Hindi Story : महाराजजी पर मेरे ससुरालवालों की अपार श्रद्धा थी. महाराजजी के दिशा-निर्देशन पर ही हमारे घर के समस्त कार्य संपन्न होते थे. सासूमां सुबह उठते ही सबसे पहले महाराजजी की तस्वीर पर माथा टेकतीं थीं. ससुर जी नहा-धो कर सबसे पहले उनकी तस्वीर के आगे दिया-बत्ती करते और मेरे पति तो हर गुरुवार और शनिवार नियम से महाराजजी के दरबार में हाजिरी दिया करते थे. उनके आदेश पर श्रद्धालुओं को भोजन कराना, कहीं मंदिर बनवाने में सहयोग राशि जुटाना, कहीं लड़कियों का सामूहिक विवाह कराना ऐसे तमाम कार्य थे, जिसमें महाराजजी के आदेश पर वे तन, मन, धन से जुटे रहते थे. मैं जब शादी करके इस घर में आई तो किसी मनुष्य के प्रति इतना श्रद्धाभाव और पैसे की बर्बादी मुझे कुछ जमती नहीं थी. अपने घर में तो हम बस मंदिर जाया करते थे और वहीं दिया-बत्ती करके भगवान के आगे ही हाथ जोड़ कर अपने दुखड़े रो आते थे. मगर यहां तो कुछ ज्यादा ही धार्मिक माहौल था. अब ईश्वर के प्रति होता तो कोई बात नहीं थी, मगर एक जीते-जागते मनुष्य के प्रति ऐसा भाव मुझे खटकता था. महाराजजी की उम्र भी कोई ज्यादा न थी, यही कोई बत्तीस-पैंतीस बरस की होगी. रंग गोरा, कद लंबा, तन पर सफेद कलफदार धोती पर लंबा रंगीन कुर्ता और भगवा फेंटा. माथे पर भगवा तिलक और कानों में सोने के कुुंडल पहनते थे. साधु-महात्मा तो नहीं, मुझे हीरो ज्यादा लगते थे. अपने भव्य, चमचमाते आश्रम के बड़े से हॉल में चांदी के पाए लगे एक सिंहासननुमा गद्दी पर बैठ कर माइक पर प्रवचन किया करते थे. सामने जमीन पर दूर तक भक्तों की पंक्तियां शांत भाव से हाथ जोड़े उनकी गंभीर वाणी को आत्मसात करती घंटों बैठी रहती थी. शुरू-शुरू में सासु मां और मेरे पति मुझे भी सत्संग में ले जाते थे. जब मुझे उससे उकताहट होने लगी तो मैं सवाल उठाने लगी, इस पर हमारे घर में महाभारत मचने लगा. कभी सास-ससुर का मुंह फूल जाता, कभी पति का. हफ्तों गुजर जाते बातचीत बंद. धीरे-धीरे मैंने ही घर की शांति के लिए सबसे समझौता कर लिया. महाराजजी में घरवालों की आस्था बढ़ती रही और हमारे घर में छोटे से छोटा कार्य भी महाराजजी की अनुमति से ही होने लगा.
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