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आत्महत्या भी दुर्घटना है, अपराध बोध न पाले परिजन

यह कहानी है राधिका की. 42 साल की राधिका 2 बच्चों की मां है. उस के पति निमेश की कोई बड़ी कमाई नहीं थी. पैत्रक घर में रहते थे. गांव में जमीन थी जिस पर खेती किसानी होती थी. वहां से कुछ पैसा आता था. पहले निमेश कुछ काम करता था. काम में जो पैसे मिलते थे उसे नशे में उड़ा देता था. घर में रखा जो पैसा था धीरेधीरे खत्म हो गया था. जमीन बेचने के बाद जो पैसा मिला था वह भी खत्म हो जाता था. घर की आर्थिक परेशानी को दूर करने के लिए राधिका ने खुद भी काम करना शुरू कर दिया था. इस से भी निमेश को दिक्कत होती थी.

जैसे-तैसे घर की गाड़ी चल रही थी. राधिका अपनी दोनों बेटियों के कालेज जाने की राह देख रही थी. दोनो बेटियां कालेज के हौस्टल में रहने लगी. राधिका किसी तरह से अपने मायके की मदद से दोनों बेटियों के कालेज का खर्च उठा रही थी. दीवाली की छुट्टी का समय था. दोनो बेटियां छुट्टी पर घर आई हुई थीं. एक दिन राधिका और निमेश में झगड़ा होने लगा. झगड़ा बढ़ा तो राधिका ने खुद को कमरे में बंद कर लिया. निमेश शराब पीने चला गया.

शाम को दोनों में कोई बात नहीं हुई. रात का खाना भी निमेश ने अलग कमरे में खाया. राधिका और उस की दोनों बेटियां एक कमरे सोने चली गईं. निमेश अपने कमरे मे चला गया. रात का करीब दो बजा था. राधिका की बेटी नेहा बाथरूम करने के लिए निकली तो उस ने जैसे ही बाथरूम के दरवाजे पर उसे अपने पिता निमेश की बौडी छत पर लगे जाल से लटकती दिखी. नेहा यह देख चीख पड़ी. उस की चीख सुन कर मां राधिका और बहन पूजा बाहर आई. वह भी यह देख कर चिखने चिल्लाने लगीं. कुछ देर तो तीनों को समझ ही नहीं आया कि क्या करें?

इस के बाद राधिका ने अपने रिश्तेदारों को फोन किया. वो आए फिर पुलिस को फोन किया. पुलिस के आतेआते सुबह का 7 बज गया था. पुलिस ने आ कर बौडी को उतारा. उस ने पूछताछ शुरू की. पुलिस को आया देख पड़ोस के लोग भी जुटने लगे. तब उन को पता चला कि निमेश ने रात में आत्महत्या कर ली है. निमेश के मातापिता जीवित नहीं थे. उन की बहन भाई को सूचना दी गई. वह आए फिर घर परिवार वालों ने तय किया कि पोस्टमार्टम कराने की जरूरत नहीं है. पुलिस ने पंचायतनामा भर कर निमेश का अंतिम संस्कार करा दिया.

शुरू हुई राधिका की मुसीबतें

पुलिस और निमेश के घर वालों को भले ही कोई दिक्कत नहीं थी. लेकिन राधिका के पड़ोसियों को दिक्कत थी. उन के पीठ पीछे कानाफूसी होने लगी. खासकर जब राधिका घर से निकलती थी उसे देख कर लोग चर्चा करते थे. लोग कहते अब आजाद हो गई है. पहले पति से झगड़ा होता था. अब आराम से रह रही है. राधिका की बेटियों को ले कर भी चर्चा होती थी. राधिका इस तरह की बातें सुन कर परेशान हो गई थी. भले ही कोई उस के मुंह पर नहीं कहता था लेकिन महल्ले में चर्चा होती थी. राधिका ने यह सोचा कि अब उसे अपने इस घर में नही रहना है. उस ने अपना सारा सामान एक कमरे में बंद कर दिया.

घर के बाकी कमरे किराए पर उठा दिए. वह खुद अपने घर से दूर किराए के घर में रहने लगी. आजकल शहरों में नएनए अर्पाटमेंट बन गए हैं. जहां अच्छेअच्छे फ्लैट कम किराए पर मिलने लगे हैं. राधिका जैसे न जाने कितने लोग हैं जो परिजनों की आत्महत्या के अपराध बोध में रहते हैं. एक सच को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं. आत्महत्या भी एक तरह की दुर्घटना है. जिस तरह से दुर्घटना के बाद घर की सारी परेशानियां घर के लोगों को उठानी पड़ती है उसी तरह से आत्महत्या के बाद भी घर की परेशानियां घर वालों को उठानी पड़ती है.

न छिपाएं आत्महत्या की वजहें

आत्महत्या और दुर्घटना को ले कर समाज, पड़ोसियों और रिश्तेदारों में अंतर आता है. दुर्घटना में समाज की सहानुभूति परिवार के साथ होती है. आत्महत्या में समाज और पड़ोस के लोग इस का कारण घर परिवार के लोगों को भी मान लेते हैं. कई बार घर के लोग आत्महत्या के कारणों को छिपाते हैं. जैसे किसी ने कर्ज ले रखा है इस कारण आत्महत्या कर ली. किसी के दूसरी महिला से संबंध होते हैं तो उस के खुलने के डर से आत्महत्या कर लेते हैं. पतिपत्नी में आर्थिक तंगी और दूसरे विवादों का कारण होता है. आत्महत्या के सही कारणों को छिपाया जाता है. इस के बाद भी अड़ोसपड़ोस से यह सब खुल कर आता है.

आत्महत्या को सब से पहले एक दुर्घटना माना जाना चाहिए. इस को ले कर कोई अपराध बोध परिजन अपने मन में न रखें. आत्महत्या की जो भी वजह हो उस पर समाज, पड़ोस और नाते रिश्तेदारों के साथ खुल कर बात करें. इस से इस को छिपाने से होने वाली तमाम परेशानियों से आप बच जाएंगे. जब सच परिजन ही बोल देगें तो बाहरी लोग कानाफूसी नहीं कर पाएंगे. ऐसे में घर परिवार छोड़ कर कहीं जाने या उस से बचने की जरूरत ही नहीं होगी.

आत्महत्या एक बीमारी है इस को रोकने के लिए मेंटल हैल्थ पर काम करना बेहद जरूरी है. जिस घर में आत्महत्या हो गई हो उस के परिजनों को अपराध बोध नहीं करना चाहिए. आत्महत्या की वजह छिपाने की जगह उसे सब से बात करनी चाहिए जिस से मन पर कोई बोझ न हो और उस को छिपाने के अतिरिक्त प्रयास न करने पड़े. आत्महत्या के बाद घर परिवार को वैसे ही संभालना पड़ता है जैसे दुर्घटना में किसी के मरने पर करना पड़ता है. दोनो में अपराध बोध का भाव आत्महत्या में रहता है. उसे नहीं पालना चाहिए. उसे भूल अपने परिवार के लोगों का ध्यान करना चाहिए. आत्महत्या को सोचसोच कर मन को व्यथित नहीं रखना चाहिए.

आत्महत्या की प्रमुख वजहें:

आंकडे बताते हैं पारिवारिक समस्याएं और बीमारी आत्महत्या की सब से बड़ी वजह होती है. 2023 में हुई कुल आत्महत्याओं (1,70,123) में पारिवारिक समस्या के कारण 32.4 प्रतिशत और बीमारी के कारण 17.1 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्या की. ड्रग्स की वजह से 5.6 प्रतिशत, विवाह संबंधी दिक्कतों के कारण 5.5 प्रतिशत, प्रेम प्रसंग की वजह से 4.5 फीसदी, दिवालियापन और कर्ज की वजह से 4.2 फीसदी, परीक्षा में फेल होने और बेरोजगारी की वजह से 2 प्रतिशत, प्रोफैशनल और कैरियर की दिक्कतों के कारण 1.2 प्रतिशत और प्रौपर्टी विवादों के कारण 1.1 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्या की.

दुनिया में आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं:

• विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल 700,000 से अधिक लोग पूरी दुनिया में आत्महत्या करते हैं.
• इन में से 75 फीसदी मौतें पुरुषों की होती हैं.
• 5 में से 1 व्यक्ति के मन में आत्महत्या के विचार आते हैं.
• 14 में से 1 व्यक्ति आत्मक्षति करता है.
• 15 में से 1 व्यक्ति आत्महत्या का प्रयास करता है.
• 45-49 वर्ष की आयु के पुरुषों में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है.
• 10 फीसदी युवा खुद को नुकसान पहुंचाते हैं.

महिलाएं कम करती हैं आत्महत्याएं

पुरुषों के मुकाबले महिलाएं कम आत्महत्या करती हैं. 2023 में 70.2 प्रतिशत पुरुषों ने और 29.8 फीसदी महिलाओं ने आत्महत्या की थी, जबकि 2018 में 68.5 फीसदी पुरुष और 31.5 फीसदी महिलाओं ने खुदकुशी की थी. महिलाओं की आत्महत्या की सब से बड़ी वजहों में विवाह संबंधी विवाद, खासकर दहेज से जुड़े मामले, नपुंसकता आदि हैं. महिलाओं में सब से अधिक आत्महत्या घरेलू महिलाओं ने की है. महिलाओं द्वारा की गई कुल खुदकुशी में 51.5 फीसदी गृहणियां रही है.

प्राइवेट सेक्टर वाले अधिक कर रहे आत्महत्या:

2023 में कुल आत्महत्या के मामलों में सरकारी नौकरी से जुड़े 1.2 फीसदी, प्राइवेट सेक्टर के 6.3 फीसदी, पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजिंग के 1.7 प्रतिशत लोगों ने खुदकुशी की. छात्रों और बेरोजगारों की खुदकुशी का प्रतिशत क्रमश 7.4 और 10.1 है. पुरुषों में सब से अधिक आत्महत्या रोजाना कमाई करने वालों (29,092), स्वरोजगार से जुड़े (14,319) और बेरोजगार लोगों (11,599) ने की.

 

जनता की मददगार है, राहुल-अखिलेश की जोड़ी

5 जुलाई को दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में सेना के शहीद अंशुमन सिंह को कीर्ति सम्मान दिया जा रहा था. उन की मां मंजू सिंह और पत्नी स्मृति सिंह यह सम्मान ले रही थी. बेटे को याद कर मां मंजू सिंह की आंखों में आंसू थे. राष्ट्रपति भवन में सत्ता और विपक्ष के सभी नेताओं के साथ नेता विपक्ष राहुल गांधी भी थे. राहुल ने शहीद अंशुमन की मां को ढांढस बंधाते कहा, ‘मैं आप के साथ हूं. आप मुझ से अपना दर्द कह सकती हैं.’ इस के बाद राहुल ने मंजू सिंह का नंबर लिया. मंजू सिंह अपने पति रवि प्रताप सिंह के साथ लखनऊ चली आई.

मंजू सिंह का अपनी बहू से विवाद था. इस से वह दुखी थी. 2 दिन बाद राहुल गांधी के औफिस से कौल आई. जिस में उन को राहुल गांधी ए मिलने के लिए बुलाया गया. मंजू सिंह ने कहा कि वह तो लखनऊ आ गई है. अब दिल्ली इतनी जल्दी पहुंच पाना मुश्किल है. तब राहुल के औफिस वालों ने बताया कि 2 दिन बाद राहुल गांधी रायबरेली जा रहे हैं तो आप लोग वहां मिल सकते हैं.

मंजू अपने पति के साथ रायबरेली गई. राहुल गांधी से मुलाकात हुई. मंजू सिंह और उन के पति रवि प्रताप ने अपनी मुश्किलों के बारे में बताया. राहुल ने जब मंजू की बात सुनी, कहा कि ‘वह सेना और रक्षा विभाग से बात करेंगे.’ राहुल गांधी के बात करने के बाद मीडिया में चर्चा शुरू हो गई. मंजू सिंह जो मुद्दा उठाना चाहती थी कि शहीद के पेरैंट्स के अधिकारों की रक्षा की जाए. वह उठ गया.

राहुल गांधी देश में प्रधानमंत्री के समान अधिकार वाले नेता हो गए हैं. नेता प्रतिपक्ष होने के नाते उन की बात को प्रशासन सुनने लगा है. अगर कहीं कोई परेशानी है और राहुल गांधी वहां खड़े हैं तो अब उन की बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है. इस से जनता को राहत मिलने लगी है. विपक्ष के रूप में राहुल जहां पहुंचते हैं सरकार को उन की बात सुननी पड़ती है. उत्तर प्रदेश के हाथरस में जब भगदड़ में 121 लोग मरे तो राहुल घटना स्थल तक गए. मुआवजे के लिए कहा. सरकार ने बात मानी.

पारपंरिक राजनीति को बदल रहे राहुल गांधी

एक तरह से देखें तो नेता विपक्ष भी सरकार का हिस्सा होता है. प्रशासन और मीडिया को उस की कही बात को सम्मान देना ही पड़ता है. इस से वह भी जनता की मदद करने की ताकत रखता है. राहुल गांधी ने पारपंरिक राजनीति को बदलने का काम किया है. इस वजह से भले ही कांग्रेस में वह अकेले दिखते हों पर वह अकेले नहीं हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ उन का गठबंधन है. 2017 में जब राहुल अखिलेश की जोड़ी विधान सभा चुनाव में उतरी तो उनको सफलता नहीं मिली.

इस के बाद राहुल अखिलेश की जोड़ी का मजाक उड़ाया गया. 2 लड़कों की जोड़ी को 2 शहजादों की जोड़ी कहा गया. अपनी आलोचना को भूल राहुल गांधी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में एक साथ चुनाव लड़ा. राहुल अखिलेश की जोड़ी ने भाजपा को 33 सीटों पर रोक दिया. सपा नम्बर एक की पार्टी बनी. काग्रेस ने भी आपेक्षा से अधिक सफलता हासिल कर ली. मुलायम सिंह यादव ने भले ही कांग्रेस के साथ कभी सीधा गठबंधन नहीं किया. अखिलेश और राहुल ने पारपंरिक राजनीति को छोड़ कर अलग रास्ता बनाया. अब यह जोड़ी उत्तर प्रदेश से बाहर मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में भी साथसाथ चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.

राहुल गांधी कहते हैं, ‘मैं जनता के साथ हूं. जहां मेरी जैसे जरूरत पड़ेगी मैं पीड़ित पक्ष के साथ खड़ा रहूंगा. मैं देश में नफरत वाली राजनीति जनता को हिंदूमुसलमान में बांटने वाली राजनीति को खत्म करूंगा. अपने साथ इसी तरह के लोगों को का गठबंधन होगा जो समाज को तोड़ने वाली व्यवस्था को खत्म करने में सहयोग करेंगे’.

जिस तरह से राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के साथ हैं उसी तरह से वह बिहार में तेजस्वी यादव के साथ हैं. केरल में पी. विजयन और तमिलनाडू में एमके स्टालिन राहुल गांधी में आपसी संबंध अच्छे हैं. पश्चिम बंगाल में भले ही टीएमसी नेता ममता बनर्जी कई बार कांग्रेस को झटका दे रही हों पर राहुल गांधी के साथ उन के संबंध मधुर हैं. राहुल गांधी अपनी टीम के साथ पूरे देश में समाज के बीच सहयोग और सम्मान का पुल बनाने का काम कर रहे हैं.

दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की राजनीति किसी तरह की विचारधारा वाली नहीं है. ऐसे में उन का अपना वोटबैंक नहीं है. वह विकल्प के रूप में कई बार चुनाव जीत जाते हैं. राजनीति में वह लंबी रेस का घोड़ा नहीं है. ऐसे में राहुल गांधी उन के साथ अपनी राजनीति को जोड़ नहीं पा रहे हैं. राहुल गांधी की सब से बड़ी कमजोरी यह है कि जहां कांग्रेस और भाजपा आमनेसामने है जैसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमांचल और छत्तीसगढ़ वहां वह कमजोर पड़ जा रहे हैं.

खत्म होगी बुलडोजर और बंदूक की राजनीति

अखिलेश और राहुल की जोड़ी का ही कमाल है कि अब उत्तर प्रदेश में बुलडोजर और बंदूक की राजनीति नहीं चलेगी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जनता की बात सुननी पड़ेगी. उन का तानाशाही फरमान नहीं चलेगा. इस का प्रभाव दिखने भी लगा है. प्रदेश की राजधानी लखनऊ में लोकसभा चुनाव के पहले अकबर नगर तोड़ दिया गया. कुकरैल नाले पर रिवर फ्रंट बनाने के लिए सरकार ने इस अवैध बस्ती को गिरा दिया. यहां पक्के घर थे. इन घरों में रहने वालों के पास राशन कार्ड, बिजली बिल, वोटर कार्ड सब थे. कोर्ट के आदेश का सहारा ले कर यह काम किया गया.

अवैध बस्ती के दूसरे हिस्से को तोड़ने की बारी आई तब तक चुनाव परिणाम आ चुके थे. जैसे ही इस बस्ती के रहने वालों ने विरोध किया यूपी सरकार ने बुलडोजर की कार्रवाई रोक दी. इस से बस्ती में सालोंसाल से रह रहे लोगों को राहत मिल गई. अपराधियों के एनकांउटर की घटनाएं अब नहीं हो रही हैं. उत्तर प्रदेश से सरकारी शिक्षकों ने डिजिटल अटेंडेंस के खिलाफ मुहिम चलाई तो सरकार ने जिद नहीं की. 2 माह के लिए इस आदेश पर रोक लगा दी.

इस की सब से बड़ी वजह उत्तर प्रदेश में 10 विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. इन में से 3 भाजपा जीती थी. 2 उस के सहयोगी दलों ने. 5 सीटें समाजवादी पार्टी के पास थीं. अब भाजपा के लिए इन सीटों को जीतना कड़ी चुनौती है. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी यह चुनाव मिल कर लड़ रहे हैं. राहुल और अखिलेश की जोड़ी एक बार फिर भाजपा के सामने खड़ी है. अगर इस उप चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन खराब रहता है तो योगी सरकार संकट में फंसेगी. मुख्यमंत्री की कुर्सी भी हिल सकती है.

भाजपा संगठन में भी बदलाव हो सकता है. अखिलेश यादव ने भाजपा को मानसून औफर देते कहा है कि ‘100 लाओ सरकार बनाओ.’ अखिलेश का यह औफर उपचुनाव के बाद ही लागू हो सकता है. राहुल और अखिलेश की जोड़ी 2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद बेहद ताकतवर हो गई है. वह जनता की परेशानियों को समझ कर सरकार को उस दिशा में सोचने को मजबूर कर सकते हैं. इस से जनता को लाभ होगा. सरकार मनमाने फैसले करने से बचेगी. उसे लगेगा कि विपक्ष के एतराज के बाद आदेश वापस लेने से अच्छा है कि सही आदेश हो. यह जनता के हित में रहेगा.

मैं अपनी पत्नी के साथ 15-20 दिन में एक ही बार सेक्स कर पाता हूं. क्या वे मुझसे सैटिस्फाई हो पाती होगी ?

सवाल-

मैं अपने काम के सिलसिमे में ज्यादातर घर से बाहर ही रहता हूं और इस कारण मैं अपनी पत्नी से भी बहुत कम ही मिल पाता हूं. मैं मुश्किल से 15-20 दिनों बाद घर आता हूं और वो भी बस एक रात के लिए. 15-20 दिनों में मैं अपनी पत्नी के साथ केवल एक ही बार सेक्स कर पाता हूं तो क्या वे मुझसे सैटिस्फाई हो पाती होगी ? मुझे डर है कि वे मेरे पीठ पीछे अपनी सेक्स डि़ज़ायर मिटाने के लिए किसी और के साथ संबंध ना बना ले.

जवाब-

हर इंसान की अपनी सेक्स डिज़ायर्स और फैंटेसीज़ होती हैं फिर चाहे वे लड़का हो या लड़की. आज के वक्त में हर किसी के पास स्मार्ट फोन है और हर स्मार्ट फोन में वीडियो कौलिंग की सुविधा अप्लब्ध है. हमारी युवा पीढ़ी जिनकी शादी नहीं हुई है वे अपने ब्वायफ्रेंड या गर्लफ्रेंड के साथ वीडियो कौलिंग पर बात करना पसंद करते हैं और सिर्फ बात ही नहीं वे एक दूसके के साथ सेक्स चैट एवं वीडियो कौलिंग के द्वारा एक दूसरे को खुश करते हैं.

मुझे ऐसा लगता है कि आपको भी अपनी पत्नी के साथ सैक्स चैट करते रहना चाहिए और समय समय पर वीडियो कौलिंग कर एक दूसरे के साथ सैक्सी बातें करनी चाहिए. ऐसे में आप दोनों एक दूसरे से कनैक्टिड रहेंगे और आपकी पत्नी के मन में किसी और के लिए कोई गलत विचार नहीं आएंगे.

आप कोशिश कीजिए की आप अपनी पत्नी के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएं. आप कोई ऐसा काम देख लिजीए जिससे आप काम के साथ साथ घर में भी रह पाएं. अगर किसी कारण से आप कोई और काम नहीं कर पा रहे हैं और आपको ऐसे 15-20 दिनों के बाद ही घर आना पड़ रहा है तो ऐसे में आपको वर्चु्अल सैक्स ज़रूर करना चाहिए.

मेरी पत्नी बेहद रंगीन मिजाज की है और मेरे दोस्तों से हाथों में हाथ डाल कर बातें करती है. मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल-

मेरी शादी को 2 साल हुए हैं और मैं एक मल्टीनेशनल कंपनी में जौब करता हूं. अक्सर मेरे दोस्ट वीकेंड पर मेरे घर पार्टी करने आते हैं. ऐसे में मैंने अपनी पत्नी को कई बार समझाया कि वे ज्यादा मेरे दोस्तों के साथ ना बैठा करे पर वे मेरी एक नहीं सुनती. मेरे सामने ही मेरे दोस्तों से हंसी मज़ाक करती है और कभी उनके हाथ से हाथ मिला कर बात करती है. कई बार तो वे मेरे दोस्तों को आते और जाते टाईम हग भी कर देती है. मैंने यह सब देख उसे काफी बार समझाया और गुस्सा भी किया पर वे मानने को तैय्यार ही नहीं है. ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

आपकी पत्नी रंगीन मिजाज की नहीं बल्कि खुले विचारों वाली लड़की है. अगर वे आपके सामने यह सब कर रही है को आपको चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए. आपको इस बात की खुशी होनी चाहिए कि उनके दिल और दिमाग में किसी तरह के गलत विचार नहीं है तभी वे यह सब आपके सामने कर रही हैं वरना अगर उनके दिमाग में किसी तरह के गलत विचार होते तो वे यह सब आपसे छिप कर करती.

आप एक पुरूष हैं और पुरूषों के मन में ऐेसे विचार आना स्वभाविक है क्योंकि ज्यादातर पुरूष चाहते हैं कि उनकी पत्नी किसी से ज्यादा बात ना करें और सिर्फ ज़रूरत के वक्त ही अपने कमरे से बाहर आए. आपको यह समझना होगा कि आज कल ज़माना बदल गया है. आज हर लड़की को आज़ादी चाहिए और वे किसी की गुलाम बन कर रहना पसंद नहीं करती.

आपको उनका पती बनने से पहले एक अच्छा दोस्त बनना चाहिए और उनके विचारों की कदर करनी चाहिए. अगर आप ऐसा करेंगे तो वे भी कभी अपनी मर्यादा नहीं भूलेंगी क्योंकि हर लड़की को अपनी लिमिट अच्छे से पता होती है तो आपको उनका मान्सिक रूप से साथ देना चाहिए और एक अच्छा दोस्त बन कर उनके विचारों की कदर करनी चाहिए.

फौजी के फोल्डर से

कैप्टन राघव सर्जिकल स्ट्राइक को ले कर टैलीविजन पर चल रही बहस और श्रेय लेने की होड़ से ऊब कर, अपना लैपटौप खोल कर बैठ गए. महीनेभर की भागादौड़ी से फुरसत पा कर, आज यह शाम का समय मिला है कि वे कुछ अपने मन की करें. उड़ी आतंकवादी घटना के बाद से ही मन विचलित हो गया था. मगर यह पूरा माह अत्यंत व्यस्त था, इसलिए जागते समय तो नहीं, किंतु सोते समय अवश्य उन मित्रों के चेहरे नजरों के सामने तैरने लगते थे जो इस साल आतंकियों से लोहा लेते शहीद हो गए थे. आज वे लैपटौप में उस पिक्चर फोल्डर को खोल कर बैठ गए जो उन्होंने एनडीए में ट्रेनिंग के दौरान फोटोग्राफर से लिया था. उस फोटोग्राफर को भी केवल खास मौकों पर अंदर आ कर फोटो लेने की इजाजत मिलती थी, वरना वहां कैमरा और मोबाइल रखने की किसी भी कैडेट को इजाजत नहीं थी.

12वीं की परीक्षा के बाद जहां उस के सहपाठी इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेज के परिणामों का इंतजार कर रहे थे वहीं वह बेसब्री से एनडीए के परिणाम का इंतजार कर रहा था. हालांकि मां की खुशी के लिए यूपीटीयू के अलावा उस ने और भी अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं भी दी थीं मगर इंतजार एनडीए के परिणाम का ही था. यदि लिखित में पास हो गया तो फिर एसएसबी (साक्षात्कार) के लिए तो वह जीजान लगा देगा.

मां को तो पूरा विश्वास था कि वह इस में पास नहीं हो सकता, इसलिए उन्होंने उस परीक्षा को एक बार में ही पास करने की शर्त रख दी थी. उस दिन नीमा मौसी ने मां से बोला भी था, ‘तुम अपने इकलौते बेटे के सेना में जाने से रोकती क्यों नहीं?’ और मां ने कहा, ‘अरे, परीक्षा दे कर उसे अपना शौक पूरा कर लेने दो. परीक्षा में लाखों बच्चे बैठते हैं, लेकिन सिलैक्शन तो 3-4 सौ का ही हो पाता है. कौन सा इस का हो ही जाएगा. मैं तो यही सोच कर खुश हूं कि इसे ही लक्ष्य मान परीक्षा की तैयारियां तो करता है वरना यह भी सड़क पर अन्य नवयुवकों के संग बाइक ले कर स्टंट करता घूमता.’

मौसी चुप हो गईं. मां व मौसी की ये बातें सुन कर मैं जीजान से तैयारी में जुट गया कि कहीं पहली बार में पास नहीं कर पाया तो फिर मां को बहाना मिल जाएगा सेना में न भेजने का. मां हमेशा फुसलातीं, ‘बेटा, सरकारी इंजीनियरिंग कालेज न मिले तो कोई बात नहीं, तुम यहीं लखनऊ के ही किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में ऐडमिशन ले लेना, घर से ही आनाजाना हो जाएगा.’ मैं कहता, ‘मां, मुझे इंजीनियरिंग करनी ही नहीं, आप समझती क्यों नहीं.’

सोमेश भी तो यही कहता था. यहां आने वाले हर दूसरे कैडेट की यही कहानी है. किस की मां अपने कलेजे के टुकड़े को गोलियों की बौछार के आगे खड़ा कर खुश होगी. सोमेश तो अपने मातापिता की इकलौती औलाद था. उस की मां तो एनडीए में ऐडमिशन के समय साथ ही आई थी. एक हफ्ते पुणे में रुकी रही कि शायद सोमेश का मन बदल जाए तो वे उसे अपने साथ ले कर वापस लौट जाएंगी. भले ही अब जुर्माना भी क्यों न भरना पड़े पर सोमेश न लौटा और उस की मां ही लौट गईं. उस दिन वे कितना रो रही थीं, शायद उन के मन को आभास हो गया था.

मैं और सोमेश एक ही हाउस में थे. शुरू के 3 महीने तो सब से कठिन समय था. कब आधी रात को दौड़ना पड़ जाए, कब तपतपाती गरमी में सड़क पर बदन को रोल करना पड़ जाए, कब दसियों बार रस्सी पर अपडाउन करने का फरमान आ जाए और कब किस समय कौन सा कानून भंग हो जाए, पता ही नहीं चलता था. मगर सजा देने वाले सीनियर के पास पूरा हिसाब रहता और उस सीनियर को सजा देने का हक उस के सीनियर का रहता. हर 6 महीने में एक नया बैच जौइन करता और उसी के साथ अगला बैच सीनियर बन जाता और सब से पुराना बैच, 3 साल पूरे कर पासिंगआउट परेड कर रवाना हो जाता आर्मी गु्रप आइएमए उत्तराखंड के देहरादून में, नेवी ग्रुप अलगअलग अपने जहाज में और एयरफोर्स ग्रुप एयरफोर्स एकेडमी, बेंगलुरु में. बस, यहीं से सभी कैडेट जैंटलमैन में बदल अपनी अलग औफिसर ट्रेनिंग के लिए एकदूसरे से विदा लेते.

प्रवेश के प्रांरभिक 3 महीने सब से कठिन होते. उस समय में जो कैडेट एनडीए में टिक गया, वह फिर जिंदगीभर अपने कदम पीछे नहीं कर सकता. मां की सहेली का भाईर् यहां से महीनेभर में ही वापस चला गया था. तभी से उन के मन में एक भयंकर तसवीर बन गई थी, उसी कठोर प्रशिक्षण के बारे में सुन कर ही वे मुझे यहां नहीं भेजना चाहती थीं. पर वैसे भी, किस की मां खुशीखुशी भेजती है.

सोमेश ने बताया था कि जब वह पहले सैमेस्टर के बाद घर गया तो मां के सामने शर्ट नहीं उतारता था कि वे कहीं पीठ पर बने निशान न देख लें जो डामर रोड पर रोलिंग करने से बन गए थे, वरना वे फिर से हायतौबा मचा कर मुझे वापस ही न आने देतीं. यही हाल मेरी मां का भी था. हर वक्त यही कहती थीं, ‘कितना चुप रहने लगा है, कुछ बताता क्यों नहीं वहां की बात. पहले तो बहुत बोलता था, अब क्या हुआ?’ क्या बोलता मैं, अगर यहां की कठिन दिनचर्या बताता तो फिर वे मुझे भूल कर भी वापस न आने देतीं.

बहन सुनीति बोली थी, ‘मैं ने सुना, 3 साल में आप को वहां से जेएनयू की डिगरी मिलेगी,’

‘हां, तो,’ मैं ने लापरवाही से कहा.

‘वाह, पुणे में रहते हुए, आप को जेएनयू की डिगरी मिल जाएगी, दिल्ली भी जाना नहीं पड़ेगा,’ सुनीति चहकी थी.

‘हां, हम जेएनयू नहीं, बल्कि जेएनयू हमारे पास आएगा,’ मैं ने उसे चिढ़ाया था.

‘अजी, मजे हैं आप के भाई,’ सुनीति बोली.

‘तू भी आ जा, तुझे भी मिल जाएगी,’ मैं ने कहा.

‘न भाई न, मेरे अंदर इतना स्टैमिना नहीं है कि मैं मीलों दौड़ लगाऊं. वह भी पीठ पर वजन लाद कर. न सोने का ठिकाना, न खाने का. इस के बजाय मैं अपनी डिगरी मौज काटते हुए ले लूंगी. आप की तरह मुझे अपने शरीर को कष्ट नहीं देना. इस से कई गुना मस्त हमारी यूनिवर्सिटी है जहां सालभर नारेबाजी, धरना, प्रदर्शन और फैशन परेड ही चलती रहती है.’

बहन और भाई के रिश्ते में प्यार है, तकरार भी. एक को कुछ कष्ट हो तो  दूसरे को बरदाश्त नहीं हो पाता. वह मेरी कठिन ट्रेनिंग से हमेशा विचलित हो जाती. जब मैं ने उस से कहा, ‘अब मैं कमांडो ट्रेनिंग पर भी जाऊंगा,’ तो गुस्सा हो गई. ‘क्या जरूरत है इतनी कठिन ट्रेनिंग पर जाने की, आप शांति से अपनी जौब करते रहो, अब और कहीं जाने की जरूरत नहीं.’

शुरुआत में सोमेश तो फिर भी बहुत स्ट्रौंग था पर मोहित अकसर उदास हो जाता था. उस की स्थिति डावांडोल होने लगी थी. एक दिन कहता, ‘घर जाना है’ तो दूसरे ही दिन, ‘यहीं रहना है,’ का राग अलापता. सोमेश उसे समझाबुझा कर मना ही लेता. फिर तो हम तीनों की बहुत अच्छी जमने लगी थी. मोहित हमारा जूनियर था, मगर मौका पा हमारे रूम में झांक ही जाता, ‘सर, कुछ लाना तो नहीं, मैं कैंटीन जा रहा हूं?’

एक दिन आ कर बोला, ‘सर, आप की राखी आ गई?’

‘नहीं, अभी तो बहुत दिन हैं राखी आने के, आ जाएगी, क्यों परेशान हो?’

‘मेरी बहन ने, जब से राखी पोस्ट की है तभी से मां के पीछे पड़ी है, भैया से पूछो न, कैसी लगी? आप तो जानते हैं एक संडे ही मिलता हैं फोन करने को, ऊपर से इतनी लंबी लाइन रहती है कि 4-5 मिनट से ज्यादा बात ही नहीं हो सकती. इसलिए सोचा कि आप की आ गई होगी तो हमारी डाक भी आ ही गई होगी. जाऊं डाक का पता कर के आ जाऊं?’

‘आज शुक्रवार है. अगर शाम तक मिल गई तो ठीक, वरना संडे को मीतू से कह देना कि राखी मिल गई, बहुत सुंदर है. तुम्हारी बहन तो अभी छोटी है. यही 10-11 साल की होगी. है न? उसे फुसलाना आसान है. मगर मेरी बहन तो मुझ से केवल 2 साल छोटी है और मुझे ही चरा देती है. पिछले साल मैं ने यही बोला था तो कहने लगी, लिफाफे का कलर बताओ, राखी पर क्या लिखा है, बताओ?’ बड़ी मुश्किल से मैं ने फोन की लंबी लाइन का बहाना बना मां को फोन देने को कहा था.

‘हां सर, ये बहनों की आदत होती है. हर बात की उन्हें पूरी डिटेल चाहिए’ मोहित और मैं दोनों ही हंस पड़े थे.

‘किस बात पर हंस रहे हो दोनों?,’ सोमेश ने कमरे में प्रवेश कर पूछा था,

‘यहां बहनों की आदतों पर चर्चा हो रही है.’

‘मेरी तो कोई भी बहन है नहीं, और न ही कोई भाई. तभी तो मां पूरे समय मेरी ही चिंता करती रहती हैं, यदि होती तो वे अपना ध्यान उन की तरफ कर लेतीं. वे तो हर समय खड़कवासला आने को, मेरा मतलब यहां आने को तैयार बैठी रहती हैं. वे तो पापा मना करते हैं कि 6 महीने में घर तो आ ही जाता है, वहां जा कर क्या करोगी? सिवा उसे डिस्टर्ब करने के, तो पता है क्या कहती हैं?’

‘क्या?’

‘यही, कि पता नहीं वहां कैसे रहता है. मनपसंद खाने को मिलता भी है कि नहीं. मैं ढेर सारा सूखा नाश्ता बना कर ले चलूंगी. उसे मेरे हाथ के बेसन की पिन्नियां बहुत पसंद हैं. वहां उस का रूम भी देखूंगी कि कैसे रहता है. पापा ने समझाबुझा कर रखा है कि अभी इतनी दूर पंजाब से जाओगी, 1-2 घंटे से ज्यादा अंदर रह भी नहीं पाओगी और वह हमारे साथ भी नहीं आ सकता. फिर क्या करोगी जा कर? मगर मां, हर 15-20 दिनों बाद अपनी तैयारियां शुरू कर देती हैं और रोधो कर शांत बैठ जाती हैं.’

‘यह हाल तो मेरी बहन का है. अभी मेरी पासिंगआउट परेड के 2 साल बाकी हैं मगर मेरी बहन की रोज ड्रैस फाइनल हो जाती है कि मुझे यह पहनना है तो कभी वह पहनना है. पापा कहते हैं भाई की परेड होगी या तेरी?’ मोहित की बात सुन दोनों हंस पड़े.

‘अरे भाई, हम दोनों की तो 4 महीने बाद ही पासिंगआउट परेड है. सोच रहा हूं, इस वीकैंड पुणे से एक बढि़या कैमरा खरीद लूं. जातेजाते कुछ यादगार रिकौर्डिंग और फोटो तो सहेज ही लूं. जब अपनी परेड होगी तो बहन को पकड़ा दूंगा वह पूरी रिकौर्डिंग कर ही देगी,’ राघव ने अपना प्लान बताया.

‘सर, आप लोग तो सीनियरमोस्ट बैच के हो, आप तो कैमरा रख सकते हैं. सर, मेरे भी कुछ फोटो खींच लीजिएगा और मुझे मेल कर दीजिएगा. वैसे भी सर, आप को ही सब से ज्यादा फोटोग्राफी का शौक है. आप ही हर बार फोटोग्राफर से सब से ज्यादा फोटो खरीदते हैं,’ मोहित ने कहा.

‘हां, मेरी बहन भी चिढ़ाती हुए कहती है कि भाईर् की उंगली भी अगर किसी फोटो में दिख जाए तो वे फोटो खरीद लेंगे. हर 6 महीने में इतनी फोटो जमा कर लेता हूं कि अब तक 200 फोटो तो हो ही गई होंगी. अभी मां से कैमरे के लिए पूछूंगा तो कहेंगी, घर में कैमरा है तो हम वही ले आएंगे. मगर मुझे उस पुराने कैमरे से नहीं, बल्कि लेटैस्ट मौडल के कैमरे से फोटो खींचनी है, आखिर 15 यादगार दिनों की फोटो जो सहेज कर रखनी हैं,’ राघव बोला.

‘ठीक कह रहा है यार, तेरे कैमरे से ही फोटो खीच लेंगे. बाद में तू छांट कर अच्छी वाली मेल कर देना हम सब को,’ सोमेश बोला.

‘ठीक है, यार.’

अब फोटो ही तो बची हैं केवल. मोहित और सोमेश दोनों ही शहीद हो चुके हैं. अपने फोल्डर को खोल कर राघव सोचने लगा. उस की पहली पोस्टिंग उड़ी में हुई थी. मोहित और सोमेश की भी पहली पोस्टिंग बौर्डर की थी. वे लगातार आतंकवादी हमले और सीजफायर उल्लंघन झेलते रहे. उन की शहादत पर वह फड़फड़ा कर रह गया था. दोनों को ताबूत में विदा कर कितना रोया था. यह साथ इतना छोटा होगा, उसे अंदाजा नहीं था. मौत यहां हरपल मंडराती रहती है. कब उस पार से बरसे मोर्टार्स किस का खून पिएंगे, कुछ पता नहीं चलता.

यहां तो नहीं, हां, देहरादून में कितने शौक से उस ने अपनी पासिंगआउट परेड के लिए कैमरा भी खरीदा और खूब रिकौर्डिंग भी की और अपनी बहन महिमा को यह कह कर पकड़ा दिया था, ‘इस का 4 जीबी मैमोरी कार्ड भर गया है. इसे संभाल कर रखना और इस 8 जीबी के नए मैमोरी कार्ड से अपनी फोटो खींचना. दोनों कार्ड की फोटो अलग भी रहेंगी और सुरक्षित भी.’ मगर उस ने वह मैमोरी कार्ड ही कहीं गुम कर दिया. आईएमए देहरादून की सारी फोटो चली गईं. लखनऊ पहुंच कर जब उसे पता चला कि मैमोरी कार्ड ही खो दिया महिमा ने, तो लगातार 2 दिनों तक अपनी बहन पर चिल्लाता रहा था और उस बेचारी की रोरो कर आंखें सूज गईं. फिर तो मां बहन के पक्ष में आ गईं.

‘क्या आफत हो गई है. कल से तेरा ड्रामा चल रहा है, क्या हो गया? अगर मैमोरी कार्ड खो भी गया तो क्या हो गया,’ मां गुस्से में बोली.

‘अरे मम्मी, मैं ने कैमरा खरीदा ही इसलिए था कि मैं अपनी परेड, अपने साथियों और सब से महत्त्वपूर्ण वह यादगार पल जब आप और पापा ने मेरे कंधे पर लैफ्टिनैंट के स्टार लगाए, की फोटो खींच सकूं. वे सभी फोटो महिमा की लापरवाही से चले गए.’

‘ठीक है. एक बार बोला, दो बार बोला और कितनी बार कहेगा उसे? उसे भी तो अपनी गलती पता है. माफी भी मांग चुकी है और तू है कि चिल्लाता ही जा रहा है.’

‘पर उस ने ऐसा कैसे किया. मैं ने सिर्फ और सिर्फ इसी समारोह के लिए कैमरा लिया था और उस ने सब बेकार कर दिया. अब दोबारा यह समय तो नहीं आएगा. मैं ने सोचा था जब आप लोग मेरे कंधे पर स्टार लगाओगे तो उस फोटो को मैं फ्रेम करवा कर ड्राइंगरूम में सजाऊंगा, मगर इस की गलती से सब बेकार हो गया.’

‘क्या बेकार हुआ बता. जा, तू अभी अपनी वरदी पहन. महिमा, तू पापा को बुला कर ला. हम अभी तेरे कंधे पर स्टार लगाते हुए तेरे साथ फोटो खिंचवा लेते हैं. अभी हम जिंदा ही हैं, मरे नहीं, कि दोबारा फोटो न खींच सकें.’

कितना सही कहा था मां ने. जब तक जीवन है, उम्मीद नहीं मरती. मगर जो चले गए इस जीवन से, उन के मातापिता की उम्मीदों का क्या? वे क्या उम्मीद रखें और किस से रखें? आजकल हर कोई अपनी बयानबाजी में जुट कर रोज ही अखबारों व टैलीविजन पर सुर्खियां बटोरने में लगा है. कोई कहता है किस ने इन्हें फौज जौइन करने को कहा था? तो कोई कुछ और.

किसी को आर्मी जौइन करने को कह कर तो देखो, तब पता चल जाएगा. किसी दूसरे के कहने से तो कोई जा भी नहीं सकता. हम अपने देशप्रेम के जज्बे के चलते मरमिटने के लिए ही वरदी पहनते हैं. भले ही हमारे परिवार की सहमति हो या न हो. वे हमें भेजना नहीं चाहते हों, मगर हमारी जिद से उन्हें झुकना भी पड़ता है और शहीद हो जाने का दर्द भी उन्हें ही झेलना होता है. और ये रातदिन बकवास करने वालों का क्या जाता है. अपनी राजनीति चमकाते रहने के अलावा सीखा ही क्या है? क्या वे मोहित की बहन के न सूखने वाले आंसुओं को समेट उन के भाई या बेटे की जिम्मेदारी निभाने जाएंगे? जब ऐसा कुछ भी कर नहीं सकते तो उन के घावों को कुरेदते क्यों हैं?

एक फोटो पर अचानक नजर पड़ते ही राघव अतीत की यादों से बाहर आ गया. उस की उंगलियां आगे बढ़ने से रूक गईं. महिमा के केक काटने की फोटो थी. अरे, इसी महीने तो महिमा का जन्मदिन पड़ता है. ओह, वह तो सब भूल ही गया था. यहां नैटवर्क भी बहुत कमजोर है. कभी फोन लगता है, कभी नहीं. चलो, अभी मिला कर देखता हूं, मिल गया तो ऐडवांस में ही बधाईर् दे दूंगा.

फोन एक बार में ही मिल गया. तो राघव का मुंह खिल गया, मानो कोई गड़ा हुआ खजाना हाथ लग गया हो.

‘‘हैलो मां, प्रणाम, कैसी हैं आप?’’

‘‘खुश रहो बेटा,’’ आज कितनो दिनों के बाद आवाज सुनने को मिल रही है.’’

‘‘मां, जल्दी से महिमा को फोन दो… हैप्पी बर्थडे टू यू, हैप्पी बर्थ टू डिअर सिस, हैप्पी बर्थडे टू महिमा, हैप्पी…’’

‘‘बस, कर भाई. आज मेरा जन्मदिन नहीं है और तुम्हें उसी दिन ही फोन करना होगा. मैं आज की कौल को नहीं मानती.’’

‘‘अरे, मेरी बात तो सुनो…’’ फोन कट गया. राघव ने फिर कई बार फोन लगाने की कोशिश की मगर फोन नहीं लगा.

राघव फिर अतीत में खो गया. मेरी आवाज तो मेरे घर वालों ने सुन ही ली. फोन की समस्या के चलते घर वाले मेरा फोन हमेशा लाउडस्पीकर पर लगा कर ही बातचीत करते हैं पर क्या मोहित की बहन उस की आवाज कभी सुन पाएगी? और सोमेश की मां, क्या वे अपने इकलौते बेटे की आवाज सुनने का इंतजार अपनी बेबसी के आंसुओं में डूब कर न करती होंगी?

क्या करूं? कभी सोचता हूं मैं ही कुछ बात कर लूं उन के परिवारों से. मगर फिर सोचता हूं, कहीं उन के घाव मेरी आवाज सुन कर हरे न हो जाएं. इस से अच्छा छुट्टियों में उन के घर ही हो कर आऊंगा. मगर अभी तो सारी छुट्टियां ही कैंसिल हो गई हैं. ओह, छुट्टियों से याद आया कि कल हवलदार लोकेश सिंह का जन्मदिन था और वह कैसे अपने घर वालों को फोन पर मना रहा था.

‘अरे मां, मेरी तरफ से सब को आज ही पार्टी दे दो जन्मदिन की. जब छुट्टियों में घर आऊंगा तो फिर एक बढि़या पार्टी करूंगा. मेरे बच्चों को भी स्कूल के लिए टौफियां, चौकलेट दिला देना. और हां मां, छुटकी जब ससुराल से घर आए तो इस बार उसे एक अंगूठी दिलवा देना. मैं रुपए भेज रहा हूं. हर बार यही कहती है फोन पर कि, भतीजेभतीजी दोनों हो गए पर मुझे क्या मिला. और मां, बापू को शहर ले जा कर जांच करवा देना. बिन्नी कह रही हैं कि बापू की खांसी 2 महीने से बराबर बनी हुई है…’ न जाने कितनी बकबक करे जा रहा था आखिर में एक साथी ने बोल ही दिया, ‘अरे, बस कर. सारी कथा आज ही बांच लेगा क्या?’ एक सम्मिलित ठहाके के साथ सब अपने गमों को छिपा ले गए.

अचानक उसे याद आई कि आज नाइट शिफ्ट है और ड्यूटी का समय हो गया था. वह अतीत के पन्नों से बाहर निकल आया. रात के समय बौर्डर की सभी चौकियों की जानकारी लेना, सब की उपस्थिति देखना जैसे कई कार्य उस की ड्यूटी में शामिल हैं. आज राघव आधा घंटा पहले ही तैयार हो गया था, इसलिए लैपटौप खोल कर बैठा था. उस ने दीवारघड़ी पर नजर डाली और सोचा, बाहर गाड़ी आ गई होगी. उस ने लैपटौप को शटडाउन कर दिया और टेबल पर रखी कैप उठा कर पहन ली. तभी एक तेज धमाके ने पूरी इमारत को हिला कर रख दिया.

धमाका इतना तेज था कि टेबल पर रखा सामान नीचे बिखर गया. राघव तेजी से अपनी पिस्तौल को उठा बाहर को दौड़ पड़ा. बाहर का नजारा बड़ा हृदयविदारक था. उस की गाड़ी धमाके के साथ जल रही थी. ड्राइवर और सहायक धमाके के कारण गाड़ी से उछल कर दूर गिरे पड़े थे. चारों तरफ से सैनिकों ने अपनी पोजीशन संभाल ली. कुछ सैनिक दौड़ कर घायलों को गाड़ी में डाल कर सेना के स्वास्थ्य केंद्र को चले गए. 3 घंटे की अफरातफरी के बाद यह निष्कर्ष निकला कि धमाका पड़ोसी देश की सेना द्वारा किए गए मोर्टार हमले से हुआ है. जिस में

2 सैनिक शहीद हो गए. राघव फिर सोच में डूब गया, कल यही लोकेश अपने घर वालों की आंखों में कईर् सपने दिखा रहा था आज उन्हीं आंखों को सूना कर गया. आज लोकेश शांत हो गया है, कल इस से कहा भी था, ‘अरे, बस कर, सारी कथा आज ही बांच लेगा क्या.’ लेकिन, अब उस की कथा कौन पूरी करेगा?

फिसलती मछली

बहुत देर से अपनी बीवी प्रेमा को सजतासंवरता देख बलवीर से रहा नहीं गया. उस ने पूछा, ‘‘क्योंजी, आज क्या खास बात है?’’

‘‘देखोजी…’’ कहते हुए प्रेमा उस की ओर पलटी. उस का जूड़े में फूल खोंसता हुआ हाथ वहीं रुक गया, ‘‘आप को कितनी बार कहा है कि बाहर जाते समय टोकाटाकी न किया करो.’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘आज मुझे जनप्रतिनिधि की टे्रनिंग लेने जाना है,’’ प्रेमा ने जूड़े में फूल खोंस लिया. उस के बाद उस ने माथे पर बिंदिया भी लगा ली.

‘‘अरे हां…’’ बलवीर को भी याद आया, ‘‘कल ही तो चौधरी दुर्जन सिंह ने कहलवाया था कि इलाके के सभी जनप्रतिनिधियों को ब्लौक दफ्तर में

ट्रेनिंग दी जानी है,’’ उस ने होंठों पर जीभ फिरा कर कहा, ‘‘प्रेमा, जरा संभल कर. आजकल हर जगह का माहौल बहुत ही खराब है. कहीं…’’

‘‘जानती हूं…’’ प्रेमा ने मेज से पर्स उठा लिया, ‘‘अच्छी तरह से जानती हूं.’’

‘‘देख लो…’’ बलवीर ने उसे चेतावनी दी, ‘‘कहीं दुर्जन सिंह अपनी नीचता पर न उतर आए.’’

‘‘अजी, कुछ न होगा,’’ कह कर प्रेमा घर से बाहर निकल गई.

प्रेमा जब 7वीं क्लास में पढ़ा करती थी, तभी से वह देश की राजनीति में दिलचस्पी लेने लगी थी.

शादी के बाद वह गांव की औरतों से राजनीति पर ही बातें किया करती. कुरेद-कुरेद कर वह लोगों के खयाल जाना करती थी.

इस साल के पंचायती चुनावों में सरकार ने औरतों के लिए कुछ रिजर्व सीटों का ऐलान किया था. प्रेमा चाह कर भी चुनावी दंगल में नहीं उतर पा रही थी. गांव की कुछ औरतों ने अपने नामांकनपत्र दाखिल करा दिए थे.

तभी एक दिन उस के यहां दुर्जन सिंह आया और उसे चुनाव लड़ने के लिए उकसाने लगा.

इस पर बलवीर ने खीजते हुए कहा था, ‘नहीं चौधरी साहब, चुनाव लड़ना अपने बूते की बात नहीं है.’

‘क्यों भाई?’ दुर्जन सिंह ने पूछा था, ‘ऐसी क्या बात हो गई?’

‘हमारे पास पैसा नहीं है न,’ बलवीर ने कहा था.

‘तू चिंता न कर…’ दुर्जन सिंह ने छाती ठोंक कर कहा था, ‘वैसे, इस चुनाव में ज्यादा पैसों की जरूरत नहीं है. फिर भी जो भी खर्चा आएगा, उसे पार्टी दे देगी.’

‘तो क्या यह पार्टी की तरफ से लड़ेगी?’ बलवीर ने पूछा था.

‘हां…’ दुर्जन सिंह ने मुसकरा कर कहा था, ‘मैं ही तो उसे पार्टी का टिकट दिलवा रहा हूं.’

‘फिर ठीक है,’ बलवीर बोला था.

इस प्रकार प्रेमा उस चुनावी दंगल में उतर गई थी. सच में चौधरी दुर्जन सिंह ने चुनाव प्रचार का सारा खर्चा पार्टी फंड से दिला दिया था.

प्रेमा भी दिनरात महिला मतदाताओं से मुलाकात करने लगी थी. उस का चुनावी नारा था, ‘शराब हटाओ, देहात बचाओ.’

चुनाव होने से पहले ही मतदाताओं की हवा प्रेमा की ओर बहने लगी थी. चुनाव में वह भारी बहुमत से जीत गई थी. एक उम्मीदवार की तो जमानत तक जब्त हो गई थी. तब से चौधरी साहब का प्रेमा के यहां आनाजाना कुछ ज्यादा ही होने लगा था.

गांव से निकल कर प्रेमा सड़क के किनारे बस का इंतजार करने लगी. वहां से ब्लौक दफ्तर तकरीबन 20 किलोमीटर दूर था. बस आई, तो वह उस में चढ़ गई. बस में कुछ और सभापति भी बैठी हुई थीं. वह उन्हीं के साथ बैठ गई.

ब्लौक दफ्तर में काफी चहलपहल थी. प्रेमा वहां पहुंची, तो माइक से ‘हैलोहैलो’ कहता हुआ कोई माइक को चैक कर रहा था.

उस शिविर में राज्य के एक बड़े नेता भी आए हुए थे. मंच पर उन्हें माला पहनाई गई. उस के बाद उन्होंने लोगों की ओर मुखातिब हो कर कहा, ‘‘भाइयो और बहनो, आप लोग जनता के प्रतिनिधि हैं. यहां आप सब का स्वागत है. तजरबेकार सभासद आप को बताएंगे कि आप को किनकिन नियमों का पालन करना है.

‘‘इस शिविर में आप लोगों की मदद यही तजरबेकार जनप्रतिनिधि किया करेंगे. आप को उन्हीं के बताए रास्ते पर चलना है.’’

प्रेमा की नजर मंच पर बैठे चौधरी दुर्जन सिंह पर पड़ी. वह खास सभासदों के बीच बैठा हुआ था.

समारोह खत्म होने के बाद दुर्जन सिंह प्रेमा के पास चला आया. उस ने उस से अपनेपन से कहा, ‘‘प्रेमा, जरा सुन तो.’’

‘‘जी,’’ प्रेमा ने कहा.

दुर्जन सिंह उसे एक कोने में ले गया. उस का हाथ प्रेमा के कंधे पर आतेआते रह गया. उस ने कहा, ‘‘कल तुम मुझ से मेरे घर पर मिल लेना. मुझे तुम से कुछ जरूरी काम है.’’

‘‘जी,’’ कह कर प्रेमा दूसरी औरतों के पास चली गई.

ट्रेनिंग के पहले ही दिन इलाकाई जनप्रतिनिधियों को उन के फर्ज की जानकारी दी गई. राज्य के एक बूढ़े सभासद ने बताया कि किस प्रकार सभी सभासदों को सदन की गरिमा बनाए रखनी चाहिए. उस के बाद सभी चायनाश्ता करने लगे.

दोपहर बाद प्रेमा ब्लौक दफ्तर से घर चली आई.

उधर दुर्जन सिंह को याद आया कि जब पहली बार उस ने प्रेमा को देखा था, उसी दिन से उस का मन डगमगाने लगा था. उसे पहली बार पता चला था कि देहात में भी हूरें हुआ करती हैं.

आज दुर्जन सिंह बिस्तर से उठते ही अपने खयालों को हवा देने लगा. उस ने दाढ़ी बनाई और शीशे के सामने जा खड़ा हुआ. 60 साल की उम्र में भी वह नौजवान लग रहा था.

आज दुर्जन सिंह की बीवी पति के मन की थाह नहीं ले पा रही थी. ऐसे तो वह कभी भी नहीं सजते थे.

आखिरकार उस ने पूछ ही लिया, ‘‘क्योंजी, आज क्या बात हो गई?’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ दुर्जन सिंह ने मासूम बनते हुए पूछा.

‘‘आज तो आप कुछ ज्यादा ही बनठन रहे हैं.’’

‘‘अरे हां,’’ दुर्जन सिंह ने मूंछों पर ताव दे कर कहा, ‘‘आज मैं ने 2-3 सभासदों को अपने घर पर बुलाया है. उन से पार्टी की बातें करनी हैं.’’

‘‘फिर उन की खातिरदारी कौन करेगा?’’ चौधराइन ने पूछा.

‘‘हम ही कर लेंगे…’’ दुर्जन सिंह ने लापरवाही से कहा, ‘‘उन्हें चाय ही तो पिलानी है न? मैं बना दूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ चौधराइन भी बाहर जाने की तैयारी करने लगी.

चौधराइन के बड़े भाई के यहां गांव में पोता हुआ था, उसे उसी खुशी में बुलवाया गया था. चौधराइन पति के पास आ कर बोली, ‘‘मैं जा रही हूं.’’

‘‘ठीक है…’’ दुर्जन सिंह उसे सड़क तक छोड़ने चल दिया, ‘‘जब मन करे, तब चली आना.’’

अब दुर्जन सिंह घर में अकेला ही रह गया. प्रेमा को उस ने सोचसमझ कर ही बुलाया था. वह बारबार घड़ी देखता और मन के लड्डू फोड़ता.

दुर्जन सिंह ने अपने कपड़ों पर इत्र छिड़का और खिड़की पर जा खड़ा हुआ. सामने से उन्हें अपना कारिंदा मोर सिंह आता दिखाई दिया.

दुर्जन सिंह ने उस से पूछा, ‘‘हां भई, क्या बात है?’’

‘‘मालिक…’’ कारिंदे ने कहा, ‘‘कल रात जंगली जानवर हमारी फसल को बरबाद कर गए.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘वे मक्के के खेतों को नुकसान पहुंचा गए हैं…’’ मोर सिंह ने बताया, ‘‘मैं ने बहुत हांक लगाई, तब जा कर कुछ फसल बच पाई.’’

‘‘तू इस समय चला जा…’’ दुर्जन सिंह ने बात को टालते हुए कहा, ‘‘इस समय मेरे पास कोई खास मेहमान आने वाला है. मैं कल आऊंगा.’’

‘‘ठीक है मालिक,’’ मोर सिंह हाथ जोड़ कर चल दिया.

अब दुर्जन सिंह था और उस की कुलबुलाती ख्वाहिशें थीं. वह वहीं आंगन में एक कुरसी पर बैठ गया और आंखें मूंद कर प्रेमा की छवि को अपनी आंखों में भरने लगा.

चूडि़यों की खनक से दुर्जन सिंह ने अपनी आंखें खोलीं. सामने हूर की तरह खूबसूरत प्रेमा खड़ी थी.

वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘आ प्रेमा, तेरी लंबी उम्र है. मैं अभीअभी तुझे ही याद कर रहा था.

‘‘और सुना…’’ दुर्जन सिंह उस की ओर घूम गया, ‘‘शिविर में तुम ने कुछ सीखा या नहीं?’’

‘‘बहुतकुछ सीखा है मैं ने चौधरी साहब,’’ प्रेमा ने हंसते हुए कहा.

‘‘मैं चाहता हूं कि तुझे मैं एक दबंग नेता बना दूं,’’ दुर्जन सिंह उस के आगे चारा डालने लगा.

‘‘जी,’’ प्रेमा बोली.

दुर्जन सिंह ने कहा, ‘‘यह सब सिखाने वाले पर ही निर्भर करता है.’’

‘‘जी.’’

‘‘देख प्रेमा,’’ दुर्जन सिंह ने चालबाजी से कहा, ‘‘सोना भी आग में तप कर ही चमका करता है.’’

‘‘जी.’’

‘‘आ, अंदर चल कर बातें करते हैं,’’ इतना कह कर दुर्जन सिंह कुरसी से उठ गया.

‘‘चलिए,’’ कह कर प्रेमा भी उस के पीछेपीछे चल दी.

बैठक में पहुंच कर दुर्जन सिंह ने प्रेमा को सोफे पर बैठा दिया और उसे एक बहुत बड़ा अलबम थमा दिया, ‘‘तब तक तू इसे देखती रह. मैं ने जिंदगी में जो भी काम किया है, इस में उन सभी का लेखाजोखा है. तुझे बड़ा मजा आएगा.’’

‘‘आप भी बैठिए न,’’ प्रेमा ने कहा.

‘‘मैं तेरे लिए चायनाश्ते का इंतजाम करता हूं,’’ दुर्जन सिंह ने कहा.

‘‘चौधराइनजी नहीं हैं क्या?’’ प्रेमा ने पूछा.

‘‘अचानक ही आज उसे मायके जाना पड़ गया,’’ दुर्जन सिंह ने बताया.

दुर्जन सिंह रसोईघर की ओर चल दिया. प्रेमा अलबम के फोटो देखने लगी.

तभी दुर्जन सिंह एक बड़ी प्लेट में ढेर सारी भुजिया ले आया और उसे टेबल पर रख दिया.

साथ ही, दुर्जन सिंह ने टेबल पर 2 गिलास और 1 बोतल दारू रख दी. उसे देख कर प्रेमा बिदक पड़ी, ‘‘आप तो…’’

‘‘अरे भई, यह विदेशी चीज है…’’ दुर्जन सिंह मुसकरा दिया, ‘‘यह लाल परी मीठामीठा नशा दिया करती है.’’

‘‘तो आप शराब पीएंगे?’’ प्रेमा ने तल्खी से पूछा.

‘‘मैं कभीकभी ले लेता हूं,’’ दुर्जन सिंह गिलासों में शराब उड़ेलने लगा.

‘‘यह तो अच्छी बात नहीं है चौधरी साहब,’’ प्रेमा नाकभौं सिकोड़ते हुए बोली.

‘‘प्रेमा रानी…’’ इतना कह कर दुर्जन सिंह का भारीभरकम हाथ प्रेमा के कंधे पर आ लगा.

प्रेमा ने उस का हाथ झिड़क दिया और बोली, ‘‘आप तो बदतमीजी करने लगे हैं.’’

दुर्जन सिंह ने शराब का घूंट भर कर कहा, ‘‘इसे पी कर मैं तुम्हें ऐसी बातें बताऊंगा कि तुम भूल नहीं पाओगी. रातोंरात आसमान को छूने लगोगी.’’

प्रेमा चुप ही रही. दुर्जन सिंह ने उस से गुजारिश की, ‘‘लो, कुछ घूंट तुम भी ले लो. दिमाग की सारी खिड़कियां खुल जाएंगी.’’

‘‘मैं तो इसे छूती तक नहीं,’’ प्रेमा गुस्से से बोली.

‘‘लेकिन, हम तो इसे गले लगाए रहते हैं,’’ दुर्जन सिंह उसे बरगलाने लगा.

प्रेमा ने नफरत से कहा, ‘‘लानत है ऐसी जिंदगी पर.’’

‘‘देख…’’ दुर्जन सिंह के हाथ उस के कंधों पर फिर से जा लगे, ‘‘तू मेरा कहा मान. मैं तेरी राजनीतिक जिंदगी संवार दूंगा.’’

इतना सुनते ही प्रेमा दहाड़ उठी, ‘‘आप जैसे पिता की उम्र के आदमी से मुझे इस तरह की उम्मीद नहीं थी.’’

मगर तब भी दुर्जन सिंह के हाथों का दबाव बढ़ता ही गया. प्रेमा शेरनी से बिजली बन बैठी. उस ने एक ही झटके में चौधरी के हाथ एक ओर झटक दिए और दहाड़ी, ‘‘मुझे मालूम न था कि आप इतने गिरे हुए हैं.’’

दुर्जन सिंह खिसियाई आवाज में बोला, ‘‘राजनीति का दलदल आदमी को दुराचारी बना देता है. तू मेरा कहा मान ले. तेरी पांचों उंगलियां घी में रहा करेंगी. तुझे लोग याद करेंगे.’’

‘‘नहीं…’’ प्रेमा जोर से चीख उठी, ‘‘मैं अपने ही बूते पर एक दबंग नेता बनूंगी.’’

इस के बाद वह झट से बाहर निकल गई. दुर्जन सिंह को लगा, जैसे उस के हाथ से मछली फिसल गई हो.

कितने झूठ

वह सुधा को मोबाइल मिला कर पूछने ही वाला था कि मां के यहां चल रही हो या नहीं. लेकिन उस ने सोचा कि अगर उसे मां के यहां चलना होता तो वह खुद न फोन कर देती. हर इतवार की दोपहर का भोजन वे दोनों मां के यहां ही तो करते हैं. मां हर इतवार को तड़के ही उठ जाती हैं और उन के लिए स्पैशल खाना बनाने लगती हैं. जब भी वह सुधा के साथ जाता है, खाने की मेज तरहतरह के पकवानों से सजी रहती है और मां उसे ठूंसठूंस कर खिलाती हैं. अगर वह इत्तफाक से जा नहीं पाता है तो उस दिन वे टिफिन कैरियर में सारा खाना भर कर उस के यहां चली आती हैं और उसे खिलाने के बाद ही खुद खाती हैं. आज भी मां उस के लिए खाना बनाने लग गई होंगी. उस ने मां को फोन किया, उधर से पापा बोल रहे थे, ‘‘हैलो, कौन, विकास?’’

‘‘हां, मैं आज…’’ इस से पहले कि वह अपनी बात पूरी करता, उधर से मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘आज तुम आ रहे हो न?’’

‘‘हां, मां.’’

‘‘मैं तो घबरा गई थी कि कहीं तुम आने से इनकार न कर दो.’’

‘‘लेकिन मां, सुधा अभी मायके से नहीं लौटी.’’

‘‘नहीं लौटी तो तुम आ जाना. आ रहे हो न?’’

‘‘हां मां,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.

तब तक’’ गैस पर चाय उफन कर बाहर आई और गैस बुझ गई.

हड़बड़ा कर उस ने गैस बंद कर दी और चाय छान कर एक कप में उड़ेलने लगा. कप लबालब भर गया. अरे, यह तो 2 जनों की चाय बना बैठा. अब उसे अकेले ही पीनी पड़ेगी. वह बैठ कर चाय पीने लगा.

‘सब्जी ले लो, सब्जी’, गली में आवाज गूंजी.

अखबार उठा कर वह सुर्खियां पढ़ने लगा. अचानक दरवाजे की घंटी बज उठी. वह उठा और उस ने दरवाजा खोल दिया. सामने सब्जी वाली खड़ी थी. उस ने पूछा, ‘‘बीबीजी नहीं हैं?’’

‘‘अभी नहीं आईं.’’?

‘‘कब आ रही हैं?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘मुझ से तो कहा था कि दोचार दिनों में आ जाऊंगी, लेकिन आज पूरे 15 दिन हो गए.’’

‘‘हां.’’

‘‘साहब, आप खाना कहां खाते हो?’’

‘‘होटल में.’’

‘‘जरा हाथ बढ़ा देना,’’ सब्जी वाली बाई ने कहा.

उस ने झल्ला उठाने में उस की मदद कर दी.

‘‘बगैर औरत के कितनी तकलीफ होती है यह तो सोचती ही नहीं आजकल की औरतें. शादी के बाद कैसा मायके का मोह? सच मानोगे, साहब, गौने के बाद मैं सिर्फ 2 बार गई हूं मायके और वह भी भैयाबापू के कूच कर जाने की खबर पा कर. और यहां, ऐसा महीना नहीं गुजरता जब बीबीजी मायके न जाती हों,’’ सब्जी वाली ने कहा.

उस ने कहना चाहा, ‘सच तो यह है कि अब हमारा निवाह नहीं होता और सुधा मुझे हमेशाहमेशा के लिए छोड़ कर चली गई है.’ लेकिन उसी पल उस ने सोचा कि इस सब्जी वाली से यह सब कहने की क्या जरूरत है. जब सुधा उसे कुछ नहीं बता गई, तो वह क्यों बताए?

इसी बीच, तरन्नुम में आवाज लगाता हुआ सामने से फूल वाला आता दिखाई दिया. अब यह भी छूटते ही सुधा के बारे में पूछने लगेगा. उस का जी चाहा कि वह दरवाजा बंद कर अंदर चला जाए और किसी को जवाब ही न दे. सुधा इन सब लोगों से बोल तो ऐसे गई है जैसे वह लौटी आ रही है.

‘‘बीबीजी आ गईं, साहब?’’ फूल वाले ने फूल देते हुए कहा.

‘‘नहीं.’’

‘‘कब आ रही हैं?’’

उस ने झुंझला कर कहना चाहा, ‘पूछो जा कर उसी से,’ लेकिन वह बोला, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘इस बार बहुत दिन लगा दिए.’’

वह सिर्फ दांत कटकटाता रह गया. उस ने मुड़ कर दरवाजा बंद करना चाहा कि महरी सामने खड़ी थी, ‘‘चौकाबरतन कर दूं, साहब?’’

‘‘हांहां.’’

महरी ने चौके से 2-4 बरतन समेटे और मिनटों में मांज कर रसोई साफ कर दी. फिर झाड़ू ले कर बरामदा साफ करने लगी. वह कूड़ा बटोरती हुई बोली, ‘‘बीबीजी ने इस बार कुछ ज्यादा दिन नहीं लगा दिए?’’

‘‘हां.’’

‘‘वापस तो आएंगी न?’’

‘‘हां,’’ कह कर फिर अचकचा कर उस ने पूछा, ‘‘सुना, तूने दूसरा आदमी कर लिया है.’’

‘‘लेकिन अब पछता रही हूं, बाबू. इस से पहला वाला आदमी अच्छा था. यह मर्दुआ तो रोज रात को पी कर आता है और लातोंघूसों से पीटने लगता है. उस के पीटने का भी कोई गम नहीं है, बाबू. लेकिन जब वह पूछने लगता है कि बोल तेरा पहला आदमी कैसा था, तुझे कैसे प्यार करता था. औरतें अपने पहले आदमी को भूल नहीं पातीं. जरूर तू अपने पहले आदमी को याद करती होगी. सचसच बता, याद करती है न? झूठ बोलती हूं तो सच उगलवाना चाहता है और सच बोलती हूं तो उसे गवारा नहीं होता. इस झूठ और सच के बीच में मैं जैसे अधर में लटकी हुई जी रही हूं. सोचती हूं कि न मैं ने पहले आदमी को छोड़ा होता और न दूसरा आदमी कर लिया होता. अपने ही गलत निर्णयों के एहसासों से बिंधी हुई हूं मैं,’’ कह कर सुबकने लगी.

उस ने अपनी दृष्टि खिड़की की तरफ फेर ली. आसमान में कालेकाले बादल छा गए थे व सुबह बेहद उदास, भीगी और उमसभरी हो उठी थी.

‘‘मैं तो अपना ही दुखड़ा ले बैठी. तुम अपनी सुनाओ, बाबू? इन 15 दिनों में तुम बीबीजी से मिले तो होगे?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने खोखले स्वर में कहा.

‘‘एक ही शहर में रहते  हुए?’’ चकित भाव से महरी ने पूछा, ‘‘बीबीजी ने फोन भी नहीं किया?’’

उस ने नकारात्मक सिर हिला दिया.

‘‘बीबीजी से आप का कोई झगड़ा हुआ था, साहब?’’

‘‘नहीं तो,’’ वह व्यग्रभाव से उठ कर टहलने लगा.

‘‘वही तो…मैं भी घरघर घूमती हूं. ऐसा घर नहीं देखा जहां मियांबीवी न झगड़ते हों. लेकिन आप दोनों को तो मैं ने कभी उलझते हुए नहीं देखा.’’ फिर कमरे को देखते हुए बोली, ‘‘साहब, आज ये परदे बदल दूं?’’

‘‘हांहां, इतवार है न, कोई आ न जाए?’’ कह कर उस ने अलमारी से धुले व इस्तिरी किए हुए परदे निकाल कर महरी को दे दिए और वह दरवाजेखिड़कियों के परदे बदलने लगी.

अकसर इतवार के दिन उस की दृष्टि परदों पर चली जाती और वह सुधा से कह कर परदे बदलवा देता. वह कहता, ‘कोई आ न जाए?’

‘लेकिन हम घर पर रहेंगे ही कहां?’

‘मां के घर दोपहर का भोजन कर के हम सीधे यहां आ रहे हैं.’

‘आज तुम नाटक देखने नहीं चलोगे?’

‘नहीं, आज तो भीड़भाड़ होगी और टिकट भी नहीं मिलेगा.’

‘यह नाटक सिर्फ आज भर होगा.’

‘हफ्ते में एक दिन ही तो मिलता है. उस दिन भी तुम भागमभाग करने के लिए कहती हो.’

‘तुम ने पहले ही बता दिया होता तो मैं कल ही हो आती.’

‘आइंदा तुम शनिवार के दिन ड्रामा देख लिया करो.’

‘और इतवार के दिन?’

‘पूरा आराम.’

इतवार के दिन वह या तो मेहमानों या सुधा के साथ हंसबतिया लेता या फिर सारा दिन लेटा रहता. सुधा कोई न कोई नाटक पढ़ने लगती.

एक दिन उस ने सुधा से कह दिया, ‘तुम किसी नाटक में अभिनय क्यों नहीं कर लेतीं?’

‘कोई अच्छा नाटक मंचित होता है तो उसे दिखाने तो चलते नहीं, अभिनय करने दोगे तुम?’

‘सच, तुम अगर स्टेज पर काम करो तो मैं तुम्हारा नाटक देखने जरूर आऊंगा.’

‘लेकिन मुझे नाटक खेलना नहीं, देखना अच्छा लगता है. कालेज के दिनों में भी मैं हर नाटक देखने के लिए सब से आगे की सीट पर बैठती थी. लेकिन समय के चक्कर में सबकुछ छूटता चला गया.’’

‘अब भी मैं तुम्हें जाने से तो मना नहीं करता.’

‘लेकिन तुम साथ तो चलना पसंद नहीं करते.’

‘जाने क्यों नाटक मुझे पसंद ही नहीं आते. हां, फिल्म कहो तो…’

‘चलो, फिल्म ही सही.’

‘मतलब, आज फिल्म देखे बगैर नहीं रहोगी?’

‘नहीं, अगर तुम नहीं चाहते तो…’

‘नहीं, हम चल रहे हैं.’

‘कपड़े बदल लूं.’

‘हांहां.’

झट उस ने वार्डरोब खोला. ‘कौन सी साड़ी पहनूं?’

‘कोई भी.’

‘नहीं. तुम बताओ न.’

‘वह फालसई रंग की साड़ी पहन लो.’

‘तुम्हें हल्के शेड्स पसंद हैं न?’

‘हां.’

वह झट हाथमुंह धो आई और कंघी उठा कर बाल संवारने लगी. उस ने उस के बालों की एकाध लट उस के गाल पर बिखेर दी औैर उस की छवि निहारने लगा.

सुधा प्रसन्न हो कर बोली, ‘जानते हो, जब भी तुम मुझे इस तरह सजानेसंवारने लगते हो तब मुझे बेहद खुशी होती है. तुम्हारी इच्छाएं पूरी होती रहीं तो मैं अपनी जिंदगी सार्थक समझ लूंगी.’

‘‘मैं जाऊं?’’ महरी की आवाज सुन कर उस की विचार तंद्रा टूटी. बोला, ‘‘तुम्हारा काम खत्म हो गया?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो जाओ.’’

‘‘एक बात कहूं, साहब?’’

‘‘कहो.’’

‘‘जब तक बीबीजी नहीं लौटतीं तब तक आप अपनी मां के पास क्यों नहीं चले जाते? यहां तो आप को खानेपीने की भी दिक्कत होती होगी.’’

‘‘मां के पास?’’ अरे, हां, मां के पास रसोई के वक्त चले जाओ तो मां नाराज होती हैं, ‘हफ्ते में एक दिन तो आते हो और तब भी दोचार घड़ी चैन से बैठ कर बातचीत भी नहीं करते.’

कभीकभी सुधा खाने के तुरंत बाद फिल्म के लिए निकल आती तो मां खीझ उठतीं. वह झट नहा कर और फिर कपड़े बदल कर घर से निकलना ही चाहता था कि फिर आवाज आई, ‘‘बीबीजी, कपडे़.’’ उस ने दरवाजा खोला. सामने एक औरत एक छोकरे के साथ खड़ी थी, जिस के सिर पर एक टोकरा रखा था. उस में स्टील के बरतन आदि और कपड़ों की एक गठरी रखी थी.

वह बोली, ‘‘बीबीजी नहीं हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘कहा था, कुछेक पुराने कपड़े निकाल कर रखूंगी.’’

‘‘वह तो नहीं है.’’

‘‘कहीं गई हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘कब आएंगी?’’

उस ने चीख कर कहना चाहा, ‘अब वह यहां नहीं आएगी. यहां सिर्फ वह रहता है वह. कोई सुधा नहीं रहती.’ लेकिन वह बोला नहीं. चुप रहा. पुराने कपड़े वाली अपने छोकरे के साथ चली गई. उस ने सोचा, ‘अब और वह घर पर बैठा रहा तो कोई न कोई सुधा को पूछता हुआ चला आएगा और उस के अचानक चले जाने का एहसास दिलाता रहेगा. कितना बड़ा झूठ छोड़ गई है सुधा अपने पीछे. यहां न लौटने का निश्चय कर के भी वह इन सब लोगों को अपने लौटने का यकीन दिला गई है. यहां नहोते हुए भी यहां होने का एक एहसास छोड़ गई है.’ जब वह मां के यहां पहुंचा तब बूंदाबांदी होने लगी थी और बरामदे में बैठी मां तेजतर्रार आवाज में पिताजी को जलीकटी सुना रही थीं.

‘‘अब बस भी करो, मां,’’ आदर्श मां को समझा रही थी.

‘‘नहीं, मैं ने बहुत झेला है, अब और नहीं झेल सकती,’’ कह कर मां अपना पुराना राग अलापने लगीं जो वे कईर् बार सुना चुकी हैं.

पापा अब तक चुप थे. लेकिन अब भड़क उठे और किसी गरजतेबरसते बादल की तरह मां के इर्दगिर्द मंडराते हुए ऊंचनीच सुनाने लगे.

‘‘पापा, आज भैया के सामने तो चुप रहिए,’’ आदर्श गिड़डि़ाई.

‘‘अरे, तेरा भैया पराया थोड़े ही है. तू उसे डबल रोटी का उपमा खिला दे. आज मुझे इन से निबट लेने दे.’’

वह आदर्श के साथ दूसरे कमरे में चला गया. मां और पापा दोनों एकदूसरे से ऐसे झगड़ने लगते हैं जैसे अब वे एकदूसरे के साथ नहीं रह पाएंगे. लेकिन थोड़ी देर बाद वे फिर हंसनेबतियाने लगते हैं. अपने मांपापा का यह धूपछांही रंग उस की समझ में नहीं आता.

‘‘बात क्या हुई थी?’’

‘‘मां को एक लड़का पसंद आ गया और वे मेरे हाथ पीले करना चाहती हैं. लेकिन पापा चाहते हैं कि मैं कम से कम डिगरी तो ले लूं. लेकिन मां को डर है कि कहीं मैं भी तुम्हारी तरह प्रेमविवाह न कर लूं,’’ कहतेकहते आदर्श का चेहरा तमतमा आया.

उस ने आहत भाव से आदर्श को देखा.

‘‘कभीकभी लगता है, भैया, तुम ने अच्छा ही किया. तुम इस लड़ाईझगड़े से दूर रहे हो. ऐसा दिन नहीं बीतता जिस दिन खटपट न होती हो.’’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया. सिर्फ मूकभाव से खिड़की से आसमान को देखने लगा. बाहर 2 बडे़बडे़ बादल आपस में टकराए. जोरों की गड़गड़ाहट हुई और मामूली सी झड़ी ने मूसलाधार बारिश का रूप ले लिया.

‘‘भैया, इस बार भी सुधा को नहीं लाए?’’

उस ने अचकचा कर आदर्श की ओर देखा.

‘‘क्या बात है, भैया, तुम आज कुछ उदासउदास से हो?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई. मां ने तुम्हें उपमा देने के लिए कहा था,’’ कह कर आदर्र्श चली गई.

जहां वह बैठा था, खिड़की से वहां तक बौछार आने लगी थी और वह उस हलकी सी फुहार से भीग कर एक सुखद झुरझुरी सी लेने लगा. सुधा से मुलाकात के प्रथम महीनों से भी वह ऐसी ही सुखद झुरझुरी से भर उठा था.

खंजन सी आंखें, चौड़ा चेहरा, दरमियाना कद, गोरीचिट्टी, हंसे तो हरसिंगार के फूल झड़ जाएं. किसी पार्टी में उस की एक झलक पा कर वह उसे पाने के लिए उन्मत्त सा हो उठा था. किसी तरह परिचय कर के उस ने उस से पहले दोस्ती की और फिर शादी करने का प्रस्ताव रख दिया था. लेकिन मां बौखला उठी थीं. जहर खा कर मरने की धमकी देने लगी थीं. पर वह अपने निर्णय से डिगा नहीं और पापा ने कह दिया था कि उस से संबंध जोड़ने से पहले तुम्हें हमारे साथ संबंध तोड़ना पड़ेगा. विवश हो उस ने कोर्टमैरिज कर ली थी. उस शादी में सिर्फ सुधा के मांबाप और रिश्तेदार शामिल हुए थे. उस के घर वालों की तरफ से कोई नहीं आया था. एक साल तक वह उन से अपनेआप को बेहद कटाकटा सा महसूस करता रहा था. फिर जब उसे निमोनिया हो गया था तो मां दौड़ीदौड़ी आईर् थीं और उस की तीमारदारी में लग गई थीं. उस के बाद हर इतवार को यहां आ कर दोपहर का भोजन करने का सिलसिला चालू हुआ था.

‘‘यह लो उपमा, मां ने तुम्हारे लिए ही बनाया है,’’ आदर्श ने उसे एक प्लेट देते हुए कहा.

उपमा खातेखाते उस ने पूछा, ‘‘हर्ष कहां गई है?’’

‘‘ट्यूशन पढ़ने.’’

‘‘और नवीन?’’

‘‘क्रिकेट मैच खेलने. मैं ने तो बहुत कहा कि बारिश के आसार हैं, मत जाओ. मगर वह माना ही नहीं.’’

वह धीरेधीरे उपमा खाने लगा. लेकिन लग रहा था जैसे वह दूर कहीं खोया हुआ है.

‘‘तुम खुश तो हो न, भैया?’’

‘‘हूं, क्यों, क्या बात है?’’

‘‘नहीं, यों ही पूछा.’’

उस ने अर्थभरी दृष्टि से देख कर पूछा, ‘‘तुम्हें सुधा तो नहीं मिली थी?’’

‘‘मिली तो थीं.’’

वह उठ कर व्यग्रभाव से टहलने लगा और बारबार आदर्श को जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से देखने लगा.

‘‘भैया, मैं ने तुम्हें परेशान कर दिया?’’

‘‘नहींनहीं, कुछ कह रही थी वह?’’

‘‘पहले तुम यह बताओ कि उस दिन क्या हुआ था?’’

‘‘किस दिन?’’ तपाक से उस ने पूछा.

‘‘जिस दिन तुम दोनों नवीनचंद्र के बेटे की शादी में गए थे.’’

‘‘यह तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘सुधा ने.’’

‘‘फिर तो सुधा ने तुम्हें सबकुछ बता दिया होगा?’’

‘‘सुधा ने जो कुछ बताया वह बाद में बताऊंगी. पहले तुम यह बताओ कि उस दिन क्या हुआ था?’’

‘‘उस दिन, हम दोनों सजधज कर नवीनचंद्र के बेटे की पार्टी में गए थे और हमें जिस युवक ने आइसक्रीम ला कर दी, सुधा उसी को एकटक देखने लगी. वैसे, वह युवक था भी स्मार्ट और गोराचिट्टा. उस की कालीकाली आंखें बेहद चमक रही थीं और उस के घने काले बाल देख कर ऐसा लगता था जैसे उस ने कनटोप पहन लिया हो,’’ कहतेकहते वह अचानक रुक गया. एक क्षण के बाद फिर बोला, ‘‘वह आइसक्रीम दे कर चला गया और हाल में दूसरों को आइसक्रीम देने लगा. लेकिन मैं ने गौर किया कि सुधा की नजरें बारबार उसी को ढूंढ़ रही हैं. जब वह दोबारा हमारे पास आइसक्रीम ले कर आया तो हम ने उसे मना कर दिया. लेकिन सुधा उस से एक और मांग बैठी. वह लेने चला गया.

‘‘मैं ने सुधा से पूछ लिया, ‘तुम इसे जानती हो?’’’

‘‘वह जैसे घबरा गई. ‘नहीं, नहीं तो.’

‘‘मैं ने सोचा, वाकई शायद नहीं जानती होगी और मैं अपने मित्र के साथ बातचीत करने लगा. वह भी अपनी सहेली के साथ गपें मारने लगी. इतने में वही युवक आइसक्रीम ले आया और सुधा की सहेली उसे देख कर जैसे चहक उठी, अरे, यह तो तेरा जीवन है.

‘‘युवक शायद परेशान हुआ. ‘आप कुछ लेंगी?’ उस ने सुधा की सहेली से पूछा. ‘मेरे लिए भी एक आइसक्रीम ला दीजिए.’ वह युवक चला गया.

‘‘‘सुधा, तू तो कहती थी कि…यह जीवन कहां से आ गया?’

‘‘मैं ने उन की बातचीत के यही टुकड़े सुने. मेरे अंदर कुछ दरक सा उठा. मैं सोचने लगा, न जाने आज तक सुधा कितने झूठ बोलती रही है मुझ से. मुझे कुछ भरभरा कर बहता हुआ सा महसूस हुआ. फिर भी मैं ने उस से कुछ नहीं कहा. सोचा, घर चल कर उस से पूछूंगा कि यह जीवन कौन है? कब से जानती है वह उसे? लेकिन घर पहुंचते ही मेरा विचार बदल गया और मैं ने सोचा कि देखें कब तक वह इस झूठ पर परदा डाले रखती है.

‘‘मेरे मन में एक ज्वालामुखी सा धधक रहा था और मैं उस के फटने की आशंका से चुप रह गया. अंदर ही अंदर घुटता रहा. लेकिन मैं ने कुछ नहीं कहा. 2 दिन संवादहीन स्थिति को जीते हुए बीत गए और ऐसा लगा जैसे हम दोनों के बीच शीशे की दीवार बन गईर् है. आखिर तीसरे दिन सुधा ने वह शीशे की दीवार तोड़ दी और मुझे ऐसा लगा जैसे कांच के अनगिनत टुकड़े मेरे सारे बदन में चुभ गए हैं.

‘‘सुधा ने मुझ से कहा, ‘तुम अंदर ही अंदर क्यों घुट रहे हो, यह मैं जानती हूं. चाहा था जिस बात पर परदा पड़ता आया है वह तुम्हें बताऊं ही नहीं, लेकिन अब बगैर बताए रह नहीं सकती. एक छोटे झूठ की वजह से हमारे बीच जो यह दरार सी पड़ गई है वह शायद मेरे सच बताने से पट जाए. वैसे, उम्मीद कम है. लेकिन फिर भी मैं आज सारी हकीकत बता देती हूं.

‘‘ ‘जिस ने मुझे आइसक्रीम दी थी वह जीवन नहीं, उस का भाई है. वह युवक भी हूबहू जीवन जैसा लगता है, वैसा ही स्मार्ट, गोराचिट्टा, चमकती आंखें और कनटोप जैसे घने काले बाल. जीवन मेरे साथ कालेज में पढ़ता था. उसे स्टेज का बहुत शौक था.

कालेज के हर ड्रामे में वह जरूर हिस्सा लेता था और मैं उस की थर्राती आवाज के जादू से सम्मोहित थी. जब भी उस का नाटक होता तब मैं सब से आगे जा कर बैठ जाती थी और नाटक खत्म होने के बाद सब से पहले उसे फूल भेंट कर उस के अभिनय व उस की थर्राती आवाज की प्रशंसा  कि या करती थी.’

‘‘मुझे कुछ चुभ सा गया. मैं ने तड़प कर कहा, ‘ऐसा ही था तो उस से तुम ने शादी क्यों नहीं कर ली?’

‘‘उस ने बेलाग शब्दों में कहा, ‘शायद कर भी लेती, अगर डिगरी लेने जाते वक्त मोटरसाइकिल दुर्घटना में उस की मृत्यु न हो गई होती.’

‘जीवन जिंदा नहीं है?’

‘नहीं.’

‘यह बात तुम ने मुझे पहले क्यों नही बताई?’

‘‘उस ने कोई जवाब नहीं दिया. वह होंठ भींच कर दबे स्वर में सुबकने लगी. उस के पास जा कर न तो मैं ने उस की पीठ सहला कर उस के आंसू ही पोंछे और न सांत्वना के दो शब्द ही कहे. वह बैठी सुबकती रही और मैं बैठा सोचता रहा, ‘पिछले 8 सालों से यह औरत अपने पहले प्रेमी की थर्राती आवाज से सम्मोहित हो कर उस की स्मृतियां संजोए मेरे साथ जीने का नाटक करती रही है. यह मक्कार है. यह झूठी है. अब इस झूठ के साथ और मैं नहीं रह सकता.’’’

‘‘फिर?’’ आदर्श ने पूछा.

‘‘अगले दिन शनिवार था और हर शनिवार को वह मायके जाती थी. उस ने सवेरे ही पूछा ‘आज मैं मायके जाऊं?’

‘‘ ‘हां, हां,’ मैं ने कहा.

‘‘ ‘सिकंदराबाद से 2 दिनों के लिए आज मेरी बहन आ रही है. मैं 2 दिन मायके रह आऊं?’

‘‘ ‘जैसा तुम चाहो.’’’

‘‘और उस के बाद न वह आई और न तुम ने उसे बुलाया?’’ आदर्श ने पूछा.

उस ने जवाब नहीं दिया. परदा सरसराया. किसी की परछाई सी देख कर वह पूछ बैठा, ‘‘अंदर कोई है क्या?’’

‘‘कोई नहीं, हवा से परदा हिल गया होगा.’’

उस ने समझा शायद भ्रम हुआ होगा.

‘‘सुधा ने तुम्हें क्या बताया?’’

‘‘यह रक्षा कौन है?’’

‘‘रक्षा?’’ उस ने अचकचा कर पूछा और चकित भाव से आदर्श को देखा, ‘‘तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘सुधा ने.’’

‘‘फिर क्यों पूछती हो?’’

‘‘क्या यह सच है कि रक्षा की आंखें खंजन जैसी और चेहरा चौड़ा है. वह गोरीचिट्टी है और उस का कद दरमियाना है और वह जब हंसती थी तो हरसिंगार के फूल झड़ते थे.’’

‘‘हां.’’

‘‘और वह तुम्हारे साथ कालेज में पढ़ती थी और तुम उस से बेहद प्यार करते थे.’’

‘‘हांहां,’’ उस ने खीझ कर कहा.

‘‘और वह अपने मांबाप के साथ इंगलैंड चली गई?

‘‘यहां उन की दुकान नहीं चल रही थी, और उनकी आर्थिक स्थिति बेहद बिगड़ी हुई थी. वे लोग चुपचाप अपनी दुकान बेच कर इंगलैंड चले जाना चाहते थे, ताकि रक्षा के पिता को यहां किसी के यहां ताबेदारी न करनी पड़े.

‘‘और रक्षा तुम्हें यह आश्वासन दे कर चली गई थी कि वह तुम्हें इंगलैंड बुला लेगी और उस ने तुम्हें इंगलैंड बुला लेने के बजाय वहीं किसी यूरोपियन से ब्याह कर लिया और तुम बेहद टूट गए. तुम अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर सके और नौकरी कर ली. फिर एक पार्टी में अचानक सुधा की एक झलक पा कर तुम बेचैन हो उठे. उस का परिचय पा कर तुम ने उस से मेलजोल बढ़ा लिया और उस से शादी करने के लिए तुम तैयार हो गए. महज इसलिए कि सुधा की शक्ल कुछकुछ रक्षा से मिलती है. खंजन जैसी आंखें…’’

उस ने आदर्श की बात बीच में ही काट दी और बोला, ‘‘यह सब तुम्हें किस ने बताया?’’

‘‘सुधा ने.’’

‘‘लेकिन मैं ने तो उसे कभी कुछ नहीं बताया. उसे यह सब कैसे मालूम हुआ?’’ यह कहने के साथ वह उठ कर चहलकदमी करने लगा.

‘‘एक दिन घर की सफाई करते वक्त उसे तुम्हारे सारे खतोकिताबत, फोटो, डायरियां आदि मिल गई थीं.’’

‘‘फिर भी उस ने मुझ से कुछ नहीं पूछा?’’

लेकिन आदर्श अपनी ही रौ में कहती गई, ‘‘क्या यह सच नहीं है कि तुम ने सुधा को सुधा के रूप में नहीं, रक्षा के रूप में स्वीकारा था. उसे रक्षा के सांचे में ढालते रहे. रक्षा की तरह हलके शेड्स के कपड़ों में सजनेसंवरने के लिए उसे बाध्य करते रहे. पहले तो वह सोचती रही कि वह तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी कर रही है और उस का जीवन सार्थक हो गया है लेकिन तुम अतीत के एक कालखंड को फिर जीने के लिए लालायित थे. उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह मर रही है और उस में कोई दूसरा जी उठा है.’’

वह बैठ गया और आंखें नीची किए सिर्फ उंगलियां चटकाने लगा.

‘‘उस ने अंगरेजी में एक कहानी पढ़ी थी, जिस में एक पति, जो कलंदर था, अपनी पत्नी को रीछ की खाल ओढ़ा कर उस का खेल दिखा कर अपनी जीविका जुटाता है. उसे भी ऐसा ही लगा जैसे वह किसी दूसरे की खाल ओढ़ कर तुम्हारी पत्नी होने का अभिनय कर रही है.’’ आदर्श की बातें सुन कर वह अजीब सी झेंप से भर उठा. वह उठ कर खिड़की के पास चला गया. बारिश थम गई थी और बादल छंट चुके थे. आसमान धुले कपड़े की तरह साफ चमक रहा था. इतने में कोई आवाज सुन कर वह मुड़ा. आदर्श वहीं बैठी थी, ‘‘वह उलटी कौन कर रहा है?’’

‘‘शायद सुधा भाभी होंगी.’’

‘‘क्या, सुधा यहां आई हुई है, तुम ने पहले क्यों नहीं बताया?’’ वह बाथरूम की तरफ दौड़ा. बाथरूम के बाहर झुकी सुधा उलटी कर रही थी और मां उस की पीठ सहला रही थीं.

इतने में हड़बड़ाए हुए पापा आए, ‘‘अरे भई, क्या हुआ इसे? बेटा, डाक्टर को तो फोन करो.’’

मां बोली, ‘‘न बेटा, फोन मत करना. विकास के पापा, अब तुम दादा बनने वाले हो. मुंह मीठा करो…’’

दूसरी भूल

अनीता बाजार से कुछ घरेलू चीजें खरीद कर टैंपू में बैठी हुई घर की ओर आ रही थी. एक जगह पर टैंपू रुका. उस टैंपू में से 4 सवारियां उतरीं और एक सवारी सामने वाली सीट पर आ कर बैठ गई. जैसे ही अनीता की नजर उस सवारी पर पड़ी, तो वह एकदम चौंक गई और उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

इस से पहले कि अनीता कुछ कहती, सामने बैठा हुआ नौजवान, जिस का नाम मनोज था, ने उस की ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे अनीता, तुम?’’

‘‘हां मैं,’’ अनीता ने बड़े ही बेमन से जवाब दिया.

‘‘तुम कैसी हो? आज हम काफी दिन बाद मिल रहे?हैं,’’ मनोज के चेहरे पर खुशी तैर रही थी.

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘मुझे पता चला था कि यहां इस शहर में तुम्हारी शादी हुई है. जान सकता हूं कि परिवार में कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरे पति, 2 बेटियां और एक बेटा,’’ अनीता बोली.

‘‘तुम्हारे पति क्या करते हैं?’’

‘‘कार मेकैनिक हैं.’’

‘‘क्या नाम है?’’

‘‘नरेंद्र कुमार’’

‘‘मैं यहां अपनी कंपनी के काम से आया था. अब काम हो चुका है. रात की ट्रेन से वापस चला जाऊंगा,’’ मनोज ने अनीता की ओर देखते हुए कहा, ‘‘घर का पता नहीं बताओगी?’’

‘‘क्या करोगे पता ले कर?’’ अनीता कुछ सोचते हुए बोली.

‘‘कभी तुम से मिलने आ जाऊंगा.’’

‘‘क्या करोगे मिल कर? देखो मनोज, अब मेरी शादी हो चुकी?है और मुझे उम्मीद है कि तुम ने?भी शादी कर ली होगी. तुम्हारे घर में भी पत्नी व बच्चे होंगे.’’

‘‘हां, पत्नी और 2 बेटे?हैं. तुम मुझे पता बता दो. वैसे, तुम्हारे घर आने का मेरा कोई हक तो नहीं है, पर एक पुराने प्रेमी नहीं, बल्कि एक दोस्त के रूप में आ जाऊंगा किसी दिन.’’

‘‘शिव मंदिर के सामने, जवाहर नगर,’’ अनीता ने कहा.

कुछ देर बाद टैंपू रुका. अनीता टैंपू से उतरने लगी.

‘‘अनीता, अब तो रात को मैं वापस आगरा जा रहा हूं, फिर किसी दिन आऊंगा.’’

अनीता ने कोई जवाब नहीं दिया. घर पहुंच कर उस ने देखा कि उस की बड़ी बेटी कल्पना, छोटी बेटी अल्पना और बेटा कमल कमरे में बैठे हुए स्कूल का काम कर रहे थे.

अनीता ने कल्पना से कहा, ‘‘बेटी, मैं जरा आराम कर रही हूं. सिर में तेज दर्द?है.’’

‘‘मम्मी, आप को डिस्प्रिन की दवा या चाय दूं?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘नहीं बेटी, कुछ नहीं,’’ अनीता ने कहा और दूसरे कमरे में जा कर लेट गई.

अनीता को तकरीबन 11 साल पहले की बातें याद आने लगीं. जब वह 12वीं जमात में पढ़ रही थी. कालेज से छुट्टी होने पर वह एक नौजवान को अपने इंतजार में पाती थी. वह मनोज ही था. उन दोनों का प्यार बढ़ने लगा. अनीता जान चुकी थी कि मनोज किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर रहा है.

मनोज के पिताजी का अपना कारोबार था और अनीता के पिताजी का भी. वे दोनों शादी करना चाहते?थे, पर अनीता के पापा को यह रिश्ता बिलकुल मंजूर नहीं था.

लिहाजा, अनीता और मनोज ने घर से भागने की ठान ली. घर से 50 हजार रुपए नकद व कुछ जेवर ले कर अनीता मनोज के साथ जयपुर जाने वाली ट्रेन में बैठ गई थी.

जयपुर पहुंच कर वे 8-10 दिन होटल में रहे. पता नहीं, पुलिस को कैसे पता चल गया और उन दोनों को पकड़ लिया गया. अनीता के पापा को आगरा से बुलाया गया. मनोज को पुलिस ने नहीं छोड़ा. नाबालिग लड़की को भगाने के अपराध में जेल भेज दिया गया.

पापा को अनीता से बहुत नफरत हो गई थी, क्योंकि उस ने कहना नहीं माना था.

अनीता ने आगे पढ़ाई करने को कहा था, पर पापा ने मना कर दिया था और उस की शादी करने की ठान ली थी. उस के लिए रिश्ते ढूंढ़े जाने लगे.

सालभर इधरउधर धक्के खाने के बाद पापा को एक रिश्ता मिल ही गया था. विधुर नरेंद्र की उम्र 35 साल थी. उस की पत्नी की एक हादसे में मौत हो चुकी थी. उस की 2 बेटियां थीं. एक 5 साल की और दूसरी 3 साल की.

नरेंद्र एक कार मेकैनिक था. उस की अपनी वर्कशौप थी. पापा ने नरेंद्र से जब शादी की बात की, तो उसे सब सच बता दिया था. नरेंद्र ने सब जान कर भी मना नहीं किया था.

अनीता शादी कर के नरेंद्र के घर आ गई थी. अब वह 2 बेटियों की मां बन गई थी.

एक दिन नरेंद्र ने कहा था, ‘देखो अनीता, मुझे तुम्हारी पिछली जिंदगी से कोई मतलब नहीं. तुम भी वह सब भुला दो. इस घर में आने का मतलब है कि अब तुम्हें एक नई जिंदगी शुरू करनी है. अब तुम अल्पना और कल्पना की मम्मी हो… तुम्हें इन दोनों को पालना है.’

‘जी हां, मैं ऐसा ही करूंगी. अब कल्पना और अल्पना आप की ही नहीं, मेरी भी बेटियां?हैं,’ अनीता ने कहा था.

एक साल बाद अनीता ने एक बेटे को जन्म दिया था. बेटा पा कर नरेंद्र बहुत खुश हुआ था. बेटे का नाम कमल रखा गया था.

अनीता नरेंद्र को पति के रूप में पा कर खुश थी और उस ने भी कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. पापामम्मी भी अपना गुस्सा भूल कर अब उस से मिलने आने लगे थे.

आज दोपहर अनीता की अचानक मनोज से मुलाकात हो गई. उसे मनोज को घर का पता नहीं देना चाहिए था. उस के दिल में एक अनजाना सा डर बैठने लगा. वह आंखें बंद किए चुपचाप लेटी रही.

अगले दिन सुबह के तकरीबन 11 बजे अनीता रसोई में खाना तैयार कर रही थी. कालबेल बज उठी. उस ने दरवाजा खोला, तो सामने मनोज खड़ा था.

‘‘तुम…’’ अनीता के मुंह से अचानक ही निकला,’’ तुम तो कह रहे थे कि मैं रात की गाड़ी से आगरा जा रहा हूं.’’

‘‘अनीता, मुझे रात की गाड़ी से ही आगरा जाना था, पर टैंपू में तुम से मिलने के बाद मेरा दिल दोबारा मिलने को बेचैन हो उठा. होटल में रातभर नींद नहीं आई. तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा. तुम नहीं जानती अनीता कि मैं आज भी तुम को कितना चाहता हूं,’’ मनोज ने कहा.

अनीता चुपचाप खड़ी रही. उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘अनीता, अंदर आने के लिए नहीं कहोगी क्या? मैं तुम से केवल 10 मिनट बातें करना चाहता हूं.’’

‘‘आओ,’’ न चाहते हुए भी अनीता के मुंह से निकल गया.

कमरे में सोफे पर बैठते हुए मनोज ने इधरउधर देखते हुए पूछा, ‘‘कोई दिखाई नहीं दे रहा है… सभी कहीं गए हैं?क्या?’’

‘‘बच्चे स्कूल गए हैं और नरेंद्र वर्कशौप गए हैं,’’ अनीता बोली.

तभी रसोई से गैस पर रखे कुकर से सीटी की आवाज सुनाई दी.

‘‘जो कहना है, जल्दी कहो. मुझे खाना बनाना है.’’

‘‘अनीता, तुम अब पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई हो. दिल करता?है कि तुम्हें देखता ही रहूं. क्या तुम्हें जयपुर के होटल के उस कमरे की याद आती है, जहां हम ने रातें गुजारी थीं?’’

‘‘क्या यही कहने के लिए तुम यहां आए हो?’’

‘‘अनीता, मैं तुम्हारे पति को सब बताना चाहता हूं.’’

‘‘तुम उन्हें क्या बताओगे?’’ अनीता ने घबरा कर पूछा.

‘‘मैं नरेंद्र से कहूंगा कि जयपुर में मैं अकेला ही नहीं था. मेरे 2 दोस्त और भी थे, जिन के साथ अनीता ने खूब मस्ती की थी.’’

‘‘झूठ, बिलकुल झूठ,’’ अनीता गुस्से से चीखी.

‘‘यह झूठ?है, पर इसे मैं और तुम ही तो जानते हैं. तुम्हारा पति तो सुनते ही एकदम यकीन कर लेगा,’’ मनोज ने अनीता की ओर देखते हुए कहा.

अनीता ने हाथ जोड़ कर पूछा, ‘‘तुम आखिर चाहते क्या हो?’’

‘‘मैं चाहता हूं कि आज दोपहर बाद तुम मेरे होटल के कमरे में आ जाओ.’’

‘‘नहीं मनोज, मैं नहीं आऊंगी. अब मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोलूंगी. नरेंद्र मुझ पर बहुत विश्वास करते?हैं.

मैं उन से विश्वासघात नहीं करूंगी,’’ अनीता ने मनोज से घूरते हुए कहा.

‘‘तो ठीक?है अनीता, मैं नरेंद्र से मिलने जा रहा हूं वर्कशौप पर,’’ मनोज ने कहा.

‘‘वर्कशौप जाने की जरूरत नहीं है. मैं यहीं आ गया हूं,’’ नरेंद्र की आवाज सुनाई पड़ी.

यह देख अनीता और मनोज बुरी तरह चौंक उठे. अनीता के चेहरे का रंग एकदम पीला पड़ गया.

‘‘यहां क्यों आया है?’’ नरेंद्र ने मनोज को घूरते हुए पूछा, ‘‘तुझे इस घर का पता किस ने दिया?’’

‘‘अनीता ने. कल यह मुझे बाजार में मिली थी,’’ मनोज बोला.

अनीता ने घबराते हुए नरेंद्र को पूरी बात बता दी.

‘‘अबे, तुझे अनीता ने पता क्या इसलिए दिया था कि तू घर आए और उसे ब्लैकमेल करे. मैं ने तुम दोनों की बातें सुन ली हैं. अब तू यहां से दफा हो जा. फिर कभी इस घर में आने की कोशिश की, तो पुलिस के हवाले कर दूंगा,’’ नरेंद्र ने मनोज की ओर नफरत से देखते हुए गुस्साई आवाज में कहा.

मनोज चुपचाप घर से निकल गया.

अनीता को रुलाई आ गई. वह सुबकते हुए बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई, जो मैं ने मनोज को घर का पता दे दिया?था.’’

‘‘हां अनीता, यह तुम्हारी जिंदगी की दूसरी भूल है, जो तुम ने अपने दुश्मन को घर में आने दिया. मनोज तुम्हारा प्रेमी नहीं, बल्कि दुश्मन था. सच्चे प्रेमी कभी भी अपनी प्रेमिका को घर से रुपएगहने वगैरह ले कर भागने को नहीं कहते.’’

अनीता की आंखों से आंसू बहते रहे. नरेंद्र ने उस के चेहरे से आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘अनीता, मुझे तुम पर बहुत विश्वास था, पर आज की बातें सुन कर यह विश्वास और बढ़ गया है. वैसे तो मनोज अब यहां नहीं आएगा और अगर आ भी गया, तो मुझे फोन कर देना. मैं उसे पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

नरेंद्र की यह बात सुन कर अनीता के मुंह से केवल इतना ही निकला, ‘‘आप कितने अच्छे हैं…’’

धारा 370 हटाना पड़ रहा महंगा: मोदी काल में आतंक का जिन्न पुंछ से डोडा पहुंचा

करीब 20 सालों तक शांत रहे जम्मू में आखिर ऐसा क्या हो गया कि अचानक वहां आतंकी गतिविधियां तेज हो गई हैं? बीते तीन सालों में आतंकियों ने जम्मू के सुरक्षित माने जाने वाले इलाकों में पैर पसारना शुरू कर दिया है. वे कश्मीर से खिसक कर जम्मू के शांत इलाकों को अपनी गोलियों से थर्रा रहे हैं. वे घात लगा कर सिक्योरिटी फौर्सेस को ही नहीं बल्कि आम नागरिकों को भी निशाना बना रहे हैं. केंद्र की मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर से धारा 370 का खात्मा कर के बारबार इस बात को दोहराया कि हम ने आतंकवाद पर पूरी तरह काबू पा लिया है. मगर ये बात भी जुमला ही साबित हो रही है.

 

जम्मू में आतंकी जिस तरह वारदात कर भागने में सफल हो रहे हैं, उस से ह्यूमन इंटेलिजेंस पर सवाल खड़े हो रहे हैं. आतंकी इलाके में हैं और लगातार वारदात कर रहे हैं लेकिन उन की जानकारी सेना को नहीं मिल पा रही है. तो क्या स्थानीय लोगों का साथ आतंकियों को हासिल है या स्थानीय लोगों के बीच से ही कुछ लोग आतंकियों की भूमिका में आ चुके हैं? वे जम्मू के शांत इलाकों को टारगेट कर रहे हैं. वे जम्मू में हमला कर के यह संदेश भी देना चाहते हैं कि उन की जद में पूरा केंद्र शासित प्रदेश है. अगर वे बाहरी लोग हैं तो सीमा की सुरक्षा को धता बता कर देश में दाखिल कैसे हो रहे हैं? पुंछ के भाटादूड़ियां के जंगलों से निकला आतंक का जिन्न मोदी काल में जम्मू के डोडा तक पहुंच गया है और आतंकियों पर कार्रवाई रणनीतिक बैठकों और सर्च औपरेशन से आगे नहीं बढ़ पा रही है.

अब तक दक्षिण कश्मीर को आतंकवाद का गढ़ माना जाता था. पुंछ, पुलवामा, अनंतनाग जैसे इलाकों में ही आतंकवादी घटनाएं ज्यादा होती थीं. यहां के ऊंचाई वाले जंगलों में आतंकियों के खुफिया ठिकाने थे. इन इलाकों में विजिबिलिटी भी कम है, आतंकी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में छिप कर सेना पर हमला कर भागने में सफल थे. लेकिन वे कब और कैसे जम्मू के शांत क्षेत्रों में आ गए, इसकी जानकारी सेना को नहीं मिली. ऐसे में इंटेलिजेंस पर सवाल खड़े होना लाजिमी है.

क्षेत्र में गड़बड़ी फैलाने के उद्देश्य से घुसे आतंकी सेना पर भारी पड़ रहे हैं. उन्होंने नए इलाकों को भी टारगेट करना शुरू कर दिया है. जहां सुरक्षा बलों की कमी है. सेना के लिए लोकल सोर्स ही उनके आंखकान होते हैं मगर जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटने के बाद सेना को अपने इस सौर्स से कोई मदद नहीं मिल रही है. ह्यूमन इंटेलिजेंस यहां पूरी तरह फेल हो रहा है. इतने सद्भावना कार्यक्रम चलने के बावजूद यह बेस क्यों खत्म हो गया इस पर सेना को गौर करने की और इस की जानकारी केंद्रीय नेतृत्व तक पहुंचाने की जरूरत है. पिछले 3 वर्षों में जम्मू संभाग में 7 बड़े हमले हुए हैं और इन 7 हमलों में अब तक देश के 32 जवान शहीद हो चुके हैं. इस वर्ष की शुरुआत से अब तक जम्मू प्रांत के 6 जिलों में लगभग 12 आतंकवादी हमलों में 11 सुरक्षाकर्मियों, 1 ग्राम रक्षा गार्ड और 5 आतंकवादियों सहित कुल 27 लोग मारे गए हैं।

आतंकवादियों ने राजौरी जिले के कुंडा टोपे निवासी सरकारी कर्मचारी मोहमद रजाक की गोली मार कर ह्त्या कर दी, वह टेरिटोरियल आर्मी के एक जवान के भाई थे.

उधमपुर के चोचरु गाला की पहाड़ियों पर स्थित बसंतगढ़ इलाके में आतंकियों से मुठभेड़ में गांव के डिफेन्स गार्ड मोहम्मद शरीफ मारे गए थे. यह घटना 28 अप्रैल की है.

आतंकवादियों ने 4 मई को इंडियन एयरफोर्स के जवान विक्की पहाड़े का कत्ल कर दिया था. और इस मुठभेड़ में 4 जांबाज जख्मी हुए थे. यह घटना सुरनकोट की है जब आतंकवादियों ने घात लगाकर सेना के काफिले पर हमला किया था.

 

9 जून को रियासी में तीर्थयात्रियों से भरी बस पर आतंकवादियों ने हमला बोला था. इस हमले में 9 लोगों की मौत हुई और 42 लोग जख्मी हुए थे. इस हमले के बाद बस पहाड़ी से नीचे खाई में गिर गई थी. इस में कटरा से शिवखोड़ी जा रहे तीर्थयात्री सवार थे.

भद्रवाह के छतरगाला में आतंकियों ने सुरक्षा चौकी पर हमला बोला था. इस हमले में 5 सैनिक और एक पुलिसकर्मी घायल हुआ था.

एक दिन ही गुजरा होगा कि 11 और 12 जून की रात 2 आतंकवादियों ने सीआपीएफ के जवान कबीर दास का क़त्ल कर दिया. कठुआ जिले के हीरानगर गांव में हुई इस घटना में एक नागरिक भी घायल हुआ. यह गांव भारत और पाकिस्तान सीमा के नजदीक है. अगले ही दिन 12 जून को आतंकियों ने डोडा जिले के कोटा टोप इलाके में पुलिस पार्टी पर हमला किया. इस अटैक में हेड कौंस्टेबल फरीद अहमद जख्मी हुए थे.

सुरक्षा बलों की 26 जून को डोडा के गंदोह इलाके में आतंकियों से मुठभेड़ हुई थी. इसमें सुरक्षाबलों ने 3 आतंकियों को मार गिराया था.

राजौरी जिले के मंजाकोट इलाके में आतंकियों ने सुरक्षा चौकी पर हमला बोल दिया था. इसमें सेना का एक जवान घायल हुआ था.

8 जुलाई को एक जेसीओ समेत 5 सैनिक शहीद हुए. आतंकवादियों ने झाड़ी में छिप कर उन पर हमला बोला था. इस भीषण हमले को कठुआ जिले के बडनोटा में अंजाम दिया गया था. भीषण हमले को हुए करीब एक सप्ताह का वक्त ही बीता था कि डोडा जिले के डेसा में आतंकवादियों ने 16 जुलाई को हमला बोला, जिसमें सेना के अफसर सहित 3 सैनिक मारे गए. जुलाई का महीना अभी पूरा बीता भी नहीं है कि अब तक हमारे 9 सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं.

आखिर जम्मू में क्यों सफल हो रहे हैं आतंकवादी?

जम्मू कश्मीर में फोर्स की कमी आतंकी घटनाओं के बढ़ने का एक कारण है. चार साल पहले यहां जितनी सेना तैनात थी उसके मुकाबले आज काफी कम सैनिक यहां हैं. वजह यह कि चार साल पहले जब चीन के साथ तनाव शुरू हुआ तो इसी इलाके के सैनिकों को वहां भेजा गया. भारतीय सेना की आरआर फोर्स – रोमियो, डेल्टा, यूनिफौर्म फोर्स के पास यहां अलगअलग इलाके का जिम्मा था. लेकिन पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ एलएसी पर तनाव बढ़ने पर यूनिफौर्म फोर्स को एलएसी पर भेज दिया गया. इससे बाकी दोनों फोर्सेस पर उन इलाकों की जिम्मेदारी भी आ गयी जहां यूनिफौर्म फोर्स तैनात थी.

आतंकी उन जगहों पर अटैक कर रहे हैं जहां सिक्योरिटी फोर्सेज कम हैं. आतंकियों ने अपनी रणनीति बदली है और वे काफी ट्रेंड भी हैं और अच्छे उपकरणों से भी लैस हैं. वे अनेक तरीके से ट्रैप करके घात लगा कर हमले कर रहे हैं.

मारे गए आतंकियों के पास से जो चीजें बरामद हुई हैं उसमें रेडियो कम्युनिकेशन के लिए ऐसे अल्ट्रा सेट मिले हैं, जो चाइना मेड हैं और उनका इस्तेमाल पाकिस्तानी सेना भी करती है. पहले आतंकी जिस प्रकार के रेडियो सेट इस्तेमाल करते थे उसमें उनके कम्युनिकेशन भारतीय सेना पकड़ लेती थी और उन के मंसूबों का पता चलते ही उन की घेराबंदी हो जाती थी मगर अब इस मामले में हम फेल हो रहे हैं.

हैरानी की बात है कि मोदी सरकार इन आतंकी हमलों पर चुप्पी साधे बैठी है. जम्मू कश्मीर के डोडा में हुई मुठभेड़ में चार जवानों की शहादत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीत सरकार पर निशाना साधते हुए एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार आतंकवाद को नियंत्रित करने में पूरी तरह विफल रही है.

उन्होंने कहा – ये पूरी तरह से मोदी सरकार की विफलता है…वे आतंकवाद को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं हैं.

ओवैसी ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान आतंकवाद पर मोदी की ‘‘हम घर में घुसकर मारेंगे’’ टिप्पणी पर भी कटाक्ष किया और पूछा कि ‘‘अब ये क्या हो रहा है?’’

उन्होंने कहा, ‘‘हम डोडा आतंकी घटना की निंदा करते हैं, लेकिन यह मोदी सरकार की विफलता है. यह इलाका नियंत्रण रेखा (एलओसी) से बहुत दूर है, ऐसे में कैसे आतंकवादियों ने इतनी दूर तक घुसपैठ की और हमारे सुरक्षाकर्मियों के साथ मुठभेड़ हुई, जिसके कारण एक अधिकारी सहित चार सैन्यकर्मी शहीद हो गए?”

ओवैसी ने कहा, ‘‘यह एक गंभीर मामला है। यह मोदी सरकार की अक्षमता और विफलता को दर्शाता है. 2021 से अकेले इस क्षेत्र में 31 से अधिक आतंकवादी हमले हुए हैं जबकि कांग्रेस के काल में आतंकवाद के चरम पर रहने के दौरान भी यहां ऐसा नहीं था.”

डिजिटल अटेंडैंस मामले पर यूपी सरकार बैकफुट पर, आखिर पेरैंट्स एसोसिएशन क्यों न लगाए टीचर्स की डिजिटल अटेंडैंस

उत्तर प्रदेश में टीचर्स और सरकार के बीच विवाद छिड़ गया. विवाद का कारण शिक्षा विभाग के द्वारा जारी किया एक आदेश था जिस के चलते प्राइमरी टीचर को अपनी हाजिरी या उपस्थिति डिजिटल माध्यम से लगाई जानी थी. टीचर्स इस के लिए तैयार नहीं हुए. वे विरोध कर रहे थे और शिक्षा विभाग भी इस कदम से पीछे हटने को तैयार नहीं था लेकिन लोकसभा चुनाव में हार के बाद योगी सरकार इस तरह की नई मुसीबत से फिलहाल बचना चाह रही है इसलिए टीचरों का विरोध देखते हुए फिलहाल अगले आदेश तक लिए इसे टाल दिया गया है.

क्या था मामला

उत्तर प्रदेश के प्राइमरी स्कूलों में टीचरों की डिजिटल अटेंडैंस 8 जुलाई, 2024 से हर स्कूल में शुरू हुई. इस के शुरू होते ही टीचरों ने अपना गुस्सा दिखाते हुए विरोध जताना शुरू कर दिया. टीचर्स ने हाथ पर काली पट्टी बांध कर अपना काम किया. विरोध कितना तगड़ा था कि राज्य में 6 लाख से ज्यादा प्राइमरी टीचर में से 2 फीसदी से भी कम ने डिजिटल अटेंडैंस लगाई. राज्य के अलगअलग क्षेत्रों में शिक्षक अपनाअपना विरोध दर्ज करवाए.

टीचर्स ने मांग की कि सरकार पुरानी पेंशन समेत टीचरों की सभी लंबित मांगें मानें तो हम इस नई व्यवस्था को खुशीखुशी स्वीकार कर लेंगे. नियम के मुताबिक, विद्यालयों में शिक्षकों और दूसरे कर्मियों को सुबह 7.45 बजे से 8 बजे तक अपनी अटेंडैंस लगानी होती है. अब इस समय को बढ़ा कर 8.30 बजे तक कर दिया गया था. टीचर्स के विरोध को देखते हुए बेसिक शिक्षा विभाग अपना रूख नरम किया और टीचर्स को 30 मिनट की मोहलत दी थी लेकिन टीचर्स को स्कूल देर से पहुंचने की जरूरी वजहें भी बतानी होगी.

शिक्षकों की परेशानी यह है कि नियमों के अनुसार, उन्हें सुबह 7 बज कर 30 मिनट तक अपने स्कूल पहुंचना होता है. क्लास शुरू होने से पहले सुबह 7 बज कर 45 मिनट से 8 बजे के बीच अपनी अटेंडैंस लगानी पड़ती. उन की परेशानी है कि दूरदराज के गांवों में इंटरनैट कनेक्टिविटी ठीक नहीं है. औनलाइन अटेंडैंस दर्ज करने में टाइम लगता है. कई स्कूल दूरदराज इलाकों में बने हैं और बारिश के मौसम में पानी से घिरे रहते हैं, इसलिए अगर कोई टीचर देरी से आता है तो उसे अबसेंट मान लिया जाता और उस की छुट्टी या फिर पैसे काट लिए जाते. सरकार के इस आदेश को शिक्षक पूरी तरह से गलत मानते हैं.

डिजिटल अटेंडैंस जरूरी नहीं

डिजिटल अटेंडैंस सरकार इसलिए जरूरी मानती है जिस से टीचर्स के समय पर स्कूल आने या जाने पर नजर रखी जा सके. वैसे स्कूल टीचर्स की निगरानी के लिए सरकार के पास कई और रास्ते भी हैं. जैसे शिक्षा विभाग के अफसर समयसमय पर स्कूल का निरीक्षण करते रहे. शिक्षा विभाग के पास लंबाचौड़ा अमला है. जो इस काम को करता है. इस के बाद भी टीचर्स जुगाड़ लगा कर बच जाते हैं. जिस तरह से टीचर्स जुगाड़ लगा कर बच जाते हैं उसी तरह से डिजिटल अटेंडैंस में भी बच जाएंगे क्योंकि इस डिजिटल अटेंडैंस को देखने वाले सरकारी लोग ही हैं. उन को अपने फेवर में लेना आसान है. एक ही विभाग में होने के कारण दोनों एकदूसरे के हितों का ध्यान रखते हैं.

कई मसलों में देखा जा चुका है कि सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से तमाम गलत काम होते हैं. ऐसे में इस डिजिटल अटेंडैंस का तोड़ भी निकल ही आएगा. डिजिटल अटेंडैंस से बड़ा मुद्दा है पढ़ाई में सुधार का, जिस से गांव के गरीब वर्ग के बच्चों का भविष्य निर्माण हो सके. बहुत सारी सुविधाओं और सहूलियतों के बाद भी गांव के बच्चों की पढ़ाई का स्तर नहीं सुधर रहा है. सवाल उठता है कि स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर्स की निगरानी कैसे हो सके?

पेरैंट्स एसोसिएशन से मिल सकती है मदद

डिजिटल अटेंडैंस से बेहतर होगा कि सरकार हर स्कूल में पेरैंट्स एसोसिएशन बनाने की व्यवस्था करे. एसोसिएशन का हर साल चुनाव हो. यह 10 सदस्यीय एक टीम बने. इस में अध्यक्ष और सचिव जैसे पद हो. इन का चुनाव हो. पेरैंट्स में बच्चे के मातापिता दोनों को वोट देना जरूरी हो. चुनाव लड़ने के लिए भी दोनों को अवसर मिले. स्कूल खुलने के 15 दिन में प्रक्रिया पूरी हो जाए. पेरैंट्स एसोसिएशन चुनाव के द्वारा ही बने. जिस से किसी तरह से विवाद न हो सके. एसोसिएशन लिखतपढ़त की व्यवस्था में मदद के लिए एक स्कूल टीचर को रखा जा सकता है.

यह पेरैंट्स एसोसिएशन ही स्कूल की निगरानी का काम करे. इसी को यह देखने का अधिकार हो कि टीचर समय से आ रहा है या नहीं. स्कूल की पढ़ाई की गुणवत्ता में भी इस से सुधार होगा. स्कूल में बच्चों को खाना कैसा मिल रहा है? किताब और ड्रैस की परेशानी भी हल हो जाएगी. स्कूल की गुणवत्ता सुधारने का काम उन के हाथों को मिल जाएगा जिन के बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं. ऐसे में वह अपने बच्चे के भविष्य को बिगड़ने नहीं देंगे और टीचर्स पर पूरी तरह से लगाम लगा सकते हैं.

शिक्षा व्यवस्था में तभी सुधार होगा जब टीचर्स और पेरैंट्स मिल कर काम करेंगे. केवल शिक्षा विभाग के बाबू से डिजिटल अटेंडैंस चेक करवा कर किसी तरह के सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती. इस से केवल सरकार, शिक्षा विभाग और टीचर्स के बीच झगड़ा बढ़ेगा. जिस का प्रभाव स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे पर पड़ेगा. जब पूरे देश में अलगअलग तरह के तमाम चुनाव हो ही रहे हैं तो स्कूलों में पेरैंट्स एसोसिएशन का चुनाव होने से क्या दिक्कत होगी? बच्चों के साथ गलत व्यवहार की जो शिकायतें रोजरोज मिलती रहती हैं वह भी कम हो जाएंगी.

डिजिटल अटेंडैंस से बेहतर है कि हर स्कूल में पेरैंट्स एसोसिएशन बनाई जाए. इस का काम स्कूल टीचर्स की निगरानी और देखभाल करना हो. स्कूल की लगाम इस के साथ होगी तो पढ़ाई की व्यवस्था को पटरी से उतरने का खतरा नहीं रहेगा. आपस में टकराव भी नहीं होगा. पेरैंट्स को भी अपनी जिम्मेदारी निभाने का मौका मिल सकेगा. इस से स्कूल की पढ़ाई का स्तर को सुधारा जा सकता है. जबरदस्ती टीचर्स पर दबाव बना कर काम नहीं होगा. दबाव की जगह सहयोग की बात हो. निगरानी का काम पेरैंट्स एसोसिएशन का होगा तो गड़बड़ी खत्म हो जाएगी.

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