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Neha Dhupia के घर हुई बेबी शॉवर पार्टी, पति के साथ दिखी ऐसी केमिस्ट्री

फिल्म एक्ट्रेस नेहा धूपिया दूसरी बार प्रेग्नेंट है, नेहा पहले से एक बेटी की मां हैं, नेहा के पति अंगद बेदी ने उन्हें सरप्राइज बेबी शॉवर पार्टी दिया है, जिसमें इन दोनों के अलावा इनके कुछ करीबी दोस्त नजर आएं.

इस बेबी शॉवर की तस्वीर लगातार सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है, जिस पर फैंस लगातार कमेंट कर रहे हैं औऱ उन्हें शुभकानाएं दे रहे हैं. इस बेबी शॉवर की तस्वीर ने हर किसी को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया, नेहा ने इस बेबी शॉवर मेें ब्लू रंग की ड्रेस पहनी थी. जिसमें वह काफी ज्यादा खिल रही थीं.

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पार्टी  में नेहा धूपिया और अंगद बेदी ने एक दूसरे को किस करके अपना प्यार जताया है. जिसे दर्शक भी खूब पसंद कर रहे हैं. नेहा और अंगद की यह तस्वीर सोशल मीडिया पर भी है. जिसे ढ़ेर सारे लाइक मिले हैं.

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इस पार्टी में नेहा की दोस्त सोहा अली खान भी नजर आईं, जिसमें दोनों ने शानदार तरीकेे से पोज दिया था, बेबी शॉवर में नेहा धूपिया अपने गैंग केे साथ कई सारे पोज देती नजर आईं हैं. जिसमें आप उनकी खुशी को देख सकते हैं.

पति अंगद ने नेहा के लिए खास तरह के केक ऑर्डर किए थें, जिसमें बेबी नं 2 लिखा था, इस पार्टी में नेहा धूपिया के मम्मी पापा भी नजर आएं, जिसमें वह अपनी बेटी पर प्यार लुटाते नजर आएं.

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पार्टी के बाद नेहा धूपिया के मम्मी पापा ने उन्हें खूब सारा प्यार और आशीर्वाद दिया, वहीं बेटी मेहर भी इस पार्टी का हिस्सा रही थी.

Shamita Shetty को Raqesh Bapat से हुआ प्यार! फैंस ने दिया ऐसा रिएक्शन

बिग बॉस ओटीटी मेेें इन दिनों खूब धमाके देखने को मिल रहे हैं, शमिता शेट्टी और राकेश बापट की कैमेस्ट्री चर्चा में बनी हुई है. शमिता और राकेश की नजदीकियां दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं.

दोनों की दोस्ती दर्शकों को काफी ज्यादा पसंद आ रही है, लेकिन इस वजह से घरवाले के होश उड़ते नजर आ रहे हैं. कई बार घर में इन दोनों का मजाक भी बनाया जाता है.

कई जगह जब दर्शकों से पूछा गया कि आपका क्या राय है इन दोनों की कैमस्ट्री पर तो फैंस का कहना था कि वाकई दोनों एक -दूसरे को प्यार करने लगे हैं.दोनों एक- दूसरे का खूब ख्याल रखते हैं. हमें भी इन दोनों को वोट करना अच्छा लगता है.

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वहीं घरवालों के सर पर इन दोनों की जोड़ी को देखने के बाद से खतरा मंडरा रहा है. कुछ कंटेस्टेंट तो इन दोनों को अलग करने की भी कोशिश में लगे हुए हैं कि जल्द दोनों अलग हो जाए ताकी बाकी लोगों को अटेंशन मिल सके.

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अक्षरा सिंह लगातार इन लोगों पर निशाना साध रही हैंं, घर में राकेश और शमिता साथ में गेम में आगे बढ़ रहे हैं. दर्शकों को उम्मीद है कि आने वाले समय में लगातार इनके दोस्ती में फायदा मिलेगा.

वहीं बीती रात सनी लियोनी ने भी इस शो में धमाकेदार एंट्री मारी थी, एक्ट्रेस घर में आकर सभी कंटेस्टेंट को देखकर अनुमान लगा रही थी कि कौन कैसा गेम खेल रहा है.

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अगर बात करें शमिता शेट्टी की तो वह जैसे ही शो को ज्वाइन की थी, चर्चा में आ गई थी, ट्रोलर्स को कहना था कि जीजा जेल में हैं और यह बिग बॉस के घर में क्या कर रही हैं, जिसपर शमिता ने बाहर आकर सफाई देते हु कहा था कि वह बिग बॉस के घर में आने का कमिटमेंट पहले कर चुकी थीं.

गैजेट्स से यारी, हेल्थ पर भारी

किशोरों की सुबह मोबाइल अलार्म से शुरू हो कर आईपैड व वीडियो गेम्स, कंप्यूटर और वीडियो चैट, मूवी, लैपटौप आदि के इर्दगिर्द गुजरती है. दिनभर वे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप जैसी सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर बिजी रहते हैं. इन्हें नएनए गैजेट्स अपने जीवन में सब से अहम लगते हैं. इन की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन अगर इन का उपयोग जरूरत से ज्यादा होने लगे तो यह एक संकेत है कि आप अपनी सेहत के साथ खुद ही खिलवाड़ कर रहे हैं.

कैलाश हौस्पिटल, नोएडा के डाक्टर संदीप सहाय का कहना है कि देर रात तक स्मार्टफोन, टैब या लैपटौप का इस्तेमाल करने से नींद पर असर पड़ सकता है. इस से न सिर्फ गहरी नींद में खलल पड़ेगा बल्कि अगली सुबह थकावट का एहसास भी होगा. यदि हम एकदो रात अच्छी तरह से न सोएं तो थकावट का एहसास होने लगता है और चुस्ती कम हो जाती है. यह बात सही है कि इस से हमें शारीरिक या मानसिक तौर पर कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन यदि कई रातों तक नींद उड़ी रहे तो न सिर्फ शरीर पर थकान हावी रहेगी बल्कि एकाग्रता और सोचने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा. लंबे समय में इस से उच्च रक्तचाप, मधुमेह और मोटापे जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं.

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गरदन में दर्द :

लैपटौप में स्क्रीन और कीबोर्ड काफी नजदीक होते हैं. इस कारण इस पर काम करने वाले को झुकना पड़ता है. इसे गोद में रख कर इस्तेमाल करने पर गरदन को झुकाने की आवश्यकता पड़ती है. इस से गरदन में खिंचाव पैदा होता है, जिस से दर्र्द होता है. कभीकभी तो डिस्क भी अपनी जगह से खिसक जाती है. लैपटौप पर ज्यादा समय तक काम करने से शरीर का पौश्चर बिगड़ जाता है. लैपटौप में कीबोर्ड कम जगह में बनाया जाता है. इसलिए इस में उंगलियों को अलग स्थितियों में काम करना पड़ता है. इस से उंगलियों में दर्द होता है. चमकती स्क्रीन देखने पर आंखों में चुभन हो सकती है. आंखें लाल होना, उन में खुजली होना और धुंधला दिखाई देना सामान्य समस्याएं हैं.

स्पाइन, नर्व व मांसपेशियों में दिक्कत :

दिन का अधिकतर समय लैपटौप पर बिताने से स्पाइन मुड़ जाती है. इस से स्पिं्रग की तरह काम करने की गरदन की जो कार्यप्रणाली है वह भी प्रभावित होती है. इस से तंत्रिकाएं क्षतिग्रस्त भी हो सकती हैं. अधिकतर लोग लैपटौप को पैरों पर रख कर काम करते हैं. इस से भी मांसपेशियों को नुकसान पहुंचता है.

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ज्यादा टीवी देखना भी है हानिकारक :

ब्रिटिश जर्नल औफ मैडिसन में प्रकाशित एक लेख के अनुसार 25 या उस से अधिक उम्र के लोगों द्वारा हर घंटे देखे गए टीवी से उन का जीवनकाल 22 सैकंड कम हो जाता है. हर भारतीय एक सप्ताह में औसतन 15-20 घंटे टीवी देखता है. कई शोधों से यह बात भी सामने आई है कि हर घंटे देखे गए टीवी से उन का जीवनकाल 22 सैकंड कम हो जाता है. रोज 2 घंटे टीवी केसामने बिताने से टाइप 2 डायबिटीज और दिल की बीमारियों का खतरा 20त्न बढ़ जाता है.

पढ़ाई से ध्यान हटना :

जो युवा अपना अधिकतर समय कंप्यूटर व गैजेट्स के सामने बिताते हैं उन की पढ़ने की क्षमता पर प्रभाव पड़ता है और धीरेधीरे उन का मन पढ़ाई में कम और गैजेट्स में ज्यादा लगने लगता है. उन को घंटों बैठ कर पढ़ाई करने से ज्यादा अच्छा गेम खेलना लगता है. वे अगर किताबें ले कर बैठ भी जाते हैं तो भी उन का सारा ध्यान कंप्यूटर पर ही टिका रहता है, जो उन की पर्सनैलिटी को नैगेटिव बनाने के साथसाथ उन का कैरियर तक चौपट कर देता है.

असामाजिक होना :

वर्चुअल दुनिया का साथ मिलने पर युवा अकसर असामाजिक होने लगते हैं, क्योंकि वे उस दुनिया में अपनी मनमानी करते हैं. वहां उन्हें कोई रोकने वाला नहीं होता है.

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लड़कों में नपुंसकता बढ़ती है :

देश की प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में किए जा रहे अध्ययन से पता चला है कि मोबाइल फोन और उस के टावर्स से निकलने वाली रेडिएशन पुरुषों की प्रजनन क्षमता पर असर डालने के अलावा शरीर की कोशिकाओं के डिफैंस मैकेनिज्म को नुकसान पहुंचाती हैं.

क्यों होता है सेहत को नुकसान :

एक शोध के अनुसार इलैक्ट्रौनिक उपकरणों के प्रयोग से हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. ये उपकरण इलैक्ट्रोमैग्नैटिक रेडिएशन छोड़ते हैं, जिन में मोबाइल फोन, लैपटौप, टैबलेर्ट्स वाईफाई वायरलैस उपकरण शामिल हैं.

शोध के मुताबिक वायरलैस उपकरणों के ज्यादा उपयोग से इलैक्ट्रोमैग्नैटिक हाईपरसैंसेटिविटी की शिकायत हो जाती है, जिसे गैजेट एलर्जी भी कहा जा सकता है. डब्लूएचओ की एक रिपोर्ट में यह कहा गया है कि मोबाइल फोन की रेडियो फ्रीक्वैंसी फील्ड शरीर के ऊतकों को प्रभावित करती है. हालांकि शरीर का ऐनर्जी कंट्रोल मैकेनिज्म आरएफ ऐनर्जी के कारण पैदा गरमी को बाहर निकालता है, पर शोध साबित करते हैं कि यह फालतू ऐनर्जी ही अनेक बीमारियों की जड़ है. हम जिस तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं उस के नुकसान को अनदेखा करते हैं. मोबाइल फोन, लैपटौप, एयरकंडीशनर, ब्लूटूथ, कंप्यूटर, एमपी3 प्लेयर आदि की रेडिएशंस से नुकसान होता है. ईएनटी विशेषज्ञ का कहना है कि नुकसान करने वाली रेडिएशंस हमारे स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ करती हैं और हमारी कार्यक्षमता को कम करती हैं. हम पूरे दिन लगभग 500 बार इलैक्ट्रोमैग्नैटिक रेडिएशंस से प्रभावित होते हैं. ये हमारी एकाग्रता को प्रभावित करती हैं. हमें चिड़चिड़ा बनाती हैं और थके होने का एहसास कराती हैं. हमारी स्मरणशक्ति को कमजोर करती हैं, प्रतिरोधक क्षमता को कम करती हैं और सिरदर्द जैसी समस्या पैदा करती हैं.

यही स्थिति मोबाइल की भी है अधिकांश लोग कम से कम 30 मिनट तक मोबाइल पर बात करते हैं. इस तरह एक साल में मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाले को 11 हजार मिनट का रेडिएशन ऐक्सपोजर का सामना करना पड़ता है. मोबाइल फोन के रेडिएशन के खतरे बढ़ते जा रहे हैं.

क्या कहती है रिसर्च

एक रिसर्च में यह बात सामने आई है कि जो किशोर कंप्यूटर या टीवी के सामने ज्यादा वक्त बिताते हैं उन किशोरों की हड्डियों पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जिस की वजह से वे गंभीर स्वास्थ्य संकट की ओर बढ़ रहे हैं. नौर्वे में हुई एक रिसर्च में कहा गया है कि किशोरों में हड्डियों की समस्या बढ़ती जा रही है, जिस की वजह कंप्यूटर पर देर तक बैठ कर काम करना है. अमेरिकन एकैडमी औफ पीडियाट्रिक्स ने कंप्यूटर के इस्तेमाल का समय भी बताया आर्कटिक विश्वविद्यालय औफ नौर्वे की एनी विंथर ने स्थानीय जर्नल में एक रिपोर्ट प्रकाशित कराई है, जिस में कंप्यूटर के सामने बैठने की वजह से शारीरिक नुकसान का आकलन किया गया है. इस रिपोर्ट के साथ ही अमेरिकन एकैडमी औफ पीडियाट्रिक्स ने किशोरों के लिए कंप्यूटर के इस्तेमाल का समय भी बताया है. मोबाइल फोन, लैपटौप आदि के ज्यादा इस्तेमाल से आप की उम्र तेजी से बढ़ रही है, जिस से आप जल्दी बूढ़े हो सकते हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक इस स्थिति को टैकनैक कहते हैं. इस में इंसान की त्वचा ढीली हो जाती है. गाल लटक जाते हैं और झुर्रियां पड़ जाती हैं. इन सब के कारण इंसान का चेहरा उम्र से पहले ही बूढ़ा लगने लगता है. इस के अलावा आंखों के नीचे काले घेरे बनने लगते हैं और गरदन व माथे पर उम्र से पहले ही गहरी लकीरें दिखने लगती हैं.

मुंबई के फोर्टिस हौस्पिटल के कौस्मैटिक सर्जन विनोद विज ने बताया कि मोबाइल फोन का लंबे वक्त तक झुक कर इस्तेमाल करने से गरदन, पीठ और कंधे का दर्द हो सकता है. इस के अलावा सिरदर्द, सुन्न, ऊपरी अंग में झुनझुनी के साथ आप को हाथ, बांह, कुहनी और कलाई में दर्द हो सकता है.

ऐसे बचें गैजेट्स की लत से

इंटरनैट और मोबाइल एसोसिएशन औफ इंडिया की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में 37 करोड़ 10 लाख मोबाइल इंटरनैट यूजर्स होने का अनुमान है, जिन में 40 फीसदी मोबाइल इंटरनैट यूजर्स 19 से 30 वर्ष के हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स का इस्तेमाल करने के लिए कई बार आगे की ओर झुकने से रीढ़ की हड्डी, मांसपेशियों और हड्डियों की प्रकृति में बदलाव होने लगता है. कौस्मैटिक सर्जरी इंस्टिट्यूट के सीनियर कौस्मैटिक सर्जन मोहन थामस कहते हैं कि लोगों को अभी इस बात का एहसास नहीं है कि उन की त्वचा गरदन और रीढ़ की हड्डी को कितना नुकसान पहुंच रहा है. तकनीक के इस्तेमाल के आदी लोगों को इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स की लत से बचने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए. उन्होंने कहा कि स्मार्टफोन के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण गरदन की मांसपेशियां छोटी हो जाती हैं. इस के अलावा त्वचा का गुरुत्वाकर्षणीय खिंचाव भी बढ़ जाता है. इस के कारण त्वचा का ढीलापन, दोहरी ठुड्डी और जबड़ों के लटकने की समस्या हो जाती है.

फ्रांस में अदालत का दरवाजा खटखटाया

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के नए आंकड़ों के मुताबिक भारत की 125 करोड़ की आबादी के पास 98 करोड़ मोबाइल कनैक्शन हैं. हाल ही में फ्रांस की एक अदालत ने इएचएस से पीडि़त एक महिला को विकलांगता भत्ता दे कर वाईफाई और इंटरनैट की पहुंच से दूर शहर छोड़ गांव में रहने का आदेश दिया. हालांकि ऐसा मामला अब तक भारत में नहीं आया, लेकिन अगर आप को भी शारीरिक कमजोरी हो तो डाक्टर को दिखाने के साथसाथ आप भी अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं.

सिंगल चाइल्ड : अकेलेपन और असामाजिकता के शिकार बच्चे

7 साल का आर्यन घर का इकलौता बच्चा है. वह न नहीं सुन सकता. उस की हर जरूरत, हर जिद पूरी करने के लिए मातापिता दोनों में होड़ सी लगी रहती है. उसे आदत ही हो गई है कि हर बात उस की मरजी के मुताबिक हो. हालात ये हैं कि घर का इकलौता दुलारा इस उम्र में भी मातापिता की मरजी के मुताबिक नहीं, बल्कि मातापिता उस की इच्छा के अनुसार काम करने लगे हैं. कई बार ऐसा भी देखने में आता है कि हद से ज्यादा लाड़प्यार और अटैंशन के साथ पले इकलौते बच्चों में कई तरह की समस्याएं जन्म लेने लगती हैं. ‘एक ही बच्चा है’ यह सोच कर पेरैंट्स उस की हर मांग पूरी करते हैं. लेकिन यह आदत आगे चल कर न केवल अभिभावकों के लिए असहनीय हो जाती है बल्कि बच्चे के पूरे व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है.

इसे मंहगाई की मार कहें या बढ़ती जनसंख्या के प्रति आई जागरूकता या वर्किंग मदर्स के अति महत्त्वाकांक्षी होने का नतीजा या अकेले बच्चे को पालने के बोझ से बचने का रास्ता? कारण चाहे जो भी हो, अगर हम अपने सामाजिक परिवेश और बदलते पारिवारिक रिश्तों पर नजर डालें तो एक ही बच्चा करने का फैसला समझौता सा ही लगता है. आज की आपाधापी भरी जिंदगी में ज्यादातर वर्किंग कपल्स एक ही बच्चा चाहते हैं. ये चाहत कई मानों में हमारी सामाजिकता को चुनौती देती सी लगती है. न संयुक्त परिवार और न ही सहोदर का साथ, एक बच्चे के अकेलेपन का यह भावनात्मक पहलू उस के पूरे जीवन को प्रभावित करता है.

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खत्म होते रिश्तेनाते

एक बच्चे का चलन हमारी पूरी पारिवारिक संस्था पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है. अगर किसी परिवार में इकलौता बेटा या बेटी है तो उस की आने वाली पीढि़यां चाचा, ताऊ और बूआ, मौसी, मामा के रिश्ते से हमेशा के लिए अनजान रहेंगी.  समाजशास्त्री भी मानते हैं कि सिंगल चाइल्ड रखने की यह सोच आगे चल कर पूरे सामाजिक तानेबाने के लिए खतरनाक साबित होगी. पारिवारिक माहौल के बिना वे जीवन के उतारचढ़ाव को नहीं समझ पाते और बड़े होने पर अपने ही अस्तित्व से लड़ाई लड़ते हैं. बच्चों को सभ्य नागरिक बनाने में परिवार का बहुत बड़ा योगदान होता है. संयुक्त परिवारों में 3 पीढि़यों के सदस्यों के बीच बच्चों का जीवन के सामाजिक और नैतिक पक्ष से अच्छी तरह परिचय हो जाता है.

कितने ही पर्वत्योहार हैं जब अकेले बच्चे व्यस्तता से जूझते पेरैंट्स को सवालिया नजरों से देखते हैं. घर में खुशियां बांटने और मन की कहने के लिए हमउम्र भाईबहन का न होना बच्चों को भी अखरता है. इतना ही नहीं, सिंगल चाइल्ड की सोच हमारे समाज में महिलापुरुष के बिगड़ते अनुपात को भी बढ़ावा दे रही है क्योंकि आमतौर पर यह देखने में आता है कि जिन कपल्स का पहला बच्चा बेटा होता है वे दूसरा बच्चा करने की नहीं सोचते. समग्ररूप से यह सोच पूरे समाज में लैंगिक असमानता को जन्म देती  है.

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शेयरिंग की आदत न रहना

आजकल महानगरों के एकल परिवारों में एक बच्चे का चलन चल पड़ा है. आमतौर पर ऐसे परिवारों में दोनों अभिभावक कामकाजी होते हैं. नतीजतन बच्चा अपना अधिकतर समय अकेले ही बिताता है. ऐसे माहौल में पलेबढ़े बच्चों में एडजस्टमैंट और शेयरिंग की सोच को पनपने का मौका ही नहीं मिलता. छोटीछोटी बातों में वे उन्मादी हो जाते हैं. अपनी हर चीज को ले कर वे इतने पजेसिव रहते हैं कि न तो किसी के साथ रह सकते हैं और न ही किसी दूसरे की मौजूदगी को सहन कर सकते हैं. वे हर हाल में जीतना चाहते हैं. यहां तक कि खिलौने और खानेपीने का सामान भी किसी के साथ बांट नहीं सकते. ऐसे बच्चे अकसर जिद्दी और शरारती बन जाते हैं.

अकेला बच्चा होने के चलते मातापिता का उन्हें पूरा अटैंशन मिलता है. वर्किंग पेरैंट्स होने के चलते अभिभावक बच्चे को समय नहीं दे पाते. उस की हर जरूरी और गैरजरूरी मांग को पूरा कर के अपने अपराधबोध को कम करने की राह ढूंढ़ते हैं. बच्चे अपने साथ होने वाले ऐसे व्यवहार को अच्छी तरह से समझते हैं जिस के चलते छोटी उम्र में ही वे अपने पेरैंट्स को इमोशनली ब्लैकमेल भी करने लगते हैं. अगर उन की जिद पूरी नहीं होती तो वे कई तरह के हथकंडे अपनाने लगते हैं.

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गैजेट्स की लत

इसे समय की मांग कहें या दूसरों से पीछे छूट जाने का डर, अभिभावक अपने इकलौते बच्चों को आधुनिक तकनीक से अपडेट रखने की हर मुमकिन कोशिश करते नजर आते हैं. कामकाजी अभिभावकों को ये गैजेट्स बच्चों को व्यस्त रखने का आसान जरिया लगते हैं. यही वजह है कि अकेले बच्चों की जिंदगी में हमउम्र साथियों और किस्सेकहानी सुनाने वाले बुजुर्गों की जगह टीवी, मोबाइल और लैपटौप जैसे गैजेट्स ने ले ली है. आज के दौर में इन इकलौते बच्चों के पास समय भी है और एकांत भी. बडे़ शहरों में आ बसे कितने ही परिवार हैं जिन में कुल 3 सदस्य हैं. साथ रहने और खेलने को न किसी बड़े का मार्गदर्शन और न ही छोटे का साथ. नतीजतन, वे इन गैजेट्स का इस्तेमाल बेरोकटोक मनमुताबिक ढंग से करते रहते हैं. उन का काफी समय इन टैक्निकल गैजेट्स को एक्सैस करने में ही बीतता है. अकेले बच्चे घंटों इंटरनैट और टीवी से चिपके रहते हैं. धीरेधीरे ये गैजेट्स उन की लत बन जाते हैं और ऐसे बच्चे लोगों से घुलनेमिलने से कतराने लगते हैं.

‘एन इंटरनैशनल चाइल्ड ऐडवोकेसी और्गनाइजेशन’ की एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि इंटरनैट पर बहुत ज्यादा समय बिताने वाले बच्चों में सामाजिकता खत्म हो जाती है. नतीजतन, उन के शारीरिक और मानसिक संवेदनात्मक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इतना ही नहीं, मनोचिकित्सकों ने तो इंटरनैट की लत को मनोदैहिक बीमारी का नाम दिया है. अकेले बच्चों को मिलने वाली मनमानी छूट कई माने में उन्हें जानेअनजाने ऐसी राह पर ले जाती है जो आखिरकार उन्हें कुंठाग्रस्त बना देती है.

समस्याएं और भी हैं

इकलौते बच्चे का व्यवहार और कार्यशैली उन बच्चों से बिलकुल अलग होती है जो अपने हमउम्र साथियों या भाईबहनों के साथ बड़े होते हैं. वर्किंग पेरैंट्स के व्यस्त रहने के कारण ऐसे बच्चे उपेक्षित और कुंठित महसूस करते हैं. कम उम्र में सारी सुखसुविधाएं मिल जाने के कारण ये जीवन की वास्तविकता और जिम्मेदारियों को ठीक से नहीं समझ पाते. ऐसे बच्चे आमतौर पर आत्मकेंद्रित हो जाते हैं. अकेला रहने वाला बच्चा अपनी बातें किसी से नहीं बांट पाता. उसे अपनी भावनाएं शेयर करने की आदत ही नहीं रहती जिस के चलते ऐसे बच्चे बड़े हो कर अंतर्मुखी, चिड़चिड़े और जिद्दी बन जाते हैं और उन का स्वभाव उग्र व आक्रामक हो जाता है.

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अकेले पलेबढ़े बच्चे सामाजिक नहीं होते और उन्हें हर समय अटैंशन व डिपैंडैंस की तलाश रहती है. संपन्न और सुविधाजनक परवरिश मिलने के कारण इकलौते बच्चे जिंदगी की हकीकत से दूर ही रहते हैं. लाड़प्यार और सुखसुविधाओं में पलने के कारण वे आलसी और गैरजिम्मेदार बन जाते हैं. छोटेछोटे काम के लिए उन्हें दूसरों पर निर्भर रहने की आदत हो जाती है. आत्मनिर्भरता की कमी के चलते उन के व्यक्तित्व में आत्मविश्वास की भी कमी आ जाती है. एक सर्वे में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि अकेले रहने वाले बच्चों की खानपान की आदतें भी बिगड़ जाती हैं. यही वजह है कि अकेले बच्चों में मोटापे जैसी शारीरिक व्याधियां भी घर कर जाती हैं

टोक्यो ओलिंपिक: जज्बे के सहारे जरूरतों से जूझते चैंपियन

लेखक- सुनील शर्मा 

अब ओलिंपिक खेलों का बुखार धीरेधीरे उतरने लगा है. सभी खिलाड़ी टोक्यो से वापस आ चुके हैं. जो जीते हैं वे जश्न के माहौल में हैं और जो जीततेजीतते रह गए या जीत नहीं पाए, उन में कसक है. इस बार भारत ने 7 मैडल जीते जो अपनेआप में रिकौर्ड है. जो अजूबा भाला फेंक में नीरज चोपड़ा ने किया है, वह नए इतिहास की सुनहरी इबारत से कम नहीं है. उन के गोल्ड मैडल की वजह से देश पदक तालिका में 48वें नंबर पर खड़ा था. इस के अलावा भारत ने मुक्केबाजी, बैडमिंटन और पुरुष हौकी में कांसे का पदक जीतने के साथसाथ कुश्ती और भारोत्तोलन में सिल्वर मैडल भी जीता.

पर यहां एक बात गौर करने लायक है कि ये जो भी पदकवीर हैं, वे ज्यादातर गांवदेहात के ठेठ बच्चे हैं और ज्यादा पढ़ेलिखे भी नहीं. इंगलिश तो क्या, बहुत से खिलाडि़यों को हिंदी भी अच्छे तरीके से बोलनी नहीं आती है. ऊपर से सभी गरीब घरों के या ज्यादा से ज्यादा मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले. फिर भी ऐसे होनहारों ने खेल के महाकुंभ में अपना लोहा मनवाया है, जो तारीफ के काबिल है. साथ ही, उन के मातापिता भी उन की इस जीत में बराबर के हकदार हैं, जिन्होंने अभावों में अपने बच्चों की खेल प्रतिभा पर भरोसा किया और कर्ज ले कर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. अब भले ही सरकारें जीते हुए खिलाडि़यों पर पैसे, पद और पुरस्कारों की ?ाड़ी लगा रही हैं, पर हकीकत तो यही है कि आज भी देश में खेलों के प्रति जनून की कमी है. आर्थिक मदद की लीपापोती होती है और जब खिलाड़ी को अपनी प्रतिभा निखारने की सब से ज्यादा जरूरत होती है, तब उन्हें अंगूठा दिखा दिया जाता है. इस सब के बावजूद अगर खिलाड़ी देश का नाम पूरी दुनिया में रोशन करते हैं तो वे यकीनन शाबाशी के हकदार हैं.

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आज हम जानेंगे उन खिलाडि़यों के बारे में जिन्होंने टोक्यो ओलिंपिक खेलों में मैडल जीत कर पोडियम पर देश का मानसम्मान बढ़ाया है :

-नीरज चोपड़ा : भालाफेंक में स्वर्ण पदक : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में सोने का तमगा हासिल करने वाले भाला फेंक ऐथलीट नीरज चोपड़ा का जन्म 24 दिसंबर, 1997 को हरियाणा के पानीपत शहर में हुआ था. उन के पिता का नाम सतीश कुमार है और माता का नाम सरोज देवी. नीरज चोपड़ा के पिता हरियाणा के पानीपत जिले के एक छोटे से गांव खंडरा के किसान हैं, जबकि इन की माताजी गृहिणी हैं. नीरज चोपड़ा के कुल 5 भाईबहन हैं, जिन में वे सब से बड़े हैं. भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा ने कम उम्र में ही भाला फेंकना शुरू कर दिया था. दरअसल, वे बचपन में बहुत ज्यादा मोटे थे और वजन घटाने के लिए उन्होंने स्टेडियम जाना शुरू किया था. वहां उन्होंने कुछ सीनियर खिलाडि़यों को भाला फेंकते देखा था, तभी से उन के हाथ में भी भाला आ गया था. अनुभवी भाला फेंक खिलाड़ी जयवीर चौधरी ने साल 2011 में नीरज चोपड़ा की प्रतिभा को करीब से देखा था. उन्होंने बढ़ावा दिया तो बेहतर सुविधा हासिल करने के उद्देश्य से नीरज पंचकूला के ताऊ देवीलाल स्टेडियम में आ गए और साल 2012 के आखिर में वे अंडर-16 के राष्ट्रीय चैंपियन बन गए थे. यहां बता दें कि साल 2012 में जब नीरज चोपड़ा एक दिन बास्केटबौल खेल रहे थे, तो उन की वही कलाई टूट गई थी,

जिस से वे भाला फेंकते हैं. तब एक बार को उन्हें लगा था कि शायद अब वे कभी भाला नहीं फेंक पाएंगे. लेकिन अपनी मेहनत और कड़ी लगन से उन्होंने वह पड़ाव भी पार कर लिया था. नीरज चोपड़ा ने साल 2014 में अपने लिए एक भाला खरीदा था, जो 7000 रुपए का था. इस के बाद उन्होंने इंटरनैशनल लैवल पर खेलने के लिए 1,00,000 रुपए का भाला खरीदा था. चूंकि नीरज चोपड़ा एक किसान परिवार से हैं तो खेल में हाथ आजमाना उन के लिए बहुत ज्यादा मुश्किल था, पर जब साल 2017 में सेना में उन की नौकरी लगी तो एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘‘हम किसान हैं. परिवार में किसी के पास सरकारी नौकरी नहीं है और मेरा परिवार बड़ी मुश्किल से मेरा साथ देता आ रहा है. लेकिन अब यह एक राहत की बात है कि मैं अपनी ट्रेनिंग को जारी रखने में कामयाब हूं.’’ साल 2019 में नीरज चोपड़ा को दाहिनी कुहनी की आर्थ्रास्कोपिक सर्जरी करवानी पड़ी थी, इस वजह से लगभग एक साल तक वे खेलों से दूर रहे. कोविड-19 की महामारी के दौरान लागू प्रतिबंधों के कारण उन्हें अभ्यास करने में भी काफी परेशानी हुई थी और वे ओलिंपिक से पहले कई अहम इंटरनैशनल टूर्नामैंटों में हिस्सा नहीं ले पाए थे.

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-रवि कुमार दहिया : कुश्ती में रजत पदक : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में कुश्ती के फ्रीस्टाइल 57 किलोग्राम भारवर्ग में रजत पदक जीतने वाले रवि कुमार दहिया देखते ही देखते देश और दुनिया में मशहूर तो हो गए हैं पर उन के इस मुकाम तक पहुंचने के पीछे 13 साल की जीतोड़ मेहनत छिपी है. रवि कुमार दहिया के मुश्किल सफर में उन के किसान पिता राकेश दहिया का अहम योगदान रहा है, जो अपने बेटे को नामचीन पहलवान बनाने के लिए हमेशा दूध, देशी घी, लस्सी पहुंचाते रहे. उन के पास कोई बड़ी जायदाद नहीं थी, बल्कि वे तो अपने घर का गुजारा जमीन पट्टे पर ले कर करते थे. रवि कुमार ने अखाड़े में जितना पसीना बहाया है, उस से ज्यादा उन के पिता ने संघर्ष किया है. वे 4 बजे सुबह उठ कर 5 किलोमीटर चल कर नजदीकी रेलवे स्टेशन पहुंचते थे और वहां से तकरीबन 60 किलोमीटर दूर दिल्ली के आजादपुर रेलवे स्टेशन उतर कर वहां से 2 किलोमीटर दूर छत्रसाल स्टेडियम पहुंचते थे. राकेश कुमार दहिया ने अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए एक इंटरव्यू में बताया था, ‘‘एक बार रवि की मां ने उस के लिए मक्खन निकाला और मैं उसे कटोरे में ले गया. वहां रवि ने मक्खन पर आए पानी को हटाना चाहा तो मक्खन ही जमीन पर गिरा दिया. ‘‘मैं ने उस से कहा कि हम बेहद मुश्किलों से तुम्हारे लिए यह सब करते हैं. तब रवि ने मेरी त्याग की भावना की कद्र की और जमीन पर गिरे मक्खन को भी खा लिया.’’ हरियाणा के सोनीपत जिले के नाहरी गांव के रवि कुमार दहिया छोटी सी उम्र में ही अपने गांव के गुरु हंसराज से कुश्ती के दांवपेंच सीखने लगे थे और फिर 10 साल की उम्र से उन्होंने दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में महाबली सतपाल के मार्गदर्शन में कुश्ती के गुर सीखने शुरू कर दिए थे. रवि कुमार दहिया ने सब से पहले तब लोगों का ध्यान खींचा था जब साल 2015 में जूनियर वर्ल्ड चैंपियनशिप में वे सिल्वर मैडल जीतने में कामयाब रहे थे. इस के बाद 2018 में अंडर-23 वर्ल्ड चैंपियनशिप में भी उन्होंने सिल्वर मैडल हासिल किया था. साल 2019-20 की एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में वे गोल्ड मैडल जीतने में कामयाब रहे थे.

– सेखोम मीराबाई चानू : वेटलिफ्टिंग में चांदी का तमगा : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में भारत को यादगार शुरुआत देने वाली मीराबाई चानू नेवेटलिफ्ंिटग के 49 किलोग्राम भारवर्ग में सिल्वर मैडल जीतने के बाद पिज्जा खाने की इच्छा जताई थी, पर वे जिस घर और इलाके से आती हैं, वहां दो वक्त का भोजन पकाने के लिए भी कई किलोमीटर दूर से पानी और लकडि़यां लानी पड़ती हैं. मीराबाई चानू के लिए सिल्वर मैडल को चूमना किसी अमीर बच्चे की तरह चांदी का चम्मच मुंह में रख कर जन्म लेने जैसा आसान नहीं था. उन्होंने तो खुद अपनी मेहनत से अपने भीतर की निडर चानू को जन्म दिया था और इस लमहे को हकीकत बनाने के लिए उन्हें न जाने कितने सालों से रोजाना एक के बाद एक कई बाधाओं को पार करना पड़ा था. भारत के खूबसूरत उत्तरपूर्वी राज्य मणिपुर की राजधानी इंफाल से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर नोंगपोक काकजिंग गांव की रहने वाली मीराबाई 6 भाईबहनों में सब से छोटी हैं. उन का बचपन पास की पहाडि़यों में लकडि़यां काटते और तालाब से पानी लाते हुए बीता था. इस के बावजूद 8 अगस्त, 1994 को जन्मी मीराबाई चानू ने अपने बचपन में ही फैसला कर लिया था कि वे खेलों से जुड़ेंगी. पहले तो वे तीरंदाज बनना चाहती थीं, लेकिन शायद पूरा देश उन के मजबूत कंधों पर उस लोहे का भार देखना चाहता था जिस ने हालिया ओलिंपिक खेलों में उन्हें चांदी का तमगा दिलाया. हकीकत तो यह है कि किसी गरीब घर की लाड़ली के लिए सपने देखना तो आसान है पर उन्हें पूरा करने की राह में कांटों की सेज होती है.

मीराबाई चानू के भी वेटलिफ्टर बनने की राह में कई अड़चनें थीं. पैसे की कमी के चलते मातापिता उन का हौसला बढ़ाने की हालत में नहीं थे. पर जब वे किसी तरह खेल से जुड़ीं तो अपनी ट्रेनिंग और स्कूल के समय में तालमेल बिठाने के लिए भी उन्हें पापड़ बेलने पड़ते थे. वे अपने गांव से 22 किलोमीटर दूर ट्रेनिंग सैंटर तक पहुंचने के लिए 2 बसें बदलती थीं. पैसे न होने पर ट्रक ड्राइवरों से लिफ्ट लेती थीं. मीराबाई चानू ने ओलिंपिक के पोडियम पर चढ़ने के लिए और भी कई तरह की कुरबानियां दी हैं. वे अपने परिवार से दूर रही थीं. वर्ल्ड चैंपियनशिप में हिस्सा लेने के चलते वे अपनी बहन की शादी तक में हिस्सा नहीं ले पाई थीं. साल 2016 के रियो ओलिंपिक खेलों में मीराबाई चानू के नाम के आगे ‘डिड नौट फिनिश’ लिखा गया था. यह तब लिखा जाता है जब आप खेल को पूरा नहीं कर पाते हैं. साल 2016 के बाद मीराबाई चानू का हौसला इतना ज्यादा टूटा कि वे डिप्रैशन में चली गईं और उन्हें हर हफ्ते मनोवैज्ञानिक के सैशन लेने पड़े थे. वे खेल को अलविदा कह देना चाहती थीं, पर उन के भीतर के खिलाड़ी मन ने हार नहीं मानी और उन्होंने दोबारा जबरदस्त वापसी की. अब जब अपनी छाती पर चांदी की चमक लिए मीराबाई घर पहुंची, तो उन की मां सेखोम ओंगबी तोम्गी लीमा और पिता सेखोम कृति मेइतेई खुशी के मारे फूले न समाए, उन की बेटी ने देश का मान जो बढ़ाया है.

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-लवलीना बोरगोहेन : मुक्केबाजी में कांसे का तमगा : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में मुक्केबाजी में भारत को एकलौता कांस्य पदक दिलाने वाली 24 साल की लवलीना बोरगोहेन भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम की रहने वाली हैं. उन का जन्म 2 अक्तूबर, 1997 को असम के गोलाघाट में हुआ था. उन के पिता का नाम टिकेन बोरगोहेन और माता का नाम ममोनी बोरगोहेन है. लवलीना बोरगोहेन की 2 बड़ी जुड़वां बहनें भी हैं. उन की बड़ी बहन ने किक बौक्ंिसग में अपना कैरियर बनाना चाहा, लेकिन किसी कारण वे उसे आगे न बढ़ा सकीं. लवलीना बोरगोहेन ने भी अपने खेल जीवन की शुरुआत किक बौक्ंिसग से ही की थी, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने मुक्केबाजी को अपना लिया था. लवलीना बोरगोहेन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बारपाथर गर्ल्स हाई स्कूल से पूरी की थी. उन के पिता ने अपनी लाड़ली के सपनों को पूरा करने के लिए बहुत संघर्ष किया और कई आर्थिक कठिनाइयों का भी सामना किया है. 9 साल पहले मुक्केबाजी में कैरियर शुरू करने वाली लवलीना बोरगोहेन 2 बार वर्ल्ड चैंपियनशिप में कांस्य पदक भी जीत चुकी हैं. उन के लिए ओलिंपिक खेलों की तैयारी करना आसान नहीं था, क्योंकि कोरोना संक्रमण के कारण वे अभ्यास के लिए यूरोप नहीं जा सकी थीं. इस के अलावा उन की मां की तबीयत खराब थी और पिछले साल उन का जब किडनी ट्रांसप्लांट हुआ तब लवलीना दिल्ली में राष्ट्रीय शिविर में थीं. यह कांस्य पदक लवलीना बोरगोहेन के ही लिए नहीं, बल्कि असम के गोलाघाट में उन के गांव के लिए भी बदलाव लाने वाला रहेगा क्योंकि अब बारो मुखिया गांव तक पक्की सड़क बनाई जा रही है. साल 2006 में लवलीना बोरगोहेन को ‘अर्जुन अवार्ड’ से नवाजा गया था. इस अवार्ड को हासिल करने वाली वे असम की 6ठी खिलाड़ी बन गई हैं.

-बजरंग पूनिया : कुश्ती में कांस्य पदक : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में कुश्ती के फ्रीस्टाइल 65 किलोग्राम भारवर्ग में कांस्य पदक जीतने वाले बजरंग पूनिया का जन्म 26 फरवरी, 1994 को हरियाणा के ?ाज्जर जिले के खड्डन गांव में हुआ था. उन के पिता का नाम बलवान सिंह पूनिया और माता का नाम ओमप्यारी है. बजरंग पूनिया के पिता बलवान सिंह पूनिया भी पेशेवर पहलवान रह चुके हैं. बजरंग पूनिया की पत्नी का नाम संगीता फोगाट है, जो खुद भी पहलवान रह चुकी हैं. वे ‘द्रोणाचार्य अवार्ड’ विजेता महावीर फोगाट की बेटी हैं. बजरंग पूनिया तकरीबन 7 साल की उम्र से कुश्ती खेल रहे हैं. टोक्यो ओलिंपिक खेलों में कांस्य पदक जीतने वाले बजरंग भारतीय रेलवे में राजपत्रित अधिकारी ओएसडी स्पोर्ट्स के पद पर काम करते हैं. उन्होंने विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में 3 बार (2013, 2018, 2019) मैडल अपने नाम किया है. इस में से 2 बार उन्होंने रजत और एक बार कांस्य पदक जीता है. पर उन्हें यह मुकाम बड़ी मुश्किल से हासिल हुआ है. बजरंग पूनिया के पिता बलवान सिंह पूनिया एक इंटरव्यू में बता चुके हैं, ‘‘मैं ने बजरंग को छारा गांव के लाला दीवानचंद अखाड़े में दाखिल करा दिया था. यह अखाड़ा हमारे घर से 35 किलोमीटर दूर था. बजरंग का दिन सुबह 3 बजे शुरू होता था और आज भी उस की यही आदत है.’’ बजरंग पूनिया के परिवार में खेती से जितना आता था, उस से घर का ही गुजारा हो पाता था. वैसे भी, कुश्ती सस्ता खेल नहीं है. बच्चे को पहलवान बनाना है, तो खुराक में घी, दूध, बादाम शामिल करना होता है, जिस पर जम कर खर्चा होता है. बजरंग पूनिया के बड़े भाई हरेंद्र पूनिया अपने छोटे भाई के खानेपीने का ध्यान रखते थे, उन के लिए बादाम रगड़ते थे. वे ही गांव से दूध, फल, घिसा हुआ बादाम और देशी घी ले कर बजरंग के पास जाते थे. बजरंग पूनिया के छत्रसाल स्टेडियम में पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही भारतीय पहलवान योगेश्वर दत्त की निगाह उन पड़ गई थी और उन्होंने शुरुआत में ही बजरंग को अपने अंडर में ले लिया. उन की ट्रेनिंग शुरू की, दांवपेंच सिखाए और आर्थिक मदद भी की. यही वजह है कि बजरंग हमेशा योगेश्वर का नाम लेते हैं.

-पी वी सिंधु : बैडमिंटन में कांस्य पदक : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी पी वी सिंधु ने चीन की खिलाड़ी ही बिंग जियाओ को हरा कर कांस्य पदक अपने नाम किया. इस के साथ ही वे लगातार 2 बार ओलिंपिक खेलों में पदक जीतने वाली भारत की पहली महिला बन गईं. पी वी सिंधु की मां पी विजया ने इस जीत पर कहा, ‘‘मैं बेहद खुश हूं कि मेरी बेटी ने कांस्य पदक अपने नाम किया है. सैमीफाइनल मुकाबला हारने के बाद वह काफी दुखी थी. हम ने उस से बात की और उस का हौसला बढ़ाया. वह गोल्ड मिस कर गई, लेकिन कांस्य भी गोल्ड के बराबर ही है.’’ 5 जुलाई, 1995 को हैदराबाद में जन्मी पी वी सिंधु के पिता और माता दोनों वौलीबौल खिलाड़ी रहे हैं. उन के पिता पी वी रमना ने एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है. पी वी रमना साल 1986 के एशियाई खेलों में कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय वौलीबाल टीम का हिस्सा थे. साल 2000 में उन्हें ‘अर्जुन अवार्ड’ से सम्मानित किया गया था. वे भारतीय रेलवे के पूर्व कर्मचारी हैं. पी वी सिंधु की मां पी विजया भी भारतीय रेलवे की कर्मचारी हैं. खेल पृष्ठभूमि से आने के कारण पी वी सिंधु को खेलों में अपना कैरियर बनाने के लिए मातापिता के समर्थन की कोई कमी न थी. साल 2008 में जब पुलेला गोपीचंद ने अपनी अकादमी खोली थी, तो वह पी वी सिंधु के घर से लगभग 35 किलोमीटर दूर थी, लेकिन उन के मातापिता अपनी बेटी को ट्रेनिंग के लिए तैयार करने के लिए सुबह 4 बजे उठ जाते थे और यह सिलसिला बरसों तक चलता रहा. पी वी सिंधु साल 2016 में हुए रियो ओलिंपिक खेलों में गोल्ड मैडल जीतने के बहुत करीब थीं, लेकिन वे फाइनल मुकाबले में स्पेन की बैडमिंटन खिलाड़ी कैरोलिना मारिन से 21-12 और 20-15 से हार गई थीं. बैडमिंटन खिलाड़ी पी वी सिंधु को उन की उपलब्धियों के लिए ‘राजीव गांधी खेलरत्न अवार्ड’ के अलावा ‘पद्मश्री अवार्ड’ और ‘अर्जुन अवार्ड’ से भी नवाजा जा चुका है.

पुरुष हौकी टीम : कांस्य पदक विजेता मनप्रीत सिंह : पंजाब के जालंधर जिले के गांव मिट्ठापुर के रहने वाले भारतीय हौकी टीम के कप्तान मनप्रीत सिंह आज ऊंचे मुकाम पर हैं, पर एक दौर ऐसा था जब उन के पास हौकी खरीदने तक के पैसे न थे. वहीं, एक अफवाह ने उन की जिंदगी को जबरदस्त मोड़ दिया था. इस बारे में मनप्रीत सिंह की मां मंजीत कौर बताती हैं कि उन के पति साल 1992 में अकेले दुबई गए थे. साल 1995 में उन के पति को किसी ने ?ाठी खबर दे दी कि पंजाब में उन की पत्नी और उन के बच्चों का किसी ने कत्ल कर दिया है. यह बात सुनते ही उन के पति सदमे में आ गए और मौके पर ही दम तोड़ दिया. बस, यहीं से पूरा परिवार सड़क पर आ गया था. पर मां मंजीत कौर ने हिम्मत न हारी और अपने 3 बच्चों के पालनपोषण की जिम्मेदारी निभाने लगीं. इस के लिए उन्होंने पशुओं को चारा डालने और महिलाओं के कपड़े सिलने का काम किया.

सिमरनजीत सिंह : पंजाब के रहने वाले सिमरनजीत सिंह के पिता जब खेत में हल चलाते थे, तब उन्होंने महज 8 साल की उम्र में हौकी स्टिक थाम ली थी. सिमरनजीत सिंह ने पंजाब के बटाला जिले के गांव चाहल कला के एक परिवार में जन्म लिया था. उन के पिता इकबाल सिंह खेतीबारी किया करते थे, जबकि उन की मां मनजीत कौर घर का कामकाज संभालती थीं. जब 8 साल के सिमरनजीत सिंह को पिता ने हौकी खेलते देखा तो बिना पैसों की परवा किए अपने बेटे को ट्रेनिंग दिलाने के लिए हरियाणा के शाहबाद हौकी स्टेडियम भेजा. कड़ी मेहनत और लगन के दम पर सिमरनजीत सिंह का सलैक्शन साल 2016 में जूनियर वर्ल्ड कप में हुआ था, जहां उन्होंने बैल्जियम की टीम के सामने खेलते हुए चैंपियनशिप के फाइनल मैच में 2-1 से भारत को जीत दिलाने में बेहतरीन प्रदर्शन किया था.

पी आर श्रीजेश : पी आर श्रीजेश का जन्म 8 मई, 1986 को केरल के एर्णाकुलम जिले के कि?ाक्कंबालम गांव के एक किसान परिवार में हुआ था. आज उन्हें बेहतरीन गोलकीपर होने के चलते ‘दीवार’ कहा जाता है. टोक्यो ओलिंपिक में श्रीजेश के शानदार प्रदर्शन से उन के पिता पी वी रवींद्रन की खुशी का ठिकाना नहीं है. एक इंटरव्यू में पी वी रवींद्रन ने बताया, ‘एक गांव में रहते हुए हौकी खेलने के लिए ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं. मैं एक किसान हूं और ज्यादा कमाता नहीं हूं. उन दिनों, एक गोलकीपर की किट की कीमत 10,000 रुपए होती थी और हम इसे नहीं खरीद सकते थे. हम ने किसी तरह इधरउधर से पैसे इकट्ठे किए, किट के लिए हमें अपनी गाय भी बेचनी पड़ी थी. आज श्रीजेश अपनी कड़ी मेहनत के दम पर ही इस मुकाम पर पहुंचा है.’

सुरेंदर कुमार : भारत को कांस्य पदक दिलाने वाली टीम के खिलाडि़यों में से एक सुरेंदर कुमार की जिंदगी की कहानी रोमांच से भरी है. उन की मां ने एक इंटरव्यू में बताया कि सुरेंदर कुमार 6ठी क्लास में थे जब उन्होंने हौकी खेलना शुरू किया था. तब उन्होंने सुरेंदर से कहा था कि तुम हौकी में कुछ नहीं कर पाओगे. पिता ने तो हौकी स्टिक दिलाने से इनकार कर दिया था. इस के बाद सुरेंदर के एक पड़ोसी पुरषोत्तम ने उन्हें 500 रुपए की हौकी स्टिक खरीद कर दी थी. सुरेंदर की मां ने बताया कि उन्होंने अपने लिए चीजों में कमी जरूर की लेकिन कभी बच्चे के खेल के लिए किसी चीज की कमी नहीं होने दी. आज बेटे ने कर्ज चुका दिया और पूरे देश को खुशी दे दी. देश के लिए पदक ले कर लौटे सुरेंदर कुमार को उन के पिता मलखान सिंह नए मकान का तोहफा देंगे. तैयार किए जा रहे नए मकान में 2 जगह ओलिंपिक के 2 चिह्न भी लगाए गए हैं. इस से पहले सुरेंदर का परिवार छोटे से मकान में रह रहा है.

अमित रोहिदास : 28 साल के अमित रोहिदास ने राष्ट्रीय टीम की तरफ से 97 मैच खेले हैं. वे ओडिशा के सुंदरगढ़ में उसी गांव के रहने वाले हैं जहां 3 बार के ओलिंपियन और भारतीय हौकी टीम के कप्तान रह चुके दिलीप टिर्की का जन्म हुआ था. अमित रोहिदास ने बताया, ‘‘उन्होंने (दिलीप टिर्की) हम कई गांव वालों को हौकी खेल से जुड़ने के लिए प्रेरित किया. मैं जिस क्षेत्र का रहने वाला हूं वहां के लिए हौकी एक खेल ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक विकास का साधन भी है. मैं ओडिशा का पहला गैरआदिवासी हौकी ओलिंपियन हूं.’’ रोहिदास ने 2013 में मलयेशिया में हुए सुलतान अजलान शाह कप से डैब्यू किया था. वे 2013 एशिया कप में रजत पदक जीतने वाली टीम का हिस्सा थे. सौनामारा में अमित रोहिदास का परिवार सुबह से ही अपने टैलीविजन पर इस उम्मीद में बैठा था कि भारतीय टीम हौकी में पदक जीतेगी और उस के पिता के सपने को पूरा करेगी. ‘‘हमारे पिता की किडनी फेल होने से पिछले साल अक्तूबर में तब उन की मौत हो गई थी जब अमित बैंगलुरु में कैंप में थे. वे कुछ दिनों के लिए पिता के अंतिम संस्कार के लिए वापस आए और दोबारा शिविर में शामिल हो गए. हमारे पिता की इच्छा थी कि किसी दिन अमित भारतीय टीम को भारत के लिए पदक जीतने में मदद करें. अगर वे जीवित होते, तो बहुत खुश होते,’’ यह बात अमित के बड़े भाई निरंजन रोहिदास ने बताई.

-विवेक सागर प्रसाद : मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक छोटे से गांव चांदौन के खिलाड़ी विवेक सागर प्रसाद के पिता रोहित प्रसाद सरकारी प्राइमरी स्कूल गजपुर में शिक्षक हैं. मां कमला देवी गृहिणी और बड़ा भाई विद्या सागर सौफ्टवेयर इंजीनियर है. इस के अलावा 2 बहनें पूनम और पूजा हैं. पूनम की शादी हो चुकी है और पूजा पढ़ाई कर रही है. विवेक सागर प्रसाद के पिता बताते हैं कि वे तो विवेक को हमेशा से इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन उसे तो हौकी प्लेयर ही बनना था. विवेक की मां कमला देवी बताती हैं कि बेटे की पिटाई न हो, इस के लिए कई बार उसे उस के पिता से ?ाठ बोलना पड़ा. वह घर नहीं आता तो वे कह देतीं कि वह सब्जी लेने गया है, फिर चुपके से बहन पूजा दूसरे दरवाजे से घर में बुला लेती. भाई विद्यासागर के मुताबिक, जब दोस्तों ने कहा कि विवेक टैलेंटेड है और खूब आगे जाएगा तो उन्होंने अपने पापा को हौकी खेलने के लिए मनाया. –

हरमनप्रीत सिंह : हरमनप्रीत सिंह फुटबौल खिलाडि़यों के परिवार से हैं. उन के पिता सतनाम सिंह पंजाब पुलिस के लिए खेलते थे, जबकि उन के चाचा जेसीटी फगवाड़ा के लिए खेलते थे, जिस में उन्होंने प्रतिष्ठित डूरंड कप जीता था. द्य गुरजंत सिंह : गुरजंत सिंह के परिवार में तो कोई हौकी नहीं खेलता था, पर उन के ननिहाल में जरूर इस खेल का काफी प्रभाव था. वे जब अपने ननिहाल बटाला जाते थे, तो वहां अपने भाइयों को खेलते देखते थे. एक बार वे वहां गए और 3 महीने वहीं रह कर हौकी खेली. इस के बाद वे अपने ममेरे भाई की मदद से चंडीगढ़ की एकेडमी में ट्रेनिंग लेने चले गए. वहां वे स्कूल जाते थे और फिर आ कर ट्रेनिंग करते थे. हालांकि वहां कोई टर्फ नहीं था.

सुमित वाल्मीकि : हौकी खिलाड़ी सुमित वाल्मीकि के पिता प्रताप सिंह सुमित अपने परिवार की संघर्ष की कहानी बताते हुए कहते हैं कि उन के बेटे ने जीजान लगा कर मेहनत की है. सुमित को खिलाड़ी बनाने के लिए उन के दोनों बड़े बेटों ने होटल में मजदूरी की. सुमित के बड़े भाई जय सिंह बताते हैं कि 6 माह पहले उन की माता का देहांत हो गया था. अपनी मां के ?ामके से सुमित ने लौकेट बनवाया और उस में मां का फोटो लगवा रखा है. जब वह ओलिंपिक में गया था तो कह कर गया था कि मां मेरे साथ है और अब की बार हम मैडल जरूर ले कर आएंगे. सुमित की जिद और जनून ने उन को इस मुकाम तक पहुंचाया है. एक ऐसा भी वक्त था जब घंटों कड़ा अभ्यास करने के बाद सूखी रोटी खानी पड़ी. कई बार रोटी पर लगाने के लिए घर में घी तक न होता था. एक वक्त था जब जूते न होने की वजह से सुमित हौकी ग्राउंड से पलट कर वापस घर की ओर चल दिए थे. कोच उन की बेबसी सम?ा गए और जूते देने का वादा कर ग्राउंड पर आने को कहा.

नीलकांत शर्मा : नीलकांत के पिता पंडित थे. उसी की कमाई से उन का घर चलता था. नीलकांत ने बचपन में ही तय कर लिया था कि वे हौकी खेलेंगे, लेकिन यह आसान नहीं था. फुटबौल की लोकप्रियता के कारण हौकी को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता था. ग्राउंड पर अभ्यास के लिए उन्हें केवल वही समय मिलता था जब फुटबौल वाले खिलाड़ी नहीं खेला करते थे. इस सब के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी. साल 2003 में उन्होंने पीएचएम एकेडमी में जा कर ट्रेनिंग की. द्य रुपिंदर पाल सिंह : रुपिंदर पाल के पिता हरिंदर सिंह फरीदकोट के सरकारी बृजेंद्रा कालेज के पास खेल के सामान की दुकान चलाते थे. वे भी स्कूल व कालेज के समय में हौकी खेलते थे. रुपिंदर की फिरोजपुर के प्रसिद्ध हौकी ओलिंपियन परिवार के सदस्य हरमीत सिंह, अजीत सिंह व गगन अजीत सिंह के साथ भी रिश्तेदारी है. रुपिंदर पाल सिंह ने तकरीबन 6 साल की उम्र में फिरोजपुर में संचालित शेरशाह वली हौकी अकादमी में प्रशिक्षण लेना शुरू किया था. आज वे टीम इंडिया के अलावा इंडियन ओवरसीज बैंक के लिए खेलते हैं और इस में नौकरी भी करते हैं.

हार्दिक सिंह : हार्दिक सिंह के पिता वरिंदरप्रीत सिंह पंजाब पुलिस में बतौर एसपी (आपरेशन), जिला बटाला में कार्यरत हैं. वे भी भारतीय टीम के लिए खेल चुके हैं. इस के अलावा हार्दिक सिंह के दादा प्रीतम सिंह भी भारतीय नौसेना के हौकी कोच थे. हार्दिक अपने चाचा और पूर्व भारतीय ड्रेगफ्लिकर जुगराज सिंह को अपना गुरु मानते हैं. उन की चाची राजबीर कौर भी भारत के लिए इंटरनैशनल लैवल पर खेल चुकी हैं. राजबीर कौर के पति गुरमेल सिंह ने 1980 के ओलिंपिक में भाग लिया था, जिस में भारत ने स्वर्ण पदक जीता था.

शमशेर सिंह : शमशेर सिंह मानते हैं कि कठिन परिस्थितियों ने उन्हें जीवन की अनिश्चितताओं के लिए अच्छी तरह तैयार किया है. उन के अनुसार, ‘‘मैं ने बहुत मुश्किल परिस्थितियां देखी हैं. मेरे पिता खेती से आजीविका कमाते थे. हौकी में शुरुआती दिनों में मैं ने कई तरह की परेशानियों का सामना किया जिन में मु?ो आधारभूत चीजों, जैसे स्टिक, किट और जूतों के लिए जू?ाना पड़ा.’’ द्य ललित कुमार उपाध्याय : उत्तर प्रदेश से निकल कर ललित कुमार उपाध्याय टोक्यो पहुंचे. ललित के गांव के हर घर में एक हौकी खिलाड़ी है. वे वाराणसी के शिवपुर क्षेत्र के गांव भगतापुर के एक अतिमध्यम परिवार से हैं. इन के पिता सतीश ने छोटी सी कपड़े की दुकान चला कर बेटे के सपनों को जिंदा रखा. यूपी कालेज में कोच परमानंद मिश्रा ने ललित को हौकी का ककहरा सिखाया. उन का चयन 2018 में राष्ट्रीय हौकी टीम में हुआ. द्य बिरेंद्र लाकरा : ?ारखंड के सिमडेगा में जन्मे बिरेंद्र लाकरा एक आदिवासी परिवार से हैं. शुरुआती प्रैक्टिस घर में करने के बाद उन्होंने सेल हौकी एकेडमी में दाखिला लिया. इस के बाद इन्होंने प्रोफैशनल हौकी में कदम रखा. बिरेंद्र के भाई बिमल जहां इंडियन हौकी टीम में मिडफील्डर के तौर पर रहे, वहीं बहन असुंता लाकरा इंडियन महिला हौकी टीम की कप्तान रहीं. बिरेंद्र लाकरा फिलहाल हौकी इंडिया लीग में रांची रायनोज के लिए खेलते हैं. रांची रायनोज को कुछ समय पहले ही लीग में जोड़ा गया है. इस टीम के मालिकों में भारत के क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धौनी का नाम भी शामिल है.

संपादकीय

 देश में अब कोई सरकार बची है, ऐसा लगता नहीं है. सरकार है का ढोल तो मीलों तक सुनाई देता है पर बारात कहां है, पता नहीं. सरकार अगर होती तो देश में इस तरह की हताशा नहीं होती. जिस के पास नौकरी है वह भी डरा हुआ है, जिस के पास नहीं वह तो मरा हुआ ही है. कोविड का कहर कम हो गया है पर मंहगाई की डायन और बढ़ती बेरोजगारी पर सरकारी प्रवचन तो हैं पर ठोस कुछ नहीं हो रहा है.

हां फर्राटेदार गाडिय़ां भगाने के लिए चौड़ी सडक़े बन रही हैं, आलीशान हवाई अड्डे बन रहे हैं, नया संसद भवन बन रहा है, नएनए नामों से कार्यक्रम भेजे जा रहे हैं पर कुछ हो रहा है, ऐसा दिखता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट इस का उदाहरण है कि हर रोज उन्हें सरकारी वकीलों का फटकारने पड़ रहा है. आज मीडिया और विपक्ष की हिम्मत तो नहीं हो रही कि कुछ कह सके.

सरकार न किसानों के मामले को सुलझा पा रही है और न लोगों के फोन सुनने पर सफाई देने लायक बन पा रही है. सरकारी बंधन तो बेमतलब के होते हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबेलंबे भाषणों में प्रवचन ही देते हैं जो वैसे ही लोकल पंडितों से लोग सुनसुन कर थक चुके हैं.

उत्तर प्रदेश के चुनावों की आहट होने लगी है तो भारतीय जनता पार्टी के पिछड़ों का ख्याल आया है और रोजाना भाषाओं या कानूनों में पिछड़ों के हिमायती बनने का ढोंग रचा जाता है पर एक भी कायदे का पिछड़ा नेता पार्टी में उभर नहीं रहा, एक भी पिछड़े के पास अपने फैसले लेने लायक मंत्रालय है. दलितों व मुसलमानों को तो भाजपा गिनती ही नहीं है.

उस का ख्याल है जब तक 10 फीसदी ऊंची जातियों के और 50 फीसदी पिछड़े ओबीसी उन के साथ हैं. उन्हें अछूत दलितों और विधर्मी मुसलमानों की सोचने की जरूरत नहीं है. इन की हालत हर रोज खराब हो रही है. 80 करोड़ लोगों को तो अनाज देना पड़ रहा है ताकि वे मर न जाएं बाकि लोगों के वोटों से जीत का हिसाब किताब ही सुहाता है.

परेशानी यह है कि किसी भी देश की असली खुशहाली सब से नीचे के तबके से शुरू होती है. वह पढ़ेलिखे हुनर अपनाए, उस के हाथ में 4 पैसे आएं. वह ऊंचे सपने देखे तो ही देश चमकता है. अमेरिका एक जमाने में बंजर था पर पानी के जहाजों में जो भगोड़े यूरोप से गए उन्होंने जीजान से मेहनत की और देश आज 100 साल से खुशहाल है. चीन पिछले 20-25 सालों में गरीबी खत्म कर चुका है. यूरोप लड़ाइयों में सब कुछ जलवा कर भी आज सब के लिए अजूबा है.

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