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West Bengal : क्रूरता के शिकार हुए शिक्षक, पीड़ित ही दोषी

West Bengal : कईयों के कंधों पर बूढ़े मांबाप की देखभाल और सेवा शुमार की भी जिम्मेदारी है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 3 अप्रैल के एक क्रूर और निर्मम फैसले ने इन का सबकुछ छीन लिया है.

यह फैसला क्या है और क्यों विधिक क्रूरता का पर्याय होने के साथसाथ अव्यवहारिक भी है यह समझने से पहले थोड़े से में यह समझना जरुरी है कि मामला क्या है जिस में पीड़ितों को ही गुनाहगार मानते सजा दे दी गई है और असल मुजरिमों में से अधिकतर के कहीं अतेपते नहीं हैं. एक तरह से उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया है.

साल 2016 में पश्चिम बंगाल स्कूल सेवा आयोग यानी WBSSC ने शिक्षक और गैर शिक्षण (नान टीचिंग) कर्मचारी पदों के लिए रिक्तियां निकाली थीं. इस परीक्षा के तहत 25753 उम्मीदवारों का चयन किया गया. जैसा कि आमतौर पर पूरे देशभर में होता है वह पश्चिम बंगाल में भी हुआ कि भर्ती प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही परीक्षा में भ्रष्टाचार के आरोप लगना शुरू हो गए.

कई उम्मीदवारों ने यह दावा किया कि उन्हें काबिल होते हुए भी नौकरी नहीं मिली और उन से कम काबिल उम्मीदवारों का चयन हो गया. 5 से ले कर 15 लाख प्रति पद की घूसखोरी और राजनातिक संरक्षण के भी आरोप लगे.

हल्ला मचा तो इस गड़बड़झाले की जांच हुई जिस से पता चला कि आरोप गलत नहीं हैं और कई नियुक्तियां गैरकानूनी तरीकों से की गईं. मसलन, उम्मीदवारों ने फर्जी दस्तावेजों का इस्तेमाल किया और बड़े पैमाने पर ओएमआर शीट्स में हेराफेरी हुई. सीबीआई और ईडी की जांच में कई अधिकारीयों और सत्तारूढ़ टीएमसी नेताओं सहित कुछ भाजपा नेताओं के नाम सामने आए.

इन में से एक बड़ा चर्चित नाम राज्य के तत्कालीन शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी और उन की एक करीबी युवती पेशे से मौडल बेइन्तहा खूबसूरत अर्पिता मुखर्जी का था.

इन दोनों के यहां जुलाई 2022 में छापे पड़े जिन में भारी मात्रा में देशीविदेशी नगदी (लगभग 49 करोड़) और सोनाचांदी वगैरह बरामद हुए. इस के तीसरे ही दिन दोनों को गिरफ्तार भी कर लिया गया. इस नगदी के तार स्वभाविक रूप से इस भर्ती से जोड़े गए. मामला कलकत्ता हाईकोर्ट में तकरीबन 8 साल चला और कोर्ट ने अप्रैल 2024 में अपना फैसला सुनाया जिस में कहा गया था कि सभी 25753 नियुक्तियों को रद्द किया जाता है. इतना ही नहीं चुने गए उम्मीदवारों को अबतक मिली सैलरी भी वापस करना होगी वह भी 12 फीसदी ब्याज के साथ.

इस फैसले से समूचे पश्चिम बंगाल में हड़कंप मच गया. धरनेप्रदर्शन हुए और उम्मीद के मुताबिक तथाकथित दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली. लगभग एक साल की सुनवाई के बाद 3 अप्रैल 2025 को मामूली फेरबदल के साथ सब से बड़ी अदालत ने हाईकोर्ट का फैसला यथावत रखा.

चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि सभी नियुक्तियां रद्द रहेंगी. क्योंकि 2016 की चयन प्रक्रिया इतनी दूषित और दोषपूर्ण थी कि अब उसे सुधार पाना संभव नहीं होगा. हां इतना रहम जरूर सुप्रीम कोर्ट ने किया कि कर्मचारियों को सैलरी वापस नहीं करना पड़ेगी. क्योंकि कई कर्मचारी इस प्रक्रिया में हालातों का शिकार थे. दिव्यांगों को नई चयन प्रक्रिया तक नौकरी में बने रहने की छूट दी गई. उन्हें उम्र में भी छूट रहेगी. सुप्रीम कोर्ट ने नई भर्ती प्रक्रिया तीन महीने में पूरी करने का भी आदेश दिया.

इसलिए अव्यवहारिक है

यह फैसला ऐसे समय में आया है जब नया सेशन शुरू है. बड़ी तादाद में नियुक्तियां रद्द होने से राज्य की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई है. हाल तो यह है कि सैकड़ों स्कूलों को माध्यमिक बोर्ड की कक्षाओं से ले कर परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्याकंन तक के लिए संकट का सामना करना पड़ रहा है. पूरे देश की तरह पश्चिम बंगाल पहले से ही शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है अब सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कोढ़ में खाज सरीखा साबित हो रहा है. कई स्कूलों में तो समेटिव यानी यूनिट टेस्ट भी नहीं हो पा रहे.

इधर WBSSC के मुखिया सिद्धार्थ मजूमदार ने तो फैसला आते ही यह कहते हाथ खड़े कर दिए हैं कि पूरी प्रक्रिया तीन महीने में पूरी नहीं हो सकती. हम कानूनी सलाह ले रहे हैं उस के बाद ही कुछ कह सकते हैं. दिलचस्प सवाल अब यह उठ खड़ा हो रहा है कि निकाले गए कई टीचर्स उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन कर रहे थे अब क्या वह भी अवैध होगा?

यह ठीक वैसा ही सवाल है जैसा मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले के बाद सुर्खियों में रहा था कि क्या उन डाक्टरों द्वारा किया गया इलाज भी नाजायज करार दिया जाएगा जिन्होंने फर्जी तरीकों से एमबीबीएस में दाखिला लिया था और सफलतापूर्वक डाक्टरी की डिग्री हासिल कर ली थी. उन का एडमिशन तो फर्जी हो सकता है लेकिन डिग्री का क्या?

बड़ी दिक्कत का सामना उन स्कूलों को करना पड़ रहा है जिन में छात्र ज्यादा हैं और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक थोक में शिक्षक बाहर हो रहे हैं. मुर्शिदाबाद जिले के ब्लाक फरक्का के अर्जुनपुर हाईस्कूल में करीब 9500 छात्र हैं और 70 में से 36 शिक्षकों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है. ऐसे स्कूलों के बाबत सुप्रीम कोर्ट खामोश ही रहा है जबकि WBSSC ने हलफनामे के जरिए ऐसे आंकड़े अदालत में पेश किए थे.

घुन के साथ पिसा गेंहू

9 साल चले इस मामले के कई दिलचस्प पहलू भी हैं. सुप्रीम कोर्ट में हुई बहस के दौरान पश्चिम बंगाल सरकार की तरफ से पैरवी कर रहे अधिवक्ता राकेश द्वेवेदी ने दलील दी थी कि भर्ती घोटाले की जांच राज्य सरकार ने की थी जिस में पाया गया था कि कुछ उम्मीदवारों की ओएमआर शीट्स में मार्क्स बढ़ाए गए थे. लेकिन सीबीआई ने 952 उम्मीदवारों की ओएमआर शीट में गड़बड़ी की बात की.

इस पर सीजेआई ने उन से पूछा कि तो स्थिति से निबटने के लिए आपने कहा कि चलो ठीक है गलत तरीके से नियुक्त किए गए लोगों को हटाने के बजाय अतिरिक्त पद बना देते हैं. द्विवेदी जी, एक बात बताइए अगर आप को गड़बड़ी मिलेगी तो आप उम्मीदवारों को बाहर नहीं करेंगे क्या? इस पर राकेश द्विवेदी ने कहा सरकार का आदेश वेटिंग लिस्ट के उम्मीदवारों के लिए था.

सीजेआई ने तुरंत इस बात को यह कहते काटा कि सही कह रहे हैं आप दोनों उम्मीदवारों को बाहर नहीं निकालना चाहते थे आप. क्या दागी उम्मीदवारों और सही तरीके से एग्जाम देने वालों को अलगअलग नहीं किया जा सकता क्या.

इस पर एसएससी की तरफ से पैरवी कर रहे वकील जयदीप गुप्ता ने कहा हम भी उम्मीदवारों को अलगअलग करने के पक्ष में थे.
राकेश द्विवेदी ने भी सहमति जताते कहा हम भी यही चाहते थे कि उम्मीदवारों को अलगअलग किया जाए लेकिन हाईकोर्ट बहुत आगे ही चला गया उस ने सभी उम्मीदवारों के लिए एकसा फैसला सुना दिया.

इस दलील के कोई खास माने नहीं थे क्योंकि गड़बड़ी की शुरुआत तो तभी हो गई थी जब सरकार ने 24640 पदों के लिए रिक्तियां निकाली थीं. लेकिन बाद में पदों की संख्या 25153 कर दी थी. अदालत ने इस बात को ज्यादा ध्यान में रखा. यह मानना स्वभाविक भी था कि यह बढ़ोतरी घूस वगैरह के लिए की गई है लेकिन इस की सजा बेदाग उम्मीदवारों को भी भुगतना पड़ रही है. मुमकिन है घूसखोरी से भरे पदों की संख्या ज्यादा हो लेकिन यह कोई नहीं कह सकता कि चयनित सभी उम्मीदवारों ने घूस दी थी.

फैसले के बाद उस से व्यक्तिगत रूप से असहमति जताते मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा भी था कि सभी ने घूस नहीं दी होगी. उन की मंशा यह थी कि जो बेदाग हैं कम से कम उन्हें तो बर्खास्त न किया जाए.

लेकिन दिक्कत यह थी कि दागी और बेदागों की छटनी कौन और कैसे करे यानी भूसे के ढेर से गेंहू कौन बीने. यहां यह सोचाजाना लाजिमी है कि बेदागों को भी सजा मिलना जायज था क्या, जब कि न्याय का मूलभूत सूक्ति वाक्य यह है कि भले ही सौ गुनाहगार छूट जाएं लेकिन एक बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए. इस मामले में तो बेगुनाहों की तादाद हजारों में है. इस के पहले शायद ही ऐसा हुआ हो कि कानून की चक्की में घुन के साथ गेंहू पिसा हो.

अगर किसी भी तरह से सही और गलत का विभाजन किया जा सकता होता तो तय है हजारों शिक्षक आज झींक नहीं रहे होते जिन के सामने एक अंधकारमय कल मुंह फाड़े खड़ा है. दिख यह भी रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला तो दे दिया लेकिन वह दूध का दूध और पानी का पानी नहीं कर पाया है.

हर कहीं होता है ऐसा

इस परीक्षा में 23 लाख उम्मीदवार शामिल हुए थे यानी एक पद के लिए लगभग सौ उम्मीदवार थे. अव्वल तो सरकारी नौकरी ही भाग्य की बात मानी जाती है तिस पर वह शिक्षक की हो तो बात सोने पे सुहागा जैसी होती है. इस नौकरी में काम कम है अलाली और मस्ती ज्यादा है. शिक्षक पढ़ाते कम हैं राजनीति ज्यादा करते हैं. हर कभी ये शिकायतें वायरल होती रहती हैं कि स्कूल तो स्कूल टीचर भी ठेके पर चल रहे हैं.

शिक्षक स्कूल जाएं न जाएं उन से सफाई मांगने बाले खुद ही दफ्तरों से नदारद रहते किसी मंत्री नेता या बड़े साहब के यहां एड़ियां चटका रहे होते हैं. इस नौकरी को हासिल करने लोग कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं. घूस भी देते हैं और सिफारिशें भी करवाते हैं. ऐसे में घपलेघोटाले न हों तो जरूर हैरानी होती है.
सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार का ज्ञात सब से बड़ा घोटाला मध्यप्रदेश का व्यापम घोटाला था जिस में हजारों नाकाबिल काबिलों का हक मारते मैडिकल कालेजों में दाखिला ले कर डाक्टर बन बैठे थे.

पश्चिम बंगाल की तर्ज पर ही उत्तरप्रदेश में साल 2019 में उत्तरप्रदेश में सामने आया था जब 69 हजार शिक्षकों की भर्ती गलत तरीके से होने पर बवाल मचा था यह मामला हालांकि जातिगत आरक्षण में गड़बड़ी का था लेकिन नुकसान तो इस से भी कम नहीं हुआ था. इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी कोलकाता हाईकोर्ट जैसा फैसला देते चयनित शिक्षकों की लिस्ट को रद्द कर दिया था.

त्रिपुरा में 2010 में भी ऐसा ही हुआ था जब त्रिपुरा हाईकोर्ट ने 10323 शिक्षकों की नियुक्तियों की आवेदन प्रक्रिया को रद्द कर दिया था. कर्नाटक में भी साल 2015 में शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में आरोप लगे थे इस मामले में सितम्बर 2022 में कई कर्मचारियों और अधिकारीयों की गिरफ्तारी हुई थी. ज्यादा नहीं महज एक साल पहले ओडिशा में भी यही सब कुछ हुआ था. इस मामले में शिक्षक भर्ती गिरोह का पर्दाफाश हुआ था जिस के तार दूसरे राज्यों तक फैले हुए थे.

अब से कोई 25 साल पहले सम्पन्न हुआ हरियाणा का शिक्षक भर्ती घोटाला तो नजीर बन चुका है जिस में तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला और उन के बेटे अजय चौटाला को 2013 में सजा हुई थी. एक आइएएस अधिकारी विद्याधर जो कि मुख्यमंत्री के राजनितिक सलाहकार भी थे सहित कुल 62 दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई थी.

फंदे में नेता ही क्यों

ऐसे घोटाले इफरात से होते हैं इन में बड़े नेताओं के नाम उछलते हैं तो सुर्खियां भी ज्यादा बनती हैं. लेकिन नेताओं का रोल अधिकारियों खासतौर से आईएएस के मुकाबले बहुत सीमित रहता है जो कि भर्ती प्रक्रिया का नक्शा बनाते हैं. नेता मंत्री तो बस अपने चहेतों की सिफारिश करते हैं लेकिन इस में होता यह है कि छूट अधिकारियों को भी मिल जाती हैं जिन की मंशा सिर्फ पैसा बनाने की होती है.

बड़े अफसर से बाबू और चपरासी तक घोटाले में शामिल हो जाते हैं देखते ही देखते दलालों का रेकेट भी खड़ा हो जाता है और पदों की बोलियां लगने लगती हैं. नाकाबिल लोग नोट ले कर इन सभी की परिक्रमा शुरू कर देते हैं और जिस से सौदा पट जाए उसे गड्डी थमा देते हैं. कोई नेता कागजी कार्रवाई नहीं करता है न ही नोटशीट चलाने जैसी सरकारी रस्म निभाता क्योंकि यह यानी भर्ती करना उस के अधिकार क्षेत्र के बाहर की बात होती है इस के लिए तो बहुत पहले ही पेनल बन चुकी होती है.

पश्चिम बंगाल शिक्षक भर्ती घोटाले में किसी ने यह नहीं पूछा कि ओएमआर शीट्स की कम्प्यूटर जांच के बाद कहां और किस ने नाकाबिलों की शीट्स या उन के पेज बदले. अगर वे कटीफटी थीं तो उन के बाबत शिकायत क्यों नहीं की गई. इस गड़बड़झाले और घोटाले में पार्थ चौधरी जैसे नेताओं की रजामंदी तो हो सकती है.

उन्होंने अपना हिस्सा लिया भी हो सकता है लेकिन उन पर यह आरोप नहीं मढ़ा जा सकता कि उन्होंने प्रश्नपत्र या उत्तर पुस्तिकाओं से छेड़छाड़ की होगी या ओएमआर शीट्स में सही उत्तरों पर टिक लगाई होगी. यह काम तो आइएएस अधिकारी और क्लर्कों की मिलीभगत के बिना हो ही नहीं सकता.

इन सभी का कुछ खास नहीं बिगड़ना मुकदमा चलता रहेगा कार्रवाई होती रहेगी लेकिन असल गाज तो उन शिक्षकों पर गिरी है जिन की बसीबसाई गृहस्थियां उजड़ने की स्क्रिप्ट सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने लिख दी है. बात सीधेसीधे करे कोई भरे कोई वाली कहावत को चरितार्थ करती हुई है.

Love Story : मृगमरीचिका – जब मीनू की जिंदगी में आ गया मयंक

Love Story : ‘‘मम्माआज मैं अपनी नई वाली बोतल में पानी ले जाऊंगी,’’ नन्ही खुशी चहकते हुए मुझ से बोली.

‘‘ओके,’’ कहते हुए मैं ने उसे स्कूल के लिए तैयार किया.

‘‘मीनू पार्लर की लिस्ट मैं सतीश को दे आया था. 11-12 बजे तक सामान पहुंचा देगा. तुम चैक कर लेना,’’ ऋ षभ ने नाश्ता करते हुए कहा.

ठीक है आप चिंता न करें, ‘‘मैं ने कहा, फिर खुशी और ऋ षभ के चले जाने के बाद मैं आरामकुरसी पर निढाल हो गई. यह तो अच्छा था कि ऋ षभ के औफिस के रास्ते में ही खुशी का स्कूल पड़ता था और वे उसे स्कूल ड्रौप करते हुए अपने औफिस निकल जाते थे वरना तो उसे स्कूल छोड़ने भी मुझे ही जाना पड़ता. दोपहर 1 बजे तक उस का स्कूल होता था. तब तक मैं अपने सभी काम निबटा कर उसे ले आती थी. तभी अचानक किसी ने जोर से दरवाजा खटखटाया. मैं ने दरवाजा खोला, तो सामने पड़ोसिन ममता हांफती हुई दिखाई दी.

‘‘क्या हुआ? कहां से भागतीदौड़ती चली आ रही है?’’ मैं ने पूछा, क्योंकि मैं उसे अच्छी तरह जानती थी कि उसे तिल का ताड़ बनाना बहुत अच्छी तरह आता है.

‘‘यार बुरी खबर है. मयंक की बीवी ने आत्महत्या कर ली.’’

‘‘क्या? क्या कह रही है तू?’’

‘‘हां यार सभी सकते मैं हैं,’’ वह बोली और फिर पूरी बात बताने लगी.

उस के जाने के बाद मेरे दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया. उफ पूजा ने यह क्या कर लिया. अपने 2 साल के बच्चे को यों छोड़ कर… लेकिन वह तो प्रैगनैंट भी थी. मतलब उस ने नन्ही सी जान को भी अपनी कोख में ही दफन कर लिया. आखिर ऐसा उस ने क्यों किया… मैं जानती थी, फिर भी हैरान थी. दिमाग में बहुत से प्रश्न हथौड़े की तरह चलते जा रहे थे…

मयंक को तो मैं अच्छी तरह जानती थी. उस की शादी में नहीं गई थी, लेकिन लोगों से सुना अवश्य था कि बहुत खूबसूरत व समझदार है उस की पत्नी. बाद में तो यह तक सुनने में आया था कि बातबात पर वह पत्नी को मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना देता है. उसे उस के मायके नहीं जाने देता. यहां तक कि उस के मातापिता के लिए अपशब्द भी कहता है.

एक बार एक आयोजन में उस की पत्नी से मुलाकात हुई थी, तो आंखों में आंसू भर कर उस ने मुझ से यही 2 शब्द कहे थे कि दीदी, काश हम भी आप की तरह खुशहाल होते.

हां खुशहाल ही तो थी मैं कि मयंक के चंगुल से बच निकली थी. वाकई अगर ऋ षभ ने न संभाला होता, तो मैं कतराकतरा हो कर कब की टूट कर बिखर गई होती. सोचतेसोचते मेरा मन अतीत की गहराइयों में विचरने लगा…

‘‘भाभी यह रंग आप पर बहुत खिल रहा है,’’ कुछ गहरे गुलाबी रंग की साड़ी पहन कर घर के बाहर सब्जी खरीदते समय किसी ने मुझे पीछे से आवाज दी.

हम नएनए ही शिफ्ट हुए थे. मयंक हमारे पड़ोसी का लड़का था. 23-24 की उम्र में उस का शारीरिक सौष्ठव कमाल का था.

जी थैंक्स, कह कर मैं अपनी ओर एकटक निहारते मयंक को देख थोड़ी असहज हो गई.

मयंक ने कहना जारी रखा, ‘‘सच कुछ लोगों को कुदरत ने फुरसत में बनाया होता है और आप उन में से एक हो?’’

‘‘यह कुछ ज्यादा नहीं हो गया क्या?’’ मैं कहते हुए हंस दी.

अंदर आ कर खुद को शीशे में निहारते हुए मैं खुद भी बुदबुदा उठी कि सच में कुदरत ने मुझे फुरसत में बनाया है. दूध सी मेरी काया और उस पर तीखे नैननक्श मेरी सुंदरता में चार चांद लगाते हैं. उस पर कपड़ों का मेरा चुनाव लोगों के बीच मुझे चर्चा का विषय बना देता था.

वैसे तो ऐसी तारीफें सुनने की मुझे आदत सी पड़ गई थी, लेकिन मयंक द्वारा की गई तारीफ से मुझ में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गई. उस का मेरी आंखों में गहरे झांक कर देखना फिर अर्थपूर्ण तरीके से मुसकराना मुझे अच्छा लगा. सच कहूं तो उस के शब्दों से ज्यादा उस की मोहक मुसकान ने मुझे लुभाया. पड़ोसी होने के नाते गाहेबगाहे उस से मेरी मुलाकात होती रहती थी.

उस वक्त खुशी बहुत छोटी थी और मेरे पार्लर के भी ढेर सारे काम होते थे. ऐसे में कभीकभी मैं झुंझला उठती थी. एक दिन मैं ऋषभ से अपनी परेशानी का रोना ले कर बैठी ही थी कि मयंक आ गया. बातों ही बातों में उस ने मुझे मदद की पेशकश की, जिसे मुझ से पहले ऋ षभ ने स्वीकार कर लिया.

अब मयंक तकरीबन रोज मेरे छोटेमोटे कामों में हाथ बंटाने के लिए आने लगा. उस की गाड़ी पर बैठतेउतरते समय जब कभी मेरा हाथ उस से टच होता तो वह बड़ी ही शरारत से मुसकरा उठता. मन ही मन उस की यह शरारत मुझे अच्छी लगती, पर ऊपर से मैं उसे बनावटी गुस्से से देखती तो झट से सौरी बोल कर अपना मुंह घुमा लेता. धीरेधीरे मुझे उस के साथ की आदत पड़ गई.

उधर ऋषभ की प्राइवेट जौब थी. वे देर रात घर आते थे. कई बार तो उन्हें औफिस के काम से शहर के बाहर भी रहना होता था. वैसे भी ऋ षभ मेरे लिए एक बोरिंग इंसान थे, जिन्हें मेरी खूबसूरती से ज्यादा औफिस की फाइलों से प्यार था. हां, मेरी और खुशी की जरूरतों का वे पूरा ध्यान रखते थे.

पर उम्र का जोश कहें या वक्त की कमजोरी, मेरा चंचल मन इतने भर से संतुष्ट नहीं था या यों कह लें कि मयंक ने किसी शांत झील की तरह पड़ी मेरी सोई हुई कामनाओं को अपने आकर्षण के जादू का पत्थर फेंक जगा दिया था.

मयंक की छेड़छाड़, जानेअनजाने उस का छू जाना, उस का जोशीला साथ अब मुझे रोमांचित करने लगा था. मयंक तो पहले से ही बेपरवाह और दुस्साहसी किस्म का इंसान था,

मेरे मौन में उस ने मेरी रंजामंदी शायद महसूस कर ली थी. अब अधिकतर वह मेरे साथ ही रहने लगा.

खुशी को स्कूल छोड़ना व लाना, जब मैं पार्लर में व्यस्त रहूं तो उसे पार्क घुमाना, मेरे पार्लर का सामान लाना, शौपिंग में मेरी मदद करना आदि काम वह खुशीखुशी करता था. ऋषभ के शहर से बाहर रहने पर भी वह हमारा बहुत खयाल रखता था.

मैं उस जगह नई थी और ऋषभ किसी से सीधे मुंह बात भी नहीं करते थे, इसलिए लोगों की निगाहें हमें देख कर भी अनदेखा करती थीं. हालांकि पार्लर में कई महिलाएं हमारे बीच क्या चल रहा है, इस खबर को जानने के लिए उत्सुक नजर आती थीं, लेकिन मैं मस्त हो कर अपना काम करती थी. लेकिन इतना तय था कि मैं और खुशी दोनों ही मयंक के मोहपाश में बंधी जा रही थीं. खुशी तो बच्ची थी पर मैं बड़ी हो कर भी बहुत नादान.

ऐसी ही एक शाम ऋ षभ चेन्नई में थे. मैं और मयंक पार्लर का कुछ सामान लेने गए थे. खुशी को मैं ने ऋ षभ की रिश्ते में लगने वाली एक मौसी (जो हमारे घर के पास ही रहती थीं) के यहां छोड़ दिया था. बाजार से लौटते हुए हमें देर हो चुकी थी. बारिश और हलकी फुहारों ने हमें कुछ भिगो भी दिया था. उस की गाड़ी से उतरते समय तेज ब्रेक लगने के कारण मैं उस से जा चिपकी और मेरे दोनों हाथ उस के कंधों पर जा टिके. वाकई यह बहुत खूबसूरत सुखानुभूति थी, जिस ने मुझे रोमांचित कर दिया. बहरहाल ताला खोल कर हम अंदर आ गए.

‘‘मयंक अब तुम जाओ. काफी देर हो चुकी है. मैं खुशी को ले कर आती हूं,’’ मेरे कहने पर भी वह सोफे पर बैठा रहा.

‘‘अगर रात यहीं रुक जाऊं तो?’’ उस की आंखों में फिर वही शरारत थी.

चाह कर भी उसे इनकार न कर सकी. मौसम की खुमारी कहें या गीले तन की खुशबू, हम दोनों ही बहकने लगे. मयंक ने मेरा हाथ खींच कर मुझे सोफे पर बैठा लिया. पूरी रात न मुझे खुशी की याद रही न अपने पत्नीधर्म की.

रात के उस व्यभिचार के बाद भी मैं सुबह बड़े ही सहज भाव से उठी और खुद को तरोताजा महसूस किया. मयंक के साथ ने जैसे जीवन में एक उमंग भर दी थी. उस वक्त मेरे मन में कोई अपराधबोध या आत्मग्लानि नहीं थी. मैं बहुत खुश थी और खुशी को मौसी के घर से यह बहाना कर के ले आई कि रात बहुत हो चुकी थी तो मैं ने आप को डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा. मौसी ने फौरन मेरी बात पर विश्वास भी कर लिया.

अपने सभी काम समय पर निबटा कर पार्लर खोलते वक्त मैं यही सोचने लगी कि ऋ षभ तो कल आने वाले हैं यानी आज रात भी… और मैं सुर्ख होने लगी. जल्दी से सारे काम निबटाने के बाद उम्मीद के मुताबिक अंधेरा होते ही मयंक आ गया. खुशी को सुला कर हम दोनों एक बार फिर प्यार में डूब गए. मुझे पता नहीं था कि मेरी यह खुमारी आगे क्या गुल खिलाने वाली है.

ऋ षभ के चेन्नई से आ जाने के बाद हमारी मुलाकात उतनी आसान न रही और न ही हमारे मिलने की कोई उपयुक्त जगह. 10-12 दिनों में ही हमारे बीच में जिस्मानी दूरी आने से हम बौखला उठे और फिर आपसी रजामंदी से भाग जाने का निर्णय ले लिया, किसी भी अंजाम की परवाह किए बगैर. मयंक का तो पहले ही अपने परिवार से कोई खास जुड़ाव नहीं था. इधर उस के शारीरिक आकर्षण में बंधी मैं भी घायल हिरनी सी उस के साथ चलने को तत्पर हो उठी.

एक दिन खुशी के स्कूल की छुट्टी थी. तब ऋषभ के औफिस जाने के बाद मैं ने खुशी को खिलापिला कर सुला दिया और चल पड़ी अपने नए सफर की ओर.

अब सोचती हूं तो बहुत धिक्कारती हूं खुद को परंतु उस वक्त वासना की आंधी के आगे मेरा सतीत्व और ममत्व दोनों हार गए थे.

गोवा के एक रिजोर्ट में 2-3 दिन रहने के बाद जब हमारी खुमारी कुछ उतरी, तो समझ आया कि जीवन में शारीरिक जरूरतों के अलावा भी बहुत कुछ जरूरी होता है. उस का कारण यह था कि मयंक जो 10-15 हजार रुपए अपने घर से लाया था, वे खत्म होने को थे. मेरे पास जो भी कैश था, मैं ने मयंक के हाथ में रख दिया.

‘‘इस से क्या होगा?’’ उस के चेहरे पर नाराजगी के भाव थे.

‘‘तो मैं क्या करूं, जो मेरे पास था तुम्हें दे दिया. अब क्या करना है तुम जानो,’’ मैं गुस्से में बोली.

‘‘अच्छा तो क्या सारी जिम्मेदारी मेरी है.

तुम भी तो कुछ ला सकती थीं?’’ उस ने झुंझला कर कहा.

‘‘तो प्यार का दम भरते ही क्यों थे जब तुम्हारी जेब खाली थी? बहुत बड़े मर्द बनते थे न? अब कहां गई तुम्हारी मर्दानगी? बातें तो चांदसितारों की करते थे. क्या तुम्हें इन खर्चों के बारे में पहले नहीं सोचना चाहिए था?’’ मैं ने गुस्से में अपने पहने हुए गहने उतार कर उस के हाथों में रख दिए.

‘‘मुझ पर चीखने की बजाय अपने गरीबान में झांको और देने ही हैं तो सारे गहने दो… यह मंगलसूत्र भी,’’ मयंक ने उतावलेपन से मेरी ओर बढ़ते हुए कहा.

‘‘नहीं इसे मैं नहीं दूंगी. यह ऋ षभ के प्यार की निशानी है,’’ मैं ने भावावेश में कहा.

‘‘वाह रे सतीसावित्री. पति और बच्ची को छोड़ते समय तुम्हारा कलेजा नहीं पसीजा और अब उस की निशानी को रखने का नाटक कर रही हो,’’ मयंक अब बेशर्मी पर उतर आया था.

‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती… आज मैं तुम्हारे कारण ही अपनी हरीभरी गृहस्थी को छोड़ कर यहां हूं. यहां तक कि अपनी बेटी खुशी को भी छोड़ दिया मैं ने तुम्हारे लिए,’’ मैं लगभग चीखते हुए बोली.

‘‘तो कोई एहसान नहीं किया. तुम्हारा पति तुम्हें जो नहीं दे पाया, वह मैं ने दिया है. बड़े मजे किए हैं तुम ने मेरे साथ मैडम,’’ मयंक ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया था.

मयंक के इस बदले रूप को देख कर मैं हैरान रह गई. मन का क्षोभ, बेबसी और ठगे जाने की पीड़ा आंखों से बह निकली. मन के किसी कोने में घर से भागने का मलाल भी हुआ और अपनी नामसझी पर गुस्सा भी आया.

मुझे रोता देख मयंक मेरे पास आया और हमेशा की तरह मुझे दुलारने की कोशिश की, लेकिन आज उस की यह हरकत मुझे बहुत नापाक लगी. आवेश में आ कर मैं ने उस के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ दिया, ‘‘दूर हो जा मुझ से, मेरे पास आने की हिम्मत भी मत करना.’’

‘‘अरे पागल हो गई है क्या? क्यों चिल्ला रही है? भीड़ इकट्ठी हो जाएगी. मत भूल कि हम यहां भाग कर आए है… तुम्हारी जो मरजी आए करो,’’ कह कर मयंक पैर पटकता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

उस वक्त अपनी हालत के लिए अपने सिवा किसे कोसती. ऋ षभ ने 1-2 बार अप्रत्यक्ष रूप से मुझे समझाने की कोशिश भी की थी, परंतु उस समय मुझ पर मयंक के प्यार का ऐसा भूत सवार था कि बिना कोई आगापीछा सोचे मैं यह काम कर बैठी. अब मैं अपनी उसी करनी पर शर्मिंदा हो कर रोए जा रही थी.

शाम हो गईं मयंक नहीं लौटा. अब मैं और घबरा गई. अगर उस ने भी मुझे छोड़

दिया तो मैं क्या करूंगी, कहां जाऊंगी? एक तो अनजानी जगह उस पर हाथ में दो पैसे भी नहीं… शायद सच्चे रिश्तों को नकारने की मुझे सजा मिली थी. मेरी बरबादी की शुरुआत हो चुकी थी. ऋ षभ जैसे सच्चे जीवनसाथी और अपनी मासूम बच्ची को धोखा दे कर मैं ने जो वासनाजनित गलत राह चुनी थी उस की भयावहता का यह सिर्फ आगाज था. मयंक को मैं कौल पर कौल किए जा रही थी, पर उस का मोबाइल स्विच्ड औफ था.

वहां इसी तरह ऋ षभ भी तो परेशान हो रहे होंगे, यह विचार आते ही उन्हें फोन लगाना चाहा, पर फिर रुक गई कि किस मुंह से और क्या सफाई दूंगी मैं? मयंक द्वारा लाई गई इस नई सिम में और कोई भी नंबर सेव नहीं था. रात होने को थी. मेरा सारा धैर्य जवाब दे चुका था.

तभी दरवाजे पर हुई आहट से दौड़ कर दरवाजा खोला तो हैरानपरेशान ऋ षभ को देखते ही चौंक पड़ी. मन चाहा कि लिपट जाऊं उन से और जी भर कर रो लूं, पर अपनी करतूत याद आते ही मुझ पर मानो घड़ों पानी पड़ गया. मयंक के पापा भी उन के साथ थे, पर मुझे कमरे में अकेली पा कर वे बाहर ही बैठ गए मयंक के इंतजार में.

ऋ षभ ने पास आ कर स्नेह से मेरी पीठ पर हाथ रखा तो मैं पिघल कर उन के सीने से लग गई,  ‘‘मुझे माफ कर दो ऋ षभ, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई,’’ मैं ने हिचकियां लेते हुए कहा.

काफी देर तक खड़े रह ऋषभ अपनी मूक संवेदनाएं प्रकट करते रहे, फिर बोले, ‘‘घर चलो मीनू, खुशी तुम्हारी राह देख रही है.’’

‘‘नहीं ऋ षभ अब मैं वहां क्या मुंह ले कर जाऊंगी. खुशी से क्या कहूंगी? मैं ने जो भी किया है, उस की कोई माफी नहीं,’’ कह मैं सिसक उठी.

ऋ षभ काफी देर तक मुझे समझाते रहे. उन्होंने बताया कि किस तरह मयंक के किसी दोस्त से हमारी जानकारी निकाल कर बड़ी मुश्किल से यहां आए हैं. मैं मन ही मन और भी लज्जित हो गई. आखिरकार मैं लौटने को तैयार हो गई. करती भी क्या. मयंक का असली रंग तो देख ही चुकी थी.

‘‘अंकलजी, आप मयंक से बात कर उसे ले आना, मैं मीनू को ले कर जा रहा हूं,’’ चिंतित बैठे मयंक के पिता से ऋषभ ने कहा और मेरा हाथ पकड़ कर बाहर आ गए.

घर पहुंचते ही दादी के हाथों से छिटक कर खुशी मम्मामम्मा कहते हुए मेरे गले आ लगी. मैं उसे जोर से छाती से लगा कर प्यार करने लगी. वहां मौजूद सभी लोगों को शायद यह प्यार बनावटी लग रहा हो, पर मैं वास्तव में शर्मिंदा थी. ऋ षभ की वजह से सभी ने ज्यादा रिएक्ट नहीं किया, पर उन की निगाहों में खासी नाराजगी दिखी. मेरा अपना भाई भी मुझ से दूर खड़ा था.

मुझे लौटे 2-3 दिन बीत चुके थे. सारा समय मैं अपने कमरे में ही रहती थी. ऋ षभ आ कर मुझे खाना खिला जाते. नन्ही खुशी तो जैसे चहक उठी थी. पर मेरे सासससुर व भाई ने अभी तक मुझ से कोई बात नहीं की थी.

ऐसे ही एक रात अचानक मेरी नींद खुली तो देखा ऋ षभ मेरे पास नहीं हैं, हां खुशी मेरी ही बगल में सोई थी. मैं उठ कर उन्हें पुकारती हुई बाहर निकली ही थी कि बैठक से आती आवाजों ने मुझे ठिठकने को मजबूर कर दिया.

ये आवाजें मेरे भाई की थीं. वह कह रहा था,  ‘‘जीजाजी मैं आंटीअंकलजी की बात से सहमत हूं. यह रिश्ता अब सामान्य नहीं हो पाएगा. यह दीदी की गलती नहीं शर्मनाक हरकत है, जिस का दंड उस के साथसाथ सारी जिंदगी आप को भी भुगतना पड़ेगा और आगे जा कर खुशी को भी.’’

‘‘मेरी बात तो सुनो,’’ ऋ षभ ने कुछ कहना चाहा.

‘‘नहीं जीजाजी आप सुनो… खुशी अभी छोटी है. बड़ी हो कर जब उसे सब मालूम पड़ेगा तो वह भी अपनी मां को कभी माफ नहीं कर पाएगी और फिर यह तो सोचिए कि ऐसी लड़की से कौन शादी करना चाहेगा जिस की मां भाग…’’

‘‘बस करो जतिन… तुम बहुत बोल चुके,’’  ऋ षभ ने थोड़ा गुस्से से कहा.

‘‘क्या गलत कह रहा है जतिन… अरे वह तो उस का भाई है उस का अपना खून. जब वह उसे बरदाश्त नहीं कर पा रहा है, तो तू किस मिट्टी का बना है?’’ इस बार ऋ षभ के पापा बोले.

‘‘पापा, आप सभी समझने की कोशिश करें. मैं मीनू को जानता हूं… पत्नी है वह मेरी. अगर उस से कोई गलती हुई है, तो कहीं न कहीं मैं भी कुछ हद तक उस के लिए जिम्मेदार हूं. उस की इच्छाओं और चाहतों को मैं ने भी कहीं नजरअंदाज किया होगा, तभी तो उसे मयंक की जरूरत पड़ी होगी,’’ ऋ षभ के चेहरे पर गहरी संवेदना के भाव थे.

‘‘मैं यह नहीं कहता कि मीनू से गलती नहीं हुई है. लेकिन यही गलती मयंक से भी हुई है और आप का समाज मयंक को तो बाइज्जत बरी कर देगा इस गुनाह से. कल से ही वह फिर आवारागर्दी करता नजर आएगा इसी महल्ले में. फिर मेरी मीनू ही यह सजा क्यों भुगते? पति हूं मैं उस का. जीवन भर साथ निभाने के वादे किए थे तो उस की इस मुश्किल घड़ी में कैसे उस का हाथ छोड़ दूं? और अगर मान लीजिए यही गुनाह मुझ से हो जाता तो उसे यह मशवरा देने के बजाय आप लोग यही समझा रहे होते कि मीनू जाने दे, माफ कर दे ऋ षभ को. अपनी गृहस्थी टूटने से बचा ले, और न जाने क्याक्या?

‘‘सिर्फ इसलिए कि वह एक औरत है, उस के द्वारा की गई भूल के लिए हम उसे सूली पर चढ़ा दें? माफ कीजिए यह सजा मुझे मान्य नहीं है. मीनू के हमारे जीवन में होने से ही हमारी खुशियां हैं, उस के बिना मैं और खुशी दोनों अधूरे हैं. मैं मीनू की जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता पापा. यह मेरा अंतिम निर्णय है.’’

ऋ षभ के दिए तर्कों का किसी के पास जवाब नहीं था. सभी चुप हो गए, पर मेरा मन चीत्कार कर उठा. बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो ऋ षभ. तुम ने मेरी पीड़ा को समझा, पर मैं आज तक तुम्हें पहचान न सकी. किसी के बाहरी आकर्षण में पड़ कर मैं ने तुम्हारा दिल दुखाया और तुम्हें बहुत गहरा घाव दे बैठी. सचमुच मैं माफी के योग्य नहीं हूं.’’

पर कहते हैं न कि समय बड़े से बड़ा घाव भी कर देता है. इस घटना को 1 महीना हो गया था. ऋ षभ और मेरे बीच सभी कुछ सामान्य हो चला था. मैं अभी भी बाहर निकल कर लोगों का सामना करने से कतराती थी. मयंक के बारे में भी मुझे कोई जानकारी नहीं थी. अगस्त माह शुरू हो चुका था. बारिश का मौसम मुझे सब से सुहावना लगता था.

ऐसी ही एक खूबसूरत शाम ऋ षभ को घर जल्दी आया देख मैं चौंक पड़ी, ‘‘आज इतनी जल्दी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, तैयार हो जाओ, कहीं घूमने चलते हैं,’’ ऋषभ ने मुसकरा कर कहा.

‘‘लेकिन खुशी सो रही है,’’ मैं ने बात टालने की गरज से कहा, क्योंकि मैं बाहर जाना ही नहीं चाहती थी.

‘‘मैं ने मौसी को बोल दिया है. आज वे खुशी के साथ यही रुक जाएंगी,’’ ऋ षभ ने कहा.

‘‘ठीक है, फिर मैं तैयार हो जाती हूं,’’ मैं ऋषभ को बिलकुल नाराज नहीं करना चाहती थी. मेरी वजह से उन्होंने पहले ही काफी कुछ सहा था.

जब तक हम तैयार हुए, बारिश ने मौसम को और भी खुशगवार बना दिया था.

मौसी आ गई थीं. खुशी को उन्हें सौंप जब मैं बाहर निकली तो मेरी ओर देखते हुए इन्होंने एक प्यारी सी मुसकान बिखेरी. फिर गाड़ी निकालने लगे. मैं भी गेट खोल कर इन की मदद करने लगी.

तभी अचानक मयंक के घर पर मेरी नजर पड़ी. ऊपर बालकनी से वह मुझे न जाने कब से निहारे जा रहा था. उस घटना के बाद मेरा और मयंक का पहली बार सामना हो रहा था. मेरा असहज हो जाना स्वाभाविक था.

ऊपर देखते हुए मैं लड़खड़ा सी गई. तभी 2 मजबूत बाजुओं ने मुझे सहारा दे कर थाम लिया. ये ऋ षभ थे जिन्होंने बड़ी ही अदा से मेरा हाथ थाम मुझे कार में बैठाया. आसपास के घरों से भी कई जोड़ी निगाहों ने हमें तब तक कैद में रखा जब तक कि हम उन की आंखों से ओझल नहीं हो गए.

खूबसूरत आलीशान होटल के अंदर एकदूसरे का हाथ थामे हम ने प्रवेश किया. अपनी खोई गरिमा को वापस पा कर मैं तो फूली नहीं समा रही थी. मन ही मन उस एक पल का शुक्रिया अदा कर रही थी, जिस पल मैं ने उन से शादी के लिए हां की थी.

हौल की धीमी रोशनी में ऋ षभ ने मुझे डांस के लिए इनवाइट किया, जिसे मैं ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. उन के सीने से लग कर डांस करते हुए मैं खुद को संसार की सब से खुशहाल औरत समझ रही थी. कुछ देर बाद प्यारा सा डिनर कर के हम होटल के उस कमरे में जाने लगे, जो ऋषभ ने पहले से ही बुक किया हुआ था.

‘‘ये सब करने की क्या जरूरत थी ऋ षभ,’’ काफी समय बाद मैं ने उन्हें उन के नाम से पुकारा.

‘‘अंदर तो आओ,’’ कह कर ऋ षभ ने मुझे अपनी बांहों में उठा लिया.

‘‘अरे, यह क्या कर रहे हैं? सब हमें देख रहे हैं,’’ मैं ने शरमाते हुए कहा.

‘‘देखने दो. इन्हें भी तो मालूम हो कि हमारी शरीकेहयात कितनी खूबसूरत हैं,’’ अंदर आ कर इन्होंने मुझे बैड पर लिटाते हुए कहा. उस के बाद अपनी जेब से एक छोटा सा गिफ्ट निकाल कर बड़े ही रोमांटिक अंदाज में मुझे पेश किया. उस में से हार्ट शेप की एक डायमंड रिंग निकाल कर इन्होंने मुझे पहना दी.

‘‘थैंकयू ऋ षभ,’’ कह मैं इन के गले लग गई. मेरी आंखों आंसुओं से भीगी थीं.

अपनी पीठ पर गीलेपन का एहसास होते ही इन्होंने मेरा चेहरा हाथों में ले लिया, ‘‘यह क्या? तुम रो रही हो?’’

‘‘मैं ने तुम्हें बहुत दुख पहुंचाया है ऋषभ… किस मुंह से माफी मांगू?’’

‘‘बस मीनू अब इस टौपिक को आज के बाद यहीं खत्म कर दो. तुम मेरी प्रेयसी, प्रेरणा सभी कुछ हो. तुम्हें घर ला कर मैं ने कोई एहसान नहीं किया है. बस अब वह सब तुम्हें देने की कोशिश कर रहा हूं, जिस की तुम हकदार हो. मेरी एक बात ध्यान से सुनो. जब तक तुम खुद को माफ नहीं कर देतीं, हर कोई तुम्हें गुनहगार बताता रहेगा, इसलिए प्लीज इस तकलीफ से बाहर आओ. मैं तुम्हें इस तरह आत्मग्लानि में जीते नहीं देख सकता,’’ कह कर ऋ षभ ने मुझे अपने सीने से लगा लिया.’’

उस खूबसूरत रात उन पवित्र बांहों के आगोश में जाने कितने समय बाद मुझे चैन की नींद आई. दूसरा पूरा दिन भी हम होटल में ही रुके. आज मुझे मयंक का शारीरिक आकर्षण ऋ षभ के प्यार के आगे बौना नजर आ रहा था. मौसी से फोन कर हम लगातार खुशी के संपर्क में भी रहे.

घर आने के बाद हमारी जिंदगी बदल चुकी थी. अपनी उस गलती को नादानी समझ मैं भी भुलाने लगी थी. ऋ षभ के प्यार व विश्वास ने मेरे दिलोदिमाग में मजबूती से अपनी जड़ें जमा ली थीं.

एक दिन ऋ षभ ने मुझे पार्लर की चाबी सौंपते हुए अपना काम दोबारा शुरू करने को कहा. मैं थोड़ा सोच में पड़ गई. एक तो महीनों से पार्लर बंद पड़ा था, दूसरे पार्लर आने वाली औरतों की निगाहों में तैरते प्रश्नों का सामना कैसे करूंगी यह सोच कर मन बैठा जा रहा था. मगर ऋ षभ ने मुझे अपने साथ का भरोसा दिया.

उसी दिन कामवाली बाई के साथ जुट कर मैं ने अपना पार्लर साफ किया. कई कौस्टमैटिक जो ऐक्सपायर्ड हो गए थे, उन्हें हटा कर हर चीज व्यवस्थित की. कुछ जरूरी सामान की लिस्ट बनाई. पार्लर खोले 2-3 दिन हो गए थे, उस का बोर्ड भी ऋ षभ ने साफ कर फिर से लगा दिया था, परंतु एक भी क्लाइंट अभी तक नहीं आई थी. अपने सभी काम जल्दी से निबटा कर मैं पार्लर में बैठ जाती. किसी के आने का पूरा दिन बैठेबैठे इंतजार करती रहती. ऋ षभ से मेरे मन की बेचैनी छिपी नहीं थी.

एक दिन इन्होंने शाम के खाने पर अपने सहयोगी को पत्नी के साथ बुलाया. वे लोग खाना खा कर बैठे. थोड़ी देर हंसीमजाक और मस्ती का दौर चला. बातों ही बातों में जब ऋ षभ ने उन्हें बताया कि मेरी वाइफ बहुत टैलेंटेड हैं व पार्लर चलाती हैं, तो उन के दोस्त की पत्नी ने मेरा पार्लर देखा और सराहा. अगले ही दिन वे अपनी एक फ्रैंड के साथ पार्लर आईं और काफी काम कराया, मैं बहुत उत्साहित थी.

उन के जाने के बाद बैठी ही थी कि कुछ दूर रहने वाली नैंसी और ममता भी आ गईं. नैंसी बड़ी ही मुंहफट थी. मैं ने हंस कर दोनों का स्वागत किया. नैंसी को अपने बालों को अलग लुक देना था तथा ममता को वैक्सिंग करवानी थी. नैंसी को अपने बालों की कटिंग बहुत पसंद आई. दोनों ही मेरे काम से खुश दिखीं. इस दौरान हमारे बीच कुछ फौर्मल सी बातचीत भी हुई.

एक दिन सुबहसुबह छुट्टी के दिन खुशी अभी सो कर नहीं उठी थी, ऋषभ वाशरूम में थे कि तभी किसी ने बैल बजाई. यह सोच कर कि बाई आ गईर् होगी मैं ने दरवाजा खोला तो सामने मयंक को देख कर अचकचा गई. मेरा मन कसैला हो गया और चेहरे पर तनाव आ गया.

‘‘भैया हैं क्या?’’ मयंक धीरे से बोला और आंखों ही आंखों में मुझे कुछ समझाने की कोशिश करने लगा. उस की आंखों के भाव समझ मुझे उस से नफरत हो आई. क्या अब भी उसे मुझ से कुछ उम्मीद है? छि: यह अपनेआप को समझता क्या है? बहुत कड़े शब्दों में कोई जवाब देना चाहती थी कि तभी ऋ षभ ने पीछे से आवाज दी, ‘‘आओआओ मयंक, तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था.

‘‘जी भैया आज्ञा कीजिए,’’ शब्दों में शहद घुली मिठास ले कर वह बेशर्मों की तरह बोला.

‘‘जान, मयंक के लिए कुछ ले कर आओ,’’ मेरे हाथों को थाम ऋ षभ ने मेरी पेशानी को चूमते हुए कहा.

‘‘जी,’’ ऋ षभ की बात का आशय समझ मैं वहां से चली आई.

‘‘मयंक, आप की भाभी यानी हमारी बेगम साहिबा का जन्मदिन आ रहा है 26 सितंबर को, तो एक पार्टी प्लान करने की सोच रहा हूं.’’

‘‘जी भैया बहुत अच्छा, मैं सारा इंतजाम कर दूंगा,’’ मयंक को जैसे इसी मौके की तलाश थी.

ऋ षभ के बताए गार्डन में मयंक द्वारा वाकई बहुत खूबसूरत इंतजाम कर दिया गया. हालांकि इस बीच मयंक ने मुझे फिर से बहकाने का एक भी मौका नहीं छोड़ा. जब भी मेरे सामने अपनी जाहिल हरकतें करता और मैं उसे जवाब देने को आतुर होती, न जाने कहां से ऋ षभ हमारे बीच आ जाते. ऐसा लगता कि वे हमेशा मेरे पास ही हैं. लेकिन एक बात तो तय थी कि मयंक के जिन गुणों या हरकतों पर पहले मैं रीझ उठती थी अब उस की उन्हीं हरकतों पर मुझे क्रोध आता था.

शाम को ऋ षभ के पसंदीदा ग्रे शेड गाउन को पहन जब उन का हाथ थाम कर मैं ने गार्डन के हौल में प्रवेश किया, तो सभी ने तारीफ भरी नजरों से तालियां बजा कर हमारा स्वागत किया. पिंक कलर की फ्रौक में खुशी भी किसी परी से कम नहीं लग रही थी.

केक कटने के बाद बजती तालियों के बीच सब से पहले मैं ने खुशी को केक खिलाया, फिर ऋ षभ ने मुझे व मैं ने ऋ षभ को खिलाया.

तभी अचानक लाइट के चले जाने से जो जहां था वहीं खड़ा रह गया. किसी को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. कई लोगों की मिलीजुली आवाजें कानों में आ रही थीं कि सहसा किसी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे एक ओर ले चला. एक पल को तो मैं समझ नहीं पाई, पर फिर उन हाथों की छुअन का एहसास होते ही मैं ने उस व्यक्ति के गालों पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया.

तभी लाइट आ गई. मेरा अंदाजा बिलकुल सही था, यह मयंक ही था, जिस ने लाइट जाने का फायदा उठाने की कोशिश की थी. फिर तो मैं ने मयंक को खूब खरीखोटी सुनाई. मेरे मन में उस के पति जितना आक्रोश था सारा मेरी जबान पर आ गया. उस की कारगुजारियों को बेपरदा करतेकरते मैं स्वयं भी आत्मग्लानि से भर भावुक हो उठी.

तभी किसी ने फिर पीछे से मेरा हाथ थाम लिया. हां ये ऋ षभ ही थे हमेशा की तरह.

आगे ऋ षभ ने कहा, ‘‘दोस्तो, हकीकत से आप सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं. जो भी कुछ हो चुका है उस में मैं अपनी पत्नी का दोष नहीं मानता. कई बार स्थितियां व निर्णय हमारे बस में नहीं रहते. मेरा मानना है कि मेरी पत्नी आज भी उतनी ही पवित्र है और आज भी मैं उस का उतना ही सम्मान करता हूं जितना पहले करता था, बल्कि अब और ज्यादा. वैसे भी कायदे से सजा उसे मिलनी चाहिए, जो आज भी वही गलती दोहराने की कोशिश में लगा है. आप सभी देख चुके हैं. सचाई आप के सामने है.’’

थप्पड़ खाने के बाद मयंक कुछ गुस्से और चिढ़ से मुझे घूरने लगा. तभी ऋ षभ की साफगोई देख कर महल्ले वाले भी हमारे पक्ष में बोलने लगे. बात बढ़ती देख मयंक के मम्मीपापा उसे वहां से ले कर चले गए.

पार्टी में आए अचानक इस व्यवधान के लिए ऋ षभ और मैं ने मेहमानों से काफी मांगी. फिर सभी ने उत्साहपूर्वक पूरा प्रोग्राम अटैंड किया. पार्टी में जो कुछ हुआ उस ने मेरे खोए आत्मविश्वास को एक बार फिर लौटा दिया. ऋ षभ के साथ ने मुझ में एक साहस का संचार कर दिया.

मयंक को बारबार बुला कर उस से मेरा सामना कराना भी ऋषभ ने जानबूझ कर कराया था, ताकि मैं समाज के सामने अपने अपराधबोध से मुक्त हो सकूं, क्योंकि वे मयंक को मुझ से बेहतर समझ पाए थे और जानते थे कि मुझ से मिलने पर वह दोबारा अपनी जलील हरकत अवश्य दोहराएगा.

बहरहाल, अब मैं बेधड़क बाहर आनेजाने लगी. मेरी झिझक व संकोच दूर हो गया था. मयंक मुझे फिर दिखाई नहीं पड़ा. दूसरे पड़ोसियों से ही मालूम हुआ कि मयंक के मातापिता अपना घर बेच कर कहीं और चले गए हैं. सुन कर मैं ने राहत की सांस ली.

उन के घर बदलने के 7-8 महीने बाद ही पता चला था कि मयंक की शादी हो गई है. अब उड़तीउड़ती खबरें कभीकभार सुनने को मिलती हैं कि वह अपनी पत्नी को बहुत परेशान करता है. मैं खुद को धन्य समझती हूं कि ऋषभ जैसा जीवनसाथी मुझे मिला, जिस ने मुझे मयंक के झूठे मोहपाश के दलदल से बचा लिया.

तभी मेरी नजर घड़ी पर गई तो चौंक उठी कि खुशी के आने का वक्त हो गया है. घर का सारा काम जस का तस पड़ा था. खुशी को लेने जाने के लिए ताला लगा कर घर से निकली, रास्ते में ऋ षभ को फोन किया, तो उन्होंने बताया कि उन्हें मालूम हो चुका है, वे भी स्तब्ध हैं यह जान कर कि उस की पत्नी ने आत्महत्या कर ली है.

मैं पूजा के लिए वाकई बहुत दुखी थी. लेकिन मयंक जैसे अवसरपरस्त व बदतमीज इंसान के लिए मेरे मन में कोई संवेदना नहीं थी.

Social Story : महाजाल – पाखंडी बाबाओं की पोल खोलती कथा

Social Story : क्यों लोग भूल जाते हैं कि जो संत, बाबा, महात्मा बने लोग जनता का पैसा बटोर कर खुद मालामाल बन कर मौज कर रहे हैं और उन्हें कंगाली मुसीबत में डाल रहे हैं, ऐसे बाबा या महात्मा उन का क्या भला करेंगे?

पिताजी को महंत श्रवणदास के कमरे में छोड़ कर रक्षित बाहर आया और बड़े बेमन से हौल में लगा टीवी देखने लगा. अचानक टीवी पर आ रहे समाचार ने उसे चौंकाया-

‘हाथरस में भोलेबाबा के प्रवचन के दौरान हुई भगदड़, 121 लोगों की मौत. भगदड़ में दबे अधिकांश लोग भयंकर गरमी और उमस में सांस न ले पाने व दबने से मर गए.’

ओह, ये बाबा लोग और न जाने कितने परिवारों को तोड़ेंगे और न जाने कितने लोगों की जान लेंगे. जाते ही क्यों हैं लोग इन के प्रवचन सुनने, आखिर हमारे जैसा ही कोई इंसान कैसे भगवान का दूत हो सकता है? अब वह दूसरों की क्या कहे, उस के अपने पिता ने ही मंदिर और भगवान को ले कर तूफान मचा रखा है. आखिर हार कर उसे पिताजी को उन के कहे अनुसार महंत के पास लाना ही पड़ा है.

वह बहुत अच्छी तरह जानता है कि ये सब ढोंगी हैं पर खुद को बताते ऐसे हैं जैसे मानो ये भगवान से साक्षात्कार कर के आए हों. पर आज सबकुछ जानते हुए भी वह अपने पिता के आगे मजबूर है और अपने ही पिता को अपने साथ अहमदाबाद में रहने के लिए राजी करने के लिए उसे मंदिर के महंत के आगे नतमस्तक ही होना पड़ रहा है. इन ढोंगियों के आगे झुकते हुए वह बेबस है, हताश है पर करे तो करे क्या. अपने पिता को यों मंदिर में इन के भरोसे भी तो नहीं छोड़ सकता.

“अरे, तुम यहां बैठे हो, पिताजी कहां हैं,” बड़ीबहन रितिका की आवाज सुन कर वह चौंक गया.

“बड़ी देर हो गई तुझे आने में. तुम तो सुबह ही पहुंचने वाली थीं यहां,” रक्षित ने कुछ उदास स्वर में कहा.

“दिल्ली से तो सही समय पर चली थी ट्रेन पर आगरा पहुंचतेपहुंचते लेट हो गई. हां, तो फिर क्या हुआ, कुछ निराकरण निकला कि नहीं,’’ रितिका ने रक्षित के पास बैठते हुए कहा.

“क्या निकलेगा, वे बस मंदिर में रहना चाहते हैं और कहीं नहीं, न तेरे पास, न मेरे पास. मंदिर के बड़े महंत जी से कहा है उन्हें समझाने के लिए, देखो क्या होता है,” रक्षित ने उदास स्वर में कहा.

“ओह, पूरी जिंदगी तो निकल गई हमारी यह सब देखतेदेखते, अब और कितना देखना पड़ेगा. सच, मैं आज 55 वर्ष की होने को आई लेकिन बचपन से यही सब देखती आई हूं अपने घर में,” कहते हुए रितिका मानो अपने बचपन में पहुंच गई.

उस समय वह 10 साल की थी जब प्रोफैसर पिता हर दिन एक बाबा के आश्रम में जाया करते थे. हमेशा कालेज के बाद पिता को लेट आते देख एक दिन मां झगड़ पड़ीं, ‘आजकल कहां चले जाते हो, रोज ही लेट आते हो और आते ही, बस, खाना खा कर सो जाते हो? न बच्चों की चिंता होती है तुम्हें और न घर की. पूरे दिन खटतेखटते मैं थक जाती हूं, तुम्हें समझ क्यों नहीं आता?’

‘अरेअरे भागवान, इतना गुस्सा क्यों कर रही हो, तुम्हें पता है, आज मैं बाबा रामेश्वर जी का प्रवचन सुनने गया था. बहुत पहुंचे हुए संत हैं. तुम भी चलना मेरे साथ, बहुत अच्छा लगेगा. बहुत अच्छा प्रवचन देते हैं. सच पूछो तो जिंदगी जीना सिखा रहे हैं वे लोगों को. इतने सारे लोग आए थे कि जगह कम पड़ गई.’

‘मुझे नहीं जाना ऐसे किसी भी बाबा के पास. मेरा तो घर ही मेरा मंदिर है और तुम्हें भी यही सलाह दूंगी कि तुम भी अपना ध्यान बीवीबच्चों में लगाओ, इन बाबा के पास नहीं.’ मां ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा.

‘तुम अपना उपदेश अपने पास रखो. मैं तो जाऊंगा. कब से तलाश थी मुझे एक गुरु की. अब लगता है मेरी वह खोज पूरी हो गई है. तुम्हें पता नहीं है कि हर इंसान का एक गुरु होना जरूरी है ताकि जीवन के किसी भी मोड़ पर आई समस्याओं के समाधान के लिए गुरु जी की शरण में जाया जा सके, और गुरु ही वह सीढ़ी होता है जो इंसान को इस संसार में जीवन जीने का तरीका व मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग बताता है,’ पापा ने उत्सुकतापूर्वक और अपने गुरुजी पर भरोसा जताते हुए कहा था.

“पापा हर दिन अपने कालेज के बाद न केवल बाबा के आश्रम में जाते थे बल्कि खासा पैसा भी देते थे. जिस पर घर में हमेशा झगड़े होते रहते थे. इसी सब के बीच एक दिन अचानक पापा का तथाकथित गुरु वह बाबा अपने सारे भक्तों का पैसा ले उड़ा. भक्त हैरत से रोते कल्पते रहे. आम भक्तों की ही तरह पापा काफी दिनों तक उदास रहे और फिर धीरेधीरे ठीक हो गए.

“और फिर उस के बाद अपने घर में आगमन हुआ बाबा बाल ब्रह्मचारी का जिन के बारे में उन के चेलेचपाटों ने प्रचारित किया कि वे बाल्यावस्था में हैं और बाल्यावस्था वह अवस्था होती है जब पूर्ण जीवन जी चुकने के बाद इंसान मोक्ष और जीवन के अंत की ओर प्रस्थान करने लगता है तो उस की बुद्धि और विवेक बिलकुल बच्चे जैसा हो जाता है और ये ब्रह्मचारी बाबा अपनी उसी अवस्था में हैं.

“बाबा हर दिन नईनई चीजों की मांग करते थे, बिलकुल बच्चों की तरह जिद किया करते थे. कभी बच्चों की तरह रोना शुरू कर देते तो कभी जोरजोर से हंसना, रक्षित ने अपनी याददाश्त पर जोर डालते हुए कहा.

“तुझे याद है, पापा ने खुद कभी मोंटी कार्लो का स्वेटर नहीं पहना था और बाबा जी के लिए मोंटी कार्लो का स्वेटर ले कर आए थे और बाबा जी ने बच्चों की तरह खुश होते हुए खुद वह ब्रैंडेड स्वेटर पहन कर पापा को अपना फटा व मैलाकुचेला स्वेटर दे दिया था जिसे पहन कर पापा जी खुद को देवदूत समझते थे और नहाधो कर उस फटे स्वेटर को पहन कर बाहर वाक किया करते थे,” रितिका ने उदास स्वर में कहा.

“वह दिन याद है जब चाचाचाची आए हुए थे और पापा अपने उन बालब्रह्मचारी गुरुजी को घर ले कर आ गए थे. वह ढोंगी बाबा अकसर पानी के गिलास को उठा कर फेंक देता था. सामान इधर उधर छुपा देता था और फिर पापा कहते थे कि वो अभी बालबुद्धि में होने के कारण इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं,” रक्षित ने कहा.

“अरे तुम्हें याद है कि अकसर इस बात के पीछे मम्मीपापा में जम कर लड़ाई हुआ करती थी. वे कहती थीं कि यदि बाबा बच्चा हैं तो कभी जमीन पर क्यों नहीं बैठते, क्यों अपने हाथ में पहना सोने का कड़ा किसी को नहीं देते,” रितिका बोली थी.

“सच में उस दिन तो अति ही हो गई थी जब पापा एक दिन के लिए घर आए चाचाचाची को घर छोड कर बाबा के पीछेपीछे चले गए थे और 2 दिनों बाद वापस लौटे थे और इस घटना के कुछ दिनों बाद ही वह बालब्रह्मचारी बाबा मंदिर के आश्रम के लिए इकट्ठा किया गया सारा चंदा ले कर रफूचक्कर हो गया था. बाद में पता चला कि वह ढोंगी बालब्रह्मचारी बाबा हरियाणा का रहने वाला 5 बच्चों का पिता था और उस के नाम अनेक एफ़आईआर दर्ज थीं और फिर जब हम ने पापा से कहा कि आप के गुरुजी नौदोग्यारह हो गए तो पापा के पास शब्द नहीं थे उस के बारे में बोलने को,” रक्षित ने व्यंग्यपूर्ण हंसते हुए कहा.

“भाई, मुझे समझ नहीं आता कि एक पढ़ालिखा इंसान, जो कालेज में बच्चों को इतिहास पढ़ाता है, दिमाग से कभी क्यों नहीं सोच पाया कि ये जितने भी बाबा होते हैं इन का सारा क्रियाकलाप उन की स्वार्थसिद्धि और आम जनता से पैसा वसूलने के लिए होता है. हां, वह बात दूसरी है कि ये सारे काम अप्रत्यक्ष रूप से होते हैं जो आम जनता को जरा भी दिखाई नहीं देते और जनता हमेशा यही गुणगान करती है कि, ‘फलां बाबा बहुत पहुंचा हुआ है. मेरी फलांनी समस्या को चुटकियों में हल कर दिया,’ रितिका ने गंभीरतापूर्वक कहा तो रक्षित फिर एक घटना को याद करते हुए बोला,

“अरे रितू, तुम ने सही कहा. तुम्हें वह अपने पड़ोस में रहने वाली बिल्लो आंटी याद हैं जो बिलकुल सामान्य महिला थीं पर नवरात्र के दिनों में शाम होते ही चाची को शाम के 6 बजे से देवी आनी प्रारंभ हो जाती थी. दिन में साधारण सी साड़ी पहनने वाली आंटीजी शाम को सुर्ख लाल रंग की साड़ी पहन, खुले काले बालों को सामने अपने मुख पर फैला कर बारबार गरदन को आगेपीछे ठीक वैसे ही हिलाती थीं जैसे फिल्मों में देवी का रूप दिखाया जाता है. उन का एक बेरोजगार लड़का उन देवीरूपी आंटी जी का दूत बना रहता था जो देवी का असिस्टेंट बन कर आंटी के साइड में मोरपंखी का चंवर हिलाता रहता था.

“आंटी के वेदी पर बैठते ही कुछ ही देर में वहां कितने लोगों की भीड़ लग जाया करती थी जो अपनी जिंदगी की अनेक समस्याएं ले कर आते थे देवी जी से निराकरण करवाने. कोई अपने बीमार बेटे को लाता, कोई बेरोजगार अपनी नौकरी की तारीख़ पूछता तो कोई अपने विवाह की तारीख़. और वे तथाकथित देवी जी एक कटोरी में रखे ज्वार के कुछ दाने बेटे के हाथ में रख देती थी और बेटा फिर एक कलावा का धागा और कुछ हवन की भभूत समस्याग्रस्त भक्तों के हाथ में रख देता व समस्या के अनुसार समय बता कर कहता था, जब समस्या हल हो जाए तो देवीजी पर सामर्थ्यानुसार चढ़ावा चढ़ा देना.”

“पर रक्षित, बिल्लों आंटी ज्वार के दाने क्यों रखती थीं अपने बेटे के हाथ में?” रितिका ने कुछ उत्सुकता से पूछा.

“अरे, यह बिल्लो आंटी के पूरे परिवार का मिलाजुला प्रयास था. उन लोगों ने कोडवर्ड बना रखे थे जैसे बीमारी के लिए 2 दाने, नौकरी के लिए 4 और विवाह के लिए 5 दाने. बस, आंटी समस्या के अनुसार दाने अपने बेटे के हाथ पर रखती थीं और बेटा उस की व्याख्या करता था. आंटी का बेटा बीमारी वाले को 15 दिन, शादीविवाह वाले को 6 माह में समस्या हल हो जाने को कहता था क्योंकि आमतौर पर बीमारी 15 दिन में ठीक हो जाती है, शादीविवाह, नौकरी आदि के लिए चूंकि इंसान प्रयासरत रहता है तो 6 माह में सौल्व हो ही जाती है. तुम याद करो, वे अंकल कहते थे कि चार बेटों और एक बेटी यानी कुल 7 सदस्यीय परिवार के लिए साल के 2 नवरात्र बहुत बड़े सहारा होते हैं क्योंकि साल में 2 बार आने वाली इन 9 रात्रियों के दौरान उन के यहां नकद, कपड़े, फल और ढेरों मेवा चढ़ावे के रूप में इतने अधिक आ जाया करते थे कि सालभर खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती थी.”

“मुझे तो कभी समझ ही नहीं आता कि हमारे जीवन की समस्यायों को कोई दूसरा कैसे सुलझा सकता है, किसी की बीमारी को डाक्टर ठीक करेगा या ये बाबा और देवियां. नौकरी तो इंसान की मेहनत से लगेगी या इन ढोंगियों के आशीर्वाद से. क्यों अपने ऊपर भरोसा न कर के लोग इन बाबाओं के चक्कर में पड़ते हैं और वे बाबा तो सम्रद्ध होते जाते हैं जबकि आम आदमी कंगाल हो जाता है,” रितिका ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा.

“क्या ये सब हमारे पापा के टाइम में ही होता था, दीदी? आज का यूथ इन सब से दूर है क्या?” रक्षित ने कुतूहल से कहा.

“अरे कहां का दूर है, आज का युवा तो और अधिक उलझा है. तुम खुद ही सोचो, अगर युवा दिमाग से काम लेता तो क्या यह हाथरस वाला हादसा होता, क्या हर दिन नए कथावाचक और धर्मगुरुओं का जन्म होता, सीहोर में पंडित प्रदीप मिश्रा की कथा में रुद्राक्ष वितरण के दौरान हुई भगदड़ और मारी गई जनता इस बात का प्रतीक है कि क्या युवा और क्या वृद्ध, सभी इन की गिरफ्त में हैं और ये लोग खुद ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं और जनता को मूर्ख बनाते हैं.

“आजकल अकसर मंदिरों और बाबाओं के प्रवचनों में इतनी अधिक भीड़ होती है कि पुलिस और प्रशासन की सारी तैयारियां धरी की धरी रह जाती हैं और हर दिन नएनए हादसे हो जाते हैं. तुम्हें क्या लगता है, यह केवल बड़ेबुजुर्गों की भीड़ होती है? बिलकुल नहीं. इन में युवा अधिक, बुजुर्ग कम होते हैं.

“अपनी इटावा वाली मौसी अपनी बेटी के मिर्गी के दौरों के इलाज के लिए एक बाबा के पास जाया करती थीं और वह बाबा मौसी को बाहर बिठा कर उन की बेटी के साथ संबंध बनाया करता था जो उन की बेटी ने खुद बाद में बताया. अब मिर्गी जैसी बीमारी का इलाज ये बाबा करेंगे या डाक्टर. पर बात यह है कि अभी तो हमारे पिताजी ने ही अपनी सारी तार्किक बुद्धि को एक डब्बे में बंद कर रखा है. कुछ समझ नहीं आता कि क्या करें?” रितिका ने उदास स्वर में कहा.

“अपने पिताजीमाताजी तो और भी महान हैं. इन लोगों ने तो सारी सीमाएं ही क्रौस कर दी हैं. हम दोनों की शादी के बाद रिटायमैंट का जितना भी पैसा मिला उस सब को तो इन्होंने मंदिर बनवाने में लगा दिया. मंदिर के पुजारी और महंत ने भी भांप लिया कि इन के पास पैंशन का अच्छाखासा पैसा है, मोटा आसामी है, सो न केवल पुजारी बल्कि पुजारी का पूरा परिवार इन दोनों की जम कर सेवा करता था और ये लोग जम कर उन के ऊपर खर्च करते थे.

“इन लोगों ने अपने प्रवचनों से उन का इतना अधिक ब्रेनवाश कर दिया कि हम दोनों में से किसी के भी पास रहना पसंद न कर के इन्होंने यहां मंदिर पर रहना पसंद किया. उन्हें हम दोनों से अधिक ये पुजारी और इन का परिवार अपना लगने लगा. अचानक एक दिन माताजी को अटैक आ गया, रह गए बेचारे पिताजी. जो जिंदगीभर मोक्ष और गुरु व ईश्वर की तलाश करते लेकिन हाथ आया पत्नी का वियोग और अब इन्हें मंदिर से बढ कर और कोई जगह अपने लिए उपयुक्त नहीं लगती. यानी, अब जितना भी पैसा बचा है उस पर भी नजर है इन सब की.”

“समस्या पिताजी की नहीं है, रक्षित, समस्या इन तथाकथित पंडे, पुजारी और बाबाओं ने उत्पन्न कर रखी हैं क्योंकि इन्होंने आम आदमी के दिमाग में अपने उलटेसीधे प्रवचनों से यह भर दिया है कि मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है और इसी मोक्ष के चक्कर में पिताजी इन बाबाओं के चक्कर लगाते रहे और अब यहां मंदिर पर ही रहने की जिद लगा कर बैठ गए हैं. न चाहते हुए भी हमें इन बाबाओं की शरण में आना पड़ा है.”

रक्षित और रितिका को मंदिर के प्रांगण में बैठा देख कर मंदिर के पुजारी ने उन्हें बड़े महंतजी के कमरे में जा कर विश्राम करने के लिए कहा तो वे दोनों उस कमरे की तरफ चल दिए. एसी, डबल बेड, सोफे और महंगे कारपेट जैसी आधुनिक सुखसुविधाओं से संपन्न इस कमरे को देखते ही वे दोनों दंग रह गए. रितिका ने जैसे ही अपना सिर सोफे पर टिकाया, उसे वह दिन याद आ गया जब उस की बोर्ड की परीक्षाएं होने वाली थीं और मम्मीपापा पर आसाराम बापू के दीक्षा शिविर में जाने का भूत सवार था क्योंकि आसाराम बापू के भक्तों ने उस समय यह प्रचारित किया था कि इस समय दीक्षा लेने से बहुत बड़ा पुण्य प्राप्त होने वाला है और मोक्ष तो प्राप्त हो ही जाएगा. रिजर्वेशन न मिलने के बावजूद ये दोनों 2 ट्रेन बदल कर अहमदाबाद में दीक्षा लेने पहुंचे थे और फिर घर के मंदिर में आसाराम बापू की तसवीर लगा कर उसी की पूजा की जाती थी.

“दूसरों को मोक्षप्राप्ति का रास्ता बताने वाले वे आसाराम बापूजी आज जेल की हवा में मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं,” व्यंग्यपूर्ण हंसी हंसते हुए रक्षित ने कहा.

“पर भैया, मुझे यह समझ नहीं आता कि बारबार धोखा खाने के बाद भी ये पापा जैसे लोग संभलते क्यों नहीं, क्यों इन के झांसे में आ जाते हैं?’’

“इस का कारण है न, दीदी, कि जब इंसान अपने जीवन की समस्याओं से परेशान हो जाता है तो उन का सामना करने की जगह इन बाबाओं के पास जाता है और ये बाबा, जो अपने को भगवान का दूत बताते हैं, इंसान को समस्यायों का सामना करना नहीं, उन से भागना सिखाते हैं ताकि समस्या बनी रही और भक्त इन के पास आता रहे और ये मालामाल होते रहें. पर सोचने की बात है जो इंसान अपने जीवन की समस्याओं न सुलझा पाने के कारण बाबा और पंडित बन जाता है वह हमारे जीवन की समस्याओं को क्या सुलझाएगा.

“तुम्हें याद होगा कि जब अपने पड़ोस में रहने वाली आंटी के पति लिवर की बीमारी के कारण अस्पताल में भरती थे तभी आंटी के गुरु ने उन्हें महामृत्युंजय मंत्र का जाप कराने की सलाह देते हुए कहा था कि आप बस 21 हज़ार बार मंत्र का जाप करवा लो, गारंटी से अंकल ठीक हो कर घर आ जाएंगे. इस प्रति मंत्र के 100 रुपए के हिसाब से पंडितजी ने 21,000 हज़ार रुपए मंत्र के और 4,000 रुपए अन्य सामग्री के लिए हथियाए. उधर पंडितजी मंत्र का जाप करते रहे, इधर अंकलजी की मृत्यु हो गई.”

“सब अच्छी तरह याद है मुझे, कुछ भी नहीं भूला हूं. एक बात और याद आ रही है जब मम्मी लिवर सिरोसिस के कारण लंबे समय तक बीमार रही थीं और तब पापा के एक दोस्त अपने घर में एक बाबा को ले कर आए थे. बाबा क्या, 55 साल के अधेड़ थे वे. 15 वर्षों से फल और दूध का ही सेवन करने वाले वे बाबा अपने घर को देख कर पापा से बोले थे,

“शर्माजी, आप का घर बहुत बढ़िया है परंतु ड्राइंगरूम के कोने में एक बहुत ही खतरनाक आत्मा का वास है जिस ने मुझे आप के घर का अन्न-जल तक ग्रहण नहीं करने दिया है. यदि आप ने इस का इलाज नहीं करवाया तो अभी तो केवल पत्नी ही बीमार हुई है, आगे चल कर घर के मुखिया को भयंकर हानि भी हो सकती है. बस, इस के बाद उन बाबा जी अपने घर में 11 हज़ार रुपए ले कर पूजा की. मम्मी तो दवाई और डाक्टर से सही हुईं पर वह बाबा 11 हज़ार रुपए ले कर चला गया था. और तुम्हें पता है, वह यूपी के अयोध्या में रहने वाला एक बेरोजगार युवक था जिस की पत्नी बीमार रहती थी और 35 साल की अविवाहित बेटी घर में बैठी थी. अब सोचो, जो बाबा अपने ही घर का भला नहीं कर पा रहा, वह दूसरों का क्या भला करेगा.”

रक्षित और रितिका बातें कर ही रहे थे कि तभी मंदिर के पुजारी ने कमरे में आ कर कहा, “बड़े महंतजी आप को बुला रहे हैं.”

जैसे ही वे दोनों बड़े महंतजी के कमरे में पहुंचे, वे बोले, “शर्माजी अभी आप के साथ अहमदाबाद ही जाएंगे. हां, हर 2-3 माह में आप दोनों इन्हें यहां जरूर ले कर आएंगें, इस बात का वादा करिए आप लोग.”

“जीजी बिलकुल,” कहते हुए उन दोनों ने न चाहते हुए भी हाथ जोड़ दिए.

“अभी आप लोग आराम करें. शाम की आरती और भोजन ग्रहण कर के जाइएगा,” बड़े महंतजी ने अपनी मधुर वाणी से कहा.

बाहर आ कर रक्षित और रितिका दोनों ने लंबी सांस ली, चलो पापा ने अपनी जिद तो छोड़ दी.

“पर दीदी, इस सब से बचने का कोई उपाय है क्या. क्या लोग मेरी और तुम्हारी जैसी तार्किक सोच को अपना कर जीवन को सरल और सहज नहीं बना सकते?” रक्षित ने रितिका की तरफ़ मुखातिब होते हुए कहा.

“देखो रक्षित, जब तक इंसान ख़ुद के आत्मबल पर भरोसा न कर के इन बाबाओं, पंडितों के चक्कर में फंसता रहेगा तब तक जनता ख़ुद कंगाल और ये मालामाल होते रहेंगे. जिस दिन आम जनता इन के पास आना बंद कर देगी, इन का सारा धंधा चौपट हो जाएगा. एक और बात, जब तक हमारेतुम्हारे जैसे लोग तर्क से नहीं सोचेंगे तब तक इन के जाल में फंसते रहेंगे. और देश में हर दिन एक नए बाबा का जन्म होता रहेगा,” रितिका ने लंबी सांस भरते हुए कहा.

Romantic Story : सम्मोहन – स्त्रीपुरुष के रिश्ते को समझाती कहानी

Romantic Story : “रुचि, आज शाम क्या कर रही हो, चलो न कहीं घूमते हैं. विम्मी भी गई है. तुम्हारा पति भी एक हफ़्ते को बाहर गया है. क्या कहती हो, बताओ?” व्योम ने अपनी दोस्त से कहा.

“शाम को बता पाऊंगी, कल सैमिनार है.”

“ठीक है, हो सके तो चलना. विम्मी के बिना घर में घुसने का मन ही नहीं होता.”

“ओके बाबा, देखती हूं” कह कर रुचि ने फ़ोन काट दिया.

दिन का मौसम उमड़घुमड़ कर सिसकियां ले रहा था, कभी हवा का झोंका पत्तियों की आपस में सरसराहट,  कभी शांत सी घुमस जो बिसूरती सी जान पड़ती थी. व्योम को आज घर जाने का मन नहीं था, पत्नी विम्मी डिलीवरी के लिए मायके गई हुई थी और दोस्त रोहन  विदेश गया हुआ था, उस की पत्नी थी रुचि.

रुचि, रुचि का पति रोहन, व्योम और व्योम की पत्नी  विम्मी चारों कालेज समय से गहरे दोस्त थे. पिकनिक हो पार्टी या कोई स्कूल का फंक्शन, यह चौकड़ी मशहूर थी. एकदूसरे के बिना ये चारों ही अधूरे थे. रोज़ ही मिलतेजुलते. रुचि कब रोहन के नज़दीक आ गई, खुद इन दोनों को भी पता नहीं चला. दोनों के मातापिता आधुनिक विचारों के थे, इसलिए शादी में कोई दिक़्क़त नहीं हुई.

रुचि का पति विदेश गया था, उसे  रोहन की याद आ रही थी. आ रहा था गुजरा खूबसूरत लमहा, वो शादी की तैयारी, उस की शादी के बाद फिर व्योम व विम्मी का एक हो जाना. यादों ने दस्तक दी तो एक मुसकान होंठों पर आ गई. यादें जाने कब कहां गिरफ़्त में ले लें.

कालेज से लौट ख़ाना ले कर  बैठी तो यादों के पन्ने पलटने लगे,

रुचि, रोहन  शादी की तैयारी व अन्य व्यस्तताओं में व्यस्त थे. दोनों व्योम और विम्मी से नहीं मिल  पा रहे थे. नए जीवन की सुनहरी भोर में मगन, तानाबाना बुन रहे  थे. न वक्त की खबर न औरों की. जीवन में ऐसे सुनहरे पल होते भी हैं भरपूर जीने के लिए.

विम्मी ने रुचि को फ़ोन किया, ‘रुचि क्या कर रही है?’

‘अरे यार विम्मी, क्या बताऊं, तेरे साथ जो लहंगा लिया था, सिल कर आया, तो टाइट है. वही नाप लेने टेलर आया है. मेरी कजन भी आई है, कह रही है, उसे भी कपड़े दिलवा दूं. वह बाहर से आई है. तू ऐसा कर, व्योम के साथ चली जा.’

‘ओके, गुड लक,’ कह कर विम्मी ने फ़ोन काट दिया.

“व्योम, चल कहीं डिनर करने  चलते हैं. रुचि तो अपनी शादी की तैयारी में व्यस्त है,” विम्मी ने व्योम से कहा.

व्योम भी रोहन के शादी की तैयारी में व्यस्त होने से एकाकी महसूस कर रहा था. उस ने उत्साहित होते हुए कहा, ‘पहले थिएटर चलते हैं, एक नया नाटक बहुत अच्छा  लगा है, फिर डिनर करेंगे.’

व्योम विम्मी अब ज़्यादा मिलने लगे. पहले मिलते थे तो चारों ही. लेकिन अब रोहन और रुचि अपनी शादी की तैयारी में व्यस्त थे, इसलिए व्योम और विम्मी अकसर मिलने लगे, कभी पिक्चर, कभी शौपिंग, कभी थिएटर. कई बार ऐसा मिलना एकदूसरे के क़रीब ले आता है. व्योम विम्मी भी बह गए समय की खूबसूरत धारा में जिस के  प्रवाह का रुख़ एक ही था. नज़दीकियां दिलों में हलचल मचा गईं. परिचय ने प्रगाढ़ता का आंचल ओढ़ लिया.

एकदूसरे की आंखों में खुद के ख़्वाब पढ़ने लगे. साथ बैठे सांझ तले, तो डूबते सूरज की लालिमा के सौंदर्य को निहारते एकदूसरे के हो बैठे.

‘यार रुचि,  तुझे कुछ बताना था. विम्मी अपनी सब से प्रिय सहेली रुचि के साथ प्यार के खूबसूरत एहसास को बांटना चाहती थी.

“बोल, बोल, क्या तीर मारा, बता जल्दी, कहीं यह वह तो नहीं, ज़रा सी आहट होती है तो दिल…’

रुचि ने फ़ोन पर ही प्यारी सी धुन विम्मी को सुनाई.

विम्मी  बोली, ‘तू तो हमेशा ही  तूफ़ान बनी रहती है. तो सुन, तू हमेशा कहती थी न, मैं और व्योम भी लवबर्ड बन जाएं, तो चल, हम ने भी अपनी ख़्वाबों की दुनिया में रंग भर लिया. तेरे साथसाथ हम भी फेरे कर लेंगे.’

‘नोनो, पहले मैं शादी करूंगी, फिर तुम और व्योम करोगे, जिस से एकदूसरे की शादी को एंजौय तो कर सकें. अरे, न तेरे कोई बहन न मेरे, साली बन कर जूता छिपाई कौन करेगा?’

‘ओके, चल यह भी ठीक है.’

रोहन रुचि भी ख़ुशियों की  नई डगर में खिलते फूलों की ख़ुशबुओं संग तैरने लगे. अब प्यार ने यथार्थ का रुख़ किया. कुछ दिनों बाद विम्मी  व्योम ने भी गृहस्थी के नवजीवन में प्रवेश किया. इन चारों दोस्तों ने एक ही शहर मद्रास में रहने का निर्णय किया. रोहन आईआईटी में प्रोफैसर  और व्योम  मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी करता था.

अब शादी हुई तो सपनीली दुनिया में ज़िम्मेदारियों ने थपकी देनी शुरू कर दी.

अब रोहन को अपने देश से बाहर जा कर अमेरिका के कालेज  में लैक्चर देने का अवसर मिला, जिस की उसे कब से तमन्ना थी. रुचि एक कालेज में पढ़ाती थी, साथ ही, पीएचडी भी कर रही थी. विम्मी और व्योम के घर नन्हे मेहमान ने आने की दस्तक दी. प्रैग्नैंसी की कुछ परेशानियों की वजह से विम्मी को मायके आना पड़ा.

इन का आपस में विश्वास बहुत गहरा था. चारों मित्रता के मजबूत व पवित्र धागे में बंधे थे.

मत जाओ रोहन, मैं अकेली कैसे रहूंगी, 3 वर्षों का लंबा समय, यह कहना चाहती थी लेकिन नहीं कह पाई. मायूसी ने चेहरे पर पांव पसार दिया. रोहन को विदेश जाना था, रुचि परेशान हो गई, कैसे रहेगी रोहन के बिना. मन दुविधा में था. ऐसे मौक़े कैरियर को ऊंचाइयों पर ले जाते हैं, तो भला रोहन के पांव की बेड़ी कैसे बनती.

रोहन ने रुचि का उतरा चेहरा देखा तो समझ गया कि वह परेशान है, बोला, “अरे 3 साल का समय होता ही कितना है, चुटकियों में ही निकल जाएगा. और फिर, विम्मी, व्योम भी तो साथ हैं. कोई दिक़्क़त हो तो उन्हें बुला लेना. और डियर, अब तुम तो इस घर की रानी हो, रानियां तो बहादुर होती हैं.”

रोहन ने रुचि का मूड हलका करने के उद्देश्य से मज़ाक़ किया. वह जानता था रुचि को थोड़ी दिक़्क़त होगी लेकिन उसे विम्मी, व्योम पर पूरा भरोसा था. जीवन की डगर में कभी ऐसी उलझनें भी आती हैं. आगे की ओर बढ़ते कदम जाने क्यों मुड़ कर  रुकते  हैं.

भरेमन से रुचि ने रोहन को अमेरिकी यूनिवर्सिटी में लैक्चररशिप के लिए भेज दिया. मन तो रोहन का भी टूट रहा था लेकिन भविष्य सामने खड़ा था. एयरपोर्ट से लौट कर आई, तो घर का ख़ालीपन और भी स्याह हो कर उसे डराने लगा. वैसे भी, उसे शुरू से अकेले अच्छा नहीं लगता था. फिर आज तो उस का प्यार, जो अब जीवनसाथी है, लंबे अंतराल के लिए जा रहा है.

एक तरफ़ उस का मन यह भी कह रहा था जीवन में बारबार अवसर नहीं मिलते, उस की वजह से कहीं रोहन की तरक़्क़ी में रुकावट न आए. रुचि मन को समझाने लगी. वह यह भी जानती थी कि अगर बहुत ज़्यादा दबाव डालती तो रोहन रुक जाता इसलिए उस ने एक बार के बाद  मना नहीं किया. लेकिन ख़ुद को संभालने की कोशिश में नाकाम रही.

मन का क्या करे, मातापिता की अकेली संतान. अब तो मम्मीपापा भी रहे नहीं. हिचकियां ले कर रो पड़ी. शाम से ही घना कुहरा, बादलों का साया था जैसे मौसम भी उस से आज आंखमिचौली खेल रहा हो. मन की धरती गीली हो धंसने लगी. बिजली कड़की तो रुचि ने भाग कर खिड़कियां बंद कर दीं. खिड़की से दिखते बादलों से बनने वाली अजीब आकृतियां उसे डराने लगी थीं.

रोते हुए बिस्तर में घुस उस ने चादर सिर तक खींच ली. अभी तो रोहन गया है, पहाड़ जैसे 3 साल का समय कैसे काटेगी?

तभी दरवाज़े की घंटी बजी. उस ने डर कर दरवाज़ा नहीं खोला. फिर फ़ोन बज उठा. उस ने चौंक कर फ़ोन देखा, तैरता हुआ व्योम का नाम उस के मन में स्फूर्ति देने लगा.

“क्या बात है, तुम दरवाज़ा क्यों नहीं खोल रही हो?”

“अच्छा, घंटी तुम ने बजाई थी.”

रुचि ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला और व्योम से लिपट गई . घबराहट में पसीने से तर रुचि को व्योम ने कंधे से पकड़ सोफ़े पर बिठाया, पानी पीने को दिया.

रुचि थोड़ा नौर्मल हुई तो व्योम बोला, ”अरे, तुम इतनी परेशान क्यों  हो? मैं और विम्मी हैं. थोड़े समय की ही तो बात है, बच्चा होने के बाद तो विम्मी भी मायके से आ जाएगी. कोई दिक़्क़त हो, तो मुझे फ़ोन करना, मैं तुरंत आ जाऊंगा. मैं अब चलता हूं, थोड़ा काम है औफिस  का, सोचा, तुम अकेली होगी तो हालचाल लेने आया था. वैसे भी रुचि, तेरा ध्यान नहीं रखा तो रोहन मुझे मार डालेगा,” व्योम ने मज़ाक़ करते हुए कहा.

“नहीं, प्लीज़ व्योम, आज मत जाओ. मुझे अकेले में डर लगता है.”

अभी व्योम रुचि से बात कर ही रहा था कि व्योम का फोन बजा.

”कहां हो व्योम?” विम्मी का फ़ोन था.

”तुम तो जानती हो, रोहन विदेश चला गया, मैं रुचि के पास आया हूं, वह अकेले डरती है न.”

“अच्छा किया, वहीं रुक जाओ. कुछ समय में रुचि को आदत हो जाएगी अकेले रहने की. बेबी होने के बाद तो मैं भी आ ही जाऊंगी.”

उस दिन व्योम को रुकना पड़ा.

समय अपनी चाल चलता रहा. लेकिन समय जैसे बीत नहीं रहा था रुचि के लिए.

विम्मी जबतब रुचि को फोन करती रहती थी. दिन तो रुचि का स्कूल में पढ़ाने में  निकल जाता था लेकिन शाम के बाद उसे डर लगता था. बाहर जाने का मौक़ा आसानी से कहां मिलता है, इसलिए उस ने रोहन को जाने दिया था. लेकिन बचपन से अपने अंदर बैठे डर से आज तक नहीं जीत पाई थी वह.

रोहन अकसर रुचि को समझाता, ‘हमारे डर का 80 प्रतिशत केवल काल्पनिक होता है. तुम अपने डर को समझो, तुम से कितना कहा था डाक्टर को दिखा दो लेकिन तुम मानी नहीं. अगर समय मिले तो व्योम या विम्मी के साथ चली जाना.’

व्योम को भी रोहन फोन करता, ‘देख, मेरी बीवी का ध्यान रखना वरना आ कर बहुत मारूंगा’ और कह कर दोनों दोस्त खिलखिला कर हंस देते.

एक दिन रुचि औफ़िस से आई, तो उस के बदन में बहुत तेज दर्द था. रात होते उसे तेज बुख़ार हो गया. व्योम को पता लगा, तुरंत पहुंच गया. रातभर  व्योम रुचि के सिर पर  ठंडे पानी की पट्टी रखता रहा.

जब बुख़ार हलका हुआ तो व्योम ने सोचा सामने सोफ़े पर ही लेट जाता हूं लेकिन बुख़ार में  रुचि ने उस का हाथ कस कर पकड़ रखा था. व्योम की  निगाह अचानक उस के चेहरे पर पड़ी. रुचि के चेहरे का भोलापन उस के अंदर समाने लगा. अचानक उस ने सिर झटका, कहीं कुछ उसे खींचने लगा था. नहीं, ऐसे कैसे सोच सकता है. उस की तो प्यारी सी बीवी है जिस के प्रति उस का कर्तव्य भी है. उस ने ह्रदयतल से प्यार  किया है. पर मन  भटकन के रास्ते के सारे पत्थर सपनों की आंधी से उड़ा देता है.

उस ने आहिस्ता से अपना हाथ छुड़ाया और सामने जा कर सोफ़े पर लेट गया. सुबह उस का सिर भारी था. रुचि की तबीयत भी अब ठीक थी. बुख़ार उतर चुका था.

मन में आई कोमल संवेदनाएं उसे मथने लगीं. दिल भी अजीब है. मन की कशिश इतनी मज़बूत होती है जिस के साए पैरों को अनगिनत रस्सियों से जकड़ लेते हैं. अपनी सोच में डूबे व्योम को अगले दिन  रुचि  के घर जाने में  झिझक महसूस होने लगी.

”व्योम, तुम आए नहीं, क्या हुआ?” रुचि ने शाम होते ही व्योम को फ़ोन मिला दिया.

व्योम ने जिस तरह देखभाल की थी, रुचि को बहुत अच्छा लगा था. उसे आज व्योम का बेसब्री से इंतज़ार था. लेकिन आज व्योम अपनी भावनाओं को समेटे बैठा रहा. क्या समझाता, दिल ने बग़ावत कर दी है. वह रुचि के पास नहीं गया. व्योम नहीं आया तो  रुचि इंतज़ार में बाहर बालकनी में बैठ गई. उस की उदासी बढ़ती जा रही थी. शाम धीरे से रात का आंचल ओढ़ने लगी, इतने दिनों से लगातार मिलने से अब रुचि को  भी मिलने की आदत होने लगी थी. अच्छा लगने लगा था. मिलती तो पहले भी थी पर उसे भी शायद कुछ नया फील हो रहा था जो खींच रहा था. शायद अकेलापन और सान्निध्य जीवन में कोमल भावनाओं के प्रस्फुटन का कारण बन गया था.

ज़रूरत में साथ आए, अब बिना ज़रूरत भी मिलने लगे. वैसे, पहले भी तो मिलते थे. लेकिन तब इस साथ का मतलब केवल दोस्ती था. लेकिन अब साथ का अर्थ बदल रहा था. रुचि और व्योम अनजाने ही खिंचे जा रहे थे. उन्हें नहीं पता था उन के दिलों में उठता ज्वार उन्हें किस दिशा ले जाएगा.

रुचि को  व्योम का मजबूरी में मिला साथ अब अच्छा लग रहा था. शाम होते ही उस के आने का इंतज़ार रहता. वह खुद सोचती कि उसे अब क्या हो रहा है. रोहन के फोन से ज़्यादा व्योम के आने का इंतज़ार रहता. घंटों दोनों साथ बिताते. अब शौपिंग व पिक्चर भी चले जाते. एक अनजानी कशिश  में बंधे अनजान राहों पर बढ़ने लगे दोनों.

समय ने करवट ली, विम्मी ने प्यारी गुड़िया को जन्म दिया. व्योम को जैसे ही पिता बनने की खबर मिली, वह ख़ुशी से झूम उठा. उस ने रुचि को फ़ोन किया, “रुचि, ख़ुशख़बरी सुनो, जिस का इतने दिनों से इंतज़ार था. मैं पिता बन गया हूं, अभी फ़ोन आया है. मुझे जाना होगा अपनी नन्ही गुडिया को देखने.”

वो कुछ और भी कहना चाहता था लेकिन शायद शब्द साथ नहीं दे रहे थे.

फोन पर व्योम से यह खबर सुन दो मिनट को तो मौन रह गई, समझ ही नहीं पाई जिस स्वप्न में जीने लगी थी, जल्दी यथार्थ के झोंके से टूटने वाला है. वह भूल गई थी यथार्थ और स्वप्न का अंतर. शायद मानवमन कल्पना के सुखद पलों में डूब यथार्थ को परे धकेल देता है. यही हो रहा था रुचि व व्योम के साथ.

”क्या हुआ कुछ बोल क्यों नहीं रही रुचि, तुम ठीक तो हो?”

लेकिन रुचि का मौन वो अनकहा सच मुखर कर रहा था जो दोनों के दिल महसूस करने लगे थे. वह अपनी दोस्त विम्मी की प्यारी बिटिया होने पर ख़ुश थी लेकिन व्योम के जाने की बात सुन परेशान भी.

“वो मैं मैं यह कह…”

इस के बाद उस की आवाज़ भीग सी गई. भाव चाह कर भी शब्द नहीं ले पाए. उस ने फ़ोन काट दिया.

उस की आंखों  से निकल बूंदें दिल का दर्द समेटे गालों पर लिखने लगीं. इस अजीब परेशानी की शिकायत हो भी तो किस से? वो व्योम को विम्मी के पास जाने से मना भी तो नहीं कर सकती थी.

व्योम खुद मजबूर था. उस ने विम्मी से भी तो प्यार किया है. और अब,

आज फिर दिल की कशमकश उसे तोड़ रही थी. वह 2 भागों में बंट रहा था. भटकन और यथार्थ की लड़ाई में. रुचि की कशमकश आंधी की तरह उसे झिंझोड़ रही थी.

तभी रोहन का फोन आ गया. रुचि बिलख पड़ी. बिखरते एहसासों को जैसे किनारा मिल गया हो.

“रोहन, प्लीज़ आ जाओ. अब परेशान हो गई हूं. बहुत अकेलापन लगता है तुम्हारे बिना.”

“क्यों परेशान होती हो, मेरे पास अभी तो फ़ोन आया था विम्मी के प्यारी सी गुड़िया हुई है. अब तो विम्मी भी आ जाएगी. उस की प्यारी सी बिटिया से तुम्हारा मन भी लग जाएगा. इसी खबर की ख़ुशी बांटने के लिए मैं ने तुम्हें फ़ोन किया है. और देखो, तुम भी आदत डाल लो, लौट कर तो हमें भी तैयारी करनी है.”

रोहन की दिल लुभाने वाली बातों से रुचि थोड़ी शांत हुई. ऐसे लगा जैसे घाव पर मलहम लगा हो. उस की विचारतंद्रा सही मार्ग का अनुसरण करने लगी. रोहन से बात करते विचारों की आंधियों ने उसे घेर लिया. उस ने अपने मन को समझाया. नहीं, मैं अपनी दोस्त विम्मी और अपने पति से धोखा नहीं कर सकती. संभालना होगा मुझे खुद को. दोस्ती के प्यारे रिश्ते को कलंकित नही करूंगी मैं, वरना अपनी ही नज़रों में गिर जाऊंगी. पर विडंबना दुस्वप्न से जागने पर कुछ देर टूटन भ्रम का आवरण उतारना नहीं चाहती. पैर धंसते जाते हैं गहरे समंदर की रेतीले धरती पर, पांव संभालना कब आसान होता है.

कोई आवाज़ ना सुनकर रोहन बोला, “तुम ठीक तो हो, कुछ बोल क्यों नहीं रही? अच्छा सुनो, जैसे इतने दिन निकले और भी निकल जाएंगे, मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर जल्दी आने की कोशिश करता हूं.“

“प्लीज़, जल्दी आ जाओ, कह कर रुचि सिसक पड़ी और फ़ोन काट दिया.

रुचि ने व्योम से बात करते हुए बिना जवाब दिए फ़ोन काट दिया था, इसलिए   व्योम तुरंत रुचि के घर आ गया. वह सोच रहा था, नए पनपते भाव जो रुचि की आंखें भी बोलती हैं, उस के खुद के दिल में भी हैं, आज कह दूंगा.

उस ने दोतीन बार बेल बजाई. रुचि को थोड़ा समय खुद को संयत करने में लगा.

व्योम ने फ़ोन कर दिया, “रुचि, दरवाज़ा खोलो, क्या हुआ?”

“नहीं व्योम, तुम जाओ. अब हम अकेले नहीं मिलेंगे. जिस रिश्ते से बेकुसूर अपने लोग टूटें उसे वहीं ख़त्म होना ज़रूरी है. वापस चले जाओ, व्योम.”

‘अवांछित प्रेम बल्लरी को समय रहते उखाड़ फेंकना ज़रूरी था,’ यह बुदबुदाने के साथ मुंह में दुपट्टा दबा रो पड़ी रूचि. कहीं उस की आवाज़ व्योम न सुन ले, इसलिए कुछ अनकहा ही रह जाए तो बेहतर है. संभलने में वक्त तो लगता है, संभाल लेगी खुद को, भटकने नहीं देगी न खुद को और न व्योम को. संभालना ही तो होता है समय पर सही दिशा में खुद को. सम्मोहन का भ्रमजाल जितनी जल्दी टूट जाए, अच्छा है.

Best Hindi Story : प्रतिकार – क्या इंतकाम पर कर्तव्य भारी पड़ गया

Best Hindi Story : आपरेशन टेबल पर पड़े मरीज को देख कर डा. आराधना सकते में आ गई. यह वही दरिंदा था जिस ने उस के हंसतेखेलते परिवार को उजाड़ दिया था. रात में मां का फोन आया था कि वह सुबह आ रही हैं. उन्हें स्टेशन से लेने के लिए वह निकल ही रही थी कि फोन की घंटी बज उठी. उस ने रिसीवर उठाया तो पता चला कि फोन अस्पताल के आपातकालीन विभाग से आया था और उसे जल्दी पहुंचने के लिए कहा गया था.

कई महीनों के बाद तो उस ने छुट्टी ली थी. मां उस से मिलने आ रही हैं. पिछली बार जब वह घर गई थी तब केवल 4 दिन की छुट्टियां ली थीं. मां ने उस से पूछा था, ‘अब फिर कब आओगी’ तो उस ने कहा था, ‘मां, अब तुम मुझ से मिलने आना. मेरा आना संभव नहीं हो पाएगा.’

तब मां ने कहा था, ‘तुम छुट्टी लोगी, तभी मैं वहां आऊंगी. स्टेशन से ले जा कर घर बिठा देती हो… अकेले घर में मन ही नहीं लगता. कम से कम उस दिन तो छुट्टी ले ही लिया करो.’

यही सोच कर उस ने मां को अपनी छुट्टी की खबर दी थी और मां आ रही थीं. पर अचानक अस्पताल से फोन आने के बाद उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. वह जानती थी कि अकेले भी मां को स्टेशन से घर आने में कितनी तकलीफ होगी. भैयाभाभी जानेंगे तो अलग गुस्सा होंगे कि यदि उस के पास मां के लिए इतना भी समय नहीं है तो वह उन्हें अपने पास बुलाती ही क्यों है.

जल्दी में कुछ और उपाय नहीं सूझा तो उस ने डा. कपिल के पापा से मां को स्टेशन से लाने के लिए अनुरोध किया. वह जानती थी कि मां को लाने और घर तक छोड़ने में कम से कम डेढ़ घंटा तो लग ही जाएगा. उधर अस्पताल से दूसरी बार फोन आ चुका था. मां पहली बार जब आई थीं तब कपिल के पापा से उन की मुलाकात

हुई थी इसलिए परेशानी की कोई बात नहीं थी.

ताला लगा कर चाबी उस ने कपिल के पापा को दे दी. उन की इस असुविधा के लिए उस ने पहले ही फोन पर उन से क्षमा मांग ली थी. तब उन्होंने फोन पर हंस कर कहा था, ‘‘तुम्हारी मां के आ जाने से मुझ बुड्ढे को भी कोई बात करने वाला मिल जाएगा.’’

उन की बात सुन कर वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी थी.

अस्पताल पहुंचते ही वह डा. सिद्धांत के कमरे में गई. उन्होंने ही उसे फोन कर के बुलाया था. मरीज की प्राथमिक चिकित्सा कर दी गई थी पर आपरेशन की तुरंत आवश्यकता थी. समय पर आपरेशन न करने से मरीज की जान को खतरा था.

उस ने देखा कि आपरेशन थिएटर के बाहर एक औरत बुरी तरह से रोते हुए नर्स से कह रही थी, ‘‘सिस्टर, मैं अभी पूरे पैसे जमा नहीं करा सकती पर मैं जल्दी ही बिल चुका दूंगी.’’

सिस्टर ने झिड़कते हुए कहा था, ‘‘पैसा नहीं है तो किसी सरकारी अस्पताल में ले जाओ. इसे यहां क्यों ले कर आई हो?’’

‘‘यहां के डाक्टर योग्य हैं. मेरा इस अस्पताल पर विश्वास है. मैं जानती हूं कि डा. आराधना और डा. सिद्धांत मेरे पति को बचा लेंगे इसीलिए मैं यहां आई हूं. सिस्टर, मैं एकएक पैसा चुका कर ही यहां से जाऊंगी.’’

नर्स से बात करने के बाद वह औरत उस के पास आ कर रोतेरोते कह रही थी, ‘‘प्लीज, मेरे पति को बचा लीजिए. मुझे पता है कि आप मेरे पति को बचा सकती हैं. बचा लेंगी न आप?’’

उस ने उस औरत को सांत्वना दी, ‘‘देखिए, अपनी ओर से डाक्टर पूरा प्रयत्न करता है. यह उस का कर्तव्य होता है. आप चिंता न करें. सब ठीक हो जाएगा. क्या हुआ था आप के पति को?’’

‘‘पता नहीं डाक्टर, रात पेट में दाईं ओर दर्द होता रहा. सुबह उठते ही खून की उलटी हो गई. मैं घबराहट में कुछ कर ही नहीं सकी. जो रुपए घर में रखे थे उन्हें भी नहीं ला सकी. डाक्टर, आप इन का इलाज शुरू कीजिए, मैं घर जा कर पैसे ले आऊंगी.’’

नर्स ने फार्म पर हस्ताक्षर कराते समय उस औरत से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे पति शराब पीते हैं?’’

‘‘हां, सिस्टर, बहुत अधिक पीते हैं. यह शराब ही इन्हें ले डूबी है. शराब के नशे में क्याक्या नहीं किया इन्होंने. सारी संपत्ति गंवा दी. अच्छाखासा कारोबार था, सब समाप्त हो गया. सासससुर बेटे के गम में ही चल बसे. मैं अकेली औरत क्याक्या करूं. कोई संतान भी नहीं हुई जो उस से मेरा जीवन अच्छा कट जाता,’’ कह कर वह औरत फिर रोने लगी.

वह उन की बातों को सुन रही थी लेकिन उस का ध्यान मरीज की ओर था जो अभी भी बेहोशी की हालत में था. डा. सिद्धांत भी आ गए थे. वह उन के साथ ही मरीज के पास आ गई. उस ने नब्ज देखी. ब्लडप्रेशर चेक किया. उस समय सबकुछ सामान्य था.

‘‘आपरेशन किया जा सकता है डा. सिद्धांत,’’ यह कह कर उस ने मरीज की ओर ध्यान से देखा. चेहरा कुछ जाना- पहचाना सा लग रहा था. उस चेहरे की प्रौढ़ता के पीछे वह मरीज की युवावस्था का चेहरा ढूंढ़ने लगी तो उस चेहरे को क्षणांश में ही पहचान गई. उस ने मरीज को फिर से देखा. उस की नजरें धोखा नहीं खा सकतीं. 20 बरसों के बाद भी वह उसे पहचान गई.

एक पल को उसे जोर का झटका लगा. उस के कदम आपरेशन थिएटर की ओर नहीं बढ़ सके. कमरे में जा कर वह कुरसी पर धम से बैठ गई. थोड़ा पानी पीने के बाद उस ने कुरसी के पीछे सिर टिका कर आंखें मूंद लीं.

तब वह 12-13 साल की थी और दीदी 17 की रही होंगी. वह 7वीं कक्षा में थी और दीदी 12वीं में, शिवांक सब से छोटा था. दोनों बहनें एक ही स्कूल में पढ़ने जाती थीं. स्कूल दूर नहीं था इसलिए दोनों पैदल ही जाया करती थीं. मां सुबह उठ कर नाश्ता तैयार करतीं. पापा कभीकभी उन को स्कूटर से भी स्कूल छोड़ आते थे.

दीदी पढ़ने में बहुत तेज थीं. पापा भी उन का पूरा ध्यान रखते थे. शाम को आफिस से आ कर दोनों की पढ़ाई के बारे में, स्कूल की अन्य गतिविधियों के बारे में पूछते रहते और जो भी कठिनाई होती उसे दूर करते थे. चूंकि पापा आफिस के साथसाथ दीदी को नियमित नहीं पढ़ा पाते थे अत: दीदी को विज्ञान पढ़ाने के लिए ट्यूशन लगा दी थी. वह चाहते थे कि दीदी अच्छे अंकों से पास हों क्योंकि पापा दीदी को डाक्टर बनाना चाहते थे.

दीदी भी पापा की इच्छाओं को समझती थीं. वह आज्ञाकारी बेटी बन उन की हर बात को मानती थीं. स्कूल में दीदी एक आदर्श विद्यार्थी मानी जाती थीं और परीक्षा में टौप करेगी ऐसी सभी आशा करते थे.

दीदी स्कूल से आ कर ट्यूशन के लिए जाती थीं. शाम को मां दीदी को अपने साथ लाती थीं. उस दिन शिवांक को बहुत तेज बुखार था. इसलिए मां ने उन दोनों बहनों को एकसाथ भेज दिया था ताकि वापसी में दोनों एकसाथ आ सकें.

जनवरी का महीना था. दोनों बहनें घर की ओर आ रही थीं कि वह अनहोनी हो गई जिस ने उस के घर को तिनकातिनका कर बिखेर दिया. उस अंधेरे ने जीवन में जो अंधकार भर दिया उस की पीड़ा वह आज भी महसूस करती है.

ट्यूशन पढ़ाने वाले अध्यापक के घर से निकल कर वे कुछ दूर ही पहुंची थीं कि एक कार तेजी से उन के पास आ कर रुकी और वे कुछ संभल पातीं कि कार खोल कर उतरे युवकों ने उन्हें कार में धकेल दिया. कार चल पड़ी तो उन दोनों युवकों ने अपनी हथेलियों से उन का मुंह जोर से बंद कर दिया ताकि वे चिल्ला न सकें.

तीनों युवकों ने उन्हें ले जा कर एक कमरे बंद कर दिया था. फिर कुछ देर बाद तीनों युवक दोबारा वहां आए. वह डरीसहमी कोने में दुबक  कर खड़ी देखती रही. उस के सामने ही उस की दीदी को नंगा कर दिया गया. एक ने दीदी के बाजू पकड़ लिए और दूसरे ने टांगें और फिर तीसरा…वह राक्षस, दीदी छटपटाती रहीं, चिल्लाती रहीं लेकिन उन के रोने को किसी ने नहीं सुना. वह दीदी को बचाने गई तो एक ने ऐसे जोर से धक्का दिया कि वह दीवार से जा टकराई और बेहोश हो गई.

जब होश आया तो सबकुछ समाप्त हो चुका था. वे तीनों दरिंदे कमरे से जा चुके थे. दीदी बेहोश पड़ी थीं. बाहर निकल कर उस ने देखा तो उस की समझ में नहीं आया कि कौन सी जगह है. सारी रात वह यह सोच कर रोती रही कि उस की मां और पापा कितने परेशान हो रहे होंगे.

सुबह होने पर वह कमरे से बाहर निकल कर आई और किसी तरह अपने घर पहुंच कर मां व पापा को सारी बात बताई. जब उन्हें यह सब पता चला तो उन के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई. वे उसे ले कर वहां गए जहां दीदी को वह बेहोश छोड़ कर आई थी. दीदी अभी भी बेहोश पड़ी थीं. पापा दीदी को ले कर अस्पताल गए तो डाक्टरों ने इलाज से ही पहले ढेरों प्रश्न कर डाले. पापा ने जाने कैसेकैसे कह कर सिफारिश कर उस का इलाज शुरू करवाया था. लेकिन तब तक दीदी बहुतकुछ खो चुकी थीं. मानसिक रूप से विक्षिप्त दीदी थोड़ीथोड़ी देर बाद चीखने लगतीं, कपड़े फाड़ने लगतीं.

परीक्षाएं शुरू हुईं और समाप्त भी हो गईं. दीदी बेखबर थीं और फिर एक दिन इसी बेखबरी में दीदी चल बसीं. पापा ने ठान लिया था कि वह इस का बदला ले कर रहेंगे. उन्होंने अपने जीवन का जैसे उद्देश्य ही बना लिया था कि अपराधियों को उस के किए की सजा दिला कर रहेंगे. पुलिस में रिपोर्ट तो लिखाई ही थी. उस की पहचान पर पुलिस ने उन युवकों को पकड़ भी लिया. अदालत में मुकदमा चला, जज के सामने भी उस ने चिल्ला कर उस युवक के बारे में बताया था लेकिन उन लोगों ने ऐसेऐसे गवाह पेश कर दिए जिस से यह साबित हो गया कि वह तो घटना वाले दिन शहर में था ही नहीं. अमीर पिता का बिगड़ा बेटा था सो पैसे के बल पर छूट गया. बाकी दोनों युवकों को 3-3 माह की सजा हुई, बस.

पापा टूट तो पहले ही गए थे, फैसला आने के बाद तो जैसे बिखर ही गए. उन्होंने उस शहर से अपना ट्रांसफर करवा लिया लेकिन वहां भी वह संभल नहीं पाए. दीदी की मृत्यु वह सहन नहीं कर पाए और एक दिन उन्होंने हम सब को छोड़ कर आत्महत्या कर ली.

पापा ने एक मकान ले रखा था. मां उसी में आ कर रहने लगीं. उन्होंने एक कमरा अपने पास रखा और बाकी कमरे किराए पर चढ़ा दिए.

पापा और दीदी की मौत ने उसे कुछ ही समय में बड़ा कर दिया. वह शांत, चुप रहने लगी. पढ़ाई में उस ने मन लगाना शुरू कर दिया. चूंकि पापा दीदी को डाक्टर बनाना चाहते थे इसलिए उस ने ठान लिया था कि वह पापा की इच्छा को अवश्य पूरी करेगी. वह दीदी जैसी प्रतिभावान नहीं थी पर अपनी लगन और दृढ़ निश्चय के कारण वह सफलता की सीढि़यां चढ़ती गई और एक दिन उस ने डाक्टर बन कर दिखा ही दिया. आज वह एक सफल डाक्टर है और लोग उसे

डा. आराधना के रूप में जानते हैं. इस इलाके में उस का नाम है.

मां विवाह के लिए पिछले 5 सालों से जिद कर रही हैं लेकिन वह ऐसा सोच भी नहीं सकती. वह मानसिक रूप से इस के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाती. शायद दूसरी वजह यही है कि बचपन में जो वीभत्स दृश्य उस ने देखा था उस कुंठा से वह निकल नहीं पाई है. हार कर मां ने शिवांक का विवाह कर दिया और उसी के पास वह रहती है.

आज जिस पुरुष को अभी देख कर वह आई है, वह कोई और नहीं बल्कि वही दरिंदा था जिस ने उस के सामने ही उस की दीदी की इज्जत से खेल कर उन्हें मौत के मुंह में धकेल दिया था और दीदी को न्याय नहीं दिला पाने की पीड़ा में पापा ने आत्महत्या कर ली थी.

उस के मन में उबाल उठ रहा था, जो न्याय दीदी को पापा नहीं दिला पाए थे वह दिलवाएगी. वह उस व्यक्ति से अवश्य प्रतिकार लेगी. तभी दीदी और पापा की आत्मा को शांति मिल सकेगी. वह उस का इलाज नहीं करेगी जो इस समय जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा है.

वह निश्ंिचत हो कर वैसे ही कुरसी पर सिर टिकाए बैठी रही पर उस के मन को अभी भी कुछ कचोट रहा था. उसे लगा जैसे कुछ गलत हो रहा है.

जब वह कोई निर्णय नहीं ले पाई तो उस ने अपने घर आई मां को फोन किया. बड़ी देर तक फोन की घंटी बजती रही, किसी ने रिसीवर उठाया ही नहीं. फिर उस ने कपिल के घर फोन किया. फोन कपिल के पापा ने उठाया. उस ने छूटते ही पूछा, ‘‘अंकल, मां नहीं आईं क्या? घर पर फोन किया था. किसी ने रिसीवर उठाया ही नहीं.’’

‘‘च्ंिता न करो, बेटी, तुम्हारी मां मेरे घर में हैं. तुम थीं नहीं सो इधर ही उन्हें ले कर चला आया.’’

‘‘अंकल, मां से बात कराएंगे?’’

‘‘क्यों नहीं, अभी करवा देता हूं.’’

‘‘हैलो, मां कैसी हैं आप, सौरी, मैं आप को लेने नहीं आ सकी.’’

‘‘कोई बात नहीं, बेटी. मैं तुम्हारी मजबूरी को समझती हूं. तुम च्ंिता मत करो. चाय पी कर मैं घर चली जाऊंगी. तुम अपना काम कर के ही आना.’’

‘‘मां, आप अस्पताल में आ सकती हैं?’’

‘‘क्यों, क्या बात है, बेटी? तुम्हारी आवाज भर्राई हुई क्यों है?’’

‘‘कुछ नहीं, मां. बस, आप यहां आ जाओ,’’ उस ने छोटे बच्चों की तरह मचलते हुए कहा.

‘‘अच्छा, मैं अभी आ रही हूं,’’ कहते हुए उस ने फोन काट दिया.

मां जब अस्पताल पहुंचीं तब भी वह अपने कमरे में निश्चल बैठी थी. मां को देखते ही वह उन से लिपट कर रोने लगी. मां उसे भौचक देखती रहीं, सहलाती रहीं. थोड़ा मन शांत हुआ तो मां से अलग हो कर फिर से कुरसी पर आंखें मूंद कर बैठ गई. लग रहा था जैसे उस में खड़े होने की शक्ति ही नहीं रही.

मां ने च्ंितित स्वर में पूछा, ‘‘आराधना, क्या बात है. सबकुछ ठीक तो है न, बोल क्यों नहीं रही बेटी.’’

वह फिर से रोने लगी और रोतेरोते उस ने मां को उस व्यक्ति के बारे में सबकुछ बता दिया.

मां भी सकते में आ गईं. जरा संभलीं तो बोलीं, ‘‘मत करना उस का आपरेशन, मरने दे उसे. यही उस की सजा है. मेरा घर बरबाद कर के वह अभी तक जीवित है. हमें कानून से न्याय नहीं मिला, अब समय है, तू बदला ले सकती है. तभी साधना और तुम्हारे पिता की आत्मा को शांति मिलेगी. कुछ सोचने की जरूरत नहीं. चुपचाप घर चल, तू ने छुट्टी तो ले ही रखी है.’’

वह उसी तरह कुरसी पर सिर टिकाए बैठी रही. तभी नर्स ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘डाक्टर, आपरेशन की तैयारी पूरी हो गई है. आप भी जाइए.’’

नर्स तो कह कर चली गई पर वह मां की ओर देखने लगी. मां ने उस से फिर कहा, ‘‘देख ले, आराधना, अच्छा अवसर मिला है. मत जा, कोई और यह आपरेशन कर लेगा.’’

‘‘मां, यह आपरेशन मैं ही कर सकती हूं, इसीलिए तो घर से बुलवाया गया था.’’

‘‘सोच ले.’’

‘‘मैं अभी आती हूं,’’ कह कर वह अपने कमरे से बाहर आ गई. मरीज के साथ आई औरत वहीं खड़ी थी. उस का दिल चाहा कि वह उस से सबकुछ बता दे कि उस के पति ने क्याक्या किया था. पर इस में उस औरत का क्या दोष है.

वह बिना कुछ बोले आपरेशन थिएटर में चली गई. देखा तो वह व्यक्ति अचेतावस्था में आपरेशन टेबल पर लेटा हुआ था. उस की मनोस्थिति से बेखबर यदि और थोड़ी देर उस का आपरेशन नहीं किया गया तो वह बच नहीं पाएगा. वह इस वहशी का अंत देखना चाहती है. वह पापा और दीदी की मृत्यु का बदला लेना चाहती है. लेकिन उस के मन की दृढ़ता पिघलने क्यों लगी है? कभी उस औरत का दारुण रुदन सुनाई देने लगता तो कभी उस का गिड़गिड़ाता हुआ चेहरा सामने आ जाता तो कभी दीदी और पापा सामने आ जाते. कभी मां के शब्द कानों में गूंजने लगते. यह कैसा अंतर्द्वंद्व है. वह बदला ले या अपना कर्तव्य निभाए. मन दीदी का साथ दे रहा था तो अंतरात्मा उस का.

वह थोड़ी देर खड़ी रही. खाली- खाली आंखों से उस व्यक्ति को देखती रही. उस के चेहरे पर भाव आजा रहे थे.

नर्स हैरानी से उसे देख रही थी. बोली, ‘‘डाक्टर, सब ठीक है न?’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर वह ग्लव्स और ऐप्रेन पहनने लगी.

2 घंटे के अथक परिश्रम के बाद आपरेशन पूरा हो गया. वह निढाल सी हो कर बाहर आई. वह औरत उस की ओर बढ़ी पर उस से वह कुछ कह नहीं पाई. उस के कंधे पर हाथ रख वह अपने कमरे की ओर चली आई थी. मां अभी तक वहीं थीं. वह उन की गोद में सिर रख कर फफकफफक कर रो पड़ी. मां उस के सिर को सहलाते हुए खुद भी रो पड़ीं. उन दोनों की आंखों से अब आंसू के रूप में अतीत का दर्द बह रहा था.

सुदर्शन रत्नाकर  

Women’s Leadership : महिला सरपंच से मुख्यमंत्री तक पतियों का बोलबाला

Women’s Leadership : यह कोई नई बात नहीं है, जब स्त्री को आगे रख कर उस के सारे अधिकार पुरुष ने अपने हाथों में ले लिए. भारत के लोकतंत्र में तो यह आम बात है कि जब कोई महिला सरपंच या मुख्यमंत्री बनती है तो वह महज रबर स्टाम्प ही होती है, कामकाज तो सारा उस के पति, ससुर या बेटे ही चलाते हैं.

महिलाओं की लीडरशिप पर सवाल उठाता एक विवाद दिल्ली में पिछले दिनों तब शुरू हुआ जब दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी मार्लेना सिंह ने दिल्ली की वर्तमान मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के पति मनीष गुप्ता का एक वीडियो एक्स पर पोस्ट कर लिखा कि- इस फोटो को ध्यान से देखिए जो व्यक्ति एमसीडी (दिल्ली नगर निगम), डीजेबी (दिल्ली जल बोर्ड), पीडब्ल्यूडी (लोक निर्माण विभाग) और डीयूएसआईबी (दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड) के अफसरों की मीटिंग ले रहा है वह दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के पति मनीष गुप्ता हैं.

आतिशी ने आगे लिखा कि देश के इतिहास में यह पहली बार हुआ होगा कि एक महिला के सीएम बनने के बाद उन के पति सरकारी कामकाज संभाल रहे हैं. क्या रेखा गुप्ता को काम संभालना नहीं आता? इस वजह से दिल्ली में रोज लंबेलंबे पावर कट हो रहे हैं. प्राइवेट स्कूलों की फीस बढ़ रही है.

‘आप’ नेता सौरभ भारद्वाज ने भी भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा से सवाल किया कि सीएम रेखा गुप्ता के पति दिल्ली सरकार में किस पद पर हैं, जो वे सरकारी अधिकारियों के साथ मीटिंग कर रहे हैं? इस तरह की राजनीति करना दिल्ली की 2 करोड़ जनता का अपमान है. उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि सीएम रेखा गुप्ता केवल रबर स्टाम्प की मुख्यमंत्री है. मगर दिल्ली कोई फुलेरा की पंचायत नहीं है.

इस के बाद तो जैसे भूचाल सा आ गया और महिलाओं के नेतृत्व को ले कर एक नया राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया. भाजपा के नेता अपनी खीज उतारने के लिए आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल की पत्नी को भी निशाना बनाते सुनाई दिए जो केजरीवाल के जेल में बंद रहने के दौरान जनता और मीडिया से वार्ता करते दिखाई दी थीं.

यह कोई नई बात नहीं है, जब स्त्री को आगे रख कर उस के सारे अधिकार पुरुष ने अपने हाथों में ले लिए. देश की पंचायतों में तो यह आम बात है कि जब कोई महिला सरपंच बनती है तो वह महज रबर स्टाम्प ही होती है, कामकाज तो सारा उस के पति, ससुर या बेटे ही चलाते हैं.

हां, देश की राजधानी में ऐसी तस्वीर पहली बार नजर आई जब मुख्यमंत्री के पति जो किसी भी सरकारी पोस्ट पर नहीं हैं, इतने बड़ेबड़े विभागों के अधिकारियों के साथ मीटिंग कर रहे हैं. यानी रेखा गुप्ता, जिन की क्षमताओं पर भरोसा कर के दिल्ली की जनता ने दिल्ली की उन्हें कमान सौंपी थी, जनता के हित से जुड़े फैसले वे नहीं बल्कि उन के पति ले रहे हैं? मनीष गुप्ता यदि सरकार में होते तो भी कोई बात नहीं थी, मगर न तो वे सरकार में हैं और न कोई अधिकारी हैं. ऐसे में विपक्ष द्वारा सवाल उठाना गलत नहीं है.

आपने ग्रामीण क्षेत्रों में महिला ग्रामप्रधान के पति द्वारा पंचायत संबंधी काम करने की बातें खूब सुनी होंगी लेकिन अब पति एक सीढ़ी ऊपर चढ़ कर मुख्यमंत्री के साथ सरकारी काम निपटा रहे हैं. विपक्षी पूछ रहे हैं- तो क्या रेखा गुप्ता को सरकारी काम संभालना नहीं आता? क्या उन की ऐसी ही योग्यता और क्षमता के आधार पर उन्हें दिल्ली की गद्दी सौंपी गई? क्या वजह है कि रेखा गुप्ता से सत्ता नहीं संभल रही है? एक मुख्यमंत्री पति किस हैसियत से राजकाज चला रहा है? हिंदू राष्ट्र बनाने वालों को मुख्यमंत्री के लायक एक अदद सक्षम विधायक नहीं मिला? किस मजबूरी में रेखा गुप्ता को दिल्ली की जनता पर थोप दिया गया?

लखनऊ में भी मेयर सुषमा खर्कवाल से ज्यादा उन के पुत्र मयंक खर्कवाल शासन का काम संभालते हैं. किसी को यदि सुषमा खर्कवाल से फोन पर बात करनी हो तो उन का फोन उन के पुत्र के पास ही रहता है. मजबूरी में लोगों को अपनी विपदा उन्हीं को सुनानी पड़ती है और फिर उन की मर्जी पर होता है कि किस का काम होगा और किस का नहीं.

मध्य प्रदेश में पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि चुनाव जीतते ही उन के पति ही पंचायत औफिस में नजर आते हैं. मनरेगा, गौठान निर्माण, नाली निर्माण, खड़ंजा रोड, स्कूल सहित अन्य कार्यों में महिला सरपंच की जगह उन के पति काम करवाते हैं. कोई ग्रामीण जब अपने काम से पंचायत दफ्तर पहुंचते हैं तो वहां सरपंच के बजाय सरपंच पति ही मिलता है और सरपंच एक हाथ लंबा घूंघट कर घर में चूल्हा फूंक रही होती है.

ग्राम पंचायतों में महिलाओं की आरक्षित सीट पर पुरुष चुनाव नहीं लड़ सकते, इसलिए वे अक्सर अपनी पत्नी को चुनाव में खड़ा कर देते हैं. पत्नी के जीतने के बाद अपना दबदबा कायम रखते हैं और पत्नी को मोहरे के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा जमीनी स्तर पर महिलाओं को सशक्त बनाने और प्रतिनिधि लोकतंत्र के माध्यम से उन की सामाजिकआर्थिक स्थिति में सुधार लाने की कोशिश तो की गई है, महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने व महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए आरक्षण भी किया है मगर यह सुधार सिर्फ सरकारी कागजों तक ही सीमित हैं. जमीन पर औरत की स्थिति जस की तस है.

महिला सरपंच घर में बच्चे पालती है, चूल्हाचौका करती है, सासससुर की सेवा करती है और सरपंच पति पंचायत भवन में सरकारी कामकाज चलाता है. गांव के भले के लिए आने वाले सरकारी धन में कैसे कितना हिस्साबांट करना है, कितनी सड़कें कागजों पर बनवानी हैं, कितने हैंडपंप कागजों पर लगवाने हैं, कितने स्कूलों की मरम्मत की खानापूर्ति होनी है, कहां लाइट लगवानी है, ये सारी डीलिंग सरपंच पति ही करता है.

महिला सरपंच किसी कठपुतली की तरह होती है जिस की डोर पति, देवर, ससुर, बेटे की उंगलियों में फंसी होती है. उस से कब किस कागज पर साइन करवाने हैं, कब कितने पैसे बैंक खाते से निकलवाने हैं, यह सब पितृसत्ता तय करती है.

दरअसल पितृसत्ता से दब कर और डर कर रहना धर्म के नाम पर महिलाओं को उन के जन्म लेने के बाद घुट्टी में घोल कर पिलाया जाता है, जिस के प्रभाव से वे जीवनभर निकल नहीं पाती हैं. जिस भी स्त्री के सिर पर पिता, पति, देवर, ससुर, बेटे बैठे हैं वह स्त्री कितनी भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर ले और कितनी भी ऊंची कुर्सी पर क्यों न बैठ जाए, अपनी मर्जी से कोई कार्य नहीं कर पाती हैं. संविधान से तमाम अधिकार मिले होने के बावजूद वह अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाती. पितृसत्ता की भारी बेड़ियां उस के कदम रोक देती हैं.

एक शादीशुदा, बच्चों वाली महिला कई बार ट्रांसफर, प्रमोशन लेने से इंकार कर देती है क्योंकि उच्च पद पर ज्यादा जिम्मेदारी और ज्यादा समय देना पड़ता है. ऐसी स्त्रियां फील्ड वर्क भी करने से बचती हैं क्योंकि फील्ड वर्क में सारा दिन दौड़ना पड़ता है और घर लौटने का कोई निश्चित समय नहीं होता.

शादीशुदा महिला को छह बजते ही घर लौटने की चिंता सालने लगती है. रात के खाने में क्या पकना है, सुबह बच्चों और पति के टिफिन में क्या देना है, इन्हीं विचारों में घिरी वह तेजी से घर की तरफ भागती नजर आती है. जरा सी देर हो गई तो सास बखेड़ा खड़ा कर देगी, घर में महाभारत मच जाएगा, पति भी डांटेगा और बच्चे भी बोलने से नहीं चूकेंगे, यह डर चेहरे पर झुर्रियों की संख्या में इजाफा करता चला जाता है.

स्त्री की नेतृत्व क्षमता तभी उभरती है जब उस के सिर पर कोई पुरुष न हो. देश की प्रधानमंत्री रहीं आयरन लेडी इंदिरा गांधी की नेतृत्व क्षमता तब उभर कर सामने आई जब उन के पिता जवाहरलाल नेहरू और उन के पति फिरोज गांधी का निधन हो गया. भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी के समान तेजस्वी और मजबूत फैसले लेने वाली महिला कोई और नहीं हुई.

जयललिता, ममता बनर्जी और मायावती जैसी ओजस्वी महिलाओं की लीडरशिप की दुनिया कायल है मगर वह इसी वजह से है क्योंकि उन्होंने विवाह नहीं किया. उन्होंने पितृसत्ता को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. जो फैसला लिया स्वयं लिया. सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित इस में जरूर अपवाद हैं क्योंकि दोनों ही विवाहित थीं, फिर भी उन का नेतृत्व तगड़ा रहा. इस की वजह यह थी कि दोनों अपने कामों में पतियों का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया और उन के पतियों ने भी इस बात को समझा.

देश में अनेक बड़ी कंपनियों में उच्च पदों पर कार्यरत महिलाओं पर यदि नजर डालें तो आप पाएंगे कि अधिकांश ने या तो विवाह नहीं किया है, या वे तलाकशुदा हैं. यह बात दर्शाती है कि स्त्री तभी आगे बढ़ सकती है जब उस के पैरों में पुरुष नाम की बेड़ी न हो. क्योंकि पुरुष हमेशा स्त्री को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहता है. यह उस की जन्मजात प्रवृत्ति है. वह उसे रसोई और बैडरूम में बांधे रखता है. पढ़ीलिखी कामकाजी विवाहित महिला रसोई और बैडरूम से छुटकारा नहीं पा पाती और इसीलिए जीवन में आगे नहीं बढ़ पाती है.

धर्म को रचने वाला पुरुष है. कभी किसी महिला ने धर्मग्रंथों की रचना की हो, ऐसा सुनने को नहीं मिला. तो जो ग्रंथ पुरुषों ने रचे उस में उन्होंने स्त्री को काबू में रखने के लिए अनेकानेक नियम बनाए. सारे धार्मिक कृत्यों को पूरा करने की जिम्मेदारी उस के सिर पर रख दी. सारे सेवा कार्य उस की पीठ पर लाद दिए. न करने पर दंड की व्यवस्था भी रखी. नर्क और जहन्नुम का डर भी दिखाया.

लिहाजा स्त्री जीवनभर इन्हीं धार्मिक कर्मकांडों में घिरी रहती है, उसे सोचनेविचारने का समय ही नहीं मिलता कि धर्मग्रंथों की जो बातें बचपन से घुट्टी की तरह पिलाई गईं, वे ठीक भी हैं या नहीं. अविवाहित होने पर पिता उस को धर्म के नाम पर डराए रखता है और शादी के बाद पति. उस का खुद का नेतृत्व और विचार तो कभी उभरता ही नहीं है.

पढ़लिख कर जो स्त्रियां नौकरी में आ जाती है और अपने विवेक का इस्तेमाल करने लगती हैं, चूल्हेचौके के चक्कर में नहीं फंसतीं, पुरुष की गुलाम बन कर नहीं रहतीं उन में नेतृत्व के गुण उभर कर सामने आते हैं. वे अपने विवेक से काम करती हैं.

यह सच है यदि स्त्री पितृसत्ता की बेड़ियों से आजाद हो जाए तो वह पुरुषों के मुकाबले ज्यादा बेहतर तरीके से काम कर सकती हैं. आमतौर पर स्त्रियां बेईमान नहीं होतीं, वे भावुक होती हैं, संवेदनशील और ममतामई होती हैं लिहाजा वह दुनिया को ज्यादा खूबसूरत बना सकती हैं.

यदि दुनिया का नेतृत्व स्त्री के हाथों में हो तो जगहजगह जो लड़ाइयां छिड़ी हुई हैं, बमबारूद के गोले फट रहे हैं, धरती लहू से लाल हो रही है, यह सब होना रुक जाए. पूरी धरती शांत और सुंदर हो जाए. यह सब हो जाए मगर शर्त ये है कि स्त्री पितृसत्ता से किसी तरह खुद को आजाद करें.

Love Story : हाय सैक्सी – क्यों डेजी के पीछे भाग रहा था रोहित

Love Story : कालेज के गेट में ऐंटर करते ही मृणालिनी ने रोहित को देखा तो अचंभे से चिल्लाई, ‘‘हाय रोहित,’’ लेकिन रोहित का ध्यान कहीं और था. उस ने मृणालिनी की ओर देखा भी नहीं और डेजी के पास पहुंच कर बोला, ‘‘हाय डेजी, माई स्वीट हार्ट.’’

मृणालिनी ने देखा तो चौंकी. कितना बदल गया है रोहित. कहां तो स्कूल में मुझे कनखियों से देखता शर्माता था और कहां यह बदला रूप. मृणालिनी और रोहित दिल्ली के एक नामी कालेज में पढ़ते थे. स्कूल में मृणालिनी रोहित से एक क्लास पीछे थी. दोनों साइंस स्ट्रीम से पढ़ाई कर रहे थे. रोहित मृणालिनी के घर से थोड़ी दूरी पर ही रहता था सो कभीकभी नोट्स आदि लेने व पढ़ाई में हैल्प के लिए वह रोहित के घर चली जाती थी. रोहित शर्माता हुआ उस से बात करने में भी हिचकता था. लेकिन कभीकभी उन दिनों भी वह मृणालिनी की सुंदरता की तारीफ करता तो वह सिहर उठती. मन ही मन वह उसे चाहने लगी थी. कई सपने देख बैठी थी रोहित से मिलन के. लेकिन कालेज में ऐडमिशन के बाद से ही रोहित का उस से संपर्क कम होने लगा था. जब मृणालिनी ने भी 12वीं पास कर ली और उसी कालेज में ऐडमिशन लिया तो वह इस बात से अनजान  थी कि रोहित उसे यहीं मिल जाएगा. मृणालिनी ने कालेज में प्रवेश किया तो उसे किसी अन्य लड़की से बतियाते देख जैसे अपना सपना टूटता लगा.

रोहित जिस से बात कर रहा था वह गजब की थी. गोरा रंग, तीखे नयन, लंबे बाल तिस पर धूप का चश्मा और ड्रैस ऐसी कि कोई भी शरमा जाए. फंकी टीशर्ट के साथ निकर में से निकलती उस की सुडौल टांगें और टीशर्ट व निकर के बीच में झांकती आकर्षक नाभि उसे सैक्सुअली अट्रैक्शन दे रही थी. मृणालिनी मन मार कर उस के पास गई और रोहित को पुकारा. रोहित ने मुड़ कर देखा तो पूछने लगा, ‘‘अरी मृणालिनी तुम. इसी कालेज में ऐडमिशन लिया है क्या?’’

‘‘हां,’’ वह इतना ही कह पाई थी कि रोहित डेजी का हाथ पकड़ जाते हुए बोला, ‘‘यह है डेजी, मेरी क्लासमेट. अच्छा, मिलते हैं फिर,’’ और चला गया. ‘कहां तो रोहित उसे देख चमक जाता था और कहां अब इग्नोर करता उस सैक्सी बाला के साथ चला गया. ऐसा क्या जादू है इस में,’ वह सोचने लगी. तभी अमिता ने उसे पुकारा, ‘‘अरे मृणालिनी, क्लास में नहीं चलना क्या?’’

‘‘हां, चलो.’’ कह कर वह अमिता के साथ चल दी. रास्ते में अमिता ने पूछा, ‘‘तुम रोहित को जानती हो क्या?’’

‘‘हां…’’ कुछ रुकते हुए मृणालिनी ने अपनी स्कूली दोस्ती की बात उसे बता दी. अमिता बोली, ‘‘कहां तुम और कहां डेजी, देखा है उस के लुक को, उस की सैक्स अपील को. एक तुम हो मोटा नजर का चश्मा लगा कर सलवारकुरते में बहनजी बन कर आ जाती हो. मैं ने तो तुम्हें कभी जींस में भी नहीं देखा. आजकल पर्सनैलिटी बनाने के लिए सैक्सी लुक चाहिए. रोहित तो वैसे ही फ्लर्ट किस्म का लड़का है. सैक्सुअली अट्रैक्शन के पीछे भागने वाला.

‘‘उस के साथ जो लड़की थी, पता है मिस कालेज है वह. दोनों एक ही क्लास में हैं. पहले रोहित भी शर्मीला था पर धीरेधीरे इतना खुल गया कि फ्लर्ट करने लगा.’’ आज मृणालिनी का मन क्लास में न लगा. उस के मन में एक ही बात कौंध रही थी कि वह कैसे रोहित को पाए. कैसे रोहित के दिल में जगह बनाए. ‘‘चलो, सब चले गए,’’ अमिता ने कहा तो जैसे मृणालिनी नींद से जागी. उस की डबडबाई आंखें उस के दिल का हाल बयां कर रही थीं. अमिता को समझते देर न लगी. वह बोली, ‘‘अभी तक रोहित के बारे में सोच रही हो, छोड़ो उसे बिंदास जिओ.’’

‘‘नहीं अमिता मेरा मन नहीं मानता,’’ मृणालिनी रोंआसी हो गई.

‘‘मृणालिनी, अगर तुम रोहित को पाना चाहती हो तो मौडर्न बनो, खुद में अट्रैक्शन पैदा करो, तुम किसी भी तरह से डेजी से कम नहीं हो. विद्या बालन वाला बहनजीनुमा लुक छोड़ो, आज बिपाशा बनने में कोई हर्ज नहीं देखना, रोहित ही नहीं पूरा कालेज तुम्हारे पीछेपीछे भागेगा.’’ मृणालिनी उदास सी घर पहुंची. हाथमुंह धोते समय बाथरूम में लगे शीशे में खुद को निहारा तो अमित के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे. ‘वाकई बहनजी ही तो लगती हूं मैं. ठीक कह रही थी अमिता. सैक्सुअली अट्रैक्शन तो जैसे मुझ में है ही नहीं. इस उम्र में देह आकर्षण ही तो विपरीतलिंगी को अट्रैक्ट करता है. मैं भी बदलूंगी अपने लुक को.’ लंच करते समय उस ने मम्मी से पूछा, ‘‘मम्मी, क्या मैं अपने लिए दोचार अच्छी ड्रैसेज खरीद लूं.’’ मां ने भी मना नहीं किया और शाम को खुद उस के साथ मार्केट गईं. मृणालिनी को सलवारकमीज, पाजामी, लैगिंग्स के बजाय जींसटौप, ट्यूब ड्रैस, शौर्ट्स, निकर जैसी स्टाइलिश ड्रैसेज खरीदते देख मम्मी हैरान हुईं. लेकिन मृणालिनी ने कह दिया, ‘‘आजकल यही सब चलता है. बोल्ड अंदाज न हो तो मम्मी कोई नहीं पूछता कालेज में.’’ मम्मी शांत हो गईं. घर आ कर मृणालिनी एकएक ड्रैस ट्राई करने लगी. शौर्ट ड्रैस ट्राई करते समय उस का ध्यान टांगों के बालों पर गया तो उसे खुद से ही घिन हुई. फिर उस ने कल के लिए जींस और टौप पहनना ही उचित समझा और निर्णय किया कि कल कालेज से आ कर ब्यूटी पार्लर भी जाएगी. मृणालिनी को जींस और टौप में देख उस की सहेलियां हतप्रभ रह गईं. अमिता ने भी देखा तो बोली, ‘‘वाउ, क्या फिगर है यार.’’

मृणालिनी तारीफ सुन फूली न समाई. जब उस ने कालेज के लड़कों को एकटक अपनी तरफ देखते हुए देखा तो उस का हौसला बढ़ा. वह बड़े चाव से रोहित के क्लासरूम के बाहर गई, लेकिन वह कुछ लड़कियों से बातचीत में मशगूल था. जब बहाने से बुलाया तो वह उसे एकटक देखता रह गया. फिर बहाना बनाती मृणालिनी बोली, ‘‘मुझे फर्स्ट ईयर के तुम्हारे नोट्स चाहिए. दोगे क्या?’’ ‘‘हां, ले लेना पर अभी जाओ,’’ उसे इग्नोर करता रोहित बोला तो मृणालिनी को बहुत बुरा लगा. उस ने आ कर अमिता को बताया तो वह भी नाराज हुई.

‘‘अरे, तुम्हें कालेज में भी नोट्स मांगने थे. उसे कौफी पीने चलने को कहती. कैंटीन में खाने चलने को कहती ताकि अपने दिल की बात कह सके,’’ अमिता ने समझाया. ‘‘ठीक है अगली बार देखूंगी,’’ कह वह वहां से चली गई. लेकिन उस ने सोच लिया था कि वह अपने लिए अट्रैक्शन पैदा कर के ही रहेगी. घर आ कर लंच किया और ब्यूटी पार्लर चल दी. टांगबांहों की वैक्सिंग और मैनीक्योरपैडिक्योर करवाया, साथ ही थ्रैडिंग भी. अगले दिन रैड ट्यूब ड्रैस के साथ सीधेसीधे बालों का हेयरस्टाइल बना, साथ में हाईहील सैंडिल पहन कर वह गजब ढाती दिखी. कालेज पहुंची तो दूर से ही उस की चाल, मखमली टांगें, सुंदर बांहें देख सभी दिल थाम बैठे. अमिता ने देखा तो टोक दिया, ‘‘यह क्या हुलिया बना लिया तुम ने,’’ फिर उस का चश्मा उतारती हुई बोली, ‘‘कम से कम इसे तो उतार लेती. ऐसे लगता है जैसे मखमली चादर में टाट का पैबंद लगा दिया हो.’’

‘‘क्या करूं अमिता. इस के बिना ब्लैकबोर्ड पर कुछ दिखेगा नहीं. मैं पढ़ूंगी कैसे? मुझे कालेज की पढ़ाई भी तो करनी है,’’ मृणालिनी बोली.

‘‘तो कौंटैक्ट लैंस लगा लो. जरूरी है मोटा चश्मा लगाना और हां, अगर लगाना ही है तो धूप का चश्मा लगाओ न ताकि देखते ही हर कोई बोले, ‘गोरे गोरे मुखड़े पे कालाकाला चश्मा…’’’ यह बात मृणालिनी की समझ में आ गई थी. अब मृणालिनी ने चश्मे को भी बाय कह दिया. रोज तरहतरह की अटै्रक्टिव ड्रैसेज पहन उस की इमेज भी सैक्सुअल अट्रैक्ट करने वाली बन गई थी. हर कोई उसे मुड़मुड़ कर देखता. उस दिन मृणालिनी रैड ड्रैस में थी. सभी उस की प्रशंसा कर रहे थे. वह खुशीखुशी रोहित के पास गई तो वह भी उसे देखता रह गया. फिर हायहैलो के बाद मृणालिनी बोली, ‘‘रोहित, आज शाम कौफी पीते हुए घर चलें. वहीं से तुम मुझे घर छोड़ देना.’’

रोहित कुछ कहता, इस से पहले ही पास खड़ी डेजी ने उस की बांहों में बांह डाल दी तो वह चुप रह गया. इस पर मृणालिनी को काफी ईर्ष्या हुई. रोहित के लिए उस के दिल में जो प्यार था वह धुंधला पड़ रहा था, अब वह सिर्फ रोहित को डेजी जैसा बन कर दिखाना चाहती थी. रोहित और डेजी को झुकाने का यह अवसर भी उसे जल्द ही मिल गया. दरअसल, मृणालिनी ने अपनी हर ड्रैस में सैल्फी खींचखींच कर कई बार अपनी डीपी चेंज की व फेसबुक पर अपना हर पोज अपलोड किया जिसे काफी लाइक भी मिले. उस दिन उस का फेसबुक पर लाइक के साथ एक कमैंट भी था. ‘तुम मिस कालेज के लिए ट्राई क्यों नहीं करतीं. छा जाओगी.’ मृणालिनी को यह बात जंच गई. उस ने झट से अमिता को फोन किया और मिस कालेज प्रतियोगिता में भाग लेने की इच्छा जताई. अमिता ने बताया, ‘‘इस प्रतियोगिता का सारा अरेंजमैंट तो रोहित ही देख रहा है. तुम उसी से बात करो. हां, अगर डांस में भाग लेना हो तो मैं तुम्हारी हैल्प कर सकती हूं क्योंकि इस बार डांस ग्रुप को कोरियोग्राफ करने वाली हूं मैं.’’

अगले दिन मृणालिनी रोहित से मिली और मिस कालेज कंपीटिशन में भाग लेने की इच्छा बताई. तभी वहां खड़ी डेजी बोल पड़ी, ‘‘अब कौए भी हंस की चाल चलेंगे,’’ और उस की सहेलियां हंस पड़ीं. मृणालिनी को बात चुभ गई. रोहित ने भी इस कंपीटिशन में भाग लेने से मना किया कि यह तुम्हारे बस का नहीं. लेकिन इरादे की पक्की मृणालिनी नाम लिखवा कर ही मानी. फिर वह अमिता के पास गई और डांस प्रोग्राम भी करना चाहा. अब मृणालिनी रोज 2 घंटे डांस की रिहर्सल करती. फिर रैंप पर चलने की प्रैक्टिस और रात को पढ़ाई. साथ ही अपने खानपान, व्यायाम का भी ध्यान रखती. कालेज फैस्टिवल का दिन था. पहले डांस प्रोग्राम था और मृणालिनी का ही पहला कार्यक्रम था. दिल पक्का कर वह स्टेज पर उतरी और डांस शुरू किया, ‘सैक्सी सैक्सी सैक्सी मुझे लोग बोलें, हाय सैक्सी, हैलो सैक्सी क्यों बोलें…’ गाने के साथ उस के स्टैप्स और ड्रैस ने ऐसा धमाल मचाया कि स्टेज से उतरते ही लोग उसे सैक्सी…सैक्सी कहने लगे.

उस के डांस पर पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. कालेज के फैस्टिवल में अंतिम कार्यक्रम ‘मिस कालेज’ का कंपीटिशन था. सो उसे थोड़ा आराम करने का समय भी मिल गया. उस ने रैंप पर आने के लिए वही रैड ट्यूब ड्रैस चुनी जिस पर सब से ज्यादा लाइक मिले थे. वह इस ड्रैस में गजब की सैक्सुअली अट्रैक्टिव लग रही थी. जब वह रैंप पर उतरी तो उस के गाने व नृत्य के कायल स्टूडैंट्स सैक्सी…सैक्सी… कह उठे. सारा वातावरण हाय सैक्सी… की धुन से सराबोर हो गया. जितनी तालियां मृणालिनी के अट्रैक्शन पर बजीं उतनी किसी अन्य पर नहीं. लिहाजा, उसे ही ‘मिस कालेज’ का ताज पहनाया गया. अगले ही पल जब उसे मिस कालेज की ट्रौफी दी गई तो डेजी देखदेख कर जलन के मारे गढ़ी जा रही थी और ट्रौफी व ताज के साथ अनूठे अंदाज में खड़ी मृणालिनी सब पर बिजलियां गिरा रही थी.

अगले दिन मृणालिनी ने कालेज गेट से ऐंटर किया ही था कि आवाज आई, ‘‘हाय सैक्सी…’’ जानीपहचानी आवाज सुन कर मृणालिनी रुकी तो देख दंग रह गई. उस के पीछे रोहित था.

‘‘अरे, रोहित तुम.’’

‘‘हां, आज तक मैं तुम्हें इग्नोर करता रहा पर तुम ने सिरमौर बन कालेज में नाम कमा मुझे बता दिया कि मैं गलत था. आज शाम कालेज के बाद मेरे साथ कौफी पीने चलोगी. वहीं से साथ घर चलेंगे.’’ ‘‘नहीं, मैं कोई दूध पीती बच्ची नहीं रोहित. कल तक जब तुम एक शर्मीले लड़के थे ठीक था. फिर तुम फ्लर्टी हो गए और कभी इस की बगल तो कभी उस की बगल. मेरी दोस्ती भी भूल गए. याद है सब से पहले तुम्हीं ने मुझे खूबसूरत कहा था लेकिन कालेज में आ कर तुम्हें सिर्फ सैक्सुअल अट्रैक्शन में रुचि रही सो मुझे इग्नोर करते रहे. मैं तुम्हारे पीछे भागती फिरती थी और तुम मेरी ओर देखते भी न थे…’’

अभी मृणालिनी ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘हाय सैक्सी…’’

‘‘ओह, कपिल तुम,’’ फिर एक नजर रोहित पर डाल कपिल से बोली, ‘‘चलो, आज कौफी हाउस चलते हैं अमिता को भी बुला लेते हैं,’’ कहती हुई मृणालिनी कपिल के साथ चली गई अमिता का धन्यवाद करने जिस ने उसे इस मुकाम तक पहुंचाया था. रोहित ठगा सा दोनों को जाता हुआ देख रहा था.

Family Story : चाहत – कमला के बेटे आपस में क्यों लड़ रहे थे

Family Story : ‘‘हां हां, मैं तो छोटा हूं, सारी जिंदगी छोटा ही रहूंगा, सदा बड़े भाई की उतरन ही पहनता रहूंगा. क्यों मां, क्या मेरा इस घर पर कोई अधिकार नहीं,’’ महेश ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

रात गहरी हो चुकी थी. कमला ने रसोई समेटी और बाहर आ कर दोनों बेटों के पास खड़ी हो गई. वे दोनों आपस में किसी बात को ले कर झगड़ रहे थे.

‘‘तुम दोनों कब लड़ना छोड़ोगे, मेरी समझ में नहीं आता. तुम लोग क्या चाहते हो? क्यों इस घर को लड़ाई का अखाड़ा बना रखा है? आज तक तो तुम्हारे पिताजी मुझ से लड़ते रहे. उस मानसिक क्लेश को सहतेसहते मैं तो आधी हो चुकी हूं. जो कुछ शेष हूं, उस की कसर तुम दोनों मिल कर निकाल रहे हो.’’

‘‘पर मां, तुम हमेशा बड़े भैया का ही पक्ष क्यों लेती हो, क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं?’’

‘‘तुझे तो हमेशा उस से चिढ़ रहती है,’’ मां मुंह बनाती हुई अंदर चली गईं.

वैसे यह सच भी था. मातापिता के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कारण ही सुरेश व महेश आपस में बहुत लड़ते थे. मां का स्नेह बड़े सुरेश के प्रति अधिक था, जबकि पिता छोटे महेश को ही ज्यादा चाहते थे. दोनों भाइयों की एक छोटी बहन थी स्नेह.

स्नेह बेचारी घर के इस लड़ाईझगड़े के माहौल में हरदम दुखी रहती थी. सुरेश व महेश भी उसे अपने पक्ष में करने के लिए हरदम लड़ते रहते थे. वह बेचारी किसी एक का पक्ष लेती तो दूसरा नाराज हो जाता. उस से दोनों ही बड़े थे. वह चाहती थी कि तीनों भाईबहन मिल कर रहें. घर की बढ़ती हुई समस्याओं के बारे में सोचें, खूब पढ़ें ताकि अच्छी नौकरियां मिल सकें.

उस ने जब से होश संभाला था, घर का वातावरण ऐसा ही आतंकित सा देखा. मां बड़े भाई का ही पक्ष लेतीं. शायद उन्हें लगता होगा कि वही उन के बुढ़ापे का सहारा बनेगा. पिता मां से ही उलझते रहते और छोटे भाई को दुलारते. वह बेचारी उन सब के लड़ाईझगड़ों से डरी परेशान सी, उपेक्षिता सुबह से शाम तक इसी सोच में डूबी रहती कि घर में कब व कैसे शांति हो सकती है.

सुबह की हुई बहस के बारे में वह आंगन में बैठी सोचती रही कि बड़े भैया सुरेश की उतरन पहनने के लिए महेश भैया ने कितना बुरा माना. लेकिन वह जो हमेशा इन दोनों की उतरन ही पहनती आई है, उस के बारे में कभी किसी का खयाल गया? वह सोचती, ‘मातापिता का ऐसा पक्षपातपूर्ण व्यवहार क्यों है? क्यों ये लोग आपस में ही लड़ते रहते हैं? अब तो हम सभी बड़े हो रहे हैं. हमारे घर की बातें बाहर पहुंचें, यह कोई अच्छी बात है भला?’ त्रस्त सी खयालों में डूबी वह चुपचाप भाइयों की लड़ाई का हल ढूंढ़ा करती.

स्नेह का मन इस वातावरण से ऊब गया था. वह एक दिन शाम को विचारों में लीन आंगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी. अचानक एक छोटा सा पत्थर का टुकड़ा उस के पास आ कर गिरा. चौंकते हुए उस ने पीछे मुड़ कर देखा कि कौन है?

अभी वह इधरउधर देख ही रही थी कि एक और टुकड़ा आ कर गिरा. इस बार उस के साथ एक छोटी सी चिट भी थी. घबरा कर स्नेह ने घर के अंदर निगाहें दौड़ाईं. इत्तफाक से मां अंदर थीं. दोनों भाई भी बाहर गए हुए थे. अब उस ने देखा कि एक लड़का पेड़ के पीछे छिपा हुआ उस की तरफ देख रहा है.

हिम्मत कर के उस ने वह चिट खोल कर पढ़ी तो उस की जान ही निकल गई. लिखा था, ‘स्नेह, मैं तुम्हें काफी दिनों से जानता हूं. तुम यों ही हर शाम इस आंगन में बैठी पढ़ती रहती हो. तुम्हारी हर परेशानी के बारे में मैं जानता हूं और उस का हल भी जानता हूं. तुम मुझे कल स्कूल की छुट्टी के बाद बाहर बरगद के पेड़ के पास मिलना. तब मैं बताऊंगा. शंकर.’

पत्र पढ़ कर डर के मारे स्नेह को पसीना आ गया. शंकर उस के पड़ोस में ही रहता था. उस के बारे में सब यही कहते थे कि वह आवारा किस्म का लड़का है. ‘उस के पास क्या हल हो सकता है मेरी समस्याओं का?’ स्नेह का दिल बड़ी कशमकश में उलझ गया.

वह भी तो यही चाहती थी कि उस के घर में लड़ाईझगड़ा न हो. ‘हमारे घर की बातें शंकर को कैसे पता चल गईं? क्या उस के पास जाना चाहिए?’ इसी सोच में सवेरा हो गया. स्कूल में भी उस का दिल न लगा. ‘हां’ और ‘नहीं’ में उलझा उस का मन कोई निर्णय नहीं ले पाया.

स्कूल की छुट्टी की घंटी से उस का ध्यान बंटा. ‘देख लेती हूं, वैसे बात करने में क्या नुकसान है,’ स्नेह खयालों में गुम बरगद के पेड़ के पास पहुंच गई. सामने देखा तो शंकर खड़ा था.

‘‘मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी,’’ शंकर ने कुटिलता से कहा, ‘‘सुबह शीशे में शक्ल देखी थी तुम ने?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ मेरी शक्ल को?’’ स्नेह डर गई.

‘‘तुम बहुत सुंदर हो,’’ शंकर ने जाल फेंका. उस के विचार में मछली फंस चुकी थी. और स्नेह भी आत्मीयता से बोले गए दो शब्दों के बदले बहक गई.

इस छोटी सी मुलाकात के बाद तो यह सिलसिला चल पड़ा. रोज ही शंकर उस से मिलता. उस के साथ दोचार घर की बातें करता. उसे यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता कि वह उस के हर दुखदर्द में साथ है. बातोंबातों में ही उस ने स्नेह से घर की सारी स्थिति जान ली. उस के दोनों भाइयों के बारे में भी वह काफी जानता था.

वह धीरेधीरे जान गया था कि स्नेह को अपने भाइयों से बहुत मोह है और वह उन के आपसी लड़ाईझगड़े के कारण बहुत तनाव में रहती है. शंकर ने यह कमजोरी पकड़ ली थी. वह स्नेह के प्रति झूठी सहानुभूति जता कर अपनी स्थिति मजबूत करना चाहता था. वह एक आवारा लड़का था, जिस का काम था, स्नेह जैसी भोलीभाली लड़कियों को फंसा कर अपना उल्लू सीधा करना.

अब स्नेह घर के झगड़ों से थोड़ी दूर हो चुकी थी. वह अब शंकर के खयालों में डूबी रहने लगी. महेश को एकदो बार उस की यह खामोशी चुभी भी थी, पर वह खामोश ही रहा.

महेश को तो बस सुरेश को ही नीचा दिखाने की पड़ी रहती थी. दोनों भाई घर की बिगड़ती स्थिति से बेखबर थे. वे दोनों चाहते तो आपसी समझ से लड़ाईझगड़ों को दूर कर सकते थे. और सच कहा जाए तो उन की इस स्थिति के जिम्मेदार उन के मांबाप थे. अभावग्रस्त जीवन अकसर कुंठा का शिकार हो जाता है. जहां आपस में एकदूसरे को नीचा दिखाने की बात आ जाए वहां प्यार का माहौल कैसे बना रह सकता है.

स्नेह शंकर से रोज ही कहती कि वह उस के भाइयों का झगड़ा समाप्त करा दे. शंकर भी उस की इस कमजोरी को भुनाना चाहता था. उस की समझ में स्नेह अब उस के मोहजाल में फंस चुकी थी.

दूसरी ओर स्नेह शंकर की किसी भी बुरी भावना से परिचित नहीं थी. उस ने अनजाने में ही सहज हृदय से उस पर विश्वास कर लिया था. उस का कोमल मन घर की कलह से नजात चाहता था.

एक दिन ऐसे ही स्नेह शंकर के पास जा रही थी कि रास्ते में बड़ा भाई सुरेश मिल गया, ‘‘तू इधर कहां जा रही है?’’

‘‘भैया, मैं अपनी सहेली के पास कुछ नोट्स लेने जा रही थी,’’ स्नेह ने सकपका कर कहा.

‘‘तू घर चल, नोट्स मैं ला कर दे दूंगा. और आगे से स्कूल के बाद सीधी घर जाया कर, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा,’’ भाई ने धमकाया.

उस दिन शंकर इंतजार ही करता रह गया. अगले दिन वह बड़े गुस्से में था. कारण जानने पर स्नेह से बोला, ‘‘हूं, तुम्हें आने से मना कर दिया. और खुद जो दोनों सारा दिन घर से गायब रहते हैं, तब कुछ नहीं होता.’’

उस दिन स्नेह बहुत डर गई. शंकर के चेहरे से लगा कि वह उस के भाइयों से बदला लेना चाहता है. वह सोचने लगी कि कहीं उस के कारण भाई किसी परेशानी में न पड़ जाएं. उस ने शंकर को समझाना चाहा, ‘‘मैं अब तुम्हारे पास नहीं आऊंगी. मेरे भाइयों ने दोबारा देख लिया तो खैर नहीं. यों भी तुम मुझ पर जरूरत से ज्यादा गुस्सा करने लगे हो. मैं तो तुम्हें एक अच्छा दोस्त समझती थी.’’

‘‘ओह, जरा से भाई के धमकाने से तू डर गई? मैं तो तुझे बहुत हिम्मत वाली समझता था,’’ शंकर ने मीठे बोल बोले.

‘‘नहीं, इस में डरने की बात नहीं. पर ऐसे आना ठीक नहीं होता.’’

‘‘अरे छोड़, चल उस पहाड़ी के पीछे चल कर बैठते हैं. वहां से तुझे कोई नहीं देखेगा,’’ शंकर ने फिर पासा फेंका.

‘‘नहीं, मैं घर जा रही हूं, बहुत देर हो गई है आज तो…’’

इस पर शंकर ने जोरजबरदस्ती का रास्ता अपनाने की सोची. ये लोग अभी बात ही कर रहे थे कि अचानक स्नेह का भाई सुरेश वहां आ गया. उस ने देखा कि स्नेह घबराई हुई है. उस के पास ही शंकर को खड़े देख कर उस के माथे पर बल पड़ गए.

उस ने शंकर से पूछा, ‘‘तू यहां मेरी बहन से क्या बातें कर रहा है?’’

‘‘अपनी बहन से ही पूछ ले ना,’’ शंकर ने रूखे स्वर में कहा.

‘‘इस से तो मैं पूछ ही लूंगा, तू अपनी कह. इस के पास क्या करने आया था?’’ सुरेश ने कड़े स्वर में कहा.

‘‘तेरी बहन ने ही मुझे आज यहां बुलाया था, कहती थी कि पहाड़ी के पीछे चलते हैं, वहां हमें कोई नहीं देखेगा,’’ शंकर कुटिलता से हंसा.

‘‘क्या कहा, मैं ने तुझे यहां बुलाया था?’’ स्नेह ने हैरान हो कर कहा, ‘‘मुझे नहीं पता था कि तू इतना बड़ा झूठ भी बोल सकता है.’’

‘‘अरे वाह, हमारी बिल्ली और हमीं को म्याऊं, तू ही तो रोज मेरा यहां इंतजार करती रहती थी.’’

‘‘बस, बहुत हो चुका शंकर, सीधे से अपने रास्ते चला जा, वरना…’’ सुरेश ने गुस्से से कहा.

‘‘हांहां, चला जाऊंगा, पर तेरी बहन को साथ ले कर ही,’’ शंकर बेशर्मी से हंसा.

‘‘जरा मेरी बहन को हाथ तो लगा कर देख,’’ कहने के साथ ही सुरेश ने जोरदार थप्पड़ शंकर के जड़ दिया.

बस फिर क्या था, उन दोनों में मारपीट होने लगी. शोर बढ़ने से लोग वहां एकत्र होने लगे. झगड़ा बढ़ता ही गया. एक बच्चे ने जा कर सुरेश के घर में कह दिया.

मां ने सुना तो झट महेश से बोलीं, ‘‘अरे, सुना तू ने. पड़ोस के शंकर से तेरे भाई की लड़ाई हो रही है. जा के देख तो जरा.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं? उस ने कभी मेरा कहा माना है? हमेशा ही तो मुझ से जलता रहता है. हर रोज झगड़ता है मुझ से. अच्छा है, शंकर जैसे गुंडों से पिटने पर अक्ल आ जाएगी,’’ महेश ने गुस्से से कहा.

‘‘पर इस वक्त बात तेरी व उस की लड़ाई की नहीं है रे, स्नेह भी वहीं खड़ी है. जाने क्या बात है, तुझे क्या अपनी बहन का जरा भी खयाल नहीं?’’

‘‘यह बात है. तब तो जाना ही पड़ेगा, स्नेह तो मेरा बड़ा खयाल रखती है. अभी जाता हूं. देखूं, क्या बात है,’’ तुरंत उठ कर महेश ने साइकिल निकाली और पलभर में बरगद के पेड़ के पास पहुंच गया.

सामने जो नजारा देखा तो उस का खून खौल उठा. शंकर के कई साथी उस के भाई को मार रहे थे और शंकर खड़ा हंस रहा था.

स्नेह ने उसे आते देखा तो एकदम रो पड़ी, ‘‘भैया, सुरेश भैया को बचा लो, वे मेरी खातिर बहुत देर से पिट रहे हैं.’’

अपने सगे भाई को यों पिटता देख महेश आगबबूला हो गया.

तभी शंकर ने जोर से कहा, ‘‘लो भई, एक और आ गया भाई की पैरवी करने.’’

लड़कों के हाथ रुके, मुड़ कर देखा तो महेश की आंखों में खून उतर आया था. उस ने वहीं से ललकारा, ‘‘खबरदार, जो अब किसी का हाथ उठा, एकएक को देख लूंगा मैं.’’

‘‘अरे वाह, पहले अपने को तो देख, रोज तो अपने भाई व मांबाप से लड़ताझगड़ता है, आज कैसा शेर हो रहा है,’’ शंकर ने चिढ़ाया.

‘‘पहले तो तुझे ही देख लूं. बहुत देर से जबान लड़ा रहा है,’’ कहते हुए महेश ने पलट कर एक घूंसा शंकर की नाक पर दे मारा और बोला, ‘‘मैं अपने घर में किसकिस से लड़ता हूं, तुझे इस से क्या मतलब? वह हमारा आपसी मामला है, तू ने यह कैसे सोच लिया कि तू मेरी बहन व भाई पर यों हाथ उठा सकता है?’’

शंकर उस के एक ही घूंसे से डर गया था. इस बीच सुरेश को भी उठने का मौका मिल गया. फिर तो दोनों भाइयों ने मिल कर शंकर की खूब पिटाई की. उस के दोस्त मैदान छोड़ कर भाग गए.

सुरेश के माथे से खून बहता देख स्नेह ने अपनी चुन्नी फाड़ी और जल्दी से उस के पट्टी बांधी. महेश ने सुरेश को अपनी बलिष्ठ बांहों से उठाया और कहा, ‘‘चलो, घर चलते हैं.’’

भरी आंखों से सुरेश ने महेश की आंखों में झांका. वहां नफरत की जगह अब प्यार ही प्यार था, अपनत्व का भाव था. घर की शांति थी, एकता का एहसास था.

स्नेह दोनों भाइयों का हाथ पकड़ कर बीच में खड़ी हो गई. फिर धीरे से बोली,

‘‘मैं भी तो यही चाहती थी.’’

फिर तीनों एकदूसरे का हाथ थामे घर की ओर चल दिए.

Hindi Story : रंग प्यार के – ढलती उम्र में भी चटख

Hindi Story : आज रमेशजी के रिटायरमैंट के दिन औफिस में पार्टी थी. इस अवसर पर उन का बेटा वरुण बहू सीता और बेटी रोमी अपने पति के साथ आई हुई थी. सभी खुश थे. उन की पत्नी उर्वशी की खुशी आज देखते ही बनती थी. रमेशजी की फरमाइश पर वह आज ब्यूटीपार्लर से सज कर आई थी. उन्हें देख कर कोई उन की उम्र का अंदाजा भी नहीं लगा सकता था. वह बहुत सुंदर लग रही थी.

विदाई के क्षणों में औफिस के सभी कर्मचारी भावुक हो रहे थे. यहां रमेशजी ने पूरे 30 बरस तक नौकरी की थी. वे हर कर्मचारी के सुखदुख से परिचित थे. यह उन के कुशल व्यवहार का परिणाम था कि वे औफिस के हर कर्मचारी के परिवार के साथ पूरी तरह जुड़े हुए थे. उन्होंने हरेक के सुखदुख में पूरा साथ दिया था. जैसाकि हरेक के साथ होता है, इस अवसर पर सब उन की तारीफ कर रहे थे लेकिन अंतर इतना था कि उन की तारीफ झूठी नहीं थी. कहने वालों की आंखें बता रही थीं कि उन्हें रमेशजी की रिटायरमैंट पर कितना दुख हो रहा है.

हर कोई उन के बारे में कुछ न कुछ अपना अनुभव बांट रहा था. यह देख कर उर्वशी की आंखें फिर नम हो गई थीं. रमेशजी ने उन्हें कभी इतना कुछ नहीं बताया था जितना आज औफिस के कर्मचारी बता रहे थे. उन के साथ काम करने वाली आया फफकफफक कर रो पड़ी, ‘‘बाबूजी, आज लगता है जैसे मेरा यहां कोई नहीं रहा.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते शांति. यहां पर इतने लोग हैं.’’

‘‘आप मेरे पिता समान हैं. आप के रहते मुढे लगता था मेरे ऊपर कोई परेशानी नहीं आएगी. आप सब संभाल लेंगे. अब क्या होगा?’’

‘‘तुम ऐसा क्यों सोचती हो?’’ रमेशजी उसे समझाते हुए बोले.

ढेर सारे उपहारों के साथ देर रात तक बच्चों के साथ वे घर लौट आए थे. सभी थके हुए थे. कुछ देर बाद वे सो गए. उर्वशी को भी नींद आ रही थी. उसे सुबह जल्दी उठना था. रोज सुबह 5 बजे उठ कर वह सब से पहले रमेशजी को चाय थमाती और उस के बाद घर के और कामों में लग जाती. आज जैसे ही अलार्म बजा, उर्वशी ने देखा रमेशजी उस के लिए चाय ले कर खड़े थे.

‘‘तुम कब उठे?’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले उठा हूं.’’

‘‘चाय बनाने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘यह तुम नहीं समझोगी उर्वशी. मेरे दिल में बड़ी तमन्ना थी रिटायरमैंट के बाद मैं भी तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं.’’

‘‘आज सुबह चाय पिला कर तुम ने मेरा पूरा रूटीन खराब कर दिया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘मेरे दिन की शुरुआत तुम्हारे लिए कुछ कर के होती थी.’’

‘‘अब छोड़ो इस बात को और मेरे साथ बैठ कर आराम से चाय का आनंद लो. अभी बच्चे सो रहे हैं. तब तक हमतुम बातें करते हैं.’’

‘‘बातों के लिए सारा दिन पड़ा है.’’

‘‘अच्छा, बताओ चाय कैसी बनी है? मुझे एक ही काम आता है. इस के अलावा तुम ने मुझे कभी कुछ करने नहीं दिया.’’

‘‘तुम्हारे पास इन सब के लिए फुरसत कहां थी? सुबह से ले कर शाम तक परिवार के लिए काम करते रहते थे.’’

‘‘यह सब तुम्हारे सहयोग के कारण ही संभव हो सका उर्वशी, वरना मेरे बस का कुछ नहीं था.’’

‘‘कैसी बातें करते हो? आज तुम्हारी मेहनत की बदौलत दोनों बच्चे अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं. यह सब तुम्हारे कारण संभव हुआ है.’’

‘‘उर्वशी मैं ने जीवन में केवल काम पर ध्यान दिया. मेरी कमाई का सही उपयोग तुम ने किया. तुम्हीं ने बच्चों और उन की पढ़ाई पर ध्यान दिया. मुझे कभी इन बातों का एहसास भी नहीं होने दिया.’’

‘‘अब सुबह से मेरी ही तारीफ करते रहोगे या मुझे काम भी करने दोगे?’’

‘‘मेरा बड़ा मन था रिटायरमैंट के बाद तुम्हारे साथ काम में हाथ बंटाऊं.’’

‘‘रहने दो, तुम्हारे साथ काम करने में मुझे घंटों लग जाएंगे. घर पर बच्चे आए हैं. मुझे जल्दी से सारा काम निबटाना है.’’

‘‘जैसी तुम्हारी मरजी,’’ कह कर रमेशजी व्यायाम करने लगे और उर्वशी अपने काम पर लग गई.

उन्होंने सोच लिया था कि वे पत्नी को हर प्रकार का सुख देने का प्रयास करेंगे. नौकरी करते हुए उन्होंने कभी परिवार की जिम्मेदारी नहीं उठाई. वे एक ईमानदार और मेहनती इंसान थे. छुट्टी के एवज में काम करने के उन्हें रुपए मिलते थे इसीलिए उन्होंने कभी बेवजह छुट्टी तक नहीं ली. वे उर्वशी तथा बच्चों को घुमाने भी न ले जाते. उन की आय के साधन इतने नहीं थे कि वे बच्चों और पत्नी को आलीशान जिंदगी दे सकें. यह बात उन्हें बहुत खटकती थी लेकिन मजबूर थे.

इस उम्र में आ कर उन के पास समय और थोड़ेबहुत रुपए भी थे जो उन्हें रिटायरमैंट पर मिले थे. वे इस से उर्वशी की उन इच्छाओं को पूरा करना चाहते थे जिसे वे नौकरी में तवज्जो न दे सके थे. कुछ देर बाद बच्चे सो कर उठ गए. वे अभी तक कल की पार्टी की ही चर्चा कर रहे थे. 2 दिनों बाद वरुण और सीता को जाना था.

वरुण बोला, ‘‘पापा, आप दोनों हमारे साथ चलिए.’’

‘‘कुछ दिन हमें घर पर सुकून से समय गुजारने दो बेटा.’’

‘‘मेरा घर भी आप का ही घर है.’’

‘‘यह बात तो है लेकिन इस घर पर इतने साल गुजारे हैं लेकिन कभी इसे इतना समय नहीं दे सका जितना देना चाहिए था.’’

‘‘आप यह बात दिमाग से निकाल दीजिए. आप ने जो किया वह अपनी क्षमताओं से बढ़ कर किया और हमें इस पद तक पहुंचाया.’’

‘‘इस में मेरा नहीं तुम्हारी मम्मी का योगदान ज्यादा है.’’

‘‘मम्मी आप की अर्धांगिनी हैं. उन्होंने हर सुखदुख में आप का पूरा साथ दिया है.’’

‘‘मैं चाहता हूं अब रिटायरमैंट के बाद उसे पहले कहीं घुमाने ले चलूं.’’

‘‘अच्छा सैकंड हनीमून मनाना चाहते हैं.’’

‘‘आजकल के जमाने में शायद बच्चे इसे यही कहते हैं लेकिन हम ने कभी परिवार के साथ रह कर अपना पहला हनीमून भी नहीं मनाया. घरगृहस्थी में ऐसे फंसे रहे कि इस बारे में सोचने की न तो फुरसत थी और न ही कोई आकांक्षा. तुम्हारी मम्मी ने अपनी ओर से कभी कुछ नहीं मांगा. मैं अब उसे वह सब देना चाहता हूं जिस की वह हकदार थी.’’

‘‘ठीक है पापा, आप जो करना चाहें वह करें और जब फुरसत मिल जाए तब प्लीज हमारे पास चले आना. हम भी मम्मी को कुछ दिन के लिए आराम देना चाहते हैं.’’

2 दिन मम्मीपापा के साथ घर पर बिता कर वरुण और सीता वापस चले गए थे. अगले दिन रोमी भी चली गई. उर्वशी और रमेशजी को घर सूनासूना लग रहा था.

‘‘उदास मत हो, उर्वशी. हम दोनों भी कहीं घूमने चलते हैं.’’

‘‘मुझे तो घर पर ही अच्छा लगता है.’’

‘‘अपना घर तो अपना होता है लेकिन बदलाव के लिए कभीकभी घर से बाहर घूमने भी जाना चाहिए. दुनिया बहुत बड़ी है. उस का अनुभव भी लेना चाहिए.’’

‘‘अब इस उम्र में अनुभव ले कर क्या करेंगे?’’

‘‘सीखने की कोई उम्र थोड़े ही होती है? अपना सामान पैक कर लो. मैं ने घूमने के लिए 2 हवाई टिकट पहले ही बुक करा दी हैं.’’

‘‘मुझ से पूछे बगैर ही?’’

‘‘जानता था तुम इस के लिए राजी नहीं होगी इसलिए पूछने की जरूरत नहीं समझी.’’

‘‘हम कहां जा रहे हैं?’’

‘‘कश्मीर घूमेंगे. कुछ दिन ठंडी वादियों का मजा उठाएंगे. दिल में गुलमर्ग घूमने की बड़ी तमन्ना थी. अब जा कर पूरी होगी.’’

उन के कहने पर उर्वशी ने अपनी तैयारी शुरू कर दी. यह उस की पहली हवाई यात्रा थी. उसे हवाई जहाज में बैठने में डर लग रहा था, यह बात रमेशजी महसूस कर रहे थे.

‘‘डरो नहीं. मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

‘‘इतने रुपए खर्च करने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘बस हर समय एक ही बात बोलती हो. अब रुपए बचाने की जरूरत क्या है? अपना घर है. बच्चे अच्छी नौकरी कर रहे हैं. हमारे पास जो कुछ है उसे घूमनेफिरने पर खर्च करेंगे.’’

‘‘मुझे फुजूलखर्ची पसंद नहीं.’’

‘‘ऐसा मत कहो उर्वशी. घूमनाफिरना कभी बेकार नहीं जाता. तुम यहां की सुंदर वादियों में घूम कर अपनेआप को तरोताजा महसूस करोगी.’’

रमेशजी की बात सच थी. उर्वशी के मन में भी कब से कश्मीर देखने की इच्छा थी लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर आतेआते वह मुरझा गई थी.

रमेशजी के उत्साह ने उसे हवा दी तो वह फिर से तरोताजा हो गई. हफ्तेभर तक दोनों कश्मीर की वादियों में घूमते रहे. रमेशजी उन की हर इच्छा का सम्मान कर रहे थे. लगता ही नहीं था कि वे 60 बरस के हो गए हैं. वे दोनों अपनेआप को उम्र के इस पड़ाव पर भी युवा महसूस कर रहे थे.

एक हफ्ते बाद वे अपने साथ कश्मीर की ढेर सारी यादें ले कर वापस लौट आए थे. रमेशजी बोले, ‘‘मेरी एक इच्छा तो पूरी हो गई.’’

‘‘और भी कोई इच्छा पूरी करना चाहते हो?’’

‘‘इच्छाओं का क्या है. एक पूरी होती है 10 सिर उठा लेती हैं. मैं तुम्हारे लिए बहुतकुछ करना चाहता हूं, उर्वशी.

‘‘अब हमारेतुम्हारे पास समय ही समय है. जब जी चाहेगा उन्हें पूरा कर लेंगे. काम को कभी टालना नहीं चाहिए. मौका मिलते ही उसे प्राथमिकता दे कर पूरा कर लेना चाहिए,’’ रमेशजी बोले.

अब वे उर्वशी की हर तरह से मदद करने के लिए तत्पर रहते. यह बात उर्वशी भी अच्छी तरह जानती थी. रिटायरमैंट के 2 महीने कब बीत गए पता ही नहीं चला. वरुण बारबार फोन कर के उन्हें अपने पास बुला रहा था और रमेशजी इसे टाले जा रहे थे.

‘‘एक बार वरुण और सीता के पास हो कर आ जाते हैं. उसे भी अच्छा लगेगा. कितना कह रहा है.’’

‘‘तुम जानती हो उस के पास जा कर क्या होगा? वह हमें ड्राइंगरूम में सजे शोपीस की तरह एक जगह पर बैठा देगा और कुछ नहीं करने देगा. मैं ऐसी जिंदगी नहीं जीना चाहता.’’

‘‘आजकल के जमाने में ऐसी औलाद कहां मिलती है जो मम्मी और पापा का इतना खयाल रखे.’’

‘‘जानता हूं फिर भी मैं अपने को उस माहौल में ढाल नहीं पाता. मैं ने इतने बरस बड़े बाबू की नौकरी की है. काम में मेरा दिल लगता है. खाली बैठे समय ही नहीं कटता. यह बात उसे कैसे समझाऊं?’’ रमेशजी बोले तो उर्वशी चुप हो गई.

वह जानती थी वरुण उन का बहुत खयाल रखता है. इसी कारण रमेशजी का समय काटे नहीं कटता था.

‘‘तुम उसे समझा दो. हम कुछ समय बाद आएंगे.’’

‘‘ठीक है, कह दूंगी. एक बार उस की इच्छा का भी मान रख लो.’’

रिटायरमैंट के बाद रमेशजी सही माने में जीवन का मजा ले रहे थे. एक शाम वे शहर के मशहूर लच्छू हलवाई से उर्वशी के लिए समोसे ले कर आ रहे थे. तभी वह घट गया जिस की उन्होंने कल्पना तक नहीं थी. एक तेज मोटरसाइकिल सवार ने उन्हें टक्कर मार दी. वे इस टक्कर से दूर गिर पड़े. उन के दिमाग पर चोट आई थी और मोटरसाइकिल का पहिया पैर पर चढ़ गया था.

एक्सीडैंट की बात सुन कर उर्वशी धक रह गई. उस ने तुरंत वरुण और रोमी को खबर की. दूसरे दिन ही वे घर पहुंच गए. रमेशजी को अभी होश नहीं आया था. उर्वशी का रोरो कर बुरा हाल था. तीसरे दिन रमेशजी को होश आया.

‘‘डाक्टर, पापा बोल क्यों नहीं रहे?’’

‘‘सिर पर चोट के कारण इन के दिमाग में खून का थक्का जम गया है. इस के कारण इन्हें पैरालिसिस अटैक पड़ा है. इसी वजह से ये जबान नहीं चला पा रहे हैं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हैं डाक्टर?’’

‘‘वही जो मरीज की हालत बता रही है. इन का बायां हाथ और पैर भी काम नहीं कर रहा है और उसी पैर की हड्डियां भी टूट गईं जिस पर प्लास्टर चढ़ाना है.’’

‘‘ऐसा मत कहिए, डाक्टर. इन्हें चलने में कितने दिन लगेंगे?’’ वरुण ने पूछा.

‘‘अभी कुछ कहना मुश्किल है. कुछ दिन इंतजार कीजिए. उस के बाद ही सही स्थिति सामने आ पाएगी.’’

उर्वशी के लिए एकएक पल बिताना मुश्किल हो रहा था. वरुण और रोमी मम्मी को ढाढ़स बंधा रहे थे.

‘‘हिम्मत रखिए मम्मी, पापा ठीक हो जाएंगे.’’

‘‘कभी सोचा नहीं था कि ऐसी नौबत आएगी.’’

‘‘आप ही टूट जाएंगी तो पापा का क्या होगा?’’ रोमी बोली.

उर्वशी कुछ देर के लिए शांत हो गई लेकिन पति की हालत देख कर उसे रोना आ रहा था. एक हफ्ते बाद भी रमेशजी बोलने की स्थिति में नहीं थे. उन का मुंह थोड़ा तिरछा हो गया था और जबान नहीं चल रही थी. डाक्टर ने पैर पर प्लास्टर चढ़ा दिया था.

होश आने पर उर्वशी को देख कर रमेशजी की आंखों में आंसू बहने लगे. उर्वशी ने झट से उन्हें पोंछ दिया.

‘‘मैं आप की आंखों में आंसू नहीं देख सकती. आप जल्दी ठीक हो जाएंगे. हिम्मत रखिए.’’ रमेशजी ने कुछ बोलना चाहा लेकिन जबान ने साथ नहीं दिया. दाएं हाथ के इशारे से उन्होंने कुछ कहा. उर्वशी ने उन का हाथ अपने हाथों में ले लिया और उन्हें हिम्मत बंधाने लगी. 2 हफ्ते हौस्पिटल में रहने के बाद वे घर आ गए थे. वरुण ने उन के लिए नर्स का इंतजाम कर दिया था. डाक्टर ने पहले ही बता दिया कि उन की स्थिति में सुधार बहुत धीरेधीरे होगा. किसी चमत्कार की उम्मीद मत रखिएगा.

डाक्टर की बात सही थी. एक महीने बाद उन की जबान थोड़ीबहुत चलने लगी और वह हकलाते हुए अपनी बात कहने लगे. पापा की हालत में सुधार देख कर वरुण उन्हें अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन उर्वशी ने मना कर दिया.

‘‘तुम चिंता मत करो, बेटा. यहां पर मैं हूं और हमारे बहुत सारे रिश्तेदार भी हैं. सब से बड़ी बात डाक्टर यहीं पर हैं जो उन्हें देख रहे हैं. कोई ऐसी बात होगी तो मैं तुम्हें इत्तिला कर दूंगी. तुम वापस काम पर जाओ. कब तक यहां रहोगे?’’

‘‘आप अकेले इतना सबकुछ कैसे संभालेंगी मम्मी?’’

‘‘तुम मेरी हिम्मत हो, बेटा. मेरी चिंता मत करना मैं उन्हें देख लूंगी,’’ कहते हुए उर्वशी की आंखें भर आई थीं.

वह जानती थी कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी उस ने जीवन में कभी नहीं उठाई. पहली बार किसी तरह हिम्मत जुटा कर उसे करने के लिए तैयार हो गई थी. भारी मन से वरुण काम पर चला गया. रोमी कुछ दिन पहले चली गई थी. अब घर पर रमेशजी और उर्वशी रह गए. डेढ़ महीने बाद पैर से प्लास्टर कट गया था लेकिन वे चलने की स्थिति में नहीं थे. उन के दाहिने हाथों और पैरों ने काम करना बंद कर दिया था.

नर्स उन के सारे काम कर रही थी. रमेशजी उस के साथ अपने को असहज महसूस करते. जीवन में उन्होंने कभी किसी पराई स्त्री को छुआ नहीं था. यह बात उन्होंने उर्वशी को बता दी. उन की भावनाओं का खयाल करते हुए वह नर्स की जगह खुद ही उन के काम करने लगी. शुरू में बड़ी परेशानी हुई लेकिन धीरेधीरे आदत पड़ गई. वह व्हीलचेयर पर बैठा कर उन्हें बाथरूम तक ले जाती. उन्हें नहलाधुला कर बरामदे में बैठा देती. आतेजाते लोगों को देख कर रमेशजी का मन लगा रहता. उन की स्थिति बिलकुल एक छोटे बच्चे की तरह हो गई थी.

दिमाग में चोट आने की वजह से अकसर वे चुप ही रहते. मिलने आने वाले उन्हें अपने तरीके से समझाने की कोशिश करते. यह बात उन्हें बड़ी अखरती थी. वे खुद भी एक पढ़ेलिखे और जिम्मेदार इंसान थे. वे जानते थे कि इस उम्र में उन के लिए ऐसी हालत में क्या उचित है और क्या अनुचित. लेकिन जब शरीर का कोई अंग काम करना बंद कर दे तो वे क्या कर सकते थे. हर एक का नसीहत देना उन्हें चिड़चिड़ा बना रहा था. यह बात उर्वशी भी महसूस कर रही थी लेकिन वह किसी को कुछ कहने से रोक नहीं सकती थी.

एक दिन रमेशजी बोले, ‘‘उर्वशी, लोग मुझ से मिलने क्यों चले आते हैं?’’

‘‘तुम्हारा हालचाल पता करने आते हैं.’’

‘‘मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता. मुझे हुआ क्या है? मैं तुम्हारे अलावा किसी पर बोझ नहीं हूं फिर लोगों को मुझ से इतनी सहानुभूति क्यों है?’’
‘‘सब का बात करने का अपना तरीका होता है. आप उन की बात का बुरा मत माना करो.’’

‘‘एक ही बात सब लोग कहें तो बुरी लगती है. मुझे यह सब पसंद नहीं. तुम उन्हें यहां आने से मना कर दिया करो.’’

‘‘बात समझने की कोशिश कीजिए. हम दुनिया से कट कर नहीं रह सकते,’’ उर्वशी ने अपनी असमर्थता जाहिर की तो रमेशजी को अच्छा नहीं लगा.

ऐसी हालत में उन्हें किसी से सहानुभूति नहीं हिम्मत चाहिए थी.

ऐसी हालत में हरकोई उन्हें सहानुभूति के साथ 2-4 बातें भी सुना रहा था. यह बात वे सहन नहीं कर पा रहे थे. एक झटके में उन के सारे सपने बिखर गए थे. क्या सोचा था और क्या हो गया? ऊपर से दुनियाभर की बातें यह सब उन के लिए असहनीय हो रहा था. उर्वशी भी मजबूर थी. हफ्ते में एक दिन डाक्टर घर आ कर देख जाते. दोपहर में एक नर्सिंग असिस्टैंट आ कर जरूरी काम कर चला जाता. इस के अलावा उन की सारी जरूरतें उर्वशी पूरी कर रही थी.

वह महसूस कर रही थी कि रमेशजी दिनप्रतिदिन चिड़चिड़े होते जा रहे हैं. आज तक उन्होंने किसी से ऊंची आवाज में बात नहीं की थी. अपशब्दों का इस्तेमाल करना तो दूर की बात थी. अब जरा सी भी मन की बात न होती तो वे अपना आपा खो देते और उर्वशी के लिए कुछकुछ बोलने लगते.

एक दिन तो हद ही हो गई. उर्वशी किचन में काम कर रही थी.

रमेशजी ने उन्हें आवाज लगाई. शायद वह सुन न सकी. कुछ देर बाद जब वह उन के पास आई तो उन्होंने सामने मेज पर रखा हुआ खाली गिलास उठा कर उस पर दे मारा. संयोग था कि उर्वशी ने हाथ से गिलास रोक दिया वरना उस से उसे चोट लग सकती थी.

‘‘यह क्या कर रहे हो?’’

‘‘कब से आवाज दे रहा हूं तुझे सुनाई नहीं देता. अब तुम्हारे लिए भी मैं एक बेकार की चीज हो गया?’’

‘‘कैसी बातें करते हो? मैं किचन में खाना बना रही थी. कुकर की सीटी में मुझे आप की आवाज नहीं सुनाई दी.’’

‘‘मैं तुम जैसी औरतों से तंग आ गया हूं. मैं तुम्हारा चेहरा भी नहीं देखना चाहता. तुम मुझे छोड़ कर चली क्यों नहीं जातीं’’

उन की कर्कश बात सुन कर उर्वशी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. उसे बहुत बुरा लगा फिर भी उन की तबीयत को ध्यान में रख कर उस ने इसे दिमाग से निकाल दिया और उन की खिदमत में लगी रही. उर्वशी का ठंडा व्यवहार रमेशजी को रास नहीं आया. उस दिन से वे हर समय उसे उकसाने की बात करते रहते. उर्वशी भी पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी जो उन की बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखा रही थी.

एक हफ्ते बाद डाक्टर गुप्ता से उर्वशी ने उन के बदले हुए व्यवहार की चर्चा की. वे बोले, ‘‘जैसा कि इन की रिपोर्ट बता रही है. इन की तबीयत में पहले से कोई गिरावट नहीं आई है.’’

‘‘फिर यह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?’’

‘‘यह बात मेरी समझ से परे है. दिमाग की सूजन भी धीरेधीरे कम हो रही है.’’

‘‘पता नहीं यह हर समय गुस्से में क्यों रहते हैं? मुझे अपने नजदीक बिलकुल सह नहीं पाते. ऐसीऐसी बात कहते हैं कि कई बार झेलना मुश्किल हो जाता है. वे मेरे पति हैं इसीलिए मैं उन्हें अनसुना करने की कोशिश करती हूं लेकिन मैं भी इंसान हूं. दिल पर उन की बातों का बहुत समय तक असर रहता है.’’

‘‘आप चिंता मत करें. मैं 2-3 दिनों में किसी मनोचिकित्सक को अपने साथ ले कर आऊंगा. वहीं उन से बातोंबातों में जानने की कोशिश करेंगे आखिर इन्हें हुआ क्या है? घर में कोई ऐसीवैसी बात तो नहीं हुई जिस से उन का अहम आहत हो गया हो?’’

‘‘नहीं डाक्टर, यहां हम दोनों के अलावा कोई है भी नहीं. कभीकभी मिलने के लिए रिश्तेदार आ जाते हैं. इन्हें उन से भी बात करना पसंद नहीं आता.’’

‘‘रमेशजी के साथ जबरदस्ती न किया करें.’’

‘‘मिलने आने वालों को मैं नहीं रोक सकती लेकिन इन से दूर बैठाने की कोशिश जरूर करूंगी. इन के बदले व्यवहार से मैं बहुत आहत हो जाती हूं. प्लीज, कुछ कीजिए.’’

2 दिन बाद डाक्टर गुप्ता अपने साथ मनोचिकित्सक विपिन को ले कर आ गए थे. उन्हें देख कर रमेशजी ने पूछा, ‘‘यह कौन है?’’

‘‘मरीजों को देखने मेरे साथ कभीकभी विपिनजी भी चले आते हैं. मैं उन का दवाई से इलाज करता हूं और यह बातों से. यह भी हमारे इलाज का एक हिस्सा है.’’ यह सुन कर रमेशजी ने उन के लिए हाथ जोड़ दिए.

‘‘आप कैसे हैं?’’

‘‘एक अपाहिज आदमी कैसा हो सकता है?’’

‘‘मानता हूं तकलीफ आप के शरीर पर है. उसे मन पर मत लगने दीजिए. मन स्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ होने लगता है.’’

‘‘मेरी हालत अब मेरे जाने के बाद ही सुधरेगी.’’

‘‘आप अपनी सोच बदलने की कोशिश कीजिए रमेशजी.’’

‘‘यह कहना जितना आसान है करना उतना ही मुश्किल होता है,’’ रमेशजी बोले.

डाक्टर विपिन ने उन्हें अपनी बातों में उलझा दिया था. तभी वहां उर्वशी पानी ले कर आ गई. रमेशजी के चेहरे के भाव देख कर उन्हें समझते देर न लगी कि वे पत्नी को ले कर परेशान हैं.

‘‘लगता है, घर वाले आप पर ध्यान नहीं दे रहे.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है, उर्वशी मेरा जरूरत से ज्यादा खयाल रखती है. यही बात मैं पचा नहीं पा रहा हूं. इस औरत ने जीवनभर मेरे लिए इतना कुछ किया. अब जब मेरे करने का वक्त आया तो मेरी ऐसी हालत हो गई. मुझ से यह सब सहन नहीं होता.’’

‘‘क्या वे आप को ले कर परेशान रहती हैं?’’

‘‘कुदरत का धन्यवाद कि मुझे उर्वशी जैसी पत्नी मिली है. उस ने मेरी हालत को अपना भाग्य समझ कर स्वीकार कर लिया है. जरा सोचिए, पति के रूप में उसे इस ढलती उम्र में क्या मिला? मैं अब उसे जीवन का कोई सुख नहीं दे सकता.’’

‘‘क्या वे आप से कुछ खास अपेक्षा रखती हैं?’’

‘‘वह आज भी मेरे लिए पूरी तरह समर्पित है. यही सोच कर मैं परेशान हूं. मेरे जीवन का अंत हो जाता तो कम से कम उर्वशी को कष्टों से मुक्ति
मिल जाती.’’

‘‘ऐसा नहीं सोचते. कभी उस की नजरों से देखने की कोशिश कीजिए कि उन के लिए आप क्या हैं? उन्होंने आप से दिलोजान से प्रेम किया है. आप का भी फर्ज बनता है उस के प्यार का मान रखें.’’

‘‘प्यार एकतरफा हो तो उस से क्या हासिल हो जाएगा? मैं ने उस के मन में बहुत सारी उम्मीदें जगाई थीं. मुझे क्या पता था मेरी ऐसी हालत हो जाएगी. अब मैं उन्हें पूरा नहीं कर सकता. यह सोच कर मुझे बहुत कष्ट होता है. मैं चाहता हूं कि वह मुझे छोड़ कर चली जाए. तब उस के सारे कष्ट खत्म हो जाएंगे. मेरा क्या है? मैं ऐसी हालत में किसी अस्पताल के कोने में भी पड़ा रह सकता हूं.’’

‘‘यह आप की सोच है उस की नहीं.’’

दरवाजे पर खड़ी उर्वशी सबकुछ सुन रही थी. उस के लिए भी अपने को रोकना मुश्किल हो रहा था. किसी तरह मुंह में रूमाल ठूंस कर उस ने अपनी हिचकियां रोकीं. वह समझ गई रमेशजी उस से क्या चाहते हैं? ऐसी हालत में भी उन्हें अपने से ज्यादा पत्नी की चिंता खाए जा रही थी.

डाक्टर के समझाने का रमेशजी पर अच्छा असर पड़ा था. कुछ देर बाद डा. गुप्ता विपिन को साथ ले कर चले गए.

उन के जाते ही उर्वशी उन के लिए पानी ले कर आ गई. डाक्टर के साथ बात कर के उन का गला सूख गया था. उस ने हौले से पानी का गिलास उठा कर उन के मुंह से लगाया तो रमेशजी अपनेआप को न रोक सके. उन्होंने उर्वशी का हाथ पकड़ लिया और फूटफूट कर रोने लगे. उर्वशी भी उन के गले लग कर रो पड़ी. कुछ देर बाद अपने को संयत कर रमेशजी बोले, ‘‘मुझे माफ कर दो उर्वशी, मैं स्वार्थी हो गया था.’’

‘‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए जो आप की भावनाओं को समझ न सकी.’’

‘‘तुम्हें मेरे कारण इस उम्र में कितनी परेशानियां उठानी पड़ रही हैं.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते. तुम्हारे अलावा मैं कुछ और सोच भी नहीं सकती. आइंदा कभी दूर जाने की बात मत कहना,’’ उर्वशी बोली तो रमेशजी ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और बोले, ‘‘तुम ही मेरी दुनिया हो. मुझ से दूर मत जाना उर्वशी वरना मैं जी नहीं पाऊंगा.’’

उर्वशी ने बड़े प्यार से उन के माथे पर हाथ फेरा. एक बच्चे की तरह रमेशजी ने उस का हाथ पकड़ कर चूम लिया. रमेशजी को लगा जैसे उर्वशी के रूप में उन की दिवंगत मां उसे सहला रही हैं. उम्र के इस पड़ाव पर स्त्री के अनेक रूप में से उन्हें उर्वशी का वात्सल्य रूप स्पष्ट नजर आ रहा था.

Emotional Story : जिंदगी जीने दो – मां के लिए क्या निर्णय लिया अनामिका ने

Emotional Story : अनामिका को पिता ने बेटी नहीं बेटा समझ कर पढ़ायालिखाया. इतना काबिल बनाया कि आज वह पूर्णरूप से आत्मनिर्भर थी. पिता के न रहने पर वह मां का आत्मसम्मान कम नहीं होने देना चाहती थी.
पर कैसे?

‘‘तुम्हारे पापा नहीं रहे, अनामिका’’ उस के फोन उठाते ही मां ने कहा और फफकफफक कर रो पड़ीं.
‘‘क्या कह रही हैं आप? कल ही तो मैं ने उन से बात की थी. अचानक ऐसा क्या हुआ?’’ अनामिका ने खुद को संभालते हुए कहा.
‘‘बेटा, रात में जब वे सोए थे तब तो ठीक थे. सुबह अपने समय पर नहीं उठे तो मैं ने सोचा शायद रात में ठीक से नींद न आई होगी. 7 बजे जब मैं नीबू पानी ले कर उन्हें जगाने गई तो देखा…’’ वाक्य अधूरा छोड़ कर वे फिर फफक पड़ीं.
‘‘मां, संभालो खुद को, मैं आती हूं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.

उस ने राजीव अंकल, जो उन के पड़ोसी व पापा के अच्छे मित्र थे, को फोन मिलाया. उन्होंने तुरंत फोन उठा लिया. वह कुछ कहने ही वाली थी कि उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, तुम चिंता मत करना, मैं और तुम्हारी आंटी तुम्हारी मां के पास ही हैं.’’
‘‘अंकल, मैं शाम तक ही पहुंच पाऊंगी, चाहती हूं कि पापा का अंतिम संस्कार मेरे सामने हो.’’
‘‘ठीक है बेटा, मैं दिनेश के पार्थिव शरीर को बर्फ की सिल्ली पर रखवा देता हूं.’’
‘‘थैंक यू अंकल.’’

अनामिका फ्लाइट का टिकट बुक करा कर पैकिंग करने लगी. 3 घंटे बाद उस की फ्लाइट थी. बेंगलुरु का ट्रैफिक, 2 घंटे उसे एयरपोर्ट पहुंचने में लगने थे. वह तो गनीमत थी कि बेंगलुरु से लखनऊ के लिए डायरैक्ट फ्लाइट मिल गई थी वरना समय पर पहुंचना मुश्किल हो जाता. टैक्सी में बैठते ही उस ने छुट्टी के लिए मेल कर अपने बचपन के मित्र पल्लव, जो सीतापुर में रहता था, को फोन कर के पिता के बारे में बताया. उस की बात सुन कर वह स्तब्ध रह गया. कुछ देर बाद उस ने कहा, ‘‘मैं तुरंत सीमा के साथ आंटीजी के पास जाता हूं. तुम परेशान न होना, धैर्य रखना.’’ उस से बात कर उस ने अपने टीममेट अभिजीत को फोन कर वस्तुस्थिति से अवगत कराया. उस ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि वह यहां की चिंता न करे, काम का क्या, वह तो चलता ही रहेगा.

‘काम का क्या, वह तो चलता ही रहेगा’ अभिजीत के शब्द उस के कानों में गूंज रहे थे लेकिन इसी काम के लिए वह पिछले 2 वर्षों से घर नहीं जा पाई है. मां बारबार उस से आने के लिए कहतीं पर उस पर काम का प्रैशर बहुत अधिक था या वही अपना सर्वश्रेष्ठ परफौर्मैंस देने के लिए घर जाना टालती रही. माना आईटी क्षेत्र के जौब में पैसा अधिक है पर यह व्यक्ति का खून भी चूस लेता है. न खाने का कोई समय, न घूमने का, ऊपर से सिर पर छंटनी की तलवार अलग लटकी रहती है.

10 वर्ष हो गए उस को यह जौब करते हुए. मम्मीपापा चाहते थे कि वह विवाह कर ले. विभव उसे चाहता है व उस से विवाह भी करना चाहता है लेकिन अपने औफिस में काम करने वाली अपनी सखियों नमिता और सुहाना की स्थिति देख कर उसे विवाह से डर लगने लगा है. परिवार बढ़ाने के लिए उन का नित्य अपने पतियों से झगड़े की बात सुन कर उसे लगने लगा था कि यदि वह अपने काम के साथ घरपरिवार को समय नहीं दे पाई तो उस के साथ भी यही होगा. वह 2 नावों की सवारी एकसाथ नहीं कर सकती. उस के लिए उस का कैरियर मुख्य है. यह सब सोचतेसोचते वह 32 वर्ष की हो गई लेकिन अपनी मनोस्थिति के कारण वह कोई भी फैसला लेने में खुद को असमर्थ पा रही है. अब तो पापा भी नहीं रहे. मां की जिम्मेदारी भी अब उस पर है. क्या विभव उस की मां की जिम्मेदारी लेने को तैयार होगा? वह विचारों के भंवर में डूबी ही थी कि एयरपोर्ट आ गया. उस ने जल्दी से टैक्सी का पैसा चुकाया और एयरपोर्ट के अंदर गई. बोर्डिंग पास ले कर, सिक्योरिटी चैक के बाद वह वेटिंग लाउंज में जा कर बैठी ही थी कि विभव का फोन आ गया.

‘‘तुम ने बताया नहीं कि अंकल नहीं रहे,’’ विभव ने कहा.
वह समझ नहीं पा रही थी कि उस के प्रश्न का क्या उत्तर दे, तभी उस ने फिर कहा, ‘‘तुम कुछ कह क्यों नहीं रही हो, तुम ठीक तो हो न? बुरा न मानना यार, मुझे अभी पल्लव से पता चला तो मुझे लगा कि तुम ने उसे तो बता दिया पर मुझे नहीं.’’

‘‘विभव, मैं अभी बात करने के मूड में नहीं हूं. वैसे भी, बोर्डिंग शुरू हो गई है,’’ कहते हुए अनामिका ने फोन काट दिया. विभव की यही बात उसे अच्छी नहीं लगती थी. हमेशा शिकायतें ही शिकायतें और समय तो ठीक है पर आज ऐसे समय में भी वह यह नहीं सोच पा रहा है कि मैं कितनी परेशान हूं. सांत्वना के दो शब्द कहने के बजाय आज भी सिर्फ शिकायत.

जिस्म एयरपोर्ट पर था लेकिन मन घर पहुंच गया था. पापा के पार्थिव शरीर को पकड़ कर मां के फफकफफक कर रोने की छवि आंखों के सामने आते ही उस की आंखों से आंसू निकल पड़े. उसे सदा से ही आंसू कमजोरी की निशानी लगते थे किंतु आज उस ने उन्हें बहने दिया.

आज उसे लग रहा था कि ये आंसू ही तो हैं जो इंसान के दर्द को कम करने में सहायक होते हैं. मां अब पापा के बिना कैसे अकेली रहेंगी? वे तो दो जिस्म एक जान रहे हैं. कभी काम से पापा के बाहर जाने की बात यदि छोड़ दें तो मम्मीपापा कभी अलग नहीं रहे. बोर्डिंग का एनाउंसमैंट होते ही उस ने बरसती आंखों को पोंछा व सब से पहले बोर्डिंग गेट पर जा कर खड़ी हो गई. मानो उस के बैठते ही प्लेन चल पड़ेगा. सच, कभीकभी मन तो तुरंत पहुंचना चाहता है और शायद पहुंच भी जाता है पर तन को बहुत सारे बंधनों व नियमों को मानना ही पड़ता है, बहुत सारी बाधाओं को झेलना पड़ता है.

आखिर प्लेन ने उड़ान भर ही ली. उस ने आंखें बंद कर लीं. बंद आंखों में अतीत के पल चलचित्र की तरह मंडराने लगे. उसे वह दिन याद आया जब उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ शहर में उस का दाखिला होने के बाद पापा उसे होस्टल छोड़ने गए थे.

पापा के जाने के बाद उस की आंखें बरसने को आतुर थीं लेकिन आंसुओं को आंखों में ही रोक कर वह अपने कमरे में आ कर निशब्द एक ही जगह बैठी रह गई थी. मन में द्वंद्व चल रहा था. आखिर वह दुखी क्यों है? उस की ही इच्छा तो उस के पापा ने उस की मां के विरुद्ध जा कर पूरी की है. उस के मन के प्रश्न का उस के पास कोई उत्तर ही न था. वह एक छोटे कसबे से आई थी. जहां यहां आने से पहले वह खुश थी वहीं अब यहां आ कर न जाने क्यों मन में द्वंद्व था, चिंताएं थीं, आशंका थी कि क्या वह इस बड़े शहर में खुद को एडजस्ट भी कर पाएगी.

पापा की कपड़े की दुकान थी. वे खुद तो अधिक पढ़ेलिखे नहीं थे लेकिन मनमस्तिष्क से आधुनिक विचारधारा के पोषक थे. वे चाहते थे उन की बेटी इतनी सक्षम बने कि अगर कभी जीवन में कोई कठिनाई आए तो वह उस का सामना कर सके पर उस की मां उस के दूर जाने की आशंका मात्र से ही परेशान थीं. उन्हें लगता था कि उन की भोलीभाली बेटी शहर में अकेली कैसे रह पाएगी.

मां की आशंका गलत भी नहीं थी. पापा के विपरीत उन्होंने शुरू से ही दुनिया की कुत्सित नजरों से बचाने के लिए उसे इतने बंधनों में रखा था कि वह किसी से भी बात करने या अकेले कहीं भी जाने में डरने लगी थी. स्कूल भेजना तो मां की मजबूरी थी. घर से स्कूल, स्कूल से घर ही उस की दुनिया थी. मां का अनुशासन या कहें रोकटोक उसे कोई स्वप्न देखने का अधिकार ही नहीं देती थी.

एक बार वह बूआ के घर गई. सीमा दीदी, बूआ की बेटी, जो उस समय डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, को देख कर उस के नन्हे मन में भी एक नन्हा सपना तिर आया था. उस ने सुना था कि डाक्टर बनने के लिए बहुत अच्छे नंबर आने चाहिए. उस ने मन लगा कर पढ़ना शुरू कर दिया था.

मैट्रिक में उस के 95 प्रतिशत अंक आए तो उस की बूआ ने पापा से उस का शहर के अच्छे कालेज में दाखिला करवाने के लिए कहा. पापा को भी अपनी बहन की बात अच्छी लगी. सो, पापा ने इस शहर के अच्छे कालेज में दाखिला करवा कर, स्कूल के पास स्थित महिला होस्टल में उस के रहने की व्यवस्था कर दी है. पापा के जाते समय वह फूटफूट कर रोने लगी थी.

‘बेटा, रो मत. तेरे भविष्य के लिए ही तुझे यहां छोड़ रहे हैं. बस, अपना खयाल रखना. तुझे तो पता है तेरी मां तुझे ले कर कितनी पजेसिव है,’ कहते हुए पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरा था व बिना उस की ओर देखे चले गए.

अपने आंसुओं को रोक कर वह अपने कमरे में आ गई पर उसे बारबार ऐसा लग रहा था कि उसे छोड़ कर जाते हुए पापा की आंखों में भी आंसू थे जिस की वजह से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. यह विचार आते ही वह और उदास हो गई.
‘मैं अंजलि, और तुम?’ अंजलि ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा.
‘मैं अनामिका,’ अपने विचारों के कवच से बाहर निकलते हुए उस ने कहा.
‘बहुत प्यारा नाम है, क्या करने आई हो?’
‘मैं ने यहां जयपुरिया कालेज में 11वीं में एडमिशन लिया है.’
‘जयपुरिया, उस में तो मैं भी पढ़ रही हूं.’
‘क्या 11वीं में?’
‘नहीं, 12वीं में.’
‘ओह,’ कहते हुए अनामिका के चेहरे पर उदासी झलक आई.
‘क्यों, क्या हुआ? अरे क्लास एक नहीं है तो क्या हुआ, हमारा आनाजाना तो साथ होगा,’ अंजलि ने उस के चेहरे की उदासी देख कर कहा.
‘वह बात नहीं, मम्मीपापा की याद आ गई,’ अनामिका ने रोंआसी आवाज में कहा.

‘मैं तुम्हारा दर्द समझ सकती हूं. जब भी कोई पहली बार घर छोड़ता है, उस की मनोदशा तुम्हारी तरह ही होती है पर धीरेधीरे सब ठीक हो जाता है. आखिर, हम अपना कैरियर बनाने के लिए यहां आए हैं. अच्छा, बेसन के लड्डू खाओ. मैं भी कल ही आई हूं, मां ने साथ में रख दिए थे,’ अंजलि ने अनामिका का मूड ठीक करने का प्रयास करते हुए कहा.
‘बहुत अच्छे बने हैं,’ अनामिका ने लड्डू खाते हुए कहा.
‘अच्छे तो होंगे ही, इन में मां का प्यार जो मिला है. अच्छा, अब मैं चलती हूं. थोड़ा फ्रैश हो लूं. अपने कमरे में जा रही थी, यह कमरा खुला देख कर तुम्हारी ओर नजर गई तो सोचा मिल लूं अपनी नई आई सखी से. मेरा कमरा तुम्हारे कमरे के बगल वाला है रूम नंबर 205. रात में 8 बजे खाने का समय है, तैयार रहना और हां, अपना यह बिखरा सामान आज ही समेट लेना, कल से तो कालेज जाना है,’ अंजलि ने कहा.

अंजलि के जाते ही अनामिका अपना सामान अलमारी में लगाने लगी कि तभी मोबाइल की घंटी बज उठी. फोन मां का था.
‘बेटा, तू ठीक है न? सच तेरे बिना यहां हमें अच्छा नहीं लग रहा है. बहुत याद आ रही है तेरी.’
‘मां, मुझे भी,’ कह कर वह रोने लगी.
‘तू लौट आ,’ मां ने रोते हुए कहा.
‘अनामिका, क्या हुआ? अगर तू ऐसे कमजोर पड़ेगी तो पढ़ेगी कैसे? बेटा, रोते नहीं हैं. तेरी मां तो ऐसे ही कह रही है. अगर तुझे नहीं पढ़ना तो आ जा, मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं लेकिन कोई भी फैसला लेने से पहले यह मत भूलना कि पढ़ाई के बिना जीवन बेकार है. चाहे लड़का हो या लड़की, जीवन के रणसंग्राम में खुद को स्थापित करने के लिए शिक्षा बेहद आवश्यक है. क्षणिक निर्णय सदा आत्मघाती होते हैं बेटा. सो, जो भी निर्णय लेना सोचसमझ कर लेना क्योंकि इंसान का सिर्फ एक निर्णय उस के जीवन को बना भी सकता है और बिगाड़ भी,’ पापा ने मां के हाथ से फोन ले कर कहा.

‘अरे, तुम अभी बात ही कर रही हो, खाना खाने नहीं चलना,’ अंजलि ने कमरे में आ कर कहा.
‘पापा, मैं खाना खाने जा रही हूं, आ कर बात करती हूं.’

वह अंजलि के साथ मेस में गई. वहां उस की तरह ही लगभग 15 लड़कियां थीं. सभी ने उस का बेहद अपनेपन से स्वागत किया. सब से परिचय करते हुए उस ने खाना खाया. रेखा और बबीता नौकरी कर रही थीं जबकि अन्य लड़कियां पढ़ रही हैं. खाना घर जैसा तो नहीं लेकिन ठीकठाक लगा.

खाना खा कर जब वह अपने कमरे में जाने लगी तो उस के साथ चलती रेखा ने उस के पास आ कर कहा, ‘अनामिका, तुम नईनई आई हो, इसलिए कह रही हूं, हम सब यहां एक परिवार की तरह रहते हैं. तुम खुद को अकेला मत समझना. कभी मन घबराए या अकेलापन महसूस हो तो मेरे पास आ जाना. मेरे कमरे का नंबर 208 है.’

रेखा की बात सुन कर एकाएक उसे लगा कि जब ये लोग रह सकती हैं तो वह क्यों नहीं. मन में चलता द्वंद्व ठहर गया था. अंजलि ने बताया था कि सुबह 8 बजे नाश्ते का समय है. अपने कमरे में आ कर अब वह काफी व्यवस्थित हो गई थी. मां का फोन आते ही उस ने सारी घटनाओं के बारे में बताते हुए कहा, ‘मां, चिंता मत करो, मैं ठीक हूं, यहां सब लोग अच्छे हैं.’

‘ठीक है बेटा, ध्यान से रहना. आज के जमाने में किसी पर भरोसा करना ठीक नहीं है. कल तेरा स्कूल का पहला दिन है, अपना खयाल रखना. स्कूल से सीधे होस्टल आना और मुझे फोन करना.’
‘जी मां.’

ढेरों ताकीदें दे कर मां ने फोन रख दिया था. मां उस के लिए चिंतित जरूर रहती थीं लेकिन उन्होंने उसे कभी किसी ढोंग या ढकोसले, रूढि़यों, बेडि़यों व परंपराओं में नहीं बांधा था.

समय पंख लगा कर उड़ता गया, पता ही नहीं चला. हायर सैकंडरी के साथ उस ने इंजीनियरिंग की कोचिंग शुरू कर दी. उस की खुशी की सीमा न रही जब वह जेईई मेंस में क्लियर हो गई. आईआईटी में दाखिले के लिए उसे जेईई एडवांस की परीक्षा देनी थी. उस की मेहनत का परिणाम था कि वह प्रथम बार में ही इस में भी सफल हो गई.

आखिरकार, उसे आईआईटी कानपुर में दाखिला मिल गया. मम्मीपापा की खुशी का ठिकाना न था. उन के परिवार में वह लड़के, लड़कियों में पहली थी जो इंजीनियरिंग पढ़ेगी. उस के बाद उस ने मुड़ कर नहीं देखा. मां कभी विवाह के लिए कहतीं तो वह कह देती ‘मुझे समय नहीं है’ या ‘जौब के साथ घरपरिवार’ मुझ से न हो पाएगा. वैसे भी, उसे कभी लगा ही नहीं कि उसे विवाह करना चाहिए. पिछले 10 वर्षों में वह कई लोगों के संपर्क में आई. कुछ लोगों ने उस से विवाह की इच्छा जताई पर वह आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि कुछ ही दिनों में उस पर उन की पुरुषवादी मानसिकता प्रभावी होने लगती और उसे अपने आगे बढ़े कदमों को पीछे खींचना पड़ता. इस के साथ ही उसे यह भी लगता कि वह अपने मातापिता की अकेली लड़की है, अगर कभी उन्हें उस की आवश्यकता पड़ी तो क्या उस से विवाह करने वाला पुरुष उस की भावनाओं को समझेगा.

जब वह छोटी थी तो अकसर मम्मीपापा के हितैषी उन से परिवार के वारिस की बात करते तो पापा कहते कि मेरी अनामिका मेरे लिए पुत्र और पुत्री दोनों है. आजकल न पुत्र पास में रहता है और न पुत्री. फिर किसी से आस क्यों? माना मम्मीपापा उस से आस नहीं करते हैं और न ही कभी करेंगे लेकिन उम्र की भी तो अपनी बंदिशें होती हैं.

‘‘अब हम लखनऊ के चौधरी चरण सिंह एयरपोर्ट पर उतर रहे हैं’’ की आवाज ने उसे अतीत से वर्तमान में ला दिया. प्लेन की खिड़की से उसे नजर आते छोटेछोटे घरों, पेड़पौधों तथा पतली धार में दिखती गोमती नदी को देखना बहुत अच्छा लगता था पर आज उस को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. प्लेन के लैंड करते ही उस ने मोबाइल औन कर मां को फोन मिलाया. फोन चाचाजी ने उठाया. उस की बात सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, सब तेरा ही इंतजार कर रहे हैं.’’

उस ने प्लेन में बैठेबैठे ही कैब बुक करवा दी जिस से बाहर निकलते ही वह चल सके. जैसे ही वह एयरपोर्ट से बाहर निकली, कैब मिल गई और वह तुरंत चल पड़ी. वह कुछ तो मिस कर रही थी, शायद पापा को. दरअसल जब भी वह घर आती थी, पापा का न जाने कितनी बार फोन आ जाता था, ‘बेटा, तू कहां तक पहुंची है, अभी आने में कितना समय और लगेगा.’

जब वह घर पहुंचती, मम्मीपापा गेट के पास खड़े उस का इंतजार करते मिलते. उस के पहुंचते ही गरमागरम जलेबियां और खस्ता कचौरियां मिल जाती थीं क्योंकि उसे जलेबियां बहुत पसंद थीं. आज इस समय वह सब से अधिक पापा के फोन को मिस कर रही थी.

लगभग डेढ़ घंटे में वह सीतापुर अपने घर पहुंची. सभी उस का इंतजार कर रहे थे. पल्लव और सीमा भी वहां उपस्थित थे. अंतिम क्रिया की सारी तैयारियां हो चुकी थीं. उस के घर पहुंचते ही परिवार के सदस्यों ने पिताजी के पार्थिव शरीर को श्मशान घाट ले जाने की तैयारी शुरू कर दी. उन को उठाने को चार लोग बढ़े तो उस ने कहा, ‘‘पिताजी को कंधा मैं भी दूंगी.’’

‘‘यह कैसी बात कर रही है बिटिया? हमारे घर की लड़कियां शवयात्रा में सम्मिलित नहीं होतीं. तेरा भाई अमित है न, वह बेटे की जिम्मेदारी निभाएगा,’’ उस के चाचा अविनाश ने उसे रोकते हुए कहा.
‘‘बेटा, तेरे चाचा ठीक कह रहे हैं. अमित और रोमेश तो हैं ही,’’ उस के मामा जितेंद्र ने कहा. उन के पीछे खड़ा उन का पुत्र रोमेश भी उन का समर्थन करता प्रतीत हो रहा था.
‘‘चाचाजी, प्लीज मुझे पापा के प्रति अपना कर्तव्य निभाने दीजिए,’’ उस ने मामा की बात को अनसुना करते हुए चाचाजी से कहा.
‘‘बेटा, लेकिन…’’
‘‘राकेशजी, प्लीज, अनामिका ठीक कह रही है. दिनेशजी के लिए वह बेटी नहीं, बेटा ही थी. उन्होंने इसे उसी तरह काबिल और आत्मनिर्भर बनाया जैसा वे अपने बेटे को बनाते. इसे अपने पिता के प्रति कर्तव्य निभाने दीजिए.’’ राजीव अंकल का सहयोग मिलते ही उपस्थित सभी लोगों के सुर धीमे पड़ गए. उस ने शुरू से अंत तक सारे कर्तव्य निभाए. उस का बचपन का मित्र पल्लव और उस की पत्नी सीमा भी लगातार उसे सहयोग देते रहे. चाचाजी को उस की छोटी जाति के कारण उस का आना बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन वे चुप ही रहे क्योंकि वे जानते थे कि उन के कहने का अनामिका पर कोई असर नहीं होगा. भाभी को तो होश ही नहीं है.

मां की स्थिति देख कर अनामिका सोच रही थी कि सच एक स्त्री का सारा मानसम्मान, साजशृंगार पति ही होता है. पति के बिना उस की जिंदगी अधूरी है. पापा थे भी ऐसे, उन्होंने सदा अपनी पत्नी के मानसम्मान को सर्वोपरि रखा था. उस ने कभी उन दोनों को झगड़ते नहीं देखा, न ही अपनी इच्छा को दूसरे पर थोपते देखा था. उस की नजरों में वे आदर्श पतिपत्नी थे.

मां की हालत देख कर उस ने छुट्टी बढ़ा ली. साथ ही, उसे वर्क फ्रौम होम की इजाजत मिल गई थी. लेकिन ऐसा कब तक चलेगा, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? नौकरी उस का पैशन है जबकि मां जिम्मेदारी. एक दिन उसे लैपटौप पर काम करते देख कर उस की मां ने कहा, ‘‘बेटा, तेरे काम में हर्जा हो रहा होगा. अब तू अपने काम पर लौट जा, मेरी चिंता मत कर. मैं अब ठीक हूं.’’
‘‘नहीं मां, आप की खुशी से ज्यादा मेरा काम नहीं है. मैं आप के लिए अपना जौब छोड़ सकती हूं पर आप को अकेले छोड़ कर नहीं जा सकती.’’
‘‘बेटा, मैं इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हूं कि अपनी खुशी के लिए तेरी खुशियां छीन लूं. माना तेरे पापा के जाने के कारण मैं दुखी हूं लेकिन अब मुझे उन के बिना जीने की आदत डालनी ही होगी. बेटा, हम सब इस दुनिया में अपनेअपने किरदार निभा रहे हैं. जब किसी किरदार का रोल खत्म हो जाता है तो उसे जाना ही पड़ता है. बेटा, तेरे पिता का इस संसार में किरदार खत्म हो गया था, इसलिए उन्हें जाना पड़ा. अब मुझे अपना और तुझे अपना किरदार निभाना है,’’ मां ने उस की ओर देखते हुए कहा.
‘‘किरदार, आप क्या कह रही हैं मां? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है?’’ अनामिका ने कहा.
‘‘बेटा, अब हमें अपनेअपने किरदार अर्थात अपने कर्तव्य निभाने होंगे. मुझे तेरे पापा की दुकान को संभालना होगा और तुझे अपना काम फिर जौइन करना होगा जिस के लिए तू ने इतनी मेहनत की है.’’
‘‘मां, दुकान आप संभालोगी?’’ अनामिका ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘क्यों, क्या हुआ? जब तुम बाहर जा कर काम कर सकती हो तो मैं क्यों नहीं? वैसे भी, तुम्हारे पापा मुझे से दुकान की हर बात शेयर करते रहे हैं. मुझे विश्वास है मैं सब संभाल लूंगी. वैसे, भोला तो है ही, तुम्हारे पापा के कहीं जाने पर वही दुकान संभालता था. तेरे पापा को उस पर बहुत विश्वास था. कल जब तू सो रही थी तब वह आया था. वह कह रहा था कि मालकिन, जो होना था वह तो हो गया पर आप इस दुकान को बंद मत कीजिएगा. सदा मालिक का नमक खाया है. छोटा मुंह बड़ी बात मालकिन, मैं झुठ नहीं बोलूंगा. आप तो जानती ही हैं मालकिन कि इस दुकान में मालिक की यादें हैं.

‘‘बेटा, मुझे उस की बात ठीक लगी. वह छोटा था, तभी तेरे पापा उसे गांव से ले कर आए थे. उस का विवाह भी हम ने ही करवाया था. अब इस उम्र में वह बालबच्चों को ले कर कहां जाएगा. तेरे पापा द्वारा छोड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना अब मेरा कर्तव्य ही नहीं, दायित्व भी है,’’ कहते हुए मां की आंखें भर आई थीं.
‘‘आप का सोचना ठीक है मां, पर मां, आप अकेली कैसे रहोगी?’’ अनामिका की आंखों में चिंता झलक रही थी.
‘‘मैं अकेली कहां हूं बेटा, मेरे साथ तेरे पापा की यादें हैं, अड़ोसीपड़ोसी हैं, भोला है. फिर, जब चाहूं, तुम से बात कर सकती हूं. इस मोबाइल की वजह से दुनिया बहुत छोटी हो गई है. बस, एक रिक्वैस्ट है, तू अब विवाह कर ले. देख, कोई बहाना मत करना. मातापिता के जीवन की यही सब से बड़ी खुशी है कि उन की संतान अपने घरपरिवार में खुश रहे,’’ मां ने चेहरे पर मुसकान लाते हुए, उसे समझते हुए कहा.
‘‘मां, विवाह करना आसान नहीं है. लेकिन आप को विश्वास दिलाती हूं कि जब भी मुझे समझने वाला लड़का मिल जाएगा, उसे आप से जरूर मिलवाऊंगी.’’
‘‘ठीक है बेटा, मेरी चिंता छोड़ कर अब तू अपने काम पर जा. तेरी खुशी ही मेरी खुशी है.’’

आखिर मां की जिद के आगे अनामिका को हथियार डालने ही पड़े. वह बेंगलुरु लौटते हुए सोच रही थी कि उस की मां समय के साथ चलने का जज्बा ही नहीं रखतीं, बहादुर भी हैं.
अभी उसे बेंगलुरु आए हुए महीनाभर ही हुआ था कि भोला का फोन आया.
‘‘दीदी, अब हम क्या कहें, कहने में अच्छा तो नहीं लग रहा है लेकिन अगर हम नहीं कहेंगे तो हम मालिक के प्रति अपना फर्ज नहीं निभा पाएंगे.’’
‘‘क्या हुआ भोला, खुल कर कहो?’’
‘‘दीदी, आप के आने के बाद रोमेश भैया दुकान पर आ कर बैठने लगे हैं. कभीकभी मामाजी भी आ जाते हैं. हिसाबकिताब के 2 रजिस्टर बना लिए हैं. मालिक का तो एक ही रजिस्टर था. हमें उन की नीयत ठीक नहीं लग रही है.’’
‘‘क्या, और मां?’’
‘‘रोमेश भैया के यहां आने के बाद उन्होंने दुकान पर आना बंद कर दिया है.’’
‘‘वे रहते कहां हैं?’’
‘‘मालकिन के घर में ही सब आ गए हैं.’’
‘‘अच्छा किया जो तुम ने हमें बता दिया. हम देखते हैं.’’
‘‘दीदी, मालकिन को न बताइएगा कि हम ने आप को बताया है वरना अगर मामाजी को पता चल गया तो वे हमें नौकरी से निकाल देंगे.’’
‘‘हम किसी को कुछ नहीं बताएंगे, तुम निश्चिंत रहो.’’

रोमेश दुकान पर बैठने लगा है, सुन कर वह अचंभित थी. मामाजी अपने कार्य के प्रति कभी समर्पित नहीं रहे. पिता से विरासत में मिले व्यवसाय को उन्होंने सुरासुंदरी में गंवा दिया. मामीजी ने उन्हें उन के दुर्व्यसन से मुक्ति दिलवाने की बहुत कोशिश की लेकिन वे उन की हर कोशिश को अपने शक्ति बल से नाकाम कर देते थे. मामी यह सब सह नहीं पाईं. आखिरकार, एक दिन उन्होंने मौत को गले लगा लिया. मामाजी तब भी नहीं सुधरे. मां ने उन्हें समझने की कोशिश की तो वे उन के साथ भी अभद्र व्यवहार करने लगे. पापा ने उन से दूरी बना ली थी. उन के स्वभाव के कारण मां भी उन से कतराने लगीं. मां को दुख था कि

10 वर्षीय रोमेश उचित देखभाल न होने के कारण आवारा लड़कों की संगत में पड़ कर बिगड़ता जा रहा है.

उसे कुछ समझ नहीं आया तो उस ने मां को फोन मिलाया. फोन उठाते ही मां ने कहा, ‘‘बेटा, तुम मेरी चिंता न किया करो. तेरे मामाजी और रोमेश मेरे पास आ गए हैं. रोमेश ने सब संभाल लिया है.’’
‘‘लेकिन मां…’’
‘‘वे सब भूलीबिसरी बातें हैं. मैं भूल चुकी हूं, तू भी भूल जा. वे दोनों मेरा बहुत खयाल रखते हैं.’’

मां की बात सुन कर वह क्या कहती. उस ने फोन रख दिया. मां की बातों से उसे लगा, भोला सच कह रहा है. मामाजी ने मां को अपने मोहजाल में फंसा लिया है. फोन से उन्हें सम?ाना संभव नहीं है, क्योंकि यह बात इस समय वे समझ ही नहीं पाएंगी. अब उसे ही उन के इस तिलिस्म को तोड़ना पड़ेगा.

उस ने छुट्टी के लिए अप्लाई कर, टिकट बुक करवाया. जैसे भी वह लखनऊ पहुंची, अपने मित्र पल्लव को सारी बातें बताते हुए, उस से दुकान पहुंचने का आग्रह किया. दरअसल, वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिए उस ने घर न जा कर, सीधे दुकान जाना उचित समझा तब तक पल्लव भी वहां पहुंच चुका था.

दुकान में प्रवेश करते ही उस ने देखा कि रोमेश दुकान में अपने मित्र के साथ शराब पीते हुए ताश खेल रहा है. दुकान के अन्य कर्मचारी उन की खातिरदारी में लगे हैं. बस, भोला ही कस्टमर को अटैंड कर रहा है. उसे देख कर एक खरीदार ने कहा, ‘‘हम तो वर्षों से यहीं से खरीदते आ रहे हैं. अब न वैसा सामान है न वैसा माहौल. अब कोई दूसरी दुकान ढूंढ़नी पड़ेगी.’’
‘‘चलो जी, शराब की महक के कारण यहां बैठना भी मुश्किल हो रहा है,’’ उसी समय खरीदारी करने आई महिला ने उठते हुए अपने पति से कहा.
भोला उसे देख कर चौंक गया जबकि अपने खेल में मस्त रोमेश को उस के आने का पता ही नहीं चला.
‘‘भोला, यहां क्या हो रहा है. तुम तो पुराने कर्मचारी हो, तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?’’

उस की कड़क आवाज सुन कर रोमेश उठ खड़ा हुआ, बोला,
‘‘दीदी, आप अचानक, यहां कैसे?’’
‘‘मैं अचानक यहां आई, तभी तो तुम्हारी करतूतों का पता चला. अभी यहां से 2 ग्राहक असंतुष्ट हो कर गए हैं. तुम तो अपनी हरकतों से पापा का नाम डुबोने में लगे हो.’’
‘‘सौरी दीदी, अब ऐसा नहीं होगा.’’
‘‘तुम ठीक कह रहे हो, अब ऐसा नहीं होगा. चाबी मुझे दो और निकल जाओ दुकान से और तुम लोग ग्राहकों की सेवा के लिए नियुक्त किए गए हो न कि इन की सेवा के लिए. अब से भोला इस दुकान को संभालेगा तथा तुम सब को उस की बात माननी होगी,’’ अनामिका ने कड़क आवाज में रोमेश की ओर देखते हुए अन्य कर्मचारियों से कहा.

रोमेश उसे चाबी दे कर चला गया. अनामिका ने चाबी पल्लव को पकड़ाई तो वह झिझका लेकिन जब अनामिका ने कहा कि पापा के बाद इस शहर में वह सिर्फ उस पर ही भरोसा कर सकती है, तब उस ने चाबी ले ली. इस के बाद उस ने कहा, ‘‘भोला, तुम इन का मोबाइल नंबर नोट कर लो. अगर तुम्हें कोई परेशानी हो तो इन्हें फोन कर लेना. दुकान की एक चाबी तुम रखो तथा एक इन के पास रहेगी.’’

वह पल्लव से फिर मिलने की बात कह कर अपने घर पहुंची. उसे देख कर मां चौंकीं, बोलीं, ‘‘बेटी, तू अचानक, सब ठीक तो है न.’’
‘‘सब ठीक है. मामा, आप यहां कैसे?’’ उस ने चौंकते हुए कहा.
‘‘बेटी, तेरे भाई रोमेश ने दुकान का काम अच्छे से संभाल लिया है. तेरे मामा उसे गाइड करते रहते हैं.’’
‘‘मां, तुम्हें मामा और रोमेश के बारे में सब पता है, फिर भी…’’
‘‘अब वे बहुत बदल गए है,’’ मां ने अपने भाई की ओर देखते हुए कहा.
‘‘मां, कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती,’’ कहते हुए उस ने मामा की ओर देखते हुए दुकान पर घटित सारी घटना उन्हें बताई तथा यह भी कि दुकान के इस माहौल के कारण ग्राहक भी असंतुष्ट हैं.

मामा जब तक कुछ कहते, रोमेश आ गया. रोमेश की हालत देख कर मामा कुछ कह नहीं पाए.
‘‘मामा, आप मां के भाई हैं. मेरा आप को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है लेकिन क्या आप चाहते हैं कि मां भी आप की तरह बरबाद हो जाए. मेरी आप से विनती है कि आप मां को सम्मान से जीने दीजिए. उन से उन के अधिकार मत छीनिए,’’ कह कर वह अपने कमरे में चली गई.

वह अपने कमरे से बाहर तभी आई जब उसे महसूस हुआ कि मामा चले गए हैं. मां को उदास बैठा देख कर उस ने कहा, ‘‘मां, तुम मुझ से नाराज होंगी लेकिन मैं क्या करती? भोला ने मुझे फोन कर के बताया. वह बेहद चिंतित था. मैं सीधे घर न आ कर पहले दुकान इसीलिए गई थी जिस से कि वास्तविक स्थिति का पता लगा सकूं. जैसा कि मैं ने आप को बताया, स्थिति सचमुच भयावह थी. अगर कुछ दिन और ऐसा चलता तो दुकान ही बंद करवानी पड़ जाती. तुम भोला पर विश्वास कर सकती हो तो ठीक है, वरना हम दुकान को बेच देते हैं. तुम मेरे साथ में रहो.’’
‘‘नहीं बेटी, मैं तेरे पापा की अमानत को अपने जीतेजी नहीं बेचने दूंगी. तेरे मामा पर विश्वास कर मैं ने गलत किया. अब मैं खुद दुकान पर बैठूंगी.’’
‘‘ठीक है मां, जैसी तुम्हारी इच्छा. दुकान की एक चाबी तो भोला के पास है, दूसरी चाबी मैं ने पल्लव को दे दी है. मैं तो हूं ही, फिर भी अगर कभी कोई समस्या हो तो पल्लव या सीमा से बात कर लेना. बहुत ही भले हैं दोनों. तुम उन पर विश्वास कर सकती हो,’’ मन की कशमकश को विराम देते हुए अनामिका ने उन की गोद में लेटते हुए कहा.

वे उस का सिर सहलाते हुए सोच रही थीं कि अनामिका के बाहर जाते ही दिनेशजी ने कहा था, सावित्री हर इंसान को समर्थ होना चाहिए जिस से वक्तजरूरत पर उसे किसी के सहारे की आवश्यकता न पड़े. अब वह किसी पर अंधविश्वास नहीं करेगी. वह खुद अपनी जिम्मेदारी उठाएगी. अपनी बेटी को व्यर्थ परेशान न करो, उसे अपनी जिंदगी जीने दो.

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