि ने कैसे स्वीकार किया, यह नहीं समझ पा रही थी. क्या उस ने कहा नहीं कि वह मुझ से प्यार करता है, वह सोच रही थी.

उस ने सोचा, वह रवि से मिल कर उस से अवश्य पूछेगी इस संबंध में, परंतु इस की नौबत ही नहीं आई. बड़बोली मिनी ने स्वयं ही उजागर कर दिया. रवि तो इस विवाह के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था. उस ने अपने घर में भी शोभा के विषय में ही कहा था. मामामामी से भी वह शोभा से विवाह करने की बात ही कह रहा था. परंतु मिनी से विवाह करने पर उस की दोनों बहनों के विवाह की जिम्मेदारी मामामामी ने अपने ऊपर ले ली. इस बात ने रवि को झुकने पर मजबूर कर दिया. वह अपनी बहनों के सुनहरे भविष्य के लिए बिक गया था मामामामी के हाथों.

मामा ने अपने परिचय क्षेत्र में अच्छे लड़कों से उन का विवाह करवा दिया और उन के द्वारा मांगी गई दहेज की राशि स्वयं दे दी. उसे यह भी पता चला मामा कि तो रवि का विवाह शोभा से करने के लिए तैयार थे परंतु मिनी और मामी के आगे उन की एक न चली और मिनी का विवाह रवि से तय करना पड़ा.

विवाह के दिन जयमाला और विवाह की सभी रस्मों की वह गवाह रही. रवि की दृष्टि तो झुकी हुई थी लेकिन मिनी, वह तो गर्व से उसे ऐसे निहार रही थी जैसे कह रही हो- ‘देख, अपनी औकात. मैं ने तो तुम्हारा प्रेम भी छीन लिया. मुझ में इतनी शक्ति है.’

विवाह के बाद विदाई के पहले जब दूल्हादुलहन सभी बड़ों को प्रणाम कर रहे थे, उस के पास आ कर रवि ठिठक गया. वह किनारे हो गई, लेकिन मिनी ने आगे बढ़ कर उसे प्रणाम किया और कहा- “दीदी, आशीर्वाद दो. आशीर्वाद के रूप में तुम मुझे क्या उपहार दे रही हो? सभी कुछ न कुछ उपहार दे रहे हैं, तुम भी तो दो.”

“मैं तो तुम्हें पहले ही उपहार दे चुकी. वैसे सच कहूं तो मेरे देने की नौबत ही नहीं आई. मेरा सबकुछ तो तुम ने स्वयं ही छीन लिया. अब मैं तुम्हें क्या दूं? रवि को ही मेरी ओर से दिया उपहार समझ लो. जिंदगीभर मैं तुम्हारी उतरन पहनती रही और अब से पूरी जिंदगी तुम मेरी उतरन के साथ अपना जीवन व्यतीत करना. मेरी शुभकामना है रवि का साथ तो तुम्हें मिल गया, उस का दिल से प्रेम भी तुम्हें मिल जाए.”

शोभा गर्व से सिर उठा कर वहां से आगे बढ़ गई और मिनी आंखों में क्षोभ और क्रोध भरे उसे देखती रह गई.

लेखिका – निर्मला कर्ण

Best Hindi Story : आसरा – जया ने करन के प्यार को क्यों अपना लिया

Best Hindi Story : धूप का एक उदास सा टुकड़ा खिड़की पर आ कर ठिठक गया था, मानो अपने दम तोड़ते अस्तित्व को बचाने के लिए आसरा तलाश रहा हो. खिड़की के पीछे घुटनों पर सिर टिकाए बैठी जया की निगाह धूप के उस टुकड़े पर पड़ी, तो उस के होंठों पर एक सर्द आह उभरी. बस, यही एक टुकड़ा भर धूप और सीलन भरे अंधेरे कमरे का एक कोना ही अब उस की नियति बन कर रह गया है.

अपनी इस दशा को जया ने खुद चुना था. इस के लिए वह किसे दोष दे? कसूर उस का अपना ही था, जो उस ने बिना सोचेसमझे एक झटके में जिंदगी का फैसला कर डाला. उस वक्त उस के दिलोदिमाग पर प्यार का नशा इस कदर हावी था कि वह भूल गई कि जिंदगी पानी की लहरों पर लिखी इबारत नहीं, जो हवा के एक झोंके से मिट भी सकती है और फिर मनचाही आकृति में ढाली भी जा सकती है.

जिंदगी तो पत्थर पर उकेरे उन अक्षरों की तरह होती है कि एक बार नक्श हो गए तो हो गए. उसे न तो बदला जा सकता है और न मिटाया जा सकता है. अपनी भूल का शिद्दत से एहसास हुआ तो जया की आंखें डबडबा आईं. घुटनों पर सिर टिकाए वह न जाने कब तक रोती रही और उस की आंखों से बहने वाले आंसुओं में उस का अतीत भी टुकड़ेटुकड़े हो कर टूटताबिखरता रहा.

जया अपने छोटे से परिवार में  तब कितनी खुश थी. छोटी बहन अनुपमा और नटखट सोमू दीदीदीदी कहते उस के चारों ओर घूमा करते थे. बड़ी होने की वजह से जया उन दोनों का आदर्श भी थी, तो उन की छोटी से छोटी समस्या का समाधान भी. मां आशा और पिता किशन के लाड़दुलार और भाईबहन के संगसाथ में जया के दिन उन्मुक्त आकाश में उड़ते पंछी से चहकते गुजर रहे थे.

इंटर तक जया के आतेआते उस के भविष्य को ले कर मातापिता के मन में न जाने कितने अरमान जाग उठे थे. अपनी मेधावी बेटी को वह खूब पढ़ाना चाहते थे. आशा का सपना था कि चाहे जैसे भी हो वह जया को डाक्टर बनाएगी जबकि किशन की तमन्ना उसे अफसर बनाने की थी.

जया उन दोनों की चाहतों से वाकिफ थी और उन के प्रयासों से भी. वह अच्छी तरह जानती थी कि पिता की सीमित आय के बावजूद वह  दोनों उसे हर सुविधा उपलब्ध कराने से पीछे नहीं हटेंगे. जया चाहती थी कि अच्छी पढ़ाई कर वह अपने मांबाप के सपनों में हकीकत का रंग भरेगी. इस के लिए वह भरपूर प्रयास भी कर रही थी.

उस के सारे प्रयास और आशा तथा किशन के सारे अरमान तब धरे के धरे रह गए जब जया की आंखों  में करन के प्यार का नूर आ समाया. करन एक बहार के झोंके की तरह उस की जिंदगी में आया और देखतेदेखते उस के अस्तित्व पर छा गया.

वह दिन जया कैसे भूल सकती है जिस दिन उस की करन से पहली मुलाकात हुई थी, क्योंकि उसी दिन तो उस की जिंदगी एक ऐसी राह पर मुड़ चली थी जिस की मंजिल नारी निकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना थी, जहां बैठी जया अपनी भूलों पर जारजार आंसू बहा रही थी. लेकिन उन आंसुओं को समेटने के लिए न तो वहां मां का ममतामयी आंचल था और न सिर पर प्यार भरा स्पर्श दे कर सांत्वना देने वाले पिता के हाथ. वहां थी तो केवल केयरटेकर की कर्कश आवाज या फिर पछतावे की आंच में सुलगती उस की अपनी तन्हाइयां, जो उस के वजूद को जला कर राख कर देने पर आमादा थीं. इन्हीं की तपन से घबरा कर जया ने अपनी आंखें बंद कर लीं. आंखों पर पलकों का आवरण पड़ते ही अतीत की लडि़यां फिर टूटटूट कर बिखरने लगीं.

जया के घर से उस का स्कूल ज्यादा दूर नहीं था. मुश्किल से 10-12 मिनट का रास्ता रहा होगा. कभी कोई लड़की मिल जाती तो स्कूल तक का साथ हो जाता, वरना जया अकेले ही चली जाया करती थी. उस ने स्कूल जाते समय करन को कई बार अपना पीछा करते देखा था. शुरूशुरू में उसे डर भी लगा और उस ने अपने पापा को इस बारे में बताना भी चाहा, लेकिन जब करन ने उस से कभी कुछ नहीं कहा तो उस का डर दूर हो गया.

करन एक निश्चित मोड़ तक उस के पीछेपीछे आता था और फिर अपना रास्ता बदल लेता था. जब कई बार लगातार ऐसा हुआ तो जया ने इसे अपने मन का वहम समझ कर दिमाग से निकाल दिया और इस के ठीक दूसरे ही दिन करन ने जया के साथसाथ चलते हुए उस से कहा, ‘प्लीज, मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं.’

जया ने चौंक कर उस की ओर देखा और रूखे स्वर में बोली, ‘कहिए.’

‘आप नाराज तो नहीं हो जाएंगी?’ करन ने पूछा, तो जया ने उपेक्षा से कहा, ‘मेरे पास इन फालतू बातों के लिए समय नहीं है. जो कहना है, सीधे कहो.’

‘मैं करन हूं. आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’ करन ने कुछ झिझकते और डरते हुए कहा.

अपनी बात कहने के बाद करन जया की प्रतिक्रिया जानने के लिए पल भर भी नहीं रुका और वापस मुड़ कर तेजी से विपरीत दिशा की ओर चला गया. करन के कहे शब्द देर तक जया के कानों में गूंजते और मधुर रस घोलते रहे. उस की निगाह अब भी उधर ही जमी थी, जिधर करन गया था. अचानक सामने से आती बाइक का हार्न सुन कर उसे स्थिति का एहसास हुआ तो वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई.

अगले दिन स्कूल जाते समय जया की नजरें करन को ढूंढ़ती रहीं, लेकिन वह कहीं नजर नहीं आया. 3 दिन लगातार जब वह जया को दिखाई नहीं दिया तो उस का मन उदास हो गया. उसे लगा कि करन ने शायद ऐसे ही कह दिया होगा और वह उसे सच मान बैठी, लेकिन चौथे दिन जब करन नियत स्थान पर खड़ा मिला तो उसे देखते ही जया के मन की कली खिल उठी. उस दिन जया के पीछेपीछे चलते हुए करन ने आहिस्ता से पूछा, ‘आप मुझ से नाराज तो नहीं हैं?’

‘नहीं,’ जया ने धड़कते दिल से जवाब दिया, तब करन ने उत्साहित होते हुए बात आगे बढ़ाई, ‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?’

‘जया,’ उस का छोटा सा उत्तर था.

‘आप बहुत अच्छी हैं, जयाजी.’

अपनी बात कहने के बाद करन थोड़ी दूर तक जया के साथ चला, फिर उसे ‘बाय’ कर के अपने रास्ते चला गया. उस दिन के बाद वह दोनों एक निश्चित जगह पर मिलते, वहां से करन थोड़ी दूर जया के साथ चलता, दो बातें करता और फिर दूसरे रास्ते पर मुड़ जाता.

इन पल दो पल की मुलाकातों और छोटीछोटी बातों का जया पर ऐसा असर हुआ कि वह हर समय करन के ही खयालों में डूबी रहने लगी. नादान उम्र की स्वप्निल भावनाओं को करन का आधार मिला तो चाहत के फूल खुद ब खुद खिल उठे. यही हाल करन का भी था. एक दिन हिम्मत कर के उस ने अपने मन की बात जया से कह ही दी, ‘आई लव यू जया,’ मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. तुम्हारे बगैर जिंदगी अधूरीअधूरी सी लगती है.

करन के मन की बात उस के होंठों पर आई तो जया के दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं. उस ने नजर भर करन को देखा और फिर पलकें झुका लीं. उस की उस एक नजर में प्यार का इजहार भी था और स्वीकारोक्ति भी.

एक बार संकोच की सीमाएं टूटीं, तो जया और करन के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं. ज्योंज्यों दूरियां कम होती गईं, दोनों एकदूसरे के रंग में रंगते गए. फिर उन्होंने सब की नजरों से छिप कर मिलना शुरू कर दिया. जब भी मौका मिलता, दोनों प्रेमी किसी एकांत स्थल पर मिलते और अपने सपनों की दुनिया रचतेगढ़ते.

उस वक्त जया और करन को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि पागल मन की उड़ान का कोई वजूद नहीं होता. किशोरवय का प्यार एक पागलपन के सिवा और क्या है. बिलकुल उस बरसाती नदी की तरह जो वर्षाकाल में अपने पूरे आवेग पर होती है, लेकिन उस के प्रवाह में गंभीरता और गहराई नहीं रहती. इसीलिए वर्षा समाप्त होते ही उस का अस्तित्व भी मिट जाता है. अब जया की हर सोच करन से शुरू हो कर उसी पर खत्म होने लगी थी. अब उसे न कैरियर की चिंता रह गई थी और न मातापिता के सपनों को पूरा करने की उत्कंठा.

बेटी में आए इस परिवर्तन को आशा की अनुभवी आंखों ने महसूस किया तो एक मां का दायित्व निभाते हुए उन्होंने जया से पूछा, ‘क्या बात है जया, इधर कुछ दिन से मैं महसूस कर रही हूं कि तू कुछ बदलीबदली सी लग रही है? आजकल तेरी सहेलियां भी कुछ ज्यादा ही हो गई हैं. तू उन के घर जाती रहती है, लेकिन उन्हें कभी नहीं बुलाती?’

मां द्वारा अचानक की गई पूछताछ से जया एकदम घबरा गई. जल्दी में उसे कुछ सुझाई नहीं दिया, तो उस ने बात खत्म करने के लिए कह दिया, ‘ठीक है मम्मी, आप मिलना चाहती हैं तो मैं उन्हें बुला लूंगी.’

कई दिन इंतजार करने के बाद भी जब जया की कोई सहेली नहीं आई और उस ने भी जाना बंद नहीं किया तो मजबूरी में आशा ने जया को चेतावनी देते हुए कहा, ‘अब तू कहीं नहीं जाएगी. जिस से मिलना हो घर बुला कर मिल.’

घर से निकलने पर पाबंदी लगी तो जया करन से मिलने के लिए बेचैन रहने लगी. आशा ने भी उस की व्याकुलता को महसूस किया, लेकिन उस से कहा कुछ नहीं. धीरेधीरे 4-5 दिन सरक गए तो एक दिन जया ने आशा को अच्छे मूड में देख कर उन से थोड़ी देर के लिए बाहर जाने की इजाजत चाही, जया की बात सुनते ही आशा का पारा चढ़ गया. उन्होंने नाराजगी भरे स्वर में जया को जोर से डांटते हुए कहा, ‘इतनी बार मना किया, समझ में नहीं आया?’

‘‘इतनी बार मना कर चुका हूं, सुनाई नहीं देता क्या?’’ नारी निकेतन के केयरटेकर का कर्कश स्वर गूंजा तो जया की विचारधारा में व्यवधान पड़ा. उस ने चौंक कर इधरउधर देखा, लेकिन वहां पसरे सन्नाटे के अलावा उसे कुछ नहीं मिला. जया को मां की याद आई तो वह फूटफूट कर रो पड़ी.

जया अपनी नादानी पर पश्चाताप करती रही और बिलखबिलख कर रोती रही. इन आंसुओं का सौदा उस ने स्वयं ही तो किया था, तो यही उस के हिस्से में आने थे. इस मारक यंत्रणा के बीच वह अपने अतीत की यादों से ही चंद कतरे सुख पाना चाहती थी, तो वहां भी उस के जख्मों पर नमक छिड़कता करन आ खड़ा होता था.

उस दिन मां के डांटने के बाद जया समझ गई कि अब उस का घर से निकल पाना किसी कीमत पर संभव नहीं है. बस, यही एक गनीमत थी कि उसे स्कूल जाने से नहीं रोका गया था और स्कूल के रास्ते में उसे करन से मुलाकात के दोचार मिनट मिल जाते थे. आशा ने बेटी के गुमराह होते पैरों को रोकने का भरसक प्रयास किया, लेकिन जया ने उन की एक नहीं मानी.

एक दिन आशा को अचानक किसी रिश्तेदारी में जाना पड़ा. जाना भी बहुत जरूरी था, क्योंकि वहां किसी की मृत्यु हो गई थी. जल्दबाजी में आशा छोटे बेटे सोमू को साथ ले कर चली गई. जया पर प्यार का नशा ऐसा चढ़ा था कि ऐसे अवसर का लाभ उठाने से भी वह नहीं चूकी. उस ने छोटी बहन अनुपमा को चाकलेट का लालच दिया और करन से मिलने चली गई.

जया ने फोन कर के करन को बुलाया और उस के सामने अपनी मजबूरी जाहिर की. जब करन कोई रास्ता नहीं निकाल पाया तो जया ने बेबाक हो कर कहा, ‘अब मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती, करन. हमारे सामने मिलने का कोई रास्ता नहीं बचा है.’

जया की बात सुनने के बाद करन ने उस से पूछा, ‘मेरे साथ चल सकती हो जया?’

‘कहां?’ जया ने रोंआसी आवाज में कहा, तो करन बेताबी से बोला, ‘कहीं भी. इतनी बड़ी दुनिया है, कहीं तो पनाह मिलेगी.’

…और उसी पल जया ने एक ऐसा निर्णय कर डाला जिस ने उस के जीवन की दिशा ही पलट कर रख दी.

इस के ठीक 5-6 दिन बाद जया ने सब अपनों को अलविदा कह कर एक अपरिचित राह पर कदम रख दिया. उस वक्त उस ने कुछ नहीं सोचा. अपने इस विद्रोही कदम पर वह खूब खुश थी क्योंकि करन उस के साथ था. करन जया को ले कर नैनीताल चला गया और वहां गेस्टहाउस में एक कमरा ले कर ठहर गया.

करन का दिनरात का संगसाथ पा कर जया इतनी खुश थी कि उस ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि उस के इस तरह बिना बताए घर से चले जाने पर उस के मातापिता पर क्या गुजर रही होगी. काश, उसे इस बात का तनिक भी आभास हो पाता.

जया दोपहर को उस वक्त घर से निकली थी जब आशा रसोई में काम कर रही थीं. काम कर के बाहर आने के बाद जब उन्हें जया दिखाई नहीं दी तो उन्होंने अनुपमा से उस के बारे में पूछा. उस ने बताया कि दीदी बाहर गई हैं. यह जान कर आशा को जया पर बहुत गुस्सा आया. वह बेताबी से उस के लौटने की प्रतीक्षा करती रहीं. जब शाम ढलने तक जया घर नहीं लौटी तो उन का गुस्सा चिंता और परेशानी में बदल गया.

8 बजतेबजते किशन भी घर आ गए थे, लेकिन जया का कुछ पता नहीं था. बात हद से गुजरती देख आशा ने किशन को जया के बारे में बताया तो वह भी घबरा गए. उन दोनों ने जया को लगभग 3-4 घंटे पागलों की तरह ढूंढ़ा और फिर थकहार कर बैठ गए. वह पूरी रात उन्होंने जागते और रोते ही गुजारी. सुबह होने तक भी जया घर नहीं लौटी तो मजबूरी में किशन ने थाने जा कर उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

बेटी के इस तरह गायब हो जाने से किशन का दुख और चिंता से बुरा हाल था. उधर आशा की स्थिति तो और भी दयनीय थी. उन्हें रहरह कर इस बात का पछतावा हो रहा था कि उन्होंने जया के घर से बाहर जाने वाले मामले की खोजबीन उतनी गहराई से नहीं की, जितनी उन्हें करनी चाहिए थी. इस की वजह यही थी कि उन्हें अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था.

किशन और आशा बेटी को ले कर एक तो वैसे ही परेशान थे, दूसरे जया के गायब होने की बात फैलने के साथ ही रिश्तेदारों और परिचितों द्वारा प्रश्न दर प्रश्न की जाने वाली पूछताछ उन्हें मानसिक तौर पर व्यथित कर रही थी. मिलनेजुलने वाले की बातों और परामर्शों से परेशान हो कर किशन और आशा ने घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था.

उधर जया मातापिता पर गुजर रही कयामत से बेखबर नैनीताल की वादियों का आनंद उठा रही थी. करन के प्यार का नशा उस पर इस तरह से चढ़ा हुआ था कि उसे अपने भविष्य के बारे में सोचने का भी  होश नहीं था. उसे यह भी चिंता नहीं थी कि जब उस के घर से लाए पैसे खत्म हो जाएंगे, तब क्या होगा? और यह सब उस की उस नासमझ उम्र का तकाजा था जिस में भावनाएं, कल्पनाएं तथा आकर्षण तो होता है, लेकिन गंभीरता या परिपक्वता नहीं होती.

किशन की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने काररवाई शुरू की तो शीघ्र ही जया की गुमशुदगी का रहस्य खुल कर सामने आ गया. पुलिस द्वारा जया की फोटो दिखा कर की गई पूछताछ के दौरान पता चला कि वह लड़की नैनीताल जाने वाली बस में चढ़ते देखी गई थी. बताने वाले दुकानदार ने पुलिस को यह जानकारी भी दी कि उस के साथ एक लड़का भी था, इतना पता चलते ही पुलिस उसी दिन नैनीताल के लिए रवाना हो गई. नैनीताल पहुंचने के बाद पुलिस ने जया की खोज गेस्टहाउसों से ही शुरू की, क्योंकि दिनरात के अनुभवों के आधार पर पुलिस वालों का नजरिया था कि घर से भागे किशोरवय प्रेमीप्रेमिका पैसा कम होने की वजह से होटल के बजाय छोटेमोटे गेस्टहाउसों को ही अपना ठिकाना बनाते हैं. पुलिस का अनुमान ठीक निकला. एक गेस्टहाउस के केयरटेकर ने पुलिस वालों को बताया कि कम उम्र का एक प्रेमीयुगल 4 दिन पहले उस के यहां आ कर ठहरा था. पुलिस ने एंट्री रजिस्टर में उन का नाम और पता देखा, तो दोनों ही गलत दर्ज थे.

इस बीच पुलिस द्वारा गेस्टहाउस में की जाने वाली जांचपड़ताल का पता सब को चल चुका था. पुलिस का नाम सुनते ही करन के होश उड़ गए. उस ने बचे हुए पैसे अपनी जेब में डाले और जया से बोला, ‘‘तुम डरना नहीं जया. मैं 10-15 मिनट में लौट आऊंगा.’’

जया ने करन को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह एक झटके से कमरे के बाहर हो गया. पुलिस जब तक जया के कमरे पर पहुंची, तब तक करन उस की पहुंच से बाहर निकल चुका था. मजबूरी में पुलिस जया को ले कर लौट आई.

जया के बरामद होने की सूचना पुलिस ने उस के घर भेज दी थी. किशन को जब इस बात का पता चला कि जया किसी लड़के के साथ भागी थी तो अपनी बेटी की इस करतूत से उन का सिर हमेशा के लिए झुक गया था. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह लोगों का सामना कैसे कर पाएंगे. जया ने उन्हें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा था. किशन में अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह पुलिस थाने जा कर जया को ले आते. वह यह भी जानते थे कि जया के मिलने की खबर पाते ही रिश्तेदारों और परिचितों का जो तूफान उठेगा, वह उस का सामना नहीं कर पाएंगे.

जया की बरामदगी के बाद पुलिस द्वारा किशन को लगातार संदेश दिया जा रहा था कि वह अपनी बेटी को ले जाएं. जब पुलिस का दबाव बढ़ा तो किशन आपा खो बैठे और थाने जा कर पुलिस वालों से दोटूक कह दिया कि वह बेटी से अपने सारे संबंध खत्म कर चुके हैं. अब उस से उन का कोई रिश्ता नहीं है. वह अपनी रिपोर्ट भी वापस लेने को तैयार हैं.

एक झटके में बेटी से सारे नाते तोड़ कर किशन वहां से चले गए. तब मजबूरी में पुलिस ने जया को हवालात से निकाल कर नारीनिकेतन भेज दिया. जब जया ने वहां लाने की वजह जाननी चाही, तो एक पुलिसकर्मी ने व्यंग्य करते हुए उसे बताया, ‘घर से भागी थी, अपने यार के साथ, अब नतीजा भुगत. तेरे घर वाले तुझे ले जाने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने तुझ से रिश्ता खत्म कर लिया है. अब नारीनिकेतन तेरा ‘आसरा’ है.’

अतीत की लडि़यां बिखरीं तो जया यथार्थ में लौटी. अब उस की जिंदगी का सच यही था जो उस के सामने था. उस ने रोरो कर सूज चुकी आंखों से खिड़की के पार देखना चाहा तो उसे दूरदूर तक फैले अंधेरे के अलावा कुछ नजर नहीं आया. धूप का वह टुकड़ा भी न जाने कब, कहां विलीन हो गया था. जया के मन में, जीवन में और बाहर चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था. इस अंधेरे में अकेले भटकतेभटकते उस का मन घबराया तो उसे मां का आंचल याद आया. वह बचपन में अकसर अंधेरे से डर कर मां के आंचल में जा छिपती थी, लेकिन अब वहां न तो मां थी और न मां का आंचल ही था.

जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर जया को अपनों की अहमियत का पता चला. उसे इस बात का एहसास भी अब हुआ कि मांबाप बच्चों की भलाई और उन के सुरक्षित भविष्य के लिए ही उन पर पाबंदियां लगाते हैं. मातापिता के सख्ती बरतने के पीछे भी उन का प्यार और बच्चों के प्रति लगाव ही होता है. उसे इस बात का बेहद पछतावा था कि उस ने समय रहते मम्मी और पापा की भावनाओं की कद्र की होती तो उस का उज्ज्वल भविष्य नारीनिकेतन के उस गंदे से कमरे में दम न तोड़ रहा होता और जिस करन के प्यार के खुमार में उस ने अपनों को ठुकराया, वही करन उसे बीच मझधार में छोड़ कर भाग खड़ा हुआ. उस ने एक बार भी पलट कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि जया पर क्या बीत रही होगी. करन की याद आते ही जया का मन वितृष्णा से भर उठा. उसे अपने आप पर ग्लानि भी हुई कि एक ऐसे कृतघ्न के चक्कर में पड़ कर उस ने अपनी जिंदगी तो बर्बाद की ही, अपने परिवार वालों का सम्मान भी धूल में मिला दिया.

अपनी भूल पर पछताती जया न जाने कब तक रोती रही. जब बैठेबैठे वह थक गई तो सीलन भरे नंगे फर्श पर ही लेट गई. आंखों से आंसू बहतेबहते कब नींद ने उसे अपने आगोश में समेट लिया, जया को पता ही न चला. अपनी बदरंग जिंदगी बिताने के लिए उसे आखिर एक ‘आसरा’ मिल ही गया था. नारीनिकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना, जहां जिंदगी से थकीहारी जया नंगे फर्श पर बेसुध सो रही थी.

Love Story : क्या जादू कर दिया – दिनेश पर चंपा ने कैसा जादू कर दिया

Love Story : चंपा अपने गांव के बसअड्डे पर बस से उतर कर गलियां पार कर के अपने घर की ओर जा रही थी. वह रोजाना सुबह कालेज जाती थी, फिर दोपहर तक वापस आ जाती थी.

चंपा इस गांव के बाशिंदे भवानीराम की बेटी थी. वे चंपा को कालेज पढ़ाना नहीं चाहते थे, मगर चंपा की इच्छा थी और उस के टीचरों के दबाव देने पर वे उसे पढ़ाने के लिए शहर भेजने को राजी हो गए.

जैसे ही चंपा का कालेज में दाखिला हुआ, उस की सहेलियों ने खुशियां मनाईं. वे सब चंपा को पढ़ाकू समझती थीं और उसे चाहती भी खूब थीं.

जब चंपा गांव के हायर सैकेंडरी स्कूल में पढ़ती थी, तब पूरी जमात में उस का दबदबा था. अगर कोई लड़का ऊंची आवाज में बोल देता था, तब वह उसे ऐसी नसीहत देती थी कि वह चुप हो जाता था. इसी वजह से वह अपनी सहेलियों की चहेती बनी हुई थी.

गांव में भी चंपा की धाक थी. कोई भी बदमाश लड़का उस से कुछ नहीं कहता था. कहने वाले दबी जबान में कहते थे कि यह चंपा नहीं, बल्कि ‘चंपालाल’ है.

अभी चंपा गली का नुक्कड़ पार कर ही रही थी कि दिनेश, जो गांव का एक आवारा लड़का था और शहर के कालेज में पढ़ता था, न जाने कब से उस के पीछेपीछे आ रहा था.

दिनेश उस का रास्ता रोकते हुए बोला, ‘‘कहां जा रही हो चंपा?’’

‘‘अपने घर,’’ हंसते हुए चंपा बोली.

‘‘कभी हमारे घर भी चलो,’’ उस के जिस्म को घूरते हुए दिनेश बोला.

‘‘तुम्हारे घर क्यों भला?’’ चंपा ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरा कहना मानोगी, तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा,’’ दिनेश ने लालच देते हुए कहा.

चंपा जानती थी कि दिनेश गांव के रईस मांगीलाल का बिगड़ैल बेटा है. उसे पैसों का खूब घमंड है, इसलिए सारा दिन गांव में आवारागर्दी करता है. लड़कियों को छेड़ना उस की आदत है. उस की करतूत जगजाहिर है, मगर अपनी इज्जत के डर से कोई भी गांव का आदमी उस के मुंह नहीं लगता है.

चंपा को चुप देख कर दिनेश बोला, ‘‘क्या सोच रही हो चंपा? मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

चंपा ने देखा कि जिस मोड़ पर वे दोनों खड़े थे, उस के आसपास जितने भी मर्दऔरत अपने घरों में बैठ कर बातें कर रहे थे, उन्होंने अपने दरवाजेखिड़कियां बंद कर ली थीं. दिनेश का डर उन के भीतर बैठा हुआ था. ऐसा लग रहा था कि कर्फ्यू लगा हुआ है.

दिनेश जब भी शहर से गांव में आता था और वहां की गलियों में घूमता था, तो उस के डर से सन्नाटा छा जाता था.

आज चंपा का उस से पहली बार सामना हुआ था, इसलिए उस ने भीतर ही भीतर उस से सामना करने के लिए अपने को तैयार कर लिया था.

‘‘चंपा, तू क्या सोचने लगी?’’ उसे चुप देख कर दिनेश ने फिर कहा, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मैं ने जवाब दे तो दिया, शायद तुम ने सुना नहीं. बहरे हो क्या?’’

‘‘क्या कहा, मैं बहरा हूं? शायद तू मुझे जानती नहीं है?’’

‘‘अरे, तुझे तो सारा गांव जानता है,’’ चंपा ने कहा.

‘‘तब फिर क्यों तू दादागीरी कर रही है?’’

‘‘मैं एक लड़की हूं. मैं क्या दादागीरी करूंगी. गांव का दादा तो तू है,’’ चंपा उसी तरह से जवाब देते हुए बोली.

‘‘जैसा मैं ने सुना था, तू वैसी ही निकली. सुना है, कालेज में भी तू दादा बन कर रहती है?’’ दिनेश ने पूछा.

‘‘मैं ने पहले ही कहा, मैं क्या दादागीरी करूंगी. मगर अब लड़कियां इतनी कमजोर भी नहीं हैं कि हर कोई उन की कमजोरी का फायदा उठा सके,’’ कह कर चंपा ने अपने इरादे जाहिर कर दिए.

दिनेश कोई जवाब नहीं दे पाया. गली में पूरी तरह सन्नाटा था. मगर फिर भी लोग खिड़की खोल कर झांकने की कोशिश कर रहे थे. उन के भीतर एक डर बैठा हुआ था कि आज चंपा दिनेश के सामने आ गई है.

दिनेश बोला, ‘‘बहुत अकड़ कर बात कर रही है. मैं तेरी यह अकड़ निकाल दूंगा. चल, मेरे साथ. बहुत जवानी का जोश है तुझ में,’’ कह कर दिनेश ने चंपा का हाथ पकड़ लिया.

चंपा गुस्से में चीखते हुए बोली, ‘‘छोड़ दे मेरा हाथ. मैं वैसी लड़की नहीं हूं, जैसा तू समझ रहा है.’’

‘‘मैं एक बार जिस लड़की का हाथ पकड़ लेता हूं, फिर छोड़ता नहीं हूं,’’ दिनेश ने कहा.

‘‘ये फिल्मी डायलौग मत बोल. चुपचाप मेरा हाथ छोड़ दे.’’

‘‘यह तू नहीं, तेरी जवानी बोल रही है. चल मेरे साथ, जवानी का सारा जोश ठंडा कर देता हूं,’’ कह कर दिनेश उस को घसीट कर ले जाने लगा.

तब चंपा चिल्ला कर बोली, ‘‘मर्द है तो मर्द की तरह बात कर. यों कमरे में बंद कर के क्यों अपनी मर्दानगी दिखा रहा है. अगर तुझे अपनी मर्दानगी दिखानी है, तो यहीं दिखा. उतारूं कपड़े?’’ कहते हुए उस ने अपनी टीशर्ट उतार दी.

दिनेश थोड़ा ढीला पड़ गया. तब चंपा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘क्या सोच रहा है, और उतारूं कपड़े? बुझा ले अपनी प्यास,’’ कहते हुए उस ने टीशर्ट घुमा कर दिनेश को दे मारी.

‘‘मगर एक बात याद रख, गांव की किसी लड़की पर बुरी नजर नहीं रखनी चाहिए. लड़की कमजोर नहीं है. छोड़ दे बुरी नजर. फिर हर औरत को कमजोर भी मत समझ. इसलिए कहती हूं कि पैसों का घमंड छोड़ दे. यह एक दिन तुझे ले डूबेगा,’’ चंपा ने समझाते हुए कहा.

सारा महल्ला देखता रह गया. लोग बाहर निकल आए. लड़की के हाथों पिटे दिनेश का मुंह छोटा हो गया.

इतना कह कर चंपा वहां से चली गई.

दिनेश गुस्से से भरा वहीं खड़ा रह गया. आज एक लड़की से हार गया, जो उसे चुनौती दे गई. चुनौती भी ऐसी, जिसे वह पूरा नहीं कर सके. आज तक गांव वालों में से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि कोई उस के खिलाफ बोले, उसे चुनौती दे, मगर आज चंपा ने इस कदर उस को चुनौती दे डाली. वह उस का विरोध नहीं कर सका.

दिनेश ने जब गली की तरफ देखा, तो सभी मर्दऔरत दरवाजा खोल कर उसे हैरत भरी नजरों से देख रहे थे. वह उन से नजरें नहीं मिला सका और चुपचाप अपनी हवेली की तरफ चल दिया.

सारे गली वाले मानो एक ही सवाल अपनेआप से पूछ रहे थे कि चंपा ने दिनेश पर ऐसा क्या जादू किया, जो नीची गरदन कर के चला गया? सभी एकदूसरे से आंखों ही आंखों में इशारा कर रहे थे, मगर कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सभी के दिमाग में एक ही बात बैठ चुकी थी कि चंपा की अब खैर नहीं. उस ने दिनेश से पंगा ले कर अपने ऊपर मुसीबत मोल ले ली है. वह गांव का बहुत बड़ा गुंडा है. पैसों के बल पर वह कुछ भी कर सकता है.

इस घटना से गांव में दहशत फैल गई. सभी गांव वाले खामोश हो गए.

अगले दिन चंपा कालेज पहुंची, तो हीरो बन गई थी. दिनेश की हिम्मत अब टूट चुकी थी.

चंपा कालेज नहीं छोड़ना चाहती थी, इसलिए उस ने भी हालात से समझौता कर लिया.

इस घटना के कुछ दिनों बाद दिनेश में बहुत बड़ा बदलाव दिखा. पहले वह हमेशा गुंडा बन कर रहा करता था, अपने को सब से बड़ा समझता था.

आमतौर पर अब वह चंपा के साथ कैंटीन में चाय पीता दिखता. वह अपने दोस्तों से कहता, ‘‘यह रही टीशर्ट…मार चंपा.’’

यह सुन कर चंपा शर्म से लाल हो जाती.

दिनेश शरीफ हो चुका था. गांव की किसी लड़की या किसी बहू को अब वह बुरी नजर से नहीं देखता था. उस पर चंपा ने उस दिन ऐसा क्या जादू कर दिया, यह आज तक राज बना हुआ था.

Hindi Story : असली सुहागरात

Hindi Story :जीवन प्रकृति की गोद में बसा एक खूबसूरत, मनोरम पहाड़ी रास्ता नहीं है क्या, जहां मानव सुख से अपनों के साथ प्रकृति के दिए उपहारों का आनंद उठाते हुए आगे बढ़ता रहता है.

फिर अचानक किसी घुमावदार मोड़ पर अतीत को जाती कोई संकरी पगडंडी उस की खुशियों को हरने के लिए प्रकट हो जाती है. चिंतित कर, दुविधा में डाल उस की हृदय गति बढ़ाती. उसे बीते हुए कुछ कड़वे अनुभवों को याद करने के लिए मजबूर करती.

श्रेष्ठा भी आज अचानक ऐसी ही एक पगडंडी पर आ खड़ी हुई थी, जहां कोई जबरदस्ती उसे बीते लमहों के अंधेरे में खींचने का प्रयास कर रहा था. जानबूझ कर उस के वर्तमान को उजाड़ने के उद्देश्य से.

श्रेष्ठा एक खूबसूरत नवविवाहिता, जिस ने संयम से विवाह के समय अपने अतीत के दुखदायी पन्ने स्वयं अपने हाथों से जला दिए थे. 6 माह पहले दोनों परिणय सूत्र में बंधे थे और पूरी निष्ठा से एकदूसरे को समझते हुए, एकदूसरे को सम्मान देते हुए गृहस्थी की गाड़ी उस खूबसूरत पहाड़ी रास्ते पर दौड़ा रहे थे. श्रेष्ठा पूरी ईमानदारी से अपने अतीत से बाहर निकल संयम व उस के मातापिता को अपनाने लगी थी.

जीवन की राह सुखद थी, जिस पर वे दोनों हंसतेमुसकराते आगे बढ़ रहे थे कि अचानक रविवार की एक शाम आदेश को अपनी ससुराल आया देख उस के हृदय को संदेह के बिच्छु डसने लगे.

श्रेष्ठा के बचपन के मित्र के रूप में अपना परिचय देने के कारण आदेश को घर में प्रवेश व सम्मान तुरंत ही मिल गया, सासससुर ने उसे बड़े ही आदर से बैठक में बैठाया व श्रेष्ठा को चायनाश्ता लाने को कहा.

श्रेष्ठा तुरंत रसोई की ओर चल पड़ी पर उस की आंखों में एक अजीब सा भय तैरने लगा. यों तो श्रेष्ठा और आदेश की दोस्ती काफी पुरानी थी पर अब श्रेष्ठा उस से नफरत करती थी. उस के वश में होता तो वह उसे अपनी ससुराल में प्रवेश ही न करने देती. परंतु वह अपने पति व ससुराल वालों के सामने कोई तमाशा नहीं चाहती थी, इसीलिए चुपचाप चाय बनाने भीतर चली गई. चाय बनाते हुए अतीत के स्मृति चिह्न चलचित्र की भांति मस्तिष्क में पुन: जीवित होने लगे…

वषों पुरानी जानपहचान थी उन की जो न जाने कब आदेश की ओर से एकतरफा प्रेम में बदल गई. दोनों साथ पढ़ते थे, सहपाठी की तरह बातें भी होती थीं और मजाक भी. पर समय के साथ श्रेष्ठा के लिए आदेश के मन में प्यार के अंकुर फूट पड़े, जिस की भनक उस ने श्रेष्ठा को कभी नहीं होने दी.

यों तो लड़कियों को लड़कों मित्रों के व्यवहार व भावनाओं में आए परिवर्तन का आभास तुरंत हो जाता है, परंतु श्रेष्ठा कभी आदेश के मन की थाह न पा सकी या शायद उस ने कभी कोशिश ही नहीं की, क्योंकि वह तो किसी और का ही हाथ थामने के सपने देख, उसे अपना जीवनसाथी बनाने का वचन दे चुकी थी.

हरजीत और वह 4 सालों से एकदूजे संग प्रेम की डोर से बंधे थे. दोनों एकदूसरे के प्रति पूर्णतया समर्पित थे और विवाह करने के निश्चय पर अडिग. अलगअलग धर्मों के होने के कारण उन के परिवार इस विवाह के विरुद्घ थे, पर उन्हें राजी करने के लिए दोनों के प्रयास महीनों से जारी थे. बच्चों की जिद और सुखद भविष्य के नाम पर बड़े झुकने तो लगे थे, पर मन की कड़वाहट मिटने का नाम नहीं ले रही थी.

किसी तरह दोनों घरों में उठा तूफान शांत होने ही लगा था कि कुदरत ने श्रेष्ठा के मुंह पर करारा तमाचा मार उस के सपनों को छिन्नभिन्न कर डाला.

हरजीत की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. श्रेष्ठा के उजियारे जीवन को दुख के बादलों ने पूरी तरह ढक लिया. लगा कि श्रेष्ठा की जीवननैया भी डूब गई काल के भंवर में. सब तहसनहस हो गया था. उन के भविष्य का घर बसने से पहले ही कुदरत ने उस की नींव उखाड़ दी थी.

इस हादसे से श्रेष्ठा बूरी तरह टूट गई  पर सच कहा गया है समय से बड़ा चिकित्सक कोई नहीं. हर बीतते दिन और मातापिता के सहयोग, समझ व प्रेमपूर्ण अथक प्रयासों से श्रेष्ठा अपनी दिनचर्या में लौटने लगी.

यह कहना तो उचित न होगा कि उस के जख्म भर गए पर हां, उस ने कुदरत के इस दुखदाई निर्णय पर यह प्रश्न पूछना अवश्य छोड़ दिया था कि उस ने ऐसा अन्याय क्यों किया?

सालभर बाद श्रेष्ठा के लिए संयम का रिश्ता आया तो उस ने मातापिता की इच्छापूर्ति के लिए तथा उन्हें चिंतामुक्त करने के उद्देश्य से बिना किसी उत्साह या भाव के, विवाह के लिए हां कह दी. वैसे भी समय की धारा को रोकना जब वश में न हो तो उस के साथ बहने में ही समझदारी होती है. अत: श्रेष्ठा ने भी बहना ही उचित समझा, उस प्रवाह को रोकने और मोड़ने के प्रयास किए बिना.

विवाह को केवल 5 दिन बचे थे कि अचानक एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई. आदेश जो श्रेष्ठा के लिए कोई माने नहीं रखता था, जिस का श्रेष्ठा के लिए कोई वजूद नहीं था एक शाम घर आया और उस से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की. श्रेष्ठा व उस के पिता ने जब उसे इनकार कर स्थिति समझाने का प्रयत्न किया तो उस का हिंसक रूप देख दंग रह गए.

एकतरफा प्यार में वह सोचने समझने की शक्ति तथा आदरभाव गंवा चुका था. उस ने काफी हंगामा किया. उस की श्रेष्ठा के भावी पति व ससुराल वालों को भड़का कर उस का जीवन बरबाद करने की धमकी सुन श्रेष्ठा के पिता ने पुलिस व रिश्तेदारों की सहायता से किसी तरह मामला संभाला.

काफी देर बाद वातावरण में बढ़ी गरमी शांत हुई थी. विवाह संपन्न होने तक सब के मन में संदेह के नाग अनहोनी की आशंका में डसते रहे थे. परंतु सभी कार्य शांतिपूर्वक पूर्ण हो गए.

बैठक से तेज आवाजें आने के कारण श्रेष्ठा की अतीत यात्रा भंग हुई और वह बाहर की तरफ दौड़ी. बैठक का माहौल गरम था. सासससुर व संयम तीनों के चेहरों पर विस्मय व क्रोध साफ झलक रहा था. श्रेष्ठा चुपचाप दरवाजे पर खड़ी उन की बातें सुनने लगी.

‘‘आंटीजी, मेरा यकीन कीजिए मैं ने जो भी कहा उस में रत्तीभर भी झूठ नहीं है,’’ आदेश तेज व गंभीर आवाज में बोल रहा था. बाकी सब गुस्से से उसे सुन रहे थे.

‘‘मेरे और श्रेष्ठा के संबंध कई वर्ष पुराने हैं. एक समय था जब हम ने साथसाथ जीनेमरने के वादे किए थे. पर जैसे ही मुझे इस के गिरे चरित्र का ज्ञान हुआ मैं ने खुद को इस से दूर कर लिया.’’

आदेश बेखौफ श्रेष्ठा के चरित्र पर कीचड़ फेंक रहा था. उस के शब्द श्रेष्ठा के कानों में पिघलता शीशी उड़ेल रहे थे.

आदेश ने हरजीत के साथ रहे श्रेष्ठा के पवित्र रिश्ते को भी एक नया ही

रूप दे दिया जब उस ने उन के घर से भागने व अनैतिक संबंध रखने की झूठी बात की. साथ ही साथ अन्य पुरुषों से भी संबंध रखने का अपमानजनक लांछन लगाया. वह खुद को सच्चा साबित करने के लिए न जाने उन्हें क्याक्या बता रहा था.

आदेश एक ज्वालामुखी की भांति झूठ का लावा उगल रहा था, जो श्रेष्ठा के वर्तमान को क्षणभर में भस्म करने के लिए पर्याप्त था, क्योंकि हमारे समाज में स्त्री का चरित्र तो एक कोमल पुष्प के समान है, जिसे यदि कोई अकारण ही चाहेअनचाहे मसल दे तो उस की सुंदरता, उस की पवित्रता जीवन भर के लिए समाप्त हो जाती है. फिर कोई भी उसे मस्तक से लगा केशों में सुशोभित नहीं करता है.

श्रेष्ठा की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. क्रोध, भय व चिंता के मिश्रित भावों में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हृदय की धड़कन तेज दौड़तेदौड़ते अचानक रुक जाएगी.

‘‘उफ, मैं क्या करूं?’’

उस पल श्रेष्ठा के क्रोध के भाव 7वें आसमान को कुछ यों छू रहे थे कि यदि कोई उस समय उसे तलवार ला कर दे देता तो वह अवश्य ही आदेश का सिर धड़ से अलग कर देती. परंतु उस की हत्या से अब क्या होगा? वह जिस उद्देश्य से यहां आया था वह तो शायद पूरा हो चुका था.

श्रेष्ठा के चरित्र को ले कर संदेह के बीज तो बोए जा चुके थे. अगले ही पल श्रेष्ठा को लगा कि काश, यह धरती फट जाए और वह इस में समा जाए. इतना बड़ा कलंक, अपमान वह कैसे सह पाएगी?

आदेश ने जो कुछ भी कहा वह कोरा झूठ था. पर वह यह सिद्घ कैसे करेगी? उस की और उस के मातापिता की समाज में प्रतिष्ठा का क्या होगा? संयम ने यदि उस से अग्निपरीक्षा मांगी तो?

कहीं इस पापी की बातों में आ कर उन का विश्वास डोल गया और उन्होंने उसे अपने जीवन से बाहर कर दिया तो वह किसकिस को अपनी पवित्रता की दुहाई देगी और वह भी कैसे? वैसे भी अभी शादी को समय ही कितना हुआ था.

अभी तो वह ससुराल में अपना कोई विशेष स्थान भी नहीं बना पाई थी. विश्वास की डोर इतनी मजबूत नहीं हुई थी अभी, जो इस तूफान के थपेड़े सह जाती. सफेद वस्त्र पर दाग लगाना आसान है, परंतु उस के निशान मिटाना कठिन. कोईर् स्त्री कैसे यह सिद्घ कर सकती है कि वह पवित्र है. उस के दामन में लगे दाग झूठे हैं.

जब श्रेष्ठा ने सब को अपनी ओर देखते हुए पाया तो उस की रूह कांप उठी. उसे लगा सब की क्रोधित आंखें अनेक प्रश्न पूछती हुई उसे जला रही हैं. अश्रुपूर्ण नयनों से उस ने संयम की ओर देखा. उस का चेहरा भी क्रोध से दहक रहा था. उसे आशंका हुई कि शायद आज की शाम उस की इस घर में आखिरी शाम होगी.

अब आदेश के साथ उसे भी धक्के दे घर से बाहर कर दिया जाएगा. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि ये सब झूठ है. वह पवित्र है. उस के चरित्र में कोई खोट नहीं कि तभी उस के ससुरजी अपनी जगह से उठ खड़े हुए.

स्थिति अधिक गंभीर थी. सबकुछ समझ और कल्पना से परे. श्रेष्ठा घबरा गई कि अब क्या होगा? क्या आज एक बार फिर उस के सुखों का अंत हो जाएगा? परंतु उस के बाद जो हुआ वह तो वास्तव में ही कल्पना से परे था. श्रेष्ठा ने ऐसा दृश्य न कभी देखा था और न ही सुना.

श्रेष्ठा के ससुरजी गुस्से से तिलमिलाते हुए खड़े हुए और बेकाबू हो उन्होंने आदेश को कस कर गले से पकड़ लिया, बोले, ‘‘खबरदार जो तुमने मेरी बेटी के चरित्र पर लांछन लगाने की कोशिश भी की तो… तुम जैसे मानसिक रोगी से हमें अपनी बेटी का चरित्र प्रमाणपत्र नहीं चाहिए. निकल जाओ यहां से… अगर दोबारा हमारे घर या महल्ले की तरफ मुंह भी किया तो आगे की जिंदगी हवालात में काटोगे.’’

फिर संयम और ससुर ने आदेश को धक्के दे कर घर से बाहर निकाल दिया. ससुरजी ने श्रेष्ठा के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘घबराओ नहीं बेटी. तुम सुरक्षित हो. हमें तुम पर विश्वास है. अगर यह पागल आदमी तुम्हें मिलने या फोन कर परेशान करने की कोशिश करे तो बिना संकोच तुरंत हमें बता देना.’’

सासूमां प्यार से श्रेष्ठा को गले लगा चुप करवाने लगीं. सब गुस्से में थे पर किसी ने एक बार भी श्रेष्ठा से कोई सफाई नहीं मांगी.

घबराई और अचंभित श्रेष्ठा ने संयम की ओर देखा तो उस की आंखें जैसे कह रही थीं कि मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. मेरा विश्वास और प्रेम इतना कमजोर नहीं जो ऐसे किसी झटके से टूट जाए. तुम्हें केवल नाम के लिए ही अर्धांगिनी थोड़े माना है जिसे किसी अनजान के कहने से वनवास दे दूं.

तुम्हें कोई अग्निपरीक्षा देने की आवश्यकता नहीं. मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं और रहूंगा. औरत को अग्निपरीक्षा देने की जरूरत नहीं. यह संबंध प्यार का है, इतिहास का नहीं.

श्रेष्ठा घंटों रोती रही और आज इन आंसुओं में अतीत की बचीखुची खुरचन भी बह गई. हरजीत की मृत्यु के समय खड़े हुए प्रश्न कि यह अन्याय क्यों हुआ, का उत्तर मिल गया था उसे.

पति सदासदा के लिए अपना होता है. उस पर भरोसा करा जा सकता है. पहले क्या हुआ पति उस की चिंता नहीं करते उस का जीवन सफल हो गया था.

पुराणों के देवताओं से कहीं ज्यादा श्रेष्ठकर संयम की संगिनी बन कर सासससुर के रूप में उच्च विचारों वाले मातापिता पा कर स्त्री का सम्मान करने वाले कुल की बहू बन कर नहीं, बेटी बन कर उस रात श्रेष्ठा तन से ही नहीं मन से भी संयम की बांहों में सोई. उसे लगा कि उस की असल सुहागरात तो आज है.

लेखिका : प्रिया रानी 

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दिल्ली का छतरपुर का इलाका. 23 दिसंबर की शाम. तापमान 7 डिग्री सैंटीग्रेड. 2 पंजाबी परिवारों के लड़केलड़की की शादी. फार्महाउस इस ढंग से सजा हुआ था कि पूछो मत. तरहतरह की रोशनियों से की हुई सजावट इतनी ज्यादा कि देखने वाले देखते रह जाएं. 10 से ज्यादा देशों के व्यंजनों के मेज लगे हुए थे. तरहतरह के पेय पदार्थों के साथसाथ खानेपीने की तगड़ी व्यवस्था थी. मैं पूरे फार्महाउस का चक्कर लगा कर स्वागतद्वार पर पहुंचा जहां बरात दूल्हे के रथ के साथ अभीअभी आई थी. समय था रात के 11 बजे. मुझे मालूम था कि लड़के वाले अभी कम से कम आधा घंटा और नाचगाना करेंगे और उस के बाद ही वरमाला की रस्म हो पाएगी.

मैं कौफी के 3 कप पी चुका था. मैं शोरशराबे से दूर एक कैनोपी (छतरी) की तरफ चल पड़ा जहां सर्दी से बचाव के लिए अंगीठी जल रही थी. वहां पर एक महिला बैठी थी, अकेली. अधेड़ उम्र की. बाल, गाल, होंठ, आंखों वगैरह की तारीफ तो नहीं कर सकता लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि देखते ही लगा कि जवानी में उस ने बहुत से युवकों को हार्टअटैक दिया होगा. अभी भी सुंदर और मनमोहक लग रही थी. पास पहुंच कर मैं ने कहा, ‘‘अगर आप को तकलीफ न हो तो आप के पास बैठ जाऊं?’’

‘‘तकलीफ मुझे नहीं, सोफे को हो सकती है. उस से इजाजत ले लीजिए. रही बात मेरे साथ बैठने की तो माफ कीजिए मैं उस की अनुमति नहीं दे सकती. हां, आप सामने बैठ सकते हैं ताकि बात करते हुए एकदूसरे को ढंग से देखा जा सके,’’ महिला ने कहा.

सच कहूं तो मुझे इस प्रकार के बेबाक उत्तर की कतई भी उम्मीद नहीं थी.

‘‘बहुतबहुत धन्यवाद. लगता है, अब बाकी की शाम, अगर इसे शाम कह सकते हैं तो आप से बातें करते आसानी से गुजर जाएगी,’’ मैं ने कहा, ‘‘लोग मुझे माथुर के नाम से बुलाते हैं और मैं इस शादी में अपने बेटे और बहू के साथ आया हूं. सच पूछो तो जबरदस्ती लाया गया हूं. बच्चे कहने लगे कि कुछ दिनों के लिए आए हो हमारे पास, साथ चलो, अकेले घर पर बैठ कर क्या करोगे.’’

‘‘मैं भी आप जैसी ही किश्ती में सवार हूं, अपनी इच्छा के खिलाफ लाई गई हूं,’’ उस ने हंस कर कहा और पूछा, ‘‘आप को माथुर या मिस्टर माथुर कह कर नहीं बुला सकती, अपना फौजी रैंक बताइए?’’

‘‘अरे वाह, आप को किस ने कहा कि मैं फौजी हूं?’’

‘‘इस में कहनेपूछने की क्या बात है. आप के चालढाल से पता चलता है कि आप फौज में रह चुके हैं. जब आप गिलास ले कर इधर आ रहे थे तभी मैं सम?ा गई थी. फिर जिस अदब और अंदाज से आप ने मुझ से बात की, शक की कोई गुंजाइश ही नहीं रही. अरे जनाब, मेरी तो पूरी उम्र फौजियों को देखते और उन में रहते हुए गुजरी है. मेरे पापा और पति दोनों ही एअरफोर्स में थे,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

‘‘मान गया आप को…’’ मैं ने वाक्य को अधूरा ही छोड़ दिया जिसे वह तुरंत ही सम?ा गई और कहा, ‘‘मधु साहनी नाम है मेरा. अब अकेली हूं इसलिए अकेले मधु का ही इस्तेमाल करती हूं. आप भी मुझे मधु कह कर बुला सकते हैं पर आप ने अपना रैंक नहीं बताया.

‘‘अब रैंक कहां. पहले ब्रिगेडियर था. पूरा नाम है ब्रिगेडियर ब्रजमोहन माथुर, अति विशिष्ट सेवा मैडल, भूतपूर्व सैनिक,’’ मैं ने कहा और फिर मजाक के लहजे में कहा, ‘‘हर बार इतना बड़ा नाम कैसे लेंगी? आप मुझे माथुर या फिर बीएम कुछ भी कह सकती हैं, जो आप को कहने में ठीक लगे.’’

‘‘यह ‘आप’ कहां से आ गया. तुम कह सकते हो अगर कभी मधु न कहना हो तो. वैसे भी मैं आप से उम्र में छोटी ही लगती हूं.’’

‘‘चलो, ठीक है पर यह तो ठीक नहीं कि मैं तो तुम्हें तुम कहूं और तुम मुझे आप. छोटेबड़े की बात छोड़ो और बराबरी की बात करो?’’ मैं ने कहा तो उस ने हंस कर कहा, ‘‘बात तो तुम ठीक करते हो बीएम साहब.’’

‘‘यह तो वही बात हुई कि ‘आसमान से गिरे, खजूर में अटके’ तुम ने आप छोड़ दिया लेकिन साहब लगा दिया. सीधेसीधे बीएम कहो. अच्छा लगेगा.’’

‘‘मंजूर. चलो, यह बताओ रहते कहां हो, करते क्या हो? गोल्फ और ब्रज खेलने के अलावा भी कोई शौक है क्या?’’ मधु ने पूछा.

‘‘इस बार तुम्हारा अंदाजा बिलकुल गलत निकला मधु. मैं इन में से कोई भी शौक नहीं रखता,’’ मैं ने कहा और फिर उसे अपने काम के बारे में बताया कि मैं तो आजकल सामाजिक सेवा में लगा रहता हूं. कब सुबह होती है, कब शाम होती है, इस का पता ही नहीं चलता.

 

इस के बाद बातों का सिलसिला कुछ ऐसा चला कि समय का पता ही नहीं चला. रात को 1 बजने वाला था जब मधु की बेटी आई और कहने लगी, ‘‘चलो मम्मी, अब घर चलते हैं,’’ मु?ा से परिचय कराने के बाद मधु ने कहा.

‘‘कुछ देर रुको. बीएम को अकेले छोड़ना ठीक नहीं लगता. इन के बच्चों को आ जाने दो, फिर चलते हैं. थोड़ी ही देर में मेरे बेटाबहू भी आ गए. जब हम उठने लगे तो  मधु ने हाथ बढ़ा कर कहा, ‘‘बीएम, सच में तुम से मिल कर बहुत खुशी हुई. अपना नंबर बताओ. तुम से बातचीत कर के अच्छा लगेगा.’’

2 दिनों बाद मधु का फोन आया. औपचारिक रूप से हालचाल पूछने के बाद उस ने कहा, ‘‘परसों वापस अपने शहर जा रही हूं. अगर समय हो और इच्छा हो तो कल मिल सकते हैं क्या?’’

‘‘पहली बात तो यह कि मैं यहां बच्चे पालने तो आया नहीं, सो समय ही समय है कोई कमी नहीं और दूसरी बात जो तुम ने इच्छा की कही है तो इतना ही कहूंगा कि ‘‘नेकी और पूछपूछ… कोई बेबकूफ ही तुम जैसी औरत से मिलने से इनकार करेगा,’’ मैं ने हंसते हुए कहा जिस पर मधु ने भी हंसते हुए कहा, ‘‘फोन पर पहली ही बातचीत में चापलूसी पर उतर आए या फिर इसे छेड़खानी समझू?’’

‘‘जो तुम्हारा दिल कहे, कह सकती हो लेकिन मेरी सच्ची बात को चापलूसी कह कर मेरी अक्लमंदी पर प्रश्नचिह्न तो मत लगाओ. खैर, बताओ कहां और कब मिलना है?’’ मैं ने पूछा.

अगले दिन जब हम मिले तो ऐसा लगा जैसे कि हम दोनों एकदूसरे को बरसों से जानते हों. 2 घंटे न जाने कब और कैसे, कौनकौन सी इधरउधर की बातें करने में निकल गए. जब वेटर बिल ले कर आया तो मधु कह रही थी, ‘‘बीएम, मैं चाहती हूं कि हमारी दोस्ती, बुढ़ापे की तो नहीं कहूंगी लेकिन इस उम्र की दोस्ती, कुछ अलग ढंग की हो. इस के लिए एक शर्त रखना चाहूंगी. मंजूर हो तो कहूं?’’

‘‘सुनने के बाद मंजूरी देना तो सुना था लेकिन बिना अपनी बात बताए मंजूरी की मांग तो मधु ही कर सकती है. चलो, तुम भी क्या याद करोगी कि किस रईस से पाला पड़ा था, चलो दे दी मंजूरी. कहो क्या कहना है, कौन सी शर्त है तुम्हारी?’’

‘‘हम व्हाट्सऐप पर बात नहीं करेंगे,’’ उस ने कहा तो मैं ने आश्चर्यभरी आवाज में पूछा, ‘‘यह कैसी शर्त है? मैं समझ नहीं?’’

‘‘देखो, व्हाट्सऐप पर हम अकसर अपनी बात नहीं कहते. दूसरों की बातों पर बातें करते हैं. उन्हीं की भेजी हुई तसवीरों, चुटकलों और न जाने कितनी अप्रासंगिक प्रतिक्रियाओं पर अपना समय बिताते हैं. ऐसा करने के लिए मेरे पास कई ग्रुप्स हैं. मैं उन में से निकलना चाहती हूं लेकिन दोस्तमित्र और रिश्तेदार ऐसा करने नहीं देते. मैं तुम्हारे साथ इस व्यर्थ की बातचीत में नहीं पड़ना चाहती. मंजूर है तो आगे कुछ कहूं?’’

‘‘हां बोलो, मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं और फिर तुम्हारी शर्त मैं पहले ही मंजूर कर चुका हूं और तुम तो अच्छी तरह से जानती हो कि कोई भी फौजी कभी भी अपनी बात से कभी नहीं मुकरता.’’

‘‘हम फोन पर बात किया करेंगे. व्हाट्सऐप का इस्तेमाल मैसेज भेज कर बातचीत का समय तय करने के लिए किया जा सकता और किसी बात के लिए नहीं.’’

‘‘ठीक है,’’ मैं ने कहा. फिर हम उठ कर रैस्टोरैंट से बाहर आ गए और हाथ मिला कर अपनेअपने घरों को चल पड़े. कुछ दिनों बाद मैं ने पहला मैसेज भेजा, यह जानने के लिए कि कब बात की जा सकती है?

‘कभी भी, शाम के 5 बजे के बाद,’ मधु का कुछ ही देर में उत्तर आ गया.

बात शुरू तो हुई एकदूसरे का हालचाल जानने से लेकिन कब मौसम की जानकारी के आदानप्रदान और विश्व की समस्याओं से होतेहोते एकदूसरे की दिनचर्या पर चली गई पता ही नहीं चला. हम दोनों ने एकदूसरे की जिंदगी के बारे में जाना और अपनेअपने जीवनसाथी को खोने के बारे में भी खुल कर बात की.

फोन पर पहली बात इतनी लंबी और मजेदार बात होगी इस का अनुमान न मुझे था और न ही मधु को. इस के बाद तो बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया. लेकिन इस में थोड़ी सी कठनाई होती थी. बातचीत कब की जाए इस का फैसला करने में ही बहुत सा समय निकल जाता था क्योंकि जब मुझे समय होता था तब मधु किसी काम में लगी होती थी और जब वह फ्री होती थी तब मैं किसी काम में व्यस्त होता था.

चूंकि हम दोनों के खून में फौजी रंग समा चुका था इसलिए इस परेशानी का हल भी हम ने आसानी से निकाल लिया. यह निर्णय लिया गया कि सप्ताह में एक दिन एक निश्चित समय पर बात की जाए. यह निर्णय इतना बढि़या रहेगा मुझे इस का अंदाजा नहीं था. मैं एक बार फिर से जवानी के दिनों में पहुंच गया क्योंकि अब मुझे उस दिन और उस समय का 2-3 दिन पहले से ही इंतजार रहने लगा था. जब यह बात मैं ने मधु को बताई तो उस ने अपने अंदाज में हंस कर कहा, ‘‘सच कहूं, इंतजार तो मुझे भी रहता है.’’

इस का मतलब है कि आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई. इस पर वह कहने लगी, ‘‘ऐसी बात है तो नहीं लेकिन अगर तुम ऐसा समझते हो तो तुम्हारी सोच को तो मैं रोक नहीं सकती पर इतना जरूर कहूंगी कि किसी शायर के शेर की टांग तो मत तोड़ो. जहीर देहलवी का सही शेर है, ‘चाहत का जब मजा है कि वो भी हों बेकरार, दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई.’

‘‘तो इस का मतलब है कि जनाब को भी शेरोशायरी का शौक है,’’ मैं ने कहा तो मधु तपाक से बोली, ‘‘तो तुम ने भी इस शौक को पाल रखा है, मुझे मालूम नहीं था. चलो अच्छा है, खूब जमेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो.’’

‘‘मिलने तक इंतजार करेंगे तो मर नहीं जाएंगे क्या? मुझे यकीन है मधु कि इस बात को तुम भी मानोगी कि कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो कही नहीं जातीं या फिर कहने में उतनी असरदार नहीं होतीं जो लिख कर बताने में होती हैं. क्या हम कभीकभी ऐसी बातों को लिख कर एकदूसरे से शेयर नहीं कर सकते?’’ जब मैं ने पूछा तो उस ने कहा, ‘‘हां, क्यों नहीं, लेकिन व्हाट्सऐप पर नहीं. तुम चाहो तो ईमेल का इस्तेमाल कर सकते हो.’’

‘‘अगर मैं कहूं कि ईमेल नहीं, स्नेलमेल कैसा रहेगा तो क्या कहोगी?’’ मेरे इस प्रश्न पर मधु ने पूछा, ‘‘स्नेलमेल से तुम्हारा मतलब डाक से पत्रव्यवहार का है क्या?’’ जब मैं ने ‘हां’ कहा तो वह खूब खुल कर हंसी और कहा, ‘‘अब इस उम्र में, फिर से…’’

‘‘क्यों तुम्हें प्रेमपत्रों की याद आ गई है क्या, लिखे थे कभी?’’ छेड़खानीभरे अंदाज में मैं ने प्रश्न किया.

‘‘कभी का क्या मतलब? हां, लिखे थे, बहुत सारे, ढेरों से, शादी से पहले भी और शादी के बाद भी. जब मेरे पति 5 महीने के लिए रूस गए थे तब तो हर दूसरे दिन एक पत्र लिखा जाता था. और जानते हो, हरेक पत्र को क्रम संख्या दी जाती थी क्योंकि एकदूसरे का पत्र मिलने में 10-15 दिन लग जाते थे. एक और मजेदार बात उन दिनों की. इन के वापस आने के 15 दिनों बाद तक इन के लिखे पत्र आते रहे जिन्हें हम दोनों साथ बैठ कर पढ़ते थे और खूब मजे लेते थे.’’

‘‘मैं पत्रों की बात कर रहा हूं, प्रेमपत्रों की नहीं. अच्छा बताओ, अगर पहल मैं करूं जवाब तो दोगी?’’ जब मैं ने पूछा तो मधु का स्पष्ट उत्तर था, ‘‘अब दोस्ती की है तो जरूर निभाऊंगी.’’

अब हमारी साप्ताहिक बातचीत बिना किसी झिझिक किसी भी विषय पर होती थी लेकिन इस में कभी भी प्यार, इश्क जैसे शब्दों का हम दोनों में से किसी ने भी इस्तेमाल नहीं किया और न ही कभी वयस्क चुटकुलों को इस बातचीत में आने दिया. लेकिन हां बचपन की शरारतें और जवानी के किस्से जरूर बातों में शामिल हो गए थे. एक दिन जब मैं ने कहा, ‘‘मधु, तुम्हें पहली बार फार्महाउस में देख कर जो बात मेरे दिमाग में सब से पहले आई थी वह थी, ‘खंडहर देख कर लगता है कि इमारत कभी बुलंद थी.’ वह अपने जानेपहचाने अंदाज में ठहाका मार कर बोली, ‘‘लगता है, तुम्हारे दिल और दिमाग में कोई तालमेल नहीं है. अरे भाई, अगर दिमाग ने सोचा था तो दिल से आवाज क्यों नहीं निकली थी?’’

एक दिन बातोंबातों में यों ही अचानक मधु ने पूछा, ‘‘तुम्हारे उस पत्र का क्या बना?’’

जब मैं ने कहा कि कौन सा पत्र? तो उस ने प्रश्न करते हुए कहा, ‘‘भूल गए क्या?’’

‘‘जब मैं ने कहा कि हां, सच कह रहा हूं. मुझे कोई खबर नहीं कि तुम किस पत्र की बात कर रही हो? मुझे किसी भी पत्र के बारे में कुछ भी याद नहीं.’’

तब मधु ने याद दिलाते हुए कहा, ‘‘ईमेल, स्नेलमेल, कुछ याद आया क्या?’’

‘‘अरेअरे… क्या हो गया है मुझ को? समझ में नहीं आता कि कैसे इतनी प्यारी सी बात भूल गया. तुम्हारे सामने होता तो शायद कह भी देता कि खूबसूरत बुत को देखा तो याददाश्त खो बैठा, लेकिन अब क्या कहूं?’’

 

फिर थोड़ा सोच कर मैं ने कहा, ‘‘इस भूलने की खूबसूरत सजा मैं अपनेआप को दे रहा हूं. कल ही मेरा पहला पत्र तुम्हारे घर की ओर रवाना हो जाएगा.’’

‘‘यह की न कोई ढंग की बात इतने दिनों बाद,’’ जब मधु ने कहा तो मैं ने कहा, ‘‘जब कभी भी यह दिमाग चलता तो है, तो सिर्फ चलता ही नहीं दौड़ता है. एक और ढंग की बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘बीएम, तुम तो ऐसी भूमिका बांध रहो हो जैसे कि शादी का प्रस्ताव पेश करने जा रहे हो. कहो, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘फरियाद कर रही हैं यह तरसी हुई निगाहें, देखे हुए किसी को जमाना गुजर गया,’’ जब मैं ने कहा तो मधु का उत्तर था, ‘‘शेर तो अच्छा है. कहना क्या चाहते हो? मेरे शहर में आने का विचार है क्या?’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं हैं. मैं तो एक छोटा सा सुझाव देने वाला हूं. हम फोन पर साधारण बात करने की जगह पर वीडियोकौल नहीं कर सकते क्या?’’ जब मैं ने पूछा तो मधु बोली, ‘‘बस, इतनी सी बात कहने के लिए घबराहट हो रही थी? मैं तो सोचती थी कि ब्रिगेडियर साहब ने अपने फौजी जीवन में बहुत सी कठिन परिस्थितियों को बिना किसी घबराहट के आसानी से निबटा लिया होगा,’’ और फिर हंस कर कहा, ‘‘परमिशन ग्रांटेड.’’

एक ही दिन में 2 अच्छी बातों का होना- पत्रों के आदानप्रदान का सिलसिला और फिर वीडियोकौल्स के माध्यम से बातचीत. पता नहीं क्यों मुझे लगा मानो पतझड़ में बहार आ गई हो. जब मैं ने यही बात मधु से कही तो उस ने कहा, ‘‘इतनी बहार भी नहीं आई क्योंकि जैसे हम सप्ताह में एक बार बात करते हैं वैसे ही महीने में एक बार ही वीडियो पर बात किया करेंगे. कोई शक, कोई सवाल?’’ मधु ने फौजी अंदाज में लेकिन मेरी टांग खींचते हुए पूछा.

उत्तर में मैं ने नहीं में सिर हिला दिया. क्षणभर के लिए मैं यह समझ बैठा था कि हम वीडियोकौल पर हैं और मधु मेरी ‘नहीं’ में दी गई स्वीकृति को समझ जाएगी.

Love Story : प्‍यार की कीमत

Love Story : ‘‘सुना है, तेरा बापू तेरा ब्याह रचाने की तैयारी में है…’’ केशव ने 16 साल की हरीरी से पूछा. ‘‘पता नहीं… पर एक दिन अम्मां और बापू कुछ बात कर रहे थे और जब मैं पहुंची तो वे चुप हो गए,’’ हरीरी ने भोलेपन से जवाब दिया. ‘‘हां, पर तुझे कुछ पता भी है कि तेरा मरद कौन होने वाला है,’’ केशव ने कहा. ‘‘कोई भी हो, क्या फर्क पड़ता है… अब तुम तो ऊंची जाति वाले हो, इसलिए तुम से ब्याह कर पाना तो मेरे करम में नहीं है,’’ मन भर आया था हरीरी का. उस के इस सवाल के बदले में कोई भी जवाब नहीं था केशव के पास, बस उस ने आगे बढ़ कर हरीरी के गाल को चूम लिया था. केशव की बांहों में अपनेआप सीमटती चली गई हरीरी.

‘‘तेरा बापू… असल में तेरा सौदा कर रहा है. वह तुझे मोहनलाल, जो गांव के बाहर देशी शराब का ठेका चलाता है और अंडे बेचता है, को तुझे बेच रहा है पूरे 10,000 रुपए में,’’ केशव ने बताया. ‘‘पर केशव, मैं तो इस में कुछ नहीं कर सकती. अभी बापू के घर में हूं तो जहां वे काम के लिए भेजते हैं, वहां चली जाती हूं, कल को जहां ब्याह दी जाऊंगी… वहीं चली जाऊंगी, ’’ हरीरी बोली. ‘‘पर यह ब्याह नहीं है. वे तो तुझे उस 40 साल के बूढ़े के हाथों पैसा ले कर बेच रहे हैं,’’ केशव गुस्से में था. ‘‘ठीक तो है… जब मेरा ब्याह मोहनलाल के साथ हो जाएगा, तब मेरे ठेके पर आना… मुफ्त में दारू पिलाएंगे तुझे,’’ कहते हुए ठहाका लगाया था हरीरी ने. केशव ओर हरीरी एक ही गांव में रहते और एकदूसरे से प्यार भी करते थे. यह अलग बात है कि एक ऊंची जाति के लड़के को एससी लड़की से प्यार करने में क्याक्या परेशानियां आ सकती हैं,

इस से वे दोनों अनजान नहीं थे, और बिना अपने प्यार का नतीजा जाने वे एकदूसरे से छिप कर मिलते रहे थे. फिर एक दिन हरीरी के बाप ने उस का और मोहनलाल का ब्याह करा दिया. या यों कह लीजिए कि हरीरी को एक आदमी के हाथों बेच दिया. मोहनलाल की पहली बीवी मर चुकी थी, इसलिए उसे अपने दारू के धंधे में हाथ बंटाने के लिए एक औरत चाहिए थी. हरीरी के बाप को पैसा चाहिए था, इसलिए दोनों ने मिल कर एकदूसरे की समस्या का हल कर दिया था.

अपनी शादी के दिन, गांव के एक हिस्से से गांव के ही दूसरे घर में पहुंच गई थी हरीरी. न बैंडबाजा, न बरात, बस मोहनलाल को चायपानी जरूर करा दिया गया था और मोहनलाल ने पूरे 10,000 रुपए गिन कर दे दिए थे हरीरी के बापू को. रात हुई तो हरीरी ने खाना बनाया और दोनों ने साथ में मिल कर खाया. बिस्तर पर लेटते ही मोहनलाल हरीरी को चूमने लगा था और फिर पीठ घुमा कर खर्राटे भरने लगा, क्योंकि उस के शरीर को औरत की जरूरत सिर्फ अपने धंधे के लिए थी, किसी औरत को संतुष्ट कर पाने की ताकत नहीं थी उस में. अगली सुबह से ही दुलहन बनी हरीरी ने घर का सारा काम संभाल लिया और मोहनलाल के धंधे में उस का हाथ भी बंटाने लगी.

एक कम उम्र की लड़की दारू के ठेके पर बैठ कर अंडा, नमकीन बेचेगी तो दारू की बिक्री में इजाफा होना तो तय ही था. लोग दारू पीते, अंडानमकीन खाते, हरीरी को देखदेख कर आहें भरते और भद्दे मजाक करते हुए चले जाते, पर मोहनलाल को इस सब से कोई दिक्कत नहीं थी. एक शाम ठेके पर केशव आया. उसी समय मोहनलाल कहीं बाहर गया हुआ था. केशव द्वारा दारू मांगने पर हरीरी बोली, ‘‘तुम कब से दारू पीने लगे?’’ ‘‘जब से तुम जिंदगी से दूर चली गई हो,’’ केशव ने कहा. हरीरी के बुलाने पर केशव अंदर बैठ कर दारू पीने लगा. तभी बाहर तेज बारिश शुरू हो गई थी. अंदर 2 जवां प्रेमी के दिल तेजी से धड़क रहे थे. केशव ने हरीरी का हाथ पकड़ लिया और हरीरी ने भी बिना कोई विरोध किए केशव को सौंप दिया. दोनों के मन तो पहले से एक थे, आज तन भी एक हो गए. मोहनलाल का धंधा दोगुना फायदा दे रहा था. अब तो वह देर शाम को घर आता तो पैसों की एक थैली उस के हाथ में होती, जिन को कई बार वह गिन कर ही अलमारी में रखता था.

केशव के मन में हरीरी के लिए प्यार की आग और भी भड़क उठी थी. उसे लगने लगा था कि अब वह हरीरी के बिना नहीं रह सकेगा. उधर हरीरी भी ठेके पर लोगों के गलत बरताव से दुखी हो चुकी थी. हरीरी ने कई बार मोहनलाल से शिकायत भी की थी, मैं काम से नहीं मना करती, पर यहां लोग दारू पीने के बाद मुझ से छेड़छाड़ करते हैं, जो मुझे अच्छा नहीं लगता. इस पर मोहनलाल ने उसे जवाब दिया, ‘‘इसी के लिए तुझे ब्याह कर लाया हूं कि मेरे काम में एक औरत के होने से और रौनक आए और निचली जाति में पैदा होने के बाद इतने नखरे मत झाड़ा कर.

कभीकभार कोई कुछ बोल भी दे, तो मुंह बनाने के बजाय मुसकरा दिया कर.’’ हरीरी ने चुपचाप मोहनलाल की बात सुन ली और अपने काम में लग गई. दोनों की शादी के 6 महीने बीत गए थे. एक सुबह जैसे ही मोहनलाल सो कर उठा, तो हरीरी ने तबीयत खराब होने की बात बताई. पहले तो मोहनलाल ने ऐसे ही टालने की कोशिश की, पर जब हरीरी को उलटियां होने लगीं, तो वह उसे गांव के अस्पताल में ले गया. अस्पताल में जब डाक्टर ने उसे बताया कि हरीरी मां बनने वाली है, तो यह बात सुन कर वह सन्न रह गया. ‘‘यह बच्चा किस का है?’’ घर आते समय मोहनलाल ने पूछा. पहले तो हरीरी खामोश रही,

पर जब उसे लगा कि मोहनलाल से सच छिपाने से क्या फायदा, इसलिए उस ने केशव और अपने संबंध के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया. रात में खूब दारू पीने के बाद मोहनलाल ने हरीरी को बहुत पीटा और जीभर कर गालियां दीं. उस की गालियां और मार खा कर हरीरी के मन में जीने की कोई इच्छा न रही. वह घर से भाग गई और शायद खुदकुशी कर ही ली थी, अगर उसे केशव ने सही समय पर नहीं बचाया होता. सारा हाल जानने के बाद केशव ने फैसला लिया कि अब वह हरीरी को अकेला नहीं छोड़ेगा. दोनों शहर में जा कर रहेंगे.

अब चाहे अंजाम कुछ भी हो, पर वह हरीरी को नहीं छोड़ेगा. केशव अपने घर से पैसे और दूसरा जरूरी सामान लाने हरीरी का हाथ पकड़ कर चल दिया. उधर जब हरीरी घर में नहीं मिली, तो मोहनलाल समझ गया कि चिडि़या फुर्र हो गई है. वह सीधा केशव के पिता के पास पहुंचा और सारी बात बताते हुए कहा कि भोलेभाले केशव को उस की पत्नी हरीरी ने डोरे डाल कर फंसा लिया है और अब वह पैसे के लालच में केशव के साथ कहीं भाग सकती है. केशव के पिताजी की आंखें गुस्से से लाल हो गई थीं.

वे क्षत्रिय थे, भला किसी निचली जाति वाली लड़की उन के लड़के पर कैसे डोरे डाल सकती है? क्या केशव की मति मारी गई है, जो उस लड़की के साथ रिश्ता बना रहा है…?

अरे, पैर की जूती पैर में ही भली लगती है. ऐसा सोच कर उन्होंने अपने आदमियों को तुरंत केशव को ढूंढ़ कर लाने को कहा. तभी सामने से केशव आता दिखाई दिया. केशव ने बड़ी हिम्मत से हरीरी का हाथ पकड़ा हुआ था.

मोहनलाल अपनी बीवी को गैरमर्द के साथ देख कर चीख पड़ा था, ‘‘देखिए ठाकुर साहब… यह रही डायन, आप के लड़के को फांसे हुए है.’’ मोहनलाल के शब्द सुन कर केशव के पिता की आंखें गुस्से से दहक उठीं. उन्होंने अपने आदमियों को इशारा किया, जिन्होंने केशव को तुरंत पकड़ कर अंदर कमरे में बंद कर दिया.

केशव ने छूटने की बहुत कोशिश की, पर उन मुस्टंडों की ताकत के आगे वह अकेला था और छूट नहीं पाता. तब तक केशव के घर के आगे गांव के काफी लोग भी जमा हो गए थे.

केशव के पिताजी ऊंची आवाज में बोले, ‘‘गांव वालो, आज एक और शरीर को हमें डायन के आतंक से मुक्ति दिलानी होगी. यह डायन हमारे लड़के को भी खाने वाली थी और धीरेधीरे सारे गांव को ही अपना निवाला बना लेती, इसलिए इसे इतना मारो कि इस की आत्मा अभी इस शरीर को त्याग कर परलोक सिधार जाए.’’

ऐसे मौकों पर गांव वालों के पास न तो पत्थरों की कमी होती है और न ही ताकत की. गांव वालों ने इस से पहले भी कई बार कई औरतों को डायन के आतंक से मुक्ति दिलाई थी. गांव वालों ने बिना कुछ सोचेसमझे पत्थर उठा कर मारने शुरू किए और कुछ ही देर में हरीरी की आत्मा उस के शरीर को त्याग चुकी थी और उस की लाश गांव वालों के सामने पड़ी हुई थी. गांव वालों ने एक एससी लड़की को मोक्ष प्रदान कर दिया था.

Box Office : ‘सिकंदर’ के बाद ‘जाट’ भी पस्त, धड़ाधड़ गिरे पीवीआर आयनौक्स के शेयर के दाम

Box Office : अप्रैल माह में बड़े बजट की फिल्में तो रिलीज हुईं मगर बौक्स औफिस पर वे चल नहीं पाईं. निर्माता और निर्देशकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है.

अप्रैल माह के पहले सप्ताह ने नहीं जगाई कोई उम्मीद. 2025 की पहली तिमाही इतनी सूखी रही कि निर्माता, निर्देशक, कलाकारों व सिनेमाघर मालिकों के साथ ही आम जनता की जेब से करोड़ों रूपए चले गए. देश में दो सब से बड़े मल्टीप्लैक्स चैन हैं- पीवीआर और आयनौक्स. अब यह दोनों एक हो गए हैं.

जनवरी 2025 के पहले सप्ताह में पीवीआर आयनौक्स के शेयर के दाम प्रति शेयर लगभग 1600 रूपए थे, जो कि 30 मार्च को घट कर प्रति शेयर लगभग 958 रुपए हो गए थे. यानी कि इस के शेयर धारक को प्रति शेयर सिर्फ तीन माह के अंदर 642 रूपए का नुकसान हो गया था.

सभी को उम्मीद थी कि तिमाही के अंतिम दिन रिलीज हो रही सलमान खान की फिल्म ‘सिकंदर’ कुछ कमाल करेगी. इसे पूरे दो सप्ताह में 12 दिन (30 मार्च से दस अप्रैल) का समय मिल रहा था. लेकिन ‘सिकंदर’ इस कदर बौक्स औफिस पर डूबी कि 4 अप्रैल को पीवीआर आयनौक्स के शेयर के दाम प्रति शेयर लगभग 58 रूपए घटकर 900 रुपए पर पहुंच गए थे.

अप्रैल के पहले सप्ताह में कोई नई फिल्म रिलीज नहीं हुई, मगर मोहनलाल की विवादित डब मलयालम फिल्म ‘‘लूसी 2 इम्पूरन’ ने थोड़ा सहारा दिया. उस के बाद अप्रैल के दूसरे सप्ताह से एक दिन पहले 10 अप्रैल को सनी देओल की फिल्म ‘जाट’’ रिलीज हुई. ‘सिकंदर’ के मुकाबले पांच प्रतिशत ठीक होने के बावजूद अति विभत्स हिंसा व खून खराबा के चलते पहले ही दिन इस फिल्म को दर्शक नहीं मिले. परिणामतः पीवीआर मल्टीप्लैक्स के शेयर के दाम ज्यादा नहीं बढ़े. फिर भी 4 अप्रैल को 900 रुपए के मुकाबले 11 अप्रैल को 16 रुपए बढ़ कर 916 रूपए हो गया.

शेयर बाजार से जुड़े लोगों की राय में यह दाम इसलिए बढ़े कि लोग अभी भी उम्मीद लगाए हुए हैं कि शनिवार, रविवार वो सोमवार को छुट्टी के दिन ‘जाट’ कुछ कमाई कर लेगी. यदि ऐसा नहीं हुआ तो मंगलवार, 15 अप्रैल को पीवीआर आयनोक्स की हालत काफी खराब हो जाएगी.

अब बात अप्रैल माह के पहले सप्ताह के बाक्स आफिस रिपोर्ट की की जाए, तो अप्रैल के पहले सप्ताह 4 अप्रैल को कोई नई फिल्म रिलीज नहीं हुई. जिस के चलते मार्च के चौथे और अप्रैल के पहले सप्ताह को मिला कर सलमान खान की फिल्म महज 102 करोड़ रूपए ही कमा सकी.

सिकंदर की इतनी बुरी दुर्गति हुई यह फिल्म असफल फिल्मों ‘जीरो’ और ‘लाल सिंह चड्ढा’ की भी बराबरी नहीं कर पाई.

दो सप्ताह के अंदर मोहनलाल की मलयालम फिल्म ‘लूसी 2 इम्पूरन’ ने हिंदी और मलयालम मिला कर केवल भारत में 102 करोड़ रूपए तथा पूरे विश्व में 262 करोड़ रूपए कमाए.

अप्रैल माह के पहले सप्ताह की समाप्ति से एक दिन पहले 10 अप्रैल को सनी देओल व रणवीर हुडा अभिनीत फिल्म ‘‘जाट’’ रिलीज हुई. निर्माताओं के अनुसार इस फिल्म ने पहले दिन महज साढ़े 9 करोड़ रूपए ही बाक्स आफिस पर एकत्र कर सकी. 100 करोड़ रूपए में बनी फिल्म ‘जाट’ पहले दिन के कलेक्यान के आधार पर लाइफ टाइम बिजनेस 70 करोड़ ही कर पाएगी. यानी कि फिल्म की लागत वसूल नहीं कर पाएगी.

यदि शनिवार, रविवार और सोमवार की छुट्टी के दिनों में कोई चमत्कार हो जाए तो स्थिति बदल सकती है.

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