रिटायरमेंट को सहजता से ले पाना हर किसी के बस की बात नहीं होती क्योंकि रिटायरमेंट के बाद अधिकारी का लगभग सब कुछ छिन जाता है. पूरी सैलरी नहीं मिलती, एक झटके में साहबी और रुतबा दोनों खत्म हो जाते हैं. हाथ में और साथ में रह जाते हैं तो सेवानिवृति के दिन के भाषणों के परम्परागत जुमले, बुके और तोहफे, उन में भी रामायण और कल्याण जैसे धार्मिक ग्रन्थ ज्यादा होते हैं. सरकारी बंगला, सरकारी वाहन और वर्दीधारी सरकारी ड्राईवर, अर्दली, नौकरचाकर वगैरहवगैरह सब अपने से बेगाने हो जाते हैं.
इस मौके पर रिटायर होने जा रहे अधिकारी के कानों में 1960 में प्रदर्शित फिल्म बम्बई का बाबू फिल्म का मुकेश का गया यह गाना गूंज रहा होता है, चल री सजनी अब क्या सोचे.... इसी गाने की दो और लाइनें फूल मालाओं और शाल से लदेफदे रिटायर्ड साहब पर और ज्यादा फिट बैठती है, दुल्हन बन के गोरी खड़ी है, कोई नहीं अपना कैसी घड़ी है.
रिटायर्ड पर्सन वेतन भोगी से पेंशन भोगियों की जमात में जा खड़ा होता है. उस के पास सुनाने को अपने सेवाकाल के सेंसर्ड संस्मरण भर रह जाते हैं लेकिन दिक्कत यह कि श्रोता नहीं मिलते. 2 - 4 महीने बाद ही उसे महसूस होने लगता है कि जब सगे वाले ही कन्नी काटने लगे हैं तो औरों का क्या दोष लेकिन रिटायर होने के पहले की हालत उस से भी ज्यादा बुरी होती है. हर कोई हमदर्दी सी जताते पुचकारने भी लगता है कि चलो कोई बात नहीं जिंदगी निकाल दी अपने विभाग और देश की सेवा में, अब अपने लिए जियो, अपने बचेखुचे शौक पूरे करो, घूमो फिरो, तीरथ और सत्संग करो, क्लब का शौक हो तो उसे भी पूरा करो, आराम करो कुल जमा सार ये कि अब हमारा पिंड छोड़ो.
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