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तनु यह सब चुपचाप सुनती रही. उस से कोई जवाब देते ही नहीं बन रहा था. मीता आगे बोली, “तनु, याद है एक बार तुम उन को अपने मेयर साहब से  सिफारिश कर के नगर निगम का कोई सम्मान दिलवा लाई थीं, जबकि पुष्पजी तो चाहते ही नहीं थे कि उन को कोई मानपत्र दिया जाए. पर तुम ने कितना भौंडा प्रदर्शन किया. मुझे तो पुष्पजी का  चेहरा याद आता है कि वे तुम्हारे इस दिखावे के  शोरशराबे और आत्मप्रदर्शन से कितने आहत हो गए थे.

“वे यही सोचते कि एक सरल जीवन जिया जा सकता है. पर तुम तो न जाने किस लत में पड़ गई थीं कि यहां की  गोटी वहां फिट कर दो, इस को आगे करो, उस को पीछे करो, इस से इतना रुपया ऐंठ लो और भी न जाने क्या सनक थी तुम को.  तुम ऐसा क्यों करती थीं. तनु, कितनी ही बार पुष्पजी कोशिश करतेकरते हार गए  कि तुम्हारा यह दंभ और अहंकार  और झूठे पाखंड किसी तरह कम हो जाएं, पर एक बूंद के  बरसने  से ज्वालामुखी कहां शांत होता है.

“तुम तो पूरी महफिल में सरेआम  न जाने क्या से क्या बोल जातीं. तुम हमेशा पुष्पजी के  ड्रैसिंग सैंस का  मजाक उड़ाया करतीं और उन के पहने हुए लिबास को बदलवा  कर दोबारा तैयार होने को कहतीं थीं. वे कितना दुखी हो जाते पर तुम को तो, बस, दिखावा ही चाहिए था. तुम उन के अच्छे कपड़ों पर कैसे टिप्पणी कर देती थीं कि यह देखो, मैं खरीद कर लाई हूं, यह मेरी पसंद की  जींस है. इस पर वे बेचारे कितना झेंप जाते थे. पर तुम को कुछ समझ नहीं आता था.

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