मेरी पड़ोसन श्रेया उस के पति दोनों एक ही औफिस में और एक ही सैलरी पैकेज पर काम करते हैं. पर तीनों टाइम सब की पसंद के हिसाब से खाना क्या बनेगा यह केवल श्रेया की चिंता और रिस्पोन्सिबिलिटी या कहें सिरदर्दी है. हसबैंड वाइफ दोनों को औफिस जाना होता है पर श्रेया ही सुबह घर में सब से पहले जागती है, सब का ब्रेकफास्ट, लंच बनाती, पैक करती है. श्रेया कितनी बार रोते हुए कहती है कि जो रसोई पहले मेरे लिए एक ऐसी जगह थी जहां कभीकभी अपने मन की कुकिंग करना मुझे स्ट्रेस फ्री करता था आज वही रसोई मेरे लिए उम कैद बन गई है, पता नहीं कब इस खाना बनाने से आजादी मिलेगी.”

सच ही तो है घर के भीतर के काम में पुरुष हिस्सेदार क्यों नहीं तब जब कि बाहर की जिम्मेदारी भी महिलाएं ले रही हैं ? जब महिला पुरुष दोनों औफिस में साथ में काम कर रहे हैं तो दोनों रसोई में एक साथ क्यों नहीं हो सकते ?

आज भी ‘घर में मम्मी की जगह किचन ही है. आप के आसपास नजर दौड़ा कर देखिए कितने घर हैं जहां आप को पापा किचन में मिलेंगे भले ही दोनों वर्किंग हों. कितनी दुखद बात है. है न. पता नहीँ समाज में क्यों और कैसे अलगअलग जगहों को भी जेंडर से निर्धारित कर लिया है.

खाना बनाना जेंडर आधारित काम नहीं है

आज भी भारतीय समाज में महिलाओं की मुख्य भूमिका घरों में तीन टाइम का सब की पसंद का मील तैयार करना है जिस से वे उकता जाती हैं और उन के मुंह से यही निकलता है ‘पता नहीं कब खाना बनने से आजादी मिलेगी!”

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