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असली जिंदगी तो ये जी रहे हैं  

यह अलग ही तरह का शख्स था. पता नहीं कहां कौन सी साधारण बात इसे खास लगने लगे, किस बात से मोहित हो जाए, कुछ कह नहीं सकते थे. जिन बातों से एक आम आदमी को ऊब होती थी, इस आदमी को उस में मजा आता था. एक अजीब सा आनंद आता था उसे. इस की अभिरुचि बिलकुल अलग ही तरह की थी. वैसे यह मेरा दोस्त है, फिर भी मैं कई बार सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि आखिर यह आदमी किस मिट्टी का बना है. मिट्टी सी चीज में अकसर यह सोना देखता है और अकसर सोने पर इस की नजर ही नहीं जाती.

मैं इस के साथ मुंबई घूमने गया था. हम टैक्सी में दक्षिण मुंबई के इलाके में घूम रहे थे. हमारी टैक्सी बारबार सड़क पर लगे जाम के कारण रुक रही थी. जब टैक्सी ऐसे ही एक बार रुकी तो इस का ध्यान सड़क के किनारे बनी एक 25 मंजिली बिल्ंिडग की 15वीं मंजिल पर चला गया, जहां एक कमरा खुला दिख रहा था. मानसून का समय था. आसमान में बादल छाए थे. कमरे की लाइट जल रही थी, पंखा घूमता दिख रहा था. वह बोल उठा, ‘यार, इस को कहते हैं ऐश. देखो, अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हैं और वो महाशय आराम फरमा रहे हैं, वह भी पंखे की हवा में.’

मैं ने सोचा इस में क्या ऐश की बात है? मैं ने कहा, ‘यार, वह आदमी जो उस कमरे में दिख रहा है, वह क्या कुछ काम नहीं करता होगा? आज कोई कारण होगा कि घर पर है.’

अब वह बोला, ‘यार, अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हैं और वह ऐश कर रहा है. यह तो एक बिल्डिंग के एक माले के एक फ्लैट की बात है, यहां तो हर फ्लैट में लोग मजे कर रहे हैं.’

मैं ने झल्ला कर कहा, ‘हां, हर फ्लैट नहीं, हर फ्लैट के हर कमरे में कहो और अपन यहां ट्रैफिक में फंसे हुए हैं.’

यह तो एक घटना मुंबई की रही. एक दिन शाम को घूमते हुए शहर के रेलवे स्टेशन पर मिल गया. मैं शाने भोपाल ट्रेन से दिल्ली जा रहा था. यह तफरीह करने आया था. चूंकि ट्रेन के लिए समय था, सो हम एक बैंच पर बैठ गए. स्टेशन पर आजा रही ट्रेनों को यह टकटकी लगा कर देखता. बोगी में बैठे लोगों को देखता. यदि किसी एसी बोेगी में कोई यात्री दिख जाता आपस में बतियाते या खाना खाते, लेटे पत्रिका पढ़ते तो यह कहता, ‘यार, देखो इन के क्या ऐश हैं. मस्त एसी में यात्रा कर रहे हैं, खापी रहे हैं, गपशप कर रहे हैं और अपन यहां कुरसी पर बैठे हैं?’

मैं ने कहा, ‘यार, इस में क्या खास बात हो गई? अपन लोग भी जाते हैं तो इसी तरह मौज करते हैं यदि तुम्हारे पैमाने से बात तोली जाए.’ मैं ने आगे कहा, ‘वैसे मैं तो रेलयात्रा को एक बोरिंग चीज मानता हूं.’ अब मेरा मित्र बोल पड़ा, ‘अरे यार, तुम नहीं समझोगे क्या आनंद है यात्रा का. मस्ती में पड़े रहो, सोते ही रहो और यदि घर से परांठेसब्जी लाए हो तो उस का भी मजा अलग ही है. काश, अपन भी ऐसे ही इस समय ट्रेन की ऐसी ही किसी बोगी में बैठे होते तो मजा आ जाता.’

मैं ने कहा, ‘तो चल मेरे साथ? असल जिंदगी जीना, मैं तो खैर बोर होऊंगा तो होते रहूंगा.’ लेकिन इस बात पर यह मौन हो गया.

इसे कौन से साधारण दृश्य अपील कर जाएं, कहना मुश्किल था. एक बार मैं और यह कार से शहर से 80 किलोमीटर दूर स्थित एक प्रसिद्ध पिकनिक स्पौट को जा रहे थे. एक जगह ट्रैफिक कुछ धीमा हो गया था. इस की नजर सड़क के किनारे खड़े ट्रकों व उस के साइड में बैठे ड्राइवरक्लीनरों पर चली गई.

वे अपनी गाडिं़यां खड़ी कर खाना पका रहे थे. ईंटों के बने अस्थायी चूल्हे पर खाना पक रहा था. एक व्यक्ति रोटियां सेंक रहा था, एक सब्जी बना रहा था. बाकी बैठे गपशप कर रहे थे. बस, इतना दृश्य इस के लिए असली जिंदगी वाला इस का जुमला फेंकने और उसे लंबा सेंकने के लिए काफी था.

यह बोल उठा, ‘देखो यार, जिंदगी इस को कहते हैं मस्त, कहीं भी रुक गए, पकायाखाया, फिर सो गए और जब नींद खुली तो फिर चल दिए और अपन, बस चले जा रहे हैं. अभी किसी होटल में ऊटपटांग खाएंगे. ये अपने हाथ का ही बना खाते हैं, इस में  किसी मिलावट व अशुद्धता की गुंजाइश ही नहीं है. ऐसी गरम रोटियां होटल में कहीं मिलती हैं क्या?

मैं ने चिढ़ कर कहा, ‘ऐसा करते हैं अगली बार तुम भी रसोई का सामान ले कर चलना. अपन भी ऐसे ही सड़क के किनारे रुक कर असली जिंदगी का मजा लेंगे. और तुरंत ही मजा लेना है तो चल आगे, किसी शहरकसबे के बाजार से अपना तवा, बेलन और किराने का जरूरी सामान खरीद लेते हैं, इस पर वह मौन हो गया.

मैं एक बार इस के साथ हवाईजहाज से बेंगलुरु से देहरादून गया. फ्लाइट के 2 स्टौप बीच में थे. एयर होस्टैस और दूसरे हौस्पिटैलिटी स्टाफ के काम को यह देखतासुनता रहा. बाद में बोला, ‘यार, असली मजे तो इन्हीं के हैं? 2 घंटे में इधर, तो 2 घंटे में उधर. सुबह उठ कर ड्यूटी पर आए तो दिल्ली में थे, नाश्ता किया था मुंबई में. लंच लिया बेंगलुरु में और डिनर लेने फिर दिल्ली आ गए. करना क्या है, बस, मुसकराहटों को फेंकते चलना है. एक बार हर उड़ान में सैफ्टी निर्देशों का प्रदर्शन करना है, बस, फिर जा कर बैठ जाना है. प्लेन के लैंड करते समय फिर आ जाना है और यात्रियों के जाते समय बायबाय, बायबाय करना है. इसे कहते हैं जिंदगी.’

मैं ने कहा, ‘यार, तुझे हर दूसरे आदमी की जिंदगी अच्छी लगती है, अपनी नहीं.’ मैं ने आगे कहा कि इन की जिंदगी में रिस्क कितना है? अपन तो कभीकभी प्लेन में बैठते हैं तो हर बार सब से पहला खयाल सहीसलामती से गंतव्य पहुंच जाने का ही आता है. अब इस बात पर यह बंदा मौन हो गया, कुछ नहीं बोला. बस, इतना ही दोहरा दिया कि असली ऐश तो ये करते हैं.

एक और दिन की बात है. यह अपने खेल अनुभव के बारे में बता कर दूसरों की जिंदगी में फिर से तमगे पर तमगे लगा रहा था. वनडे क्रिकेट मैच देख आया था नागपुर में, बोला, ‘यार, जिंदगी हो तो खिलाड़ी जैसी. कोई काम नहीं, बस, खेलो, खेलो और जम कर शोहरत व दौलत दोनों हाथों से बटोर लो. जनता भी क्या पगलाती है खिलाडि़यों को देख कर, इतनी भीड़, इतनी भीड़, कि बस, मत पूछो.’

मैं ने कहा, ‘बस कर यार, अभी पिछले सप्ताह प्रसिद्ध गायक सोनू निगम का कार्यक्रम हुआ था, उस में भी तेरा यह कहना था कि अरे बाप रे, क्या भीड़ है. लोग पागलों की तरह दाद दे रहे हैं, झूम रहे हैं. जिंदगी तो ऐसे कलाकारों की होती है’ मैं ने आगे कहा, ‘इस स्तर पर वे क्या ऐसे ही पहुंच गए हैं. न जाने कितने पापड़ बेले हैं, कितना संघर्ष किया है. असली कलाकार तो मैं तुझे मानता हूं जो असली जिंदगी को कहांकहां से निकाल ढूंढ़ता है.’

वह बोला, ‘यार, यह सब ठीक है. पापड़आपड़ तो सब बेलते हैं, लेकिन समय भी कुछ होता है. ये समय के धनी लोग हैं और अपन समय के कंगाल? घिसट कर जी रहे हैं.’ मैं ने कहा, ‘मैं तो तुम्हारी असली जिंदगी जीने की अगली उपमा किस के बारे में होगी, उस का इंतजार कर रहा हूं. तुम्हारा यह चेन स्मोकर की तरह का नशा हो गया है कि हर दूसरे दिन किसी दूसरे की जिंदगी में तुम्हें नूर दिखता है और अपनी जिंदगी कू्रर.’

वह कुछ नहीं बोला. अब उस के मौन हो जाने की बारी थी. उस का मौन देख कर मैं ने भी अब मौन रहना उचित समझा, वरना मैं ने कुछ कहा तो पता नहीं यह फिर किस से तुलना कर के अपने को और मुझे भी नीचा फील करवा दे.

मेरे इस दोस्त का नाम तकी रजा है. महीनेभर बाद पिछले शनिवार को मैं इस से मिलने घर गया था. मैं आजकल इस के ‘असली जिंदगी इन की है’ जुमले से थोड़ा डरने लगा हूं. मुझे लग रहा था कि कहीं यह मेरे पहुंचते ही ‘असली जिंदगी तो इन की है’ कह कर स्वागत न कर दे. मैं इस के घर का गेट खोल कर अंदर दाखिल हुआ. यह लौन में ही बैठा हुआ था.

मेरी ओर इस की नजर गई. लेकिन तकी, जो ऊपर को टकटकी लगाए कुछ देख रहा था, ने तुरंत नजर ऊपर कर ली. मैं उस के सामने पड़ी कुरसी पर जा कर बैठ गया. उस के घुटनों को छू कर मैं ने कहा कि क्या बात है, सब ठीक तो है? वह मेरे यह बोलते ही बोला, ‘क्या ठीक है यार, ऊपर देख? कैसे एक तोता मस्त अमरूद का स्वाद ले रहा है?’

मैं ने ऊपर की तरफ देखा, वाकई एक सुरमी हरे रंग का लेकिन लाल रंग की चोंच, जोकि तोते की होती ही है, वाला तोता अमरूद कुतरकुतर कर खा रहा था और बारीकबारीक अमरूद के कुछ टुकड़े नीचे गिर रहे थे. थोड़ी देर बाद वह फुर्र से टांयटांय करते उड़ गया. फिर एक दूसरा तोता आ गया. उस के पीछे 2-3 तोते और आ गए. वे सब एकएक अमरूद पर बैठ गए.

एक अमरूद पर तो 2 तोते भी बैठ कर उसे 2 छोरों से कुतरने लगे. कौमी एकता का दृश्य था. तकी बोला, ‘यार, असली जिंदगी तो इन की है. जमीन पर आने की जरूरत ही नहीं, हवा में रहते ही नाश्ता, खाना, टौयलेट सब कर लिया.’ और हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि तकी ने जैसे ही यह बोला कि एक तोता, जो उस के सिर के ठीक ऊपर वाली डाल पर था, ने अपना वेस्ट मैटेरियल सीधे तकी के सिर पर ही गिरा दिया.

‘यह भी कोई तरीका है,’ कह कर तकी अंदर की ओर भागा. जब वह वापस आया तो मैं ने कहा, ‘हां यार, वाकई असली जिंदगी ये ही जी रहे हैं.’ तकी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से देखा.

मैं ने इस के ‘असली जिंदगी ये जी रहे हैं’ वाले आगामी बेभाव पड़ने वाले डायलौग से बचने के लिए बात को आम भारतीय की तरह महंगाई को कोसने के शाश्वत विषय की ओर मोड़ दिया.

तकी बोला, ‘हां यार, यह महंगाई तो जान ले रही है.’ लेकिन थोड़ी ही देर में असली जिंदगी तो ये जी रहे हैं’ का साजोसामान ले जाती कुछ बैलगाडि़यां सामने से निकल रही थीं. ये गड़रियालुहार थे जोकि खानाबदोश जिंदगी जीते हैं. बैलगाडि़यों पर पलंग, बच्चे और सब सामान लदा दिख रहा था. अब तकी टकटकी लगा कर इन्हें ही देख रहा था. उस की आंखों ने बहुतकुछ देख लिया जो कि उसे बाद में शब्दों में प्रकट कर मेरी ओर शूट करना था. अंतिम बैलगाड़ी जब तक 25 मीटर के लगभग दूर नहीं पहुंच गई, यह उसे टकटकी लगा कर देखता ही रहा. अब वह बोला, ‘यार, जिंदगी तो इन की है?’

मैं ने कहा, ‘खानाबदोश जिंदगी भी कोई जिंदगी है?’

वह बोला, ‘यार, तुम नहीं समझोगे, इसी में जिंदगी का मजा है. एक जगह से दूसरी जगह को ये लोग हमेशा घूमते रहते हैं. कहीं भी रुक लिए और कहीं भी बनाखा लिया, और कहीं भी रात गुजार ली. भविष्य की कोई चिंता नहीं, मस्तमौला, घुमक्कड़ जिंदगी, सब को कहां मिलती है.’

मैं ने सोचा कि इस को भी यह अच्छा कह रहा है. अब तो यहां से रवानगी डालना ही ठीक होगा, वरना ‘असली जिंदगी तो इन की है’ का कोई न कोई नया संस्करण कहीं न कहीं से इस के लिए प्रकट हो जाएगा, जिसे वह मेरे पर शूट करेगा जो कि मुझे आजकल हकीकत की गोली से भी तेज लगने लगा है.

रफ कौपी : इस की उम्र का किसी को नहीं पता

मेरी रफ कौपी मेरे हाथ में है, सोच रही हूं कि क्या लिखूं? काफीकुछ उलटापुलटा लिख कर काट चुकी हूं. रफ कौपी का यही हश्र होता है. कहीं भी कुछ भी लिख लो, कितनी ही काटापीटी मचा लो, मुखपृष्ठ से ले कर आखिरी पन्ने तक, कितने ही कार्टून बना लो, कितनी ही बदसूरत कर लो, खूबसूरत तो यह है ही नहीं और खूबसूरत इसे रहने दिया भी नहीं जाता. इस पर कभी कवर चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती. इस कौपी का यह हाल क्यों कर रखा है, कोई यह पूछने की जुर्रत नहीं करता. अरे, रफ कौपी है, रफ. इस से बेहतर इस का और क्या हाल हो सकता है. यह बदसूरत इसलिए कि कई बार पुरानी आधीभरी कौपियों के पीछे के खाली पृष्ठ काट कर स्टैप्लर से पिन लगा कर एक नई कौपी बना ली जाती है. रफ कौपी में खाली पृष्ठों का उपयोग हो जाता है. इसे कोई सौंदर्य प्रतियोगिता में रखना नहीं होता है. रफ है, रफ ही रहेगी.

इस में खिंची आड़ीतिरछी रेखाएं, ऊलजलूल बातें, तुकबंदियां, चुटकुले, मुहावरे, डाक्टर के नुसखे, कहानीकिस्से, मोबाइल नंबर, कोई खास बात, टाइम टेबल, किसी का जन्मदिन, मरणदिन, धोबी का हिसाब, किराने का सामान, कहीं जानेमिलने की तारीख, किसी का उधार लेनादेना, ये सारी बातें इसे बदसूरत बनाती हैं. दरअसल, इन बातों के लिखने का कोई सिलसिला नहीं होता है. जब जहां चाहा, जो चाहा, टीप दिया. कुछ समझ में नहीं आया तो काट दिया या पेज ही फाड़ कर फेंक दिया. पेज न फाड़ा जाए, ऐसी कोई रोकटोक नहीं है.

भर जाने पर फिर से एक नई या जुगाड़ कर बनाई गई रफ कौपी हाथ में ले ली जाती है. भर जाने पर टेबल से हटा कर रद्दी के हवाले या फिर इस के पृष्ठ, रूमाल न मिलने पर, छोटे बच्चों की नाक व हाथ पोंछने के काम भी आते हैं. हां, कभीकभी किसी आवश्यक बात के लिए रद्दी में से टटोल कर निकाली भी जाती है रफ कौपी. ऐसा किसी गंभीर अवस्था में होता है. वरना रफ कौपी में याद रखने लायक कुछ खास नहीं होता. आदत तो यहां तक खराब है कि जो भी कागज खाली मिला उसी पर कुछ न कुछ टीप दिया. इसे हम डायरी की श्रेणी में नहीं रख सकते, क्योंकि डायरी गोपनीय होती है और उसे छिपा कर रखा जाता है. उस का काम भी गोपनीय होता है. इसी से बहुत बार व्यक्ति के मरने के बाद डायरी ही उस व्यक्ति के गोपनीय रहस्य उजागर करती है.

रफ कौपी में यह बात नहीं है. एकदम सड़कछाप की तरह टेबल पर पड़ी रहती है, जिस का जब मन चाहे उस पर लिख कर चला जाता है. सच बात बता दूं, यह रफ कौपी मेरे लिए बड़ी सहायक रही है. मैं ने अपने हस्ताक्षर इसी पर काटापीटी कर बनाने का अभ्यास किया. बहुत सी कविताएं इसी पर लिखीं, तुकबंदी भी की. विशेषपत्रों की ड्राफ्ंिटग भी इसी पर की. विशेष सूचनाएं व पते भी इसी पर लिखे. पत्रपत्रिकाओं के पते व ईमेल आज भी यहांवहां लिखे मिल सकते हैं. यह तो मेरी अब की रफ कौपी है. पहली रफ कौपी सही तरीके से हाईस्कूल में हाथ में आई. तब टीचर कक्षा का प्रतिदिन का होमवर्क रफ कौपी में ही नोट कराती थीं. पहले छात्रों के पास डायरी नहीं होती थी, वे रफ कौपी में नोट्स बनवातीं. ब्लैकबोर्ड पर जो लिखतीं उसे रफ कौपी में उतारने का आदेश देतीं. उस समय रफ कौपी क्या हाथ लगी, कमाल ही हो गया. पीछे की पंक्ति में बैठी छात्राएं टीचर का कार्टून बनातीं. कौपी एक टेबल से दूसरी टेबल पर गुजरती पूरी कक्षा में घूम आती और छात्राएं मुंह पर दुपट्टा रख कर मुसकरातीं.

टीचर की शान में जुगलबंदी भी हो जाती. आपस में कमैंट्स भी पास हो जाते. कहीं जाने या क्लास बंक करने का कार्यक्रम भी इसी पर बनता. कई बार कागज फाड़ कर तितली या हवाई जहाज बना कर हम सब खूब उड़ाते. कभी टीचर की पकड़ में आ जाते, कभी नहीं. थोड़ा और आगे बढ़े तो रफ कौपी रोमियो बन गई. मन की प्यारभरी भाषा को इसी ने सहारा दिया. शेरोशायरी इसी पर दर्ज होती, कभी स्वयं ईजाद करते, तो कभी कहीं से उतारते. प्रथम प्रेमपत्र की भाषा को इसी ने सजाना सिखाया. इसी का प्रथम पृष्ठ प्रेमपत्र बना जब कुछ लाइनें लिख कर कागज का छोटा सा पुर्जा किताब में रख कर खिसका दिया गया.

इशारोंइशारों में बातें करना इसी ने समझाया. ऐसेऐसे कोडवर्ड इस में लिखे गए जिन का संदर्भ बाद में स्वयं ही भूल गए. लिखनाकाटना 2 काम थे. उस की भाषा वही समझ सकता था जिस की कौपी होती थी. सहेलियों के प्रेमप्रसंग, कटाक्ष और जाने क्याक्या होता. फिल्मी गानों की पंक्तियां भी यहीं दर्ज होतीं. जीवन आगे खिसकता रहा. रफ कौपी भी समयानुसार करवट लेती रही, लेकिन उस का कलेवर नहीं बदला. पति के देर से घर लौटने तथा उन की नाइंसाफी की साक्षी भी यही कौपी बनी.

रफ कौपी आज भी टेबल पर पड़ी है और यह लेख भी मैं उसी की नजर कर उसी पर लिख रही हूं. आप को भी कुछ लिखना है, लिख सकते हैं. रफ कौपी रफ है न, इसीलिए रफ बातें लिख रही हूं. शायद आप रफ या बकवास समझ कर इसे पढ़ें ही न. क्या फर्क पड़ता है. रफ कौपी के कुछ और पृष्ठ बेकार हो गए. रफ कौपी रक्तजीव की तरह मरमर कर जिंदा होती रहती है. फिर भी एक बात तो है कि भले ही किताबों पर धूल की परत जम जाए पर रफ कौपी सदा सदाबहार रहती है.

हां, उस दिन जरूर धक्का लगा था जब पड़ोसिन कह गई थी कि वह रफ कौपी का इस्तेमाल कभी नहीं करती क्योंकि उसे हमेशा लगता कि वह खुद रफ कौपी है. उस के मातापिता बचपन में मर गए थे और मामामामी ने उसे पाला था. पढ़ायालिखाया जरूर था पर उस का इस्तेमाल घर में मामामामी, ममेरे भाईबहन रफ कौपी की तरह करते – ‘चिन्नी, पानी ला दे,’ ‘चिन्नी, मेरा होमवर्क कर दे,’ ‘चिन्नी, मेरी फ्रौक पहन जा,’ ‘चिन्नी, मेरे बौयफ्रैंड कल आए तो मां से कह देना कि तेरा क्लासफैलो है क्योंकि तू तो बीएड कालेज में है, मैं रैजीडेंशल स्कूल में.’ उस ने बताया कि वह सिर्फ रफ कौपी रही जब तक नौकरी नहीं लगी और उस ने प्रेमविवाह नहीं किया.

कांग्रेस को समझना होगा बड़े काम के होते हैं छोटे चुनाव

उत्तर प्रदेश की 9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस ने किसी सीट पर चुनाव नहीं लड़ा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन है. जिस को ‘इंडिया ब्लौक’ के नाम से जाना जाता है. 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा कांग्रेस गठबंधन ने 43 सीटें जीती थी. जिस में से सपा के खाते में 37 और कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं.

9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव अलीगढ़ जिले की खैर, अंबेडकर नगर की कटेहरी, मुजफ्फरनगर की मीरापुर, कानपुर नगर की सीसामऊ, प्रयागराज की फूलपुर, गाजियाबाद की गाजियाबाद, मिर्जापुर की मझवां, मुरादाबाद की कुंदरकी और मैनपुरी की करहल विधानसभा सीट शामिल है.

उत्तर प्रदेश के 9 सीटों पर चुनाव में 2022 के विधानसभा में इन में से समाजवादी पार्टी ने सब से अधिक 4 सीटें जीती थीं. भाजपा ने इन में से 3 सीटें जीतीं थीं. राष्ट्रीय लोक दल और निषाद पार्टी के एकएक उम्मीदवार इन सीटों पर विजयी हुए थे. कानपुर नगर की सीसामऊ सीट 2022 में यहां से जीते सपा के इरफान सोलंकी को अयोग्य करार दिए जाने से खाली हुई है.

समाजवादी पार्टी ने सभी 9 सीट पर उम्मीदवार उतारे हैं. कांग्रेस पहले इस चुनाव में 5 सीटों को अपने लिए मांग रही थी. समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के लिए 2 सीटें छोड़ी थी. कांग्रेस ने मनमुताबिक सीट नहीं मिलने के चलते उपचुनाव ना लड़ने का फैसला लिया. यूपी कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडेय ने साफ कहा कि कांग्रेस पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी.’ अविनाश पांडेय ने कहा कि आज सब दलों को मिल कर संविधान को बचाना है. अगर भाजपा को नहीं रोका गया तो आने वाले समय में संविधान, भाईचारा और आपसी सौहार्द्रता और भी कमजोर हो जाएगी.

हरियाणा की हार से कांग्रेस में निराशा का महौल है. राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में कांग्रेस हार जाती तो उन के लिए एक और मुश्किल हो जाती. नरेंद्र मोदी और भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस अपनी जमीन छोड़ती जा रही है. जिस का प्रभाव आने वाले समय पर पड़ेगा. खासकर हिंदी बोली वाले क्षेत्रों में जहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है वहां कांग्रेस को कोई चुनाव छोटा समझ कर छोड़ना नहीं चाहिए. केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ने से ही काम नहीं चलने वाला. कांग्रेस को अगर अपने को मजबूत करना है तो उसे पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव भी लड़ने पड़ेंगे. तभी उस का संगठन मजबूत होगा. बूथ लेवल तक कार्यकर्ता तैयार हो सकेंगे.

पार्टी को बूथ लेवल तक मजबूत करते है छोटे चुनाव:

पंचायत और निकाय चुनाव के चुनाव हर 5 साल में पचायती राज कानून के तहत होते हैं. इन में जातीय आरक्षण और महिला आरक्षण दोनो शामिल हैं. इन चुनाव में 33 फीसदी महिलाओं को आरक्षण है. पंचायती राज कानून प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय 1984 में लागू हुआ था. पंचायत और निकाय चुनाव विधानसभा और लोकसभा चुनाव की नर्सरी जैसे हैं. राजनीति में नेताओं की पौध पहले छात्रसंघ चुनावों से तैयार होती थी. आज के नेताओं में तमाम नेता ऐसे हैं जो छात्रसंघ चुनाव से बढ़ कर नेता बने. इन में वामदल और कांग्रेस दोनो शामिल हैं. छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगने के बाद से पंचायत और निकाय चुनाव राजनीति की नर्सरी बन गए हैं.

कांग्रेस ने पिछले कुछ सालों से पंचायत और निकाय चुनाव मे गंभीरता से लड़ना बंद कर दिया है. जिस के कारण उन का संगठन बूथ स्तर तक नहीं पहुंच रहा और नए नेताओं की पौध भी वहां तैयार नहीं हो पा रही है. पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव का माहौल विधानसभा और लोकसभा चुनाव जैसा होने लगा है. पंचायत चुनावों में राजनीतिक दल अपनी पार्टी के चिन्ह पर चुनाव भले ही नहीं लड़ते हैं लेकिन पार्टी का समर्थन होता है. शहरी निकाय चुनाव पार्टी चिन्ह पर लड़े जाते हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव के महत्व को समझा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो सफलता मिली उसे रोकने के लिए पूरे दमखम से पंचायत और विधानसभा चुनाव लड़ कर 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के सफलता हासिल कर ली. पश्चिम बंगाल की 63,229 ग्राम पंचायत सीटों में टीएमसी ने 35,359 सीटें जीतीं. दसरे नम्बर पर रही भाजपा 9,545 सीटों पर जीत की थी.

ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव के जरीए ही 16 साल पहले राज्य में अपनी पार्टी को मजबूत किया और विधानसभा चुनाव जीते थे. वहां से ही लोकसभा चुनाव में सफलता हासिल कर के पश्चिम बंगाल से कांग्रेस और वामदलों को राज्य से बेदखल कर दिया.

दूसरे राज्यों को देखें तो जिन दलों ने पंचायत और निकाय चुनाव लड़ा वह राज्य की राजनीति में प्रभावी हुए. उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी और राजद दोनों ही पंचायत चुनावों में सब से प्रभावी ढंग से हिस्सा लेती है. जिस की वजह से विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी सब से प्रमुख दल के रूप में चुनाव मैदान में होते हैं. उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में जिला पंचायत सदस्य की 3050 सीटें हैं. 3047 सीटों पर हुए चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच था. भाजपा 768 ने और सपा ने 759 सीटे जीती थी.

2021 में उत्तर प्रदेश में हुए ग्राम पंचायत चुनाव में 58,176 ग्राम प्रधानों सहित 7 लाख 31 हजार 813 ग्राम पंचायत सदस्यों ने जीत हासिल की थी. वैसे तो यह चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं लड़े गए थे लेकिन ब्लौक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में क्षेत्र विकास समिति और जिला पंचायत सदस्य के साथ ग्राम प्रधान और पंचायत सदस्य वोट देते हैं. ऐसे में हर पार्टी ज्यादा से ज्यादा अपने लोगों को यह चुनाव जितवाना चाहती है. पंचायत चुनाव की ही तरह से शहरी निकाय चुनाव होते हैं. इस चुनाव में पार्टी अपने प्रत्याशी खड़ा करती है. इस में पार्षद, नगर पालिका, नगर पंचायत और मेयर का चुनाव होता है.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में कुल 17 नगर निगम यानी महापालिका, 199 नगर पालिका परिषद और 544 नगर पंचायत हैं. इन सभी के चुनाव स्थानीय निकाय चुनाव होते हैं. नगर निगम सब से बड़ी स्थानीय निकाय होती है, उस के बाद नगर पालिका और फिर नगर पंचायत का नम्बर आता है. पंचायत चुनाव और निकाय चुनाव खास इसलिए होते हैं क्योंकि यह कार्यकर्ताओं का चुनाव होता है जो पार्टियों को लोकसभा और विधानसभा जिताने में अहम भूमिका अदा करते हैं. यहां कार्यकर्ता और प्रत्याशी दोनों को अपने वोटरों का पता होता है. देखा यह गया है कि पंचायत और निकाय चुनावों में जिस पार्टी का दबदबा होता है, लोकसभा या विधानसभा चुनावों में उस के अच्छे प्रदर्शन की संभावना भी बढ़ जाती है.

बात केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ और दिल्ली का भी यही हाल है. जिस प्रदेश में जो पार्टी पंचायत और निकाय चुनाव में मजबूत होती है वह विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन दिखाती है. उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल इस का सब से बड़ा उदाहरण हैं. यहां भाजपा और टीएमसी ने पंचायत चुनाव में सब से अच्छा प्रदर्शन किया था तो विधानसभा और लोकसभा में भी उन का अच्छा प्रदर्शन रहा है. बिहार में 8053 ग्राम पंचायतें हैं. जबकि यहां गांवों की संख्या 45,103 हैं. मध्य प्रदेश के 52 जिलों में 55 हजार से अधिक गांव हैं. 23066 ग्राम पंचायतें हैं.

राजस्थान में 11 हजार 341 ग्राम पंचायतों के चुनाव है. वहां इन चुनाव का बड़ा राजनीतिक महत्व है. विधानसभा चुनाव के बाद जनता की सब से अधिक दिलचस्पी इन चुनावों में होती है. राजस्थान और हरियाणा में सरपंच यानि मुखिया की बात का महत्व उत्तर प्रदेश और बिहार से अधिक है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि राजस्थान और हरियाणा में खाप पंचायतों का प्रभाव रहा है. पंचायती राज कानून लागू होने के बाद खाप पंचायतों का प्रभाव खत्म हुआ और वहां चुने हुए मुखिया यानि सरपंच का प्रभाव होने लगा.

छोटे चुनावों का बड़ा आधार

पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण होने के कारण अब महिलाएं यहां मुखिया बनने लगी. बहुत सारे पुरूष समाज को यह पंसद नहीं था लेकिन मजबूरी में सहन करना पड़ता है. एक ग्राम पंचायत में 7 से 17 सदस्य होते हैं. इन को गांव का वार्ड कहा जाता है. इस के चुने सदस्य को पंच कहा जाता है. पंचायत चुनाव में जनता 4 लोगों का चुनाव करती है. इन में प्रधान या सरपंच या मुखिया के नाम से जाना जाता है. इस के बाद पंच के लिए वोट पड़ता है. तीसरा वोट क्षेत्र पंचायत समिति और चौथा जिला पंचायत सदस्य के लिए होता है.

छोटे चुनाव का बड़ा आधार होता है. इस की दो बड़ी वजहे हैं. पहली कि यहां चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी और वोटर के बीच जानपहचान सी होती है. फर्जी वोट और वोट में होने वाली गड़बड़ी को पकड़ना सरल होता है. इन चुनावों में आरक्षण होने के कारण हर जाति के वोट लेने पड़ते हैं. ऐसे में सभी को बराबर का हक देना पड़ता है. यहां पार्टी की नीतियां नहीं चलती हैं. ऐसे में जो अच्छा प्रत्याशी होता है चुनाव जीत लेता है. यह प्रत्याशी अगर विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक जाएगा तो चुनावी राजनीति की दिशा में बदलाव होगा.

‘ड्राइंग रूम पोलिटिक्स’ से चुनाव को जीतना सरल नहीं होता है. पंचायत और निकाय चुनाव लड़ने वाले नेता को मेहनत करने की आदत होती है. वह पार्टी के लिए मेहनत करेगा. कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह छोटे चुनावों के बड़े महत्व को समझे. अधिक से अधिक संख्या में ज्यादा से ज्यादा चुनाव लड़ना कांग्रेस की सेहत को ठीक करने का काम करेगा. इस से गांवगांव शहरशहर बूथ लेवल पर उस के पास कार्यकर्ताओं का संगठन तैयार होगा जो विधानसभा और लोकसभा चुनाव को जीतने लायक आधारभूत ढांचा तैयार कर सकेंगे.

युवाओं में बढ़ रहा चुनावों का आकर्षण

जिस तरह से छात्रसंघ चुनाव लड़ने के लिए कालेज में पढ़ने वाले युवा पहले ललायित रहते थे अब वह पंचायत और निकाय चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहते हैं. पिछले 10 सालों को देखें तो हर राज्य में औसतन 60 प्रतिशत पंचायत चुनाव लड़ने वालों की उम्र 40 साल से कम रही है. इन में से कई ने अपने कैरियर छोड़ कर चुनाव लड़ा और जीते. कांग्रेस इन युवाओं के जरीए राजनीति में बड़ी इबादत लिख सकती है. यह युवा जाति और धर्म से अलग हट कर राजनीति करते हैं.

प्रयागराज के फूलपुर विकासखंड के मुस्तफाबाद गांव निवासी आदित्य ने एमबीए जैसी प्रोफैशनल डिग्री लेने के बाद नौकरी नहीं की वरन अपने गांव की दुर्दशा को सुधारने की ठानी. अपने अंदर एक जिद पाली कि गांव में ही बेहतर करेंगे. यहां की दशा सुधार कर ही दम लूंगा.

गांव में बिजली नहीं थी तो खुद के पैसे से विद्युतीकरण करा दिया. गांव में बिजली आई तो सभी आदित्य के मुरीद हो गए. उसे अपना मुखिया चुनने का मन बनाया. आदित्य ने चुनाव जीत कर प्रयागराज के सब से कम उम्र के ग्राम प्रधान बनने में सफलता हासिल की.

हरियाणा पंचायत चुनाव में 21 साल की अंजू तंवर सरपंच बनीं. अंजू खुडाना गांव की रहने वाली हैं. खुडाना गांव के सरपंच की सीट महिला के लिए आरक्षित थी. गांव के ही बेटी अंजू तंवर को चुनाव लड़ाने का फैसला किया गया. खुडाना गांव की आबादी दस हजार है. कुछ 3,600 वोट चुनाव के दौरान डाले गए थे. जिस में से सब से ज्यादा 1,300 वोट अंजू तंवर को मिले थे. अंजू के परिवार से कोई भी राजनीति में नही है. वह अपने परिवार से राजनीति में प्रवेश करने वाली पहली सदस्य हैं.

मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में निर्मला वल्के सब से कम उम्र की सरपंच बनी हैं. स्नातक की पढ़ाई करने के दौरान उन्होने परसवाड़ा विकासखंड की आदिवासी ग्राम पंचायत खलोंडी से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. आदिवासी समाज से एक छात्रा को पढ़ाई की उम्र में गांव की सरपंच बनना समाज व गांव की जागरूकता का ही हिस्सा कहा जा सकता है.

पूरे देश में ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं. जहां युवाओं ने पंचायत और निकाय चुनाव में जीत हासिल की है. ऐसे में युवा चेहरों को आगे लाने में कांग्रेस अहम भूमिका अदा कर सकती है. कांग्रेस जाति और धर्म की राजनीति में फिट नहीं हो पाती है. पंचायत और निकाय चुनाव में जाति और धर्म का प्रभाव कम होता है. ऐसे में अगर इन चुनाव में कांग्रेस लड़े और युवाओं को आगे बढ़ाए तो देश की राजनीति से जाति और धर्म को खत्म करने मे मदद मिल सकेगी.

कांग्रेस का अपना चुनावी ढांचा मजबूत होगा. छोटे चुनावों को कमतर आंकना ठीक नहीं होता है. जब कांग्रेस ताकतवर थी तब वह इन चुनावों को लड़ती और जीतती थी. पूरे देश में कांग्रेस अकेली पार्टी है जो भाजपा को रोक सकती है. इस के लिए उसे अपने अंदर बदलाव और आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा. इस के लिए छोटे चुनाव बड़े काम के होते हैं.

काश! मैं मैडम का कुत्ता होता

सामने वाली कोठी की बालकनी में मैडम रोज सुबह नहा धो कर बाल संवारती आ खड़ी होती थीं. उनके साथ उनका प्यारा डौगी झक सफेद बालों और काली-काली आंखों वाला कभी उनकी गोद में चढ़ कर उनके गालों को चूमता तो कभी उनके कोमल मुलायम हाथों से बिस्कुट खाता नजर आता था. मैं दोनों के इस प्रणय सीन को देखने के चक्कर में सुबह छह बजे ही अपने मकान की छत पर दूरबीन लेकर चढ़ जाता था. कभी मैडम सुबह सवेरे ही नहा-धोकर बालकनी में निकल आतीं, तो कभी आने में नौ-दस भी बजा देती थीं.

मगर मैं था कि जब तक डौगी को उनका मुंह चाटते नहीं देख लेता, दिल को सुकून नहीं मिलता था. इस प्रणय दृश्य को देखकर मैं खूबसूरत कल्पनाओं से सराबोर हो जाता था. फिर भले ही देर हो जाने पर ऑफिस जाकर बड़े साहब की घुड़कियां खानी पड़ें, जो अक्सर मैं खाता ही था, आदत हो गई थी.मैं जब अपने छोटे से कस्बे से इस शहर में नौकरी की तलाश में आया था, तो चलते वक्त मां ने नसीहत की थी, बेटा कुछ भी हो जावे, सुबह नहा-धोकर पूजा करना और सूर्य भगवान को जल देना मत भूलना. मैं एक पेटी में कुछ कपड़े और एक झोले में कुछ बर्तन-भांडे लिए कई दिन इस अनजाने शहर में मकान की तलाश में भटकता रहा. किसी ने बताया कि कोई एलआईजी मकान देख लो, किराया कम होता है.

यहां कैंट एरिया खत्म होते ही सड़क के एक ओर रईसों की बड़ी-बड़ी कोठियां बनी हैं. बेहद खूबसूरत, नक्काशीदार कोठियां, दुमंजिली, तिमंजिली, बड़ी बड़ी बालकनी वाली, फूलों से सजे सुंदर गार्डन ऐसे कि निगाह ही न हटे. वहीं सड़क के दूसरी ओर एलआईजी मकानों की लम्बी कतार है. बेरंग, टूटे फूटे, गंदे और सीलन भरे कमरों वाले. इसी में से एक जर्जर बदसूरत सा मकान मैंने किराए पर ले लिया. मां की नसीहत थी सो पूजा पाठ के लिए एक कोने में रंगीन पन्नी चिपका कर भगवान जी के रहने का बंदोबस्त भी कर दिया. सूर्य भगवान को जल देने सुबह छत पर जाने लगा. एक दिन मोहतरमा अपने डौगी को गोद में लिए बालकनी में खड़ी दिखाई दीं. दूर से दृश्य बहुत साफ नहीं था, मगर निगाहें अटक गई. इतना तो दिख ही रहा था कि डौगी जी उनकी गोद में मचल मचल कर उनके गालों पर बार-बार अपना मुंह लगा रहे थे. दूसरे दिन भी कुछ ऐसा ही दृश्य. तीसरे दिन तो मैं दृश्य को स्पष्ट देखने के लिए बाजार से दूरबीन ले आया. दूरबीन आंखों पर चढ़ा कर दोनों की प्रेम लीलाओं का आनंद लेने लगा. यह मेरा रोज का काम हो गया.

एक दिन शाम को लौटते समय मैंने कोठी के दरबान को सलाम ठोंक दिया. उसका सीना साहब की तरह चौड़ा हो गया. मारे खुशी के स्टूल से उठ कर मेरे पास आया. मैंने उससे यूं ही माचिस मांग ली. दरअसल मेरी मंशा कुछ और थी. उसने माचिस दी तो मैं बोला, ‘सामने ही रहता हूं. इधर से रोजाना निकलना होता है.’ उसने सिर हिलाया. मैं आगे बढ़ गया. धीरे-धीरे मैं रोज ही किसी न किसी बहाने उसके पास रुकने लगा. फिर तो कभी-कभी वह चाय भी पिलाने लगा. दोस्ती हो गई. उसी से मुझे मैडम के कुत्ते का नाम पता चला. क्यूपिड. बड़ा क्यूट नाम था. एक दिन मैंने पूछा, ‘मैडम सारे दिन क्यूपिड के साथ रहती हैं?’ मेरा सवाल पूछना ही था कि उसने पूरा कुत्ता पुराण सुना डाला. बोला, ‘अरे भाई, वह कुत्ता नहीं, उनका सगेवाला ही समझो. एसी में रहता है. कार में घूमने जाता है. जॉनसन साबुन से नहाता है. बढ़िया चिकेन करी और ब्रेड खाता है. फुल क्रीम मिल्क पीता है. मैडम से इतना प्यार करता है कि साहब भी कभी न कर पाए. साहब का मैडम से झगड़ा भी इसी के कारण हुआ. अब साहब अलग बेडरूम में सोता है और मैडम क्यूपिड के साथ डबल बेड पर अलग बेडरूम में रहती हैं. कुत्ते पर जान देती हैं. मजाल है कोई उनके क्यूपिड को कुत्ता कह दे….’

कुत्ता पुराण सुन कर मैं हैरान रह गया. जलन के मारे सीना फुंकने लगा, कानों से धुंआ निकलने लगा और मुंह से निकला, ‘काश मैं मैडम का कुत्ता होता.’

सांझ पड़े घर आना

‘‘अब सब कुछ खत्म हो गया था. मैं ने उस पर कई झूठे इलजाम लगाए, जिन से उस का बच पाना संभव नहीं था…’’

उसकी मेरे औफिस में नईनई नियुक्ति हुई थी. हमारी कंपनी का हैड औफिस बैंगलुरु में था और मैं यहां की ब्रांच मैनेजर थी. औफिस में कोई और केबिन खाली नहीं था, इसलिए मैं ने उसे अपने कमरे के बाहर वाले केबिन में जगह दे दी. उस का नाम नीलिमा था.

क्योंकि उस का केबिन मेरे केबिन के बिलकुल बाहर था, इसलिए मैं उसे आतेजाते देख सकती थी. मैं जब भी अपने औफिस में आती, उसे हमेशा फाइलों या कंप्यूटर में उलझा पाती. उस का औफिस में सब से पहले पहुंचना और देर तक काम करते रहना मुझे और भी हैरान करने लगा.

एक दिन मेरे पूछने पर उस ने बताया कि पति और बेटा जल्दी चले जाते हैं, इसलिए वह भी जल्दी चली आती है. फिर सुबहसुबह ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं रहता.

वह रिजर्व तो नहीं थी, पर मिलनसार भी नहीं थी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो आंखों को बांध लेते हैं. उस का मेकअप भी एकदम नपातुला होता. वह अधिकतर गोल गले की कुरती ही पहनती. कानों में छोटे बुंदे, मैचिंग बिंदी और नाममात्र का सिंदूर लगाती.

इधर मैं कंपनी की ब्रांच मैनेजर होने के नाते स्वयं के प्रति बहुत ही संजीदा थी. दिन में जब तक 3-4 बार वाशरूम में जा कर स्वयं को देख नहीं लेती, मुझे चैन ही नहीं पड़ता. परंतु उस की सादगी के सामने मेरा सारा वजूद कभीकभी फीका सा पड़ने लगता.

लंच ब्रेक में मैं ने अकसर उसे चाय के साथ ब्रैडबटर या और कोई हलका नाश्ता करते पाया. एक दिन मैं ने उस से पूछा तो कहने लगी, ‘‘हम लोग नाश्ता इतना हैवी कर लेते हैं कि लंच की जरूरत ही महसूस नहीं होती. पर कभीकभी मैं लंच भी करती हूं. शायद आप ने ध्यान नहीं दिया होगा. वैसे भी मेरे पति उमेश और बेटे मयंक को तरहतरह के व्यंजन खाने पसंद हैं.’’

‘‘वाह,’’ कह कर मैं ने उसे बैठने का इशारा किया, ‘‘फिर कभी हमें भी तो खिलाइए कुछ नया.’’

इसी बीच मेरा फोन बज उठा तो मैं अपने केबिन में आ गई.

एक दिन वह सचमुच बड़ा सा टिफिन ले कर आ गई. भरवां कचौरी, आलू की सब्जी और बूंदी का रायता. न केवल मेरे लिए बल्कि सारे स्टाफ के लिए.

इतना कुछ देख कर मैं ने कहा, ‘‘लगता है कल शाम से ही इस की तैयारी में लग गई होगी.’’

वह मुसकराने लगी. फिर बोली, ‘‘मुझे खाना बनाने और खिलाने का बहुत शौक है. यहां तक कि हमारी कालोनी में कोई भी पार्टी होती है तो सारी डिशेज मैं ही बनाती हूं.’’

नीलिमा को हमारी कंपनी में काम करते हुए 6 महीने हो गए थे. न कभी वह लेट हुई और न जाने की जल्दी करती. घर से तरहतरह का खाना या नाश्ता लाने का सिलसिला भी निरंतर चलता रहा. कई बार मैं ने उसे औफिस के बाद भी काम करते देखा. यहां तक कि वह अपने आधीन काम करने वालों की मीटिंग भी शाम 6 बजे के बाद ही करती. उस का मानना था कि औफिस के बाद मन भी थोड़ा शांत रहता है और बाहर से फोन भी नहीं आते.

एक दिन मैं ने उसे दोपहर के बाद अपने केबिन में बुलाया. मेरे लिए फुरसत से बात करने का समय दोपहर के बाद ही होता था. सुबह मैं सब को काम बांट देती थी. हमारी कंपनी बाहर से प्लास्टिक के खिलौने आयात करती और डिस्ट्रीब्यूटर्स को भेज देती थी. हमारी ब्रांच का काम और्डर ले कर हैड औफिस को भेजने तक ही सीमित था.

नीलिमा ने बड़ी शालीनता से मेरे केबिन का दरवाजा खटखटा भीतर आने की इजाजत मांगी. मैं कुछ पुरानी फाइलें देख रही थी. उसे बुलाया और सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. मैं ने फाइलें बंद कीं और चपरासी को बुला कर किसी के अंदर न आने की हिदायत दे दी.

नीलिमा आप को हमारे यहां काम करते हुए 6 महीने से ज्यादा का समय हो गया. कंपनी के नियमानुसार आप का प्रोबेशन पीरियड समाप्त हो चुका है. यहां आप को कोई परेशानी तो नहीं? काम तो आपने ठीक से समझ ही लिया है. स्टाफ से किसी प्रकार की कोई शिकायत हो तो बताओ.

‘‘मैम, न मुझे यहां कोई परेशानी है और न ही किसी से कोई शिकायत. यदि आप को मेरे व्यवहार में कोई कमी लगे तो बता दीजिए. मैं खुद को सुधार लूंगी… मैं आप के जितना पढ़ीलिखी तो नहीं पर इतना जरूर विश्वास दिलाती हूं कि मैं अपने काम के प्रति समर्पित रहूंगी. यदि पिछली कंपनी बंद न हुई होती तो पूरे 10 साल एक ही कंपनी में काम करते हो जाते,’’ कह कर वह खामोश हो गई. उस की बातों में बड़ा ठहराव और विनम्रता थी.

‘‘जो भी हो, तुम्हें अपने परिवार की भी सपोर्ट है. तभी तो मन लगा कर काम कर सकती हो. ऐसा सभी के साथ नहीं होता है.’’ मैं ने थोड़े रोंआसे स्वर में कहा.

वह मुझे देखती रही जैसे चेहरे के भाव पढ़ रही हो. मैं ने बात बदल कर कहा, ‘‘अच्छा मैं ने आप को यहां इसलिए बुलाया है कि अगला पूरा हफ्ता मैं छुट्टी पर रहूंगी. हो सकता है

1-2 दिन ज्यादा भी लग जाएं. मुझे उम्मीद है आप को कोई ज्यादा परेशानी नहीं होगी. मेरा मोबाइल चालू रहेगा.’’

‘‘कहीं बाहर जा रही हैं आप?’’

उस ने ऐसे पूछा जैसे मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. मैं ने कहा, ‘‘नहीं, रहूंगी तो यहीं… कोर्ट की आखिरी तारीख है. शायद मेरा तलाक मंजूर हो जाए. फिर मैं कुछ दिन सुकून से रहना चाहती हूं.’’

‘‘तलाक?’’ कह जैसे वह अपनी सीट से उछली हो.

‘‘हां.’’

‘‘इस उम्र में तलाक?’’ वह कहने लगी, ‘‘सौरी मैम मुझे पूछना तो नहीं चाहिए पर…’’

‘‘तलाक की भी कोई उम्र होती है? सदियों से मैं रिश्ता ढोती आई

हूं. बेटी यूके में पढ़ने गई तो वहीं की हो कर रह गई. मेरे पति और मेरी कभी बनी ही नहीं और अब तो बात यहां तक आ गई है कि खाना भी बाहर से ही आता है. मैं थक गई यह सब निभातेनिभाते… और जब से बेटी ने वहीं रहने का निर्णय लिया है, हमारे बीच का वह पुल भी टूट गया,’’ कहतेकहते मेरी आंखों में आंसू आ गए.

वह धीरे से अपनी सीट से उठी और मेरी साड़ी के पल्लू से मेरे आंसू पोंछने लगी.

फिर सामने पड़े गिलास से मुझे पानी पिलाया और मेरी पीठ पर स्नेह भरा हाथ रख दिया.

बहुत देर तक वह यों ही खड़ी रही. अचानक गमगीन होते माहौल को सामान्य करने के लिए मैं ने 2-3 लंबी सांसें लीं और फिर अपनी थर्मस से चाय ले कर 2 कपों में डाल दी.

उस ने चाय का घूंट भरते हुए धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘मैम, मैं तो आप से बहुत छोटी हूं. मैं आप के बारे में न कुछ जानती हूं और न ही जानना चाहती हूं. पर इतना जरूर कह सकती हूं कि कुछ गलतियां आप की भी रही होंगी… पर हमें अपनी गलती का एहसास नहीं होता. हमारा अहं जो सामने आ जाता है. हो सकता है आप को तलाक मिल भी जाए… आप स्वतंत्रता चाहती हैं, वह भी मिल जाएगी, पर फिर क्या करेंगी आप?’’

‘‘सुकून तो मिलेगा न… जिंदगी अपने ढंग से जिऊंगी.’’

‘‘अपने ढंग से जिंदगी तो आज भी जी रही हैं आप… इंडिपैंडैंट हैं अपना काम करने के लिए… एक प्रतिष्ठित कंपनी की बौस हैं… फिर…’’ कह कर वह चुप हो गई. उस की भाषा तल्ख पर शिष्ट थी. मैं एकदम सकपका गई. वह बेबाक बोलती जा रही थी.

मैं ने झल्ला कर तेज स्वर में पूछा, ‘‘मैं समझ नहीं पा रही हूं तुम मेरी वकालत कर रही हो, मुझ से तर्कवितर्क कर रही हो, मेरा हौंसला बढ़ा रही हो या पुन: नर्क में धकेल रही हो.’’

‘‘मैम,’’ वह धीरे से पुन: शिष्ट भाषा में बोली, ‘‘एक अकेली औरत के लिए, वह भी तलाकशुदा के लिए अकेले जिंदगी काटना कितना मुश्किल होता है, यह कैसे बताऊं आप को…’’ ‘‘पहले आप के पास पति से खुशियां बांटने का मकसद रहा होगा, फिर बेटी और उस की पढ़ाई का मकसद. फिर लड़ कर अलग होने का

मकसद और अब जब सब झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी तो क्या मकसद रह जाएगा? आगे एक अकेली वीरान जिंदगी रह जाएगी…’’ कह कर

वह चुप हो गई और प्रश्नसूचक निगाहों से मुझे देखती रही.

फिर बोली, ‘‘मैम, आप कल सुबह यह सोच कर उठना कि आप स्वतंत्र हो गई हैं पर आप के आसपास कोई नहीं है. न सुख बांटने को न दुख बांटने को. न कोई लड़ने के लिए न झगड़ने के लिए. फिर आप देखना सब सुखसुविधाओं के बाद भी आप अपनेआप को अकेला ही पाएंगी.’’

मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहना चाहती है. मेरे चेहरे पर कई रंग आ रहे थे, परंतु एक बात तो ठीक थी कि तलाक के बाद अगला कदम क्या होगा. यह मैं ने कभी ठीक से सोचा न था.

‘‘मैम, मैं अब चलती हूं. बाहर कई लोग मेरा इंतजार कर रहे हैं… जाने से पहले एक बार फिर से सलाह दूंगी कि इस तलाक को बचा लीजिए,’’ कह वह वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद पुन: उस की बातों ने सोचने पर मजबूर कर दिया. मेरी सोच का दायरा अभी तक केवल तलाक तक सीमित था…उस के बाद व्हाट नैक्स्ट?

उस पूरी रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. सुबहसुबह कामवाली बालकनी में चाय रख

कर चली गई. मैं ने सामने वाली कुरसी खींच

कर टांगें पसारीं और फिर भूत के गर्भ में चली गई. किसी ने ठीक ही कहा था कि या तो हम

भूत में जीते हैं या फिर भविष्य में. वर्तमान में जीने के लिए मैं तब घर वालों से लड़ती रही

और आज उस से अलग होने के लिए. पापा को मनाने के लिए इस के बारे में झूठसच का सहारा लेती रही, उस की जौब और शिक्षा के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करती रही और आज उस पर उलटेसीधे लांछन लगा कर तलाक ले रही हूं.

तब उस का तेजतर्रार स्वभाव और खुल कर बोलना मुझे प्रभावित करता था और अब वही चुभने लगा है. तब उस का साधारण कपड़े पहनना और सादगी से रहना मेरे मन को भाता था और अब वही सब मेरी सोसाइटी में मुझे नीचा दिखाने की चाल नजर आता है. तब भी उस की जौब और वेतन मुझ से कम थी और आज भी है.

‘‘ऐसा भी नहीं है कि पिछले 25 साल हमने लड़तेझगड़ते गुजारे हों. कुछ सुकून और प्यारभरे पल भी साथसाथ जरूर गुजारे होंगे. पहाड़ों, नदियों और समुद्री किनारों के बीच हम ने गृहस्थ की नींव भी रखी होगी. अपनी बेटी को बड़े होते भी देखा होगा और उस के भविष्य के सपने भी संजोए होंगे. फिर आखिर गलती हुई कहां?’’ मैं सोचती रही गई.

अपनी भूलीबिसरी यादों के अंधेरे गलियारों में मुझे इस तनाव का सिरा पकड़ में

नहीं आ रहा था. जहां तक मुझे याद आता है मैं बेटी को 12वीं कक्षा के बाद यूके भेजना चाहती थी और मेरे पति यहीं भारत में पढ़ाना चाहते थे. शायद उन की यह मंशा थी कि बेटी नजरों के सामने रहेगी. मगर मैं उस का भविष्य विदेशी धरती पर खोज रही थी? और अंतत: मैं ने उसे अपने पैसों और रुतबे के दम पर बाहर भेज दिया. बेटी का मन भी बाहर जाने का नहीं था. पर मैं जो ठान लेती करती. इस से मेरे पति को कहीं भीतर तक चोट लगी और वह और भी उग्र हो गए. फिर कई दिनों तक हमारे बीच अबोला पसर गया.

हमारे बीच की खाई फैलती गई. कभी वह देर से आता तो कभी नहीं भी आता. मैं ने कभी इस बात की परवाह नहीं की और अंत में वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. बेटी विदेश क्या गई बस वहीं की हो गई. फिर वहीं पर एक विदेशी लड़के से शादी कर ली. कोई इजाजत नहीं बस निर्णय… मेरी तरह.

उस रात हमारा जम कर झगड़ा हुआ. उस का गुस्सा जायज था. मैं झुकना नहीं जानती थी. न जीवन में झुकी हूं और न ही झुकूंगी…वही सब मेरी बेटी ने भी सीखा और किया. नतीजा तलाक पर आ गया. मैं ने ताना दिया था कि इस घर के लिए तुम ने किया ही क्या है. तुम्हारी तनख्वाह से तो घर का किराया भी नहीं दिया जाता… तुम्हारे भरोसे रहती तो जीवन घुटघुट कर जीना पड़ता. और इतना सुनना था कि वह गुस्से में घर छोड़ कर चला गया.

अब सब कुछ खत्म हो गया था. मैं ने उस पर कई झूठे इलजाम लगाए, जिन से उस का बच पाना संभव नहीं था. मैं ने एक लंबी लड़ाई लड़ी थी और अब उस का अंतिम फैसला कल आना था. उस के बाद सब कुछ खत्म. परंतु नीलिमा ने इस बीच एक नया प्रश्न खड़ा कर दिया जो मेरे कलेजे में बर्फ बन कर जम गया.

पर अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ था, होने वाला था. बस मेरे कोर्ट में हाजिरी लगाने भर की देरी थी. मेरे पास आज भी 2 रास्ते खुले थे. एक रास्ता कोर्ट जाता था और दूसरा उस के घर की तरफ, जहां वह मुझ से अलग हो कर चला गया था. कोर्ट जाना आसान था और उस के घर की तरफ जाने का साहस शायद मुझ में नहीं था. मैं ने कोर्ट में उसे इतना बेईज्जत किया, ऐसेऐसे लांछन लगाए कि वह शायद ही मुझे माफ करता. मैं अब भी ठीक से निर्णय नहीं ले पा रही थी.

हार कर मैं ने पुन: नीलिमा से मिलने का फैसला किया जिस ने मेरे शांत होते जीवन में पुन: उथलपुथल मचा दी थी. मैं उस दोराहे से अब निकलना चाहती थी. मैं ने कई बार उसे आज फोन किया, परंतु उस का फोन लगातार बंद मिलता रहा.

आज रविवार था. अत: सुबहसुबह वह घर पर मिल ही जाएगी, सोच मैं उसे

मिलने चली गई. मेरे पास स्टाफ के घर का पता और मोबाइल नंबर हमेशा रहता था ताकि किसी आपातकालीन समय में उन से संपर्क कर सकूं. वह एक तीनमंजिला मकान में रहती थी.

‘‘मैम, आप?’’ मुझे देखते ही वह एकदम सकपका गई? ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘सब कुछ ठीक नहीं है,’’ मैं बड़ी उदासी से बोली. वह मेरे चेहरे पर परेशानी के भाव देख रही थी.

मैं बिफर कर बोली, ‘‘तुम्हारी कल की बातों ने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया है.’’

वह हतप्रभ सी मेरे चेहरे की तरफ

देखती रही.

‘‘क्या मैं कुछ देर के लिए अंदर आ

सकती हूं?’’

‘‘हां मैम,’’ कह कर वह दरवाजे के सामने से हट गई, ‘‘आइए न.’’

‘‘सौरी, मैं तुम्हें बिना बताए आ गई. मैं क्या करती. लगातार तुम्हारा फोन ट्राई कर रही थी पर स्विचऔफ आता रहा. मुझ से रहा नहीं गया तो मैं आ गई,’’ कहतेकहते मैं बैठ गई.

ड्राइंगरूम के नाम पर केवल 4 कुरसियां और एक राउंड टेबल, कोने में अलमारी और कंप्यूटर रखा था. घर में एकदम खामोशी थी.

वह मुझे वहां बैठा कर बोली, ‘‘मैं चेंज कर के आती हूं.’’

थोड़ी देर में वह एक ट्रे में चाय और थोड़ा नमकीन रख कर ले आई और सामने की कुरसी पर बैठ गई. हम दोनों ही शांत बैठी रहीं. मुझे

बात करने का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. चुप्पी तोड़ते हुए मैं ने कहा, ‘‘मैं ने सुबहसुबह आप लोगों को डिस्टर्ब किया. सौरी… आप का पति और बेटा कहीं बाहर गए हैं क्या? बड़ी खामोशी है.’’

वह मुझे ऐसे देखने लगी जैसे मैं ने कोई गलत बात पूछ ली हो. फिर नजरें नीची कर के बोली, ‘‘मैम, न मेरा कोई पति है न बेटा. मुझे पता नहीं था कि मेरा यह राज इतनी जल्दी खुल जाएगा,’’ कह कर वह मायूस हो गई. मैं हैरानी

से उस की तरफ देखने लगी. मेरे पास शब्द नहीं थे कि अगला सवाल क्या पूछूं. मैं तो अपनी समस्या का हल ढूंढ़ने आई थी और यहां तो… फिर भी हिम्मत कर के पूछा, तो क्या तुम्हारी शादी नहीं हुई?

‘‘हुई थी मगर 6 महीने बाद ही मेरे पति एक हादसे में गुजर गए. एक मध्यवर्गीय लड़की, जिस के भाई ने बड़ी कठिनाई से विदा किया हो और ससुराल ने निकाल दिया हो, उस का वजूद क्या हो सकता है,’’ कहतेकहते उस की आवाज टूट गई. चेहरा पीला पड़ गया मानो वही इस हालात की दोषी हो.

‘‘जवान अकेली लड़की का होना कितना कष्टदायी होता है, यह मुझ से बेहतर और कौन जान सकता है… हर समय घूरती नजरों का सामना करना पड़ता है…’’

‘‘तो फिर तुम ने दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘कोशिश तो की थी पर कोई मन का नहीं मिला. अपनी जिंदगी के फैसले हम खुद नहीं करते, बल्कि बहुत सी स्थितियां करती हैं.

‘‘अकेली लड़की को न कोई घर देने को तैयार है न पेइंग गैस्ट रखना चाहता है. मेरी जिंदगी के हालात बहुत बुरे हो चुके थे. हार कर मैं ने ‘मिसेज खन्ना’ लिबास ओढ़ लिया. कोई पूछता है तो कह देती हूं पति दूसरे शहर में काम करते हैं. हर साल 2 साल में घर बदलना पड़ता है. और कभीकभी तो 6 महीने में ही, क्योंकि पति नाम की वस्तु मैं खरीद कर तो ला नहीं सकती. आप से भी मैं ने झूठ बोला था. पार्टियां, कचौरियां, बच्चे सब झूठ था. अब आप चाहे रखें चाहे निकालें…’’ कह कर वह नजरें झुकाए रोने लगी. मेरे पास कोई शब्द नहीं था.

‘‘बड़ा मुश्किल है मैडम अकेले रहना… यह इतना आसान नहीं है जितना

आप समझती हैं… भले ही आप कितनी भी सामर्थ्यवान हों, कितना भी पढ़ीलिखी हों, समाज में कैसा भी रुतबा क्यों न हो… आप दुनिया से तो लड़ सकती हैं पर अपनेआप से नहीं. तभी तो मैं ने कहा था कि आप अपनी जिंदगी से समझौता कर लीजिए.’’

मेरा तो सारा वजूद ही डगमगाने लगा. मुझे जहां से जिंदगी शुरू करनी थी, वह सच तो मेरे सामने खड़ा था. अब इस के बाद मेरे लिए निर्णय लेना और भी आसान हो गया. मेरे लिए यहां बैठने का अब कोई औचित्य भी नहीं था. जब आगे का रास्ता मालूम न हो तो पीछे लौटना ही पड़ता है.

मैं भरे मन से उठ कर जाने लगी तो नीलिमा ने पूछा, ‘‘मैम, आप ने बताया नहीं आप क्यों

आई थीं.’’

‘‘नहीं बस यों ही,’’ मैं ने डबडबाती आंखों से उसे देखा

वह बुझे मन से पूछने लगी, ‘‘आप ने बताया नहीं मैं कल से काम पर आऊं या…’’ और हाथ जोड़ दिए.

पता नहीं उस एक लमहे में क्या हुआ कि

मैं उस की सादगी और मजबूरी पर बुरी तरह रो पड़ी. न मेरे पास कोई शब्द सहानुभूति का था और न ही सांत्वना का. इन शब्दों से ऊपर भी शब्द होते तो आज कम पड़ जाते. एक क्षण के लिए काठ की मूर्ति की तरह मेरे कदम जड़ हो गए.

मैं अपने घर आ कर बहुत रोई. पता नहीं उस के लिए या अपने अहं के लिए… और कितनी बार रोई. शाम होतेहोते मैं ने बेहद विनम्रता से अपने पति को फोन किया और साथ रहने की प्रार्थना की. बहुत अनुनयविनय की. शायद मेरे ऐसे व्यवहार पर पति को तरस आ गया और वह मान गए.

और हां, जिस ने मुझे तबाही से बचा

लिया, उसे मैं ने एक अलग फ्लैट ले कर दे

दिया. अब वह ‘मिसेज खन्ना’ का लिबास नहीं ओढ़ती. नीलिमा और सिर्फ नीलिमा. उस के मुझ पर बहुत एहसान हैं. चुका तो सकती नहीं पर भूलूंगी भी नहीं.

मेरे औफिस का कलीग मेरे साथ सैक्स करने की जिद कर रहा है.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मैं दिल्ली के द्वार्का इलाके की रहने वाली हूं और मेरी उम्र 30 साल है. करीब 2 साल पहले ही मेरी शादी हुई है. मेरे पति का खुद का बिजनेस है और मैं एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करती हूं. मेरे पति काम की वजह से अक्सर रात को देरी से घर आते हैं और औफिस जाने के कारण मैं भी थक कर जल्दी सो जाती हूं तो ऐसे में मेरे पति और मेरे बीच काफी कम ही बातचीत हो पाती है. हाल ही में मेरे औफिस में एक लड़के ने ज्वाइन किया है जो दिखने में बहुत हैंडसम और फिट है. वे मुझसे उम्र में 3 साल छोटा है लेकिन उसकी फिजीक कमाल की है. मैं उसे मन ही मन पसंद करने लगी थी और शायद वो भी मुझसे कुछ चाह रहा था. देखते ही देखते हम दोनों ने एक दूसरे को अपना नंबर दिया और मैसेज पर रोजाना बात होने लगी. कुछ दिनों से वे लड़का मेरे साथ सैक्स करने की जिद कर रहा है और मुझे अपने साथ होटल चलने को कह रहा है. सच कहूं तो उसके साथ सैक्स करने का मेरा भी बहुत मन है लेकिन मुझे डर है कि अगर मेरे पति को इस बारे में पता चल गया तो वे कहीं मुझसे तलाक ना ले लें. मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब –

पति-पत्नी के रिश्ते की डोर बहुत नाजुक होती है और यह डोर सिर्फ विश्वास पर टिकी होती है. जब रिश्ते में विश्वास खत्म हो जाता है तो फिर उस रिश्ते के कोई मायने नहीं रहते. आप जो कर रही हैं या जो सोच रही हैं वे बिल्कुल गलत है. आपके पति काम में बिजी रहते हैं क्यूंकि उनके ऊपर घर चलाने की जिम्मेदारी है और ऐसे में अगर आप किसी दूसरे लड़के के साथ संबंध बना लेंगी तो सोचिए उनके दिल पर क्या बीतेगी ?

अगर आपको अपने पति से कोई शिकायत है तो आप उनके साथ शेयर करें और उन्हें बताएं कि आप उनके साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहती हैं तो उनको अपने काम का साथ साथ आपको भी समय देना चाहिए. आप अपने पति से कहिए कि वे अपने काम से कुछ दिनों की छुट्टी ले लें और आप दोनों एक साथ किसी ट्रिप पर चले जाइए जिससे कि आप दोनों एक दूसरे के साथ क्वालिटी टाइम बिता पाएं जो आपने काफी समय से नहीं बिताया है.

आपको अपने औफिस वाले लड़के के साथ सारे संबंधों को खत्म कर देना चाहिए क्यूंकि अगर ऐसा ही चलता रहा तो आपका बसा बसाया घर सिर्फ एक गलती की वजह से तहस नहस हो सकता है. एक बार जो घर उजड़ जाते हैं उन्हें बसाने में लोगों की जिंदगी बीत जाती है.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

कहीं दोस्त ही बन न जाए जान का दुश्मन

वैसे तो आपने दोस्ती पर बहुत से गाने सुने होंगे लेकिन हमारे इस लेख के लिए यह गाना बिल्कुल सटीक है “दोस्त दोस्त न रहा”. जी हां जिस दोस्ती की लोग आपस में कसमे खाते हैं जो खून का रिश्ता नहीं भी हो कर गहरा हो जाता है उसी रिश्ते को कुछ लोग दागदाग कर देते हैं और सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि किस पर विश्वास करें. जो हमारी दोस्ती के लायक हो.

हाल ही में एक प्रौपर्टी डीलर का कत्ल उसी के अपने दो दोस्तों ने कर दिया. महज सोने की चेन, ब्रेसलेट और 6,400 रुपए के लिए.

प्रौपर्टी डीलर संजय यादव गाज़ियाबाद का रहने वाला था. जिस के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी. साजिश के तहत दोस्त ने संजय को थाना मधुबन बापूधाम के अक्षय एंक्लेव की जैन बिल्डिंग स्थित घर बुलाया. वहां साथ तीनों ने बियर पी. नशे में धुत होने के बाद संजय के गले में में कुत्ते के पट्टा दबा कर मार डाला गया और शव को संजय की फार्च्यूनर कार में रख कर जला दिया.

पुलिस ने बताया कि शव की पहचान होने के बाद संजय यादव के भाई ने विशाल और जीत पर हत्या करने का शक जताया. दोनों आरोपियों ने कबूला कि पैसे और गहने हड़पने के लिए वारदात को अंजाम दिया था.

तो आज का समय सतर्क होने का है. दोस्ती करने से पहले जरूरी है कि आप को व्यक्ति की पहचान करनी आती हो.

ऐसे करें सच्चे दोस्त की पहचान

* कभी भी ऐसे व्यक्ति को अपना मित्र ना बनाएं जो पीठ पीछे आप की बुराई करता हो और सामने आप की तारीफ. ऐसे में इन लोगों से दूर रहना ही भला है.

*भरोसा करो लेकिन आंख मुंद कर नहीं क्योंकि कई बार वहीं भरोसा तोड़ते हैं जिन पर हम अत्यधिक विश्वास करते हैं. कभी रिश्तों में अनबन हो जाए तो वही मित्र उन सभी राज को खोल सकता है जो आपने उस पर भरोसा कर के उसे बताए हैं.

*दोस्ती हमेशा हम उम्र के लोगों से करनी चाहिए. क्योंकि कई बार उम्र का फर्क होने के कारण रिश्तों में दरार आने की संभावना ज्यादा रहती है. और आजकल दोस्ती सामने वाले का पैसा व रुतबा देख कर करने का चलन है. ऐसे में किसी से भी दोस्ती करते समय इन बातों का खास ख्याल रखें.

*आप से विपतीत सोच रखने वालों से दोस्ती कतई न करें. क्योंकि आप के विचारों में मतभेद ही दोस्ती में खटास डाल सकते हैं.

*दोस्त का चयन करते समय खूब सोचविचार कर व सामने वाले की नियत जानने की कोशिश करें.

आरएसएस से मुकाबला, कांग्रेस दिखाए बड़ा दिल

देश की राजनीति में कांग्रेसी नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की जरूरत इस लिए नहीं है कि वह बड़े राजनीतिक घराने से आते हैं. कांग्रेस इसलिए जरूरी है क्योंकि आरएसएस के मुकाबले वह ही सब से बड़ा संगठन है. आरएसएस समाज के लोगों से नहीं मंदिरों के जरिए चलती है. कांग्रेस कभी भी लोगों के निजी जीवन में दखल नहीं देती है. आरएसएस का दखल मंदिरों के जरिए लोगों के निजी जीवन तक होता है. मंदिर में बैठा पुजारी तय करने लगा है कि लोग किस दिन कौन सा त्यौहार मनाएं. किस तरह का खाना किस दिन खाएं और कौन सा कपड़ा कब पहने? आरएसएस की सोच का मुकाबला कांग्रेस ही कर सकती है इसलिए कांग्रेस जरूरी है.

कांग्रेस के लिए जरूरी यह है कि वह अपने सहयोगी दलों का साथ दे. समाजवादी पार्टी, नैशनल कांफ्रेंस, आम आदमी पार्टी, टीएमसी और दूसरे सहयोगी दल तब इंडिया गठबंधन में अपने लिए अलग राज्यों में सीटें मांगते हैं तो उन का उद्देश्य यह होता है कि वह खुद को राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल कर सके. दिल्ली और पंजाब में सरकार बनाने गुजरात के विधानसभा चुनाव में लड़ने से आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया है. शरद पवार की नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और कम्युनिस्ट पार्टी औफ इंडिया (सीपीआई) का राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खत्म हो गया.

कैसे मिलता है राष्ट्रीय दल का दर्जा

केंद्रीय चुनाव आयोग का नियम 1968 कहता है कि किसी पार्टी को राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल करने के लिए चार या उस से ज्यादा राज्यों में लोकसभा चुनाव या विधानसभा चुनाव लड़ना होता है. इस के साथ ही इन चुनावों में उस पार्टी को कम से कम 6 प्रतिशत वोट हासिल करने होते हैं. इस के अलावा उस पार्टी के कम से कम 4 उम्मीदवार किसी राज्य या राज्यों से सांसद चुने जाएं. वह पार्टी कम से कम 4 राज्यों में क्षेत्रीय पार्टी होने का दर्जा हासिल कर ले. इस के साथ ही साथ वह पार्टी लोकसभा की कुल सीटों में से कम से कम दो प्रतिशत सीटें जीत जाए. वह जीते हुए उम्मीदवार 3 राज्यों से होने चाहिए. राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने के बाद राजनीतिक दलों को कई लाभ और अधिकार मिल जाते हैं.

राष्ट्रीय पार्टी को पूरे देश में एक चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने का मौका मिलता है. वह चुनाव चिन्ह किसी भी दूसरे दल को नहीं दिया जाता. अगर किसी राज्य में राष्ट्रीय पार्टी चुनाव लड़ रही है और वहां कोई क्षेत्रीय दल उसी पार्टी के चुनाव चिन्ह के साथ चुनावी मैदान में उतरता है तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय पार्टी को वरीयता दी जाती है. उदाहरण के लिए समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल है. वहीं आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम पार्टी का चुनाव चिन्ह भी साइकिल है. ऐसे में अगर दोनों दलों को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलता है, तो उस पार्टी को वरीयता मिलेगी जिसे पहले राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला हो.

चुनाव के वक्त राष्ट्रीय पार्टियों को दूरदर्शन के टीवी चैनल पर मुफ्त में चुनाव प्रचार करने का समय दिया जाता है. अलगअलग पार्टियों को अलगअलग समय दिया जाता है. स्टेट पार्टियों को भी चुनाव प्रचार का समय दिया जाता है, लेकिन राष्ट्रीय पार्टियों को इस में वरीयता मिलती है. चुनाव आयोग की तरफ से चुनाव में खर्च की एक सीमा तय की जाती है. सभी उम्मीदवारों को अपने खर्चो की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. सभी पार्टियों में चुनाव प्रचार के लिए कुछ स्टार प्रचारक भी होते हैं. जब वो किसी क्षेत्र में प्रचार के लिए जाते हैं तो वहां का चुनावी खर्च निश्चितरूप से बढ़ जाता है. ऐसे में इस बढ़े हुए खर्च को राष्ट्रीय पार्टी चुनावी खर्च से अलग कर सकती है.

हर राष्ट्रीय पार्टी 40 स्टार प्रचारक तय कर सकती है. इस के साथ ही राष्ट्रीय पार्टियों को सरकार की तरफ से दफ्तर बनाने के लिए जमीन मुहैया करवाई जाती है. देश की राष्ट्रीय पार्टियों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया सीपीएम, नैशनल पीपल्स पार्टी एनपीपी और आम आदमी पार्टी प्रमुख हैं. आम आदमी पार्टी की दिल्ली और पंजाब में सरकार है. देश में 6 राष्ट्रीय पार्टियां और 56 स्टेट पार्टियां हैं.

सपा कांग्रेस के बीच षह मात का खेल

राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिए समाजवादी पार्टी कापी प्रयासरत है. 2023 के मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव के समय वह कांग्रेस के साथ समझौता कर के चुनाव लड़ना चाहती थी. कांग्रेस ने मध्य प्रदेश ही नहीं छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी समाजवादी पार्टी को अपने गठबंधन में नहीं जोड़ा. कांग्रेस का मानना था कि इंडिया ब्लौक लोकसभा चुनाव के लिए है विधानसभा चुनाव के लिए नहीं. 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव मे समाजवादी पार्टी ने अपनी हिस्सेदारी मांगी. कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी को कोई टिकट नहीं दिया.

हरियाणा में सामजवादी पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ा. जम्मू कश्मीर में समाजवादी पार्टी चुनाव लड़ी. हरियाणा में जब कांग्रेस हारी तो समाजवादी पार्टी ने तंज कसा कि यह हार कांग्रेस के अति आत्मविश्वास की हार है. हरियाणा और जम्मू कश्मीर चुनाव के बाद महाराष्ट्र, झारखंड और उत्तर प्रदेश में उपचुनाव हैं. उत्तर प्रदेश में 9 विधानसभा के उपचुनाव है. इन में कांग्रेस 4 से 5 सीट चाहती थी. समाजवादी पार्टी ने 2 सीटें दी, जबकि महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी 8 से 10 सीटें कांग्रेस से मांग रही थी.

कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी पर दबाव डालने के लिए उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने से मना कर दिया. जिस से उसे महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी को सीटें न देनी पड़े. समाजवादी पार्टी को अपने संगठन और विस्तार के बारे में पता है. उत्तर प्रदेश के बाहर उसका वजूद नहीं है. ऐसे में वह चाहती है कि कांग्रेस उसे उत्तर प्रदेश के बाहर संगठन को मजबूत कराने के लिए मौका दे. बदले में सपा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जगह देगी. कांग्रेस का प्रयास रहता है कि वह सहयोगी दलों को ज्यादा पांव पसारने का दर्जा न दे.

कांग्रेस को अगर लंबी लड़ाई लड़नी है तो उसे सहयोगी दलों की जरूरत है. ऐसे में उसे छोटे दलों को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाने में मदद करनी चाहिए. क्योंकि आरएसएस से लड़ने लायक ताकत कांग्रेस के पास नहीं है. आरएसएस और कांग्रेस के बीच मंदिर और समाज का फासला है. आरएसएस की ताकत समाज नहीं मंदिर है. कांग्रेस के पास मंदिर की ताकत नहीं है. मंदिरों के बहाने आरएसएस घरघर तक के फैसलों को प्रभावित करने का काम करती है. वैसे तो आरएसएस लोगों के निजी जीवन को प्रभावित करने का काम देश की आजादी के पहले से कर रही है. जब वह सत्ता में होती है तो उस की ताकत कई गुना बढ़ जाती है.

सत्ता में आने के बाद आरएसएस यह तय करने का काम करती है कि कौन किस दिन क्या खाएगा ? किस दिन मांसाहार नहीं होगा? किस रंग के कपड़े पहने जाएंगे? मंदिरों का काम बढ़ जाता है. तमाम तरह के धार्मिक आयोजन होने लगते हैं. सरकार इन में हिस्सा लेने के लिए छुट्टी कर देती है. दुर्गापूजा मूलरूप से पष्चिम बंगाल का त्यौहार है. उस के उपलक्ष्य में स्कूल और सरकारी विभागों को उत्तर प्रदेश में एक दिन का सावर्जनिक अवकाश दे दिया गया.

आरएसएस, मंदिर और धर्म के गठजोड़ वाली उत्तर प्रदेश सरकार की बुलडोजर धर्म विशेष पर खासतौर पर चलता है. दुकानों पर नाम लिखे जाने का मुद्दा भी इसी उत्तर प्रदेश सरकार ने शुरू किया. इस की सब से बड़ी वजह आरएसएस है. अब सत्ता में भाजपा भले ही आए उस का रिमोट आरएसएस के हाथ होता है. आरएसएस को सत्ता में आने से कांग्रेस ही रोक सकती है. उस के लिए कांग्रेस को पूरे विपक्ष का साथ चहिए. कांग्रेस को चाहिए कि वह अपने सहयोगी दलों को साथ दें. उन को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाने में मदद करें.

प्रशासन तो कोई भी दल चला सकता है. भाजपा के सत्ता में आने के बाद आरएसएस लोगों के निजी जीवन को संभालने का जिम्मा उठा लेती है. यह लोगों को समझ नहीं आता. यह देश की जनता के नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है. इस के मुकाबले के लिए कांग्रेस को सहयोगी दलों को स्थान देना पड़ेगा क्योंकि यह राजनीतिक दल अपनेअपने राज्यों में ताकतवर है और आरएसएस का मुकबला कर रहे हैं. जबकि जिन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा मुकाबले में हैं वहां कांग्रेस चुनाव जीतने में सफल नहीं होती है.

कांग्रेस का महत्व इसलिए है क्योंकि वह आरएसएस से लड़ने की क्षमता है. राहुल गांधी भले ही चुनाव न जीत पाएं लेकिन उन की बात का महत्व देश और देश के बाहर भी होता है. यही वजह है कि राहुल गांधी जब भी देश के बाहर बोलते हैं मिर्ची आरएसएस को लगती है. आरएसएस कांग्रेस और राहुल गांधी से डरती है. इस डर को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि कांग्रेस विपक्ष का एक गठबंधन ले कर चलने लायक माहौल और प्रबंध कर लें. इस में उसे अपना सब से पुरानी और ताकतवर पार्टी होने का ईगो दरकिनार रख कर चलना होगा.

सिंघम अगेन : धर्म को बेचना भी फिल्म को न बचा सका

एक स्टार

कटु सत्य यही है कि बौलीवुड का फिल्मकार अजेंडे वाला सिनेमा नहीं बना सकता. हिंदी सिनेमा के फिल्मकार जब अजेंडे वाला सिनेमा बनाते हैं, तो वह खुद के साथ ही दूसरों को भी डुबाने का प्रण ले लेते हैं. यही बात ‘सर्कस’ और ‘इंडियन पोलिस फोर्स’ की असफलता का दंश झेल रहे फिल्मकार रोहित शेट्टी पर भी लागू होती है. अपने निर्देशन कैरियर को बुरी तरह डूबते देख रोहित शेट्टी ने सोचा कि क्यों न राष्ट्रवादियों व अंध भक्तों को खुश करने वाली फिल्म बनाई जाए लेकिन रोहित शेट्टी ने दर्शकों को मनोरंजन परोसने के साथ एक अच्छी कहानी सुनाने की दिशा में काम करने की बनिस्बत ‘सिंघम अगेन’ के नाम पर सीधे ऐसा अजेंडे वाला सिनेमा ले कर आ गए, जिसे देख दर्शक अपना माथा पीट रहा है और कसमें खा रहा है कि वह दूसरों को उन का सिरदर्द करवाने से बचाएगा.

एक नवंबर को दिवाली के अवसर पर सिनेमाघरों में प्रदर्शित बड़े बजट की फिल्म ‘सिंघम अगेन’ पूरी तरह से सरकार परस्त सिनेमा है. जिस में कहानी तो है ही नहीं. कुछ लोग इसे डाक्यूमेंट्री की भी संज्ञा दे सकते हैं. गुटके का विज्ञापन करने वाले दो स्टार कलाकार इस में ‘ड्रग्स’ बेचने वाले रैकेट को पकड़़ने की बात करते हैं. है न हास्यास्पद बात.

रोहित शेट्टी ने अपनी इस फिल्म में देशभक्ति, ‘नए भारत का नया कश्मीर’, निजी बदले के लिए किसी भी हद तक गुजर जाने के साथ ही देश की संस्कृति के नाम पर धर्म, रामायण, श्रीराम व राष्ट्रवाद को बेचते हुए बारबार ‘श्री राम’ के नारे लगवाने से भी बाज नहीं आए. ‘राम’, ‘रामायण’, ‘हनुमान’ आदि को ले कर फिल्म की शुरूआत में ही ‘अस्वीकरण’ किया गया है कि इस के पात्रों को पूजनीय रूप में न देखा जाए.

आश्चर्य की बात यह है कि देश में राम मंदिर बनवाने से ले कर सनातन धर्म की रक्षा व हिंदुत्व की बात करने वाली सरकार की मौजूदगी में ‘रामायण’ पर ‘आदिपुरूष’ जैसी फिल्म बन जाती है और अब रोहित शेट्टी ने ‘रामायण’ पर ही ‘सिंघम अगेन’ जैसी फिल्म ले कर आए हैं, जिस में अजय देवगन व अक्षय कुमार भी हैं. हनुमान चालीसा, शिव तांडव स्तोत्र, एक श्लोकी रामायण का ‘सिंघम अगेन’ में जिस तरह से खंडखंड उपयोग किया गया है, उस से 9 सदस्यीय लेखक दल व निर्देशक के दिमागी दिवालिएपन का अहसास हो जाता है.

फिल्म की कहानी शुरू होती है कश्मीर से, जहां एक टीवी चैनल की रिपोर्टर एनएसजी कमांडो के एसएसपी बन कर कश्मीर पहुंचे बाजीराव सिंघम (अजय देवगन ) से उन के जांबाज कारनामों को ले कर इंटरव्यू कर रही है. तो दूसरी तरफ भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय में सेवा रत सिंघम की पत्नी अवनी ( करीना कपूर खान ) ‘रामायण’ से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए बड़े स्तर पर ‘रामलीला’ का कार्यक्रम करवा रही है. अवनी का मानना है कि आज की पीढ़ी तो ‘रामायण’ को आउट डेटेड मानती है. कश्मीर में ही अचानक एक दिन आतंकवादी मुठभेड़ में सकुशल बचने के बाद बाजीराव सिंघम, कुख्यात आतंकवादी उमर हाफिज ( जैकी श्राफ) को पकड़ने में कामयाब हो जाते हैं.

उमर हाफिज जो अपने बेटों, रियाज और रजा की योजनाओं को विफल करने के बाद पाकिस्तान से श्रीलंका भाग गया और ड्रग्स बेचना शुरू कर दिया था. अब श्रीलंका में उन का पेाता जुबेर हाफिज कुख्यात सरगनाप बन चुका है. उमर हाफिज अपने पोते जुबेर के माध्यम से अपने बेटों की हत्या के लिए संग्राम उर्फ सिम्बा भालेराव और वीर सूर्यवंशी से बदला लेना चाहता है. मंत्री (रवि किशन) खुश हैं कि आखिर सिंघम ने उमर हाफिज को गिरफतार कर लिया. फिर सिंघम मंत्री से मिल कर उन्हें भारत में हो रहे ड्रग के अवैध कारोबार के बारे में बताता है. गृह मंत्री एक नया दस्ता गठित करते हैं, शिवा दस्ता जिस में सिंघम प्रमुख होता है और उस के सहयोगी दया (दयानंद शेट्टी) और देविका (स्वेता तिवारी) उस के साथ शामिल होते हैं. तभी उमर हाफिज जेल के अंदर सिंघम को चेतावनी देता है कि जल्द ही उन की नींव हिलाने के लिए उन्होंने एक तूफान को तैयार कर दिया है.

सिंघम की टीम श्रीलंका से तमिलनाडु की ओर जाने वाले एक जहाज को पकड़ती है और कंटेनरों में ड्रग्स पाता है और 4 लोगों को गिरफ्तार करता है, जिन्हें डेंजर लंका ने भेजा था और उस के 3 मुख्य गुर्गे मदुरै में रह रहे थे. सिंघम मदुरै से डीसीपी शक्ति शेट्टी (दीपिका पादुकोण) से कहता है कि इन्हें गिरफ्तार कर मुंबई ले कर आओ. उसी रात, डेंजर लंका (अर्जुन कपूर) पुलिस स्टेशन के सभी अधिकारियों जिंदा जला अपने लोगों को साथ ले जाता है.

इस के बाद कहानी ‘रामायण’ की तर्ज पर चलने लगती है. अवनी की रामायण’ पर आधारित रामलीला में जो दृष्य आते हैं, उसी के अनुरूप सिंघम के साथ घटनाएं घटित होती है.

एक दिन सिंघम की पत्नी अवनी बताती हैं कि ‘कल हमारी रामलीला में राम 14 साल के लिए वनवास जाएंगे.’ इस पर उन का बेटा शौर्य सवाल करता है ‘क्या आप को सीरियसली लगता है कि भगवान राम सीता मां को लेने 3 हजार किलोमीटर दूर श्रीलंका गए थे. अवनी इसे सच बताती है, तब शौर्य अपने पिता सिंघम से सवाल करता है कि यदि मां को कोई वहां किसी ले जाए तो क्या आप मां को वहां से लाने जाएंगे?

इस पर अजय देवगन कहते हैं, ‘‘गूगल कर ले बाजीराव सिंघम को ले कर…’उधर सिंघम का बेटा शौर्य लंदन जाने की तैयारी कर रहा है, उस की एक गर्ल फ्रैंड भी है, जिसे शौर्य ‘गर्लफ्रैंड’ की बजाय सिचुएशन’ की संज्ञा देता है.

अवनि अपनी सहकर्मी मृग्या के साथ ‘रामलीला’ के शो लिए कुछ फुटेज शूट करने के लिए रामेश्वरम जाती है, उन के साथ जटायू रूपी दया भी है. जिस दिन ‘रामलीला’ में रावण, सीता का अपहरण करता है, उसी दिन जिस तरह रामायण में रावण ने जटायू की हत्या की थी. उसी तरह डेंजर लंका उर्फ रावण, दया की हत्या कर अवनी का अपहरण कर लेता है. तब पता चलता है कि मृगया तो वास्तव में उमर हाफिज के मृत भतीजे की पत्नी है.

‘रामायण’ में राम ने हनुमान को सीता का पता लगाने भेजा था, यहां हनुमान यानी कि सिंबा यानी कि रणवीर सिंह जाते हैं. अवनि और जुबैर से मिलते हैं इसी बीच, सिंघम गुप्त रूप से श्रीलंका पहुंचता है. साथ में जुबेर के कहने पर सिंघम, सिंबा( रणवीर सिंह ), सूर्यवंशी (अक्षय कुमार), सत्या (टाइगर श्राफ), शक्ति शेट्टी (दीपिका पादुकोण) के साथ श्रीलंका पहुंचते हैं. फिर राम की ही तरह सिंघम भी अवनी को ले कर भारत लौटते हैं.

‘सर्कस’ और ‘इंडियन पोलिस फोर्स’ में बुरी तरह से मात खा चुके रोहित शेट्टी ने ‘सिंघम अगेन’ की कहानी व पटकथा का लेखन अन्य 8 लेखकों के साथ मिल कर किया है. फिल्म की कहानी व पटकथा में कोई दम नहीं है. इंटरवल से पहले फिल्म बहुत ही ज्यादा यातना वाली है. इंटरवल के रणवीर सिंह कुछ हास्य के क्षण पैदा करने का असफल प्रयास करते हैं. राम के 14 साल के वनवास व पंचवटी से ले कर श्रीलंका में सीता मंदिर तक की कहानियां ‘सिंघम अगेन’ की कलयुगी ‘रामलीला’ का हिस्सा हैं, जो कि जबरन रची होने का अहसास कराती है. यह फिल्म की कहानी में अवरोध ही पैदा करती हैं.

धर्म व ‘रामायण’ को बेचने के चक्कर में रोहित शेट्टी और उन की लेखकीय टीम फिल्म के किसी भी किरदार का सही चरित्र विकास नहीं कर पाए. एक तरफ ‘सिंघम अगेन’ भारतीय संस्कृति व संस्कारों की बात करती है, तो वहीं दूसरी तरफ ‘सिचुएशन रिलेशन ’की बात करती है, जिस रिश्ते में लड़की या लड़के किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती. अब यह लेखकों व निर्देशकों की दुविधा है या दीमागी दिवालियापन.

फिल्म के संवाद स्तरहीन व चोरी के हैं. एक दृश्य में करीना कपूर खान, दया शेट्टी से कहती हैं, ‘‘दया दरवाजा तोड़’’. यह संवाद सीरियल ‘सीआईडी’ में कई साल तक लगभग हर एपीसोड में सुनाई देता रहा है. एक दृश्य में अर्जुन कपूर से अजय देवगन कहते हैं, ‘‘तेरे सामने जो खड़ा है वह महात्मा गांधी का आदर करता है, मगर पूजा छत्रपति शिवाजी महाराज की करता है.’’

वाह क्या कहने. इस तरह के संवाद विवादों को जन्म देते हैं. मगर सेंसर बोर्ड ने इन्हे हरी झंडी दे दी. पूरी फिल्म देख कर अहसास होता है कि ‘रामायण’ के अलगअलग पात्रों व उन के साथ के अनसार अपनी फिल्म के किरदारों के साथ अलगअलग लोकेशन पर एक्शन सीन फिल्माकर फिल्म एडिटर को दे दिया गया कि इसे ‘जिस अंदाज’ में रामायण की कहानी चलती है उसी अंदाज में जोड़ दो. एडिटर ने शब्दशः वैसा ही किया होगा यह सारे दृश्य एक फिल्म की लय में नहीं चलते.

हम आप को बता दें कि रोहित शेट्टी ने किन किरदारों को किस रूप में पेश किया है. तो ‘सिंघम अगेन’ में सिंघम हैं राम, अवनी हैं सीता, जटायु बने हैं दया, खिलाड़ी उर्फ अक्षय कुमार बने हैं गरूण, हनुमान बने हैं रणवीर सिहं, लक्ष्मण बने हैं सत्या उर्फ टाइगर श्राफ. कहने का अर्थ यह कि राष्ट्रवाद व धर्म को बेचने की फिराक में रोहित शेट्टी ‘फिल्म मेकिंग की कला’ भी भूल गए. इस फिल्म को देख कर अहसास ही नहीं होता कि इस फिल्म के निर्देशक वही रोहित शेट्टी हैं, जिन्हें एक्शन दृश्यों में महारत हासिल है और अतीत में वह ‘सिंघम’ सहित कई सफलतम व बेहतरीन एक्षन फिल्में दे चुके हैं.

‘सिंघम अगेन’ के एक्शन दृश्य बहुत ही कमजोर हैं. तो वहीँ सिंबा उर्फ हनुमान उर्फ रण्वीर सिंह के माध्यम से जो हास्य परोसने का प्रयास है, वह तो फिल्म की सफलता में कील ठोंकने वाला कृत्य ही है. सिनेमाघर में मेरे बगल में बैठे हुए युवा दर्शकों का झुंड तो इन दृश्यों व रणवीर सिंह की हंसी उड़ा रहा था.

इस फिल्म में बाजीराव सिंघम पहली बार समाज या देश के लिए नहीं बल्कि अपनी निजी वजह यानी कि अपनी पत्नी को छुड़ाने के लिए देश के सभी जांबाज व ‘शिवा स्कवाड’ के अफसरों की जान जोखिम में डाल देता है. आखिर इस तरह की कहानी के माध्यम से  रोहित शेट्टी क्या संदेश देना चाहते हैं. क्या यही उन का राष्ट्रवाद है. क्या देश के किसी एनएसजी कमांडो को अपने निजी दुशमन से लड़ने के लिए सभी कमांडो की सेवाएं लेने का हक है.

कैमरामैन को यदि नजरंदाज कर दें तो फिल्म के सभी तकनीशियनों ने बेमन ही काम किया है. फिल्म का पार्श्व संगीत कानफोड़ू व अति लाउड है. जहां जरुरत नहीं है, वहां भी पार्श्व संगीत इतना लाउड है कि दर्शक संगीतकार व साउंड इंजीनियर दोनों के गाली देने लगता है. कश्मीर की वादियों में ‘शिव तांडव स्तोत्र’ बजता है, रावण यानी जुबेर हाफिज के संहार से पहले ही ‘एक श्लोकी रामायण’ बैकग्राउंड में बजा देते हैं. ‘हनुमान चालीसा’ को भी खंडखंड में काफी बजाया गया.

अफसोस की बात यह है कि ‘सिंघम अगेन’ में किसी भी कलाकार का अभिनय प्रभावशाली नहीं है. ‘सिघम अगेन’ की सब से बड़ी कमजोरी खुद बाजीराव सिंघम के किरदार में अजय देवगन ही हैं. वह सिर्फ अपनेआप को दोहराते हुए नजर आए हैं. उन की संवाद अदायगी भी निराश करती है. नायक के बाद सब से बड़ी कमजोर कड़ी खलनायक यानी कि रावण रूपी जुबेर हाफिज के किरदार में अर्जुन कपूर हैं. अर्जुन अपने अभिनय से डराते नहीं हैं. तो वहीँ लक्ष्मण रूपी सत्या के किरदार में टाइगर श्राफ बिलकुल नहीं जमे. बल्कि यह तो लक्ष्मण का अपमान ही है.

लक्ष्मण इतने कमजोर नहीं थे, जितना कि सत्या कमजोर है. इतना ही नहीं टाइगर श्राफ के किरदार को स्थापित करने या यूं कहें कि टाइगर श्राफ के डूब चुके अभिनय कैरियर को नई सांस देने के प्रयास में फिल्म इतनी लंबी खींची गई है कि दर्शक बोर हो जाता है और उसे लगता है कि फिल्मकार उन्हें मानसिक यातना दे रहा है.

परदे पर उछलकूद करना ही एक्शन व अभिनय नहीं है. हकीकत तो यही है कि सत्या के किरदार में टाइगर श्राफ का चयन ही गलत है. गरूण उर्फ खिलाड़ी के किरदार में अक्षय कुमार दर्शकों से सिर्फ अपना मजाक उड़ावाते ही नजर आते हैं. उन्होंने ‘सिंघम अगेन’ क्यों की यह समझ से परे है. उन के हिस्से करने को कुछ खास आया नहीं और जो आया, उसे भी वह ठीक से नहीं कर पाए. हनुमान उर्फ सिंबा के किरदार में रणवीर सिंह ने जो कौमेडी की है, उसे कौमेडी वही कह सकते हैं.

इस फिल्म में घटिया अभिनय कर रणवीर सिंह ने खुद ही अपने कैरियर के खात्मे की घंटी बजा दी है. उधर उन की निजी जीवन की पत्नी दीपिका पादुकोण भी पुलिस इंस्पेक्टर शक्ति शेट्टी के किरदार में है, जबकि वह कहीं से भी पुलिस अफसर नजर ही नहीं आती. खुद को ‘लेडी सिंघम’ कहने वाली शक्ति सिंह ऐसी पुलिस अफसर हैं, जिन के कार्यक्षेत्र में आने वाले थाने के 14 सिपाहियों को डैंजर लंका उर्फ जुबेर हाफिज जिंदा जला देता है. सीता उर्फ अवनी के किरदार में करीना कपूर का अभिनय काफी कमजोर है. ऐसा लगता है जैसे कि वह नौटंकी कर रही हैं.

फिल्म में एक संवाद है, ‘जंग में सब जायज है.’’ लगतार दोदो असफलताएं झेल चुके रोहित शेट्टी ने ‘सिंघम अगेन’ को सफल सिद्ध करने को ‘जंग’ की तरह ले कर अपनी फिल्म के संवाद की ही तर्ज पर ‘सिंघम अगेन’ के ट्रेलर लांच के दिन से ही अब तक घटिया हरकतें व शतरंजी चालें ही चलते आए हैं. फिल्म देख कर समझ में आया कि रोहित शेट्टी ने वितरक के माध्यम स ‘सिंघम को ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन्स पर क्यों रिलीज करवाया और क्यों टिकटों की कीमतें बढ़वा कर आम जनता को लूटा. शायद वह पहले दिन जम कर पैसा बटोर लेना चाहते थे, उन्हें अहसास था कि उन की फिल्म देख कर निकलने वाले दर्शक को उन की फिल्म पसंद नहीं आएगी.

साइबर अरेस्ट: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विवशता उजागर होती चली गई

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आजकल जब कुछ कहते हैं तो आम आदमी सोचने लगता है और खिलखिला कर हंसने लगता है. ताजा उदाहरण है 27 अक्तूबर को मन की बात का. देश भर में विभिन्न माध्यमों से इस का प्रसारण हमेशा की तरह किया गया. लोगों ने सुना और आश्चर्य वक्त एकदूसरे की तरफ देखते और हंसने लगे थे. इस का सब से बड़ा उदाहरण यह है कि नरेंद्र मोदी ने कहा, “कोई सरकारी एजेंसी कभी भी पैसे नहीं मांगती…!”

 

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यह तो दुनिया के आठवें अजूबे जैसी बात हो गई कि भारत में एक पटवारी से ले कर के ऊपर तक लेनदेन होती है, भ्रष्टाचार है, यह सारा देश जानता है और प्रधानमंत्री कहते हैं कि कोई सरकारी एजेंसी का कर्मचारी, अधिकारी पैसे नहीं मांगता. भला इसे कौन मानेगा. और इसीलिए जब प्रधानमंत्री के मुंह से ऐसी बात निकलती है तो लोग हंसने पर मजबूर हो जाते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘डिजिटल अरेस्ट’ के बढ़ते मामलों पर चिंता जताते हुए इस से बचने के लिए देशवासियों से ‘रूको, सोचो और एक्शन लो’ का मंत्र साझा किया और इस बारे में अधिक से अधिक जागरूकता फैलाने का आव्हान किया. सब से बड़ी बात प्रधानमंत्री ने ‘डिजिटल अरेस्ट’ से जुड़े एक फरेबी और पीड़ित के बीच बातचीत का वीडियो भी साझा किया और कहा कि कोई भी एजेंसी न तो धमकी देती है, न ही वीडियो काल पर पूछताछ करती है और न ही पैसों की मांग करती है.

अब प्रधानमंत्री की इस बात को बच्चाबच्चा नहीं मानेगा. क्या कोई भी एजेंसी हाथ जोड़ कर बात करती है? क्या रिश्वत नहीं लेती? इसे सारा देश जानता है मगर शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब तक प्रधानमंत्री रहेंगे इस बात को नहीं मानेंगे और जैसे ही पद से हट जाएंगे तो बातों को ले कर मुद्दा भी बना सकते हैं.

दरअसल, आकाशवाणी के मासिक कार्यक्रम ‘मन की बात’ की 150 वीं ऐतिहासिक कड़ी में प्रधानमंत्री ने ‘डिजिटल अरेस्ट’ से जुड़े एक फरेबी और पीड़ित के बीच बातचीत का वीडियो साझा किया. मजे की बात तब होती जब उसे खरीदी को गिरफ्तार कर के कानून सजा देता मगर उस का वीडियो साझा करने से तो यही संदेश जाता है कि ऐसे लोग आज सरकार के सर पर बैठ कर नाच रहे हैं.

आज दुनिया भर में इंटरनेट के तेजी से बढ़ते उपयोग के बीच ‘डिजिटल अरेस्ट फरेब का एक बड़ा माध्यम बनता जा रहा है. इस में किसी शख्स को आनलाइन माध्यम से डराया जाता है कि वह सरकारी एजेंसी के माध्यम से “अरेस्ट” ही गया है और उसे जुर्माना देना होगा. कई लोग ऐसे मामलों में ठगी का शिकार हो रहे हैं.

मोदी सरकार विवश और मजबूर यह आश्चर्य की बात है कि 56 इंच की बात करने वाले, ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का नारा लगाने वाले साइबर क्राइम के मामले में असहाय और विवश दिखाई देते हैं. देश भर में लगातार इस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं मगर कानून असहाय है और अपराध करने वाले अपना काम करते चले जा रहे हैं. प्रधानमंत्री ने जो बातें कही हैं उस का निचोड़ यह है कि आप को खुद जागरूक बनना पड़ेगा. आप को अपनी सुरक्षा खुद करनी पड़ेगी सरकार इस में कुछ नहीं कर सकती. नरेंद्र मोदी के मन की बात का संपूर्ण निचोड़ यही है.
प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ के दर्शकों को विस्तार से बताया, इस प्रकार के फरेब करने वाले गिरोह कैसे काम करते हैं और कैसे “खतरनाक” खेल खेलते हैं.
उन्होंने कहा, “डिजिटल अरेस्ट’ के शिकार होने वालों में हर वर्ग और हर उम्र के लोग हैं और वे डर की वजह से अपनी मेहनत से कमाए हुए लाखों रुपए गंवा देते हैं.” उन्होंने कहा, इस तरह का कोई फोन काल आए तो आप को डरना नहीं है. कुल मिला कर देश में किस तरह की खराब स्थितियां है और कानून असहाय है सरकार विवश है यह बता दिया.

प्रधानमंत्री ने एक बार फिर वही कहा जो हर बार दोहराया जाता है ऐसे मामलों में राष्ट्रीय साइबर हेल्पलाइन 1930 पर डायल करने और साइबर क्राइम डाट जीओजी डाट इन पर रिपोर्ट करने के अलावा परिवार और पुलिस को सूचना देने की सलाह दी. इस की जगह अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात में कुछ ऐसा बताते की सरकार आप की सुरक्षा के लिए पूरी तरह मुस्तैद हो चुकी है, अब आज के बाद देश में एक भी साइबर ठगी नहीं होगी तो लोग तालियां बजाते मुक्त कंठ से प्रशंसा करते और ठगे हुए लोगों के दिल में ठंडक पहुंचती.

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