पहले दीवाली पर घर में बनी मिठाइयां और पकवान जब दूसरों के घरों में जाते थे और उन पर तारीफें आती थीं तो मम्मी के चेहरे पर जो खुशी व रौनक होती थी, उस के आगे दीयों की रोशनी भी फीकी लगती थी, पर अब सबकुछ रेडीमेड है.
दो दशक पहले की दीवाली याद करिए. जो लोग आज जिंदगी के चौथे दशक में चल रहे हैं वे जब 18-20 साल की उम्र में थे, तब की दीवाली और अब की दीवाली में उन्हें एक बहुत बड़ा फर्क नजर आएगा. 20 साल पहले, कई महीने पहले से दीवाली का इंतजार होने लगता था. अब की दीवाली आई तो यह कर लेंगे, वह कर लेंगे. कितने काम होते थे जो दीवाली के लिए ही छोड़े जाते थे. किचन का कोई बरतन खराब हो गया और नया लेना है तो कहते थे : ‘‘अरे, दो महीने रुक जाओ, अब की धनतेरस पर ले लेंगे.’’
मम्मी के साथ घर के सभी छोटेबड़े दीवाली आने से हफ्तों पहले ही पूरे घर की साफसफाई में जुट जाते थे. बच्चा पार्टी को और्डर मिलता था कि अपनेअपने कमरे की सफाई करो, अलमारियों से किताबें और कपड़े निकाल कर साफ कर के नया अखबार बिछाओ और किताबें व कपड़े करीने से सजाओ, अरे दीवाली आने वाली है. पिताजी चौराहे से दो मजदूर पकड़ लाते थे और पूरे घर की पुताई करवाई जाती थी. यानी पूरा घर दीवाली के स्वागत की तैयारियों में जुट जाता था.
सब की दीवाली खूब बढि़या मने, इस की पूरी जिम्मेदारी मम्मी और उन के किचन पर होती थी. कई दिनों पहले से दीवाली की मिठाइयां और नमकीन बनने लगती थीं. पापा लइया-चना, गुड़, बताशे, चीनी के खिलौने, दीये, रुई, तेल-घी, मैदा, चीनी, खोया, मावे आदि दीवाली से कई दिनों पहले ही ला कर रख देते थे.
20-25 साल पहले तक निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों में बाजार से रंगीन डब्बों में रंगबिरंगी मिठाइयां ला कर बांटने का रिवाज नहीं था. ये नखरे तो बस उच्चवर्ग में ही देखे जाते थे. मगर आज निम्न तबके को भी यह रोग लग गया है. महंगी मिठाई न सही तो पतीसे का डब्बा ही सही. मध्य वर्ग के लोग अपनी कामवाली, सफाईवाली, धोबी, ड्राइवर, कूड़ा उठाने वाले, माली वगैरह को सौपचास रुपए के साथ पतीसे के डब्बे ही देने लगे हैं. उन के घरों में पतीसे के डब्बों का ढेर लग जाता है.
पहले ऐसा नहीं था. प्रसाद में जो मिठाई भोग चढ़ाई जाती थी, महल्ले में बांटने के बाद जो बचती थी वह घर में काम करने वाले लोगों में डिस्ट्रिब्यूट हो जाती थी. वे बड़े चाव से उस को खाते थे और अपने बच्चों के लिए बांध कर ले जाते थे.
जब घर में मिठाई बनती थी और खीलबताशे आते थे, तब महल्ले में बांटते वक्त यह नहीं देखा जाता था कि कौन गरीब और कौन अमीर, कौन हिंदू और कौन मुसलमान.
पहले दीवाली की मिठाइयां घर पर बनती थीं लेकिन अब सबकुछ रेडीमेड मिल जाता है. बाजार से आने वाली मिठाई के साथ न देने वाले का कोई प्रेम और न लेने वाले की कोई श्रद्धा. बस, एक फौर्मेलिटी है. पड़ोसी और रिश्तेदारों को दीवाली की मिठाई बांटनी है तो बाजार से खरीद कर बांट दो भले वह उस को मुंह न लगाए. अपना फर्ज तो पूरा हो गया. बड़े घरों में तो पहले भी दीवाली पर बाजार की महंगी मिठाई के साथ ड्राईफ्रूट और गिफ्ट देने का रिवाज रहा है. वहां बाकायदा लिस्ट बनती है कि कितने लोगों को गिफ्ट देना है. दूर के रिश्तेदारों और उन लोगों को इस लिस्ट से हटा दिया जाता है जो स्टैंडर्ड से मेल नहीं खाते या जिन से कोई फायदा नहीं होता या जो बूढ़ेबुजुर्ग हैं. लिस्ट में वही लोग होते हैं जिन के यहां से भी उतने ही महंगे गिफ्ट और मिठाइयां रिटर्न गिफ्ट के तौर पर आती हैं.
आज बाजार दुनियाभर के गिफ्ट आइटम्स से भरे पड़े हैं. बढि़याबढि़या शो पीस, डबल बेड की चादरें, क्विल्ट, ब्लैंकेट, लकड़ी के सजावटी सामान, पेंटिंग्स, किचन इक्विपमैंट्स, गैजेट्स, ड्राईफ्रूट्स के सजेसजाए पैकेट्स जिन में महंगी चौकलेट्स, नमकीन आदि होते हैं,
दीवाली पर देने का चलन इधर खूब बढ़ा है. अब तो मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवार भी दीवाली की मिठाई के साथ कोई न कोई गिफ्ट आइटम देने लगे हैं.
कुछ नहीं तो चाय के 6 प्यालों का सैट या गिलास का एक सैट ही सही. मगर, अपनी हनक दिखाने के लिए देना तो है. इस दिखावे के चक्कर में घर का बजट तो बिगड़ता ही है, कई बार गिफ्ट पसंद न आने पर वह या तो कूड़े की तरह किसी कोने में पड़ा रहता है या वैसा का वैसा पैक किसी अन्य को दे दिया जाता है. इन बाजारी चीजों के साथ त्योहार की खुशियां, प्रेम और श्रद्धा जैसे भाव एक घर से दूसरे घर नहीं जाते. बस, दिखावा ही जाता है और बदले में दिखावा ही लौटता है.
दिखावा कल्चर ने घर का बजट ही नहीं बिगाड़ा है, बल्कि त्योहारों पर बच्चों की असली खुशी पर नजर भी लगा दी है. शंकर यादव अपने कसबे में जब परिवार के साथ रहता था तब बच्चों के लिए 500 रुपए के पटाखे भी उसे बहुत लगते थे.
शंकर की दीवाली
शंकर दो साल से परिवार को ले कर दिल्ली में रह रहा है. अकेला कमाने वाला है. एक अखबार में लेआउट डिजाइनर है. घर पर भी कुछ मैगजीन आदि डिजाइन करता है.
महीने की आमदनी कभी 30-35 हजार रुपए तो कभी अच्छा काम मिल गया तो 50 हजार रुपए तक हो जाती है. दो बच्चे हैं. दोनों पढ़ रहे हैं. कुछ लोन ले कर एक सोसाइटी में वन बीएचके फ्लैट खरीदा है. उस की किस्त भी जाती है. ऐसे में दीवाली पर पड़ोस के तीनचार घरों में जिन से उस की पत्नी की अच्छी जानपहचान हो गई है, मिठाई का डब्बा, ड्राईफ्रूट और छोटामोटा गिफ्ट आइटम भेजना ही पड़ता है.
इस खर्चे के बाद बच्चों के लिए 500 रुपए पटाखों पर फूंकने की उस की हिम्मत नहीं होती. फिर, 500 रुपए में तो अब पटाखे भी दोतीन ही आते हैं. इस से तो बच्चे निराश ही होंगे क्योंकि सोसाइटी के अन्य बच्चे जब थैलियां भरभर के पटाखे फोड़ेंगे तब उन्हें देख कर शंकर के बच्चों में हीनभावना पैदा होगी. इस डर से शंकर दीवाली की शाम अंधेरा होते ही दोनों बच्चों और पत्नी को ले कर दिल्ली की रोशनी दिखाने निकल पड़ता है.
मैट्रो से कनाट प्लेस आता है और वहां बच्चों के साथ आतिशबाजी व सजीधजी दुकानों की रौनकों का मजा लेता है. फिर चारों किसी स्ट्रीट फूड का लुत्फ उठाते हैं. ठेले पर चाऊमीन, गोलगप्पे, चाट आदि खाते हैं.
फिर रात 11 बजे की आखिरी मैट्रो पर सवार हो कर घर लौट जाते हैं. तब तक उन की कालोनी की आतिशबाजी भी खत्म हो चुकी होती है और सोसाइटी के बच्चे अपनेअपने घरों में बंद हो चुके होते हैं.
शंकर की दीवाली तो बीते 2 सालों से ऐसे ही मन रही है, मन मारमार कर. यही पैसा जो वह गिफ्ट पर खर्च करता है अगर उस से बच्चों के लिए पटाखे और नए कपड़े ले आता तो शायद उस की और उस के परिवार की दीवाली सच्ची खुशियों के साथ मन रही होती मगर त्योहारों पर दिखावा कल्चर की मार शंकर का परिवार भी झेल रहा है.
शंकर सरीखे अनेक परिवार हैं जो अपनी इज्जत बचाने के लिए और सोसाइटी में सिर ऊंचा रख कर चलने के लिए अपनों की खुशियों का गला घोंट कर उन घरों में महंगे गिफ्ट और मिठाइयां पहुंचाते हैं जिन से भविष्य में कुछ हासिल नहीं होना है. मगर दुनिया क्या कहेगी, दुनिया उन की गरीबी का मजाक उड़ाएगी, इस डर ने त्योहारों की असली खुशी पाने से इंसान को महरूम कर दिया है.
दिखावा कल्चर में दिखावटी जिंदगी जी रहे लोग समाज में कुंठा और गुस्से को बढ़ा रहे हैं.
पोंगापंथी नहीं उत्सव मनाइए
दीवाली 5 दिनों का त्योहार होता है. इस की शुरुआत धनतेरस से होती है. इस के बाद दूसरे दिन छोटी दीवाली, तीसरे दिन दीवाली होती है. इस के बाद गोवर्धन और भैयादूज होते हैं. दीवाली की तैयारी में काफी समय लगता है.
त्योहार का आनंद लेना है तो पोंगापंथ से दूर रहिए. दीवाली के पहले के 28 दिन पितृपक्ष व नौरातों को पोंगापंथी में गुजारने की जगह अपने मित्रों, रिश्तेदारों के साथ डिनर पार्टी प्लान कीजिए, जिस में एकदूसरे के पास रहेंगे और एकदूसरे के सुखदुख को समझ सकेंगे. अच्छा है कि घर के सभी लोग मिल कर अपने घर की सफाई करें. घर छोटाबड़ा कैसा भी हो, उस का साफ रहना अच्छा लगता है.
जब घर के लोग मिल कर उस को साफ करते हैं तो एक अलग ही उत्साह होता है. साथ रंगरोगन करतेकरते आपस में होली भी खेल ली जाती है. इस से दीवाली के साथ ही साथ होली का आंनद भी ले लेते हैं और दीवाली के लिए घर भी साफ हो जाता है. दीवाली बरसात के बाद होती है, इसलिए सफाई से घर के कीड़ेमकोड़े भी खत्म हो जाते हैं.