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झांसी कांड ने खोली चिकित्सा व्यवस्था की पोल : कहीं मनी देव दीवाली, कहीं परसा मातम

झांसी के अस्पताल में हुए हादसे ने उत्तर प्रदेश में सरकारी चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोल दी है. नेता व अफसर दीये जला कर रिकौर्ड बना रहे तो वहीं रिश्वतखोर परिवारों के चिराग बुझाने का खेल खेलने में लगे हैं.

झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई मैडिकल कालेज के बाहर 55 साल की महिला सितारा देवी जो महोबा से अपने पोते को ले कर आई थी, रोते हुए बोली, ‘परसों रात हम अपने बच्चे को ले कर आए थे. डाक्टरों ने ‘बडी मशीन’ में बच्चे को रखा था. आज यहां आग लग गई. मेरे बच्चे के माथे पर काला टीका लगा था. वह नहीं मिल रहा. जो एक बच्चा मिला वह किसी दूसरे की लड़की थी. उसे दे दी. मेरा बच्चा नहीं मिल रहा मुझे.’ सितारा की बहू महोबा अस्पताल में भरती है. वह अपने बेटे के साथ पोते को ले कर झांसी आई थी.
संजना नाम की महिला ने कहा कि कुलदीप नीलू का बच्चा ले कर वह आई थी. मंगलवार को उन्होंने बच्चा भरती कराया. वहां आग लग गई तो बच्चों को लेने के लिए भागे. वहां दूसरों के जले बच्चे लाए गए. उन का बच्चा नहीं मिल रहा.
अस्पताल के बाहर कई लोग अपने हाथ में जले बच्चे लिए भाग रहे थे. बच्चे जल कर काले हो गए गए थे. ये मांस के लोथड़े जैसे दिख रहे थे. झांसी के अस्पताल में भरती बच्चों और मांबाप के लिए कार्तिक पूर्णिमा का यह दिन अशुभ साबित हुआ.

कहीं दीये जले तो कहीं चिराग बुझे

सनातन धर्म में कार्तिक पूर्णिमा पर होने वाले गंगा स्नान को बेहद शुभ माना जाता है. कार्तिक मास की पूर्णिमा पर लाखों लोग गंगा के तट पर स्नान करने जाते हैं. माना जाता है कि इस दिन पर जो लोग गंगा स्नान करते हैं, उन्हें पापों से मुक्ति मिल जाती है और जीवन के उपरांत वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं. इस दिन विष्णु, लक्ष्मी और चंद्र देव की पूजा की जाती है. इस साल कार्तिक पूर्णिमा 15 नवंबर को थी. कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान के बाद दान देने का चलन होता है.
कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही देव दीपावली भी मनाई जाती है. आमतौर पर वाराणसी में ही देव दीवाली मनाई जाती थी. अब इस का चलन करीबकरीब हर बड़े शहर में नदी में होता है. इस की शुरुआत अयोध्या से होती है, जहां पिछले 8 वर्षों से दीये जलाने का रिवाज है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 5 लाख दीये जलाने से यह सफर तय किया. इस साल 22 लाख से अधिक दीये जलाने का विश्व रिकौर्ड बना. अब देव दीवाली भी वाराणसी से बाहर निकल कर हर शहर तक पहुंच गई है.
15 नवंबर के इस दिन को शुभ मान कर बहुत सारे लोगों ने गंगा स्नान कर दान दिया होगा. तमाम लोगों ने अपने घरों में दीये जलाए होंगे. वाराणसी में 21 लाख दीये जलाए गए थे. इसी दिन रात 10 बज कर 30 मिनट से 45 मिनट के बीच उत्तर प्रदेश के झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई मैडिकल कालेज के नवजात शिशु गहन चिकित्सा कक्ष (एनआईसीयू) में आग लग गई. डीएम, झांसी, अविनाश कुमार के अनुसार, इस घटना में 10 नवजात शिशुओं की मौत हो गई. इन घरों के दीये हमेशा के लिए बुझ गए.
झांसी के चीफ मैडिकल सुपरिंटेंडैंट सचिन महोर ने बताया कि यह घटना औक्सीजन कंसंट्रेटर में आग लगने से हुई थी. एनआईसीयू वार्ड में 54 बच्चे भरती थे और अचानक औक्सीजन कंसंट्रेटर में आग लग गई जिस को बुझाने की कोशिशें की गईं. लेकिन कमरा हाइली औक्सिजिनेटेड रहता है तो आग तुरंत फैल गई. बाकी बच्चों को बचा लिया गया.
वहीं यूपी की मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने इस घटना पर दुख जताते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की निंदा की है. उन्होंने कहा है कि मुख्यमंत्री को चुनावप्रचार छोड़ कर चिकित्सा व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए. उन्होंने एक्स पर एक पोस्ट लिख कर राज्य सरकार को मृत नवजातों के परिजनों को एक करोड़ रुपए की सहायता राशि देने की मांग की है.
उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने कहा, ‘आग कैसे लगी है, इस की जांच होगी. डाक्टरों, नर्सों और पैरामैडिकल स्टाफ ने बहुत बहादुरी के साथ बच्चों को बचाया है. बड़ी संख्या में बच्चों को रेस्क्यू किया गया है. जो महिलाएं भरती थीं उन को भी रेस्क्यू किया गया है. फरवरी में अस्पताल का फायर सेफ्टी औडिट हुआ था. जून में मौक ड्रिल भी किया गया था. लेकिन यह घटना क्यों और कैसे हुई, यह जांच रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा.’
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शिशुओं के मातापिता को 5-5 लाख रुपए और घायलों के परिजनों को 50-50 हजार रुपए की सहायता मुख्यमंत्री राहत कोष से उपलब्ध कराने की घोषणा की है.

क्या होता है ‘एनआईसीयू’ ?

अगर बच्चा समय से पहले पैदा हो जाता है या नवजात शिशु जन्म के बाद किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित होते हैं तो उन बच्चों को नियोनेटल इंटैंसिव केयर यूनिट यानी एनआईसीयू में भरती किया जाता है. इस को नवजात गहन चिकित्सा इकाई भी कहा जाता है. यहां 24 घंटे नवजात शिशुओं की देखभाल के लिए विशेषज्ञ की टीम मौजूद रहती है. यहां बच्चे तब तक रहते हैं जब तक वे पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो जाते.
इन बच्चों की मुख्य परेशानी सही तरह से सांस का न लेना होता है. इस के लिए ‘औक्सीजन कंसंट्रेटर’ का प्रयोग किया जाता है. यहां बच्चों के लिए छोटेछोटे पालनेनुमा बेड होते हैं. इन में हर तरह की मैडिकल सुविधा बच्चे को मिलती है.
‘औक्सीजन कंसंट्रेटर’ एक मैडिकल डिवाइस होता है, जो हवा में से औक्सीजन को अलग करता है. वातावरण में मौजूद हवा में कई तरह की गैस मौजूद होती हैं और यह कंसंट्रेटर उसी हवा को अपने अंदर लेता है और उस में से दूसरी गैसों को अलग कर के शुद्ध औक्सीजन सप्लाई करता है. औक्सीजन लैवल 90-94 प्रतिशत होने पर औक्सीजन कंसंट्रेटर की मदद से सांस ली जा सकती है. एनआईसीयू में वैंटिलेटर भी होता है. यह भी एक तरह का मैडिकल उपकरण होता है. यह बच्चों के फेफड़ों में औक्सीजन या हवा भेजने का काम करता है.
एनआईसीयू में बच्चों को अकेले रखा जाता है. बच्चों की देखभाल करने की जिम्मेदारी डाक्टर और पैरामैडिकल स्टाफ की होती है. मातापिता या उन के करीबी रिश्तेदार समयसमय पर अपने बच्चे को देख लेते हैं. झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई मैडिकल कालेज के एनआईसीयू वार्ड में 54 बच्चों के एक साथ इलाज की व्यवस्था है. इस वार्ड के 2 हिस्से हैं. अंदर वाले हिस्से में ज्यादा गंभीर बच्चे रखे जाते हैं. बाहर वाले वार्ड में जो बच्चे ठीक हो जाते हैं उन को रखा जाता है. जिस समय दुर्घटना हुई वहां 47 बच्चे थे. जिन में से 37 को बचा लिया गया, 10 को नहीं बचाया जा सका.

 

पुरानी घटना से नहीं लेते सीख

2017 में गोरखपुर के बीआरडी मैडिकल कालेज में एनआईसीयू वार्ड में आग लगने की घटना घटित हुई थी जिस में 63 बच्चों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. उस समय योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके थे. बात केवल घटनाओं की नहीं है. उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है. कोविड काल में अस्पतालों ने जिस तरह के हालात पैदा किए वे बेहद शर्मनाक थे. जिस तरह से अस्पतालों का निजीकरण हुआ है उस ने सरकारी अस्पतालों को और भी खस्ताहाल कर दिया है. सरकारी अस्पतालों में दवा की खरीदारी से ले कर मशीनों की खरीद तक में तमाम तरह की गड़बड़ियां की जाती हैं.
अस्पतालों में जांच के काम में आने वाली मशीनें खराब हैं. इस में सामान्य जांच से ले कर अल्ट्रासाउंड, एक्सरे, सीटी स्कैन तक की मशीनें काम नहीं करती हैं. इन को जल्दी ठीक नहीं कराया जाता है जिस से कि महंगी फीस दे कर प्राइवेट पैथोलौजी में जांच कराई जा सके.
सरकारी अस्पताल में मशीनें खराब रहती हैं तो 2 रास्ते होते हैं- या तो प्राइवेट में जांच हो या फिर अस्पताल की मशीन ठीक होने का इंतजार. इस में कई बार मरीज के लिए खतरा हो जाता है.

खस्ताहाल व्यवस्था

सरकार ने गरीबों को खुश करने के लिए 5 लाख रुपए वाला आयुष्मान भारत कार्ड बना दिया है. गरीबीरेखा के नीचे के लोगों का इस कार्ड के जरिए प्राइवेट में मुफ्त इलाज होने लगा है. तमाम अस्पतालों में लिखा होता है कि यहां आयुष्मान भारत कार्ड धारकों का इलाज होता है. इस इलाज का खर्च सरकारी खाते से जाता है. निजी अस्पतालों के लिए यह कमाई का बड़ा जरिया हो गया है. इस में मनमानी महंगी दवा के सेवन की सलाह दी जाती है जिस से सरकारी पैसे को निकाला जा सके.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 12 करोड़ कार्ड धारक हैं. 55 करोड़ लोग इस से लाभ पा रहे हैं. अगर इस की गहन जांच हो तो निजी अस्पतालों के लिए यह कमाई का बड़ा जरिया साबित होगा. इतने लोगों का कार्ड बनने के बाद भी निजी अस्पताल में भीड़ कम नहीं हो रही है. न ही सरकारी अस्पतालों में भीड़ कम हो रही है. लखनऊ के राम मनोहर लोहिया अस्पताल मैडिकल कालेज के ओपीडी में परचा बनवाने के लिए 8 बजे खिड़की खुलती है. इस में परचा बनवाने की लाइन सुबह 5 बजे से लगनी शुरू हो जाती है. एकएक डाक्टर 150 से 200 मरीजों को देखता है. इस के बाद भी कुछ मरीज बिना देखे ही रह जाते हैं.
सरकारी अस्पतालों की खस्ताहाल व्यवस्था ही है जिस की वजह से जांच की मशीनें खराब हैं. निजी पैथोलौजी की संख्या और फीस बढ़ती जा रही है. निजी अस्पताल और पैथोलौजी में गरीब लोगों को इलाज कराना मुश्किल होता है. जान बचाने के लिए वह जमीन बेच कर इलाज कराता है. अगर वह सरकारी अस्पताल जाता है तो झांसी जैसे कांड का सामना करना पड़ जाता है. बीमारी के शिकार लोगों के पास कोई रास्ता नहीं है. या तो निजी अस्पताल में इलाज करा कर बिक जाए या फिर सरकारी अस्पताल में इलाज करा कर मर जाए. वह जाए जो जाए कहां?

बच्चों पर रीतिरिवाज न थोपें

16 साल का सुगम परीक्षा देने जाने से पहले भगवान के सामने दीया जलाए और माथे पर तिलक लगाए बिना एग्जाम देने नहीं जाता. उस का विश्वास है कि ऐसा करने से उस की परीक्षा अच्छी जाएगी और वह अच्छे नंबरों से पास हो जाएगा. परीक्षा के समय शुभ शगुन के लिए वह अपनी मां के हाथ से दहीचीनी भी जरूर खा कर जाता है. उस की मां ने बचपन से जो भी रीतिरिवाज सिखाए हैं, उन का वह पूरी तरह से पालन करता है.

26 साल की तिथि कौर्पोरेट जौब करती है. उस के घर में बहुत सारे नियमकानून बने हुए हैं, जैसे कि गुरुवार को बाल नहीं धो सकते, नाखुन नहीं काट सकते. शनिवार को नौनवेज नहीं खा सकते वगैरह. तिथि को इस बात से बहुत चिढ़ होती है कि ये सब क्या है. क्यों वह गुरुवार को अपने बाल नहीं धो सकती और शनिवार को नौनवेज नहीं खा सकती? लेकिन न चाहते हुए भी उसे वह सब करना पड़ता है. कहें तो ये सारे रीतिरिवाज उस पर जबरन थोपे गए हैं.

परीक्षा देने जाते समय अतुल की बहन ने जब उस से आवाज लगा कर रुकने को कहा, तो वह अपनी बहन पर यह कह कर बरस पड़ा कि उस ने उसे पीछे से क्यों टोका. अब देखना उस का एग्जाम अच्छा नहीं जाएगा. और हुआ भी वही, अतुल का एग्जाम अच्छा नहीं गया. कारण जो भी रहा हो पर परीक्षा के अच्छा न होने का सारा इलजाम उस ने अपनी बहन पर लगा दिया कि उस ने पीछे से टोका, इसलिए वह फेल हो गया.

अब यह तो कोरा अंधविश्वास ही है. फेल तो वह इसलिए हुआ क्योंकि उस ने अच्छे से पढ़ाई नहीं की. मगर सारा दोष उस ने अपनी बहन पर मढ़ दिया कि उस के पीछे से टोकने के कारण वह फेल हो गया. वैसे, यह सीख अतुल को अपने पापा से ही मिली है. बाहर जाते समय जब कभी उस की मां उस के पापा को पीछे से टोक देतीं तो वे यह कह कर गुस्सा हो जाते थे कि ‘लो, पीछे से टोक कर अपशगुन कर दिया न.’ अतुल ने जो भी सीखा अपने मातापिता से ही सीखा.

23 साल की निधि कहती है कि उस की मां बेमतलब के रीतिरिवाजों को बहुत मानती है और उस पर भी ऐसा करने का दबाव बनाती है. जब भी वह मासिकधर्म में होती है, उसे किचन से दूर कर दिया जाता है. यहां तक कि वह घर के पुरुषों के सामने तक नहीं जा सकती है. उन का कहना है कि तुम, बस, एक कोने में पड़ी रहो. अजीबअजीब सी शंकाएं पाल बैठी हैं. निधि कहती हैं कि ‘डर लगता है मुझे कि कहीं आगे चल कर मैं भी अपनी मां की जैसी न बन जाऊं.

बिहार के मिथिला क्षेत्र, जिसे सीता माता का मायका कहा जाता है, आज भी नई बहू के आने पर उस के घुटने को जलती रूई की बाती से दागा जाता है. इन रीतिरिवाजों और परंपराओं को लोग जानने की कोशिश नहीं करते कि ऐसा करने के पीछे कारण क्या है. बस, पीढ़ीदरपीढ़ी वे निभाते चले आ रहे हैं.

बेमतलब के बहुत से रीतिरिवाज हमारे भारतीय परिवारों में देखने को मिलते हैं, जिन का कोई आधार नहीं होता. एक अध्ययन में यह बात सामने आ चुकी है कि लगभग 8 वर्ष तक बच्चे का दिमाग काफी तेज दौड़ता है. उसे जो बताया जाए, वह बहुत अच्छे से सीखता है और पूरी ज़िंदगी उसी का अनुसरण करता है.

इंटरनैशनल जर्नल औफ साइकोलौजी एंड बिहेवियोरल साइंसेज में छपे एक लेख में कहा गया है कि ‘अंधविश्वास और रीतिरिवाज की जड़ें हमारी प्रजाति की युवावस्था में हैं. संपत्ति के साथ मातापिता अपने बच्चों को रीतिरिवाज और परंपराएं भी सौंपते हैं. लेकिन इन परंपराओं के पीछे क्या तर्क है, वे यह नहीं बताते. हमारे समाज में और भी बहुत सी ऐसी प्रथाएं हैं जो हमारी संस्कृति, तरक्की और विकास पर सवालिया निशान खड़े करती हैं.’

रीतिरिवाज और परंपराएं तर्क को दबा देती हैं जिस से रूढ़िवादिता बढ़ती है. सतीप्रथा और बालविवाह जैसी प्रथाएं रूढ़िवादिता के कारण लंबे समय तक जारी रहीं. कई धर्मों में पशुपक्षी की बलि की परंपरा आज भी जारी है. महिला जननांग विच्छेदन की प्रथा अभी भी कुछ समुदायों में प्रचलित है. जाति के नाम पर औनर किलिंग आज भी हो रही है. आज भी कुछ स्थानों पर रीतिरिवाजों और पवित्रता के नाम पर जातिगत भेदभाव जारी है. धर्म और रीतिरिवाज के नाम पर आज भी कुछ जगहों पर देवदासी प्रथा कायम है.

रीतिरिवाजों के नाम पर बच्चों को अंधविश्वासी बनाना गलत है. अंधविश्वास किसी व्यक्ति या समाज की तार्किक सोच और विज्ञान से दूर रखने वाला है और यह बच्चों के मानसिक विकास के लिए हानिकारक हो सकता है.

मातापिता को चाहिए कि बच्चों पर रीतिरिवाज न थोपें, बल्कि उन्हें तर्क से समझाएं, ताकि वे खुद सोच सकें, आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपना सकें और सहीगलत के बीच फर्क कर सकें. जब बच्चों को अंधविश्वास में फंसाया जाता है, तो उन की मननशीलता, सोचने की क्षमता और स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति दब जाती है.

रीतिरिवाज और अंधविश्वास में जकड़े लोग अपनी जिंदगी में बहुत सी बेड़ियां खुद डालते हैं. उन में विश्वास की कमी आ जाती है. वे डर और भ्रम में जीने लगते हैं, जो उन के मानसिक विकास के लिए ठीक नहीं है. इसलिए बच्चों को सही ज्ञान, तर्क और सोचने की आजादी देने की कोशिश करनी चाहिए ताकि वे समझदारी से अपनी दुनिया को देख, परख सकें और बेमतलब के रीतिरिवाजों से बचे रह सकें.

Singham Again एक प्रोपेगेंडा मूवी, अंधभक्‍तों को लुभाने की कोशिश

इस बार दीवाली के अवसर पर एक नवंबर को रोहित शेट्टी निर्देशित फिल्म ‘सिंघम अगेन’ और अनीस बज़मी निर्देशित फिल्म ‘भूल भुलैया 3’ एक साथ रिलीज हुई. इन दोनों औसत दर्जे की फिल्मों ने एक ही दिन सिनेमाघरों में आ कर आपस में टकराते हुए अपना नुकसान ही किया है,जबकि 8 नवंबर और 15 नवंबर को एक भी बड़ी फिल्म प्रदर्शित नहीं हो रही है.

अगर इन दोनों फिल्मों के निर्माता आपस में बात कर  अलगअलग सप्ताह में अपनी फिल्म ले कर आते,तो दोनों को फायदा होता. नवंबर माह के पहले सप्ताह ‘भूल भ्रुलैया 3’ और ‘सिंघम अगेन’ ने जो कमाई की है,उस की वजह इन फिल्मों का बेहतरीन होना कदापि नहीं है, बल्कि 2024 के पूरे साल में दर्शक सिनेमा देखने के लिए प्यासा था, तो छुट्टियों के वक्त वह इन फिल्मों को देखनेे चला गया.

दीवाली के अवसर पर 15 दिनों के लिए स्कूल,कालेज भी बंद चल रहे हैं. इस के अलावा दीवाली की शुक्रवार, शनिवार, रविवार को छुट्टी रही, रविवार के दिन ‘भाई दूज’ का त्योहार भी रहा पर कमाई के आंकड़ों में बड़ा घालमेल होने के आरोप भी लग रहे हैं.

भारतीय सिनेमा के इतिहास में और कम से कम मेेरे 42 साल के फिल्म पत्रकारिता के वक्त जिस तरह की गला काट प्रतिस्पर्धा ‘सिंघम अगेन’ और ‘भूलभुलैया 3’ के निर्माताओं के बीच नजर आई, वह इस से पहले कभी नहीं हुआ. इस की अपनी वजहें रही हैं.

पहले बात रोहित शेट्टी निर्देशित एक्शन प्रधान फिल्म ‘सिंघम अगेन’ की. ‘सिंघम अगेन’ का निर्माण रोहित शेट्टी,अजय देवगन और मुकेश अंबानी की कंपनी ‘जियो स्टूडियो’ ने किया है. अजय देवगन पिछले कई वर्षों से लगातार असफलता का दंश झेलते आ रहे हैं. बतौर अभिनेता तो छोड़िए, पिछले 4 वर्ष के अंतराल में अजय देवगन की बतौर निर्माता, जिन में मुख्य भूमिका अजय देवगन ने निभाई, ‘छलांग’, ‘द बिग बुल’, ‘भुज द प्राइड औफ इंडिया’, ‘रन वे 34’, ‘भोला’, ‘शैतान’, ‘औरों में कहां दम था’ जैसी 7 असफल फिल्में दे चुके हैं. तो वहीं बतौर निर्माता व निर्देशक रोहित शेट्टी पिछले एक वर्ष में ‘सर्कस’ और ‘इंडियन पोलिस फोर्स’ की बुरी तरह से असफलता का दंश झेलते आ रहे हैं. ऐसे में अजय देवगन और रोहित शेट्टी ने साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना कर अपनी फिल्म ‘सिंघम अगेन’ को सफलतम फिल्म साबित करवाने के सारे प्रयास कर डाले, पर उन्हें सफलता हाथ लगी हो, ऐसा कहना मुश्किल है.

रोहित शेट्टी ने ‘सिंघम अगेन’ में अजय देवगन, करीना कपूर खान, रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण, अक्षय कुमार, टाइगर श्रौफ जैसे स्टार कलाकारों की फौज खड़ी कर डाली, पर वह यह भूल गए कि यह सभी स्टार कलाकार पिछले 5 – 6 वर्ष से लगातार असफल फिल्में ही दे रहे हैं. अभी कुछ दिन पहले ही अक्षय कुमार और टाइगर श्रौफ की जोड़ी की फिल्म ‘छोटे मियां बड़े मियां’ बौक्स औफिस पर बुरी तरह से मात खा चुकी है. रणवीर सिंह पिछले 4 साल से एक आध फिल्म छोड़ कर घर पर बैठ कर मक्खी मार रहे हैं. रणवीर सिंह के साथ कोई भी फिल्मकार फिल्म बनाने के लिए तैयार नहीं है. इतना ही नहीं अजय देगवन व रोहित शेट्टी ने ‘सिंघम अगेन’ में धर्म, हनुमान, ‘रामायण’ को बेचने के साथसाथ ‘अंध भक्तों’ को लुभाने के लिए फिल्म के अंदर ‘जय श्री राम’ के नारे लगवाने, हनुमान चालीसा का पाठ, शिव तांडव स्तोत्र का पाठ सहित सब कुछ कर डाला. पर कुछ भी काम नहीं आया. काश रोहित शेट्टी और उन के 9 लेखकों ने यह सब करने में पैसा व ताकत बरबाद करने की बजाय फिल्म की कहानी, पटकथा व संवाद पर मेहनत कर एक मनोरंजक फिल्म बनाई होती तो आज बाक्स आफिस पर फिल्म की दर्गति नही होती.

‘सिंघम अगेन’ में कहानी नहीं है. संवाद चेारी के हैं. यह फिल्म दिमागी टार्चर है. इसे 15 मिनट से ज्यादा झेलना दर्शक के लिए मुश्किल हो रहा है. वास्तव में ‘सिंघम अगेन’ रोहित शेट्टी की बजाय एक ऐसे फिल्मकार की फिल्म है, जो कि पूरी तरह से सत्ता के तले दबा और मजबूर नजर आता है. ‘सिंघम अगेन’ एक अति घटिया प्रपोगंडा और सरकार परस्त फिल्म है.

‘आदिपुरुष’ की ही तरह इस फिल्म में भी रावण को मुसलिम किरदार के रूप में पेश करते हुए ‘राम’ के हाथों मरवा कर यही बात कहने का प्रयास किया गया कि मुस्लिम हत्या करने योग्य हैं. क्या एक फिल्मकार को इस तरह के दृश्य गढ़ना शोभा देता है. इस के बावजूद जिस तरह के निर्माता की तरफ से पहले दिन से ही बौक्स औफिस के आंकड़े पेश किए जा रहे हैं, उसे देख कर इन आंकड़ों की सचाई पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. केआरके ने तो खुलेआम ट्वीट कर कई आरोप लगाए हैं.

इतना ही नहीं ‘सिंघम अगेन’ को ‘भूल भुलैया 3’ से ज्यादा सफल फिल्म साबित करवाने के लिए रोहित शेट्टी ने ‘सिंघम अगेन’ का डिस्ट्रीब्यूटर ‘पीवीआर आयनौक्स’ को ही बनाया और 60 प्रतिशत स्क्रीन्स पर केवल ‘सिंघम अगेन’ को ही रिलीज किया. ‘भूल भुलैया 3’ को महज 40 प्रतिषत स्क्रीन्स मिले.

इतना ही नहीं रामानंद सागर के पोते शिव सागर एक सीरियल ‘कागभुसुंडी रामायण’ ले कर आ रहे हैं, तो ‘सिंघम अगेन’ के ही बैकड्राप पर खड़े हो कर अजय देवगन ने ‘कागभुसूंडी रामायण’ सीरियल देखने की वकालत करते हुए एक वीडियो सोशल मीडिया पर जारी कर ‘सिंघम अगेन’ की तरफ लोगों का ध्यान खींचने का प्रयास किया.

इस के बावजूद 375 करोड़ रूपए की लागत में बनी ‘सिंघम अगेन’ 7 दिनों के अंदर महज 173 करोड़ रुपए ही बौक्स औफिस पर एकत्र कर सकी, इस में से निर्माता की जेब में आएंगे लगभग 90 करोड़ रुपए. अब अंदाजा लगा लें कि साम, दाम, दंड,भेद की नीति अपनाने के साथ ही धर्म को बेच कर भी ‘सिंघम अगेन’ कितनी सफल हुई?

173 रुपए बौक्स औफिस कलेक्शन का दावा निर्माता ने किया है, जबकि आरोप है कि यह आंकड़े गलत हैं. उन पर कौरपोरेट बुकिंग करवाने, फिल्म से जुड़े हर कलाकार व निर्माता द्वारा टिकटें खरीद कर मुफ्त में बांटने सहित कई आरोप लग रहे हैं. मजेदार बात यह है कि ‘सिंघम अगेन’ का डिस्ट्रीब्यूशन ‘पीवीआर आयनौक्स’ के पास है. निर्माता की तरफ से दावे किए जा रहे हैं कि फिल्म अच्छा कमा रही है. तो फिर एक नवम्बर के बाद ‘पीवीआर आयनौक्स’ के शेयर के दाम 5 से 7 प्रतिशत तक क्यों गिरे? यदि फिल्म कमा रही है,तो फिर डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी के शेयर के दामों में उछाल आना चाहिए. इस का जवाब तो फिल्म के निर्माता और पीवीआर आयनौक्स ही बेहतर दे सकता है.

अब बात टी सीरीज निर्मित और अनीस बज्मी निर्देशित हौरर कौमेडी फिल्म ‘भूल भुलैया 3’ की, जिस में कार्तिक आर्यन, माधुरी दीक्षित, विद्या बालन, तृप्ति डीमरी, राजपाल यादव, संजय मिश्रा जैसे कलाकार हैं. यह फिल्म भी मौलिक नहीं बल्कि 2007 में प्रदर्शित प्रियदर्शन निर्देशित व अक्षय कुमार और विद्या बालन के अभिनय से सजी फिल्म ‘भूल भुलैया’ का तीसरा भाग है. इस का दूसरा भाग 15 वर्ष बाद 2022 में ‘भूल भुलैया 2’ के नाम से आया था, जिस का निर्देशन अनीस बज्मी ने किया था.

इस फिल्म में कार्तिक आर्यन के साथ तब्बू थीं. फिल्म को अच्छी सफलता मिल गई थी. इसी सफलता को भुनाने के लिए निर्माता टीसीरीज और निर्देशक अनीस बज़मी ‘भूल भुलैया 3’ लेकर आ गए. ‘भूल भुलैया 3’ भी औसत दर्जे की ही फिल्म है, पर ‘सिंघम अगेन’ के मुकाबले 10 प्रतिशत अच्छी कही जा सकती है. लेकिन ‘भूलभुलैया 3’ में भी धर्म व अंधविश्वास को बढ़ावा देने के साथ ही जितने मसाले हो सकते थे, उन्हें जबरन ठूंसा गया है. कार्तिक आर्यन से ले कर विद्या बालन, माधुरी दीक्षित, राजपाल यादव व संजय मिश्रा के अभिनय में काफी कमियां नजर आती हैं.

2007 की फिल्म ‘भूल भुलैया’ के मुकाबले ‘भूल भुलैया 3’ 10 प्रतिशत भी नहीं है. मगर 150 करोड़ रुपए की लागत में बनी फिल्म ‘भूल भुलैया 3’ ने 7 दिन में 168 करोड़ 80 लाख रुपए बौक्स औफिस पर एकत्र किए हैं. इस में से निर्माता की जेब में लगभग 80 करोड़ रुपए जा सकते हैं. मगर यह आंकड़े वह हैं, जो कि निर्माता की तरफ से पेश किए जा रहे हैं, जिन्हें कोई सच मानने को तैयार नहीं है. इस फिल्म के निर्माताओं पर भी कौरपोरेट बुकिंग, फर्जी आंकड़े देने से ले कर टिकटें खरीद कर मुफ्त में बांटने के आरोप लग रहे हैं. सब से बड़ा आरेाप तो कार्तिक आर्यन और उस की पीआर टीम पर लग रहा है कि इन्होंने अपनी जेब से पैसे खर्च कर जम कर टिकटें खरीदी हैं.

मजाक: ब्लैक मार्केटियों की गूगल मीट

जैसे ही अखिल भारतीय ब्लैक मार्केट महासंघ के प्रैसिडैंट को इस बात के पुख्ता सुबूत मिलने शुरू हुए कि देश में महामारी की तीसरी लहर हर हाल में आ कर रहेगी, हर चीज को देश में आने से रोका जा सकता है पर महामारी की तीसरी लहर को नहीं, तो उन्होंने देशहित में देशभर के तमाम कोरोना माल की ब्लैक मार्केटिंग करने वालों की जनहित में गूगल मीट पर आपात मीटिंग बुलाई. गूगल मीट पर जब देश के नामचीन ब्लैक मार्केटिए जुट गए तो उन्होंने फ्रंटलाइन महामारी ब्लैकियों को संबोधित करते कहा, ‘‘हे मेरे देश के ब्लैक मार्केट के बेताज बादशाहो, बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आप के इम्तिहान की घड़ी एक बार फिर आ रही है. इम्तिहान की घड़ी बोले तो आप को सूचित करते हुए मु झे प्रसन्नता हो रही है कि महामारी की तीसरी लहर अब कभी भी आ सकती है. ‘‘इस बात को सरकार ने स्वीकार कर लिया है.

सरकार कह रही है कि अगर जनता ने सावधानी नहीं बरती तो तीसरी लहर का आना लाजिमी है. और हम तो जानते ही हैं कि हमारे देश में सबकुछ बरता जाता रहा है पर सावधानी हरगिज नहीं. देरसवेर जनता का लापरवाही से प्रेम ही हमारे बाजार की चकाचौंध बढ़ाता रहा है. ‘‘मित्रो, आप ने अपना अदम्य साहस बताते हुए महामारी की दूसरी लहर में जिस तरह से महामारी से संबंधित सामग्री खुद को जोखिम में डाल मनमाने दामों पर जनता को हर हाल में मुहैया करवा उस की जान बचाई वह काबिलेतारीफ है. इस के लिए आप सब को साधुवाद. आप सब की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है. आप ने दिनरात एक कर अपनी जान की परवा किए बगैर छिपछिप कर जिस तरह लोगों की जान बचाई वह मानवता के इतिहास में सदैव याद रहेगा. ‘‘अब जो खास बात मैं आप से शेयर करना चाहता हूं, जिस के लिए यह गूगल मीट रखी गई है, वह यह कि तीसरी लहर को ले कर हमें अभी से पूरे दिमाग से तैयारी शुरू करनी होगी.

महामारी की हर बीमारी से संबंधित हर सामान अपने गोदामों में अभी से जल्दीजल्दी इकट्ठा करना शुरू करना होगा ताकि समय आने पर पिछली दफा की तरह जनता को इधरउधर न भागना पड़े. ‘‘मित्रों, पिछली लहर में आप की अहर्निश सेवाओं के चलते पता नहीं कितने जीवों की जान बची. पैसे का क्या, पैसा तो हाथपैर का मैल होता है. शास्त्रों में भी कहा गया है कि धन गया तो कुछ नहीं गया. चरित्र गया तो भी कुछ नहीं गया. पर स्वास्थ्य गया तो सबकुछ गया. मरने के बाद धनदौलत किस काम की.’’ ‘‘पर सर, जैसा कि मीडिया पर खबरें बराबर आ रही हैं कि अब की सरकार ने तीसरी लहर से निबटने की तैयारी अभी से युद्धस्तर पर शुरू कर दी है, तो ऐसे में अब की लगता है कि…’’ एक ब्लैक मार्केटिए ने तीसरी लहर में ब्लैक मार्केटिंग पर शंका जाहिर की. तो संघ के प्रैसिडैंट सीना चौड़ा कर उसे सम झाते बोले, ‘‘मित्र, सरकार की तैयारियां हम ने आज तक बहुत देखीं. यह उस की कोई नई तैयारी नहीं है. हर बार आपदा आने से पहले सरकार बड़ेबड़े दावे करती रही है. पर जब सच्च में कोई आपदा आती है तो उस के सारे इंतजाम हाथी के मुंह का जीरा हो जाते हैं. इसलिए सरकार की तैयारियों के साथ ही साथ बैकअप के रूप में हमें सरकार की तैयारियों से अधिक अपनी तैयारी रखनी होगी.

बाद में जो कुछ काम आएगा तो बस, बैकअप ही काम आएगा. हम केवल और केवल सरकार की तैयारियों के भरोसे तो देश की जनता को छोड़ नहीं सकते न? इस देश के संभ्रांत जीव होने के नाते देश के प्रति कुछ हमारा भी दायित्व बनता है कि नहीं? ‘‘मित्रों, असल में जब भी कोई आपदा आती है, सरकार की सारी तैयारियां कोने में दुबक कर छिप जाती हैं. इसलिए सरकार के बयानों पर नहीं, अपने को ब्लैक मार्केट के कामों में कंसंट्रेट करो. तीसरी लहर में सख्त जरूरत पड़ने वाली चीजों से अपने गोदाम अभी से भरने शुरू कर दो ताकि ऐन मौके पर जनता को बंद होते फेफड़े लिए इधरउधर न भागना पड़े, इधरउधर भागते हुए परेशान न होना पड़े. ‘‘प्राइवेट अस्पतालों को अभी से एडवांस दे वहां के सारे बैड बुक करवा दो ताकि तीसरी लहर के वक्त जनता को जो कहीं खाली बैड न मिलें तो हम जनता को वे बैड दिलवा नरसेवा नारायणसेवा कर सकें. स्वस्थ होती तो वह दिनरात पेट पीठ पर लिए दौड़ती रहती है पर बीमारी की हालत में जनता को कतई इधरउधर न दौड़ना पड़े. अब के ब्लैक में बेचे सामान की होम डिलीवरी भी की जा सकती है.

‘‘हमें पता है कि अपने देश की जनता लापरवाहियों की खिलाड़ी है, मस्ती की सवारी है. सावधान होते हुए भी वह लापरवाही हर हाल में करेगी ही. क्योंकि, लापरवाही उस की रगरग में बसी है. इधर उस की लापरवाही बढ़ी, तो दूसरी ओर अपने धंधे की तूती बोली.’’ ‘‘पर सर, लगता है अब के औक्सीजन का कारोबार ब्लैक में कतई नहीं होने वाला,’’ चोरबाजारी के धंधे में नयानया कदम रखने वाले ने उन से यह कहा तो उन्होंने उसी से ठहाका लगाते पूछा, ‘‘क्यों?’’ ‘‘सर, क्योंकि सरकार ने जगहजगह औक्सीजन प्लांट जो प्लांट कर दिए हैं.’’ ‘‘तो क्या हो गया. सरकार ने तो देश में स्वर्ग तक प्लांट कर दिया है. पर कहीं स्वर्ग दिखा तुम्हें? नहीं न. जिंदा जी तो छोडि़ए, स्वर्ग तो मरने के बाद भी यहां के जीवों को नहीं दिखता, मिलना तो दूर की बात है. ‘‘सरकार को होने वाली हर किस्म की सप्लाई के बारे में हम से अधिक और कौन जान सकता है? क्या पता तब वे चलें या न चलें.

चलेंगे भी तो सिस्टम में बैठे हमारे बंदे उन्हें दूसरे ही दिन जेबभराई के चक्कर में खराब कर देंगे. उन्हें पता है कि वे चलेंगे तो वे अपनी जेबें कैसे भरेंगे? ब्लैक का कारोबार ऐसे ही सरकार के प्रति निष्ठा रखने वालों की छत्रछाया में आज तक पनपता रहा है और फ्यूचर में भी यों ही अबाध पनपता रहेगा. ‘‘आज तक अपने ही सप्लायर भाइयों द्वारा जबजब सरकार को दवा से ले कर हवा तक सप्लाई करने की बारी आई है तो वह दवा और हवा कुछ और ही सप्लाई होती रही है. इसलिए, मैं आप सब से एक बार फिर अपील करता हूं कि इस से पहले कि तीसरी लहर आए, हमें अपने को सरकार से अधिक जनता की रक्षा के लिए अभी से पूरी तरह तैयार रखना होगा. जय हिंद, जय ब्लैक मार्केट.’’

वायरल होने के चुंगल में फंसी जर्नलिज्म

इंटरनैट पर धड़ल्ले से शेयर किए जाने वाले वीडियो को वायरल वीडियो कहा जाता है. आज पत्रकारिता इन्हीं वायरल वीडियोज के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई है. सोशल मीडिया के आम चलन से पहले तक ये नेताओं, ऐक्टरऐक्ट्रैसेस के लीक्ड एमएमएस या स्टिंग औपरेशन जैसे होते थे जिन पर खूब होहल्ला मचा करता था और पत्रकार टूट पड़ते थे लेकिन समय बदलने के साथसाथ यह छिछला होता गया.

आज जर्नलिज्म तकरीबन पूरी तरह वायरल वीडियो के सहारे टिकी हुई है. सोशल मीडिया पर जो वायरल है वही खबर है वरना दूसरी कोई चीज खबर नहीं. कई बार तो बड़ेबड़े पत्रकार इस कि चपेट में ऐसे फंसे दिखते हैं, वे वीडियो जर्नलिज्म के दौरान अजीब सी बात इसलिए कर रहे होते हैं ताकि उन की कोई वीडियो वायरल हो जाए. यानी, जो वायरल है उस पर खबर बनाओ और खबर बनाते हुए उसे इतनी चटपटी बनाओ कि वह सनसनी मचाने के साथ खूब वायरल भी हो जाए.

किस तरह की पत्रकारिता होती है यहां

सोशल मीडिया पर ऐसे स्वघोषित जर्नलिस्ट भरे पड़े हैं जिन की ‘दुकान’ वायरल खबरों से चल रही है. वो किसी से कुछ ऐसा पूछते और बोलते हैं कि इंटरव्यू देने वाला उन से अटपटी बात करे. वह ऐसीऐसी बेवकूफीभरी बातें करे जिस का न सिर हो न पैर. जर्नलिज्म का एथिक इन पत्रकारों के लिए कुछ माने नहीं रखता, ये बड़ेबड़े थंबनेल में वही बातें लिख देते हैं जिन का कोई मतलब नहीं.

जैसे एक प्रतिष्ठित पत्रकार रोड पर घूमते हुए एक लड़के का इंटरव्यू करता है तो उस से उस की पढ़ाई पर सवाल करता है. लड़का बीए प्रोग्राम को ठीक से न कह कर प्लेन बीए कह देता है. फिर क्या, यही हंसीठट्टे वाली बात बन जाती है और यूट्यूब पर थंबनेल में प्लेन बीए ही चल पड़ता है. इसी तरह दूसरी वीडियो में पत्रकार के सामने भीड़ में कोई लड़का हाथ से तंबाकू रगड़ रहा होता है तो उसी को पूरी स्टोरी की हैडलाइन बना दी जाती है.

मुद्दे व्यूज, लाइक्स और शेयर की तरफ कैसे शिफ्ट हो गए हैं, यह इसी बात से समझ आ जाता है कि किसी चैनल के वीकली चल रहे प्रोग्राम में कोई युवक आता है और जुए में 96 लाख रुपए गवांने की झूठी कहानी सुनाता है जिस पर सभी सोशल मीडिया पत्रकार टूट पड़ते हैं. जर्नलिस्ट का काम फैक्टफाइंडिंग, रिसर्च और सही तथ्यों को खोज निकालने का होता है मगर इस की जगह उसे पोडकास्ट पर बुलाया जाता है, उस के लंबेलंबे इंटरव्यूज किए जाते हैं. इसे वायरल जर्नलिज्म क्यों न कहा जाए?

उस खबर को देखने का मकसद क्या है जिस का आम लोगों के जीवन पर कोई असर नहीं है. खबरों में रहना और खबर बन जाना दो अलगअलग चीजें होती हैं. खबर घटना की बनती है, उस पर निष्पक्ष नजरिया एडिटोरियल पौलिसी का होता है, मगर पत्रकार उन ख़बरों को लपकते हैं जिन में वे खुद बने रह सकें इस का उदाहरण है दिल्ली में चल रहे इंडिया टुडे के साहित्य आज तक में इन्फ्लुएंसर्स को बुलाया जाना. ये इन्फ्लुएंसर्स अपनी साहित्यिकी के चलते वहां नहीं पहुंचे बल्कि इसलिए पहुंचे कि उन के फौलोअर्स ढेरों हैं, उन से सोशल मीडिया पर वायरल होने लायक कुछ मसाला मिल सके ताकि लोग बेस्वाद हो चुके इस इवैंट को देखें.

इसी तरह का एक नाम डिजिटल न्यूज चैनल लल्लनटौप का भी है. इस के रिपोर्टर सामने वाले से कुछ अटपटी बातें करते हैं. उन से बातें निकलवाते हैं, कोई गुटका खा रहा है तो वीडियो बना रहें हैं. कुछ अजीब और अटपटा हो रहा हो तो उसे वे क्लिप में ले लेते हैं. जब वो वीडियो अपलोड होती है तो वे उसे वायरल करते हैं. उन का ध्यान खबर पर नहीं बल्कि वायरल होने वाले मसाले पर ज्यादा होता है. यही कारण भी है कि वे इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि कैसे न कैसे कुछ मीम लायक क्लिप कट जाए.

कुछ समय पहले यूट्यूब चैनल ‘मैं मीडिया’ के संस्थापक तंज़ील आसिफ ने गिरती पत्रकारिता के स्तर और वायरल पत्रिकारिता पर अपना दुख फेसबुक पर साझा किया. उन्होंने लिखा, “जब भी मैं छोटे, स्वतंत्र मीडिया संगठनों की चुनौतियों की बात करता हूं, लोग सब से पहले यही सवाल पूछते हैं, आप लोग यूट्यूब से अच्छा कमा नहीं लेते? इस का जवाब सीधा है- नहीं. मुझे ‘मैं मीडिया’ को चलाते हुए 6 साल हो गए हैं, मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि केवल यूट्यूब की कमाई के भरोसे अच्छी पत्रकारिता नहीं चल सकती.

“शायद आप को कुछ उदाहरण याद आ रहे होंगे जैसे कि आप का पसंदीदा पत्रकार, जो मोनोलौग या वौक्स पौप कर रहा है, लेकिन यह अच्छी पत्रकारिता नहीं है. कोई और, जो लगातार आप की राजनीतिक धारणाओं की पुष्टि कर रहा है, तो वह भी अच्छी पत्रकारिता नहीं है.

“सचाई यह है कि पिछले 12 महीनों में हम ने यूट्यूब से केवल $1,975 कमाए यानी औसतन लगभग $165 (14,000 रुपए से भी कम) प्रतिमाह.

“इतना कम क्यों? क्योंकि कोई एडवरटाइजर अच्छी पत्रकारिता को पसंद नहीं करता. कुपोषण पर ग्राउंड रिपोर्ट बनाइए. कोई एडवरटाइजर नहीं मिलेगा. हिरासत में मौत पर रिपोर्ट कीजिए, तो ऐसे कंटैंट को विज्ञापन देने लायक नहीं समझा जाता. आधुनिक गुलामी पर रिपोर्ट करेंगे, तो विज्ञापन भूल जाइए. किसी बलात्कार के मामले पर ग्राउंड रिपोर्ट बनाइए, तो आप को कुछ भी नहीं मिलेगा. इत्यादिइत्यादि. दरअसल, कोई एडवरटाइजर ऐसे कंटैंट पर विज्ञापन चलाना नहीं चाहता जो विचलित करने वाला हो.”

वे आगे लिखते हैं, “अगर सही पत्रकारिता को समर्थन नहीं दिया जाएगा तो पत्रकारिता खत्म हो जाएगी, Good journalism will disappear.”

दरअसल यह कारण भी है कि कई पत्रकार इसी कशमकश में हैं. मामला एडवरटाइजमैंट से जुड़ा है, यूट्यूब पर काम कर रहे पत्रकार जब तक वायरल होने वाली ख़बरें नहीं देंगे तब तक विज्ञापन नहीं मिलेगा. जितने ज्यादा व्यूज होंगे उतना ही विज्ञापन मिलेगा. बात वायरल होने की है. इसी चलते पत्रकार अपने स्टूडियो में ऐसे लोगों को बैठा रहे हैं और पोडकास्ट कर रहे हैं जिन का दर्शकों के हित से लेनादेना भले हो या न, पर ऊलजलूल गपोड़बाजी खूब चलती है. ये ख़बरें सिर्फ समय बरबाद करती हैं.

खबर की तह में जाना अब लगभग ख़त्म हो चुका है. जो ख़बरें आती हैं वो सिर्फ सोशल मीडिया भरोसे होती हैं जिस चलते पत्रकार भी उसी पर निर्भर रहते हैं, उसी अनुसार ख़बरें चुनते हैं और ख़बरें दिखाते हैं. जैसा, वायरल हुए हिमांशु के केस में हुआ. लगभग हर मीडिया हाउस ने हिमांशु की कहानी को प्रमुखता से पब्लिश किया. उस ने बताया कि वह औनलाइन गेम की लत का शिकार हुआ था और लाखों रुपए डूबो दिया. पर बाद में पता चला यह लड़का झूठ बोल रहा था.

यहां कोई संपादन नहीं है

हर संस्था में काम करने का एक तरीका होता है, एक पौलिसी होती है, एक एडिटोरियलशिप होती है, प्रूफरीडिंग होती है, टौपिक डिस्कस होता है उस पर रिसर्च होती है और लिखे जाने के बाद वह कई हाथों से गुजरता है और उस की हर गलती को डैस्क पर पकड़ लिया जाता है. फिर वह न्यूज़ डिलीवर की जाती है. लेकिन सोशल मीडिया में कोई न्यूज़ नहीं होती है, एडिटर नहीं होता है, प्रूफ रीडर भी नहीं होते हैं. यहां एक कैमरा होता है और आप ने एक स्किप्ट लिख ली है. और वह स्किप्ट भी होने वाली घटनाओं व न्यूज़ के आधार पर तैयार नहीं की जाती बल्कि यह सोच कर तैयार की जाती है कि क्या वायरल हो सकता है.

इस तरह की पत्रकारिता में सोचने और समझने की गुंजाइश थोड़ी कम होती है. पूरा फोकस व्यूज पर होता है.

दिक्कत यह है कि इस तरह के जर्नलिज्म में सही और गलत की कोई परिभाषा नहीं है. किसी भी न्यूज़ को प्रेजेंट करने का एक सिस्टम होता है लेकिन यहां कोई सिस्टम नहीं है, कोई भी कुछ भी बोल रहा है. वो सही भी बोल सकता है और खराब भी बोल सकता है. कोई ग्राउंड रिसर्च नहीं, किसी से बात नहीं, इन का कोई सैटअप नहीं. इन्होंने सबकुछ देखने वाले के विवेक पर छोड़ दिया है. इसलिए सामने वाले को वायरल वीडियो पत्रकारिता पर ट्रस्ट इतनी जल्दी होता नहीं है. अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप कैसा कंटैंट देखना पसंद करते हैं और जो दिखाया जा रहा है उसे किस तरह लेते हैं.

औनलाइन गेम्स का विकराल खतरा

भारतीय जनता पार्टी के नेता विजय गोयल ने देश में फैलते औनलाइन गेम के खिलाफ हुंकार भरी और कहा है, इसे वे बंद करा कर दम लेंगे. उन की बात आने वाले समय में सही भी हो सकती है क्योंकि उन्होंने एक नंबर की लौटरी पर प्रतिबंध लगवा कर एक सफलता तो हासिल कर ली है.

आज हम औनलाइन गेमिंग के पक्षविपक्ष की समीक्षा करते हुए उस के नुकसान की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं. दरअसल, औनलाइन गेम वे गेम हैं जो इंटरनैट के माध्यम से खेले जाते हैं. इन में निम्न प्रकार के गेम शामिल हैं-

वीडियो गेम : कंप्यूटर या गेमिंग कंसोल पर खेले जाने वाले गेम, जैसे कि फोर्टनाइट, पबजी आदि.

औनलाइन कैसिनो : जुआ और सट्टेबाजी के लिए औनलाइन प्लेटफौर्म.

मोबाइल गेम : मोबाइल फोन पर खेले जाने वाले गेम, जैसे कि कैंडी क्रश, पोकेमोन गो.

मल्टीप्लेयर गेम : एक से अधिक खिलाड़ियों द्वारा औनलाइन खेले जाने वाले गेम, जैसे कि कौल औफ ड्यूटी, माइनक्राफ्ट.

वर्चुअल रिऐलिटी (वीआर) गेम : वीआर तकनीक का उपयोग कर के खेले जाने वाले गेम, जो खिलाड़ियों को वास्तविक दुनिया जैसे अनुभव प्रदान कराते हैं.

औनलाइन गेम खेलने के लिए आप को इंटरनैट कनैक्शन और एक डिवाइस (जैसे कंप्यूटर, गेमिंग कंसोल, मोबाइल फोन आदि) की आवश्यकता पड़ती है. औनलाइन गेम खेलने से लोग दुनियाभर के लोगों के साथ जुड़ जाते हैं, नई दोस्तियां, संबंध बन जाते हैं.

दरअसल, औनलाइन गेम्स दुनियाभर में खेले जाते हैं और इन की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है. भारत में यह अपने उफान पर है और इसे रोकना आवश्यक है. यहां कुछ देश और क्षेत्र बता रहे हैं जहां औनलाइन गेम्स लोकप्रिय हैं-

चीन में औनलाइन गेमिंग उद्योग बहुत विशाल है और वहां कई प्रसिद्ध गेम्स, जैसे हौनर औफ किंग्स और पबजी मोबाइल पर खेले जाते हैं.

अमेरिका में औनलाइन गेमिंग बहुत लोकप्रिय है और वहां कई प्रसिद्ध गेम्स जैसे कि फोर्टनाइट और लीग औफ लेजेंड्स खेले जाते हैं.

दक्षिण कोरिया में औनलाइन गेमिंग एक बड़ा उद्योग है और वहां कई प्रसिद्ध गेम्स, जैसे लीग औफ लेजेंड्स और डोटा 2 खेले जाते हैं.

इसी तरह हमारे देश में औनलाइन गेमिंग तेजी से बढ़ता ही जा रहा है और यहां कई प्रसिद्ध गेम्स, जैसे पबजी मोबाइल और क्लैश औफ क्लैन्स खेले जाते हैं.

यूरोप में औनलाइन गेमिंग बहुत लोकप्रिय है और वहां कई प्रसिद्ध गेम्स, जैसे फीफा और कौल औफ ड्यूटी खेले जाते हैं.

जापान में औनलाइन गेमिंग एक बड़ा उद्योग है और वहां कई प्रसिद्ध गेम्स, जैसे फाइनल फैंटसी और ड्रैगन क्वेस्ट खेले जाते हैं.

हर सिक्के के दो पहलू

जैसे कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं औनलाइन गेम के भी सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव हैं. इस से बहुत लोग बरबाद हो चुके हैं तो कुछ लोग आबाद भी हुए हैं.

औनलाइन गेम्स के नुकसानों के बारे में जानना बहुत जरूरी है. औनलाइन गेम्स के नुकसान भी हो रहे हैं-

औनलाइन गेम्स के अत्यधिक उपयोग से मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जैसे तनाव, चिंता, और अवसाद.

औनलाइन गेम्स की अत्यधिक उपयोग से नींद की कमी हो सकती है, जिस से शरीर और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

इस से सामाजिक अलगाव हो सकता है, जिस से दोस्तों और परिवार के साथ संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

आर्थिक नुकसान: औनलाइन गेम्स में पैसे लगाने से आर्थिक नुकसान हो सकता है, जैसे गेम्स में पैसे खर्च करना या धोखाधड़ी का शिकार होना.

शारीरिक स्वास्थ्य: औनलाइन गेम्स के अत्यधिक उपयोग से शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जैसे वजन बढ़ना, आंखों की समस्याएं और अन्य शारीरिक समस्याएं.

अध्ययन और काम पर प्रभाव: औनलाइन गेम्स के अत्यधिक उपयोग से अध्ययन और काम पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जैसे ग्रेड्स में कमी या काम में कम उत्पादकता.

व्यसन: औनलाइन गेम्स के अत्यधिक उपयोग से व्यसन हो सकता है, जिस से व्यक्ति को गेम्स छोड़ने में मुश्किल होती है.

धोखाधड़ी: औनलाइन गेम्स में धोखाधड़ी का खतरा रहता है, जैसे गेम्स में पैसे लगाने वाले स्कैम या व्यक्तिगत जानकारियां चोरी होना. इस तरह औनलाइन गेम्स के अत्यधिक उपयोग से आदतें खराब हो सकती हैं, जैसे जुए की आदत या अन्य नकारात्मक आदतें. औनलाइन गेम्स के अत्यधिक उपयोग से बरबादी होती है, जिस से जीवन के आवश्यक काम और गतिविधियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

इन नुकसानों को ध्यान में रखते हुए औनलाइन गेम्स का उपयोग सीमित और जिम्मेदारी से करना चाहिए. विजय गोयल द्वारा शुरू किया गया औनलाइन गेमिंग के खिलाफ अभियान सफल हो सकता है.

इस के लिए सब से आवश्यक है

पहला- जन जागरूकता अभियान के माध्यम से लोगों को औनलाइन गेमिंग के नुकसानों के बारे में जागरूक करना आवश्यक है.

दूसरा- अभियान को सरकारी समर्थन मिलने से औनलाइन गेमिंग पर नियंत्रण करने में मदद मिल सकती है.

तीसरा- सामाजिक संगठनों का समर्थन मिलने से अभियान को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है.

चौथा- मीडिया कवरेज से अभियान को अधिक पहुंच और प्रभाव मिल सकता है.

पांचवां- युवाओं को अभियान में शामिल करने से औनलाइन गेमिंग के प्रति उन की सोच बदलने में मदद मिल सकती है.

ऐसे में औनलाइन गेमिंग उद्योग इस अभियान का विरोध कर सकता है. जिस से अभियान की प्रगति धीमी हो सकती है. सरकारी नीतियों की कमी से औनलाइन गेमिंग पर नियंत्रण करना मुश्किल हो सकता है. वहीं, लोगों की औनलाइन गेमिंग की आदत बदलना भी मुश्किल हो सकता है.

अभियान की सफलता के लिए विजय गोयल और उन की टीम को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा. मगर ईमानदारी से विरोध और जागृति अभियान चलाया जाए तो हमारा देश दुनिया में मिसाल बन सकता है. औनलाइन गेमिंग एक दोधारी तलवार है, जिस के अच्छे और बुरे दोनों पहलू हैं. लेकिन यह मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं, आर्थिक नुकसान और सामाजिक अलगाव पैदा करता है. वहीं जानकार बताते हैं कि औनलाइन गेमिंग के अत्यधिक उपयोग से मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो जाती हैं.

युवाओं को इस के नुकसानों के बारे में जागरूक होना चाहिए और इस का उपयोग अपने जीवन को सुधारने के लिए करना चाहिए, न कि इस के अधीन होने के लिए.

कंजरवेटिव इन्फ्लुएंसर्स के सहारे ट्रंप की नैया पार

“मैं फटाफट उन लोगों को धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने ट्रंप को जिताने में मदद की. मैं धन्यवाद करना चाहूंगा ‘नेल्क बौयज’, थीओ वोन, बुस्सिन एंड लास्ट बट नौट द लीस्ट ‘जोए रोगन’ का.”

ये वाक्य 6 नवंबर को डोनाल्ड ट्रंप की फ्लोरिडा के वेस्ट पाम बीच के कन्वेंशन सैंटर में विक्ट्री जश्न पर स्टेज में शामिल डाना वाइट के थे. 1969 में मानचैस्टर में जन्मे डाना वाइट अमेरिकी बिसनैसमैन हैं और मौजूदा समय में अल्टीमेट फाइटिंग चैंपियनशिप (यूएफसी) के सीईओ व प्रैसिडैंट हैं.

ग्रे कोट और ब्लैक शर्ट में डाना विक्ट्री साइन दिखाते हुए स्टेज पर जब बोल रहे थे तो पीछे डोनाल्ड ट्रंप और उन की वाइफ मेलीनिया ट्रम्प मुसकरा रहे थे. जाहिर है, ट्रंप और डाना वाइट के बीच गहरे संबंध चुनाव के मद्देनजर नहीं थे.

ट्रम्प और व्हाइट की खासी हिस्ट्री रही है. यह कहना गलत न होगा कि राजनीति से दूर डाना वाइट ट्रंप के वोकल सपोर्टरों में से एक रहे हैं. इन की दोस्ती की शुरुआत 2001 में शुरू हुई थी. उस समय आयरिश-अमेरिकी कालेज ड्रौपआउट डाना वाइट मुक्केबाजी के टीचर थे. वे मिक्स्ड मार्शल आर्ट (एमएमए) चैंपियनशिप की शुरुआत कर रहे थे.

एमएमए उस दौरान प्रतिबंधों की रडार पर आ रहा था. उस समय के अमेरिकी सीनेटर जौन मैक्केन ने इसे ‘ह्युमन कौकफाइटिंग’ यानी मानव की मुरगा लड़ाई करार दिया और यूएफसी पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक कैंपेन को लीड किया था. यह वह समय था जब ट्रंप ने उन्हें बुलाया और कहा, ‘मेरे यहां आओ, यहां अपना प्रोग्राम करो, हम तुम्हें ट्रंप ताजमहल में जगह देंगे.’

डाना वाइट के अनुसार, अटलांटिक सिटी में अब बंद हो चुके कैसीनो और होटल ने यूएफसी 31 और यूएफसी 32 एमएमए इवैंट की मेजबानी की थी, जिस में ट्रंप इन लड़ाइयों को देखने आए, आखिरी तक रुके रहे. इन दोनों घटनाओं ने इस खेल को हाइप दी और आज यह दुनिया में सब से बड़ा एमएमए खेल बन गया है.

6 तारीख को आए अमेरिकी चुनाव परिणाम में डोनाल्ड ट्रंप कमला हैरिस से 226 के मुकाबले 312 सीटों से जीत गए. यह जीत बड़ी है, खासकर उस समय जब पूरी दुनिया में लिबरल और कंजरवेटिव के बीच मुकाबले में कंजरवेटिव बीस ही साबित हो रहे हैं और इस कड़ी में ट्रंप का जीतना पूरी दुनिया पर भारी पड़ने वाला है.

बहरहाल, जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति बनने की खुशी जाहिर कर रहे थे तब उस मंच से डाना वाइट ने जिन लोगों को धन्यवाद किया वे अमेरिका के वे दक्षिणपंथी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स थे जो हाल में काफी विवादित और पौपुलर हो चुके हैं. इन में से एक इन्फ्लुएंसर जोए रोगन थे जो डाना वाइट के करीबी दोस्त हैं और यूट्यूब पर लंबीलंबी पोडकास्ट करते हैं. इन पोडकास्ट में वाइस प्रैसिडैंट और रिपब्लिकन पार्टी के नेता जे डी वेंस जैसे चर्चित लोग भी शामिल हुए जिन का पौलिटिकल व्यू एबौर्शन, सेम सैक्स मैरिज का विरोध करना है, हालांकि एक समय था जब जे डी वेंस ट्रंप के आलोचक थे और उन्होंने ट्रंप की तुलना हिटलर से कर दी थी.

यही नहीं, एलन मस्क भी इन की चौखट पर अपना माथा टेक कर आ चुके हैं. इस के अलावा ग्रैहम हंकोक्क, जो मशहूर ब्रिटिश औथर हैं और सूडोसाइंटिफिक थ्योरी को प्रोमोट करते हैं, जिन का काम धार्मिक गपों का गुब्बारा बना कर जैसेतैसे हिस्ट्री से जोड़ देना है, वे भी पोडकास्ट में आए हैं. इन की किताबों को लें, ‘फिंगरप्रिंट्स औफ द गौड्स’, ‘अमेरिका बिफोर : की अ अर्थ लौस्ट सिविलाइजेशन’, ‘सुपरनैचुरल’ आदि सभी फालतू की थ्योरियों को जोड़ कर कुछ मिस्ट्री क्रिएट कर के लिखी गई हैं. इस तरह के औथर भारत में भी उग आए हैं जो ढेरों आधेअधूरे तथ्यों को जोड़ कर कुतर्कों को तर्क बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं. जोए रोगन कितने महत्त्वपूर्ण इन्फ्लुएंसर साबित हुए, इस का अंदाजा इस से लगाया जा सकता है कि इन के पोडकास्ट में डोनाल्ड ट्रंप भी चुनावीप्रचार के लिए जा चुके हैं.

जोए रोगन ने एक्स पर, राइटविंग फौक्स चैनल के उस वीडियो को पोस्ट किया जिस में ट्रंप की जीत की अनाउंसमैंट की गई थी, उस में लिखा, “होली शिट, सोचो तो उन के पास बेयोन्से, एमिनेम, लेब्रोन, टेलर स्विफ्ट और कई अन्य चर्चित लोग थे और वे तब भी हार गए.”

डाना वाइट ने जिन इन्फ्लुएंसर्स के नाम लिए उन में से एक एडिन रोज भी था. एडिन रोज ने ट्रंप का खुला समर्थन किया. एडिन के यूट्यूब पर तकरीबन 45 लाख सब्सक्राइबर्स हैं. वहीं इंस्टाग्राम पर उस के लगभग 70 लाख फौलोअर्स हैं. तकरीबन 3 महीने पहले एडिन रोज के चैनल ‘एडिन लाइव’ में डोनाल्ड ट्रंप गए. यह एक तरह का चुनावी प्रचार शो था, जहां एडिन ने ‘मागा’ की कैप पहनी और लगभग 1 घंटा 17 मिनट का लाइव शो किया. एडिन रोज ने ट्रंप को रौलेक्स गिफ्ट किया. एडिन एंड्रयू टेट जैसे मिसोजनिस्ट इन्फ्लुएंसर्स के साथ लाइव स्ट्रीम भी करता है. एंड्रयू टेट अमेरिका का महिलाविरोधी, नस्लवादी इन्फ्लुएंसर है, जिस पर हर कभी मुक़दमे चलते रहते हैं.

जानकारों का मानना है कि ट्रंप ने सोशल मीडिया का उस तरह इस्तेमाल नहीं किया जैसे कमला हैरिस ने किया. रिपोर्ट्स के अनुसार ट्रंप ने कमला के मुकाबले सोशल मीडिया पर कम पैसे खर्च किए थे. जहां कमला हैरिस ने लगभग 103 करोड़ रुपए खर्च किए, वहीं ट्रंप ने लगभग 5-6 करोड़ रुपए ही खर्च किए. लेकिन इस में दिलचस्प बात यह थी कि जहां कमला ने गूगल एड में पैसे खर्च किए वहीं ट्रंप ने इन्फ्लुएंसर्स का सहारा लिया.

हालांकि ट्रंप का पूरा चुनावप्रचार एक्स के मालिक एलन मस्क के हाथों में था, जिन पर आरोप लगे कि उन्होंने ट्विटर का डाटा कहीं न कहीं ट्रंप के फेवर में इस्तेमाल किया. उन पोस्टों की रीच कम की गई जो कमला हैरिस के समर्थन में थीं और उन की बढ़ाई गई जो ट्रंप के समर्थन में थीं, यहां तक कि कई उन पोस्टों को चलने दिया जो कमला या डैमोक्रेट्स के खिलाफ नफरती थ्योरी से भरी रहती थीं. यह भी नोट किया जाए कि ट्रंप समर्थक पोस्टों को ज्यादा से ज्यादा पौपअप किया गया ताकि वे शुरुआत में दिख जाएं. यानी, एक तरह से लगभग 80 ख़राब रुपए का ट्विटर पूरा का पूरा ट्रंप के हाथों में था.

रिपब्लिकन से प्रभावित इन्फ्लुएंसर डेविड लेदरवुड, जिन का एक्स अकाउंट ‘ब्रोक बैक पैट्रियट’ के नाम से है, ने रविवार को एक्स पर पोस्ट किया, “देशभक्तो, मैं अंतिम चुनाव के लिए ट्रंप अभियान के साथ साझेदारी कर रहा हूं और हमें आप की मदद की जरूरत है.” “पोर्टल यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि आप का मतदाता पंजीकरण सक्रिय है ताकि आप के वोट काउंट किए जा सकें.”

वहीं, इन्फ्लुएंसर मौर्गन ब्लेयर मैकमाइकल ने चुनाव के दौरान एक्स पर पोस्ट किया, “टीम ट्रंप को आप की जरूरत है, हम जीतेंगे, अपना वोट अवश्य दें.”

एक्स ने इन तरह के लोगों को खूब पौपअप किया. यही कारण भी है कि ट्रंप समर्थक इन्फ्लुएंसर्स और सरोगेट सोशल मीडिया पर ऐसे कंटैंट लगातार ला रहे थे, उन्हें ज्यादा रीच भी मिल रही थी, जो ट्रंप के समर्थकों या वोटरों को 2024 के राष्ट्रपति चुनाव के अंतिम दिनों में वोट देने के लिए मोटीवेट कर रहे थे, मगर दूसरी तरफ कमला हैरिस की टीम ऐसा नहीं कर पाई.

इन में से दसियों क्रिएटर्स और समर्थक ट्रंप मागा कैंपेन साइट पर लिंक पोस्ट कर रहे थे जहां मतदाता अपने पंजीकरण की स्थिति की जांच कर सकते थे, अपने मतदान स्थान ढूंढ़ सकते थे और अपने मतपत्र कहां डाल सकते हैं उस की जानकारी ले सकते थे.

सीजे पियर्सन एक कंजरवेटिव क्रिएटर है, जिस के एक्स पर 5 लाख से ज्यादा फौलोअर्स हैं, ने निजी न्यूज़ चैनल में कहा कि वह चुनाव की रात के लिए पाम बीच, फ्लोरिडा में रहेगा, जो ट्रंप का मार ए लागो रिजौर्ट है. कई ट्रंप समर्थक क्रिएटर्स ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर चुनाव परिणामों की लाइव स्ट्रीम होस्ट करने या अपने दोस्तों द्वारा होस्ट की गई अन्य स्ट्रीम में शामिल हुए.

पूरे कैंपेन के दौरान ट्रंप समर्थक एक टीम की तरह काम करते रहे. अक्तूबर में जे डी वेंस और टिम वाल्ज़ के बीच उपराष्ट्रपति की बहस के दौरान इन्फ्लुएंसर ने रिपब्लिकन के समर्थन में माहौल बनाने का काम किया. पियर्सन, जैक पोसोबिएक, एशले सेंट क्लेयर और रोगन ओ हैंडली सहित कई फेमस सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स अपने फोन और कंप्यूटर के साथ फिलाडेल्फिया कौन्फ्रैंस हौल में बैठ कर डिबेट करते रहे.

इन सब में सब से बड़े इन्फ्लुएंसर एलन मस्क ने इस पूरे चुनाव में ट्रंप के फेवर में बड़ी भूमिका निभाई. बताया जाता है कि पौलिटिकल एक्शन कमेटी (पीएसी), जिसे मस्क ने बैक किया था, ने ट्रंप समर्थन में फंड रेजिंग से ले कर, डोरटूडोर कैंपेन कर के, मीम्स और पोस्टर्स से ले कर नारों को लोगों तक पहुंचाया. यह इतना इफैक्टिव था कि जो स्टेट स्विंग स्टेट कहे जाते थे और डैमोक्रेट्स को इतनी दिक्कत उन में नहीं होनी थी, वहां भी ट्रंप भारी पड़े.

अमेरिका के इस चुनाव को इन्फ्लुएंसर्स के प्रभाव से भी देखना जरूरी है. इन का असर चाहे डायरैक्ट न हो मगर ये इन्फ्लुएंसर्स माहौल बनाने का काम तो जरूर करते हैं. यही काम भारत में भी होने लगा है. राजनेता अब लोगों के पास अपनी बातों को न ले जा कर इन्फ्लुएंसर्स के पास ले कर जा रहे हैं. काम पर वोट नहीं मांगे जा रहे बल्कि डर दिखा कर, माहौल बना कर वोट मांगे जा रहे हैं, जिस के लिए नेता अधकचरी जानकारी वाले इन इन्फ्लुएंसर्स के पास जाते हैं और ये अपनी अज्ञानता का सड़ा गोबर जहांतहां फैलाते रहते हैं.

क्या पहली या दूसरी शादी छिपाई जा सकती है

भोपाल की पूजा थापक की दुखद आत्महत्या के मामले में एक दिलचस्प मोड़ 17 नवंबर को उस वक्त सामने आ गया जब उस के ससुर जीवनलाल दुबे ने यह दावा किया कि निखिल से शादी के पहले भी वह एक नायब तहसीलदार जयेश प्रताप सिंह परमार से इंदौर के आर्य समाज मंदिर में साल 2019 में शादी कर चुकी थी. जिस के दस्तावेजी सुबूत मेरे बेटे निखिल के हाथ लग गए थे. इसी कारण से दोनों में विवाद रहने लगा था. इस से पूजा गिल्ट फील करने लगी थी जिस के चलते उस ने आत्महत्या कर ली और अब परेशान मेरे परिवार वालों को किया जा रहा है. यह सब पूजा के बहनोई अवधेश शर्मा के दबाव में किया जा रहा है जो छतरपुर के कलैक्टर हैं.

खूबसूरत, हंसमुख और इंटैलीजैंट पूजा ने बीती 9 जुलाई को भोपाल के साकेत नगर स्थित अपने घर में फांसी का फंदा लगा कर आत्महत्या कर ली थी जिस का आरोप उस के पति निखिल दुबे और सास आशा दुबे पर लगा था. तब ये दोनों फरार हो गए थे. बाद में 5 अगस्त को पुलिस ने निखिल को दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया था जो कथित तौर पर कालेज के जमाने की अपनी एक गर्लफ्रैंड के यहां फरारी काट रहा था. आशा अभी तक फरार है. निखिल सूचना एवं प्रोद्योगिकी विभाग में वैज्ञानिक है जबकि पूजा जनसंपर्क विभाग में असिस्टैंट डायरैक्टर और श्रम मंत्री प्रह्लाद पटेल की ओएसडी भी थी.

इन दोनों की शादी साल 2022 में हुई थी. शादी के कुछ दिनों बाद से ही दोनों में कलह होने लगी थी लेकिन नवंबर 2023 उन्हें एक बेटा भी हुआ था जिस की कस्टडी का विवाद भी अदालत पहुंचा था और अदालत के आदेश पर उसे नानानानी को सौंप दिया गया था.

पूजा की आत्महत्या के बाद खासा बवाल मध्य प्रदेश में मचा था और तरहतरह की चर्चाएं भी हुई थीं. दोनों के परिजनों ने एकदूसरे पर तरहतरह के इलजाम मढ़े थे, मसलन पूजा के घर वालों की तरफ से ये कि निखिल अव्वल दर्जे का शराबी था, पूजा के साथ आएदिन मारपीट करता था और अपनी मां आशा सहित दहेज के लिए उसे प्रताड़ित भी करता रहता था.

निखिल के घर वालों ने इन आरोपों का खंडन करते पूजा को ही दोषी ठहराया था. ये बातें कतई नई नहीं थीं लेकिन हैरान कर देने वाला आरोप निखिल के पिता ने पूजा के पहले से ही शादीशुदा होने का लगाया तो हर कोई चौंका क्योंकि मामला अब एकता कपूर छाप पारिवारिक टीवी सीरियलों सरीखा हो गया था जिस में दूसरीतीसरी शादी और उस का छिपाना कहानी की जान होती है. सोशल मीडिया पर पूजा और जयेश परमार की शादी का सर्टिफिकेट भी वायरल हुआ.

यह सर्टिफिकेट कितना सच्चा, कितना झूठा है, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस की सत्यता की जांच नहीं हुई थी. लेकिन अगर यह सच्चा है तो जाहिर है पूजा अपनी पहली शादी की बात छिपाने में कामयाब नहीं हो पाई थी. ऐसा अकसर दूसरी शादी करने वाले कर पाते हैं या नहीं, यह उन की समझ और चालाकी पर निर्भर करता है. पर अहम सवाल यह कि लोग ऐसा करते ही क्यों हैं.

इस सवाल के दर्जनों जवाबों में से एक महत्त्वपूर्ण यह है कि अगर दूसरी शादी करने के लिए तलाक का इंतजार किया जाए तो इस प्रक्रिया में सालों गुजर जाते हैं. तब तक शादी की उम्र ढलने के साथसाथ जज्बात और जोश भी खत्म होने लगते हैं. यह बिलाशक बड़ी क़ानूनी खामी है कि तलाक के मुकदमे सालोंसाल चलते रहते हैं और पति या पत्नी वक्त रहते दूसरी शादी नहीं कर पाते, क्योंकि पहले या पहली से तलाक लिए बगैर दूसरी शादी कानूनन अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 495 के तहत है जिस में 10 साल तक की सजा और जुर्माना दोनों का प्रावधान है.

अगर पूजा ने भी ऐसा किया था तो क्या गलत किया था और इस का जिम्मेदार कौन है वह खुद या वह कानून जो झटपट तलाक की डिक्री नहीं देता, बल्कि सालोंसाल लगा देता है. अगर पूजा भी तलाक के लिए अदालत जाती तो 4 साल तो मामला फैमिली कोर्ट में ही अटका होता और अगले 10-12 साल उस के सुलझने के आसार भी न दिख रहे होते. अगर जीवनलाल दुबे का आरोप और पूजा-जयेश की शादी का प्रमाणपत्र सच्चा है तो लगता ऐसा भी है कि पूजा और जयेश परस्पर सहमति से अलग हो गए होंगे.

मुमकिन यह भी है कि दोनों ने हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13 (बी) के तहत परस्पर सहमति से ही तलाक भी ले लिया हो लेकिन यह बात पूजा निखिल को बता नहीं पाई. उसे डर सचाई जानने पर निखिल के इनकार का रहा होगा, वजह, तलाकशुदा से शादी करने में लोग हिचकिचाते हैं.

एक और संभावना इस बात की भी है कि हकीकत पता चलने पर तिलमिलाया निखिल सकते में आ गया हो और पूजा को ही ब्लैकमेल व प्रताड़ित करने लगा हो जिस ने काफी नकदी और अचल संपत्ति ससुराल वालों को दी थी. पर निखिल इस के बाद भी धोखे को हजम नहीं कर पा रहा हो लेकिन बेटे का मोह और उस के भविष्य की चिंता के साथसाथ अपने परिवार की प्रतिष्ठा का खयाल भी उसे इस सच को सार्वजनिक करने से रोक रहा हो. सच कुछ भी हो लेकिन उस से निखिल के अपराध की गंभीरता कम नहीं हो जाती बशर्ते यह अदालत में साबित हो पाए कि वह वाकई पत्नी को प्रताड़ित करता था.

यानी, दूसरे जीवनसाथी के सामने पहली शादी की बात छिपाई जा सके तो सबकुछ ठीकठाक चल सकता है. ठीक इसी तरह दूसरी शादी की बात अगर छिपाई जा सके तो भी वैवाहिक जीवन सफलतापूर्वक चल सकता है. ऐसा बड़े पैमाने पर हो भी रहा है. जिन के तलाक के मुकदमे सालों से अदालतों में चल रहे हैं वे लिवइन में धड़ल्ले से रह रहे हैं. भोपाल के ही एक 37 वर्षीय कारोबारी अनिमेश (बदला नाम) की मानें तो वह पौश इलाके में अपनी पार्टनर के साथ रहते पहली पत्नी से तलाक का इंतजार कर रहे हैं जिस के होते ही वे अपनी पार्टनर से शादी कर लेंगे. यह बात उन्होंने उसे बता भी दी है. हां, अनिमेश कहते हैं तब तक हम बच्चे के बारे में नहीं सोच रहे क्योंकि तब मामला कौंप्लीकेटेड हो सकता है वह भी उस सूरत में जब तलाक की डिक्री न मिले.

अनिमेश कुछ गलत नहीं कर रहा है क्योंकि वह बिना शादी किए एक आत्मनिर्भर और नौकरीपेशा महिला के साथ उस की मरजी से रह रहा है जो कानूनन अपराध नहीं है. और पत्नी को इस का पता चल जाए तो वह कोर्ट में इसे चुनौती नहीं दे सकती और अगर देती भी है तो कुछ साबित नहीं कर सकती.

पहले जीवनसाथी के रहते दूसरी शादी का चलन बावजूद कानूनों के होने के बाद भी हमेशा रहा है. फर्क यह है कि पहले पहला जीवनसाथी, जो अकसर पत्नी होती थी, कई वजहों के चलते कोई कार्रवाई नहीं करती थी लेकिन अब करने लगी हैं तो उस का तोड़ भी लिवइन की शक्ल में निकल आया है.

जब तोड़ निकल ही आया तो अदालतों को इस से भी तकलीफ होने लगी है. 12 मार्च, 2024 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक फैसले में यह कहा है कि कोई भी विवाहित महिला पति से तलाक लिए बिना लिवइन में नहीं रह सकती. हुआ यह था कि लिवइन में रह रही महिला अदालत गई थी सुरक्षा की मांग ले कर, लेकिन एवज में अदालत ने उसे नैतिकता की घुट्टी पिला दी. बकौल इलाहाबाद हाईकोर्ट की जस्टिस रेनू अग्रवाल, बगैर तलाक लिए विवाहिता लिवइन में नहीं रह सकती. ऐसे रिश्तों को मान्यता देने से अराजकता बढ़ेगी और देश का सामाजिक तानाबाना नष्ट हो जाएगा. अदालत ने याची कासगंज की पूजा कुमारी पर 2 हजार रुपए का जुर्माना भी ठोक दिया.

निचली से ले कर ऊपरी अदालतें तक पूजापाठी हैं जो नहीं चाहतीं कि तलाक की तादाद बढ़े क्योंकि यह उन की भी नजर में एक धार्मिक संस्कार है. पूजा कुमारी सुरक्षा मांगने गई थी, अपने रिश्ते के जायजनाजायज या नैतिकअनैतिक होने का सर्टिफिकेट या राय उस ने नहीं मांगी थी जो कि मुफ्त में अदालत ने दे दी. दो टूक और टू द पौइंट बात करने की हिमायत करने वाली अदालत सुरक्षा देने में असमर्थता जाहिर कर सकती थी. लेकिन उसे यह रास नहीं आया कि बिना तलाक लिए कोई महिला वयस्क महिला अपनी मरजी से सुखचैन से रहे (यानी अविवाहिता लिवइन में रहे तो यह अराजकता नहीं और न ही इस से देश का सामाजिक तानाबाना नष्ट होता). पूछना तो अदालत को यह चाहिए था कि याची के तलाक के मुकदमे में देर क्यों हो रही है जिस के चलते वह कटी पतंग सी हालत में जी रही है. और अगर लिवइन में रह भी रही है तो कौन से कानून की कौन सी धारा के तहत अदालत उसे न रहने के लिए बाध्य कर सकती है. यह न किसी ने पूछा और न ही बताया.

यह ठीक है कि लिवइन के अपने अलग झमेले हैं और वह एक आदर्श वैवाहिक विकल्प हर किसी के लिए है. उन लोगों के लिए भी जो शादी नहीं करना चाहते और उन लोगों के लिए भी जो तलाक के मुकदमे के दौरान कोई सहारा चाहते हैं और वैवाहिक जीवन सरीखे मानसिक व शारीरिक सुख भोगना चाहते हैं. उन्हें बलात रोकने का प्रावधान किसी कानून में नहीं है तो डर किस बात का. इत्मीनान से छिपाइए पहली या दूसरी शादी की बात और इत्मीनान से रहिए. धर्म, समाज और परिवार के बेजा दबाव और घुटन में पूजा कुमारियां क्यों रहें.

हमसफर: क्या रेहान अपनी पत्नी की जान बचा पाया?

रेहान ने तेल टैंकर की साइड वाली सीढ़ी से झुकते हुए अपने 2 साल के मासूम बेटे रेहम को गट्ठर की तरह खींच कर टैंकर की छत पर रख दिया, जिसे उस की बीवी रुखसार ने उठा रखा था. फिर रुखसार को बाजुओं में उठा कर सीढ़ी तक पहुंचाया, जो 7 महीने के पेट से थी.

रुखसार ने सीढ़ी के डंडे को कस कर पकड़ा और ऊपर चढ़ने लगी कि अचानक उस का पैर फिसल गया. गनीमत यह रही कि उस के दोनों हाथ सीढ़ी के डंडों पर मजबूती से जमे हुए थे और रेहान वहां से हटा नहीं था, वरना वह सीधे जमीन पर आ गिरती. फिर भी पेट पर कुछ चोट आ ही गई.

लौकडाउन में जब से कुछ ढील मिली थी, तब से मजदूरों का पलायन जोरों पर था. रेहान और उस के बीवीबच्चे दिल्ली के सीलमपुर इलाके में सिलाई का काम करते थे. कोरोना महामारी के चलते पिछले 2 महीने से काम बंद था. एक महीना अपनी कमाई से गुजरबसर हुआ, तो दूसरे महीने का खर्च फैक्टरी मालिक ने उठाया. उस के बाद फैक्टरी मालिक ने भी हाथ खड़े कर दिए.

रमजान का महीना चल रहा था और ईद का त्योहार सिर पर था, इसलिए घर जाना जरूरी भी था. कोई रास्ता न देख कर उन्होंने अपना बोरियाबिस्तर समेटा और गांव के लिए निकल पड़े. रास्ते में 4-5 मजदूर और साथ हो लिए.

वे सब सीलमपुर इलाके से पैदल चल कर नोएडा पहुंचे. वहां से आगे जाने के लिए कोई सवारी नहीं थी. मजदूरों ने एक तेल टैंकर के ड्राइवर से गुजारिश की, तो वह ले जाने को तैयार हुआ.

ड्राइवर ने बताया कि वह बरेली तक जा रहा है, वहां तक उन्हें छोड़ देगा. फिर कुल 8 मजदूर टैंकर की छत पर बैठे और खड़ी धूप से नजरें मिलाते हुए अपनी मंजिल की तरफ चल पड़े.

मुरादाबाद के एक चौराहे पर सत्तू पीने के लिए ड्राइवर ने टैंकर रोका. रेहान, उस की बीवी रुखसार और बच्चे रेहम को छोड़ कर बाकी सभी मजदूर सत्तू पीने के लिए उतर गए. वे दोनों मियांबीवी मन मसोस कर टैंकर की छत पर ही बैठे रहे.

तभी वहां मनोज की साइकिल रुकते देख रुखसार का चेहरा खिल उठा. उस ने चहकते हुए कहा, ‘‘अरे, वह देखो मनोज भैया.’’

रेहान ने मनोज को देख कर बस की छत से हांक लगाते हुए कहा, ‘‘ओ मनोज भाई. अरे, कहां रह गए थे. 2 दिन से अभी यहीं लटके हैं…’’

मनोज भी वहीं काम करता था, जहां रेहान करता था. लौकडाउन लगते ही मनोज के सेठ ने उस का हिसाब कर दिया, जिस में मनोज को 5,000 रुपए मिले. उन रुपए में से 3,500 रुपए की उस ने साइकिल खरीदी और इन लोगों से 2 दिन पहले ही अपने घर के लिए 1,100 किलोमीटर के लंबे सफर पर निकल पड़ा था.

मनोज ने गमछे से मुंह पोंछते हुए रेहान के सवाल का मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘हां भाई. यह कोई हवाईजहाज थोड़ी है, साइकिल है साइकिल, जिसे खून जला कर चलाना पड़ता है. उतरो नीचे, सत्तू पीया जाए.’’

रेहान बोला, ‘‘न भाई, रहने दो, तुम पीयो, हम लोग ऐसे ही ठीक हैं.’’

मनोज रेहान की मजबूरी समझता था. उस ने कहा, ‘‘अरे, क्या खाक ठीक है. उतरो नीचे.’’

रेहान बोला, ‘‘पर, रेहम और रुखसार…’’

‘‘उन के लिए ऊपर ही पहुंचा देते हैं. पहले तुम तो नीचे उतरो.’’

रेहान टैंकर की छत से नीचे उतर आया.

मनोज ने सत्तू वाले से 4 गिलास सत्तू बनाने के लिए कहा.

रेहान बोला, ‘‘अरे, रेहम पूरा गिलास थोड़ी ही पी पाएगा. 3 गिलास ही रहने दो. वह अपनी अम्मी में से पी लेगा.’’

सत्तू वाले ने 2 गिलास उन लोगों की  तरफ बढ़ाए.

मनोज बोला, ‘‘चलो, ऊपर रुखसार को बढ़ाओ. रेहम के गिलास में से जो बचेगा, वह उस की अम्मी पी लेगी. बेचारी, एक तो बच्चे को दूध पिलाती है, ऊपर से पेट में बच्चा भी पल रहा है. कायदे से तो अकेले उस के लिए  ही 3 गिलास चाहिए, लेकिन क्या  किया जाए…

बहरहाल, सत्तू पीने के बाद मनोज बोला, ‘‘इस हालत में रुखसार को ले जाना और वह भी टैंकर की छत पर बैठा कर, बिलकुल ठीक नहीं.’’

रेहान बोला, ‘‘क्या करें भाई, दिल्ली में भी तो मरना ही था. खानेपीने के लाले पड़ रहे थे. अगर ईद का त्योहार न होता, तो कुछ दिन और रुक कर देखते. अब निकल गए हैं, आगे जो रब की मरजी.’’

अभी इन दोनों में बातचीत चल ही रही थी कि पुलिस वाले वहां आ धमके. 10-12 मजदूरों को इकट्ठा देखते ही उन की पुलिसिया ट्रेनिंग उफान मारने लगी और वे लगे ताबड़तोड़ लाठियां भांजने.

फिर क्या था, सब से पहले मनोज साइकिल पर सवार हो कर भाग खड़ा हुआ, फिर टैंकर के ड्राइवरखलासी भी भागे और छत पर बैठने वाले मुसाफिर भी.

आगेआगे मनोज की साइकिल और पीछे से घबराया हुआ टैंकर का ड्राइवर. उसे कुछ सुझाई नहीं दिया. मनोज रोड के दाएं से बाएं की तरफ मुड़ा ही था कि टैंकर उस पर चढ़ बैठा.

टैंकर की छत से रुखसार और रेहान ने मनोज को सड़क पर गिर कर तड़पते हुए देख लिया और चिल्लाने लगे. लेकिन ड्राइवर कहां रुकने वाला था. वह अपनी जान बचा कर भागता चला गया.

ये दोनों शौहरबीवी भी कहां मानने वाले थे, वे तब तक चिल्लाते रहे, जब तक ड्राइवर ने टैंकर रोक कर उन्हें उतार नहीं दिया.

फिर यह कुछ कहसुन पाते, इस के पहले ही टैंकर नौ दो ग्यारह हो गया.

रेहान और रुखसार अपने बच्चे और सामान से भरे 2 बैग समेत हादसे की जगह की तरफ दौड़ने लगे. तभी एक पुलिस की गाड़ी उन के पास आ कर रुकी और माजरा पूछा. फिर उन्हें अपनी गाड़ी में बैठाया और हादसे की तरफ चल पड़े.

जब तक वे लोग वहां पहुंचे, तब तक मनोज मर चुका था. रुखसार रोने लगी. उस की चीखें सुन कर अगलबगल में खड़े लोग भी आंखें पोंछने लगे. ऐसा लग रहा था कि मरने वाला मनोज उस का सगा भाई है.

फिर शुरू हुई लाश को ठिकाने लगाने की लंबी प्रक्रिया. अनजान जगह और अनजान लोग. साथ में मासूम बच्चा और भूखप्यास की जबरदस्त शिद्दत. लाश को कोई हाथ लगाने के लिए तैयार नहीं.

फिर भी दोनों शौहरबीवी ने हार नहीं मानी और पुलिस वालों, आनेजाने वालों और गांव वालों से चंदा और मदद ले कर मनोज का अंतिम संस्कार कर दोस्ती और इनसानियत का हक अदा किया.

अब इन के पैसे और हिम्मत दोनों ही जवाब दे चुके थे. इस बीच रुखसार अपने पेट में उठ रहे मीठेमीठे दर्द को दबाती रही. अब वहां से घर जाने की समस्या और भी गंभीर लगने लगी. चंद पैसे पास बचे थे, उन से बेटे के लिए दूध और बिसकुट खरीदा और रोते हुए रेहम को चुप कराया.

रात हो चुकी थी. गांव वालों ने कोरोना के डर से उन्हें पनाह देने से इनकार कर दिया. कहां जाएं? किस से मदद मांगें? आखिर थकहार कर वे बेचारे एक पेड़ के नीचे सो गए.

अगली सुबह एक और मुसीबत साथ ले कर आई. रुखसार दर्द से कराहने लगी. सलवार खून से सन गई. पैरों में खड़े होने की ताकत नहीं रही. उसे लगने लगा कि पेट में पल रहे बच्चे को नुकसान हो चुका है.

रुखसार की बोली लड़खड़ाने लगी. रेहान समझ रहा था कि रुखसार कहना कुछ चाह रही है और जबान से कुछ और निकल रहा है.

बड़ी मुश्किल से किसी तरह सरकारी अस्पताल पहुंचे. वहां डाक्टरों ने बाहरी के नाम पर उन्हें टरकाना चाहा, लेकिन रेहान उन के पैरों पर गिर कर रहम की भीख मांगने लगा. डाक्टरों ने सैकड़ों तरह के सवालजवाब और जांचपड़ताल के बाद रुखसार को कोरोना पौजिटिव ठहराया.

रुखसार की हालत बिगड़ती जा रही थी. डाक्टरों ने 4 यूनिट खून का इंतजाम करने के लिए कहा. रेहान समझ गया कि कुदरत की यही आखिरी आजमाइश है, जिस में वे खरा नहीं उतर सकता. उस ने डाक्टरों से कहा कि वे उस के बदन से खून का एकएक कतरा निचोड़ लें और उस की रुखसार को बचा लें. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

रुखसार ने दाएं हाथ में शौहर का हाथ थामा और बाएं हाथ में रेहम का. वह रेहम की मासूम सूरत को एकटक निहारने लगी. ऐसा लग रहा था कि वह अपने लख्ते जिगर को जीभर कर निगाहों में बसा लेना चाहती थी.

उधर रेहान अपनी हमसफर को जीभर के देख लेना चाहता था जो बीच सफर में ही उस का साथ छोड़ कर जा रही थी. रेहम अभी भी अपनी मां के जिस्म में दूध तलाश कर रहा था.

रेहान रुखसार की पथराई आंखों की तपिश बरदाश्त नहीं कर सका और गश खा कर वहीं गिर पड़ा. लेकिन इन सब बातों से बेखबर रेहम अपनी मां का दूध हुमड़हुमड़ कर खींच रहा था.

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