वह सुधा को मोबाइल मिला कर पूछने ही वाला था कि मां के यहां चल रही हो या नहीं. लेकिन उस ने सोचा कि अगर उसे मां के यहां चलना होता तो वह खुद न फोन कर देती. हर इतवार की दोपहर का भोजन वे दोनों मां के यहां ही तो करते हैं. मां हर इतवार को तड़के ही उठ जाती हैं और उन के लिए स्पैशल खाना बनाने लगती हैं. जब भी वह सुधा के साथ जाता है, खाने की मेज तरहतरह के पकवानों से सजी रहती है और मां उसे ठूंसठूंस कर खिलाती हैं. अगर वह इत्तफाक से जा नहीं पाता है तो उस दिन वे टिफिन कैरियर में सारा खाना भर कर उस के यहां चली आती हैं और उसे खिलाने के बाद ही खुद खाती हैं. आज भी मां उस के लिए खाना बनाने लग गई होंगी. उस ने मां को फोन किया, उधर से पापा बोल रहे थे, ‘‘हैलो, कौन, विकास?’’
‘‘हां, मैं आज…’’ इस से पहले कि वह अपनी बात पूरी करता, उधर से मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘आज तुम आ रहे हो न?’’
‘‘हां, मां.’’
‘‘मैं तो घबरा गई थी कि कहीं तुम आने से इनकार न कर दो.’’
‘‘लेकिन मां, सुधा अभी मायके से नहीं लौटी.’’
‘‘नहीं लौटी तो तुम आ जाना. आ रहे हो न?’’
‘‘हां मां,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.
तब तक’’ गैस पर चाय उफन कर बाहर आई और गैस बुझ गई.
हड़बड़ा कर उस ने गैस बंद कर दी और चाय छान कर एक कप में उड़ेलने लगा. कप लबालब भर गया. अरे, यह तो 2 जनों की चाय बना बैठा. अब उसे अकेले ही पीनी पड़ेगी. वह बैठ कर चाय पीने लगा.
‘सब्जी ले लो, सब्जी’, गली में आवाज गूंजी.
अखबार उठा कर वह सुर्खियां पढ़ने लगा. अचानक दरवाजे की घंटी बज उठी. वह उठा और उस ने दरवाजा खोल दिया. सामने सब्जी वाली खड़ी थी. उस ने पूछा, ‘‘बीबीजी नहीं हैं?’’
‘‘अभी नहीं आईं.’’?
‘‘कब आ रही हैं?’’
‘‘पता नहीं.’’
‘‘मुझ से तो कहा था कि दोचार दिनों में आ जाऊंगी, लेकिन आज पूरे 15 दिन हो गए.’’
‘‘हां.’’
‘‘साहब, आप खाना कहां खाते हो?’’
‘‘होटल में.’’
‘‘जरा हाथ बढ़ा देना,’’ सब्जी वाली बाई ने कहा.
उस ने झल्ला उठाने में उस की मदद कर दी.
‘‘बगैर औरत के कितनी तकलीफ होती है यह तो सोचती ही नहीं आजकल की औरतें. शादी के बाद कैसा मायके का मोह? सच मानोगे, साहब, गौने के बाद मैं सिर्फ 2 बार गई हूं मायके और वह भी भैयाबापू के कूच कर जाने की खबर पा कर. और यहां, ऐसा महीना नहीं गुजरता जब बीबीजी मायके न जाती हों,’’ सब्जी वाली ने कहा.
उस ने कहना चाहा, ‘सच तो यह है कि अब हमारा निवाह नहीं होता और सुधा मुझे हमेशाहमेशा के लिए छोड़ कर चली गई है.’ लेकिन उसी पल उस ने सोचा कि इस सब्जी वाली से यह सब कहने की क्या जरूरत है. जब सुधा उसे कुछ नहीं बता गई, तो वह क्यों बताए?
इसी बीच, तरन्नुम में आवाज लगाता हुआ सामने से फूल वाला आता दिखाई दिया. अब यह भी छूटते ही सुधा के बारे में पूछने लगेगा. उस का जी चाहा कि वह दरवाजा बंद कर अंदर चला जाए और किसी को जवाब ही न दे. सुधा इन सब लोगों से बोल तो ऐसे गई है जैसे वह लौटी आ रही है.
‘‘बीबीजी आ गईं, साहब?’’ फूल वाले ने फूल देते हुए कहा.
‘‘नहीं.’’
‘‘कब आ रही हैं?’’
उस ने झुंझला कर कहना चाहा, ‘पूछो जा कर उसी से,’ लेकिन वह बोला, ‘‘पता नहीं.’’
‘‘इस बार बहुत दिन लगा दिए.’’
वह सिर्फ दांत कटकटाता रह गया. उस ने मुड़ कर दरवाजा बंद करना चाहा कि महरी सामने खड़ी थी, ‘‘चौकाबरतन कर दूं, साहब?’’
‘‘हांहां.’’
महरी ने चौके से 2-4 बरतन समेटे और मिनटों में मांज कर रसोई साफ कर दी. फिर झाड़ू ले कर बरामदा साफ करने लगी. वह कूड़ा बटोरती हुई बोली, ‘‘बीबीजी ने इस बार कुछ ज्यादा दिन नहीं लगा दिए?’’
‘‘हां.’’
‘‘वापस तो आएंगी न?’’
‘‘हां,’’ कह कर फिर अचकचा कर उस ने पूछा, ‘‘सुना, तूने दूसरा आदमी कर लिया है.’’
‘‘लेकिन अब पछता रही हूं, बाबू. इस से पहला वाला आदमी अच्छा था. यह मर्दुआ तो रोज रात को पी कर आता है और लातोंघूसों से पीटने लगता है. उस के पीटने का भी कोई गम नहीं है, बाबू. लेकिन जब वह पूछने लगता है कि बोल तेरा पहला आदमी कैसा था, तुझे कैसे प्यार करता था. औरतें अपने पहले आदमी को भूल नहीं पातीं. जरूर तू अपने पहले आदमी को याद करती होगी. सचसच बता, याद करती है न? झूठ बोलती हूं तो सच उगलवाना चाहता है और सच बोलती हूं तो उसे गवारा नहीं होता. इस झूठ और सच के बीच में मैं जैसे अधर में लटकी हुई जी रही हूं. सोचती हूं कि न मैं ने पहले आदमी को छोड़ा होता और न दूसरा आदमी कर लिया होता. अपने ही गलत निर्णयों के एहसासों से बिंधी हुई हूं मैं,’’ कह कर सुबकने लगी.
उस ने अपनी दृष्टि खिड़की की तरफ फेर ली. आसमान में कालेकाले बादल छा गए थे व सुबह बेहद उदास, भीगी और उमसभरी हो उठी थी.
‘‘मैं तो अपना ही दुखड़ा ले बैठी. तुम अपनी सुनाओ, बाबू? इन 15 दिनों में तुम बीबीजी से मिले तो होगे?’’
‘‘नहीं,’’ उस ने खोखले स्वर में कहा.
‘‘एक ही शहर में रहते हुए?’’ चकित भाव से महरी ने पूछा, ‘‘बीबीजी ने फोन भी नहीं किया?’’
उस ने नकारात्मक सिर हिला दिया.
‘‘बीबीजी से आप का कोई झगड़ा हुआ था, साहब?’’
‘‘नहीं तो,’’ वह व्यग्रभाव से उठ कर टहलने लगा.
‘‘वही तो…मैं भी घरघर घूमती हूं. ऐसा घर नहीं देखा जहां मियांबीवी न झगड़ते हों. लेकिन आप दोनों को तो मैं ने कभी उलझते हुए नहीं देखा.’’ फिर कमरे को देखते हुए बोली, ‘‘साहब, आज ये परदे बदल दूं?’’
‘‘हांहां, इतवार है न, कोई आ न जाए?’’ कह कर उस ने अलमारी से धुले व इस्तिरी किए हुए परदे निकाल कर महरी को दे दिए और वह दरवाजेखिड़कियों के परदे बदलने लगी.
अकसर इतवार के दिन उस की दृष्टि परदों पर चली जाती और वह सुधा से कह कर परदे बदलवा देता. वह कहता, ‘कोई आ न जाए?’
‘लेकिन हम घर पर रहेंगे ही कहां?’
‘मां के घर दोपहर का भोजन कर के हम सीधे यहां आ रहे हैं.’
‘आज तुम नाटक देखने नहीं चलोगे?’
‘नहीं, आज तो भीड़भाड़ होगी और टिकट भी नहीं मिलेगा.’
‘यह नाटक सिर्फ आज भर होगा.’
‘हफ्ते में एक दिन ही तो मिलता है. उस दिन भी तुम भागमभाग करने के लिए कहती हो.’
‘तुम ने पहले ही बता दिया होता तो मैं कल ही हो आती.’
‘आइंदा तुम शनिवार के दिन ड्रामा देख लिया करो.’
‘और इतवार के दिन?’
‘पूरा आराम.’
इतवार के दिन वह या तो मेहमानों या सुधा के साथ हंसबतिया लेता या फिर सारा दिन लेटा रहता. सुधा कोई न कोई नाटक पढ़ने लगती.
एक दिन उस ने सुधा से कह दिया, ‘तुम किसी नाटक में अभिनय क्यों नहीं कर लेतीं?’
‘कोई अच्छा नाटक मंचित होता है तो उसे दिखाने तो चलते नहीं, अभिनय करने दोगे तुम?’
‘सच, तुम अगर स्टेज पर काम करो तो मैं तुम्हारा नाटक देखने जरूर आऊंगा.’
‘लेकिन मुझे नाटक खेलना नहीं, देखना अच्छा लगता है. कालेज के दिनों में भी मैं हर नाटक देखने के लिए सब से आगे की सीट पर बैठती थी. लेकिन समय के चक्कर में सबकुछ छूटता चला गया.’’
‘अब भी मैं तुम्हें जाने से तो मना नहीं करता.’
‘लेकिन तुम साथ तो चलना पसंद नहीं करते.’
‘जाने क्यों नाटक मुझे पसंद ही नहीं आते. हां, फिल्म कहो तो…’
‘चलो, फिल्म ही सही.’
‘मतलब, आज फिल्म देखे बगैर नहीं रहोगी?’
‘नहीं, अगर तुम नहीं चाहते तो…’
‘नहीं, हम चल रहे हैं.’
‘कपड़े बदल लूं.’
‘हांहां.’
झट उस ने वार्डरोब खोला. ‘कौन सी साड़ी पहनूं?’
‘कोई भी.’
‘नहीं. तुम बताओ न.’
‘वह फालसई रंग की साड़ी पहन लो.’
‘तुम्हें हल्के शेड्स पसंद हैं न?’
‘हां.’
वह झट हाथमुंह धो आई और कंघी उठा कर बाल संवारने लगी. उस ने उस के बालों की एकाध लट उस के गाल पर बिखेर दी औैर उस की छवि निहारने लगा.
सुधा प्रसन्न हो कर बोली, ‘जानते हो, जब भी तुम मुझे इस तरह सजानेसंवारने लगते हो तब मुझे बेहद खुशी होती है. तुम्हारी इच्छाएं पूरी होती रहीं तो मैं अपनी जिंदगी सार्थक समझ लूंगी.’
‘‘मैं जाऊं?’’ महरी की आवाज सुन कर उस की विचार तंद्रा टूटी. बोला, ‘‘तुम्हारा काम खत्म हो गया?’’
‘‘हां.’’
‘‘तो जाओ.’’
‘‘एक बात कहूं, साहब?’’
‘‘कहो.’’
‘‘जब तक बीबीजी नहीं लौटतीं तब तक आप अपनी मां के पास क्यों नहीं चले जाते? यहां तो आप को खानेपीने की भी दिक्कत होती होगी.’’
‘‘मां के पास?’’ अरे, हां, मां के पास रसोई के वक्त चले जाओ तो मां नाराज होती हैं, ‘हफ्ते में एक दिन तो आते हो और तब भी दोचार घड़ी चैन से बैठ कर बातचीत भी नहीं करते.’
कभीकभी सुधा खाने के तुरंत बाद फिल्म के लिए निकल आती तो मां खीझ उठतीं. वह झट नहा कर और फिर कपड़े बदल कर घर से निकलना ही चाहता था कि फिर आवाज आई, ‘‘बीबीजी, कपडे़.’’ उस ने दरवाजा खोला. सामने एक औरत एक छोकरे के साथ खड़ी थी, जिस के सिर पर एक टोकरा रखा था. उस में स्टील के बरतन आदि और कपड़ों की एक गठरी रखी थी.
वह बोली, ‘‘बीबीजी नहीं हैं?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘कहा था, कुछेक पुराने कपड़े निकाल कर रखूंगी.’’
‘‘वह तो नहीं है.’’
‘‘कहीं गई हैं?’’
‘‘हां.’’
‘‘कब आएंगी?’’
उस ने चीख कर कहना चाहा, ‘अब वह यहां नहीं आएगी. यहां सिर्फ वह रहता है वह. कोई सुधा नहीं रहती.’ लेकिन वह बोला नहीं. चुप रहा. पुराने कपड़े वाली अपने छोकरे के साथ चली गई. उस ने सोचा, ‘अब और वह घर पर बैठा रहा तो कोई न कोई सुधा को पूछता हुआ चला आएगा और उस के अचानक चले जाने का एहसास दिलाता रहेगा. कितना बड़ा झूठ छोड़ गई है सुधा अपने पीछे. यहां न लौटने का निश्चय कर के भी वह इन सब लोगों को अपने लौटने का यकीन दिला गई है. यहां नहोते हुए भी यहां होने का एक एहसास छोड़ गई है.’ जब वह मां के यहां पहुंचा तब बूंदाबांदी होने लगी थी और बरामदे में बैठी मां तेजतर्रार आवाज में पिताजी को जलीकटी सुना रही थीं.
‘‘अब बस भी करो, मां,’’ आदर्श मां को समझा रही थी.
‘‘नहीं, मैं ने बहुत झेला है, अब और नहीं झेल सकती,’’ कह कर मां अपना पुराना राग अलापने लगीं जो वे कईर् बार सुना चुकी हैं.
पापा अब तक चुप थे. लेकिन अब भड़क उठे और किसी गरजतेबरसते बादल की तरह मां के इर्दगिर्द मंडराते हुए ऊंचनीच सुनाने लगे.
‘‘पापा, आज भैया के सामने तो चुप रहिए,’’ आदर्श गिड़डि़ाई.
‘‘अरे, तेरा भैया पराया थोड़े ही है. तू उसे डबल रोटी का उपमा खिला दे. आज मुझे इन से निबट लेने दे.’’
वह आदर्श के साथ दूसरे कमरे में चला गया. मां और पापा दोनों एकदूसरे से ऐसे झगड़ने लगते हैं जैसे अब वे एकदूसरे के साथ नहीं रह पाएंगे. लेकिन थोड़ी देर बाद वे फिर हंसनेबतियाने लगते हैं. अपने मांपापा का यह धूपछांही रंग उस की समझ में नहीं आता.
‘‘बात क्या हुई थी?’’
‘‘मां को एक लड़का पसंद आ गया और वे मेरे हाथ पीले करना चाहती हैं. लेकिन पापा चाहते हैं कि मैं कम से कम डिगरी तो ले लूं. लेकिन मां को डर है कि कहीं मैं भी तुम्हारी तरह प्रेमविवाह न कर लूं,’’ कहतेकहते आदर्श का चेहरा तमतमा आया.
उस ने आहत भाव से आदर्श को देखा.
‘‘कभीकभी लगता है, भैया, तुम ने अच्छा ही किया. तुम इस लड़ाईझगड़े से दूर रहे हो. ऐसा दिन नहीं बीतता जिस दिन खटपट न होती हो.’’
उस ने कोई जवाब नहीं दिया. सिर्फ मूकभाव से खिड़की से आसमान को देखने लगा. बाहर 2 बडे़बडे़ बादल आपस में टकराए. जोरों की गड़गड़ाहट हुई और मामूली सी झड़ी ने मूसलाधार बारिश का रूप ले लिया.
‘‘भैया, इस बार भी सुधा को नहीं लाए?’’
उस ने अचकचा कर आदर्श की ओर देखा.
‘‘क्या बात है, भैया, तुम आज कुछ उदासउदास से हो?’’
‘‘कुछ नहीं.’’
‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई. मां ने तुम्हें उपमा देने के लिए कहा था,’’ कह कर आदर्र्श चली गई.
जहां वह बैठा था, खिड़की से वहां तक बौछार आने लगी थी और वह उस हलकी सी फुहार से भीग कर एक सुखद झुरझुरी सी लेने लगा. सुधा से मुलाकात के प्रथम महीनों से भी वह ऐसी ही सुखद झुरझुरी से भर उठा था.
खंजन सी आंखें, चौड़ा चेहरा, दरमियाना कद, गोरीचिट्टी, हंसे तो हरसिंगार के फूल झड़ जाएं. किसी पार्टी में उस की एक झलक पा कर वह उसे पाने के लिए उन्मत्त सा हो उठा था. किसी तरह परिचय कर के उस ने उस से पहले दोस्ती की और फिर शादी करने का प्रस्ताव रख दिया था. लेकिन मां बौखला उठी थीं. जहर खा कर मरने की धमकी देने लगी थीं. पर वह अपने निर्णय से डिगा नहीं और पापा ने कह दिया था कि उस से संबंध जोड़ने से पहले तुम्हें हमारे साथ संबंध तोड़ना पड़ेगा. विवश हो उस ने कोर्टमैरिज कर ली थी. उस शादी में सिर्फ सुधा के मांबाप और रिश्तेदार शामिल हुए थे. उस के घर वालों की तरफ से कोई नहीं आया था. एक साल तक वह उन से अपनेआप को बेहद कटाकटा सा महसूस करता रहा था. फिर जब उसे निमोनिया हो गया था तो मां दौड़ीदौड़ी आईर् थीं और उस की तीमारदारी में लग गई थीं. उस के बाद हर इतवार को यहां आ कर दोपहर का भोजन करने का सिलसिला चालू हुआ था.
‘‘यह लो उपमा, मां ने तुम्हारे लिए ही बनाया है,’’ आदर्श ने उसे एक प्लेट देते हुए कहा.
उपमा खातेखाते उस ने पूछा, ‘‘हर्ष कहां गई है?’’
‘‘ट्यूशन पढ़ने.’’
‘‘और नवीन?’’
‘‘क्रिकेट मैच खेलने. मैं ने तो बहुत कहा कि बारिश के आसार हैं, मत जाओ. मगर वह माना ही नहीं.’’
वह धीरेधीरे उपमा खाने लगा. लेकिन लग रहा था जैसे वह दूर कहीं खोया हुआ है.
‘‘तुम खुश तो हो न, भैया?’’
‘‘हूं, क्यों, क्या बात है?’’
‘‘नहीं, यों ही पूछा.’’
उस ने अर्थभरी दृष्टि से देख कर पूछा, ‘‘तुम्हें सुधा तो नहीं मिली थी?’’
‘‘मिली तो थीं.’’
वह उठ कर व्यग्रभाव से टहलने लगा और बारबार आदर्श को जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से देखने लगा.
‘‘भैया, मैं ने तुम्हें परेशान कर दिया?’’
‘‘नहींनहीं, कुछ कह रही थी वह?’’
‘‘पहले तुम यह बताओ कि उस दिन क्या हुआ था?’’
‘‘किस दिन?’’ तपाक से उस ने पूछा.
‘‘जिस दिन तुम दोनों नवीनचंद्र के बेटे की शादी में गए थे.’’
‘‘यह तुम्हें किस ने बताया?’’
‘‘सुधा ने.’’
‘‘फिर तो सुधा ने तुम्हें सबकुछ बता दिया होगा?’’
‘‘सुधा ने जो कुछ बताया वह बाद में बताऊंगी. पहले तुम यह बताओ कि उस दिन क्या हुआ था?’’
‘‘उस दिन, हम दोनों सजधज कर नवीनचंद्र के बेटे की पार्टी में गए थे और हमें जिस युवक ने आइसक्रीम ला कर दी, सुधा उसी को एकटक देखने लगी. वैसे, वह युवक था भी स्मार्ट और गोराचिट्टा. उस की कालीकाली आंखें बेहद चमक रही थीं और उस के घने काले बाल देख कर ऐसा लगता था जैसे उस ने कनटोप पहन लिया हो,’’ कहतेकहते वह अचानक रुक गया. एक क्षण के बाद फिर बोला, ‘‘वह आइसक्रीम दे कर चला गया और हाल में दूसरों को आइसक्रीम देने लगा. लेकिन मैं ने गौर किया कि सुधा की नजरें बारबार उसी को ढूंढ़ रही हैं. जब वह दोबारा हमारे पास आइसक्रीम ले कर आया तो हम ने उसे मना कर दिया. लेकिन सुधा उस से एक और मांग बैठी. वह लेने चला गया.
‘‘मैं ने सुधा से पूछ लिया, ‘तुम इसे जानती हो?’’’
‘‘वह जैसे घबरा गई. ‘नहीं, नहीं तो.’
‘‘मैं ने सोचा, वाकई शायद नहीं जानती होगी और मैं अपने मित्र के साथ बातचीत करने लगा. वह भी अपनी सहेली के साथ गपें मारने लगी. इतने में वही युवक आइसक्रीम ले आया और सुधा की सहेली उसे देख कर जैसे चहक उठी, अरे, यह तो तेरा जीवन है.
‘‘युवक शायद परेशान हुआ. ‘आप कुछ लेंगी?’ उस ने सुधा की सहेली से पूछा. ‘मेरे लिए भी एक आइसक्रीम ला दीजिए.’ वह युवक चला गया.
‘‘‘सुधा, तू तो कहती थी कि…यह जीवन कहां से आ गया?’
‘‘मैं ने उन की बातचीत के यही टुकड़े सुने. मेरे अंदर कुछ दरक सा उठा. मैं सोचने लगा, न जाने आज तक सुधा कितने झूठ बोलती रही है मुझ से. मुझे कुछ भरभरा कर बहता हुआ सा महसूस हुआ. फिर भी मैं ने उस से कुछ नहीं कहा. सोचा, घर चल कर उस से पूछूंगा कि यह जीवन कौन है? कब से जानती है वह उसे? लेकिन घर पहुंचते ही मेरा विचार बदल गया और मैं ने सोचा कि देखें कब तक वह इस झूठ पर परदा डाले रखती है.
‘‘मेरे मन में एक ज्वालामुखी सा धधक रहा था और मैं उस के फटने की आशंका से चुप रह गया. अंदर ही अंदर घुटता रहा. लेकिन मैं ने कुछ नहीं कहा. 2 दिन संवादहीन स्थिति को जीते हुए बीत गए और ऐसा लगा जैसे हम दोनों के बीच शीशे की दीवार बन गईर् है. आखिर तीसरे दिन सुधा ने वह शीशे की दीवार तोड़ दी और मुझे ऐसा लगा जैसे कांच के अनगिनत टुकड़े मेरे सारे बदन में चुभ गए हैं.
‘‘सुधा ने मुझ से कहा, ‘तुम अंदर ही अंदर क्यों घुट रहे हो, यह मैं जानती हूं. चाहा था जिस बात पर परदा पड़ता आया है वह तुम्हें बताऊं ही नहीं, लेकिन अब बगैर बताए रह नहीं सकती. एक छोटे झूठ की वजह से हमारे बीच जो यह दरार सी पड़ गई है वह शायद मेरे सच बताने से पट जाए. वैसे, उम्मीद कम है. लेकिन फिर भी मैं आज सारी हकीकत बता देती हूं.
‘‘ ‘जिस ने मुझे आइसक्रीम दी थी वह जीवन नहीं, उस का भाई है. वह युवक भी हूबहू जीवन जैसा लगता है, वैसा ही स्मार्ट, गोराचिट्टा, चमकती आंखें और कनटोप जैसे घने काले बाल. जीवन मेरे साथ कालेज में पढ़ता था. उसे स्टेज का बहुत शौक था.
कालेज के हर ड्रामे में वह जरूर हिस्सा लेता था और मैं उस की थर्राती आवाज के जादू से सम्मोहित थी. जब भी उस का नाटक होता तब मैं सब से आगे जा कर बैठ जाती थी और नाटक खत्म होने के बाद सब से पहले उसे फूल भेंट कर उस के अभिनय व उस की थर्राती आवाज की प्रशंसा कि या करती थी.’
‘‘मुझे कुछ चुभ सा गया. मैं ने तड़प कर कहा, ‘ऐसा ही था तो उस से तुम ने शादी क्यों नहीं कर ली?’
‘‘उस ने बेलाग शब्दों में कहा, ‘शायद कर भी लेती, अगर डिगरी लेने जाते वक्त मोटरसाइकिल दुर्घटना में उस की मृत्यु न हो गई होती.’
‘जीवन जिंदा नहीं है?’
‘नहीं.’
‘यह बात तुम ने मुझे पहले क्यों नही बताई?’
‘‘उस ने कोई जवाब नहीं दिया. वह होंठ भींच कर दबे स्वर में सुबकने लगी. उस के पास जा कर न तो मैं ने उस की पीठ सहला कर उस के आंसू ही पोंछे और न सांत्वना के दो शब्द ही कहे. वह बैठी सुबकती रही और मैं बैठा सोचता रहा, ‘पिछले 8 सालों से यह औरत अपने पहले प्रेमी की थर्राती आवाज से सम्मोहित हो कर उस की स्मृतियां संजोए मेरे साथ जीने का नाटक करती रही है. यह मक्कार है. यह झूठी है. अब इस झूठ के साथ और मैं नहीं रह सकता.’’’
‘‘फिर?’’ आदर्श ने पूछा.
‘‘अगले दिन शनिवार था और हर शनिवार को वह मायके जाती थी. उस ने सवेरे ही पूछा ‘आज मैं मायके जाऊं?’
‘‘ ‘हां, हां,’ मैं ने कहा.
‘‘ ‘सिकंदराबाद से 2 दिनों के लिए आज मेरी बहन आ रही है. मैं 2 दिन मायके रह आऊं?’
‘‘ ‘जैसा तुम चाहो.’’’
‘‘और उस के बाद न वह आई और न तुम ने उसे बुलाया?’’ आदर्श ने पूछा.
उस ने जवाब नहीं दिया. परदा सरसराया. किसी की परछाई सी देख कर वह पूछ बैठा, ‘‘अंदर कोई है क्या?’’
‘‘कोई नहीं, हवा से परदा हिल गया होगा.’’
उस ने समझा शायद भ्रम हुआ होगा.
‘‘सुधा ने तुम्हें क्या बताया?’’
‘‘यह रक्षा कौन है?’’
‘‘रक्षा?’’ उस ने अचकचा कर पूछा और चकित भाव से आदर्श को देखा, ‘‘तुम्हें किस ने बताया?’’
‘‘सुधा ने.’’
‘‘फिर क्यों पूछती हो?’’
‘‘क्या यह सच है कि रक्षा की आंखें खंजन जैसी और चेहरा चौड़ा है. वह गोरीचिट्टी है और उस का कद दरमियाना है और वह जब हंसती थी तो हरसिंगार के फूल झड़ते थे.’’
‘‘हां.’’
‘‘और वह तुम्हारे साथ कालेज में पढ़ती थी और तुम उस से बेहद प्यार करते थे.’’
‘‘हांहां,’’ उस ने खीझ कर कहा.
‘‘और वह अपने मांबाप के साथ इंगलैंड चली गई?
‘‘यहां उन की दुकान नहीं चल रही थी, और उनकी आर्थिक स्थिति बेहद बिगड़ी हुई थी. वे लोग चुपचाप अपनी दुकान बेच कर इंगलैंड चले जाना चाहते थे, ताकि रक्षा के पिता को यहां किसी के यहां ताबेदारी न करनी पड़े.
‘‘और रक्षा तुम्हें यह आश्वासन दे कर चली गई थी कि वह तुम्हें इंगलैंड बुला लेगी और उस ने तुम्हें इंगलैंड बुला लेने के बजाय वहीं किसी यूरोपियन से ब्याह कर लिया और तुम बेहद टूट गए. तुम अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर सके और नौकरी कर ली. फिर एक पार्टी में अचानक सुधा की एक झलक पा कर तुम बेचैन हो उठे. उस का परिचय पा कर तुम ने उस से मेलजोल बढ़ा लिया और उस से शादी करने के लिए तुम तैयार हो गए. महज इसलिए कि सुधा की शक्ल कुछकुछ रक्षा से मिलती है. खंजन जैसी आंखें…’’
उस ने आदर्श की बात बीच में ही काट दी और बोला, ‘‘यह सब तुम्हें किस ने बताया?’’
‘‘सुधा ने.’’
‘‘लेकिन मैं ने तो उसे कभी कुछ नहीं बताया. उसे यह सब कैसे मालूम हुआ?’’ यह कहने के साथ वह उठ कर चहलकदमी करने लगा.
‘‘एक दिन घर की सफाई करते वक्त उसे तुम्हारे सारे खतोकिताबत, फोटो, डायरियां आदि मिल गई थीं.’’
‘‘फिर भी उस ने मुझ से कुछ नहीं पूछा?’’
लेकिन आदर्श अपनी ही रौ में कहती गई, ‘‘क्या यह सच नहीं है कि तुम ने सुधा को सुधा के रूप में नहीं, रक्षा के रूप में स्वीकारा था. उसे रक्षा के सांचे में ढालते रहे. रक्षा की तरह हलके शेड्स के कपड़ों में सजनेसंवरने के लिए उसे बाध्य करते रहे. पहले तो वह सोचती रही कि वह तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी कर रही है और उस का जीवन सार्थक हो गया है लेकिन तुम अतीत के एक कालखंड को फिर जीने के लिए लालायित थे. उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह मर रही है और उस में कोई दूसरा जी उठा है.’’
वह बैठ गया और आंखें नीची किए सिर्फ उंगलियां चटकाने लगा.
‘‘उस ने अंगरेजी में एक कहानी पढ़ी थी, जिस में एक पति, जो कलंदर था, अपनी पत्नी को रीछ की खाल ओढ़ा कर उस का खेल दिखा कर अपनी जीविका जुटाता है. उसे भी ऐसा ही लगा जैसे वह किसी दूसरे की खाल ओढ़ कर तुम्हारी पत्नी होने का अभिनय कर रही है.’’ आदर्श की बातें सुन कर वह अजीब सी झेंप से भर उठा. वह उठ कर खिड़की के पास चला गया. बारिश थम गई थी और बादल छंट चुके थे. आसमान धुले कपड़े की तरह साफ चमक रहा था. इतने में कोई आवाज सुन कर वह मुड़ा. आदर्श वहीं बैठी थी, ‘‘वह उलटी कौन कर रहा है?’’
‘‘शायद सुधा भाभी होंगी.’’
‘‘क्या, सुधा यहां आई हुई है, तुम ने पहले क्यों नहीं बताया?’’ वह बाथरूम की तरफ दौड़ा. बाथरूम के बाहर झुकी सुधा उलटी कर रही थी और मां उस की पीठ सहला रही थीं.
इतने में हड़बड़ाए हुए पापा आए, ‘‘अरे भई, क्या हुआ इसे? बेटा, डाक्टर को तो फोन करो.’’
मां बोली, ‘‘न बेटा, फोन मत करना. विकास के पापा, अब तुम दादा बनने वाले हो. मुंह मीठा करो…’’