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फैसला-भाग 3 : क्या मीना का फैसला सही था ?

सुबह होते ही वह उठी और अपना सामान ले कर मायके चल दी. विवेक को पता भी नहीं चला. मायके में मांबाबूजी को अपनी आप- बीती सुना कर अंजली ने ठंडी सांस ली. बाबूजी गुस्से से तमतमा उठे, ‘विवेक की यह मजाल कि फूल सी नाजुक और गंगा सी पवित्र बेटी पर लांछन लगाता है. मैं उस नवाबजादे को छोडूंगा नहीं.’ ‘आप शांत रहिए और कुछ समय बीतने दीजिए. शायद विवेक को खुद अपनी गलती का एहसास हो जाए अन्यथा हम दोनों इस की ससुराल चलेंगे,’ मां ने बाबूजी को शांत करते हुए कहा. लेकिन वहां से न कोई आया न ही उन्होंने अंजली के मांबाप से कोई बात की.

बल्कि उन की पहल को ठुकराते हुए विवेक ने तलाक के कागज अंजली को भिजवाए तो पत्थर सी बनी अंजली ने यह सोच कर चुपचाप कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए कि जहां एक बार बात बिगड़ गई वहां दोबारा सम्मान और प्यार पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती. धीरेधीरे समय बीतता गया. सौरभ का जन्म हो गया. अंजली ने कई बार नौकरी करने की जिद की पर बाबूजी ने हमेशा यह कह कर मना कर दिया कि तुम अपना बच्चा संभालो. मैं अभी इतना कमाता हूं कि तुम्हारा भरणपोषण कर सकूं. एक दिन बाबूजी अंजली को समझाते हुए बोले, ‘बेटी, जिंदगी बहुत बड़ी होती है. मैं सोचता हूं कि तेरी शादी कहीं और कर दूं.’ ‘बाबूजी, शादीविवाह से मेरा विश्वास उठा चुका है,’ अंजली बोली, ‘अब तो सौरभ के सहारे मैं पूरा जीवन काट लूंगी.’ ‘बेटी, आज तो हम हैं लेकिन कल जब हम नहीं रहेंगे तब तुम किस के सहारे रहोगी?’ बाबूजी ने समझाया.

‘क्या मैं अपना सहारा स्वयं नहीं बन सकती? मैं क्यों दूसरों में अपना सहारा ढूंढ़ने के लिए कदम आगे बढ़ाऊं और फिर गिरूं.’ ‘पांचों उंगलियां एकसमान नहीं होतीं,’ बाबूजी समझाते हुए बोले, ‘जीतेजी तुम्हारा सुखीसंसार देखने की हार्दिक इच्छा है वरना मर कर भी मुझे चैन नहीं मिलेगा. क्या मेरी इतनी सी इच्छा तुम पूरी नहीं करोगी?’ बाबूजी के इस कातर स्वर से अंजली पिघल गई पर दृढ़ स्वर में बोली, ‘ठीक है बाबूजी, मैं शादी करूंगी पर उस व्यक्ति से जो मुझे सौरभ के साथ अपनाएगा.’

सुन कर बाबूजी थोड़ा विचलित तो हुए पर प्रत्यक्ष में बोले, ‘ठीक है जिन से तुम्हारी शादी की बात चल रही है उन से मैं तुम्हारी बातें कह दूंगा पर सौरभ को हम शादी के कुछ समय बाद भेजेंगे.’ ‘‘अंजली बेटी, तुम तैयार नहीं हुई,’’ मीना ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा तो अंजली अपनी यादों से वापस लौट आई. बेटी की भीगीभीगी आंखें देख मीना का मन भी भीग उठा. कोर्ट में रजिस्ट्रार के सामने अमित और अंजली दोनों ने हस्ताक्षर किए. अमित के चेहरे पर परिपक्वता थी फिर भी चेहरे की गरिमा अलग थी. उन का व्यक्तित्व विशिष्ट था. सौरभ को कुछ दिन बाद भेजने की बात कह बाबूजी रोतेबिलखते सौरभ को ले कर भीतर कमरे में चले गए और अपने घर से विदा हो अंजली एक बार फिर अनजान लोगों के बीच आ गई. अमित की दोनों बेटियां सुमेधा और सुप्रिया गुडि़यों जैसी थीं.

सौरभ से उम्र में कुछ बड़ी थीं जो जल्दी ही अंजली से घुलमिल गईं. 2 महीने बीततेबीतते अंजली ने अमित से कहा, ‘‘मैं सौरभ को यहां लाना चाहती हूं.’’ ‘‘हां, इस बारे में हम शाम को बात करेंगे,’’ अमित झिझकते हुए इतना कह कर आफिस चले गए. शाम को सब बैठे टेलीविजन देख रहे थे तो अमित की मां बोलीं, ‘‘बहू, मुझे जल्दी से अब पोते का मुंह दिखाना.’’ ‘‘सौरभ भी आप का पोता ही है मांजी.’’ जाने कैसे हिम्मत कर अंजली कह गई. यह सुनते ही अमित और उस की मां का चेहरा उतर गया. एक पल बाद ही अमित की मां बोलीं, ‘‘लेकिन मैं अपने पोते अपने खून की बात कर रही थी बहू.’’ ‘‘क्या मैं सुमेधा और सुप्रिया को अपना नहीं मानती, तो फिर सौरभ को अपनाने में आप को क्या दिक्कत है?’’

अंजली विनम्रता से बोली. ‘‘बहू, मैं ने तो शुरू में ही तुम्हारे बाबूजी को मना कर दिया था कि सौरभ को हम नहीं अपनाएंगे,’’ अमित की मां ने कहा तो अंजली यह सुन कर अवाक् रह गई. ‘‘चलिए, मैं मान लेती हूं कि आप ने बाबूजी से यह बात कही होगी जो उन्होंने मुझे नहीं बताई पर मैं अपने बच्चे के बिना नहीं रह सकती,’’ अंजली ने कहा. ‘‘देखो बहू, मैं इस बारे में सोच भी लेती पर अब जिंदा मक्खी निगल तो नहीं सकती न. मुझे सचाई का पता चल चुका है. मैं सौरभ को नहीं अपना सकती, जाने किस का गंदा खून है.’’ ‘‘मांजी’’ अंजली ने चिल्ला कर उन की बात बीच में काट दी, ‘‘आप को मेरे या सौरभ के बारे में ऐसी बातें कहने का कोई हक नहीं है.’’ ‘‘तुम क्या हक दोगी और अपने बारे में क्या सफाई दोगी?’’ अमित की मां तल्ख शब्दों में बोलीं, ‘‘तुम्हारे बारे में हमें सबकुछ पता है. मैं सब जान कर भी खामोश हो गई कि चलो, इनसान से गलती हो जाती है और सौरभ कौन सा मेरे घर आएगा पर अब तुम्हारी यह जिद नहीं चलेगी.’’ ‘‘मांजी, यह मेरी जिद नहीं, मेरा हक है. मेरे मां होने का हक है,’’ अंजली भी उसी तरह तल्ख लहजे में बोली, ‘‘सौरभ विवेक का ही बेटा है और कौन किस का बेटा है यह एक मां ही जानती है और मैं नहीं चाहती कि हमारी भूल की सजा मेरा बेटा भुगते.

वो यहां जरूर आएगा और मेरे साथ ही रहेगा.’’ अंजली का यह फैसला सुन कर अमित की मां गरज उठीं. ‘‘इस घर में सौरभ नहीं आएगा और अगर सौरभ इस घर में आएगा तो मैं इस घर में नहीं रहूंगी.’’ ‘‘आप इस घर से क्यों जाएंगी. ये आप का घर है, आप शौक से रहिए. इस घर के लिए अभी मैं अजनबियों सी हूं, मैं ही चली जाऊंगी. पहले भी मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ था, आज फिर हो रहा है. पहले सूरज खिलाड़ी था और आज आप हैं जो स्वयं एक मां हैं. क्या आप अपने बच्चों से दूर रह सकती हैं?’’ अंजली अमित की मां का सामना करते हुए बोली. ‘‘पहली शादी टूट चुकी है. दूसरी हुई है तो निबाह ले मूरख वरना दुनिया थूथू करेगी,’’ अमित की मां ने कटाक्ष किया.

‘‘मैं ने आज तक अमित से या आप से यह नहीं पूछा कि इन की पहली पत्नी ने इन्हें क्यों तलाक दे दिया पर अब सोच सकती हूं कि अमित के तलाक में भी आप का ही हाथ रहा होगा.’’ मां और पत्नी के बीच बढ़ती तकरार को देख कर अमित मां को उन के कमरे में ले गए और अंजली पैर पटकती हुई अपने कमरे में लौट आई. अंजली को लगा कि एक बार फिर उसे ससुराल की दहलीज लांघनी होगी पर इस बार वह अपने पैरों पर खड़ी हो अपना सहारा स्वयं बनेगी. बाबूजी ने झूठ बोल उस का संसार बसाना चाहा पर सौरभ की कीमत दे कर वह बाबूजी की इच्छा पूरी नहीं कर पाएगी.

उस की आंखें नम हो आईं. उसे अपनी तकदीर पर रोना आ गया. तभी अमित कमरे में प्रवेश करते हुए बोले, ‘‘क्या सोच रही हो अंजली? शायद, घर वापस जाने की सोच रही हो?’’ ‘‘जी,’’ छोटा सा उत्तर दे अंजली फिर खामोश हो गई. ‘‘मैं ने तो तुम से जाने को नहीं कहा,’’ अमित ने कहा तो अंजली रुखाई से बोली, ‘‘लेकिन आप ने अपनी मां का या मेरी बातों का कोई विरोध भी तो नहीं किया. क्या आप सुमेधा और सुप्रिया के बिना रह सकते हैं?’’ इतना कहतेकहते अंजली रो पड़ी. ‘‘ठीक है, हम जाएंगे और अपने बेटे सौरभ को ले कर आएंगे,’’ अमित की बात सुन सहसा अंजली को विश्वास नहीं हुआ.

वह चकित सी अमित को देख रही थी तो अमित हंस पड़े. ‘‘लेकिन आप की मां,’’ अंजली ने शंका जाहिर की. ‘‘अरे हां, मैं तो भूल ही गया था, अभी आया,’’ कह कर अमित मुड़ने को हुए तो अंजली ने टोका, ‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’ ‘‘अपनी मां को घर से निकालने,’’ अमित ने हंस कर कहा. ‘‘जी’’ किसी बच्चे की तरह चौंक कर अंजली फिर बोली, ‘‘जी.’’ ‘‘अरे भई, उन्होंने ही तो अभी कहा था कि इस घर में या तो सौरभ रहेगा या वह रहेंगी. कल जब सौरभ आ रहा है तो जाहिर है वह यहां नहीं रहेंगी,’’ अमित ने कहा. ‘‘लेकिन मैं ऐसा भी नहीं चाहती. आखिर वह आप की मां हैं,’’ अंजली अटकते हुए बोली. ‘‘मेरी मां हैं तभी तो उन्हें उन के भाई के यहां कुछ दिन छोड़ने के लिए जा रहा हूं.

तुम चिंता मत करो. वह भी अपने बच्चे से अलग होंगी तभी तुम्हारी ममता को समझ पाएंगी. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा,’’ कह कर अमित बाहर निकल अपनी मां के कमरे की ओर मुड़ गए. सुखदुख के मिलेजुले भाव ले वह अमित और उन की मां की उठती आवाजों को सुनती रही. बहस का अंत अमित के पक्ष में आतेआते अंजली का मस्तक अमित के लिए श्रद्धा से झुक गया.

 

फैसला-भाग 2 : क्या मीना का फैसला सही था ?

घर जातेजाते अंजली सोच रही थी कि आज जब विवेक घर आएंगे तो उन्हें यह खास खबर बताऊंगी. सुन कर कितने खुश होंगे वह. यह सोचते हुए अंजली विवेक के आने का इंतजार कर रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी. अंजली ने लपक कर दरवाजा खोला तो सामने सूरज खड़ा था. ‘कैसी हो भाभी…जान?’ सूरज ने कुटिल हंसी के साथ पूछा. अंजली दरवाजा कस कर पकडे़ हुए बोली, ‘मांबाबूजी घर पर नहीं हैं. आप फिर कभी आइएगा.’ लेकिन सूरज दरवाजे को ठेल कर जबरदस्ती अंदर घुस आया. ‘मैं जानता हूं कि वे लोग हरिद्वार गए हैं, पर तुम मुझे जाने को क्यों कह रही हो,’ अंजली को सिर से पैर तक घूरते हुए सूरज बोला, ‘कितने दिन बाद तो आज यह मौका हाथ लगा है. इसे यों ही क्यों गंवाने दें.’ ‘तुम क्या अनापशनाप बके जा रहे हो?’

सूरज को बीच में टोकते हुए अंजली बोली, ‘तुम्हें शरम आनी चाहिए, मैं तुम्हारे अजीज दोस्त की बीवी हूं.’ सूरज उस की इस बात पर ठठा कर हंसते हुए बोला, ‘तुम्हें पता है अंजली, आज तक मैं ने विवेक की हर चीज शेयर की है तो बीवी क्यों नहीं, तुम चाहो तो सब हो सकता है और विवेक को कानोंकान खबर भी नहीं होगी.’ ‘तुम अभी दफा हो जाओ मेरे घर से,’ अंजली चीखते हुए बोली, ‘मैं तुम्हें और बरदाश्त नहीं कर सकती. आज मैं विवेक को सब सचाई बता कर रहूंगी.’ ‘तुम समझने की कोशिश करो अंजली, तुम्हारे लायक सिर्फ मैं हूं, विवेक नहीं, जो मुझ से हर लिहाज में उन्नीस है,’ कहतेकहते सूरज ने अंजली का हाथ पकड़ अपनी तरफ खींचा तो ‘चटाक’ की आवाज के साथ अंजली ने सूरज के गाल पर तमाचा जड़ दिया. ‘मैं सिर्फ और सिर्फ अपने पति से प्यार करती हूं और अब तो उस के बच्चे की मां भी बनने वाली हूं,’ फुफकार हुए अंजली बोली और सूरज को दरवाजे की ओर धकेल दिया.

‘तुम ने मेरा प्रस्ताव अस्वीकार कर बहुत बड़ी भूल की है अंजली. तुम्हें तो मैं ऐसा मजा चखाऊंगा कि भूल कर भी तुम मुझे कभी भुला नहीं पाओगी,’ जातेजाते सूरज उसे धमकी दे गया. अंजली का शरीर गुस्से से कांप रहा था. उसे अपनी खूबसूरती और शरीर दोनों से घृणा होने लगी, जिसे सूरज ने छूने की कोशिश की थी. जो हुआ था उस के बारे में सोचतेसोचते अंजली परेशान हो गई. बुरेबुरे खयाल उस के मन में आने लगे कि आज तक तो विवेक आफिस से सीधे घर आते थे फिर आज देर क्यों? इसी उधेड़बुन में अंजली बैठी रही. रात 9 बजे विवेक घर आया. ‘आज बहुत देर कर दी आप ने,’ अंजली ने दरवाजा खोलते ही सामने खड़े विवेक को देख कर पूछा. ‘तुम्हारे लिए तो अच्छा ही है,’ विवेक ने चिढ़ कर कहा. ‘क्या मतलब?’ अंजली हैरानी से बोली. ‘तुम मां बनने वाली हो?’ विवेक ने गुस्से में पूछा.

‘जी, आप को किस ने बताया?’ ‘तुम यह बताओ कि बच्चा किस का है?’ चिल्ला कर बोला विवेक. ‘किस का है, क्या मतलब? यह हमारा बच्चा है,’ अंजली विवेक को घूर कर बोली. ‘खबरदार, जो अपने पाप को मेरा नाम देने की कोशिश भी की. मैं सब जानता हूं, तुम कहांकहां जाती हो?’ ‘आप यह सब क्या अनापशनाप बोले जा रहे हैं. आज हुआ क्या है आप को? कहीं सूरज…’ अंजली की बात बीच में काटते हुए विवेक फिर दहाड़ा, ‘देखा, चोर की दाढ़ी में तिनका.

अपनेआप जबान खुलने लगी. हां, सूरज ने ही मुझे सारी सचाई बताई है. उसी ने तुम्हें हमेशा किसी के साथ देखा है और आज तुम ने सूरज के सामने सचाई स्वीकार की थी और सूरज ने मुझे यह भी बताया है कि तुम अपने आशिक के बच्चे की मां बनने वाली हो जिसे तुम मेरा नाम दोगी.’ ‘बस कीजिए, आप. इतना विश्वास है अपने दोस्त पर और अपनी बीवी पर जरा सा भी नहीं. आप क्या जानें सूरज की सचाई को. जबकि हकीकत यह है कि उस ने मुझे हमेशा गंदी नजरों से देखा और आज उस ने मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश भी की. अंजली अपनी बात अभी कह भी नहीं पाई थी कि विवेक का करारा तमाचा अंजली के गाल पर पड़ा और कमरे में सन्नाटा छा गया.’ ‘देखा, जब अपना मैला दामन दूसरों को दिखने लगा तो तुम ने दूसरों पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया.

हां, मुझे सूरज पर विश्वास है, तुम पर नहीं. तुम्हें यहां आए 6 महीने भी नहीं हुए और सूरज के साथ मैं ने 6 सालों से कहीं ज्यादा समय बिताया है. अब जब तुम्हारी असलियत जाहिर हो चुकी है तो मैं तुम्हें बरदाश्त नहीं कर सकता. मैं कल सुबह तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ कर आऊंगा और तलाक लूंगा,’ इतना कह कर विवेक अपने कमरे में जाने को मुड़ा तो अंजली उसे खींच कर अपने सामने खड़ा कर गरजते हुए बोली, ‘मैं नहीं जानती कि सूरज ने क्या झूठी कहानी आप को सुनाई है. अब मैं भी आप के साथ नहीं रहना चाहूंगी लेकिन मैं इतना आप को बता दूं कि विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है. मैं चाहूं तो आप को प्रमाण दे सकती हूं कि मेरी कोख में आप का बच्चा है पर उस से कोई फायदा नहीं है, क्योंकि उस प्रमाण को सूरज फिर झूठा बना सकता है.’ रात भर अंजली सो न सकी.

Valentine Special: तू नहीं, तो कोई और सही

फरवरी का महीना यानी प्यार व रोमांस का महीना. इस महीने में हवाओं में प्यार की खुशबू होती है. हर धड़कता दिल इस महीने आने वाले वैलेंटाइन डे का बेसब्री से इंतजार करता है. प्यार का इजहार करने वाले इस स्पैशल दिन पर अपनी मुहब्बत का इजहार करते हैं, अपने चाहने वाले तक अपनी फीलिंग्स पहुंचाते हैं, लेकिन अगर आप का ब्रेकअप हो गया है और आप दुखी हैं और सोच रहे हैं कि आप को प्यार का यह खास दिन अकेले ही बिताना पड़ेगा तो भूल जाइए अपने बे्रकअप के गम को और ‘तू नहीं, तो कोई और सही’ की तर्ज पर प्यार की राह पर आगे बढि़ए और नए वैलेंटाइन की तलाश शुरू कर दीजिए. आप की यह तलाश कालेज, आसपड़ोस व औफिस में पूरी हो सकती है.

जीवन चलने, आगे बढ़ते रहने का नाम

माना कि प्यार की खुमारी में डूबे इंसान का जब दिल टूटता है तो उस के दर्द से उबर पाना आसान नहीं होता, लेकिन बे्रकअप से जिंदगी की चलती गाड़ी में बे्रक क्यों लगाई जाए. आज की भागतीदौड़ती जिंदगी में जहां सबकुछ इंस्टैंट और फास्ट है वहां रिश्तों में असफलता या नाकामी अब आम बात हो गई है.

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एक बौयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड से बे्रकअप हो जाने पर यह न समझें कि दुनिया खत्म हो गई है. माना कि आप की गुडमौर्निंग और गुडनाइट उसी के मैसेज से होती थी. दिन भर आप एकदूसरे से चैटिंग करते थे लेकिन किसी वजह से अगर आप एकदूसरे से दूर हो गए हैं तो जिंदगी की गाड़ी को बिना रोके आगे बढि़ए. बे्रकअप के ट्रामा से बाहर निकलें. चाहे रो कर, चाहे उस से नफरत कर के उसे अपनी जिंदगी से अलग करें. अपने अतीत को भूल कर आगे बढ़ें. बारबार उस के मैसेज पढ़ कर खुद को दुखी न करें. जिंदगी आगे बढ़ने का नाम है. एक बार प्यार में धोखा खाने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि आप दूसरा औप्शन सर्च न करें. एक बौयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड के आप की लाइफ से चले जाने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि आप की दुनिया खत्म हो गई है और आप उस से अलग होने के गम में रोते रहें.

‘जब दिल ही टूट गया तो जी कर क्या करेंगे…’ जैसे गमगीन गीतों को सहारा बनाने के बजाय ‘गर तुम न हुए तो कोई नहीं, तू न सही कोई और सही’ का फंडा अपनाएं और एक क्लिक कर उसे ब्लौक करें और आगे बढ़ें.

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अपने ऐक्स को बनाइए अपना पास्ट

आप किसी रिश्ते से इसलिए जुड़ते हैं कि वह रिश्ता आप के मुसकराने, हंसाने, खिलखिलाने की वजह बनेगा लेकिन जो रिश्ता आप को दुखी करे, मूड औफ करे, उस से बाहर निकलना ही बेहतर है. इसलिए पुराने को भूल कर नए की तलाश कीजिए. समझें कि वह आप के लायक नहीं था. खुद में कोई अपराध भाव न पालें. उस रिश्ते से अलग होते समय उसे कोई सफाई न दें, क्योंकि जिस रिश्ते से आप को खुशी और सम्मान न मिले उस से दूरी ही भली. उस से जुड़ी सभी यादों जैसे उस के मैसेजेस व गिफ्ट्स को अपनी जिंदगी से बाहर कर दें. किसी ने कहा है, ‘‘जहां से स्पीड ब्रेकर टूटा हो वहां से गाड़ी निकालने का टैलेंट जरूर होता है.’’ आप अपने भीतर वही टैलेंट लाइए. यही सोचिए कि जो होता है अच्छे के लिए होता है. खुद को बैस्ट मानें और सोचें कि आप की जिंदगी में उस से बेहतर कोई और होगा. किसी एक के चले जाने को अपना लौस नहीं, प्रोफैट मानें और मूव औन करें.

जिंदगी न मिलेगी दोबारा

अगर आप ने फिल्म ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ देखी हो तो गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड से बे्रकअप के बाद इस फिल्म के मैसेज को अपनी जिंदगी का प्रिंसीपल बनाएं. फिल्म मैसेज देती है कि जिंदगी में किसी बात का अफसोस किए बिना आगे बढ़ें. आज को खुशहाल बनाएं. बीती बातों को भूल जाएं. जिंदगी एक बार मिलती है उसे गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड को छोड़ देने मात्र से खत्म न समझें. नई शुरुआत करें.

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बैचलर पार्टी, रोड ट्रिप, एडवैंचर ट्रिप, मौजमस्ती, सजनासंवरना, खानापीना इन सब को जिंदगी का हिस्सा बनाएं. खुद को बैस्ट मानें, बे्रकअप के लिए खुद को जिम्मेदार न मानें. अपने भीतर कौन्फिडैंस लाएं. अपना मेकओवर करें, हेयरस्टाइल चेंज कराएं, नईनई ड्रैसेज ट्राई करें और नए दोस्त बनाएं. जिंदगी की लिस्ट की हर विश को पूरा करें. जिंदगी में सब के पास सीमित समय होता है इसलिए जिंदगी को कीमती मान कर आगे बढ़ें. रिश्तों और जिंदगी के रास्तों के बीच एक अजीब रिश्ता होता है, कभी रिश्तों से रास्ते मिल जाते हैं तो कभी रास्तों में रिश्ते बन जाते हैं. इसलिए बिना रुके आगे बढ़ते रहिए और तू नहीं, तो कोई और सही का फंडा लाइफ में अपनाइए.

एक छोड़ो हजार मिलेंगे

22 वर्षीय प्रज्ञा नोएडा में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत है. 6 महीने पहले उस का अपने बौयफ्रैंड से बे्रकअप हो गया था. शुरूशुरू में तो उसे लगा जैसे उस की जिंदगी बेमानी हो गई है. उसे सोतेजागते, उठतेबैठते हर समय अपने बौयफ्रैंड की ही याद सताती रहती, वह उस के मैसेजेस, उस के द्वारा दिए गए गिफ्ट्स को देख कर रोती रहती. लेकिन उस की एक दोस्त ने उसे नए दोस्त बनाने की सलाह दी. जिंदगी में आगे बढ़ने का सजेशन काम कर गया. प्रज्ञा ने अपने दिल को समझाया और खुद से कहा कि वह मेरे लायक ही नहीं था. अब उस ने फेसबुक पर काफी नए दोस्त बनाए.

आज प्रज्ञा अपने ऐक्स बौयफ्रैंड के ब्रेकअप के दुख से उबर कर अपनी लाइफ में मस्त है. आज वह कहती है, ‘‘बौयफ्रैंड का क्या है एक छोड़ो हजार मिलेंगे. बस, आप में कौन्फिडैंस होना चाहिए.’’ प्रज्ञा ने आज अपनी लाइफ का फंडा ‘तू नहीं तो कोई और सही’ बना लिया है और वह बहुत खुश है.

एक ही रिश्ते को फैवीकोल का मजबूत जोड़ न समझें

किसी भी रिश्ते के साथ इमोशनली इतने अटैच न हों कि जब आप को उस से दूर जाना पड़े तो आप को लगे कि आप की जिंदगी बेकार हो गई है और अब आप किसी काम के नहीं रहे. जिंदगी में अब कुछ नहीं बचा है. जिंदगी में दोस्त मौजमस्ती, फन के लिए बनाइए और एक नहीं कई दोस्त बनाइए ताकि जब कभी किसी एक से धोखा मिले तो आप डिप्रैस न हो जाएं. सोचें जिंदगी एक सफर है जहां लोग मिलते हैं और बिछुड़ते हैं और बिछुड़ने के बाद नए लोग भीमिलते हैं. पुराने रिश्ते से दूरी बनाने के बाद खुद को आजाद समझें और पहले से बेहतर दोस्त चुनें. आप का पिछला अनुभव आप को समझ भी देता जाएगा. अपने पुराने प्रेमी को दर्शाएं कि आप उस से बेहतर पार्टनर चुन सकते हैं. उसे दिखाएं कि आप पहले से ज्यादा खुश हैं. अपने नए पार्टनर के साथ वैलेंटाइन डे सैलिबे्रशन की पिक्चर्स फेसबुक पर अपलोड करें.

माधवीलता खुश हैं: माधवी अपनी बेटी की किस बात से परेशान थी

बहुत देर से ऐसी अस्तव्यस्त गतिविधियों को देख रही हूं. वे शीशे की मेज पर पेपरवेट नचा रही हैं. कभी पिनकुशन से पिन निकाल कर नाखूनों का मैल साफ करती हैं. अब नाखून ही कुतरना शुरू कर दिया. हैरानी होती है. होनी ठीक भी है. कोई और ऐसे करे तो समझ भी आए. ये सब बातें कोई संसार का 8वां आश्चर्य नहीं. अकसर लोग करते हैं. पर माधवीलता ऐसा करेंगी, यह नहीं सोचा जा सकता. फिर जब उन्होंने शून्य में ताकते हुए उंगली नाक में डाल कर घुमानी शुरू की तो सचमुच हैरानी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई. ऐसी असभ्य, अशिष्ट हरकत माधवीलता तो कतई नहीं कर सकतीं.

माधवीलता हमारे कार्यालय में निदेशिका हैं. सुशिक्षित, उच्च अधिकारी. पति भी भारत सरकार में उच्चाधिकारी हैं. सुखी, संपन्न, सद्गृहस्थ. अब उम्र हो चली है, पर अभी खंडहर नहीं हुईं. उम्र 50-52 के करीब. बालों में सफेदी की झलक है, जिसे उन्होंने काला करने की कोशिश नहीं की. वे सुंदर हैं. अच्छी कदकाठी की हैं. पहननेओढ़ने का सलीका है उन में.

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वे माथे पर बिंदी सजाती हैं. मांग में सिंदूर की हलकी सी छुअन. कार स्वयं चला कर आती हैं. 2 बच्चे हैं. बेटा आईपीएस में चुना गया है और आजकल प्रशिक्षण पर है. बेटी की हाल ही में  धनीमानी व्यापारी परिवार में शादी की है. लड़का इकलौता है. उस के मांबाप अशिक्षित, आढ़तिए नहीं हैं, खूब पढ़ेलिखे हैं.

व्यापारी वर्ग के लोग भी अब जब बहू की तलाश करते हैं तो सुंदर, सुशील, कौनवैंट में पढ़ी, भले घर की कन्या चाहते हैं. व्यापारी घराने की न हो तो उच्च अधिकारी परिवार की कन्या की जोड़ी भी ठीक मानी जाती है. शायद सोचते होंगे कि सरकारी अधिकारी रिश्तेदार हो तो शायद कुछ न कुछ सरकारी काम निकाल सकें.

सरकारी अधिकारी सोचते हैं कि नौकरीपेशा क्यों, मिल सके तो व्यापारी परिवार बेटी को मिले. नौकरी में रखा क्या है. हमेशा पैसों की किल्लत. मन का खर्च कर सको, मन का खापी सको, ऐसा कम ही होता है.

‘‘पैसे तो बस इतने ही होने चाहिए कि न खर्च करने से पहले सोचना पड़े और न पर्स के पैसे गिनने पड़ें,’’ माधवीलता ने अपनी बेटी की बात सुनाई थी.

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मौका था उन की बेटी की सगाई की पार्टी का. वे बेटी की इच्छा को पूरा कर पा रही हैं, ऐसा संतोष आवाज से छलक रहा था. सचमुच सफलता की चमक होती ही कुछ और है, कहनी नहीं पड़ती, खुदबखुद बोलती है. उन की बेटी की शादी के मौके पर ही पहली बार पंचतारा होटल अंदर से देखने का सुअवसर मिला था. क्या शान, क्या ठाटबाट, क्या कहने.

जो गया सो ‘वाहवाह’ करता लौटा. इसे कहते हैं खानदानी आदमी. ‘फलों से लदे वृक्ष खुदबखुद झुक जाते हैं.’ होगा मुहावरा, माधवीलता के रूप में हम ने उन्हें इंसानी रूप धारण करते देखा है. शील, शिष्टाचार, सौंदर्य, संपन्नता, शोभा, सुखसंतोष आदि का अर्थ क्या होता है, वही माधवीलता के चेहरे पर वर्षों से देखा है.

वही माधवीलता आज अनमनी सी बैठी उंगली से नाक साफ कर रही हैं. अपनेआप होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदा रही हैं.

माधवीलता अपनेआप से खफा मालूम पड़ती हैं. कभी तो न ऐसे चिड़चिड़ाती थीं, न ऐसी अशिष्ट हरकतें करती थीं. क्या हुआ? प्रत्यक्षतया कोई कारण दिखाई न दे रहा था. हमेशा की मृदुभाषिणी, सुभाषिणी माधवीलता का ऐसा आचरण?

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रहस्य ज्यादा दिन रहस्य न रहा. आदमी की फितरत ही ऐसी है कि न सुख पी सकता है अकेले, न दुख. दोनों में ही कहने को अपना साथी तलाश करता है. घरबाहर की अपनी बातें आमतौर पर वे करती नहीं हैं, पर उस दिन माधवीलता ने स्वयं बुला भेजा. दोचार इधरउधर की बातें हुईं, फिर बोलीं, ‘‘दिल्ली में अच्छा मनोचिकित्सक बताइए कोई.’’

मैं ने 5-6 नाम सुझाए. बात साफ न हुई. मन में खटक गया कि अंदर कुछ और तूफान है. बेटी को ले कर कुछ परेशानी हो सकती है. लेकिन कहें कैसे. बेटी की बात, मुंह से निकली और पराई हुई.

पूछने की जरूरत न हुई. 3-4 दिन बाद फिर बुला भेजा. ज्यादा उद्वेलित दिखीं. बोलीं, ‘‘दांपत्य असमंजस्य पर आप का भी तो बहुत काम है, आप ने शायद कुछ कार्यक्रम भी किए हैं…’’

‘‘जी, कार्यक्रम भी किए हैं और एक किताब भी छपी है.’’

फिर वे गोलगोल बात न कर थोड़ी ही देर में खुल गईं. शक साफ था. बात उन की विवाहित बेटी की उलझन को ले कर ही निकली. पता चला कि दामाद बेटी की नहीं सुनता, मां का आज्ञाकारी पुत्र है. मांबाप और बेटा तीनों ही लड़की को तंग करते हैं.

हमारा फर्ज था कि लड़की को भरपूर सहानुभूति दें और आजकल जैसे दुलहनों को दहेज के लिए सताया जा रहा है, उस पर अपने सुनेदेखे किस्से भी सुना दिए जाएं. पर क्या ऐसे किस्सों का पठनपाठन किसी के घर को बसा सकता है?

‘‘पुलिस में रिपोर्ट करें?’’ उन्होंने सलाह चाही.

‘‘थाने, कचहरी से घर नहीं बसते,’’ मैं जानती थी कि उन्हें सलाह नहीं, सहायता की आवश्यकता है. किंतु सलाह हमेशा सही देनी चाहिए.

मैं ने अपनी सहायता स्पष्ट की और फिर पूछा, ‘‘क्या आप ने विश्लेषण किया है कि वे बेटी को तंग क्यों कर रहे हैं?’’

‘‘वे हैं ही बुरे. गलत जगह रिश्ता हो गया,’’ वे दोटूक फैसला दे बैठीं.

‘‘बुरे होते तो आप उन्हें पसंद ही क्यों करतीं. अपनी प्यारीदुलारी बेटी को गलत जगह आप ने दिया ही क्यों होता? आइए, सोचें कि गलती क्या है. हो सकता है, कोई गलती न हो, सिर्फ गलतफहमी ही हो,’’ मैं ने उन्हें स्थिति पर साफसाफ सोचने पर आमंत्रित किया.

वे बहुत अनमनी सी मानीं, ‘‘दरअसल, वह मिन्नी को कुछ समझता नहीं. जो कुछ है, उस की मां है. वह जो कहती है, चाहती है, वही होता है.’’

‘‘घर उस का है.’’

‘‘घर मिन्नी का भी तो है.’’

‘‘उस का है. मिन्नी को बनाना है. ऐसा तो है नहीं कि बेटी इधर डोली से उतरी, उधर घर की चाबी सास ने उस के हवाले की. ऐसा तो सिर्फ सिनेमा में होता है. घर बनता है आपसी प्यार से, सद्भाव से, अधिकार से नहीं. सद्भावना अर्जित करनी पड़ती है, कहीं से अनुदान में नहीं मिलती.’’

‘‘ये सब मिन्नी की ससुराल वाले नहीं समझते.’’

‘‘यह ससुराल वालों को नहीं, मिन्नी को समझना है.’’

‘‘आप का मतलब है कि उन लोगों के साथ एडजस्ट करने के लिए मिन्नी खुद को मिट्टी में मिला ले?’’ उन के चेहरे पर साफसाफ नाराजगी दिखी.

मैं ने सोचा, ‘अपनी सलाह की गठरी बांध कर चुपचाप उठ जाऊं. मैं क्यों बेवजह माधवीलता की नाराजगी मोल लूं. उन की बेटी है, वे उस के बारे में जो सोचें. शायद ऐसा ही कुछ उन्होंने सोचा होगा कि ये क्यों मुख्तार बन रही हैं.’

बात वहीं थमी. शायद 20-25 दिन बीते होंगे. फुरसत के क्षणों में मैं ने पूछा, ‘‘मिन्नी कैसी है?’’

‘‘हम उसे ले आए हैं. वहां तो वे लोग उसे मार ही देते.’’

‘‘आप ने फैसला कुछ जल्दी में नहीं किया?’’

‘‘नहीं, बहुत सोचसमझ कर किया है.’’

‘‘क्या सोचा? मिन्नी का क्या करोगे?’’

‘‘हम तलाक का केस दायर करेंगे. इन लोगों से पीछा छूटे तो फिर दूसरी जगह बात चलाएंगे.’’

‘‘मिन्नी से पूछा?’’

‘‘उस से क्या पूछना. वह तो बहुत परेशान है. उस की हालत देख कर मुझे बहुत दुख होता है.’’

सुन कर दुख तो मुझे भी हुआ. पर लगा, हाथ पर हाथ धर कर बैठना भी ठीक नहीं. यह कोई तमाशा नहीं कि दूर बैठे ताकते रहो.

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एक समारोह में अचानक मिन्नी से  भेंट हो गई. उतरा चेहरा, सूनी

मांग, सूना माथा, सूनी आंखें… देख कर धक्का सा लगा. ब्याह के दिन कैसी सुंदर लगी थी. कुछ लड़कियों पर रूप चढ़ता भी बहुत है. अब वही लुटे शृंगार सी खड़ी थी. कंधे पर पत्रकारों वाला झोला लटक रहा था.

‘‘क्या कर रही हो आजकल?’’ मैं ने सहज भाव से पूछा.

‘‘स्वतंत्र पत्रकारिता,’’ उस का संक्षिप्त उत्तर था. माधवीलता की कही बात फिर याद हो आई, ‘पर्स में पैसे गिनने न पड़ें, खर्च करने से पहले सोचना न पड़े,’ यह इसी मिन्नी की इच्छा थी. जब वही मिला जो चाहा था तो फिर गड़बड़ कहां हुई?

संयोग से मिन्नी से छिटपुट मुलाकातें होती रहीं. लड़की टूटी सी मालूम होती थी. वह दृढ़ता न दिखाती जो ऐसा कड़ा निर्णय लेने के बाद चेहरे पर होनी चाहिए थी. पता नहीं, शायद कुछ तार कांपते थे जो टूटने से रह गए थे. मैं उस की सखी नहीं, उस की मां की सखी नहीं, उस की ताईचाची नहीं, फिर किस हक से पूछूं.

‘‘क्या कुछ हो रहा है?’’ आखिर एक दिन पूछ ही बैठी.

‘‘किस बारे में?’’

‘‘केस के संबंध में,’’ सहज भाव से कहा.

लड़की हतप्रभ. मां ने दफ्तर में बताया होगा, यह नहीं समझ सकी. झट से पूछा, ‘‘उन्होंने कहा आप से?’’

‘‘हां,’’ मैं जानती थी कि यह सच न था. पर मैं ने माना कि ‘उन्होंने’ का अर्थ मेरे लिए माधवीलता हैं और उस के लिए उस  का पति. उस ने चेहरे पर उत्सुकता छिपाई नहीं, सरलता से बोली, ‘‘मिले थे वे?’’

रेखांकित करने को इतना ही काफी था कि मन में कहीं कोई आकर्षण शेष है, वरना कहा होता, ‘मिला था क्या?’

मैं ने उसे कौफी के लिए आमंत्रित किया तो वह मना न कर सकी. मैं उस के ‘मिले थे’ वाले सूत्र को पकड़े बैठी थी. वहीं से कुरेदा. लड़की अपनी रौ में बोलती गई, ‘‘बहुत खराब लोग हैं. पता नहीं कैसे पढ़ेलिखे जानवर हैं. उन्होंने मेरा जीना दूभर कर दिया है.’’

‘‘क्या उस घर में सभी तुम से बुरा व्यवहार करते हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘अच्छा चलो, सोचें कि क्या बुरा बरताव करते हैं?’’

‘‘मैं आप को बता ही नहीं सकती. कल्पना ही नहीं की जा सकती. वे लोग एकदम आदिमकाल के हैं. औरतों को कुछ समझते ही नहीं. वे समझते हैं कि औरतें सिर्फ उन की जिंदगी को आसान बनाने के लिए हैं. उन को अपनेआप कुछ सोचनासमझना नहीं चाहिए, उन्हें देखने के लिए उन की आंखें इस्तेमाल करनी चाहिए, सुनने के लिए उन के कान. उस को उन की मरजी के बिना कुछ नहीं करना चाहिए.’’

‘‘कुछ ठोस बात? ये तो सब बड़ी अस्पष्ट सी बातें हैं. ऐसा तो आम हिंदुस्तानी घरों में होता ही है. शादी से पहले भी तो सारे फैसले पिता करते हैं, बाद में पति को यह अधिकार मिल जाता है.’’

‘‘आप इसे कम समझती हैं? क्या औरत होने का मतलब मन, कर्म और वचन के स्वातंत्र्य को पति के चरणों में समर्पित कर निरे शून्य में बदल जाना ही है? मिट्टी में मिल जाएं?’’ उस का गोरा चेहरा लाल हो गया.

मैं ने उसे समझाया, ‘‘अगर बीज अपने बीजत्व को ही संभाले रहे तो भरेपूरे वृक्ष का विस्तार कभी नहीं पा सकता. अगर अपने अंदर समाए उस विस्तार का एहसास है तो बीज का स्वरूप भी बदलना ही होता है. उसे मिट्टी में मिलना कहो या विस्तार पाना, मरजी तुम्हारी है.’’

पहले वह झिझकी. फिर बोली, ‘‘अगर मिट्टी में ही मिलना था तो फिर इस पढ़ाईलिखाई का मतलब क्या हुआ?’’

‘‘आम पढ़ीलिखी प्रतिभाशाली कन्याओं के सपनों में एक ऐसा घर बसा होता है जिस में रांझा, फरहाद या मजनूं से भी अधिक प्रेम करने वाला पति होता है, जिस का काम केवल प्यार करना है. वह कमाता है, धनी है, सुंदर है, शिष्ट है और शक्तिशाली भी है. सपनों में कोई लड़नेझगड़ने वाला, कुरूप, दुर्बल, कायर, व्यसनी व्यक्ति को तो नहीं देखता.

‘‘लेकिन जिंदगी सपनों से नहीं चलती. सच तो यह है कि संपूर्ण कोई नहीं होता. अगर पति में कमियां हैं तो कमियां पत्नी में भी हो सकती हैं, बल्कि होती हैं. उन की ओर कोई लड़की नहीं देखती. लड़की ही क्यों, कोई भी नहीं देखता. सपनों के इस घर में केवल एक पति, पत्नी और बस.

‘‘हां, कल्पना के शिशु जरूर होते हैं, लेकिन गोरे, गुदकारे, हंसते हुए. बच्चे रोते हैं, बीमार होते हैं, यह तो नहीं सोचा जाता. सपनों का महल होता है, जिस में शहजादा होता है और वह बालिका उस की रानी होती है. क्या इस घर में एक सासससुर, देवरजेठ, ननद, देवरानी, जेठानी होती हैं? जी नहीं, सपनों में खलनायिकाओं का क्या काम?

‘‘जिंदगी में ये सब होते हैं, अपने समस्त मानवीय गुणों और अवगुणों के साथ. संगसाथ रहने का मतलब यह है कि दूसरों के गुणों को बढ़ा कर देखा जाए और अवगुणों को नजरअंदाज किया जाए.’’

‘‘फिर सारी पढ़ाईलिखाई का मतलब?’’ मिन्नी बोली.

‘‘पढ़ाईलिखाई का मतलब यह है कि वह आप के व्यक्तित्व को कितना निखारती है. डिगरी का मतलब रास्ते का रोड़ा बनना नहीं, पथ को सुगम बनाना है. कितने बेहतर ढंग से आप चीजों को सुलझा सकती हैं…न कि आप डिगरी ले कर खुद अपने अहंकार में ऐसे कैद हो जाएं कि दूसरों को कम आंकना शुरू कर दें. जिन में सौ अवगुण हैं उन का एक गुण याद करने की कोशिश करो. हो सकता है उस में 99 अवगुण हों, लेकिन एक तो गुण होगा?’’

वह चुप रह गई. मैं ने फिर कुरेदा. उस के होंठ कुछ कहने को फड़के, पर शायद शब्द न मिले. मैं ने पकड़ने को तिनका सा दिया, ‘‘वे लोग तुम्हें प्यार करते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘वे लोग तुम्हें पसंद करते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘करते थे, न करते होते तो अपने प्यारे बेटे का ब्याह तुम से क्यों करते?’’

सचमुच उस के पास जवाब न था.

‘‘पति प्यार करता है?’’ मैं ने पूछा.

उस ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘कभी किसी दिन…?’’

मिन्नी की पलकें न उठीं. सचमुच सही नब्ज पकड़ी थी. कितना ही बुरा आदमी हो, एक क्षण को कभी तो अच्छा होता है. सीधे म्यान से तलवार निकाल कर कोई विवाह मंडप में नहीं पहुंचता. चीजें धीरेधीरे बिगड़ती हैं. अपनी नासमझी से उन्हें और बिगाड़ते हैं, लड़की के मातापिता अपनी बेटी के प्यार में और लड़के के मातापिता अपने बेटे के प्यार में.

हर कोई गिरह पर हाथ रखता है, सिरा कोई नहीं देता. स्नेह की डोर है कि उलझती चली जाती है. ज्यादा उलझी हो तो सुलझाने का समय और सब्र कम पड़ जाता है. ताकत से वह तोड़ी जाती है और तोड़ कर वहीं जोड़ो या कहीं और, गांठ तो पड़ती ही है.

मिन्नी की पलकें झुकी थीं. यादों में प्यार का कोई क्षण तो रहा होगा ही. लेकिन कैसे माने. जिसे शत्रु घोषित किया है उसी के लिए इस कोमल संवेदन को कैसे स्वीकारे, यह संकोच है और अहं भी है. उधर लड़का भी अकड़ा बैठा होगा. यह उस के ऐब गिनाती है, लेकिन गिनाने के लिए ऐब उस के पास भी कम न होंगे. ऐसे में कोई किसी को दूसरे के गुण नहीं गिनाता.

माधवीलता से बात की, ‘‘आप बेटी को ससुराल भेज दें.’’

‘‘कैसे? वे लोग कैसा व्यवहार करेंगे? कहीं मार ही न दें?’’ उन की बीसियों शंकाएं थीं.

‘‘बिगड़ तो रही है, बनाने की कोशिश एक बार करने में हर्ज ही क्या है? फिर मिन्नी भी चाहती है पति को. प्रयास करने में नुकसान क्या है?’’

‘‘सास ताने मारेगी कि आ गई,’’ मिन्नी को शंका थी.

‘‘अपने ही घर तो जाओगी. वह भड़केगी, उबलेगी, लेकिन फिर धीरेधीरे शांत हो जाएगी. पति के सामने सिर उठा लो तो बाहर वालों के सामने झुकता है. अच्छा तो यही है कि नजर उठने से पहले ही सिर झुका लेती. पहले नजरें उठेंगी फिर उंगलियां. दूसरी जगह क्या सबकुछ तुम्हारे मनमुताबिक का होगा? कोई भी बिंदी अतीत के इस दाग को नहीं छिपा सकती. घाव सब भर जाते हैं, दाग रह जाते हैं.

‘‘बाकी जिंदगी में भी तो समझौते करने पड़ेंगे. इस से अच्छा है कि पहली बार ही समझौता कर लो. बाद में बाहर वालों की हजार बातें सुनने से अच्छा है कि चार बातें घर वालों की ही सुन ली जाएं. चाहो तो सद्भावना अर्जित करने के लिए इसे सद्भावना निवेश मान लो. बिना किए तो प्रतिदान नहीं मिलता. अभी अहं का टकराव है और असल में अहं से भी अधिक सपनों का टकराव है.

‘‘अगर तुम्हारा पति तुम्हारा स्वप्नपुरुष नहीं निकला तो इस की भी उतनी ही संभावना है कि तुम भी अपने पति की स्वप्नसुंदरी न निकली हो. उस ने भी तो ऐसी छवि मन में बसाई होगी जिस की गरदन केवल स्वीकृति में ही हिलती होगी. एकदूसरे के सपनों को समझो और सपनों को अलगअलग देखने के बजाय साझे सपने देखने की कोशिश करो.’’

‘‘हम कोर्ट में चले गए हैं. अब लोग क्या कहेंगे?’’ उस की झिझक वाजिब थी.

‘‘लोग तो कहेंगे, जो चाहेंगे. लेकिन सब प्रसन्न ही होंगे कि एक घर टूटने से बच गया. इस पर बधाई ही देंगे. कोई अफसोस प्रकट करने नहीं आएगा. तुम्हारा फैसला क्यों बदल गया, यह भी कोई नहीं पूछेगा. जाओगी तो वह अकड़ेगा जरूर, फिर? सारी हायतौबा के बाद क्या करने को बचेगा?

‘‘तृप्ति के क्षण का यह मोल ज्यादा नहीं है. हो सकता है कि कुछ भी न कहे. तब लगेगा न कि अपनेआप इधर इतने दिन न आ कर भूल ही की. हो सकता है कि वह भी अपने मन के अंदर स्वीकारे कि तुम हार कर जीत गई हो और वह जीत कर हार गया है. दरअसल, जिंदगी में जीतहार कुछ होती ही नहीं है. जीतता वही है जो हार जाता है. जब दोनों जीतते हैं, तो दोनों ही हार जाते हैं, अपने सामने भी और जग के सामने भी. हार का आनंद कह कर नहीं समझाया जा सकता, उसे भुक्तभोगी ही समझ सकता है.’’

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माधवीलता को झिझक थी कि पता नहीं बेटी को क्याक्या झेलना पड़ेगा. उन्हें भी लगा कि बाद में जो झेलना पड़ेगा, उस से तो कम ही होगा.

कहानी होती तो शायद यों होती कि उस के बाद दोनों सुख से रहने लगे. पर यह कहानी नहीं है, जिंदगी है. इस का अंत कुछ यों है कि माधवीलता हैं वही सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत, शालीन महिला. वे चिड़चिड़ाती नहीं हैं. वही सौम्य, मृदु मुसकान उन के अधरों पर है.

आज उन्होंने सवाल उठाया है कि नवजात शिशुओं के पालनपोषण पर विशेष अभियान की आवश्यकता है ताकि नई माताएं लाभान्वित हो सकें. बच्चों का अच्छा पालनपोषण राष्ट्रीय आवश्यकता है.

सभा में हम सब सहज भाव से मुसकराए हैं, अफसरों के सुंदर प्रस्तावों की सब से सहज और सरल प्रतिक्रिया यही है.

माधवीलता खुश हैं और साथ ही हम सब भी.

फैसला-भाग 1 : क्या मीना का फैसला सही था ?

4 वर्ष का सौरभ दुनियादारी से तो बेखबर था लेकिन जो कुछ घर में हो रहा था उसे शायद वह सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रहा था. स्वीकार तो घर में कोई नहीं कर पा रहा था लेकिन इस के सिवा दूसरा रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था. मीना रोने लगी तो सौरभ उन के नजदीक खिसक आया और उन के आंसू पोंछता हुआ बोला, ‘‘नानी, रोओ मत. अब मैं आप से कुछ नहीं पूछूंगा. बस, एक बात और बता दो, जिन से मम्मी की शादी हो रही है वह कौन हैं?’’ मीना स्वर को संयत करती हुई बोलीं, ‘‘वह तेरे पापा हैं.’’ ‘‘अच्छा, मैं अब पापामम्मी दोनों के साथ रहूंगा,’’ सौरभ खुशी से उछल पड़ा तो मीना उस का चेहरा देखती रह गईं. अंजली अपनी मां और बेटे की बातें बगल के कमरे में बैठी सुन रही थी.

उस के हाथ का काम छूट गया और वह बिस्तर पर निढाल सी लेट गई. अतीत की काली परछाइयां जैसे उस के चारों ओर मंडराने लगी थीं. 5 साल पहले भी घर में उस की शादी की तैयारियां चल रही थीं. तब अंजली के मन में उत्साह था. आंखों में भविष्य के सुनहरे सपने थे. तब गाजेबाजे के साथ वह विवेक की पत्नी बन अपने ससुराल पहुंची. जहां सभी ने खुले दिल से उस का स्वागत किया था. विवेक अपने मातापिता का इकलौता लड़का था. शादी के दूसरे दिन विवेक के 10-12 दोस्त उन्हें बधाई देने आए थे. नए जोडे़ को ले कर सब दोस्त मजाक कर रहे थे. उन्हीं में एक ऐसा भी दोस्त था, जिसे देख कर अंजली सहज नहीं हो पा रही थी, क्योंकि जितने समय सब बैठे थे उस की दोनों आंखें उसे घूरती ही रहीं.

‘विवेक, मुझे तो तुझ से जलन हो रही है,’ सब के बीच सूरज बोला, ‘तू इतनी सुंदर बीवी जो ले कर आया है. अब मेरे नसीब में जाने कौन है?’ सूरज ने नजरें अंजली पर जमाए हुए कहा तो सब हंस पडे़. ‘चिंता मत कर, तुझे अंजली भाभी से भी ज्यादा खूबसूरत बीवी मिलेगी,’ दोस्तों के बीच से एक दोस्त की आवाज सुनाई दी तो सूरज ने नाटकीय अंदाज में अपने दोनों हाथ ऊपर हवा में लहरा दिए. एक बार फिर जोर से हंसी के फौआरे फूट पडे़. चायनाश्ते के बाद जब सब दोस्त जाने लगे तो सूरज अंजली के करीब आ कर बोला, ‘मुझे अच्छी तरह पहचान लीजिए, भाभी जान. मैं विवेक का बहुत करीबी दोस्त हूं सूरज और आप चाहें तो आप का भी करीबी बन सकता हूं.’ अंजली उस के इस कथन से सकपका गई और एक देवर की अपनी नई भाभी से चुहलबाजी समझ कर चुप रह गई. सूरज अब अकसर घर आने लगा.

वह बात तो विवेक से करता पर उस की निगाहें अंजली पर ही टिकी रहतीं. अंजली ने कई बार विवेक को इशारों से समझाने की कोशिश भी की पर वह अपनी दोस्ती के आगे किसी को न तो कुछ समझता था और न समझाने का मौका देता था. एक दिन सूरज किसी फिल्म की 3 टिकटें ले आया और विवेक व अंजली को ले जाने की जिद करने लगा. अंजली ने फिल्म देखने न जाने के लिए सिर दर्द का बहाना भी किया लेकिन उस के आगे उस की एक न चली. अंजली को फिल्म देखने जाना ही पड़ा. इंटरवल से पहले तो सब ठीक था. विवेक उन दोनों के बीच में बैठा था. अंजली ने चैन की सांस ली लेकिन इंटरवल में जब वे लोग ठंडा पी कर लौटे तो अंजली को बीच की सीट पर बैठना पड़ा और वह विवेक से कुछ कहती इस से पहले फिल्म शुरू हो गई. सूरज ने मौका मिलते ही अंजलि को परेशान करना शुरू कर दिया.

उस की आंखें तो सामने परदे पर थीं लेकिन हाथ और पैर अकसर अंजली से टकराते रहे. अंजली ने जब उसे घूर कर देखा तो वह अंजान बना फिल्म देखने लगा. किसी तरह फिल्म देख कर वह घर पहुंची तो उस ने मन में निश्चय किया कि आज की घटना वह विवेक से नहीं बल्कि अपनी सास को बताएगी. अगले दिन विवेक के जाने के बाद अंजली अपनी बात कहने के लिए सास के पास गई. पर वहां कमरे में सामान फैला देख वह बोली, ‘मम्मीजी, आप कहीं जा रही हैं क्या?’ ‘हां बहू, मैं और विवेक के पिताजी सोच रहे थे कि तुम घर संभाल रही हो तो हम दोनों कहीं घूम आएं. बहुत दिनों से हरिद्वार जाने की सोच रहे थे,’ अंजली की सास के स्वर में शहद की मिठास थी. ‘कितने दिनों के लिए आप लोग जा रहे हैं?’

अंजली ने झिझकते हुए पूछा. ‘3-4 दिन तो लग ही जाएंगे.’ ‘आप लोग रास्ते में मुझे मेरी मां के घर छोड़ देंगे?’ अंजली ने हिम्मत बटोर कर पूछा. ‘बेटी, तेरे ही सहारे तो मैं निश्ंिचत हो कर जा रही हूं और फिर विवेक का खयाल कौन रखेगा?’ अंजली की सास ने कहा. घर में अकेले रहने की कल्पना मात्र से अंजली का मन घबरा रहा था पर वह करे भी तो क्या. सोचा, चलो मांजी को हरिद्वार से लौटने पर सब बात बता देगी. यह सोच कर अंजली फिर अपने काम में लग गई.

यथासमय सासससुर के हरिद्वार जाने के बाद अंजली डाक्टर के पास नर्सिंग होम चली गई क्योंकि कुछ दिन से उसे ऐसा लग रहा कि शायद उस के व विवेक के प्यार का बीज उस के अंदर पनपने लगा है. घर में किसी से कुछ कहने से पहले वह डाक्टर की सहमति चाहती थी इसलिए आज रिपोर्ट लेने चली गई. ‘मुबारक हो अंजली, तुम मां बनने वाली हो,’ डाक्टर ने मुसकरा कर अंजली के हाथ में रिपोर्ट पकड़ा दी, ‘घर से तुम्हारे साथ कौन आया है?’ ‘धन्यवाद, डाक्टर, मैं अकेली आई हूं. कुछ खास बात है तो मुझे बताइए,’ अंजली ने कहा. ‘नहीं, कुछ खास बात नहीं है,’ डाक्टर बोली, ‘मैं तो बस, इतना कहना चाहती थी कि तुम्हारे घर वालों को अब तुम्हारा खास खयाल रखना चाहिए.’

पटाक्षेप : सुनंदा घर जाने के लिए क्यों तैयार नहीं थी

विजय ने तीसरी बार फिर पूछा था, ‘‘और सोच लो, अगर तुम्हारा पापा से मिलने का मन हो तो मैं तुम्हें भोपाल छोड़ता हुआ दिल्ली निकल जाऊंगा?’’

सुनंदा फिर भी चुप रही थी. कुछ देर बाद विजय ने कह ही दिया था, ‘‘देखो, मुझे भी पता है कि तुम मेरी वजह से कितने तनाव से गुजर रही हो. बच्चे भी अभी यहां नहीं हैं तो अकेले में और घबरा जाओगी, इसलिए चली चलो, थोड़ा मन बदल जाएगा तो तुम्हें भी अच्छा लगेगा और फिर भोपाल जाने के लिए तो तुम इतनी लालायित रहा करती थीं, फिर अब क्या हो गया है?’’

सुनंदा फिर भी एकाएक कुछ नहीं कह पाई थी.

‘‘चलो, पहले मैं आप के लिए चाय बनाती हूं, फिर कुछ सोचेंगे,’’ कहती हुई वह अपनेआप को सारे प्रश्नों से बचाती रसोई में घुस गई थी.

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यंत्रवत गैस पर चाय का भगौना चढ़ा दिया. सामने के रैक से चाय, शकर के डब्बे निकाले, टे्र में कप रखे. पर मन अभी भी बाहर कहीं घुमड़ रहा था. क्या करे, वह स्वयं कुछ समझ नहीं पा रही थी. पिछले 2 महीने से वह ही क्या, पूरा घर तनाव में था. विजय की मां की बीमारी में, उस की जो बचत थी वह सब जा चुकी थी. उधर, बिल्डर का तकाजा था, उस की किस्तें बढ़ रही थीं. बैंक में लोन बढ़ाने की दरख्वास्त दे रखी थी, उस सिलसिले में बैंक मैनेजर का कहना था कि एक बार वे खुद हैड औफिस जा कर बात कर लें.

पर पापा…पापा के बारे में वह विजय को क्या बताए क्यों नहीं जाना चाहती, क्या कहे कि वह घर भी अब उस के स्वयं का घर नहीं रहा है.

आंखें फिर भर आई थीं. ठीक है, इस बार और जा कर वह शायद पापा को ठीक से कुछ समझा पाए, कुछ सोचते हुए चाय की टे्र ले कर अंदर कमरे में आई.

‘‘मैं भी चल रही हूं, भोपाल उतर जाऊंगी,’’ विजय की तरफ चाय का कप बढ़ाते हुए उस ने कह भी दिया था.

‘‘यह हुई न ढंग की कुछ बात. देखो, तुम खुश रहोगी तभी तो मैं आगे के लिए कुछ सोच पाऊंगा,’’ विजय ने अपने चेहरे पर मुसकान लाने का प्रयास किया था.

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रात की गाड़ी से ही रवाना होना था तो सुनंदा ने अपना सामान बैग में रखना शुरू किया, विजय ने तब तक टिकट बुक करने के लिए बात कर ली थी.

गाड़ी में बैठते ही उस ने सोचा कि पापा को फोन तो कर दे कि सुबह भोपाल पहुंच रही है. 2 बार कोशिश की पर फोन कोई उठा ही नहीं रहा था. वह झुंझलाई, ‘पता नहीं कहां गए हैं, यह तो घूमने का भी टाइम नहीं है.’ उस की झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी, ‘कितनी बार कहा है कि मोबाइल रखा करें पास में, पर वह भी नहीं.’

‘‘अरे, सो गए होंगे, तुम सुबह भोपाल स्टेशन से फोन कर लेना और फोन क्या, घर जा कर उन्हें सरप्राइज देना, उन्हें भी अच्छा लगेगा, चलो अब सो जाओ, दिनभर की थकी हुई हो,’’ कहते हुए विजय ने अपने केबिन की लाइट बंद कर दी थी.

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नींद तो सुनंदा को फिर भी नहीं आई थी. अब अगर यह दरख्वास्त मंजूर नहीं हुई तो…सोच कर ही वह सिहर गई थी. बच्चे बाहर होस्टल में रह कर पढ़ रहे हैं, उन की पढ़ाई का भारी खर्च, बच्चों को बुला भी नहीं सकते, उन के कैरियर का सवाल है, घर भी अभी किराए का है, उस की स्वयं की स्कूल की छोटी सी नौकरी है, विजय तो अपने पीएफ से भी पैसा ले चुके हैं. बैंक की किस्त में ही विजय का पूरा वेतन चला जाता है. उस दिन सहेली रमा से कहा था कि कोचिंग वालों से बात कर ले, वह शाम को वहां मैथ्स पढ़ा देगी.

ओफ,… उस का सिर फिर से दर्द करने लगा था. विजय को भी नींद कहां आ पाई होगी, बस सोने का बहाना किए लेटे हैं.

उठ कर उस ने पानी पिया, घड़ी देखी, फिर से आंखें मूंद कर सोना चाहा. कुछ देर बाद शायद हलकी सी झपकी लगी होगी, तभी आहट से नींद टूटी थी.

‘‘सुनंदा, भोपाल आने वाला है, तुम घर पहुंच कर फोन कर देना मुझे और हां, तनाव बिलकुल मत लेना, जो भी होगा, ठीक होगा, समझीं.’’

‘‘और तुम भी जल्दी फोन करना, क्या फैसला रहा,’’ कहते हुए सुनंदा ने अपना बैग समेटा था. थोड़ी ही देर में ट्रेन भोपाल पहुंच गई. विजय स्टेशन के बाहर तक छोड़ने आए.

‘‘अब तुम जाओ, गाड़ी देर तक नहीं रुकती है,’’ सुनंदा ने जोर दे कर कहा था.

‘‘ठीक है, तुम टैक्सी ले लेना,’’ कहते हुए विजय ने विदा ली.

सुनंदा सोच रही थी कि एक बार फिर पापा को फोन करे, अगर सो भी रहे होंगे तो इस समय तो उठ गए होंगे. पर अब भी घंटी देर तक बजती रही थी.

हुआ क्या है, उसे अब कुछ चिंता  होने लगी थी. फिर कुछ सोच कर सुहास भैया के यहां जाने का विचार किया. भाई का घर स्टेशन के पास ही है, भैयाभाभी से मिलते हुए पापा के पास जाना ठीक रहेगा, सोचते हुए उस ने टैक्सी वाले को भाई के घर का ही पता दे दिया था. सुहास भैया उसे देखते ही चौंके थे.

‘‘अरे सुनंदा तुम, व्हाट अ सरप्राइज. अरे सुनो, सुनंदा आई है,’’ बाहर बरामदे से ही उन्होंने रचना भाभी को आवाज दी थी. भैयाभाभी अभी शायद दोनों टहल कर आए थे और भाभी अंदर चाय बनाने चली गई थीं. भाभी को भी आश्चर्य कम नहीं हुआ था.

‘‘चलो, बाहर लौन में ही बैठ कर चाय पिएंगे, पर यह तो बता, अचानक कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस भाभी, विजय को दिल्ली जाना था तो सोचा कि मैं भी आप लोगों से मिल लूं, अभी 2 दिन की स्कूल की छुट्टियां बची हैं, तो…’’

‘‘हां, चलो अच्छा किया…’’ भाभी कुछ और कहना चाह रही थीं कि उस ने ही पूछ लिया, ‘‘पापा कैसे हैं? वे फोन उठा ही नहीं रहे हैं?’’

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‘‘अरे, पापा तो लताजी के घर रहने चले गए हैं, तो वहां फोन कौन उठाएगा,’’ भैया ने अखबार पर नजर गड़ाए निर्लिप्त भाव से कहा था.

‘‘क्या?’’ सुनंदा एकदम सकते में आ गई थी, ‘‘पापा?’’

‘‘हां सुनंदा, पूरे 2 हफ्ते हो गए. आजकल वहीं हैं,’’ यह रचना भाभी की आवाज थी.

‘‘पर…पर क्यों? अपना घर छोड़ कर?’’

‘‘अब यह सब तो जब उन से मिलो तो पूछ लेना, अभी तो चाय पिओ,’’ भैया ने चाय का कप बढ़ाते हुए एक तरह से बात ही खत्म कर दी थी. सुनंदा समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहे.

‘‘अभी नाश्ते के बाद मैं औफिस जाते समय तुम्हें वहां उतार दूंगी, तुम तैयार रहना,’’ कहते हुए भाभी ने चाय के बरतन समेटे और नौकर को कुछ हिदायतें देने के लिए अंदर चली गई थीं.

भैया अभी भी अखबार पढ़ने में व्यस्त थे. तैयार होने के बहाने सुनंदा अंदर आ गई.

पापा को इस उम्र में यह क्या सूझी? कुछ अंदाजा तो उसे पिछली बार ही लगा था, जब वह भोपाल आई थी, लताजी से पापा की नजदीकियां बढ़ने लगी हैं, काफी समय वे पापा के पास ही बिताने लगी थीं. कभी घर की बनी कोई खास खाने की चीज ला रही हैं, कभी अचार तो कभी पापड़.

‘सुनंदा, तुम्हारे पापा को ये सब बहुत पसंद है न. और नौकर तो बना नहीं पाता है,’ वे सहज भाव से कह देतीं. यही नहीं, उन का बेटा राहुल भी अब अकसर पापा के पास ही रहने लगा था.

‘बेटा, इस की वजह से मुझे बहुत आराम हो गया है, सारे छोटेमोटे काम कर देता है,’ पापा ने बड़े गर्व से कहा था कि एक दिन रात को अचानक तबीयत बिगड़ी थी तो उन्होंने भैया को फोन किया, भैया आए नहीं, फिर नौकर लताजी को बुला कर लाया था. उन्होंने ही एंबुलैंस बुलाई, रातभर अस्पताल में रुकी रहीं. भैयाभाभी तो सुबह देखने आए थे.

तब सुनंदा चुप रह गई थी.

‘पर पापा को एकदम लताजी के यहां ही रहने की क्या आवश्यकता आ गई,’ सोचते हुए उस के मुंह से निकल ही गया था.

‘‘पता नहीं पापा को इस उम्र में यह क्या सूझी,’’ गाड़ी में रचना भाभी तब पास ही बैठी थीं, उन्हें तो जैसे एक लंबा विषय मिला.

‘‘पापा को कम से कम यह तो सोचना था कि हम लोग भी इसी छोटे शहर में रहते हैं, यहां की मानसिकता ऐसी नहीं है और फिर कल को हमारी बेटी बड़ी होगी, उस की शादी की बात चलेगी तो तब समाज को हम क्या मुंह दिखाएंगे कि

इस के दादाजी इस उम्र में लिव इन रिलेशनशिप में, हमारी तो नाक ही कट गई है.’’

‘‘बस, भाभी बस,’’ सुनंदा से अब और कुछ सुना नहीं जा रहा था. सोच रही थी कि एक सिरदर्द से बचने के लिए वह यहां आई और आते ही दूसरा सिरदर्द शुरू हो गया.

भाभी तो उसे लताजी के घर के सामने उतार कर चली भी गई थीं. घंटी बजाते ही लताजी ने दरवाजा खोला. स्वागत तो हंस कर किया था लताजी ने पर सुनंदा को वह हंसी भी चुभती हुई लगी थी.

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‘‘कौन, सुनंदा आई है,’’ पापा की आवाज अंदर से आई थी. लताजी शायद पापा को खाना खिला रही थीं. सुनंदा को अंदर ले गईं. कुरसी पर बैठे पापा काफी कमजोर लग रहे थे. वह जा कर पास खड़ी हुई तो वे देर तक उस के सिर पर हाथ फेरते रहे पर सुनंदा कुछ बोल नहीं पा रही थी.

लताजी ने उन्हें कुरसी पर ठीक से बैठाया. फिर एक नैपकिन लगा कर धीरेधीरे चम्मच से उन्हें दलिया खिलाने लगी थीं.

सुनंदा, बस देखती रही थी.

खाना खिला कर लताजी ने नैपकिन से पापा का मुंह पोंछा, फिर एक बरतन में पानी ला कर कुल्ला करवाया.

‘‘चलो बेटा, अब बैडरूम में ही चलते हैं,’’ पापा ने कहा तो वह उन्हें सहारा देने के लिए उठ खड़ी हुई थी.

‘‘सुनंदा, तुम पापा से बातें करो, तब तक मैं तुम्हारे लिए कोई डिश बना देती हूं,’’ लताजी ने कहा तो सुनंदा ने टोक दिया.

‘‘अरे, जो बना है, खा लूंगी, आप क्यों तकलीफ कर रही हैं.’’

‘‘क्यों, इस में तकलीफ कैसी, घर ही तो है,’’ कहते हुए वे अंदर चली गई थीं.

‘‘और बेटे, कैसे आना हुआ अचानक?’’ पापा पूछ रहे थे, वे पलंग पर अधलेटे से हो गए थे. सुनंदा पास ही बैठ गई थी.

‘‘बस पापा, विजय दिल्ली जा रहे थे तो मैं ने सोचा कि आप से मिल लूं, पर आप काफी कमजोर लग रहे हैं, क्या बीमार हो गए थे? बताया नहीं.’’

‘‘अरे, वही हलका स्ट्रोक पड़ा था, तो रात में ही लता ने ही आ कर संभाला, 2 दिन तो अस्पताल में भरती रहना पड़ा. फिर उसी की जिद थी कि अब आप मेरी देखरेख में ही रहें तो यहां ले आई. सुहास और रचना तो देखने भी नहीं आए,’’ पापा का चेहरा फिर तन गया था.

‘‘पर पापा, इस तरह से यहां रहना, इस से तो अच्छा है कि आप लताजी से शादी कर लें,’’ पता नहीं कैसे सुनंदा के मुंह से निकल ही गया था, उसे स्वयं अपने शब्दों पर आश्चर्य हुआ.

‘‘हां, यही सोच रहा हूं.’’

पापा की आवाज उसे भीतर तक हिला गई, ‘क्या पापा इस उम्र में शादी करेंगे,’ उस से अब कुछ बोला भी नहीं जा रहा था.

देर तक चुप्पी रही, फिर लताजी अंदर आईं तो पापा दूसरी बातें करने लगे थे.

‘‘सुनंदा, तुम भी थकी होगी, खाना खा कर थोड़ा आराम कर लेना और हां, तुम्हारे लिए मैं ने मटरपुलाव भी बना दिया है. इन्हें मैं दवाएं दे दूं तो थोड़ा सो लेंगे,’’ लताजी कह रही थीं और सुनंदा का स्वयं का मन हो रहा था कि वहां से उठ कर कहीं भाग जाए.

अंदर कमरे में आ कर तो उसे रोना सा आ गया था. यह क्या सूझी पापा को. क्या रचना भाभी ठीक कह रही थीं कि लताजी की नजर तो पापा के मकान पर है, उन की प्रौपर्टी पर है. ओफ…पर पापा. छि:, पता नहीं किस घड़ी में उस ने पापा की मुलाकात लताजी से करा दी थी.

लताजी उस की सहेली निशा की रिश्ते की बहन थीं, तब निशा ने ही कहा था कि लताजी के पति का अचानक हार्ट अटैक से निधन हो गया है और एक छोटा बेटा है, बहुत टैंशन में हैं. पापा, अगर उन्हें कहीं नौकरी दिला दें तो…

तब उस ने ही पिताजी से कह कर एक स्कूल में लताजी की नौकरी लगवाई थी. पापा की वहां कुछ जानपहचान थी. घर भी पास में दिलवा दिया था, तब से उन का यहां आनाजाना शुरू हुआ, पर उस सब की निष्पत्ति क्या इस प्रकार होनी थी? सुनंदा को अब स्वयं पर ही क्रोध आने लगा था.

दोपहर बाद ही विजय का फोन आ गया था कि बैंक में हैड औफिस वाले मान तो गए हैं पर फाइल दोबारा प्रोसैस करानी होगी, कुछ समय लग जाएगा, तब तक थोड़ी परेशानी तो रहेगी.

‘‘ठीक है.’’

सुनंदा ने शांत भाव से सूचना को लिया था, पर अब वह दूसरी सोच में डूब गई थी. बच्चों के स्कूल का ऐडमिशन होना है, भारी खर्चे की एक समस्या तो इसी महीने सामने आएगी ही. इस से तो अच्छा था कि पुरानी कोचिंग इंस्टिट्यूट की  नौकरी ही करती रहती, वहीं से कुछ आर्थिक सहायता मिल जाती.

शायद  उस की लंबी चुप्पी को विजय ने भी महसूस कर लिया था. तभी उस की टैलीफोन पर फिर आवाज गूंजी, ‘‘सुनंदा, धीरज रखो, सब ठीक हो जाएगा. मैं धीरेधीरे सब लोन चुका दूंगा. ऐसी दिक्कतें आती रहती हैं. मैं ने यहां भी दोएक जगह बात की है, हो सके तो भैया से बात कर लेना, वैसे मुझे किसी से पैसा मांगना अच्छा नहीं लगता है, पर इस समय परेशानी यही है कि औफिस से मैं जितना ले सकता था, ले चुका हूं. अभी कुछ महीने इसी कारण हमें आर्थिक कठिनाई रहेगी, भैया अगर मदद कर सकें तो अच्छा है, कुछ महीनों में मैं उन का सारा पैसा लौटा दूंगा.’’

‘‘ठीक है, मैं बात कर के देखती हूं,’’ सुनंदा ने कह दिया था.

रात को फिर अकेले में सुनंदा ने भाई को फोन किया था. सारी बातें विस्तार से बताईं. पर अंत में सुहास ने यही कहा था, ‘‘देखो सुनंदा, अभी हम भी इस स्थिति में नहीं हैं कि कुछ सहायता कर सकें. हम ने भी एक बड़ा फ्लैट बुक करा रखा है, उस की किस्तें चल रही हैं. इधर, हम पहले जिस मकान में रह रहे थे उस का भी कोर्ट केस चल रहा है.’’

‘‘कौन सा मकान?’’

सुनंदा चौंक पड़ी थी. उधर, सुहास कहे जा रहा था, ‘‘हां, ठीक है, अभी पापा के नाम है और पापा ने बनवाया भी है, पर तुम जानती हो कि कल का भरोसा नहीं है, क्या पता उसे लता ही अपने नाम करवा ले. मैं ने कई बार कहा है कि आप को रुपयों की आवश्यकता हो तो हम से ले लें, पर मकान की रजिस्ट्री हमारे नाम करा दें, पर पापा राजी नहीं हैं.’’

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‘‘तो क्या पापा के मकान का केस चल रहा है?’’

सुनंदा समझ नहीं पा रही थी कि इतना पैसा होते हुए भी भैया की नजर पापा के उस मकान पर है जिस के किराए से पापा अपना खर्चा चला रहे हैं. उन्होंने भैया से अब तक कुछ नहीं मांगा और अब जब बीमारी में भैया को पापा की देखभाल करनी थी, तब वे उन का मकान हड़पने को तैयार हैं.

उसे लगा कि भीतर तक गहरा सन्नाटा उस के अंदर उतर गया है. क्या भैया से कह दे कि मकान पर तो उस का भी हक है. वह भी पापा की बेटी है, अभी थोड़ी सी आर्थिक मदद की बात की तो भैया चुप रह गए पर यदि वह पिता का मकान उन के नाम करा दे तो रुपयों की व्यवस्था करने को तैयार हैं.

अब भैया की बातों का अर्थ उस की समझ में आ रहा था. अधिक बात न कर के उस ने फोन रख दिया था.

सुबह उस के कमरे में पापा अपने सहारे की स्टिक लिए आए थे, ठकठक की आवाज से ही उस की नींद टूटी थी.

‘‘सुनंदा, अब तक सो रही हो, बेटा. उठो, चाय ठंडी हो रही है.’’

पापा की आवाज सुन कर वह उठ गई थी. उसे लगा जैसे उस का बचपन वापस आ गया है. ऐसे ही तो बचपन में पापा उसे जगाया करते थे.

‘‘क्या बात है? इस बार तुम चुप सी हो. रात को तुम्हारी सुहास से बात हो रही थी, फिर तुम सोने चली गईं. वह क्या कह रहा था?’’

‘‘पापा, मैं दोपहर की टे्रन से जाऊंगी, टिकट वहीं मिल जाएगा.’’

‘‘पर बेटा, कल ही तो आई हो,

ऐसी जल्दी क्या है?’’ पापा फिर चौंके थे.

‘‘हां पापा, विजय भी शाम की गाड़ी से दिल्ली से लौट रहे हैं. बैंक में लोन की फाइल लगी हुई थी, वह प्रोसैस हो गई है, तो अब किस्तें चुकाने में दिक्कत नहीं आएगी, पर अभी तो घर में परेशानी ही चल रही है. विजय ने मां की बीमारी में घर में जो कुछ था, सब दांव पर लगा दिया, फिर मां चली गईं. उस झटके से हम उबर भी नहीं पाए थे कि अचानक बिल्डर का तकाजा बढ़ गया. इधर, बच्चों के स्कूल खुलने वाले हैं. तो कुछ सोच कर मैं यहां आई थी और सुहास भैया से बात की थी.’’

इसी बीच लताजी कब अंदर आ कर बैठ गई थीं, वह जान ही नहीं पाई थी. पापा भी शायद इसी बीच बाहर चले गए थे. वह उधर पीठ किए बैग में अपना सामान डाल रही थी तभी लताजी ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था, ‘‘सुनंदा, ऐसी भी जाने की क्या जल्दी है? विजय तो रात की गाड़ी से लौटेंगे न, तुम उन से बात कर लो, हम तुम्हें उसी गाड़ी में बिठा देंगे ताकि तुम लोग साथ ही जा सको.’’

लताजी ने प्यार से समझाते हुए कहा था और फिर बाहर चली गई थीं.

पर वह अभी भी अपनी सोच से बाहर नहीं आ पा रही थी. वह क्या सोच कर आई थी और क्या देख रही है. कई बार बाहर जो कुछ भी दिखता है, उसे हम अपनी ही कल्पनाओं के आधार पर देखने लग जाते हैं. मां की बीमारी में विजय जितना भी खर्च करते रहे, उस ने कभी नहीं रोका. बस, यंत्रचलित सी वही करती रही जो विजय उस से कहते रहे और यहां भैया, भाभी, इन्हें क्या हो गया जो सबकुछ होते हुए भी पापा को इतनी तकलीफ दे रहे हैं. भैया उस से कह रहे हैं कि वह पापा का मकान उन के नाम कराने में मदद करे. शायद उन्हें शक है कि कहीं बहन भी अपना अधिकार न जता दे. उसे अपनेआप पर हंसी आई, सोचा कि भैया से कह ही दे कि वह कभी भी मकान के अधिकार को ले कर अदालत में नहीं जाएगी.

तभी बाहर से पापा और लताजी की एकसाथ आवाज आई थी, ‘‘बेटे, नाश्ता लग गया है, बाहर आ जाओ.’’

मेज पर पहुंचते ही पाया कि पापा अपेक्षाकृत शांत और प्रसन्न हैं. लताजी नाश्ते की प्लेटें लगा रही थीं. उस ने सामने रखा अखबार उठाया ही था कि पापा ने एक पीला सा लिफाफा उस के हाथ में थमा दिया.

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‘‘पापा, यह क्या है?’’

‘‘बेटा, कुछ खास नहीं. बस, तुम इसे रखो, इस में तुम्हारे लिए मैं ने कुछ पोस्ट डेटेड चैक रख दिए हैं. मेरी पैंशन हर महीने बैंक में अपनेआप जमा हो जाती है और अब मेरा खर्चा भी क्या है, तुम हर महीने बैंक में लगा देना, तुम्हें दिक्कतें नहीं आएंगी. तुम्हारे अकाउंट में पैसा हर महीने पहुंचता रहेगा.’’

सुनंदा अवाक् थी, उस ने लताजी की ओर देखा, वे मुसकराईं और बोलीं, ‘‘अभी मेरी सैलरी भी आती है और मकान का किराया भी, हमारा खर्चा तो आराम से चल जाता है, तुम लोग परेशान न हो, हम यही चाहते हैं.’’

सुनंदा को ऐसा लगा जैसे उस के लड़खड़ाते कदमों को पापा और लताजी ने संभाल लिया है.

उधर, पापा कहे जा रहे थे, ‘‘बेटा, सुहास से भी कह देना कि वह मकान उसी का है, उसी का रहेगा, पर कम से कम हमें अभी तो शांति से रहने दे. जब तक हम जिंदा हैं, हम आराम से रह तो लें, लता के पास तो उस का अपना यह घर है.’’

जल्द ही एजाज खान की दुल्हन बनेंगी पवित्रा पुनिया, जानें कब होगी शादी

बिग बॉस 14 के कंटेस्टेंट पवित्रा पुनिया और एजाज खान की लव स्टोरी काफी ज्यादा चर्चा में रही हैं.  खबर है कि दोनों जल्द अपने रिश्ते को नाम देने वाले हैं.  इन दिनों बिग बॉस फिनावे वीक चल रहा है और एजाज खान बिग बॉस14 के घर में छाए हुए हैं.

अपने प्रोफेशनल कमिटमेंट्स को पूरा करने के साथ- साथ एजाज खान अपनी गर्लफ्रेंड पवित्रा पुनिया के साथ भी क्वालिटी टाइम बिता रहे हैं. हाल ही में इस कपल ने खुलासा किया है कि इस साल के अंत में दोनों कपल शादी के बंधन में बंधने वाले हैं.

 

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इस बात को जानकर पवित्रा पुनिया और एजाज खान के फैंस काफी ज्यादा खुश महसूस कर रहे हैं. एजाज खान ने एक इंटरव्यू में बात चीत के दौरान खुलासा किया है कि यह वक्त बहुत अच्छा है हमारे लिए क्योंकि इससे पहले हमने शादी के लिए बहुत से पापड़ बेले हैं.

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अपनी उंगलियों को क्रास करते हुए एजाज खान ने कहा कि इस साल तक सबकुछ अच्छा रहा तो साल के आखिरी में मैं पवित्रा से शादी करुंगा. बता दें कि वहीं पवित्रा पुनिया भी पहले कई बार एजाज खान के साथ शादी को लेकर इशारे कर चुकी हैं.

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इन दोनों के फैंस को इस शादी का बेसब्री से इंतजार है. बता दें कि इससे पहले एजाज खान और पवित्रा पुनिया अलग-अलग रिलेशन में रह चुके हैं लेकिन दोनों अपने- अपने रिश्ते में सफल नहीं हो पाए थें. देखते हैं इन दोनों को अब कितना प्यार मिलता है फऐंस और इनका रिशअता कब तक चल पाता है. खैर दोनों साथ में बहुत प्यारे लगते हैं.

कार्तिक को पाने के लिए सारी हदें पार करेगी रिया, जानें क्या करेगी कायरव के साथ

टीवी जगत का पसंदीदा सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में ट्विस्ट आ गया है. नायरा की मौत के बाद कार्तिक के जीवन में उथल-पुथल मची हुई है. कार्तिक को बड़ा झटका लगता है सीरत को देखने के बाद.  नायरा कि हमशक्ल को देखने के बाद वह बार-बार उसकी तरफ खींचा चला जा रहा है.

वहीं दूसरी तरफ रिया को इस बात का डर सता रहा है कि कहीं कार्तिक उसके हाथ से निकल न जाए. रिया कार्तिक को पाने के लिए हर कोशिश करती नजर आ रही है. वह कार्तिक के परिवार वालों और अक्षरा के साथ नजदीकियां बढ़ाती नजर आ रही है.

अब कार्तिक के घर वालों के सामने रिया अच्छी इमेज बना ली है लेकिन सीरत की खबर सामने आते ही उसे बड़ा झटका लगने वाला है.

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है सीरियल में जल्द दिखाया जाएगा कि रिया अपना असली चेहरा दिखाती नजर आएगी. रिया गोयनका परिवार के एक- एक सदस्य के दिल में खास जगह बनाने कि कोशिश करेंगी.

वह बार-बार कार्तिक के नजदीक आने की कोशिश करेंगी लेकिन कार्तिक उसे देखते ही बौखला जाएगा. कार्तिक को रिया की मौजूदगी बर्दाश्त नहीं होगी वह बार- बार उससे दूरी बनाने की कोशिश करेंगी.

लेकिन रिया कार्तिक के नजदीक जाने के लिए खतरनाक कदम उठाते दिखेगी.  रिया कार्तिक को पाने की चाह में उनके बेटे कायरव को अपना मुहरा बनाएगी. जिससे वह हर वक्त कायरव को परेशान करती नजर आएगी. कैरव को परेशआन देखकर कार्तिक भी हैरान हो जाएगा.

मैं एक लड़के से प्यार करती हूं, लेकिन उस की शादी हो चुकी है और उस का एक बेटा भी है, मैं क्या करूं?

सवाल
मैं 20 साल की हूं और एक लड़के से प्यार करती हूं. लेकिन उस की शादी हो चुकी है और उस का एक बेटा भी है. मेरे घर वाले इस कारण मुझ से खुश नहीं हैं. मैं क्या करूं?

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जवाब
सब से पहले तो आप ही सोचिए क्या आप एक बेटे के बाप के चक्कर में पड़ कर ठीक कर रही हैं? आप के घर वालों की नाराजगी जायज है. दरअसल, आप का प्यार एकतरफा है. वह आदमी, जो एक बच्चे का बाप है, आप को भी मूर्ख बना रहा है व अपने घर वालों को भी.

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आप भावना में बह कर कोई ऐसा कदम न उठा बैठिएगा कि बाद में पछताना पड़े. अच्छा तो यही होगा कि आप अपने इस प्यार को यहीं समाप्त कर दें, क्योंकि यह सिर्फ आप की तरफ से एकतरफा है. वह आप का यौनशोषण करेगा और फिर छोड़ देगा. उस का तो परिवार है, आप अपना व अपने मातापिता का सम्मान भी खो बैठेंगी, साथ ही, अगर उस का आप के प्रति लगाव रहा तो उस का परिवार भी उजड़ेगा.

इधर, आप के मातापिता नाराज रहेंगे. सो, सब को बचाने की जिम्मेदारी आप की है. आंखों से एकतरफा प्यार की पट्टी उतार कर असलियत को देखिए.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

पानी बचाने की मुहिम में कामयाब: उमाशंकर की मेड़बंदी मुहिम

बीते कुछ दशकों में जल संकट देशभर में एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है. देशभर में पीने और सिंचाई के काम में आने वाले जल स्रोत में भारी कमी आई है. इस का नतीजा यह रहा है कि देश के कई भाग भीषण सूखे की त्रासदी से जू? रहे हैं. जल संकट से उपजे हालात के चलते पलायन और आत्महत्या करने वालों की तादाद में भी काफी इजाफा हुआ है.

अगर देखा जाए, तो देश में बुंदेलखंड के जिले जल संकट से सब से ज्यादा प्रभावित रहे हैं, जबकि इस क्षेत्र में एशिया की सब से बड़ी ग्रामीण जल परियोजना ‘पाठा पेयजल योजना’ के नाम से चलाई जा चुकी है. जल संकट से जू?ा रहे बुंदेलखंड में प्राकृतिक जल स्रोतों की भरमार होने के बावजूद पानी की कमी यहां के लोगों के लिए एक बड़े संकट के रूप में खड़ी रही. बुंदेलखंड क्षेत्र में छोटीबड़ी कुलमिला कर 35 नदियां हैं, जिस में यमुना, चंबल, बेतवा, केन, मंदाकिनी जैसी बड़ी नदियां भी शामिल हैं. इस के अलावा सरकारी आंकड़ों में 33,450 तालाब, 80,000 कुएं, 200 नाले, 51 बावरी और 125 छोटेबड़े बांध भी उपलब्ध हैं.

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लेकिन, बुंदेलखंड का जल संकट जस का तस बना हुआ था. इसी जल संकट के बीच सरकार के नाकाफी पड़ते उपायों के बीच जलयोद्धा उमाशंकर पांडेय ने मेंड़बंदी जैसे पारंपरिक तरीके को समुदाय में बढ़ावा दे कर न केवल बुंदेलखंड, बल्कि देश के कई दूसरे हिस्सों में भी पानी के संकट को काफी हद तक कम कर दिया है. उन की मेंड़बंदी परंपरा ने बांदा, महोबा, चित्रकूट, ?ांसी जैसे जिलों में पानी के जलस्तर को बढ़ाने में काफी मदद की है. उन्होंने यह कामयाबी बिना किसी सरकारी या गैरसरकारी मदद के समुदाय के आधार पर किसानों की सहभागिता से हासिल की है.

बांदा में बड़े पानी के स्तर को माइनर इरीगेशन डिपार्टमैंट की रिपोर्ट में भी माना गया है. इस के अनुसार, इतिहास में पहली बार मेंड़बंदी की 5 सालों की मेहनत से बांदा जनपद का भूजल स्तर 1 मीटर, 34 सैंटीमीटर ऊपर आया है. कृषि विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, किसानों के बोने का रकबा पिछले 5 सालों में बुंदेलखंड के जिलों में 3 लाख हेक्टेयर से ज्यादा बढ़ा है. ऐसे हुई शुरुआत मूल रूप से बांदा जनपद के जखनी गांव के बाशिंदे उमाशंकर पांडेय ने बुंदेलखंड के जल संकट को देखते हुए समाजसेवा का रास्ता चुना. उन्होंने बुंदेलखंड के जल संकट से निबटने के लिए जखनी गांव के लोगों को एकजुट कर पानी बचाने के लिए मेंड़बंदी कर वर्षा जल को बचाने की मुहिम शुरू की.

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कुछ लोगों के साथ हुए मेंड़बंदी से पानी बचाने की मुहिम के कामयाब नतीजों को देखते हुए आसपास के गांव के लोग भी आगे आए और देखते ही देखते मेंड़बंदी विधि को पूरे बुंदेलखंड में पानी बचाने के एक कामयाब तरीके के रूप में अपनाया जाने लगा, जिस का नतीजा आज सामने है. क्योंकि बांदा सहित बुंदेलखंड ही नहीं, बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी मेंड़बंदी परंपरा को अपना कर पानी बचाने की मुहिम में कामयाबी पाई जा चुकी है. जखनी गांव के मौडल की कामयाबी को देखते हुए देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधानों को लिखी चिट्ठी में मेंड़बंदी के जरीए जल रोकने की बात कही है.

इसी का नतीजा है कि जखनी जल संरक्षण की परंपरागत विधि बगैर प्रचारप्रसार के देश के एक लाख, 50 हजार से ज्यादा गांवों में पहुंच चुकी है, वहीं देश को 1,050 जल ग्राम देने का काम भी इसी जल ग्राम जखनी मौडल से हुआ है. बांदा समेत देश के दूसरे हिस्से में पानी बचाने की कामयाब विधि को ले कर उमाशंकर पांडेय ने बताया कि उन्होंने कुछ नया नहीं किया है, बल्कि मेंड़बंदी की पारंपरिक विधि को समुदाय के हाथों दोबारा जिंदा कर दिया.

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इस के लिए भूजल संरक्षण अभियान मेंड़बंदी के लिए किसी तरह का कोई अनुदान सरकार या दूसरे संगठनों से नहीं लिया है, बल्कि बिना किसी सरकारी इमदाद के ही खेत पर मेंड़ और मेंड़ पर पेड़ विधि से वर्षा जल संरक्षण की मुहिम को आगे बढ़ाया. उन्होंने बताया कि अपने साथियों के साथ मिल कर गांव वालों को वर्षा जल को बचाने के लिए खेतों में मेंड़बंदी के लिए बढ़ावा दिया, जो गांव के कुछ पढ़ेलिखे लोगों की बात सम?ा में आई और उन लोगों ने अपने खेत में मेंड़बंदी कर पानी बचाने की शुरुआत कर दी. गांव वालों की इस पहल का ही नतीजा है कि मेंड़बंदी अपनाने वाले जिलों के तालाबों और कुओं में गरमियों में भी लबालब पानी भरा रहता है.

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