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चटपटी पाव भाजी

पाव भाजी एक ऐसा स्वादिष्ट डिश है जो बच्चे,बुढ़ें सभी को पसंद आता है. यह कम समय में बन भी जाता है. आइए जानते हैं पाव भाजी बनाने का सबसे सरल तरीका .

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सामग्री :

आलू- 3 (उबले),

टमाटर- 6 (बारीक कटे),

शिमला मिर्च- 1 (100 ग्राम),

फूलगोभी- 1 कप (कटा),

मटर- 1/2 कप,

हरा धनिया- 3-4 टेबलस्पून (बारीक कटा),

मक्खन- 1/2 कप (100 ग्राम),

अदरक पेस्ट- 1 टीस्पून,

हरी मिर्च- 2 (बारीक कटी),

हल्दी पाउडर- 1/2 टीस्पून,

धनिया पाउडर- 1 टीस्पून,

पावभाजी मसाला- 2 टीस्पून,

देगी लाल मिर्च- 1 टीस्पून,

नमक – स्वादानुसार

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विधि :

  • पाव भाजी बनाने के लिए सबसे पहले गोभी और मटर को एक पैन में एक कप पानी डालकर नरम होने तक ढककर पका लें.
  • अब एक पैन गर्म करें उसमें दो टेबलस्पून बटर डालकर मेल्ट करें। अब इसमें अदरक का पेस्ट और हरी मिर्च डालकर भून लें.
  • इसके बाद टमाटर, हल्दी पाउडर, धनिया पाउडर और शिमला मिर्च डालकर इसे ढककर 2-3 मिनट तक पका लें। अब इन्हें मैश कर लें.
  • अब इसमें गोभी और मटर डालकर अच्छे से मैश करते हुए पका लें। सब्जी अच्छे से मैश हो जाए तब आलू, नमक, लाल मिर्च और पावभाजी मसाला डालकर भाजी को मैश करते हुए दो-तीन मिनट तक पका लें.
  • भाजी में हरा धनिया और एक टेबलस्पून बटर डालकर मिक्स करें और गैस बंद कर दें.
  • अब तवा गरम करें और पाव को बीच से काटकर तवे पर थोड़ा सा बटर डालकर पाव को दोनों ओर से हल्का सेक लें.
  • अब इसे गरमा-गर्म भाजी के साथ सर्व करें.

वनीला की खेती पर संकट

सरकार की उदासीनता ने किसानों के सामने मुश्किल खड़ी कर दी है. दरअसल 17 साल पहले देश में वनीला की खेती करने के लिए बड़े जोरशोर से मुहिम चलाई गई थी. इस का असर यह हुआ कि कुछ समय में ही दक्षिण भारत के 3 राज्यों ने दुनिया के सब से महंगे मसालों में शुमार वनीला की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया. साल 2000 में बड़ी उम्मीद के साथ वनीला की खेती शुरू की गई थी, लेकिन डेढ़ दशक बाद ही इस की खेती पर खतरा मंडराने लगा है.

भारतीय मसाला बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में सब  से ज्यादा लोकप्रिय फ्लेवर वनीला का है. यहां तक कि दुनियाभर में जितनी भी आइसक्रीम बनती हैं, उन में से 40 फीसदी वनीला फ्लेवर की ही होती हैं. वनीला एक फल है. दक्षिण भारत के 3 राज्यों में इस की खेती होती है. वनीला आइसक्रीम के अलावा केक, कोल्डड्रिंक, परफ्यूम और अन्य सौंदर्य प्रसाधनों में भी इस्तेमाल होता है.

इस की खेती से किसानों को काफी फायदा हो रहा था, लेकिन सरकार की उदासीनतापूर्ण नीति इस के किसानों को भुगतनी पड़ रही है. किसानों को वनीला की खेती से शुरुआत में अन्य फसलों के मुकाबले काफी फायदा हुआ, लेकिन पिछले कुछ सालों से लगातार वनीला की खेती से किसानों को घाटा उठाना पड़ रहा है. इसी के चलते दक्षिण भारत के प्रमुख वनीला उत्पादक राज्यों तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के किसानों ने बड़े पैमाने पर हो रही वनीला की खेती से अब मुंह मोड़ लिया है.

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जानकारों का मानना है कि यदि सरकार इस तरफ ध्यान दे, तो किसान फिर से सरकार की तरफ से प्रोत्साहन मिलने से वनीला की खेती में दिलचस्पी दिखाएंगे. वनीला की मांग देश के साथसाथ विदेशों में भी काफी ज्यादा है. जब तक वनीला का निर्यात किया जाता रहा तब तक तो किसानों को फायदा होता रहा, लेकिन अब पिछले 3 सालों से निर्यात बंद है. सरकार की उदासीनता का यह हाल तब है, जब पूरी दुनिया में वनीला की सब से ज्यादा मांग है. यदि सरकार इस पर ध्यान दे तो देश में वनीला की खेती और ज्यादा की जा सकती है, लेकिन सरकार की तरफ से ऐसा होता नहीं दिख रहा है.

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एक समय देश में वनीला की खेती करने वाले किसानों को 1 किलोग्राम वनीला के बीजों की कीमत 3500 रुपए मिलती थी, जो आज घट कर मात्र 50 रुपए प्रति किलोग्राम रह गई है. देश में जब किसानों ने वनीला की खेती शुरू की थी, उस समय इस की विदेशों में काफी मांग थी और कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही थी.

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वनीला का देश में औसत उत्पादन तब 1200 टन था, जो अब काफी घट गया है. पिछले 3 सालों में भारत ने वनीला का निर्यात भी नहीं किया है. ऐसा नहीं है कि उत्पादन बढ़ जाने से मांग कम हुई हो, बल्कि सरकार की नीतियों के चलते भारतीय किसानों को वनीला की खेती का मोह छोड़ना पड़ रहा है.

वनीला मूलरूप से दक्षिणपूर्वी मैक्सिको, ग्वाटेमाला और मध्य अमेरिका के कुछ हिस्सों में पाया जाने वाला पौधा है. जावा, मेडागास्कर, ताहिती, जंजीबार, युगांडा, टांगो, जमैका और वेस्टइंडीज में इस की खेती की जाती है. भारत में वनीला की खेती आमतौर पर लघु किसानों के अलावा सीमांत किसान अन्य फसलों के साथ करते हैं. इस तरीके से किसानों को एकसाथ ज्यादा लाभ मिल जाता है.

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देश में वनीला की सब से ज्यादा खेती केरल के एर्णाकुलम जिले में की जाती थी. किसानों को जब इस की फसल से ज्यादा लाभ हो रहा था, तब तकरीबन 2 लाख किसान इस की खेती से जुड़े थे, लेकिन आज हालत यह है कि 100 से भी कम किसान इस की खेती कर रहे हैं.

– इरफान खान

ढाई आखर प्रेम का

ढाई आखर प्रेम का-भाग 4: अनुज्ञा को अमित की बात क्यों याद आ रही थी?

मांजी सोच रही थीं कि डाक्टर सच ही कह रहे हैं. अनुज्ञा, जिसे पुत्र न दे पाने के लिए वे सदा कोसती रहीं आज उसी ने बेटा बन कर उन की सेवा की तथा जिस रामू को सदा हिकारत की नजर से देखती रहीं, उसी के खून से उन की जान बच पाई.

दूसरे दिन वे अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आ गईं.

रामू अपने नियत समय पर काम करने आया, उसे देख कर पलंग पर लेटी

मांजी ने कहा, ‘आ बेटा, इधर आ, मेरे पास आ.’

‘नहीं मांजी, कहां आप कहां हम, अपने पास बुला कर हमें और शर्मिंदा न कीजिए. वह तो मेमसाहब अकेली परेशान हो रही थीं, इसलिए हमें आप को छूना पड़ा वरना…’ कह कर वह चला गया.

आशा के विपरीत मां का रामू के प्रति सद्व्यवहार देख कर सभी हतप्रभ रह गए किंतु रामू की प्रतिक्रिया सुन कर मेरे मन में मंथन चलने लगा, सदियों से चले आ रहे इस भेदभाव को मिटाने में अभी बहुत वक्त लगेगा. जब तक अशिक्षा रहेगी तब तक जातिपांति की इस खाई को पाट पाना मुश्किल ही नहीं असंभव सा है.

रामू जैसे लोग सदा हीनभावना से ग्रस्त रहेंगे तथा जब तक हीनभावना रहेगी उन का उत्थान नहीं हो पाएगा. उन की इस हीनता को आरक्षण द्वारा नहीं बल्कि शिक्षा द्वारा ही समाज में जागृति पैदा कर दूर किया जा सकता है.

आश्चर्य तो इस बात का है कि आरक्षण के बल पर इन का उत्थान चाहने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि आरक्षण के द्वारा इन दबेकुचले लोगों का नहीं बल्कि इन के उन भाइयों का ही फायदा हो रहा है जो पहले से ही इस का लाभ प्राप्त कर अच्छी स्थिति में आ गए हैं. इन में से कुछ लोगों को तो यह भी नहीं पता होगा कि सरकार के द्वारा इन के लिए क्याक्या सुविधाएं दी जा रही हैं.

दूसरे दिन से मांजी के व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन आ गया था. कमली उन के कमरे में सफाई के लिए गई तो उस से उन्होंने कहा, ‘कमली, मेरे लिए एक गिलास पानी ले आ.’

कमली को अपनी ओर आश्चर्य से देखते देख बोलीं, ‘अरे, ऐसे क्या देख रही है, मैं ने कहा, एक गिलास पानी ले आ.’

‘अभी लाई, मांजी.’

‘तेरी बेटी काजल क्या कर रही है,’ पानी पी कर गिलास पकड़ाते हुए पूछा.

‘क्या करेगी मांजी. पढ़ना चाहती है पर हम गरीबों के पास पैसा कहां? लड़के को तो उस के बापू ने स्कूल में डाल दिया पर इस को स्कूल में डालने के लिए कहा, तो कहता है, लड़की है इस पर पैसा खर्च करने से क्या फायदा.’

‘लड़की है तो क्या हुआ, अगर यह पढ़ना चाहेगी तो इस की पढ़ाई का खर्चा मैं दूंगी.’

‘सच, मांजी?’

‘हां कमली, एक लड़की का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है क्योंकि वह अपने बच्चे की पहली शिक्षक होती है, अगर वह पढ़ीलिखी होगी तभी वह अपने बच्चे को उचित संस्कार दे पाएगी.’

 

हम सभी मांजी में आते परिवर्तन को देख कर अतिप्रसन्न थे. उन की टोकाटाकी कम होने से शीतल और शैलजा भी काफी प्रसन्न थीं. स्कूल से आने के बाद वे अपना काफी समय दादी के साथ बिताने लगी थीं. यहां तक कि एक दिन उन्होंने अनुज्ञा से भी कहा, ‘अनुज्ञा, अगर तू कोई काम करना चाहती है तो कर ले, घर मैं देख लूंगी, कमली तो है ही.’

‘ठीक है मांजी, प्रयत्न करती हूं.’

रामू से भी अब वे सहजता से बातें करने लगी थीं. एक दिन रामू खुशीखुशी घर आया, बोला, ‘मेमसाहब, आज मैं काम नहीं करूंगा. बहू को अस्पताल ले जाना है. वह पेट से है. दर्द उठ रहे हैं.’

शाम को उस ने पुत्र होने की सूचना दी तो मांजी ने उस के हाथ में 100 रुपए का नोट पकड़ाते हुए कहा, ‘जा, महल्ले में मिठाई बंटवा देना.’

उस के जाने के पश्चात अनुज्ञा को 500 रुपए देते हुए सासूमां ने कहा,

‘बहू, इन रुपयों से बच्चे के लिए कपड़े ले आना.’

एक दिन उन्होंने अमित से कहा, ‘बेटा, रामू के लिए तो मैं कुछ कर नहीं पाई पर सोचती हूं, उस के पोते के लिए ही कुछ करूं.’

‘आप क्या करना चाहती हैं?’

‘मैं चाहती हूं कि इस की पढ़ाई का खर्चा भी मैं उठाऊं. इस का दाखिला भी किसी ऐसेवैसे स्कूल में नहीं बल्कि अच्छे स्कूल में हो तथा तुम स्वयं समयसमय पर ध्यान दो.’

‘ठीक है मां, जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा. पर…’

‘पर क्या, बेटा, तू सोच रहा होगा कि मेरे अंदर इतना परिवर्तन कैसे आया. बेटा, मानव मन जितना चंचल है उतना ही परिवर्तनशील. उस दिन की घटना के बाद से मेरे मन में हर दिन उथलपुथल होने लगी है. जितना सोचती हूं उतने ही मुझे अपने कर्म धिक्कारते प्रतीत होते हैं. जिस बहू को सदा नकारती रही, उस ने मेरी बेटी की तरह सेवा की. रामू, जिसे सदा तिरस्कृत करती रही, उस ने मेरी जान बचाने के लिए अपना खून तक दिया और जिन नातिनों को लड़की होने के कारण कभी प्यार के लायक नहीं समझा, उन्होंने मेरा प्यार पाने के लिए क्याकुछ नहीं किया पर अपनी मानसिकता के कारण उन के निस्वार्थ प्यार को नकारती रही. मैं प्रायश्चित्त करना चाहती हूं, बेटा.

‘तुम ने ठीक कहा था बेटा, सभी इंसान एक जैसे ही होते हैं. हम स्वयं ही अपनी सोच के अनुसार उन्हें अच्छा या बुरा, उच्च या नीच मान बैठते हैं. मेरे मन में आजकल कबीरदासजी की वाणी रहरह कर गूंजने लगी है : पोथी पढ़पढ़ जग मुआ, भया न पंडित कोय. ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय,’ वास्तव में जीव मात्र से प्रेम करना तथा अपने सांसारिक कर्तव्यों को निभाना ही इंसानियत है.

‘जब से मुझे सहज मानव धर्म समझ आया तब से मैं ने मन ही मन निश्चय किया कि मैं स्वयं में बदलाव लाने का प्रयत्न करूंगी. व्यर्थ के रीतिरिवाज या ढकोसलों को, जिन की वजह से दूसरों को दुख पहुंचता है, अपने मन से निकालने का प्रयत्न करूंगी. मैं प्रायश्चित्त करना चाहती हूं. काजल की पढ़ाई का खर्चा देने की बात तो तुम से पूछे बिना ही मैं ने कर दी. एक नेक काम और. अगर तुम ठीक समझो तो, क्योंकि मेरे बाद तुम्हें ही मेरी यह जिम्मेदारी पूरी करनी होगी.’

‘मां, प्लीज, ऐसा मत कहिए. हमें आप के साथ और आशीर्वाद की सदा आवश्यकता रहेगी पर इतना अवश्य विश्वास दिलाते हैं कि जैसा आप चाहेंगी वैसा ही होगा,’ अमित ने कहा था.

 

चाय के उबलते पानी की आवाज ने अनुज्ञा के विचारों के भंवर में विघ्न डाल कर उसे अतीत से वर्तमान में ला दिया. विचारों को झटक कर शीघ्रता से नाश्ता निकाला, चाय बना कर कप में डाली तथा कमरे की ओर चल दी.

मांजी को चंदू को अपने हाथों से मिठाई खिलाते देख कर वह सोच रही थी, रिश्ते खून के नहीं, दिल के भी होते हैं. अगर ऐसा न होता तो इतने वर्षों बाद हम सब एकदूसरे से जुड़े नहीं होते. कासिमपुर में तो हम सिर्फ 5 वर्ष ही रहे. पहले पत्रों के जरिए तथा बाद में मोबाइल के जरिए आपस में जुड़े रहे. पिछले महीने ही काजल का विवाह हुआ. हम सभी गए थे. हमें देख कर कमली की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. काजल और उस का पति विक्रम एक ही स्कूल में अध्यापक हैं.

रामू तो नहीं रहा पर चंदू के जरिए उस परिवार से भी हम सब जुड़े रहे. पिछले वर्ष जब शीतल का विवाह हुआ तो कमली और काजल के साथ चंदू के मातापिता ने विवाह की तैयारियों में काफी मदद की थी. शीतल जहां सौफ्टवेयर इंजीनियर है वहीं शैलजा मैडिकल के अंतिम वर्ष में. आज मांजी दोनों की प्रशंसा करते हुए अघाती नहीं हैं. दोनों ही उन को बेहद प्रिय हैं.

मांजी ने जो निश्चय किया उसे क्रियान्वित भी किया. लोग कहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ इंसान अडि़यल या जिद्दी होता जाता है पर मांजी ने यह सिद्ध कर दिया अगर इंसान चाहे तो हर उम्र में स्वयं को बदल सकता है पर इस के लिए उसे अपने झूठे अहंकार को त्याग कर प्यार के मीठे बोलों को अपनाना पड़ेगा.

 

ढाई आखर प्रेम का-भाग 3: अनुज्ञा को अमित की बात क्यों याद आ रही थी?

व्यर्थ के बढ़े इन कामों के कारण कभीकभी मन आक्रोश से भर उठता था पर घर की सुखशांति के लिए संयम बरतना उस की मजबूरी थी. वह जानती थी कि अमित को भी यह सब पसंद नहीं है पर मां के उग्र स्वभाव के कारण वे भी चुप रहते थे. कभी वे कुछ कहने का प्रयास करते तो तुरंत कहतीं, ‘हम सरयूपारीय ब्राह्मण हैं, तुम भूल सकते हो पर मैं नहीं. आज अगर तुम्हारे पिताजी होते, तुम्हारे घर का दानापानी भी ग्रहण नहीं करते. प्रकृति मुझे न जाने किन पापों की सजा दे रही है.’ इस के साथ ही उन का रोना प्रारंभ हो जाता.

अमित के पिताजी गांव के मंदिर में पुजारी थे, 4 पीढि़यों से चला आ रहा यह व्यवसाय उन्हें विरासत में मिला था. प्रकांड विद्वान होने के कारण आसपास के अनेक गांवों में उन की बेहद प्रतिष्ठा थी. दानस्वरूप प्रचुर मात्रा में मिले धन के कारण धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. पुरखों की जमीन अलग से धनवर्षा करती रहती थी. एक दिन वे ऐसे सोए कि उठ ही नहीं पाए. अमित परिवार में सब से बड़े थे. दोनों भाई बाहर होस्टल में रह कर पढ़ रहे थे. कोई भी भाई अपने परिवार का पुश्तैनी व्यवसाय यानी पंडिताई तथा खेतीबारी अपनाने को तैयार नहीं था. इसलिए सबकुछ बेच कर तथा खेती को बटाई में दे कर वे मां को ले कर चले आए.

 

उस समय शीतल 2 वर्ष की थी, उस के कारण सर्विस में भी समस्या आने लगी थी. मांजी के आने से उसे लगा कि अब शीतल को संभालने में आसानी होगी पर हुआ विपरीत. दंभी और उग्र स्वभाव की होने के साथ उन की टोकाटाकी तथा छुआछूत की आदत के कारण कभीकभी उसे लगता था कि उस का सांस लेना ही दूभर हो गया है. इस के साथ उन का एक ही जुमला दोहराना कि ‘हम सरयूपारीय ब्राह्मण हैं, तुम भूल सकते हो पर मैं नहीं,’ उसे अपराधबोध से जकड़ने लगा था. गलती शायद उन की भी नहीं थी, बचपन से जो जिस माहौल में पलाबढ़ा हो, उस के लिए इन सब को एकाएक छोड़ पाना संभव ही नहीं है. इन हालात में घर संभालना ही कठिन हो रहा था इसलिए नौकरी से त्यागपत्र दे दिया.

3 दिन तक मांजी को आईसीयू में रखा गया. दवाओं के बावजूद वे स्टेबल नहीं हो पा रही थीं. डाक्टर इस चिंता में थे कि कहीं इस का कारण, उन को दिया गया खून तो नहीं है, शायद उन का शरीर उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है. रामू लगातार अनुज्ञा को देखने आता रहा था. जब वह घर जाती तब वह उस के पास बैठा रहता. शीतल और शैलजा की परीक्षाएं चल रही थीं. अंतिम 2 पेपर बाकी थे इसलिए वे भी उस के पास ज्यादा देर तक बैठ नहीं पा रही थीं. सच तो यह है कि रामू के कारण वह संकट की इस घड़ी को आसानी से पार कर गई थी.

अमित भी सूचना पा कर शीघ्र लौट आए थे. आखिर 5वें दिन उन की हालत में थोड़ा सुधार आना प्रारंभ हुआ, तब चैन आया. मांजी को आईसीयू से प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उसी दिन शीतल और शैलजा के पेपर समाप्त हुए थे. वे भी मांजी से मिलने आई थीं. उसी समय रामू भी मांजी का हालचाल लेने पहुंच गया. उसे देखते ही शीतल ने मांजी की ओर देखते हुए कहा, ‘दादी, रामू की सहायता से ही ममा आप को अस्पताल ले कर आ पाईं.’

‘क्या इस ने मुझे छूआ…?’ मांजी ने हकबका कर कहा.

‘दादी, रामू ने छुआ ही नहीं आप को अपना खून भी दिया,’ शैलजा ने कहा.

‘क्या कहा तू ने, इस का खून मुझे चढ़ाया गया?’

‘हां दादी, अगर यह नहीं होता तो आप को खून नहीं मिल पाता.’

‘इस का खून मुझे क्यों चढ़ाने दिया, इस से तो मुझे मर ही जाने देते,’ मांजी ने लगभग रोंआसे स्वर में कहा.

यह सुन कर रामू ने सिर झुका दिया तथा बिना कुछ कहे चला गया.

‘मां, मेरी अनुपस्थिति में इस ने तुम्हारी सेवा की, जो काम मुझे करना चाहिए वह इस ने किया. इस का हम से कोई संबंध नहीं है, है तो सिर्फ इंसानियत का और तुम इसे गलत समझ रही हो. तुम्हें इस के खून से परहेज है क्योंकि तुम्हारी नजरों में वह नीच जाति का है. पर मां खून तो खून ही है, इस का धर्म और जाति से भला क्या वास्ता. अगर ऐसा होता तो तुम्हारा खून इस से कैसे मेल खाता. मां, हर इंसान का खून एक जैसा है, हम इंसानों ने ही कभी कार्य, कभी जाति तो कभी धर्म के आधार पर एकदूसरे को बांट दिया है.’

‘मां, यह रामू का नहीं, उस के जैसे अनेक लोगों का दोष है कि उन्होंने एक सवर्ण के घर नहीं बल्कि तथाकथित निम्नवर्ण में जन्म लिया. मां, वह छोटा नहीं, हम से बड़ा है. जहां हम अपनी गंदगी स्वयं साफ करने में झिझकते हैं, वहीं इन्हें उसे साफ करने में कोई संकोच नहीं होता. जरा सोचो, मां, अगर यह भी हमारी तरह गंदगी को साफ करने से मना कर दे तो? क्या यह दुनिया रहने लायक रह पाएगी? अमित उन की बात सुन कर चुप न रह पाए तथा उन्हें समझाते हुए कहा.

अमित की बात सुन कर आशा के विपरीत वे कुछ नहीं बोलीं पर उन की मुखमुद्रा से स्पष्ट लग रहा था कि वे कुछ सोच रही हैं. शायद, पुत्र की बात आज उन्हें सही लग रही थी पर वे चाह कर भी दिल की बात जबां पर नहीं ला पा रही थीं. नहीं कह पा रही थीं कि तू ठीक कह रहा है बेटा, आज तक व्यर्थ ही मैं इन ढकोसलों में पड़ी रही. मैं भूल गई थी, कार्य ही इंसान को महान बनाते हैं.

‘कैसी हैं मांजी आप?’ डाक्टर ने अंदर प्रवेश करते हुए पूछा. ‘अब ठीक हूं, तुम ने बचा लिया, वरना…’ मांजी ने चौंकते हुए कहा.

‘मांजी, मुझे नहीं, अपनी बहू और रामू को धन्यवाद दीजिए. यदि ये समय पर आप को यहां नहीं ला पाते या रामू अपना खून न देता तो मैं कुछ भी नहीं कर पाता,’ डाक्टर विनय ने उन से कहा.

ढाई आखर प्रेम का-भाग 2: अनुज्ञा को अमित की बात क्यों याद आ रही थी?

अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था, पहुंचते ही उन्हें ऐडमिट कर लिया गया. घाव में टांके लगाने के लिए उन्हें औपरेशन थिएटर में ले जाया जाने लगा तब उस की घबराहट देख कर रामू उसे दिलासा देता हुआ बोला, ‘मेमसाहब, धीरज रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’

उस की बात सुन कर भी वह सहज नहीं हो पा रही थी, उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी. तभी सिस्टर ने आ कर कहा, ‘चोट लगने से मरीज के माथे के पास की एक नस कट गई है जिस के कारण ब्लीडिंग काफी हो गई है. ब्लड देने की आवश्यकता पड़ेगी, यहां तो कोई ब्लडबैंक नहीं है, इस के लिए शहर जाना पड़ेगा पर इस में शायद देर हो जाए.’

‘सिस्टर, आप कुछ भी कीजिए पर मांजी को बचा लीजिए,’ अनुज्ञा की स्वर में विवशता आ गई थी. अमित की बहुत याद आ रही थी. काश, उन की बात मान कर यहां न आती तो शायद यह सब न झेलना पड़ता.

‘आप डाक्टर साहब से बात कर लीजिए.’

डाक्टर साहब से बात की तो उन्होंने कहा, ‘स्थिति गंभीर है. अगर आप की स्वीकृति हो तो हम फ्रैश खून चढ़ा

देंगे वरना…’

‘आप मेरा खून चैक कर लीजिए डाक्टर साहब पर मांजी को बचा लीजिए.’

‘मेरा भी, डाक्टर साहब,’ रामू ने कहा.

आखिर रामू का खून मांजी के खून से मैच हो गया. अनुज्ञा से स्वीकृतिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया. भरे मन से उस ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए क्योंकि इस के अलावा कोई चारा न था.

मांजी को जब रामू का खून चढ़ाया जा रहा था तब वह सोच रही थी, जिस आदमी को मांजी सदा हीन और अछूत समझ कर उस का तिरस्कार करती रही थीं वही आज उन के प्राणों का रक्षक बन गया है.

 

घर में बैडरूम से अटैच बाथरूम को धोने के लिए ड्राइंगरूम को पार करते हुए बैडरूम में घुस कर ही बाथरूम जाया जा सकता था. 3 बैडरूम का मकान होने के कारण अलग से पूजाघर नहीं बना पाए थे. स्टोर में ही मंदिर रख कर पूजाघर बना लिया था पर स्टोर भी इतना बड़ा तथा हवादार नहीं था कि उस में कोई इंसान घंटे 2 घंटे बैठ कर पूजा कर पाए. वैसे भी सुबह कई बार उसे स्वयं ही कोई न कोई सामान निकालने स्टोर में जाना ही पड़ता था जिस से मांजी की पूजा में विघ्न पड़ता था. मांजी ऐसी ढकोसलेबाजी में कुछ ज्यादा ही विश्वास करती थी. इसलिए आरती कर के वे बैडरूम में ही कुरसी डाल कर पूजा किया करती थीं.

जिस समय रामू सफाई करने आता, वही उन का पूजा का समय रहता था. कई बार उस से उस समय आने के लिए मना किया पर उस का कहना था, 9 से 5 बजे तक मेरी नगरनिगम के औफिस में ड्यूटी रहती है, यदि इस समय सफाई नहीं कर पाया तो शाम के 5 बजे के बाद ही आ पाऊंगा.

मजबूरी के चलते उस का आना उसी समय होता था. उस के आते ही मांजी उसे हिकारत की नजर से देखते हुए अपनी साड़ी के पल्लू से अपनी नाक ढक लेती थीं तथा उस के जाते ही जहांजहां से उस के गुजरने की संभावना होती, पोंछा लग जाने के बाद भी फिर पोंछा लगवातीं तथा गंगाजल छिड़क कर स्थान को पवित्र करने का प्रयास करते हुए यह कहने से बाज नहीं आती थीं कि इस ने तो मेरी पूजा ही भंग कर दी.

 

अनुज्ञा चाह कर भी नहीं कह पाती थी कि वह भी तो एक इंसान है. जैसे अन्य अपना काम करते हैं वैसे ही वह भी अपना काम कर रहा है. अब उस के आने से उन की पूजा कैसे भंग हो गई. उन्हें समझाना उस के क्या अमित के बस में भी नहीं था. वैसे भी 2 पुत्रियों के बाद फैमिली प्लानिंग का औपरेशन करवाने के कारण अनुज्ञा उन्हें फूटी आंख भी नहीं सुहाती थी. दरअसल, मांजी को लगता था कि इस निर्णय के पीछे अनुज्ञा का हाथ है. किसी भी मां को अपना पुत्र कभी गलत लगता ही नहीं है, अगर कहीं कुछ गलत हो रहा है तो वह पुत्र नहीं, बहू के कारण हो रहा है. शायद, इसी मनोस्थिति के कारण सासबहू में सदा छत्तीस का आंकड़ा रहता है.

अपने इस आक्रोश को जबतब छोटीछोटी बात पर उसे जलीकटी सुना कर निकालती रहती थीं. वह तो अभ्यस्त हो चली थी लेकिन जब वे शीतल और शैलजा को अपने आक्रोश का निशाना बनातीं तब उस से सहन नहीं होता था लेकिन फिर भी घर में अशांति न हो या जैसी भी हैं, अमित की मां हैं, सोच कर वह अपने क्रोध को शांत करने का प्रयास करती थी लेकिन शीतल और शैलजा चुप नहीं रहती थीं. यही कारण था कि उन की अपनी पोतियों से भी नहीं बना करती थी.

रामू तो रामू, काम वाली कमली की 5 वर्षीय बेटी काजल भी यदि गलती से उन से छू जाती तो उसे भी वे कोसने से नहीं चूकती थीं, तुरंत साड़ी बदलतीं, काम वाली के धोए बरतन वे फिर पानी से इसलिए धुलवातीं कि कहीं उस ने प्राकृतिक मासिक चक्र के दौरान बरतन न धो दिए हों.

अनुज्ञा सोचती जिस चीज के कारण प्रकृति ने औरत को नारीत्व होने का सब से बड़ा गौरव दिया, भला उस के कारण वह ‘अपवित्र’ कैसे हो सकती है? वैसे काम वाली को सख्त हिदायत थी कि इन दिनों वह काम नहीं करेगी पर फिर भी उन्हें विश्वास नहीं था, उन के इस विचार के कारण कामवाली को 4 दिन की अतिरिक्त छुट्टी देनी पड़ती थी.

तेंदूपत्ता- अमेरिका की ईसाई मिशनरी को किसने संभाला था?

शर्मिष्ठा ने कार को धीमा करते हुए ब्रैक लगाई. झटका लगने से सहयात्री सीट पर बैठी जेनिथ, जो ऊंघ रही थी, की आंखें खुल गईं, उस ने आंखें मिचका कर आसपास देखा.

समुद्रतट के साथ लगते गांव का कुदरती नजारा. बड़ेबड़े, ऊंचेऊंचे नारियल और पाम के पेड़, सर्वत्र नयनाभिराम हरियाली.

‘‘आप का गांव आ गया?’’

‘‘लगता तो है.’’ सड़क के किनारे लगे मील के पत्थर को पढ़ते शर्मिष्ठा ने कहा. दोढाई फुट ऊंचे, आधे सफेद आधे पीले रंग से रंगे मील के पत्थर पर अंगरेजी और मलयाली भाषा में गांव का नाम और मील की संख्या लिखी थी.

‘‘यहां भाषा की समस्या होगी?’’ जेनिथ ने पूछा.

‘‘नहीं, सारे भारत में से केरल सर्वसाक्षर प्रदेश है. यहां अंगरेजी भाषा सब बोल और समझ लेते हैं. मलयाली भाषा के साथसाथ अंगरेजी भाषा में बोलचाल सामान्य है.’’

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‘‘तुम यहां पहले कभी आई हो?’’

‘‘नहीं, यह मेरा जन्मस्थान है, ऐसा बताते हैं. मगर मैं ने होश अमेरिका की ईसाई मिशनरी में संभाला था.’’ शर्मिष्ठा ने कहा.

‘‘तुम्हारी मेरी जीवनगाथा बिलकुल एकसमान है.’’

कार से उतर कर दोनों ने इधरउधर देखा. चारों तरफ फैले लंबेचौड़े धान के खेतों में धान की मोटीभारी बालियां लिए ऊंचेऊंचे पौधे लहरा रहे थे.

समुद्र से उठती ठंडी हवा का स्पर्श मनमस्तिष्क को ताजा कर रहा था. धान के खेतों से लगते बड़ेबड़े गुच्छों से लदे केले के पेड़ भी दिख रहे थे.

एक वृद्ध लाठी टेकता उन के समीप से गुजरा.

‘‘बाबा, यहां गांव का रास्ता कौन सा है?’’ थोड़े संकोचभरे स्वर में शर्मिष्ठा ने अंगरेजी में पूछा.

लाठी टेक कर वृद्ध खड़ा हो गया, बोला, ‘‘आप यहां बाहर से आए हो?’’ साफसुथरी अंगरेजी में उस वृद्ध ने पूछा.

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‘‘जी हां.’’

‘‘यहां किस से मिलना है?’’

‘‘कौयिम्मा नाम की एक स्त्री से.’’

‘‘वह नाथर है या नादर? इस गांव में 2 कौयिम्मा हैं. एक सवर्ण जाति की है, दूसरी दलित है. पहली, आजकल सरकारी डाकबंगले में मालिन है, खाली समय में तेंदूपत्ते तोड़ कर बीडि़यां बनाती है. दूसरी, मरणासन्न अवस्था में बिस्तर पर पड़ी है.’’

फिर उस वृद्ध ने उन को एक कच्चा वृत्ताकार रास्ता दिखाया जो सरकारी डाकबंगले को जाता था. दोनों ने उस वृद्ध, जिस का नाम जौन मिथाई था और जो धर्मांतरण कर के ईसाई बना था, का धन्यवाद किया.

कार मंथर गति से चलती, डगमगाती, कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ चली.

डाकबंगला अंगरेजों के जमाने का बना था व विशाल प्रागंण से घिरा था. चारदीवारी कहींकहीं से खस्ता थी. मगर एकमंजिली इमारत सदियों बाद भी पुख्ता थी. डाकबंगले का गेट भी पुराने जमाने की लकड़ी का बना था. गेट बंद था.

कार गेट के सामने रुकी. ‘‘यहां सुनसान है. दोपहर ढल रही है. यहां कहीं होटल होता?’’ जेनिथ ने कहा.

शर्मिष्ठा खामोश रही. उस ने कार से बाहर निकल डाकबंगले का गेट खोला और प्रागंण में झांका, सब तरफ सन्नाटा था.

एक सफेद सन के समान बालों वाली स्त्री एक क्यारी में खुरपी लिए गुड़ाई कर रही थी. उस ने सिर उठा कर शर्मिष्ठा की तरफ देखा और सधे स्वर में पूछा, ‘‘आप किस को देख रही हैं?’’

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‘‘यहां कौन रहता है?’’

‘‘कोई नहीं. सरकारी डाकबंगला है. कभीकभी कोई सरकारी अफसर यहां दौरे पर आते हैं. तब उन के रहने का इंतजाम होता है,’’ वृद्ध स्त्री ने धीमेधीमे स्वर में कहा.

‘‘आप कौन हो?’’

‘‘मैं यहां मालिन हूं. कभीकभी खाना भी पकाना पड़ता है.’’

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘मैं कौयिम्मा नाथर हूं’’

शर्मिष्ठा खामोश नजरों से क्यारी में सब्जियों की गुड़ाई करती वृद्धा को देखती रही.

उस को अपनी मां की तलाश थी. मगर उस का पूरा नाम उस को मालूम नहीं था. कौयिम्मा नाथर या कौयिम्मा नादर.

‘‘आप को यहां डाकबंगले में  ठहरना है?’’ वृद्धा ने हाथ में पकड़ी खुरपी को एक तरफ रखते हुए कहा.

‘‘यहां कोई होटल या धर्मशाला है?’’

‘‘नहीं, यहां कौन आता है?’’

‘‘खानेपीने का इंतजाम क्या है?’’

‘‘रसोईघर है, मगर खाली बरतन हैं. लकड़ी से जलने वाला चूल्हा है. गांव की हाट से सामान ला कर खाना पका देते हैं.’’

‘‘बिस्तर वगैरा?’’

‘‘उस का इंतजाम अच्छा है.’’

‘‘यहां का मैनेजर कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सरकारी रजिस्टर है. ठहरने वाला खुद ही रजिस्टर में अपना नाम, पता, मकसद सब दर्ज करता है,’’ वृद्धा साफसुथरी अंगरेजी बोल रही थी.

‘‘आप अच्छी अंगरेजी बोलती हैं. कितनी पढ़ीलिखी हैं?’’

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‘‘यहां मिडिल क्लास तक का सरकारी स्कूल है. ज्यादा ऊंची कक्षा तक का होता तो ज्यादा पढ़ जाती,’’ वृद्धा ने अपने मात्र मिडिल कक्षा यानी 8वीं कक्षा तक ही पढ़ेलिखे होने पर जैसे अफसोस किया.

शर्मिष्ठा और उस की अमेरिकन साथी जेनिथ को मात्र 8वीं कक्षा तक पढ़ीलिखी स्त्री को इतनी साफसुथरी अंगरेजी बोलने पर आश्चर्य हुआ.

वृद्धा ने एक बड़ा कमरा खोल दिया. साफसुथरा डबलबैड, पुराने जमाने का

2 बड़ेबड़े पंखों वाला खटरखटर करता सीलिंग फैन, आबनूस की मेज, बेत की कुरसियां.

चंद मिनटों बाद 2 कप कौफी और चावल के बने नमकीन कुरमुरे की प्लेट लिए कौयिम्मा नाथर आई.

‘‘आप पैसा दे दो, मैं गांव की हाट से सामान ले आऊं.’’

शर्मिष्ठा ने उस को 500 रुपए का एक नोट थमा दिया. एक थैला उठाए कौयिम्मा नाथर सधे कदमों से हाट की तरफ चली गई.

कौयिम्मा नाथर अच्छी कुक थी. उस ने शाकाहारी और मांसाहारी भोजन पकाया. मीठा हलवा भी बनाया. खाना खा दोनों सो गईं.

शाम को दोनों घूमने निकलीं. कौयिम्मा नाथर साथसाथ चली. बड़े खुले प्रागंण में ऊंचेऊंचे कगूंरों वाला मंदिर था.

‘‘यह प्राचीन मंदिर है. यहां दलितों प्रवेश निषेध है.’’

थोड़ा आगे खपरैलों से बनी हौलनुमा एक बड़ी झोंपड़ी थी. उस के ऊपर बांस से बनी बड़ी बूर्जि थी. उस पर एक सलीब टंगी थी.

‘‘यह चर्च है. जिन दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता था, वे सम्मानजनक जीवन जीने के लिए हिंदू धर्म को छोड़ कर ईसाई बन गए. उन सब ने मिल कर यह चर्च बनाया. हर रविवार को ईसाइयों का एक बड़ा समूह यहां मोमबत्ती जलाने आता है,’’ कौयिम्मा नाथर के स्वर में धर्मपरिवर्तन के लिए विवश करने वालों के प्रति रोष झलक रहा था.

मंथर गति से चलती तीनों गांव घूमने लगीं. सारा गांव बेतरतीब बसा था. कहींकहीं पक्के मकान थे, कहींकहीं खपरैलों से बनी छोटीबड़ी झोंपडि़यां.

एक बड़े मकान के प्रागंण में थोड़ीथोड़ी दूरी पर छोटीछोटी झोंपडि़यां बनी थीं.

‘‘प्रागंण की ये झोंपडि़यां क्या नौकरों के लिए हैं?’’

‘‘नहीं, ये बेटी और जंवाई की झोंपड़ी कहलाती हैं.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘अधिकांश इलाके में मातृकुल का प्रचलन है. यहां बेटियों के पति घरजंवाई बन कर रहते आए हैं. अब इस परंपरा में धीरेधीरे परिवर्तन आ रहा है,’’ कौयिम्मा नाथर ने बताया.

‘‘मगर अलगअलग स्थानों पर झोंपडि़यां?’’

‘‘यहां बेटियां बहुतायत में होती हैं. आधा दर्जन या दर्जनभर बेटियां सामान्य बात है. शादी की रस्म साधारण सी है. जो पुरुष या लड़का, बेटी को पसंद आ जाता है उस से एक धोती लड़की को दिला दी जाती है. बस, वह उस की पत्नी बन जाती है.’’

‘‘और अगर संबंधविच्छेद करना हो तो?’’

‘‘वो भी एकदम सीधे ढंग से हो जाता है. पति का बिस्तर और चटाई लपेट कर झोंपड़ी के बाहर रख दी जाती है. पति संबंधविच्छेद हुआ समझा जाता है. वह चुपचाप अपना रास्ता पकड़ता है.’’

कौयिम्मा नाथर ने विद्रूपताभरे स्वर में कहा, ‘‘मानो, पति नहीं कोई खिलौना हो जिस को दिल भरते फेंक दिया जाता है.’’ वृद्धा ने आगे कहा, ‘‘मगर इस खिलौने की भी अपनी सामाजिक हैसियत है.’’

‘‘अच्छा, वह क्या?’’ जेनिथ, जो अब तक खामोश थी, ने पूछा.

‘‘मातृकुल परंपरा में भी पिता नाम के व्यक्ति का अपना स्थान है. समाज में अपना और संतान का सम्मान पाने के लिए किसी भद्र पुरुष की पत्नी होना या कहलाना जरूरी है.’’

शर्मिष्ठा और जेनिथ को कौयिम्मा नाथर का मंतव्य समझ आ रहा था.

‘‘आप का मतलब है कि स्त्री के गर्भ में पनप रहा बच्चा चाहे किसी असम्मानित व्यक्ति का हो मगर बच्चे को समाज में सम्मान पाने के लिए उस की माता का किसी सम्मानित पुरुष

की पत्नी कहलाना जरूरी है,’’ जेनिथ ने कहा.

कौयिम्मा नाथर खामोश रही. शाम का धुंधलका गहरे अंधकार में बदल रहा था. तीनों डाकबंगले में लौट आईं.

अगली सुबह कौयिम्मा नाथर उन को नाश्ता करवाने के बाद तेंदूपत्ते की पत्तियां गोल करती, उन में तंबाकू भरती बीडि़यां बनाने बैठ गई. दोनों अपनेअपने कंधे पर कैमरा लटकाए गांव की तरफ निकलीं.

एक भारतीय लड़की और एक अंगरेज लड़की को गांव घूमते देखना ग्रामीणों के लिए सामान्य ही था. ऐसे पर्यटक वहां आतेजाते रहते थे.

चर्च का मुख्य पादरी अप्पा साहब बातूनी था. साथ ही, उस को गांव के सवर्ण या उच्च जाति वालों से खुंदक थी. सवर्ण जाति वालों के अनाचार और अपमान से त्रस्त हो कर उस ने धर्मपरिवर्तन कर ईसाईर् धर्म अपनाया था.

उस ने बताया कि कौयिम्मा नाथर एक सवर्ण जाति के परिवार से है जो गरीब परिवार था. गांव में सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन थी. जिस को आजादी से पहले तत्कालीन राजा के अधिकारी और कानूनगो ने जबरन गांव के अनेक परिवारों के नाम चढ़ा दी थी.

विवश हो उन परिवारों को खेती कर या मजदूरों से काम करवा कर राजा को लगान देना पड़ता था. एक बार लगान की वसूली के दौरान कानूनगो रास शंकरन की नजर नईनई जवान हुई कौयिम्मा नाथर पर पड़ी. उस ने उस को काबू कर लिया था.

जब उस को गर्भ ठहर गया तब कानूनगो ने कौयिम्मा को अपने एक कारिंदे कुरू कुनाल नाथर से धोती दिला दी थी. इस प्रकार कुरू नाथर कौयिम्मा का पति बन कर उस की झोंपड़ी में सोने लगा था.

जब कौयिम्मा नाथर को बेटी के रूप में एक संतान हो गई तब उस ने एक दोपहर कुरू कुनाल नाथर का बिस्तर और चटाई दरवाजे के बाहर रख दी. शाम को जब कुरू कुनाल नाथर लौटा तब उस को दरवाजा बंद मिला. तब वह चुपचाप अपना बिस्तर उठा किसी अन्य स्त्री को धोती देने चला गया.

बेटी का भविष्य भी मेरे ही समान न हो, इस आशय से कौयिम्मा नाथर ने एक रोज अपनी बेटी को ईसाई मिशनरी के अनाथालय में दे दिया था. वहां से वह बेटी केंद्रीय मिशनरी के अनाथालय में चली गई थी.

इतना वृतांत बताने के बाद पादरी खामोश हो गए. आगे की कहानी शर्मिष्ठा को मालूम थी. ईसाई मिशनरी के केंद्रीय अनाथालय से उस को अमेरिका में रहने वाले निसंतान दंपती ने गोद ले लिया था.

अब शर्मिष्ठा मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत थी. जब उस को पता चला था कि वह घोष दंपती की गोद ली

संतान है तो वह अपने वास्तविक मातापिता का पता लगाने के लिए भारत चली आई.

माता का पता चल गया था. पिता दो थे. एक जिस ने माता को गर्भवती किया था. दूसरा, जिस ने माता को समाज में सम्मान बनाए रखने के लिए धोती दी थी.

 

अजीब विडंबनात्मक स्थिति थी. सारे गांव को मालूम था. कौयिम्मा नाथर का असल पति कौन था. धोती देने वाला कौन था. तब भी थोथा सम्मान थोथी मानप्रतिष्ठा.

रिटायर्ड कानूनगो बीमार पड़ा था. उस के बड़े हवेलीनुमा मकान में पुरुषों की संख्या की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या काफी ज्यादा थी. अपने सेवाकाल में पद के रोब में कानूनगो ने पता नहीं कितनी स्त्रियों को अपना शिकार बनाया था. बाद में बच्चे की वैध संतान कहलाने के लिए उस स्त्री को किसी जरूरतमंद से धोती दिला दी थी.

बाद में वही संतान अगर लड़की हुई, तो उस को बड़ी होने पर कोई प्रभावशाली भोगता और बाद में उस को धोती दिला दी जाती.

यह बहाना बना कर कि वे दोनों पुराने जमाने की हवेलियों पर पुस्तक लिख रही हैं, शर्मिष्ठा और जेनिथ हवेली और उस के कामुक मालिक को देख कर वापस लौट गईं.

धोती देने वाला पिता मंदिर के प्रागंण में बने एक कमरे में आश्रय लिए पड़ा था. उस को मंदिर से रोजाना भात और तरकारी मिल जाती थी. उस की इस स्थिति को देख कर शर्मिष्ठा दुखी हुई. मगर वह क्या कर सकती थी. दोनों चुपचाप डाकबंगले में लौट आईं.

दोनों पिताओं में किसी को भी शर्मिष्ठा अपना पिता नहीं कह सकती थी. मगर क्या माता उस को स्वीकार कर अपनी बेटी कहेगी? यह देखना था.

‘‘मुझे अपनी मां को पाना है, वे इसी गांव की निवासी हैं, क्या आप मदद कर सकती हैं?’’ अगली सुबह नाश्ता करते शर्मिष्ठा ने वृद्धा से सीधा सवाल किया.

‘‘उस का नाम क्या है?’’

‘‘कौयिम्मा.’’

‘‘नाथर या नादर?’’

‘‘मालूम नहीं. बस, इतना मालूम है कि कौयिम्मा है. उस ने मुझे यहां कि ईसाई मिशनरी के अनाथालय में डाल दिया था.’’

‘‘अब आप कहां रहती हो?’’

‘‘मैं अमेरिका में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में हूं. मुझे गोद लेने वाले मातापिता अमीर और प्रतिष्ठित हैं.’’

‘‘मां को ढूंढ़ कर क्या करोगी?’’

‘‘मां, मां होती है.’’

बेटी के इन शब्दों को सुन कर मां की आंखें भर आईं, वह मुंह फेर कर बाहर चली आई. रसोई में काम करते कौयिम्मा सोच रही थी, क्या करे, क्या उस को बताए कि वह उस की मां

थी. मगर ऐसे में उस का भविष्य नहीं बिगड़ जाएगा.

अनाथालय ने ब्लैकहोल के समान शर्मिष्ठा के बैकग्राउंड, उस के अतीत को चूस कर उस को सिर्फ एक अनाथ की संज्ञा दे दी थी. जिस का न कोई धर्म था न कोई जाति या वर्ग. वहां वह सिर्फ एक अनाथ थी.

अब वह एक सम्मानित परिवार की बेटी थी. वैल स्टैंड थी. कौयिम्मा नाथर द्वारा यह स्वीकार करने पर कि वह उस कि मां थी, उस पर एक अवैध संतान होने का धब्बा लग सकता था.

 

एक निश्चय कर कौयिम्मा नाथर

रसोई से बाहर आई. ‘‘मेम साहब,

आप को शायद गलतफहमी हो गई है. इस गांव में 2 कौयिम्मा हैं. एक मैं कौयिम्मा नाथर, दूसरी कौयिम्मा नादर. दोनों ही अविवाहित हैं. आप ने गांव कौन सा बताया है?’’

‘‘अप्पा नाडू.’’

‘‘यहां 3 गांवों के नाम अप्पा नाडू हैं. 2 यहां से अगली तहसील में पड़ते हैं. वहां पता करें.’’

शर्मिष्ठा खामोश थी. जेनिथ भी खामोश थी. मां बेटी को अपनी बेटी स्वीकार नहीं कर रही थी. कारण? कहीं उस का भविष्य न बिगड़ जाए. पिता को पिता कैसे कहे? कौन से पिता को पिता कहे.

कार में बैठने से पहले एक नोटों का बंडल बिना गिने बख्शिश के तौर पर शर्मिष्ठा ने अपनी जननी को थमाया और उस को प्रणाम कर कार में बैठ गई. कार वापस मुड़ गई.

‘‘कोई मां इतनी त्यागमयी भी होती है?’’ जेनिथ ने कहा.

‘‘मां मां होती है,’’ अश्रुपूरित नेत्रों से शर्मिष्ठा ने कहा. कार गति पकड़ती जा रही थी.

ढाई आखर प्रेम का-भाग 1: अनुज्ञा को अमित की बात क्यों याद आ रही थी?

‘‘मांजी, देखिए तो कौन आया है,’’ अनुज्ञा ने अपनी सासूमां के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा.

‘‘कौन आया है, बहू…’’ उन्होंने उठ कर चश्मा लगाते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘‘पहचानिए तो,’’ अनुज्ञा ने एक युवक को उन के सामने खड़े करते हुए कहा.

‘‘दादीजी, प्रणाम,’’ वे कुछ कह पातीं इस से पूर्व ही उस युवक ने उन के चरणों में झुकते हुए कहा.

‘‘तू चंदू है?’’

‘‘हां दादीजी, मैं चंद्रशेखर.’’

‘‘अरे, वही तो, बहुत दिन बाद आया है. कैसी चल रही है तेरी पढ़ाई?’’ उसे अपने पास बिठाते हुए मांजी ने कहा.

‘‘दादीमां, पढ़ाई अच्छी चल रही है, आप के आशीर्वाद से नौकरी भी मिल गई है, पढ़ाई समाप्त होते ही मैं नौकरी जौइन कर लूंगा. सैमेस्टर समाप्त होने पर हफ्तेभर की छुट्टी मिली थी, इसलिए आप सब से मिलने चला आया.’’

‘‘यह तो बहुत खुशी की बात है. सुना बहू, इसे नौकरी मिल गई है. इस का मुंह तो मीठा करा. और हां, चाय भी बना लाना.’’

मांजी के निर्देशानुसार अनुज्ञा रसोई में गई. चाय बनाने के लिए गैस पर पानी रखा पर मस्तिष्क में अनायास ही वर्षों पूर्व की वह घटना मंडराने लगी जिस के कारण उस की जिंदगी में एक सुखद परिवर्तन आ गया था.

दिसंबर की हाड़कंपाती ठंड वाला दिन था. अमित टूर पर गए थे, शीतल और शैलजा को स्कूल भेजने के बाद वह रसोई में सुबह का काम निबटा रही थी कि गिरने की आवाज के साथ ही कराहने की आवाज सुन कर वह गैस बंद कर अंदर भागी तो देखा उस की सासूमां नीचे गिरी पड़ी हैं. अलमारी से अपने कपड़े निकालने के क्रम में शायद उन का संतुलन बिगड़ गया था और उन का सिर लोहे की अलमारी में चूड़ी रखने के लिए बने भाग से टकरा गया था, उस का नुकीला सिरा माथे से कनपटी तक चीरता चला गया जिस के कारण खून की धार बह निकली थी. वे बुरी तरह तड़प रही थीं.

उस ने तुरंत एक कपड़ा उन के माथे से बांध दिया, हाथ से कस कर दबाने के बाद भी खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था तथा मांजी धीरेधीरे अचेत होती जा रही थीं. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

आसपास ऐसा कोई नहीं था जिस से वह सहायता ले पाती, अमित के स्थानांतरण के कारण वे 2 महीने पूर्व ही इस कसबे में आए थे, घर को व्यवस्थित करने तथा बच्चों के ऐडमिशन के कारण वह इतनी व्यस्त रही कि किसी से जानपहचान ही नहीं हो पाई. घर भी बस्ती से दूर ही मिला था, घर अच्छा लगा, इसलिए ले लिया था.

15 वर्ष बड़े शहर में नौकरी के बाद इस छोटे से कसबे कासिमपुर में पोस्टिंग से अमित बच्चों की पढ़ाई को ले कर परेशान थे. उन का कहना था कि तुम बच्चों को ले कर यहीं रहो पर अनुज्ञा का मानना था कि वहां भी तो स्कूल होंगे ही. अभी बच्चे छोटे हैं, सब मैनेज हो जाएगा. दरअसल, वह मांजी के उग्र स्वभाव के कारण छोटे बच्चों को ले कर अलग नहीं रहना चाहती थी. उन की चिंता का शीघ्र ही निवारण हो गया जब उन्हें पता चला कि यहां डीएवी स्कूल की एक ब्रांच है तथा उस का रिजल्ट भी अच्छा रहता है.

मांजी के कराहने की आवाज उसे बेचैन कर रही थी, सारी बातों से ध्यान हटा कर उस ने सोचा, टैलीफोन कर के एंबुलेंस को बुलवाए. टैलीफोन उठाया तो वह डैड था. उस समय मोबाइल तो क्या हर घर में टैलीफोन भी नहीं हुआ करते थे. अगर थे भी तो वे लाइन में गड़बड़ी के कारण अकसर बंद ही रहते थे. अगर चलते भी थे तो आवाज ठीक से सुनाई नहीं देती थी. एसटीडी करने के लिए कौल बुक करनी पड़ती थी. अर्जेंट कौल भी कभीकभी 1 से 2 घंटे का समय ले लिया करती थी.

 

मांजी की हालत देख कर उस दिन जिस तरह से वह स्वयं को लाचार व बेबस महसूस कर रही थी, वैसा उस ने कभी महसूस नहीं किया था. आत्मनिर्भरता उस में कूटकूट कर भरी थी. वह एक कंपनी में सोशल वैलफेयर औफिसर थी. विवाह के पूर्व तथा पश्चात भी उस ने कार्य जारी रखा था.

अभी सोच ही रही थी कि क्या करे, तभी डोरबैल बजी, मांजी को वहीं लिटा कर उस ने जल्दी से दरवाजा खोला तो सामने रामू को देख कर संतोष की सांस लेते हुए, उस से कहा, ‘तू जरा मांजी के पास बैठ कर उन के माथे को दबा कर रख. मैं तब तक गाड़ी निकालती हूं.’

‘क्या हुआ मांजी को?’ चिंतित स्वर में रामू ने पूछा.

‘वे गिर गई हैं, उन के माथे से खून बह रहा है जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा. प्लीज, मेरी मदद कर.’

‘लेकिन मैं?’ वह उस का प्रस्ताव सुन कर हड़बड़ा गया था.

‘मैं तेरी हिचकिचाहट समझ सकती हूं पर इस समय इस के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है, प्लीज मदद कर,’ अनुज्ञा की आवाज में दयनीयता आ गई थी.

वह मांजी की छुआछूत के बारे में जानती थी पर इस समय रामू की सहायता लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं था, यह तो गनीमत थी कि उसे कार चलानी आती थी.

अब वह अकेली नहीं थी. रामू भी साथ में था. उस ने रामू की सहायता से मांजी को गाड़ी में लिटाया तथा ताला बंद कर बच्चों के नाम एक स्लिप छोड़ कर ड्राइव करने ही वाली थी कि रामू ने स्वयं ही कहा, ‘मेमसाहब, हम भी चलें क्या?’

‘तुझे तो चलना ही होगा. यहां जो भी अच्छा अस्पताल हो, वहां ले कर चल. और हां, मांजी को पकड़ कर बैठना.’

हड़बड़ी में वह उसे बैठने के लिए कहना भूल गई थी. वैसे भी एक से भले दो, न जाने कब क्या जरूरत आ जाए. नई जगह भागदौड़ के लिए एक आदमी साथ रहेगा तो अच्छा है.

अत्यधिक खून बहने के कारण मांजी अचेत हो गई थीं, घबराहट में वह भूल ही गई थी कि यदि कहीं से खून निकल रहा हो तो उस स्थान पर बर्फ रख देने से खून के बहाव को रोका जा सकता है. मांजी अचेत थीं, ब्लडप्रैशर के साथ डायबिटीज की भी उन्हें शिकायत थी. शायद इसीलिए उस के पट्टी बांधने के बावजूद खून का बहना नहीं रुक पा रहा था.

कांग्रेस : सवाल नेतृत्व का 

कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्लूसी) की ऑनलाइन मीटिंग में मचे घमासान के बाद यह तो तय हो गया कि फिलहाल कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सोनिया गाँधी के अलावा किसी भी कांग्रेसी नेता को सर्वसम्मति से चुना जाना मुश्किल खीर है. राहुल गाँधी को लेकर भले कुछ लोग नाक-भौं चढ़ाते हों, मगर गांधी परिवार के अलावा किसी भी अन्य कांग्रेसी नेता के नाम पर पूरी पार्टी की एकमत से ‘हाँ’ हो पाना संभव नहीं है. पार्टी में खेमेबाज़ी चरम पर है. अंदर ही अंदर कई गुट बन गए हैं. पुराने घिसे चावल अलग, नए खिले चावल अलग. गौरतलब है कि राहुल गाँधी के इस्तीफा देने के बाद सोनिया गाँधी बीते एक साल से पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं. पार्टी के भीतर जड़ें जमाये बैठे बुज़ुर्ग दरख्तों के बीच काफी समय से हलचल मची हुई है कि इस पद पर गांधी परिवार से बाहर का कोई आदमी काबिज़ हो जाए, जिसको वे अपनी उँगलियों पर नचा सकें. जिसको सामने रख कर वे पार्टी में अपनी मर्ज़ी चला सकें. जो इन खाये-अघाये नेताओं की ओर आंख उठाने या सवाल उठाने की जुर्रत ना कर सके. और फिर सोनिया गांधी कब तक अंतरिम अध्यक्ष बनी रह सकती हैं, वो भी तब जब उनका स्वास्थ साथ नहीं दे रहा है. वे अब उस तरह सक्रीय भी नहीं रह पाती हैं जैसा पहले रहा करती थीं. बुज़ुर्ग दरख्तों ने नए अध्यक्ष के लिए खिचड़ी पकानी शुरू कर दी, लेकिन 24 अगस्त को हुई सीडब्लूसी की मीटिंग में पता चला कि खिचड़ी जल गयी और जले के निशान इतने गहरे कि ‘अब तो इन्हें रगड़ना पड़ेगा’. खैर कांग्रेस के पास दाग साफ़ करने के लिए फिर एक साल का समय है क्योंकि मीटिंग में काफी मान-मन्नौवल के बाद सोनिया गाँधी ने अगले एक साल तक अंतरिम अध्यक्ष पद पर बने रहना स्वीकार कर लिया है.

यह बात ठीक है कि किसी भी राजनितिक पार्टी की मजबूती और पार्टी के कामों को सुचारु रूप से चलाने के लिए स्थाई और सक्रीय अध्यक्ष का होना ज़रूरी है. स्थाई अध्यक्ष के लिए खुद सोनिया गाँधी भी चिंतित हैं और इसीलिए उन्होंने सीडब्लूसी की मीटिंग में यह बात कही कि अब पार्टी को उन्हें इस जिम्मेदारी से मुक्त करने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए, यानी नए अध्यक्ष की खोज होनी चाहिए. हालांकि यह बात उन्होंने उस चिट्ठी से आहत होकर कही जो कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने उनको उस वक़्त लिखी थी, जब वे बीमार थीं और अस्पताल में भर्ती थीं. नेतृत्व परिवर्तन को लेकर लिखी इसी चिट्ठी पर सीडब्लूसी की ऑनलाइन बैठक में खूब बवाल मचा. पहले ये सोचा जा रहा था कि सीडब्लूसी की बैठक नए अध्यक्ष के नाम की घोषणा के लिए होगी, कई नाम भी हवा में उछल रहे थे, लेकिन पूरी बैठक चिट्ठी के इर्द-गिर्द ही बनी रही. चिठ्ठी पर आंसू बहे, माफियां मांगी गयीं, मान-मन्नौवल हुआ, कुछ नेताओं को राहुल गाँधी ने रगड़ा, कुछ को प्रियंका ने धोया, कुछ तिलमिला कर बैठक के बीच ही ट्वीट-ट्वीट खेलने लगे तो एक सज्जन ने तो बकायदा अपने खून से पत्र लिख डाला. कुल जमा यह कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी की पूरे दिन की बैठक लेटर बम के धुएं में गुज़र गयी और अंत में यही तय हुआ कि अध्यक्ष पद पर अभी सोनिया गाँधी ही बनी रहेंगी.

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सोनिया गाँधी का स्वस्थ ठीक नहीं रहता है, बीते कुछ समय के दौरान वे कई बार अस्पताल में भी दाखिल रही हैं. वो खुद अब पार्टी की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर आराम करना चाहती हैं, लेकिन नया अध्यक्ष क्या गाँधी परिवार से बाहर का कोई हो सकता है? क्या है इतना दम किसी में कि पूरी पार्टी  को अपने अनुसार चला ले? क्या है ऐसा कोई चेहरा कि तमाम कांग्रेसी कार्यकर्ता, समर्थक, नए-पुराने बूढ़े-जवान नेता और खुद गांधी परिवार जिसके पीछे चल सके? है कोई चेहरा जो जनता के वोट कांग्रेस की झोली में खींच सके? और सबसे ख़ास बात यह कि क्या गाँधी परिवार के अलावा कोई ऐसा है जो पार्टी में जड़ें जमाये बैठे और ब्राह्मणवादी सोच से लबरेज़ घाघ नेताओं की करतूतों पर उन्हें खुलेआम खरी खोटी सुनाने का दम रखता है? शायद नहीं.

हम भारतीय जनता पार्टी पर उंगली उठाते हैं कि वहां मनुवादी सोच और व्यवस्था को कायम करने वाले लोगों का वर्चस्व है. नरेंद्र मोदी को आगे रख कर ब्राह्मणवादी विचारधारा अमरबेल की तरह फल-फूल रही है. मगर ये बीमारी तो कांग्रेस में भी है. यहां भी सवर्ण और ब्राह्मण नेताओ की जकड़ में पार्टी छटपटा रही है, जो काम कम षड्यंत्र ज़्यादा करते हैं. सच पूछें तो इन्ही के द्वारा अनुसूचित या पिछड़ी जाति के व्यक्ति को अध्यक्ष बनाने की वकालत लम्बे समय से हो रही है. इस सिलसिले में कभी मीरा कुमार का नाम उछाला जाता है तो कभी मुकुल वासनिक का. क्योंकि निम्न जाति के व्यक्ति को अध्यक्ष पद पर बिठा कर सवर्ण जाति के नेताओं के लिए उसको उँगलियों पर नचाना आसान होगा. उसको सामने रख कर मनुवाद का विस्तार आसानी से किया जा सकता है. ब्राह्मणवादी विचारधारा को पोसने वाले इन नेताओं का ऐशो-आराम, ताकत, अधिकार और दबदबा पार्टी में कायम रहेगा. काम करेगा नीची जाति का व्यक्ति और ऐश करेंगे सवर्ण जाति के नेता. कांग्रेस में सिर्फ एक गांधी परिवार ही है जिसके आगे इन मनुवादियों की दाल नहीं गलती है. गाँधी परिवार भले चुनाव के वक़्त मंदिरों के फेरे लगा ले, जनेऊ धारण कर ले, तिलक लगा ले या आरती में शरीक हो जाए, लेकिन सही मायनों में इस परिवार की रगों में वही विविधता खून के साथ बह रही है जिस विविधता के लिए भारत दुनिया भर में जाना जाता है.

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नेहरू जहाँ खुद को कश्मीरी पंडित कहते थे, वहीँ उनकी पुत्री इंदिरा गाँधी ने फ़िरोज़ गाँधी से शादी की, जिनके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि वे पारसी थे तो कुछ मानते हैं कि वो मुसलमान थे. इंदिरा और फ़िरोज़ की संतान राजीव ने जहाँ इटालियन ईसाई महिला एंटोनिया एडविजे अल्बिना मेनो उर्फ़ सोनिया गाँधी से विवाह किया, वहीँ संजय गाँधी ने सरदार बाला मेनका से शादी की. राजीव और सोनिया की पुत्री प्रियंका गाँधी ईसाई धर्म को मानने वाले रोबर्ट वाड्रा से शादी करके प्रियंका गांधी वाड्रा कहलाती हैं. सच पूछें तो गाँधी परिवार को विविधधर्मी या गैर धार्मिक परिवार कहा जा सकता है. मनुवादी बंदिशों को तोड़ कर और धर्म के संकीर्ण दायरों से ऊपर उठ कर देश-दुनिया को देखने का नज़रिया सिर्फ उन्हीं के पास हैं. ऐसे में ब्राह्मणवादी संकीर्ण सोच में बंधे नेताओं के लिए गाँधी परिवार पर काबू पाना या उनको अपने मन मुताबिक संचालित करना असंभव ही है. यह बात सीडब्लूसी की बैठक में भी साफ़ हो गयी जब राहुल गांधी की एक लताड़ खा कर कुछ नेता माफी मांगने लगे तो कुछ ने इस्तीफे तक की पेशकश कर दी.

सीडब्लूसी की पूरी बैठक में घमासान उस चिट्ठी को ले कर मचा रहा जो गुलाम नबी आज़ाद की अगुआई में कांग्रेस के बाइस नेताओं ने ‘नेतृत्व परिवर्तन’ के लिए सोनिया गाँधी को तब लिखी जब वे बीमार थीं और अस्पताल में भर्ती थीं. इस चिट्ठी को लेकर पूरा गाँधी परिवार तमतमाया हुआ था. बैठक में राहुल गाँधी ने चिठ्ठी भेजने के वक़्त पर आपत्ति उठाते हुए पूछा कि – ‘सोनिया गांधी के अस्पताल में भर्ती होने के समय ही पार्टी नेतृत्व को लेकर पत्र क्यों भेजा गया था?’ उन्होंने कहा –  ‘पार्टी नेतृत्व के बारे में सोनिया गांधी को पत्र उस समय लिखा गया जब वे बीमार थीं और दूसरी तरफ राजस्थान में कांग्रेस सरकार संकट का सामना कर रही थी.’ राहुल ने इन नेताओ की करनी पर नाराज़गी जताते हुए यह भी कहा कि पत्र में जो लिखा गया था उस पर चर्चा करने का सही स्थान सीडब्ल्यूसी की बैठक है, मीडिया नहीं. उन्‍होंने आरोप लगाया कि यह पत्र भाजपा के साथ मिलीभगत से लिखा गया है.

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प्रियंका गाँधी वाड्रा ने भी भाई की नाराज़गी को सही ठहराते हुए चिठ्ठी लिखने वाले वरिष्ठ कांग्रेसियों की आलोचना की और नेताओं को दोहरे चरित्र का बताया. कांग्रेस के पुराने नेता और गाँधी परिवार के करीबी एके एंटनी ने तो साफ़ कहा कि – ‘चिट्ठी से ज्यादा, चिट्ठी में लिखी गईं बातें क्रूर थीं. इन नेताओं को पार्टी के लिए सोनिया गांधी के बलिदानों को याद रखना चाहिए.’  हरियाणा कांग्रेस की नेता कुमारी शैलजा ने भी पत्र लिखने वालों पर हमला बोलते हुए यह कह दिया कि वो भाजपा के एजेंट की तरह काम कर रहे हैं.
भाजपा से मिलीभगत के आरोप पर गुलाम नबी आजाद चिढ़ गए. आजाद राज्‍यसभा में कांग्रेस के नेता हैं. उनकी अगुवाई में ही वरिष्‍ठ कांग्रेसियों ने सोनिया को चिट्ठी लिखी थी. आजाद ने कहा कि अगर भाजपा से सांठ-गांठ के आरोप सिद्ध होते हैं तो मैं त्‍यागपत्र दे दूंगा.

कपिल सिब्बल भी भाजपा से मिलीभगत के आरोप पर खूब तिलमिलाए और उन्होंने बैठक के दौरान ही ट्वीट किया –  ‘राजस्‍थान हाई कोर्ट में कांग्रेस पार्टी को सफलतापूर्वक डिफेंड किया. मणिपुर में बीजेपी सरकार गिराने में पार्टी का बचाव किया. पिछले 30 साल में किसी मुद्दे पर बीजेपी के पक्ष में कोई बयान नहीं दिया. लेकिन फिर भी हम ‘बीजेपी के साथ मिलीभगत कर रहे हैं.’ हालांकि बाद में उन्‍होंने अपना यह ट्वीट डिलीट कर दिया और कहा कि राहुल गाँधी ने उन्‍हें खुद फोन करके कहा कि उन्‍होंने मिलीभगत वाली कोई बात नहीं कही है.

सोनिया को भेजी गयी चिट्ठी पर साइन करने वाले नेताओं में से एक मुकुल वासनिक तो अपनी बात कहते हुए इतने भावुक हो गए कि उनकी आँखें नम हो गयीं. नए अध्यक्ष के तौर पर मुकुल वासनिक का नाम खूब उछल रहा था, उन्हें उम्मीद भी थी कि सीडब्लूसी की बैठक में उनके नाम पर मुहर लग जाएगी, लेकिन मामला ऐसा पलटा कि आँख में आंसू भर कर उन्हें कहना पड़ा कि अहमद पटेल से ज्यादा मैंने सोनिया गांधी से सीखा है. मैं उनका शुक्रगुजार हूँ. उन्होंने मुझे हर चीज सिखाई. उन्हीं की वजह से मैं आज यहां तक पहुंचा हूँ. अगर मुझसे कोई गलती हो गई है तो मैं उसके लिए माफी मांगता हूँ. उल्लेखनीय है कि मुकुल वासनिक को राजनीती में लाने वाले राजीव गाँधी थे. मुकुल राजीव गाँधी कैबिनेट में मंत्री रह चुके हैं.

दरअसल सोनिया गाँधी को नेतृत्व परिवर्तन और स्थाई अध्यक्ष की ज़रूरत पर चिट्ठी लिखने वालों में तीन तरह के नेता हैं –  एक वो, जिन्हें पार्टी में जो कुछ मनमाने ढंग से चल रहा है उसका दुख है. दूसरे वो नेता हैं, जिन्हें राहुल गाँधी के साथ काम करने में हिचकिचाहट है और तीसरे वो कांग्रेस नेता हैं, जो वाक़ई में पार्टी को नुक़सान पहुँचाना चाहते हैं, जिसको लगता है कि पार्टी में उनका अच्छा नहीं हो रहा है. उनका वर्चस्व कायम नहीं हो पा रहा है और वो मनमानी नहीं कर पा रहे हैं. कांग्रेस को ख़तरा तीसरे प्रकार के नेताओं से है, जिनकी मंशा अगर फलीभूत हो गयी तो ये कांग्रेस को भी मनुवादियों की पार्टी बनाने में देर नहीं करेंगे.
कुछ लोगों का मांनना यह भी है कि वैसे तो राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष नहीं है, लेकिन वास्तव में अध्यक्ष ही बने हुए हैं. उनकी 100 में से 70 बात आज भी मान ली जाती हैं. आज पार्टी में राहुल का रोल क्या हो, ये बात अधर में अटकी है, वो ना ख़ुद अध्यक्ष बन रहे हैं और ना दूसरे को बनने दे रहे है, ये बात ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकती, इसलिए पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होना ही चाहिए. हालांकि जानकारों का मानना है कि राहुल गाँधी अगर आज भी अध्यक्ष बनने के लिए अपना मन बना लें तो वो बिना किसी मुश्किल के दोबारा अध्यक्ष बन सकते हैं, लेकिन वे अध्यक्ष ना बनने की अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं. खैर, उनकी ये ज़िद कब टूटेगी कह नहीं सकते, मगर सीडब्लूसी की मीटिंग के बाद सोनिया गांधी को इतनी मोहलत अवश्य मिल गई है, कि पार्टी में जो रायता फैला है उसे समेट लिया जाए.

राहुल गाँधी ने जब चुनाव बाद हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, तब उन्होंने लिखा था कि मेरा संघर्ष कभी भी राजनीतिक सत्ता के लिए साधारण लड़ाई नहीं रहा है. मुझे भाजपा के प्रति कोई नफतर या गुस्सा नहीं है लेकिन मेरे शरीर में मौजूद ख़ून का एक एक क़तरा सहज रूप से भारत के प्रति भाजपा के विचार का प्रतिरोध करता है. यह प्रतिरोध इसलिए पैदा होता है क्योंकि मेरा वजूद जिस भारत की कल्पना से बना है, उसका टकराव भाजपा के भारत की कल्पना से है. यह कोई नई लड़ाई नहीं है. हज़ारों साल से इस धरती पर जारी है. जहां वे मतभेद देखते हैं मैं समानता देखता हूँ. जहां वे नफरत देखते हैं मैं प्रेम देखता हूँ. जहां वे भय देखते हैं मैं गले लगाता हूँ. यह भारत का विचार (आइडिया ऑफ़ इंडिया ) है जिसकी हम रक्षा करेंगे. राहुल ने लिखा कि देश और संविधान पर हो रहा हमला हमारे देश के ताने-बाने को नष्ट करने के लिए हो रहा है. मैं किसी भी तरह से इस लड़ाई से पीछे नहीं हट रहा हूँ. मै कांग्रेस का निष्ठावान सिपाही हूं और भारत का एक समर्पित बेटा हूँ. अपनी अंतिम सांस तक उसकी सेवा और सुरक्षा करता रहूंगा.

एक राजनीतिक दल का नेता, कार्यकर्ता और अध्यक्ष होने के नाते राहुल गांधी ने जो विचार दिए, गाँधी परिवार के अलावा ऐसे विचार किसी भी अन्य कांग्रेसी की बातों में नहीं प्रकट होते हैं. चुनाव के वक़्त कांग्रेस में पैठ जमाये मनुवादी विचारधारा के नेता राहुल और प्रियंका पर दबाव डालते हैं खुद को हिन्दू साबित करने की, मंदिरों और घाटों पर जाकर पूजा अर्चना करने की, तिलक और जनेऊ धारण करने की. इस दबाव में आकर उन्होंने पिछले चुनावों में खुद पर नरम हिंदुत्व का ठप्पा भी लगवा लिया. इस बात का अहसास उन्हें भी बखूबी है और राहुल गांधी का इस्तीफा और इस्तीफे के बाद लिखा गया उनका पत्र यह बताने की कोशिश है कि अब वे मनुवादी विचारधारा वाले किसी भी दबाव को नहीं झेलना चाहते हैं.

राहुल के ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ के विचार असल कांग्रेसी विचारधारा है, जो उसको भाजपा और अन्य राजनीतिक पार्टियों से अलग करती है. मगर इस विचारधारा को जानने-समझने और पोषित करने की इच्छाशक्ति कांग्रेस के अन्य किसी नेता में नहीं  दिखती. यदि कांग्रेस को बचाये रखना है तो यह ज़रूरी है कि गांधी परिवार से इतर अगर किसी व्यक्ति के हाथ में पार्टी की बागडोर जाती है तो वह इस काबिल हो कि इस विचारधारा को आत्मसात कर सके और इसी के मुताबिक़ पार्टी को आगे बढ़ाने की ताकत रखे. राहुल गाँधी अगर अध्यक्ष पद पर पुनः काबिज़ होते हैं तो ठीक, वरना आल इंडिया कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में यदि नए अध्यक्ष के लिए चुनाव की घोषणा होती है तो आवश्यक और अनुकूल परिस्थितियां तैयार करने के साथ ही यह भी देखना होगा कि अध्यक्ष पद की चाहत लेकर मैदान में वही उतरे जो कांग्रेस की खांटी विचारधारा को आगे ले जा सके, ना कि भाजपा का एजेंट बन कर पार्टी को मटियामेट कर दे.

चर्चा में हुंडई वरना का इंजन, सबकुछ है परफेक्ट और नया

हुंडई वरना के स्टाइलिश लुक के अलावा इसे पसंद करने की एक खास वजह इसका इंजन भी है. नई वरना में 1.5 लीटर डीजल इंजन की वजह से 113 बीएचपी और 25.5kmpl टार्क तक का माइलेज मिलेगा. नई वरना 115 हॉर्स पावर वाले 1.5 लीटर डीजल इंजन के साथ लॉन्च हुई है, जो माइलेज के मामले में पुराने मॉडल से काफी बेहतर है.

वहीं इस कार में नेचुरली एस्पीरेटेड पेट्रोल इंजन है, जो 114 हॉर्स पावर की ताकत के साथ मिलेगा यानी जरूरत पड़े पर आप इसे अपने हिसाब से बढ़ा सकते हैं. साथ ही डीज़ल इंजन का मजबूत मिड-रेंज टॉर्कआपको इन-गियर एक्सीलेरेशन देता है, जिससे ड्राइव करते समय आपको बार-बार गियर शिफ्ट करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. जो आपकी ड्राइव को आसान बनाने के लिए काफी है. यानी ये दोनों वर्ल्ड बेस्ट इंजन हैं और इसिलए वरना #BetterThanTheRest है.

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