लखनऊ रायबरेली हाइवे पर मुख्यमार्ग के 4 किलोमीटर अंदर बघौना गांव पङता है. यहां सड़क किनारे गुप्ताजी की चाय की दुकान है. दुकान पर रामदासपुर, नंदौली, बघौना, जमोरिया और लालताखेङा गांव के करीब 25-30 किसान बैठे थे. सब की परेशानी का एक ही कारण था, डीएपी खाद. किसानों का कहना था कि न तो सरकारी दुकान से और न ही प्राइवेट दुकान से उन को खेत में डालने के लिए डीएपी खाद मिल रही है. किसानों की शिकायत थी कि बड़े किसान तो फैक्टरी और खाद एजेंसी से ही खाद उठवा ले रहे हैं. जिन को 1 बोरी या आधी बोरी खाद की जरूरत होती है वे मारेमारे फिर रहे हैं. उन को गेहूं की बोआई में देरी हो रही है.
सभी किसान शिक्षक और समाजसेवी आईपी सिंह से अपनी व्यथा कह रहे थे. असल में गांव में धान की कटाई के बाद गेहूं बोआई का काम तेजी से चल रहा है. ऐसे में खाद की कमी से किसान परेशान है. खाद और बीज के लिए निगोहां और लालपुर में सरकारी और प्राइवेट दुकानें भी हैं. यहां देर रात से लाइन लग जाती है. कई बार किसानों का नंबर आतेआते खाद खत्म हो जाती है.
सिर्फ भरोसा
उत्तर प्रदेष के कृषिमंत्री सूर्यप्रताप शाही ने किसानों को भरोसा दिलाया कि खाद की कमी नहीं होने दी जाएगी. इस के बाद भी पूरे प्रदेश में डीएपी खाद की कमी बनी हुई है.
डीएपी खाद की कीमत 50 किलोग्राम बैग के लिए ₹1,350 है. हालांकि, बिना सब्सिडी के डीएपी की एक बोरी की कीमत ₹2,433 हो जाती है. सरकार की ओर से डीएपी पर ₹1,083 की सब्सिडी दी जाती है. ऐसे में सरकार यह भी कहती है कि वह किसानों को कम कीमत पर खाद दे रही है. खुले बाजार में डीएपी खाद की कीमत 50 किलोग्राम के बैग के लिए ₹15 सौ से अधिक की कीमत वसूल की जा रही है.
वादे हैं वादों का क्या
2014 में जब भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता संभाली थी तो वादा किया था कि किसानों की फसल दोगुनी की जाएगी. 10 साल बीत गए है. तीसरी बार नरेंद्र मोेदी देश के प्रधानमंत्री बने हैं लेकिन किसानों की आय दोगुनी नहीं हुई है. खाद की कमी हर साल की तरह बनी हुई है. किसान सम्मान निधि के रूप में जितना पैसा साल में मिलता है उस से अधिक पैसा खाद की खरीद में खर्च हो जा रहा है. ऐसे में किसान सरकार से खफा हैं. उन का दर्द सुनने वाला सरकार में कोई नहीं है.
क्या है डीएपी खाद
‘डीएपी’ खाद पीले रंग की बोरी में आती है. इस को डाई अमोनियम फास्फेट यानि ‘डीएपी फर्टिलाइजर’ के नाम से भी जाना जाता है. यह एक छारीय प्रकृति का रासायनिक उर्वरक है जिस के इस्तेमाल की शुरुआत साल 1960 में हुई थी.
डाई अमोनियम फास्फेट दुनिया की सब से लोकप्रिय फास्फोटिक खाद है जिस का सब से ज्यादा इस्तेमाल हरित क्रांति के बाद देखने को मिला. छारीय प्रकृति वाला यह रासायनिक उर्वरक पौधों में पोषण के लिए और उन के अंदर नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी को पूरा करने के लिए किया जाता है. इस में 18% नाइट्रोजन और 46% फास्फोरस होता है.
यह खाद पौधों के पोषक तत्त्वों के लिए सब से बढ़िया माना जाता है. जब इस खाद को मिट्टी में मिलाया जाता है तो यह उस में अच्छी तरह से मिक्स हो जाता है और पौधों की जड़ों के विकास में अपना पूरा योगदान देता है. इस के साथ ही यह खाद पौधों की कोशिकाओं के विभाजन में भी बहुत शानदार तरीके से काम करता है.
किसानों की चिंता
डीएपी खाद का उपयोग करने का सब से सही समय फसल की बुआई का समय होता है. कुछ किसान डीएपी का प्रयोग बुआई के समय न कर के पहली या दूसरी सिंचाई के समय करते हैं. अगर 1 एकड़ में डीएपी के सही इस्तेमाल की बात करें तो इस खाद को प्रति एकड़ में 50 किलोग्राम तक ही इस्तेमाल करना चाहिए.
डीएपी की कमी का कारण
देश में डीएपी खाद की कमी से किसानों को जूझना पड़ रहा है. देश में डीएपी खाद की लगातार कमी बनी हुई है. ऐसे में किसानों को इस खाद की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति नहीं हो पा रही है. खाद की कमी ने किसानों की चिंता को बढ़ा दिया है. डीएपी खाद की कमी के कारण अंतराष्ट्रीय बाजार में इस की कीमत बढ़ने लगी है.
भारत में बाहर से डीएपी का आयात किया जाता है. जरूरत के मुताबिक देश में डीएपी का आयात नहीं हो पाने से इस की कीमतों में बढोत्तरी हो रही है. बिचैलिए खाद की सप्लाई में देरी कर के इस की कालाबाजारी को बढ़ा रहे हैं.
अब किसान जरूरत से अधिक डीएपी खाद पर निर्भर होने लगा है जिस से डीएपी की मांग बढ़ गई है. अगर किसान डीएपी की जगह पर दूसरे उर्वरकों का प्रयोग करें तो उस की उपज में कमी नहीं आएगी.
सरकार पर भरोसा नहीं
किसान इस बात पर भरोसा नहीं कर पा रहा है. सरकार का प्रचारतंत्र, कृषि विज्ञान केंद्र सफेद हाथी बन कर रह गए हैं. कृषि वैज्ञानिक अपने मोटे वेतन से मतलब रख रहे हैं. केंद्र और प्रदेश के कृषि विभाग, मंत्री, अफसर और वैज्ञानिकों में कोई तालमेल नहीं रह गया है. प्रचार के नाम पर लाखों का बजट जेबी एनजीओं के खातों में जा रहा है.
सरकारी कृषि संस्थान किसानों तक सरकारी सुविधा पंहुचाने की जगह मंत्री अफसर की अगुवाई में लगे रहते हैं.
किसानों की अगर उपज की लागत घटानी है तो खाद का प्रयोग सही तरह से करना होगा. वर्मी कंपोस्ट खाद को तैयार करने के लिए गोबर और धान के पुआल को सङा कर तैयार करना होगा. इस की लागत कम आती है. आज किसान पूरी तरह से कैमिकल खाद के प्रयोग पर निर्भर हो गया है जिस की वजह से कारोबारी और बिचैलियए को कालाबाजारी करने का मौका मिल रहा है.
छोटे किसान को कैमिकल खाद और कीटनाशक का प्रयोग कम से कम करना चाहिए. इस से खेती की लागत बढ़ने के साथसाथ पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान होता है.
पर्यावरण में नुकसान का प्रभाव सब से अधिक उन पक्षियों पर पङ रहा है जो कीडेमकौडों को खाते थे. अब यह कीटनाशक के प्रभाव से कम होते जा रहे हैं. लगातार जंगल और पेङ कटने से पक्षियों के रहने, खाने और प्रजनन की कमी आती जा रही है जिस की वजह से ग्लोबल वार्मिंग बढने लगी है. इस को बचा कर ही सेहत और पर्यावरण को सुधारा जा सकता है.
जरूरत है कि इन का सही तरह से प्रचारप्रसार हो, किसान जागरूक हो. अपने हितों को समझे, सही तरह से खाद और कीटनाशक का प्रयोग करे जिस से खेती की लागत कम हो सकेगी. किसानों का मुनाफा बढ़ सकेगा. सरकार के भरोसे आने वाले 100 सालों में भी किसानों की आय दोगुनी नहीं होगी क्योंकि जितनी आय बढ़ेगी उस से अधिक महंगाई बढ जाएगी.