Download App

Best Hindi Story : शादी के बाद

Best Hindi Story : रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई.

रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’

‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’

रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा.

रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी.

ये भी पढ़ें- धारावाहिक कहानी: अभिनेता भाग 2

रजनी के पिता विकास को विदा कर के लौटे तो मन ही मन प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं.

अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया.

‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

ये भी पढ़ें- अवगुण चित न धरो: भाग 2

रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’

रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई.

कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था.

मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

ये भी पढ़ें- सांझ का भूला: भाग 2

कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही.

कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा.

रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

Romantic Story : पीयूष का परिवार क्या मंजरी को अपना पाया?

Romantic Story : वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को छेड़ रहे थे. बारबार लटें उस के गालों पर आ कर झूल जातीं, जिन्हें वह बहुत ही प्यार से पीछे कर देता. ऐसा करते हुए जब उस के हाथ उस के गालों को छूते तो वह सिहर उठती. कुछ कहने को उस के होंठ थरथराते तो वह हौले से उन पर अपनी उंगली रख देता. गुलाबी होंठ और गुलाबी हो जाते और चेहरे पर लालिमा की अनगिनत परतें उभर आतीं.

मात्र छुअन कितनी मदहोश कर सकती है. वह धीरे से मुसकराई. पेड़ से कुछ पत्तियां गिरीं और उस के सिर पर आ कर इस तरह बैठ गईं मानो इस से बेहतर कोमल कालीन कहीं नहीं मिलेगा. उस ने फूंक मार कर उन्हें उड़ा दिया जैसे उन लहराते गेसुओं को छूने का हक सिर्फ उस का ही हो.

वह पेड़ के तन से सट कर खड़ी हो गई और अपनी पलकें मूंद लीं. उसे देख कर लग रहा था जैसे कोई अप्रतिम प्रतिमा, जिस के अंगअंग को बखूबी तराशा गया हो. उसे देख कौन पुरुष होगा जो कामदेव नहीं बन जाएगा. उसे चूमने का मन हो आया. पर रुक गया. बस उसे अपलक देखता रहा. शायद यही प्यार की इंतहा होती है… जिसे चाहते हैं उसे यों ही निहारते रहने का मन करता है. उस के हर पल में डूबे रहने का मन करता है.

‘‘क्या सोच रही हो,’’ उस ने कुछ क्षण बाद पूछा.

‘‘कुछ भी तो नहीं.’’ वह थोड़ी चौंकी पर पलकें अभी भी मुंदी हुई थीं.

‘‘चलें क्या? रात होने को है. तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘मन नहीं कर रहा है तुम्हें छोड़ कर जाने को. बहुत सारी आशंकाओं से घिरा हुआ है मन. तुम्हारे घर वाले इजाजत नहीं देंगे तो क्या होगा?’’

‘‘वे नहीं मानेंगे, यह बात मैं विश्वास से कह सकता हूं. गांव से बेशक आ कर मैं इतना बड़ा अफसर जरूर बन गया हूं और मेरे घर वाले शहर में आ कर रहने लगे हैं, पर मेरे मांबाबूजी की जड़ें अभी भी गांव में ही हैं. कह सकती हो कि रूढि़यों में जकड़े, अपने परिवेश व सोच में बंधे लोग हैं वे. पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा बहू को स्वीकारना अभी भी उन के लिए बहुत आसान नहीं है. पर चलो इस चीज को स्वीकार भी कर लें तो भी दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाना… संभव ही नहीं है उन का मानना.’’

‘‘तुम खुल कर कह सकते हो यह बात पीयूष… दूसरी अन्य कोई जाति होती तो भी कुछ संभावना थी… पर मैं तो मायनौरिटी क्लास की हूं… आरक्षण वाली…’’ उस के स्वर में कंपन था और आंखों में नमी तैर रही थी.

‘‘कम औन मंजरी, इस जमाने में ऐसी बातें… वह भी इतनी हाइली ऐजुकेटेड होने के बाद. तुम अपनी योग्यता के बल पर आगे बढ़ी हो. फिलौसफी की लैक्चरर के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती हैं. ऊंची जाति नीची जाति सदियों पहले की बातें हैं. अब तो ये धारणाएं बदल चुकी हैं. नई पीढ़ी इन्हें नहीं मानती…

‘‘पुरानी पीढ़ी को बदलने में ज्यादा समय लगता है. दोष देना गलत होगा उन्हें भी. मान्यताओं, रिवाजों और धर्म के नाम पर न जाने कितनी संकीर्णताएं फैली हुई हैं. पर हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा.’’

मंजरी ने पीयूष की ओर देखा. ढेर सारा प्यार उस पर उमड़ आया. सही तो कह रहा है वह… पर न जाने क्यों वही बारबार हिम्मत हार जाती है. शायद अपनी निम्न जाति की वजह से या पीयूष की उच्च जाति के कारण. वह भी ब्राह्मण कुल का होने के कारण. बेशक वह जनेऊ धारण नहीं करता. पर उस के घर वालों को अपने उच्च कुल पर अभिमान है और इस में गलत भी कुछ नहीं है.

वह भी तो निम्न जाति की होने के कारण कभीकभी कितनी हीनभावना से भर जाती है. उस के पिता खुद एक बड़े अफसर हैं और भाई भी डाक्टर है. पर फिर भी लोग मौका मिलते ही उन्हें यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वे मायनौरिटी क्लास के हैं. उन का पढ़ालिखा होना या समाज में स्टेटस होना कोई माने नहीं रखता. दबी जबान से ही सही वे उस के परिवार के बारे में कुछ न कुछ कहने से चूकते नहीं हैं.

मंजरी ने पेड़ के तने को छुआ. काश, वह सेब का पेड़ होता तो जमाने को यह तो कह सकते थे कि सेब खाने के बाद उन दोनों के अंदर भावनाएं उमड़ीं और वे एकदूसरे में समा गए. खैर, सेब का पेड़ अगर दोनों ढूंढ़ने जाते तो बहुत वक्त लग जाता, शहर जो कंक्रीट में तबदील हो रहे हैं. उस में हरियाली की थोड़ीबहुत छटा ही बची रही, यही काफी है.

उस ने अपने विश्वास को संबल देने के लिए पीयूष के हाथों पर अपनी पकड़ और

कस ली और उस की आंखों में झांका जैसे तसल्ली कर लेना चाहती हो कि वह हमेशा उस का साथ देगा.

इस समय दोनों की आंखों में प्रेम का अथाह समुद्र लहरा रहा था. उन्होंने मानों एकदूसरे को आंखों ही आंखों में कोई वचन सा दिया. अपने रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगाई और आलिंगनबद्ध हो गए. यह भी सच था कि पीयूष मंजरी को चाह कर भी आश्वस्त नहीं कर पा रहा था कि वह अपने घर वालों को मना लेगा. हां, खुद उस का हमेशा बना रहने का विश्वास जरूर दे सकता था.

मंजरी को उस के घर के बाहर छोड़ कर बोझिल मन से वह अपने घर की

ओर चल पड़ा. रास्ते में कई बार कार दूसरे वाहनों से टकरातेटकराते बची. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे घर में इस बारे में बताए. वह अपने मांबाबूजी को दोष नहीं दे रहा था. उस ने भी तो जब परंपराओं और आस्थाओं की गठरी का बोझ उठाए आज से 10 वर्ष पहले नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कदम रखा था तब कहां सोचा था कि उस की जिंदगी इतनी बदल जाएगी और सड़ीगली परंपराओं की गठरी को उतार फेंकने में वह सफल हो पाएगा… शायद मंजरी से मिलने के बाद ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाया था.

जातिभेद किसी दीवार की तरह समाज में खड़े हैं और शिक्षित वर्ग तक उस दीवार को अपनी सुलझी हुई सोच और बौद्धिकता के हथौड़े से तोड़ पाने में असमर्थ है. अपनी विवशता पर हालांकि यह वर्ग बहुत झुंझलाता भी है… पीयूष को स्वयं पर बहुत झुंझलाहट हुई.

‘‘क्या बात है बेटा, कोई परेशानी है क्या?’’ मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा.

‘‘बस ऐसे ही,’’ उस ने बात टालने की कोशिश की.

‘‘कुछ लड़कियों के फोटो तेरे कमरे में रखे हैं. देख ले.’’

‘‘मैं आप से कह चुका हूं कि मैं शादी नहीं करना चाहता,’’ पीयूष को लगा कि उस की झुंझलाहट चरम सीमा पर पहुंच रही है.

‘‘तू किसी को पसंद करता है तो बता दे,’’ बाबूजी ने सीधेसीधे सवाल फेंका. अनुभव की पैनी नजर शायद उस के दिल की बात समझ गई थी.

‘‘है तो पर आप उसे अपनाएंगे नहीं और मैं आप लोगों की मरजी के बिना अपनी गृहस्थी नहीं बसाना चाहता. मुझे लायक बनाने में आप ने कितने कष्ट उठाए हैं और मैं नहीं चाहता कि आप लोगों को दुख पहुंचे.’’

‘‘तेरे सुख और खुशी से बढ़ कर और कोई चीज हमारे लिए माने नहीं रखती है. लड़की क्या दूसरी जाति की है जो तू इतना हिचक रहा है बताने में?’’ बाबूजी ने यह बात पूछ पीयूष की मुश्किल को जैसे आसान कर दिया.

‘‘हां.’’

उस का जवाब सुन मां का चेहरा उतर गया. आंखों में आंसू तैरने लगे. बाबूजी अभी चिल्लाएंगे यह सोच कर वह अपने कमरे की ओर जाने के लिए मुड़ा ही था कि बोले, ‘‘किस जाति की?’’

‘‘बाबूजी वह बहुत पढ़ीलिखी है. लैक्चरर है और उस के घर में भी सब हाइली क्वालीफाइड हैं. जाति महत्त्व नहीं रखती, पर एकदूसरे को समझना ज्यादा जरूरी है,’’ बहुत हिम्मत कर वह बोला.

‘‘बहुत माने रखती है जाति वरना क्यों बनती ऐसी सामाजिक व्यवस्था. भारत में जाति सीमा को लांघना 2 राष्ट्रों की सीमाओं को लांघना है. अभी सुबह के अखबार में पढ़ रहा था कि पंजाब में एक युवक ने अपनी शादी के महज 1 हफ्ते बाद केवल इस कारण आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे शादी के बाद पता चला कि उस की पत्नी दलित जाति की है. उस की शादी एक बिचौलिए के माध्यम से हुई थी. इस बात का खुलासा तब हुआ जब वह अपनी ससुराल गया. दलित पत्नी पा कर वह आत्मग्लानि और अपराधबोध से इस कदर व्यथित हो गया कि ससुराल से लौट कर उस ने आत्महत्या कर ली. तुम भी कहीं प्यार के चक्कर में पड़ कर कोई गलत कदम मत उठा लेना.’’

बाबूजी की बात सुन पीयूष को अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई. मंजरी ने जब यह सुना तो उदास हो गई.

पीयूष बोला, ‘‘एक आइडिया आया है. मैं अपनी कुलीग के रूप में तुम्हें उन से मिलवाता हूं. तुम से मिल कर उन्हें अवश्य ही अच्छा लगेगा. फिर देखते हैं उन का रिएक्शन. रूढि़यां हावी होती हैं या तुम्हारे संस्कार व सोच.’’

मंजरी ने मना कर दिया. वह नहीं चाहती थी कि उस का अपमान हो. उस के बाद से मंजरी अपनेआप में इतनी सिमट गई कि उस ने पीयूष से मिलना तक कम कर दिया. संडे को अपने डिप्रैशन से बाहर आने के लिए वह शौपिंग करने मौल चली गई. एक महिला जो ऐस्कलेटर पर पांव रखने की कोशिश कर रही थी, वह घबराहट में उस पर ही गिर गई. मंजरी उन के पीछे ही थी. उस ने झट से उन्हें उठाया और हाथ पकड़ कर उन्हें नीचे उतार लाई.

‘‘आप कहें तो मैं आप को घर छोड़ सकती हूं. आप की सांस भी फूल रही है.’’

‘‘बेटा, तुम्हें कष्ट तो होगा पर छोड़ दोगी तो अच्छा होगा. मुझे दमा है. मैं अकेली आती नहीं पर घर में सब इस बात का मजाक उड़ाते हैं. इसलिए चली आई.’’

घर पर मंजरी को देख पीयूष बुरी तरह चौंक गया. पर मंजरी ने उसे इशारा किया कि

वह न बताए कि वे एकदूसरे को जानते हैं. पीयूष की मां तो बस उस के गुण ही गाए जा रही थीं. बहुत जल्द ही वह उन के साथ घुलमिल गई. पीयूष की बहन ने तो फौरन नंबर भी ऐक्सचेंज कर लिए. जबतब वे व्हाट्सऐप पर चैट करने लगीं. मां ने कहा कि वह उसे घर पर आने के लिए कहे. इस तरह मंजरी के कदम उस आंगन में पड़ने लगे, जहां वह हमेशा के लिए आना चाहती थी.

पीयूष इस बात से हैरान था कि जाति को ले कर इतने कट्टर रहने वाले उस के मातापिता ने एक बार भी उस की जाति के बारे में नहीं पूछा. शायद अनुमान लगा लिया होगा कि उस जैसी लड़की उच्च कुल की ही होगी. उस के पिता व भाई के बारे में जान कर भी उन्हें तसल्ली हो गई थी.

मंजरी को लगा कि उस दिन पीयूष ने ठीक ही कहा था कि हमें कोशिश करनी नहीं छोड़नी है. उस के लिए पहले हमें स्वयं को मजबूत करना होगा. स्वयं को हर लड़ाई के लिए तैयार करना होगा. पीयूष जब उस के साथ है तो उसे भी लगातार कोशिश करते रहना होगा. मांबाबूजी का दिल जीत कर ही वह अपनी और पीयूष दोनों की लड़ाई जीत सकती है.

हालांकि जब भी वह पीयूष के घर जाती थी तो यही कोशिश करती थी कि उन की रसोई में न जाए. उसे डर था कि सचाई जानने के बाद अवश्य ही मां को लगेगा कि उस ने उन का धर्म भ्रष्ट कर दिया है. एक सकुचाहट व संकोच सदा उस पर हावी रहता था. पर दिल के किसी कोने में एक आशा जाग गई थी जिस की वजह से वह उन के बुलाने पर वहां चली जाती थी.

कई बार उस ने अपनी जाति के बारे में बताना चाहा पर पीयूष ने यह कह कर मना कर दिया कि जब मांबाबूजी तुम्हें गुणों की वजह से पसंद करने लगे हैं तो क्यों बेकार में इस बात को उठाना. सही वक्त आने पर उन्हें बता देंगे.

‘‘तुझे मंजरी कैसी लगती है?’’ एक दिन मां के मुंह से यह सुन पीयूष हैरान रह गया.

‘‘अच्छी है.’’

‘‘बस अच्छी है, अरे बहुत अच्छी है. तू कहे तो इस से तेरे रिश्ते की बात चलाऊं?’’

‘‘यह क्या कह रही हो मां. पता नहीं कौन जाति की है. दलित हुई तो…’’ पीयूष ने जानबूझ कर कहा. वह उन्हें टटोलना चाह रहा था.

‘‘फालतू मत बोल… अगर हुई भी तो भी बहू बना लूंगी,’’ मां ने कहा. पर उन्हें क्या पता था कि उन का मजाक उन पर ही भारी पड़ेगा.

‘‘ठीक है फिर मैं उस से शादी करने को तैयार हूं. उस के पापा को कल ही बुला लेते हैं.’’

‘‘यानी… कहीं यह वही लड़की तो नहीं जिस से तू प्यार करता है,’’ बाबूजी सशंकित हो उठे थे.

‘‘मुझे तो मंजरी दीदी बहुत पसंद हैं मां,’’ बेटी की बात सुन मां हलके से मुसकराईं.

मंजरी नीची जाति की कैसे हो सकती है… उन से पहचानने में कैसे भूल हो गई. पर वह तो कितनी सुशील, संस्कारी और बड़ों की इज्जत करने वाली लड़की है. बहुत सारी ब्राह्मण लड़कियां देखी थीं, पर कितनी अकड़ थी. बदमिजाज… कुछ ने तो कह दिया कि शादी के बाद अलग रहेंगी. कुछ के बाप ने दहेज दे कर पीयूष को खरीदने की कोशिश की और कहा कि उसे घरजमाई बन कर रहना होगा.

‘‘क्या सोच रही हो पीयूष की मां?’’ बाबूजी के चेहरे पर तनाव की रेखाएं नहीं थीं जैसे वे इस रिश्ते को स्वीकारने की राह पर अपना पहला कदम रख चुके हों.

‘‘क्या हमारे बदलने का समय आ गया है? आखिर कब तक दलित बुद्धिजीवी अपनी जातीय पीड़ा को सहेंगे? हमें उन्हें उन की पीड़ा से मुक्त करना ही होगा. तभी तो वे खुल कर सांस ले पाएंगे. हमारी बिरादरी में हमारी थूथू होगी. पर बेटे की खुशी की खातिर मैं यह भी सह लूंगी.’’

पीयूष अभी तक अचंभित था. रूढि़यों को मंजरी के व्यवहार ने परास्त कर दिया था.

‘‘सोच क्या रहा है खड़ेखड़े, चल मंजरी को फोन कर और कह कि मैं उस से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, तुम कितनी अच्छी हो, मैं अभी भाभी को व्हाट्सऐप पर मैसेज कर सरप्राइज देती हूं,’’ पीयूष की बहन ने चहकते हुए कहा.

वे दोनों एक पेड़ के नीचे खड़े थे, एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए, एकदूसरे का हाथ थामे. मीठी बयार के झोंके उस के रेशमी बालों को इस बार भी छेड़ रहे थे. उसे अपलक निहारतेनिहारते उसे चूमने का मन हो आया. पर इस बार वह रुका नहीं. उस ने उस के गालों को हलके से चूम लिया. मंजरी शरमा गई. अपनी सारी आशंकाओं को उतार फेंक वह पीयूष की बांहों में समा गई. उसे उस का प्यार व सम्मान दोनों मिल गए थे. पीयूष को लगा कि वह जैसे कोई बहुत बड़ी लड़ाई जीत गया है.

Romantic Story : रिक्शा वाले से हुआ मालती को प्यार

Romantic Story : मालती और उस का परिवार संजय कालोनी की एक 8×8 फुट की झुग्गी में जबरदस्ती रहा करते थे. मालती से बड़ी और 2 बहनें थीं, जिन की शादी पिछले 2 सालों में हो चुकी थीं. अब उस पैर पसारने भर की झुग्गी में 3 लोग रह रहे थे, मालती और उस के मातापिता. मालती के पिता का भेलपुरी का ठेला था, जिस के सहारे उन की गुजरबसर हो जाती थी. कालोनी की हर औरत चार पैसे फालतू कमाने के लिए झुग्गियों से निकल कर बाहर पौश इलाकों में अमीर लोगों के घरों में झाड़ूपोंछे का काम कर लिया करती थीं,

पर मालती की मां ने पिछले कुछ सालों से बाहर काम पर जाना छोड़ दिया था. 17 साल की मालती के अंदर भी अब जवानी के रंगरूप दिखाई देने लगे थे. उस के शरीर की बनावट में भी काफी फर्क आने लगा था. मालती नगरनिगम के एक सरकारी स्कूल के पढ़ती थी, जो उस की झुग्गी से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर था. उस की कालोनी की बाकी लड़कियां भी उसी स्कूल में जाती थीं. मालती और उस की सहेलियां स्कूल से घर आते समय रास्ते में खूब मस्ती किया करतीं. कभी किसी राह चलते लड़के को छेड़ दिया या किसी इमली वाले से उधार में इमली ले कर खा ली. एक दिन स्कूल के बाहर जब मालती ने अपने ही पड़ोस की झुग्गी में नए रहने आए रघु को देखा, तो वह चौंक गई.

रघु अभी कुछ दिन पहले ही मालती के सामने वाली झुग्गी पर अपने मामा चरण दास के यहां आया था. उस का मामा भाड़े का टैंपो चलाता था और रघु के पास उस का अपना ईरिकशा था. रघु जवान था. 22 साल का रहा होगा. कंधे चौड़े, सीना बाहर, रंग साफ, लंबाई भी कुछ साढ़े 5 फुट, पर अनपढ़. सयानी मालती हमेशा रघु से बात करने के मौके तलाशती, पर मां के रहते ऐसा करना मुश्किल था. पर आज मालती अपनी सारी सहेलियों के साथ उस के ईरिकशा को आगे से घेर कर खड़ी हो गई, मानो उस रघु का अब सबकुछ छिनने वाला हो. पर उन लोगों ने तो सिर्फ मुफ्त में सवारी करने के लिए रघु के ईरिकशा को रोका था. मालती ने फटाफट सब को पीछे वाली सीट पर बैठा दिया. जो कोई बचा, उसे एकदूसरे की गोद में और खुद सारी सीटें भर जाने के बहाने से रघु के साथ वाली सीट पर जा बैठी.

बेचारे रघु ने अभी कुछ ही दिनों पहले ईरिकशा चलाना शुरू किया था. उस के साथ वाली सीट पर अभी तक कोई लेडीज सवारी नहीं बैठी थी. रघु थोड़ा हिचकिचाया, पर भला अपने पड़ोस की लड़की को घर छोड़ने से वह कैसे मना कर सकता था. मालती अपना बस्ता गोद में लिए उस के साथ वाली सीट पर जा बैठी. मालती के बदन की?छुअन से रघु थोड़ा घबराया. मालती ने रघु से पूछा, ‘‘आज स्कूल के बाहर कैसे?’’ ‘‘जी, वह मैं घर जा ही रहा था, तो सोचा कि खाली रिकशा ले जाने से अच्छा क्यों न जातेजाते थोड़ी और सवारी बैठा लूं. आखिर हमारी मंजिल भी तो एक ही हैं,’’ रघु ने बताया. ‘‘पर, मैं ने तो आप का नुकसान करवा दिया,’’ मालती ने भोली सूरत बना कर रघु से कहा. ‘‘वह कैसे?’’ रघु ने मालती से हैरानी से पूछा. ‘‘अरे, इन्हें लगा कि आप पड़ोसी हैं तो पैसे नहीं लेंगे,

’’ मालती ने पीछे बैठी अपनी सहेलियों की ओर इशारा करते हुए बताया. लड़कियों ने अपनी मरजी से ही रघु के ईरिकशा का रेडियो चालू कर लिया था, जिस की वजह से मालती और रघु की आवाज उन तक नहीं पहुंच रही थी. ‘‘तो क्या गलत सोचा इन्होंने? मैं वैसे भी आप लोगों से पैसे नहीं लेता,’’ रघु ने पड़ोसी धर्म निभाते हुए कहा. घर पहुंच कर रघु उस दिन सिर्फ मालती के बारे में ही सोचता रहा. अगले दिन फिर जब स्कूल से निकलते वक्त सामने रघु को ईरिकशा पर देखा तो मालती खिल उठी. आज रघु ने जानबूझ कर अपने साथ वाली सीट मालती के लिए बचा कर रखी थी. मालती ने अपनी सहेलियों से कहा, ‘‘तुम लोग जाओ, आज मुझे जल्दी जाना है. मैं ईरिकशा से चली जाऊंगी.’’ मालती आज फिर बस्ता अपनी गोद में रख कर रघु से सट कर बैठ गई. दोनों में काफी छेड़छाड़ भरी बातें हुईं. हालांकि शुरुआत मालती ने की थी, पर अब रघु भी काफी खुल चुका था. उन दोनों को अब एकदूसरे से प्यार होने लगा.

रघु अब सुबह भी मालती को ईरिकशा पर स्कूल छोड़ दिया करता और दोपहर को अपने साथ ले भी आता. एक दिन रघु मालती को लालकिला घुमाने ले गया. दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर लालकिला घूमने लगे. पूरे दिन दोनों में खूब रंगीन बातें हुईं आखिर में शाम को रघु थक कर दीवानेआम के नजदीक गार्डन में मालती की गोद में सिर रख कर उसे अपने भविष्य के सपने दिखाने लगा, तभी मालती ने कहा, ‘‘हमारी शादी ऐसे नहीं हो सकती रघु.’’ ‘‘क्यों?’’ रघु ने हैरानी से पूछा. ‘‘मेरे घर वालों और तुम्हारे मामा की वैसे भी नहीं बनती, ऊपर से यह लव मैरिज,’’ मालती ने अपनी दुविधा बताते हुए कहा. ‘‘तो चलो भाग चलें,’’ रघु ने बड़ी ही आसानी से मालती की ओर देखते हुए कहा. मंदमंद मुसकराते हुए मालती ने दुपट्टे से मुंह को ढकते हुए अपने होंठ रघु के होंठ पर रख दिए और एक खुश्क हंसी अपने होंठों पर बिखेरी. मालती की हंसी मानो कह रही हो कि वह रघु से सहमत है. अगले दिन मालती स्कूल जाने के लिए रघु के ईरिकशा पर बैठी, तो उस के स्कूल बैग में किताबों की जगह कुछ कपड़े और जरूरी दस्तावेज थे. दोनों ने भाग कर कोर्टमैरिज की और एक छोटा सा कमरा किराए पर ले कर रहने लगे. कुछ दिन तो दोनों के परिवार वालों ने उन की तलाश की, फिर हार कर अपनी पुरानी जिंदगी में लौट आए. मालती का पिता शर्मिंदा तो हुआ, पर उस के सिर से मालती की शादी का बहुत बड़ा बोझ कम हो गया था. मालती और रघु अपनी शादीशुदा जिंदगी से काफी खुश थे. देखते ही देखते मालती एक बच्ची की मां भी बन गई.

एक दिन रघु दोपहर को लंच करने के लिए अपने कमरे में आया. उस ने मालती को बताया, ‘‘कुछ दिनों में मेरा एक दोस्त उमेश गांव से आ जाएगा, तो उसे मैं अपना यह ईरिकशा किराए पर दे कर खुद नई ले लूंगा और ऐसे ही अपना धंधा बड़ा करता चला जाऊंगा.’’ पर बातबात पर बीड़ी पीने वाला रघु अकसर बीड़ी के पैकट पर दी हुई चेतावनी को नजरअंदाज कर जाता. रघु को कैंसर तो नहीं, पर टीबी की बीमारी ले डूबी. एक दिन बहुत ज्यादा तबीयत बिगड़ जाने के चलते रघु को अस्पताल में भरती होना पड़ा. दिनोंदिन नए ईरिकशे के लिए जमा किए हुए पैसे और रघु के दिन कम होते जा रहे थे. रघु सूख कर आधा हो चुका था. तकरीबन 3 दिन सरकारी अस्पताल में लेटे रहने के बाद चौथे दिन रघु को नींद आ ही गई. वह मर चुका था. रघु की निशानी के तौर पर सिर्फ एक ईरिकशा और उस की बेटी ही मालती के पास रह गई थी. मालती गहरे गम के आगोश में अपनी जिंदगी गुजार रही थी. कमाई का भी कोई साधन न था.

मालती को अपनी और बेटी की चिंता खाए जा रही थी. मालती के मन में अकसर यह खयाल उठते, अब गुजरबसर कैसे होगी? बेटी का भविष्य क्या होगा? अकेली बेवा औरत का इस समाज में क्या होगा? ऐसे में एक दिन रघु का एक दोस्त हसन रघु के घर आया. हसन की रघु से अभी कुछ ही दिन पहले दोस्ती हुई थी. मालती ने उसे चायनाश्ता करवाया. कुछ देर वह रघु की मौत पर मौन साधे बैठा रहा, फिर असली मुद्दे पर आ गया. उस ने मालती को दिलासा दिलाते हुए कहा, ‘‘भाभीजी, आप चिंता मत कीजिए, मैं चलाऊंगा रघु भाई का यह ईरिकशा और आप को रोज पूरे 300 रुपए किराया भी दूंगा.’’ मालती को भी आज नहीं तो कल यह करना ही था, इसलिए उस ने भी इस सौदे पर हामी भरते हुए सिर हिला दिया. हसन अपने वादे मुताबिक रोज समय से मालती के घर उस का किराया देने आ जाया करता था. मालती की जिंदगी भी बस कट ही रही थी. एक दिन हसन शराब के नशे में चूर हो कर मालती को किराया देने आया. चूल्हे की आग के सामने रोटी सेंकती मालती के माथे का पसीना उस के चेहरे और गालों से होता हुआ सीधा उस के उभारों पर जा कर ठहर रहा था. यह देख कर हसन मदहोश हो गया. वह विधवा मालती को बिन मांगे ही पति का सुख देने को उतावला हो गया.

मालती ने हसन को बैठने को कहा, तो वह मौकापसंद बिस्तर पर ही पसर गया. मालती जानती थी कि इस समय वह नशे में है, इसलिए मालती अपनी बेटी के साथ वहीं नीचे बिस्तर बिछा कर सो गई. तकरीबन आधी रात को हसन मौका देख कर मालती के साथ जा लेटा और अभी हसन ने उसे छूना शुरू ही किया था कि अचानक मालती की नींद टूट गई. अपने साथ गलत काम होते देख मालती की आंखें फटी की फटी रह गईं. मालती ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई. उस रात के मंजर के बाद हसन भी अब मालती से नजरें चुराने लगा. कईकई दिनों तक किराया न देता और कभी देता भी तो 100 या 200. मालती के पूछने पर हसन कह देता, ‘‘अरे, रिकशा है, कभी टायर भी पंचर हो सकता है, कभी ब्रेक भी फेल हो सकते हैं, कभी मोटर भी खराब हो सकती है. भला है तो एक मशीन ही.’’ मालती ने कहा, ‘‘इतना कुछ पहले तो नहीं होता था वह भी रोजरोज. कुछ दिनों से ही सारी खराबियां होने लगी हैं क्या?’’ मालती के लहजे में ताना था. ‘‘अगर 300 रुपए किराया चाहिए, तो रिकशे की सारी मरम्मत खुद ही करवानी पड़ेगी.

कभी रिकशा खराब हुआ, तो तुम्हीं बनवा कर दोगी और अगर ऐसा नहीं कर सकती तो आगे से बिन बात मुंह भी मत चलाना, नहीं तो ढूंढ़ती रहना दूसरा ड्राइवर.’’ हसन को पता था कि मालती को दूसरा ड्राइवर मिलना मुश्किल था और यह बात भी जानता था कि उस ने तो उसे छोड़ दिया, पर कोई और मालती जैसी जवान विधवा को नोंचे बिना नहीं छोड़ेगा. मालती ने बिना सोचेसमझे हसन से कह दिया, ‘‘हां, छोड़ जाना रिकशा मेरे पास में, बनवा लूंगी खुद. देखती हूं कि कितने पैसे लगते हैं पंचर बनवाने में.’’ हसन अब नीचता पर उतर आया था. उस ने अगले ही दिन रिकशा के पिछले दोनों टायरों को कील से जानबूझ कर पंचर कर के चुपचाप मालती के घर के बाहर लगा दी और अंदर जा कर मालती से कहने लगा, ‘‘यह लो किराया पूरे 300 हैं. हां, और आज घर आते वक्त पिछले दोनों टायर पंचर हो गए, रिकशा बाहर खड़ा है, बनवा देना. मैं कल सुबह आ कर ले जाता हूं.’’ मालती समझ चुकी थी कि हसन अपनी उस दिन की सारी भड़ास निकाल रहा है. तभी मालती को याद आया कि शुरुआत में जब वह इस रिकशे पर रघु के साथ बैठा करती थी, तो उस ने रघु को अच्छी तरह से रिकशा चलाते हुए देखा था.

मालती ने खुद को तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘रिकशा चलाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है और वह भी ईरिकशा. कल हसन भी देखेगा कि आखिर यह मालती भी एक रिकशे वाले की ही बीवी है.’’ मालती ने एक्सीलेटर ऐंठा और रिकशा आगे बढ़ा. मालती को पहले से ही मालूम था कि ईरिकशे में सिर्फ एक्सीलेटर और ब्रेक ही होते हैं. ईरिकशा चलाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं. जिस काम के लिए हसन उस का पूरा किराया मार लिया करता था, मालती ने वही काम सिर्फ 50 रुपए में निबटा दिया. अपना ईरिकशा खुद चला कर मालती काफी आत्मनिर्भर महसूस करने लगी. उन ने अब ठान लिया कि वह किसी का एहसान नहीं लेगी, किसी के भरोसे नहीं रहेगी. वह अब खुद मेहनतमजदूरी कर के ईरिकशा चलाएगी और अपनी बेटी को खूब पढ़ाएगी. अगले दिन सुबह हसन अपने एक आदमी होने के घमंड में मालती के यहां चला आ रहा था. वह यह सोच कर काफी खुश हो रहा था कि मालती को अब उस के सामने झुकना पड़ेगा, पर मालती ने हसन के आते ही उस का हिसाबकिताब कर उसे चलता कर दिया. अब मालती ईरिकशा खुद ही चलाने लगी. अपनी 5 साल की बच्ची को भरोसेमंद पड़ोसन के यहां छोड़ कर मालती खूब मेहनत करती. मालती को शुरुआत में दिक्कतों का सामना तो करना पड़ा, पर धीरेधीरे मालती सभी रास्तों से वाकिफ हो गई. मालती बाकी सभी रिकशे वालों से ज्यादा कमाने लगी. मालती में कोई खास बात तो नहीं, पर फिर भी उस का रिकशा हर वक्त सवारियों से लबालब भरा रहता, पर शायद इस की वजह मालती जानती थी. मालती को पता था कि कुछ लोग तो सिर्फ उस के साथ वाली सीट पर बैठने के लिए या उस से बतियाने के लिए और कुछ तो मौके की तलाश में उस के रिकशे में बैठते थे. पर अब मालती को इन से कोई खतरा न था, क्योंकि वह ऐसे लोगों से निबटना खूब अच्छी तरह से सीख चुकी थी.

मालती की आमदनी अब हजारों में होने लगी. वजह कुछ भी हो, पर मालती का ईरिकशा एक पल के लिए भी खाली न रहता था. ऐसे ही एक दिन मालती के ईरिकशा पर एक आदमी बैठा. वह आदमी न जाने क्यों मालती के ईरिकशा को अजीब ढंग से घूरे जा रहा था. फिर उस ने मालती से पूछ ही लिया, ‘‘यह ईरिकशा तुम्हारा है?’’ ‘‘हां, क्यों?’’ मालती ने उस से पूछा. ‘‘कुछ नहीं, यह ईरिकशा जानापहचाना सा लगा तो पूछ लिया.’’ मालती को शक हुआ कि शायद यह रघु को जानता है, इसलिए मालती ने शक दूर करते हुए पूछ ही लिया, ‘‘क्यों आप ने कहीं किसी और के पास भी यह ईरिकशा देखा है क्या?’’ ‘‘नहीं, मेरे दोस्त रघु के पास भी ऐसा ही रिकशा था. मैं कई बार बैठ चुका हूं उस के ईरिकशे पर,’’ उस आदमी ने कहा. मालती को याद आया कि कहीं यह वही तो नहीं, जिस के बारे में उस दिन रघु ने मुझ से जिक्र किया था. मालती ने उस से उस का नाम पूछा. ‘‘उमेश नाम है मेरा. क्यों…?’’ ‘‘मैं रघु की विधवा हूं,’’ मालती की इस बात पर उमेश सन्न रह गया. एक पल को तो उसे लगा कि कहीं यह मजाक तो नहीं, पर फिर सोचा कि किसी की बीवी इतना भद्दा मजाक नहीं कर सकती. मालती उमेश को अपने घर ले कर गई. चूंकि वह रघु का दोस्त था, इसीलिए मालती से जो बन पड़ा उस से उस की मेहमाननवाजी की.

उमेश ने बताया, ‘‘रघु भैया तो मुझे अपना रिकशा किराए पर देने वाले थे, पर शायद अब मुझे कोई और काम तलाशना पड़ेगा,’’ उमेश निराश हो कर बोला. उमेश की इस बात पर मालती के मन में खिचड़ी पकी. उस ने रघु का सपना खुद पूरा करने की ठान ली. उस ने उमेश को अपने रिकशे की चाभी पकड़ाई और इस बार पूरे 400 रुपए दिन के हिसाब से ईरिकशा किराए पर दे दिया. मालती ने वैसे भी इतने दिन ईरिकशा चला कर ठीकठाक पैसे जोड़ लिए थे. वह कुछ दिनों में ही एक और रिकशे की मालकिन बन गई. मालती तरक्कीपसंद लोगों में से थी. शायद इसी वजह से महज 5 सालों में ही मालती पूरे 10 ईरिकशे की अकेली मालकिन बन चुकी थी. अब मालती की महीने की कमाई लाखों रुपए तक पहुंच गई थी. जिन मांबाप ने उन की तीसरी औलाद भी लड़की होने पर अपनी सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं, जिस मालती के भाग जाने पर उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा था, आज वही मातापिता मालती के साथ एक 3 बीएच के फ्लैट में ऐशोआराम की जिंदगी काट रहे थे. मालती की बेटी का दाखिला भी अब शहर के एक मशहूर ला कालेज में हो चुका था.

 

लेखक : हेमंत कुमार

Emotional Story : सिमरन क्यों मां नहीं बनना चाहती थी

Emotional Story : पड़ोस में आते ही अशोक दंपती ने 9 वर्षीय सपना को अपने 5 वर्षीय बेटे सचिन की दीदी बना दिया था. ‘‘तुम सचिन की बड़ी दीदी हो. इसलिए तुम्हीं इस की आसपास के बच्चों से दोस्ती कराना और स्कूल में भी इस का ध्यान रखा करना.’’ सपना को भी गोलमटोल सचिन अच्छा लगा था. उस की मम्मी तो यह कह कर कि गिरा देगी, छोटे भाई को गोद में भी नहीं उठाने देती थीं. समय बीतता रहा. दोनों परिवारों में और बच्चे भी आ गए. मगर सपना और सचिन का स्नेह एकदूसरे के प्रति वैसा ही रहा. सचिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मणिपाल चला गया. सपना को अपने ही शहर में मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया था. फिर एक सहपाठी से शादी के बाद वह स्थानीय अस्पताल में काम करने लगी थी. हालांकि सचिन के पापा का वहां से तबादला हो चुका था. फिर भी वह मौका मिलते ही सपना से मिलने आ जाता था. सऊदी अरब में नौकरी पर जाने के बाद भी उस ने फोन और ईमेल द्वारा संपर्क बनाए रखा. इसी बीच सपना और उस के पति सलिल को भी विदेश जाने का मौका मिल गया. जब वे लौट कर आए तो सचिन भी सऊदी अरब से लौट कर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहा था.

‘‘बहुत दिन लगा दिए लौटने में दीदी? मैं तो यहां इस आस से आया था कि यहां आप अपनी मिल जाएंगी. मम्मीपापा तो जबलपुर में ही बस गए हैं और आप भी यहां से चली गईं. इतने साल सऊदी अरब में अकेला रहा और फिर यहां भी कोई अपना नहीं. बेजार हो गया हूं अकेलेपन से,’’ सचिन ने शिकायत की. ‘‘कुंआरों की तो साथिन ही बेजारी है साले साहब,’’ सलिल हंसा, ‘‘ढलती जवानी में अकेलेपन का स्थायी इलाज शादी है.’’

‘‘सलिल का कहना ठीक है सचिन. तूने अब तक शादी क्यों नहीं की?’’ सपना ने पूछा.

‘‘सऊदी अरब में और फिर यहां अकेले रहते हुए शादी कैसे करता दीदी? खैर, अब आप आ गई हैं तो लगता है शादी हो ही जाएगी.’’

‘‘लगने वाली क्या बात है, शादी तो अब होनी ही चाहिए… और यहां अकेले का क्या मतलब हुआ? शादी जबलपुर में करवा कर यहां आ कर रिसैप्शन दे देता किसी होटल में.’’

‘‘जबलपुर वाले मेरी उम्र की वजह से न अपनी पसंद का रिश्ता ढूंढ़ पा रहे हैं और न ही मेरी पसंद को पसंद कर रहे हैं,’’ सचिन ने हताश स्वर में कहा, ‘‘अब आप समझा सको तो मम्मीपापा को समझाओ या फिर स्वयं ही बड़ी बहन की तरह यह जिम्मेदारी निभा दो.’’ ‘‘मगर चाचीचाचाजी को ऐतराज क्यों है? तेरी पसंद विजातीय या पहले से शादीशुदा बालबच्चों वाली है?’’ सपना ने पूछा.

‘‘नहीं दीदी, स्वजातीय और अविवाहित है और उसे भविष्य में भी संतान नहीं चाहिए. यही बात मम्मीपापा को मंजूर नहीं है.’’

‘‘मगर उसे संतान क्यों नहीं चाहिए और अभी तक वह अविवाहित क्यों है?’’ सपना ने शंकित स्वर में पूछा. ‘‘क्योंकि सिमरन इकलौती संतान है. उस ने पढ़ाई पूरी की ही थी कि पिता को कैंसर हो गया और फिर मां को लकवा. बहुत इलाज के बाद भी दोनों को ही बचा नहीं सकी. मेरे साथ ही पढ़ती थी मणिपाल में और अब काम भी करती है. मुझ से शादी तो करना चाहती है, लेकिन अपनी संतान न होने वाली शर्त के साथ.’’

‘‘मगर उस की यह शर्त या जिद क्यों है?’’

‘‘यह मैं ने नहीं पूछा न पूछूंगा. वह बताना तो चाहती थी, मगर मुझे उस के अतीत में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं तो उसे सुखद भविष्य देना चाहता हूं. उस ने मुझे बताया था कि मातापिता के इलाज के लिए पैसा कमाने के लिए उस ने बहुत मेहनत की, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया, जिस के लिए कभी किसी से या स्वयं से लज्जित होना पड़े. शर्त की कोई अनैतिक वजह नहीं है और वैसे भी दीदी प्यार का यह मतलब यह तो नहीं है कि उस में आप की प्राइवेसी ही न रहे? मेरे बच्चे होने न होने से मम्मीपापा को क्या फर्क पड़ता है? जतिन और श्रेया ने बना तो दिया है उन्हें दादादादी और नानानानी. फूलफल तो रही है उन की वंशबेल,’’ फिर कुछ हिचकते हुए बोला, ‘‘और फिर गोद लेने या सैरोगेसी का विकल्प तो है ही.’’

‘‘इस विषय में बात की सिमरन से?’’ सलिल ने पूछा. ‘‘उसी ने यह सुझाव दिया था कि अगर घर वालों को तुम्हारा ही बच्चा चाहिए तो सैरोगेसी द्वारा दिलवा दो, मुझे ऐतराज नहीं होगा. इस के बावजूद मम्मीपापा नहीं मान रहे. आप कुछ करिए न,’’ सचिन ने कहा, ‘‘आप जानती हैं दीदी, प्यार अंधा होता है और खासकर बड़ी उम्र का प्यार पहला ही नहीं अंतिम भी होता है.’’

‘‘सिमरन का भी पहला प्यार ही है?’’ सपना ने पूछा. सचिन ने सहमति में सिर हिलाया, ‘‘हां दीदी, पसंद तो हम एकदूसरे को पहली नजर से ही करने लगे थे पर संयम और शालीनता से. सोचा था पढ़ाई खत्म करने के बाद सब को बताएंगे, लेकिन उस से पहले ही उस के पापा बीमार हो गए और सिमरन ने मुझ से संपर्क तक रखने से इनकार कर दिया. मगर यहां रहते हुए तो यह मुमकिन नहीं था. अत: मैं सऊदी अरब चला गया. एक दोस्त से सिमरन के मातापिता के न रहने की खबर सुन कर उसी की कंपनी में नौकरी लगने के बाद ही वापस आया हूं.’’ ‘‘ऐसी बात है तो फिर तो तुम्हारी मदद करनी ही होगी साले साहब. जब तक अपना नर्सिंगहोम नहीं खुलता तब तक तुम्हारे पास समय है सपना. उस समय का सदुपयोग तुम सचिन की शादी करवाने में करो,’’ सलिल ने कहा.

‘‘ठीक है, आज फोन पर बात करूंगी चाचीजी से और जरूरत पड़ी तो जबलपुर भी चली जाऊंगी, लेकिन उस से पहले सचिन मुझे सिमरन से तो मिलवा,’’ सपना ने कहा. ‘‘आज तो देर हो गई है, कल ले चलूंगा आप को उस के घर. मगर उस से पहले आप मम्मी से बात कर लेना,’’ कह कर सचिन चला गया. सपना ने अशोक दंपती को फोन किया. ‘‘कमाल है सपना, तुझे डाक्टर हो कर भी इस रिश्ते से ऐतराज नहीं है?  तुझे नहीं लगता ऐसी शर्त रखने वाली लड़की जरूर किसी मानसिक या शारीरिक रोग से ग्रस्त होगी?’’ चाची के इस प्रश्न से सपना सकते में आ गई.

‘‘हो सकता है चाची…कल मैं उस से मिल कर पता लगाने की कोशिश करती हूं,’’ उस ने खिसियाए स्वर में कह कर फोन रख दिया.

‘‘हम ने तो इस संभावना के बारे में सोचा ही नहीं था,’’ सब सुनने के बाद सलिल ने कहा. ‘‘अगर ऐसा कुछ है तो हम उस का इलाज करवा सकते हैं. आजकल कोई रोग असाध्य नहीं है, लेकिन अभी यह सब सचिन को मत बताना वरना अपने मम्मीपापा से और भी ज्यादा चिढ़ जाएगा.’’

‘‘उन का ऐतराज भी सही है सलिल, किसी व्याधि या पूर्वाग्रस्त लड़की से कौन अभिभावक अपने बेटे का विवाह करना चाहेगा? बगैर सचिन या सिमरन को कुछ बताए हमें बड़ी होशियारी से असलियत का पता लगाना होगा,’’ सपना ने कहा. ‘‘सिमरन के घर जाने के बजाय उस से पहले कहीं मिलना बेहतर रहेगा. ऐसा करो तुम कल लंचब्रेक में सचिन के औफिस चली जाओ. कह देना किसी काम से इधर आई थी, सोचा लंच तुम्हारे साथ कर लूं. वैसे तो वह स्वयं ही सिमरन को बुलाएगा और अगर न बुलाए तो तुम आग्रह कर के बुलवा लेना,’’ सलिल ने सुझाव दिया. अगले दिन सपना सचिन के औफिस में पहुंची ही थी कि सचिन लिफ्ट से एक लंबी, सांवली मगर आकर्षक युवती के साथ निकलता दिखाई दिया.

‘‘अरे दीदी, आप यहां? खैरियत तो है?’’ सचिन ने चौंक कर पूछा.

‘‘सब ठीक है, इस तरफ किसी काम से आई थी. अत: मिलने चली आई. कहीं जा रहे हो क्या?’’

‘‘सिमरन को लंच पर ले जा रहा था. शाम का प्रोग्राम बनाने के लिए…आप भी हमारे साथ लंच के लिए चलिए न दीदी,’’ सचिन बोला.

‘‘चलो, लेकिन किसी अच्छी जगह यानी जहां बैठ कर इतमीनान से बात कर सकें.’’

‘‘तब तो बराबर वाली बिल्डिंग की ‘अंगीठी’ का फैमिलीरूम ठीक रहेगा,’’ सिमरन बोली. चंद ही मिनट में वे बढि़या रेस्तरां पहुंच गए. ‘बहुत बढि़या आइडिया है यहां आने का सिमरन. पार्किंग और आनेजाने में व्यर्थ होने वाला समय बच गया,’’ सपना ने कहा. ‘‘सिमरन के सुझाव हमेशा बढि़या और सटीक होते हैं दीदी.’’

‘‘फिर तो इसे जल्दी से परिवार में लाना पड़ेगा सब का थिंक टैंक बनाने के लिए.’’ सचिन ने मुसकरा कर सिमरन की ओर देखा. सपना को लगा कि मुसकराहट के साथ ही सिमरन के चेहरे पर एक उदासी की लहर भी उभरी जिसे छिपाने के लिए उस ने बात बदल कर सपना से उस के विदेश प्रवास के बारे में पूछना शुरू कर दिया. ‘‘मेरा विदेश वृतांत तो खत्म हुआ, अब तुम अपने बारे में बताओ सिमरन.’’ ‘‘मेरे बारे में तो जो भी बताने लायक है वह सचिन ने बता ही दिया होगा दीदी. वैसे भी कुछ खास नहीं है बताने को. सचिन की सहपाठिन थी, अब सहकर्मी हूं और नेहरू नगर में रहती हूं.’’

‘‘अपने पापा के शौक से बनाए घर में जो लाख परेशानियां आने के बावजूद इस ने बेचा नहीं,’’ सचिन ने जोड़ा, ‘‘अकेली रहती है वहां.’’

‘‘डर नहीं लगता?’’

‘‘नहीं दीदी, डर तो अपना साथी है,’’ सिमरन हंसी. ‘‘आई सी…इस ने तेरे बचपन के नाम डरपोक को छोटा कर दिया है सचिन.’’ सिमरन खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘‘नहीं दीदी, इस ने बताया ही नहीं कि इस का नाम डरपोक था. किस से डरता था यह दीदी?’’ ‘‘बताने की क्या जरूरत है जब रातदिन इस के साथ रहोगी तो अपनेआप ही पता चल जाएगा,’’ सपना हंसी. ‘‘रातदिन साथ रहने की संभावना तो बहुत कम है, मैं मम्मीजी की भावनाओं को आहत कर के सचिन से शादी नहीं कर सकती,’’ सिमरन की आंखों में उदासी, मगर स्वर में दृढ़ता थी. सपना ने घड़ी देखी फिर बोली, ‘‘अभी न तो समय है और न ही सही जगह जहां इस विषय पर बहस कर सकें. जब तक मेरा नर्सिंगहोम तैयार नहीं हो जाता, मैं तो फुरसत में ही हूं, तुम्हारे पास जब समय हो तो बताना. तब इतमीनान से इस विषय पर चर्चा करेंगे और कोई हल ढूंढ़ेंगे.’’

‘‘आज शाम को आप और जीजाजी चल रहे हैं न इस के घर?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘अभी यहां से मैं नर्सिंगहोम जाऊंगी यह देखने कि काम कैसा चल रहा है, फिर घर जा कर दोबारा बाहर जाने की हिम्मत नहीं होगी और फिर आज मिल तो लिए ही हैं.’’

‘‘आप मिली हैं न, जीजाजी से भी तो मिलवाना है इसे,’’ सचिन बोला, ‘‘आप घर पर ही आराम करिए, मैं सिमरन को ले कर वहीं आ जाऊंगा.’’

‘‘इस से अच्छा और क्या होगा, जरूर आओ,’’ सपना मुसकराई, ‘‘खाना हमारे साथ ही खाना.’’ शाम को सचिन और सिमरन आ गए. सलिल की चुटकियों से शीघ्र ही वातावरण अनौपचारिक हो गया. जब किसी काम से सपना किचन में गई तो सचिन उस के पीछेपीछे आया.

‘‘आप ने मम्मी से बात की दीदी?’’

‘‘हां, हालचाल पूछ लिया सब का.’’

‘‘बस हालचाल ही पूछा? जो बात करनी थी वह नहीं की? आप को हो क्या गया है दीदी?’’ सचिन ने झल्ला कर पूछा. ‘‘तजरबा, सही समय पर सही बात करने का. सिमरन कहीं भागी नहीं जा रही है, शादी करेगी तो तेरे से ही. जहां इतने साल सब्र किया है थोड़ा और कर ले.’’ ‘‘इस के सिवा और कर भी क्या सकता हूं,’’ सचिन ने उसांस ले कर कहा. इस के बाद सपना ने सिमरन से और भी आत्मीयता से बातचीत शुरू कर दी. यह सुन कर कि सचिन औफिस के काम से मुंबई जा रहा है, सपना उस शाम सिमरन के घर चली गई. उस का घर बहुत ही सुंदर था. लगता था बनवाने वाले ने बहुत ही शौक से बनवाया था. ‘‘बहुत अच्छा किया तुम ने यह घर न बेच कर सिमरन. जाहिर है, शादी के बाद भी यहीं रहना चाहोगी. सचिन तैयार है इस के लिए?’’ ‘‘सचिन तो बगैर किसी शर्त के मेरी हर बात मानने को तैयार है, लेकिन मैं बगैर उस के मम्मीपापा की रजामंदी के शादी नहीं कर सकती. मांबाप से उन के बेटे को विमुख कभी नहीं करूंगी. प्रेम तो विवेकहीन और अव्यावहारिक होता है दीदी. उस के लिए सचिन को अपनों को नहीं छोड़ने दूंगी.’’

‘‘यह तो बहुत ही अच्छी बात है सिमरन. चाचाचाचीजी यानी सचिन के मम्मीपापा भी बहुत अच्छे हैं. अगर उन्हें ठीक से समझाया जाए यानी तुम्हारी शर्त का कारण बताया जाए तो वे भी सहर्ष मान जाएंगे. लेकिन सचिन ने उन्हें कारण बताया ही नहीं है.’’ ‘‘बताता तो तब न जब उसे खुद मालूम होता. मैं ने उसे कई बार बताने की कोशिश की, लेकिन वह सुनना ही नहीं चाहता. कहता है कि जब मेरे साथ हो तो भविष्य के सुनहरे सपने देखो, अतीत की बात मत करो. मुझे भी अतीत याद रखने का कोई शौक नहीं है दीदी, मगर अतीत से या जीवन से जुड़े कुछ तथ्य ऐसे भी होते हैं जिन्हें चाह कर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, उन के साथ जीना मजबूरी होती है.’’ ‘‘अगर चाहो तो उस मजबूरी को मुझ से बांट सकती हो सिमरन,’’ सपना ने धीरे से कहा. ‘‘मैं भी यही सोच रही थी दीदी,’’ सिमरन ने जैसे राहत की सांस ली, ‘‘अकसर देर से जाने और बारबार छुट्टी लेने के कारण न नौकरी पर ध्यान दे पा रही थी न पापा के इलाज पर, अत: मैं नौकरी छोड़ कर पापा को इलाज के लिए मुंबई ले गई थी. वहां पैसा कमाने के लिए वैक्यूम क्लीनर बेचने से ले कर अस्पताल की कैंटीन, साफसफाई और बेबी सिटिंग तक के सभी काम लिए. फिर मम्मीपापा के ऐतराज के बावजूद पैसा कमाने के लिए 2 बार सैरोगेट मदर बनी. तब तो मैं ने एक मशीन की भांति बच्चों को जन्म दे कर पैसे देने वालों को पकड़ा दिया था, लेकिन अब सोचती हूं कि जब मेरे अपने बच्चे होंगे तो उन्हें पालते हुए मुझे जरूर उन बच्चों की याद आ सकती है, जिन्हें मैं ने अजनबियों पर छोड़ दिया था. हो सकता है कि विचलित या व्यथित भी हो जाऊं और ऐसा होना सचिन और उस के बच्चे के प्रति अन्याय होगा. अत: इस से बेहतर है कि यह स्थिति ही न आने दूं यानी बच्चा ही पैदा न करूं. वैसे भी मेरी उम्र अब इस के उपयुक्त नहीं है. आप चाहें तो यह सब सचिन और उस के परिवार को बता सकती हैं. उन की कोई भी प्रतिक्रिया मुझे स्वीकार होगी.’’

‘‘ठीक है सिमरन, मैं मौका देख कर सब से बात करूंगी,’’ सपना ने सिमरन को आश्वासन दिया. सिमरन ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था. उस की भावनाओं का खयाल रखना जरूरी था. सचिन के साथ तो खैर कोई समस्या नहीं थी, उसे तो सिमरन हर हाल में ही स्वीकार थी, लेकिन उस के घर वालों से आज की सचाई यानी सैरोगेट मदर बन चुकी बहू को स्वीकार करवाना आसान नहीं था. उन लोगों को तो सिमरन की बड़ी उम्र बच्चे पैदा करने के उपयुक्त नहीं है कि दलील दे कर समझाना होगा. सचिन के प्यार के लिए इतने से कपट का सहारा लेना तो बनता ही है.

Online Story Telling : नीना का घर छोड़ने का फैसला सही था

Online Story Telling :  ‘‘अरे रामू घर की सफाई हुई या नहीं? जल्दी से चाय का पानी आंच पर चढ़ाओ.’’

सवेरे सवेरे अम्मां की आवाज से अचानक मेरी नींद खुली तो देखा वे नौकरों को अलगअलग निर्देश दे रही थीं. पूरे घर में हलचल मची थी. आज गरीबरथ से जया दीदी आने वाली हैं. जया दीदी हम बहनों से सब से बड़ी हैं. उन की शादी बहुत ही ऊंचे खानदान में हुई है. साथ में दोनों बच्चे व जीजाजी भी आ रहे हैं. अम्मां चाहती हैं कि इंतजाम में कोई कमी न हो.

तभी बाबूजी की आवाज आई, ‘‘अरे बैठक की चादर बदली कि नहीं? मेहमान आने ही वाले होंगे. सब कुछ साफसुथरा होना चाहिए. कभीकभी तो आ पाते हैं बेचारे. उन को छुट्टी ही कहां मिलती है.’’

तभी अम्मां की नजर मुझ पर पड़ी, ‘‘अरे नीना, तू तो ऐसे ही बैठी है और यह क्या, मुन्नू तो एकदम गंदा है. चल उठ, नहाधो कर नए कपड़े पहन और हां, मुन्नू को भी ढंग से तैयार कर देना वरना मेहमान कहेंगे कि हम ने तुम्हें ठीक से नहीं रखा.’’

अम्मां की बातें सुन कर मन कसैला हो गया. मैं भी शादी के बाद जब 1-2 बार आई थी, तब घर का माहौल ऐसा ही रहता था. पहली बार जब मैं शादी के बाद मायके आई थी, तब सब कैसे खुश हुए थे. क्या खिलाएं, कहां बैठाएं. लग रहा था जैसे मैं कभी आऊंगी ही नहीं.

लेकिन कितने दिन ऐसा आदर सत्कार मुझे मिला. ससुराल जाते ही सब को मेरी बीमारी के बारे में पता चल गया. कुछ दिनों तक तो उन लोगों ने मुझे बरदाश्त किया, फिर बहाने से यहां ला कर बैठा गए. दरअसल, मुझे सफेद दाग की बीमारी थी, जिसे छिपा कर मेरी शादी की गई थी.

फिर घर की प्यारी बेटी, जो पिता की आंखों का तारा व मां के लिए नाज थी, के साथ शुरू हुआ एक नया अध्याय. जो पिता मेरा खुले दिल से इलाज करवाते थे, उन्हें अब मेरी जरूरी दवाएं भी बोझ लगने लगीं. मां को शर्म आने लगी कि पासपड़ोस वाले कहेंगे कि बेटी मायके में आ कर ही बस गई. भाईबहन भी कटाक्ष करने से बाज नहीं आते थे.

अभी यह लड़ाई चल ही रही थी कि पति का बोया हुआ बीज आकार लेने लगा. खैर, जैसेतैसे मुन्नू का जन्म हुआ.

नाती के जन्म की जैसी खुशी होनी चाहिए, वैसी किसी में नहीं दिखी. बस एक कोरम पूरा किया गया.

धीरेधीरे मुन्नू 3 साल का हो गया. तब मैं ने भी ठान ली कि ऐसे बैठे रह कर ताने सुनने से अच्छा है कुछ काम किया जाए.

सिलाईकढ़ाई और पेंटिंग का शौक मुझे शुरू से ही था. शादी के पहले मैं ने सिलाई का कोर्स भी किया था. मैं अगलबगल की कुछ लड़कियों को सिलाई सिखाने लगी. उन को मेरा सिखाने का तरीका अच्छा लगा, तो वे और लड़कियां भी ले आईं. इस तरह मेरा सिलाई सैंटर चल निकला. ढेर सारी लड़कियां मुझ से सिलाई सीखने आने लगीं और इस से मेरी अच्छी कमाई होने लगी.

मुन्नू के 4 साल का होने पर मैं ने उसे पास के प्ले स्कूल में भरती करा दिया. अब मेरे पास समय भी काफी बचने लगा, जिस का सदुपयोग मैं अपने सिलाई सैंटर में किया करती थी. धीरेधीरे मेरा सैंटर एक मान्यता प्राप्त सैंटर हो गया. काम काफी बढ़ जाने के कारण मुझे 2 सहायक भी रखने पड़े. इस से मुझे अच्छी मदद मिलती थी.

अभी जिंदगी ने रफ्तार पकड़ी ही थी कि भैया की शादी हो गई. नई भाभी घर में आईं तो कुछ दिन तो सब कुछ ठीक रहा. मगर धीरेधीरे उन को मेरा वहां रहना नागवार गुजरने लगा.

मां अगर मुन्नू के लिए कुछ भी करतीं तो उन का पारा 7वें आसमान पर चढ़ जाता. शुरूशुरू में तो वे कुछ नहीं कहती थीं, लेकिन बाद में खुलेआम विरोध करने लगीं.

एक दिन तो हद ही हो गई. बाबूजी बाजार से मुन्नू के लिए खिलौने ले आए. उन्हें देखते ही भाभी एकदम फट पड़ीं. चिल्ला कर बोलीं, ‘‘बाबूजी, घर में अब यह सब फुजूलखर्ची बिलकुल भी नहीं चलेगी. इस महंगाई में घर चलाना ऐसे ही मुश्किल हो गया है, ऊपर से आप आए दिन मुन्नू पर फुजूलखर्ची करते रहते हैं.’’

हालांकि ऐसा नहीं था कि घर की माली हालत खराब थी. भैया कालेज में हिंदी के प्रोफैसर थे और बाबूजी को भी अच्छीखासी पैंशन मिलती थी. मुझे भाभी की बातें उतनी बुरी नहीं लगीं, जितना बुरा बाबूजी का चुप रहना लगा. बाबूजी का न बोलना मुझे भीतर तक भेद गया. मैं सोचने लगी क्या बाबूजी पुत्रप्रेम में इतने अंधे हो गए हैं कि बहू की बातों का विरोध तक नहीं कर सकते?

उन्हीं बाबूजी की तो मैं भी संतान थी. मेरा मन कचोट कर रह गया. क्या शादी के बाद लड़कियां इतनी पराई हो जाती हैं कि मांबाप पर भी उन का हक नहीं रहता? खैर जैसेतैसे मन को मना कर मैं फिर सामान्य हो गई. मुन्नू को स्कूल भेजना और मेरा सैंटर चलाना जारी रहा.

मेरा सिलाई सैंटर दिनबदिन मशहूर होता जा रहा था. अब आसपास के गांवों की लड़कियां और महिलाएं भी आने लगी थीं. मेरी कमाई अब अच्छी होने लगी थी, इसलिए मैं हर महीने कुछ रुपए मां के हाथ पर रख देती थी. शुरू में तो मां ने मना किया, परंतु मेरे यह कहने पर कि अगर मैं लड़का होती और कमाती रहती तो तुम पैसे लेतीं न, वे मान गई थीं. कुछ पैसे मैं भविष्य के लिए बैंक में भी जमा करा देती थी.

किसी तरह जिंदगी की गाड़ी चल रही थी. घर में भाभी की चिकचिक बदस्तूर जारी थी. मांपिताजी के पुत्रप्रेम से भाभी का दिमाग एकदम चढ़ गया था. अब तो वे अपनेआप को उस घर की मालकिन समझने लगी थीं. हालांकि मां का स्वास्थ्य बिलकुल ठीक था और वे घर का कामकाज भी करना चाहती थीं, लेकिन धीरेधीरे मां को उन्होंने एकदम बैठा दिया था.

उन्हें खाना बनाने का बहुत शौक था, खासकर बाबूजी को कुछ नया बना कर खिलाने का, जिसे वे बड़े चाव से खाते थे. लेकिन भाभी को यह सब फुजूलखर्ची लगती थी, इसलिए उन्होंने मां को धीरेधीरे रसोई से दूर कर दिया था.

मैं तो उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती थी. मुझे देखते ही वे बेवजह अपने बच्चों को मारनेपीटने लगती थीं. एक दिन मैं दोपहर को सिलाई सैंटर से खाना खाने घर पहुंची तो बाहर बहुत धूप थी. सोचा था घर पहुंच कर आराम से खाना खाऊंगी.

हाथमुंह धो कर खाना ले कर बैठी ही थी कि भाभी ने भुनभुनाना शुरू कर दिया कि कितना आराम है. बैठेबैठाए आराम से खाना जो मिल जाता है. मुफ्त के खाने की लोगों को आदत लग गई है. अरे जितना खर्च इस में लगता है, उतने में तो हम 2 नौकर रख लें.

सुन कर हाथ का कौर हाथ में ही रह गया. लगा, जैसे खाना नहीं जहर खा रही हूं. फिर खाना बिलकुल नहीं खाया गया. हालांकि जितना बन पाता था, मैं सुबह किचन का काम कर के ही सिलाई सैंटर जाती थी. लेकिन भाभी को तो मुझ से बैर था, इसलिए हमेशा मुझ से ऐसी ही बातें बोलती रहती थीं. लेकिन उस दिन उन की बात मेरे दिल को चीर गई और मैं ने सोच लिया कि बस अब बहुत हो गया. अब और बरदाश्त नहीं करूंगी.

उसी क्षण मैं ने फैसला कर लिया कि अब इस घर में नहीं रहूंगी. कुछ दिन बाद

छोटे से 2 कमरों का घर तलाश कर मैं ने अम्मांबाबूजी के घर को छोड़ दिया. हालांकि घर छोड़ते समय मां ने हलका विरोध किया था, लेकिन कब तक मन को मार कर मैं जबरदस्ती इस घर में रहती.

नए घर में आने के बाद मैं नए उत्साह से अपने काम में जुट गई. अपने घर की याद तो बहुत आती थी. मगर फिर सोचती कैसा घर, जब वहां मेरी कोई कीमत ही नहीं. खैर मैं ने अपनेआप को पूरी तरह से अपने काम में रमा लिया.

सिलाई सैंटर में लड़कियों की भीड़ ज्यादा बढ़ गई तो सैंटर की एक शाखा और खोल ली. मुन्नू भी दिनोंदिन बड़ा हो रहा था और पढ़ाई में जुटा था. पढ़ने में वह काफी होशियार था. हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता था.

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. अम्मांबाबूजी का हालचाल फोन से पता चल जाता था. कभीकभार मुन्नू से मिलने के लिए वे आ भी जाते थे. अब मेरा काम बहुत बढ़ गया था.

मैं ने एक बुटीक भी खोल लिया था, जिसे हमारे सैंटर की लड़कियां और महिलाएं मिल कर चला रही थीं. मेरा बुटीक ऐसा चल निकला कि मुझे कपड़ों के निर्यात का भी और्डर मिलने लगा. मैं बहुत खुश थी कि मेरी वजह से कई महिलाओं को रोजगार मिला था.

अब मुन्नू भी एम.बी.ए. कर के मेरे आयातनिर्यात का काम देखने लगा था. उस के बारे में मुझे एक ही चिंता थी कि उस की शादी कर दूं.

एक दिन मेरे मायके की पड़ोसिन गीता आंटी मिलीं. कहने लगीं कि तुम को पता है, तुम्हारे मायके में क्या चल रहा है? मेरे इनकार करने पर उन्होंने बताया कि तुम्हारी भाभी तुम्हारे मांबाबूजी पर बहुत अत्याचार करती हैं. तुम्हारा भाई तो कुछ बोलता ही नहीं. अभी कल तुम्हारे बाबूजी मुझ से मिले थे. वे किसी वृद्धाश्रम का पता पूछ रहे थे. जब मैं ने पूछा कि वे वृद्धाश्रम क्यों जाना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं अब इस घर में एकदम नहीं रहना चाहता हूं. बहू का अत्याचार दिनबदिन बढ़ता ही जा रहा है.

सुन कर मैं रो पड़ी. ओह, मेरे अम्मांबाबूजी की यह हालत हो गई और मुझे पता भी नहीं चला. मेरा मन धिक्कार उठा.

यहां मेरी वजह से कई परिवार चल रहे थे और वहां मेरे अम्मांबाबूजी की यह हालत हो गई है. रात को ही मैं ने फैसला कर लिया, बहुत हुआ अब और नहीं. अम्मांबाबूजी को यहीं ले आऊंगी. अगले ही दिन गाड़ी ले कर मैं और मुन्नू उन को लाने के लिए घर गए. हमें देखते ही वे रोने लगे. हम ने उन्हें चुप कराया फिर साथ चलने को कहा.

अभी वे कुछ बोलते, उस से पहले ही वहां भाभी आ गईं और अपना वही अनर्गल प्रलाप करने लगीं. बाबूजी ने उन की तरफ देखा और शांति से बस इतना कहा, ‘‘हमें जाने दो बहू.’’

अम्मांबाबूजी गाड़ी में बैठ गए. मुझे लगा आज मैं हवा में उड़ रही हूं. आज मैं ने जिंदगी की जंग को जीत लिया था.

Romantic Hindi Story : जीवनसंगिनी अच्छी मिल गई

Romantic Hindi Story : शादी के बाद सुरुचि ससुराल पहुंची. सारे कार्यक्रम खत्म होने के बाद 3-4 दिनों में सभी मेहमान एकएक कर के वापस चले गए. लेकिन, उस की ननद और उस के 2 बच्चे 2 दिनों के लिए रुक गए. उस के साससुसर ने तो बहुत पहले ही इस दुनिया से विदा ले ली थी, इसलिए उस की ननद ने, जितने दिन भी रहीं, सुरुचि को भरपूर प्यार दिया ताकि उस को सास की कमी न खले. भाई के विवाह की सारी जिम्मेदारी वे ही संभाल रही थीं. सुरुचि ने उन के सामने ही घर के कामों को सुचारु रूप से संभालना शुरू कर दिया था. उस ने अपने स्वभाव से उन का दिल जीत लिया था. ननद इस बात से संतुष्ट थीं कि उन के भाई को बहुत अच्छी जीवनसंगिनी मिली है. अब उन्हें भाई की चिंता करने की जरूरत नहीं है.

विदा लेते समय ननद ने सुरुचि को गले लगाते हुए कहा, ‘‘मेरा भाईर् दिल का बहुत अच्छा है, तुझे कभी कोई तकलीफ नहीं होने देगा, तू उस का ध्यान रखना और कभी भी मुझ से कोई सलाह लेनी हो तो संकोच नहीं करना. मैं आती रहूंगी, दिल्ली से सहारनपुर दूर ही कितना है.’’

‘‘दीदी, आप परेशान मत होइए, मैं इन का ध्यान रखूंगी,’’ सुरुचि ने झुक कर उन के पैर छुए. उस की ननद तो औटो में बैठ गई लेकिन बच्चे खड़े ही रहे. सुरुचि ने उन से कहा, ‘‘जाओ, ममा के साथ बैठो.’’

‘‘नहीं, अब तो तुम आ गई हो, इसलिए ये यहीं रहेंगे…’’ ननद आगे कुछ और कहतेकहते जैसे रुक सी गईं.

सुरुचि यह सुन कर अवाक रह गई. अभी विवाह को दिन ही कितने हुए हैं, इसलिए कोई भी सवाल करना उसे ठीक नहीं लगा. उन के जाने के बाद उस के दिमाग में सवालों ने उमड़ना शुरू कर दिया था, कहीं दीदी इसलिए तो मुझ पर इतना स्नेह नहीं उड़ेल रही थीं कि अपने बच्चों की जिम्मेदारी मुझ पर डाल कर आजाद होना चाह रही थीं. उन के छोटे से शहर में अच्छी पढ़ाई होती नहीं है, लेकिन एक बार मुझ से अपनी योजना के बारे में बता कर मेरी भी तो मरजी जाननी चाहिए थी. जल्दी से जल्दी अपने शक को दूर करने के लिए वह पति के औफिस से लौट कर आने का इंतजार करने लगी.

सुंदर के आते ही उस ने उसे चाय दी. उस के थोड़े रिलैक्स होते ही, यह सोच कर कि उसे यह न लगे कि उस की बहन के बच्चे रखने में उसे आपत्ति है, उस ने धीरे से पूछा, ‘‘दीदी के बच्चे यहीं रहेंगे क्या?’’

‘‘दीदी के नहीं, वे मेरे ही बच्चे हैं. पत्नी की मृत्यु के बाद दोनों बच्चों को अपने पास रख कर उन्होंने ही उन को पाला है. तुम्हें…’’

‘‘क्या तुम शादीशुदा हो? तुम ने हमें पहले क्यों नहीं बताया? हमें धोखा दिया…? अपने पति की बात पूरी होने से पहले ही वह लगभग चीखती हुई बोली. उसे लगा जैसे वह किसी साजिश की शिकार हुई है, इस स्थिति के लिए वह बिलकुल तैयार नहीं थी.

सुंदर भौचक सा थोड़ी देर तक उस की तरफ देखता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘मैं ने तुम्हारे भाई से सबकुछ बता दिया था. उन्होंने तुम्हें नहीं बताया? मैं ने तुम्हें धोखा नहीं दिया. फिर भी तुम मेरी ओर से आजाद हो, कभी भी वापस जा सकती हो.’’

अब चौंकने की बारी उस की थी. ‘तो क्या, मेरे अपने भाई ने मुझे छला है.’ उस को लगा उस के माथे की नसें फट जाएंगी, उस ने दोनों हाथों से जोर से सिर पकड़ लिया और रोतेरोते, धम्म से जमीन पर बैठ गई. कहनेसुनने को अब बचा ही क्या था. उस के सारे सपने जैसे टूट कर बिखर गए थे. शरीर से जैसे किसी ने सारी शक्ति निचोड़ ली हो, वह किसी तरह वहां से उठ कर सोफे पर निढाल हो कर लेट गई.

सुरुचि के दिमाग में विचारों ने तांडव करना शुरू कर दिया था, अतीत की यादों की बदली घुमड़घुमड़ कर बरसने लगी. उस के पिता तो बहुत पहले ही चले गए थे, उस की मां ने ही उसे और उस के भाई को नौकरी कर के पढ़ायालिखाया. जब वह कालेज में पढ़ती थी, उस के भविष्य के सपने बुनने के दिन थे, तभी अचानक हार्टअटैक से मां की मृत्यु हो गई. भाई उस से 5 साल बड़ा था, इसलिए उस का विवाह मां के सामने ही हो गया था.

मां के जाने के बाद भाईभाभी का उस के प्रति व्यवहार बिलकुल बदल गया. वे उसे बोझ समझने लगे थे. गे्रजुएशन के बाद उस की पढ़ाई पर भी उन्होंने रोक लगा दी थी. भाभी भी औफिस जाती थी. सुरुचि सुबह से शाम घर के काम में जुटी रहती थी. उस के विवाह के लिए कई प्रस्ताव आए, लेकिन ‘अभी जल्दी क्या है’ कह कर भाईभाभी टाल दिया करते थे, मुफ्त की नौकरानी जो मिली हुईर् थी.

इसी बीच, उन के 2 बच्चे हो गए थे. जब पानी सिर से गुजरने लगा और रिश्तेदारों ने उन्हें टोकना शुरू कर दिया, तो उन्होंने उस की शादी के बारे में सोचना शुरू किया, जिस की परिणति इस रिश्ते से हुई. जिस उम्र की वह थी, उस में बिना खर्च के इस से अच्छा रिश्ता क्या हो सकता था. उस का मन भाईभाभी के लिए घृणा से भर उठा.

अचानक, सुंदर को सामने खड़े देख कर उस के विचारों को झटका लगा. सुंदर ने उस के पास बैठते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ. लेकिन दुखी होने से बीता वक्त वापस नहीं आएगा. अभी उठो और शांतमन से इस का हल सोचो. जो तुम चाहोगी, वही होगा. तब तक तुम मेरी मेहमान हो. तुम कहोगी तो मैं तुम्हारे भाई के पास छोड़ आऊंगा.’’

‘‘भाई के पास जा कर क्या होगा. यदि, उन्हें मेरी खुशी की परवा होती तो ऐसा करते ही क्यों. मुझे नहीं जाना उन के पास,’’ वह बुदबुदाईर् और आंखों के आंसू पोंछ कर घर के काम में लग गई.

अगले दिन सुबहसुबह उस की ननद का फोन आया. सुरुचि समझ गई कि कल की घटना के बारे में वे जान चुकी हैं, इसीलिए उन का फोन आया है. उधर से आवाज आई, ‘‘सुरुचि बेटा, हम ने तुम्हारे भाई से कुछ भी नहीं छिपाया था. फिर भी यदि तुम्हें बच्चों से समस्या है, तो वे पहले की तरह मेरे पास ही रहेंगे, लेकिन मेरे भाई को मत छोड़ना, बहुत सालों बाद उस के जीवन में तुम्हारे रूप में खुशी आई है. बड़ी मुश्किल से वह विवाह के लिए राजी हुआ था.’’ वे भरे गले से बोलीं.

‘‘जी,’’ इस के अलावा वह कुछ बोल ही नहीं पाई. इस से पहले कि सुरुचि कुछ फैसला ले कर उन्हें बताए, उन्होंने ही उस की सोच को दिशा दे दी थी.

उस ने नए सिरे से सोचना शुरू किया कि भाई के घर वापस जा कर वह फिर से उस नारकीय दलदल में फंसना नहीं चाहती और बिना किसी सहारे के अकेली लड़की की इस दुनिया में क्या दशा होती है, यह सब जानते हैं. यदि उस का विवाह किसी कुंआरे लड़के से होता, तो क्या गारंटी थी वह सुंदर की तरह उसे समझने वाला होता. उस की कोई गलती नहीं है, फिर भी वह उसे आजाद करने के लिए तैयार है. इतना प्यार करने वाली मां समान ननद, कहां सब को मिलती है. भाईबहन का प्यार, जिस में दोनों एकदूसरे की खुशी के लिए कुछ भी त्याग करने के लिए तैयार हैं, जो उसे कभी अपने भाई से नहीं मिला.

बच्चे जो शुरू में उसे दूर से सहमेसहमे देखते थे, अब सारा दिन उस के आगेपीछे घूमते रहते हैं. इतने सुखी संसार को वह कैसे त्याग सकती है. जो खुशी प्यार और अच्छे रिश्तों से हासिल हो सकती है, बेशुमार धनदौलत या ऐशोआराम से नहीं मिल सकती. इतना प्यार, जिस की उस के जीवन में बहुत कमी थी, हाथ फैलाए उस के स्वागत के लिए तैयार है.

समाज में अधिकतर बहुओं को घर में निचला दर्जा दिया जाता है, वहां एक लड़की को विवाह के बाद इतना प्यार और मानसम्मान मिल जाए, तो उसे और क्या चाहिए. उसे अपने समय से समझौता कर लेने में ही भलाई लगी. शक व चिंता की स्थिति से वह उबर चुकी थी.

आत्मसंतुष्टि के लिए उस ने दोनों बच्चों को अपने पास बुलाया और पूछा, ‘‘बेटा, मैं जा रही हूं, तुम दोनों, पहले की तरह, अपनी बूआ के साथ रहोगे न?’’

‘‘नहींनहीं, वहां पापा नहीं रह सकते, हमें आप दोनों के साथ रहना है. आप हमें छोड़ कर मत जाइए, प्लीज. आप हमें बहुत अच्छी लगती हैं.’’ इतना कह कर दोनों सुबकने लगे.

सुरुचि ने दोनों को गले से लगा लिया. उस का भी दिल भर आया, इतना तो उसे कभी, उस के भतीजों ने महत्त्व नहीं दिया था, जिन को उस ने वर्षों तक प्यारदुलार दिया था.

सुरुचि ने अपनी ननद को अपने फैसले से अवगत कराने के लिए फोन मिलाया और बोली, ‘‘दीदी, मैं यहीं रहूंगी. कहीं नहीं जाऊंगी. दोनों बच्चे भी मेरे साथ रहेंगे.’’ अभी उस की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि उस की नजर पीछे खड़े, सुंदर पर पड़ी, जो उस की बात सुन कर मुसकरा रहा था. आंखें चार होने पर वह नवयौवना सी शरमा गई, भूल गई कि वह अपनी ननद से बात कर रही थी.

Best Hindi Story : दोस्ती प्यार में बदल गई

Best Hindi Story : रात थी कि बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी. सफलता और असफलता की आशानिराशा के बीच सब के मन में एक तूफान चल रहा था. औपरेशन थिएटर का टिमटिम करता बल्ब कभी आशंकाओं को बढ़ा देता तो कभी दिलासा देता प्रतीत होता. नर्सों के पैरों की आहट दिल की धड़कनें तेज करने लगती. नवीन बेचैनी से इधर से उधर टहल रहा था. हौस्पिटल के इस तल पर सन्नाटा था. नवीन कुछ गंभीर मरीजों के रिश्तेदारों के उदास चेहरों पर नजर दौड़ाता, फिर सामने बैठी अपनी मां को ध्यान से देखता और अंदाजा लगाता कि क्या मां वास्तव में परेशान हैं.

अंदर आई.सी.यू. में नवीन की पत्नी सुजाता जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रही थी. नवीन पूरे यकीन के साथ सोच रहा था कि अभी डाक्टर आ कर कहेगा, सुजाता ठीक है.

कल कितनी चोटें आई थीं सुजाता को. नवीन, सुजाता और उन के दोनों बच्चे दिव्यांशु और दिव्या पिकनिक से लौट रहे थे. कार नवीन ही चला रहा था. सामने से आ रहे ट्रक ने सुजाता की तरफ की खिड़की में जोरदार टक्कर मारी. नवीन और पीछे बैठे बच्चे तो बच गए, लेकिन सुजाता को गंभीर चोटें आईं. उस का सिर भी फट गया था. कार भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी. नवीन किसी से लिफ्ट ले कर घायल सुजाता और बच्चों को ले कर यहां पहुंच गया था.

नवीन ने फोन पर अपने दोनों भाइयों विनय और नीरज को खबर दे दी थी. वे उस के यहां पहुंचने से पहले ही मां के साथ पहुंच चुके थे. विनय की यहां कुछ डाक्टरों से जानपहचान थी, इसलिए इलाज शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई थी.

नवीन ने सुजाता के लिए अपने दोनों भाइयों की बेचैनी भी देखी. उसे लगा, बस मां को ही इतने सालों में सुजाता से लगाव नहीं हो पाया. वह अपनी जीवनसंगिनी को याद करते हुए थका सा जैसे ही कुरसी पर बैठा तो लगा जैसे सुजाता उस के सामने मुसकराती हुई साकार खड़ी हो गई है. झट से आंखें बंद कर लीं ताकि कहीं उस का चेहरा आंखों के आगे से गायब न हो जाए. नवीन ने आंखें बंद कीं तो पिछली स्मृतियां दृष्टिपटल पर उभर आईं…

20 साल पहले नवीन और सुजाता एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. पढ़ाई खत्म करने के बाद जब दोनों की अच्छी नौकरी भी लग गई तो उन्होंने विवाह करने का फैसला किया.

सुजाता के मातापिता से मिल कर नवीन को बहुत अच्छा लगा था. वे इस विवाह के लिए तैयार थे, लेकिन असली समस्या नवीन को अपनी मां वसुधा से होने वाली थी. वह जानता था कि उस की पुरातनपंथी मां एक विजातीय लड़की से उस का विवाह कभी नहीं होने देंगी. उस के दोनों भाई सुजाता से मिल चुके थे और दोनों से सुजाता की अच्छी दोस्ती भी हो गई थी. जब नवीन ने घर में सुजाता के बारे में बताया तो वसुधा ने तूफान खड़ा कर दिया. नवीन के पिताजी नहीं थे.

वसुधा चिल्लाने लगीं, ‘क्या इतने मेहनत से तुम तीनों को पालपोस कर इसी दिन के लिए बड़ा किया है कि एक विजातीय लड़की बहू बन कर इस घर में आए? यह कभी नहीं हो सकता.’

कुछ दिनों तक घर में सन्नाटा छाया रहा. नवीन मां को मनाने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वे तैयार नहीं हुईं, तो उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली.

नवीन को याद आ रहा था वह दिन जब वह पहली बार सुजाता को ले कर घर पहुंचा तो मां ने कितनी क्रोधित नजरों से उसे देखा था और अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया था. घंटों बाद निकली थीं और जब वे निकलीं, सुजाता अपने दोनों देवरों से पूछपूछ कर खाना तैयार कर चुकी थी. यह था ससुराल में सुजाता का पहला दिन.

नीरज ने जबरदस्ती वसुधा को खाना खिलाया था. नवीन मूकदर्शक बना रहा था. रात को सुजाता सोने आई तो उस के चेहरे पर अपमान और थकान के मिलेजुले भाव देख कर नवीन का दिल भर आया था और फिर उस ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया था.

नवीन और सुजाता दोनों ने वसुधा के साथ समय बिताने के लिए औफिस से छुट्टियां ले ली थीं. वे दिन भर वसुधा का मूड ठीक करने की कोशिश करते, मगर कामयाब न हो पाते.

जब सुजाता गर्भवती हुई तो वसुधा ने एलान कर दिया, ‘मुझ से कोई उम्मीद न करना, नौकरी छोड़ो और अपनी घरगृहस्थी संभालो.’

यह सुजाता ही थी, जिस ने सिर्फ मां को खुश करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी. माथे की त्योरियां कम तो हुईं, लेकिन खत्म नहीं.

दिव्यांशु का जन्म हुआ तो विनय की नौकरी भी लग गई. वसुधा दिनरात कहती, ‘इस बर अपनी जाति की बहू लाऊंगी तो मन को कुछ ठंडक मिलेगी.’

सुजाता अपमानित सा महसूस करती. नवीन देखता, सुजाता मां को एक भी अपशब्द न कहती. वसुधा ने खूब खोजबीन कर के अपने मन की नीता से विनय का विवाह कर दिया. नीता को वसुधा ने पहले दिन से ही सिर पर बैठा लिया. सुजाता शांत देखती रहती. नीता भी नौकरीपेशा थी. छुट्टियां खत्म होने पर वह औफिस के लिए तैयार होने लगी तो वसुधा ने उस की भरपूर मदद की. सुजाता इस भेदभाव को देख कर हैरान खड़ी रह जाती.

कुछ दिनों बाद नीरज ने भी नौकरी लगते ही सुधा से प्रेमविवाह कर लिया. लेकिन सुधा भी वसुधा की जातिधर्म की कसौटी पर खरी उतरती थी, इसलिए वे सुधा से भी खुश थीं. इतने सालों में नवीन ने कभी मां को सुजाता से ठीक तरह से बात करते नहीं देखा था.

दिव्या हुई तो नवीन ने सुजाता को यह सोच कर उस के मायके रहने भेज दिया कि कम से कम उसे वहां शांति और आराम तो मिलेगा. नवीन रोज औफिस से सुजाता और बच्चों को देखने चला जाता और डिनर कर के ही लौटता था.

घर आ कर देखता मां रसोई में व्यस्त होतीं. वसुधा जोड़ों के दर्द की मरीज थीं, काम अब उन से होता नहीं था. नीता और सुधा शाम को ही लौटती थीं, आ कर कहतीं, ‘सुजाता भाभी के बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’

सुन कर नवीन खुश हो जाता कि कोई तो उस की कद्र करता है.

फिर विनय और नीरज अलग अलग मकान ले लिए, क्योंकि यह मकान अब सब के बढ़ते परिवार के लिए छोटा पड़ने लगा था. वसुधा ने बहुत कहा कि दूसरी मंजिल बनवा लेते हैं, लेकिन सब अलग घर बसाना चाहते थे.

विनय और नीरज चले गए तो वसुधा कुछ दिन बहुत उदास रहीं. दिव्यांशु और दिव्या को वसुधा प्यार करतीं, लेकिन सुजाता से तब भी एक दूरी बनाए रखतीं. सुजाता उन से बात करने के सौ बहाने ढूंढ़ती, मगर वसुधा हां, हूं में ही जवाब देतीं.

बच्चे स्कूल चले जाते तो घर में सन्नाटा फैल जाता. बच्चों को स्कूल भेज कर पार्क में सुबह की सैर करना सुजाता का नियम बन गया. पदोन्नति के साथसाथ नवीन की व्यस्तता बढ़ गई थी. सुजाता को हमेशा ही पढ़नेलिखने का शौक रहा. फुरसत मिलते ही वह अपनी कल्पनाओं की दुनिया में व्यस्त रहने लगी. उस के विचार, उस के सपने उसे लेखन की दुनिया में ले आए और दुख में तो कल्पना ही इंसान के लिए मां की गोद है. सुबह की सैर करतेकरते वह पता नहीं क्याक्या सोच कर लेखन सामग्री जुटा लेती.

पार्क से लौटते हुए कितने विचार, कितने शब्द सुजाता के दिमाग में आते, लेकिन अकसर वह जिस तरह सोचती, एकाग्रता के अभाव में उस तरह लिख न पाती, पन्ने फाड़ती जाती, वसुधा कभी उस के कमरे में न झांकतीं, बस उन्हें कूड़े की टोकरी में फटे हुए पन्नों का ढेर दिखता तो शुरू हो जातीं, ‘पता नहीं, क्या बकवास किस्म का काम करती रहती है. बस, पन्ने फाड़ती रहती है, कोई ढंग का काम तो आता नहीं.’

सुजाता कोई तर्क नहीं दे पाती, मगर उस का लेखन कार्य चलता रहा.

अब सुजाता ने गंभीरता से लिखना शुरू कर दिया था. इस समय उस के सामने था, सालों से मिलता आ रहा वसुधा से तानों का सिलसिला, अविश्वास और टूटता हौसला, क्योंकि वह खेदसहित रचनाओं के लौटने का दौर था. लौटी हुई कहानी उसे बेचैन कर देती.

उस की लौटी हुई रचनाओं को देख कर वसुधा के ताने बढ़ जाते, ‘समय भी खराब किया और लो अब रख लो अपने पास, लिखने में नहीं, बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दो.’

सुजाता को रोना आ जाता. सोचती, अब वह नहीं लिखेगी, तभी दिल कहता कि न घबराना है, न हारना है. मेहनत का फल जरूर मिलता है और वह फिर लिखने बैठ जाती. धीरेधीरे उस की कहानियां छपने लगीं.

सुजाता को नवीन का पूरा सहयोग था. वह लिख रही होती तो नवीन कभी उसे डिस्टर्ब न करता, बच्चे भी शांति से अपना काम करते रहते. अब सुजाता को नाम, यश, महत्त्व, पैसा मिलने लगा. उसे कुछ पुरस्कार भी मिले, वह वसुधा के पैर छूती तो वे तुनक कर चली जातीं. सुजाता अपने शहर के लिए सम्मानित हस्ती हो चुकी थी. उसे कई शैक्षणिक, सांस्कृतिक समारोहों में विशेष अतिथि की हैसियत से बुलाया जाने लगा. वसुधा की सहेलियां, पड़ोसिनें सब उन से सुजाता के गुणों की वाहवाह करतीं.

‘‘नवीनजी, आप की पत्नी अब खतरे से बाहर हैं,’’ डाक्टर की आवाज नवीन को वर्तमान में खींच लाई.

वह खड़ा हो गया, ‘‘कैसी है सुजाता?’’

‘‘चोटें बहुत हैं, बहुत ध्यान रखना पड़ेगा, थोड़ी देर में उन्हें होश आ जाएगा, तब आप चाहें तो उन से मिल सकते हैं.’’

मां के साथ सुजाता को देखने नवीन आई.सी.यू. में गया. सुजाता अभी बेहोश थी. नवीन ने थोड़ी देर बाद मां से कहा, ‘‘मां, आप थक गई होंगी, घर जा कर थोड़ा आराम कर लो, बाद में जब नीरज घर आए तो उस के साथ आ जाना.’’

वसुधा घर आ गईं, नहाने के बाद सब के लिए खाना बनाया, बच्चे नीता के पास थे. वे सब हौस्पिटल आ गए. विनय और नीरज तो नवीन के पास ही थे. सारा काम हो गया तो वसुधा को खाली घर काटने को दौड़ने लगा. पहले वे इधरउधर देखती घूमती रहीं, फिर पता नहीं उन के मन में क्या आया कि ऊपर सुजाता के कमरे की सीढि़यां चढ़ने लगीं.

साफसुथरे कमरे में एक ओर सुजाता के पढ़नेलिखने की मेज पर रखे सामान को वे ध्यान से देखने लगीं. अब तक प्रकाशित 2 कहानी संग्रह, 4 उपन्यास और बहुत सारे लेख जैसे सुजाता के अस्तित्व का बखान कर रहे थे. सुजाता की डायरी के पन्ने पलटे तो बैड पर बैठ कर पढ़ती चली गईं.

एक जगह लिखा था, ‘‘मांजी के साथ 2 बातें करने के लिए तरस जाती हूं मैं. कोमल, कांतिमय देहयष्टि, मांजी के माथे पर चंदन का टीका बहुत अच्छा लगता है मुझे. मम्मीपापा तो अब रहे नहीं, मन करता है मांजी की गोद में सिर रख कर लेट जाऊं और वे मेरे सिर पर अपना हाथ रख दें, क्या ऐसा कभी होगा?’’

एक पन्ने पर लिखा था, ‘‘आज फिर कहानी वापस आ गई. नवीन और बच्चे तो व्यस्त रहते हैं, काश, मैं मांजी से अपने मन की उधेड़बुन बांट पाती, मांजी इस समय मेरे खत्म हो चले नैतिक बल को सहारा देतीं, मुझे उन के स्नेह के 2 बोलों की जरूरत है, लेकिन मिल रहे हैं ताने.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘अगर मांजी समझ जातीं कि लेखन थोड़ा कठिन और विचित्र होता है, तो मेरे मन को थोड़ी शांति मिल जाती और मैं और अच्छा लिख पाती.’’

आगे लिखा था, ‘‘कभीकभी मेरा दिल मांजी के व्यंग्यबाणों की चोट सह नहीं पाता,

मैं घायल हो जाती हूं, जी में आता है उन से पूछूं, मेरा विजातीय होना क्यों खलता है कि मेरे द्वारा दिए गए आदरसम्मान व सेवा तक को नकार दिया जाता है? नवीन भी अपनी मां के स्वभाव से दुखी हो जाते हैं, पर कुछ कह नहीं सकते. उन का कहना है कि मां ने तीनों को बहुत मेहनत से पढ़ायालिखाया है, बहुत संघर्ष किया है पिताजी के बाद. कहते हैं, मां से कुछ नहीं कह सकता. बस तुम ही समझौता कर लो. मैं उन के स्वभाव पर सिर्फ शर्मिंदा हो सकता हूं, अपमान की पीड़ा का अथाह सागर कभीकभी मेरी आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकलता है.’’

एक जगह लिखा था, ‘‘मेरी एक भी कहानी मांजी ने नहीं पढ़ी, कितना अच्छा होता जिस कहानी के लिए मुझे पहला पुरस्कार मिला, वह मांजी ने भी पढ़ी होती.’’

वसुधा के स्वभाव से दुखी सुजाता के इतने सालों के मन की व्यथा जैसे पन्नों पर बिखरी पड़ी थी.

वसुधा ने कुछ और पन्ने पलटे, लिखा था, ‘‘हर त्योहार पर नीता और सुधा के साथ मांजी का अलग व्यवहार होता है, मेरे साथ अलग, कई रस्मों में, कई आयोजनों में मैं कोने में खड़ी रह जाती हूं आज भी. मां की दृष्टि में तो क्षमा होती है और मन में वात्सल्य.’’

पढ़तेपढ़ते वसुधा की आंखें झमाझम बरसने लगीं, उन का मन आत्मग्लानि से भर उठा. फिर सोचने लगीं कि हम औरतें ही औरतों की दुश्मन क्यों बन जाती हैं? कैसे वे इतनी क्रूर और असंवेदनशील हो उठीं? यह क्या कर बैठीं वे? अपने बेटेबहू के जीवन में अशांति का कारण वे स्वयं बनीं? नहीं, वे अपनी बहू की प्रतिभा को बिखरने नहीं देंगी. आज यह मुकदमा उन के

मन की अदालत में आया और उन्हें फैसला सुनाना है. भूल जाएंगी वे जातपांत को, याद रखेंगी सिर्फ अपनी होनहार बहू के गुणों और मधुर स्वभाव को.

वसुधा के दिल में स्नेह, उदारता का सैलाब सा उमड़ पड़ा. बरसों से जमे जातिधर्म, के भेदभाव का कुहासा स्नेह की गरमी से छंटने लगा.

Senior Citizens : आने वाले समय में बुजुर्गों का क्या होगा?

Senior Citizens : आजकल कई बच्चे ऐसे हैं जो अपने मांबाप को बुढ़ापे में बोझ समझने लगते हैं और अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं. ऐसे में अब कई मांबाप पहले ही सतर्क हो जाते हैं और अपनी संपत्ति को आखिर तक अपने पास रखते हैं. क्या आपने अपने रिटायरमेंट के बाद सुखी जीवन की प्लानिंग की?

 

हाल ही में एक सोशल मीडिया कम्युनिटी ग्रुप में 45 वर्षीय शेफाली ने कम्युनिटी मेंबर्स से एक सवाल पूछा कि समाज में अब जो बदलाव चल रहा है ऐसे में बुढ़ापे में अपने जीवन के आखिरी पड़ाव की तैयारी के लिए किसी को क्या करना चाहिए?

उस के सवाल के जवाब में कुछ मेंबर्स के निम्न रिप्लाइज आए जो आज के बदलते समाज का आईना दिखा रहे हैं-

30 वर्षीय एक अनमैरिड मेंबर ने लिखा “मैं अपने जीवन के आखिरी पड़ाव के लिए एक प्लान बनाउंगी. अपने करीबी दोस्तों के साथ रहूंगी, इतनी सेविंग कर लूंगी कि अपने लिए अटेंडेंट का खर्च उठा सकूं, अपनी हेल्थ पर इन्वेस्ट करूंगी.

45 वर्षीय एक अन्य सदस्य ने लिखा “कल किस ने देखा है. बच्चे कौन सा पास रहते हैं आजकल और जो पास रहते हैं उन से भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, उन की भी अपनी लाइफ है.”

एक अन्य सदस्य ने लिखा हमें अनाथाश्रम या किसी ओल्ड एज होम में समय से पहले में चले जाना होगा. मेरे पति के चाचा कुछ समय दुनिया से चल बसे और उन के बच्चे जो विदेश में रहते थे न तो वे उन से मिलने अस्पताल आ पाए और न ही उन के अंतिम संस्कार में आ पाए.

किसी ने यह सुझाव दिया कि आप रिटायरमेंट के लिए जितना संभव हो सके उतनी बचत करें और बाद के जीवन की देखभाल के लिए अपनी संपत्ति बेचने के लिए तैयार रहें.

 

धोखे से बेच दी मांबाप की संपत्ति

 

हाल ही में नागपुर में घटी एक घटना में बेटे ने बूढ़े मातापिता की देखभाल करने के बजाय, मांबाप के घर और संपत्ति को धोखे से बेच दिया. जिस के कारण बुजुर्ग दंपत्ति को वृद्धाश्रम में रहना पड़ा.

 

बुजुर्गों की बढ़ती आबादी एक वैश्विक घटना

 

जनसंख्या की उम्र बढ़ना आज एक वैश्विक घटना बन रही है. जापान और चीन जैसे कई देशों में भी वरिष्ठ नागरिकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार साल 2035 तक चीन की 60 वर्ष और उस से अधिक आयु की आबादी 400 मिलियन (40 करोड़) से अधिक हो जाएगी और 2050 तक 50 करोड़ तक पहुंच जाएगी और यह चीन के लिए चिंता का विषय बन रहा है.

हाल की एक रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि चीन में हजारों किंडरगार्डन स्कूल बंद किए जा रहे हैं क्योंकि बच्चों की भर्ती में तेजी से गिरावट आई है. स्कूलों को वृद्धाश्रम में बदला जा रहा है और वहां कर्मचारियों को वृद्धाश्रमों की देखभाल करने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है.

भारत में भी कुछ ऐसे ही संकेत दिखाई दे रहे हैं. वर्तमान में भारत की जनसंख्या का 10% हिस्सा वरिष्ठ नागरिकों का है और 2050 तक वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 30 करोड़ 19 लाख हो सकती है.

 

वृद्धाश्रम जहां से वापसी की कोई उम्मीद नहीं

 

हर साल वृद्धाश्रम में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है. घर वापसी के इंतजार में बुजुर्गों की आंखें पथरा गई हैं लेकिन वहां से वापसी की कोई उम्मीद नहीं. वृद्धाश्रम ऐसे जेल बन रहे हैं जहां एक बार जाना यानी बाकी की बची उम्र वहां कैद ही कर रह जाना हो रहा है.

 

“बच्चे बुढ़ापे में केयर करेंगे इस बात की कोई गारंटी नहीं” – निखिल कामथ

ब्रोकरेज फर्म जीरोधा के कोफाउंडर निखिल कामथ  ने हाल ही में पौडकास्ट WTF में बच्चों को ले कर अपनी सोच बताते हुए कहा कि वह केवल इस उम्मीद में कि उन के बूढ़े होने पर बच्चे उन के बुढ़ापे का सहारा बनेंगे. उन की देखभाल करेंगे वे अपने जीवन के 18-20 साल किसी बच्चे की परवरिश में खर्च नहीं करना चाहते. उसी पौडकास्ट में उन्होंने यह भी कहा कि अपनी विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें बच्चे पैदा करने का शौक नहीं है.

इसी सोच के साथ हाल ही में निखिल कामथ साल 2010 में वौरेन बफे और बिल गेट्स द्वारा स्थापित ‘The Giving Pledge’ द गिविंग प्लेज का हिस्सा भी बन गए हैं और अजीम प्रेमजी, किरण मजूमदार-शा और रोहिणी व नंदन नीलेकणि के बाद वे इस अच्छे काम में शामिल होने वाले चौथे और सबसे युवा भारतीय बन गए हैं. ‘गिविंग प्लेज’ एक अभियान है जो दुनियाभर के अमीरों को अपने जीवनकाल में या फिर अपनी वसीयत में परोपकार के लिए कम से कम आधी संपत्ति दान करने के लिए प्रोत्साहित करता है.

 

बुजुर्गों का आर्थिक रूप से मजबूत और हेल्दी होना बेहद जरूरी

 

देखने में आया है कि उन बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार अधिक होता है, जो आर्थिक रूप से अपनी संतानों पर निर्भर होते हैं. कुछ बुजुर्ग भावुक हो कर अपने जीते जी अपनी वसीयत संतानों के नाम पर कर देते हैं या कई बार बच्चे जबरदस्ती अपने मांबाप की संपत्ति को अपने नाम करवा लेते हैं और फिर मांबाप के साथ दुर्व्यवहार करते हैं.

एनजीओ ‘हेल्पएज इंडिया’ द्वारा किए गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार  कम से कम 47 प्रतिशत बुजुर्ग अपने परिवारों पर आर्थिक रूप से निर्भर हैं और 34 फीसदी पेंशन एवं सरकारी नकद हस्तांतरण पर निर्भर हैं. ऐसे में प्रत्येक बुजुर्ग के लिए यह अत्यंत जरूरी है कि वे बुढ़ापे में आर्थिक रूप से मजबूत रहें.  निम्नलिखित तरीकों से आप अपने फ्यूचर को प्लान कर सकते हैं ताकि बुढ़ापे में कोई दिक्कत न हो.

* वित्तीय सुरक्षा के लिए योजना और बजट बनाएं, आपातकालीन निधि बनाएं और रिटायरमेंट के लिए इन्वेस्ट करें.

* लौंग टर्म केयर औप्शन्स पर विचार करें, जैसे कि सहायता प्राप्त आवास या घर में केयर गिवर के बारे में पहले से जानकारी प्राप्त करें और उस की योजना बनाएं.

* सेम  एज ग्रुप फ्रेंड्स, परिवार और कम्युनिटी के मेंबर्स के साथ हेल्पिंग नेटवर्क बनाएं, उन के साथ रिलेशन डेवलप करें जो बुढ़ापे में जरूरत के समय आप की मदद कर सकें.

* व्यायाम और हेल्दी डाइट रूटीन को अपना कर हेल्दी रह कर लंबे समय तक इंडिपेंडेंट रहने में मदद मिल सकती है.

  • आए दिन खबरों में देखने पढ़ने को मिलता है कि बुजुर्ग मातापिता को उन की संतान तब बेसहारा छोड़ देती हैं जब उन्हें सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत थी. कई बार बच्चों ने प्रताड़ित तक किया होता है. ऐसे में अपनी प्रौपर्टी की सेफ्टी सुनिश्चित करने के लिए वसीयत, पावर आफ अटार्नी और अन्य संपत्ति योजना दस्तावेज बनाएं.

जीवन के संध्याकाल के लिए अपने कोई शौक या हौबी बनाए रखें. इस से बुढ़ापे में व्यर्थ की चिंताएं नहीं सतातीं और समय काटने का एक क्रिएटिव जरिया मिलता है.

 

बुजुर्गों की मदद के लिए एक अनूठा स्टार्टअप ‘गुडफेलोज’

 

उद्योग जगत के महान दिग्गज रतन टाटा ने भी ‘गुडफेलोज’  नाम के एक अनूठे स्टार्टअप में निवेश करते वक्त कहा था “आप तब तक बूढ़े होने की चिंता नहीं करते जब तक आप बूढ़े नहीं हो जाते, उस के बाद आप के लिए यह दुनिया बहुत मुश्किल हो जाती है.”

‘गुडफेलोज’ स्टार्टअप वरिष्ठ नागरिकों को युवा ग्रेजुएट्स के साथ जोड़ कर इंटर जेनरेशनल दोस्ती को प्रोत्साहित करने के प्रयास में सहयोग प्रदान करता है. गुडफेलोज वही करता है जो एक पोता या पोती करते हैं. गुडफेलो एक प्रीमियम सब्सक्रिप्शन मौडल पर काम करता है जिस में पहला महीना मुफ्त होता है और दूसरे महीने के बाद एक छोटा सब्सक्रिप्शन शुल्क पेंशन लेने वाले बुजुर्गों की सीमित आर्थिक सामर्थ्य पर लिया जाता है. बुजुर्गों के लिए इस स्टार्टअप का उद्देश्य बुजुर्गों के अकेलेपन और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को भारत में वास्तविक सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं के रूप में पहचानना है.

 

Hindi Story : कांटा निकल गया

Hindi Story : महाराजजी पर मेरे ससुरालवालों की अपार श्रद्धा थी. महाराजजी के दिशा-निर्देशन पर ही हमारे घर के समस्त कार्य संपन्न होते थे. सासूमां सुबह उठते ही सबसे पहले महाराजजी की तस्वीर पर माथा टेकतीं थीं. ससुर जी नहा-धो कर सबसे पहले उनकी तस्वीर के आगे दिया-बत्ती करते और मेरे पति तो हर गुरुवार और शनिवार नियम से महाराजजी के दरबार में हाजिरी दिया करते थे. उनके आदेश पर श्रद्धालुओं को भोजन कराना, कहीं मंदिर बनवाने में सहयोग राशि जुटाना, कहीं लड़कियों का सामूहिक विवाह कराना ऐसे तमाम कार्य थे, जिसमें महाराजजी के आदेश पर वे तन, मन, धन से जुटे रहते थे. मैं जब शादी करके इस घर में आई तो किसी मनुष्य के प्रति इतना श्रद्धाभाव और पैसे की बर्बादी मुझे कुछ जमती नहीं थी. अपने घर में तो हम बस मंदिर जाया करते थे और वहीं दिया-बत्ती करके भगवान के आगे ही हाथ जोड़ कर अपने दुखड़े रो आते थे. मगर यहां तो कुछ ज्यादा ही धार्मिक माहौल था. अब ईश्वर के प्रति होता तो कोई बात नहीं थी, मगर एक जीते-जागते मनुष्य के प्रति ऐसा भाव मुझे खटकता था. महाराजजी की उम्र भी कोई ज्यादा न थी, यही कोई बत्तीस-पैंतीस बरस की होगी. रंग गोरा, कद लंबा, तन पर सफेद कलफदार धोती पर लंबा रंगीन कुर्ता और भगवा फेंटा. माथे पर भगवा तिलक और कानों में सोने के कुुंडल पहनते थे. साधु-महात्मा तो नहीं, मुझे हीरो ज्यादा लगते थे. अपने भव्य, चमचमाते आश्रम के बड़े से हॉल में चांदी के पाए लगे एक सिंहासननुमा गद्दी पर बैठ कर माइक पर प्रवचन किया करते थे. सामने जमीन पर दूर तक भक्तों की पंक्तियां शांत भाव से हाथ जोड़े उनकी गंभीर वाणी को आत्मसात करती घंटों बैठी रहती थी. शुरू-शुरू में सासु मां और मेरे पति मुझे भी सत्संग में ले जाते थे. जब मुझे उससे उकताहट होने लगी तो मैं सवाल उठाने लगी, इस पर हमारे घर में महाभारत मचने लगा. कभी सास-ससुर का मुंह फूल जाता, कभी पति का. हफ्तों गुजर जाते बातचीत बंद. धीरे-धीरे मैंने ही घर की शांति के लिए सबसे समझौता कर लिया. महाराजजी में घरवालों की आस्था बढ़ती रही और हमारे घर में छोटे से छोटा कार्य भी महाराजजी की अनुमति से ही होने लगा.

बेटी पूजा की शादी तय हुई, तब महाराजजी ने कहा, ये रिश्ता तोड़ दो, लड़का इसके लिए ठीक नहीं रहेगा…. मुझे बड़ी खीज मची क्योंकि लड़का मेरी सहेली के भाई का था. परिवार मेरा देखा-भाला था. लड़के की अच्छी जौब थी, अच्छा पैसा था, ऑफिस की तरफ से फॉरेन ट्रिप भी करता रहता था. मुझे तो उसमें कोई खोट नजर नहीं आया, मगर महाराजजी का आदेश था तो मेरे पति ने बिना कोई सवाल किये रिश्ता तोड़ दिया. बाद में बेटी की जिस लड़के से शादी हुई वह न तो देखने में हैंडसम था और न उसकी कोई पक्की नौकरी थी. बाद में पता चला कि वह शराब भी पीता है और लड़कियों का शौक भी रखता है. मेरी बेटी की तो जिन्दगी ही बर्बाद हो गयी. मगर ससुरालवालों की अंधभक्ति कम न हुई. उनको मेरी बच्ची का दुख न दिखता था. उनकी आस्था महाराजजी में ज्यों की त्यों बनी रही. सास बोलीं सब अपने भाग्य का पाते हैं. इसमें महाराजजी की कोई गलती नहीं है. वह तो ज्ञानी व्यक्ति हैं. पूजा ने पिछले जन्म में पापकर्म किये होंगे, अब उसका प्रायश्चित कर रही है. प्रायश्चित से तप कर निकलेगी तो सोना हो जाएगी. मैंने तो सिर ही पीट लिया सास की ऐसी बातें सुनकर मगर कर भी क्या सकती थी.

बेटा अर्जुन आईआईटी करके इंजीनियर बनना चाहता था, महाराजजी ने कहा, ये लाइन ठीक नहीं इसके भविष्य के लिए, मेडिकल लाइन अच्छी है, इन्होंने इंटरमीडिएट के बाद उसका एडमिशन बीएससी में करवा दिया, साथ ही पीएमटी परीक्षाओं की तैयारियों के लिए कह दिया. बेटा भुनभुनाया. जीव-विज्ञान, वनस्पति विज्ञान में उसकी जरा भी रुचि नहीं थी, वह तो मैथ्स और फिजिक्स का दीवाना था. मगर महाराजजी का आदेश था. उधर बेटी की जिन्दगी बर्बाद हो गयी, अब बेटे का भविष्य दांव पर लगा था. वह लगातार पढ़ाई से दूर होता जा रहा था. पढ़े भी कैसे, वह सब्जेक्ट तो उसकी रुचि के ही नहीं थे. मैं मां थी. अपने बच्चों की इच्छाओं को, उनकी भावनाओं को मुझसे बेहतर कौन समझ सकता था? मन ही मन कुढ़ रही थी, मगर कुछ बोल नहीं पाती थी. बोलती तो हंगामा उठ खड़ा होता, सास-ससुर और पति मेरे हाथ से बने खाने का त्याग कर देते. सास चिल्लाती कि महाराजजी का अपमान करती है, चल प्रायश्चित कर. इतने ब्राह्मणों को अपने हाथों से भोजन बना कर खिला तभी यह पाप कटेगा, तभी हम भी भोजन-पानी ग्रहण करेंगे, इत्यादि, इत्यादि.

आज शाम को टीवी खोला तो हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी. चंद मिनटों में घर में रोना-धोना मच गया. सास ने तो अपनी चूड़ियां तक तोड़ डाली कि जैसे वे विधवा ही हो गयी हों, ससुर रोने-तड़पने लगे, पति ने तुरंत गाड़ी निकाली. मां और बाबूजी को लेकर आश्रम की ओर भागे. मैं बेटे अर्जुन के साथ ड्राइंगरूम में बैठी टीवी पर खबर सुनती रही और खुश होती रही. टीवी पर न्यूज चल रही थी कि महाराजजी ने घरेलू तनाव के चलते आत्महत्या कर ली. किसी अन्य लड़की का चक्कर था. मैं सोच रही थी कि कैसा शांत व्यक्तित्व दिखता था, कैसी ओजपूर्ण वाणी थी, कैसे दिल को छूते प्रवचन करते थे, दुनिया को तनावमुक्त करने वाले, दुनिया के दुखों को हरने वाले, दुनिया से यह कहने वाले कि कर्म किए जा, फल की चिंता न कर, आखिर स्वयं तनावग्रस्त कैसे हो गए और वह भी उस स्तर तक कि आत्महत्या जैसा कायरता भरा कदम उठा लिया? महाराजजी इतने दुखी और टूटे हुए इंसान कैसे निकले? इतने कायर और दब्बू कैसे निकले? अपनी पत्नी के होते दूसरी औरत के साथ रिश्ता… छी…छी… धर्म के कवर में छिपा कामी पुरुष…. अच्छा हुआ मर गया. मेरे रास्ते का कांटा हटा. काश कि अब मेरे सास-ससुर और पति की आंखों पर चढ़ा आस्था का चश्मा उतर जाए? किसी की मौत पर खुश होना अच्छी बात नहीं, मगर आज महाराजजी की मौत की खबर सुनकर जो खुशी मुझे हो रही थी उसका मैं वर्णन नहीं कर सकती. मन कर रहा है खुशी से नाचूं.

अचानक बेटे के सवाल ने मेरी तंद्रा भंग की. उसने पूछा, ‘मां, क्या अब मैं आईआईटी का फॉर्म भर दूं?’

और मैं उत्साह में भर कर बोली, ‘जरूर भर दे… अब किसी बात की चिन्ता मत कर… मैं सब संभाल लूंगी…

Short Hindi Story : उसकी ईमानदारी

Short Hindi Story : अनाज मंडी में मेरी दुकान है. बड़ी और पुरानी दुकान है. मेरे दादाजी ने यह दुकान खरीदी थी और पिताजी के बाद अब इसे मैं देखता हूं. इस दुकान में एक पुराना नौकर है माधव. दस साल से मेरी दुकान में काम कर रहा है. बड़ा ईमानदार और मेहनती है. उस पर पूरा गल्ला छोड़ कर मैं इत्मिनान से खरीदारी के लिए बाहर चला जाता हूं. माधव के होते दुकान पर एक पैसे की भी हेरफेर नहीं होती है.

पांच साल पहले की बात है. माधव की ईमानदारी देखकर मैंने उसकी तनख्वाह पांच सौ रुपये बढ़ा दी थी. जब तनख्वाह वाले दिन मैंने उसे बढ़ी हुई तनख्वाह दी तो रुपये गिनने के बाद उसने पैसे जेब में रख लिये और बिना कुछ बोले अपने काम में लग गया. मुझे बड़ी हैरानी हुई कि उसने पूछा तक नहीं कि मैंने उसे पांच सौ रुपये एक्स्ट्रा क्यों दिये? मैंने सोचा शायद वह सोच रहा है कि लालाजी ने गलती से पांच सौ रुपये ज्यादा दे दिये हैं. उसने अगर यह जान कर चुपचाप नोट रख लिये हैं तो यह उसकी ईमानदारी पर धब्बा है. खैर, मैं कुछ बोला नहीं. अगले महीने भी तनख्वाह में पांच सौ रुपये एक्स्ट्रा मिलने पर वह कुछ नहीं बोला. चुपचाप नोट लेकर जेब में रख लिये और काम में लग गया.

दो महीने बीते होंगे कि उसने काम से कई बार छुट्टी ली. मैं देखता था कि इधर काम में उसका मन भी कुछ कम ही लग रहा था. वह ज्यादातर फोन पर लगा रहता था. फिर एक हफ्ते के लिए गायब हो गया. मुझे बड़ी खीज लगी कि देखो मैंने इसकी तनख्वाह बढ़ाई, धन्यवाद देना तो दूर इसने तो काम में चोरी शुरू कर दी है. अगली तनख्वाह में मैंने उसके पांच सौ रुपये काट लिये. लेकिन इस बार भी उसने तनख्वाह लेकर चुपचाप नोट गिने और जेब में रख लिये. फिर खामोशी से काम में लग गया. मैं बड़ा बेचैन था. आखिर ये कुछ बोलता क्यों नहीं? न तब बोला जब मैंने पांच सौ रुपये ज्यादा दिये और न अब बोला जब पांच सौ रुपये मैंने काट लिये.

शाम तक मेरी बेचैनी बढ़ गई. आखिर मुझसे रहा न गया. मैंने उसको बुलाया और पूछा, ‘माधव, जब मैंने तीन महीने पहले तेरी तनख्वाह बढ़ायी थी, तब तू कुछ नहीं बोला था, आज जब मैंने पांच सौ रुपये काटे तब भी तू कुछ नहीं बोला?’

माधव सिर झुका कर बोला, ‘लालाजी, जब आपने पांच सौ बढ़ाये थे तब मेरी बीवी को लड़का हुआ था तो मैंने सोचा कि वह अपने हिस्से का लेकर आया है, इसमें मेरा क्या है और पिछले हफ्ते मेरी बीमार मां मर गई, तो आज जो आपने पांच सौ काटे तो मुझे लगा कि वह अपने हिस्से का ले गई, इसमें मेरा क्या?’

उसकी बात सुनकर मैं उसकी सोच पर हैरान रह गया. इस दुनिया में आज भी इतने सरल और ईमानदार लोग हैं, विश्वास करना कठिन था, मगर मेरे पास माधव जैसा हीरा है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें