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हस्तरेखा: रोहिणी का शिखा के साथ कौन सा अतीत जुड़ा था

रोहिणी का अतीत आज एक बार फिर उस की बेटी शिखा के रूप में उस के सामने खड़ा था. वह किसी भी सूरत में शिखा के सपने पूरे होते देखना चाहती थी. लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह शिखा को अपने अतीत से कैसे अवगत कराए? तभी शिखा के एक जवाब ने उस की सारी दुविधाओं का समाधान कर दिया.

अचानक ही मैं बहुत विचलित हो गई. मन इतना उद्वेलित था कि कोई भी काम नहीं कर पा रही थी. बिलकुल सांपछछूंदर जैसी स्थिति हो गई. न उगलते बनता न निगलते. मेरा अतीत यहां भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ था.

देखा जाए तो बात बहुत छोटी सी थी. शिखा, मेरी 16 वर्षीय बेटी, शाम को जब स्कूल से लौटी तो आते ही उस ने कहा, ‘‘मां, वह शर्मीला है न.’’

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मेरी आंखों में प्रश्नचिह्न देख कर उस ने आगे कहा, ‘‘अरे वही, जो उस दिन मेरे जन्मदिन पर साड़ी पहन कर आई थी.’’

हाथ की पत्रिका रख कर रसोई की तरफ जाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘हां, तो क्या हुआ उसे?’’

‘‘उसे कुछ नहीं हुआ. उस की चचेरी दीदी आई हुई हैं, मुरादाबाद से. पता है, वे हस्तरेखाएं पढ़ना जानती हैं,’’ स्कूल बैग को वहीं बैठक में रख कर जूते खोलती हुई शिखा ने कहा.

मैं चौकन्नी हो उठी. रसोई की ओर जाते मेरे कदम वापस बैठक की तरफ लौट पड़े. शिखा इस सब से अनजान अब तक जूते और मोजे उतार चुकी थी. गले में बंधी टाई खोलते हुए वह बोली, ‘‘कल रविवार है, इसलिए हम सभी सहेलियां शर्मीला के यहां जाएंगी और अपनेअपने हाथ दिखा कर उन से अपना भविष्य पूछेंगी.’’

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मैं सोच में डूब गई कि आज यह अचानक क्या हो गया? मेरे भीतर एक ठंडा शिलाखंड सा आ गिरा? क्या इतिहास फिर अपनेआप को दोहराने आ पहुंचा है? क्या यह प्रकृति का विधान है या फिर मेरी अपनी लापरवाही? क्या नाम दूं इसे? क्या समझूं और क्या समझाऊं इस शिखा को? क्या यह एक साधारण सी घटना ही है, रोजमर्रा की दूसरी कई बातों की तरह? लेकिन नहीं, मैं इसे इतने हलके रूप में नहीं ले सकती.

शाम को खाना बनाते समय भी मन इसी ऊहापोह में डूबा रहा. सब्जी में मसाला डालना भूल गई और दाल में नमक. खाने की मेज पर भी सिर्फ हम दोनों ही थीं. उस की लगातार चलती बातों का जवाब मैं ‘हूंहां’ से हमेशा की ही तरह देती रही. लेकिन दिमाग पूरे समय कहीं और ही उलझा रहा. क्या इसे सीधे ही वहां जाने से मना कर दूं? लेकिन फिर खयाल आया कि उम्र के इस नाजुक दौर पर यों अपने आदेश को थोपना सही होगा?

आज तक कितना सोचसमझ कर, एकएक पग पर इस के व्यक्तित्व को निखारने का हर संभव प्रयास करती रही हूं. तब ऐसी स्थिति में यों एकदम से उस के खुले व्यवहार पर अपने आदेश का द्वार कठोरता से बंद कर पाऊंगी मैं?

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नहीं, मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती. तो क्या सबकुछ विस्तार से बता कर समझाना होगा उसे? अपना ही अतीत खोल कर रख देना पडे़गा इस तरह तो. अगर मैं ऐसा कर दूं तो शिखा की नजरों में मेरा तो अस्तित्व ही बिखर जाएगा. एक खंडित प्रतिमा बन कर क्या मैं उसे वह सहारा दे सकूंगी, जो उस के लिए हवा और पानी जैसा ही आवश्यक है?

मैं आगे सोचने लगी, ‘परंतु कुछ भी हो, यों ही मैं इसे किसी भी अनजान धारा में बहते हुए चुप रह कर नहीं देख सकती. शिखा के जन्म से ले कर आज तक मनचाहा वातावरण दे कर मैं इसे वैसा ही बना पाई हूं, जैसा चाहती थी सभ्य, सुशील, संवेदनशील और आत्मविश्वास से भरपूर. अपने जीवन की इस साधना को खंडित होने से बचाना है मुझे. ‘यही सब सोचतेविचारते मैं ने रात का काम निबटाया. अखिल दफ्तर के काम से बाहर गए हुए थे. अगर वे यहां होते तो मैं इतनी उद्विग्न न होती.

अखिल मेरे मन की व्यथा जानते हैं. मेरी भावनाओं की कद्र है उन के मन में. यही सोचते हुए मैं ने बची दाल, सब्जी फ्रिज में रखी, दूध को संभाला, रसोई का दरवाजा बंद किया और आ कर अपने बिस्तर पर लेट गई. शिखा मेरे हावभाव से कुछ हैरान तो थी, एकाध बार पूछा भी उस ने पर मैं ही मुसकरा कर टाल गई. उस से बात करने से पहले मैं अपनेआप को मथ लेना चाहती थी.

अंधेरे में भी आशा की एक किरण अचानक कौंधी. मैं सोचने लगी, ‘आवश्यक तो नहीं कि शिखा के हाथ की रेखाएं उस के विश्वासों और आकांक्षाओं के प्रतिकूल ही हों पर यह भी तो हो सकता है कि ऐसा न हो. तब क्या होगा? क्या वह भी मेरी तरह…?’ यह सोच कर ही मैं सिहर उठी, जैसे ठंडे पानी का घड़ा किसी ने मेरे बिस्तर पर उड़ेल दिया हो.

मेरा अतीत चलचित्र की तरह मेरी ही आंखों के सामने घूम गया…

मैं डाक्टर बनना चाहती थी. इसलिए प्री मैडिकल टैस्ट यानी  ‘पीएमटी’ की तैयारी में जीजान से जुटी थी. 11वीं तक हमेशा प्रथम आती रही. 80 प्रतिशत से कम अंक तो कभी आए ही नहीं. आत्मविश्वास मुझ में कूटकूट कर भरा था. बड़ी ही संतुलित जिंदगी थी. मातापिता का प्यार, विश्वास, भाइयों का स्नेह, उच्चमध्यवर्ग का आरामदेह जीवन और उज्ज्वल भविष्य.

प्रथम वर्ष का परीक्षाफल आने ही वाला था. इस के 1 दिन पहले की बात है. मैं सुबह 4 बजे से उठ कर अपनी पढ़ाई में जुटी थी. 10 बजतेबजते ऊब उठी. मां पंडितजी के पास किसी काम के लिए जा रही थीं. मैं भी यों ही उन के साथ हो ली, एकाध घंटा तफरीह मारने के अंदाज में.

पंडितजी ने मां के प्रणाम का उत्तर देते ही मुझे देख कर कहा, ‘अरे, यह तो रोहिणी बिटिया है. देखो तो, कितनी जल्दी बड़ी हो गई है. कौन सी कक्षा में आ गई इस वर्ष?’

मैं ने उन्हें बताया तो सुन कर बड़े प्रसन्न हुए और बोले, ‘अच्छाअच्छा, तो पीएमटी की तैयारी चल रही है. प्रथम वर्ष का परिणाम तो नहीं आया न अभी. वह क्या है, अपना सुरेश, मेरा नाती, उस ने भी प्रथम वर्ष की ही परीक्षा दी है.’

‘पंडितजी, आजकल में परिणाम आने ही वाला है,’ मां ने ही जवाब दिया था.

मैं तो अपनी आदत के अनुरूप उन के आसपास रखी पुस्तकों में उलझ गई थी.

मेरी ओर देख कर पंडितजी मुसकराए, ‘भई, यह तो हर वर्ष पूरे जिले में अपने विद्यालय का नाम रोशन करती है. आप तो मिठाई तैयार रखिए, इस बार भी अव्वल ही आएगी.’

मां भी इस प्रशंसा से खुश थीं. वे हंस कर बोलीं, ‘मुंह मीठा तो अवश्य ही होगा आप का. आज यह साथ आ ही गई है तो हाथ बांचिए न इस का.’

मां इन सब बातों में बहुत विश्वास रखती हैं, यह मुझे मालूम था. मुझे स्वयं भी जिज्ञासा हो आई. भविष्य में झांकने की आदिम लालसा मेरे भीतर एकाएक जाग उठी. मैं ने अपना हाथ पंडितजी की ओर फैला दिया.

उन्होंने भी सहज ही मेरा हाथ पकड़ा और लकीरों की उधेड़बुन में खो गए. लेकिन जैसेजैसे समय बीतता गया, उन के माथे की लकीरें गहरी होती गईं. फिर कुछ झिझकते हुए से बोले, ‘बेटी, अपने व्यवसाय को ले कर अधिक ऊंचे सपने न देखो. बहुत अच्छा भविष्य है तुम्हारा. बहुत अच्छा घरवर…’

मैं आश्चर्यचकित उन की ओर देख रही थी और मां परेशान हो चली थीं. शायद सोच रही थीं कि नाहक इस लड़की को साथ लाई, घर पर ही रहती तो अच्छा था.

आखिर मां बोल उठीं,  ‘पंडितजी, छोडि़ए, मैं तो आप के पास किसी और काम से आई थी.’’

लेकिन अचानक मां की दृष्टि मेरे बदरंग होते चेहरे पर पड़ी और वे चुप हो गईं.

कुछ पलों की उस खामोशी में मेरे भीतर क्याक्या नहीं हुआ. पहले तो अपमान की ज्वाला से जैसे मेरे सर्वांग जल उठा. मुझे लगा, मेरे चेहरे से भाप निकल कर आसपास का सबकुछ जला डालेगी. अपने भीतर की इस आग से मैं स्वयं भयभीत थी कि अगले ही पल मेरा शरीर हिमशिला सा ठंडा हो गया. मैं पसीने से भीग गई.

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं कहां हूं और मेरे चारों ओर क्या हो रहा है. सन्नाटे के बीच मां की आवाज बहुत दूर से आती प्रतीत हुई, ‘चल, रोहिणी, तेरी तबीयत ठीक नहीं लगती. घर चलें.’

इस के बाद पंडितजी से उन्होंने क्या बोला, कब मैं खाना खा कर सो गई, मुझे कुछ याद नहीं. सब यंत्रचालित सा  होता रहा.

अगली सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं उस आरंभिक सदमे से बाहर आ चुकी थी. दिमाग की शून्यता फिर विचारों से धीरेधीरे भरने लगी थी. एकएक कर पिछले दिन का वृत्तांत मेरे सामने क्रम से आने लगा और विचार व्यवस्थित होने लगे.

मैं सोचने लगी कि यह मेरी कैसी पराजय है और क्यों? मैं तो पूरी मेहनत कर रही हूं. सामने ही तो सुखद परिणाम भी दिख रहे हैं, फिर यह सबकुछ मरीचिका कैसे बन सकता है? मैं अपने मन को दृढ़ करने के प्रयत्न में लगी थी. दरअसल, मां ने मुझे अकेला छोड़ दिया था.

पर यह सब तो मेरी जीवनसाधना पर कुठाराघात था. अब तक तो यही जाना था कि जीतोड़ कर की गई मेहनत कभी असफल नहीं होती. पर अब इस संदेह के बीज का क्या करूं? दादाजी भी तो कहते हैं कि हस्तरेखाओं में कुछ न कुछ तो लिखा ही रहता है. पर पढ़ना तो कोई विरला ही जानता है. मन को दिलासा दिया कि ंशायद पंडितजी पढ़ना जानते ही नहीं.

पर शक तो अपना फन फैलाए खड़ा था. असहाय हो कर मैं एकाएक रो पड़ी थी. पर फिर अपनेआप को संभाला, उठी और इस शक के फन को कुचलने की तैयारी में जुट गई. खूब मेहनत की मैं ने. मातापिता भी आश्वस्त थे मेरी पढ़ाई और आत्मविश्वास से. पर शक मेरे भीतर ही भीतर कुलबुला रहा था और शायद यही कुलबुलाहट उस दुर्घटना का कारण बनी.

मैं पहला पेपर देने जा रही थी. भाई मुझे परीक्षा भवन के बाहर तक छोड़ कर चला गया. अंदर जाने के लिए सड़क पार करने लगी कि जाने कहां से मेरा भविष्य निर्देशक बन एक ट्रक आया और मुझे एक जबरदस्त टक्कर लगा कर चलता बना. कुछ ही पलों में सब हो गया. समझ तब आया जब मैं हाथ में आई बाजी हार चुकी थी. अस्पताल में मेरी आंखें खुलीं. मेरे हाथों और सिर पर पट्टियां बंधी थीं. शरीर दर्द से अकड़ रहा था और मातापिता व भाई रोंआसे चेहरे लिए पास खड़े थे.

यहीं मुझ से दूसरी गलती हुई. मैं ने हार मान ली. मैं फिर उठ खड़ी होती, अगली बार परीक्षा देती तो मेरे सपने पूरे हो सकते थे. लेकिन मेरे साथसाथ घर में सभी मुझे छू कर लौटी मौत से आतंकित थे. सो, मेरे तथाकथित ‘भाग्य’ से सभी ने समझौता कर लिया. किसी ने मुझे इस दिशा में प्रोत्साहित नहीं किया. मेरा तो मन ही मर चुका था.

बीएससी 2 साल में पूरी की ही थी कि अखिल के घर से मेरे लिए रिश्ता आ गया.

अखिल को मैं बचपन से जानती थी. मैं ने ‘हां’ कर दी. उम्मीद थी, इन के साथ सुखी रहूंगी और सुखी भी रही. 18 साल हो गए विवाह को, कभी हमारे बीच कोई गंभीर मनमुटाव नहीं हुआ. घर में सभी सदस्य एकदूसरे को इज्जत व प्यार देते हैं.

मेरे मन में अपनी असफलता की फांस आरंभ में तो बहुत गहरी धंसी थी. लेकिन अखिल के प्यार ने इसे हलका कर दिया था. अनुकूल वातावरण में हृदय के घाव भर ही जाते हैं. लेकिन अनजाने में मेरी अपनी बेटी ने ही इस घाव को कुरेद कर हरा कर दिया था. मेरे सपनों, मेरी आकांक्षाओं और असफलताओं के बारे में कुछ भी तो नहीं जानती, शिखा.

मैं फिर सोच में डूब गई कि उसे किस तरह से समझाऊं. खुद की की गई गलतियां मैं उसे दोहराते हुए नहीं देख सकती थी. ऐसा नहीं कि मैं अपनी आकांक्षाएं उस के द्वारा पूरी कर लेना चाहती थी, लेकिन उस के अपने सपने मैं किसी भी सूरत में पूरे होते देखना चाहती थी. इस के लिए मुझे दुविधा के इस घेरे से बाहर निकलना ही था.

मैं बिस्तर से उठ खड़ी हुई. सोचा कि अभी देखूं शिखा क्या कर रही है? उस के कमरे का दरवाजा खुला था, बत्ती जल रही थी. मेज पर झुकी हुई शायद वह गणित के सूत्रों में उलझी हुई थी.

नंगे पैर जाने के कारण मेरे कदमों की आहट वह नहीं सुन सकी थी.

‘‘शिखा, सोई नहीं अभी तक?’’ मैं ने पूछा तो वह चौंक उठी.

‘‘ओह मां, आप भी, कैसे चुपके से आईं. डरा ही दिया मुझे. अभी तो सवा 11 ही हुए हैं. आप क्यों नहीं सोईं’’, झुंझलाते हुए वह मुझ से ही प्रश्न कर बैठी.

मैं धीरे से बोली, ‘‘बेटी, कल तुम शर्मीला के घर जाना चाहती हो न? उस की बहन, जो ज्योतिष…’’

‘‘अरे हां, लेकिन इस वक्त, यह कोई बात है करने की. यह तो फालतू की बात है. मैं तो विश्वास भी नहीं करती. बस, ऐसे ही थोड़ा सा परेशान करेंगे दीदी को,’’ शैतानी से हंसते हुए वह बोली.

मेरे चेहरे की तनी हुई रेखाओं को शायद ढीला पड़ते उस ने देख लिया था. तभी एकाएक गंभीर हो उठी और बोली, ‘‘मां, मालूम है, पिताजी क्या कहते हैं?’’

‘‘क्या?’’ मैं समझ नहीं पा रही थी किस संदर्भ में बात करना चाहती है मेरी शिखा.

‘‘पिताजी कहते हैं कि इंसान, उस की इच्छाशक्ति और उस की मेहनत, ये सब हर चीज से ऊपर होते हैं.’’

अपनी मासूम बिटिया के मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर मैं रुई के फाहे सी हलकी हो गई.

अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेटते हुए मैं ने अनुभव किया कि शिखा मुझ पर नहीं गई, यह तो लाजवाब है. लेकिन नहीं, यह लड़की लाजवाब नहीं, यह तो मेरा जवाब है. फिर मुसकराते हुए मैं नींद के आगोश में समा गई.

नाराजगी-भाग 1: संध्या दूसरी शादी के बारे सोचकर क्यों डर रही थी

लेखिका-डा. के रानी

आशा ने खुद को सम झाते व बेटे की इच्छा का सम्मान करते हुए संध्या को बहू के तौर पर स्वीकार तो कर लिया था लेकिन असमंजस की लकीरें फिर भी आशा को घेर रही थीं. फिर एक दिन अचानक… सुमित पिछले 2 सालों से मुंबई के एक सैल्फ फाइनैंस कालेज में पढ़ा रहा था. पढ़नेलिखने में वह बचपन से ही अच्छा था. लखनऊ से पढ़ाई करने के बाद वह नौकरी के लिए मुंबई जैसे बड़े शहर आ गया था. उस की मम्मी स्कूल टीचर थीं और वे लखनऊ में ही जौब कर रही थीं.

मम्मी के मना करने के बावजूद सुमित ने मुंबई का रुख कर लिया था.यहां के जानेमाने मैनेजमैंट कालेज में वह अर्थशास्त्र पढ़ा रहा था. वहीं उसी विभाग में उस के साथ संध्या पढ़ाती थी. स्वभाव से अंतर्मुखी और मृदुभाषी संध्या बहुत कम बोलने वाली थी. सुमित को उस का सौम्य व्यवहार बहुत अच्छा लगा. सुमित की पहल पर संध्या उस से थोड़ीबहुत बातें करने लगी और जल्दी ही उन में अच्छी दोस्ती हो गई. धीरेधीरे यह दोस्ती प्यार में बदलने लगा था. संध्या को इस बात का एहसास होने लगा था. सुमित जबतब यह बात उसे जता भी देता. संध्या अपनी ओर से उसे जरा भी बढ़ावा न देती. वह जानती थी कि वह एक विधवा है. उस के पति की 7 साल पहले एक ऐक्सिडैंट में मौत हो गई थी.

उस का 8 साल का एक बेटा भी था. सुमित को उस ने सबकुछ पहले ही बता दिया था. इतना सबकुछ जानते हुए भी उस ने इन बातों को नजरअंदाज कर दिया. एक दिन उस ने संध्या के सामने अपने दिल की बात कह दी.‘‘संध्या, मु झे तुम बहुत अच्छी लगती हो और तुम से प्यार करता हूं. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. क्या तुम्हें मैं पसंद हूं?’’ उस की बात सुन कर संध्या को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. वह चेतनाशून्य सी हो गई. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि वह सुमित से क्या कहे. किसी तरह से अपनेआप को संयत कर वह बोली, ‘‘आप ने अपनी और मेरी उम्र देखी है?’’ ‘‘हां, देखी है. उम्र से क्या होता है? बात तो दिल मिलने की होती है. दिल कभी उम्र नहीं देखता.’’ ‘‘यह सब आप ने किताबों में पढ़ा होगा.’’ ‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा संध्या. मैं सच में तुम्हें अपना लाइफ पार्टनर बनाना चाहता हूं.’’ ‘‘प्लीज, फिर कभी ऐसी बात मत कहना. सबकुछ जान कर भी मु झ से यह सब कहने से पहले आप को अपने घरवालों की रजामंदी लेनी चाहिए थी.’’‘‘

उन से तो मैं बात कर ही लूंगा, पहले मैं तुम्हारे विचार जानना चाहता हूं.’’ ‘‘मैं इस बारे में क्या कहूं? आप ने तो मु झे कुछ कहने लायक नहीं छोड़ा,’’ संध्या बोली. उस की बातों से सुमित इतना तो सम झ गया था कि संध्या भी उसे पसंद करती है लेकिन वह उस की मम्मी को आहत नहीं करना चाहती. उसे पता है, एक मां अपने बेटे के लिए कितनी सजग रहती है. सुमित के पापा की मौत तब हो गई थी जब वह मात्र 2 साल का था. उस के पिता भी टीचर थे और उस की मम्मी उस के पिता की जगह अब स्कूल में पढ़ा रही थीं.सुमित की मम्मी आशा की दुनिया केवल सुमित तक सीमित थी. वह खुद भी यह बात अच्छी तरह से जानता था कि मम्मी इस सदमे को आसानी से बरदाश्त नहीं कर पाएंगी, फिर भी वह संध्या को अपनाना चाहता था.

संध्या सोच रही थी कि वह भी तो अर्श की मां है और अपने बच्चे का भला सोचती है. भला कौन मां यह बात स्वीकार कर पाएगी कि उस का बेटा अपने से 7 साल बड़ी एक बच्चे की मां से शादी करे.यही सोच कर वह कुछ कह नहीं पा रही थी. दिल और दिमाग आपस में उल झे हुए थे. अगर वह दिल के हाथों मजबूर होती है तो एक मां का दिल टूटता है और अगर दिमाग से काम लेती है तो सुमित के प्यार को ठुकराना उस के बस में नहीं था. इसीलिए उस ने चुप्पी साध ली. सुमित उस की मनोदशा को अच्छी तरह से सम झ रहा था. संध्या की चुप्पी देख कर वह सम झ गया था कि वह भी उसे उतना उसे पसंद करती है जितना कि वह. 

संवेदनशीलता सीमा में हो

सदियों से माना जा रहा है कि महिलाओं का हृदय कोमल होता है. पर कोई महिला पुरुष की अपेक्षा कठोर भी हो सकती है और कोई पुरुष भी महिला की अपेक्षा संवेदनशील हो सकता है. कुछ भी होपर यह खूबी मानसिक तनाव देने वाली होती है. महिलाएं बहुत जल्दी विश्वास कर लेती हैंइसलिए वे जल्दी ही हर्ट भी होती हैं. वे कुछ भी गलत सहन नहीं कर सकतीं.

संवेदना यानी कि समवेदना यानी कि किसी की वेदना उसी की तरह अनुभव करने वाली भावना. यह भावना रखने वाला आदमी संवेदनशील माना जाता है. इस मामले में महिलाओं को अधिक संवेदनशील कहा गया है. कुछ हद तक यह सच भी है. अब तो ट्रैजडी वाली फिल्में ज्यादा आती नहीं हैं. ढाईतीन दशकों पहले हर फिल्म में इस तरह की घटनाएं जरूर दिखाई जाती थीं और उस समय सिनेमाघर में सिसकने की आवाजें निश्चित सुनाई देती थीं और सिसकने की वे आवाजें महिलाओं की होती थीं.

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इस का मतलब यह हुआ कि संवेदनशील महिलाएं दूसरे की भावना को बहुत गहराई से अनुभव करती हैं. जो दूसरे की भावना को गहराई से अनुभव करती होवह अपने प्रति कितना संवेदनशील होगीऐसी महिला को अगर कोई मजाक में भी कोई बुरी बात कह देता है तो कई दिनों तक उस की नींद हराम रहती है. उसे खाना भी नहीं अच्छा लगता. उस की भावनाओं पर हुए इस आघात का सीधा असर पहले मैंटल हैल्थ पर और फिर उस के बाद फिजिकल हैल्थ पर पड़ता है.

बहुत जल्दी विश्वास करना

महिलाएं बहुत जल्दी विश्वास कर लेती हैं. इसीलिए वे तेजी से हर्ट भी होती हैं. वे कुछ भी गलत नहीं सहन कर सकतीं. वे अपने खतरे पर दूसरे की हैल्प करने को तत्पर रहती हैं. अगर उन्हें हर्ट करने वाला माफी मांग लेता है तो वे सरलता से दूसरे की गलती को माफ कर देती हैं. यह गुण बेशक अच्छा हैपरंतु महिलाओं के इस अच्छे गुण का पौजिटिव परिणाम क्या सचमुच उन के घरपरिवारऔफिस और समाज पर पड़ता हैयह जानने के लिए कुछ उदाहरण देखते हैं-

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12-13 साल की संवेदनशील बेटी जब देखती है कि उस के पैरेंट्स उस के भाई को ओवर पैंपरिंग कर रहे हैं और उस के प्रति अन्याय कर रहे हैं तो उस की संवेदनशीलता पर नकारात्मक असर पड़ता है. युवा होने पर जब दर्जनों लड़के शादी के लिए रिजैक्ट कर देते हैं तो उन की संवेदनशीलता घायल होती हैक्योंकि उन के सपने जो धराशायी होते हैं. यह बात सच है कि महिलाएं अधिक संवेदनशील होती हैं. परंतु सभी महिलाओं में यह बात एकसमान नहीं होती. कालेज में भेदभाव सहना पड़ता है तो अधिक संवेदनशील लड़कियां मन से घायल होती हैं. कम संवेदना रखने वाली महिलाएं यह सब तो जिंदगी में चलता रहता है’ मन को यह आश्वासन दे कर शांत हो जाती हैं. हमारे समाज में सभी व्यक्ति सभी कामों में आसपास के सभी लोगों की संवेदना का खयाल नहीं रख सकते. परिणामस्वरूप हर मौके और हर स्थान पर अधिक संवेनशील महिलाओं का हृदय घायल होता रहता है. सोवे बातबात में हताशानिराशा और आघात से पीडि़त होती रहती हैं. आसपास के लोग उन की इस अधिक संवेदनशीलता के बारे में व्यंग्य भी मारते रहते हैं. परंतु वे अपनी संवेदना की धार गोठिल नहीं होने देतीं.

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प्रैक्टिकल महिला

संवेदना तर्क के म्यान में रहती होऐसी महिलाएं नहीं अच्छी लगतीं. पीड़ा देने वाली बातों की वास्तविकता को ध्यान में रख कर वे आगे बढ़ती हैं. अन्याय की सोच को खंगाल कर खुद को स्वस्थ करती हैं. ऐसी महिला को समाज में प्रैक्टिकल महिला कहा जाता है. अगर इसे तर्क के रूप में सोचें तो महिलाओं को प्रैक्टिकल होना ही चाहिए. पर प्रकृति ने सभी का भावनात्मक तंत्र पहले ही बना दिया हैइसलिए संवेदनशील महिलाएं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकतीं.

उदाहरण के लिएएक संवेदनशील महिला का पति सब के सामने कहता है, ‘तुम्हारे पास अक्ल नाम की कोई चीज नहीं है.’ यह कहने वाले पति को पता नहीं कि उस की इस बात से पत्नी का दिल टूट जाएगा और वह कमरे में जा कर अकेले में रोएगी और कई दिनों तक इसी बात को बिसूरती रहेगी. इस से उस के चेहरे की हंसी और आंखों की नींद गायब हो जाएगी. इस बीच वह अपने काम भूल जाएगी और छोटीछोटी बातों पर दूसरे पर गुस्सा करेगी. इस का असर उस के अपने मन के साथ तन पर भी पड़ेगा. जबकि उस की जगह कोई प्रैक्टिकल महिला होगी तो वह पति को तार्किक जवाब दे कर खुश होगी अथवा पति का स्वभाव ही ऐसा हैयह सोच कर इस बात पर वहीं पूर्णविराम लगा देगी.

संवेदनाओं को घायल करना

हमारे परिवारों में महिलाओं की संवेदनाओं को अनेक तरह से घायल किया जाता है. उस के मायके वालों को ताना मार कर उसे चोट पहुंचाई जाती है. घर के महत्त्वपूर्ण निर्णय से उसे बाहर रखा जाता है. उस की स्वतंत्रता और इच्छाओं का गला घोंटा जाता है. मैरिटल रेप होता है. बच्चों से ले कर परिवार के किसी भी सदस्य की जिंदगी में कुछ गलत होता हैतो उस का दोष महिलाओं के सिर मढ़ दिया जाता है.

अगर वह कुछ कहना चाहती है तो तुम्हें इस बारे में क्या पता’ यह कह कर उस का अपमान किया जाता है. तर्क की लगाम से संवेदना को लगाम में रखने वाली महिलाओं पर इस सब का कोई असर नहीं होता. कुछ जो लड़ाकू स्वभाव की महिलाएं होती हैंवे लड़ झगड़ कर अपना अधिकार पाने की कोशिश करती हैं. जबकिसंवेदनशील महिलाएं अगर इस तरह का कोई अन्याय होता है तो सिर्फ रोती हैंदुखी होती हैंखुद को सब से अलग कर लेती हैं. अपने ऊपर हुए अन्याय के लिए खुद को जिम्मेदार मानती हैं. हमेशा गिल्टी फील करती हैं.

इस सब का क्या परिणाम होता हैउन की तबीयत खराब होती है. शरीर में तरहतरह की गड़बडि़यां होती हैं. बीमारियां लगती हैं. खुद को व्यर्थ और असहाय सम झती हैं. अतिशय विचारअतिशय गिल्टी और अतिशय भावनात्मकता मन पर हमेशा नकारात्मक असर करती है.

ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति ही मानसिक रोग का शिकार बनते हैं. उदासीडरआत्मविश्वास का अभावहमेशा तनावसैल्फ रिस्पैक्ट की कमीअपराधबोधचिड़चिड़ापनहमेशा रोना आना और जीवन से रुचि का खत्म हो जाना जैसे कई मानसिक सवाल पैदा होते हैं. ये उसे तनमन से असमय बूढ़ा बना देते हैं.

तरह-तरह के लांछन

जो महिला अधिक संवेदनशील और रो कर संतोष कर लेने वाले स्वभाव की होती हैउसे लोग और दुखी करते हैं. परंतु दुख की बात यह है कि हमारे यहां महिला की संवेदनशीलता को और न तो उस के मानसिक सवालों को गंभीरता से महत्त्व नहीं दिया जाता जितना दिया जाना चाहिए. महिला बारबार रोती है तो उसे नाटक मान लिया जाता है. उदास रहती है तो कहा जाता है कि यह है ही ऐसीजब देखो तब मुंह लटकाए रहती है. तनाव का अनुभव करती है तो आरोप लगता है कि यह काम बिगाड़ने वाली है. महिलाओं के इन मानसिक सवालों के लिए खुद महिलाएं ही नहींअगलबगल के लोग या वातावरण भी जिम्मेदार हो सकता हैइस बात पर भी सोचना चाहिए.

यहां बात संवेदनहीन बनने की नहीं है. सही बात तो यह है कि संवेदनशील होना गर्व की बात है. संवेदना जीवंतता की निशानी है और अपने आसपास जड़ लोगों का साम्राज्य हो तो हमें जीवतंता पर मोटी चमड़ी का थोड़ा आवरण चढ़ाना पड़ता है. जिन लोगों को हमारे आंसुओं की कद्र न होउन के लिए क्यों रोनाअपना लगावभावनाअनुकंपासहानुभूति या संवेदना एकदम कुपात्र को दान नहीं की जा सकती.

हमारी संवेदनशीलता हमारे ही सुख में रुकावट पैदा करने लगे तो वह हमारे लिए खराब बन जाती है. मानसिक समस्याएं बुरे या निर्लज्ज लोगों को सम झ में नहीं आतीं क्योंकि वे तनाव लेने में नहींतनाव देने में विश्वास करते हैंजो सरासर गलत है. उन के सामने अधिक संवेदनशील बनना खुद पर अत्याचार करना है. इतना भी संवेदनशील नहीं होना चाहिए कि जिस से जीवन में बहुत ज्यादा ऊबड़खाबड़ दिखाई देहमेशा पीड़ा ही होती रहे.

हर दुखी या गलत व्यक्ति अपने कर्म के हिसाब से भोगता है. अपवादस्वरूप मामलों के सिवा अब खुद के जलने का समय नहीं रहा. संवेदना की इस भावना को इस तरह व्यक्त करो कि मानसिक समस्याओं का तूफान आप की खुशियों और जीवन के उत्साह को तबाह न कर सके. बी सैंसिटिव बट बी केयरफुल.

बिग बॉस 14: बिग बॉस 14: राहुल वैद्या के इमोशनल गाने को सुनकर काम्या पंजाबी को आई प्रत्युषा बनर्जी की याद

बिग बॉस 14 में एक बार फिर राहुल वैद्या ने अपनी आवाज का जादू दिखा दिया है. राहुल वैद्या ने घर के अंदर अपनी सुरीली आवाज में पल दो पल गाना गाया है. जिससे सभी घर वाले उनकी तारीफ करते नहीं थक रहे हैं.

राहुल वैद्या के इस गाने को सुनने के बाद काम्या पंजाबी खुद को रोक नहीं पाई उन्होंने राहुल के गाने का वीडियो बनाकर अपने ट्विटर अकाउंट से ट्विट करते हुए कहा कि तुम्हारे इस गाने ने मुझे मेरी दोस्त प्रत्युषा बेनर्जी की याद दिला दी है. काम्या ने राहुल की आवाज कि तारीफ भी कि है.

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वही घर वाले भी राहुल के आवाज को ,सुनकर इमोशनल हो गए उन्होंने ने भी राहुल की खूब तारीफ की है. टीवी सीरियल अदाकारा काम्या पंजाबी बिग बॉस 7 की कंटेस्टेंट रह चुकी हैं. वह हर बिग बॉस के सीजन को बेहद दिलचस्पी के साथ देखती हैं.

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हालांकि काम्या पंजाबी राहुल वैद्या कि कट्टर दुश्मन और रुबीना दिलाइक की सपोर्टर रही हैं. लेकिन राहुल के इस गाने ने काम्या का दिल पिघला दिया. जिससे काम्या पंजाबी और भी ज्यादा इमोशनल हो गई हैं.

वहीं काम्या पंजाबी रुबीना दिलाइक के जीतने की उम्मीद कर रही हैं. उन्हें रुबीना का हर रोल बिग बॉस के घर में पसंद आ रहा है.

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बता दें कि साल 2016 में प्रत्युषा बेनर्जी ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. जिसकी जिम्मेदार उनके बॉयफ्रेंड को बताया गया था. आए दिन काम्या पंजाबी प्रत्युषा बेनर्जी को याद करती रहती हैं. देखना यह है कि आखिर कौन जीतेगा बिग बॉस इस सीजन का खिताब.

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टीवी की जानी मानी अदाकारा नेहा पेंड़से ने हाल ही में भाभी जी सीरियल में सौभ्या टंड़न को रिप्लेस किया है. इस सीरियल में नेहा अनीता भाभी का किरदार अदा कर रही हैं. अपने स्टाइलिश लुक और अपनी शानदार एक्टिंग से फैंस का दिल जीत रही हैं.

वहीं एक्ट्रेस को कई चीजों के लिए ट्रोल किया जा रहा है. जिसके बारे में एक इंटरव्यू में बात करते हुए नेहा पेंड़से ने ट्रोलर्स को जवाब दिया है. उन्होंने कहा कि मैं जानती हूं लोग मुझे इससे पहले कभी अनीता भाभी के रूप में नहीं देखे हैं तो बेशक थोड़ा समय लगेगा . अनीता के साथ लोगों का इमोशनल जुड़ाव था, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि आप किसी का मजाक बनाएंगे.

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आगे नेहा ने कहा कि उन्हें पूरा विश्वास है कि जल्द ही फैंस उन्हें पसंद करना शुरू कर देंगे. जब उनसे सौम्या टंडन के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मुझे कभी सौम्या के साथ चैट करने का मौका नहीं मिला.

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वहीं कॉमेडि टाइमिंग की बात को लेकर नेहा ने कहा कि मुझे पता है कि हर कैरेक्टर की अलग मेहनत होती है कॉमेडि का अपना अलग काम है. हालांकि यह एक सिटकॉम है जहां हर चीज को मजाकिया अंदाज में लिया जाता है.

 

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नेहा ने कहा कि मुझे कॉमेडि करने की जरूरत नहीं है मैं कोई भारती सिंह और कपिल शर्मा थोड़ी हूं जो मुझे इसकी जरूरत है. जिसके बाद नेहा पेंडसे ट्रोलर्स के निशाने पर आ गई हैं. और इनके इंटरव्यू को लगातार वायरल किया जा रहा है.

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हालांकि ये पहली बार नहीं है जब नेहा पेंडसे ट्रोलर्स का शिकार हुई हैं. इससे पहले नेहा अपनी शादी को लेकर ट्रोल हो चुकी हैं. जिसके बाद भी नेहा ने ट्रोलर्स को करारा जवाब दिया था.

सच्चाई की जीत: मनोज कागजात देखकर घबरा क्यों गया

अपने हिस्से से ज्यादा लेने और ज्यादा से ज्यादा पैसे बनाने के अशोक के स्वभाव ने अपने ही भाई मनोज के लिए अचानक एक मुसीबत खड़ी कर दी. ऐसे में मनोज ने क्या तरकीब अपनाई जिस से न केवल सचाई की जीत हुई बल्कि अशोक को शर्मिंदा भी होना पड़ा?

दरवाजे की घंटी बजी. मीना ने दरवाजे पर जा कर मैजिक आई से बाहर झांका. जमाने का माहौल अच्छा नहीं था, इसलिए सावधानी से काम लेना पड़ता था. बाहर खड़ा उस इलाके का डाकिया शिवलाल था. मीना ने दरवाजा खोला.

‘‘साहब के लिए रजिस्ट्री है, मैडम,’’ शिवलाल ने कहा और मीना को सरकारी किस्म का 1 लिफाफा पकड़ा दिया.

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मीना ने रसीद पर हस्ताक्षर किए, उस के नीचे अपना टैलीफोन नंबर लिखा और शिवलाल को रसीद वापस दे दी. अंदर आ कर मीना ने लिफाफा टेबल पर रख दिया ताकि उस का पति मनोज जब शाम को दफ्तर से आएगा तब देख लेगा.

शाम को मनोज आया और उस ने लिफाफा खोला. अंदर जो कागजात थे, उन को पढ़ा. उस के माथे पर शिकन पड़ गई. उस ने कागजात दोबारा पढ़े.

‘‘मूर्ख कहीं का, गधा, बिलकुल पागल हो गया है,’’ मनोज ने नाराजगी भरे स्वर में जोर से कहा.

मीना चौंक उठी, ‘‘तुम किस के बारे में बोल रहे हो? मामला क्या है?’’

‘‘वह उल्लू, अशोक,’’ मनोज ने अपने छोटे भाई का नाम लेते हुए कहा, ‘‘उस ने मेरे खिलाफ अदालत में केस दर्ज किया है.’’

‘‘अदालत में केस?’’ मीना ने आश्चर्यजनक आवाज में पूछा, ‘‘कैसा केस? तुम ने क्या जुर्म किया है?’’

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‘‘अशोक ने शिकायत में लिखा है कि हमारे पिता ने, उसे और मुझे, वसीयत में यह दोमंजिला मकान सौंपा था. दोनों को आधाआधा मकान. उस ने लिखा है कि दोनों हिस्सों का एरिया बराबर है, पर निचले हिस्से में जहां हम रह रहे हैं, उस का मूल्य अधिक है, क्योंकि ग्राउंड फ्लोर का मूल्य हमेशा अधिक होता है. वह यह भी मानता है कि हम, पिताजी की मौत के पहले से उन के साथ ग्राउंड फ्लोर में रह रहे थे, पर उन के मरने के बाद भी ग्राउंड पर रह कर मैं ने अपने घर के 50 प्रतिशत से ज्यादा एरिया पर हक जमाया है. इसलिए मुझे उस की पूर्ति उसे देनी पड़ेगी. यह रकम, जिस का हिसाब उस ने 2 लाख रुपए सालाना बताया है, मुझे उसे पिछले 3 साल, यानी पिताजी की मौत के दिन से देनी होगी, ब्याज के साथ. और भविष्य में हर साल इसी हिसाब से 2 लाख रुपए देने होंगे.’’

‘‘पर वह ऐसा कैसे कर सकता है?’’ मीना ने पूछा, ‘‘आप के पिताजी की मौत के बाद से ऊपरी मंजिल का किराया अशोक लेता रहा है, तो उस को तो काफी पैसे मिले हैं. हम ने अपना हिस्सा तो किराए पर कभी नहीं दिया, हमें तो किसी तरह का फायदा मिला नहीं. ऊपर से अशोक ने तो कभी नहीं कहा कि वह नीचे रहना चाहता है. वह आप पर अचानक केस कैसे कर सकता है? अदालत को यह केस मंजूर ही नहीं होना चाहिए.’’

‘‘अफसोस तो इसी बात का है,’’ मनोज ने ठंडी सांस भरते हुए कहा, ‘‘अदालत ने उस का केस स्वीकार कर लिया है और मुझे कोर्ट में 3 हफ्ते बाद हाजिर होने का आदेश भेजा है.’’

‘‘पर मुझे एक बात समझ में नहीं आई,’’ मीना ने कहा, ‘‘मैं मानती हूं कि आप में और अशोक में कभी कोई खास बनती नहीं थी, पर वह आप से पैसे ऐंठने की कोशिश क्यों कर रहा है?’’

‘‘मैं जानता हूं कि वह यह क्यों कर रहा है,’’ मनोज ने जवाब दिया, ‘‘अशोक बचपन से लालची और स्वार्थी किस्म का इंसान है. जब भी हम दोनों को खिलौने या चौकलेट मिलते थे तो वह अपने हिस्से से ज्यादा लेने की कोशिश करता था. वह बड़ा हुआ, तो उस के जीवन का एक ही मकसद था कि वह ज्यादा से ज्यादा पैसे बनाए, चाहे किसी भी तरीके से. इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार है, चाहे झूठ बोलना हो या धोखाधड़ी का सहारा लेना पड़े. पर इस केस के बारे में मैं चिंतित हूं. मैं एक अच्छा वकील ढूंढ़ता हूं जो मेरी तरफ से केस लड़ेगा. मुझे पक्का यकीन है कि हम केस जीत जाएंगे. क्योंकि इस केस में खास दम नहीं है.

‘‘पर, मैं सोच रहा हूं कि हमारे परिवार की काफी बदनामी होगी जब हमारे रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों को

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पता चलेगा कि हम 2 भाई एकदूसरे के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे हैं. पिताजी कितने बड़ेबड़े लोगों से मेलजोल रखते थे, और उन को लोग खूब सम्मान देते थे. अब उन का नाम मिट्टी में मिल जाएगा.’’

‘‘पर अशोक ने आप पर इस समय क्यों मुकदमा चलाया है?’’ मीना ने पूछा.

‘‘इसलिए, क्योंकि उस ने शायद सुन लिया होगा कि तुम्हें हाल ही में, तुम्हारी मां के देहांत के बाद, उन की वसीयत के मुताबिक, 5 लाख रुपए मिले हैं,’’ मनोज ने जवाब दिया, ‘‘अशोक हमेशा मुझ से जलता था क्योंकि मेरी आमदनी उस की आमदनी से हमेशा दोगुनी रही है, जिस की वजह से हम कई चीजें कर सके, जो वह नहीं कर सकता था, जैसे हमारी हाल ही में की गई सिंगापुर की सैर. मुझे तो लगता है कि तुम्हारी मां की तरफ से तुम्हें पैसे मिलने की बात सुन कर उस ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है. अब उस का लक्ष्य हम से पैसा ऐंठना हो गया है.’’

‘‘उस ने कितनी नीच किस्म की हरकत की है,’’ मीना बोली, ‘‘उसे शर्म भी नहीं आती है, अपने ही बड़े भाई पर मुकदमा कर डाला, वह भी बेवजह.’’

‘‘एक बात का खयाल रखना,’’ मनोज ने मीना को सावधान किया, ‘‘सुनील को इस मामले के बारे में कुछ नहीं बताना. वह मुकदमे का नाम सुन कर कहीं घबरा न जाए, और इस वजह से उस के बोर्ड के इम्तिहान की तैयारी में कुछ विघ्न न पड़ जाए.’’

सुनील उन का 17 साल का बेटा था.

अशोक के मनोज के खिलाफ मुकदमे का हाल वही हुआ जो हमारे देश के ज्यादातर संपत्ति से जुड़े मुकदमों का होता है. दोनों तरफ के वकील उसे खींचते रहे, कभी स्थगन ले लेते, कभी बेमतलबी बहस में लगे रहते. कोर्ट में इसी तरह के सैकड़ों मुकदमे साथसाथ चल रहे थे. 3-4 महीने के बाद सुनवाई की बारी आती थी, पर नतीजा कुछ नहीं निकलता था. इसी तरह 7 साल बीत गए, पर मुकदमे का अंत नजर नहीं आ रहा था.

सुनील ने इस दौरान आईआईटी से डिगरी हासिल की, जिस के बाद उसे उसी शहर में एक अच्छी नौकरी मिल गई. मनोज और मीना उस की शादी के बारे में सोचने लगे.

समय के साथसाथ अशोक और भी उत्तेजित होता गया. उस की विफलता उसे अंदर ही अंदर खाने लगी. उस की अपने बडे़ भाई से लाखों रुपए ऐंठने की योजना पूरी तरह नाकाम हुई जा रही थी. एक तरफ वकील का खर्चा, दूसरी तरफ बढ़ती हुई महंगाई. उस की हालत काफी नाजुक हो गई थी. दिनरात एक ही बात सोचता कि वह मुकदमा कैसे जीते.

तकदीर ने उसे एक मौका दिया पर कुछ अजीब ही तरह का.

अशोक की एक लड़की थी, जिस का नाम सुमन था. सुमन मौडर्न किस्म की लड़की थी. कालेज में पढ़ती थी. उसे देर रात तक पार्टी में जाने, शराब पीने और लड़कों के साथ घूमने की आदत थी. मांबाप का उस पर कोई कंट्रोल नहीं था. एक शाम, जब वह एक कौकटेल पार्टी में नाच रही थी, कुछ लड़कों ने उस के साथ छेड़खानी करने की कोशिश की. सुमन के साथ उस के कालेज के जो लड़के थे, उन लड़कों से भिड़ गए. काफी हाथापाई हुई. सुमन को भी चोट लगी और उस की नाक व माथे से खून निकला. माथे का घाव काफी गहरा था. लड़ाई तब बंद हुई जब किसी ने पुलिस को बुलाने की धमकी दी.

सुमन जब घर पहुंची तो उस की हालत देख कर अशोक और उस की पत्नी  काफी घबरा गए. अशोक ने उसी समय उस को अस्पताल ले जाने के लिए कार निकाली. पर फिर वह सोच में पड़ गया. वह जानता था कि अस्पताल का डाक्टर जरूर पूछेगा कि चोट कैसे लगी? अगर सुमन ने सच बता दिया कि मारपीट की वजह से चोट लगी, तो शायद डाक्टर उसे पुलिस केस बना दे.

फिर अचानक अशोक को एक तरकीब सूझी. एक ऐसी तरकीब जिस से वह मनोज से कई लाख रुपए उगलवा सकता था. उस ने सुमन से कहा, ‘‘बेटा, जब डाक्टर साहब तुम्हें पूछेंगे कि तुम्हें चोट कैसे लगी, तुम बता देना कि हमारे घर के सामने तुम सड़क पार कर रही थी कि एक तेज रफ्तार वाली मोटरसाइकिल ने तुम्हें टक्कर मारी. मोटरसाइकिल चालक रुका नहीं, वहां से भाग गया. डाक्टर जरूर पुलिस को बुलाएगा, एफआईआर लिखवाने. जब पुलिस आएगी, तुम उन को बताना कि तुम ने मोटरसाइकिल का नंबर देखा था, पर क्योंकि हादसे के कारण तुम्हें काफी झटका लगा है, इस कारण तुम उसे भूल गई हो. याद आते ही तुम पुलिस को सूचित कर दोगी. यह बयान देते समय तुम बिलकुल झिझकना मत. वैसे, मैं तो तुम्हारे साथ ही रहूंगा, तो तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं.’’

सुमन ने पुलिस को वैसा ही बयान दिया जैसा उस के पिता अशोक ने बताया था. ‘हिट ऐंड रन’ केस का मामला दर्ज हुआ और एफआईआर की एक कौपी अशोक को भी दी गई. उस में साफ लिखा था कि सुमन ने उस टक्कर मारने वाली मोटरसाइकिल का नंबर देख तो लिया था, पर सदमे की वजह से वह उसे याद नहीं.

अगले दिन सुबह, एफआईआर की कौपी ले कर अशोक, मनोज के घर गया. उस ने मनोज को एफआईआर दिखाई और धमकी दी कि अगर 7 दिन के अंदर मनोज ने उसे 5 लाख रुपए नहीं दिए तो सुमन पुलिस को बता देगी कि दोषी मोटरसाइकिल का नंबर उसे याद आ गया. और वह पुलिस को सुनील की मोटरसाइकिल का नंबर दे देगी. यह कह कर, मनोज को दुविधा में डाल कर, अशोक वहां से मन ही मन मुसकराता हुआ चला गया. मनोज जानता था कि अगर सुनील पर मुकदमा चला तो शायद उसे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़े. और अगर वह अपनी बेकसूरी साबित न कर सके तो उस के जेल जाने की नौबत भी आ सकती है.

मनोज ने सुनील को बुला कर उस से पूछा कि पिछली रात तकरीबन 10 बजे, जोकि एफआईआर के मुताबिक हादसे का समय था, वह कहां था? सुनील ने बताया कि पिछली रात वह कुछ दोस्तों के साथ एक मौल में रात का शो देखने गया था. यानी रात के साढ़े 8 से ले कर पौने 12 बजे तक वह मौल में ही था.

मनोज जानता था कि सुनील सच बोल रहा है, और अगर उस पर मुकदमा चला तो उस के दोस्त उस की तरफदारी में गवाही जरूर देंगे. पर फिर भी बदनामी तो होगी. मनोज मुकदमा दर्ज होने से पहले ही मामले को समाप्त करवाना चाहता था, पर अशोक को पैसे दे कर नहीं.

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जब मनोज के दिमाग में कुछ सूझ नहीं आई तो वह अपनी समस्या ले कर अपने वकील के पास गया. उस के वकील ने मामले पर थोड़ी देर विचार किया और फिर हल सोच लिया. वह कोर्ट गया और वहां से एक आदेशपत्र हासिल किया. आदेशपत्र ले कर वह पुलिस अफसर, सुनील और मनोज के साथ उस मौल में गया जहां सुनील ने हादसे की रात को फिल्म देखी थी. उन्होंने आदेशपत्र दिखा कर, मौल के सारे सीसीटीवी कैमरों की उस रात की रिकौर्डिंग की छानबीन की. रिकौर्डिंग से साफ पता चलता है कि सुनील, रात के 8 बज कर 22 मिनट पर मौल की पार्किंग में घुसा था अपनी मोटरसाइकिल के साथ. 5 मिनट बाद उस ने मौल में प्रवेश किया. फिर पौने 12 बजे तक न सुनील, न उस की मोटरसाइकिल मौल से निकले. सुनील

12 बज कर 10 मिनट पर मौल से निकला और 4 मिनट के बाद मोटरसाइकिल पर मौल की पार्किंग से बाहर गया. इस से साफ जाहिर होता था कि सुमन के साथ हादसे के कथित समय पर सुनील मौल के अंदर था. मनोज के वकील ने इस बात की एफिडेविट अगले दिन कोर्ट में दर्ज करा दी.

2 दिन बाद मनोज, एफिडेविट की कौपी ले कर अशोक के घर गया. वहां उस ने अशोक और उस की पत्नी व उन की बेटी के सामने एफिडेविट की कौपी दिखाई और चेतावनी दी कि अगर सुमन ने पुलिस को झूठी गवाही दी, तो वह जेल जा सकती है. सुमन और उस की मां हक्कीबक्की रह गईं. उन को अशोक की इस घटिया योजना के बारे में बिलकुल खबर नहीं थी.

10 दिन बाद अशोक के मुकदमे की अगली सुनवाई हुई. जज ने दोनों भाइयों को अपने चैंबर में बुलाया. वहां उन्होंने दोनों को सलाह दी कि वे अपना समय व पैसा और कोर्ट का समय बरबाद करना छोड़ दें, आपस में समझौता कर लें. जज ने यह भी कहा कि झगडे़ को सुलझाने का सब से आसान तरीका था घर को बेच देना और मिली हुई कीमत को आधाआधा बांट लेना. अशोक, जिसे अपनी बीवी और बेटी के सामने काफी शर्मिंदा होना पड़ा था, जिस के अपने भाई से पैसे ऐंठने के सपने चूरचूर हो चुके थे, ने सचाई के आगे घुटने टेक दिए.

करनी का फल-भाग 3: मीता तनु को हमेशा दलीलें क्यों देती रहती थी

तनु यह सब चुपचाप सुनती रही. उस से कोई जवाब देते ही नहीं बन रहा था. मीता आगे बोली, “तनु, याद है एक बार तुम उन को अपने मेयर साहब से  सिफारिश कर के नगर निगम का कोई सम्मान दिलवा लाई थीं, जबकि पुष्पजी तो चाहते ही नहीं थे कि उन को कोई मानपत्र दिया जाए. पर तुम ने कितना भौंडा प्रदर्शन किया. मुझे तो पुष्पजी का  चेहरा याद आता है कि वे तुम्हारे इस दिखावे के  शोरशराबे और आत्मप्रदर्शन से कितने आहत हो गए थे.

“वे यही सोचते कि एक सरल जीवन जिया जा सकता है. पर तुम तो न जाने किस लत में पड़ गई थीं कि यहां की  गोटी वहां फिट कर दो, इस को आगे करो, उस को पीछे करो, इस से इतना रुपया ऐंठ लो और भी न जाने क्या सनक थी तुम को.  तुम ऐसा क्यों करती थीं. तनु, कितनी ही बार पुष्पजी कोशिश करतेकरते हार गए  कि तुम्हारा यह दंभ और अहंकार  और झूठे पाखंड किसी तरह कम हो जाएं, पर एक बूंद के  बरसने  से ज्वालामुखी कहां शांत होता है.

“तुम तो पूरी महफिल में सरेआम  न जाने क्या से क्या बोल जातीं. तुम हमेशा पुष्पजी के  ड्रैसिंग सैंस का  मजाक उड़ाया करतीं और उन के पहने हुए लिबास को बदलवा  कर दोबारा तैयार होने को कहतीं थीं. वे कितना दुखी हो जाते पर तुम को तो, बस, दिखावा ही चाहिए था. तुम उन के अच्छे कपड़ों पर कैसे टिप्पणी कर देती थीं कि यह देखो, मैं खरीद कर लाई हूं, यह मेरी पसंद की  जींस है. इस पर वे बेचारे कितना झेंप जाते थे. पर तुम को कुछ समझ नहीं आता था.

“पुष्पजी तुम्हारे साथ बहुत असहज होने लगे थे. वे कई बार ऐसे लगते जैसे किसी कैदखाने में  घुट रहे हैं. बस, एक दिन उन्होंने फैसला कर लिया होगा कि चाहे किसी जंगल में खुशीखुशी  रह लेंगे, पर तुम्हारी इस झूठ से भरी हुई  नौटंकीशाला  में कतई नहीं.

“और तनु, तुम्हारी आंखों में तो कितने परदे पड़े थे. सावन के  अंधे को सब हरा ही हरा दिखता है. तुम को अपनी जोड़जुगाड़ वाली कूटनीति के  चश्मे से यही दिखता था कि पुष्पजी से ले कर सब परिचित, बस, इक तुम्हारी ही छत्रछाया में सुकून से हैं.”

तनु यह सब ऐसे सुन रही थी मानो उस के खिलाफ कोई झूठा मुकदमा चलाया जा रहा हो.

मीता धाराप्रवाह बोलती गई, “तनु,  पता है, तुम जब तक उन के सामने नहीं होती थीं वे जिंदगी का  आनंद लेते पर तुम दफ्तर से आतीं तो वे सकपका से जाते. तुम जैसे कोई तबाही बन गई थीं उन के लिए. हम लोग कितना संकेत करते, पर तुम इतनी जोरदार व भारी आवाज में हमारी हर बात काट दिया करती थीं.”

यह सब कहतेकहते जब मीता जरा देर के लिए चुप हो गई तो तनु बोल पड़ी, “हुंह,  मीता, तुम तो आज मुझे दोस्त लग ही नहीं रही हो. हद करती हो तुम, पुष्प के  परिवार को गोवा तक घुमाने ले गई वह भी सरकारी खर्च पर. ऐसा शाहीभ्रमण उन के वश की  बात ही नहीं है, मीता.”

“नहीं तनु, तुम फिर एकतरफा सोच रही हो. वह परिवार बहुत सादगीपसंद है. तुम्हारी चालें, तुम्हारे दांवपेंच  वे नहीं जान सका कभी. तुम अपनी ननद और ननदोई को जिद कर के उन की मरजी के  विरूद्ध गोवा ले गईं और उस से पहले ही तुम ने इस बात का  हर जगह भोंपू बजा कर इतना प्रचार कर दिया था कि सुनसुन कर  पुष्पजी शर्मिंदा हो जाते थे मानो वे कोई नितांत फकीर हैं और तुम ने उन को व उन के गरीब परिवार को शाहीजीवन उपहार में दिया है. पर तुम को यह सब कभी समझ नहीं आया.

“तुम को याद भी नहीं. पर तुम्हारे ननद और ननदोई गोवा जा कर बहुत परेशान हो गए थे. तुम से कहना चाहते थे पर तुम तो अपने प्रभाव व अपने रोब के खोल में बंद रहती थीं. तुम ने एक बार पलभर को भी उन दोनों का  मन नहीं जाना. पर यह बात तुम्हारी ननद ने अपने भाई यानी पुष्पजी से कही कि वहां इतने ओछे और छिछोरे लोगों के  साथ तुम ने उन को पलपल कितना विचलित किया. वे दूसरे दिन लौट जाना चाहते थे पर तुम ने उन को दबाव में ले कर पूरा सप्ताह जैसे उन का मानसिक शोषण किया था.

“तनु, वे बहुत ही सरल लोग हैं. इतना छलकपट, इतना दिखावा उन के वश की  बात नहीं है. पर तुम तो गोवा से लौट कर भी अपनी उदारता का  बखान करती रहीं कि ननदननदोई को घुमा लाईं वगैरहवगैरह.”

“पर आज देखो, तुम्हारे ननद और ननदोई सिर्फ अपने खूनपसीने की  मेहनत के  बल पर  कितने सफल उद्योग चला रहे हैं. कितनों  को रोटी दे रहे हैं. और तुम उन पर ऐसे अपना सिक्का जमाने की  कोशिश करती थीं. तनु, पुष्पजी हों या उन के बहनबहनोई, वे सब मुझ से बहुत प्रेम रखते हैं. मगर मैं आज भी, बस, तुम से ही लगाव रखती हूं, बस, तुम से स्नेह रखती हूं. क्योंकि, एक जमाने में तुम्हारे पापा ने मेरी एक साल की  स्कूल फीस जमा कराई थी. तनु, मेरे पास सब की खबर है, पर मेरा मन हमेशा तुम से ही जुडा रहेगा. मैं सदैव तुम्हारी ही भलाई चाहती हूं.” यह सब कह कर मीता चुप हो गई.

तनु यह सुन कर एकदम खामोश हो गई. थोड़ी देर बाद बोली, “मीता, एकएक बात  सच कह रही हो. मैं जल्दी मालदार बनना चाहती थी और अमीरों की  कमजोरी भांप कर उन का काम करवा कर रुपया मांग लेती थी. पर आज यह लगता है कि शायद मेरी यह फितरत सब भांप गए और मुझ से दूर होने लगे. सच मीता, अगर मैं यह प्रपंच वगैरह न करती तो कम पैसा होता पर कितनी खुशी होती और कितने अपने मेरे साथ होते. आज, बस, तुम ही हो जो मेरा साथ निभा रही हो. अब तुम देखना, मैं संकल्प करती हूं कि  अपनी सोच बदल दूंगी. मैं, बस, प्रकृति की  सेवा करूंगी और बेटी जल्द सही हो, इस की कोशिश. कोई मदद मांगने आए, तो गुप्तदान करूंगी,” कहते हुए तनु का  गला भर आया और वह किसी तरह अपने आंसू रोकने लगी.

“हां तनु, यह ही सही मार्ग है. आखिर तनु,  ऐसी समुचित मानसिक स्थिति होगी तो फिर किसी भी हाल  में तुम्हारा  बुरा  कैसे संभव है? अब तुम इसी पल से अपने को बदल कर रख दो. वह मन सुधार लो जो  अपना काम निकालने को परिचय की  जोड़तोड़ करता रहे. बोलो  तनु, कुदरत  का भी अपना एक अटल कानून है. वह अच्छे लोगों से मिलवाती  रहती है. मगर जब हम उन सहयोगी जनों को बारबार नजरअंदाज करते हैं तो  वे अंतिमरूप से चले जाते हैं और उस के बाद  तो फिर संसार की कोई भी ताकत उन को वापस नहीं बुला सकती है. इस के साथ ही किसी की भी सिफारिश काम नहीं आती है. इस में किसी भी रिश्वत का आदानप्रदान नहीं होता है. इस अच्छे संबंध को तो  आप बाजार से नहीं खरीद सकते हैं. और चाहकर भी इसे आप किसी को नहीं दे सकते हैं और किसी से छीनझपट कर भी  ले नहीं सकते हैं.

“अब  यह पूरी तरह से  हम सब के  ऊपर ही तो  निर्भर करता है कि हम जैसा चाहें, इस अच्छी संगति  को अंत दे सकते हैं.” “हां मीता, सच कहा, इस जीवन को खुशियों से  संपन्न करने के लिए मुझ को ही  यह जिदंगी सफल करनी पड़ेगी. इस जीवन के अंदर समझदारी की स्थापना करनी पड़ेगी.”

“हांहां तनु, हां,”  कहते हुए मीता की  आंखों में तनु की आंखों से टकराती  इंद्रधनुषी आभा प्रतिबिंबित होने लगी.

करनी का फल-भाग 1: मीता तनु को हमेशा दलीलें क्यों देती रहती थी

मीता अपने  घर से निकली. पूरे रास्ते वह बेचैन  ही रही. दरअसल, वह अपने बचपन की सखी तनु से हमेशा की तरह मिलने व उस का हालचाल पूछने जा रही थी.  हालांकि, मीता बखूबी जानती थी कि वह तनु से मिलने जा तो रही है पर बातें तो  वही होनी हैं जो पिछले हफ्ते हुई थीं  और उस से पहले भी हुई थीं. मीता का  चेहरा देखते ही तनु एक सैकंड भी बरबाद नहीं करेगी और पूरे समय, बस,  इसी बात का ही रोना रोती रहेगी कि, ‘हाय रे, यह कैसी जिंदगी? आग लगे इस जिंदगी को, मैं ने सब के लिए यह किया वह किया, मैं ने इस को आगे बढ़ने की  सीढ़ी दी, पर  आज कोई मदद करने वाला नहीं. गिनती रहेगी कि यह नहीं वह नहीं…’

मीता जानती थी कि जबरदस्ती की पीड़ा तनु ने पालपोस कर  अमरबेल जैसी बना ली है. काश, तनु अपनी आशा व उमंग को खादपानी देती, तो आज जीवन का  हर कष्ट, बस, कोई हलकी समस्या ही  रह जाता और एक प्रयोग की  तरह तनु उस के दर्द से भी  पार हो जाती. मगर, तनु ने तो अपनी सोच को इतना सडा़ दिया था कि  समय, शरीर और ताकत सब मंद पड़ रहे थे.

सहेली थी, इसलिए मीता की  मजबूरी हो जाती कि उस की इन बेसिरपैर की  बातों को चुपचाप सुनती रहे. आज भी वही सब दुखदर्द, उफ…

मीता ने यह सब सोच कर ठंडी आह भरी और उस को तुरंत  2 दशक पहले वाली तनु याद आ गई. तब तनु 30 बरस की  थी.  कैसा संयोग था कि तनु का  हर काम आसानी से हो जाता था. अगर  उस को लाख रुपए की  जरूरत भी होती तो परिचित व दोस्त तुरंत मदद कर देते थे. मीता को याद था कि कैसे तनु रोब से कहती फिरती कि, ‘मीता, सुन,  मैं समय की बलवान हूं, कुछ तो है मेरे व्यक्तित्व में कि हर काम बन जाता है और जिंदगी टनाटन  चल रही है.’ मगर  मीता सब जानती थी कि यह पूरा सच नहीं था.

असलियत यह थी कि तनु आला दर्जे की  चंट  और धूर्त हो गई थी. उस ने 5 सालों में ऐसे अमीर, बिगडै़ल व इकलौते वारिस संतानों को खूब दोस्त बना कर ऐसा लपेटा था कि वे लोग तनु के  घर को खुशी और सुकून का  अड्डा मान कर चलने लगे. मीता सब जानती थी कि  कैसे प्रपंच कर के  तनु ने लगभग ऐसे ही धनकुबेर दसबारह दोस्तों से बहुत रुपए उधार ले लिए थे और वह सीना ठोक कर कहती थी कि जिन से पैसा उधार लिया है वे सब अब देखना, कैसे जीवनभर मेरे इर्दगिर्द चक्कर काटते रहेंगे. मीता जब आश्चर्य  करती तो वह कहती कि मीता, तुम तो नादान हो, देखती नहीं कि यह सब किस तरह अकेलेपन के मारे हैं बेचारे. लेदे कर इन को मेरे ही घर पर आराम मिलता है.

मगर मीता तनु की ये सब दलीलें सुन कर बहुत टोकती  भी थी कि, बस, घूमनेफिरने और महंगे शौक पूरे करने का  दिखावा बंद करो, तनु. आखिर दोस्त भी कब तक मदद करते रहेंगे?

पर तनु जोरजोर से हंस देती थी और कंधे झटक  कर कहती कि मीता, मेरी दोस्ती तो ये लोग तोड़ ही नहीं सकते. देखो, मैं कौन हूं, मैं यहां नगरनिगम की  कर्मचारी हूं. मेयर तक पहुंच है मेरी. मैं सब के बहुत  काम की  हूं वगैरहवगैरह. यह सुन कर मीता खामोश हो जाती थी. पर वह कहावत है न कि, परिवर्तन समय का  एक नियम है. इसलिए  समय ने रंग दिखा ही दिया. तनु का अपने  पति  से अलगाव हो गया और उस की  इकलौती बेटी गहरे  अवसाद में आ कर बहुत बीमार रही. कहांकहां नहीं गई तनु, किसकिस अस्पताल के  चक्कर नहीं लगाए. पर कोई लाभ नहीं हुआ. एक दिन बेटी कोमा मे चली गई. मगर अभी और परीक्षा बाकी थी. एक दिन  तनु का  नगर निगम में ऐसा विवाद व कानूनी लफड़ा हुआ कि वह विवाद महीनों तक लंबा खिंच गया. और  उस महज पचास की  उम्र में नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा. यही उपाय था, वरना,  उस को सब के सामने धक्के मार मार कर कार्यस्थल से  निकाला जाता. आज वह बीमार बेटी को संभाल रही थी. पर कोई पुराना मित्र या परिचित ऐसा नहीं था जो, उस से मिलना तो बहुत दूर की  बात, उस को मोबाइल पर संदेश तक भी गलती से नहीं भेजता था.

यह सब सोचतीसोचती  मीता अब तनु के घर पर पहुंच चुकी थी और वह बाहर गमलों को पानी देती हुई मिल गई.  मीता के  मुंह से निकल पड़ा, “आहा,  खूबसूरत फूलों की  संगत में वाहवाह.”

यह सुना  तो तनु फट कर  बोल पड़ी, “हां, जानपहचान वालों ने तो  मुझ को, बस,  कैक्टस और कांटे ही दिए. फिर भी कुछ फूल कहीं मिल ही गए.”  और फिर  पाइप से बहते पानी से अधिक आंसू उस की आंख से बहने लगे  और वह  बेचारी व कमजोर इंसान बन कर  हर परिचित को धाराप्रवाह बुराभला कहने लगी.

करनी का फल-भाग 2: मीता तनु को हमेशा दलीलें क्यों देती रहती थी

तब मीता ने कोई पल गंवाए बगैर कहा, “तनु, सुनो, यह जो दुख है न, हमारी उस याददाश्त की देन है जो खराब बातें ही याद दिलाती है. तुम को यह वर्तमान नहीं, बल्कि अतीत है जो रुला कर समय से पहले इतना जर्जर किए दे रहा है. बारबार लोगों को याद कर के लानतें  मत दो.  अच्छे लोगों  की कीमत तब तक कोई नहीं जानता, जब तक वे हमारे व्यवहार से आहत हो कर दूर  जाने न लगें. हमारे जीवन में  कुछ सुकून की जो सांस चल रही होती  है, वह इन सदगुणी लोगों के  कारण ही होती है. तनु, गौर से सुनो और   तुम एक बार याद तो  करो कि तुम को कितने सहयोगी दोस्त एक के  बाद एक मिलते रहे.”

तनु कुछ बोली नहीं. बस, चुपचाप सुनती रही. मीता बोलती गई, “तनु, कई लोग तो दशकों बिता देते हैं और संयोग से मिल रहे हितैषियों से भरपूर लाभ भी लेते रहते हैं पर वे लोग लापरवाह हो जाते हैं.   वे अपनी उस ख़ुशी या उन मित्रों की  अहमियत पर कभी ध्यान नहीं देते हैं जिन की वजह से उन की खुशी और आनंद आज  अस्तित्व में हैं. और सच कहा जाए तो वह ही  उन का सबकुछ है. कैसी विडंबना है कि आदमी इतना संकीर्ण हो जाता है कि  वह सब से पहले उसी अनमोल खजाने को बिसरा देता है.”

“मैं ने सब के लिए कितना किया,” तनु गुस्से व नाराजगी से बोली, “रमा को हर हफ्ते मेयर की  पार्टी में ले जाती थी. सुधा को तो सरकारी ठेके दिलवाए.  उस उमा को तो नगर निगम  के विज्ञापन दिला कर उस की वह हलकीफुलकी पत्रिका निकलवा  दी. सब का काम किया था मैं ने. पर आज कोई यहां झांकता तक नहीं.”

“नहीं तनु, यह निहायत ही  एकतरफा सोच है तुम्हारी. यह संकुचित सोच भी किसी अपराध से कम नहीं है क्योंकि ऐसे नकारात्मक सोचने वाला अपने दिमाग को सचाई से बिलकुल अलग कर लेता है.”

तनु यह सुन कर तमतमाता हुआ चेहरा कर के मुंह बनाने  लगी पर मीता निडर हो कर आगे बोली, “तुम पूरी बात याद करो, तुम कह रही हो कि  रमा को तुम दावतों  में ले जाती थीं. पर उस के एवज में रमा की  एक कार हमेशा तुम्हारे पास ही रही. और तुम ने रमा की  नर्सरी से लाखों के  कीमती पौधे मुफ्त में लिए, याद करो.”

तनु को वह सब याद आ गया और वह अपने होंठ काटती हुई कुछकुछ विनम्र हो गई. अब मीता ने कहा, “सुधा को तुम ने जुगाड़ कर के ठेका दिलवाया. हां बिलकुल,  पर तुम्हारे घर पर कोई भी आयोजन होता था तो सुधा की  तरफ से मुफ्त कैटरिंग  होती थी. बोलो, सच है या नहीं?” “ओह, हां, हां,” कह कर तनु चुप हो गई.

मगर अब  मीता बिलकुल चुप नहीं रही, बोली, “उमा  की  पत्रिका में तुम्हारी बेटी की  कविता छपना  जरूरी था. इतना ही नहीं, तुम ने उमा की  पत्रिका को  अपने ही  एक प्रिय पार्षद का  प्रचार साधन भी बनाया. याद आया कि नहीं, जरा ठीक से  याद करो.”

“हां,”  कह कर तनु कुछ उदास हो गई थी.  मीता को लगा कि उसे कहीं पार्क या किसी खुली जगह में चलने को कहना चाहिए.

आखिर मीता भी इंसान थी और तनु को उदास देख कर उस का मन भी खुश नहीं रह सकता था. मीता ने उस के जीवन का  हर रंग देख लिया था. तनु और  उस ने कितना समय साथ गुजारा था. मीता ने उस से कहा कि तनु, सुनो, अभी तो सहायिका  काम कर रही हैं, वे बिटिया को भी देखती रहेंगी. चलो, हम पास वाले पार्क तक चहलकदमी  कर आते हैं. तनु के लिए मीता सबकुछ थी- बहन, दोस्त, हितैषी सबकुछ. वह चट मान गई और उस के साथ चल दी.

घर की  चारदीवारी से पार होते ही तनु को कुछ अच्छा सा लग रहा था. वह आसपास की  चीजों को गौर से देखती जा रही थी. पार्क पहुंच कर दोनों आराम से एक बैंच  पर बैठ गईं.

तनु वहां पर उड़ रही तितली को यहांवहां देखने लगी. मीता को अब लगा कि आज तनु को सब याद दिलाना ही चाहिए, ताकि यह अपनी सोच को सही व  संतुलित कर के सकारात्मक ढंग से विचार कर सके और खुद भी  किसी पागलपन जैसी बीमारी का  शिकार न हो जाए. तनु को उम्र के  इस मोड़ पर मानसिकरूप से सेहतमंद  होना बहुत अनिवार्य था. मीता यह सोच ही रही थी कि तनु  अचानक अपने पति पुष्प  का जिक्र करते हए पुष्प  को बुराभला कहने लगी. उन की पुरानी गलतियां बता कर शिकायतें करने लगी.

पर मीता ने उस को बीच में ही फिर टोक दिया और जरा जोर दे कर कहा, “तनु, अगर तुम्हारे पति प्राइवेट स्कूल में शिक्षक न हो कर कोई बढ़िया नौकरी कर रहे होते तो तुम इतना रोब दिखातीं उन को, जरा ईमानदारी से याद करो,  तनु. सुनो तनु, तुम उन की सारी तनख्वाह को जब्त कर लेती थीं और अपने ढंग से कहीं प्लौट खरीद लेतीं और लोन की  किस्तें पुष्पजी के वेतन से चुकाई  जातीं. वे कुछ कहते, तो तुम अपना रोबदाब दिखाने लगती थीं. तुम ने एक सरल व सच्चे इंसान को हौलेहौले मंदबुद्धि बना दिया, तनु. वे तुम्हारे चलते यह शहर ही छोड़ कर चले गए. पर आज वे आनंद से हैं, अकेले हैं, पर समाज की  सेवा में बहुत खुश हैं.”

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