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अमेरिका के टैक्सास यूनिवर्सिटी में राहुल गांधी के महिलाओं पर दिए बयान के मायने

20 सितंबर, 1953 को देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र के जरिये लिखा था, पिछले आम चुनाव में मैं ने महिला उम्मीदवारों पर बहुत जोर दिया था. मेरे प्रयासों के बाबजूद बहुत कम महिलाओं को उम्मेदवार बनाया गया था या वे चुनी गईं. यह पत्र काफी लंबा था जिस का सार यह था कि अगर हम आधी आबादी को पूरा मौका नहीं दे पाते तो यह उन की अनदेखी और हमारी मूर्खता है.

राजनीति का यह वह दौर था जब महिलाओं की उस में भागीदारी आटे में नमक के बराबर थी लेकिन नेहरू इसे बढ़ाना चाहते थे. इसी दौर में टुकड़ोंटुकड़ों में पेश किए जाने वाले हिंदू कोड बिल को ले कर हिंदूवादी हद से ज्यादा तिलमिलाए हुए थे और उसे रोकने सड़क से संसद तक हायहाय कर रहे थे.

सरिता के सितंबर 2024 के प्रथम अंक में पाठक इस तथ्यपरक और हाहाकारी रिपोर्ट ‘1947 के बाद कानूनों से रेंगती सामाजिक बदलाव की हवाएं’ को विस्तार से पढ़ सकते हैं जो अब बिक्री के लिए स्टोल पर उपलब्ध है. डिजिटल संस्करण के पाठक इसे सरिता की वैबसाइट पर पढ़ सकते हैं.

आंद्रे मालराक्स एक मशहूर फ्रांसीसी उपन्यासकार हैं, जो लगभग 10 साल फ़्रांस के सांस्कृतिक मामलों के मंत्री भी रहे हैं, ने एक बार जवाहरलाल नेहरू से सवाल किया था कि स्वतंत्रता के बाद आप की सब से बड़ी कठिनाई क्या रही है. इस सवाल का जवाब नेहरू ने एक गेप लेते हुए दो बार में दिया था. पहला था, न्यायपूर्ण साधनों से न्यायपूर्ण राज्य का निर्माण करना और दूसरा था शायद एक धार्मिक देश में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण करना भी.

यही सवाल जब किसी और लेखक या पत्रकार ने साल 1958 में उन से पूछा था तब उन का जवाब हिंदू कोड बिल की तरफ इशारा करते हुए कुछ यों था, ‘महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए किए गए उपाय.’ जवाहरलाल नेहरु महिलाओं की दशा ( हकीकत में दुर्दशा ) सुधारने कितने गंभीर और प्रयासरत थे इस का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने 50 के दशक में ही कट्टर हिंदूवादियों से भिड़ते एलान कर दिया था कि अब हिंदू कोड बिल तभी पारित होगा जब जनता कांग्रेस को चुन लेगी.

यानी जनता चाहे तो इस मुद्दे पर उन्हें नकार भी सकती है. ये दोनों विकल्प नेहरू ने ही जनता के सामने रखे थे जिस में से जनता ने पहले को चुनना अपनी प्राथमिकता में रखा. कांग्रेस भारी बहुमत से जीती जिस में महिलाओं का भी खासा समर्थन उसे और नेहरू को मिला था. 1951 – 52 के आजाद भारत के पहले आम चुनाव का बड़ा मुद्दा हिंदू कोड बिल यानी कानूनों के जरिए समाज सुधार ही था. इस चुनाव में दक्षिणपंथियों ने फूलपुर लोकसभा सीट से नेहरु के खिलाफ आरएसएस प्रमुख एमएस गोलवलकर के बेहद करीबी प्रभु दत्त ब्रह्मचारी को खड़ा किया था जो हिंदू कोड बिल विरोध समिति के प्रमुख नेता थे. वे नेहरू के मुकाबले बड़े अंतर से हारे थे. तब नेहरु को 2,33,571 वोट और प्रभु दत्त को महज 56,178 वोट मिले थे. यह जीत एक तरह से हिंदू कोड बिल संसद में पास कराने की जनता की सहमति भी और अनुमति भी थी.

इस और ऐसी कई बातों को गुजरे जमाना हो गया है. इस दौरान बिलाशक महिलाएं न केवल राजनीति में बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी आगे बढ़ी हैं लेकिन यह सब उन के अस्तित्व की तरह आधाअधूरा ही है यानी संतोषजनक नहीं है. महिलाएं शिक्षित तो हुईं लेकिन जागरूक भी हो गई हैं ऐसा कहने की कोई वजह नहीं लेकिन ऐसा न कहने की अहम वजह यह है कि वे धार्मिक गुलामी से आजाद नहीं हो पाई हैं. अगर साल में लगभग सौ तरह के व्रत उपवास वह भी घर के पुरुषों की सलामती के लिए करना, धार्मिक समारोहों में कलश यात्रा में सर पर बोझा रख मीलों दूर नंगे पैर चलना, बाबाओं के प्रवचन जो आमतौर पर स्त्री विरोधी ही होते हैं को घंटों सुनना, मंदिरों में मूर्ति के दर्शन के लिए धक्के खाना और सुरक्षाकर्मियों की झिड़कियां सुनना वगैरह ही वे जागरूकता मान बैठी हैं तो यह उन की भारी भूल है. भूल क्या है एक तरह की मजबूरी है जिस से बाहर निकलने का कोई रास्ता न मिलते देख वे हताश हैं. लेकिन इस का यह मतलब भी नहीं कि इस घुटन से वे निजात नहीं पाना चाहतीं.

अमेरिका के डलास में टैक्सास यूनिवर्सिटी में राहुल गांधी ने इस स्थिति का जिम्मेदार भाजपा और आरएसएस को ठहराते कहा कि उन का मानना है कि महिलाओं को पारंपारिक भूमिका तक ही सीमित रखा जाना चाहिए. घर पर रहना खाना बनाना और कम बोलना. हमारा मानना है कि महिलाओं को वह सब करने की आजादी होनी चाहिए जो वे करना चाहती हैं.

राहुल ने महिला सशक्तिकरण से ताल्लुक रखती और जो बातें कहीं उन्हें सियासी कहा जा सकता है लेकिन महिलाओं को एक दायरे में कैद रखने की साजिश को उजागर कर उन्होंने भारतीय घरों में झांकने की जो कोशिश की है वह उन के परदादा के विचारों और राजनीति दोनों से मेल खाती हुई है. दिलचस्प समानता यह है कि तब भी हिंदू कट्टरवाद शबाब पर था और कमोबेश आज भी है लेकिन 4 जून के बाद इस की सीमाएं सिमटी हैं लेकिन उस में दलितों मुसलमानों पिछड़ों और आदिवासियों का रोल ज्यादा अहम था बनस्पत सवर्ण महिलाओं के.

इस बयान का कितना असर होगा इस का आंकलन एकदम से नहीं किया जा सकता. लेकिन इतना तय है कि भगवा गैंग के पास इन आरोपों का कोई ठोस जवाब नहीं है. टेक्सस में कही गई संविधान और चुनाव आयोग सहित दूसरी बातों के लिए भाजपाई नेता प्रवक्ता उन्हें राष्ट्रद्रोही कहते रहे, इस के कोई माने नहीं हैं क्योंकि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विदेशों में जा कर विपक्ष को पानी पीपी कर कोस सकते हैं तो सरकार को कोसने का हक राहुल गांधी या किसी दूसरे विपक्षी नेता से छीना नहीं जा सकता.

लेकिन महिलाओं की कैद वाला मुद्दा आज भी उतना ही प्रासंगिक और संवेदनशील है जितना कि नेहरू युग में था. 2014 से ले कर 4 जून, 2024 मोदी युग रहा है जिस में धर्म और मंदिर की राजनीति दूसरे मुद्दों पर हावी रही. इस का फर्क सवर्ण महिलाओं पर भी पड़ा वे भी अपने पुरुषों की तरह कट्टरता का शिकार हुईं. क्योंकि उन्हें मुसलमानों की आड़ ले कर इतना डरा दिया गया था कि उन्हें भगवान ही आखिरी सहारा लगा सो उन्होंने और जम कर पूजापाठ किया. इसी तबके की महिलाओं को अपने पाले में लाने की राहुल की इस नई चाल की कामयाबी इस बात पर निर्भर रहेगी कि कांग्रेसी इसे महिलाओं को कैसे समझा पाते हैं.

यहां तक तो भाजपा और संघ दोनों बेफिक्र हैं कि महिलाएं व्रत उपवास करती रहेंगी, मंदिरों में जाती रहेंगी, सत्संग और माता की चौकी जैसे आयोजनों में अपना वक्त और एनर्जी बरबाद करती रहेंगी क्योंकि इस के लिए देश में 10 साल में सैकड़ों छोटेबड़े बाबा उन्होंने तैयार कर छोड़ दिए हैं. लेकिन उन्हें डर इस बात का है कि कल को महिलाएं यह न सोचने और पूछने लगें कि यह सब हम क्यों करें.

ऐसा होना नामुमकिन नहीं है पर संघ और भाजपा के मंदिरों में बैठे एजेंट कब तक महिलाओं को बरगलाए और डराए रखने में कामयाब रहते हैं यह कम दिलचस्पी की बात नहीं. महिला तर्क न करे इस बाबत उसे आस्थावान बनाए रखे जाने के प्रपंच ये लोग रचते हैं. हैरत की बात तो यह है कि इस में पुरुषों की भी सहमति है जिन की धार्मिक कार्यों में भागीदारी महिलाओं के मुकाबले एकचौथाई भी नहीं होती जबकि धर्म के सहारे हासिल की गई सत्ता के सारे सूत्र और ताकत उन के हाथ में ही रहते हैं. यानी महिला इस लिहाज से भी मोहरा ही है.

कांग्रेसियों के सामने यह एक बड़ी चुनौती है और आगे भी रहेगी कि बगैर महिलाओं की आस्था को चोट पहुंचाए उन्हें यह वास्तविकता कैसे बताई जाए कि कैसेकैसे धर्म के नाम पर उन्हें घरों में कैद रखे जाने के षड्यंत्र कुछ इस तरह रचे जाते हैं कि वे इन्हें ही अपनी नियति और जिंदगी मानने लगती हैं.

नेहरू तमाम कोशिशों के बाद भी महिलाओं को एक सीमा तक ही शिक्षित कर पाए जो उस वक्त की मांग और जरूरत दोनों थे कि महिलाएं अपने अधिकार जाने, स्वावलंबी बने, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने जो होता भी दिख रहा है. अब राहुल उन महिलाओं को जागरूक कैसे कर पाते हैं यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा.

शिवा की बीवी का आशिक

नई उम्र के 2 थानेदार थे, जिन में से एक का नाम था अकबर शाह और दूसरे का नाम तलजा राम. दोनों बहुत बहादुर, दिलेर और निडर थे. दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी, इतनी घनिष्ठता कि एकदूसरे के बिना जीना भी अच्छा नहीं लगता था. उन की तैनाती कहीं भी हो, लेकिन मिलने के लिए समय निकाल ही लेते थे. दोनों कभीकभी अवैध काम भी कर जाते थे, लेकिन करते इतनी चालाकी से थे कि किसी को उस की भनक तक नहीं लगती थी. दोनों बहुत बुद्धिमान थे, इसीलिए बहुत अकड़ कर चलते थे.

सन 1930 की जब की यह कहानी है तब सिंध में पुलिस के थानेदार को सूबेदार कहते थे. उस समय सूबेदार इलाके का राजा हुआ करता था. अकबर शाह और तलजा राम की भी दूसरे सूबेदारों की तरह बहुत इज्जत थी. अकबर शाह ऊंचे परिवार का था, इसलिए हर मिलने वाला पहले उस के पैर छूता था और बाद में बात करता था. तलजा राम भी उच्च जाति का ब्राह्मण था.

एक बार दोनों एक हत्या के मामले में फंस गए. हत्या जिला मीरपुर खास के पथोरो रेलवे स्टेशन पर हुई थी. वहीं से कुछ देर पहले अकबर शाह और तलजा राम गाड़ी में सवार हुए थे. रेलवे पुलिस के एसपी ने स्वयं विवेचना की और कह दिया कि हत्या दोनों के उकसावे पर की गई. देश की सभी रेलवे लाइन एकदूसरे से जुड़ी हुई थीं. फरंटियर मेल (अब स्वर्ण मंदिर मेल) मुंबई और लाहौर तक आतीजाती थीं, इसी तरह बीकानेर और जोधपुर से रेलवे की गाडि़यां हैदराबाद सिंध तक आतीजाती थीं.

एक शाम ऐसी ही एक गाड़ी में अकबर शाह और तलजा राम सवार होने के लिए पथोरो रेलवे स्टेशन पर बड़ी शानबान से आए. जोधपुर से आने वाली गाड़ी जब पथोरो स्टेशन पर आ कर रुकी तो दोनों झट से फर्स्ट क्लास के डिब्बे में बैठ गए.

उन दिनों गाडि़यों में इतनी भीड़ नहीं हुआ करती थी. उस डिब्बे से जिस में ये दोनों सवार हुए थे, रेलवे का एक अधिकारी उतरा जो पथोरो स्टेशन का निरीक्षण करने आया था. जब उस ने प्लेटफार्म पर भीड़ एकत्र देखी तो स्टेशन मास्टर से पूछा. उस ने बताया कि इस इलाके का सूबेदार सफर करने जा रहा है, ये भीड़ उसे छोड़ने आई है.

रेलवे का अधिकारी कुछ अनाड़ी किस्म का था, वह रेलवे का कुछ ज्यादा ही हितैषी था. उसे लगा कि पुलिस का एक सूबेदार फर्स्ट क्लास में कैसे यात्रा कर सकता है. उस ने टीटी को बुला कर कहा कि उन के टिकट चैक करे. जब टीटी ने टिकट मांगे तो अकबर शाह जो इलाके का सूबेदार था, उसे अपना अपमान लगा. उस ने गुस्से में दोनों टिकट निकाल कर टीटी के मुंह पर दे मारे. टिकट सेकेंड क्लास के थे. टीटी ने रेलवे अधिकारी की ओर देखा तो उस ने कहा, ‘‘इन से कहो कि उतर कर सेकेंड क्लास में चले जाएं.’’

अकबर शाह को बहुत गुस्सा आया. लेकिन मजबूरी यह थी कि यह थाना नहीं रेलवे स्टेशन था, इसलिए उस ने तलजा राम को इशारा किया. दोनों उतर कर सेकेंड क्लास के डिब्बे में बैठ गए. गाड़ी हैदराबाद के लिए रवाना हो गई. अगली सुबह पुलिस को सूचना मिली कि पथोरो स्टेशन के प्लेटफार्म पर जोधपुर से आए रेलवे अधिकारी को किसी ने सोते में कुल्हाडि़यों के घातक वार कर के मार डाला है.

रेलवे के एसपी मंझे हुए अधिकारी थे, चूंकि हत्या रेलवे स्टेशन की सीमा में हुई थी इसलिए विवेचना भी रेलवे पुलिस को करनी थी. मृतक बीकानेर रेलवे का कर्मचारी था. उन लोगों ने शोर मचा दिया, जिस से सिंध की बदनामी होने लगी. जोधपुर रेलवे पुलिस ने हत्यारों का पता बताने वाले को 500 रुपए का इनाम देने की घोषणा कर दी. बीकानेर वाले क्यों पीछे रहते उन्होंने भी 1000 रुपए के इनाम का ऐलान कर दिया.

मामला बहुत नाजुक था, इसलिए उस की तफ्तीश स्वयं एसपी ने संभाल ली. वह घटनास्थल पर पहुंचे. उन्होंने घटनास्थल का निरीक्षण किया, गवाहों के बयान लिए. जब उन्हें पता लगा कि मृतक की 2 सूबेदारों से तूतूमैंमैं हुई थी तो उन्हें पक्का यकीन हो गया कि हत्या उन दोनों ने ही कराई होगी. वे दोनों सूबेदार थे, यह कैसे सहन कर सकते थे कि उन्हें फर्स्ट क्लास के डिब्बे से उतर कर सेकेंड क्लास में बैठना पड़ा.

वह भी उन चाटुकारों के सामने जो उन्हें स्टेशन पर छोड़ने आए थे. उन दोनों के बारे में यह भी मशहूर था कि वे अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से संबंध रखते थे. उन के लिए हत्या कराना बाएं हाथ का खेल था.

मृतक परदेसी आदमी था, जो एक दिन के लिए यहां आया था. वहां न तो उसे कोई पहचानता था और न उस की किसी से दुश्मनी थी. उस की हत्या उन दोनों सूबेदारों ने ही कराई थी. माना यह गया कि उन्होंने पथोरो से अगले स्टेशन पर पहुंच कर किसी बदमाश को इशारा कर दिया और वह बदमाश एक माल गाड़ी से जो पथोरो जा रही थी, उस में बैठ कर पथोरो स्टेशन पहुंचा. वह अफसर प्लेटफार्म पर सो रहा था, उस बदमाश ने कुल्हाड़ी के वार कर के उस की हत्या कर दी और भाग गया.

एसपी साहब ने अपनी रिपोर्ट डीआईजी को भेज दी और दोनों सूबेदारों की गिरफ्तारी की इजाजत मांगी. उन दिनों सिंध का उच्च अधिकारी डीआईजी हुआ करता था. रिपोर्ट डीआईजी के पास पहुंची तो उन्होंने एसपी साहब को बुला कर उन से इस मामले में बात की. फिर दोनों सूबेदारों को बुला कर पूछा कि उन पर हत्या का आरोप है तो दोनों भौचक्के रह गए.

हत्या और हम, दोनों ने कानों पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आप यह सोच भी कैसे सकते हैं. हम कानून के रक्षक हैं और कानून तोड़ने की सोच भी नहीं सकते. हमारा काम लोगों की जान बचाना है, जान लेना नहीं. मृतक ने हमारा अपमान जरूर किया था और हमें गुस्सा भी आया था लेकिन इतनी छोटीसी बात पर हत्या नहीं हुआ करती.’’

डीआईजी साहब ने उन की बात ध्यान से सुनी, एसपी से सलाह भी ली, उन्हें रिपोर्ट पर पुनर्विचार करने के लिए कहा, लेकिन बेकार. एसपी साहब टस से मस नहीं हुए.

एसपी ने कहा, ‘‘आप को हत्यारा चाहिए, आप अकबर शाह और तलजा राम को गिरफ्तार करने की आज्ञा दे दीजिए, हत्यारा स्वयं चल कर आ जाएगा.’’ लेकिन डीआईजी साहब तैयार नहीं हुए.

मैं उन दिनों सिंध क्राइम ब्रांच में एसपी था. मेरे पास ऐसे बहुत से केस आते रहते थे. एक दिन मेरी मेज पर रेलवे एसपी साहब की तफ्तीश की फाइल भी आ पहुंची. डीआईजी ने मुझे उस की तफ्तीश के लिए कहा था. साथ ही अकबर शाह और तलजा राम को मीरपुर खास से दूसरे शहर में तैनात कर दिया, जिस से तफ्तीश में कोई बाधा न पडे़े.

रेलवे के एसपी साहब मेरे सीनियर भी थे और अच्छे दोस्त भी. तफ्तीश में हिचकिचाहट तो हो रही थी लेकिन हुक्म तो हुक्म था, इसलिए मैं ने काम शुरू कर दिया.

सब से पहले मैं एसपी साहब से मिला और उन से तफ्तीश के बारे में बात की. उन्होंने कहा, ‘‘आप तो जानते ही हैं कि वे दोनों कैसे आदमी हैं. उन दोनों की प्रसिद्धि आप ने भी सुन रखी होगी. अपने अपमान का बदला कैसे लेते हैं, यह भी आप जानते होंगे. उन के लिए हत्या करवाना कोई मुश्किल काम नहीं है. मृतक कोई आम आदमी नहीं, रेलवे का उच्च अधिकारी था. उस की हत्या करने की हिम्मत उन के अलावा किसी में नहीं हो सकती.’’

‘‘यह बात तो ठीक है, लेकिन किसी की इतनी जल्दी हत्या करवाना भी तो संभव नहीं है. पथोरो से गाड़ी रात के 8 बजे चली, शादीपुर स्टेशन वहां से 14 मील दूर है. गाड़ी वहां करीब 9 बजे पहुंची होगी, 4 मिनट वहां ठहरी भी होगी. अकबर और तलजा राम वहां नहीं उतरे, बल्कि हैदराबाद गए थे. उन्होंने 2-4 मिनट में हत्यारा कैसे तलाश कर लिया, जो वहां से गाड़ी में सवार हो कर पथोरो जा पहुंचा.’’

‘‘यह सब तो ठीक है लेकिन सवाल यह है कि फिर हत्या किस ने की? वह तो पथोरो पहली बार आया था. वह सीधासादा इंसान था. उस का न किसी से लेना था न देना. न झगड़ा न फसाद, उस का अचानक दुश्मन कैसे पैदा हो गया? जाइए इन सूबेदारों के अलावा कोई और हत्यारा ढूंढि़ए.’’

मैं पथोरो जाने के लिए तैयार हुआ, मेरे साथ मेरा अर्दली था. हैदराबाद से पथोरो 105 मील था. मुझे वहां पहुंचने में 5 घंटे लगे. पथोरो स्टेशन दूसरे कस्बों के स्टेशनों जैसा छोटा सा था और वीरान पड़ा था.

वहां पहुंच कर स्टेशन के वेटिंग रूम में अपना सामान रख कर मैं स्टेशन मास्टर से मिला. घटनास्थल का निरीक्षण किया, रेलवे एसपी साहब की रिपोर्ट को दोबारा पढ़ा. अपना काम शुरू करने से पहले मैं ने एसपी साहब की रिपोर्ट में लिखी खास बातों को देखा और उन पर आगे की काररवाई करने का निश्चय किया.

उस दिन जिस ट्रेन में मृतक और सूबेदार यात्रा कर रहे थे, वह जोधपुर से हैदराबाद जा रही थी. मृतक पहले से ही उस में सवार था. पथोरो पहुंच कर जब वह गाड़ी से उतरा, तभी अकबर शाह और तलजा राम गाड़ी में सवार होने लगे. उन्हें फर्स्ट क्लास में सवार होते देख कर मृतक को संदेह हुआ, उस ने टीटी से कह कर उन के टिकट चैक करवाए. उन के टिकट फर्स्ट क्लास के नहीं थे इस पर उस ने उन्हें फर्स्ट क्लास से निकलवा दिया. फिर गाड़ी आगे के लिए रवाना हुई.

उस समय रात के 8 बजे थे. दोनों सूबेदार जब अगले स्टेशन शादीपुर पहुंचे तब रात के 9 बजे थे. उस समय वहां एक माल गाड़ी पथोरो जाने के लिए तैयार हो रही थी. दोनों सूबेदारों के चोरों के साथ संबंध थे. उन्होंने उस रेलवे अफसर को ठिकाने लगाने के लिए वहां एक बदमाश को ढूंढ निकाला. वह हत्या करने के लिए तुरंत तैयार हो गया और उसी माल गाड़ी में बैठ कर पथोरो पहुंच गया.

दोनों सूबेदार हैदराबाद चले गए. उस हत्यारे ने प्लेटफार्म पर सोेते हुए रेलवे अफसर की कुल्हाड़ी से हत्या कर दी. कहानी अच्छी थी, लेकिन किसी भी तरह मुझे सच नहीं लग रही थी. वे दोनों सूबेदार बदमाश होंगे, हत्या भी करवा सकते थे लेकिन इतनी जल्दी यह काम नहीं हो सकता था. मुझे इस पूरी कहानी पर यकीन नहीं आया.

मैं ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट निकाल कर पढ़ी. उस में लिखा था कि हत्या एक तेज धारदार हथियार से सिर की बाईं ओर वार कर के की गई थी. इस के अलावा पूरे शरीर पर कोई घाव नहीं था. इस से यह पता लगा कि जब मृतक की हत्या हुई तब वह बाईं ओर करवट ले कर सो रहा था.

मैं ने स्टेशन मास्टर को बुलाया और उस के साथ उस जगह गया, जहां मृतक सोया हुआ था. वहीं खड़ेखड़े मैं ने उस से कुछ प्रश्न किए. उस ने बताया कि गाड़ी जाने के बाद मृतक मेरे कमरे में आया था. वह कुछ देर बैठा, अगले दिन के निरीक्षण के बारे में कुछ निर्देश दिए और वेटिंग रूम चला गया.

स्टेशन मास्टर ने उस से खाने को पूछा तो उस ने कहा कि वह खाना साथ लाया है. मैं ने एएसएम से कहा तो उस ने प्लेट फार्म के अंतिम सिरे पर उस के लिए एक पलंग लगवा दिया ताकि आनेवाली गाडि़यों से उस के आराम में खलल न पडे़. मृतक ने अपना बिस्तर खुद बिछाया और मुंह ढक कर सो गया.

उस के बाद सब लोग वहां से चले आए. बाकी स्टाफ तो अपने क्वार्टरों पर चला गया, लेकिन एएसएम अपने दफ्तर की एक बेंच पर सो गया. स्टेशन मास्टर तो बूढ़ा और वहां नया था, लेकिन एएसएम पुराना था और वहां के सब लोगों को जानता था. मैं ने उसे बुलवा कर उस से पूछा, ‘‘उस रात तुम कहां सोए थे?’’

‘‘जी, मैं स्टेशन मास्टर के दफ्तर के बाहर एक बेंच पर लेटा था.’’

‘‘वैसे तुम हर रात कहां सोते हो?’’

‘‘जी, मैं यहीं प्लेटफार्म के आखिरी सिरे पर सोया करता था.’’ उस ने कहा, ‘‘यहां हवा भी अच्छी आती है और शोर भी कम होता है. उस रात साहब यहां आए तो मैं ने उन के आराम की खातिर उन्हें यहीं सुला दिया था.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी और बच्चे कहां हैं?’’

उस ने दांत निकाल कर कहा, ‘‘जी, अभी मेरी शादी नहीं हुई है.’’

‘‘उस रात एक माल गाड़ी भी तो आई थी, कितने बजे पहुंची थी यहां?’’

‘‘जी हां,’’ उस ने कहा, ‘‘आई थी, वह यहां 2 बज कर 7 मिनट पर पहुंची थी. यहां लोडिंग का कोई काम नहीं था, इसलिए मैं ने लाइन क्लियर कर सिग्नल दे दिया था.’’

‘‘माल गाड़ी यहां कितने मिनट ठहरी?’’

‘‘यही कोई 3 मिनट.’’

‘‘कोई उतरा भी था?’’

‘‘जी नहीं, माल गाड़ी के जाने के बाद भी मैं बहुत देर तक घूमता रहा, यहां कोई आदमी नहीं था.’’ उस ने आगे बताया कि सुबह जब सूरज निकलने के बाद भी वह अफसर अपने बिस्तर से नहीं उठा तो मैं उस के पास गया, उस का मुंह चादर से ढंका था. मैं ने चादर हटा कर देखी तो उस का सिर फटा हुआ था और खून बह कर जम चुका था.

अब मैं ने सोचना शुरू किया, कहीं उस का दुश्मन जोधपुर से ही तो सवार नहीं हुआ था. ताकि सुनसान इलाके में अपना काम कर सके. मैं ने स्टेशन के पूरे स्टाफ से पूछा कि उस गाड़ी से किसी को उतरते तो नहीं देखा. उन्होंने बताया कि अपने अफसर को देख कर सब लोग उस के पास इकट्ठे हो गए थे. वैसे 2 आदमी और भी उतरे थे, उन के साथ उन की बीवी और बच्चे भी थे, वे यहीं के रहने वाले थे.

मैं ने स्टेशन मास्टर से उस के काम के बारे में भी सवाल किए. मैं सोच रहा था कि यह भी हो सकता था कि वह अफसर स्टेशन मास्टर के विरुद्ध किसी शिकायत की छानबीन करने आया हो और स्टेशन मास्टर ने उस की हत्या करा दी हो. स्टेशन मास्टर ने बताया कि वह तो स्टेशन पर साधारण सी चैकिंग के लिए आया था. उसे खुद भी अपने किसी अफसर से शिकायत नहीं थी. वैसे मृतक बहुत सज्जन पुरुष था.

मुझे पथोरो पहुंचे 3 दिन बीत चुके थे. इस बीच मैं बहुत से लोगों से मिला, आनेजाने वाली गाडि़यों को देखता रहा. हत्या के बारे में सोचता रहा.

चौथे दिन मैं ने टे्रन पकड़ी और जोधपुर पहुंच गया. मुझे लगा कि हत्यारा जोधपुर में है और मृतक का दुश्मन है. मृतक का हेडक्वार्टर भी वहीं था. वहां मैं ने उस के दफ्तर से उस की पर्सनल केस फाइल निकलवाई और उसे पढ़ने लगा. उस के काम की हर अफसर ने तारीफ की. उस के विरुद्ध एक भी शिकायत नहीं मिली. मैं ने स्टेशन मास्टर और एएसएम की फाइलें भी देखीं. उन में भी कोई काम भी बात नहीं मिली. उस के बाद मैं ने मृतक के घर का पता लिया और उस की विधवा से मिलने चला गया.

वह काली साड़ी पहने बैठी थी, आंखें रोरो कर सूज गई थीं. मैं ने उस से पूछा कि क्या उसे अपने पति की हत्या के बारे में किसी पर शक है. किसी ऐसे आदमी पर जिसे वह उस का दुश्मन समझती हो. वह फूटफूट कर रोने लगी और रोतेरोते कहने लगी कि हर आदमी यही पूछता है कि उन की किसी से दुश्मनी तो नहीं थी.

इस पर वह बोली, ‘‘अगर आप उन से मिले होते तो आप भी यही कहते कि वह बहुत ही सज्जन थे, किसी लड़ाईझगड़े के बारे में वह सोच भी नहीं सकते थे.’’

मैं ने उस से कहा कि मैं आप को दुखी करने नहीं आया, बल्कि मैं आप की मदद करने आया हूं. अगर आप इस संबंध में मुझे कुछ बता देंगी तो मैं हत्यारे को पकड़ कर उसे सजा दिलवा सकूंगा. देखिए कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन का ज्ञान पत्नी के अलावा किसी को नहीं होता. मुझे एक दो मोटीमोटी बातें बता दीजिए. उस ने कहा, ‘‘पूछिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह बताइए आप के पति रात को किस समय सो जाया करते थे?’’

वह बोली, ‘‘हम शाम ढलते ही भोजन कर लेते थे और वह रात 9 बजे तक सो जाया करते थे.’’

‘‘वह किस करवट सोया करते थे?’’

‘‘वह पहले तो बाईं करवट लेटते थे और आधी रात के बाद दाईर्ं करवट ले कर सुबह तक सोते थे.’’

‘‘क्या वह हर रात इसी तरह करवट लिया  करते थे?’’

‘‘हर रात,’’ उस ने जवाब दिया, ‘‘यह उन की आदत थी.’’

इतना पूछ कर मैं पहली ट्रेन पकड़ कर पथोरो वापस आ गया. मैं वहां के वेटिंग रूम में बैठा सोचता रहा. 5 दिन हो गए थे और मैं अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा था. मुझे यह भी सूचना मिल चुकी थी कि कराची  और हैदराबाद में मेरे बारे में खुसरफुसर हो रही थी, कि मैं अपने भाई अकबर शाह को बचाने के लिए तफ्तीश का रुख मोड़ने की कोशिश में लगा हुआ हूं.

लेकिन मैं ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और अपनी तफ्तीश में लगा रहा. मैं ने एक बार फिर पोस्टमार्टम रिपोर्ट निकाली और उसे पढ़ने लगा. मैं ने घावों वाले हिस्से को ध्यान से पढ़ा. तेज धारदार हथियार से 3 गहरे घाव… कनपटी के आसपास, हर एक की लंबाई 3 इंच. अर्थात कुल्हाड़ी के गहरे घाव थे, क्योंकि हत्यारे ने सिर के पास खड़े हो कर इत्मीनान से वार किए थे.

पहला ही वार जबरदस्त लगा होगा, क्योंकि मृतक अपनी जगह से हिला तक नहीं. सुबह तक इसी तरह चादर ओढ़े पड़ा रहा और फिर मैं रिपोर्ट के उस वाक्य पर ठिठक गया, तीनों घाव सिर के दाएं हिस्से पर… यानी मृतक बाईं करवट सो रहा था. उसी तरह जिस तरह वह रात के पहले हिस्से में सोता था. दाईं ओर करवट तो वह आधी रात के बाद लेता था. इस से यह साबित हुआ कि हत्या रात के पहले हिस्से में हुई थी. वहां मुझे बताया गया था कि हत्यारा शादीपुर से मालगाड़ी द्वारा रात के 2 बजे पथोरो पहुंचा था.

मैं पोस्टमार्टम रिपोर्ट पढ़ता रहा, आगे चल कर जब मेदे का विवरण आया तो मैं ने एक वाक्य पढ़ कर झटके से पढ़ना बंद कर दिया. उस में लिखा था कि मेदे में बिना हजम हुआ खाना मौजूद था. आगे पढ़ने की जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि अफसर की हत्या का माल गाड़ी के आने से कोई संबंध नहीं था.

हत्या तो रात के 12 बजे से भी बहुत पहले की गई थी. रात के पहले हिस्से में हत्या वही लोग करते हैं, जिन्हें अपने ठिकाने पर पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करनी होती है. अकबर शाह और तलजा राम के भेजे हुए हत्यारे को लंबी दूरी तय करनी थी. लेकिन जब इन सूबेदारों ने रात के 9 बजे किसी को हत्या करने के लिए भेजा तो वह हत्यारा 10 बजे तक पहुंचा कैसे?

मैं सुबह सवेरे वेटिंग रूम से निकला तो सामने एएसएम खड़ा मुस्कुरा रहा था. मैं ने उसे साथ लिया और स्टाफ के क्वार्टरों की ओर चल दिया.

‘‘कौन कौन रहता है यहां?’’ मेरे पूछने पर उस ने बताया, ‘‘यह पहला पानी वाले का है, दूसरा कांटे वाले का.’’

‘‘और यह तीसरा?’’

‘‘यह खाली पड़ा रहता है, इस से अगले में टिकट बाबू रहता है और उस से अगला मेरा है.’’

‘‘लेकिन तुम तो अविवाहित हो, क्वार्टर क्यों लिया हुआ है?’’

उस ने कहा, ‘‘जी यहां तो सब अविवाहित ही रहते हैं,  इस उजाड़ में बीवीबच्चों वाले भी अपनी फैमिली नहीं लाते.’’

‘‘तुम्हारा क्वार्टर तो बहुत अच्छा होगा, चलो देखें.’’

अंदर से क्वार्टर देखा, बहुत अच्छी तरह सजा हुआ था. रसोई तो और भी ज्यादा अच्छी तरह सजी हुई थी. मर्द कितना ही सफाई वाला हो, लेकिन इस तरह रसोई और घर नहीं सजा सकता. एएसएम तो वैसे भी अविवाहित था, मेरी छठी इंद्री जाग गई.

‘‘तुम्हारा खाना कौन पकाता है?’’

‘‘जी, वह पानी वाला पका देता है.’’

मैं ने उस का जवाब एक पुलिस वाले की नजर से उस के चेहरे की ओर देखते हुए सुना. मैं ने देखा उस के चेहरे का रंग बदल रहा था. मैं ने उस से पूछा, ‘‘इस उजाड़ में तुम्हारा दिल कैसे लगता है?’’

वह बोला, ‘‘बस जी, कोई किताब पढ़ लेता हूं या फिर घूमने निकल जाता हूं.’’

बातें करतेकरते हम घर से बाहर निकले तो क्वार्टर के सामने कुछ झोपडि़यां दिखाई दीं. मैं ने उस से पूछा, ‘‘ये किस की झोपडि़यां हैं?’’

‘‘जी, वे भीलों के झोपडे़ हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘चलो, चल कर देखते हैं.’’

वहां गए तो झोपडि़यों के पास कुछ बकरियां बंधी थीं. हमें देख कर कुत्ते भौंकने लगे. उन की आवाज सुन कर झोपडि़यों से औरतें निकल आईं और हमारी ओर देखने लगीं.

मैं ने झोपडि़यों का चक्कर लगा कर देखा तो वहां औरतें ही नजर आईं, मर्द कोई नहीं था. मैं ने उन औरतों से उन के मर्दों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे थरपारकर (रेगिस्तान की एक जगह) में खेतों पर काम करने जाते हैं.’’

‘‘तुम्हारे मर्द खेतों पर रहते हैं और तुम?’’ सवाल सुन कर एक औरत बोली, ‘‘वे वहां और हम यहां.’’

‘‘तुम क्या काम करती हो?’’

‘‘बकरियों का दूध निकाल कर रेलवे वालों को बेचते हैं.’’ एक औरत ने एएसएम को देख कर कहा, ‘‘ये बाबू तो यहां भी दूध लेने आ जाते हैं.’’

मैं ने उसी औरत से कहा, ‘‘तुम्हारा आदमी कहां है?’’

उस ने कहा, ‘‘बताया था ना थरपारकर में काम करता है.’’

‘‘वह यहां कब आता है?’’

‘‘1-2 महीने बाद आता है.’’

‘‘उसे आए हुए कितने दिन हो गए?’’

‘‘एक महीने से तो उस ने सूरत भी नहीं दिखाई.’’ वह मुसकरा कर बोली.

‘‘तुम्हारे आदमी का क्या नाम है?’’

वह कुछ लजा गई, दूसरी औरत ने बताया, ‘‘शिवाराम नाम है.’’

मैं ने एएसएम का बाजू पकड़ा और उसे स्टेशन पर ले आया. एएसएम का उजाड़ इलाके में क्वार्टर, भीलों की जवान लड़की, वह दूध लेने उन के घर जाता था. निस्संदेह वह कोई फरिश्ता नहीं था. उस समय सुबह 7 बजे थे. मैं ने वहां के थाने से पुलिस इंसपेक्टर को बुलवाया और उस से ऊंटों का इंतजाम करने के लिए कहा. उस ने तुरंत ऊंट बुलवा लिए.

मैं पुलिस इंसपेक्टर और 2 सिपाहियों को ले कर थर पार कर के खेतीबाड़ी वाले इलाके में 20 मील लंबा सफर कर के पहुंच गया. शाम का समय था, कुछ लोग अब भी खेतों पर काम कर रहे थे. ऊंट रुकवा कर मैं उन लोगों की ओर गया. पुलिस की वरदी में देख कर वे सब खड़े हो गए.

मैं ने जाते ही सख्ती से पूछा, ‘‘तुम में शिवा कौन है?’’

वे सब डर गए थे, फिर धीरेधीरे एक आदमी हमारी ओर आया. मैं ने पूछा, ‘‘तुम हो शिवा?’’

‘‘हां, मेरा ही नाम शिवा है.’’ उस की आवाज में जरा भी घबराहट नहीं थी.

‘‘तुम ने हत्या की है. मैं तुम्हें गिरफ्तार करने आया हूं. वह कुल्हाड़ी कहां है, जिस से तुम ने हत्या की है?’’

वह जवाब देने के बजाए एक ओर मुंह घुमा कर देख रहा था, वहां एक झोंपड़ी थी. मेरा हमला उस पर इतना सख्त और जल्दबाजी वाला था कि वह संभल नहीं सका. सूबेदार को अपने एरिए का राजा समझने वाला भील अपने बचाव के बारे में सोच भी नहीं सका.

शिवा मेरे साथ झोपड़ी में गया और वहां से एक कुल्हाड़ी और खून में सने अपने कपड़े जमीन से खोद कर मेरे हवाले कर दिए. वह बिलकुल शांत था, उस के चेहरे से घमंड साफ दिखाई दे रहा था. वह यही समझ रहा था कि उस ने एक व्यभिचारी एएसएम को अपनी पत्नी को बिगाड़ने का बदला ले लिया है.

लेकिन जिस रात वह एएसएम की हत्या करने के लिए कुल्हाड़ी ले कर उस जगह गया था, जहां एएसएम सोया करता था, वहां वह अफसर सोया हुआ था, जो निरीक्षण के लिए आया हुआ था.

हत्यारे ने अंधेरे में अपने शिकार को पहचाना नहीं, उसे यह पता था कि यहां हर रात वही बाबू सोता था, जिस के क्वार्टर में उस की जवान पत्नी दूध देने जाती थी.

उस के  ऊपर हत्या का भूत सवार था. हत्या करने के बाद उसे 20 मील दूर भी जाना था. उसे जब आजीवन कारावास की सजा हुई तो उसे इस का दुख नहीं था, दुख तो उस की पत्नी के प्रेमी के बच जाने का था.

प्रस्तुति : एस.एम. खान

स्वामी बोतलानंद महाराज : उन में था ‘बोतल’ जैसा खिंचाव

यह नहीं मालूम कि उन का असली नाम ‘स्वामी’ था या ‘बोतलानंद’ या फिर दोनों ही थे. सच तो यह है कि उन में ‘बोतल’ जैसा खिंचाव था. जैसे शराबी किसी शराब की बोतल की ओर खिंचा चला आता है ठीक उसी तरह उन के भक्त भी अपना दिमाग अलमारी में बंद कर उन के पैरों में लमलेट हो जाया करते थे.

गजब का चमत्कार था उन में. हर समस्या का चुटकी बजाते इलाज, वह भी बहुत सस्ता, आसान और टिकाऊ. भक्त चाहें तो ‘तनमनधन’ से फीस अदा कर सकते थे. कोई दबाव, डर, धमकी कुछ भी तो नहीं था. सारा खेल श्रद्धा पर टिका था.

हमें तो लगता है कि अगर कश्मीर, आतंकवाद या पाकिस्तान को सबक सिखाने जैसे मसले हों या घोर गरीबी, बेरोजगारी जैसे मुद्दे, स्वामी बोतलानंद महाराज के पास इन का भी कोई शर्तिया इलाज जरूर होगा.

सरकार को एक बार उन से जरूर इन मसलों पर सलाह लेनी चाहिए, यह हमारा सुझाव है. सस्ते में और मजेमजे में इतनी बड़ी समस्याओं का इलाज हो जाए तो इस में बुराई क्या है? यही तो हम सब चाहते भी हैं.

खैर, अब मूल मुद्दे पर आते हैं कि स्वामीजी के नामकरण का आखिर राज क्या था? हर आम आदमी को यह नाम अटपटा लगेगा लेकिन यह पक्का है कि इस के मूल में कुछ न कुछ शुभ संकेत जरूर छिपा होगा.

जैसे कोई भी चमत्कारी बाबाओं की लीलाओं की थाह कभी नहीं पा सकता, ठीक वैसे ही स्वामी बोतलानंद महाराज को समझना आसान नहीं था. नाम हो या उन के कारनामे, सबकुछ किसी गहरे राज में लिपटी मुश्किल पहेली सा था.

ऐसा लगता है कि स्वामी बोतलानंद महाराज नाम का सही मतलब सिर्फ और सिर्फ सच्चे भक्त ही समझ सकते हैं जो सिर्फ सुनते हैं, कभी सवाल नहीं करते.

हर चीज को तर्क की कसौटी पर कसना भी ठीक नहीं है. क्या तर्क से कभी किसी का भला हुआ है? उलटे लोग धर्मकर्म से कटते चले जाते हैं, श्रद्धा का नाश हो जाता है.

स्वामी बोतलानंद महाराज का आश्रम कहो या कुटिया शहर से दूर सुनसान जगह पर बनी थी लेकिन सरकारी कृपा से वहां देशीविदेशी शराब के ठेके जरूर खुले हुए थे, इसलिए वह सुनसान जगह आबाद रहती थी.

इसे स्वामी बोतलानंद महाराज का कल्याणकारी काम माना जाए जो उन्होंने ऐसी सुनसान जगह को आबाद किया. पीने के शौकीन भक्तों के लिए तो यह सोने पर सुहागा जैसा है. पूरा पैकेज एक छत के नीचे.

महाराज बोतलानंद स्वामी के दर पर कोई भेदभाव नहीं, कोई रोकटोक भी नहीं. कायदेकानून का वहां न कोई वजूद और न ही जरूरत.

अब आप को दिव्य स्वामी बोतलानंद महाराज के दर्शन भी करा देते हैं. उन की कुटिया में लेदे कर एक बिछौना नजर आता था. उसी पर महाराज कभी बैठे, कभी लेटे तो कभी आधी नींद की हालत में मिलते थे.

पूरी कुटिया बोतलों से अटी नजर आती थी. खालीभरी बोतलों के बीच महाराज झूमते हुए प्रवचन करते रहते थे. कुछ नासमझों को उन की यह अदा रोनापीटना लग सकती है लेकिन बंदर अदरक का स्वाद नहीं जानता इसलिए बंदरों की सोच पर हमें कुछ कहना भी नहीं है. धर्म और श्रद्धा की बात हो तो सवाल खड़े करना घोर पाप है. यहां जो है, जैसा है, बस मान लो.

स्वामी बोतलानंद महाराज की कुटिया गरीबों और अमीरों से भरी रहती थी. भक्तों की ऐसी जबरदस्त भीड़ हर किसी के हिस्से में नहीं आती.

स्वामी बोतलानंद महाराज की एक खूबी यह भी थी कि वे कभी किसी भक्त को ‘न’ नहीं कहते थे. शायद ही उन के मुंह से कभी ऐसे शब्द निकले हों, ‘तुम्हारा काम नहीं होगा… यह सोच अच्छी नहीं है…’

जैसी जो भी इच्छा भक्त जाहिर करते महाराज तुरंत उन्हें आशीर्वाद दे देते.

अब सब से निराली खूबी देखिए. स्वामी बोतलानंद महाराज न संन्यासी का चोला धारण करते थे और न ही लंबे केश, जटाजूट. मतलब एक संन्यासी की इमेज से वे कोसों दूर थे. एक आम शराबी की तरह जो हर वक्त मदहोश रहता है. जिसे न तन का होश और न मन का. सबकुछ कुदरती रूप में देशी स्टाइल में चलता था.

यह बड़ी अच्छी बात है. फालतू के दिखावे, बाहरी आडंबर का क्या करना? जैसे हैं, उसी रूप को सच में दिखा दें, यह भी कम ईमानदारी नहीं है, वरना धर्म के कारोबार में मार्केटिंग इतनी हावी हो गई है कि हकीकत का पता पुलिस केस होने पर ही पता चलता है, इसलिए हम उन के इस रूप को दिल से नमस्कार करते हैं. उन्हें जमीन पर लेट कर प्रणाम करते हैं.

सभी भक्तजन एक बार जोर से जयकारा लगाएं, ‘‘बाबा बोतलानंद महाराज की जय.’’

बीमार व्यक्ति से मिलने जाएं तो कैसा बर्ताव करें

गांव में रहने वाले अंशिका के ससुर को एक दिन अचानक हार्ट अटैक आया तो अंशिका के पति उन्हें अपने साथ दिल्ली ले आए. 10 दिन तक अस्पताल में रहने के बाद वे वापस घर आ गए. एक तरफ जहां उस के ससुर को स्वास्थ्य लाभ हो रहा था वहीं दूसरी तरफ अंशिका की मुसीबतें दिन पर दिन बढ़तीं जा रही थीं. ससुर के घर आने के बाद उन्हें देखने आने वालों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था. दो बच्चों की पढ़ाई सास और बीमार ससुर की जिम्मेदारी. उसे ही समझ नहीं आ रहा था कि कैसे मैनेज करे.

अंशुल के पिता को प्रोस्टेट की समस्या थी. एक दिन जब बहुत अधिक समस्या बढ़ गई तो डाक्टर ने औपरेशन करने की सलाह दी. अंशुल को अभी मुंबई पहुंचे भी 1 साल ही हुआ था सो बहुत अधिक जानकारी भी नहीं थी. पर जैसे ही पिता को हौस्पिटल में एडमिड कराया तो उस की 2 बहनें और भाई भी मुंबई पहुंच गए. अब अंशुल पिता से कम अपने भाईबहनों से ज्यादा परेशान था क्योंकि पिताजी तो आईसीयू में थे, उन्हें खानापीना सब हौस्पिटल से ही मिलता था परंतु भाईबहन मुंबई में नए थे और वहां की कोई जानकारी न होने के कारण वे प्रत्येक काम के लिए अंशुल पर ही निर्भर थे जिस से अंशुल बहुत परेशान हो जाता.

हारी बीमारी तो हर किसी को कभी भी आ सकती है. यह सही है कि ऐसी स्थिति में इंसान को किसी अपने की दरकार होती है परंतु पहले के मुकाबले आज हौस्पिटल्स में इलाज के मायने बहुत बदल गए हैं. आजकल मरीज को हौस्पिटल्स में एडमिड कराने के बाद उस के परिजन का काम सिर्फ हौस्पिटल्स को पैसा देना होता है, यही नहीं अपने मरीज से मिलने तक का समय निर्धारित होता है. पहले जहां मिलने, देखने और बातचीत करने का कोई साधन नहीं होता था वहीं आज तकनीक का जादुई पिटारा मोबाइल का जमाना है जिस में पूरी दुनिया समाई रहती है. ऐसे में जब मरीज को देखने वाले अनावश्यक रूप से हौस्पिटल्स में भीड़ बढ़ाते हैं तो मरीज के परिजनों के लिए उन की खातिरदारी करना सब से बड़ी समस्या होती है. यही नहीं कई बार तो मेहमानों की खातिरदारी के कारण मरीज की समुचित देखभाल तक भी नहीं हो पाती. जब भी कोई परिचित बीमार होता है तो निम्न बातों का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है-

लें तकनीक का सहारा

आगरा में रहने वाली सीमा के भाई का जब दिल्ली में पथरी का औपरेशन हुआ तो वह हर दिन एक निश्चित समय पर वीडियो कौल कर के अपने भाई का हालचाल ले लेती थी. वह कहती है कि “इस से मुझे अपने भाई का हर दिन का हाल तो मिल ही जाता था परंतु भाभी पर मेरी खातिरदारी करने का कोई भार भी नहीं पड़ा. आज जब वीडियो कौल की जा सकती है तो क्यों दूसरे को परेशान करना, अब जब मेरा भाई घर आ जाएगा तो मैं उस से मिलने जाउंगी.”

दें मोरल सपोर्ट

अजय के दोस्त के भाई को अचानक से चक्कर आए और वह गिर गया. जैसे ही अजय को पता चला वह तुरंत हौस्पिटल पहुंचा, जिस से अजय के दोस्त को बहुत मोरल सपोर्ट मिल सका, आईसीयू में 10 दिन रहने के दौरान अजय हर दिन फ़ोन से अपने दोस्त के टच में रहा और उसे आर्थिक मदद भी औफर की परंतु आईसीयू या अपने दोस्त के घर जाना उसे पसंद नहीं था. इस बारे में वह कहता है कि जा कर उसे परेशान करने से अच्छा है कि मैं फ़ोन से उस से टच में रहूं और जरूरत पड़ने पर उस के काम आ सकूं.

मुसीबत नहीं सहारा बनें

अपनी सास की बीमारी के दौरान अपने अनुभव को वर्तिका कुछ इस तरह बयान करती है, “जैसे ही मेरी सासूमां हौस्पिटल से घर आईं तो मेरे घर उन्हें देखने आने वाले मेहमानों का तांता लग गया, अब एक तरफ न तो मेरी सासूमां ठीक से आराम कर पाती हैं तो दूसरी तरफ हर किसी को जगह पर चाय पानी नाश्ता सब चाहिए होता है जिस से मैं दिन भर चकरघिन्नी की तरह घूमती रहती हूं.” इस की अपेक्षा आप यदि किसी को देखने उस के घर जा रहे हैं तो उस के काम में भरपूर मद्द करने का प्रयास करें ताकि उसे कुछ आराम मिल सके.

अपनी ही न कहें

गिरीश अपने बीमार दोस्त को देखने अस्पताल पहुंचें तो अपने दोस्त के हालचाल पूछने की अपेक्षा बस अपने ही भांतिभांति की बीमारियों के किस्से सुनाना शुरू कर दिया जिस से किसी तरह स्वयं सकारात्मक रह रहे मिश्राजी खुद को और अधिक बीमार अनुभव करने लगे. आप जब भी किसी को देखने अस्पताल या घर जाएं अपने और परिचितों की बीमारियों का जिक्र करने की अपेक्षा हल्कीफुल्की हंसीमजाक की बातें करें जिस से मरीज कुछ अच्छा अनुभव कर सके.

फौरमेलिटी नहीं सच्ची मद्द करें

डेंगू के कारण रीना को हौस्पिटल में भर्ती होना पड़ा, उस के सामने के फ्लैट में रहने वाली अपनी मित्र संघमित्रा के बारे में बताते हुए रीना की आंखों में चमक आ जाती है और वह कहती है कि, “आज जहां अधिकांश लोग दिखावा और फौरमेलिटी में भरोसा करते हैं वहीं मेरी मित्र संघमित्रा ने मेरी बीमारी के दौरान एक सप्ताह तक मेरे पूरे घर को संभाल लिया था जिस से मुझे लगा ही नहीं कि मैं इतनी बड़ी बीमारी झेल कर आई हूं.”

सूचना दे कर ही जाएं

बीमार व्यक्ति से मिलने जाने से पहले सूचित कर के ही जाएं ताकि मरीज के आराम के समय में व्यवधान न पड़े. साथ ही मरीज के परिजन भी आप से मिलने के लिए ख़ुद को तैयार कर सकें.

मुझे मंजूर नहीं

“फाइनली आज मुझे भरोसा हो ही गया हमेशा से सुनी इस बात पर कि भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं,” अश्लेषा ने अपना बैग डायनिंग टेबल पर रखते हुए कहा.

“ऐसा क्या हो गया जो आज तुम इतनी खुश और संतुष्ट दिख रही हो,” पति श्लोक ने अपनी टाई खोलते हुए कहा.

“आज की न्यूज ने मुझे मेरे जीवन के प्रत्येक संघर्ष का जवाब दे दिया है. मैं ही नहीं, तुम भी सुनेगो तो तुम भी खुश हुए बिना नहीं रह पाओगे,” कहते हुए पति श्लोक के गले में अपनी दोनों बाहें डाल अश्लेषा लगभग झूल सी गई.

“चलो तुम हाथमुंह धो कर फ्रैश हो जाओ, मैं चाय बना कर लाती हूं, फिर बालकनी में बैठ कर बात करते हैं.”

“हां बिलकुल, मैं मुन्ना हलवाई के गरमागरम समोसे ले कर आया हूं, बैग से निकालो और लगाओ. मैं फ्रैश हो कर बालकनी में चेयरकुरसी सैट करता हूं.”

कुछ देर बाद वे दोनों भोपाल का पौश एरिया कहे जाने वाले चारइमली के बंगला न 204 के गार्डन में बैठे चाय पी रहे थे. चाय का पहला घूंट लेने के बाद अश्लेषा बोली, “आज अनिमेष को सर्विस से टर्मिनेट कर दिया गया, साथ ही, कोर्ट ने 4 लाख रुपए का मुचलका और 2 साल की सजा भी सुनाई है.”

“क्या बात कर रही हो, यह तो हमारी बहुत बड़ी जीत है. देखा, मैं हमेशा कहता था न कि तुम हिम्मत मत हारो, इस संसार में प्रत्येक इंसान को अपने कर्मों का फल हर हाल में मिलता ही है. अब निकल गई न उस की सारी अकड,” श्लोक ने खुश होते हुए कहा.

“सच में मुझे हमेशा लगता था कि वह दिन कब आएगा जब मैं अनिमेष को सजा होते देखूंगी. मेरे इतने सालों का संघर्ष फल लाया. सच कहूं तो मैं अभी तक अपने जीवन का एक एक दिन आज के दिन के इंतजार में काट रही थी. अब मेरा आगे का जीवन शांति से गुजरेगा,” अश्लेषा ने खुश होते हुए कहा.

वे दोनों बात कर रहे थे कि अश्लेषा का मोबाइल बज उठा. बेटी चित्रा की कौल थी.

“हेलो मौम-डैड, आप लोग कैसे हो? क्या बात है आप लोग आज बड़े खुश दिख रहे हो? मम्माडैड, यहां इतनी ठंड है कि आप लोग सोच भी नहीं सकते. अभी तो हम यहां शिमला का मार्केट घूमने आए हैं, कल मनाली जाएंगें.’’

“अभी औफिस से आ कर हम दोनों चाय पी रहे हैं और अब तुझ से बात कर ली तो दिल खुश हो गया,” अश्लेषा ने खुश होते हुए कहा.

“चलो ठीक है मां, अब मैं रात को वीडिओकौल करती हूं,” कहते हुए चित्रा ने फोन रख दिया.

‘’यह भी न, दिन में दस बार तो फोन करती ही है. खाना क्या खाओगे, अनीता आती होगी, जो तुम खाओ वही बनवा लेती हूं,” अश्लेषा ने रिलैक्स होते हुए कहा.

“आज का दिन तुम्हारा है, इसलिए जो तुम चाहो वह बनवा लो. आज तो तुम्हारी पसंद का ही खाना खाया जाएगा. मैं अंदर टीवी देख रहा हूं,” कह कर श्लोक अंदर चले गए.

इधर, अश्लेषा के मन में उमड़ रहा तूफान आंसू बन आंखों से बह निकला. उस का मन 20 साल पुरानी उन गलियों में जा पहुंचा जहां उस का बचपन बीता था. अपने मम्मीपापा की लाड़ली बेटी थी वह. मां एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थीं तो पिताजी एक बैंक में क्लर्क थे. एक छोटा भाई था जो उस से 4 साल छोटा था.

हर मध्यवर्गीय परिवार की तरह उस का परिवार भी अपनी सीमित आय में भी आराम से गुजारा कर लेता था. मांपापा ने अपने दोनों बच्चों को बड़े लाड़प्यार से तो पाला ही था, साथ ही, उन की शिक्षादीक्षा में भी कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी.

अश्लेषा ने इंजीनियरिंग कर के स्टेट इंजीनियरिंग सर्विस का एग्जाम दिया था और बीएसएनएल में असिस्टैंट इंजीनियर की पोस्ट पर उस की पहली नियुक्ति उज्जैन में हुई थी. उस की मम्मी ने हमेशा यही कहा था कि मैं अपनी बेटी को बहुत पढ़ाऊंगी ताकि वह आत्मनिर्भर बन कर अपने पैरों पर खड़ी हो सके और अपनी जिंदगी का हर फैसला अपनी मरजी से ले सके और उन्होंने यही किया भी. उन के समाज में जहां ग्रेजुएट होते ही बेटियों की शादी कर दी जाती थी वहां उन्होंने नातेरिश्तेदारों के लाख कहने के बावजूद अपनी बेटी का ब्याह तभी किया जब वह आत्मनिर्भर हो गई.

जब उस की सर्विस को एक साल हो गया तभी अनिमेष का रिश्ता उस के लिए आया था. अनिमेष पीडब्ल्यूडी विभाग में असिस्टैंट इंजीनियर थे. उन की पोस्टिंग इंदौर में थी. कुछ प्रयासों के बाद दोनों में से किसी एक का स्थानांतरण करवा लिया जाएगा, ऐसा सभी का मानना था. दोनों ही टैक्निकल फील्ड के हैं, दोनों की ही गवर्नमैंट जौब है, सो, अपने सुखद भविष्य की कल्पना कर के उस ने भी इस रिश्ते पर अपनी सहमति दे दी थी.

अनिमेष मध्य प्रदेश के भिंड जिले के रहने वाले थे. पिता एक स्कूल में प्रिंसिपल और माता होममेकर थीं. परिवार में उन के अलावा 2 बहनें और थीं जिन की शादियां हो चुकी थीं. कुल मिला कर अच्छाख़ासा खातापीता परिवार था. इसलिए उस के मातापिता ने विवाह में कोई देर नहीं की थी. हां, उस की मम्मी दहेज के खिलाफ थीं, सो, गोदभराई की रस्म में ही उन्होंने अनिमेष के परिवार वालों के सामने स्पष्ट कर दिया था कि, ‘देखिए, हम ने अपनी बेटी को पढ़ानेलिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, इसलिए मैं दहेज़ नहीं दूंगी और न ही मैं अपनी नाजों से पाली बेटी का कन्यादान करूंगी. हां, हमें जो भी अपनी मरजी से देना होगा वह देंगे पर आप की कोई मांग होगी तो वह हम पूरी नहीं कर पाएंगे.’

‘कैसी बातें करती हैं जी, आप अपनी बेटी हमें दे रही हैं, यह क्या कम है. इस के आगे हमें कुछ भी नहीं चाहिए, प्रकृति का दिया हमारे पास सबकुछ है और जहां तक कन्यादान की बात है, उस से तो आप को ही पुण्य मिलना है, हमें तो कोई लाभ है नहीं. हमारी यों भी कोई डिमांड नहीं है,” अनिमेष की मां ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा था. और इस प्रकार बहुत ही सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में उन दोनों की शादी हो गई थी. विवाह के बाद अश्लेषा ने उज्जैन तो अनिमेष ने इंदौर में अपनी सर्विस जौइन कर ली थी.

अश्लेषा के बेहद सरल और शांत स्वभाव के विपरीत अनिमेष बेहद उग्र, बड़बोला और बातबात पर झगड़ने वाला था. भिंडमुरेना क्षेत्र का पर्याप्त प्रभाव उस के स्वभाव में परिलक्षित होता था. उस की ही तरह उस के परिवार वाले भी उग्र स्वभाव वाले थे, बिना गालीगलौज के तो मानो उन्हें बात करना ही नहीं आता था. अश्लेषा ने नोटिस लिया था कि वहां के हर घर में तो बंदूक होती थी जो जराजरा सी बात पर निकल आती थी.

विवाह के समय जब अनिमेष उसे मंगलसूत्र पहना रहा था तो उस की सास ने कहा, ‘बेटा, यह मंगलसूत्र सिर्फ एक गहना नहीं है, इसे गले में पहनने के साथ अब तुम मेरे बेटे के साथ सात जन्मों तक के लिए तो बंध ही गई हो, साथ ही साथ, इस परिवार का मानसम्मान रखना अब तुम्हारी भी जिम्मेदारी है. जिंदगी में अनेक उतारचढ़ाव आते हैं पर हमेशा ध्यान रखना कि तुम ने अपने गले में अपने पति के नाम का मंगलसूत्र पहन रखा है.’ उस ने भी हंसीख़ुशी इस जिम्मेदारी को अपने ऊपर ले लिया था.

अनिमेष ने इंदौर में एक फ्लैट किराए से ले रखा था जहां से वह प्रति शनिवार उज्जैन आ जाता था या फिर अश्लेषा भी कभीकभी चली जाती थी. इस तरह से दोनों अपनी नईनवेली गृहस्थी का आनंद उठाते हुए जिंदगी जी रहे थे. अकसर अनिमेष की बड़ीबड़ी डींगें सुन कर अश्लेषा मुसकरा देती और कहती कि तुम लोग कितनी बड़ीबड़ी बातें करते हो, ऐसा लगता है मानो सारी दुनिया ही तुम्हारी मुट्ठी में हो.

‘क्या बात करती हो. मुट्ठी में ही है मैडम. कहो तो प्रूव कर दूं. बस, शर्त यह है कि यह बात जिंदगी में कभी भी तुम्हारी जबान से बाहर नहीं आनी चाहिए.’

‘मुझे क्या पड़ी है जो मैं किसी को बताऊंगी. बताओ, ऐसी क्या बात है?’

‘तुम्हें पता है मैं ने जब बीए किया था तो एक दिन भी पढ़ाई नहीं की थी और कालेज में टौप किया था,’ अनिमेष ने गर्व से सीना फुलाते हुए कहा था मानो कोई बहुत बड़ा काम कर के आया हो.

‘नकल की होगी तो बिना पढ़े टौप करोगे ही. पर तुम ने तो स्टेट इंजीनियरिंग का एग्जाम पास कर के नौकरी पाई तो क्या उन दिनों कंपीटिशन की तैयारी कर रहे थे?” अश्लेषा ने उत्सुकता से कहा.

‘देखो, फिर एक बार कह रहा हूं कि तुम मेरी पत्नी हो, इसलिए बता रहा हूं वरना मेरे घर में पापा के अलावा यह बात किसी और को पता नहीं है. हमारे सैंटर पर पैसे ले कर परचा आउट करवाया गया था. अब मैं ने पढ़ाई तो की नहीं थी जो कुछ लिख पाता क्योंकि नकल करने के लिए भी तो अक्ल की जरूरत होती है. जब रिजल्ट आया तो मेरी थर्ड डिवीजन थी. फिर मैं ने अपनी मार्कशीट की ही बिलकुल हूबहू मार्कशीट बनवाई, जिस में मैं ने टौप किया और उसी के बेस पर मैं ने अपनी नौकरी का इंटरव्यू दिया और नौकरी प्राप्त की.

मेरी नौकरी इंटरव्यू बेस्ड थी, सो, थोड़ा जुगाड़ लगा लिया, थोड़ा पैसा खर्च कर दिया और लग गई नौकरी. और देखो, आज नौकरी करते भी मुझे 5 साल हो गए हैं. अब तो कोई माई का लाल भी मेरा क्या बिगाड़ पाएगा.’

‘पर यह तो सरासर धोखाधड़ी है. कभी भी तुम्हारी नौकरी जा सकती है. तुम्हें पता है, इस तरह के केस के खुलने पर सीधे जेल होती है,’ अश्लेषा ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा, कैसे कर लेते हो तुम लोग इतना गलत काम, कहां से लाते हो इतना बड़ा जिगर कि चोरी और सीना जोरी. मैं तो कभी नकल तक करने का भी नहीं सोच सकती और तुम, गजब है भाई.’ और अश्लेषा ने अनिमेष के आगे अपने हाथ जोड़ दिए थे.

“अरे यार, बातोंबातों में मैं तुम्हें बता तो गया पर प्लीज, तुम इसे अपने तक ही रखना, जिंदगी में कभी भी किसी भी हालत में यह बात बाहर नहीं आनी चाहिए. तुम मेरी पत्नी हो, इसलिए मैं ने सब सच तुम्हें बता दिया,’ अनिमेष ने उस के सामने अपनी बात रखते हुए कहा था.

‘अरे तुम पागल हो क्या, मैं क्यों कभी किसी से कहूंगी पर हां, तुम्हें जरूर चेतावनी देना चाहूंगी कि इसे कभी भी अपनी दिलेरी समझ कर किसी के भी सामने बयां मत कर देना. यह बहुत बड़ा अपराध है सरकार और कानून दोनों की निगाह में. अगर कभी खुल गया तो नौकरी तो जाएगी ही, साथ ही, तुम खुद जेल जाओगे.’ इस के बाद दोनों अपनेअपने काम में बिजी हो गए.

और इस तरह अश्लेषा को अपनी जिंदगी से कोई गिलाशिकवा न था. एक दिन अचानक औफिस में काम करते समय उसे चक्कर आने लगे तो वह अपनी फेमिली डाक्टर अनीशा के पास जा पहुंची. उस का पूरा चैकअप करने के बाद अनीशा बोली, ‘बधाई हो मैडम, अब आप की फेमिली में नया सदस्य आने वाला है. जाइए और अपने पतिदेव को यह शुभ सूचना दीजिए.’

उस का भी मन ख़ुशी से बावला हो रहा था. सो, गाड़ी में बैठते ही उस ने अनिमेष को फोन लगाया, ‘अनु, तुम जल्दी से घर आ जाओ, मुझे बहुत बड़ी न्यूज तुम्हें देनी है.’

‘अरे, मैं पहली बार तुम्हें इतना खुश देख रहा हूं, बताओ न क्या हुआ है? अब मुझ से सब्र नहीं हो रहा है. प्लीज, बता दो न,’ अनिमेष ने खुश होते हुए कहा.

‘नहीं, तुम आओ पहले, तभी बताऊंगी.’

2 घंटे बाद जब अनिमेष आया तो अश्लेषा ने खुश हो कर उसे अपनी प्रैग्नैंसी की बात बताई पर अनिमेष की ठंडी प्रतिक्रिया देख कर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ,

‘क्या हुआ, तुम खुश नहीं लग रहे?’

‘हां, दरअसल मैं अभी इस जिम्मेदारी के चक्कर में पड़ना नहीं चाहता. वैसे मेरी मानो तो तुम भी अभी बच्चे वगैरह के चक्कर में न ही पड़ो तो ही अच्छा रहेगा. इतनी अच्छी चल रही है अपनी जिंदगी, क्यों इस में तूफान लाना, बच्चा मतलब सारी मौजमस्ती ख़त्म. बस, दिनरात उस के डायपर ही बदलते रहो, न रात में नींद पूरी न दिन में चैन और कम से कम मैं तो अभी ये सब करने को तैयार नहीं हूं,’ अनिमेष ने अपना मत रखते हुए कहा.

‘यानी, तुम चाहते हो कि मैं अबौर्शन करवा लूं,’ उस ने चौंकते हुए कहा.

‘हां, इन सब झंझटों में मत पड़ो और कल ही अबौर्शन करवा लो. अभी तो शुरुआत ही है, सो तुम्हारी बौडी पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा.’

‘नहीं, यह संभव नहीं. तुम चाहो या न चाहो, मैं इस बच्चे को पैदा करूंगी. जो बच्चा हम दोनों के कारण इस संसार में आ रहा है उसे ही मैं यहां आने से रोक दूं, इस में उस अजन्मे बच्चे का क्या दोष. नहीं, मैं ऐसा बिलकुल नहीं करूंगी. मेरा शरीर है और मुझे क्या करना है, इस का हक़ मैं अपने सिवा किसी और को नहीं दूंगी,’ कह कर अश्लेषा किचेन में खाना डायनिंग टेबल पर लगाने चली गई. उस दिन दोनों में अबोला सा छाया रहा और दूसरे दिन दोनों अपनेअपने काम पर चले गए. बेमन, बेपरवाही से ही सही, एक बार फिर से दोनों की जिंदगी की गाड़ी पटरी पर चल निकली थी.

नौ माह बाद उस ने एक फूल सी नाजुक, प्यारी सी बेटी को जन्म दिया तो उसे लगा मानो उस ने पूर्ण नारीत्व प्राप्त कर लिया. इस सब के बीच अनिमेष का व्यवहार बहुत सुस्त रहा. जन्म लेने के दूसरे दिन जैसे ही अनाया को उस ने गोदी में लिया तो बोला, ‘लो आ गई तुम्हारी ही तरह हवा में झंडा गाड़ने वाली तुम्हारी बेटी.’

धीरेधीरे अनाया बड़ी हो रही थी. अश्लेषा अभी मैटरनिटी लीव पर थी, सो वह पूरे समय घर और चित्रा में व्यस्त रहती थी. पहले तो फिर भी सप्ताह के बीचबीच में अनिमेष उज्जैन आ जाता था पर पिछले कुछ दिनों से वह महसूस कर रही थी कि अनिमेष का मिजाज कुछ उखड़ाउखड़ा सा रह रहा है. उज्जैन आता भी है तो, बस, फौर्मैलिटी के लिए. एक रात रुकता और अगले दिन औफिस का जरूरी काम बता कर चला जाता. कभी कभी तो 15 दिनों तक भी इंदौर से उज्जैन न आता था. एक दिन जब अश्लेषा ने इस बाबत उस से कहा तो वह लगभग झुंझलाते हुए बोला, ‘हर समय एकजैसा नहीं होता. आजकल औफिस में बहुत काम रहता है. तुम्हारा क्या है, मैटरनिटी लीव ले कर आराम फरमा रही हो.’

इस बार एक महीना हो गया था, अनिमेष उज्जैन नहीं आया था. अश्लेषा ने इंदौर में रहने वाली अपनी दोस्त सीमा को फोन मिलाया. सीमा के पति अनिमेष के ही औफिस में क्लर्क थे.

सारी बात सुन कर सीमा बोली, ‘आशु, मैं खुद तुझे फोन लगाने की सोच रही थी पर समझ नहीं आ रहा था कि कैसे कहूं और क्या कहूं, अभी तो तेरी शादी को 3 साल ही हुए हैं. बेबी को हुए तो अभी 4 माह ही हुए हैं. पर अच्छा हुआ तूने खुद ही लगा दिया. सब गड़बड़झाला चल रहा है यहां. तू अपनी बिटिया में व्यस्त है, अनिमेष के परिवार की जिम्मेदारी संभाल रही है और अनिमेष यहां सबीना नाम की अपनी असिस्टैंट के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा है. दोनों के प्यार के चर्चे पूरे औफिस में हैं. सुना है, दोनों जल्दी ही शादी भी करने वाले हैं.’

‘अरे, पर यह सबीना कहां से आ गई. पहले से भी कुछ था इन दोनों के बीच और यदि था तो मुझे किसी ने क्यों नहीं बताया?,’ कहते हुए अश्लेषा एकदम रो सी पड़ी थी.

‘देख, रोने से कुछ होने वाला है नहीं. सबीना अनिमेष की असिस्टैंट है, दोनों ने एकसाथ ही जौइन किया था. सबीना अविवाहित है. घर में सिर्फ उस की मां हैं. तेरी शादी से पहले भी इन दोनों के चर्चे औफिस में मशहूर थे. हर टूर पर दोनों साथसाथ जाते हैं. औफिस में तो चर्चा है कि अनिमेष और सबीना लिवइन रिलेशन में लगभग तब से हैं जब से अनिमेष ने औफिस जौइन किया है. तेरी शादी के समय थोड़ा कम हुआ था पर जब से बेटी हुई है तब से तो ये दोनों फ्री हो गए लगते हैं,’ सीमा ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा.

हे प्रकृति, यह क्या हो गया. अब कैसे हैंडिल करूं. एक पल को तो वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गई. तभी उस के कानों में अनाया के रोने की आवाज आई. उस ने दौड़ कर अनाया को सीने से लगाया और मन ही मन बोली, ‘अपनी बेटी के लिए न्याय तो मैं ले कर रहूंगी. अब सचाई का पता लगा कर सबक सिखाने का समय आ गया है.’

शनिवार को जब अनिमेष उज्जैन आया तो वह बोली, ‘अनु, यहां भी मैं अकेली ही रहती हूं, सोच रही हूं तुम्हारे पास इंदौर ही आ जाती हूं. कम से कम बेटी को अपने पापा का और मुझे अपने पति का प्यार तो मिल पाएगा. यहां तो अकेले पड़ेपड़े हम दोनों तुम्हारे दर्शन को ही तरस जाते हैं.’
‘अरे नहीं, वहां दिनभर अकेली पड़ीपड़ी भी तुम बोर ही होगी. यहां चित्रा का पूरा सैटअप है, वह यहां पर अच्छी तरह सैट है. जो सिस्टम है वही चलने दो.’

‘क्यों चलने दूं वही सिस्टम. चित्रा का सैटअप बिगड़ जाएगा या तुम्हारा सैटअप उखड़ जाएगा? जब तुम्हारा किसी और के साथ रिलेशन था तो मेरे साथ क्यों लिए सात फेरे,’ अश्लेषा ने क्रोध से कहा.

‘क्या बकवास कर रही हो तुम. मेरा सैटअप क्यों उखड़ेगा. रह तो रही हो यहां चैन से, क्या दिक्कत है? इसी सब के कारण ही मैं इन सब झंझटों में नहीं पड़ना चाहता था पर नहीं, तुम्हें तो मां बनना था. सो, अब क्या परेशानी है? कौन सा रिलेशन, किस के साथ रिलेशन? तुम्हें पता भी है तुम क्या बोल रही हो? होश में हो कि बेहोश हो?’ अनिमेष ने बिलकुल अनजान बनते हुए कहा था.

‘ज्यादा अनजान बनने की कोशिश मत करो, मुझे है परेशानी तुम्हारी गर्लफ्रैंड सबीना से, कौन है सबीना, क्या रिलेशन है तुम्हारा?’

‘ओह, तो इसलिए मैडम उखड़ रही हैं. तुम तक भी पहुंच गई यह बात. देखो, अब मैं भी तुम्हें बता दूं सबीना से आज से नहीं, बरसों से मेरी दोस्ती है, हमारी शादी से पहले से.’

‘तो उसी से शादी क्यों नहीं की, मेरे गले में यह घंटा क्यों लटकाया था?’ अश्लेषा ने अपना मंगलसूत्र हिलाते हुए कहा.

‘शादी और दोस्ती दोनों अलग बातें हैं, मेरी जान. शादी उस से की जाती है जो घरपरिवार का मान रखे, घर की जिम्मेदारियां संभाले, बच्चे का पालनपोषण करे, परिवार की देखभाल करे. और इन सब में तुम एकदम परफैक्ट ही नहीं बल्कि एक कदम आगे हो क्योंकि तुम कमाती भी हो. वहीं, दोस्ती उस से की जाती है जिस के साथ आप मौजमस्ती कर सको. उस में सबीना परफैक्ट है. समझ गईं न,’ यह कह कर अपना बैग कार में डाल अनिमेष इंदौर चला गया.

उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. रोतेरोते उस ने अपनी मां को फोन लगा कर सारी बात बताई.

‘सब से पहले तो तू रोना बंद कर. तूने थोड़े ही कुछ किया है जो रो रही है. आत्मनिर्भर है तू. पहले बात को सुलझाने की कोशिश करते हैं, फिर देखते हैं. मैं आती हूं तेरे पास कल.’

अगले दिन उस की मां वीणा उस के पास थीं. मां के आने से उसे कुछ राहत मिली. शनिवार को जब अनिमेष आया तो वीणा ने सारी बात उस के सामने रख कर कहा, ‘ऐसे तो देखिए चलेगा नहीं. आप सबीना और अश्लेषा दोनों को ही धोखा दे रहे हैं. क्या सबीना को आप की शादी के बारे में पता है? यदि आप के परिवार में भी यह बात पता थी तो फिर मेरी बेटी के साथ धोखा क्यों किया गया?’

‘मैं आप की पूरी इज्जत करता हूं. आप की बात भी सही है पर मैं ने अपने घर में जब सबीना के बारे में बताया था तो तूफान आ गया था. एक मुसलमान लड़की के साथ दोस्ती को तो पचा नहीं पा रहे थे वे, शादी क्या करते. मेरी उस से महज दोस्ती ही है, इस से ज्यादा कुछ नहीं,’ कह कर उस दिन भी अनिमेष इंदौर चला गया.

इस के बाद वीणा ने अनिमेष के मातापिता को जब पूरी बात बताई तो वे बोलीं, ‘अरे बहनजी, बच्चों के बीच में आप क्यों पड़ती हैं. आपस में सब सुलझा लेंगे. अरे, अश्लेषा के गले में मंगलसूत्र तो अनु के नाम का ही है. ठीक है आदमी बाहर रहता है तो इस तरह के दोस्त बना ही लेता है. कुछ दिनों की बात है, सब ठीक हो जाएगा. आप चिंता मत कीजिए.’

‘और अगर मेरी बेटी इसी तरह के दोस्त बनाने लगे तो क्या आप को और आप के बेटे को सहन होगा. मंगलसूत्र है तो क्या मेरी बेटी ने अपनी जिंदगी अनिमेष के नाम कर दी है. मंगलसूत्र पहनने का मतलब यह तो नहीं कि मेरी बेटी अपनी जिंदगी बरबाद कर दे. ऐसे मंगलसूत्र को पहनने से क्या फायदा जो मेरी बेटी की जिंदगी को नरक बना दे.’

अब वे अपनी बेटी को मानसिक सपोर्ट देने के लिए उस के पास कुछ दिनों के लिए रुक गईं. कुछ और जांचपरख के बाद स्पष्ट हो गया था कि अनिमेष सबीना के साथ शादी से पहले से ही लिवइन रिलेशनशिप में रह रहा था. शादी उस ने केवल घर वालों के दबाव में और समाज को दिखाने के लिए की थी.

एक दिन वीणा जी ने अश्लेषा से कहा, ‘देख बेटा, अब डिसीजन लेने का समय आ गया है. मैं बिलकुल नहीं कहूंगी कि इस मंगलसूत्र नाम के घंटे के लिए तू अपनी जिंदगी बरबाद कर दे. अभी तेरे सामने तेरी पहाड़ सी जिंदगी पड़ी है. तू कमाती है, आत्मनिर्भर है इसलिए जितनी जल्दी हो सके, इस जबरदस्ती के बंधन से मुक्त हो कर अपनी मरजी से अपनी जिंदगी जीना सुनिश्चित कर. पर हां, अंतिम निर्णय तेरा ही होगा.’

‘मां, देखो, अब मैं इसे ऐसा सबक सिखाऊंगी कि यह जिंदगीभर याद रखेगा. जो लोग लड़कियों को अपने हाथ की कठपुतली समझते हैं उन के लिए एक सबक साबित होगी अनिमेष की जिंदगी.’

इस के बाद एक तरफ जहां अश्लेषा ने तलाक के लिए कोर्ट में अर्जी दी वहीं, अनिमेष के डौक्युमैंट्स की जांच के लिए भी उस के विभाग में एक एप्लीकेशन दी थी. जैसे ही अनिमेष को इस बारे में पता चला, अश्लेषा के घर आ कर बहुत हंगामा किया, ‘तुम समझती क्या हो खुद को, यही तो समस्या होती है इन कमाऊ लडकियों के साथ, चार पैसे क्या कमाने लगती हैं, खुद को ही तीसमारखां समझने लगती हैं. मैं भी देखता हूं कि कोई मेरा क्या बिगाड़ लेता है.’

रोजरोज के तनाव और विवाद से बचने के लिए अश्लेषा ने अपना ट्रांसफर भोपाल अपने मातापिता के पास करवा लिया था ताकि अपनी नौकरी पर फोकस कर सके. विगत में वह इतना खो गई थी कि कब सुबह के 4 बज गए थे, उसे ही पता नहीं चला था. बहुत कोशिश कर के उस ने खुद को उन बीती यादों से निकाला और कब उस की आंख लगी, उसे ही पता न चला.

“चायचाय, गरमागरम चाय, आप की सेवा में हाजिर है,” श्लोक की आवाज से उस की आंख खुली. घड़ी में 9 बज रहे थे. वह तो अच्छा था कि आज संडे था और हर संडे को श्लोक इसी तरह उस के सामने चाय ले कर हाजिर हो जाते हैं.

“क्या हुआ आज तो लगता है अनिमेष की यादों में ही खोई रहीं तुम. इसीलिए इतनी देर से सो कर उठीं.”

“हां, कह सकते हो तुम.”

चाय पी कर वह जो घर के कामों में लगी तो दोपहर हो गई. अनीता ने खाना डायनिंग टेबल पर लगा दिया था. संडे को खाना खा कर दोपहर की झपकी लेना उस के और श्लोक दोनों की ही आदत में शुमार है. सो, खाना खा कर दोनों बैड पर लेट गए. श्लोक को जब लिटा दो, तो निद्रादेवी झट आ कर उन्हें अपनी आगोश में ले ही लेती हैं. पर उस की आंखों में तो फिर से अधूरी दास्तान मानो बाहर आने को बेचैन थी.

उस की शिकायत के बाद अनिमेष की जब जांच हुई तो उस के सारे दस्तावेज फर्जी निकले. जांच 4 साल तक चली. डिपार्टमैंट के अधिकारियों ने फोन पर कई बार उस के बयान लिए थे. उधर कोर्ट में डायवोर्स के केस के लिए उसे बारबार उज्जैन जाना पड़ता था. इस से उसे मानसिक और शारीरिक थकान तो होती थी पर अब उसे अपराधी को सजा दिलवाए बिना चैन ही नहीं था. 2 साल के लंबे अंतराल के बाद उसे तलाक मिल गया था लेकिन अभी सर्विस वाले केस पर निर्णय आना शेष था.

डायवोर्स होने के बाद मांपापा उस पर अब दूसरी शादी करने के लिए दबाव बनाने लगे थे पर अनिमेष से धोखा खाने के बाद उस का मन अब किसी और पर विश्वास करने को तैयार न था. उन्हीं दिनों उसी के डिपार्टमैंट में चीफ इंजीनियर की पोस्ट पर श्लोक ट्रांसफर हो कर आए थे.

आम अधिकारियों से कुछ अलग ही व्यवहार था श्लोक का. दिखने में सुदर्शन, व्यवहार में सौम्य, वाणी में विनम्रता मानो उन की हर बात में झलकती थी. कभी किसी से डांट कर बात नहीं करते थे. चाहे अधिकारी हो या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, हरेक से प्लीज कर के बात करते थे, श्लोक. वह ही नहीं, औफिस के सभी कर्मचारी उन के व्यवहार के कायल थे. अकसर काम के सिलसिले में उस का सामना भी श्लोक से हो जाया करता था. डिपार्टमैंटल ट्रेनिंग पर इस बार श्लोक और उसे दोनों को सिक्किम जाने का और्डर आया था. वहां जा कर एक प्रोजैक्ट को देखना था और उस के आधार पर ही मध्य प्रदेश में भी एक प्रोजैक्ट लौंच किया जाना था. अपना नाम और्डर में देख कर वह घबरा गई और जा पहुंची श्लोक के केबिन में, ‘सर, आई डोंट वांट टू गो. प्लीज, आप मेरा नाम हटवा दीजिए.’

उसे देखते ही श्लोक उठ खड़े हुए और बोले, ‘आइए, आइए मेम. व्हाट हैपेंड, व्हाई यू डोंट वांट टू गो? इट इज ऐन अपौर्च्यूनिटी, इट विल हैल्प यू इन योर ब्राइट फ्यूचर. थिंक अगेन एंड टेल मी. आप अच्छे से सोच लीजिए, फिर जैसा आप कहेंगी, मैं कर लूंगा. कल बताइएगा मुझे.’
घर आ कर जब उस ने मांपापा को सिक्किम वाली बात और श्लोक की प्रतिक्रिया से अवगत कराया तो उन्होंने कहा, ‘सही तो कह रहे हैं तुम्हारे साहब, जाना ही चाहिए, इतना अच्छा मौका मिल रहा है. जाओ, वैसे भी इतने समय से फालतू के झंझट झेल कर परेशान हो गई हो. अनाया की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. अब तो वह तुम्हारे बिना बड़े आराम से रह लेती है.’

अगले दिन औफिस में पहुंच कर उस ने श्लोक को अपनी सहमति से अवगत कराया. वे बोले, ‘देखिए, इसीलिए मैं ने फिर से विचार करने को कहा था.’

इस के बाद एक सप्ताह की ट्रेनिंग पर वे दोनों सिक्किम गए थे. सिक्किम में दोनों को अधिकतर समय साथसाथ ही रहना होता था. अश्लेषा दिन में कई बार अपनी बेटी से बात करती थी तो श्लोक अपनी मां से. जिस से उस ने अंदाज लगाया कि श्लोक अपनी मां के काफी नजदीक हैं. एक दिन जब वह अनाया से बात कर रही थी तब श्लोक ने धीरे से कहा, ‘आप की बेटी कितनी बड़ी है और किस के पास छोड़ कर आई हैं आप?’

‘7 साल की है वह और अपनी नानीनाना के पास है.’

‘आप के पति कहीं और पोस्टेड हैं क्या?’’ शलोक ने विनम्रता से कहा.

‘नहीं सर, बहुत अलग सी कहानी है मेरी. फिर कभी बताऊंगी. आप बताइए, आप शायद अपनी मां के काफी नजदीक हैं?’

‘नजदीक क्या, मेरा परिवार ही मेरी मां हैं. मैं जब 8 साल का था तभी पापा देश के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए थे. मां ने अकेले ही मुझे बड़ा किया है और इस मुकाम तक पहुंचाया भी है. इसलिए मैं जो कुछ भी हूं, सिर्फ और सिर्फ अपनी मां के कारण हूं,’ श्लोक बात करतेकरते कुछ भावुक से हो गए थे.

बस, इस के बाद वे दोनों एकदूसरे से खुलते गए थे. श्लोक के शालीन व्यवहार पर तो वह वैसे ही फ़िदा थी, अब उसे उस से बात करना भी अच्छा लगने लगा था. एक दिन जब वह अनाया से वीडिओकौल पर बात कर रही थी तो श्लोक से भी उस ने उस की बात करवाई. बात करने के बाद श्लोक बोले, ‘आप के मम्मीपापा और बेटी बहुत अच्छे हैं. अब आज तो आप बता ही दीजिए अपनी कहानी अपनी ही जबानी.’ श्लोक ने इस तरह कहा कि वह एकदम खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘क्या हमेशा उदासी ओढ़े रहती हैं आप. देखिए हंसते हुए कितनी अच्छी लगती हैं आप?’ उस के हंसते समय श्लोक ने अपने द्वारा खींची तसवीर दिखाते हुए कहा.

इस के बाद उस ने धीरेधीरे अपने और अनिमेष के बारे में सारी दास्तान श्लोक को कह सुनाई थी. सुनने के बाद श्लोक एकदम से हंसे और बोले, ‘बाप रे, अपने भविष्य के साथ किस तरह का खिलवाड़ करते हैं लोग, कहां से लाते हैं इतना साहस. आप ने बिलकुल सही किया. और यह मंगलसूत्र का मान रखना क्या होता है यानी एक साधारण से गहने के पीछे एक महिला अपनी पूरी जिंदगी तबाह कर दे. और हां, उस की सर्विस वाला डिसीजन हुआ कि नहीं?’

‘अभी कहां, सरकारी संस्थाएं पूरी जांचपड़ताल के बाद ही डिसीजन देती हैं. मामला चल रहा है, देखिए कब तक क्या होता है.’

ट्रेनिंग से आने के बाद भी दोनों का आपस में मिलनाजुलना जारी रहा. श्लोक की मम्मी का जन्मदिन था जिस में श्लोक ने अश्लेषा और उस के पूरे परिवार को भी बुलाया था. श्लोक की मम्मी भी उसी की तरह बहुत विनम्र और बहुत जिंदादिल थीं. उन्हें देख कर उन की उम्र का एहसास तक नहीं होता था. अश्लेषा और उस की बेटी को देखते ही वे चिहुंक उठीं, ‘ओह माई गौड, तुम ने जितना बताया था, ये मांबेटी तो उस से भी कहीं ज्यादा सुंदर हैं.’ उस की मम्मी और पापा को भी श्लोक और उस की मम्मी से मिल कर बहुत अच्छा लगा था.

अगले दिन जब वह औफिस चली गई तो श्लोक की मम्मी उस के घर आ पहुंचीं और बिना किसी औपचारिकता के वीणा जी से अश्लेषा का हाथ मांग बैठीं. पहले तो श्लोक की मम्मी का प्रस्ताव सुन कर वीणाजी चौंक गईं, फिर बोलीं, ‘पर आशू कहां तैयार है अभी. वह तो शादी का नाम सुन कर ही भड़क जाती है. मैं तो नहीं, आप ही उस से बात करो.’

‘मेरा बेटा कौन सा तैयार है. वह तो शादी न करने का ही तय कर के बैठा है, कहता है, पूरी जिंदगी आप ने मेरे लिए गुजार दी. अब कोई तीसरी आ कर हम दोनों को ही अलग करने का प्लान कर ले, यह मैं बिलकुल नहीं चाहता. आप लोग अपना बताइए, आप को तो कोई परेशानी नहीं है न मेरी समधन बनने में?’

‘अरे नहींनहीं, मेरे लिए तो बहुत ही ख़ुशी की बात होगी जो आप मेरी समधन बनें,’ कहते हुए वीणाजी ने श्लोक की मम्मी को गले लगा लिया. इस के बाद दोनों की ही मम्मियों ने अपने बच्चों को तैयार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. दोनों को ही अपने मातापिता के सामने झुकना पड़ा था.

जब दोनों के विवाह पर लगभग मुहर सी लग गई तो एक दिन अश्लेषा ने कहा, “आप मुझ से विवाह करने को तो तैयार हैं पर क्या आप ने कभी सोचा है कि मेरे जीवन में एक बेटी भी है और जो मेरी जान है, उस के बिना मेरा ही कोई अस्तित्व नहीं है. और क्या आप की मम्मी मुझे मेरी बेटी के साथ अपनाने के लिए तैयार हैं?’

‘तुम्हें क्या लगता है, मैं और मेरी मां इतने दकियानूसी हैं कि तुम्हें अपनाएं और अनाया को नहीं. मुझे और मम्मा को तुम अनाया के साथ ही स्वीकार हो. हमारे लिए ख़ुशी की बात होगी जो तुम दोनों हमारी जिंदगी में आओगी. तो प्लीज अपने कदमों से आप दोनों मेरे घरआंगन को रोशन करेंगी. और हां, अनाया और मेरी कितनी अच्छी बौन्डिंग है, यह तो तुम्हें पता ही है न.’

बस, इस के बाद जोरशोर से उन दोनों का सर्वसम्मति से विवाह हो गया. दोनों खुशनुमा जिंदगी पिछले 4 वर्षों से व्यतीत कर रहे थे. अनाया भी 10 साल की हो गई थी. श्लोक की मम्मी और उस के मम्मीपापा की बहुत पटती थी. तीनों अकसर कहीं घूमने निकल जाते थे.

चूंकि दोनों की पोस्टिंग भोपाल में ही थी सो अब विवाह के बाद श्लोक ने अपने नाम पर भोपाल की प्राइम लोकेशन कहे जाने वाले चार इमली में बंगला एलौट करा लिया था. इस समय अनाया अपने स्कूल ट्रिप पर मनाली गई हुई थी. आज अनिमेष के विभाग का निर्णय उसे पता चला था, तब से ही वह बहुत खुश थी. आखिर, असत्य पर सत्य की जीत हो ही गई थी.

भारत का सिकुड़ता एजुकेशन बजट और सोशल मीडिया पर मस्त युवा

मैल्कम एक्स की एक कहावत है कि शिक्षा भविष्य का पासपोर्ट है क्योंकि कल उन का है जो आज इस के लिए तैयारी करते हैं. लेकिन क्या यह कहावत आज के संदर्भ में सही साबित हो रही है? आज के युवाओं का एजुकेशन सिस्टम और उस का भविष्य सरकार भरोसे है जो लगातार अंधकार की तरफ जा रहा है.

ऐसा इसलिए है क्योंकि एक तरफ तो हम विश्वगुरु बनने की बात करते हैं और दूसरी तरफ हमारी सरकार एजुकेशन बजट लगातार घटाती ही जा रही है. अपनी देश की बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था पर इस का कोई ध्यान नहीं है. एजुकेशन पर खर्च करने के नाम इस के हाथ पैर फूल जाते हैं. अब कोई यह बताए कि बिना एजुकेशन पर खर्च किए हम कैसे विश्वगुरु बन सकते हैं?

सरकार क्या कर रही है

केंद्रीय बजट 2024-25 का जो एजुकेशन बजट आया है उस में एजुकेशन के लिए जो पैसा अलौट किया गया है वह पिछले साल के मुकाबले कम था. यह बजट शिक्षा में सुधार के वादे तो करता है लेकिन उन्हें पूरा करने में विफल नजर आता है.

वैसे भी हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री वादा करने में तो नंबर वन हैं ही. लेकिन वाकई यह बजट शिक्षा के कई ऐसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कमजोर पड़ता नजर आता है जो इस क्षेत्र की बढ़ती मांगों और अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जरूरी थीं.

जैसे कि भारत में काफी समय से एजुकेशनिस्ट और स्टूडैंट आर्गेनाइजेशन डिमांड कर रहे हैं कि यहां का एजुकेशन बजट 6 फीसदी से ज्यादा बढ़ाया जाए लेकिन अभी भी एजुकेशन बजट 2-3 फीसदी के आसपास ही है. जितनी डिमांड है, हम उस का आधे से भी कम एजुकेशन पर खर्च कर रहे हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 में शिक्षा पर मात्र 2.7 फीसदी आवंटन बताया गया था, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति या एनईपी 2020 की 6 फीसदी की सिफारिश से काफी कम है. यह कमखर्च सीधे शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करता है और इस से सार्वजनिक शिक्षा के संस्थानों को गंभीर संसाधन की कमी का सामना करना पड़ेगा. वैश्विक स्तर पर हमारे देश के शीर्ष 200 में केवल 3 विश्वविद्यालय शामिल हैं. पर्याप्त निवेश के बिना भारत के एजुकेशन सिस्टम का अपनी एक अलग पहचान बनाना मुश्किल है.

2024 के अंतरिम बजट में यूजीसी के लिए फंडिंग को पिछले वर्ष के संशोधित अनुमान 6,409 करोड़ रुपए से घटा कर 2,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है, जो 60.99 प्रतिशत की गिरावट है. वहीं समग्र शिक्षा अभियान के लिए आवंटन में 2024-25 में 37,453.47 करोड़ रुपए से मामूली वृद्धि हो कर 37,500 करोड़ रुपए हो गई.

भारत में शिक्षा का गिरता स्तर

शिक्षा पर खर्च के मामले में भारत की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है. इस क्षेत्र में खर्च के मामले में भारत का दुनिया में 136वां स्थान है. जरूरत के मुताबिक कमखर्च और क्वालिटी एजुकेशन की कमी सब से बड़ी चिंता है.

भारत का शिक्षा पर खर्च अन्य देशों की तुलना में काफी कम है. उदाहरण के लिए, ब्रिटेन और अमेरिका 5-6 फीसदी शिक्षा पर खर्च करते हैं. यहां यह भी देखने की जरूरत है कि जनसंख्या अनुपात के हिसाब से वहां की जीडीपी और सरकार का रेवेन्यू भारत के मुकाबले बहुत ज्यादा अच्छा है. यहां तक कि प्रतिव्यक्ति आय में भी ये दोनों देश भारत के मुकाबले बहुत आगे हैं. यह असमानता भारत के लिए सही नहीं है. अगर भारत को आगे बढ़ना है तो उसे एजुकेशन पर खर्च तो करना ही पड़ेगा. यह इसलिए भी जरूरी है कि टैक्नोलौजी के मामले में हमें वैस्टर्न देशों की तरफ देखना पड़ता है क्योंकि यहां रिसर्च पर सही खर्चा नहीं किया जाता.

सरकार को दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर चलने के लिए भारत के एजुकेशन सिस्टम को कक्षाओं, प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों और डिजिटल बुनियादी ढांचे के साथ आधुनिकीकरण करने की सख्त जरूरत है. और, यह शिक्षा पर बजट बढ़ाए जाने से संभव होगा. टीचर्स को नई स्किल्स की ट्रेनिंग देने की जरूरत है. अपर्याप्त वित्त पोषण, शोध और विकास पर धयान न देना, कौशल विकास के बारे में न सोचन आदि भारत के एजुकेशन सिस्टम का हाल और भी बुरा कर देगा.

विश्वगुरु एक मजाक

हम विश्वगुरु बनने की बात करते हैं. हमारी सरकार लगातार यही कहती है हम विश्वगुरु हैं, हम दुनिया को सीख देते हैं. हमारी गुरुशिष्य परंपरा रही है लेकिन फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि जरमनी, कनाडा, अमेरिका का एजुकेशन सिस्टम हम से कहीं आगे है. हम अपनी पीठ थपथपाते हैं, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं. लेकिन लिटरेसी रेट में हम 127वें नंबर पर हैं, यह बहुत ही शर्मनाक है.

संस्कृति पर झूठा गौरव

समस्या यह है कि देश में सवाल उठाने वाले देशविरोधी बताए जा रहे हैं और संस्कृति का ढोल पीटने वाले देशभक्त. अतीत पर गर्व करने से क्या वर्तमान ठीक हो जाता है? अतीत का ढोल पीटने से क्या मौजूदा समस्याएं दूर हो जाती हैं?

भारत के विभिन्न वेदों, उपनिषदों एवं पुराणों में यह बताया भी गया है कि ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है और इस से सफलता के सारे रास्ते खुलते हैं. लेकिन इसी ज्ञान को लेने से बहुसंख्यक आबादी को रोका गया.

जब भारत की संस्कृति इतनी महान थी तो अब क्या हो गया? शायद ये सब सोचने का अब आप के पास टाइम ही नहीं है क्योंकि अपना कीमती समय तो आप को सोशल मीडिया पर खर्च करना है, तो फिर इन सरकारों को ही क्या पड़ी है कि आप की शिक्षा के लिए अपना बजट बढ़ाएं. सच तो यही है कि सारी गलती सरकार की भी नहीं है जब युवा ही उस से सवाल नहीं करेंगे तो उसे ही क्या पड़ी है सोचने की.

आज यूनिवर्सिटी में छात्र अपनी आवाज नहीं उठा पा रहे हैं. नीट, नेट में धांधली के उदाहरण हमारे सामने हैं. यह सिस्टम किस तरह के डाक्टर बना रही है. हमारी शिक्षा धर्म के आधार पर बंटी है. मंदिरों और मदरसों में स्कूल खुले हैं. प्राचीन भारत में विदेशों से छात्र भारत पढ़ने आते थे. तक्षशिला, पाटलीपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर, काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रमुख वैश्विक केंद्र थे जहां विभिन्न देशों से छात्र पढ़ने आते थे.

क्या भारत में शिक्षा व्यवस्था में सुधार कर फिर से विदेशों को भारत में शिक्षा लेने के लिए आकर्षित नहीं किया जाना चाहिए?

हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन करने होंगे. जो देश ढोल पीटता है कि हमारे पास गुरुकुल है, हमारी परंपरा थी, उसी परंपरा वाले देश में लिटरेसी रेट इतना कम क्यों है?

जहां पहले बाहर के छात्र हमारे यहां पढ़ने आते थे वहीं अब हमारे देश के छात्र बाहर पढ़ने जा रहे हैं. डाक्टर बनने के लिए रशिया, यूक्रेन, कजाकिस्तान जा रहे हैं. एमबीए के लिए अमेरिका जा रहे हैं. इस का बड़ा कारण यह है कि यहां शिक्षण संस्थानों की मोटीमोटी फीस देना हर किसी के लिए संभव नहीं है, इसलिए वे अपने देश में पढ़ने के बजाय बाहर जा कर कम कीमत में पढ़ाई कर आते हैं और फिर वहीं मोटी तनख्वाहें पा कर जौब भी करते हैं, क्योंकि अपने देश में तो उन्हें पढ़लिख कर भी नौकरी नहीं मिलती.

युवा सोशल मीडिया पर मस्त

युवाओं को चाहिए कि वे इन बातों पर अपने एजुकेशन सिस्टम और एजुकेशन बजट से जुड़े सवाल सरकार से पूछें कि वह अपने देश के युवाओं के लिए क्या कर रही है? लेकिन युवा सोशल मीडिया पर मस्त हैं. रील्स देख रहे हैं?

भारत में रोजाना औसतन 4 घंटे 40 मिनट सोशल मीडिया पर यूजर्स समय बिताते हैं और इंस्टाग्राम पर एक आम यूजर दिन में 20 बार आता है. रिसर्च फर्म ‘रेडसियर’ के मुताबिक, इंडियन यूजर्स हर दिन औसतन 7.3 घंटे अपने स्मार्टफोन पर नजरें गड़ाए रहते हैं. सिर्फ यही नहीं, एक भारतीय कम से कम 11 सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर मौजूद है. अब आप खुद ही सोचिए कि इतने सारे प्लेटफौर्म पर टाइम बिताने में कितना समय बरबाद होगा. कुछ आंकड़े बताते हैं कि स्मार्टफोन यूजर्स एक दिन में 120 से अधिक बार अपना फोन औनऔफ करता है.

युवा सोशल मीडिया पर मस्त है तो सरकार को जो करना है वह भी अपनी मनमानी कर के मस्त है. अब यह सोचना युवाओं को है कि वे जो खुद को देश का भविष्य बताते हैं, वे भविष्य व देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं.

इनफ्लूएंसर्स के नकली औनलाइन झगड़े और टाइमपास करते खलिहर युवा

संदीप महेश्वरी और विवेक बिंद्रा में झगड़ा क्यों हुआ ? विवेक बिंद्रा की पत्नी ने क्यों उस पर एफआईआर दर्ज कराई ? एजाज खान ने दिल्ली के राजवीर सिसोदिया को अपहरण की धमकी क्यों दी ? एजाज खान ने कैरी मिनाटी का मास्क क्यों उतारा ? एल्विश यादव व लवकेश कटारिया एजाज खान से क्यों झगड़े ? रजत दलाल और मैक्सटर्न का मसला क्या है? दीपक कलाल और जोगिंदर सिंह आपस में क्यों झगड़ रहे हैं?

दरअसल ये सोशल मीडिया के वो नकली झगड़े हैं जिस से युवाओं का समय खराब हो रहा है. इस के पीछे की वजहें क्या हैं ?

कुछ साल पहले की बात है. मेले और बाजारों में बंदर के खेल, सांप और नेवले की लड़ाई दिखाने वाले मदारी आते थे. इन की खास बात यह होती थी कि देखने वालों की भीड़ जुटाने के लिए इधरउधर की कहानी सुनाते रहते थे. भीड़ इंतजार करती रह जाती थी पर वह सांप और नेवले की लड़ाई नहीं दिखाते थे. सोशल मीडिया पर भी इस तरह का रिवाज चलता है. कई बार थंबनेल पर जो लिखा जाता है वह वीडियो में दिखाया नहीं जाता है, या बहुत कम समय में दिखा कर वीडियो खत्म कर दिया जाता है.

जिस तरह से मदारी के लिए भीड़ जुटानी जरूरी होती है. वह सांप नेवले की नकली लड़ाई दिखाने के बहाने तमाम लोगों को जुटाता है वैसे ही सोशल मीडिया पर इनफ्लूएंसर्स अपने नकली झगड़े दिखाने का काम करते हैं. यही नहीं चुनाव प्रचार के दौरान नेता भी एकदूसरे के आमनेसामने बहस के लिए चुनौती देने का काम करते हैं. इन सब का उद्देश्य केवल लोगों को अपने से जोड़ने का होता है. सोशल मीडिया पर अपनी कीमत बढ़ाने के लिए फौलोवर्स चाहिए होते हैं जैसे मदारी को खेल दिखाने के लिए भीड़ चाहिए होती है.

सोशल मीडिया पर ऐसे ही खलिहर युवाओं की भीड़ रहती है जो इस तरह के नकली झगड़ों को देखने के लिए उमड़ पड़ती है. भीड़ जुटाने की यह ट्रिक सदियों पुरानी है. सोशल मीडिया के इस दौर में यह नए रंग रोगन के सहारे पेश की जाती है. राखी सावंत ने इस तरह के झगड़े और आरोप लगा कर अपने को सोशल मीडिया पर सक्रिय रखा. यूट्यूबर और मोटिवेशनल स्पीकर संदीप माहेश्वरी और विवेक बिंद्रा के बीच की जंग कुछ इसी तरह की थी. दोनों ही एकदूसरे से खुद को बड़ा दिखाने की होड़ में लड़ रहे थे.

विवेक बिंद्रा और संदीप महेश्वरी का झगड़ा

विवेक बिंद्रा पारिवारिक कारणों से भी चर्चा में रहा है. विवेक बिंद्रा की दूसरी पत्नी यानिका ने उस पर घरेलू हिंसा के मामले में रिपोर्ट दर्ज कराई थी. जिस कारण से वह चर्चा रहा. संदीप माहेश्वरी और विवेक बिंद्रा के बीच विवाद की शुरुआत एक वीडियो से हुई थी. इस के बाद मोटिवेशनल स्पीकर खुल कर यूट्यूब पर एकदूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगे. इस पूरे मामले की शुरुआत 11 दिसंबर 2023 को हुई, जब संदीप महेश्वरी ने अपने चैनल पर एक वीडियो शेयर किया था, जिस में 3 लड़कों ने बताया था कि उन्होंने एक कोर्स के लिए 50,000 रुपए खर्च किए थे, जिसे लेने के बाद उन्हें जब उस का फायदा नहीं हुआ. तो उन्होंने मनीबैक गारंटी वाले समय रहते उस कोर्स के लिए दी गई अपनी राशि को वापस मांगने के लिए कंपनी से संपर्क किया, मगर उन की कंपनी ने कोई रेस्पोंड नहीं किया. साथ ही ऐसी कहानी केवल तीन लोगों की ही नहीं है. बल्कि देश में ऐसे कई और केसेज हैं. जो इसी समस्या से परेशान हैं. संदीप महेश्वरी से हुई इस बातचीत के दौरान इस कोर्स को करने वाले लड़कों ने खुल कर अपनी बात रखी. इस के बाद जब माहेश्वरी को इस कोर्स की फीस और उस के फायदे के बारे में पता चला, तो उस ने इसे घोटाला बताया.

संदीप का यह वीडियो देखते ही देखते वायरल होने लगा. साथ ही जो लोग इस बात से जुड़ाव या ठगा महसूस कर रहे थे. उन सभी लोगों ने इस वीडियो के रिस्पोंड में अपनी भी वीडियो बनाना शुरू कर दी. जिस का परिणाम यह हुआ कि यह हैशटैग ट्रेंड करने लगा और पूरी यूट्यूब कम्युनिटी दो खेमों में बंट गई. एक वो लोग जो संदीप को सपोर्ट करने लगे और एक वो जो विवेक को, वहीं तीसरी कैटेगरी उन लोगों की है जिन्हें इस बारे में या तो कुछ भी पता नहीं है, या आधीअधूरी जानकारी है.

पब्लिसिटी बढ़ाने का शौर्टकट तरीका

कुछ ही दिनों के बाद यह झगड़ा सोशल मीडिया से खो गया. अब इस की कोई चर्चा नहीं करता है. झगड़ों के जरिए टीआरपी बढ़ाने में टीवी शो भी आगे रहते हैं. बिग बौस, राखी का स्वंयवर जैसे कई कार्यक्रम इस के लिए ही याद किए जाते हैं. टीवी शो से पहले फिल्मों को इसी तरह से हिट कराया जाता था. एंग्री यंगमैन बन कर ही अमिताभ बच्चन ने अपने पैर फिल्मों में जमाए थे. ‘शोले’ जैसी फिल्में जो डकैती पर बनीं व चलीं. आज के दौर में एक्शन फिल्मों की लोकप्रियता खूब है. ऐसे में सोशल मीडिया में इनफ्लूएंसर्स भी नकली झगड़े कर के फेमस होना चाहते हैं.

एल्विश यादव का नाम भी ऐसे ही इनफ्लूएंसर्स में एक है. बिग बौस से फेमस होने के बाद उस का नाम नशे के अपराध में सामने आया. उस के भी झगड़े खूब होते रहते हैं. फिल्म एक्टर और इनफ्लूएंसर एजाज खान ने कहा कि अगर कोई उन के खिलाफ वीडियो बनाता हुआ पाया गया तो वह यूट्यूबर्स को दिल्ली से किडनैप कर मुंबई ले जाएंगे. यूट्यूबर राजवीर सिसोदिया ने एजाज खान को चैलेंज किया कि वह उन्हें किडनैप कर के मुंबई ले जाएं. उन्होंने वीडियो में एजाज खान का मजाक भी उड़ाया और उन्हें गालियां भी दीं.

राजवीर सिसोदिया फिटनेस इन्फ्लुएंसर है. वह दिल्ली के रहने वाला है. धमकी देने के बाद अभिनेता एजाज खान के साथ एक और झगड़ा हो गया. राजवीर सिसोदिया ने पहले रजत दलाल के खिलाफ सोशल मीडिया पर लड़ाई लड़ी थी. एक वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर शेयर किया जिस में वह एजाज खान को गाली देते और चुनौती देते नजर आए थे. इस से पहले एजाज खान का एक वीडियो वायरल हुआ था जिस में वह एक्टर के खिलाफ रोस्ट वीडियो बनाने वाले कैरी मिनाटी से भिड़ गए थे.

एजाज खान ने कैरी मिनाटी को एक मौल में रोका और उस का मास्क उतार दिया. एजाज खान ने बाद में यूट्यूबर को धमकाया और उस के फैन्स व उस पर रोस्ट वीडियो बनाने के लिए माफी मांगने को कहा. कैरी मिनाटी ने एजाज खान और उस के फैन्स से माफी मांगी और यह भी कहा कि वह भविष्य में ऐसा नहीं दोहराएगा. यह सारा स्क्रिप्टेड था.

एजाज खान ने इस के बाद एक और वीडियो बनाया जिस में उस ने दावा किया कि एल्विश यादव और लवकेश कटारिया के फौलोअर्स उसे कैरी मिनाटी के खिलाफ उस के कामों के लिए ट्रोल कर रहे हैं. एजाज खान ने वायरल वीडियो में एल्विश यादव और लव कटारिया को धमकाया और दिल्ली के सभी यूट्यूबर्स को उस के खिलाफ कोई वीडियो न बनाने की चेतावनी भी दी.

एजाज खान ने यह भी दावा किया है कि बिग बौस ओटीटी 3 के कंटेस्टेंट लवकेश कटारिया और बिग बौस ओटीटी 2 के विनर एल्विश यादव के फौलोअर्स पिछले कुछ दिनों से उन्हें गाली दे रहे हैं. उस ने उसे चुनौती दी है कि वे मुंबई आ जाए, नहीं तो उसे सबक सिखाने के लिए दिल्ली एनसीआर से मुंबई ले आएंगे. राजवीर सिसोदिया ने एक वीडियो बना कर एजाज खान को चैलेंज किया कि वह हरियाणा या उत्तर प्रदेश में आ कर उस का अपहरण कर ले. एजाज खान को गाली देते राजवीर ने कहा कि भूत भी हरियाणा और उत्तर प्रदेश में आने से डरते हैं. यहीं नहीं हाल में हर्ष बेनीवाल व पूरव झा के साथ एजाज का झगड़ा हो गया.

खलिहर युवा जिम्मेदार

अब व्यूअर्स को यह समझने की जरूरत है कि जिस नकली लड़ाई को देखने के लिए वह अपना पैसा और समय बरबाद कर रहे हैं वह पूरी तरह से नकली होती है. इस के जिम्मेदार वे युवा हैं जो इस को देखते हैं और टाइमपास करते हैं. फिल्म, टीवी शो या सोशल मीडिया के कंटेंट को बनाने वाले से अधिक देखने वाला जिम्मेदार होता है. जिस तरह के कंटेंट देखे जाएंगे पंसद किए जाएंगे उस तरह के ही कंटेंट बनाए जाएंगे. अब जिम्मेदारी देखने वालों की है. युवाओं को अपनी पढ़ाई, कैरियर पर ध्यान देना चाहिए.

अभी भी पत्र, पत्रिकाएं, अखबार, नौवेल और बहुत सारा साहित्य भरा पड़ा है. जिस को पढ़ने से न केवल अच्छी जानकारी मिलेगी बल्कि युवाओं के कैरियर को भी बढ़ाने में मदद मिलेगी. सोशल मीडिया पर झगड़ा करने वालों के पास कंटेंट की कमी होती है तभी ये इस तरफ बेवकूफ बना रहे होते हैं, जिस से उन को लाभ हो. नकली झगड़े देख कर इन्फ्लुएंसर्स के फौलोवर्स बनने से कोई लाभ नहीं होने वाला है. यह केवल अपनी पब्लिसिटी बढ़ाने का एक तरीका मात्र है जो पूरी तरह से युवाओं के समय को खराब करने वाला है.

संयुक्त परिवार में दम तोड़ती ख्वाहिशें

लेखिका – राजश्री राठी

वर्तमान युग में लड़कालड़की को बचपन से ही एक समान परवरिश मिल रही है. समय के साथसाथ सोच बदलते गई और आज लड़कियां पढ़लिख कर इस‌ मुकाम पर पहुंच गई हैं, जहां वह अपनी काबिलियत से अपनी अलग पहचान बनाते हुए आत्मनिर्भर बन गई. पुरातन काल में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए महिलाएं घरपरिवार पर निर्भर रहती थीं. बचपन से कुछ बंदिशें रहती जिस के चलते उन्हें मजबूरी में शोषण का शिकार होना पड़ता था. अधिकांश संयुक्त परिवारों में पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते महिलाओं की भीतर छूपी कला पर, उन की प्रतिभा पर धूल की परत जमते हुए देखा है और उन की इच्छाएं दम तोड़ देती हैं, वहीं विभक्त परिवारों में अरमानों के आशियां को संवरते हुए देखा है, जिंदगी को मुसकराते हुए देखा है.

राशी बचपन से ही मेधावी सर्वगुण संपन्न थी, दिखने में भी नाजुक सी, पिता ने संपन्न संयुक्त परिवार में यह सोच कर शादी कर दी की वहां उन की बेटी को किसी तरह का अभाव नहीं रहेगा और बड़ों की छत्रछाया में वो सुरक्षित रहेगी किंतु वास्तविकता कुछ और ही थी. पारिवारिक सदस्य अत्याधिक पुरानी सोच वाले कंजूस थे. सारा दिन घर के कामों में ही समय बीत जाता. उस के जीवनसाथी का व्यवसाय अच्छा था पर पूरी कमाई उन्हें अपने पिता को सौंपनी पड़ती जिस के चलते उस की निजी आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो पाती. पारिवारिक वातावरण का उन के निजी संबंधों पर गहरा असर हुआ और इसी कारण वह अवसाद का शिकार हुई.

महत्वाकांक्षी अनन्या कुशाग्र बुद्धि की स्वामिनी थी. भरा पूरा परिवार किसी चीज का अभाव नहीं था. नौकरचाकर की कहीं कोई कमी नहीं थी. समस्या यह थी रोजाना ही घर में आनेजाने वालों का ताता लगा रहता जिस के चलते वह अपने बच्चों को समय नहीं दे पाती. सुखसुविधा के चलते बच्चों में परिश्रम करने की आदत नहीं लग पाई. पढ़ाई में हमेशा ही वह पीछे रहे और बच्चे सभी तरह की गलत आदतों के शिकार हुए. जिस परिवार में उसे अपने समय की आहुति देनी पड़ी आज उसी परिवार के सदस्य उस के बच्चों पर उंगलियां उठाने लगे. समय हाथ से निकल गया और वह मन मसोस कर रह गई कि काश वह अलग रहती तो आज बच्चों का भविष्य कुछ और ही होता.

35 वर्षीय राजवीर की पत्नी स्वधा विभक्त परिवार से आई थी विवाह के 7 वर्ष हो चुके थे पर वह संयुक्त परिवार में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाई. दादादादी अकसर राजवीर के पास उस के पत्नी की शिकायतों का पिटारा खोल देते. उन्हें उस के रहनसहन से ले कर बोलचाल तक हर बात में आपत्ति थी. इधर स्वधा हमेशा ही परिवार का तिरस्कार करते हुए नजर आती और अपने किस्मत को कोसती. कई बार जान‌ देने की धमकी तक देती. सब से परेशान हो कर राजवीर एक दिन गुस्से में घर से निकला जो आज तक नहीं लौटा पारिवारिक सदस्यों को नहीं पता वह जिंदा है या मृत.

मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत अक्षदा ने यह सोच कर अमय से विवाह किया की वह पढ़ालिखा है और पढ़ाई की महत्ता को समझता है इसलिए संयुक्त परिवार में रहने के बावजूद भी उस ने इस विवाह के लिए स्वीकृति दे दी. किंतु यहां आने पर पारिवारिक सदस्यों द्वारा उस से ढेरों अपेक्षाएं रखी गईं. वह घर में आदर्श बहू भी बने और पैसा भी कमाए, जबकि अमय को सभी सुखसुविधाओं में रखा जाता. इस तरह का भेदभाव अक्षदा सहन नहीं कर पाई और न ही अमय ने परिवार का विरोध किया. जब कि घरेलू कामकाज नौकरोंचाकरों की सहायता से भी हो सकते थे. आखिर सब से तंग आ कर अक्षदा ने तलाक के लिए अर्जी दे दी.

माधव का फ्रैंड सर्कल बहुत बड़ा है और आएदिन सभी किसी न किसी बहाने उन्हें घर बुलाते रहते हैं. चूंकि सभी विभक्त परिवार में रहते हैं तो उन्हें स्वतंत्रता रहती है हम उम्र साथियों के साथ हंसीमजाक करने की. कपल गेम का सभी आनंद लेते हैं किंतु माधव अपने घर किसी को बुला नहीं पाता, कभी कोई आयोजन कर भी ले तो बड़े लोग वहीं जमे रहते हैं जिस से आनेवाले असुविधा महसूस करते हैं और वह पतिपत्नी भी आयोजन का लुत्फ नहीं उठा पाते. इस बात को ले कर दोनों में तूतूमैंमैं होते रहती है.

सुख का आशियां इच्छाओं को अनंत आकाश

स्वयं को निखारने के मिलते अवसर

विभक्त परिवारों में महिलाओं को अपने भीतर छिपी कला को उजागर करने के स्वच्छंद जीवनयापन करने के अवसर आसानी से मिल जाते हैं. घरेलू कामकाज में अपना कीमती समय गंवाने से बेहतर वह आय के नएनए स्त्रोत खोजती हैं और उन्हें अंजाम भी देती हैं. घरेलू कामकाज हेल्पर की सहायता से आसानी से हो ही जाते हैं. परिवार में दोतीन सदस्य रहते हैं सभी एकदूसरे की व्यस्तता और रूचि को समझते हैं, अनावश्यक रूप से कोई भी किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते.

कला के अनेक पर्याय हैं, विभक्त परिवारों में सीमित कामकाज रहने से महिलाओं को अपनी रूचि को विकसित करने का पर्याप्त समय और सुविधाएं आसानी से मिल जाती है और जब हम अपनी रूचि को अंजाम देते हुए आगे बढ़ते हैं तो आत्मसंतुष्टि के साथ ही अपनी अलग पहचान बनती है जिस से असीमित खुशी मिलती है.

मानसिक संतुष्टि

आज की उच्च शिक्षित लड़कियां अच्छे पैकेज के साथ जौब कर रही हैं, औफिस में उन्हें काफी जिम्मेदारी से अपने कार्यों को अंजाम देना पड़ता है किंतु बदले में लाखों रुपए मिलने से उन्हें उन कार्यों को करने में अधिक थकान महसूस नहीं होती. मेहनत और जोश से आगे बढ़ते हुए उन की पदोन्नति भी होते रहती है. अपने हक का पैसा अपने पास रहने से उन्हें अपनी इच्छाओं को पूरा करने की भी आजादी रहती है. अधिकांश खुशियों का पूरा होना रुपयों पर भी निर्भर करता है. जो महिलाएं आत्मनिर्भर हैं वह अपने भविष्य की योजनाओं के प्रति भी सजग रहती हैं, जिस के चलते वह मानसिक रूप से स्वस्थ व खुश दिखाई देती हैं.

मन को लुभाती आजादी

आज के युग में छोटेछोटे बच्चों को भी रोकटोक पसंद नहीं. हर कोई अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से अपने अरमानों को पूरा करते हुए बिताना चाहता है. संयुक्त परिवार में पारिवारिक सदस्यों द्वारा अलगअलग तरीके से दबाव बना रहता है, साथ ही मेहमानों की आवाजाही लगी रहती है. जिस के कारण खुल कर जीने के मार्ग नहीं मिलते. मन की कुंठा अनेक बिमारियों को न्यौता देती है. कार्यभार चाहे जितना भी रहे किंतु उसे अपने हिसाब से अंजाम देने में सुकून मिलता है. किसी के दबाव में आ कर काम करते समय तनाव तो महसूस होता है. आजादी विकास की अनेक राहों को प्रशस्त करती है.

खुशी के अनेक पर्याय उपलब्ध

रोजमर्रा की दिनचर्या से कई बार बोरियत महसूस होने लगती है. हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ नयापन लाना चाहता है. समयसमय पर कुछ बदलाव से तनमन के भीतर ऊर्जा भर जाती है, जिस से हम तरोताजा महसूस करते हैं. विभक्त परिवार में छूट्टी मिलते ही बड़ी आसानी से घूमनेफिरने के प्रोग्राम बना लिए जाते हैं, प्रकृति के सानिध्य में बिताए खुबसूरत लम्हें मनमस्तिष्क को तो प्रसन्न करते ही हैं साथ ही हम नए उत्साह से काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं. आपसी हम उम्र साथियों के साथ मेलजोल होते रहता है. हम जब चाहे जैसे चाहे घर में अपने परिजनों या साथियों को बुला कर पार्टियों का लुत्फ उठा सकते हैं, जिस में किसी तरह की कोई समस्या नहीं होती. न ही किसी से इजाजत लेने की आवश्यकता रहती है. इसी तरह विभक्त परिवार में खुशियों के अनेक द्वार खुले रहते हैं.

परस्पर संबंधों में मजबूती

कई बार अन्य पारिवारिक सदस्यों के कारण दाम्पत्य जीवन प्रभावित होता है. विभक्त परिवार में पतिपत्नी दोनों के ही रहने से वे एकदूसरे को भरपूर समय दे सकते हैं, आपसी भावनाओं को तवज्जो दिया जाता है, साथ ही अंतरंगी संबंध सुदृढ़ रहते हैं. बच्चों को भी स्वावलंबी बनाने में आसानी होती है, वे अनुशासन में रहना सीखते हैं. मातापिता बच्चे को पर्याप्त समय दे सकते हैं उस के पढ़ाईलिखाई पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्य गतिविधियों में भी ऐसे बच्चे आगे रहते हैं क्योंकि अभिभावकों का पूरा ध्यान उन पर रहता है.

अनावश्यक व्यय से बचाव

विभक्त परिवार में एक महिला के हाथों घर की बागडोर रहती है जिस से उसे खानपान से ले कर हर आवश्यक वस्तुएं कितनी लगनेवाली है इस का अनुमान रहता है, जिस कारण अनावश्यक रूप से व्यय की संभावना नहीं रहती. साथ ही महिलाओं में यह आदत होती वह अपनी व्यक्तिगत पूंजी या अन्य वस्तुओं को बहुत संभाल कर रखती है. संयुक्त परिवारों में वस्तु घर में सभी सदस्यों की होती है इसलिए उसे हिफाजत से रखने का दायित्व किसी एक का नहीं होता तो लापरवाही बरती जाती है. किचन में खाद्य सामग्री का अनुमान लगाना मुश्किल रहता है ऐसे में अन्न की बरबादी भी बहुत होती है और अनावश्यक व्यय भी बढ़ता है.

वक्त का भरोसा नहीं इसीलिए छोटी सी जिंदगी को हर कोई जिंदादिली से जीने की तमन्ना रखता है. आज स्पर्धा के युग में वैसे ही अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है कोई आर्थिक स्थिति को ले कर तो कोई शारीरिक समस्याओं के कारण परेशान रहते हैं. फिर ऐसे हालात में पारिवारिक सदस्यों द्वारा मिलने वाला मानसिक दबाव, तनाव का मुख्य कारण बन जाता है जो प्रगति की राह में बाधा उत्पन्न करने के साथ ही मानसिक विकार का कारण भी बन जाता है. इसीलिए छोटा परिवार सुखी परिवार रहता है.

प्रचारतंत्र के दौर में इन्फ्लुएंसर्स के सहारे सरकारें

राजनीतिक पार्टियां अब अपने पक्ष में पब्लिक ओपिनियन या जनमत बनाने में इन्फ्लुएंसर्स की मदद लेने लगी हैं और जब वे जीत कर सरकार बना रही हैं तो इन्हीं इन्फ्लुएंसर्स के प्रचारभरोसे काम चला रही हैं. सरकारें अब अपने निकम्मे कर्मचारियों पर भरोसा नहीं कर रही हैं, जो प्रचार करने तक का काम ढंग से नहीं कर सकते, जिस के लिए मोटीमोटी तनख्वाहें ये सरकार से ले रहे हैं.

आज ये सरकारी कर्मचारी सरकार को इन्फ्लुएंसर्स के भरोसे बैठने की सलाह देते नजर आते हैं. वो इन्फ्लुएंसर्स जिन की रीड़ की हड्डी ही नहीं है, जो किसी संवैधानिक जिम्मेदारी से नहीं बंधे हैं, जो कुछ भी कर सकते हैं. ये इन्फ्लुएंसर्स किसी योजना के तहत ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का प्रचार करते दिखेंगे जबकि अगले ही दिन शराब पी कर लड़की को छेड़ते भी दिखाई दे सकते हैं. किसी दिन सरकारी रोड सेफ्टी विज्ञापन में दिखाई दे सकते हैं तो अगले ही दिन रैश ड्राइविंग करते भी दिखाई दे सकते हैं.

पहले जैसे वोट पाने के लिए आसाराम, राम रहीम और रामपाल जैसे बाबाओं के कार्यक्रमों में नेता जाते थे वैसे ही अब इन्फ्लुएंसर्स के फौलोअर्स के वोट लेने के लिए इन के चैनल पर जाते हैं. सच तो यह है कि अब आईटी सैल के बाद आप आने वाले वर्षों में पार्टियों के भीतर ‘इंफ्लुएंसर सैल’ देख सकते हैं.

हालांकि सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर इन्फ्लुएंसर्स के जरिए प्रचार करवाना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकारें खुद जनता के बीच जा कर अपने किए कामों व अपनी योजनाओं का बखान नहीं कर सकतीं? सवाल यह कि क्या मोदीजी की ‘अपने मन की बात’ जनता पचा नहीं पा रही है? क्या प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के सरकारी भाषण उबाऊ होने लगे हैं? उस से बड़ी बात कि आम जनता को अपने नेताओं से जुड़ाव के लिए क्या इन इन्फ्लुएंसर्स का मुंह ताकना पड़ेगा?

ये सभी बातें हमारे नेताओं की काबिलीयत पर भी सवाल उठाती हैं कि वे जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं और उन्हीं से डायरैक्ट जुड़ने के लिए उन्हें किसी तीसरे के सहारे की जरूरत पड़ गई है.

यूपी सरकार की डिजिटल मीडिया स्कीम

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार की ओर से राज्य में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के लिए नई योजना लौंच की गई है. इस के तहत सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स फेसबुक, इंस्टाग्राम, एक्स एवं यूट्यूब पर सरकारी योजनाओं और उपलब्धियों का प्रचारप्रसार करने पर इन्फ्लुएंसर्स को फौलोअर्स के अनुसार 2 लाख से 8 लाख रुपए प्रतिमाह तक नकद भुगतान किया जाएगा.

सरकार द्वारा जारी की गई नीति के अनुसार, सूचीबद्ध होने के लिए एक्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम और यू-ट्यूब में से प्रत्येक को सब्सक्राइबर व फौलोअर्स के आधार पर 4 स्लैब में बांटा गया है. एक्स, फेसबुक व इंस्टाग्राम के अकाउंट होल्डर, इन्फ्लुएंसर (प्रभाव रखने वाले) को भुगतान के लिए श्रेणीवार अधिकतम सीमा क्रमशः 5 लाख, 4 लाख, 3 लाख और 3 लाख रुपए प्रतिमाह निर्धारित की गई है. यूट्यूब पर वीडियो, शौर्ट्स, पोडकास्ट भुगतान के लिए अधिकतम सीमा क्रमशः 8 लाख, 7 लाख, 6 लाख और 4 लाख प्रतिमाह निर्धारित की गई है.

योगी सरकार का कहना है कि अपनी जनकल्याणकारी, लाभकारी योजनाओं और उपलब्धियों की जानकारी जनता तक पहुंचाने के लिए वह यह नीति ले कर आई है. इस के तहत अलगअलग सोशल मीडिया प्लेटफौर्म एक्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर प्रदेश सरकार की योजनाओं व उपलब्धियों पर आधारित कंटैंट, वीडियो, ट्वीट, पोस्ट और रील को शेयर करने पर उन्हें विज्ञापन दे कर प्रोत्साहित किया जाएगा.

यानी, योगी सरकार का जितना अधिक महिमामंडन ये इन्फ्लुएंसर्स करेंगे, इन्हें उतना ही अधिक लाभ होगा. दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार ऐसे इन्फ्लुएंसर्स खड़े करना चाहती है जो इन की तारीफ करें, चापलूस बनें और युवाओं की समस्याओं पर गलती से भी कभी न बोलें क्योंकि इन का मुंह तो डायरैक्ट पैसों से बंद किया जा रहा है.

अन्य राज्यों में भी

कर्नाटक सरकार ने भी अपनी योजनाओं को प्रमोट करने के लिए इंफ्लुएंसर्स को पैसा देने की बात कही है. इस काम के लिए उन इंफ्लुएंसर्स को चुनने की बात है जिन के एक लाख से ज्यादा फौलोअर्स हैं.

यही नहीं, कर्नाटक की महिला एवं बाल कल्याण मंत्री लक्ष्मी हेब्बालकर ने गृहलक्ष्मी योजना को ले कर ऐलान किया कि जो लाभार्थी सोशल मीडिया पर इस योजना के तहत मिले लाभ की रील बनाएगा तो उसे व्यूज के आधार पर उसे प्राइस मनी दी जाएगी.

पिछले साल राजस्थान सरकार ने भी सरकारी योजनाओं के प्रचारप्रसार के लिए इन्फ्लुएंसर्स के लिए भी विज्ञापन के दरवाजे खोले थे. ऐसे ही बिहार में भी इन्फ्लुएंसर्स के लिए अवार्ड वितरण जैसे कार्यक्रम चलाए गए.

कैसे होती है इन्फ्लुएंसर्स की कमाई

फौलोअर्स या सब्‍सक्राइबर्स की 4 श्रेणियां होती हैं, जैसे कि न्‍यूनतम 10 लाख पर अधिकतम 5 लाख का विज्ञापन हर माह, 5 लाख पर 2 लाख का विज्ञापन, 1 लाख पर 50 हजार का विज्ञापन, 10 हजार पर 10 हजार का विज्ञापन.

इन में भी कई कैटेगिरी होती हैं. श्रेणी ए, बी, सी, डी एक रील या पोस्‍ट के 1,000 से ले कर 10,000 रुपए तक मिलते हैं. रील न्‍यूनतम 10 सैकंड और पोस्‍ट 3 फोटो या 3 वीडियो के साथ.

श्रेणी ए, बी, सी, डी के लिए इंस्टाग्राम पर भी कैटेगरी के अनुसार लगभग 1,000 से ले कर 10,000 रुपए तक मिलता है. यह राशि एक ट्वीट या वीडियो के लिए होती है. अब आप सोचिए कि ये लोग इस से कितना कमा रहे हैं. इस में सरकार और इंफ्लुएंसर्स दोनों का ही लाभ है. फौलोअर्स, सब्सक्राइबर्स या व्यूअर्स तो इस में कहीं हैं ही नहीं, वे बस इन के मोहरे बनने में ही योगदान देते हैं.

कैसे काम करते हैं ये इन्फ्लुएंसर्स

आज के समय में लगभग हरकोई सोशल मीडिया पर जुड़ा हुआ है और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स सीधे मतदाताओं से जुड़े हुए हैं. फिर चाहे उन का कंटैंट जैसा भी हो पर लोग इन्हीं इन्फ्लुएंसर्स को देख रहे हैं. राजनीतिक दल चाहते हैं इन इन्फ्लुएंसर्स के चैनलों का फायदा उठा लिया जाए. इस के लिए नैनो या माइक्रो-इन्फ्लुएंसर्स से स्थानीय स्तरों पर जुड़ते हैं, जबकि मैक्रो और मेगा-इन्फ्लुएंसर्स से व्यापक दर्शकों तक अपना प्रचारप्रसार करने की कोशिश करते हैं.

सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की मांग बहुत बढ़ गई है और देश की 69 करोड़ से ज्यादा औनलाइन आबादी को इन के माध्यम से साधने का प्रयास किया जा रहा है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पार्टी की सफलता में इन इन्फ्लुएंसर्स की भूमिका को पहचानते हुए इन से और काम लेना शुरू कर दिया है. कुछ समय पहले प्रधानमंत्री मोदी ने 23 इन्फ्लुएंसर्स को ‘नैशनल क्रिएटर अवार्ड’ से सम्मानित किया. जिन में अमन गुप्ताल, पियूष पुरोहित, अंकित बेयानपुरिया, नमन देशमुख, कविता सिंह, आर जे रौनक, रणबीर अलाहबादिया, अभी और नियु इत्यादि थे.

इन में वे इन्फ्लुएंसर्स नदारद थे जो सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं. यानी, अपने पक्ष के इन्फ्लुएंसर्स को सरकार ने सम्मानित किया. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने तो इन्फ्लुएंसर एल्विश यादव को युवाओं का इंस्पिरेशन तक कह डाला. जबकि एल्विश यादव गुंडागर्दी, गालीगलौच, ईव टीजर और नफरत फैलाने वाले इन्फ्लुएंसरों में गिना जाता है.

ऐसे ही भाजपा की उत्तर प्रदेश इकाई के उपाध्यक्ष ने एक आउटरीच कार्यकर्म (संपर्क से समर्थन अभियान) के तहत अमित भड़ाना से मुलाकात की थी. तब से ही उस के और भाजपा के साथ को हरी झंडी दिखाई जा रही है. हालांकि आधिकारिक तौर पर अभी ऐसा कहना मुश्किल है. दरअसल, यूट्यूब पर अमित भडाना ने अपने नाम से ही एक ट्यूब चैनल शुरू किया है. इस पर उस के करीब 2.37 करोड़ सब्सक्राइबर हैं. अमित भडाना दिल्ली का रहने वाला है और उस ने कानून की पढ़ाई की है. इसी तरह ध्रुव राठी के ‘अभी और नियु’ को भी रजनीतिक पार्टियों से जोड़ कर देखा जाता है.
इस के आलावा भी बहुत से हास्य कलाकार, भजन गायक अनिल नागोरी, मारवाड़ी नृत्यांगना शांति चौधरी आदि के नाम भी आ रहे हैं. अब आप खुद ही समझ सकते हैं कि कैसे नेता, सरकार और पार्टियां इन लोगों से काम ले रही हैं.

सोशल मीडिया के राजनीतिकरण के नकारात्मक प्रभाव

ये इन्फ्लुएंसर्स पढ़ेलिखे नहीं हैं. सहीगलत का अंतर नहीं समझते. जो बातें सरकार ने कहीं, वे इसे ही सही समझ कर प्रचार करने में लग जाते हैं. इस वजह से युवाओं तक सही जानकारी नहीं पहुंचती. कई बार तो बताना कुछ और होता है और ये बता कुछ और ही जाते हैं. इस का सब से बड़ा कारण है जानकारी का अभाव. जब इन्हें खुद ही कुछ नहीं पता तो ये आप को क्या समझाएंगे.

सरकार इन्हें समयसमय पर अवार्ड दे कर सम्मानित करती है, इसलिए ये सरकार की चाटुकारिता करते हैं और युवा अंधे बन कर इन्हीं के दिखाए रस्ते पर चल पड़ते हैं.

राजनीतिक प्रबंधन सलाहकार फर्म के सहसंस्थापक विनय देशपांडे कहते हैं, “यह एक पेशा बन गया है. मैं ऐसे किशोरों को जानता हूं जो जेबखर्च कमाने के लिए अंशकालिक रूप से यह काम कर रहे हैं.” वहीं यूट्यूबर समदीश भाटिया ने खुलासा किया कि कई राजनेताओं ने उन से संपर्क किया है, खासतौर पर इस चुनाव से पहले के महीनों में और उन्हें इंटरव्यू के लिए लाखों रुपए की पेशकश की है.

समदीश भाटिया ने कहा, “वे चाहते थे कि मैं पहले से ही सवाल साझा करूं या वीडियो को प्रकाशित होने से पहले मंजूरी दिलवा दूं.” समदीश कहते हैं उन्हें संपादकीय नियंत्रण बनाए रखना पसंद है. अब आप खुद ही सोचिए कि ऊपर बताए इन्फ्लुएंसर्स रोल मौडल बनने लायक हैं या नहीं, क्योंकि ये सिर्फ इन का प्रोफैशन है और ये पैसे ले कर अपना काम कर रहे हैं तो फिर इन के कंटैंट पर भरोसा कैसे किया जाएगा.

व्यूअर्स पर नकारात्मक प्रभाव

आज हर पार्टी सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर के साथ जुड़ना चाहती है क्योंकि अधिकांश युवा आबादी अब टीवी चैनल के बजाय सोशल मीडिया पर रील्स या यूट्यूब वीडियो या ओटीटी देखने में अधिक समय बिता रही है. राजनीतिक दल इन इंफ्लुएंसर्स के माध्यम से बड़े पैमाने पर दर्शकों, खासकर युवा आबादी, तक पहुंचना चाहते हैं.

ये इंफ्लुएंसर्स यूथ के लिए कभी आवाज उठा ही नहीं सकते क्योंकि इन्हें इन की समस्या, इन की बेरोजगारी के दुख बताने से रोका जाएगा. ऐसा इसलिए क्योंकि ये इन्फ्लुएंसर्स तो सरकारों का माल खा रहे हैं.

इस से आम युवा सिर्फ भ्रमित ही होगा. उसे सहीगलत का पता ही नहीं चलेगा क्योंकि वह तो सोशल मीडिया को फौलो करने वाली पौध है जहां जो जैसा परोसा जाएगा वह उसे ही सच मान लेगा. हालांकि, हर युवा को अपनी आंख, कान खोल कर रखने चाहिए. इन फर्जी इंफ्लुएंसर्स को अपना ‘रोलमौडल’ नहीं मानना है क्योंकि इन की बातों के पीछे कोई न कोई राज छिपा जरूर है.

पुराने औफिस की यादें अपने जेहन से कैसे निकालूं?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

जौब चेंज करने के बाद पुराने औफिस की याद आ रही है. ऐसा नहीं है कि पुराने औफिस से मुझे बहुत लगाव था लेकिन इतने साल एक जगह काम करतेकरते वहां का आदी हो गया था. नया औफिस अच्छा है. नए कलीग्स हैं. अभी ज्यादा सब से मिक्सअप नहीं हुआ हूं. ऐसा क्या करूं कि पुराने औफिस की यादें जेहन से निकाल दूं?

जवाब –

नई कंपनी व जौब में एडजस्ट कर पाना आसान नहीं होता है. जब आप किसी औफिस में लंबे समय तक काम करते हैं तो उसे छोड़ने के बाद यकीनन पुराने औफिस की याद सताती है. लेकिन अब आप का औफिस व पोस्ट दोनों बदल गए हैं तो जरूरी है कि कैरियर गोल्स सैट करें. कैरियर गोल्स को ध्यान में रखते हुए प्लानिंग करें. जब आप अपने कैरियर को आगे ले जाने में बिजी होंगे तो बाकी सभी बातें खुदबखुद पीछे छूट जाएंगी.

हम किसी भी पुरानी चीज या यादों में तब तक ज्यादा उलझे रहते हैं जब तक हम अपने जीवन में कुछ नया नहीं करते. ऐसा ही कुछ वर्क कल्चर में भी है. अब नया औफिस जौइन कर लिया है तो अपने कलीग्स के साथ थोड़ाबहुत ओपन होने की कोशिश करें. उन के साथ लंच करें, एकसाथ कौफी ब्रेक ले सकते हैं. इस से आप को उन के बारे में जानने व नए औफिस में कंफर्टेबल होने में आसानी होगी.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

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