महज 70-80 घरों वाले उस छोटे से गांव के छोटे से घर में मातम पसरा हुआ था. गिनती के कुछ लोग मातमपुरसी के लिए आए हुए थे. 28 साल की जवान मौत के लिए दिलासा देने के लिए लोगों के पास शब्द नहीं थे. मां फूटफूट कर रो रही थी. जब वह थक जाती तो यही फूटना सिसकियों में बदल जाता. बाप के आंसू सूख चुके थे और वह आसमान में एकटक देखे जा रहा था. ज्यादा लोग नहीं थे. वैसे भी गरीब के यहां कौन जाता है.
‘‘पर, विजय ने खुदकुशी क्यों की?’’ एक आदमी ने पूछा.
‘‘पता नहीं... उस ने 3 साल पहले इंजीनियरिंग पास की थी. नौकरी नहीं मिली शायद इसीलिए,’’ पिता ने जैसेतैसे जवाब दिया.
‘‘चाचा, इस सिस्टम, इन सरकारों ने जो सपने दिखाने के कारखाने खोले हैं यह मौत उसी का नतीजा है.
‘‘आप को याद होगा कि 10 साल पहले जब विजय ने इंटर पास की थी, तब वह इस गांव का पहला लड़का था जो 70 फीसदी अंक लाया था. सारा गांव कितना खुश था.
‘‘गांव के टीचरों ने भी अपनी मेहनत पर पहली बार फख्र महसूस करते हुए उसे इंजीनियरिंग करने की सलाह दी थी. तब क्या पता था कुकुरमुत्ते की तरह खुले ये कालेज भविष्य नहीं सपने बेच रहे हैं.
‘‘यह तो आप लोग भी जानते हैं कि विजय के परिवार के पास 8 एकड़ जमीन ही थी. दाखिले के समय विजय के पिताजी ने अपनी बरसों की जमापूंजी लगा दी. उस के अगले साल भी जैसेतैसे जुगाड़ हो ही गया. पर आखिरी 2 साल के लिए उन्हें अपनी 2 एकड़ जमीन भी बेचनी पड़ी.