राजनीति में एससीबीसी नेता हमेशा मोहरा बनते रहे है. कभी एससीबीसी नेताओं को ऊंची जातियों के प्रभाव वाले दलों में दिखावे के पद पर बैठा दिया करते थे. जब एससीबीसी नेताओं ने अपनी जातिय राजनीति शुरू कर खुद को मजबूत बनाया तो उन दलों को तोडने का काम किया गया. इन दलों के सांसदो और विधायकों के साथ खरीद फरोख्त का काम किया गया. इन नेताओं को मजबूर करने के लिये सीबीआई और ईडी का डर भी दिखाया गया.

बिहार में लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में फंसा कर खत्म कर दिया गया. लालू का डर मुलायम और मायावती के उपर भी छाया हुआ है. इस डर की वजह से वह कभी कांग्रेस के पाले में लुढकते है कभी भाजपा के. मायावती के उपर सीबीआई और ईडी का डर बुरी तरह से छाया हुआ है. इसी डर की वजह से जब तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी वह कांग्रेस को समर्थन देती रही. जब से केन्द्र में भाजपा की सरकार है मायावती भाजपा के साथ खडी है.

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अब राजस्थान में वह भाजपा की संकटमोचक बनने के प्रयास में है. दलबदल के पूरे इतिहास को देखें तो बसपा सबसे अधिक इससे प्रभावित रही है. 1995 से लेकर 2012 तक 6 बार उत्तर प्रदेश में उसके नेताओं ने दलबदल किया. उत्तर प्रदेश के बाहर मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और बिहार में बसपा नेता दूसरे दलों के पिछलग्गू बने रहे. दलित नेताओं में सबसे अधिक दबाव में आकर समझौते करने की प्रवत्ति देखी गई है. मायावती भी इसका एक छोटा उदाहरण है.

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