प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि दुनियाभर में देखी जा रही है. अमेरिका और रूस के जंगलों में भयानक आग दहक रही है और पश्चिमी यूरोप के हिस्से विनाशकारी बाढ़ से प्रभावित हैं. इन में अब तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. स्विट्जरलैंड, लक्जमबर्ग और नीदरलैंड्स ने भी भारी बारिश की मार ?ोली है. मध्य चीन के कुछ हिस्सों में मूसलाधार बारिश के कारण भयंकर बाढ़ आई हुई है. हेनान प्रांत में अभूतपूर्व बारिश से हालात बिगड़ गए हैं. हेनान की राजधानी ?ोंग?ाउ में बाढ़ के कारण 60 से ज्यादा जानें जा चुकी हैं. यह चीन में 1,000 वर्षों में हुई अब तक की सब से भारी बारिश है.

इटली, रोमानिया जैसे देशों में आबादी को भंयकर गरमी की मार पड़ रही है. कनाडा जैसा ठंडा क्षेत्र गरमी की मार ?ोल रहा है. पिछले वर्ष यूरोप में गरमी से करीब एक लाख 40 हजार लोग प्रभावित हुए थे. आने वाले वक्त में परिस्थितियां और भी ज्यादा बुरी होंगी. बीते साल अमेरिका में कैलिफोर्निया के जंगल आग की ऊंचीऊंची लपटों में घिरे रहे. आग तब भड़की जब पश्चिम में तापमान अत्यधिक बढ़ गया. आजकल अमेरिकी राज्य ओरेगन के जंगलों में आग लगी हुई है. इसे देश की सब से भयावह आग बताया जा रहा है. इस आग की चपेट में जंगल की 3 लाख एकड़ जमीन आ चुकी है.

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अमेरिका के अलगअलग 13 राज्यों में 80 जगहों पर आग लगी है. हीटवेव और तेज हवाओं के कारण लगी आग पर काबू पाना मुश्किल हो रहा है जो स्थिति को खतरनाक बनाता जा रहा है. आस्ट्रेलिया के लिए जंगलों में भी आग लगना कोई नई बात नहीं है. बढ़ते तापमान और सूखे की वजह से आस्ट्रेलिया के अलगअलग हिस्सों के जंगलों में कई बार आग भड़क चुकी है. बीते साल करीब 5 महीने तक जलती रही आग में 50 करोड़ से ज्यादा जानवरों की मौत हुई है. आग कितनी भयावह थी इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस आग से एक लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जल कर राख हो गया. वहीं, जरमनी के पश्चिमी और दक्षिणी हिस्से बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं और वहां 160 से ज्यादा लोग अब तक बाढ़ के कारण जान गंवा चुके हैं. सौ से ज्यादा लोग लापता हैं.

जरमनी की चांसलर एंजेला मार्केल भीषण बाढ़ की त्रासदी से अपने लोगों को बचाने व उन की हिम्मत बढ़ाने के लिए लगातार बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर रही हैं. उन का कहना है कि 700 सालों में यह जरमनी में सब से बुरी बाढ़ है. बेल्जियम में भी बाढ़ की चपेट में आ कर 31 लोगों की मौत हुई है और सैकड़ों लापता हैं. दुनिया का कोई भी कोना ऐसा नहीं बचा है जहां मौसम के मिजाज में परिवर्तन न हो रहा हो. कहीं धीमे तो कहीं बहुत तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है जिस के चलते जीवजंतु, वनस्पति, मनुष्य और पक्षी सभी प्रभावित हैं. वजह है ग्लोबल वार्मिंग ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ है ग्रीनहाउस गैसों (कार्बन मोनोऔक्साइड, कार्बन डाइऔक्साइड और मीथेन) के कारण पृथ्वी के औसत तापमान में बढ़ोतरी होना. इसे सब से पहले न्यूजर्सी के साइंटिस्ट वैली ब्रोएक्केर ने परिभाषित किया था.

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ये गैसें वाहनों, कारखानों और अन्य कई स्रोतों से उत्सर्जित होतीं हैं. ये खतरनाक गैसें पृथ्वी के वातावरण में मिल कर तापमान में वृद्धि कर रही हैं. आज हमारी धरती ताप युग के जिस मुहाने पर खड़ी है, उस विभीषिका का अनुमान काफी पहले से ही किया जाने लगा था. इस तरह की आशंका सर्वप्रथम 20वीं सदी के प्रारंभ में आर्हीनियस एवं थौमस सी चेम्बरलीन नामक 2 वैज्ञानिकों ने की थी. किंतु इस का अध्ययन 1958 से ही शुरू हो पाया. तब से कार्बन डाइऔक्साइड की सघनता का विधिवत रिकौर्ड रखा जाने लगा. भूमंडल के गरमाने के ठोस सुबूत 1988 से मिलने शुरू हुए.

नासा के गोडार्ड इंस्टिट्यूट औफ स्पेस स्टडीज के जेम्स ईण्हेन्सन ने 1960 से ले कर 20वीं सदी के अंत तक के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाला है कि इस बीच धरती का औसत तापमान 0.5 से 0.7 डिग्री सैल्सियस बढ़ गया है. भारत में सैंटर फौर साइंस एंड एनवायरनमैंट के सीनियर डायरैक्टर सुपर्णो बनर्जी कहते हैं, ‘‘ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर जलवायु बहुत तेजी से गरम हो रही है जिस का पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. जलवायु परिवर्तन से जगहजगह तूफान, बाढ़, जंगलों में आग, सूखा और लू के खतरे, उष्णकटिबंधीय चक्रवात बढ़ते ही जा रहे हैं.

इस के अलावा वन्य जीवों का विलुप्त होना, जीवों के आचरण में बदलाव, उन के प्रवास स्थलों का बदलना जैसी बातें सामने आ रही हैं.’’ सुपर्णो बनर्जी आगे कहते हैं, ‘‘वातावरण में गरमी बढ़ने पर वायुमंडल समुद्रों से अधिक पानी एकत्र कर लेता है जिस के कारण भयंकर बारिश और सैलाब का मंजर पैदा होता है. दूसरी ओर, ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र के जलस्तर में लगातार वृद्धि हो रही है. यह वृद्धि 2 तरीकों से हो रही है. एक ओर गरम तापमान के कारण ग्लेशियर और भूमि आधारित बर्फ की चादरें पिघल रही हैं और यह पानी समुद्र में जा रहा है. ‘‘दूसरी ओर, ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्री सतह का तापमान भी बढ़ रहा है क्योंकि पृथ्वी के वातावरण की अधिकांश गरमी समुद्र द्वारा अवशोषित होती है.

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गरम समुद्री सतह के कारण तूफान का बनना आसान हो जाता है. तूफान से वर्षा की दर बढ़ती है जिस से दुनियाभर में सैलाब की त्रासद घटनाएं हो रही हैं. ‘‘धरती के जो हिस्से समुद्र के किनारे हैं वे धीरेधीरे पानी में समा रहे हैं. बंगाल के सुंदरवन के डेल्टा के आसपास के द्वीप डूब रहे हैं. ओडिशा के तटीय गांव डूब गए हैं और सरकार गांव वालों से उस डूबी भूमि का भूटैक्स चार्ज कर रही है जो गांव हैं ही नहीं. यही हाल कोलकाता, मुंबई और चेन्नई आदि का होने वाला है.’’ सिकुड़ते ग्लेशियर पृथ्वी पर लगभग एक लाख 98 हजार ग्लेशियर हैं जो करीब 7 लाख 26 हजार स्क्वायर किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं. हमारी जलवायु काफी हद तक ग्लेशियरों पर निर्भर करती है तो वहीं साफ पानी का सब से बड़ा स्रोत ग्लेशियर ही हैं.

ग्लोबल वार्मिंग के कारण ये ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं और इस के भयावह परिणाम दुनियाभर में नजर आने लगे हैं. आइसलैंड के सब से प्राचीन ग्लेशियरों में से एक ‘ओकजोकुल ग्लेशियर’ पूरी तरह सूख चुका है. 700 साल से ज्यादा पुराने उस ग्लेशियर से ग्लेशियर का दर्जा तक ले लिया गया है. यह असर जलवायु परिवर्तन के कारण ही हुआ. 2 अगस्त, 2019 को आइसलैंड के इतिहास में एक दिन में सब से ज्यादा व तेज बर्फ पिघलने की घटना दर्ज की गई थी. उस दिन वहां 24 घंटे में 12.5 बिलियन टन बर्फ की चादर पिघल गई. ‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, आर्कटिक की बर्फ समय से पहले पिघल रही है और वसंत के दौरान पौधों में पत्ते जल्दी आ रहे हैं. साथ ही, टुंड्रा वनस्पति नए क्षेत्रों में फैल रही है. एक तरह से आर्कटिक में तेजी से तापमान में बदलाव आ रहा है. इस से हरियाली को पनपने में मदद मिल रही है. नासा की सैटेलाइट तसवीरें बताती हैं कि अंटार्कटिका में बर्फ की चादर के नीचे 130 ?ालों का निर्माण हो चुका है.

वहां बर्फ का रंग बदल रहा है. उन इलाकों में समुद्री एल्गी उग रही है जिस से बर्फ का रंग हरा पड़ने लगा है. वैज्ञानिक ग्रीनलैंड को ले कर भी चेतावनी जारी कर चुके हैं. उन का कहना है कि यदि जलवायु परिवर्तन ऐसे ही जारी रहा तो एक दिन ग्रीनलैंड केवल घास का मैदान बन कर रह जाएगा. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वैंशन 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग की वजह से वर्ष 2100 तक 80 फीसदी ग्लेशियर पिघल कर सिकुड़ सकते हैं और समुद्र का स्तर 2100 तक 2000 के स्तर से 8 फुट से अधिक बढ़ सकता है. भारत में जलवायु परिवर्तन हिमालयी ग्लेशियरों को निगल रहा है. ये ग्लेशियर हिमालय के क्षेत्र में पश्चिम से पूर्व की ओर 2,000 किलोमीटर के दायरे में फैले हुए हैं जो बढ़ते तापमान के कारण 21वीं सदी की शुरुआत की तुलना में आज दोगुनी तेजी से पिघल रहे हैं.

लगभग 4 दशकों में इन ग्लेशियरों ने अपना एकचौथाई घनत्व खो दिया है. ग्लोबल वार्मिंग के कारण ये ग्लेशियर पतली चादर में परिवर्तित हो रहे हैं और उन में टूटफूट हो रही है. गंगोत्री ग्लेश्यिर, जहां से भारत की सब से बड़ी नदी गंगा का उद्गम होता है, तेजी से पिघल रहा है. गंगोत्री ग्लेशियर प्रतिवर्ष 30 मीटर की दर से सिकुड़ रहा है. यह एक भयावह अनुमान है कि वर्ष 2030 तक गंगा सूख सकती है. गौरतलब है कि उत्तराखंड की कोसी नदी पहले ही सूख कर ‘वैश्विक तापमान’ की व्यथा अभिव्यक्त कर रही है. देश के विभिन्न क्षेत्रों में भूजल स्तर में तीव्र गिरावट दर्ज की जा रही है जिस के कारण खेती के लिए सिंचाई व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लग गया है. पानी के अभाव में खेती घाटे का सौदा बन गई है. हाल ही में सेडार ने भी एक रिसर्च कर बताया था कि हिंदूकुश हिमालय तेजी से सिकुड़ रहा है. इस से ‘इंडियन हिमालयन रीजन’ सहित 8 देशों में जल संकट गहरा सकता है.

भारत, चीन, नेपाल और भूटान जैसे देशों के करोड़ों लोग सिंचाई, जल विद्युत और पीने के पानी के लिए हिमालय के ग्लेशियरों पर निर्भर हैं. इन ग्लेशियरों के पिघलने से आने वाले वक्त में इस पूरे क्षेत्र के जलतंत्र और यहां रहने वाली आबादी का जीवन प्रभावित हो सकता है. हाल के शोध में पता चला है कि दुनियाभर में ऊंचाई वाले ग्लेशियल ?ालों की संख्या और आकार में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. दुनिया में बाढ़ के सब से बड़े खतरों में से एक ग्लेशियरों के पिघलने से बनी ?ालों को माना जाता है. इन ?ालों के टूटने से भारी तबाही होती है. तेज गति में ऊंचाई से आता पानी रास्ते में आने वाले गांव, जंगल, शहर सब तबाह करता हुआ समुद्रों में जा गिरता है जिस के कारण समुद्र का आयतन और जलस्तर खतरनाक स्तर तक बढ़ जाता है.

भारत के उत्तराखंड के चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने के बाद हुई त्रासदी और 16 जून, 2013 की केदारनाथ आपदा, जिस ने उत्तराखंड को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, की भयावहता आज भी लोगों के रोंगटे खड़े कर देती है. आसमानी आफत ने केदार घाटी समेत पूरे उत्तराखंड में बरबादी के वे निशान छोड़े जिन्हें अब तक नहीं मिटाया जा सका है. आपदा को 8 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन आज भी यह सवाल जिंदा है कि क्या उस त्रासदी से आम जनमानस और हमारी सरकारों ने कोई सबक लिया है? पिघलती बर्फ बढ़ते खतरे जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता को सम?ाने के लिए बर्फ के सब से बड़े भंडारों की परिस्थितियों को देखना और सम?ाना होगा. दुनिया में बर्फ के सब से बड़े भंडार अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड में हैं. इन का पर्यावरण ही दुनिया की जलवायु परिवर्तन का सूचक है. ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका के ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार यदि ग्रीनलैंड की पूरी बर्फ पिघली तो समुद्र स्तर में 8 मीटर तक की बढ़ोतरी होगी और मालदीव, मुंबई जैसे अनेक शहर समुद्र के पानी में डूब जाएंगे.

वर्ष 2100 तक 23 डिग्री अक्षांश पर स्थित समुद्रों के पानी के तापमान में 3 डिग्री सैंटीग्रेड की वृद्धि होगी. तापमान की वृद्धि के कारण वर्ष 2080 तक पश्चिमी पैसिफिक महासागर, हिंद महासागर, पर्शिया की खाड़ी, मिडिल ईस्ट और वैस्टइंडीज द्वीप समूहों की कोरल रीफ के 80 से 100 प्रतिशत तक लुप्त होने का खतरा है. अम्लीय पानी के असर से ठंडे पानी की कोरल रीफ और खोल वाले समुद्री जीवों के अस्तित्व को खतरा बढ़ रहा है. समुद्र में औक्सीजन की कमी वाले क्षेत्रों की संख्या बढ़ रही है. यह संख्या 149 से बढ़ कर 200 हो गई है. इस बदलाव के कारण इन क्षेत्रों में मछलियों की पैदावार कम हो गई है. ग्लोबल वार्मिंग के कारण बदलती जलवायु के प्रभाव पर गहरी नजर रखने वाले पर्यावरणविद सुपर्णो बनर्जी के मुताबिक जलवायु में यह बदलाव दुनिया को कई तरह से प्रभावित कर रहा है. उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन के भयंकर प्रभाव के चलते मनुष्य अपनी जगहों से बहुत तेजी से विस्थापित हो रहे हैं. वर्ष 2020 की पहली छमाही में लगभग 10 मिलियन लोग बड़े पैमाने पर जलवायु आपदाओं के कारण विस्थापित हुए थे.

पशुपक्षी और पौधे बदलती परिस्थितियों के अनुकूल होने की सख्त कोशिश कर रहे हैं और जब वे कामयाब नहीं हो पाते तो मर जाते हैं. उदाहरण के लिए, अंटार्कटिका में एडेली पेंगुइन की आबादी उन के आवास से बर्फ के खत्म होने के कारण लगभग 90 प्रतिशत तक गिर गई है. हर साल धरती पर बढ़ रहा है 6 गीगाटन कार्बन सैंटर फौर साइंस एंड एनवायरनमैंट की एक रिपोर्ट कहती है कि पृथ्वी पर हर साल करीब 6 गीगाटन कार्बन बढ़ रहा है जिस का भार इंसानों के भार से 12 गुना ज्यादा है. यह जानकारी हाल ही में चीन के ग्लोबल कार्बन डाइऔक्साइड मौनिटरिंग साइंटिफिक एक्सपैरिमैंटल सैटेलाइट (टैनसैट) द्वारा जारी आंकड़ों में सामने आई है. शुष्क हवा के साथ कार्बन कैसे मिश्रित होता है, इसे सम?ाने के लिए वैज्ञानिकों ने मई 2017 से अप्रैल 2018 तक एकत्रित आंकड़ों का उपयोग करते हुए दुनिया का पहला कार्बन के प्रवाह का डेटासैट और मानचित्र तैयार किया है. इस से जुड़ा शोध 22 जुलाई को ‘एडवांसेस इन एटमौस्फेरिक साइंसेज’ जर्नल में प्रकाशित हुआ है.

इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता यांग डोंगक्सू के अनुसार, ग्रीनहाउस गैसों के आदानप्रदान की प्रक्रिया के दौरान सौ गीगाटन से भी ज्यादा कार्बन का आदानप्रदान जीवधारियों और वनस्पति के बीच होता है. लेकिन धरती पर जिस तरह से कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है उस के कारण हर वर्ष करीब 6 गीगाटन कार्बन वातावरण में जुड़ रहा है, जोकि जलवायु परिवर्तन की वजह बन रहा है. जंगलों के कम होते जाने से अतिरिक्त कार्बन का अवशोषण नहीं हो पा रहा है. खेती को नुकसान जलवायु परिवर्तन से वर्षा आधारित फसलों को अधिक नुकसान हो रहा है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की कम मात्रा से किसानों को सिंचाई हेतु पर्याप्त जल ही उपलब्ध नहीं है. इस के कारण रबी की फसल पर ज्यादा मार पड़ती है. एक अध्ययन के अनुसार, यदि तापमान में 2 डिग्री सैंटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है तो गेहूं की उत्पादकता घट जाएगी.

भारत, जोकि एक कृषि प्रधान देश है, में तापमान के एक डिग्री सैंटीग्रेड बढ़ने पर ही गेहूं के उत्पादन में 4.5 करोड़ टन की कमी हो जाएगी. यही नहीं, वर्ष 2100 तक फसलों की उत्पादकता में 10 से 40 प्रतिशत तक कमी आने से देश की खाद्य सुरक्षा के खतरे में पड़ जाने की प्रबल संभावना है. जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कच्छ और सौराष्ट्र, जो गुजरात के कुल क्षेत्रफल के 25 प्रतिशत तथा राजस्थान के 60 प्रतिशत अंश में फैले हुए हैं, में जल संकट की तसवीर विकराल हो जाएगी जिस के कारण कृषकों की आजीविका पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा. यही नहीं, माही, पेन्नार, साबरमती तथा ताजी नदियों में भी जलभराव की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जबकि दूसरी तरफ गोदावरी, महानदी तथा ब्राह्मणी में ‘भीषण बाढ़’ के हालात पैदा हो जाएंगे. जिस से कृषकों को भारी तबाही का सामना करना पड़ेगा.

बढ़ती जनसंख्या, बढ़ते उद्योगों एवं विध्वंस होते वनों व जंगलों के कारण विश्व बढ़ते तापमान एवं जलवायु परिवर्तन जैसी ज्वलंत समस्याओं से जू?ाता हुआ विनाश की कगार पर खड़ा है. वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण संपूर्ण पृथ्वी में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दिखने लगे हैं. चिंताजनक तथ्य यह है कि 21वीं सदी में तापमान में वृद्धि 3 से 5 डिग्री सैल्सियस होगी जोकि समस्त विश्व के लिए खतरनाक स्थिति होगी. भारत में बाढ़ और लैंडस्लाइड का भयावह रूप ग्लोबल वार्मिंग का असर भारत पर भारी वर्षा, बादल फटने और पहाड़ों के दरकने के रूप में सामने आ रहा है. लोगों के घर, दुकानें, खेत तबाह हो गए हैं. लाखों लोग घर से बेघर हो चुके हैं.

भारत के कई राज्यों में इस बार मानसून की बारिश पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा है जिस के चलते उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मूकश्मीर और सिक्किम से ले कर महाराष्ट्र और बंगाल तक से भयावह दृश्य सामने आए हैं. इन राज्यों में बारिश के साथ लैंडस्लाइड और बादल फटने की घटनाओं में अब तक 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. अकेले महाराष्ट्र में ही 150 से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. सिक्किम में लैंडस्लाइड के कारण एक रेल सुरंग में काम कर रहे तमाम मजदूर बह गए. ममखोला में सेवक-रंग्पो रेल परियोजना पर काम के दौरान सुरंग के आसपास पहाड़ से चट्टानें गिरने लगीं और करीब 10 मजदूर सुरंग में फंस गए. उन का अस्थायी कैंप पानी में बह गया. स्थानीय लोगों ने 3 मजदूरों को रैस्क्यू किया. एक का शव मिला है और बाकियों का कुछ पता नहीं चला.

हिमाचल प्रदेश के सिरमौर में भी भारी भूस्खलन हुआ है. वहां पहाड़ का बहुत बड़ा हिस्सा टूट कर गिरा है, जिस के चलते पांवटा साहिब से रोहड़ू जाने वाला नैशनल हाईवे 707 बड़वास के पास पहाड़ समेत नीचे धंस गया. हादसे के दौरान सड़कों से अनेक वाहन गुजर रहे थे. हालांकि, पहाड़ दरकने की आहट मिलते ही वाहनों को दोनों तरफ से रोक लिया गया. पश्चिम बंगाल में भी भारी बारिश ने कहर बरपाया है. वहां बारिश के कारण पहाड़ों में दरार आने से मलबा सड़कों पर आ गिरा. लैंडस्लाइड के कारण कलिम्पोंग के पास नैशनल हाइवे-10 की सड़क पूरी तरह से बंद हो गई. कोलकाता और हावड़ा शहर में भी भारी बारिश के कारण सड़कें पानी में डूब गईं. इस बार की असामान्य बारिश से सब से ज्यादा नुकसान महाराष्ट्र को हुआ है.

रत्नागिरी समेत 10 जिलों में बारिश के बाद लैंडस्लाइड, मकान गिरने और बाढ़ जैसी घटनाओं से 150 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है. चिपलून जैसे शहर तो बाढ़ में डूब गए. वहीं, मध्य प्रदेश में ग्वालियरचंबल अंचल के 1225 गांव बाढ़ से प्रभावित हुए हैं. करीब 2 हजार लोगों को रैस्क्यू करने में सेना जुटी हुई है. मध्य प्रदेश के ग्वालियरचंबल अंचल के शिवपुरी, श्योपुर, दतिया, भिंड, मुरैना और ग्वालियर बाढ़ से बेहाल हैं. सब से ज्यादा प्रभावित 90 गांव शिवपुरी के हैं. रोजीरोटी की तलाश में अब हजारों लोगों का पलायन शुरू हो गया है. बाढ़ से ग्वालियरचंबल अंचल के 6 बड़े पुल और 2 दर्जन से ज्यादा पुलिया बह गई हैं. इन के बहने से करीब 4 सौ करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है. राजस्थान में भी मानसून कहर बन कर टूट रहा है. कोटा, बूंदी और धौलपुर में बाढ़ ने जनजीवन अस्तव्यस्त कर दिया है. कोटा में हुई 8 इंच बारिश ने 43 साल का रिकौर्ड तोड़ दिया है. इसी तरह उत्तर प्रदेश के भी 9 जिलों में बाढ़ जैसे हालात हैं. विलुप्त होते जीव जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण मानव एवं पशुओं की दिनचर्या एवं जीवनचक्र असंतुलित होता जा रहा है. धरती पर से छोटे जीव निरंतर विलुप्त होते जा रहे हैं और 26 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक वनस्पतियों और प्राणियों का अस्तित्व लगभग समाप्त होने को है.

जीवों के व्यवहार में परिवर्तन धनबाद के जयप्रकाश नगर की वैज्ञानिक डा. सोनल चौधरी ने अपने शोध में पाया है कि बर्फ पिघलने से उत्तरी ध्रुव के भालुओं के व्यवहार में बदलाव आ रहा है. वहां वे अपने बच्चों को मार कर खाने लगे हैं. ध्रुवीय भालू, जो बर्फ छोड़ कर इधरउधर नहीं जाते थे, अब जमीन और पहाड़ों पर चढ़ कर पशुपक्षियों को भी निशाना बना रहे हैं. यही हाल रहा तो धु्रवीय भालू की प्रजाति ही खत्म हो जाएगी या उन के व्यवहार में बड़ा परिवर्तन आएगा. वहीं गरमी बढ़ने से परिंदों के अंडे जल्द परिपक्व हो रहे हैं. फूलों के रंग बदल गए हैं. डा. सोनल ने शोध के लिए उत्तरी ध्रुव पर कई महीने गुजारे हैं. उन का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग से उत्तरी ध्रुव पर तेजी से पारिस्थितिकी परिवर्तन हो रहा है. ठोस पहल न हुई तो 21वीं सदी के खत्म होने के साथ समुद्र का जलस्तर इतना बढ़ जाएगा कि न्यूयौर्क और मुंबई जैसे कई शहर पानी में डूब जाएंगे. दुनिया को बचाने के लिए वातावरण के बढ़ते तापमान को रोकना होगा. कार्बन डाइऔक्साइड व अन्य हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कम कर हरियाली धरती पर बिछानी होगी. वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट औफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) के ताजा शोध के अनुसार हिमालयी बेसिन और मध्य हिमालय में तापमान में वृद्धि के कारण ठंड पसंद करने वाले जानवर ज्यादा ऊंचाई वाले स्थानों में पहुंच गए हैं.

जलवायु परिवर्तन की वजह से जंगली जानवरों के व्यवहार में भी बदलाव हो रहे हैं. मसलन, जो लंगूर गरम इलाकों में रहते थे, वे अब लेह लद्दाख के साथ ही केदारनाथ में भी दिखने लगे हैं. यहां तक कि कई जगह तो 4,876 मीटर या 16 हजार फुट तक भी लंगूर दिखा है. इसी तरह कई जंतु हैं जो पहले निचले इलाकों में ही पाए जाते थे, अब उन में से कुछ ऊंचाई वाले इलाकों में पहुंच चुके हैं. गरमी में निकलते चूहे और सांप ग्लोबल वार्मिंग के कारण आस्ट्रेलिया में चूहों की संख्या अचानक बड़ी तेजी से बड़ी है. अलमारी खोलिए तो चूहा दिखेगा, सड़क पर चूहों की कतारें, खेतों, घरों, गराज यानी हर जगह सिर्फ चूहे ही चूहे हो गए हैं. इतना ही नहीं, इस से ज्यादा बुरी स्थिति उन लोगों की है जिन के घरों में चूहों का आतंक फैला हुआ है. चूहों का मल साफ करने में लोगों को 6-6 घंटे लग रहे हैं. यह सचाई है आस्ट्रेलिया के पूर्वी इलाके की. वहां पर चूहों का आतंक बहुत ज्यादा फैल गया है. सब से बुरी हालत क्वींसलैंड और न्यू साउथ वेल्स की है. आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड और न्यू साउथ वेल्स में तो चूहों की इतनी ज्यादा संख्या हो गई है कि लोगों और प्रशासन के हाथपैर फूल गए हैं.

किसानों, दुकानदारों और गृहिणियों के लिए ये एक बड़ी समस्या बन गए हैं. किसान तो इसे चूहों का प्लेग कह रहे हैं क्योंकि कई दशकों से चूहों की इतनी ज्यादा आबादी यहां के स्थानीय लोगों ने नहीं देखी है. कुछ किसानों की तो पूरी फसल चूहों ने खराब कर दी है. क्वींसलैंड और न्यू साउथ वेल्स के कई होटल बंद कर दिए गए हैं. राशन की दुकानों पर काम करने वालों का कहना है कि वे एकएक रात में 600 चूहों को पकड़ते हैं और चूहों के काटने के कारण लोगों को अस्पताल जा कर इंजैक्शन लगवाने पड़ रहे हैं. इधर जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गरमी के असर से मुंबई में सांप निकलने लगे हैं. धरती के भीतर तापमान बढ़ रहा है जिस के चलते गरमी के कारण जहरीले सांप और बिच्छू बिल से बाहर निकल रहे हैं. यहां आएदिन 5-6 जहरीले सांप पकड़े जा रहे हैं. इस की मुख्य वजह तापमान का लगातार 30-32 डिग्री रहना है. इतने ज्यादा तापमान में सांप बिल और जमीन के अंदर से बाहर निकलने लगते हैं. ठंड के दिनों में सांप अपनी ऊर्जा बचाने के लिए जमीन के भीतर ही रहते हैं. इस समय जमीन का तापमान ज्यादा होने के कारण वे बाहर निकल कर घूमनेफिरने और अपना भोजन तलाशने लगे हैं.

कुछ समय पूर्व पर्यावरण विज्ञान के पितामह जेम्स लवलौक ने चेतावनी दी थी कि यदि दुनिया के निवासियों ने एकजुट हो कर पर्यावरण को बचाने का प्रभावशाली प्रयत्न नहीं किया तो जलवायु में भारी बदलाव के परिणामस्वरूप 21वीं सदी के अंत तक 6 अरब व्यक्ति मारे जाएंगे. संसार के एक महान पर्यावरण विशेषज्ञ की इस भविष्यवाणी को मानवजाति को हलके में नहीं लेना चाहिए. द्य जलवायु शिखर सम्मेलन : ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी करने को तैयार हुई दुनिया अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 22 अप्रैल को जलवायु शिखर सम्मेलन का आयोजन कर जलवायु को एक बार फिर से वैश्विक फलक पर महत्त्वपूर्ण मुद्दे के रूप में स्थापित किया है. साथ ही, सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को जलवायु क्षेत्र में आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए भी बाध्य किया है. अमेरिका ने सम्मेलन के समापन के अवसर पर पेरिस सम?ाता 2015 के आधार पर अपने नए राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) लक्ष्यों को भी घोषित किया. अमेरिका ने अपने नए और दोबारा से तय किए गए एनडीसी लक्ष्यों में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में बड़ी कमी का ऐलान किया है.

नए एनडीसी लक्ष्य के मुताबिक, अमेरिका ने कहा है कि वह वर्ष 2005 के जीएचजी उत्सर्जन स्तर की तुलना में 2030 तक 50 से 52 प्रतिशत की कमी करेगा. इस के अलावा अमेरिका ने साल 2050 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को ‘नेट जीरो उत्सर्जन’ तक पहुंचाने की प्रतिबद्धता भी जाहिर की है. इस सम्मेलन में जापान ने साल 2030 तक जीएचजी के उत्सर्जन के स्तर में 46 प्रतिशत तक की कमी लाने की प्रतिबद्धता जाहिर की. कनाडा ने उत्सर्जन में 30 प्रतिशत कमी लाने तो वहीं यूरोपीय संघ (ईयू) और यूनाइटेड किंगडम (यूके) ने उत्सर्जन को कम करने के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी लक्ष्य की घोषणा की है. जोकि क्रमश: साल 2030 और 2035 तक 1990 के उत्सर्जन स्तर से 55 और 78 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. भारत ने अपने नए एनडीसी लक्ष्यों की घोषणा नहीं की है, क्योंकि भारत का वर्तमान एनडीसी पहले से ही क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर (कैट) के मानक के अनुरूप 2 डिग्री सैल्सियस निर्धारित है. लेकिन भारत ने स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश जुटाने के लिए एक नई भारत-यूएस जलवायु और स्वच्छ ऊर्जा एजेंडा सा?ोदारी 2030 घोषित की है. अमेरिकी राष्ट्रपति, जो बाइडेन का पेरिस सम?ाते को एक बार फिर से स्वीकार करना, अपने व्यक्तव्यों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को केंद्र में रखना और अमेरिकी नौकरियों की योजना के माध्यम से घरेलू संरचनात्मक नीतियों को जलवायु अनुकूल बनाने पर जोर देने के साथ ही अन्य बड़े देशों से संवाद और कूटनीति कायम करना, जलवायु परिवर्तन की दिशा में उठाए जा रहे सराहनीय कदम हैं.

अमेरिका में ऐसा कुछ बेहतर काम डोनाल्ड ट्रंप के विज्ञानविरोधी और जीनोफोबिक गतिविधियों के दुखद 4 वर्षों के बाद हो रहा है. जो बाइडेन की ओर से जलवायु परिवर्तन की दिशा में किए जा रहे प्रयास, पिछले किसी भी राष्ट्रपति के प्रयासों की तुलना में अधिक बड़े और प्रभावशाली हैं. सुपर्णों बनर्जी कहते हैं, ‘‘सभी वैश्विक सम?ातों और वार्त्ताओं का मतलब अच्छा है लेकिन क्या वे वास्तव में उस रिजल्ट को हासिल कर पा रहे हैं जो उन्होंने करने के लिए निर्धारित किया था? पहले के सम?ातों आदि का हश्र हमारे सामने है, जैसे क्योटो प्रोटोकौल और कोपेनहेगन सम?ाता. ‘‘ऐसे समय में जब जलवायु संकट तेज हो रहा है, तब सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को गैस, गरमी, ऊर्जा का उत्सर्जन कम करने की तरफ तेजी से प्रयास करने होंगे, वरना कमजोर प्राणी, मनुष्य, पौधे और नन्हे जीव हमारी पृथ्वी से खत्म हो जाएंगे, जिस का परिणाम पूरी मानवजाति के लिए भयावह होगा.’’

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