लेखक–मनोज शर्मा
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या ठीक है, क्या गलत. मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मैं झूठे आनंद की रौ में अपना जीवन दांव पर लगा रहा हूं. क्या ये सही था?
मुझे नहीं मालूम. शैलेश की आंखें नम थीं, जैसे वो कोई सजा काट रहा हो. ‘‘अब…?’’ मैं ने शैलेश के कंधे को ठेलते हुए पूछा. ‘‘अब क्या…?’’
‘‘बस जी रहा हूं. जैसेतैसे. आरंभ में सब ठीक लगता है, पर धीरेधीरे जैसे ही जिंदगी की सचाई से रूबरू होते जाते हैं सब अलग होता है. जैसा आदमी पहले दिखता है वैसा वो असल में तो नहीं होता. चूंकि इनसान के दो चेहरे होते हैं, एक जो हमें दिखाई देता है और दूसरा जो असली चेहरा होता है, जिसे हम साथ रह कर ही देख सकते हैं, समझ सकते हैं. उस ने अपने पति को छोड़ा मुझे पाने के लिए. और अब लगता है कि वो मुझे भी त्याग देगी. वह रोआंसा हो कर बोलता रहा.
‘‘तुम ऐसा क्यों सोचते हो?’’ दिनेश ने उस की आंखों में झांक कर पूछा. ‘‘मेरे और प्रोमिला से विवाह के पश्चात मैं ने अकसर कुछ लड़कों को पढ़ाई के बहाने आते देखा है. वह कुछ ज्यादा ही खुशमिजाज औरत है, जिसे हर वक्त कोई ना कोई मर्द चाहिए, जो उसे खुश रख सके.
‘‘मैं जब से यहां आया हूं, उसे हमेशा युवा मर्दों से घिरा देखा है. वह यूज एंड थ्रो में विश्वास रखती है. पहलेपहल जब मुझे भी लगा था कि मैं भी उस के प्रेम में गिरफ्त हूं, यकीन मानो अच्छा लगता था, पर शादी तो हर वक्त संग रखने का बहाना था.
‘‘आज वो जब चाहे मुझे भलाबुरा कह देती है. यदि मैं कुछ भी रोकटोक करूं, तो वो मेरी पीएचडी पूरी न करने की धमकी देती है. साथ ही, बोलती है कि वो जब चाहे मुझे नौकरी से निकलवा सकती है,’’ जेब से रूमाल निकाल कर नाक पोंछते हुए वह एक पल के लिए रुका और गला साफ करते हुए बोला, ‘‘तुम नहीं जानते कि उस के कितने लोगों से संबंध हैं, प्रिंसिपल से भी, तभी शायद उस की इतनी चलती है.
‘‘यद्यपि वो मेरे साथ खुश है, पर मुझे उस के मुताबिक ही जीना होगा. जैसा वो चाहे शायद उसी तरह सब करना होगा. आंखों पर पट्टी बांध कर जीना होगा या ऐसे जाहिर करना होगा कि कोई कुछ नहीं जानता और जो चल रहा है वही ठीक है.’’
सहसा शैलेश का फोन बजा. उस ने कानों पर फोन लगा कर बोला, ‘‘हैलो, कौन? ‘‘मैं… मैं…’’ ‘‘बोलो?’’ ‘‘आप… वो दिनेश मेरा दोस्त है ना? आज ही गांव से आया है. हां… हां… मैं उसी के साथ हूं.’’ ‘‘आप को बताया तो था. क्या भूल गए हो. कोई बात नहीं.’’
‘‘हां, बस थोड़ी देर में पहुंचता हूं,’’ कह कर शैलेश फोन कट करता हुआ इधरउधर देखता है. टेबल पर बैठे सभी एकदूसरे में व्यस्त हैं और इतने व्यस्त कि आसपास उन के क्या चल रहा है, किसी को कोई खबर तक नहीं.पीली रोशनी में खोए ऐसे अभ्यस्त चेहरे, जो रोज किसी न किसी रूप में किसी नए साथी को तलाश ही लेते हैं अपनी शारीरिक जरूरतों की पूर्ति के लिए.
‘‘अच्छा शैलेश, मैं आज रात को ही लौटूंगा,’’ दिनेश ने शैलेश के हाथों को छूते हुए कहा. ‘‘आज ही…’’ शैलेश आश्चर्य से देखते हुए पूछा.. ‘‘हां… हां,’’ दिनेश ने फिर दोहराया. ‘‘नहीं… नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? आओ, एक बार तो घर चलो.प्रोमिला से तो मिल लो. बस एक मर्तबा.’’
‘‘नहीं…. नहीं दिनेश. एक मर्तबा तो मिल ही लो तुम भी. कम से कम तुम तो…’’ ‘‘ओके शैलेश. पर, मुझे रात को ही निकलना है. और वो भी 10 बजे की ट्रेन से,’’ दिनेश ने जोर देते हुए कहा.
‘‘ओके. मेरे बाप अब चलें,’’ शैलेश दिनेश का हाथ पकड़े हुए चलता है. बैरा बिल के साथ टिप ले कर मुसकराता हुआ लौट जाता है. घर पहुंच कर, ‘‘वाह… क्या घर है शैलेश,’’ दिनेश ने मुसकराते हुए कहा.
एक नौकर दौड़ा हुआ शैलेश के पास पहुंचता है और उस के हाथों से बैग ले लेता है. शैलेश डाइनिंग टेबल पर बैग रख कर वाशबेशिन में हाथ धोते हुए दिनेश को देखता रहा. एक छोटे कद का नौकर तौलिया लिए पास ही खड़ा है, जिसे वो शैलेश के हाथों में थमा देता है.
“नमस्कार! मैम कहूं या भाभी?’’ प्रोमिला सामने दिखती है. दिनेश हाथ जोड़ कर नमस्ते करता हुआ मुसकराने लगता है और हतप्रभ हो कर सारे घर को, नौकरचाकरों को देखता रहता है. ‘‘ओह… तो आप हैं दिनेश? आइए,’’ प्रोमिला ड्राइंगरूम की ओर चलने का निर्देश देती हुई आगे बढ़ती है.
चमकदार घर दूधिया रोशनी से नहाया हुआ दिख रहा है, इतना कि एक सूई भी गिर जाए तो साफ गिरी मिले. घर में लहराते कीमती परदे दीवारों पर नक्काशी देखते १बनी है. जमीं पर चमकदार कालीन किनारों पर सुंदर सजे सुगंधित गमले घर को १महल की सी शक्ल देते थे.
आधुनिक पढ़ीलिखी तेजतर्रार युवती गठा हुआ बदन कंधे पर लहराते बाल सफेद मोतियों से दांत उम्र करीब 40, पर चेहरे पर ताजगी.
‘‘अच्छा बताइए कि क्या लेंगे? जूस, चाय या कौफी?’’ मदभरी आंखों से देखते हुए वो पूछती है. ‘‘नहीं भाभी, कुछ नहीं. मुझे तो बस एकपल आप को देखने की तमन्ना थी. सो देख लिया. रियली, आप बहुत सुंदर हैं. शायद शैलेश ठीक ही कहता था.’’
‘‘अच्छा बोलिए तो क्या कहा है आप को शैलेशजी ने हमारे बारे में.कोई बुराई तो नहीं की ना?’’ एक भौंडी सी मुसकराहट के साथ आंख मारते हुए शैलेश को देखती हुई दिनेश से पूछती है. ‘‘अरे नहीं भाभी. ये तो बहुत तारीफ कर रहा था आप की रियली.’’
‘‘अच्छा…’’ ‘‘मुझे आज ही निकलना है और अब मैं निकलूंगा. फिर मेरी ट्रेन का समय भी तो है रात 10 बजे का,’’ दिनेश घड़ी की सूइयों को देखते हुए बोलता है.
‘‘क्या कहा 10 बजे,’’ प्रोमिला हंसती हुई कहती है, ‘‘शैलेश आप को छोड़ आएंगे. फिर अभी तो 7 ही बजे हैं,’’ साड़ी के पल्लू को उंगली में लपेटते हुए वो कुछ बोलती, तभी जूस का जार थामे एक बुजुर्ग सा नौकर प्रकट हुआ. गिलास में जूस भरते हुए एक पल दिनेश को तो दूसरे पल प्रोमिला की तरफ देखता है.
‘‘अरे नहीं बाबा, बस थोड़ा ही,’’ दिनेश बुजुर्ग को बीच में ही टोकता हुआ कहता है.‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं कि इन को आज ही लौटना है?’’ प्रोमिला शैलेश को देखते हुए बोलती है.
‘‘मुझे स्वयं को नहीं पता था कि ये आज ही…’’ शैलेश टाई खोलता हुआ बताता है.
शैलेश दिनेश को घर दिखाने लगता है. आओ तो तुम्हें अपना कमरा दिखाऊं. 2-3 मिनट के बाद ही कमरे से बाहर निकलते हुए तेज हंसनेचहकने की आवाजें सुनते हुए बगल वाले कमरे में झांकते हुए देखते हैं कि कमरे में प्रोमिला 2-3 कालेज के लड़कों के साथ कमरे में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही है.
शैलेश आंखें मूंदता दिनेश को वहां से आगे ले जा कर कोने में खड़ा हो जाता है. देख लो, मेरे भाई अब आंखों से. यहां मेरे ही सामने ये सब चलता है रोज ही. मुझे ये सब पसंद नहीं, पर इस से किसी को क्या… सोचता हूं, मैं भी गांव चलूं, पर ये मुझे इतना बदनाम कर देगी कि मैं कहीं का नहीं रहूंगा. पर, मैं इस का कुछ नहीं बिगाड़ सकता… फिर आदमी के पास एक ही तो जिंदगी है, जैसे चाहे जीयो हंस कर या रो कर.
दिनेश मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. नौकरी, पीएचडी आदि से मेरा जो रुतबा है लोगों के बीच ही सही. एकदम से ये खत्म कर देगी. क्या करूं? जो है वह ठीक है या गलत. घर में रह कर ये सब सोचने की शक्ति तो चली गई.
एक पुरानी डायरी दिनेश को दिखाता हुआ पूछता है कि जानते हो इस डायरी को?‘‘हां… हां, कैसे भूल सकता हूं?’’ दिनेश ने जवाब दिया.‘‘अच्छा, रजनी कैसी है?’’ दिनेश की ओर दुखी मन से देखते हुए शैलेश पूछता है.
‘‘उस ने पिछले साल शादी कर ली…’’ शैलेश यह सुन कर ठिठक जाता है.‘‘रजनी शादी होने से पहले तक तुम्हें पूछती रही. कितनी ही बार तुम्हारा पता जानना चाहा, पर जब कुछ न हो सका तो उस के पिता ने पास ही शहर में उस की शादी कर दी. पर अब वो बहुत खुश दिखती है. सच्ची…’’ शैलेश चुप खड़ा सिसकता रहा.
‘‘अच्छा… अब मुझे चलना चाहिए?’’ दिनेश घड़ी देखते हुए बोला.दिनेश गले मिल कर चलने लगता है.‘‘रुक जाओ दोएक रोज,’’ शैलेश ने आग्रह किया.‘‘नहीं, बड़ी बहन आई हुई है. वह बीमार है. यकीन करो कि फिर आऊंगा. जल्दी ही. इस बार तो अचानक ही आना हुआ. पर, अगली बार पक्का,’’ कह कर वह चलने लगता है.
‘‘ठहरो, मैं छोड़ आता हूं,’’ शैलेश बोला.‘‘नहींनहीं, मैं आटोरिकशा से चला जाऊंगा.’’एक बड़े से बैग में कुछ सामान और पैसे, गिफ्ट वगैरह दिनेश को थमाते हुए शैलेश कहता है, ‘‘भइया, ये तुम रख लेना. मेरा तो अब गांव में कोई नहीं. तुम तो जानते ही हो कि वहां न मां है, न बाप, न भाईबहन. कोई है ही नहीं. मैं ही अकेला हूं, जो यहां आ कर यहीं का हो कर रह गया हूं. अब जैसा हूं यहीं रह कर जी सकता हूं. इसे मजबूरी समझो या मेरी नियति. अब इन के साथ ही मेरा जीवन है. यहां से निकलते ही मेरे सारे रास्ते खत्म.’’
पास ही रखे एक्वेरियम में छोटी मछलियां बड़ी मछलियों के भय से ऊपरनीचे, इधरऊधर दौड़ रही हैं. हलकी भीनी रंग की मछलियों के पंख यद्यपि लहरा रहे हैं, पर उन के खुले मुख से निकलती ध्वनि किसी भयानक चीख से कम नहीं लग रही थी. जैसे आजाद पंछी को सोने के पिंजरे में कैद कर लिया हो और उसे जीना है तो यहीं जीना होगा, वरना उस के पंख कतर दिए जाएंगे, जिस से ना उड़ सकेगा और ना शायद जी ही सकेगा.
दिनेश लौट गया. शैलेश दिनेश को छोड़ कर तकरीबन 11 बजे घर लौटा. शांत घर में हंसी की फुलझड़ी सुनाई पड़ रही थी. शैलेश ने प्रोमिला का दरवाजा खोला. वो कालेज के लड़को के साथ अभी तक हंसहंस कर बातें कर रही थी. शैलेश एक पल रुका और अपने कमरे की ओर बढ़ गया.