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रहिमन दाढ़ी राखिए : बाबाओं के चमत्कारों की ये है असलियत

मैं जवानी के दिनों में कंजूस नस्ल का आदमी था, इसलिए आदतन हमेशा बचत की तरकीबों के बारे में ही सोचता रहता था. एक दिन जब मैं अपने पड़ोसी वर्माजी से अखबार मांग कर पढ़ रहा था, तो अखबार में छपी एक खबर देख कर मुझे झटका सा लगा. सूचना इस तरह से थी, ‘एक आदमी अपनी पूरी जिंदगी में दाढ़ी बनाने पर तकरीबन एक लाख रुपए और एक साल बरबाद कर देता है’.

खबर पढ़ते ही मैं अपने दूसरे पड़ोसी शर्माजी के घर भागा. उन से कैलकुलेटर ले कर अपनी दाढ़ी बनाने पर खर्च किए गए पैसों का हिसाब लगाने लगा.

हिसाब लगाने के बाद मुझे थोड़ी राहत मिली कि मैं ने दाढ़ी बनाने पर ज्यादा खर्च नहीं किया है, क्योंकि मैं हमेशा अपनी दाढ़ी दूसरों के घर बनाना पसंद करता हूं.

लेकिन, जज्बाती आदमी होने की वजह से मुझे अफसोस भी हुआ कि मेरी दाढ़ी के चक्कर में मेरा न सही, पर दूसरों का ही खर्च तो हुआ. यह बात मेरे दिल में कील की तरह चुभ गई. इसलिए मैं ने उसी दिन तय कर लिया कि आज से दाढ़ी नहीं बनाऊंगा.

इरादे पर अमल करते हुए 2 महीने बीत गए. मेरी दाढ़ी अच्छीखासी बढ़ गई थी. मैं चेहरे से आतंकवादी नजर आने लगा. इस का फायदा उठा कर मेरे एक दुश्मन पड़ोसी ने थाने में मेरी शिकायत कर दी कि मेरा चेहरा ‘इंडियाज मोस्ट वांटेड’ में दिखाए गए एक दुर्दांत अपराधी से मिलता है.

बस, पुलिस को और क्या चाहिए. पहुंच गई मेरे दरवाजे पर. पुलिस मुझे पकड़ कर ले जाने लगी. किसी तरह एक हजार रुपए दे कर इस मुसीबत से पीछा छुड़ाया, लेकिन फिर भी मैं अपने इरादे पर डटा रहा.

अचानक एक दिन मेरी मुलाकात पुरानी प्रेमिका रितु से हो गई, जो कुकिंग कोर्स करने के लिए अमेरिका गई हुई थी. वह तो मुझे देखते ही डर गई. उसे लगा कि मैं ने उस की जुदाई में ही देवदास की तरह दाढ़ी बढ़ा ली है.

रितु अचानक चिल्लाते हुए बोली, ‘‘अगर इसी तरह मजनूछाप चेहरा बनाए रहे, तो मुझ से शादी करना तो दूर, तुम सगाई भी नहीं कर पाओगे.’’

दाढ़ी बनाने के लिए 2 रुपए का सिक्का मेरे हाथ में थमा कर वह पैर पटकती हुई चली गई.

लेकिन, मैं भी धुन का पक्का था. मैं ने भी सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए, मैं अपने इरादे पर डटा रहूंगा, इसलिए मैं ने रितु का दिल तोड़ दिया.

अब लोगों में मेरी अलग ही पहचान बन चुकी थी. मैं संन्यासी निरोधानंद के नाम से जाना जाने लगा था.

बढ़ी हुई दाढ़ी मेरे लिए वरदान साबित हुई. जैसा कि अपने देश में होता है, अचानक मेरे चमत्कार के चर्चे दूरदूर तक फैलने लगे. औरत, मर्द, बच्चे और बूढ़े मेरे पैर छू कर आशीर्वाद लेने लगे. इस से मैं खुशी से फूला न समाता था.

लोग मेरी बातें सुनने के लिए बेचैन रहते थे. कोई मुझ से अपनी दिमागी तकलीफ का हल पूछता, तो कोई दूसरी तकलीफों से नजात पाने के बारे में पूछता. कोई अपने गुजरे समय के बारे में पूछता, तो कोई आने वाली जिंदगी के बारे में पूछता. ज्यादातर लोग तो इस लोक से ज्यादा परलोक के बारे में पूछते. मैं सभी को अपने जवाब से खुश कर के भेजता.

पहली बार मेरा संन्यासियों की ऐश्वर्य भरी जिंदगी से परिचय हुआ था. कल तक जो लड़कियां मुझे देखते ही मुंह बिदका कर भाग जाती थीं, अब वे मेरे पैर छू कर हंसते हुए अपना कोमल हाथ मेरे हाथ में दे कर अपनी तकदीर के बारे में जानना चाहती थीं. मैं उन की तकदीर बतातेबताते अपनी तकदीर पर फख्र कर उठता था.

कभीकभी तो मुझे अपनेआप पर गुस्सा भी आता था कि मैं और पहले संन्यासी क्यों नहीं बना.

अब तो यह हाल है कि मेरे महल्ले में कोई भी जलसा, मीटिंग या फिर किसी तरह का फंक्शन हो, मेरे बिना अधूरा समझा जाता है. किस लड़के या लड़की का रिजल्ट कैसा होगा? किस के घर लड़का होगा या लड़की होगी? किस की नौकरी लगेगी या नहीं? किस की शादी कब होगी? सभी का हिसाब मेरे पास है. अब तो कोई भी चढ़ावा चढ़ा कर अपनी तकदीर जान सकता था.

इस साल के चुनाव में तो गजब हो गया. मेरे इलाके के सांसद के पास मेरी जानकारी पहुंच गई. सुबह से ही वह मेरे आश्रम में पहुंच गए और सकुचाते हुए बोले, ‘‘देखिए स्वामीजी, अब आप के ऊपर ही मेरा सबकुछ टिका है. अगर आप चाहें, तो मुझे इस बार भी जनता की सेवा करने का मौका दिला सकते हैं. इस के बदले में आप को मुंहमांगा चढ़ावा मिलेगा.’’

मैं उन का दुख देख कर पिघल गया और उन्हें एक यज्ञ करने की नेक सलाह दे डाली. यज्ञ खत्म होतेहोते वह जीत भी गए. अब वह मुझे छोड़ने को तैयार ही नहीं हैं. अब मैं उन का पारिवारिक सदस्य हूं व राजनीतिक सलाहकार भी.

पिछले दिनों उन के लड़के ने एक राह चलती लड़की के साथ बलात्कार कर दिया. लेकिन मेरी पहुंच की वजह से कोई उन का और उन के लड़के का बाल भी बांका न कर सका.

अब धीरेधीरे मेरी पहुंच विदेशों में भी होने लगी है. माफिया वालों से तो मेरा संपर्क पहले से ही था. फिल्म वाले भी अब अपनी फिल्मों के मुहूर्त पर मुझे बुलाने लगे हैं. वहां जाने का मैं महज 5 लाख रुपए लेता हूं. बहुत सारी हीरोइनें भी मेरी चेलियां बन गई हैं. कौन सी फिल्म पिटेगी या चलेगी, यह मेरे दिए गए ज्योतिष काल की तारीख पर फिल्म को रिलीज करने पर निर्भर करता है. मैं तकरीबन पूरी दुनिया घूम चुका हूं. देशविदेश में मेरे चेले बढ़ते जा रहे हैं. मेरे एयरकंडीशंड आश्रम की लंबाईचौड़ाई तकरीबन 3 एकड़ में है. फिलहाल तो मेरे पास 15 विदेशी गाडि़यां हैं. देश के सभी महानगरों में मेरी कोठियां भी हैं. मेरी जिंदगी बहुत ही अच्छे ढंग से गुजर रही है.

अब तो बस एक ही तमन्ना है कि किसी तरह अमेरिका का राष्ट्रपति भी मेरा चेला बन जाए.

युवाओं के सपनों के बूते चलते कोचिंग संस्थान

27 जुलाई को दिल्ली समेत देशभर के कोचिंग संस्थानों को छात्रों के गुस्से का सामना तब करना पड़ गया जब अलगअलग हिस्सों से आईएएस बनने की आकांशा ले कर आए 3 छात्रों की मौत सरकार और कोचिंग संस्थानों की सिस्टमेटिक लापरवाही के चलते हुई. ये 3 छात्र नेविन डोल्विन, तान्य सोनी और श्रेया यादव थे जो राव कोचिंग के बेसमैंट में बनी लाइब्रेरी में पढ़ाई कर रहे थे. उन में से केरल के रहने वाले नेविन आईएएस की तैयारी कर रहे थे और वे जेएनयू से पीएचडी भी कर रहे थे. उत्तर प्रदेश की श्रेया यादव ने अभी एक महीना पहले ही कोचिंग सैंटर में दाखिला लिया था.

बाकी कोचिंग संस्थानों की तरह ही राव कोचिंग सैंटर के बेसमैंट में भी लाइब्रेरी चल रही थी जहां पर पूरी रात छात्र पढ़ाई करते हैं. वहां 150 छात्रों के बैठने की व्यवस्था थी. हादसे के वक्त वहां 35 छात्र मौजूद थे. चंद मिनटों में ही बेसमैंट में पानी भर गया. उस वक्त सभी छात्रों में अफरातफरी मच गई. ऐसे में बहुत से छात्र बाहर निकलने में सफल रहे लेकिन कुछ वहीँ पर फंस गए क्योंकि बेसमैंट में आनेजाने का एक ही गेट था वह भी बायमैट्रिक था जिस से बाहर निकलने में परेशानी हुई. बेसमैंट में पानी निकालने में भी फायर ब्रिगेड को काफी मशक्कत करनी पड़ी. इस के बाद छात्रों के शव मिले. पानी भरने का कारण पाइप फटना और ड्रेनेज सिस्टम को माना जा रहा है. अब वजह चाहे जो भी हो लेकिन कई घरों के चिराग बुझ गए जो बहुत ही दर्दनाक है.

यूपीएससी का गढ़ दिल्ली

दिल्ली का मुखर्जी नगर, ओल्ड राजिंदर नगर, करोल बाग और इस के आसपास के इलाके यूपीएससी कोचिंग सैंटरों का हब हैं. पूरे देश से हजारों युवा आंखों में सपने लिए आते हैं क्योंकि यहां अधिकांश कोचिंग संस्थानों की शाखाएं और 24 घंटे लाइब्रेरियां खुली रहती हैं. यहां आसपास अच्छी किताबें, नोट्स और पढ़ाई से संबंधित हर तरह की सुविधा तुरंत मिल जाती है, इसलिए बच्चों को यहां आ कर पढ़ना ज्यादा सुविधाजनक लगता है.

रहना और खानापीना है महंगा सौदा

यहां रहने के लिया कमरा ढूंढना किसी जंग से कम नहीं है क्योंकि इस के लिए ब्रोकर का सहारा लेना पड़ता है और वे सब मकानमालिक से मिले हुए होते हैं और छात्रों से इस के लिए मनमाना किराया वसूलते हैं. वहीं, किराए वाले कुछ कमरे इतने छोटे और घुटनभरे होते हैं कि वहां गुजारा करना मुश्किल होता है.

वहां खाना बनाने तक की जगह नहीं होती जिस वजह से छात्रों को बाहर खाना पड़ता है. वे बारबार बीमार तक हो जाते हैं. साथ ही, छात्रावासों में उन्हें अस्वस्थ तरीके से बना अपौष्टिक भोजन परोसा जाता है, जबकि इस के लिए मनमाना पैसा लिया जाता है.

महंगी कोचिंग फीस से जेब पर दबाव

यहां जो भी छात्र आते हैं वे इस के लिए मोटा खर्चा करते हैं क्योंकि यहां रहनाखाना तो छोड़िए, पढ़ना भी काफी महंगा है. आप राव कोचिंग सैंटर का उदाहरण लें, यहां जनरल स्टडीज इंटीग्रल फाउंडेशन की फीस 1 लाख 75 हजार रुपए है. इन छात्रों का पढ़ाई से इतर एक साल का खर्च भी लाखों में होता है, जिस के लिए वे पूरी तरह से अपने पेरैंट्स पर निर्भर होते हैं.

इस के साथ ही, पेरैंट्स का उन पर दबाव होता है कि जल्दी ही ये एग्जाम क्लियर करना है, जोकि काफी टेढ़ी खीर होता है और लगातार कई प्रयास में असफल होने पर उन्हें जो मानसिक तनाव झेलना पड़ता है वह अलग. कई तो कर्ज ले कर पढ़ने आते हैं और उन्हें कर्ज पर लगते ब्याज की चिंता भी साथसाथ सताती है. इस तरह कई बार मानसिक तनाव काफी हद तक बढ़ जाता है.

शारीरिक और मानसिक रूप से फिट रहना चैलेंज

दिल्ली में प्रतियोगी परीक्षा की पढ़ाई कर रही अकोला के गंगानगर इलाके की छात्रा अंजलि गोपनारायण ने 21 जुलाई को फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली. वह 4 साल से दिल्ली में रह रही थी. पुलिस कांस्टेबल पिता की बेटी अंजलि औफिसर बनने का सपना ले कर दिल्ली गई थी.

पढ़ाई और परीक्षा का तनाव, इन परीक्षाओं में होने वाली गड़बड़ियां, ट्यूशन क्लास, होस्टल और दलालों की उगाही से आर्थिक व मानसिक तौर पर परेशान अंजलि ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली. उस का पहले ही प्रयास में यूपीएससी क्लियर करने का सपना था. इसी वजह से वह डिप्रैशन का शिकार हो गई थी.

कोचिंग सैंटर बनाम डैथ सैंटर

यहां पढ़ने वाले छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा है जबकि जगह कम. हर क्लास में इतनी भीड़ होती है कि छात्रों को खड़े हो कर क्लास लेनी पड़ती है और जहां सीट होती है वह इतनी महंगी होती है कि जेब इजाजत नहीं देती. इन कोचिंग केंद्रों में छात्रों को विषयों की गहन जानकारी देने के बजाय शौर्टकट सफलता हासिल करने के मंत्र दिए जाते हैं, जिस का फायदा कुछ छात्र उठा ले जाते हैं और कुछ को इस का नुकसान होता है और वे सिर्फ रट्टू तोता बन कर रह जाते हैं.

इस से कुछ ही छात्र सफल होते हैं और कुछ का अत्मविश्वास हमेशा के लिए टूट जाता है और वे इतने मैंटल ट्रामा में आ जाते हैं कि सुसाइड तक कर लेते हैं. परिवार वाले और छात्र अपने स्वर्णिम भविष्य के सपने संजो कर और लाखों की फीस दे कर यहां पढ़ने आते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता होता कि उन्हें इस तरह मौत मिलेगी.

सरकारों को है फायदा

24 जुलाई को केंद्रीय शिक्षा मंत्री डाक्टर सुकांत मजूमदार ने राज्यसभा में बताया कि कोचिंग संस्थानों से बीते 5 सालों में जीएसटी कलैक्शन करीब 146 फीसदी बढ़ा है. वित्त वर्ष 2020 में सरकार ने कोचिंग संस्थानों से 2,240.73 करोड़ रुपए की जीएसटी वसूली थी जो वित्त वर्ष 2023 में बढ़ कर 5,517.45 करोड़ रुपए तक पहुंच गई. अब आप खुद ही समझ गए होंगे कि इन कोचिंग संस्थानों से सरकार को कितना फायदा हो रहा है. लेकिन जब जिम्मेदारी लेने की बात आती है तो ये सभी एकदूसरे पर आरोप लगा कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, जैसे कि इस घटना के बाद बीजेपी और आम आदमी पार्टी एकदूसरे पर आरोप लगा रही हैं.

बीजेपी इस के लिए एमसीडी और आप को जिम्मेदार बता रही है. उस का कहना है, इस से संबंधित सभी विभाग इन्हीं दोनों के अधीन आते हैं. तो वहीं आप नेताओं का इस बारे में कहना है कि अफसरों को सजा देने या फिर पुरस्कृत करने का अधिकार एलजी के हाथों में है. सच तो यह है कि न तो इस तरह की घटना को अंजाम देने वाले हालात नए हैं और न ही सरकारी तंत्र का कोई हिस्सा इस से अनजान है. सवाल यह है कि क्या भविष्य में इस तरह की घटनाओं को होने से रोका जा सकता है या फिर इसी तरह हम होनहार छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे.

नियमों का पालन जरूरी

• हादसे की स्थिति में बेसमैंट से बाहर निकलने का कोई दूसरा रास्ता भी होना चाहिए.

• सरकारों और स्थानीय निकाय द्वारा जारी की गई गाइडलाइंस का पालन किया जाना चाहिए.

• कोचिंग संस्थान के संचालन के लिए भवन नैशनल बिल्डिंग कोड के अनुरूप होना चाहिए.

• छात्रों के पढ़ने के लिए बैठने की व्यवस्था भी पूरी तरह आरामदायक होनी चाहिए ताकि उन्हें कोई स्वास्थ्य संबंधी परेशानी न हो.

• इन सभी जगहों पर सुरक्षा उपकरणों से लैस कैमरे होने चाहिए.

• यहां डबलडोर, हवादार कमरे और पानी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए.

• कोचिंग संस्थानों में सुरक्षा के मद्देनजर सभी जरूरी चीजें होनी चाहिए.

• कोचिंग संस्थानों में साफ टौयलेट और मौसम के अनुरूप साफ व ठंडा पानी की सुविधा हो.

• कोचिंग संस्थान चलाने के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र ले कर नगर निकायों से अनुमति लेनी होती है. संस्थान चलाने के लिए 3,000 स्क्वायर फुट क्षेत्रफल न्यूनतम किया गया है. इस का पालन होना चाहिए.

• कोचिंग संस्थान बेसमैंट से ले कर छतों पर अस्थाई ढांचे का निर्माण कर चलाए जा रहे हैं, इस पर रोक लगनी चाहिए.

• सभी वाणिज्यिक और गैरवाणिज्यिक यूपीएससी संस्थान या कोई अन्य संस्थान, कार्यालय, पुस्तकालय या अन्य इकाई में 100 या उस से अधिक छात्रों को समायोजित करने पर एक फायर मार्शल होना चाहिए.

• नियमित मौक ड्रिल आयोजित की जानी चाहिए.

• पुस्तकालयों और पीजी के किराए में कमी, किराया आयुक्त के लिए एक डैस्क और एक औफलाइन व औनलाइन शिकायत निवारण सैल भी होना चाहिए.

उतावली : क्या कमी रह गई थी सारंगी के जीवन में

‘‘मैं क्या करती, उन से मेरा दुख देखा नहीं गया तो उन्होंने मेरी मांग में सिंदूर भर दिया.’’

सारंगी का यह संवाद सुन कर हतप्रभ सौम्या उस का मुंह ताकती रह गई. महीनेभर पहले विधवा हुई सारंगी उस की सहपाठिन थी.

सारंगी के पति की असामयिक मृत्यु एक रेल दुर्घटना में हुई थी.

सौम्या तो बड़ी मुश्किल से सारंगी का सामना करने का साहस जुटाती दुखी मन से उस के प्रति संवेदना और सहानुभूति व्यक्त करने आई थी. उलझन में थी कि कैसे उस का सामना करेगी और सांत्वना देगी. सारंगी की उम्र है ही कितनी और ऊपर से 3 अवयस्क बच्चों का दायित्व. लेकिन सारंगी को देख कर वह भौचक्की रह गई थी. सारंगी की मांग में चटख सिंदूर था, हथेलियों से कलाइयों तक रची मेहंदी, कलाइयों में ढेर सारी लाल चूडि़यां और गले में चमकता मंगलसूत्र. उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ.

विश्वास होता भी कैसे. तीजत्योहार पर व्रतउपवास रखने वाली, हर मंदिरमूर्ति के सामने सिर झुकाने वाली व अंधभक्ति में लीन रहने वाली सारंगी को इस रूप में देखने की कल्पना उस के मन में नहीं थी. वह तो सोचती आई थी कि सारंगी सूनी मांग लिए, निपट उदास मिलेगी.

सारंगी की आंखों में जरा भी तरलता नहीं थी और न ही कोई चिंता. वह सदा सुहागन की तरह थी और उस के चेहरे पर दिग्विजयी खुशी फूट सी रही थी. सब कुछ अप्रत्याशित.

एक ही बस्ती की होने से सारंगी और सौम्या साथसाथ पढ़ने जाती थीं. दोनों का मन कुछ ऐसा मिला कि आपस में सहेलियों सा जुड़ाव हो गया था. सौम्या की तुलना में सारंगी अधिक यौवनभरी और सुंदर थी. उम्र में उस से एक साल बड़ी सारंगी, पढ़ाई में कमजोर होने के कारण वह परीक्षाओं में पास होने के लिए मंदिरों और देवस्थानों पर प्रसाद चढ़ाने की मनौती मानती रहती थी. सौम्या उस की मान्यताओं पर कभीकभी मखौल उड़ा देती थी. सारंगी किसी तरह इंटर पास कर सकी और बीए करतेकरते उस की शादी हो गई. दूर के एक कसबे में उस के पति का कबाड़ खरीदनेबेचने का कारोबार था.

शुरूशुरू में सारंगी का मायके आनाजाना ज्यादा रहा. जब आती तो गहनों से लद के सजीसंवरी रहती थी. खुशखुश सी दिखती थी.

एक दिन सौम्या ने पूछा था, ‘बहुत खुश हो?’

‘लगती हूं, बस’ असंतोष सा जाहिर करती हुई सारंगी ने कहा.

‘कोई कमी है क्या?’ सौम्या ने एकाएक तरल हो आई उस की आंखों में झांकते हुए पूछा.

‘पूछो मत,’ कह कर सारंगी ने निगाहें झुका लीं.

‘तुम्हारे गहने, कपड़े और शृंगार देख कर तो कोई भी समझेगा कि तुम सुखी हो, तुम्हारा पति तुम्हें बहुत प्यार करता है.’

‘बस, गहनों और कपड़ों का सुख.’

‘क्या?’

‘सच कहती हूं, सौम्या. उन्हें अपने कारोबार से फुरसत नहीं. बस, पैसा कमाने की धुन. अपने कबाड़खाने से देररात थके हुए लौटते हैं, खाएपिए और नशे में. 2 तरह का नशा उन पर रहता है, एक शराब का और दूसरा दौलत का. अकसर रात का खाना घर में नहीं खाते. घर में उन्हें बिस्तर दिखाई देता है और बिस्तर पर मैं, बस.’ सौम्या आश्चर्य से उस का मुंह देखती रही.

‘रोज की कहानी है यह. बिस्तर पर प्यार नहीं, नोट दिखाते हैं, मुड़ेतुड़े, गंदेशंदे. मुट्ठियों में भरभर कर. वे समझते हैं, प्यार जताने का शायद यही सब से अच्छा तरीका है. अपनी कमजोरी छिपाते हैं, लुंजपुंज से बने रहते हैं. मेरी भावनाओं से उन्हें कोई मतलब नहीं. मैं क्या चाहती हूं, इस से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं.

‘मैं चाहती हूं, वे थोड़े जोशीले बनें और मुझे भरपूर प्यार करें. लेकिन यह उन के स्वभाव में नहीं या यह कह लो, उन में ऐसी कोईर् ताकत नहीं है. जल्दी खर्राटे ले कर सो जाना, सुबह देर से उठना और हड़बड़ी में अपने काम के ठिकाने पर चले जाना. घर जल्दी नहीं लौटना. यही उन की दिनचर्या है. उन का रोज नहानाधोना भी नहीं होता. कबाड़खाने की गंध उन के बदन में समाई रहती है.’

सारंगी ने एक और रहस्य खोला, ‘जानती हो, मेरे  मांबाप ने मेरी शादी उन्हें मुझे से 7-8 साल ही बड़ा समझ कर की थी लेकिन वे मुझ से 15 साल बड़े हैं. जल्दी ही बच्चे चाहते हैं, इसलिए कि बूढ़ा होने से पहले बच्चे सयाने हो जाएं और उन का कामधंधा संभाल लें. लेकिन अब क्या, जीवन तो उन्हीं के साथ काटना है. हंस कर काटो या रो कर.’

चेहरे पर अतृप्ति का भाव लिए सारंगी ने ठंडी सांस भरते हुए मजबूरी सी जाहिर की.

सौम्या उस समय वैवाहिक संबंधों की गूढ़ता से अनभिज्ञ थी. बस, सुनती रही. कोई सलाह या प्रतिक्रिया नहीं दे सकी थी.

समय बीता. सौम्या बीएड करने दूसरे शहर चली गई और बाहर ही नौकरी कर ली. उस का अपना शहर लगभग छूट सा गया. सारंगी से उस का कोई सीधा संबंध नहीं रहा. कुछ वर्षों बाद सारंगी से मुलाकात हुई तो वह 2 बच्चों की मां हो चुकी थी. बच्चों का नाम सौरभ और गौरव बताया, तीसरा होने को था परंतु उस के सजनेधजने में कोई कमी नहीं थी. बहुत खुश हो कर मिली थी. उस ने कहा था, ‘कभी हमारे यहां आओ. तुम जब यहां आती हो तो तुम्हारी बस हमारे घर के पास से गुजरती है. बसस्टैंड पर किसी से भी पूछ लो, कल्लू कबाड़ी को सब जानते हैं.’

‘कल्लू कबाड़ी?’

‘हां, कल्लू कबाड़ी, तेरे जीजा इसी नाम से जाने जाते हैं.’ ठट्ठा मार कर हंसते हुए उस ने बताया था.

सौम्या को लगा था कि वह अब सचमुच बहुत खुश है.

कुछ समय बाद आतेजाते सौम्या को पता चला कि सारंगी के पति लकवा की बीमारी के शिकार हो गए हैं. लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी थीं कि वह चाहते हुए भी उस से मिल न सकी.

लेकिन इस बार सौम्या अपनेआप को रोक न पाई थी. सारंगी के पति की अचानक मृत्यु के समाचार ने उसे बेचैन कर दिया था. वह चली आई. सोचा, उस से मिलते हुए दूसरी बस से अपने शहर को रवाना हो जाएगी.

बसस्टैंड पर पता करने पर एक दुकानदार ने एक बालक को ही साथ भेज दिया, जो उसे सारंगी के घर तक पहुंचा गया था. और यहां पहुंच कर उसे अलग ही नजारा देखने को मिला.

‘कौन है वह, जिस से सारंगी का वैधव्य देखा नहीं गया. कोई सच्चा हितैषी है या स्वार्थी?’ सनसनाता सा सवाल, सौम्या के मन में कौंध रहा था.

‘‘सब जान रहे हैं कि कल्लू कबाड़ी की मौत रेल दुर्घटना में हुई है लेकिन मैं स्वीकार करती हूं कि उन्होंने आत्महत्या की है. सुइसाइड नोट न लिखने के पीछे उन की जो भी मंशा रही हो, मैं नहीं जानती,’’ सारंगी की सपाट बयानी से अचंभित सौम्या को लगा कि उस की जिंदगी में बहुत उथलपुथलभरी है और वह बहुतकुछ कहना चाहती है.

सौम्या अपने आश्चर्य और उत्सुकता को छिपा न सकी. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘ऐसा क्या?’’

‘‘हां सौम्या, ऐसा ही. तुम से मैं कुछ नहीं छिपाऊंगी. वे तो इस दुनिया में हैं नहीं और उन की बुराई भी मैं करना नहीं चाहती, लेकिन अगर सचाई तुम को न बताऊं तो तुम भी मुझे गलत समझोगी. विनय से मेरे विवाहेतर संबंध थे, यह मेरे पति जानते थे.’’

‘‘विनय कौन है?’’ सौम्या अपने को रोक न सकी.

‘‘विनय, उन के दोस्त थे और बिजनैसपार्टनर भी. जब उन्हें पैरालिसिस का अटैक हुआ तो विनय ने बहुत मदद की, डाक्टर के यहां ले जाना, दवादारू का इंतजाम करना, सब तरह से. विनय उन के बिजनैस को संभाले रहे. और मुझे भी. जब पति बीमार हुए थे, उस समय और उस के पहले से भी.’’

सौम्या टकटकी लगाए उस की बातें सुन रही थी.

‘‘जब सौरभ के पापा की शराबखोरी बढ़ने लगी तो वे धंधे पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे और स्वास्थ्य भी डगमगाने लगा. मैं ने उन्हें आगाह किया लेकिन कोई असर नहीं हुआ. एक दिन टोकने पर गालीगलौज करते हुए मारपीट पर उतारू हो गए तो मैं ने गुस्से में कह दिया कि अगर अपने को नहीं सुधार सकते तो मैं घर छोड़ कर चली जाऊंगी.’’

‘‘फिर भी कोई असर नहीं?’’ सौम्या ने सवाल कर दिया.

‘‘असर हुआ. असर यह हुआ कि वे डर गए कि सचमुच मैं कहीं उन्हें छोड़ कर न चली जाऊं. वे अपनी शारीरिक कमजोरी भी जानते थे. उन्होंने विनय को घर बुलाना शुरू कर दिया और हम दोनों को एकांत देने लगे. फिसलन भरी राह हो तो फिसलने का पूरा मौका रहता है. मैं फिसल गई. कुछ अनजाने में, कुछ जानबूझ कर. और फिसलती चली गई.’’

‘‘विनय को एतराज नहीं था?’’

‘‘उन की निगाहों में शुरू से ही मेरे लिए चाहत थी.’’

‘‘कितनी उम्र है विनय की?’’

‘‘उन से 2 साल छोटे हैं, परंतु देखने में उम्र का पता नहीं चलता.’’

‘‘और उन के बालबच्चे?’’

‘‘विधुर हैं. उन का एक बेटा है, शादीशुदा है और बाहर नौकरी करता है.’’

सौम्या ने ‘‘हूं’’ करते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे पति ने आत्महत्या क्यों की?’’

‘‘यह तो वे ही जानें. जहां तक मैं समझती हूं, उन में सहनशक्ति खत्म सी हो गई थी. पैरालिसिस के अटैक के बाद वे कुछ ठीक हुए और धीमेधीमे चलनेफिरने लगे थे. अपने काम पर भी जाने लगे लेकिन परेशान से रहने लगे थे. मुझे कुछ बताते नहीं थे. उन्हें डर सताने लगा था कि विनय ने बीवी पर तो कब्जा कर लिया है, कहीं बिजनैस भी पूरी तरह से न हथिया ले. एक बार विनय से उन की इसी बात पर कहासुनी भी हुई.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या, मुझे विनय ने बताया तो मैं ने उन से पूछा. अब मैं तुम्हें क्या बताऊं, सौम्या. कूवत कम, गुस्सा ज्यादा वाली बात. वे हत्थे से उखड़ गए और लगे मुझ पर लांछन लगाने कि मैं दुश्चरित्र हूं, कुल्टा हूं. मुझे भी गुस्सा आ गया. मैं ने भी कह दिया कि तुम्हारे में ताकत नहीं है कि तुम औरत को रख सको. अपने पौरुष पर की गई चोट शायद वे सह न सके. बस, लज्जित हो कर घर से निकल गए. दोपहर में पता चला कि रेललाइन पर कटे हुए पड़े हैं.’’ बात खत्म करतेकरते सारंगी रो पड़ी. सौम्या ने उसे रोने दिया.

थोड़ी देर बाद पूछा, ‘‘और तुम ने शादी कब की?’’

‘‘विनय से मेरा दुख देखा नहीं जाता था, इसलिए एक दिन मेरी मांग…’’ इतना कह कर सारंगी चुप हो गई और मेहंदी लगी अपनी हथेलियों को फैला कर देखने लगी.

‘‘तुम्हारी मरजी से?’’

‘‘हां, सौम्या, मुझे और मेरे बच्चों को सहारे की जरूरत थी. मैं ने मौका नहीं जाने दिया. अब कोई भला कहे या बुरा. असल में वे बच्चे तीनों विनय के ही हैं.’’ कुछ क्षण को सौम्या चुप रह गई और सोचविचार करती सी लगी.

‘‘तुम ने जल्दबाजी की, मैं तुम्हें उतावली ही कहूंगी. अगर थोड़े समय के लिए धैर्य रखतीं तो शायद, कोई कुछ न कह पाता. जो बात इतने साल छिपा कर रखी थी, साल 2 साल और छिपा लेतीं,’’ कहते हुए सौम्या ने अपनी बायीं कलाई घुमाते हुए घड़ी देखी और उठ जाने को तत्पर हो गई. सारंगी से और कुछ कहने का कोई फायदा न था.

मृत्यु पूर्व हरिद्वार जांच : आजमाना है तो मर कर हरिद्वार पधारिए

ताउम्र व्यवस्था के खिलाफ लड़तेलड़ते मरने को आ गया तो अचानक याद आया कि मरने के बाद मैं कहीं जाऊं या न, कम से कम हरिद्वार तो जाना ही पड़ेगा. तो जिंदगी में क्यों न कम से कम वहां की स्थितियों का जायजा ले लिया जाए, ताकि मरने के बाद व्यवस्था से अपने को एक और शिकायत न हो.

सच पूछो तो मैं मरने से उतना नहीं डरता जितना धर्म से डरता हूं. यह धर्म ही है जो समाज में कभी भी, कुछ भी करने का माद्दा रखता है. कहते हैं, धर्म जोड़ता है पर मैं ने तो इसे तोड़तेमरोड़ते ही बहुधा देखा. एक ही आदमी को सैकड़ों हिस्सों में टांकते देखा. मरने के बाद बंदा ही जाने कि वह कहां जाता है, कहीं जाता भी है या नहीं, पर हम फिर भी लाख सैक्युलर, समाजवादी होने के बाद भी उस के जीतेजी उस के बारे में उतने चिंतित नहीं होते जितने चिंतित उस के मरने के बाद होते हैं.

बस, यही सोच सारे कामधाम छोड़ हरिद्वार के लिए बस पकड़ी और नाक की सीध में सीधे हरिद्वार जा पहुंचा. वहां पहुंचते ही एक पहुंचे हुए पंडितजी टकरा गए. गोया, वे मेरा ही इंतजार कर रहे हों. आत्माओं के प्रति उन के मन में इंतजार देख मन बागबाग हो उठा. मुझे सिर से पांव तक तोलनेदेखने के बाद वे अलापे, ‘‘कहो जजमान, कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस, यों ही चला आया. यहां की व्यवस्था देखने. सोचा, मरने के बाद हांडीलोटे में पड़े तो सभी आप के दर्शन करते ही हैं, जीतेजी भी जो आप से एकबार साक्षात्कार हो जाए तो…’’ मैं ने कहा तो वे चौंक कर बोले, ‘‘मान गया तुम्हारा दुस्साहस, हे जीव! जो जिंदा रहते ही हमारे से मिलने चले आए. यहां तो जीव मरने के बाद भी आने से, हम से मिलने से डरता है जबकि तुम जिंदा ही चले आए?’’

‘‘पंडितजी, इसलिए आया हूं कि मरने के बाद यहां कि सुव्यवस्था देख परेशान न होना पड़े. पहले ही कहीं की व्यवस्था के बारे में पता हो तो कुछ भी घटते देखते मन नहीं दुखता. बस, इसीलिए…’’

‘‘गुड, वैरी गुड, बहुत दूरदर्शी मालूम होते हो?’’ कह वे अपनी राह होने को हुए तो मैं ने उन्हें तनिक रोकते पूछा, ‘‘माफ करना, पर सुना है जीवों को स्वर्ग पहुंचाने वाला रास्ता यहीं से शुरू होता है?’’

‘‘हां, कोई शक?’’

‘‘नहीं, आप पर शक कर नरक को जाना है क्या? बंदा अपने कर्मों से स्वर्ग को जाए या न, पर आप के बूते नरक को जा जरूर सकता है. मैं चाहता था कि जो आप की मेहरबानी हो तो…इस नरक में रहतेरहते असल में बहुत तंग आ गया हूं.’’ कह मैं ने जेब में हाथ डाला तो वे बोले, ‘‘नहीं, हम विधि के विधान के खिलाफ कुछ नहीं कर सकते. इसलिए बेहतर होगा अपना हाथ जेब से निकाल लो. बंदे के मरने के बाद तो हम खुद ही उस के लाख जेब पकड़े रखने के बाद भी उस की जेब में हाथ डाल लेते हैं. हमारी एक जीव ट्रांसपोर्ट कंपनी है, आइएसओ. पर हमारा कायदा है कि हम मरने के बाद ही जीव को स्वर्ग को भेजते हैं.’’

‘‘क्यों? जिंदा जीव क्यों नहीं? जिंदा जीव के पास दिमाग और आंखें तो दोनों होती हैं?’’

‘‘होती हैं, इसलिए तो यह नहीं हो सकता. जिंदा आदमी के पास पर वे आंखें नहीं होतीं जिन से स्वर्गनरकका रास्ता दिखे. नश्वर आंखें तो अपने स्वार्थ से आगे रत्तीभर नहीं देख सकतीं. स्वर्गनरक का रास्ता मरने के बाद ही जीव को दिखता है. जीवित की आंखों और दिमाग पर माया के बहुत भारी परदे पर परदे पड़े होते हैं,’’ उन्होंने सतर्क तर्क दिया.

‘‘पर मेरी आंखें तो सब देख सकती हैं,’’ मैं ने अपनी आंखों पर ठोक बजा कर दावा प्रस्तुत किया तो वे बोले, ‘‘बस, यहीं तो जीव धोखा खा जाता है, बुद्धू. सब्सिडी वाले राशन के चलते राशनकार्ड पर अंकित आटेदाल के अतिरिक्त और कुछ, असल में, बंदे को दिखता ही नहीं, चाहे वह कितनी ही कोशिश क्यों न कर ले. धर्म के विनाश का कारण भी यही तर्क है.

‘‘जीव दूसरों की आंखों से अधिक जब अपनी आंखों पर विश्वास करता है तभी तो सारे तीर्थ करने के बाद भी जीव नरक में औंधेमुंह जा कर पड़ता है. तुम्हें भी स्वर्ग का द्वार हम दिखाएंगे तो जरूर लेकिन तुम्हारे मरने के बाद ही. एक बार मर कर आओ, तो फिर देखना हमारा कमाल. पुश्तों से पूरी ईमानदारी से यह काम कर रहे हैं. पर क्या मजाल जो किसी ने भी एक शिकायत की हो कि हम ने उसे स्वर्ग भेजा लेकिन वह नरक में जा पहुंचा.

‘‘पूरे देश में एक भी केस ऐसा निकाल कर बता दो तो अपनी मूंछें कटवा कर रख दूं. यह लो उस्तरा और यह लो मेरा कार्ड. जरूरत पड़े आ जाना. हम मोक्ष के लिए आतुर जीवों की दिनरात सेवा में हाजिर रहते हैं.’’ बंदे ने अपनी जेब से विजिटिंग कार्ड और उस्तरा निकाला लेकिन मुझे देने के बजाय अपनी जेब के हवाले कर मुझे खैनी से सड़े दांत दिखाते, खिसियानी हंसी हंसता रहा.

हर घाट पर घूमतेघूमते स्वर्ग को भेजी जा रही आत्माओं को ठूंसठूंस कर रिकशा में बैठातेबैठाते देखने के बाद कुशाघाट पर जा पहुंचा. अब तक मेरे मन में पापपुण्य सावन के झूलों की तरह हिलोरें मारने लग गए थे. मुझे लग रहा था कभी पेटभर रोटी न खाने वाला भी पाप तले दब सा रहा है. मैं ने वहीं घाट पर अपने कपड़े उतारे और अवांछित पापों से मुक्ति के लिए गंगा में डुबकी लगाने को हुआ कि कहीं से आवाज आई, लगा, जैसे कोई मेरा नाम ले कर मुझे पुकार रहा हो. इधरउधर देखा, तो कोई नजर नहीं आया. फिर नाक पकड़ हिम्मत कर डुबकी लगाने को हुआ कि लगा, जैसे कोई मेरा नाम ले रहा हो. मैं ने डुबकी लगाने को पकड़ी नाक छोड़ी और कहा, ‘कौन?’

‘मैं, गंगा.’

‘गंगा में गंगा?’ मैं चौंका.

‘हां गंगा,’ पहले तो विश्वास ही न हुआ क्योंकि धर्म के नाम पर, भगवान के नाम पर विश्वास करने लायक अब कुछ बचा ही नहीं है. पर जब गंगा ने दृढ़ता से कहा तो सामने साक्षात् गंगा को पा, लगा मैं सशरीर मोक्ष पा गया.

‘पर तुम यहां पंडोंपापियों के मेले में क्या कर रहे हो?’

‘सोचा, बहती गंगा में मैं भी नहा ही लूं.’

‘तुम्हें तो नहा कर मुक्ति मिल जाएगी पर मेरा क्या होगा? कभी इस बारे में भी सोचा? अब मैं कहां नहाने जाऊं? है कहीं कोई ऐसी नदी?’ गंगा ने उदास हो पूछा तो मुझे काटो तो खून नहीं. कुछ देर तक एकटक मुझे देखने के बाद गंगा ने कहा, ‘नहीं सोचा, तो अब सोचो.’

‘सरकारी स्तर पर तो, हे गंगा, हम सोचसोच कर हार गए. अब किसी को स्वच्छ नहीं होना हो तो हम भी क्या करें?’ मैं ने अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की तो वह बोली, ‘अपने स्तर पर भी कुछ सोचो तो बात बने. अपनी मुक्ति की बात तो युगों से करते रहे हो, मेरी मुक्ति की बात करो तो मेरा भी कल्याण हो,’ कह अंतर्ध्यान हुईं तो पीछे मुड़ कर देखा, एक पंडा मेरे कपड़े चुरा, बदहवास दौड़े जा रहा था.

बस एक भूल : जब एक पत्नी ने पति को बना दिया नामर्द

जब बड़ी बेटी मधु की शादी में विद्यासागर के घर शहनाई बज रही थी, तो खुशी से उन की आंखें भर आईं.

उधर बरातियों के बीच बैठे राजेश के पिता की भी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, क्योंकि उन के एकलौते बेटे की शादी मधु जैसी सुंदर व सुशील लड़की से हो रही थी.

लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह शादी उन के लिए सिरदर्द बनने वाली है. शादी को अभी 2 दिन भी नहीं हुए थे कि मधु राजेश को नामर्द बता कर मायके आ गई.

यह बात दोनों परिवारों के गांवों में जंगल में लगी आग की तरह फैल गई. सब अपनीअपनी कहानियां बनाने लगे. कोई कहता कि राजेश ज्यादा शराब पी कर नामर्द बन गया है, तो कोई कहता कि वह पैदाइशी नामर्द था. इस से दोनों परिवारों की इज्जत धूल में मिल गई.

राजेश जहां भी जाता, गांव वालों से यही सुनने को मिलता कि उन्हें तो पहले से ही मालूम था कि आजकल की लड़की उस जैसे गंवार के साथ नहीं रह सकती.

विद्यासागर के दुखों का तो कोई अंत ही नहीं था. वे बस एक ही बात कहते, ‘मैं अपनी बेटी को कैसी खाई में धकेल रहा था…’

मधु के घर में मातम पसरा हुआ था, पर जैसे उस के मन में कुछ और ही चल रहा था.

मधु की ससुराल वाले बस यही चाहते थे कि वे किसी तरह से मधु को अपने यहां ले आएं, क्योंकि गांव वाले उन को इतने ताने मार रहे थे कि उन का घर से निकलना मुश्किल हो गया था.

राजेश के पिता विद्यासागर से बात करना चाहते थे, पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया था.

कुछ दिनों बाद मधु की ससुराल वाले कुछ गांव वालों के साथ मधु को लेने आए, तो मधु ने जाने से साफ इनकार कर दिया.

विद्यासागर ने भी मधु की ससुराल वालों की उन के गांव वालों के सामने जम कर बेइज्जती कर दी और धमकाते हुए कहा, ‘‘आज के बाद यहां आया, तो तेरी टांगें तोड़ दूंगा.’’

यह सुन कर राजेश के पिता भी उन्हें धमकाने लगे, ‘‘अगर तुम अपनी बेटी को मेरे साथ नहीं भेजोगे, तो मैं तुम पर केस कर दूंगा.’’

विद्यासागर ने कहा, ‘‘जो करना है कर ले, पर मैं अपनी बेटी को तेरे घर कभी नहीं भेजूंगा.’’

मामला कोर्ट में पहुंच गया. मधु तलाक चाहती थी, पर राजेश उसे रखना चाहता था.

कुछ दिनों तक केस चला, लेकिन दोनों परिवारों की माली हालत कमजोर होने की वजह से उन्होंने आपस में समझौता कर लिया व तलाक हो गया.

मधु बहुत खुश थी, क्योंकि वह तो यही चाहती थी. एक दिन जब मधु सुबहसवेरे दुकान पर जा रही थी, तो वहां उसे दीपक दिखाई दिया, जो उस के साथ पढ़ता था.

मधु ने दीपक को धीरे से कहा, ‘‘आज शाम को मैं तेरा इंतजार मंदिर में करूंगी. वहां आ जाना.’’

दीपक ने कुछ जवाब नहीं दिया. मधु मुसकरा कर चली गई.

जब शाम को वे दोनों मंदिर में मिले, तो मधु ने खुशी से कहा, ‘‘देख दीपक, मैं तेरे लिए सब छोड़ आई हूं. वह रिश्ता, वह नाता, सबकुछ.’’

‘‘मेरे लिए… तुम कहना क्या चाहती हो मधु?’’ दीपक ने थोड़ा चौंक कर उस से पूछा.

‘‘दीपक, मैं सिर्फ तुम से प्यार करती हूं और तुम से ही शादी करना चाहती हूं,’’ मधु ने थोड़ा बेचैन अंदाज में कहा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो मधु?’’ दीपक ने फिर पूछा.

मधु ने कहा, ‘‘मैं सच कह रही हूं दीपक. मैं तुम से प्यार करती हूं. कल यह समाज मेरे फैसले का विरोध करे, इस से पहले हम शादी कर लेते हैं.’’

‘‘मधु, तुम पागल तो नहीं हो गई हो. जब गांव वाले सुनेंगे, तो मुझे जान से मार देंगे और पता नहीं, मेरी मां मेरा क्या हाल करेंगी?’’ दीपक ने थोड़ा घबरा कर कहा.

‘‘क्या तुम गांव वालों और अपनी मां से डरते हो? क्या तुम ने मुझ से प्यार नहीं किया?’’

‘‘हां मधु, मैं ने तुम से ही प्यार किया है, पर तुम से शादी करूंगा, ऐसा कभी नहीं सोचा.’’

मधु ने गुस्से में कहा ‘‘धोखेबाज, तू ने शादी के बारे में कभी नहीं सोचा, पर मैं सिर्फ तेरे बारे में ही सोचती रही. ऐसा न हो कि मैं कल किसी और की हो जाऊं. चल, शादी कर लेते हैं,’’ मधु ने दीपक का हाथ पकड़ कर कहा.

‘‘नहीं मधु, मुझे अपनी मां से बहुत डर लगता है. अगर हम दोनों ने ऐसा किया, तो गांव में हम दोनों की बदनामी होगी,’’ दीपक ने समझाते हुए कहा.

मधु ने बोल्ड अंदाज में कहा, ‘‘तुम अपनी मां और गांव वालों से डरते होगे, पर मैं किसी से नहीं डरती. मैं करूंगी तुम्हारी मां से बात.’’

दीपक ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर मधु ने अपनी जिद के आगे उस की एक न सुनी.

अगले दिन जब मधु दीपक की मां से बात करने गई, तो उस की मां ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी गिरी हुई लड़की हो. तुम ने इस नाजायज प्यार के लिए अपना ही घर उजाड़ दिया.’’

‘‘मैं अपना घर उजाड़ कर नहीं आई मांजी, बल्कि दीपक के लिए सब छोड़ आई हूं. मेरे लिए दीपक ही सबकुछ है. मुझे अपनी बहू बना लीजिए, वरना मैं मर जाऊंगी,’’ मधु ने गिड़गिड़ा कर कहा.

‘‘तो मर जा, लेकिन मुझे सैकंडहैंड बहू नहीं चाहिए,’’ दीपक की मां ने दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘मैं सैकंडहैंड नहीं हूं मांजी. मैं वैसी ही हूं, जैसी गई थी,’’ मधु ने कहा.

‘‘लगता है कि शादी के बाद तुझ में कोई शर्मलाज नहीं रही है. अंधे प्यार ने तुझे पागल बना दिया है. दीपक तेरे गांव का है… तेरा भाई लगेगा. मैं तेरे पापा को सब बताऊंगी,’’ दीपक की मां ने मधु को धमकाते हुए कहा.

इस के आगे मधु ने कुछ नहीं कहा. वह चुपचाप वहां से चली गई.

दीपक की मां ने विद्यासागर से कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी दीपक के प्यार के चलते ही अपनी ससुराल में न बस सकी. अपनी बेटी को बस में रखो, वरना एक दिन वह तुम्हारी नाक कटा देगी.’’

यह सुनते ही विद्यासागर का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

विद्यासागर ने घर जाते ही मधु से गुस्से में पूछा, ‘‘मधु, वह लड़का सच में नामर्द था या फिर तुम ने उसे नामर्द बना दिया?’’

‘‘वह मुझे पसंद नहीं था,’’ मधु ने बेखौफ हो कर कहा.

‘‘इसलिए तुम ने उसे नामर्द बना दिया,’’ विद्यासागर ने गुस्से में कहा.

‘‘हां,’’ मधु बोली.

‘‘मतलब, तुम ने पहले ही सोच लिया था कि यह रिश्ता तोड़ना है?’’

‘‘हां.’’

फिर विद्यासागर उसे बहुतकुछ सुनाने लगे, ‘‘जब तुम्हें रिश्ता तोड़ना ही था, तो यह रिश्ता जोड़ा ही क्यों? जब रिश्ते की बात हो रही थी, तो मैं ने बारबार पूछा था कि यह रिश्ता पसंद है न? हर बार तू ने हां कहा था. क्यों?

‘‘तेरी ससुराल वाले मुझ से बारबार एक ही बात कह रहे थे कि राजेश नामर्द नहीं है, पर मैं ने तुझ पर भरोसा कर के उन की एक न सुनी.

‘‘वह मेरी मजबूरी थी, क्योंकि आप से कहीं रिश्ता हो ही नहीं रहा था. बड़ी मुश्किल से आप ने मेरे लिए एक रिश्ता तय किया, तो मैं उसे कैसे नकार देती?’’ मधु ने शांत लहजे में कहा.

‘‘जानती हो कि तुम्हारे चलते मैं आज कितनी बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं. तेरी शादी का कर्ज अभी तक मेरे सिर पर है. सोचा था कि इस साल तेरी छोटी बहन की शादी कर देंगे, पर तुझ से छुटकारा मिले तब न.’’

मधु पिता की बात ऐसे सुन रही थी, जैसे उस ने कुछ गुनाह ही न किया हो. ‘‘जेब में एक पैसा नहीं है. तेरा?छोटा भाई अभी 10 साल का है. उस से अभी क्या उम्मीद करूं? आसपास के लोग तो बस हम पर हंसते हैं.

‘‘पता नहीं, आजकल के बच्चों को हो क्या गया है. वे रिश्तों की अहमियत क्यों नहीं समझते हैं. रिश्ता तोड़ना तो आजकल एक खेल सा बन गया है. इस से मांबाप की कितनी परेशानी बढ़ती है, यह आजकल के बच्चे समझें तब न.

‘‘वैसे भी लड़कियों को रिश्ता तोड़ने का एक अच्छा बहाना मिल गया है कि लड़का पसंद न हो, तो उसे नामर्द बता दो. यह एक ऐसी बीमारी है, जिस का कोई इलाज ही नहीं है,’’ इस तरह एकतरफा गरज कर मधु के पिता बाहर चले गए.

यह बात धीरेधीरे पूरे गांव में फैल गई. गांव वाले मधु के खिलाफ होने लगे. अब तो उस का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया.

दीपक भी अपनी मां के कहने पर नौकरी के लिए शहर चला गया.

विद्यासागर ने मधु की दूसरी शादी कराने की बहुत कोशिश की, पर कहीं बात नहीं बनी. वे जानते थे कि लड़की की एक बार शादी होने के बाद उस की दूसरी शादी कराना बड़ा ही मुश्किल होता है. इस तरह एक साल गुजर गया. मधु को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था. वह बारबार यही सोचती, ‘मैं ने क्यों अपना घर उजाड़ दिया? मेरे चलते ही परिवार वाले मुझ से नफरत करते हैं.’

फिर बड़ी मुश्किल से मधु के लिए एक रिश्ता मिला. उस आदमी की बीवी कुछ महीने पहले मर गई थी. वह विदेश में रह कर अच्छा पैसा कमाता था.

मधु की मां ने उस से पूछा, ‘‘सचसच बताना कि तुझे यह रिश्ता मंजूर है?’’

मधु ने धीरे से कहा, ‘‘हां.’’

मां ने कहा, ‘‘इस बार कुछ गड़बड़ की, तो अब इस घर में भी जगह नहीं मिलेगी.’’

मधु बोली, ‘‘ठीक है.’’

फिर मधु की शादी गांव से दूर एक शहर में कर दी गई. वह आदमी भी मधु को देख कर बहुत खुश था.

जब मधु एयरपोर्ट पर अपने पति के साथ विदेश जाने लगी, तो उस के परिवार वालों ने सबकुछ भुला कर उसे विदा किया. उस की मां ने नम आंखों से जातेजाते मधु से पूछ ही लिया, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’

मधु ने भी नम आंखों से कहा, ‘‘खुश हूं. एक गलती कर के पछता रही हूं. अब मैं भूल से भी ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.’’

विद्यासागर ने मधु से भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मधु, मैं ने गुस्से में तुम से जोकुछ भी कहा, उसे भूल जाना.’’ कुछ देर बाद पूरे परिवार ने नम आंखों से मधु को विदा कर दिया.

कमजोर होने के बजाय 4 जून के बाद और मजबूत क्यों हो रहा इंडिया ब्लौक

“ये चुनौतियां मेरे लिए नहीं हैं, ये अध्यक्ष के लिए हैं. जिस का अर्थ है कि इस पर बैठा व्यक्ति अयोग्य है. मुझे सदन से वह समर्थन नहीं मिला जो मुझे मिलना चाहिए था, मेरे सर्वोत्तम प्रयासों के बाबजूद मैं निराश हूं. मेरे पास एक ही विकल्प है, भारीमन से मैं खुद को कुछ समय के लिए यहां बैठने में असमर्थ पाता हूं.”

इतना कहने के बाद राज्यसभा अध्यक्ष जगदीप धनखड़ सदन से बाहर चले गए. वाकेआ राज्यसभा का है. 8 अगस्त को विपक्षी सदस्य रैसलर विनेश फोगट को ओलिंपिक में अयोग्य ठहराए जाने पर चर्चा की मांग कर रहे थे. लेकिन धनखड़ ने इस से मना किया तो उन्होंने वाकआउट कर दिया. यह मामला कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे ने उठाया था जिन का समर्थन टीएमसी, सीपीआई और आप सहित सभी विपक्षी दलों ने किया था. इन पार्टियों के सदस्यों ने बहस के लिए नियम 267 के तहत नोटिस भी दिया था. विनेश का मुद्दा वाकई गंभीर था लेकिन धनखड़ इस पर कुछ सुनने तैयार नहीं थे क्योंकि पूरी भाजपा इस से बच रही थी. भाजपा क्यों बच रही थी, कुश्ती में दिलचस्पी न रखने वाले भी इस की वजह जानते हैं.

होहल्ले के बीच अहम बात धनखड़ का वाकआउट करना रहा, नहीं तो अभी तक विपक्ष ही वाकआउट करता रहा था. यह संभवतया यह पहला मौका था जब राज्यसभा अध्यक्ष ही घबरा कर वाकआउट या पलायन कुछ भी कह लें कर गए. उन की स्थिति एक ऐसे ड्राइवर जैसी मुद्दत से दिख रही है जिस से बस चलाते नहीं बन रहा है या ऐसे टीचर की जिस से क्लास संभाले नहीं संभल रही है. सरकारी स्कूलों के गुरुओं की तरह वह चाहता है कि छुट्टी की घंटी बजने तक बच्चे मुंह में दही जमाए बैठे रहें और वह पैर टेबल पर फैलाए इत्मीनान से ऊंघता रहे.
लेकिन हो उलटा रहा है, छात्र कह रहे हैं कि गुरुजी उठो पढ़ाई चालू करो. ब्लैकबोर्ड पर चाक से कुछ लिखो, नहीं तो हम तो शोर मचाएंगे ही.

अब गुरुकुलों सा दौर नहीं है कि हम आप के पांव दबाते रहें, आश्रम के बाहर बंधी आप की गाय का दूध दुह कर गुरुमाता को दे कर अपनी शिक्षा पूरी हुई मान लें.

बस, इस लोकतांत्रिक मानसिकता पर धनखड़ झल्ला उठे और खुद ही अपनी काबिलीयत पर सवालिया निशान यह कहते लगा बैठे कि ये चुनौतियां मेरे लिए नहीं हैं, ये अध्यक्ष के लिए हैं जिस का अर्थ है कि इस पर बैठा व्यक्ति अयोग्य है. अगर सदस्यों की मांग चुनौती है तो उन्हें इस का सामना करना आना चाहिए. संसद में बैठे सदस्य कोई स्कूली बच्चे नहीं जो मास्टर की डांट सुन सहम कर बैठ जाएंगे.

ऐसी उम्मीद इंडिया ब्लौक के संसद सदस्यों से अब जगदीप धनखड़ सहित लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह या रक्षामंत्री राजनाथ सिंह को नहीं करनी चाहिए. क्योंकि 4 जून के नतीजों ने संदेश यही दिया है कि अब सत्ता पक्ष की और चेयर की मनमानी नहीं चलेगी जो 2014 से ले कर 2024 तक खूब चल चुकी, जिस से जनता को कुछ शकशुबहा हुआ या खटका लगा तो उस ने विपक्ष के मुंह में वोटों के जरिए आवाज और दिलोदिमाग में आत्मविश्वास भर दिया.

8 अगस्त की रात धनखड़ ढंग से सो पाए या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन 9 अगस्त की सुबह फिर राज्यसभा में उन की भड़ास, खीझ और गुस्सा दिखा. पिछले दिन निशाने पर टीएमसी के डेरेक ओ ब्रायन और कांग्रेस के जयराम रमेश थे तो इस दिन वे सपा की तेजतर्रार ऐक्ट्रैस सांसद जया बच्चन से उलझ पड़े.

इन दोनों की नोकझोंक ज्यादातर इंग्लिश में चली जिस का सार यह था कि धनखड़ जया बच्चन को अमिताभ जया बच्चन के नाम से न पुकारें. इस बाबत धनखड़ की दलील यह थी कि चूंकि उन का औफिशियल नाम यही है, इसलिए वे उन्हें इस नाम से ही पुकारेंगे. जया की आपत्ति यह थी कि आप की टोन यानी लहजा ठीक नहीं, तो धनखड़ इंग्लिश में ही बिफर पड़े जिस का सार यह था कि आप सैलिब्रेटी होंगी लेकिन यहां शिष्ट और संसदीय आचरण रखें. अब यह किसी ने नहीं पूछा कि नरेंद्र मोदी को उन के औफिशियल नाम नरेंद्र दामोदर दास मोदी से क्यों नहीं पुकारा जाता.

बहरहाल, धनखड़ की टोन इस बार भी वैसी ही थी जैसी किसी जेलर की कैदियों के सामने होती है. इस पर जया को भी गुस्सा आ गया और उन्होंने दो टूक कह दिया कि हम और आप कलीग हैं. फर्क इतना है कि आप वहां बैठे हैं. इस बहस के दौरान इंडिया गठबंधन के सदस्यों ने जया का पक्ष लेते हल्ला मचाया और वाकआउट करने को उठ खड़े हुए. नजारा विनेश की कुश्ती सरीखा ही था. जब धनखड़ तेज आवाज में बोलते थे तो भाजपाई उन की हिम्मत बढ़ाने के लिए शोर मचा कर समर्थन कर रहे थे और जया जब बोलती थीं तो विपक्षी सदस्य उन का साथ दे रहे थे. एक भाजपा सांसद घनश्याम तिवाड़ी द्वारा मल्लिकार्जुन खड़गे पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी पर भी गठबंधन सदस्यों ने कार्रवाई की मांग की.

उत्तरकांड में इंडिया ब्लौक के सदस्यों की तरफ से सुगबुगाहट सुनाई दी कि बहुत हो गया अब. अब, धनखड़ को हटाने के लिए महाभियोग लाया जाए. 10 अगस्त तक 87 सदस्यों ने इस पर सहमति भी दे दी. अगर ऐसा हुआ तो राज्यसभा में यह पहला मौका होगा जब उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए महाभियोग लाया जाएगा. हालांकि यह आसान नहीं है क्योंकि इंडिया ब्लौक के पास 225 में से महज 87 ही सांसद हैं जबकि चाहिए 113.

87 में से कांग्रेस के 26, टीएमसी के 13, आप और डीएमके के 10-10 सांसद हैं. 26 और वोट कबाड़ना गठबंधन के लिए मुश्किल होगा लेकिन इस के बाद भी उस के हौसले बुलंद हैं और मंशा अपनी ताकत व एकजुटता दिखाने के साथ धनखड़ को सबक सिखाने की है तो नाकामी की चिंता भी उसे नहीं. अब देखना दिलचस्प होगा कि एकजुट और मजबूत हो चुका विपक्ष क्या करेगा?

हाल लोकसभा के भी यही हैं. स्पीकर ओम बिरला भी बौखलाए और खीझेखीझे से रहते हैं. लेकिन वे धनखड़ की तरह बिफरते नहीं हैं क्योंकि लोकसभा में इंडिया गठबंधन के निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन के मंत्री ज्यादा रहते हैं. ऐसा ही 9 अगस्त को वक्फ बोर्ड बिल पर बहस के दौरान हुआ जब अखिलेश यादव ने गृहमंत्री अमित शाह पर गोलमोल बातें करने का आरोप लगाया.

अखिलेश यादव ने एक तकनीकी तर्क यह रखा कि जब चुनाव के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया है तो लोगों को नामित क्यों किया जाए. समुदाय के बाहर का कोई भी व्यक्ति अन्य धार्मिक निकायों का हिस्सा नहीं है. वक्फ निकायों में गैरमुसलिमों को शामिल करने का मतलब क्या है? भाजपा लोकसभा चुनाव में हार के बाद कुछ कट्टरपंथी समर्थकों को खुश करने के लिए यह बिल लाई है.

वक्फ बोर्ड संशोधन बिल पर भी इंडिया गठबंधन के घटक दलों ने एकता दिखाई तो थकहार कर अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरण रिजूजू को संयुक्त संसदीय समिति की घोषणा करनी पड़ी. यह मांग भी उन के सहयोगी दल टीडीपी की ही थी. यह 4 जून का ही इफैक्ट है नहीं तो 10 साल वही हुआ जो प्रधानमंत्री और उन के मंत्रियों ने कह दिया. तब विपक्ष के पास इतनी संख्या नहीं थी कि वह पूरे आत्मविश्वास से सरकार की मनमानी पर अंकुश लगाते लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका की किताबी बातों को अमल में ला कर दिखा सके.

यही एकजुटता उस वक्त भी दिखी थी जब योगी सरकार ने मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करने की गरज से दुकानों पर नाम और पहचान की तख्तियां लटकाने का हुक्म जारी किया था. इंडिया ब्लौक के साथसाथ एनडीए के घटक दलों ने भी इस तुगलकी फरमान का कड़ा विरोध किया था तो एकबारगी सरकार खतरे में दिखाई देने लगी थी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भाजपा और उस की सरकार की जम कर भद्द पिटी थी.

99 का फेर भाजपा सरकार को कितना भारी पड़ रहा है, यह संसद की कार्रवाई से साफ दिखता है कि वह पहले जैसे मनमाने ढंग से फैसले नहीं ले पा रही. असर संसद के बाहर भी साफसाफ दिख रहा है. 4 जून के बाद ईडी, आईटी और सीबीअई ने कहीं ‘उल्लेखनीय’ छापा नहीं मारा है. विपक्ष का कोई ‘वजनदार’ नेता जेल में नहीं ठूंसा गया है. उलटे, मनीष सिसोदिया को जमानत मिल गई है और अरविंद केजरीवाल को भी जमानत मिलने की संभावना बढ़ी है.

सोशल मीडिया पर भक्तों की मनमानी कम हुई है और मीडिया भी कुछ ही और कभीकभार ही सही सरकारी फैसलों और नीतियों पर निष्पक्षता से बोलने लगा है. इस की एक मिसाल वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट पेश करने के बाद देखने में आई थी, जब एक न्यूजचैनल आज तक के एक एंकर सुधीर चौधरी ने उन पर ताने कसे थे. हालांकि मीडिया अभी भी वैचारिक और सैद्धांतिक तौर पर कट्टर हिंदुत्व और पाखंडों का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. वह अब अपने उपभोक्ताओं यानी दर्शकों और पाठकों का मूड और देश का माहौल देख कर अपनी रिपोर्टिंग करता है. यानी, सरकारी विज्ञापनों और अपने हिंदूवादी होने का असर अभी उस पर है.

65 दिनों में और इतना भी हुआ है कि हर कोई राहुल गांधी को उन की कदकाठी के हिसाब से जगह देने को मजबूर हो चला है. ऐसा इसलिए नहीं कि बकौल नरेंद्र मोदी वे शहजादे हैं या राजसी खानदान से ताल्लुक रखते हैं बल्कि इसलिए कि विपक्ष के नेता का संवैधानिक पद उन्होंने अपनी मेहनत और सूझबूझ से हासिल किया है.

राहुल गांधी के आक्रामक तेवर संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह देखने को मिल जाते हैं. जैसे ही अनुराग ठाकुर ने लोकसभा में राहुल गांधी पर जातिगत भद्दी, छिछोरी, सनातनी टिप्पणी की थी तो पूरा इंडिया ब्लौक उन के साथ खड़ा दिखा. अखिलेश यादव का यह कहना कि आप किसी की जाति कैसे पूछ सकते हैं, आम लोगों और कुछ उदारवादी भाजपा समर्थकों के भी दिल में उतर गया था. राहुल ने भी बजाय भड़कने के, भगवा मंशा पूरी करने के गांधी स्टाइल में ही अनुराग ठाकुर को सदन में ही माफ कर दिया.

इस सब्र और चतुराई का जवाब किसी अनुराग ठाकुर या भाजपाई के पास नहीं है जो जाति देख कर यह तय करते हैं कि सामने वाले के साथ कैसा व्यवहार करना है. अभी तक मंदिरों में जाति पूछी जाती थी, अब संसद में भी पूछा जाना देश और समाज के लिए खतरे और चिंता की बात है. एक हद उस हिंदुत्व के लिए भी जिस का दम भगवा गैंग भरता है कि हम जातपांत नहीं मानते. हकीकत में तो कट्टर सनातनी जातपांत के अलावा कुछ और देखतामानता ही नहीं क्योंकि उस के संविधान ‘मनुस्मृति’ में तो यही लिखा है.

इस तरह की हरकतों से खुद भाजपा राहुल गांधी को कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा मजबूत कर चुकी है. इस के बाद भी ‘लागी उस से छूट नहीं रही’ तो इस का भी खमियाजा भुगतने को उसे तैयार रहना चाहिए. भाजपा और उस की सरकार की बड़ी दिक्कत राहुल गांधी का आंख से आंख मिला कर बातें और बहस करना है. संसद में किसानों के अलावा उन अछूत लोगों से मिलने का रिवाज शुरू करना भी है जिन का कोई मानसम्मान हिंदू समाज में नहीं है.

संसद का मानसून सत्र खत्म होने के बाद सब से सुर्खियों वाली खबर यह थी कि राहुल और मोदी ने हाथ मिलाया. इस के पहले लोकसभा अध्यक्ष बनाए जाने के बाद ओम बिड़ला से हाथ मिलाने में नरेंद्र मोदी का मजबूरीभरा रोल हर किसी ने नोटिस किया था. नरेंद्र मोदी के बाद कौन, यह सवाल पूछा जाना अब लगभग खत्म सा हो चला है जो भाजपा के लिहाज से बड़ा खतरा है क्योंकि अंधभक्तों की तादाद में बड़ी गिरावट आई है और सब से दिलचस्प बात यह कि 4 जून के बाद शायद ही किसी ने नरेंद्र मोदी को हंसते देखा हो. इस के लिए उन्हें विदेश जाना पड़ता है जहां हंसता हुआ चेहरा एक तरह का प्रोटोकाल होता है.

लेकिन यह तभी तक है जब तक इंडिया गठबंधन एकजुट है. जिस दिन यह एकजुटता टूटेगी, उस दिन जरूर भाजपा जश्न मना सकती है जिस के आसार हालफिलहाल तो नजर नहीं आ रहे. लेकिन यह राजनीति है, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इस में कभी भी, कुछ भी हो सकता है. जरूरत उस संविधान से भरोसा उठनेभर की है जिस की प्रति सीने से लगाए इंडिया ब्लौक ने 234 का आंकड़ा छुआ है.

अनहाइजीनिक फूड का प्रचार करते व्लौगर्स

स्ट्रीट फूड्स की फूड वीडियोज देखते ही सब के मुंह में पानी आ जाता है और खासकर तब जब व्लौगर्स खाने की तारीफ करते नहीं थक रहे हों.

हाल ही में मैं ने एक फूड वीडियो देखा जिस में फूड व्लौगर किसी स्ट्रीट फूड की जम कर तारीफ कर रहा था लेकिन जब उस के पीछे जो नजारा दिखा तो उस फूड के जायके का असली सीक्रेट पता चल गया. गंदा नाला, कूड़े का ढेर, भिनभिनाती मक्खियां और व्लौगर कहता- ‘वाह क्या स्वाद है.’

वीडियो ने खोल दी पोल

आप ने भी ऐसे अनेक फूड रिलेटेड वीडियो देखे होंगे जिन में व्लौगर कहते हैं, ‘यह डिश दुनिया की सब से बेहतरीन डिश है और आप को उसे जरूर ट्राई करना चाहिए. लेकिन आप उन के कहने पर कोई भी फूड ऐसे ही ट्राइ न करें वरना आप की सेहत पर खतरा जरूर मंडरा सकता है.

फूडव्लौगिंग के दौर में बहुत से लोग अब फूड व्लौगर के रिव्यूज देख कर उन दुकानों तक पहुंचते हैं जहां उन्हें लजीज व्यंजनों का स्वाद चखने का मौका मिल सकता है. सोशल मीडिया पर इन दिनों ऐसा ही एक वीडियो खूब सुर्खियां बटोर रहा है, जिस में एक शख्स कैमरे के सामने स्ट्रीट फूड की जम कर तारीफ करता हुआ नजर आता है. लेकिन इस वीडियो में नेटिजन्स को कुछ ऐसा दिख गया जिस के बाद लोग अब उस फूड व्लौगर की जम कर क्लास ले रहे हैं.

सेहत के साथ न करें खिलवाड़

दरअसल होता यह है कि जब वह फूड व्लौगर कैमरे के सामने बैठ कर उस ठेले वाले के खाने की तारीफ कर रहा होता है, तभी उसी समय फूड व्लौगर के पीछे खड़ा ठेले वाला अपनी लुंगी के अंदर हाथ डाल कर अपना कूल्हा खुजलाते हुए कैमरे में कैद हो जाता है. यह पहला मामला नहीं है जब ऐसा कोई वीडियो सामने आया हो. इस से पहले भी गोलगप्पे बनाने, रेवड़ी बनाने और गुड़ बनाने जैसे कई वीडियो सामने आ चुके हैं जिन में देखा गया कि लोग हाथ या पैरों का इस्तेमाल कर इन्हें बना रहे हैं.

इन वीडियोज में कोई बड़े से कंटेनर में गंदा हाथ डाल कर फालूदा निकाल रहा होता है तो कोई रेवड़ी को नंगेपैर से चपटा करते हुए दिख रहा होता है. लेकिन फूड व्लौगर्स सोशल मीडिया पर उन खाने की तारीफ करते नहीं थकते.

जानलेवा हो सकता है यह भोजन

इन फूड के ठेलों और दुकानों पर रेहड़ी वाला अकसर अखबार में लपेट कर खाना दे देता है, लेकिन बहुत कम लोग इस बात से वाकिफ होंगे कि जिस अखबार पर उन्हें यह खाना परोसा जा रहा है उस पर रख कर खाना जानलेवा भी हो सकता है. यही वजह है कि अब भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने सभी फूड वैंडर्स और खाना खरीदने वालों को इस बारे में आगाह किया है.

वीडियोव्लौगर्स द्वारा नुकसानदेह फूड का प्रमोशन उन की बिक्री को बढ़ा रहा है. लेकिन इन सब के बीच सब से चिंताजनक बात यह है कि ऐसे भोजन का सेवन लोगों के बीच बढ़ता जा रहा है. आजकल डिजिटल प्लेटफौर्म और सोशल मीडिया पर व्लौगर्स बिना लोगों की सेहत का ध्यान रखे अस्वास्थ्यकर भोजन का प्रचार कर रहे हैं और इस प्रचार के नतीजों से बच्चों में अस्वास्थ्यकर भोजन की खपत बढ़ रही है.

स्ट्रीट फूड्स खाने से पहले संभल जाएं

अगर आप भी स्ट्रीट फूड्स खाने के शौकीन हैं और फूड व्लौगर्स के रिकमडेशन पर वहां का फूड खाने की सोच रहे हैं तो थोड़ा संभल जाएं और खाने से पहले इतना ध्यान जरूर दें कि वह कितने हाइजीनिक तरीके से बनाया जा रहा है और उसे बनाने में साफसफाई का कितना ध्यान रखा जा रहा है. आजकल फूड व्लौगर्स व्यूज और कमाई के चक्कर में सोशल मीडिया पर ऐसे फूड वीडियोज डाल रहे हैं जहां उन फूड वीडियोज के खाने की जम कर तारीफ की जाती है जबकि अगर ध्यान से देखा जाए तो वह भोजन बहुत ही अनहाईजीनिक तरीके से बनाया जा रहा होता है. इस से लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ हो रहा है.

डाक्टर्स का भी मानना है कि इस तरह के वीडियोज को देख कर बाहर का अनहाइजीनिक फूड खाना लोगों में स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ा रहा है. स्ट्रीट फूड्स में इस्तेमाल होने वाली चीजें और उन्हें अनहाईजीनिक तरीके से बनाना भी सेहत को काफी ज्यादा नुकसान पहुंचाता है.

वक्फ की जमीनों पर गड़ी हैं मोदी सरकार की नजरें

भारतीय जनता पार्टी के पास चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए सिर्फ एक दांव है – हिंदूमुसलिम के बीच नफरत बढ़ाओ. आम जनता के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, युवाओं को नौकरी देने, गरीब बच्चों के भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में काम करने, महिलाओं की सुरक्षा, अपराधों में कमी लाने और इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने जैसे हजारों मुद्दे हैं जिस के लिए जनता सरकार चुनती है, वह चाहती है कि सरकार इन मुद्दों पर काम करे ताकि आम लोगों का जीवन सुगम और सुखी हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के पास सिर्फ एक ही मुद्दा है – धर्म.

 

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धर्म के नाम पर भाजपा बड़ी आसानी से लोगों को उत्तेजित कर लेती है. धर्म के झांसे में जनता को फंसा कर उसे मूल मुद्दों से भटका देती है. जनता भोली है वह भाजपा की राजनीतिक चालबाजियों को नहीं समझ पाती और राजनीति उसे जैसे हांकती है वह उसी ओर मुड़ जाती है. कभी बीमारी से लड़ने के लिए तालीथाली बजाती है तो कभी धर्म के नाम पर उकसाने पर अपने उस पड़ोसी के सीने में छुरा भोंक आती है, जिस के साथ बरसों से उस का प्रेमपूर्ण मैत्री सम्बन्ध बना हुआ था.

भाजपा हिंदू के दिल में मुसलमान के लिए नफरत के बीज डालती है. कि देखो मुसलमान ढेरों बच्चे पैदा कर रहे हैं, मुसलमानों की आबादी बढ़ रही है. वे तुम्हारा हक, तुम्हारी जमीन, तुम्हारा अनाज खा जाएंगे. वे तुम्हारी औरतों का मंगलसूत्र छीन लेंगे. अगर तुम ने भाजपा के अलावा किसी और को वोट दिया तो वे सत्ता में आते ही तुम्हारे हिस्से का आरक्षण मुसलमानों को दे देगी. मुसलमान आततायी हैं, घुसपैठिये हैं, उस ने तुम्हारे भगवानों को बेघर कर के उन जगहों पर अपनी मस्जिदें बना लीं. जनता उत्तेजित हो जाती है. वह समझने लगती है कि उन की भूख से बड़ा मुद्दा भगवान का है.

चुनावी नैया पार लगाने के लिए भाजपा के पास पहले राम मंदिर का मुद्दा था. इस मुद्दे को उछाल कर कई चुनाव जीते गए. आखिरकार 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में रामलला के मंदिर की नींव पड़ गई और 22 जनवरी, 2024 को मंदिर का उदघाटन भी हो गया. मंदिर बनाने के लिए अयोध्या के जनजीवन को तहस नहस कर दिया गया. शहर भर में सौंदर्यीकरण के नाम पर हजारों लोगों के घरदुकानें उजाड़ दीं. भगवान का घर बसाने के लिए जीतेजागते इंसानों को बेघर कर दिया गया. उन के रोटीरोजगार जो बरसों से चल रहे थे, बंद हो गए. जनता ने सहा. लोकसभा चुनाव में अपना गुस्सा भी व्यक्त किया और भाजपा अयोध्या की सीट हार गई.

अब राम मंदिर का मुद्दा खत्म हो गया है. 4 जून को लोकसभा चुनाव का रिजल्ट आने के बाद अब रामलला के बारे में कोई बात भी नहीं रहा है. मगर आगे कई राज्यों के चुनाव होने हैं. खासतौर पर उत्तर प्रदेश का. राज्यों के चुनाव जीतने के लिए भाजपा को मुसलमानों के खिलाफ कुछ नए मुद्दे पैदा करने हैं. एनआरसी और सीएए जैसी परेशान करने वाली चालें जनता के विरोध के चलते कामयाब नहीं हो रही हैं. हालांकि उन को बीचबीच में हवा दी जाती है. उधर जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटा कर यह दावा किया जा रहा था कि अब वहां शांति स्थापित होगी, मगर वहां लगातार आतंकी हमले हो रहे हैं. आतंकी जम्मू तक घुस आए हैं. सेना के दो दर्जन से ज्यादा जवान इन हमलों में शहीद हो चुके हैं. इस पर मोदी सरकार की बोलती बंद है. नया बवाल बांग्लादेश में शेख हसीना के तख्तापलट के बाद सामने आ खड़ा हुआ है. बांग्लादेश से पलायन कर रहे लोग हजारों की संख्या में भारतीय बौर्डर पर जमे हैं कि किसी तरह भारत में प्रवेश कर जाएं. अभी तक बांग्लादेशियों और रोहिंगिया मुसलमानों को भारत से बाहर करने की कवायद में जुटी भाजपा सरकार अब इतनी बड़ी तादाद में भारत में घुसने को आतुर बांग्लादेशियों को कैसे रोकेगी, कहांकहां से रोकेगी, यह बड़ा सवाल है. ऐसे में चुनावी मुद्दे के रूप में कोई तो ऐसा मामला चाहिए जिस से उत्तेजना भड़के, ध्रुवीकरण हो. सो नया मुद्दा है – वक्फ की संपत्तियों का.

भाजपा की आंखें वक्फ की संपत्तियों पर आ गड़ी हैं. इस मामले को उछाल कर जहां वह एक तरफ हिंदू वोटरों को यह दिखाने की कोशिश करेगी कि देखो मुसलमानों के पास देश की कितनी जमीन है, वहीं वक्फ बोर्ड में घुसपैठ कर के वह उसे अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश में है. जिनजिन जगहों पर वक्फ की संपत्तियों को ले कर किसी तरह का विवाद होगा, उन को विवादित घोषित कर वह अपने हाथ में लेले तो कोई आश्चर्य नहीं.

मोदी सरकार वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995 में प्रस्तावित संशोधन ले कर आई है, जिसे वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024 के रूप में रखा है. सरकार का कहना है कि वक्फ (संशोधन) विधेयक का उद्देश्य वक्फ बोर्डों में जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ाना है, जिस में महिलाओं को अनिवार्य रूप से शामिल करना भी शामिल है. 8 अगस्त 2024 को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने वक्फ (संशोधन) विधेयक लोकसभा में पेश किया है.

इस में कहा गया है कि ‘इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में वक्फ संपत्ति के रूप में पहचानी गई या घोषित की गई कोई भी सरकारी संपत्ति वक्फ संपत्ति नहीं मानी जाएगी. जिला कलैक्टर यह तय करने वाला मध्यस्थ होगा कि कोई संपत्ति वक्फ संपत्ति है या सरकारी भूमि और ये निर्णय अंतिम होगा. एक बार निर्णय लेने के बाद कलैक्टर राजस्व रिकौर्ड में आवश्यक परिवर्तन कर सकता है और राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकता है. विधेयक में यह भी कहा गया है कि कलैक्टर की ओर से राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश करने तक ऐसी संपत्ति को वक्फ संपत्ति नहीं माना जाएगा.

यह बात सच है कि वक्फ संपत्तियों को ले कर देश में काफी झगड़े चल रहे हैं. कहीं वक्फ की संपत्तियों पर नाजायज कब्जे हो गए हैं तो कहीं वक्फ संपत्ति से होने वाली आय में भ्रष्ट लोगों द्वारा बंदरबांट हो रही है. वक्फ की काफी संपत्तियों पर दबंगों, नेताओं और अपराधी तत्वों ने कब्जा कर अपने मकान, मोल, दुकानें आदि बना लीं हैं. वहीं इन संपत्तियों की देखरेख का जिम्मा जिन वक्फ बोर्ड्स का है, उस में भी भ्रष्टाचार अपनी चरम पर है. नतीजा वक्फ की संपत्तियों से जो फायदा गरीब मुसलमानों को पहुंचना चाहिए वह उन्हें नहीं मिल रहा है.

वक्फ के मामलों को मुसलमानों को खुद सुलझाना चाहिए, बिलकुल वैसे ही जैसे सिख अपने धार्मिक मामलों को स्वयं सुलझाते हैं, या हिंदू अपने धार्मिक मामलों को खुद देखते हैं. देश भर के वक्फ बोर्ड्स को एकजुट हो कर यह देखना चाहिए कि उन के घर के मामले घर के अंदर ही कैसे सुलझें. वक्फ बोर्ड्स के पास अपनी जमीनों की हिफाजत के कानून भी हैं और अधिकार भी. मगर मोदी सरकार इस में जबरदस्ती घुसपैठ करना चाहती है. देश भर में कितने मंदिर हैं, उन मंदिरों के पास कितनी जमीनें हैं, कितना धन और सोना चांदी उन के अंदर भरा पड़ा है, रोजाना इन मंदिरों में जितना चढ़ावा चढ़ रहा है, वह कहां जाता है, इन तमाम बातों का खुलासा वह कभी नहीं होने देगी मगर वक्फ की जमीनों को नापने के लिए वह बहुत बेचैन है.

एक समाचार के अनुसार राम मंदिर के भूमि पूजन से अब तक रामलला के मंदिर में भक्तगण 55 अरब रुपये से अधिक धनराशि चढ़ा चुके हैं. यह पैसा कहां जाएगा? इस से गरीब हिंदू के भले के लिए क्या किया जाएगा? क्या कोई स्कूल, अनाथाश्रम, अस्पताल, वृद्धाश्रम इतनी बड़ी धनराशि से खोले जाएंगे? नहीं. ऐसा कुछ नहीं होगा. फिर इतनी बड़ी धनराशि कहां जाएगी? यह सवाल कोई नहीं उठाता. यह सिर्फ एक रामलला के मंदिर के चढ़ावे की बात है. देश भर के मंदिरों में रोजाना चढ़ावे का धन चढ़ रहा है. दक्षिण के मंदिरों में कितना धन और सोना चांदी हीरे जवाहरात भरे पड़े हैं, उस से देश के गरीब हिंदुओं के लिए क्या किया जा रहा रहा है, इस का कोई जवाब सरकार नहीं देगी. मगर मुसलमान के पास कितनी संपत्ति है, उस का क्या हो रहा है इस को जांचनेपरखने की उसे बड़ी जल्दी है. अगर भाजपा की नीयत साफ होती तो वक्फ बोर्ड में सुधार से जुड़े विधेयक में संशोधन किसी भी मुसलमान को मंजूर होता, मगर सवाल भाजपा सरकार की नीयत का है. इसलिए विरोध हो रहा है.

हालांकि मोदी सरकार जानती थी कि विरोध होगा और विपक्षी एकजुटता के आगे संशोधित विधेयक पास होना भी मुश्किल होगा, और वही हुआ भी. लोकसभा में विधेयक आते ही विपक्षी दलों ने एकसुर में इस का विरोध किया. लिहाजा वक्फ बोर्ड में सुधार से जुड़े विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेजने की घोषणा कर दी गई और अगले ही दिन लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने 31 सदस्यीय समिति गठित कर दी. इस में 21 सदस्य लोकसभा और 10 सदस्य राज्यसभा के हैं. इस में इमरान मसूद, मोहम्मद जावेद, मौलाना मोहिबुल्लाह और असदुद्दीन ओवैसी के भी नाम शामिल हैं. समिति को संसद के आने वाले शीतकालीन सत्र के पहले हफ्ते में विधेयक पर अपनी रिपोर्ट के लिए कहा गया है. माना जा रहा है कि संसद का अगला सत्र नवंबर के अंतिम हफ्ते से शुरू होगा. ऐसे में समिति को विधेयक से जुड़े पहलुओं को जांचने और उस से जुड़ी जानकारी जुटाने के लिए करीब साढ़े तीन महीने का समय मिल रहा है.

विधेयक को जेपीसी को भेजने के पीछे भी मोदी सरकार का बड़ा सियासी दांव छिपा है. वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 को लोकसभा में तो पेश कर दिया गया, लेकिन राज्यसभा में इसे अगले सत्र में पेश किया जाएगा. संसद का शीतकालीन सत्र नवंबरदिसंबर महीने में होगा. तब तक राज्यसभा का समीकरण सत्ताधारी मोदी सरकार के पक्ष में आ जाएगा. 3 सितंबर को राज्यसभा की 12 सीटों पर होने वाले चुनावों में सत्ताधारी एनडीए के सदस्यों के चुने जाने की उम्मीद है. अगले सत्र में अगर राज्यसभा के 4 नामित सदस्यों की खाली सीटों को भर दिया गया तो सदन में सरकार का हाथ और मजबूत हो जाएगा.

पिछले महीने ही चारों सीटें खाली हुई हैं. यह चार सदस्य आ गए तो सरकार को राज्यसभा में बहुमत पाने के लिए एआईएडीएमके जैसे बाहरी सहयोगियों से मदद मांगने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी. अभी एनडीए खेमे में राज्यसभा के कुल 117 सदस्य हैं जबकि बहुमत का आंकड़ा 119 का होता है. इसलिए विधेयक को जेपीसी के पास भेजा गया है, ताकि राज्यसभा में बिल पास करने लायक बहुमत जुटाने का वक़्त मिल जाए.

चलिए अब बात करते हैं वक्फ और वक्फ सम्पत्तियों की जिन पर मोदी सरकार की आंखें गड़ी हुई हैं. भारत सरकार की वक्फ बोर्ड की वेबसाइट के मुताबिक वक्फ शब्द की उत्पत्ति अरब जगत के वकुफा शब्द से हुई है, जिस का मतलब है पकड़ना, बांधना या हिरासत में लेना. इस्लामिक मान्यता के मुताबिक अगर कोई भी शख्स अपने धर्म की वजह से या फिर अल्लाह की खिदमत करने की नीयत से अपनी जमीन या अपनी संपत्ति का दान करता है, तो उसे ही वक्फ कहते हैं. यानी कि इस्लाम में धर्म के आधार पर दान की गई चल या अचल संपत्ति वक्फ है. और जिस ने दान किया है, उसे कहा जाता है वकिफा. लेकिन संपत्ति दान करने की एक शर्त ये होती है कि उस चल या अचल संपत्ति से होने वाली आमदनी को इस्लाम धर्म की सेवा में ही खर्च किया जा सकता है. और इस सेवा के अंतर्गत कई चीजें आती हैं, मसलन मस्जिदें बनवाना, कब्रिस्तान बनवाना, मदरसे बनवाना, अस्पताल बनवाना और अनाथालय बनवाना आदि. अगर कोई गैर इस्लामिक शख्स यानी जो किसी अन्य धर्म का हो, वह भी अपनी संपत्ति को वक्फ करना चाहे तो वो कर सकता है, बशर्ते वो इस्लाम को मान्यता देता हो और उस की वक्फ की गई संपत्ति का मकसद भी इस्लाम की सेवा करना हो.

इस्लाम में वक्फ की शुरुआत कैसे हुई

इस्लाम में वक्फ का कॉन्सेप्ट पैगंबर मुहम्मद साहब के वक्त से माना जाता है. भारत सरकार की वक्फ बोर्ड की वेबसाइट के मुताबिक एक बार खलीफा उमर ने खैबर में एक जमीन का टुकड़ा अपने कब्जे में लिया और पैगंबर मोहम्मद साहब से पूछा कि इस का सब से बेहतर इस्तेमाल किस तरह से किया जा सकता है? तो मुहम्मद साहब ने जवाब दिया कि इस जमीन को कुछ इस हिसाब से इस्तेमाल करो कि यह जमीन इंसानों के काम आए. इसे किसी भी तरह से न तो बेचा जा सके, न ही किसी को तोहफे में दिया जा सके, न ही इस पर किसी तरह से तुम्हारे बच्चों या उन की आने वाली पीढ़ियां काबिज हो सकें.

इस के अलावा एक और मान्यता है कि 570 ईसा पूर्व मदीना में खजूर का एक बड़ा बाग था, जिस में करीब 600 पेड़ थे. उन से होने वाली आमदनी का इस्तेमाल मदीना के गरीब लोगों की मदद के लिए किया जाता था. इसे वक्फ का शुरुआती उदाहरण माना जाता है. मिस्र की अल-अज़हर यूनिवर्सिटी और मोरक्को की अल-कुरायनीन यूनिवर्सिटी वक्फ संपत्ति पर बने सब से पुराने संस्थान माने जाते हैं.

भारत में वक्फ की शुरुआत दिल्ली सल्तनत से मानी जाती है. ऐसा माना जाता है कि दिल्ली सल्तनत में सन 1173 के आसपास सुल्तान मुईजुद्दीन सैम गौर ने मुल्तान की जामा मस्जिद के निर्माण के लिए दो गांव दिए थे. और यहीं से भारत में वक्फ परंपरा की शुरुआत हुई. अंग्रेजी हुकूमत के दौरान वक्फ को खारिज कर दिया गया था. लेकिन आजादी के बाद भारत में बाकायदा कानून बना कर वक्फ परंपरा को बरकरार रखा गया. सब से पहले संसद ने 1954 में कानून बनाया. फिर उस में संशोधन हुआ और 1995 में नरसिम्हा राव सरकार ने कानून में तब्दीली की. और आखिरी बार साल 2013 में मनमोहन सिंह की सरकार में इतनी बड़े बदलाव हुए कि वक्फ बोर्ड के पास अथाह ताकत आ गई और वहीं से परेशानी की शुरुआत हो गई.

वक्फ संपत्तियों की देखरेख का जिम्मा

पूरे देश में फैली वक्फ संपत्तियों की देखरेख की जिम्मेदारी वक्फ बोर्ड की होती है. ये वक्फ बोर्ड भारत की संसद के कानून के तहत बनाया गया है. 1954 में भारतीय संसद ने वक्फ एक्ट 1954 पास किया. इस के तहत वक्फ की गई संपत्तियों की देखरेख की जिम्मेदारी वक्फ बोर्ड के पास आ गई. वक्फ बोर्ड के पास अभी जो संपत्ति है वह इतनी है कि उस में दिल्ली जैसे 3 शहर बन जाएं. यह संपत्तियां भारतपाकिस्तान बंटवारे की वजह से हासिल हुई हैं.

1947 में जब भारतपाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो पाकिस्तान जाने वाले मुसलिम लोग अपनी चल संपत्ति तो ले गए, लेकिन अचल संपत्ति यानी कि उन के घर, मकान, खेतखलिहान, दुकान सब यहीं रह गए और तब 1954 में कानून बना कर इस तरह की सभी संपत्तियों को वक्फ बोर्ड के हवाले कर दिया गया. वक्फ बोर्ड बनाने के अगले ही साल यानी कि 1955 में संसद ने एक और कानून बनाया और इस के तहत देश के हर एक राज्य में वक्फ बोर्ड बनाने का अधिकार मिल गया. फिर 1964 में सेंट्रल वक्फ काउंसिल का गठन हुआ, जिस का मकसद राज्यों के वक्फ बोर्ड को सलाहमशविरा देना था. लेकिन भारत में भी इस्लाम को मानने वाले दो बड़े धड़े हैं. एक धड़ा शिया समुदाय का है और दूसरा धड़ा सुन्नी समुदाय का.

तो वक्फ बोर्ड में शिया और सुन्नी के नाम पर भी बंटवारा हुआ और इस्लाम को मानने वाली इन दोनों ही धाराओं के लोगों ने अपनाअपना वक्फ बोर्ड यानी कि शिया वक्फ बोर्ड और सुन्नी वक्फ बोर्ड बना लिया. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में शिया और सुन्नी के अलगअलग वक्फ बोर्ड हैं.

वक्फ बोर्ड में होता कौनकौन है?

भारत की संसद के बनाए कानून के मुताबिक सेंट्रल वक्फ काउंसिल में सब से ऊपर केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री होते हैं. और इस लिहाज से अभी देखें तो वक्फ बोर्ड में सब से ऊपर केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू हैं. दूसरे नंबर पर वक्फ के डायरेक्टर होते हैं, जो केंद्र सरकार के जॉइंट सेक्रेटरी लेवल के अधिकारी होते हैं. अभी एस.पी. सिंह तेवतिया वक्फ बोर्ड के डायरैक्टर हैं. इस के अलावा बोर्ड में 8 और सदस्य होते हैं. लेकिन अभी केंद्रीय वक्फ बोर्ड में इन सभी 8 लोगों की जगह खाली है. लिहाजा फैसला लेने के लिए किरण रिजिजू और एस.पी. सिंह तेवतिया फ्री हैं.

राज्यों के वक्फ बोर्ड में कौनकौन होता है?

अलगअलग राज्यों के वक्फ बोर्ड में सब से ऊपर चेयरमैन होता है. उस के अलावा सेक्रेटरी के स्तर का एक आईएएस अधिकारी होता है, जो एक तरह से सीईओ होता है. बाकी संपत्तियों का लेखाजोखा रखने के लिए सर्वे कमिश्नर होता है. बाकी दो सदस्यों को उस राज्य की सरकार मनोनित करती है, जिस में एक मुसलिम सांसद और एक मुसलिम विधायक होता है. बाकी उस बोर्ड का राज्य स्तर पर एक वकील होता है, एक टाउन प्लानर होता है और एक मुसलिम बुद्धिजीवी होता है.

वक्फ बोर्ड की ताकत

वक्फ बोर्ड के पास अथाह ताकत होती है. वक्फ की सारी संपत्ति की देखरेख की जिम्मेदारी बोर्ड की होती है. कितनी आमदनी हुई, उसे कहां खर्च करना है, यह सब वक्फ बोर्ड ही तय करता है. किस की संपत्ति वक्फ को लेनी है, संपत्ति किस को ट्रांसफर करनी है, संपत्ति का इस्तेमाल कैसे करना है, ये सब वक्फ बोर्ड ही तय करता है. अगर एक बार संपत्ति वक्फ बोर्ड के पास आ गई तो उसे वापस नहीं किया जा सकता है. वो संपत्ति हमेशाहमेशा के लिए वक्फ की हो जाती है. और इस को ले कर देश की किसी भी अदालत में कोई मुकदमा दायर नहीं हो सकता है. अगर वक्फ बोर्ड को ये लगता है कि कोई भी संपत्ति इस्लामिक कानूनों के मुताबिक वक्फ की है, तो वह वक्फ की हो जाती है. अगर उस जमीन पर किसी का दावा है, तो दावा किसी अदालत में नहीं बल्कि वक्फ बोर्ड के सामने ही कर सकता है. और अंतिम फैसले का अधिकार भी वक्फ बोर्ड का ही होता है.

अगर हिंदू या किसी गैरइस्लामिक शख्स की ज़मीन पर भी अगर वक्फ अपना दावा करे तो उस शख्स को वक्फ के पास जा कर यह साबित करना होता है कि जमीन उस की है, वक्फ की नहीं. हालांकि वक्फ बोर्ड खुद भी ऐसी ही ज़मीन पर दावा कर सकता है जो 1947 के भारतपाकिस्तान बंटवारे से पहले वक्फ के नाम पर दर्ज हो या फिर 1954 में भारत सरकार की ओर से वक्फ को दे दी गई हो. कुल मिला कर एक लाइन में कहें तो वक्फ बोर्ड एक ऐसा बोर्ड है, जिस में उसके खिलाफ भी अगर कोई बात हो तो उस पर फैसला उसे ही करना होता है, देश की कोई दूसरी अदालत उस मसले पर फैसला नहीं कर सकती है.

मोदी सरकार के नए कानून में क्या बदलाव प्रस्तावित हैं?

मोदी सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने जो बिल संसद में पेश किया है, उस में वक्फ बोर्ड की असीमित ताकतों को सीमित करने का प्रावधान है. उदाहरण के तौर पर –

– अब वक्फ बोर्ड में सिर्फ मुसलिम ही नहीं गैर मुसलिम भी शामिल हो सकते हैं.

– वक्फ बोर्ड का सीईओ भी गैर मुसलिम हो सकता है.

– अब वक्फ बोर्ड में दो महिला सदस्यों को भी शामिल किया जाएगा.

– वक्फ बोर्ड को किसी संपत्ति पर अपना दावा करने से पहले उस दावे का वेरिफिकेशन करना होगा.

– अभी तक मस्जिद या इस तरह की कोई धार्मिक इमारत बने होने पर वो जमीन वक्फ की हो जाती थी. लेकिन अब मस्जिद बने होने के बावजूद उस जमीन का वेरिफिकेशन करवाना ही होगा.

– भारत सरकार की सीएजी के पास अधिकार होगा कि वो वक्फ बोर्ड का औडिट कर सके.

– वक्फ बोर्ड को अपनी संपत्ति को उस जिले के जिला मजिस्ट्रेट के पास दर्ज करवाना होगा, ताकि संपत्ति के मालिकाना हक की जांच की जा सके.

– वक्फ की संपत्तियों पर दावेदारी के मसले को भारत की अदालत में चुनौती दी जा सकेगी और अंतिम फैसला वक्फ बोर्ड का नहीं, बल्कि अदालत का मान्य होगा.

इस तरह के तमाम ने नियम संशोधित बिल में हैं, जिस के तहत सरकार इस में घुसपैठ करना चाहती है.

विपक्ष का बिल पर एतराज

इस बिल के विरोध में लगभग पूरा विपक्ष एक साथ है. चाहे वो कांग्रेस हो, सपा हो, शरद पवार की एनसीपी हो, ममता बनर्जी की टीएमसी हो या फिर असदुद्दीन ओवैसी की आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन, सब ने इस बिल का विरोध किया है. और सभी विपक्षी दलों का मानना यही है कि इस बिल के जरिए सरकार वक्फ की संपत्ति पर अपना कब्जा चाहती है.

ओवैसी ने इसे धर्म में हस्तक्षेप बताया है और कहा है कि सरकार मुसलिमों की दुश्मन है. वहीं सपा मुखिया अखिलेश यादव ने वक्फ बोर्ड में गैर मुसलिमों को शामिल करने पर ऐतराज जताया है. डीएमके का कहना है कि बिल मसलिमों को निशाना बनाने के लिए लाया गया है. विपक्ष के और भी तमाम दलों के तर्क कुछ ऐसे ही हैं.

विपक्ष के विरोध को देखते हुए इस बिल को खुद केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने जेपीसी को भेजने का प्रस्ताव रखा है. यानी कि अब इस बिल की खूबियों और खामियों को देखने के लिए एक ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी बनेगी. और उस की सिफारिशों के आधार पर ही तय होगा कि अब इस बिल का भविष्य क्या है.

पहले भारतीय रेलवे, उस के बाद भारतीय सेना और उस के बाद तीसरे नंबर पर देश में अगर किसी एक संस्था के पास सब से ज्यादा जमीन है तो वो है वक्फ बोर्ड. पूरे देश में कुल करीब 9 लाख 40 हजार एकड़ जमीन वक्फ में दर्ज है. इन जमीनों पर यतीमखाने हैं, मदरसे हैं, मुसलिम कब्रिस्तान हैं, मकबरे हैं, मजारें हैं, मस्जिदें हैं, गरीब मुसलमानों के घर हैं, तालाब आदि हैं. अब इस जमीन पर मोदी सरकार की नजर गड़ी हुई है कि किसी तरह धीरेधीरे यह वक्फ के हाथ से निकल कर सरकार के पास आ जाए.

मुकेश अंबानी का घर एंटीलिया वक्फ की जमीन पर बना

मुकेश अंबानी ने एंटीलिया बनाने के लिए साल 2002 में 4,532.39 स्क्वेयर मीटर वाला प्लोट 21.5 करोड़ रुपए में खरीदा था. अंबानी का यह घर साउथ मुंबई के पैडर रोड पर बना है और इसे दुनिया के सब से महंगे मकानों में से एक माना जाता है. यह बहुमंजिला मकान वक्फ बोर्ड की जमीन पर है, पहले यहां बच्चों का यतीमखाना था, अंबानी ने यह कह कर जमीन ली थी कि वह इस पर बहुत बड़ा यतीमखाना बनाएंगे और बना लिया अपना महल.

बात 2002 की है, महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड की जमीन को बेचा गया था. इस के खिलाफ अब्दुल मतीन नामक एक टीचर और जर्नलिस्ट ने 2005 में एक पिटीशन भी फाइल की थी. इस बारे में महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड की तरफ से बयान भी आया था कि इस मामले में तत्कालीन सीईओ और चेयरमैन शामिल हैं. यह बताता था कि मुकेश अंबानी का घर वक्फ बोर्ड की जमीन पर बना है. मामला अभी भी बौम्बे हाईकोर्ट में है. हाई कोर्ट ने भी माना है कि अंबानी ने जमीन खरीदने में वक्फ बोर्ड की धारा 32(2) का उल्लंघन किया है. कोर्ट कभी भी एंटीलिया को गिराने का फैसला दे सकता है, तो ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि क्या मोदी सरकार के खास मुकेश अंबानी के एंटीलिया को बचाने के लिए सरकार आज वक्फ बोर्ड संशोधन बिल ला रही है?

पूर्व में महाराष्ट्र विधानसभा वक्फ बोर्ड द्वारा पेश की गई एक्शन टेकन रिपोर्ट (एटीआर) में भी कहा गया है कि वक्फ बोर्ड ने अंबानी को घर बनाने के लिए नहीं, बल्कि अनाथालय बनाने के लिए जमीन बेचीं थी और अंबानी ने गलत तरीके अपना कर एंटीलिया बना लिया. रिपोर्ट स्वीकार करने के बाद महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा था कि सरकार रिपोर्ट के आधार पर एक्शन लेगी. उन्होंने कहा कि किसी को भी छोड़ा नहीं जाएगा. तब रिलायंस के प्रवक्ता ने इस मामले में केवल इतना कहा था कि वह पहले रिपोर्ट देखेंगे और इस के बाद ही कोई कमेंट करेंगे. तब विधानसभा में पेश एटीआर में कहा गया था कि करीम भाई इब्राहिम ने 1986 में यह जमीन धार्मिक शिक्षा और अनाथालय बनाने के लिए वक्फ बोर्ड को दी थी, लेकिन बोर्ड ने इसे अंबानी को बेच दिया. यह डील शुरू से ही विवादों में आ गई, क्योंकि जिस जमीन को बेचा गया वह वक्फ बोर्ड की थी. विवाद बढ़ने पर रिटायर्ड जज एटीएके शेख को जांच की जिम्मेदारी दी गई और उन से कहा गया कि वह अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपें. मामला अदालत में है और एंटीलिया खतरे में है.

पुराणों में भी है ‘बैड न्यूज’

पिछले दिनों अभिनेता विक्की कौशल की एक फिल्म मैडिकल कंडीशन हेटरोपैटरनल सुपरफेकंडेशन पर आधारित बैड न्यूज आई थी. फिल्म में विक्की कौशल के अलावा तृप्ति डिमरी और एमी विर्क हैं. इस में नायिका प्रैगनैंट हैं. उसे नहीं पता कि पेट में पल रहे बच्चे का बाप कौन है.

नायिका को 2 युवकों पर शक है. वह जानना चाहती है कि बच्चे का बाप कौन है. इस के लिए वह पैटरनिटी टैस्ट करवाती है. टैस्ट के बाद पता चलता है कि बच्चे के बाप विक्की कौशल और एमी विर्क हैं. हालांकि यह फिल्म रोमांस और कौमेडी युक्त है पर फिल्म देखने के बाद दर्शकों के जेहन में सवाल उठने लगे कि क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है कि महिला के गर्भ में पलने वाले बच्चे के 2 पिता हों.

डाक्टरों के अनुसार ऐसा बिल्कुल संभव है लेकिन ऐसे मामले विरले ही होते हैं. दुनिया में अब तक करीब 19 मामले सामने आए हैं. मैडिकल तरक्की और वैज्ञानिक जांचों से अब मातृत्व और पितृत्व की सटीक परख संभव होने लगी है.

असल में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. सृष्टि में जब से स्त्रीपुरुष के संबंध बने हैं तभी से ऐसा होता आया है. हालांकि, ऐसे मामले रेयर ही होते हैं. पुराणों में ऐसे कई किस्से हैं.

आइए, पहले जानते हैं ऐसा होता कैसे है और साथ ही विश्व में हुईं ऐसी सच्ची घटनाओं के बारे में भी-

दरअसल हैटरोपैटरनल का अर्थ है अलगअलग पिता और सुपरफेकंडेशन का मतलब है एक ही मेंस्ट्रूअल साइकिल के अंदर दो अलगअलग इंटरकोर्स से शुक्राणुओं का एग के साथ फर्टिलाइजेशन होना. जब कोई महिला अलगअलग पार्टनर के साथ कुछ समय के अंतराल में शारीरिक संबंध बनाती है तो इस से 2 एग रिलीज हो कर 2 स्पर्म से फर्टिलाइज होते हैं. इस कारण महिला जुड़वां बच्चों का गर्भधारण करती है पर दोनों ही बच्चों के पिता अलगअलग होते हैं.

हेटरोपैटरनल सुपरफेकंडेशन में मां के गर्भ से पैदा होने वाले दोनों ही बच्चों के डीएनए भी अलग होते हैं.

अब कुछ सच्चे किस्सों पर गौर करते हैं, 2022 में ब्राजील की एक 19 साल की युवती ने जुड़वां बच्चे को जन्म दिया, जिन के वास्तव में 2 जैविक पिता निकले. डेली मेल की खबर के अनुसार, युवती को संदेह था कि उन के पिता कौन है, लिहाजा, उस ने पैटरनिटी टैस्ट करवाया.

तुर्की के इस्तांबुल में भी पितृत्व विवाद का मामला सामने आया. यहां एक विवाहित महिला ने जुड़वां बच्चे को जन्म दिया. महिला के पति ने शक के चलते डीएनए टैस्ट करवाया. जुड़वां बच्चों में एक का ब्लड ग्रुप अलग था. पति ने कहा कि वह उस का पिता नहीं है. जांच में बात सही निकली.

2020 में कोलंबिया में भी हेटरोपैटरनल सुपरफेकंडेशन का केस सामने आया था.

अमेरिका के डलास का किस्सा तो बडा़ चर्चित रहा था. यहां 2009 में जस्टिन और जोर्डन नामक जुड़वां बच्चों के अलगअलग जैविक पिता होने का मामला उजागर हुआ था. जुड़वां बच्चों की मां मिया वाशिंगटन और उस के प्रेमी जेम्स हैरिसन ने फौक्स न्यूज टीवी पर आ कर अपनी कहानी बयान की थी. युवती ने स्वीकार किया कि उस का एक अन्य व्यक्ति से भी संबंध था. उस ने कहा कि वह शौक्ड है कि उस के साथ ऐसा हुआ.

असल में इस दंपती ने नोटिस किया कि उन के जुड़वां बच्चे अलगअलग शक्ल के हैं. उन्होंने पितृत्व टैस्ट कराने का निर्णय किया. वे डलास लैब में गए, जहां इस बात का खुलासा हुआ कि जोर्डन तो हैरिसन का बेटा है पर जस्टिन मिया वाशिंगटन के दूसरे प्रेमी का है.
हैरिसन ने टैलीविजन पर कहा कि यह बात उजागर होने के बाद भी वह दूसरे बेटे जस्टिन को भी अपने पास ही रखेगा. उस का पालनपोषण करेगा. उस ने कहा कि उस ने अपनी प्रेमिका मिया वाशिंगटन को माफ कर दिया है और उसी के साथ ही रहने का वादा किया है. मिया ने भी अपनी गलती के लिए माफी मांग ली. दंपती ने यह भी कहा कि बडा़ होने पर अगर जस्टिन अपने असली पिता से मिलना चाहेगा तो उसे मिला दिया जाएगा.

2016 में चीन में भी एक मामला सामने आया. जुड़वां बच्चे की केस स्टडी के अनुसार इस विवादित पितृत्व मामले में जांच के बाद जुड़वां बच्चों के जैविक पिता अलगअलग निकले.

अब देखते हैं पौराणिक काल के किस्से

पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के जुड़वां बच्चे हुए नकुल और सहदेव. कथा के अनुसार, माद्री ने 2 अश्वनी कुमारों नासत्य और दस्त्र का आह्वान किया, जिस से उसे नकुल और सहदेव पुत्र के रूप में हुए.

महाभारत की कथानुसार, एक बार ऋषि दुर्वासा कुंती की सेवा से बहुत प्रसन्न हुए. वे कुंती को एक मंत्र देते हुए कहते हैं कि इस के करने से तुम जिस भी देवता का आह्वान करोगी, तुम्हें उसी देवपुत्र की प्राप्ति होगी. कुंती ने सर्वप्रथम धर्म के देवता का आह्वान किया. जिस से उसे युधिष्ठिर उत्पन्न हुए. इसी तरह पवनदेव के आह्वान से भीमसेन और देवराज इंद्र से अर्जुन की प्राप्ति हुई.

संतानप्राप्ति का यह मंत्र कुंती ने ही माद्री को दिया था. पांडवों की उत्पत्ति ऐसे ही हुई थी क्योंकि पांडु को शाप मिला हुआ था कि तुम पत्नी को छुओगे तो तत्काल तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी.

इसी तरह धृतराष्टृ का विवाह गांधारी से हुआ लेकिन 100 पुत्र और एक पुत्री का जन्म घड़े में हुआ.

महाभारत में द्रौपदी के 5 पति और इन पांचों के अलगअलग पुत्रों की कहानी भी है.

छांदोग्य उपनिषद के अध्याय 4 के खंडों में सत्यकाम जाबाल की पैदाइश का किस्सा हेटरोपैटरनल सुपरफेकंडेशन का ही है. जिस में सत्यकाम की मां के कई लोगों से संबंध होते हैं और उसे खुद पता नहीं कि उस के पुत्र सत्यकाम का पिता कौन है.

कथा के अनुसार सत्यकाम महर्षि गौतम के शिष्य थे. उन की माता जाबाल थीं. सत्यकाम जब शिक्षा लेने गुरु के पास गए तो नियमानुसार गौतम ने उन से पिता का नाम और गौत्र पूछा. गुरु ने कहा कि अपनी मां से पूछ कर आओ. सत्यकाम मां के पास गए और अपने पिता का नाम व गोत्र पूछा. मां ने कहा, ‘पुत्र, तुम बता देना कि मेरी मां का नाम जाबाल है. मेरी मां अनेक साधुसंतों की सेवा करती थीं. मेरी माता को भी ज्ञात नहीं कि मेरा पिता कौन और उन का गोत्र क्या है.’

बालक ने यही बात जा कर महर्षि गौतम से कह दी. महर्षि गौतम बालक की स्पष्ट, सच्ची बात से खुश हुए और उसे ब्राह्मणपुत्र मान कर शिक्षा देने लगे.

पुराणों में पति के रहते परपुरुष से उत्पन्न संतान को ले कर एक और किस्सा है. कथा के अनुसार, बृहस्पति की पत्नी तारा के गर्भ में उस के प्रेमी चंद्रमा का बच्चा पर रहा था. जब बृहस्पति को पता चला कि यह बच्चा उस का नहीं है बल्कि चंद्रमा का है तो वे गर्भ में पल रहे उस बच्चे को नपुंसक होने का श्राप दे देते हैं.

असल में 2 पुरुषों के एक स्त्री से संबंध के चलते पैदा हुई संतान का कारण प्राकृतिक है और ये संबंध शाश्वत रहे हैं. हमारे पौराणिक पात्र भी इस से अछूते नहीं रहे.

हां, फिल्म ‘बैड न्यूज’ में और अमेरिका के डलास की दंपती के किस्से समाज को गलती को सुधारने की प्रेरणा देते हैं, बजाय पौराणिक पात्र बृहस्पति द्वारा उस बेकुसूर शिशु को नपुंसक होने का श्राप देने के.

पेरैंट्स हद से ज्यादा जिंदगी न्योछावर नहीं करेंगे, बच्चे अपने रास्ते खुद बनाएं.

बच्‍चों को इस दुनिया में लाने से ले कर उन की परवरिश, कैरियर और जिंदगी में सैटल करने के सफर में पेरैंट्स चौबीसो घंटे एक टांग पर खड़े रह कर बच्चों के लिए सबकुछ करते हैं और इस दौरान पेरैंट्स को कई तरह की समस्‍याओं व परेशानियों का सामना करने के साथ अपनी कई इच्छाओं का त्याग भी करना पड़ता है. कई बार तो जिम्मेदारी के इस सफर में वे अपनी जिंदगी जीना ही भूल जाते हैं. बच्चे के पैदा होने से ले कर उस के स्कूल में पहला कदम रखने और बड़े हो कर जीवन की गाड़ी खुदबखुद चलाने तक की प्रक्रिया में मातापिता बच्चे का हाथ थामे रखते हैं. लेकिन जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वे अपनी जिंदगी, अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं जो कि बिलकुल सही है.

बच्चे अपनी जिम्मेदारियां खुद उठाना सीखें

बच्चों को यह बात अच्छी तरह अपने दिलोदिमाग में बिठा लेनी चाहिए कि पेरैंट्स की भी अपनी एक जिंदगी है. पेरैंट्स बनने का अर्थ यह नहीं कि वे अपनी पूरी जिंदगी आप पर न्योछावर कर दें. माना कि बच्चों को बड़ा करना, पढ़ानालिखाना, अपने पैरों पर खड़ा करना उन का कर्तव्य है लेकिन बच्चों को भी चाहिए कि वे हर बात के लिए पेरैंट्स पर निर्भर न रहें और अपने जीवन की राह के रास्ते खुद बनाएं.

बच्चों को यह समझना होगा कि अब वे दूधपीते बच्चे नहीं रहे जिन के पीछे मांबाप दूध की बोतल ले कर घूमते थे. उन्हें अपनी जिम्मेदारियां खुद उठानी सीखनी होंगी. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, दोनों को एक समय के बाद घर के कामों को सीखना होगा, मांबाप का हाथ बंटाना होगा. इस की शुरुआत अपना टिफिन बनाने, अपना कमरा साफ करने, घर की ग्रौसरी खरीदने, कपड़े धोने से करनी होगी. ऐसा करने से बच्चे जिम्मेदार बनेंगे जो उन के भविष्य में भी मदद करेगा और उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाएगा.

आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनें

एक उम्र के बाद बच्चे हर छोटीछोटी जरूरत के लिए पेरैंट्स के आगे हाथ न फैलाएं. अगर आप की जरूरतें बड़ी हैं तो उस के लिए पेरैंट्स पर निर्भर न रह कर खुद अपनी आमदनी का जरिया बनाएं. पार्टटाइम काम करें, ट्यूशन लें.

बदलनी होगी सोच

भारत के विपरीत विदेशों में बच्चे छोटी उम्र में ही आत्मनिर्भर बन जाते हैं. पांचछह साल की उम्र से वे मांबाप से अलगअलग बैडरूम में सोते हैं और पंद्रहसोलह की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते तो वे अलग घर में रहने लगते हैं और इसी उम्र से वे अपने निर्णय खुद लेने लगते हैं. परंतु भारतीय परिवारों में बच्चे चाहे जितना मरजी बड़े हो जाएं वे खुद को बच्चा ही समझते हैं. हर काम के लिए मांबाप का मुंह ताकते हैं जो कि गलत है. बच्चों को यह समझना होगा कि पेरैंट्स की भी अपनी जिंदगी है, उन्हें भी अपनी जिंदगी में खुशियां पाने का अधिकार, अपने शौक पूरे करने का अधिकार है.

जरूरत से अधिक पेरैंट्स पर निर्भर न रहें

जहां जरूरत हो, वहां पेरैंट्स की मदद लेने में कोई बुराई नहीं है लेकिन, ‘क्योंकि पेरैंट्स तो हैं ही वे हमारी मदद कर ही देंगे, हर मुसीबत में हमारी ढाल बन कर खड़े हो जाएंगे,’ इस सोच को पाल कर अपने शरीर और दिमाग को काम करने का मौका न देना और हर काम व जरूरत के लिए पेरैंट्स पर निर्भर रहना आप के लिए भविष्य में मुश्किलें बढ़ाएगा. इसलिए, अपनी सोचसमझ से अपनी प्रौब्लम का सोल्यूशन निकालने की कोशिश करें.

पेरैंट्स इमोशनल फूल नहीं, समझदार हैं

आज पेरैंट्स फिजिकली सक्षम हैं तो वे बच्चों की मदद कर पा रहे हैं लेकिन एक समय ऐसा आएगा जब उन्हें आर्थिक, शारीरिक, इमोशनल मदद की जरूरत होगी, उस का इंतजाम भी उन्हें समय रहते कर के रखना है इसलिए वे बेवकूफ बन कर अपने जीवन की सारी पूंजी सिर्फ बच्चों पर लगाने की गलती नहीं करेंगे. पेरैंट्स ने आप को अच्छी परवरिश, शिक्षा और अच्छे संस्कार दिए हैं पर वे अपने जीवन की सारी पूंजी आप पर न्योछावर नहीं करेंगे. आखिर, उन्हें भी अपनी आगे की जिंदगी अच्छी तरह जीनी है.

ताकि बच्चों को आगे चल कर न होना पड़े दुखी

बच्चे पेरैंट्स को अपनी हर इच्छापूर्ति का माध्यम न मानें और न ही यह भ्रम पालें कि पेरैंट्स पूरी जिंदगी आप को पालेंगे. एक समय के बाद अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए आप को हाथपैर चलाने पड़ेंगे, आप को एफर्ट्स करने होंगे. पेरैंट्स अपनी खुशियों को भी समय देंगे, अपने भविष्य की भी प्लानिंग करेंगे. बच्चे शादी के बाद अकेले रहें, अपना घर खुद बनाएं, अपनी गृहस्थी खुद जमाएं. हर समय सबकुछ पकापकाया, जमाजमाया मिलेगा, इस उम्मीद में न रहें. पेरैंट्स ने आप के लिए जितनी मेहनत करनी थी, कर दी, अब आप अपनी जिंदगी की गाड़ी खुद चलाना सीखें.

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