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Bollywood New Movie : ‘Dispatch’ में जबरदस्‍ती डाले गए पौर्न सीन्‍स

Bollywood New Movie : निर्देशक कनु बहल ने अपनी इस फिल्म को सही ढंग से डिस्पैच नहीं किया है, पटकथा में उस ने मांबहन की खूब गालियां दी हैं. उसे लगता है कि गालियों से फिल्म कूल बन जाएगी. मनोज वाजपेयी जैसे कलाकार को ले कर उस ने उसे एक कार में एक युवती के साथ पहले ही सीन में यौन संबंध बनाते दिखाया है और वह युवती भी मीठीमीठी सिसकारियां भरती आवाजें निकालती है.

इस से पहले कनु बहल ने ‘तितली’ जैसी क्लासिक फिल्म बनाई, मगर ‘डिस्पैच’ जैसी फिल्म बना कर कनु बहल को गालियों और सैक्स सीन की जरूरत नहीं थी. अच्छी फिल्म बनाने के लिए तो एक दमदार कहानी चाहिए होती है, दर्शकों को अपनी ओर खींचते किरदार चाहिए होते हैं जो दर्शकों को आसपास के बारे में सोचने पर मजबूर कर दें, मगर डिस्पैच में ऐसा नहीं है.

इन्वैस्टिगेटिव क्राइम ड्रामा

मनोज वाजपेयी की पिछली फिल्में ‘गुलमोहर’, ‘जोरम’ और ‘भैयाजी’ की सफलता पर ‘डिस्पैच’ ने पानी फेर दिया है. फिल्म एक इन्वैस्टिगेटिव क्राइम ड्रामा है. कहानी को ठीक से बुना नहीं गया है. फिल्म पत्रकारिता से जुड़ी दिक्कतों को सामने लाती है. कौरपोरेट हाउसेज के समाचारपत्र चलाने से कभी सही स्टोरी सामने नहीं आ पाती. फिल्म में ‘डिस्पैच’ एक अखबार का शीर्षक है. यह डिस्पैच अखबार कौरपोरेट भ्रष्टाचार, मीडिया की मिलीभगत का पर्दाफाश करता है और उस की तह तक में जाने वाले एक पत्रकार के संघर्ष को भी दिखाता है.

स्‍टोरी रिव्‍यू

फिल्म की कहानी एक क्राइम जर्नलिस्ट जौय बाग (मनोज वाजपेयी) की है. उस की खबरें ट्रैंडिंग में रहती थीं, मगर चैनल का हैड वर्षा नाम की रिपोर्टर को हैड बना देता है. जौय के लिए चैलेंज है कि वह चैनल के लिए बैस्ट स्टोरी लाएगा. उसे चैनल हैड, शेट्टी नाम के गुंडे की हत्या की पूरी स्टोरी लाने को कहता है. जौय बाग राजी हो जाता है.

जौय को अपनी बीवी पसंद नहीं थी, वह अपनी गर्लफ्रैंड प्रेरणा प्रकाश (अर्चिता अग्रवाल) से प्यार करता था, जौय और प्रेरणा एक कार में इंटीमेट हो रहे होते हैं, इतने में जीतू की एक कौल आती है. जीतू उसे बताता है कि शेट्टी को पप्पू सांगली ने मारा था. जौय जीतू को काफी पैसे देता है. जौय घर आता है. घर में बीवी श्वेता (शहाना गोस्वामी) के दोस्त आए हुए थे. जौय की श्वेता से अनबन हो जाती है, उस के बाद जौय पुलिस स्टेशन आता है और बताता है कि उस के पास शेट्टी के खूनी का पता है. थाने में स्मलगर पप्पू से जौय की  झड़प हो जाती है और उसे चोट लगती है. जौय की मां उसे देख कर दुखी हो जाती है. जौय प्रेरणा को अपने मौमडैड से मिलवाता है.

जौय को पप्पू से पता चलता है कि जीडीआर ने कुछ समय पहले हजारोंकरोड़ का घोटाला किया था. इस केस का नाम 2 जी स्कैम है. जौय इस स्कैम के बारे में बौस को बताया है. वह इस स्कैम के पीछे के सभी गुनाहगारों का पता लगाता है. श्वेता जौय को जाने से रोकती है तो वह उसे धक्का मार कर चला जाता है.

जौय केस की इन्वैस्टिगेशन कर रहा होता है कि विजिलैंस वालों को पता चल जाता है कि यह कोई असली अफसर नहीं है. मगर जौय हिम्मत नहीं हारता और इस केस के सिलसिले में कई लोगों से मिलता है. वह जीडीआर की फाइल ले कर चैनल हैड के पास जाता है. तभी उसे पता चलता है कि चैनल हैड ही जीडीआर से मिला हुआ है. जौय वह फाइल ले कर भाग निकलता है, मगर गुंडे जौय को पकड़ लेते हैं और उसे मार डालते हैं. 2जी स्कैम का कभी पता जनता को नहीं चल पाता.

यह फिल्म नैरेटिव ज्यादा है, कहींकहीं कन्फ्यूज भी करती है. फिल्म में बेवजह गालियां डाली गई हैं. कई सीन भी बोल्ड हैं. मनोज वापजेयी का काम अच्छा है. शहाना गोस्वामी और अर्चिता अग्रवाल ने भी अपनेअपने अभिनय के साथ न्याय किया है. पार्श्व संगीत साधारण है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है. फिल्म वयस्कों के लिए है. लगता है कनु बहल भी अनुराग कश्यप की राह पर चल पड़ा है. जरूरत न होने पर भी उस ने पौर्न सीन डाल दिए हैं.

Sushila Meena जैसों के सपनों पर अपनी पीठ थपथपाता बेशर्म समाज

Sushila Meena  कोई अपवाद नहीं. न ही कोई स्पैशल टैलेंट है. सुशीला को ले कर इंटरनेट पर जो होहल्ला है वो सिर्फ उस के गरीब होने का है. जो गर्व किया जा रहा है उस की गरीबी पर किया जा रहा है. यह गर्व की बात नहीं हमारे लिए शर्म की बात है कि इस पर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं.

कुछ दिनों पहले तक 10 साल की सुशीला मीणा एक आम लड़की थी, उस के दिन आर्डिनरी थे. सुबह उठना, अपनी मां के साथ घर के कुछएक काम निपटाना और खपरेल से टूटेफूटे स्कूल जाना. ठीक वैसे ही जैसे उस जैसी तमाम स्कूली लड़कियों के थे.

लेकिन लाइफ 180 डिग्री तब फ्लिप हुई जब लैजेंड्री क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने अपने एक्स पर सुशीला मीणा की एक रील शेयर करते हुए उस की तारीफ़ की, जिस में वह अपने स्कूल में बने छोटे से प्लेग्राउंड में बिना जूते/चप्पलों के बौलिंग कर रही थी. सुशीला का बौलिंग एक्शन भारतीय बौलर रहे जहीर खान से मिलताजुलता है तो सचिन ने जहीर को भी टैग किया.

यह मामला सिर्फ एक ट्वीट से सुर्खियां बटोर गया. बात ट्वीट से अधिक सुशीला की वे परिस्थितियां थीं जिस से मौजूदा समय में देश की हर दूसरी लड़की या लड़का गुजर रहा है.

दरअसल सुशीला आदिवासी परिवार से है जो राजस्थान के प्रतापगढ़ में एक छोटे से गांव में रहती है. पिता मजदूर हैं और मां घर का काम संभालती हैं. घर में आर्थिक तंगहाली है. जिस घर में सुशीला रहती है वो डंडों से बना झोपड़ा है. न फ्रिज है न टीवी, न एसी है न पंखा. हाड़ कंपा देने वाली ठंड में बदलने को कपड़े नहीं और पहनने को चप्पल नहीं. यहां तक कि जिस उज्ज्वला योजना की वाहवाही देश के प्रधानमंत्री लूटा करते हैं सुशीला के घर में उस का दिया एक चूल्हा तक नहीं.

जब सुशीला से पूछा गया कि क्या वह सचिन तेंदुलकर को जानती है तो उस ने मना कर दिया. उस ने बड़े भोलेपन से कहा, “न मैं ने सचिन तेंदुलकर को देखा है न मैं उन्हें जानती हूं क्योंकि मेरे घर पर टीवी नहीं.”

जाहिर है सोशल मीडिया पर सचिन तेंदुलकर के ट्वीट के बाद सुशीला वायरल गर्ल बन गई. उस के एफर्ट और करेज की वाहवाही की जाने लगी. उसे पैसों और फूलों की माला पहनाई गई, उसे जीप और कांधे पर बैठा कर गांव भर घुमाया गया. लगुआ भगुआ सब नेता उस के खपरेल से झोपड़े में आने लगे. वह झोपड़ा जो बरसात में चूता है, सर्दी में सिकुड़ता है और गरमी में धधकता है.

किसी नेता ने उसे 50 हजार रूपए की भेंट दी तो किसी ने अकेडमी में पढ़ाने की. किसी ने उस के साथ क्रिकेट खेला तो कोई नेता उस की बौलिंग पर बोल्ड हो कर रील शेयर करने लगा. पर सवाल यह है कि हम सभी को उस की वाहवाही करनी चाहिए या शर्म से डूब जाना चाहिए?

आखिर क्या है सुशीला में? क्यों उस की इतनी तारीफ़ की जाए? एक बौलिंग एक्शन के चलते? या वह लड़की हो कर क्रिकेट खेल रही है इसलिए या वह गरीब है इसलिए? अगर ये सभी कारण हैं तो लानत हम पर क्यों न हो कि इन कारणों को प्राउड मूवमेंट बताया जा रहा है.

क्या गरीब होना प्राउड मूवमेंट हो सकता है? क्या बिना सुविधाओं के रहना खुशी की बात हो सकती है? क्या किसी की मजबूरी पर हम अपनी पीठ थपथपा सकते हैं? आज वह वायरल है तो तमाम नेता गिफ्ट और तोहफे दे रहे हैं, लड़की का कच्चा टूटाफूटा मकान बैट बौल और क्रिकेट किट से भर दिया गया है. लड़की वायरल है तो शासनप्रशानस चुस्त हो गया है. सीएम, डिप्टी सीएम से ले कर खेल मंत्री उस के यहां जा कर ताल ठोक रहे हैं. उसे राज्य की राजधानी जयपुर में शिफ्ट कर दिया गया है, उस की ट्रेनिंग हो रही है.

 

सवाल यह कि यह सुविधाएं पहले क्यों नहीं? क्यों किसी सचिन या अमिताभ के ट्वीट करने का इन्तजार किया जा रहा है? क्या उस गांव में अकेली सुशीला मीणा ही लड़की है जो इन परिस्थितियों से जूझ रही है? क्या उस के जिले, राज्य और देश में सुशीलाओं की कमी है? क्या यह सुविधाएं वायरल होने के बाद ही मिलेंगी?

सुशीला कोई अपवाद नहीं. न ही कोई स्पैशल टैलेंट है. हो सकता है यह सब होहल्ला कर के उस पर पीयर प्रेशर ही बने. क्या ऐसा बुधिया के केस में नहीं था, कहां है बुधिया, जिसे भारत का उसेन बोल्ट कहा जा रहा था? दरअसल सुशीला को ले कर जो होहल्ला है वो सिर्फ उस के गरीब होने का है. जो गर्व किया जा रहा है उस की गरीबी पर किया जा रहा है, जो भावुक हुआ जा रहा है उस के आदिवासी होने पर हुआ जा रहा है. हम यही कर सकते हैं. हम गरीबी पर खुश होते हैं. उसे सैलिब्रेट करते हैं पर सरकार और खुद से कोई जवाबदेही नहीं मांगते. हम सिर्फ ट्वीट करना और रील बनाना जानते हैं.

 

क्या यह शासन में बैठे नेताओं की जिम्मेदारी नहीं थी कि सुशीला मीणा जैसी नौबत किसी की भी न हो. सुशीला के गांव में सभी के हालात ऐसे हैं. जिस स्कूल में सुशीला पढ़ती है वहां क्लासेस टूटेफूटे हैं, बच्चे स्कूल सिर्फ मिडडे मील खाने जाते हैं. पढ़ाने वाला एक ही टीचर है जो हर विषय पढ़ाता है. गरीबी इतनी है कि छोटी उम्र में ही लड़कियां ब्याही जाती हैं. ऊपर से इलाका इतना पिछड़ा कि सरकारी सुविधा पहुंचने से पहले अपना दम तोड़ देती हैं.

सरकारों का पैटर्न तो ऐसा ही होता है कि वे किसी एक को चुनते हैं और उसे फलक तक पहुंचा देते हैं फिर अपनी पीठ अगले 5 साल तक थपथपाते हैं. क्योंकि उन्हें काम कर के नहीं, दिखा कर वोट लेने हैं, इसलिए वे राज्य में 1 इंटरनेशनल टाइप स्कूल बनाते हैं, 1 ऊंची मूर्ती, 1 बड़ा मंदिर, 1 बड़ा एअरपोर्ट और 1 सुशीला का कैरियर बनाते हैं.

देश में सिर्फ 5 ही एमिनेन्स स्कूल क्यों हों? क्या सभी बच्चों को क्वालिटी एजुकेशन नहीं मिलनी चाहिए? यह प्रवर्ती सिर्फ नेताओं में नहीं है. हम सभी में है इसलिए बात सिर्फ नेताओं की नहीं. अब सुशीला के सपने बड़े हैं, वह इंडियन टीम में खेलना चाहती है. इतना सब होने के बाद ही उस ने बड़े सपने देखने शुरू किए. यह लानत है कि हम सब सुशीला की तरह ही देश के करोड़ों बच्चों के सपने बचपन में मार देते हैं. हो सकता है आने वाले समय में ऐसा हो भी जाए कि वह मौजूदा समय में मिली सुविधाओं से कामयाब हो जाए और उदाहरण सेट करे, मगर फिर भी यह जरुर याद रखा जाएगा कि इतना सब करने के लिए उसे किसी सचिन के ट्वीट की जरूरत पड़ी जिस का सौभाग्य देश की बाकी लड़केलड़कियों को नहीं मिल पाया.

 

Hindi Kahani : क्‍या कोठी मेरे नाम कर दोगे

Hindi Kahani : औफिस से घर लौटी प्रिया ने 50 हजार रुपए अपनी मां के हाथ में पकड़ाते कहा, ‘‘इस में 30 हजार रुपए सुमित की कंप्यूटर टेबल और नई जींस के लिए हैं.’’

‘‘कार की किस्त कैसे देगी इस बार?’’ मां ने चिंतित लहजे में पूछा. यह कार उन लोगों ने कोविड से पहले ली थी, पर कोविड में पिता की मौत के बाद वह भारी हो गई है.

‘‘उस का इंतजाम मैं ने कर लिया है. अब तुम जल्दी से मु झे कुछ हलकाफुलका खिला कर एक कप चाय पिला दो. फिर मु झे कहीं निकलना है.’’

‘‘कहां के लिए? इन दिनों कहीं भी जाना ठीक है क्या?’’

‘‘सुबह बताया तो था. एक कौन्फ्रैंस है, 2 दिन वहां रहना भी है. रविवार की शाम तक लौट आऊंगी.’’

‘‘मल्होत्रा साहब भी जा रहे हैं न?’’

‘‘पीए अपने बौस के साथ ही जाती है मां,’’ प्रिया अकड़ कर उठी और अपनी खुशी दिखाते हुए बाथरूम में घुस गई.

प्रिया की मां की आंखों में पैसे को ले कर चमक थी. जहां पैसेपैसे को मुहताज हो, वहां कहीं से भी कैसे भी पैसे आएं, अच्छा लगता है.

वह घंटेभरे बाद घर से निकली तो एक छोटी सी अटैची उस के हाथ में थी.

उसे विदा करते समय उस की मां का मूड खिला हुआ था. उन की खामोश खुशी साफ दर्शा रही थी कि वे उसे पैसे कमाने की मालकिन मान चुकी थीं.

प्रिया उन के मनोभावों को भली प्रकार सम झ रही थी. अपनी 25 साल की बेटी का 45 साल के आदमी से गहरी दोस्ती का संबंध वैसे भी किसी भी मां के मन की सुखशांति नष्ट कर सकता था, एक मां को समाज के लोगों का डर लगता था. बेटी बदनाम हो गई तो न मां सुरक्षित रह पाएगी, न बेटी.

मल्होत्रा साहब के पीए का पद प्रिया ने तकरीबन 2 साल पहले संभाला था. उन के आकर्षक व्यक्तित्व ने पहली मुलाकात में ही प्रिया के मन को जीत लिया था.

अपनी सहयोगी ऊषा से शुरू में मिली चेतावनी याद कर के प्रिया कार चलातेचलाते मुसकरा उठी.

‘यह मल्होत्रा किसी शैतान जादूगर से कम नहीं है, प्रिया,’ ऊषा ने कैंटीन में उस का हाथ थाम कर बड़े अपनेपन से उसे सम झाया था, ‘अपने चक्कर में फंसा कर यह पहले भी कई लड़कियों को इस्तेमाल कर मौज ले चुका है. तु झे इस के जाल में नहीं फंसना है. सम झी? उसे लगता है कि हम जैसी जाति की लड़कियों को जब चाहे पैसे दे कर खरीदा जा सकता है.’

ऐसी चेतावानियां उसे औफिस के लगभग हर व्यक्ति ने दी थीं जो उन की जाति या उस जैसी जाति का था. उन की बातों के प्रभाव में आ कर प्रिया मल्होत्रा साहब के साथ कई दिनों तक खिंचा सा व्यवहार करती रही थी, पर आखिरकार उसे अपना वह बनावटी रूप छोड़ना पड़ा था.

मल्होत्रा साहब बहुत सम झदार, हर छोटेबड़े को पूरा सम्मान देने वाले एक अच्छे इंसान हैं. मु झे उन से कोई खतरा महसूस नहीं होता है. मु झे उन के खिलाफ भड़काना बंद करो आप, ऊषा मैडम, प्रिया के मुंह से कुछ ही हफ्तों बाद इन वाक्यों को सुन कर ऊषा ने नाराज हो कर उस के साथ बोलचाल लगभग बंद कर दी थी.

नौकरी शुरू करने के 2 महीने बाद ऊषा ही ठीक साबित हुई और प्रिया का मल्होत्रा साहब के साथ अफेयर शुरू हो गया था.

उस दिन प्रिया का जन्मदिन था. मल्होत्रा साहब ने उसे एक बेहद खूबसूरत ड्रैस उपहार में दी. दोनों ने महंगे होटल में डिनर किया. वहां से बाहर आ कर दोनों कार में बैठे और मल्होत्रा साहब ने उस की तरफ अचानक  झुक कर जब उस के होंठों पर प्यारभरा चुंबन अंकित किया तो प्रिया आंखें मूंद कर उस स्पर्श सुख से मदहोश सी हो गई थी.

उस दिन के ठीक 10 दिनों बाद प्रिया ने रविवार का पूरा दिन मल्होत्रा साहब के साथ उन की कोठी पर गुजारा था. उसे भरपूर यौन सुख दे कर मल्होत्रा साहब ने स्वयं को एक बेहद कुशल प्रेमी सिद्ध कर दिया था.

बाद में मल्होत्रा साहब ने उस के बालों को प्यार से हिलाते हुए इस संबंध को ले कर अपनी स्थिति साफ शब्दों में बयान कर दी थी, ‘प्रिया, मेरी बेटी 17 साल की है और होस्टल में रह कर मसूरी में पढ़ रही है. अपनी पत्नी से मैं कई वर्षों से अलग रह रहा हूं. मैं ने तलाक लेने का मुकदमा चला रखा है, लेकिन वह आसानी से मु झे नहीं मिलेगा. शायद 3-4 साल और लगेंगे तलाक मिलने में, पर मैं जो कहना चाह रहा हूं, उसे अच्छी तरह से तुम आज सम झ लो, प्लीज.’

‘मैं पूरे ध्यान से आप की बात सुन रही हूं,’ प्रिया ने उन की आंखों में प्यार से  झांकते हुए जवाब दिया था.

‘तलाक मिल जाने के बाद भी मैं तुम से कभी शादी नहीं कर सकूंगा. उस तरह के सहारे की तुम मु झ से कभी उम्मीद मत रखना.’

‘फिर किस तरह के सहारे की उम्मीद रखूं?’ प्रिया को अचानक अजीब सी उदासी ने घेर लिया था.

‘अपना नाम देने के अलावा मैं अपना सबकुछ तुम्हारे साथ बांटने को तैयार हूं, डार्लिंग.’

‘सबकुछ?’

‘हां.’

‘क्या यह कोठी मेरे नाम कर दोगे?’

‘तुम्हें चाहिए?’

बड़ी लंबी सी खामोशी के बाद प्रिया ने गंभीर लहजे में जवाब दिया था, ‘मैं ने अपने मन को टटोला तो पाया कि किसी लालच के कारण मैं आप से नहीं जुड़ी हूं. मैं जब आप के साथ होती हूं तो बेहद खुश, खुद को बेहद सहज और सुरक्षित महसूस करती हूं. हम जीवनसाथी बनें, ऐसा विचार कभी मेरे मन में नहीं उठा है और न ही अब उठ रहा है. वैसे भी, हमारी जातियां अलगअलग हैं और उन में शादियां आज भी नहीं होतीं.’

‘गुड,’ मल्होत्रा साहब ने फिर से उसे अपनी बांहों के घेरे में कैद कर लिया था.

‘लेकिन, क्या आप मु झे दिल से प्यार करते हैं या सिर्फ मेरा शरीर ही…’

मल्होत्रा साहब ने उस के होंठों को चूम कर उसे चुप किया और कहा, ‘तुम बेहद खूबसूरत, बहुत प्यारी, बहुत भोली और सम झदार लड़की हो, प्रिया. मैं बहुत खुश हूं, जो तुम मेरी जिंदगी में आई हो, ढेर सारी खुशियों की बहार ले कर.

‘तुम्हारे बारे में सोच कर मेरा मन नाच उठता है. तुम्हें देख कर दिल खिल उठता है. तुम पास रहो या दूर, मैं तुम्हारे इस सुंदर साथ के लिए सदा आभारी रहूंगा.’

‘और मैं भी आप की.’

‘तुम किसलिए?’

‘मौजमस्ती और सुखसुविधा भरी ऐसी जिंदगी का स्वाद चखाने के लिए, जो आप से जुड़े बिना मु झे कभी नसीब न होती. ऐशोआराम भरी ऐसी जिंदगी, जिस की मैं कल्पना करती तो दुनिया से विदा हो जाती.’

‘तुम्हें खुश रखना मु झे बहुत अच्छा लगता है.’

‘मेरी भी यही सोच है, माई स्वीटहार्ट,’ प्रिया भावुक हो कर मल्होत्रा साहब के सीने से लग गई थी.

उन दोनों ने अपने इस रिश्ते को दुनिया की नजरों से बचा कर रखने का हर संभव प्रयास किया था. प्रिया का ज्यादातर समय मल्होत्रा साहब की कोठी में बीतता. वे बाहर ऐसे शानदार व महंगे होटलों में ही जाते, जहां प्रिया के किसी परिचित या रिश्तेदार की मौजूदगी की संभावना न के बराबर होती.

‘मेरा दिल करता है कि मैं हर जगह तुम्हारे साथ खुल कर घूमूंफिरूं, हंसूंबोलूं, पर तुम्हारी बदनामी का डर मु झे ऐसा नहीं करने देता,’ मल्होत्रा साहब ने एक दिन उदास लहजे में अपनी इच्छा व्यक्त की थी.

‘बनावटी जिंदगी जीते हुए सचाई को छिपाते जाना आज हर व्यक्ति के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है, सर. देखिए, लकड़ी को बनावटी रूप दे कर ये सोफा और पलंग बने हैं. किस रिश्ते में हम बनावटी व्यवहार नहीं करते? क्या शादी की रस्म बनावटी नहीं है? प्रकृति में कहीं भी क्या शादी नाम की प्रथा, मानव समाज को छोड़ कर नजर आती है?’ प्रिया एकदम से उत्तेजित हो उठी थी.

‘मेरे दिल में तुम्हारे लिए जो प्रेम है, वह बनावटी नहीं है, प्रिया.’

‘मैं जानती हूं, सर और इसीलिए कहती हूं कि हमें इस प्रेम की मिठास को बनाए रखने के लिए ही इसे दुनिया की नजरों से छिपाना होगा. लोगों को खामखां बकवास करने का मौका क्यों दें? ऐसा सोचना डर का नहीं, बल्कि सम झदारी का प्रतीक है, सर,’ प्रिया की इस सोच को सम झ कर मल्होत्रा साहब प्रेमसंबंध को ले कर कहीं ज्यादा सहज हो गए थे.

उस शाम को प्रिया अटैची ले कर मल्होत्रा साहब की कोठी पहुंची तो उस ने उन्हें परेशानी व उल झन का शिकार बने पाया था.

प्रिया ने कई बार उन की परेशानी का कारण पूछा, पर वे जवाब देना टाल गए. तब प्रिया ने गुमसुम बन कर उन के मन की बात जानने के लिए उन पर दबाव बनाया.

प्रिया की यह तरकीब डेढ़ घंटे में ही सफल हो गई और मल्होत्रा साहब ने उस की बगल में बैठ कर अपने मन की परेशानी को बताना शुरू कर दिया.

‘‘आज शाम को घटी 2 बातों ने मेरे मन की शांति हर ली है,’’ मल्होत्रा साहब ने गहरी सांस खींच कर बोलना शुरू किया, ‘‘पहले तो मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ने तुम्हें ले कर बड़ी घटिया सी बात कही और फिर…’’

‘‘क्या कहा था उन्होंने?’’ प्रिया ने अपने माथे पर बल डाल कर उन्हें टोकते हुए पूछा.

‘‘उस बात को छोड़ो.’’

‘‘नहीं, प्लीज, मैं जानना चाहती हूं.’’

बड़ी  िझ झक के साथ मल्होत्रा साहब ने बताया, ‘‘वह घटिया इंसान जानना चाह रहा था… पूछ रहा था कि तुम एक रात के लिए कितना चार्ज करती हो. उस ने यह भी कहा कि तुम्हारी जाति की लड़कियां तो शादी से पहले ही जीजाओं, चाचाओं, पड़ोसियों के साथ हंसखेल चुकी होती हैं.’’

‘‘मैं सम झ गई. फिर आप ने क्या जवाब दिया?’’ प्रिया ने उन का हाथ पकड़ कर शांत भाव से पूछा.

‘‘मेरा दिल तो किया था कि घूंसे मार कर उस के दांत तोड़ डालूं, पर बेकार का तमाशा खड़ा हो जाता. मैं ने कड़े शब्दों में फिर कभी ऐसी बकवास करने की हिम्मत न करने की चेतावनी दे दी है.’’

‘‘गुड. मैं उस के व्यवहार से चकित नहीं हूं, सर. हमारा समाज भौतिक स्तर पर खूब तरक्की कर रहा है, पर अधिकतर लोगों की सोच नहीं बदली है. पतिपत्नी के रिश्ते को छोड़ उन्हें स्त्रीपुरुष के हर अन्य संबंध में अनैतिकता और अश्लीलता ही नजर आती है.’’

‘‘इस तरह के लोग तुम्हारी बदनामी का कारण बन जाएंगे, प्रिया. मेरे कारण तुम जिंदगी में दुख और परेशानियां उठाओ, यह मु झे बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. तुम्हारी मां ठीक ही कह रही

थीं कि…’’

‘‘मेरी मां से आप की कब बात हुई, सर?’’ प्रिया ने चौंक कर प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारे घर से निकलने के बाद उन्होंने मु झे फोन किया था.’’

‘‘आई एम सौरी, सर. मैं ने उन्हें आप को कभी भी फोन करने से मना कर रखा है, फिर भी क्या कहा उन्होंने…?’’ प्रिया अपने गुस्से को मुश्किल से नियंत्रण में रख पा रही थी.

‘‘तुम्हारे जीजा का दोस्त रवि 10 दिनों बाद मुंबई से आ रहा है. अब रेलें चलने लगी हैं न. वे चाहती हैं कि इस बार तुम दोनों के बीच शादी की बात आगे बढ़े. कम से कम रोका हो जाए, ऐसी उन की इच्छा है.’’

‘‘और क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘मैं तुम से दूर हो जाऊं, ऐसी प्रार्थना करते हुए बद्दुआएं भी दे रही थीं. प्रिया, क्या मैं ने तुम्हें अपनी दौलत, अपनी अमीरी, अपने रुतबे और ओहदे के बल पर अपने साथ जोड़ रखा है? क्या मैं तुम्हारे साथ खिलवाड़ कर रहा हूं?’’ ये सवाल पूछते हुए मल्होत्रा साहब की आवाज में पीड़ा के भाव पैदा हुए.

‘‘ऐसे आरोप मां ने लगाए आप पर?’’

‘‘हां. उन के मन की चिंता मु झे गलत भी नहीं लगी, प्रिया. हमारा रिश्ता रवि के साथ तुम्हारी शादी होने की राह में बिलकुल रुकावट बन सकता है.’’

‘‘मेरी और रवि की शादी होगी, ऐसा फैसला अभी किसी ने नहीं किया है, सर. फिलहाल उस की बात जीजा ने चलाई है. मां ने आप से अपने मन का डर बताया है.’’

‘‘लेकिन, कल को तुम दोनों शादी करने का फैसला कर सकते हो, प्रिया. और तब हमारे बीच का संबंध तुम दोनों के बीच मनमुटाव व अलगाव पैदा करने का कारण बन सकता है. मैं यह कभी नहीं चाहूंगा कि वह मु झ से कभी आ कर  झगड़ा करे.’’

‘‘सर, आप पहले मेरी बात सुनिए,’’ प्रिया ने टोक कर अपने मन की बात कहनी शुरू कर दी, ‘‘जिस दिन रवि और मैं शादी करने का फैसला करेंगे, उस दिन से या उस से पहले ही हमारे बीच सैक्स संबंध समाप्त हो जाएंगे, क्योंकि तब न आप का और न मेरा दिल और बदन ऐसा करने की इजाजत हमें देंगे.’’

‘‘यह सच है कि पापा की कोविड में मौत के बाद हमें माली संकट से उबारने में आप ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अब फ्लैट की किस्तें मु झे नहीं देनी पड़तीं. कार की किस्त अटके या किसी अन्य खर्च के अचानक सिर पर आ पड़ने की स्थिति में आप मेरी हैल्प करते हो. हम साथ घूमते हैं तो भी आप का बहुत खर्चा होता है. हमारे लोगों में यह सुख भी थोड़ों को ही मिला है.

‘‘लेकिन, मेरे देखे यह सब खर्चा तो आप खुशीखुशी करते आए हैं. मु झे कहने की जरूरत नहीं पड़ती और आप पहले से ही मेरी जरूरत सम झ जाते हैं. आप की दौलत नहीं, बल्कि प्रेम ने मु झे आप के साथ जोड़ा हुआ है. मेरी सोच किसी वेश्या की सोच नहीं है.’’

‘‘बेकार की ऐसी बातें सोच कर परेशान मत हो, प्रिया,’’ उसे यों सम झाते हुए मल्होत्रा साहब खुद परेशान नजर आ रहे थे.

‘‘सर, मेरी कोशिश तो आज हम दोनों को बेकार के अपराधबोध की पकड़ से मुक्त करने की है,’’ खुद को शांत करते हुए प्रिया ने आगे बोलना जारी रखा, ‘‘आप अपनी दौलत के मालिक हैं और मैं अपने शरीर की. इन का हम क्यों अपनी मनमरजी से उपयोग नहीं कर सकते?’’

‘‘प्रिया, समाज कुछ रिश्तों को गलत मानता है.’’

‘‘सर, किसी पंडितपुजारी ने फेरे नहीं कराए हैं तो क्या हमारे बीच सैक्स संबंध नाजायज और अनैतिक बन जाएगा? क्या वारिस पैदा करने के लिए ही स्त्रीपुरुष के बीच सैक्स संबंध बने? सारे पांडव भी अपने बाप की औलादें नहीं थीं.’’

मल्होत्रा साहब की सम झ में नहीं आया कि वे प्रिया को क्या जवाब दें तो उस ने अपना तर्क आगे बढ़ाया, ‘‘आज की तारीख में आप की पत्नी नहीं, बल्कि मैं आप की सुखदुख की साथिन हूं. आप अगर मेरा ध्यान रखते हैं और  झुक कर अपनी कमाई खर्च करते हैं तो इस में क्या बुराई है, क्या गलत है?

‘‘रही बात हमारे बीच उम्र के बड़े अंतर की तो प्रेम संबंध की मजबूती आपसी सम झ, तालमेल व चाहत के भावों पर निर्भर करती है, न कि प्रेमियों की उम्र पर. हर उम्र के इंसान का दिल प्रेम देना और पाना चाहता है और इस के लिए उचित प्रेम पात्र का मिलना सब से महत्त्वपूर्ण है. पंडित, पुजारी और समाज में नैतिकता को ले कर शोर मचाने वाले ठेकेदार 2 इंसानों के बीच मजबूत प्रेम संबंध पैदा कराने की गारंटी कभी नहीं दे सकते. हमारे गांव का पंडित ऊंचीनीची जाति की हर लड़की पर हाथ मारने की कोशिश करता रहता है. कभी बात बनती है, कभी नहीं.’’

‘‘हम दोनों एकदूसरे के साथ बहुत खुश और सुखी हैं. मैं जानती हूं कि वक्त के साथ हमारा यह रिश्ता भी रूप बदलेगा और मैं उस के लिए तैयार हूं.

‘‘अब सवाल यह है कि क्या लोगों की बातों पर ध्यान दे कर आप मु झे व अपनेआप को व्यर्थ के तनाव, उल झन और अपराधबोध का शिकार बना कर अभी इस रिश्ते को समाप्त करना चाहोगे?’’

मल्होत्रा साहब ने बेहिचक गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘प्रिया, तुम अगर आज मेरी जिंदगी से चली जाओ तो मेरी जिंदगी बेहद नीरस हो जाएगी. बु झेबु झे अंदाज में अकेले जीवन बड़ा बो िझल साबित होगा.’’

‘‘तब व्यर्थ की बातें सोचना और कहनासुनना बंद कर दीजिए,’’ प्रिया उन की छाती से लग गई, ‘‘एकदूसरे का सुखदुख बांटते हुए हम खुश हैं और यही बात सिद्ध करती है कि हम जीने के व्यावहारिक तल पर सही और सफल हैं.’’

‘‘तुम उम्र में छोटी होते हुए भी मुझ से ज्यादा समझदार हो, कहीं ज्यादा प्रैक्टिकल हो,’’ मल्होत्रा साहब पहली बार सहज ढंग से मुसकरा उठे थे.

‘‘थैंक यू सर,’’ प्रिया ने उन के गाल पर प्यारभरा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘तुम्हें भूख नहीं लग रही है क्या?’’

‘‘बहुत जोर से लग रही है.’’

‘‘बोलो, कहां चलें?’’

‘‘वहां,’’ प्रिया ने मल्होत्रा साहब का हाथ थामा और शरारती अंदाज में हंसतीमुसकराती बैडरूम की तरफ भाग चली. उस के साथ भागते हुए मल्होत्रा साहब अपनी सारी परेशानी व अपराधबोध को भुला कर, स्वयं को जोश व ताजगी से भरे नौजवान सा फिट महसूस कर रहे थे.

 

Hindi Stroy 25 : हवस

Hindi Stroy 25 :  ‘‘तुम्हें गोली लेने को कहा था,’’ प्रमोद ने शिकायत भरे लहजे में कहा.

‘‘मैं ने जानबूझ कर नहीं ली,’’ सुनयना ने कहा.

‘‘पागल हो गई हो,’’ अपने कपड़े पहन चुके और बालों में कंघी करते हुए प्रमोद ने कहा.

‘‘बच्चा जिंदगी में खुशियां लाता है, घर में चहलपहल हो जाती है और बुढ़ापे का सहारा भी बनता है,’’ सुनयना ने प्रमोद को समझाया.

‘‘बंद करो अपनी बकवास. मैं तुम से बच्चा कैसे चाह सकता हूं. मेरी तो सोशल लाइफ ही खत्म हो जाएगी,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए प्रमोद ने कहा.

‘‘तो आप को खुद ध्यान रखना चाहिए था. मैं ने आप से कंडोम का इस्तेमाल करने को कहा था.’’

‘‘मुझे मजा नहीं आता. आजकल तो औरतों के कंडोम भी आते हैं, तुम्हें इस्तेमाल करने चाहिए.’’

‘‘जो भी हो, इस बार मैं बच्चा नहीं गिरवाऊंगी,’’ सुनयना ने दोटूक कहा.

‘‘तो तुम पछताओगी,’’ धमकता हुआ प्रमोद बोला. फिर दरवाजा खोल वह बाहर चला गया.

प्रमोद कारोबारी था. उस के पास खूब दौलत थी. घर में खूबसूरत पत्नी थी और 3 बच्चे थे. प्रमोद ने अपना दिल बहलाने के लिए एक रखैल सुनयना रखी हुई थी. उस को फ्लैट ले कर दिया हुआ था. मिलने के लिए वह हफ्ते में 2-3 दफा वहां आता था. कभीकभी वह उसे बिजनैस टूर पर भी ले जाता था.

सुनयना तकरीबन 3 साल से प्रमोद के साथ थी. बीचबीच में 3-4 बार वह पेट से भी हुई थी, लेकिन चुपचाप पेट साफ करवा आई थी.

एक रात मेकअप करते समय सुनयना की नजर अपने चेहरे पर उभरती झुर्रियों और सिर में 3-4 सफेद बालों पर पड़ी. उसे चिंता हो गई कि अगर उस का ग्लैमर खत्म हो गया, तब क्या होगा?

प्रमोद को कोई और जवान रखैल मिल जाएगी. ऐसी औरतों को बुढ़ापे में कौन पूछता है.

सुनयना के पास प्रमोद द्वारा दिए गए जेवर काफी थे. बैंक के लौकर में जमापूंजी भी काफी थी. अपने मातापिता को पैसे भेजने के बाद भी उस के पास अच्छीखासी रकम बच जाती थी.

उसी रात सुनयना ने सोचा कि अगर उसे प्रमोद से एक बच्चा हो जाए, तो वह उस के बुढ़ापे का सहारा बन जाएगा.

इस के बाद से सुनयना ने पेट से न होने वाली गोलियों को खाना बंद कर दिया था. प्रमोद भी कंडोम का इस्तेमाल कम ही करता था. नतीजतन, सुनयना पेट से हो गई.

प्रमोद गुस्से से लालपीला हो रहा था. कल को सुनयना उसे ब्लैकमेल कर सकती थी.

3-4 दिन बाद प्रमोद सुनयना से मिलने आया और उस से पूछा, ‘‘बच्चा गिरवाया कि नहीं?’’

‘‘मैं ने तुम से कहा था न कि मैं बच्चा चाहती हूं.’’

‘‘तुम से मेरा बच्चा कैसे हो सकता है?’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? यह बच्चा मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा.’’

उस शाम को प्रमोद सुनयना के पास जैसे आया था, वैसे ही चला गया. उस के मन में एक ही सवाल उठ रहा था कि अगर सुनयना उस के बच्चे को जन्म देगी, तो क्या होगा?

‘‘मेरे पेट में पल रहे बच्चे के पीछे आप क्यों पड़े हैं? आप मुझे जवाब दे दें, तो कहीं और मैं चली जाती हूं,’’ अगली बार प्रमोद के आने पर सुनयना ने पूछा.

‘‘बच्चा मुझ से है. नाजायज है, मेरे लिए वह परेशानी खड़ी कर सकता है.’’

‘‘क्या परेशानी खड़ी कर सकता है वह?’’

‘‘मेरा वारिस बनने का दावा कर सकता है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? मैं बताऊंगी तभी न.’’

‘‘बच्चा कल को पूछ भी तो सकता है कि उस का पिता कौन है?’’

‘‘लेकिन, मैं एक बच्चा चाहती हूं.’’

‘‘इस को गिरवा कर तुम किसी और से बच्चा गोद ले लो.’’

‘‘फर्ज करो कि वह आप से नहीं किसी और से है तब?’’

‘‘बकवास मत करो. मैं जानता हूं कि यह मुझ से है.’’

‘‘मैं आप की वफादार हूं और वफादारी का यह इनाम है.’’

यह सुन कर प्रमोद दनदनाता हुआ वहां से चला गया. वह कानूनी और सामाजिक पचड़े के बारे में सोच रहा था कि कल को अगर मैडिकल रिपोर्ट का सहारा ले कर सुनयना बच्चे को उस का बच्चा साबित कर के उस की जायदाद में से हिस्सा मांग सकती है.

प्रमोद की कशमकश को सुनयना बखूबी समझ रही थी. उस ने चुपचाप अपना सामान समेटना शुरू कर दिया.

एक दिन वह फ्लैट छोड़ कर चली गई. 2 दिन बाद प्रमोद ने फ्लैट का चक्कर लगाया. उस को वहां सन्नाटा मिला. सुनयना कहां गई? धरती निगल गई या आसमान?

प्रमोद कुछ दिनों तक बेचैन रहा, फिर खाली फ्लैट को आबाद करने के लिए एक नई उम्र की कालगर्ल को ला कर बसा दिया.

प्रमोद को यह डर बराबर सता रहा था कि सुनयना उस के सामने उस की नाजायज औलाद को वारिस के तौर पर न ले आए.

एक दिन कार से गुजरते समय प्रमोद की नजर एक नर्सिंगहोम के बाहर रिकशे से उतरती एक औरत पर पड़ी. उस का पेट फूला हुआ था. गौर से देखने पर पता चला कि वह तो सुनयना ही थी. वह जल्दी ही बच्चा जनने वाली थी.

प्रमोद ने कार सड़क की एक तरफ रोक दी और सुनयना के बाहर निकलने का इंतजार करने लगा. लेकिन वह काफी देर तक बाहर नहीं निकली.

तब प्रमोद ने अपना मोबाइल फोन निकाला और नर्सिंगहोम के बाहर लगे बोर्ड पर लिखा मोबाइल फोन नंबर पढ़ कर उस पर फोन किया.

‘‘हैलो, यह अस्पताल का रिसैप्शन है?’’ प्रमोद ने पूछा.

‘जी हां, बोलिए.’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले मिसिज सुनयना ने डिलीवरी के लिए विजिट किया था, क्या उन को एडमिट किया गया है?’’

‘जी हां, उन को मैटरनिटी वार्ड में एडमिट कर लिया गया है.’

‘‘थैक्यू,’’ प्रमोद ने इतना कह कर फोन काट दिया.

अब प्रमोद को सुनयना और उस के बच्चे को खत्म करना था. वह अपनी फैक्टरी पहुंचा. अभी तक उस की जिंदगी बिना रुकावट वाली रही थी. उस का अब तक किसी से पंगे वाला वास्ता नहीं पड़ा था.

प्रमोद की फैक्टरी का मैनेजर अरुण बड़ा ही धूर्त था. मालिक के कई उलझे मामले उस ने सुलझाए थे, लेकिन ऐसा पंगा कभी नहीं निबटाया था.

‘‘साहब, आप को सुनयना और उस का बच्चा क्या परेशानी दे सकता है?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘कल को वह मेरा वारिस होने का दावा कर सकता है.’’

‘‘क्या सुनयना ने कभी ऐसा इरादा जाहिर किया है?’’

‘‘नहीं. वह तो कहती है कि बच्चा बुढ़ापे का सहारा बनेगा. वह उस बच्चे को पैदा करना चाहती है.’’

‘‘तो इस में आप को क्या परेशानी है?’’

‘‘अरे भाई, कल को वह बच्चा बड़ा हो कर मेरे सामने आ कर खड़ा हो सकता है. मेरी सोशल लाइफ खराब हो सकती है.’’

‘‘वह बच्चा आप से ही है, क्या यह बात सच है?’’

‘‘वह तो यही कहती है. मेरा भी यही विश्वास है कि वह वफादार है.’’

‘‘आप क्या चाहते हैं?’’

‘‘बच्चे और मां को खत्म करना है, खासकर बच्चे को.’’

‘‘ऐसा काम मैं ने कभी नहीं किया. फिर भी देखता हूं कि क्या हो सकता है,’’ अरुण ने कहा.

अरुण सुनयना को पहचानता था. वह नर्सिंगहोम पहुंचा. जच्चाबच्चा वार्ड में सुनयना एक बिस्तर पर लेटी थी.

‘‘एक रिश्तेदार को देखना है. एक मिनट के लिए अंदर जाने दें,’’ अरुण ने वार्ड के बाहर बैठी एक औरत से कहा. इजाजत मिलने के बाद वह अंदर गया और कुछ ही पलों में लौट आया.

सुभाष और अर्जुन सुपारी किलर थे. उन्हें सुनयना को खत्म करने की सुपारी दी गई थी. वे दोनों एक कार में बैठ कर बारीबारी से नर्सिंगहोम की निगरानी करने लगे थे.

‘‘आप यहां अकेली आई हैं? आप के साथ कोई नहीं है?’’ लेडी डाक्टर ने मुआयना करने के बाद सुनयना से पूछा.

‘‘जी, मेरी मजबूरी है,’’ इस पर लेडी डाक्टर समझ गईं.

सुनयना कुंआरी मां बनने वाली थी. ऐसे मामले नर्सिंगहोम में आते रहते थे, लेकिन कानूनी औपचारिकता अपनी जगह थी. इलाज, डिलीवरी या औपरेशन के दौरान मरीज की मौत हो सकती थी, इसलिए किसी जिम्मेदार आदमी के फार्म पर दस्तखत कराना जरूरी था.

‘‘आप की जिम्मेदारी के फार्म पर दस्तखत कौन करेगा?’’

‘‘मैं खुद ही करूंगी.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता.’’

तभी सुनयना को दर्द शुरू हो गया. चंद मिनटों के बाद उस ने एक खूबसूरत बच्चे को जन्म दिया. सारी औपचारिकताएं धरी की धरी रह गईं.

4 दिन बाद सुनयना को छुट्टी मिल गई. बच्चे को गोद में उठाए वह नर्सिंगहोम से बाहर आई. आटोरिकशे में बैठी. उस के पीछे किराए के हत्यारों की कार लग गई.

इंस्पैक्टर मधुकर लोकल थाने के एसएचओ थे. वे चुस्त और मुस्तैद पुलिस अफसर थे. दोपहर का खाना खाने के बाद वे चंदू पनवाड़ी के यहां पान खाते थे. इस बहाने से वे इलाके का दौरा भी कर लेते थे.

नर्सिंगहोम से आटोरिकशे में बैठी सुनयना के पीछे किराए के हत्यारों की कार लगी थी. उन की यह हरकत जीप पर सवार एसएचओ मधुकर की निगाह में आ गई. उन के एक इशारे पर ड्राइवर ने जीप कार के पीछे लगा दी.

आटोरिकशा एक बस्ती में पहुंचा. सुनयना उतरी, भाड़ा चुकाया और अपने किराए के कमरे की तरफ बढ़ी. पीछे आ रही कार थमने लगी. तभी सुभाष की नजर पीछे से आ रही जीप पर पड़ी.

‘‘अर्जुन, कार मत रोकना. पीछे एसएचओ आ रहा है,’’ सुभाष ने कहा, तो अर्जुन ने कार की रफ्तार बढ़ा दी.

एचएचओ मधुकर ने जीप में सादा कपड़ों में बैठे एक पुलिस वाले को इशारे से कुछ समझाया. वह पुलिस वाला सुनयना की निगरानी करने लगा. कार का नंबर नोट कर मधुरकर ने पुलिस कंट्रोल रूम को भेज दिया.

चंद मिनटों में शहर के खासखास इलाकों में तैनात पुलिस की गाडि़यों को उस कार के बारे में हिदायतें मिल गईं. एक चौराहा पार करते समय एक कार उस कार के पीछे लग गई. उस कार में सादा ड्रैस में मुखबिर थे.

एसएचओ मधुकर थाने पहुंचे. थोड़ी देर में उन का मोबाइल फोन बजा, ‘सर, उस कार में 2 लोग हैं, जो अपराधी नहीं दिख रहे हैं,’ मुखबिर ने खबर दी.

‘‘ठीक है, तुम उन पर निगाह रखो,’’ इंस्पैक्टर मधुकर बोले.

थोड़ी देर बाद एक बस्ती में तैनात मुखबिर का फोन आया, ‘‘साहब, खतरा है.’’

‘‘क्या खतरा है?’’

‘‘जान जाने का. और क्या खतरा हो सकता है?’’

‘‘तू उन मवालियों को पहचानता है क्या?’’

‘‘नहीं. पर मेरा अंदाजा है कि इस इलाके का खबरिया राम सिंह भी नहीं पहचानता होगा.’’

‘‘तब हम क्या करें?’’

‘‘इस बाई की हिफाजत और निगरानी.’’

‘‘खतरे की वजह?’’

‘‘इस का बच्चा.’’

‘‘क्या…’’

‘‘तेरी इस क्या का जवाब फिलहाल मेरे पास नहीं है.’’

सुनयना नहीं जानती थी कि वह पुलिस के जासूसों की नजर में आ चुकी है.

‘‘सेठ की माशूका और उस के बच्चे के ठिकाने का पता हम ने लगा लिया है. जल्दी ही वे दोनों को मार देंगे,’’ प्रमोद के मैनेजर अरुण को सुपारी लेने वाले ने बताया.

‘‘ठीक है. मेरा और सेठ का नाम नहीं आना चाहिए,’’ अरुण ने कहा.

‘‘आप तसल्ली रखें.’’

बच्चे के जन्म के बाद सुनयना ने अपनी एक सहेली मीरा को फोन किया, जो उस के बारे में सबकुछ जानती थी.

‘‘अरी, तेरे और तेरे बच्चे को मरवाने का ठेका दिया है सेठ ने,’’ उस की सहेली मीरा ने बताया.

‘‘क्या? उस को कैसे पता चला?’’

‘‘वह तेरे पीछे शुरू से ही लगा है.’’

‘‘तुझे किस ने बताया?’’

‘‘तेरी जगह फ्लैट में आई उस नई लड़की ने.’’

‘‘अब मैं क्या करूं?’’ सुनयना ने पूछा.

‘‘अपना ठिकाना बदल ले.’’

‘‘ठीक है,’’ सुनयना बोली.

दोनों सुपारी किलर सुभाष और अर्जुन आपस में सलाह कर रहे थे.

‘‘बाई इस बस्ती में है. कल उस का घर ढूंढ़ कर उसे खत्म कर देते हैं,’’ सुभाष ने कहा.

सुबह सुनयना बच्चे को कुनकुने पानी से नहला कर साफ कपड़े में लपेट चुकी थी. वह सोच रही थी कि कहां जाए? तभी उस को अपनी पुरानी सहेली प्रेमलता का ध्यान आया. वह एक अनाथालय की मैनेजर थी. सुनयना बच्चे को गोद में ले कर बाहर आई. उस ने एक आटोरिकशा किया. आटोरिकशे के चलते ही मवालियों की कार पीछे लगी. उस की खबर पुलिस कंट्रोल रूम को भी हो गई.

आटोरिकशा अनाथालय के बाहर रुका. ‘‘थोड़ी देर इंतजार करो. मैं अभी आई,’’ सुनयना ने आटोरिकशे वाले से कहा.

सुनयना को देखते ही प्रेमलता मुसकराई, ‘‘अरे सुनयना, तुम यहां कैसे आई?’’

‘‘मैं मुसीबत में फंस गई हूं. जरा यह बच्चा संभाल. मैं थोड़ा ठहर कर आऊंगी,’’ बच्चा देते हुए सुनयना ने कहा.

‘‘यह किस का बच्चा है?’’ प्रेमलता ने पूछा.

‘‘मेरा है,’’ सुनयना बोली.

‘‘तेरा है? तू ने शादी कर ली क्या?’’ प्रेमलता ने पूछा.

‘‘फिर बताऊंगी. शाम को आऊंगी. कुछ दिक्कत है.’’

प्रेमलता ने बच्चा थामा. सुनयना आटोरिकशे में बैठ रेलवे स्टेशन की ओर चली गई.

‘‘उस्ताद, बाई यतीमखाने में गई थी. वहां अपना बच्चा दे आई है, अब क्या करें?’’ सुभाष ने अर्जुन से पूछा.

‘‘सेठ कहता है कि बच्चे को पहले खत्म करना है. यतीम खाने में चलते हैं. बाई को फिर मारेंगे.’’

कार एक तरफ खड़ी कर वे दोनों सुपारी किलर अनाथालय में घुस गए. सुनयना के बच्चे को एक पालने में लिटा कर प्रेमलता मुड़ी ही थी कि 2 बदमाश नौजवानों को देख कर वह चौंकी, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘अभी एक बाई तुझे बच्चा दे कर गई है. वह कौन सा है?’’ सुभाष ने कमरे में नजर डालते हुए पूछा. दर्जनों पालनों में नवजात बच्चे अठखेलियां करते दूध पी रहे थे.

‘‘बाई, कौन बाई?’’

‘‘जो अभीअभी यहां आई थी,’’ अर्जुन ने कहा.

‘‘यहां कोई बाई नहीं आई,’’ प्रेमलता बोली.

‘‘सीधी तरह मान जा. बता वह बच्चा कौन सा है,’’ अर्जुन ने चाकू निकालते हुए कहा.

तभी अनाथालय के दरवाजे पर एसएचओ मधुकर ने कदम रखा.

प्रेमलता पुलिस को देखते ही चीखी, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, चोरबदमाश…’’

सिपाहियों ने घेरा डाल कर दोनों बदमाशों को पकड़ लिया. थाने में उन्होंने सब सचसच उगल दिया. मैनेजर अरुण के काबू में आते ही सेठ प्रमोद भी टूट गया.

‘‘आप या तो बच्चे और उस की मां को अपना लें, अन्यथा 10 साल की सजा भुगतें. बच्चा आप का वारिस फिर भी माना जाएगा,’’ इंस्पैक्टर मधुकर ने समझाते हुए कहा.

मरता क्या न करता, सेठ प्रमोद ने सुनयना को अपनी पत्नी और बच्चे को वारिस मान लिया.

Hindi Satire : सेवा चाहिए तो मेवा लाइए

Hindi Satire : सरकारी मुलाजिम के 60 साल पूरे होने पर उस के दिन पूरे हो जाते हैं. कोई दूसरा क्या, वे खुद ही कहते हैं कि सेवानिवृत्ति के समय घूरे समान हो जाते हैं. 60 साल पूरे होने को सेवानिवृत्ति कहते हैं. उस वक्त सब से ज्यादा आश्चर्य सरकारी आदमी को ही होता है कि उस ने सेवा ही कब की थी कि उसे अब सेवानिवृत्त किया जा रहा है. यह सब से बड़ा मजाक है जोकि सरकार व सरकारी कार्यालय के सहकर्मी उस के साथ करते हैं. वह तो अंदर ही अंदर मुसकराता है कि वह पूरे सेवाकाल में मेवा खाने में ही लगा रहा.

इसे सेवाकाल की जगह मेवाकाल कहना ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है. सेवा किस चिडि़या का नाम है, वह पूरे सेवाकाल में अनभिज्ञ था. वह तो सेवा की एक ही चिडि़या जानता था, अपने लघु हस्ताक्षर की, जिस के ‘एक दाम, कोई मोलभाव नहीं’ की तर्ज पर दाम तय थे. एक ही दाम, सुबह हो या शाम.

आज लोगों ने जब कहा कि सेवानिवृत्त हो रहे हैं तो वह बहुत देर तक दिमाग पर जोर देता रहा कि आखिर नौकरी की इस सांध्यबेला में तो याद आ जाए कि आखिरी बार कब उस ने वास्तव में सेवा की थी. जितना वह याद करता, मैमोरी लेन से सेवा की जगह मेवा की ही मैमोरी फिल्टर हो कर कर सामने आती. सो, वह शर्मिंदा हो रहा था सेवानिवृत्ति शब्द बारबार सुन कर.

सरकारी मुलाजिम को शर्म से पानीपानी होने से बचाने के लिए आवश्यक है कि 60 साल का होने पर अब उसे सेवानिवृत्त न कहा जाए? इस के स्थान पर सटीक शब्द वैसे यदि कोई हो सकता है तो वह है ‘मेवानिवृत्त’, क्योंकि वह पूरे कैरियर में मेवा खाने का काम ही तो करता है. यदि उसे यह खाने को नहीं मिलता तो यह उस के मुवक्किल ही जान सकते हैं कि वे अपनी जान भी दे दें तो भी उन के काम होते नहीं. बिना मेवा के ये निर्जीव प्राणी सरीखे दिखते हैं और जैसे ही मेवा चढ़ा, फिर वे सेवादार हो जाते हैं. वैसे, आप के पास इस से अच्छा कोईर् दूसरा शब्द हो तो आप का स्वागत है.

आज आखिरी दिन वह याद करने की कोशिश कर रहा था कि उस ने सेवाकाल में सेवा की, तो कब की? उसे याद आया कि ऐसा कुछ उस की याददाश्त में है ही नहीं जिसे वह सेवा कह सके. वह तो बस नौकरी करता रहा. एक समय तो वह मेवा ले कर भी काम नहीं कर पाने के लिए कुख्यात हो गया था. क्या करें, लोग भी बिना कहे मेवा ले कर टपक जाते थे. चाहे जीवनधारा में कुआं मंजूर करने की बात हो या कि टपक सिंचाई योजना में केस बनाने की बात, सीमांकन हो या बिजली कनैक्शन का केस, वह क्या करे, वह तो जो सामने ले आया, उसे गटक जाता था. और ऐसी आदत घर कर गई थी कि यदि कोई सेवादार बन कर न आए तो ऐसे दागदार को वह सीधे उसे फाटक का रास्ता दिखा देता था.

दिनभर में वह कौन सी सेवा करता था, उसे याद नहीं आ रहा था? सुबह एक घंटे लेट आता था, यह तो सेवा नहीं हुई. एक घंटे का समयरूपी मेवा ही हो गया. फिर आने के घंटेभर बाद ही उस को चायबिस्कुट सर्व हो जाते थे. यह भी मेवा जैसा ही हुआ. मिलने वाले घंटों बैठे रहते थे, वह अपने कंप्यूटर या मोबाइल में व्यस्त रहता था. काहे की सेवा हुई, यह भी इस का मेवा ही हुआ.

कंप्यूटर व मोबाइल में आंख गड़ाए रहना जबकि बाहर दर्जनों मिलने वाले इस के कक्ष की ओर आंख गड़ाए रहते थे कि अब बुलाएगा, तब बुलाएगा. लेकिन इसे फुरसत हो, तब भी इंतजार तो कराएगा ही कराएगा. फिर भी इसे सरकारी सेवक कहते हैं.

60 साल पूरे होने पर सेवानिवृत्त हो रहे हैं. कहते हैं, इस सदी का सब से बड़ा झूठ यही है, कम से कम भारत जैसे देश के लिए जहां कि सेवा नहीं मेवा उद्देश्य है. सरकारीकर्मी आपस में कहते भी हैं कि ‘सेवा देवई मेवा खूबई.’

वह बिलकुल डेढ़ बजे लंच पर निकल जाता था. चाहे दूरदराज से आए किसी व्यक्ति की बस या ट्रेन छूट रही हो, उसे उस से कोई मतलब नहीं रहता था. उसे तो अपने टाइमटेबल से मतलब रहता था. उस के लिए क्लब में सारा इंतजाम हो जाए. यही उस की सेवा थी जनता के प्रति.

सेवानिवृत्त वह नहीं हो रहा था बल्कि वह जनता हो रही थी, मातहत हो रहे थे जो उस की देखभाल में लगे रहते थे. अब उस के 60 साल के हो जाने से उन्हें निवृत्ति मिल रही थी बेगारी से. लेकिन असली सेवानिवृत्त को कोई माला नहीं पहनाता.

हर साल उसे वेतनवृद्धि चाहिए, अवकाश, नकदीकरण चाहिए, मैडिकल बैनिफिट चाहिए, एलटीसी चाहिए, नाना प्रकार के लोन चाहिए. यह उस की सेवा है कि बीचबीच में मेवा का इंतजाम है?

सरकार को गंभीरता से विचार कर के सेवानिवृत्ति की जगह मेवानिवृत्ति शब्द को मान्यता दे देनी चाहिए. वैसे, गंगू कहता भी है कि सेवानिवृत्ति से कहीं सटीक व ठीक शब्द मेवानिवृत्ति है.

 

Inspiring Story : बालूशाही

Inspiring Story : विमल जब अपनी दुकान बंद कर घर लौटे तो रात के 10 बजने वाले थे. वे रोज की तरह सीधे बाथरूम में गए जहां उन की पत्नी श्रद्धा ने उन के कपड़े, तौलिया वगैरा पहले से रख दिए थे. नवंबर का महीना आधे से अधिक बीत जाने से ठंड का मौसम शुरू हो गया था. विशेषकर, रात में ठंड का एहसास होने लगा था. इसलिए विमल ने दुकान से आने पर रात में नहाना बंद कर दिया था. बस, अच्छे से हाथमुंह धो कर कपड़े बदलते और सीधे खाना खाने पहुंचते. उन की इच्छा या बल्कि हुक्म के अनुसार, खाने की मेज पर उन की पत्नी, दोनों बेटे और बेटी उन का साथ देते. विमल का यही विचार था कि कम से कम रात का खाना पूरे परिवार को एकसाथ खाना चाहिए. इस से जहां सब को एकदूसरे का पूरे दिन का हालचाल मिल जाता है, आपस में बातचीत का एक अनिवार्य ठिकाना व बहाना मिलता है, वहीं पारिवारिक रिश्ते भी मधुर व सुदृढ़ होते हैं.

विमल ने खाने को देखा तो चौंक गए. एक कटोरी में उन की मनपसंद पनीर की सब्जी, ठीक उसी तरह से ही बनी थी जैसे उन को बचपन से अच्छी लगती थी. श्रद्धा तो किचन में थी पर सामने बैठे तीनों बच्चों को अपनी हंसी रोकने की कोशिश करते देख वे बोल ही उठे, ‘‘क्या रज्जो आई है?’’ उन का इतना कहना था कि सामने बैठे बच्चों के साथसाथ किचन से उन की पत्नी श्रद्धा, बहन रजनी और उस की बेटी की हंसी से सारा घर गूंज उठा. ‘‘अरे रज्जो कब आई? कम से कम मुझ को दुकान में फोन कर के बता देतीं तो रज्जो के लिए कुछ लेता आता,’’ विमल ने शिकायती लहजे में पत्नी से कहा ही था कि रजनी किचन से बाहर आ कर कहने लगी, ‘‘भैया, उस बेचारी को क्यों कह रहे हो. भाभी तो तुम को फोन कर के बताने ही वाली थीं पर मैं ने ही मना कर दिया कि तुम्हारे लिए सरप्राइज होगा. आजकल के बच्चों को देख कर मैं ने भी सरप्राइज देना सीख लिया.’’

‘‘अरे मामा, आप लोग तो फन, थ्रिल या प्रैंक कुछ भी नहीं जानते. मैं ने ही मां से कहा था कि इस बार आप को सरप्राइज दें. इसलिए हम लोगों ने दिन में आप को नहीं बताया. क्या आप को अच्छा नहीं लगा?’’ रजनी की नटखट बेटी बोल उठी. ‘‘अरे नहीं बेटा, सच कहूं तो तुम लोगों का यह सरप्राइज मुझे बहुत अच्छा लगा. बस, अफसोस इस बात का है कि अगर तुम लोगों के आने के बारे में दिन में ही पता चल जाता तो रज्जो की मनपसंद देशी घी की बालूशाही लेता आता,’’ विमल ने कहा. ‘‘वो तो मैं ने 2 किलो बालूशाही शाम को मंगवा ली थीं और वह भी आप की मनपसंद दुकान से. मुझे पता नहीं है कि बहन का तो नाम होगा लेकिन सब से पहले आप ही बालूशाही खाएंगे,’’ श्रद्धा ने कहा ही था कि सब के कहकहों से घर फिर गूंज उठा.खाना निबटने के बाद श्रद्धा ने  उन सब की रुचि के अनुसार जमीन पर कई गद्दे बिछवा कर उन पर मसनद, कुशन, तकिये व कंबल रखवा दिए. और ढेर सारी मूंगफली मंगा ली थीं. उसे पता था कि भाईबहन का रिश्ता तो स्नेहपूर्ण है ही, बूआ का व्यवहार भी सारे बच्चों को बेहद अच्छा लगता है. जब भी सब लोग इकट्ठे होते हैं तो फिर देर रात तक बातें होती रहती हैं. विशेषकर जाड़े के इस मौसम में देर रात तक मूंगफली खाने के साथसाथ बातें करने का आनंद की कुछ अलग होता है.

रजनी अपने समय की बातें इस रोचक अंदाज में बता रही थी कि बच्चे हंसहंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे. विमल और श्रद्धा भी इन सब का आनंद ले रहे थे. बातों का सिलसिला रोकते हुए रजनी ने विमल से कहा, ‘‘अच्छा भैया, एक बात कहूं, ये बच्चे मेरे साथ पिकनिक मनाना चाह रहे हैं. कल रविवार की छुट्टी भी है. अब इतने दिनों बाद अपने शहर आई हूं तो मैं भी भाभी के साथ शौपिंग कर लूंगी. इसी बहाने हम सब मौल घूमेंगे, मल्टीप्लैक्स में सिनेमा देखेंगे और समय मिला तो टूरिस्ट प्लेस भी जाएंगे. अब पूरे दिन बाहर रहेंगे तो हम सब खाना भी बाहर ही खाएंगे. बस, तुम्हारी इजाजत चाहिए.’’ विमल ने देखा कि उस के बच्चों ने अपनी निगाहें झुकाई हुई थीं. यह उन की ही योजना थी लेकिन शायद वे सोच रहे थे कहीं विमल मना न कर दें. ‘‘ठीक है, तुम लोगों के घूमनेफिरने में मुझे क्यों एतराज होगा. मैं सुबह ही ट्रैवल एजेंसी को फोन कर पूरे दिन के लिए एक बड़ी गाड़ी मंगा दूंगा. तुम लोग अपना प्रोग्राम बना कर कल खूब मजे से पिकनिक मना लो. हां, मैं नहीं जा पाऊंगा क्योंकि कल दुकान खुली है,’’ विमल ने सहजता से कहा.

तीनों बच्चों ने विमल की ओर आश्चर्य से देखा. शायद उन को इस बात की तनिक भी आशा नहीं थी कि विमल इतनी आसानी से हामी भर देंगे क्योंकि जाने क्यों उन लोगों के मन में यह धारणा बनी हुई थी कि उन के पिता कंजूस हैं. इस का कारण यह था कि उन के साथी जितना अधिक शौपिंग करते थे, अकसर ही मोबाइल फोन के मौडल बदलते थे या आएदिन बाहर खाना खाते थे, वे सब उस तरीके से नहीं कर पाते थे. हालांकि विमल को भी अपने बच्चों की सोच का एहसास तो हो गया था पर उन्होंने बच्चों से कभी कुछ कहा नहीं था. लेकिन विमल को यह जरूर लगता था कि बच्चों को भी अपने घर के हालात तो पता होने ही चाहिए, साथ ही अपनी जिम्मेदारियां भी जाननी चाहिए, क्योंकि अब वे बड़े हो रहे हैं. आज कुछ सोच कर विमल पूछने लगे, ‘‘रज्जो, यह प्रोग्राम तुम ने बच्चों के साथ बनाया है न?’’

रज्जो ने हामी भरते हुए कहा, ‘‘बच्चों को लग रहा था कि तुम मना न कर दो, इसलिए मैं भी जिद करने को तैयार थी पर तुम ने तो एक बार में ही हामी भर दी.’’ इस पर विमल मुसकराए और एकएक कर सब के चेहरे देखने के बाद सहज हो कर कहने लगे, ‘‘रज्जो, तुम शायद इस का कारण नहीं जानती हो कि बच्चों ने ऐसा क्यों कहा होगा. जानना चाहोगी? इस का कारण यह है कि मेरे बच्चे समझते हैं कि मैं, उन का पिता, कंजूस हूं.’’ विमल का इतना कहना था कि तीनों बच्चे शर्मिंदा हो गए और अपने पिता से निगाहें चुराने लगे. एक तो उन को यह पता नहीं था कि उन के पिता उन की इस सोच को जान गए हैं, दूसरे, विमल द्वारा इतनी स्पष्टवादिता के साथ उसे सब के सामने कह देने से वे और भी शर्मिंदगी महसूस करने लगे थे. विमल किन्हीं कारणों से ये सारी बातें करना चाह रहे थे और संयोगवश, आज उन को मौका भी मिल गया.

‘‘वैसे रज्जो, अगर देखा जाए तो इस में बच्चों का उतना दोष भी नहीं है. दरअसल, मैं ही आजकल की जिंदगी नहीं जी पाता हूं. न तो आएदिन बाहर खाना, घूमनाफिरना, न ही रोजरोज शौपिंग करना, नएनए मौडल के टीवी, मोबाइल बदलना, अकसर नए कपड़े खरीदते रहना. ऐसा नहीं है कि मैं इन बातों के एकदम खिलाफ हूं या यह बात एकदम गलत है पर क्या करूं, मेरी ऐसी आदत बन गई है. मगर इस का भी एक कारण है और आज मैं तुम सब को अपने स्वभाव का कारण भी बताता हूं,’’ इतना कह कर विमल गंभीर हो गए तो सब ध्यान से सुनने लगे.

विमल बोले, ‘‘रज्जो, तुझे अपना बचपन तो याद होगा?’’

‘‘हांहां, अच्छी तरह से याद है, भैया.’’ 

‘‘लेकिन रज्जो, तुझे अपने घर के अंदरूनी हालात उतने अधिक पता नहीं होंगे क्योंकि तू उस समय छोटी ही थी,’’ इतना कह कर विमल अपने बचपन की कहानी सुनाने लगे : उन के पिता लाला दीनदयाल की गिनती खातेपीते व्यापारियों में होती थी. उन के पास पुरखों का दोमंजिला मकान था और बड़े बाजार में गेहूंचावल का थोक का व्यापार था. विमल ने अपने बचपन में संपन्नता का ही समय देखा था. घर में अनाज के भंडार भरे रहते थे, सारे त्योहार कई दिनों तक पूरी धूमधाम से परंपरा के अनुसार मनाए जाते थे. होली हो या दशहरा, दिल खोल कर चंदा देने की परंपरा उस के पूर्वजों के समय से चली आ रही थी. विमल जब कभी अपने दोस्तों के साथ रामलीला देखने जाता तो उन लोगों को सब से आगे की कुरसियों पर बैठाया जाता. इन सब बातों से विमल की खुशी देखने लायक होती थी. विमल उस समय 7वीं कक्षा में था पर उसे अच्छी तरह से याद है कि पूरी कक्षा में वे 2-3 ही छात्र थे जो धनी परिवारों के थे क्योंकि उन के बस्ते, पैन आदि एकदम अलग से होते थे. उन के घर में उस समय के हिसाब से ऐशोआराम की सारी वस्तुएं उपलब्ध रहती थीं. उस महल्ले में सब से पहले टैलीविजन विमल के ही घर में आया था और जब रविवार को फिल्म या बुधवार को चित्रहार देखने आने वालों से बाहर का बड़ा कमरा भर जाता था तो विमल को बहुत अच्छा लगता था. उस समय टैलीफोन दुर्लभ होते थे पर उस के घर में टैलीफोन भी था. आकस्मिकता होने पर आसपड़ोस के लोगों के फोन आ जाते थे. इन सारी बातों से विमल को कहीं न कहीं विशिष्टता का एहसास तो होेता ही था. उसे यह भी लगता था कि उस का परिवार समाज का एक प्रतिष्ठित परिवार है.

पिछले कुछ समय से जाने कैसे दीनदयाल को सट्टे, फिर लौटरी व जुए की लत पड़ गई थी. उन का अच्छाखासा समय इन सब गतिविधियों में जाने लगा. जुए या ऐसी लत की यह खासीयत होती है कि जीतने वाला और अधिक जीतने के लालच में खेलता है तो हारने वाला अपने गंवाए हुए धन को वापस पा लेने की आशा में खेलता है. दलदल की भांति जो इस में एक बार फंस जाता है, उस के पैर अंदर ही धंसते जाते हैं और निकलना एकदम कठिन हो जाता है. पहले तो कुछ समय तक दीनदयाल जीतते रहे मगर होनी को कौन टाल सकता है. एक बार जो हारने का सिलसिला शुरू हुआ तो धीरेधीरे वे अपनी धनदौलत हारते गए और इन्हीं सब  चिंता व समस्याओं से व्यवसाय पर पूरा ध्यान भी नहीं दे पाते थे. उन की सेहत भी गिर रही थी, साथ ही व्यापार में और भी नुकसान होने लगा. विमल को वे दिन अच्छी तरह से याद हैं जब वह कारण तो नहीं समझ पाया था पर उस के माता और पिता इस तरह पहली बार झगड़े थे. उस ने मां को जहां अपने स्वभाव के विपरीत पिता से ऊंची आवाज में बात करते सुना था वहीं पिता को पहली बार मां पर हाथ उठाते देखा था. उस दिन जाने क्यों पहली बार विमल को अपने पिता से नफरत का एहसास हुआ था. फिर एक दिन ऐसा आया कि उधार चुकता न कर पाने के कारण उन का पुश्तैनी मकान, जो पहले से ही गिरवी रखा जा चुका था, के नीलाम होने की नौबत आ गई. इस के बाद दीनदयाल अपने परिवार को ले कर वहां से दूर एक दूसरे महल्ले में किराए के एक छोटे से मकान में रहने को विवश हो गए. हाथ आई थोड़ीबहुत पूंजी से वे कुछ धंधा करने की सेचते पर उस के पहले ही उन का दिल इस आघात को सहन नहीं कर सका और वे परिवार को बेसहारा छोड़ कर चल बसे.

यह घटना सुनते हुए रजनी की आंखें नम हो आईं और उस का गला रुंध गया. कटु स्मृतियों के दंश बेसाख्ता याद आने से पुराने दर्द फिर उभर आए. कुछ पल ठहर कर उस ने अपनेआप को संयत किया फिर कहने लगी, ‘‘मुझे आज भी याद है कि भैया के ऊपर बचपन से ही कितनी जिम्मेदारियां आ गई थीं. हम लोगों के लिए फिर से अपना काम शुरू करना कितना कठिन था. वह तो जाने कैसे भैया ने कुछ सामान उधार ले कर बेचना शुरू किया था और अपनी मेहनत से ही सारी जिम्मेदारियां पूरी की थीं.’’ ‘‘रज्जो सच कह रही है. इसी शहर में मेरे एक मित्र के पिता का थोक का कारोबार था. हालांकि वह मित्र मेरी आर्थिक रूप से मदद तो नहीं कर सका मगर उस ने मुझे जो हौसला दिया, वह कम नहीं था. मैं ने कैसेकैसे मिन्नतें कर के सामान उधार लेना शुरू किया था और उसे किसी तरह बेच कर उधार चुकाता था. वह सब याद आता है तो हैरान रह जाता हूं कि कैसे मैं यह सब कर पाया था. जैसेतैसे जब कुछ पैसे आने शुरू हुए तो मैं ने अम्मा, दीदी और रज्जो के साथ दूसरे मकान में रहना शुरू किया. हमारे साथ जो कुछ घटित हुआ, इस तरह की खबरें बहुत तेजी से फैलती हैं और जानते हो इस का सब से बड़ा नुकसान क्या होता है? आर्थिक नुकसान तो कुछ भी नहीं है क्योंकि पैसों का क्या है, आज नहीं तो कल आ सकते हैं पर पारिवारिक प्रतिष्ठा को जो चोट पहुंचती है और पुरखों की इज्जत जिस तरह मिटती है उस की भरपाई कभी नहीं हो सकती. मैं अपना बचपन अपने बाकी साथियों की तरह सही तरीके से नहीं जी पाया और उस की भरपाई आज क्या, कभी नहीं हो सकती.

‘‘लेकिन यह मत समझो कि इस की वजह केवल पैसों का अभाव रहा है. अपना सम्मान खोने के बाद भी सिर उठा कर जीना आसान नहीं होता. मुझे अच्छी तरह से याद है कि इन सब घटनाओं से मैं कितनी शर्मिंदगी महसूस करता था और अपने दोस्तों का सामना करने से बचता था. तू तो छोटी थी पर मां तो जैसे काफी दिन गुमसुम सी रही थीं और मेरी खुशमिजाज व टौपर दीदी भी इन सब घटनाओं से जाने कितने दिन डिप्रैशन में रही थीं. इन सारी घटनाओं की चोट मेरे अंतर्मन में आज भी ताजा है और मैं अकेले में उस पीड़ा को आज भी ऐसे महसूस करता हूं जैसे कल की घटना हो. अब मुझे पता चला कि एक आदमी की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का खमियाजा उस के परिवार के जाने कितने लोगों को और कितने समय तक भुगतना पड़ सकता है. आज भी अगर कोई पुराना परिचित मिल जाता है तो भले ही वह हमारा अतीत भूल चुका हो परंतु मैं उस को देख कर भीतर ही भीतर शर्मिंदा सा महसूस करता हूं. मुझे ऐसा लगता है कि मेरे सामने वह व्यक्ति नहीं कोई आईना आ गया है, जिस में मेरा अतीत मुझे दिख रहा है.

‘‘जीतोड़ मेहनत से काम करने से धीरेधीरे पैसे इकट्ठे होते गए और मेरा काम बढ़ता गया. फिर मैं ने अपनी एक दुकान खोली, जिस में डेयरी का दूध, ब्रैड और इस तरह के बस एकदो ही सामान रखना शुरू किया. जब कोई पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करता है तो वक्त भी उस की सहायता करता है. मेरा उसूल रहा है कि न तो किसी की बेईमानी करो, न किसी का बुरा करो और मेहनत से कभी पीछे मत हटो. मेरी लगन और मेहनत का परिणाम यह है कि आज वही दुकान एक जनरल स्टोर बन चुकी है और उसी की बदौलत यह मकान खरीद सका हूं. श्रद्धा तो थोड़ाबहुत जानती है पर बच्चे कुछ नहीं जानते क्योंकि वे तो शुरू से ही यह मकान और मेरा जनरल स्टोर देख रहे हैं. वे शायद समझते हैं कि उन के पिता पैदायशी अमीर रहे हैं, जिन को पारिवारिक व्यवसाय विरासत में मिला है. उन को क्या पता कि मैं कितना संघर्ष कर इस मुकाम पर पहुंचा हूं.’’

विमल की बातें सुन कर बच्चे तो जैसे हैरान रह गए. वास्तव में वे यही सोचते थे कि  उन के पिता का जनरल स्टोर उन को विरासत में मिला होगा. उन को न तो यह पता था न ही वे कल्पना कर सकते थे कि उन के पिता ने अपने बचपन में कितने उतारचढ़ाव देखे हैं, कैसे गरीबी का जीवन भी जिया है और कैसी विषम परिस्थितियों में किस तरह संघर्ष करते हुए यहां तक पहुंचे हैं. पुरानी स्मृतियों का झंझावात गुजर गया था पर जैसे तूफान गुजर जाने के बाद धूलमिट्टी, टूटी डालियां व पत्ते बिखरे होने से स्थितियां सामान्य नहीं लगतीं, कुछ इसी तरह अब माहौल एकदम गंभीर व करुण सा हो गया था. बात बदलते हुए श्रद्धा बोली, ‘‘अच्छा चलिए, वे दुखभरे दिन बीत गए हैं और आप की मेहनत की बदौलत अब तो हमारे अच्छे दिन हैं. आज हमें किसी बात की कमी नहीं है. आप सही माने में सैल्फमेडमैन हैं.’’ ‘‘श्रद्धा, इसीलिए मेरी यही कोशिश रहती है कि न तो हमारे बच्चों को किसी बात की कमी रहे, न ही वे किसी बात में हीनता का अनुभव करें. यही सोच कर तो मैं मेहनत, लगन और ईमानदारी से अपना कारोबार करता हूं. बच्चो, तुम लोग कभी किसी बात की चिंता न करना. तुम्हारी पढ़ाई में कोई कमी नहीं रहेगी. जिस का जो सपना है वह उसे पूरा करे. मैं उस के लिए कुछ भी करने से पीछे नहीं रहूंगा.’’

‘‘यह बात हुई न. अब तो कल का प्रोग्राम पक्का रहा. चलो बच्चो, अब कल की तैयारी करो,’’ बूआ के इतना कहते ही सारे बच्चे चहकने लगे मगर जाने क्यों विमल का 15 वर्षीय बड़ा बेटा रजत अभी भी गंभीर ही था.‘‘क्या हुआ रजत, अब क्यों चिंतित हो?’’ बूआ ने पूछा ही था कि रजत उसी गंभीर मुद्रा में कहने लगा, ‘‘बूआ, अब पुराना समय बीत गया जब पापा को पैसों की तंगी रहती थी. अब हमारे पास पैसे या किसी चीज की कमी नहीं है बल्कि हम अमीर ही हो गए हैं. तो फिर पापा क्यों ऐसे रहते हैं. अब तो वे अपनी वे इच्छाएं भी पूरी कर सकते हैं जो वे गरीबी के कारण पूरी नहीं कर सके होंगे.’’रजत के प्रश्न से विमल चौंक गया, फिर कुछ सोच कर कहने लगा, ‘‘बेटा, मुझे खुशी है कि तुम ने यह प्रश्न पूछा. वास्तव में हमारी आज की जीवनशैली, आदतें या खर्च करने का तरीका इस बात पर निर्भर नहीं होता कि हमारी आज की आर्थिक स्थिति कैसी है बल्कि हमारे जीने के तरीके तय करने में हमारा बचपन भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अपने बचपन में मैं ने जैसा जीवन जिया है, उस प्रकार का जीवन जीने वालों के मन में कटु माहौल सा बन जाता है, जिस से वे चाह कर भी बाहर नहीं आ सकते. जो आर्थिक संकट वे भुगत चुके होते हैं, पैसे के अभावों की जो पीड़ा उन का मासूम बचपन झेल चुका होता है, उस के कारण वे अमीर हो जाने पर भी फुजूलखर्ची नहीं कर सकते.

‘‘आर्थिक असुरक्षा के भय, अपमानजनक परिस्थितियों की यादों के कष्टप्रद दंश, एकएक पैसे का महत्त्व या पैसों की तंगी की वजह से अभावों में गुजरे समय की जो पीड़ा  अंतर्मन में कहीं गहरे बैठ जाती है उस से चाह कर भी उबरना बहुत कठिन होता है. हकीकत तो यह है कि हमारा आज कितना भी बेहतर हो जाए या मैं कितना भी अमीर क्यों न हो जाऊं लेकिन मैं जिस तरह का बचपन और संघर्षमय अतीत जी चुका हूं वह मुझे इस तरह से खर्च नहीं करने देगा. लेकिन क्या तुम जानते हो कि वास्तव में कंजूस तो वह होता है जो जरूरी आवश्यकताओं पर खर्च नहीं करता है. ‘‘तुम लोगों को पता होगा कि घर में दूध, मौसम के फलसब्जियों या मेवों की कमी नहीं रहती. हां, मैं तुम लोगों को फास्ट फूड या कोल्ड डिं्रक्स के लिए जरूर मना करता हूं क्योंकि आज भले ही ये सब फैशन बन गया है पर ऐसी चीजें सेहत के लिए अच्छी नहीं होतीं. इस के अलावा तुम लोगों की वे सारी जरूरतें, जो आवश्यक हैं, उन को पूरा करने से न तो कभी हिचकता हूं न ही कभी पीछे हटूंगा. तुम्हारे लिए लैपटौप भी मैं ने सब से अच्छा खरीदा है. तुम लोगों के कपड़े हमेशा अच्छे से अच्छे ही खरीदता हूं. इसी तरह तुम लोगों की जरूरी चीजें हमेशा अच्छी क्वालिटी की ही लाता हूं. मैं अपने अनुभव के आधार पर एक बात कहता हूं जिसे हमेशा याद रखो कि जो इंसान अपनी आमदनी के अनुसार खर्च करता और बचत करता है, अपने आने वाले कल के लिए सोच कर चलता है, वह कभी परेशान नहीं होता. अच्छा, अब रात बहुत हो गई है और सब को कल घूमना भी है, इसलिए चलो, अब सोने की तैयारी की जाए.’’

– अनूप श्रीवास्तव

Storytelling : साड़ी का पल्‍लू

Storytelling :  सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे:

‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?

‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे.

आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरीचोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज  चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं.

5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता.

Atul Subhash Suicide : अतुल सुभाष केस में पत्‍नी और सास विलेन क्यों बनीं

Atul Subhash Suicide : अतुल सुभाष की आत्महत्या का मामला ज्युडिशियल सिस्टम पर सवाल उठाती है. विडंबना यह है कि पूरी बहस महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े कानूनों को टारगेट करने पर केंद्रित हो गई हैं और इस घटना के चलते सभी महिलाओं को आरोपित करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

Atul Subhash Case 

34 साल के एआई सौफ्टवेयर इंजीनियर अतुल सुभाष की खुदकुशी ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया. वैसे, मौत दुनिया का सब से बड़ा दुख है और जब कोई इंसान खुद ही मौत को लगे लगा ले, तो जाहिर है कि वह कितनी दुख और तकलीफ से गुजरा होगा, तब जा कर उस ने इतना बड़ा कदम उठाया होगा.
सुसाइड से पहले अतुल सुभाष ने करीब डेढ़ घंटे के वीडियो के साथ 24 पेज का सुसाइड नोट भी लिखा, जिस में उस ने पत्नी, उस के परिवार वालों और एक न्यायाधीश पर झूठे मामलों में फंसाने, पैसे ऐंठने, आत्महत्या, उत्पीड़न, जबरन वसूली और भ्रष्टाचार के लिए उकसाने का आरोप लगाया. वीडियो बनाते वक़्त अतुल ने जो टीशर्ट पहना था, उस पर लिखा था, ‘जस्टिस इज ड्यू’ यानी इंसाफ बाकी है.
अतुल ने वीडियो में ज्यूडिशियल सिस्टम पर भी सवाल उठाए और कहा कि मुझे मर जाना चाहिए, क्योंकि मेरे कमाए पैसों से मेरे दुश्मन और मजबूत हो रहे हैं. उसी पैसे का इस्तेमाल मुझे बरबाद करने के लिए किया जाएगा. मेरे टैक्स से मिलने वाले पैसे से ये कोर्ट, पुलिस और पूरा सिस्टम मुझे और मेरे परिवार वालों को और मेरे जैसे और भी कई लोगों को परेशान करेगा. और जब मैं ही नहीं रहूंगा तो न तो पैसा होगा न ही मेरे मातापिता और भाई को परेशान करने की कोई वजह होगी. इसलिए वैल्यू की सप्लाई खत्म होनी चाहिए.
अतुल ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि अगर उसे न्याय नहीं मिला तो उस की अस्थियों को कोर्ट के सामने नाले में डाल देना. मतलब साफ है कि उन का गुस्सा अपनी पत्नी और ससुराल वालों से ज्यादा देश के सिस्टम पर है और उन की मौत को गले लगाने का कारण भी इस व्यवस्था से न्याय खत्म होना ही है.
अतुल के दोषी को सजा तो मिलनी ही चाहिए, भले चाहे वो जो कोई भी हो. लेकिन उन की खुदखुशी को ले कर जिस तरह से दुनिया की सारी औरतों को दोषी ठहराया जा रहा है, वो सही नहीं है. अतुल की मौत के बहाने कुछ लोग महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों को रिव्यू करने की बात करने लगे हैं. बिना इस बात को समझे उन की मौत का जिम्मेदार कौन है, सारा दोष महिलाओं की सुरक्षा वाले कानून पर थौपा जा रहा है, जबकि इन कानूनों के बावजूद देश में हर घंटे आज भी महिला उत्पीड़न के 51 मामले दर्ज होते हैं.
माना कि अतुल सुभाष का दर्द समंदर जितना गहरा था. लेकिन उन के दुख का कारण सारी औरतों को मान लिया जाना, कहां का न्याय है ? यहां महिलाओं के खिलाफ पुरुषवादी मानसिकता वाली सोच दिखाई दे रही है. पूरा सोशल मीडिया इस मुद्दे पर औरतों को गुहनागार साबित करने पर तुला हुआ है. कई लोग दहेज कानून के दुरुपयोग की बात कर रहे हैं, तो कई, औरतों को विलेन बता रहा है. जैसे महिलाओं के साथ हिंसा या प्रताड़ना होती ही न हो.
सुप्रीम कोर्ट की सीनियर वकील जायना कोठारी का कहना है कि “आत्महत्या के किसी भी मामले को हल्के से नहीं लेना चाहिए. सुभाष का मामला बहुत गंभीर है. हमें इस मामले की पूरी जानकारी नहीं है. इस मामले में ट्रायल कोर्ट ही कुछ कहने में सक्षम होगा. लेकिन हमें आत्ममंथन करने की भी जरूरत है कि हमारे यहां दशकों से घरेलू हिंसा में महिलाओं को मारा जाता रहा है. हम इस से इतने दुखी क्यों नहीं होते हैं?”
बेंगलुरु की वकील गीता देवी कहती हैं कि “सभी मुकदमों को अलगअलग रूप में देखना चाहिए. किसी एक केस के आधार पर बाकियों के मामले में किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता. हम ये नहीं कह सकते हैं कि ऐसे सारे मामले फ़र्जी होते हैं और गुजारा भत्ता हासिल करने के लिए होता है. मुख्य समस्या यह है कि कानून ठीक से लागू नहीं हो पा रहा है. इस स्थिति में कानून का दुरुपयोग होता है.” वो कहती हैं कि महिलाओं की लंबे समय से मांग रही है कि एक ऐसा कानून आए जो वैवाहिक संपत्ति में हिस्सा सुनिश्चित करे. समानता पर रिपोर्ट दायर किए 40 साल हो गए लेकिन महिलाओं की यह मांग पूरी नहीं हो पाई है. 2010 में विवाह नियम (संशोधन ) बिल पेश किया गया था. यह बिल वैवाहिक संपत्ति में हिस्सा सुनिश्चित करने से जुड़ा था. लेकिन बिल कानून बन नहीं पाया.
•2010 के अमेंडमेंट बिल में बहुत सी समस्याओं का हल था पर लोक सभा की समाप्ति के बाद इसे पास नहीं किया गया.

विवाह कानून (संशोधन ) विधेयक, 2010 हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 में संशोधन करने के लिए भारतीय संसद में पेश किया गया एक विधेयक था. यह विधेयक विधि एंव न्याय मंत्री श्री एम, विरप्पा मोइली ने 4 अगस्त 2010 को लोग सभा में पेश किया था.
इस विधेयक का उद्देश्य था –
* विवाह के अपूर्णिय रूप से टूटने के आधार पर तलाक का प्रावधान करना.
* महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना.
* विवाह और तलाक में पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता सुनिश्चित करना.
* पत्नी को उस के पति की संपत्ति में हिस्सा देना.

इस विधेयक में प्रस्तावित किया गया था कि विवाह के अपूर्णिय रूप से टूटने के आधार पर तलाक के लिए अर्जी दाखिल करने से पहले दोनों पक्षों को कम से कम 3 साल तक अलग रहना चाहिए. इस विधेयक में पत्नी को तलाक का विरोध करने का अधिकार भी दिया गया है, अगर इस से उसे गंभीर वित्तीय कठिनाई होगी. विधेयक को कार्मिक, लोग शिकायत, विधि एंव नयाय संबंधी स्थायी समिति को भेजा गया, जिसे 31 जनवरी 2011 तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी. हालांकि, विधेयक पर विचार और पारित होने से पहले ही पंद्रहवीं लोक लोकसभा भंग हो गई और विधेयक निरस्त हो गया.
मोदी सरकार तो विवाह को संस्कार मानती है. तभी तो उन के चुनावी रैली में मंगलसूत्र चर्चा का विषय बना रहा. मंगलसूत्र एक हिंदू विवाहित महिला के गले में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है. तभी तो गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ‘हिंदू रीतिरिवाज के हिसाब से अगर कोई शादीशुदा महिला चूड़ी मंगलसूत्र नहीं पहनती, तो यह प्रतिकात्मक तौर पर इसे शादी से इंकार माना जाएगा.’ कोर्ट ने यह तक कहा कि यह पत्नी की ओर से पति के खिलाफ क्रूरता है.
यानी की रोतेबिलखते जैसे भी हो एक महिला को विवाह बंधन में बंधे रहना होगा. भले ही पुरुष बाहर कई औरतों से संबंध रखे, लेकिन एक औरत को पत्नी धर्म नहीं भूलने की सलाह दी जाती है. घर में बीवी बच्चे होते हुए भी मर्द भले ही बाहर नई दुनिया बसा ले लेकिन औरतों को उसी रिश्ते में, उसी चारदीवारी में घुटघुट कर जीना होगा, क्योंकि यही दुनिया का रूल है.
भले ही महिलाएं एक खराब शादी से गुजर रही हों, उन के साथ रोज घरेलू हिंसा हो रही हो, पर उन्हें यही हिदायत दी जाती है कि ‘निभा लो, लोग क्या कहेंगे, तुम्हारे बच्चों का क्या होगा सोचा है कभी’ जैसी बातें बोल कर औरतों को मानसिक रूप से कमजोर तो करता ही है, उसे उस खराब शादी में जीने के लिए मजबूर भी करता है. और अगर कोई महिला अपने साथ हुए अन्याय के लिए उठ खड़ी होने की हिम्मत भी करती है, तो उसे चुप करा दिया जाता है.

एएएलआई निदेशक रेणु मिश्रा बताती हैं कि ‘498ए के तहत 14 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए और डेढ़ साल में 18 मामलों में आरोप तय हुए. 2020 के एक मामले में 3 साल बाद अंतरिम मुआवजा मिला. यहां 7 ऐसे और मामले थे जिन में 3 साल बाद भी अंतरिम मुआवजा नहीं मिला.
ऐसा तब है, जब एएएलआई के वकील मामलों को देख रहे थे. अगर आप गंभीरता से चीजों को देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसा कोई डेटा नहीं है जो बताता है कि 489ए के तहत दर्ज हुए मामलों में कोई फैसला आया हो.
कोर्ट कहती है कि मुआवजा पति के लिए सजा के तौर पर नहीं दिखना चाहिए. ऐसी टिप्पणियों का मतलब है कि गुजारे भत्ते की अनुचित मांग की जा रही है. इन टिप्पणियों का इस्तेमाल अकसर महिलाओं के खिलाफ किया जाता है.
अनु चेंगप्पा कहती हैं कि केस को कैसे हैंडल किया जाता है, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है. वो कहती हैं कि मिसाल के तौर पर पीड़ित महिला किसी वकील से मिलती हैं, जो उसे उचित कानूनी सलाह दे सकते हैं, 498ए के तहत मामला दर्ज़ कराने के लिए पुलिस स्टेशन जाती हैं. पुलिस इन मामलों को किस तरह से हैंडल करती है, यह भी बहुत जरूरी है.
बेंगलुरु के एक वकील 498ए को बिना ‘दांत के बाघ’ की तरह देखते हैं, लेकिन कानून के जानकारों के बीच आईपीसी के सेक्शन 498ए को ले कर एक राय है कि लोग कोविड महामारी के दौरान जितना नहीं थके थे, उस से ज्यादा इस सेक्शन से थक रहे हैं. इन मामलों में महिला और पुरुष दोनों परेशान हो रहे हैं. लोग वकीलों के पास भागते रहते हैं और अदालतें तारीख पर तारीख देती रहती हैं.
ये दुशवारियां ही विवाहित लोगों में सुसाइड की ऊंची दर का कारण बनता है. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी ) के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 2016 से 2020 के बीच 37,000 से अधिक सुसाइड शादी से संबंधित मुद्दों के कारण हुए. विशेष रूप से 10,282 दहेज से संबंधित मुद्दों के कारण हुए, जबकि 2,688 सुसाइड के मामले सीधे तलाक से संबंधित थे.
एक रिपोर्ट बताती है कि घर में रहने वाली शादीशुदा महिलाओं और युवतियों की जान खतरे में है. आंकड़ों के मुताबिक, 2023 में महिलाओं की हत्या के 60% मामलों में अपराधी उन के पति या पारिवारिक सदस्य ही थे.

हर दिल 140 महिलाएं बनती हैं शिकार

संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि हर दिन 140 महिलाएं अपने पार्टनर के हाथों अपनी जान गंवाती हैं. रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में पुरुषों द्वारा मारी गईं 85, 000 महिलाओं में से 51,100 हत्याएं उन के अपने करीबी लोगों द्वारा की गई. अध्ययन से पता चला है कि महिलाओं के लिए सब से खतरनाक जगह उन का घर ही बन गया है.

घर में होती है सब से ज्यादा हिंसा

यूएन वूमेन की उप कार्यकारी निर्देशक ने कहा कि यह दिखाता है कि महिलाओं के जीवन को ले कर स्थिति भयवाह है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि महिलाएं घर पर गंभीर हिंसा का सामना करती हैं, जो उन की जान तक ले लाती है.

स्त्री-हत्या पर वैश्विक रिपोर्ट

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में स्त्री-हत्या को लिंग-संबंधी हत्या के रूप में परिभाषित किया गया है. आंकड़े बताते हैं कि 2022 तक महिलाओं और लड़कियों की जानबूझ कर की जाने वाली मौतों की संख्या में समग्र रूप से कमी आई है. लेकिन अंतरंग साझेदारी और परिवार के सदस्यों द्वारा महिलाओं की हत्या के मामलों में वृद्धि दर्ज की गई है.

अफ्रीका में सब से ज्यादा हत्याएं

रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में अफ्रीका में स्त्री-हत्या के 21,700 मामले सामने आए हैं. यूरोप और अमेरिका में महिलाओं की उन के अंतरंग साथियों द्वारा हत्या की घटनाएं चिंताजनक रूप से बढ़ रही है.

घर की चारदीवारी में महिलाएं खतरे में

संयुक्त राष्ट्र ने यह निष्कर्ष निकाला है कि घर, जो एक सुरक्षित जगह माना जाता है, वही जगह महिलाओं के लिए सब से बड़ा खतरा बनता जा रहा है. यह रिपोर्ट न केवल लिंग समानता पर सवाल खड़े करती है, बल्कि समाज के भीतर महिलाओं के प्रति सोच और रवैये में बदलाव की सख्त जरूरत भी बताती है.
महिलाओं को ले कर बने सख्त कानूनों के बावजूद देश में हर घंटे आज भी महिला उत्पीड़न के 51 मामले दर्ज होते हैं, जबकि 80 प्रतिशत मामले लोकलाज के डर से सामने नहीं आ पाते हैं. इन अपराधों में रेप, छेड़छाड़, एसिड अटैक, किडनैपिंग और दहेज जैसे अपराध शामिल हैं. 2022 के आंकड़े बताते हैं कि देश में महिला उत्पीड़न के 4 लाख 45 हजार 256 मामले दर्ज किए गए.
घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार किसी के साथ भी हो सकता है, चाहे उस का लिंग, जाति, नस्ल, यौन रुझान, आय या कोई भी कारक हो. महिला और पुरुष दोनों घरेलू हिंसा के शिकार हो सकते हैं. लेकिन महिलाएं ज्यादा घरेलू हिंसा की शिकार बनती हैं. क्योंकि, एक रिपोर्ट बताती है कि 24% महिलाएं और लगभग 12% पुरुष अपने जीवन में कम से कम एक बार अंतरंग साथी द्वारा हिंसा के शिकार होते हैं.
अतुल सुभाष के साथ जो हुआ बहुत गलत हुआ. लेकिन उस के लिए महिलाओं और महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने क़ानूनों को जिम्मेदार ठहराना क्या सही है ? सोशल मीडिया से ले कर मेन स्ट्रीम मीडिया तक में तमाम ऐसे आर्टिकल देखने को मिले जिस में ऐसे उदाहरण दिए जा रहे हैं कि किस तरह दहेज उत्पीड़न संबंधी कानून के चलते हजारों शादीशुदा युवकों की ज़िंदगी बरबाद हुई है.
कुछ लोग दिल्ली नोएडा के उस केस की बातें करने लगे हैं जिस में एक लड़की ने 21 साल पहले दहेज की डिमांड के चलते विवाह करने से इंकार कर दिया था. इस केस के चलते लड़के की मां की सरकारी नौकरी हाथ से चली गई थी. 9 साल बाद कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था. यहां कानून का ठीक से लागू न हो पाना कार्यपालिका का दोष है, हमें उसे बदलने या सुधारने की बात करनी चाहिए. लेकिन हम बात कुछ और ही कर रहे हैं.
अतुल सुभाष के कमरे में जब बेंगलुरु पुलिस दाखिल हुई तो उस की डैडबौडी के पास एक तख्ती पर लिखा था, ‘जस्टिस इज ड्यू’ यानी इंसाफ अभी बाकी है. मतलब की सारा दोष न्याय व्यवस्था का है, पुलिस का है, कार्यपालिका का है. लेकिन दोषी औरतों को ठहराया जा रहा है.
अतुल सुभाष ने अपने 24 पन्ने के लेटर में एक वीडियो का यूआरएल भी दिया है. उस वीडियो में इस बात का भी जिक्र है कि न्यायपालिका में कौलेजियम सिस्टम के चलते किस तरह से जजों के नातेरिशतेदार ही जज बनते हैं.
क्या यह बात विचार करने योग्य नहीं है कि आखिर जजों की नियुक्ति में यह विशेषाधिकार क्यों है कि वे अपने नातेरिशतेदारों को ही नियुक्त करा सकें? जजों को उतनी ही छुट्टियां क्यों नहीं दी जाती, जितनी किसी सरकारी कर्मचारियों को ? कोर्ट में करोड़ों केस पेंडिंग हैं तो क्यों ?
अतुल सुभाष की मौत का जिम्मेदार जितना भ्रष्ट सिस्टम है उतना ही यह समाज है. लेकिन सारा दोष औरतों पर डाला जा रहा है. इसलिए क्योंकि, आज भी महिलाओं और पुरुषों को अलगअलग नजरिए से देखा जाता है, जैसे महिलाएं इस धरती की प्राणी हो ही न. हमारा समाज आज भी महिलाओं को ले कर उतना संवेदनशील नहीं हुआ है.
अतुल के भाई विकास का कहना है कि भारत में केवल औरतों के लिए कानून हैं, पुरुषों के लिए कोई कानून नहीं है. लेकिन एक महिला के खराब व्यवहार के चलते हम दूसरी महिलाओं को कठघरे में कैसे खड़ा कर सकते हैं ? कैसे हम औरतों को सुरक्षा प्रदान करने वाले कानूनों को खत्म करने की बात कर सकते हैं ?
महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानून के बाद भी आज लाखों की संख्या में महिलाओं का दहेज उत्पीड़न हो रहा है, जला कर, काट कर, मार कर, जंगलों में, झड़ियों में फेंका जा रहा है. आज भी गर्भ में बेटियों को मार दिया जा रहा है. तो क्यों ? कोई जवाब है किसी के पास ? अतुल सुभाष के केस को ले कर देश में इतना बवाल मचा है. लेकिन जरा सोचिए, रोज कितनी ही महिलाएं घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीड़न, रेप से तंग आ कर अपनी जान दे देती होंगी. इस की कोई गिनती है किसी के पास ?
मुंबई की वकील आभा सिंह ने अतुल सुभाष के मामले को कानून का घोर दुरुपयोग बताते हुए कहा कि झूठे आरोपों और उत्पीड़न के कारण पीड़ित की मौत हो गई. वकील ने एएनआई से कहा कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कनूनों का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि अगर कुछ महिलाएं इन कानूनों का दुरुपयोग करने लगेंगी, तो यह सीधे तौर पर इन महिलाओं को न्याय से वंचित करेगा जिन्हें इस की जरूरत है.
वैसे आभा सिंह का कहना भी सही है कि दहेज कानून का दुरुपयोग, उन महिलाओं के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है, जिन्हें वाकई में इस की जरूरत है. कानून का उद्देश्य महिलाओं को संरक्षण प्रदान करना है लेकिन जब इसे अनुचित रूप से इस्तेमाल किया जाता है तो यह न्याय व्यवस्था के लिए चुनौती बन सकता है.
बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था, ‘संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर संविधान को अमल में लाने का काम जिन्हें सौंपा गया है, वो सही न निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा. दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, लेकिन जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा गया है, वे अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा.’

Students Movement : लालू, सुषमा, ममता जैसे लीडर्स पैदा करने वाले यूनियन अब कहां

Students Movement :  आजादी से पहले और बाद में भारत में जितने भी सोशल मूवमेंट हुए, उन में स्टूडैंट्स की भूमिका बहुत अहम रही है फिर चाहे वह नव निर्माण मूवमेंट हो, बिहार स्टूडैंट मूवमेंट हो, असम मूवमेंट हो या फिर रोहित वेमुला की मौत पर विरोध प्रदर्शन. लेकिन अब ये स्टूडैंट मूवमेंट गायब होने लगे हैं, क्यों?

एक समय था जब स्टूडैंट मूवमेंट अच्छीखासी संख्या में हुआ करते थे. इमरजेंसी के विरोध में बाद जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में स्टूडैंट्स ने इमरजेंसी के खिलाफ मूवमेंट किया. इस मूवमेंट ने इतना बड़ा रूप ले लिया था कि इंदिरा गांधी तक को स्टूडैंट्स के प्रेसिडेंट तक से मिलना पड़ गया था. क्यूंकि उस समय स्टूडैंट प्रेजिडेंट की एक वैल्यू होती थी.

दरअसल, स्टूडैंट सिर्फ एक स्टूडैंट नहीं है वो एक नागरिक भी है. अगर उसे अपनी यूनिवर्सिटी में या शिक्षा के क्षेत्र में या फिर देश में कुछ भी गड़बड़ होते दिख रहा है. या उसे लगता है कि ये गलत हो रहा है इसे बदला जाना चाहिए, तो इस पर स्टूडैंट्स को सवाल उठाने का पूरा अधिकार होता है. स्टूडैंट अगर किसी यूनिवर्सिटी कैंपस में पढ़ाई कर रहा है, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वो वहां सिर्फ पढ़ाई ही करेगा. अगर उन्हें लग रहा है कि इस यूनिवर्सिटी में किसी स्टूडैंट के साथ कुछ गलत हो रहा है या वहां कुछ ऐसा हो रहा है जो स्टूडैंट्स के फेवर में नहीं है, तो उन्हें आवाज उठाने का पूरा हक़ है. अपने इसी हक़ का इस्तेमाल करते हुए पहले खूब स्टूडैंट मूवमेंट हुआ करते थे.

2012 में निर्भया केस हुआ. उस निर्भया केस को पुरे भारत में इतना स्पार्क मिला उसका एक बड़ा कारण ये था कि दिल्ली के अलग अलग यूनिवर्सिटी के जो स्टूडैंट थे वे बाहर निकले और उन्होंने मूवमेंट किया आवाज उठाई. उसमे जामिया, अंबेडकर यूनिवर्सिटी, आईपी यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट भी शामिल थे. वे सभी सड़कों पर आएं और उन्होंने अपनी आवाज उठाई. इस तरह स्टूडैंट एक नागरिक भी है और वह अपना इस तरह फर्ज भी अदा करता है.

बहुत पुराना है Students Movement का इतिहास

जब भी स्टूडैंट शक्ति ने किसी बड़े मूवमेंट को जन्म दिया या किसी घटना विशेष पर तीखा रुख इख्तियार किया तो देश और समाज में सकारात्मक परिवर्तन हुए. देश ही नहीं दुनिया में भी स्टूडैंट राजनीति का आयाम यही रहा. भारत में स्टूडैंट राजनीति का इतिहास करीब 170 साल पुराना है. 1848 में दादा भाई नौरोजी ने ‘द स्टूडेंट साइंटिफिक एंड हिस्टोरिक सोसाइटी’ की स्थापना की.

इस मंच को भारत में स्टूडैंट मूवमेंट का सूत्र-धार माना जाता है. आजादी से पहले के राजनेताओं की बात करें तो युवा शक्ति को पहचानते हुए लाला लाजपत राय, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, जवाहर लाल नेहरू ने भी स्टूडैंट राजनीति को काफी तवज्जो दी थी

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी.का भी स्टूडैंट आंदोलनों को एक मुकाम तक ले जाने में खासा योगदान रहा. 1919 का सत्याग्रह, 1931 में सविनय अवज्ञा और 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो मूवमेंट की शुरुआत जब हुई तो युवाओं और खासकर स्टूडैंट्स को इससे जोड़ा गया. गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, विश्वभारती, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वद्यिालय और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे शिक्षा केंद्र विद्यार्थी आंदोलनों का गढ़ बन गए थे. वहां खूब आंदोलनों का दौर चला.

1974 का जयप्रकाश नारायण का मूवमेंट एक मिसाल है

स्टूडैंट मूवमेंट से जुड़ा एक ऐसे ही किस्सा है 18 मार्च 1974 का. अगर उस दिन की बात करें तो 18 मार्च के दिन विधान मंडल के सत्र की शुरुआत होने वाली थी. राज्यपाल दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधित करने वाले थे. लेकिन ऐसा करना उनके लिए आसान नहीं था क्यूंकि दूसरी तरफ स्टूडैंट मूवमेंटकारी डटे हुए थे और उनकी कोशिश इस बैठक को नाकाम करने की थी. उनकी योजना था कि राज्यपाल को विधान मंडल भवन में जाने से रोकेंगे. उन्होंने राज्यपाल की गाड़ी को रस्ते में ही रोक लिया.

पुलिस प्रशासन ने उन्हें रोकने की कोश‍िश की और पुलिस ने स्टूडैंट्स-युवकों पर निर्ममतापूर्वक लाठियां चलाईं. तब स्टूडैंट्स और युवकों का नेतृत्व करने वालों में पटना विश्वविद्यालय स्टूडैंट संघ के तत्कालीन अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव सहित कई लोग जुटे थे. इसमें कई लोगों को चोटें आईं. वहीं, पुलिस के लाठी चार्ज से लोगों में गुस्सा फैल गया. बेकाबू भीड़ को काबू करना मुश्कि‍ल हो गया था. आंसू गैस के गोले चलाए गए जिससे हर तरफ धुंए का माहौल हो गया. इसके बाद अनियत्र‍ित भीड़ और अराजक तत्व मूवमेंट में घुस गए, स्टूडैंट नेता कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे थे. हर तरफ लूटपाट और आगजनी होने लगी. बताते हैं कि इस घटना में कई स्टूडैंट मारे गए और फिर इस मूवमेंट की कमान जे पी ने संभाली.

उस समय इस मूवमेंट को रोकने में कांग्रेस सरकार पूरी तरह नाकाम रही तभी तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल कि घोषणा की थी . लेकिन साल भर बाद ही हुए चुनाव में कांग्रेस सरकार सत्ता से हाथ धो बैठी . इस तरह उस समय के स्टूडैंट्स युवकों ने राजनीति में बढ़ते भ्रष्टाचार पर लगाम कसी थी.
इस तरह देश में आजादी से पहले गांधी, सुभाष चंद्र बोस और फिर बाद में जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर स्टूडैंट-शक्ति ने जो तेवर दिखाए, उसने देश की दशा-दिशा बदल दी. 1960 से 1980 के बीच देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देने वाले ज्यादातर युवा आंदोलनों की अगुआई स्टूडैंटसंघों ने ही की. सात के दशक में (1974) में जेपी मूवमेंट और फिर असम स्टूडैंट्स का मूवमेंट इसके उदाहरण हैं, जिनके फलस्वरूप स्टूडैंट शक्ति सत्ता में भागीदार बनी. इस मूवमेंट ने देश को कई बड़े नेता दिए जैसे नीतीश कुमार, बिहार के पूर्व सीएम लालू प्रसाद, यूपी के पूर्व सीएम मुलायम सिंह यादव आदि.  1919 में, असहयोग मूवमेंट के दौरान स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार कर भारतीय स्टूडैंट्स ने इस आन्दोलन में तीव्रता प्रदान की थी.

असहयोग मूवमेंट के बाद, भारत छोड़ो मूवमेंट को भारतीय स्टूडैंट्स का समर्थन मिला. मूवमेंट के दौरान, स्टूडैंट्स ने ज्यादातर कॉलेजों को बंद करने और नेतृत्व की अधिकांश जिम्मेदारियों को शामिल करने का प्रबंधन किया और भूमिगत नेताओं और मूवमेंट के बीच लिंक प्रदान किया.

आपातकाल में स्टूडैंट मूवमेंट 1975

ऐसे और भी कई किस्से हैं जब स्टूडैंट मूवमेंट हुए. जैसे कि 25 जून, 1975 को देशभर में आपातकाल घोषित कर दिया गया. भारत भर के कई विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में, स्टूडैंट्स और संकाय सदस्यों ने आपातकाल लागू करने के जमकर विरोध किया. इस मूवमेंट की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद इंदिरा गांधी स्टूडैंट संघ के प्रेसिडेंट से मिलने आई थी. इस मूवमेंट में दिल्ली विशवविद्यालय स्टूडैंट संघ के अध्यक्ष अरुण जेटली समेत 300 से अधिक स्टूडैंट संघ नेताओं को जेल भेज दिया गया था.

मंडल विरोधी मूवमेंट, 1990

अगस्त 1990 को, भारत भर के स्टूडैंट्स ने अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की शुरुआत के खिलाफ विरोध किया. यह विरोध दिल्ली विश्विधालय से शुरू हुआ और पुरे देश में फ़ैल गया. स्टूडैंट्स ने परीक्षाओं का बहिष्कार किया. इसके बाद ही वीपी सिंह ने 7 नवंबर, 1990 को इस्तीफा दिया, तो ये मूवमेंट समाप्त हो गया.

आरक्षण विरोधी मूवमेंट 2006

यह स्टूडैंट्स के द्वारा किया गया दूसरा सबसे बड़ा मूवमेंट था जोकि आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ किया गया था.

2015 का एफटीआईआई मूवमेंट

8. जुलाई 2015 में, भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे के स्टूडैंट्स ने प्रतिष्ठित संस्थान के अध्यक्ष के रूप में अभिनेता गजेंद् चौहान के खिलाफ मूवमेंट किया था. उन्होंने इनकी योग्यता पर सवाल उठाते हुए इनके विरोध में ना सिर्फ अपनी क्लास अटेंड करने से मन किया बल्कि पेपर भी नहीं दिए.
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रोहित वेमुला की मौत पर स्टूडैंट्स का विरोध प्रदर्शन, 2016

26 साल के रोहित वेमुला ने 17 जनवरी 2016 को हैदराबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में खुदकुशी की थी. आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के मेंबर रहे रोहित स्टूडैंट राजनीति में काफी सक्रिय थे. उनके संगठन ने याकून मेमन को फांसी का विरोध किया था. 2015 में रोहित समेत पांच स्टूडैंट्स पर एबीवीपी के सदस्य पर हमला करने का आरोप लगे थे.

उन्हें हॉस्टल से निकाल दिया गया था. इसके बाद रोहित वेमुला की आत्महत्या की खबर आई. रोहित की मौत के बाद कुलपति अप्पा राव, महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी, सांसद बंगारू दत्तात्रेय समेत एबीवीपी के कई नेताओं पर खुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप लगे. फिर जेएनयू समेत पूरे देश के यूनिवर्सिटीज में विरोध प्रदर्शन हुए थे. सैकड़ों स्टूडैंट्स ने विरोध रैलियों में भाग लिया था. रोहित वेमुला को न्याय दिलाने की मांग कर रहे कांग्रेस और वामपंथी स्टूडैंट संगठनों ने ‘राष्ट्रवादी दहशत’ को आत्महत्या का कारण बताया. रोहित के समर्थन और हैदराबाद यूनिवर्सिटी की कार्यशैली के विरोध में दर्जनों लेख लिखे गए. सीएम केसीआर ने इस केस की जांच हैदराबाद पुलिस को सौंप दी.

जेएनयू फीस वृद्धि, 2019 और सीएए-एनआरसी

जेएनयू में फीस वृद्धि को लेकर चल रहे स्टूडैंट्स के प्रदर्शन ने खूब जोर पकड़ा. इस मूवमेंट में उनकी उनकी पुलिस के साथ झड़प भी हुई. इसके बाद कई छात्राओं ने कहा कि अगर फीस वृद्धि हुई तो वे अपने घर वापस लौट जाएंगी.विरोध इतना हुआ और स्थ्ति इतनी बिगड़ गए कि 500 पुलिसकर्मी को स्थिति सँभालने में लगाया गया.
ऐसे ही सीएए-एनआरसी के खिलाफ स्टूडैंट्स ने जमकर विरोध प्रदर्शन किया था. इसमें जामिया मिलिया इस्लामिया से लेकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट शामिल हुए.

स्टूडैंट नेताओं ने कुछ ऐसे रखा राजनीति में कदम

यही वह समय था जब भारत में स्टूडैंट मूवमेंट ढेरों की संख्या में होते थे और वही से नेता बनते थे. स्टूडैंट राजनीति से निकल कर राष्ट्रीय राजनीति मे महत्वपूर्ण योगदान देने वाले नेताओं में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह और चंद्रशेखर जैसे दिग्गजों के नाम भी हैं. वहीं, हेमवती नंदन बहुगुणा, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अशोक गहलोत, प्रफुल्ल कुमार महंत सहित शरद यादव, सुशील मोदी, अमित शाह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, सीताराम येचुरी, प्रकाश करात, डी. राजा, सतपाल मलिक, सीपी जोशी, मनोज सिन्हा, विजय गोयल, विजेंद्र गुप्ता, अनुराग ठाकुर, देवेंद्र फडनवीस, सर्वानंद सोनोवाल जैसे नाम हैं. इनकी शुरआत राजनीति में स्टूडैंट मूमेंट से ही निकली थी. उनमे से कुछ नेता है-

सुषमा स्वराज

1970 के दशक में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के साथ हरियाणा में राजनीतिक करियर की शुरुआत की.पेशे से व़कील, 25 वर्ष की उम्र में हरियाणा में मंत्री बनी.1990 में वे पहली बार राज्य सभा सदस्य बनीं. उन्होंने 1996 में दक्षिण दिल्ली से लोक सभा सीट जीती.उसके बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री, केंद्र में सूचना-प्रसारण मंत्री, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री, लोक सभा में विपक्ष की नेता और सरकार में विदेश मंत्री भी रहीं.

लालू प्रसाद यादव

पटना यूनिवर्सिटी से वकालत की पढ़ाई करते हुए पटना यूनिवर्सिटी स्टुडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष बने. 1973 में फिर स्टूडैंट संघ चुनाव लड़ने के लिए पटना लॉ कॉलेज में दाखिला लिया और जीते. जेपी मूवमेंट से जुड़े और स्टूडैंट संघर्ष समिति के अध्यक्ष बनाए गए. 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीते. 29 साल के लालू यादव सबसे युवा सांसदों में से एक थे. 1990-97 के बीच लालू बिहार के मुख्यमंत्री रहे. यूपीए-1 सरकार में रेल मंत्री भी रहे.

सीपी जोशी

1973 में राजस्थान के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के स्टूडैंट संघ के अध्यक्ष बने. इसके बाद विधायक का चुनाव जीता. चार बार विधायक बने और राज्य सरकार में कई मंत्रालय संभाले. 2008 के चुनाव में नाथद्वारा से एक वोट से हारे. 2009 में भीलवाड़ा लोकसभा सीट से जीतकर पहली बार सांसद बने. तत्कालीन संप्रग सरकार में ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री बने.

ममता बनर्जी

1970 में कोलकाता में कांग्रेस के स्टूडैंट संगठन, ‘स्टूडैंट परिषद’, के साथ जुड़ीं और तेज़-तर्रार महिला नेता के तौर पर उभरीं.उन्होंने लोकसभा सीट से पहली बार चुनाव लड़ा और दिग्गज वाम नेता सोमनाथ चटर्जी को हराया.पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में ‘पश्चिम बंगाल यूथ कांग्रेस’ की अध्यक्ष और फिर नरसिंह राव की सरकार में मानव-संसाधन मंत्री बनीं.1997 में कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी, ‘ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस’ बनाई और 14 साल बाद, 2011 में पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनीं.

अरुण जेटली

1974 में दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष बने. उसी दौर में जेपी मूवमेंट में स्टूडैंट और स्टूडैंट संगठनों की राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष बने.सिर्फ यही नहीं बल्कि क्या आप जानते हैं वे वकील कैसे बने. आपातकाल में डेढ़ साल जेल में रहना पड़ा. जिसके बाद वकालत की पढ़ाई पूरी कर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील बने. एनडीए सरकार में क़ानून मंत्री बने, पांच साल तक भारतीय जनता पार्टी के महासचिव रहे और उसके बाद राज्य सभा में विपक्ष के नेता बने. युथ लीडर ही युवाओं की आवाज बन सकते हैं

इस तरह भारत में जितने भी बड़े बड़े नेता बने हैं ये स्टूडैंट मूवमेंट से निकले हैं. लेकिन आज के टाइम में कोई स्टूडैंट मूवमेंट नहीं हो रहा है यानी कि स्टूडैंट मूवमेंट से कोई नेता पैदा नहीं हो रहा है. तो अब जो नेता बन रहें हैं वो पैराशूट नेता है. जो अपने पिता के दम पर है. इस तरह के नेता पॉलिटिक्स नहीं समझते, ग्राउंड नहीं समझते. पहले स्टूडैंट मूवमेंट का फायदा यही भी होता था कि इससे नेता डेवलप होते थे और देश को ऐसे नेताओं की जरुरत भी है.

लेकिन अब युथ लीडर नहीं पैदा हो रहें. युथ लीडर होगा तो वह युवाओं को समझेगा. उनकी समस्याओं से रिलेट कर पायेगा. आज बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है. लेकिन बेरोजगारी पर क्यूँ बात नहीं हो रही है क्यूंकि कोई युवा नेता नहीं है. युथ लीडर होता तो वो युवाओं की आवाज बनता.

सरकार अपना शिकंजा यूनिवर्सिटी पर कसे हुए है

लेकिन आपने कभी सोचा है कि युवाओं कि यह आवाज आखिर कहां चली गई? अब क्यूँ कोई मूवमेंट नहीं हो रहा ? जबकि पहले मूवमेंट होते थे लेकिन अब धीरे धीरे करके ख़तम होते जा रहे हैं पिछले 5 सालों में कोई भी मूवमेंट नहीं हुआ है. छोटे छोटे मूवमेंट होते रहे हैं लेकिन उन्हें दबाया जाता रहा है. सच तो यह है कि अब स्टूडैंट मूवमेंट गायब हो चुके हैं.

इसका एक कारण कॉलेज का माहौल भी है जो पहले से बहुत अधिक बदल गया है. साल 2011 के आसपास कॉलेज के बाहर पुलिस नहीं होती थी. पेट्रोलिंग नहीं होती थी. यूनिवर्सिटी के अंदर पुलिस की कोई जगह नहीं होती थी. गार्ड भी इतने नहीं होते थे. आज के टाइम पर अगर आप यूनिवर्सिटी में जाओगे और कॉलेज घूमोगे तो वहां बहुत ज्यादा पुलिस की रेकी चलती रहती है. अब वो उसका कारण कुछ भी बताये कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये हम इसलिए यहां पर हैं या फिर सुरक्षा व्यवस्था बनी रहें इसलिए यहां पर हैं.

उनका अपना रीजन हो सकता है लेकिन पहले पुलिस का इतना इंवोल्मेंट यूनिवर्सिटी में नहीं होता था. लेकिन अब पुलिस की गाड़ी वहां हर वक्त खड़ी रहती है. पुलिस के वहां होने का दूसरा कारण यह भी होता है कि पुलिस इन आंदोलकर्मियों पर नज़र भी रखती है. सिक्योरिटी को टाइट करना स्टूडैंट पोलटिक्स को कम करना, ज्यादा आई डी चेक करना, ये सब प्रेशर बनाने के तरीके होते हैं.

इसका कारण ये है कि गवर्नमेंट अपना शिकंजा यूनिवर्सिटी पर कस रही है. 2019 के टाइम पर स्टूडैंट मूवमेंट हुए थे जब सी आर सी का मुद्दा हुआ है. उसके बाद अब 5 साल हो गए हैं. इन दौरान कोई स्टूडैंट मूवमेंट डेवलप नहीं हो पाया. एक समय पर हर साल इस तरह के मूवमेंट हुआ करते थे. लेकिन अब एक पूरी सरकार निकल गई और कोई स्टूडैंट मूवमेंट नहीं हुआ.

कहीं ना कहीं सरकार ने भी यूनिवर्सिटी में अपनी पकड़ बनाने की पूरी कोशिश की है. सरकार चाहती ही नहीं है कोई उनके कामकाज पर नज़र रखें और उसके खिलाफ आवाज उठाये. इसलिए यूनिवर्सिटी के बाहर इतनी पुलिस होती है और जरा भी कुछ होता है तो उसे वहीँ दबा दिया जाता है.

पुलिस सुरक्षा के लिए होती है लेकिन लेकिन पुलिस अगर यूनिवर्सिटी के कायदे कानूनों में इंटरफेयर करने लग जाएँ, तो ये डेमोक्रेसी के लिए खतरनाक है. उनको किसी भी चीज को करने से रोके तो फिर वो कही न कही स्टूडैंट्स की आवाजों को दबाता है.

Abvp में स्टेट वर्किंग कमेटी मेंबर और लॉ स्टूडेंट अंकित भारद्वाज 

स्टूडैंट मूवमेंट तो अभी भी होते हैं लेकिन मीडिया उसे पूरा कवर नहीं करती है. मीडिया का ज्यादा झुकाव इस तरफ रहता है कि प्रधानमंत्री आज किस विदेश यात्रा पर हैं? आज प्रधानमंत्री ने अपने मन की बात में क्या कहा? वे लोग इसकी कवरेज ज्यादा करते हैं. वहीँ पहले अगर डुसुके चुनाव होने वाले होते थे तो कई दिन पोएहले से इस पर न्यूज़ में चर्चा होने शुरू हो जाती थी लेकिन अभी हाल ही में डूसू चुनाव का रिजल्ट आया, तो न्यूज़ में इस खबर को सिर्फ 5 मिनट की कवरेज मिली.

कॉलेज में जो नई जनरेशन आई है वो इलेक्शन में बिलकुल भी इंट्रेस्ट नहीं ले रही है. अभी du में जो इलेक्शन हुआ उसमे सर्वे हुआ था जिसमे 25 परसेंट स्टूडेंट ऐसे थे जिन्हें ये तक नहीं पता था कि हमारे प्रेजिडेंट कैंडिडेंट कौन कौन से है? आज के टाइम में स्टूडेंट सिर्फ डिग्री के लिए कॉलेज की पढ़ाई कर रहे हैं और साइड में वह UPSC या फिर CA की पढ़ाई कर रहें होते हैं इसलिए वे इलेक्शन में इंट्रेस्ट नहीं लेते हैं.

 

बड़बोले Varun Dhawan का कैरियर हमेशा के लिए तबाह, ‘वनवास’ को मिला अज्ञातवास

Varun Dhawan की बड़े बजट की फिल्म बौक्स औफिस पर चल नहीं रही, वहीं पुष्पा 2 अभी भी पैसे बटोरने में लगी है. दर्शक फिल्मों में नयापन देखना चाहते हैं जो बौलीवुड दे नहीं पा रहा.

‘बेबी जौन’ vs ‘पुष्पा 2 द रूल’

वरूण धवन और उन की फिल्म ‘बेबी जौन’ के निर्माताओं ने 25 दिसंबर की छुट्टी फायदा उठाने के लिए फिल्म ‘पुष्पा 2 द रूल’ के वितरकों से काफी झगड़ा किया और फिल्म की निर्माण कंपनी ‘जियो स्टूडियो’ के मालिक मुकेश अंबानी ने अपना रूतबा झाड़ा तो पीवीआर आईनौक्स व कुछ अन्य मल्टीप्लैक्स वाले झुक गए और उन्होंने अपने यहां कमा कर दे रही फिल्म से ‘‘पुष्पा 2 द रूल’ को बाहर का रास्ता दिखा कर ‘बेबी जौन’ को जगह दी.
अफसोस की बात यह रही कि अति वाहियात फिल्म ‘बेबी जौन’ को दर्शक नहीं मिले और पहले दिन ही कई शो रद्द हो गए, जिस से सिनेमाघर मालिकों को नुकसान हुआ.
180 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘बेबी जौन’ पहले दिन बामुश्किल 11 करोड़ रूपए ही बौक्स औफिस पर एकत्र कर सकी. जबकि स्क्रीन्स कम किए जाने के बावजूद सिर्फ 25 दिसंबर को ही ‘पुष्पा 2 द रूल’ ने हिंदी क्षेत्रों में ‘बेबी जौन’ से दोगुने से भी अधिक 23 करोड़़ रूपए बौक्स औफिस पर एकत्र किए.
दूसरे दिन यानी कि 26 दिसंबर, गुरूवार को ‘बेबी जौन’ महज 5 करोड़ रूपए भी एकत्र नहीं कर पाई. इस तरह दिसंबर माह के तीसरे सप्ताह में 180 करोड़ रूपए की लागत में बनी फिल्म ‘बेबी जौन’ केवल 16 करोड़ रूपए एकत्र कर सकी थी.

‘वनवास’ की दुर्गति

दिसंबर माह के चौथे सप्ता में ‘बेबी जौन’ रोती रही. पूरे सप्ताह भर में शनिवार, रविवार, 31 दिसंबर व एक जनवरी इन 4 छुट्टियों के बावजूद बामुश्किल 19 करोड़ रूपए एकत्र कर, दो सप्ताह में 35 करोड़ रूपए एकत्र कर सकी. यह आंकड़े तो निर्माता की तरफ से दिए जा रहे हैं.
180 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘बेबी जौन’ में कहानी का अता पता नहीं, विलेन तो अघोरी नजर आता है. डीसीपी के किरदार में वरूण धवन पूरी तरह अनफिट हैं. वह कहीं से भी पुलिस अफसर नजर नहीं आते. फिल्म में एक्शन व गाने बेवजह ठूंसे हुए नजर आ रहे हैं. ऐसे में इस उबाउ फिल्म से लोगों ने दूरी बना कर रखने में ही समझदारी दिखाई.
बहरहाल, दिसंबर माह के चौथे सप्ताह की समाप्ति पर अब तक पुष्पा 2 द रूल ने जरुर नए रिकौर्ड बना डाले. इस ने विश्व स्तर पर 18 सौ करोड़, भारत में 1190 करोड़ और केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों में 800 करोड़ रूपए बौक्स औफिस पर एकत्र किए. जबकि तीसरे सप्ताह रिलीज हुई नाना पाटेकर व उत्कर्ष शर्मा की सरकार परस्त व धर्म को बेचने वाली फिल्म तीसरे व चौथे सप्ताह मिला कर यानी कि 14 दिनों में भी 5 करोड़ रूपए एकत्र न कर सकी.
वैसे 2024 की समाप्ति पर एक आंकड़ा चौकाने वाला है. इस वर्ष 100 हिंदी फिल्में बनीं, इन में से 55 फिल्में फिल्मकारों ने सरकार को खुश करने या धर्म को बेचने वाली बनाई. इन में से एक भी लागत तो दूर 10 प्रतिशत भी बौक्स औफिस पर एकत्र न कर सकी.
‘बेबी जौन’ और ‘वनवास’ की एक तरफ दुर्गति हुई, तो इस का कुछ फायदा 20 दिसंबर को रिलीज हुई मलयालम फिल्म ‘मार्को’ को हुआ. अतिरंजित एक्शन से भरपूर फिल्म ‘मार्को’ ने हिंदी क्षेत्र में तो कुछ खास कमाई नहीं की पर पूरे देश भर में, खासकर केरला में कमाई हुई और दो सप्ताह के अंदर बौक्स औफिस पर 40 करोड़ रूपए एकत्र कर लिए.

मार्को, ‘मुफासा द लोयन’ रहा फायदे में

इस तरह ‘मार्को ने मलयालम सिनेमा के लिए संजीवनी का काम किया है. मलयालम फिल्म इंडस्ट्री ने ऐलान किया है कि उन्हें 2024 में 700 करोड़ रूपए का शुद्ध नुकसान हुआ है. अब 2025 में जनवरी के पहले सप्ताह 3 जनवरी से ‘मार्को’ को हिंदी क्षेत्रों में ज्यादा स्क्रीन्स मिले हैं, क्योंकि ‘वनवास’ और ‘बेबी जौन’ को बाहर कर दिया गया है.
हौलीवुड फिल्म ‘मुफासा द लोयन’ को चौथे सप्ताह में ‘वनवास’ व ‘बेबी जौन’ में दम न होने का फायदा मिल गया. इस फिल्म ने दो सप्ताह में भारत में हर भाषा को मिला कर करीब 100 करोड़ रूपए एकत्र कर लिए हैं. 25 दिसंबर को ही रिलीज हुई मोहनलाल निर्देशित व अभिनीत मलयालम फिल्म भी कई भाषाओं में डब हो कर रिलीज हुई, पर यह फिल्म 25 दिसंबर 2024 से दो जनवरी 2025 तक बौक्स औफिस पर केवल 9 करोड़ रूपए ही इकठ्ठा कर सकी.
2024 की समाप्ति पर दर्शक ने हर भारतीय फिल्मकार व कलाकार को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि उसे भाषा से परहेज नहीं है. उसे केवल अच्छी कहानी, अच्छा अभिनय, अच्छा संगीत व अच्छा एक्शन देखना है.
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