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नरेंद्र मोदी से खौफ खाते हैं लालकृष्ण आडवाणी

लालकृष्ण आडवाणी को बेवजह भाजपा का भीष्म पितामह नहीं कहा जाता उनका व्यक्तित्व और आचरण दोनों सचमुच में द्वापर के भीष्म से मेल खाते हैं. भीष्म विद्वान था, नीति का ज्ञाता था, साहसी योद्धा था लेकिन न्याय प्रिय नहीं था क्योंकि दुर्योधन के प्रति उसकी आसक्ति उसके तमाम गुणों पर भारी पड़ती थी. वह कभी दुर्योधन के अन्याय और मनमानी का खुलकर विरोध नहीं कर पाया. प्रसंग चाहे फिर द्रौपदी के चीरहरण का रहा हो या फिर पांडवों को परेशान कर छल कपट से उनके राजपाट छीनने का, भीष्म का समर्थन हमेशा दुर्योधन के साथ रहा. धर्म और नीति का राग अलापते रहने बाले भीष्म की हिम्मत कभी उसका विरोध करने की नहीं पड़ी और इसी मोह के चलते वह दुर्योधन के हर गलत काम का सहभागी बना.

आज भी यही हो रहा है लालकृष्ण आडवाणी का ताजा चर्चित ट्वीट कोई क्रांतिकारी या हाहाकारी वक्तव्य नहीं है बल्कि नरेंद्र मोदी का समर्थन और प्रचार ही है कि हर वो शख्स जो भाजपा की नीतियों रीतियों से इत्तफाक नहीं रखता वह देशद्रोही ही है. आडवाणी का मकसद नरेंद्र मोदी का विरोध नहीं बल्कि हताश होती भाजपा को यह संदेश देना है कि नरेंद्र मोदी अगर चुनाव को हिन्दुत्व के इर्द गिर्द समेटने की कोशिश कर रहे हैं तो पार्टीजन उनका साथ दें जिससे भाजपा दौबारा सत्ता में आकर हिन्दू राष्ट्र का अपना अधूरा मिशन पूरा कर सके.

जितना कट्टरवाद आडवाणी ने फैलाया है मोदी तो उसका दसवा हिस्सा भी नहीं फैला पाए हैं. 90 के दशक में मंदिर आंदोलन के दौरान हिंदुओं का जितना नुकसान आडवाणी ने किया और हजारों हिंदुओं की ज़िंदगी रामलला के नाम पर कुर्बान करबा दी इस बाबत इतिहास शायद ही उन्हें माफ कर पाएगा. यह वह दौर था जब वे रथ पर सवार होकर हाथ में तीर कमान लेकर और माथे पर मुकुट धारण कर निकलते थे तो हिन्दू समुदाय पगला उठता था और उन पर चंदे की बौछार कर देता था. आडवाणी ने भी खूब हिंदुओं की भावनाओं को भुनाया, भड़काया और दंगे भी करबाए और आखिरकार भाजपा को उसकी असल मंजिल सत्ता तक पहुंचाकर ही दम लिया.

तब कुर्सी की मलाई अटलबिहारी बाजपेयी के हिस्से में आई जो राम मंदिर को आस्था का विषय तो मानते थे लेकिन उसके लिए सड़कों पर आकर फसाद जैसी हल्की हरकतें करना उनकी फितरत में नहीं था. आडवाणी ने तब भी बेमन से मोहरा बनना कुबूल कर लिया था.

2014 में इसका दौहराव यानि आडवाणी के साथ फिर अन्याय हुआ तब भी वे खामोशी से महाभारत सरीखे छल प्रपंच देखते रहा. ऐसा भी नहीं था कि उनमें विरोध का साहस नहीं था बल्कि था ऐसा कि जब आरएसएस और साधु संतों ने उन्हें मोदी की महत्ता बतलाई तो वे फिर सत्ता के रास्ते से हट गए और कल के गुजराती छोरे को हिन्दू हित में प्रधानमंत्री बन जाने दिया. यह कोई दरियादिली नहीं बल्कि डर और  घोर सांप्रदायिकता थी जिस पर भी वे ख़ासी हमदर्दी बटोर ले गए थे.

आज भी वे सांप्रदायिकता ही फैला रहे हैं उनके ट्वीट के हर कोई अपने हिसाब से माने निकाल रहा है कि यह नरेंद्र मोदी का विरोध है पर हकीकत में यह एक भीष्म का दुर्योधन प्रेम और मोह है जिसे व्यक्त करने का तरीका ऐसा है कि विरोधी भी कहें कि वाह क्या बात है.

जो हमसे असहमत वे दुश्मन या देशद्रोही नहीं, ये 8 शब्द ही उनकी कुत्सित मंशा प्रदर्शित करते हुये हैं कि हमसे से तात्पर्य हिन्दुत्व से ही है और अब मोदी उसका न्रेतृत्व कर रहे हैं. भाजपा अपने हिंदूवादी एजेंडे से भटकी नहीं है यह जताने यह मुनासिब वक्त भी है क्योंकि नरेंद्र मोदी कमजोर पड़ रहे हैं. उनकी टीम में आदित्यनाथ के अलावा किसी को इजाजत नहीं कि वह नीतिगत बात कहे, हाँ गांधी नेहरू खानदान को कोसते रहने की इजाजत सबको दे दी गई है.

लालकृष्ण आडवाणी ने नरेंद्र मोदी के किसी भी अप्रिय फैसले या राष्ट्रवाद की आलोचना कभी नहीं की क्योंकि वह आरएसएस का एजेंडा है और खुद उनकी भी ख़्वाहिश है कि भारत हिन्दू राष्ट्र बने और उनके देखते ही देखते बने. इस बाबत वे कुछ भी कर सकते हैं हालिया ट्वीट उसी मिशन का हिस्सा है इसमें उनका दर्द, भड़ास या तथाकथित व्यथा ढूंढा जाना निरी मूर्खता है जो कुछ विपक्षी नेता कर भी रहे हैं. ममता बनर्जी और राहुल गांधी शायद ही समझ पाएँ कि यह नरेंद्र मोदी को महिमा मंडित करने की चाल है. दरअसल में यह मोदी का वह खौफ है जो साल 2014 में स्थापित हुआ था इसे विस्तार देकर उसका प्रचार ही आडवाणी कर रहे हैं.

घर पर ऐसे बनाए मैगी पकौड़े

मैगी हर किसी को पसंद होती है. बच्चे तो इसे पसंद करते ही करते हैं, इनके साथ बड़ो को भी मैगी बहुत पसंद होती है. आज हम आपको आप मैगी की स्पेशल डिश बताते हैं और ये स्पेशल डिश है मैगी पकौड़े. तो आइए इसकी रेसिपी जानते हैं.

1 टीस्पून नमक

2 टीस्पून लाल मिर्च पाउडर

45 ग्राम सूजी

35 ग्राम बेसन

2 टेबलस्पून पानी

300 मिली पानी

2 पैकेट मैगी

2 पैकेट मैगी मसाला

70 ग्राम पत्तागोभी

70 ग्राम प्याज

70 ग्राम शिमला मिर्च

25 ग्राम धनिया

बनाने की विधि

एक पैन में पानी डालकर उबालें.

अब इसमें मैगी और मैगी मसाला डालकर अच्छे से मिक्स करें और पकाएं और बाद में बाउल में निकाल लें.

इसमें पत्तागोभी, प्याज, शिमला मिर्च, धनिया, नमक, लाल मिर्च पाउडर, सूजी, बेसन और पानी डालकर अच्छे से मिक्स कर लें.

थोड़ा-सा मिक्सचर लेकर छोटी-छोटी बाल्स बना लें और साइड रख दें.

अब इसे  एक पैन में तेल गर्म कर इन्हें अच्छे से फ्राई करें.

इन्हें तब तक फ्राई करें जब तक इनका रंग हल्का गोल्डन ब्राउन न हो जाएं.

मैगी पकौड़े तैयार हैं और इसे गर्मागर्म परोसें.

राजनीति में महिलाएं आज भी हाशिए पर

औरतों को राजनीति में हिस्सेदारी देने की बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं. ममता बनर्जी ने 2019 के चुनावों में 40% सीटें औरतों को दी हैं. राहुल गांधी ने वादा किया है कि अगर जीते तो लोकसभा व विधानसभाओं में एकतिहाई सीटों पर औरतों का आरक्षण होगा. 2014 के चुनावों में बड़ी पार्टियों के 1,591 उम्मीदवारों में सिर्फ 146 औरतें थीं. लोकसभा हो या विधानसभाएं औरतें इक्कादुक्का ही दिखती हैं.

वैसे यह कोई चिंता की बात नहीं है. राजनीति कोई ऐसा सोने का पिटारा नहीं कि औरतें उसे घर ले जा कर कुछ नया कर सकती हैं. राजनीति राजनीति है और आदमी हो या औरत, फैसले तो उसी तरह के होते हैं. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहीं और सोनिया गांधी प्रधानमंत्री सरीखी रहीं पर देश में कोई क्रांति उन की वजह से आई हो यह दावा करना गलत होगा. मायावती से दलितों व औरतों का उद्धार नहीं हुआ और ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल को औरत की स्वर्णपुरी नहीं बना डाला.

जैसे बच्चों या बूढ़ों की गिनती राजनीति में नहीं होती वैसे ही अगर औरतों की भी न हो तो कोई आसमान नहीं टूटेगा. जरूरत इस बात की है कि सरकारी फैसले औरतों के हित में हों जो पुरुष भी उसी तरह कर सकते हैं जैसे औरतें कर सकती हैं.

औरतों के राजनीति में प्रवेश पर कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए और वह है भी नहीं. औरतों को वोट देने का हक भी है. वे अगर हल्ला मचाती हैं तो सरकारी निर्णयों में उस की छाप देखी जा सकती है. कमी तो इस बात की है कि औरतों को समाज में वह बराबर का स्थान नहीं मिल रहा है जिस की वे हकदार हैं और जिसे वे पा सकती हैं.

इस में रोड़ा धर्म है. धर्म ने औरतों को चतुराई से पटा रखा है. उन्हें तरहतरह के धार्मिक कार्यों में उलझाया रखा जाता है. राजनीति तो क्या घरेलू नीति में भी उन का स्थान धर्म ने दीगर कर दिया है. धर्म उपदेशों में औरतों को नीचा दिखाया गया है. चाहे कोई भी धर्म हो धार्मिक व्याख्यान आदमी ही करते फिरते हैं. हर धर्म की किताबें औरतों की निंदाओं से भरी हैं और उस की पोल खोलने की हिम्मत राजनीति में कूदी औरतों तक में नहीं है.

अगर औरतों को काम की जगह, घरों में, बाजारों में, अदालतों में सही स्थान मिलना शुरू हो जाए तो राजनीति में वे हों या न हों  कोई फर्क नहीं पड़ता. उन की सांसदों में चाहे जितनी गिनती हो पर अगर उन्हें फैसले आदमियों के बीच रह कर उन के हितों को देखते हुए लेने हैं तो उन की 40 या 50% मौजूदगी भी कोई असर नहीं डालेगी.

औरतों की राजनीति में भागीदारी असल में एक शिगूफा या जुमला है जिसे बोल कर वोटरों को भरमाने की कोशिश की जाती है. अगर राजनीति में औरतों की भरमार हो भी गई तो भी भारत जैसे देश में तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जहां धर्म व सामाजिक रीतिरिवाजों के सहारे उन्हें आज भी पुराने तरीकों से घेर रखा है. बाल कटी, पैंट पहने, स्कूटी पर फर्राटे से जाती लड़की को भी आज चुन्नी से अपना चेहरा बांध कर चलना पड़ रहा है ताकि कोई छेड़े नहीं. आज भी लड़की अपनी पसंद के लड़के के साथ घूमफिर नहीं सकती, शादी तो बहुत दूर की बात है.

औरतों की राजनीति में मौजूदगी के बावजूद अरसे से इस सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था को तोड़ने का कोई नियम नहीं बना है. औरतें तो केवल खिलवाड़ की चीज बन कर रह गई हैं. संसद व विधानसभाओं में पहुंच कर वे औरतों की तरह का नहीं सासों और पंडितानियों का सा व्यवहार नहीं करेंगी, इस की कोई गारंटी दे सकता है क्या?

भूलकर भी न खाएं जोड़ो के दर्द में ये चीज

जोड़ों का दर्द होना एक आम समस्या है. इसका दर्द किसी भी मौसम में बढ़ सकता है. जोड़ो के दर्द से उठने-बैठने हर काम में आपको परेशानी होती है. इस दर्द से निजात पाने के लिये कुछ लोग दवाई भी लेते हैं पर आप इसके लिए कुछ घरेलू उपाय भी अपना सकते हैं. ताकि आपको दर्द से आराम मिल सके.

क्या आप जानते हैं कि कुछ चीजें ऐसे भी होती हैं अगर इनका सेवन किया जाये तो जोड़ो के दर्द की समस्या और बढ़ भी सकती है. तो चलिए हम जानते हैं कि ऐसे कौन से फूड्स हैं जिनके सेवन से घुटनों में दर्द हो सकता है.

– सोडा, न सिर्फ दिल और डायबटीज रोगियों के लिए खतरनाक होता है बल्कि इसके अधिक सेवन से   जोड़ों में भी दर्द होने लगता है. चूंकि सोड़ा में शूगर की मात्रा बहुत ज्यादा होती है और जब आप बहुत   ज्यादा मात्रा में शूगर का सेवन करते हैं तो साइटोकिन्स, शरीर में रिलीज होता है. जिससे दर्द और ज्यादा   बढ़ता है.

–  लाल रसीला टमाटर स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता लेकिन अगर जोड़ों में दर्द की समस्या है तो       यह  नुकसान पहुंचाता है. टमाटर खाने से शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बहुत बढ़ जाती है. जिसकी वजह से शरीर में सूजन बढ़ जाती है और जोड़ों में दर्द होने लगता है.

– ज्यादा मात्रा में ओमेगा 6 फैटी एसिड खाने से भी जोड़ों में दर्द हो सकता है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि ओमेगा 6 फैटी एसिड, अंडे की जर्दी, मीट, फ्राई फूड, कौर्न, सोयाबीन आदि में पाया जाता है.

नो फादर्स इन कश्मीरः प्यार, धोखा, उम्मीद और क्षमा की मार्मिक कहानी

रेटिंग: ढाई स्टार

धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर पर पिछले बीस वर्षों से लोगों ने बात करना बंद कर दिया था. फिल्मकारों ने भी कश्मीर की खूबसूरती को अपनी फिल्मों में पेश करने से दूरी बना ली थी. लेकिन अब कुछ फिल्मकार कश्मीर को लेकर गंभीर व संजीदा हुए हैं. जिसके चलते ‘‘हामिद’’जैसी फिल्में बनी हैं और इन फिल्मों ने लोगों को कश्मीर के प्रति सोचने पर मजबूर किया है. अब खुद को चैथाई कश्मीरी मानने वाले फिल्मकार अश्विन कुमार ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ लेकर आए हैं. फिल्म की कहानी कश्मीर घाटी में गायब या आर्मी द्वारा उठाए गए लोगों की तलाश के बहाने कश्मीर की जटिलता के साथ ही मानवीय रिश्तों व उनकी मजबूरियों का चित्रण किया है. अश्विन कुमार का दावा है कि उन्होंने कश्मीर के गांव जाकर काफी शोघकार्य किया है और उस दूसरे पक्ष को दिखाने का प्रयास किया है जिसे अमूमन नहीं दिखाया जाता.

माना कि फिल्म में मासूमियत, अपराध बोध, मानवता, उम्मीद, लालसा, धोखाधड़ी, गंदी राजनीति, ब्यूरोके्रट्स के साथ ही कश्मीर की वास्तवकिता का चित्रण है. मगर अश्विन कुमार की अपनी एकपक्षीय सोच के चलते यह फिल्म प्रोपेागंडा/प्रचारात्मक फिल्म ही बनकर रह जाती है. फिल्म कई सवालों पर चुप रहती है. फिल्मकार अश्विन कुमार राजनैतिक रूप से अति संवेदनशील विषय को सही परिपेक्ष्य में पेश नहीं कर पाए.

जबकि फिल्म की शुरूआत में ही दर्शकों को बताया जाता है कि यह फिल्म भारत व पाक के बीच होते आ रहे सैकड़ों गुप्त युद्ध की सत्य कथा पर आधारित है. मगर फिल्म के कई दृश्य नजर आते हैं.

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कश्मीर वैली/कश्मीर घाटी की पृष्ठभूमि वाली फिल्म ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ की कहानी के केंद्र में 16 वर्ष की नूर(जारा वेब) है, जो कि लंदन में अपनी मां जैनब (नताशा मंगो) के साथ रहती है. स्वतंत्र है. दोस्तों संग सिगरेट वगैरह पी लेती है. अचानक वह अपनी मां जैनब के साथ कष्मीर आती है,साथ में वाहिद भी हैं.यह तीनो लोग कष्मीर में जब हालिमा के घर पहुॅचते हंै,तो पता चलता है कि हालिमा( सोनी राजदान),नूर की दादी हैं और नूर के दादा अब्दुल राशद(कुलभूशण खरबंदा)एक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शक्षक हैं.नूर के पिता बशीर लंबे समय से गायब हैं. अब जैनब चाहती है कि सरकारी दस्तावेज पूरा कर बशीर को मृत मान लिया जाए और वह वाहिद के साथ दूसरी शादी कर ले. पहले तो नूर के दादा व दादी इस बात के लिए राजी नही होते, मगर दबाव में उन्हें यह खानापूर्ती करनी पड़ती है. जैनब शादी के बाद वाहिद के साथ रहने चली जाती हैं, जो कि विदेश मंत्रालय में ब्यूरोके्रट्स हैं, जबकि नूर अपने दादा दादी के साथ रहने लगती है. नूर की दोस्ती एक हम उम्र कश्मीरी लड़के माजिद (शवम रैना) से हो जाती है. धीरे धीरे दोनों कश्मीर के हालतों को समझना शुरू करते हैं. धीरे धीरे नूर को कश्मीर की ‘आधी विधवा आधी विवाहित औरतों’ के बारे में भी जानकारी मिलती है .दोनों को गायब हो चुके अपने पिता की तलाश है. एक दृश्य में माजिद कहता है कि मिलिटेंट और टेररिस्ट में अंतर है. मिलिटेंट आजादी की लड़ाई लड़ते हैं, जबकि टेररिस्ट अपराधी हैं.

इस बीच नूर की मुलाकात एक मस्जिद में आर्शिद लोन से होती है. जो कि उसके पिता के दोस्त रहे हैं. एक दिन जब नूर छिपकर आर्शिद लोन के घर पहुंचती है, तो कुछ देखती है, उससे यही जाहिर होता है कि आर्शिद लोन, आर्मी के साथ साथ आतंकवादियों से भी मिला हुआ है. आर्मी के मेजर अंशुमन झा के साथ आर्शिद लोन के गहरे ताल्लुकात हैं. आर्शिद लोन, आर्मी और आतंकवादियों दोनों से पैसा लेता रहता है. नूर और आर्शिद के बीच होने वाली बात से यह भी उजागर हो जाता है कि उसके व माजिद के पिता के गायब होने और मौत की नींद सो जाने के पीछे आर्शिद लोन का ही हाथ है. आर्शिद लोन का दावा है कि वह इस्लाम की लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि आतंकवादी कश्मीर की आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं. आर्शिद लोन के अनुसार नूर व माजिद के पिता भी आजादी की लड़ाई लड़ने लगे थे. यहां पर नूर को पता चलता है कि उसके व माजिद के पिता राज्य के खिलाफ बंदूक उठाने वाले उग्रवादी थे.

आर्शिद के इशारे पर नूर, अपने दोस्त माजिद, जिससे अब वह प्यार करने लगी है. इसको लेकर उस उंचाई पर जाती है, जहां आर्शिद के अनुसार उसके पिता की कब्र है. रात में दोनो रास्ता भटक जाते हैं और भारत पाक सीमा पर बने आर्मी हेडक्वाटर के सिपाही उन्हे पकड़कर मेजर पांडे के पास ले जाते हैं. आर्मी के सिपाही माजिद को बहुत यातनाएं देते हैं, जबकि वाहिद व मेजर पांडे के बीच हुई बातचीत तथा नूर के पास ब्रिटिश पासपोर्ट के चलते नूर को रिहा कर दिया जाता है. नूर व जैनब के गिड़गिड़ाने के बावजूद वाहिद, माजिद को छुड़ाने से मना कर देता है,तब जैनब,वाहिद का घर छोड़कर अपने ससुर अब्दुल राशद के घर वापस आ जाती है.

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वाहिद का घर छोड़ते ही मेजर पांडे अपने दल बल के साथ नूर व अब्दुल राशद के घर की तलाशी लेने पहुंच जाते हैं, सारा सामान तोड़कर रख देते हैं,तभी कुछ तस्वीरे मिलती हैं. उन तस्वीरों को देखकर नूर का शक यकीन में बदल जाता है. उधर अब्दुल राशद यह मानते हैं कि वह अपने बेटे बशीर के विचारों से सहमत नहीं थे पर चुप रहे. यानी कि नूर के पिता उग्रवादी/आतंकवादी  बनने की राह पर थे. अब नूर, आर्शिद लोन से मिलती है और धमकाती है कि वह माजिद को छुड़ाकर लाए अन्यथा वह आर्मी को बता देगी कि उसने एक आतंकवादी को अपने घर के अंदर छिपा रखा है. आर्शिद लोन,  माजिद को छुड़ाने से इंकार कर देता है और नूर को अपने रास्ते से हटाना चाहता है,पर नूर के दादा अब्दुल राशद बीच में आकर कहते हैं कि वह नूर को समझा लेंगे, पर आर्शिद जिद करता है, तो नूर के दादा कहते हैं कि वह उसकी सच्चाई पूरी कौम को बता देंगे. तब आर्शिद शांत होता है, पर नूर  आर्शिद लोन से कहती है कि वह चाहे जैसे माजिद को छुड़ाकर लाए.

तब लोन लोगों का मसीहा बनकर सभी औरतों के संग जुलूस लेकर ‘हमें आजादी चाहिए’के नारे लगाते हुए आर्मी के हेडक्वाटर पहुंचता है. सैनिक उन्हें बंदूक की नोक पर कुछ दूर पहले ही रोक देते हैं पर आर्षिद लोन आगे बढ़कर सैनिक से कहता है कि मेजर पांडे को बताएं कि आर्शिद लोन मिलना चाहता है. आर्शिद लोन अंदर जाकर माजिद को लेकर लौटता है. लोग खुश हो जाते हैं कि आर्शिद ने माजिद को छुड़ा लिया. कुछ देर में आर्मी पत्रकारों को बताती है कि मुठभेड़ मे एक आतंकवादी मारा गया और एक सैनिक शहीद हो गया. जब चेहरे पर से कपड़ा हटाया जाता है तो यह वही आतंकवादी होता है जिसे नूर ने आर्शिद लोन के घर में देखा था और सिपाही वही होता है जिसने माजिद को पीटा था पर नूर को खाने के लिए बिस्कुट दिए थे.

उसके बाद आर्शिद, माजिद की मां से शादी कर लेता है, इससे माजिद खुश है. नूर, माजिद को आर्शिद लोन का सच बताना चाहती है, पर फिर चुप रह जाती है. कुछ दिन बाद नूर अपनी मां जैनब के साथ वापस इंग्लैंड चली जाती है.

लेखक व निर्देशक अश्विन कुमार की यह फिल्म इंटरवल के पहले काफी धीमीगति से आगे बढ़ती है. कहानी में सारे जटिल मुद्दे इंटरवल के बाद ही आते हैं. यानी कि फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसकी गति है. इसकी दूसरी कमजोर कड़ी कैमरामैन जियान मार्क सेलवा हैं, जो कि कई दृश्यों में बुरी तरह से मात खा गए हैं. फिल्म की तीसरी कमजोरी इसका संगीत है जो कि कई बार फिल्म की कहानी की लय को बाधित करता है.

फिल्मकार अश्विन कुमार ने इस फिल्म में कई सवाल उठाए हैं. मसलन-कौन पंड़ित है और कौन नहीं है? एक कश्मीरी बालक या कश्मीरी युवा हाथ में बंदूक क्यों उठाता है? इस्लाम की लड़ाई और आजादी की लड़ाई में अंतर? आखिर युवा पीढ़ी को किस आजादी की तलाश है?

फिल्म में कश्मीर के अंदर ही विचारधारा का जो आपसी टकराव है, उसे रेखांकित करने वाला एक दृश्य है. इस दृष्य में आर्शिद, नूर से उसके पिता के संदर्भ में कहता है- ‘‘वे कश्मीर के लिए लड़ रहे थे, मैं इस्लाम के लिए लड़ रहा था. यह स्पष्ट है कि किसे बचना था. यह दृष्य शीत युद्ध की भयावता को भी चित्रित करता है. फिल्मकार ने फिल्म में ‘कश्मीर की आजादी’ का मुद्दा उठाया मगर ‘आजादी’के बाद क्या? राज्य का प्रबंधन कैसे होगा, जैसे सवालों पर फिल्म मौन व फिल्म के पात्र मौन रहते हैं.

कश्मीर में रह रहे लोग भी उन तकलीफों व उन खतरों पर बात नहीं करते हैं, जिनसे वह स्वयं जूझ रहे हैं. फिल्म‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ में भी वह पिता भी चुप हैं, जिनके बेटे गायब हो चुके हैं. पर फिल्म की कहानी धीरे धीरे ज्यों आगे बढ़ती रहती है, वह युद्ध के हालातों के अलावा कई चीजों पर रोशनी डालती है.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो नूर के किरदार में जारा वेब ने अपने पिता के बारे में जवाब मांगते हुए अपने किरदार को बहुत ही न्याय संगत तरीके से निभाया है. मासूम माजिद के किरदार में शवम रैना भी कमाल का अभिनय किया है. कश्मीरीयों व इस्लाम के भले की बात करने वाले अवसरवादी गंदे राजनीतिज्ञ आर्शीद लोन के किरदार को अश्विन कुमार ने अपने अभिनय से परदे पर बेहतर ढंग से उकेरा है. आर्मी मेजर की भूमिका में अंशुमन झा हैं मगर फिल्म में उनका किरदार बहुत छोटा है. बेबस मां के किरदार में सोनी राजदान ने जान डाल दी है.

एक घंटा पचास मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘नो फादर्स इन कश्मीर’’ का निर्माण अश्विन कुमार, सैल्वी लांड्व सायलवैन नहमिया ने ‘‘अलीपुर फिल्मस’’ के बैनर तले किया है. फिल्म के लेखक व निर्देशक अश्विन कुमार,  संगीतकार लौयक डूरी और क्रिस्टोफी ‘डिस्को’मिंक, कैमरामैन जियान मार्क सेलवा तथा फिल्म को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं-अश्विन कुमार, सोनी राजदान, जारा वेब, शवम रैना, अंशुमन झा, कुलभूशण खरबंदा, नताशा मोंगा व अन्य.

बिजी लाइफस्टाइल में इस तरह बनाएं मूंग दाल पालक चीला

आजकल लोगों अपने बिजी लाइफस्टाइल में सुबह नाश्ता करना पसंद नही करते. या ब्रेड और दूध पीकर ही नाश्ता कर लेते हैं, लेकिन पूरे दिन के लिए एनर्जी के लिए नाश्ता पोशण से भरपूर होना चाहिए. जिसमें मूंग दाल और पालक का चीला एक बेस्ट औप्शन है. मूंग दाल और पालक का चीला जितना टेस्टी नाश्ता है उतना ही पोषण से भरपूर भी है.

पेट के लिए मूंग दाल जितनी अच्छी होती है, उतनी ही पालक से बौडी में आयरन और मिनरल की पूर्ति होती है. वहीं इसे घर पर बनाना भी बेहद आसान होता है. बच्चों का टिफिन हो या सुबह-सुबह का झटपट नाश्ता, मूंग दाल पालक का चीला हर जगह फिट हो जाता है. आइए इस तरह बनाएं झटपट बनने वाला मूंग दाल पालक चीला…

हमें चाहिए

बिना छिलके वाली मूंग दाल- 250 ग्राम

दही- 1/2 कप

बारीक कटा पालक- 50 ग्राम

बारीक कटी धनिया पत्ती- 5 चम्मच

बारीक कटी मिर्च- 2

कद्दूकस किया अदरक- 1 चम्मच

जीरा- 3/4 चम्मच

हल्दी पाउडर- 1/2 चम्मच

लाल मिर्च पाउडर- 3/4 चम्मच

नीबू का रस- 2 चम्मच

नमक- स्वादानुसार

तेल- आवश्यकतानुसार

मूंग दाल पालक चीला बनाने का तरीका

मूंग दाल को धोकर चार से पांच घंटे के लिए पानी में भिगोएं. पानी से दाल को निकालें और थोड़ा-सा साफ पानी डालकर ग्राइंडर में डालें और मूंग दाल का पेस्ट बना लें. दाल के घोल का गाढ़ापन डोसा के घोल जैसा ही होना चाहिए. दाल के पेस्ट को एक बड़े बाउल में डालें और उसमें तेल को छोड़कर अन्य सभी सामग्री को डालकर अच्छी तरह से मिलाएं. ध्यान रहे कि घोल में गांठें न हों. अपने टेस्ट के अनुसार नमक मिलाएं. नॉनस्टिक पैन को गर्म करके उसमें हल्का-सा तेल डालें. एक बड़े चम्मच से दाल वाला घोल पैन के बीच में डालें और उसे फैलाएं. ऊपर से थोड़ा-सा तेल और डालें. दोनों तरफ से सुनहरा होने तक पकाएं. और फैमिली को मनपसंद चटनी के साथ सर्व करें.

अब आसान टिप्स से बना पाएंगे घर में मशरूम सौस

हर किसी को चाहे वह बच्चा हो या बूढ़ा मशरूम सभी को पसंद आता है. शादियों और पार्टियों में खासकर मशरूम की कम से कम एक डिश मेन्यू में जरूर होती है. वहीं अगर सौस में मशरूम को मिला दिया जाए तो वह एक अलग ही कौमबिनेशन बन जाता है. और इसीलिए आपके खास मौके को और भी खास बनाने के लिए आज हम लाएं हैं मशरूम सौस की रेसिपी. पार्टियों में खाने में मखमली स्वाद लिए मशरूम सौस स्नैक्स का स्वाद बढ़ा देता है. आइए आपको बताते है टेस्टी मशरूम सौस को आसानी से बनाने का तरीका…

मशरूम सौस बनाने के लिए हमें चाहिए…

बटन मशरूम- 250 ग्राम

बटर- 2 चम्मच

बारीक कटी पुदीना पत्ती- 4 चम्मच

बारीक कटी धनिया पत्ती- 4 चम्मच

मैदा- 2 चम्मच

दूध- 3/4 कप

क्रीम- 1/4 कप

काली मिर्च पाउडर- 1/2 चम्मच

नमक- स्वादानुसार

मशरूम सौस बनाने का तरीका…

मशरूम को धोकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लें. अब पैन में बटर गर्म करें और उसमें मशरूम डालें. मशरूम से पानी निकलेगा के बाद उसे सुखाएं. पैन में मैदा डालकर मिलाएं. अब धीरे-धीरे दूध और क्रीम डालते हुए मिलाएं. ध्यान रहे कि मैदे में कोई गांठ न पड़ें. जब दूध गाढ़ा होने लगे तो पैन में धनिया और पुदीना पत्ता डालकर मिलाएं. गैस को औफ करें. नमक और काली मिर्च पाउडर डालकर मिलाएं और पास्ता के साथ गरम-गरम परोसें.

बोया पेड़ बबूल का…

दर्पण के सामने बैठी मैं असमय ही सफेद होते अपने केशों को बड़ी सफाई से बिखरे बालों की तहों में छिपाने की कोशिश कर रही थी. इस काया ने अभी 40 साल भी पूरे नहीं किए पर दूसरों को लगता कि मैं 50 पार कर चुकी हूं. बड़ी कोशिश करती कि 40 की लगूं और इस प्रयास में चेहरे को छिपाना तो आसान था मगर मन में छिपे घावों को कैसे छिपाती.

दरवाजे की घंटी बजने के साथ ही मैं ने घड़ी की ओर देखा तो 11 बजने में अभी 10 मिनट बाकी थे. मैं ने सोचा कि शायद मेरी कुलीग संध्या आज समय से पहले आ गई हों. फिर भी मैं ने सिर पर चुन्नी ढांपी और दरवाजा खोला तो सामने पोस्टमैन था. मुझे चूंकि कालिज जाने के लिए देर हो रही थी इसलिए झटपट अपनी डाक देखी. एक लिफाफा देख कर मेरा मन कसैला हो गया. मुझे जिस बात का डर था वही हुआ. मैं कटे वृक्ष की तरह सोफे पर ढह गई. संदीप को भेजा मेरा बैरंग पत्र वापस आ चुका था. पत्र के पीछे लिखा था, ‘इस नाम का व्यक्ति यहां नहीं रहता.’

कालिज जाने के बजाय मैं चुपचाप आंखें मूंद कर सोफे पर पड़ी रही. फिर जाने मन में कैसा कुछ हुआ कि मैं फफक कर रो पड़ी, लेकिन आज मुझे सांत्वना देने वाले हाथ मेरे साथ नहीं थे.

अतीत मेरी आंखों में चलचित्र की भांति घूमने लगा जिस में समूचे जीवन के खुशनुमा लमहे कहीं खो गए थे. मैं कभी भी किसी दायरे में कैद नहीं होना चाहती थी किंतु यादों के सैलाब को रोक पाना अब मेरे बस में नहीं था.

एक संभ्रांत और सुसंस्कृत परिवार में मेरा जन्म हुआ था. स्कूलकालिज की चुहलबाजी करतेकरते मैं बड़ी हो गई. बाहर मैं जितनी चुलबुली और चंचल थी घर में आतेआते उतनी ही गंभीर हो जाती. परिवार पर मां का प्रभाव था और वह परिस्थितियां कैसी भी हों सदा गंभीर ही बनी रहतीं. मुझे याद नहीं कि हम 3 भाईबहनों ने कभी मां के पास बैठ कर खाना खाया हो. पिताजी से सुबहशाम अभिवादन के अलावा कभी कोई बात नहीं होती. घर में सारे अधिकार मां के हाथों में थे. इसलिए मां के हमारे कमरे में आते ही खामोशी सी छा जाती. हमारे घर में यह रिवाज भी नहीं था कि किसी के रूठने पर उसे मनाया जाए. नीरस जिंदगी जीने की अभ्यस्त हो चुकी मैं सोचती जब अपना घर होगा तो यह सब नहीं करूंगी.

एम.ए., बी.एड. की शिक्षा के बाद मेरी नियुक्ति एक स्थानीय कालिज में हो गई. मुझे लगा जैसे मैं अपनी मंजिल के करीब पहुंच रही हूं. समय गुजरता गया और इसी के साथ मेरे जीने का अंदाज भी. कालिज के बहाने खुद को बनासंवार कर रखना और इठला कर चलना मेरे जीवन का एक सुखद मोड़ था. यही नहीं अपने हंसमुख स्वभाव के लिए मैं सारे कालिज में चर्चित थी.

इस बात का पता मुझे तब चला जब मेरे ही एक साथी प्राध्यापक ने मुझे बताया. उस का सुंदर और सलौना रूप मेरी आंखों में बस गया. वह जब भी मेरे करीब से गुजरता मैं मुसकरा पड़ती और वह भी मुसकरा देता. धीरेधीरे मुझे लगने लगा कि मेरे पास भी दूसरों को आकर्षित करने का पर्याप्त सौंदर्य है.

एक दिन कौमन रूम में हम दोनों अकेले बैठे थे. बातोंबातों में उस ने बताया कि वह पीएच.डी. कर रहा है. मैं तो पहले से ही उस पर मोहित थी और यह जानने के बाद तो मैं उस के व्यक्तित्व से और भी प्रभावित हो गई. मेरे मन में उस के प्रति और भी प्यार उमड़ आया. आंखों ही आंखों में हम ने सबकुछ कह डाला. मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई जिस की आवाज शायद उधर भी पहुंच चुकी थी. मेरे मन में कई बार आया कि ऐसे व्यक्ति का उम्र भर का साथ मिल जाए तो मेरी दुनिया ही संवर जाए. उस की पत्नी बन कर मैं उसे पलकों पर बिठा कर रखूंगी. मेरी आंखों में एक सपना आकार लेने लगा.

उस दिन मैं ने संकोच छोड़ कर मां को इस बात का हमराज बनाया. उम्मीद थी कि मां मान जाएंगी किंतु मां ने मुझे बेहद कोसा और मेरे चरित्र को ले कर मुझे जलील भी किया. कहने लगीं, इस घर में यह संभव नहीं है कि लड़की अपना वर खुद ढूंढ़े. इस तरह मेरा प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े, क्योंकि मुझ में मां की आज्ञा का विरोध करने का साहस नहीं था.

मेरी इस बात से मां इतनी नाराज हुईं कि आननफानन में मेरे लिए एक वर ढूंढ़ निकाला. मुझे सोचने का समय भी नहीं दिया और मैं विरोध करती भी तो किस से. मेरी शादी संदीप से हो गई. मेरी नौकरी भी छूट गई.

शादी के बाद सपनों की दुनिया से लौटी तो पाया जिंदगी वैसी नहीं है जैसा मैं ने चाहा था. संदीप पास ही के एक महानगर में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अधिकारी था. कंपनी ने सभी सुख- सुविधाओं से युक्त घर उसे दिया था.

संदीप के आफिस जाने के बाद मैं घर पर बोर होने लगी तो एक दिन आफिस से आने के बाद मैं ने संदीप से कहा, ‘मैं घर पर बोर हो जाती हूं. मैं भी चाहती हूं कि कोई नौकरी कर लूं.’

वह हौले से मुसकरा कर बोला, ‘मुझे तुम्हारे नौकरी करने पर कोई एतराज नहीं है किंतु जब कभी मम्मीपापा रहने के लिए आएंगे, उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगेगा. अब यह तुम्हारा घर है. इसे बनासंवार कर रखने में ही स्त्री की शोभा होती है.’

‘तो फिर मैं क्या करूं?’ मैं ने बेमन से पूछा.

उस ने जब कोई उत्तर नहीं दिया तो थोड़ी देर बाद मैं ने फिर कहा, ‘अच्छा, यदि किसी किंडर गार्टन में जाऊं तो 2 बजे तक घर वापस आ जाऊंगी.’

‘देखो, बेहतर यही है कि तुम इस घर की गरिमा बनाए रखो. तुम फिर भी जाना चाहती हो तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. तुम कोई किटी पार्टी क्यों नहीं ज्वाइन कर लेतीं.’

‘मुझे किटी पार्टियों में जाना अच्छा नहीं लगता. मां कहती थीं कि कालोनी वालों से जितना दूर रहो वही अच्छा. बेकार समय बरबाद करने से क्या फायदा.’

‘यह जरूरी नहीं कि मैं तुम्हारी मां के सभी विचारों से सहमत हो जाऊं.’

उस दिन मैं ने यह जान लिया कि संदीप मेरी खुशी के लिए भी झुकने को तैयार नहीं है. यह मेरे स्वाभिमान को चुनौती थी. मैं भी अड़ गई. अपने हावभाव से मैं ने जता दिया कि नाराज होना मुझे भी आता है. अब अंतरंग पलों में वह जब भी मेरे पास आना चाहता तो मैं छिटक कर दूर हो जाती और मुंह फेर कर सो जाती. जीत मेरी हुई. संदीप ने नौकरी की इजाजत दे दी.

अगली बार मैं जब मां से मिलने गई तो उन्हें वह सब बताती रही जो नहीं बताना चाहिए था. मां की दबंग आवाज ने मेरे जख्मों पर मरहम का काम किया. वह मरहम था या नमक मैं इस बात को कभी न जान पाई.

मां ने मुझे समझाया कि पति को अभी से मुट्ठी में नहीं रखोगी तो उम्र भर पछताओगी. दबाया और सताया तो कमजोरों को जाता है और तुम न तो कमजोर हो और न ही अबला. मैं ने इस मूलमंत्र को शिरोेधार्य कर लिया.

मैं संदीप से बोल कर 3 दिन के लिए मायके आई थी और अब 7 दिन हो चले थे. वह जब भी आने के लिए कहता तो फोन मां ले लेतीं और साफ शब्दों में कहतीं कि वह बेटी को अकेले नहीं भेजेंगी, जब भी समय हो आ कर ले जाना. मां का इस तरह से संदीप से बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा तो मैं ने कहा, ‘मां, हो सकता है वह अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रमों में व्यस्त हों. मैं ऐसा करती हूं कि…’

‘तुम नहीं जाओगी,’ मां ने बीच में ही बात काट कर सख्ती से कहा, ‘हम ने बेटी ब्याही है कोई जुर्म नहीं किया. शादी कर के उस ने हम पर कोई एहसान नहीं किया है. जैसा हम चाहेंगे वैसा होगा, बस.’

मां ने कभी समझौता करना नहीं सीखा था. विरासत में मुझे यही मिला. मैं खामोश हो गई. जब वह मेरी कोई बात ही नहीं मानता तो मैं क्यों झुकूं. आना तो उसे ही पड़ेगा.

2 दिन बाद ही संदीप आ गया तो मुझे लगा मां ठीक ही कह रही थीं. मां की छाती फूल कर 2 इंच और चौड़ी हो गई.

दीवाली से 4 दिन पहले संदीप के मम्मीपापा आ गए. सीधे तो उन्होंने कुछ कहा नहीं पर उन के हावभाव से ऐसा लगा कि मेरा नौकरी करना उन्हें पसंद नहीं आया.

संदीप ने एक दिन कहा भी कि मैं घर पर ही रहूं और मम्मीपापा की देखभाल करूं लेकिन इसे मैं ने यह कह कर टाल दिया था, ‘मैं भी यही चाहती हूं कि मम्मीपापा की सेवा करूं पर इन दिनों लंबी छुट्टी लेना ठीक नहीं है. मेरी स्थायी नियुक्ति होने वाली है और इस छुट्टी का सीधा असर उस पर पड़ेगा.’

‘देखो, मैं तो चाहता ही नहीं था कि तुम नौकरी करो पर तुम्हारी जिद के कारण मैं कुछ नहीं बोला. अब यह बात उन को पता चली है तो उन्हें अच्छा नहीं लगा.’

‘मैं ने विवाह तुम्हारे मम्मीपापा के सुख के लिए नहीं किया. वे दोनों तो कुछ दिनों के मेहमान हैं. चले जाएंगे तो मैं फिर अकेली रह जाऊंगी. मेरा इतने पढ़ने का क्या लाभ?’

बात वहीं खत्म नहीं हुई थी. कोई बात कहीं पर भी खत्म नहीं होती जब तक कि उस के कारणों को जड़ से न निकाला जाए.

मम्मी ने एक दिन मेरे अच्छे मूड को देख कर कहा, ‘बेटी, मुझे यह घर सूनासूना सा लगता है. अगली दीवाली तक इस घर में रौनक हो जानी चाहिए. तुम समझ गईं न मेरी बात को. इस घर में अब मेरे पोतेपोती भी होने चाहिए.’

मैं नहीं चाहती थी कि वे किसी भ्रम में रहें, इसलिए सीधेसीधे कह दिया, ‘मैं अभी किसी बंधन में नहीं पड़ना चाहती, क्योंकि अभी तो यह हमारे हंसनेखेलने के दिन हैं. किसी भी खुशखबरी के लिए आप को 4-5 वर्ष तो इंतजार करना ही पड़ेगा.’

संदीप ने उन्हें सांत्वना दी. वैसे हमारे संबंधों की कड़वाहट उन के कानों तक पहुंच चुकी थी.

समय यों ही खिसकता रहा. हमारे संबंध बद से बदतर होते गए. मुझे संदीप की हर बात बरछी सी सीने में चुभती.

एक दिन मैं ने सुबह ही संदीप से कहा कि स्थायी नियुक्ति की खुशी में मुझे अपने सहयोगियों को पार्टी देनी है. संभव है, शाम को आने में थोड़ी देर हो जाए. पर वह पार्टी टल गई. मैं घर आ गई. घर पहुंची तो संदीप किसी महिला के साथ हंसहंस कर बातें कर रहा था. मेरे पहुंचते ही दोनों चुप हो गए.

‘अरे, तुम कब आईं, आज पार्टी नहीं हुई क्या?’

मेरा चेहरा तमतमा गया. मैं ने अपना बैग सोफे पर पटका और फ्रेश होने चली गई. मन के भीतर बहुत कुछ उमड़ रहा था. अत: गुस्से में मैं अपना नियंत्रण खो बैठी. इस से पहले कि वह कुछ कहता, मैं ने खड़ेखड़े पूछा, ‘कौन है यह लड़की और आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

संदीप मुझे घूरते हुए बोला, ‘तुम बैठोगी तभी तो बताऊंगा.’

‘अब बताने के लिए रह ही क्या गया है?’ संदीप के घूरने से घायल मैं दहाड़ी, ‘बहाना तो तैयार कर ही लिया होगा?’

‘संगीता, थोड़ा तो सोचसमझ कर बात करो. आरोप लगाने से पहले हकीकत भी जान लिया करो.’

‘मुझे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं है. मैं सब समझ चुकी हूं,’ कह कर मैं तेज कदमों से भीतर आ गई.

थोड़ी ही देर बाद संदीप मेरे पास आया और कहने लगा, ‘तुम ने तो हद ही कर दी. जानती हो कौन है यह?’

‘मुझे कुछ भी जानने की जरूरत नहीं है. मेरे आते ही तुम्हारा हंसीमजाक एकदम बंद हो जाना, यह जानते हुए कि मैं शाम को देर से आऊंगी, अपनी चहेती के साथ यहां आना ही मेरे जानने के लिए बहुत है. मुझे क्या पता कि मेरे कालिज जाने के बाद कितनों को यहां ले कर आए हो,’ मैं एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठी.

‘संगीता,’ वह एकदम दहाड़ पड़ा, ‘बहुत हो चुका अब. आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई कि मेरे चरित्र पर लांछन लगा सके. तुम ने शुरू से ही मुझे शक के दायरे में देखा और प्रभुत्व जमाने की कोशिश की है.’

‘यह सब बेकार की बातें हैं. सच तो यह है कि तुम ने शासन जमाने की कोशिश की है और जब मैं भारी पड़ने लगी तो तुम अपनी मनमानी करने लगे हो. मेरी मां ठीक ही कहती थीं…’

‘भाड़ में जाएं तुम्हारी मां. उन्हीं के कारण तो यह घर बरबाद हो रहा है.’

‘तुम ने मेरी मां को बुराभला कहा, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. मैं यह घर और तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं.’

‘जरूर जाओ, जरूर जाओ, ताकि मुझे भी शांति मिल सके. आज तुम्हारी हरकतों ने तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा है.’

संदीप के चेहरे पर क्रोध और वितृष्णा के भाव उभर आए थे. वह ऐसे हांफ रहा था जैसे मीलों सफर तय कर के आया हो.

मैं अपना सारा सामान समेट कर मायके चली आई और मां को झूठीसच्ची कहानी सुना कर उन की सहानुभूति बटोर ली.

मां को जब इन सब बातों का पता चला तो उन्होंने संदीप को जम कर फटकारा और उधर मैं अपनी सफलता पर आत्मविभोर हो रही थी. भैया ने तो यहां तक कह डाला कि यदि उस ने दोबारा कभी फोन करने की कोशिश की तो वह दहेज उत्पीड़न के मामले में उलझा कर सीधे जेल भिजवा देंगे. इस तरह मैं ने संदीप के लिए जमीन का ऐसा कोई कोना नहीं छोड़ा जहां वह सांस ले सके.

एक दिन रसोई में काम करते हुए भाभी ने कहा, ‘संगीता, तुम्हारा झगड़ा अहं का है. मेरी मानो तो कुछ सामंजस्य बिठा कर वहीं चली जाओ. सच्चे अर्थों में वही तुम्हारा घर है. संदीप जैसा घरवर तुम्हें फिर नहीं मिलेगा.’

‘तुम कौन होती हो मुझे शिक्षा देने वाली. मैं तुम पर तो बोझ नहीं हूं. यह मेरी मां का घर है. जब तक चाहूंगी यहीं रहूंगी.’

उस दिन के बाद भाभी ने कभी कुछ नहीं कहा.

वक्त गुजरता गया और उसी के साथ मेरा गुस्सा भी ठंडा पड़ने लगा. मेरी मां का वरदहस्त मुझ पर था. मैं ने इसी शहर में अपना तबादला करा लिया.

एक दिन पिताजी ने दुखी हो कर कहा था, ‘संगीता, जिन संबंधों को बना नहीं सकते उन्हें ढोने से क्या फायदा. इस से बेहतर है कि कानूनी तौर पर अलग हो जाओ.’

इस बात का मां और भैया ने जम कर विरोध किया.

मां का कहना था कि यदि मेरी बेटी सुखी नहीं रह सकती तो मैं उसे भी सुखी नहीं रहने दूंगी. तलाक देने का मतलब है वह जहां चाहे रहे और ऐसा मैं होने नहीं दूंगी.

मुझे भी लगा यही ठीक निर्णय है. पिताजी इसी गम में दुनिया से ही चले गए और साल बीततेबीतते मां भी नहीं रहीं. मैं ने कभी सोचा भी न था कि मैं भी कभी अकेली हो जाऊंगी.

मैं ने अब तक अपनेआप को इस घर में व्यवस्थित कर लिया था. सुबह भाभी के साथ नाश्ता बनाने के बाद कालिज चली जाती. शाम को मेरे आने के बाद वह बच्चों में व्यस्त हो जातीं. मैं मन मार कर अपने कमरे में चली जाती. भैया के आने के बाद ही हम लोग पूरे दिन की दिनचर्या डायनिंग टेबल पर करते. मेरा उन से मिलना बस, यहीं तक सिमट चुका था.

जयपुर के निकट एक गांव में पति द्वारा पत्नी पर किए गए अत्याचारों की घटना की उस दिन बारबार टीवी पर चर्चा हो रही थी. खाना खाते हुए भैया बोले, ‘ऐसे व्यक्तियों को तो पेड़ पर लटका कर गोली मार देनी चाहिए.’

‘तुम अपना खाना खाओ,’ भाभी बोलीं, ‘यह काम सरकार का है, उसे ही करने दो.’

‘सरकार कुछ नहीं करती. औरतों को ही जागरूक होना चाहिए. अपनी संगीता को ही देख लो, संदीप को ऐसा सबक सिखाया है कि उम्र भर याद रखेगा. तलाक लेना चाहता था ताकि अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से बिता सके. हम उसे भी सुख से नहीं रहने देंगे,’ भैया ने तेज स्वर में मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘क्यों संगीता.’

‘तुम यह क्यों भूलते हो कि उसे तलाक न देने से खुद संगीता भी कभी अपना घर नहीं बसा सकती. मैं ने तो पहले ही इसे कहा था कि इस खाई को और न बढ़ाओ. तब मेरी सुनी ही किस ने थी. वह तो फिर भी पुरुष है, कोई न कोई रास्ता तो निकाल ही लेगा. वह अकेला रह सकता है पर संगीता नहीं.’

‘मैं क्यों नहीं घर बसा सकती,’ मैं ने प्रश्नवाचक निगाहें भाभी पर टिका दीं.

‘क्योंकि कानूनी तौर पर बिना उस से अलग हुए तुम्हारा संबंध अवैध है.’

भाभी की बातों में कितना कठोर सत्य छिपा हुआ था यह मैं ने उस दिन जाना. मुझे तो जैसे काठ मार गया हो.

उस रात नींद आंखों से दूर ही रही. मैं यथार्थ की दुनिया में आ गिरी. कहने के लिए यहां अपना कुछ भी नहीं था. मैं अब अपने ही बनाए हुए मकड़जाल में पूरी तरह फंस चुकी थी.

इस तनाव से मुक्ति पाने के लिए मैं ने एक रास्ता खोजा और वहां से दूर रहने लायक एक ठिकाना ढूंढ़ा. किसी का कुछ नहीं बिगड़ा और मैं रास्ते में अकेली खड़ी रह गई.

मेरी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू हो चुकी थी. जाने वह कैसी मनहूस घड़ी थी जब मां की बातों में आ कर मैं ने अपना बसाबसाया घर उजाड़ लिया था. फिर से जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई. मैं ने संदीप को ढूंढ़ने का निर्णय लिया. जितना उसे ढूंढ़ती उतना ही गम के काले सायों में घिरती चली गई.

उस के आफिस के एक पुराने कुलीग से मुझे पता चला कि उस दिन जो युवती संदीप से मिलने घर आई थी वह उस के विभाग की नई हेड थी. संदीप चाहता था कि उसे अपना घर दिखा सके ताकि कंपनी द्वारा दी गई सुविधाओं को वह भी देख सके. किंतु उस दिन की घटना के बाद मैं ने फोन से जो कीचड़ उछाला था वह संदीप की तरक्की के मार्ग को बंद कर गया. वह अपनी बदनामी का सामना नहीं कर पाया और चुपचाप त्यागपत्र दे दिया. यह उस का मुझ से विवाह करने का इनाम था.

फिर तो मैं ने उसे ढूंढ़ने के सारे यत्न किए, पर सब बेकार साबित हुए. मैं चाहती थी एक बार मुझे संदीप मिल जाए तो मैं उस के चरणों में माथा रगड़ूं, अपनी गलती के लिए क्षमा मांगूं, लेकिन मेरी यह इच्छा भी पूरी नहीं हुई. न जाने किस सुख के प्रलोभन के लिए मैं उस से अलग हुई. न खुद ही जी पाई और न उस के जीने के लिए कोई कोना छोड़ा.

अब जब जीवन की शाम ढलने लगी है मैं भीतर तक पूरी तरह टूट चुकी हूं. उस के एक परिचित से पता चला था कि वह तमिलनाडु के सेलम शहर में है और आज इस पत्र के आते ही मेरा रहासहा उत्साह भी ठंडा हो गया.

कोई किसी की पीड़ा को नहीं बांट सकता. अपने हिस्से की पीड़ा मुझे खुद ही भोगनी पड़ेगी. मन के किसी कोने में छिपी हीन भावना से मैं कभी छुटकारा नहीं पा सकती.

पहली बार महसूस किया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मेरे जीवन की सब से महत्त्वपूर्ण निधि थी. काश, संदीप कहीं से आ जाए तो मैं उस से क्षमादान मांगूं. वही मुझे अनिश्चितताओं के इस अंधेरे से बचा सकता है.

चिंता की कोई बात नहीं

आज अगर कोई मुझ से पूछे कि दुनिया का सब से सुखी व्यक्ति कौन है? तो सीना तान कर मेरा जवाब होगा, मैं. और यह बात सच है कि मैं सुखी हूं. बहुत सुखी हूं, औसत से कुछ अधिक ही रूप, औसत से कुछ अधिक ही गुण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा, मनपसंद पत्नी, समझदार, स्वस्थ और प्यारे बच्चे, शहर में अपना मकान.

अब बताइए, जिसे सुख कहते हैं वह इस से अधिक या इस से अच्छा क्याक्या हो सकता है? यानी मेरी सुख की या सुखी जीवन की अपेक्षाएं इस से अधिक कभी थीं ही नहीं. लेकिन 6 माह पूर्व मेरे घर का सुखचैन मानो छिन गया.

सुकांता यानी मेरी पत्नी, अपने मायके में क्या पत्र लिखती, मुझे नहीं पता. लेकिन उस के मायके से जो पत्र आने लगे थे उन में उस की बेचारगी पर बारबार चिंता व्यक्त की जाने लगी थी. जैसे :

‘‘घर का काम बेचारी अकेली औरतकरे तो कैसे और कहां तक?’’

‘‘बेचारी सुकांता को इतना तक लिखने की फुरसत नहीं मिल रही है कि राजीखुशी हूं.’’

‘‘इन दिनों क्या तबीयत ठीक नहीं है? चेहरे पर रौनक ही नहीं रही…’’ आदि.

शुरूशुरू में मैं ने उस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया. मायके वाले अपनी बेटी की चिंता करते हैं, एक स्वाभाविक बात है. यह मान कर मैं चुप रहा. लेकिन जब देखो तब सुकांता भी ताने देने लगी, ‘‘प्रवीणजी को देखो, घर की सारी खरीदफरोख्त अकेले ही कर लेते हैं. उन की पत्नी को तो कुछ भी नहीं देखना पड़ता…शशिकांतजी की पसंद कितनी अच्छी है. क्या गजब की चीजें लाते हैं. माल सस्ता भी होता है और अच्छा भी.’’

कई बार तो वह वाक्य पूरा भी नहीं करती. बस, उस के गरदन झटकने के अंदाज से ही सारी बातें स्पष्ट हो जातीं.

सच तो यह है कि उस की इसी अदा पर मैं शुरू में मरता था. नईनई शादीहुई थी. तब वह कभी पड़ोसिन से कहती, ‘‘क्या बताऊं, बहन, इन्हें तो घर के काम में जरा भी रुचि नहीं है. एक तिनका तक उठा कर नहीं रखते इधर से उधर.’’ तो मैं खुश हो जाता. यह मान कर कि वह मेरी प्रशंसा कर रही है.

लेकिन जब धीरेधीरे यह चित्र बदलता गया. बातबात पर घर में चखचख होने लगी. सुकांता मुझे समझने और मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं थी. फिर तो नौबत यहां तक आ गई कि मेरा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ाने लगा.

अब आप ही बताइए, जो काम मेरे बस का ही नहीं है उसे मैं क्यों और कैसे करूं? हमारे घर के आसपास खुली जगह है. वहां बगीचा बना है. बगीचे की देखभाल के लिए बाकायदा माली रखा हुआ है. वह उस की देखभाल अच्छी तरह से करता है. मौसम में उगने वाली सागभाजी और फूल जबतब बगीचे से आते रहते हैं.

लेकिन मैं बालटी में पानी भर कर पौधे नहीं सींचता, यही सुकांता की शिकायत है, वह चाहे बगीचे में काम न करे. लेकिन हमारे पड़ोसी सुधाकरजी बगीचे में पूरे समय खुरपी ले कर काम करते हैं. इसलिए सुकांता चाहती है कि मैं भी बगीचे में काम करूं.

मुझे तो शक है कि सुधाकरजी के दादा और परदादा तक खेतिहर मजदूर रहे होंगे. एक बात और है, सुधाकरजी लगातार कई सिगरेट पीने के आदी हैं. खुरपी के साथसाथ उन के हाथ में सिगरेट भी होती है. मैं तंबाकू तो क्या सुपारी तक नहीं खाता. लेकिन सुकांता इन बातों को अनदेखा कर देती है.

शशिकांत की पसंद अच्छी है, मैं भी मानता हूं. लेकिन उन की और भी कई पसंद हैं, जैसे पत्नी के अलावा उन के और भी कई स्त्रियों से संबंध हैं. यह बात भी तो लोग कहते ही हैं.

लेदे कर सुकांता को बस, यही शिकायत है, ‘‘यह तो बस, घर के काम में जरा भी ध्यान नहीं देते, जब देखो, बैठ जाएंगे पुस्तक ले कर.’’

कई बार मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं. मैं मुक्त मन से घर में पसर कर बैठूं तो उसे अच्छा नहीं लगता. दिन भर दफ्तर में कुरसी पर बैठेबैठे अकड़ जाता हूं. अपने घर में आ कर क्या सुस्ता भी नहीं सकता? मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ने पर, मेरे द्वारा शास्त्रीय संगीत सुनने पर उसे आपत्ति है. इन्हीं बातों से घर में तनाव रहने लगा है.

 

ऐसे ही एक दिन शाम को सुकांता किसी सहेली के घर गई थी. मैं दफ्तर से लौट कर अपनी कमीज के बटन टांक रहा था. 10 बार मैं ने उस से कहा था लेकिन उस ने नहीं किया तो बस, नहीं किया. मैं बटन टांक रहा था कि सुकांता की खास सहेली अपने पति के साथ हमारे घर आई.

पर शायद आप पूछें कि यह खास सखी कौन होती है? सच बताऊं, यह बात अभी तक मेरी समझ में भी नहीं आई है. हर स्त्री की खास सखी कैसे हो जाती है? और अगर वह खास सखी होती है तो अपनी सखी की बुराई ढूंढ़ने में, और उस की बुराई करने में ही उसे क्यों आनंद आता है? खैर, जो भी हो, इस खास सखी के पति का नाम भी सुकांता की आदर्श पतियों की सूची में बहुत ऊंचे स्थान पर है. वह पत्नी के हर काम में मदद करते हैं. ऐसा सुकांता कहती है.

मुझे बटन टांकते देख कर खास सखी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘हाय राम, आप खुद अपने कपड़ों की मरम्मत करते हैं? हमें तो अपने साहब को रोज पहनने के कपड़े तक हाथ में देने पड़ते हैं. वरना यह तो अलमारी के सभी कपड़े फैला देते हैं कि बस.’’

सराहना मिश्रित स्वर में खास सखी का उलाहना था. मतलब यह कि मेरे काम की सराहना और अपने पति को उलाहना था. और बस, यही वह क्षण था जब मुझे अलीबाबा का गुफा खोलने वाला मंत्र, ‘खुल जा सिमसिम’ मिल गया.

मैं ने बड़े ही चाव और आदर से खास सखी और उस के पति को बैठाया. और फिर जैसे हमेशा ही मैं वस्त्र में बटन टांकने का काम करता आया हूं, इस अंदाज से हाथ का काम पूरा किया. कमीज को बाकायदा तह कर रखा और झट से चाय बना लाया.

सच तो यह है कि चाय मैं ने नौकर से बनवाई थी और उसे पिछले दरवाजे से बाहर भेज दिया था. खास सखी और उस के पति ‘अरे, अरे, आप क्यों तकलीफ करते हैं?’ आदि कहते ही रह गए.

चाय बहुत बढि़या बनी थी, केतली पर टिकोजी विराजमान थी. प्लेट में मीठे बिस्कुट और नमकीन थी. इस सारे तामझाम का नतीजा भी तुरंत सामने आया. खास सखी के चेहरे पर मेरे लिए अदा से श्रद्धा के भाव उमड़ते साफ देखे जा सकते थे. खास सखी के पति का चेहरा बुझ गया.

मैं मन ही मन खुश था. इन्हीं साहब की तारीफ सुकांता ने कई बार मेरे सामने की थी. तब मैं जलभुन गया था, आज मुझे बदला लेने का पूरापूरा सुख मिला.

कुछ दिन बाद ही सुकांता महिलाओं की किसी पार्टी से लौटी तो बेहद गुस्से में थी. आते ही बिफर कर बोली, ‘‘क्यों जी? उस दिन मेरी सहेली के सामने तुम्हें अपने कपड़ों की मरम्मत करने की क्या जरूरत थी? मैं करती नहीं हूं तुम्हारे काम?’’

‘‘कौन कहता है, प्रिये? तुम ही तो मेरे सारे काम करती हो. उस दिन तो मैं यों ही जरा बटन टांक रहा था कि तुम्हारी खास सहेली आ धमकी मेरे सामने. मैं ने थोड़े ही उस के सामने…’’

‘‘बस, बस. मुझे कुछ नहीं सुनना…’’

गुस्से में पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में चली गई. बाद में पता चला कि भरी पार्टी में खास सखी ने सुकांता से कहा था कि उसे कितना अच्छा पति मिला है. ढेर सारे कपड़ों की मरम्मत करता है. बढि़या चाय बनाता है. बातचीत में भी कितना शालीन और शिष्ट है. कहां तो सात जनम तक व्रत रख कर भी ऐसे पति नहीं मिलते, और एक सुकांता है कि पूरे समय पति को कोसती रहती है.

अब देखिए, मैं ने तो सिर्फ एक ही कमीज में 2 बटन टांके थे, लेकिन खास सखी ने ढे…र सारे कपड़े कर दिए तो मैं क्या कर सकता हूं? समझाने गया तो सुकांता और भी भड़क गई. चुप रहा तो और बिफर गई. समझ नहीं पाया कि क्या करूं.

सुकांता का गुस्सा सातवें आसमान पर था. वह बच्चों को ले कर सीधी मायके चली गई. मैं ने सोचा कि 15 दिन में तो आ ही जाएगी. चलो, उस का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा. घर में जो तनाव बढ़ रहा था वह भी खत्म हो जाएगा. लेकिन 1 महीना पूरा हो गया. 10 दिन और बीत गए, तब पत्नी की और बच्चों की बहुत याद आने लगी.

सच कहता हूं, मेरी पत्नी बहुत अच्छी है. इतने दिनों तक हमारी गृहस्थी की गाड़ी कितने सुचारु रूप से चल रही थी, लेकिन न जाने यह नया भूत कैसे सुकांता पर सवार हुआ कि बस, एक ही रट लगाए बैठी है कि यह घर में बिलकुल काम नहीं करते. बैठ जाते हैं पुस्तक ले कर, बैठ जाते हैं रेडियो खोल कर.

अब आप ही बताइए, हफ्ते में एक बार सब्जी लाना क्या काफी नहीं है? काफी सब्जी तो बगीचे से ही मिल जाती है. जो घर पर नहीं है वह बाजार से आ जाती है. और रोजरोज अगर सब्जी मंडी में धक्के खाने हों तो घर में फ्रिज किसलिए रखा है?

लेकिन नहीं, वरुणजी झोला ले कर मंडी जाते हैं, तो मैं भी जाऊं. अब वरुणजी का घर 2 कमरों का है. आसपास एक गमला तक रखने की जगह नहीं है. घर में फ्रिज नहीं है, इसलिए मजबूरी में जाते हैं. लेकिन मेरी तुलना वरुणजी से करने की क्या तुक है?

बच्चे हमारे समझदार हैं. पढ़ने में भी अच्छे हैं, लेकिन सुकांता को शिकायत है कि मैं बच्चों को पढ़ाता ही नहीं. सुकांता की जिद पर बच्चों को हम ने कानवेंट स्कूल में डाला. सुकांता खुद अंगरेजी के 4 वाक्य भी नहीं बोल पाती. बच्चों की अंगरेजी तोप के आगे उस की बोलती बंद हो जाती है.

यदाकदा कोई कठिनाई हो तो बच्चे मुझ से पूछ भी लेते हैं. फिर बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं है. नहीं तो मैं अफसर बनने के बजाय अध्यापक ही बन जाता. अपना अज्ञान बच्चों पर प्रकट न हो इसीलिए मैं उन की पढ़ाई से दूर ही रहता हूं. शायद इसीलिए उन के मन में मेरे लिए आदर भी है. लेकिन शकीलजी अपने बच्चों को पढ़ाते हैं. रोज पढ़ाते हैं तो बस, सुकांता का कहना है मैं भी बच्चों को पढ़ाऊं.

पूरे डेढ़ महीने बाद सुकांता का पत्र आया. फलां दिन, फलां गाड़ी से आ रही हूं. साथ में छोटी बहन और उस के पति भी 7-8 दिन के लिए आ रहे हैं.

मैं तो जैसे मौका ही देख रहा था. फटाफट मैं ने घर का सारा सामान देखा. किराने की सूची बनाई. सामान लाया. महरी से रसोईघर की सफाई करवाई. डब्बे धुलवाए. सामान बिनवा कर, चुनवा कर डब्बों में भर दिया.

2 दिन का अवकाश ले कर माली और महरी की मदद से घर और बगीचे की, कोनेकोने तक की सफाई करवाई. दीवान की चादरें बदलीं. परदे धुलवा दिए. पलंग पर बिछाने वाली चादरें और तकिए के गिलाफ धुलवा लिए. हाथ पोंछने के छोटे तौलिए तक साफ धुले लगे थे. फ्रिज में इतनी सब्जियां ला कर रख दीं जो 10 दिन तक चलतीं. 2-3 तरह का नाश्ता बाजार से मंगवा कर रखा, दूध जालीदार अलमारी में गरम किया हुआ रखा था. फूलों के गुलदस्ते बैठक में और खाने की मेज पर महक रहे थे.

इतनी तैयारी के बाद मैं समय से स्टेशन पहुंचा. गाड़ी भी समय पर आई. बच्चों का, पत्नी का, साली का, उस के पति का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया. रास्ते में सुकांता ने पूछा, (स्वर में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं था) ‘‘क्यों जी, महरी तो आ रही थी न, काम करने?’’

मैं ने संक्षिप्त में सिर्फ ‘हां’ कहा.

बहन की तरफ देख कर (उसी रूखे स्वर में) वह फिर बोली, ‘‘डेढ़ महीने से मैं घर पर नहीं थी. पता नहीं इतने दिनों में क्या हालत हुई होगी घर की? ठीकठाक करने में ही पूरे 3-4 दिन लग जाएंगे.’’

मैं बिलकुल चुप रहा. रास्ते भर सुकांता वही पुराना राग अलापती रही, ‘‘इन को तो काम आता ही नहीं. फलाने को देखो, ढिकाने को देखो’’ आदि.

लेकिन घर की व्यवस्था देख कर सुकांता की बोलती ही बंद हो गई. आगे के 7-8 दिन मैं अभ्यस्त मुद्रा में काम करता रहा जैसे सुकांता कभी इस घर में रहती ही नहीं थी. छोटी साली और उस के पति इस कदर प्रभावित थे कि जातेजाते सालीजी ने दीदी से कह दिया, ‘‘दीदी, तुम तो बिना वजह जीजाजी को कोसती रहती हो. कितना तो बेचारे काम करते हैं.’’

सालीजी की विदाई के बाद सुकांता चुप तो हो गई थी. लेकिन फिर भी भुनभुनाने के लहजे में उस के कुछ वाक्यांश कानों में आ ही जाते. इसी समय मेरी बूआजी का पत्र आया. वह तीर्थयात्रा पर निकली हैं और रास्ते में मेरे पास 4 दिन रुकेंगी.

मेरी बूआजी देखने और सुनने लायक चीज हैं. उम्र 75 वर्ष. कदकाठी अभी भी मजबूत. मुंह के सारे के सारे दांत अभी भी हैं. आंखों पर ऐनक नहीं लगातीं और कान भी बहुत तीखे हैं. पुराने आचारव्यवहार और विचारों से बेहद प्रेम रखने वाली महिला हैं. मन की तो ममतामयी, लेकिन जबान की बड़ी तेज. क्या छोटा, क्या बड़ा, किसी का मुलाहिजा तो उन्होंने कभी रखा ही नहीं. मेरे पिताजी आज तक उन से डरते हैं.

 

मेरी शादी इन्हीं बूआजी ने तय की थी. गोरीचिट्टी सुकांता उन्हें बहुत अच्छी लगी थी. इतने बरसों से उन्हें मेरी गृहस्थी देखने का मौका नहीं मिला. आज वह आ रही थीं. सुकांता उन की आवभगत की तैयारी में जुट गई थी.

बूआजी को मैं घर लिवा लाया. बच्चों ने और सुकांता ने उन के पैर छुए. मैं ने अपने उसी मंत्र को दोहराना शुरू किया. यों तो घर में बिस्तर बिछाने का, समेटने का, झाड़ ूलगाने का काम महरी ही करती है, लेकिन मैं जल्दी उठ कर बूआजी की चाकरी में भिड़ जाता. उन का कमरा और पूजा का सामान साफ कर देता, बगीचे से फूल, दूब, तुलसी ला कर रख देता. चंदन को घिस देता. अपने हाथ से चाय बना कर बूआजी को देता.

और तो और, रोज दफ्तर जातेजाते सुकांता से पूछता, ‘‘बाजार से कुछ मंगाना तो नहीं है?’’ आते समय फल और मिठाई ले आता. दफ्तर जाने से पहले सुकांता को सब्जी आदि साफ करने या काटने में मदद करता. बूआजी को घर के कामों में मर्दों की यह दखल देने की आदत बिलकुल पसंद नहीं थी.

सुकांता बेचारी संकोच से सिमट जाती. बारबार मुझे काम करने को रोकती. बूआजी आसपास नहीं हैं, यह देख कर दबी आवाज में मुझे झिड़की भी देती. और मैं उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए, बूआजी आसपास हैं, यह देख कर उस से कहता, ‘‘तुम इतना काम मत करो, सुकांता, थक जाओगी, बीमार हो जाओगी…’’

बूआजी खूब नाराज होतीं. अपनी बुलंद आवाज में बहू को खूब फटकारतीं, ताने देतीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को कामकाज की आदत ही नहीं है. एक हम थे. चूल्हा जलाने से ले कर घर लीपने तक के काम अकेले करते थे. यहां गैस जलाओ तो थकान होती है और यह छोकरा तो देखो, क्या आगेपीछे मंडराता है बीवी के? उस के इशारे पर नाचता रहता है. बहू, यह सब मुझे पसंद नहीं है, कहे देती हूं…’’

सुकांता गुस्से से जल कर राख हो जाती, लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी.

ऐसे ही एक दिन जब महरी नहीं आई तो मैं ने कपड़ों के साथ सुकांता की साड़ी भी निचोड़ डाली. बूआजी देख रही हैं, इस का फायदा उठाते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘कपड़े मैं ने धो डाले हैं. तुम फैला देना, सुकांता…मुझे दफ्तर को देर हो रही है.’’

‘‘जोरू का गुलाम, मर्द है या हिजड़ा?’’ बूआजी की गाली दनदनाते हुए सीधे सुकांता के कानों में…

मैं अपना बैग उठा कर सीधे दफ्तर को चला.

बूआजी अपनी काशी यात्रा पूरी कर के वापस अपने घर पहुंच गई हैं. मैं शाम को दफ्तर से घर लौटा हूं. मजे से कुरसी पर पसर कर पुस्तक पढ़ रहा हूं. सुकांता बाजार गई है. बच्चे खेलने गए हैं. चाय का खाली कप लुढ़का पड़ा है. पास में रखे ट्रांजिस्टर से शास्त्रीय संगीत की स्वरलहरी फैल रही है.

अब चिंता की कोई बात नहीं है. सुख जिसे कहते हैं, वह इस के अलावा और क्या होता है? और जिसे सुखी इनसान कहते हैं, वह मुझ से बढ़ कर और दूसरा कौन होगा?

गरमी में स्किन डैमेज से बचने के लिए अपनाएं ये टिप्स…

गरमी की तेज धूप से स्किन की नमी छीन जाती है, जिसके साथ-साथ स्किन को काफी नुकसान भी  होता है. ऐसे में लोग दिन में घर से बाहर निकलने से बचते नजर आते हैं. जो जाहिर तौर पर एक अच्छा विकल्प है, लेकिन फिर भी जरूरत पड़ने पर या किसी जरूरी काम के लिए आपको घर से बाहर जाना पड़ता है. ऐसे में स्किन को तेज धूप से बचाने के लिए कुछ तरीके को इस्तेमाल करके हम गरमी के मौसम में अपनी स्किन को डैमेज होने से बचा सकते हैं.

तो चलिए आज हम आपको कुछ ऐसे तरीके बताते हैं, जिन्हें अपना कर आप गरमी से चेहरे पर पड़ने वाले बुरे इफेक्ट को कम कर सकती हैं या रोक सकती हैं…

गरमी में पहली परेशानी है रैशेज…

ये हैं रैशेज के कारण…

गरमी में लोगों को पसीना बहुत आता है, जिससे हमारी स्किन चिपचिपी हो जाती है. जिसकी वजह से हमारे रोम छिद्र बंद हो जाते हैं और पूरी बौडी से विषैले पदार्थो के बाहर नही निकल पाते. इसी के चलते स्किन में एक्ने, खुजली और फोड़े फुंसी जैसी परेशानियां पैदा हो जाती हैं.

ये हैं रैशेज से बचने के टिप्स…

सबसे पहले आप ध्यान रखें कि पसीने की परेशानी से छुटकारा पाने के लिए आप अच्छी क्वालिटी के पाउडर इस्तेमाल करें. घर से बाहर जाने या घर आने पर अपने हाथ और चेहरे को सादे पानी से धोना ना भूलें, क्योंकि आपके चेहरे पर धूप का सबसे ज्यादा बुरा असर पड़ता है. दिन में कम से कम 2 बार क्लेंजर से स्किन की सफाई करें.

धूप और गरमी से सनबर्न की परेशानी…

ये हैं सनबर्न होने के कारण

तेज धूप और गरमी से सूर्य की यूवी किरणें हमारे चेहरे को नुकसान पहुंचाती हैं, जिससे चेहरे के साथ-साथ हमारी बौडी के बिना कवर किए हुए हिस्से काले पड़ जाते हैं.

ये हैं सनबर्न की परेशानी से बचने के टिप्स…

चेहरे के लिए SPF 30 तत्व वाली सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना चाहिए जो बाजार में या मेडिकल स्टोर पर आसानी से मिल जाती है. इसे घर से बाहर निकलने से पहले गर्दन और बॉडी पर लगा लें और स्काफ से ढक लें. तेज धूप की वजह से हमारी खुली त्वचा जल जाती है इसके लिए बाहर से आते ही चेहरे को ठण्डे पानी से धोएं. प्रभावित स्किन पर गीला तोलिया रखें. पानी में भिगोया गया तौलिया आपको बहुत राहत देगा. इसके साथ ही आप खीरे का रस भी घरेलू इलाज के तौर पर लगा सकती हैं.

धूप में ड्राई स्किन की परेशानी

ये हैं ड्राई स्किन की परेशानी के कारण

स्क्रबिंग की वजह से हमारी स्किन की सबसे ऊपर वाला हिस्से को नुकसान होता है. एसी में रहने वाले लोगों के साथ ये परेशानी सबसे ज्यादा होता है, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि घर के अंदर और बाहर की नमी में फर्क होता है.

इन टिप्स से पाएं ड्राई स्किन से छुटकारा

सुबह के वक्त और रात को सोने से पहले अपनी स्किन पर मौइश्चराइजर लगाना ना भूलें. सबसे जरूरी है स्किन की नमी नौर्मल रहे और जिसके लिए आप क्रीम को लगाने से पहले टोनर और इमल्शन का इस्तेमाल कर सकती हैं, जिससे स्किन पर एक अलग से सुरक्षा परत बनेगी.

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