लेखिका - आर्या झा

‘‘मम्मा, मैं ने अंकित को टिकट और विजिटिंग वीजा मेल कर दिया है, आप को लेने एयरपोर्ट आ जाऊंगी. बस, आप जल्दी से जल्दी मेरे पास आ जाओ.’’

‘‘पहले से कुछ बताया नहीं, कैसे जल्दी आ जाऊं. पहली बार तेरे घर आना है, कुछ तो तैयारियां करनी होंगी.’’

‘‘कैसी तैयारी, पापड़ बड़ी कोई खाता नहीं. इंडियन कपड़े मैं पहनती नहीं. बाकी सबकुछ अटलांटा में मिलता है, मां. बस, सुबह उठना और तैयार हो कर फ्लाइट में बैठ जाना.’’

आशना का यह कहना था कि निधि ने तैयारियां शुरू कर दीं. बच्चों का क्या है, कुछ भी बोलेंगे. वह मां है, वह तो बेटी के लिए उस की पसंद की सारी चीजें ले कर जाएगी. बेटे अंकित से उस की पसंद की मिठाइयां मंगाईं तो एक साल पहले की सारी तैयारियां याद हो आईं. कैसे घर को दुलहन सा सजाया था, घर के हर दरवाजे पर आम के पल्लव का तोरण लगाया था. बहू के आने और बेटी को विदा करने के सफर में हर बार पति की कमी कितनी खली थी पर खुद को संभालती हुई ऐसे तैयारी की कि उस की जिंदगी में जो खुशी का मौका आया है उसे ऐसे न जाने देगी, फिर अचानक सबकुछ बदल गया.

उस सुबह की याद आते ही उस का दिल कांप जाता है मगर आज उसी बेटी ने स्वयं उसे प्यार से बुलाया तो जरूर कोई न कोई अच्छी बात होगी. यही सब सोचती उस के बचपन में पहुंच गई.

‘प्रैक्टिस मेक्स मैन परफैक्ट, क्यों मम्मा. प्रैक्टिस मेक्स ह्यूमन परफैक्ट क्यों नहीं?’

मात्र 10 वर्ष की थी जब स्कूल से आते ही बैग फेंक कर वह जटिल प्रश्नों के बौछार कर रही थी और उस के पास कोई उत्तर न था सिवा समझने के. ‘इस में क्या है, मतलब से मतलब रखो न.’

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