देश में अब कोई सरकार बची है, ऐसा लगता नहीं है. सरकार है का ढोल तो मीलों तक सुनाई देता है पर बारात कहां है, पता नहीं. सरकार अगर होती तो देश में इस तरह की हताशा नहीं होती. जिस के पास नौकरी है वह भी डरा हुआ है, जिस के पास नहीं वह तो मरा हुआ ही है. कोविड का कहर कम हो गया है पर मंहगाई की डायन और बढ़ती बेरोजगारी पर सरकारी प्रवचन तो हैं पर ठोस कुछ नहीं हो रहा है.

हां फर्राटेदार गाडिय़ां भगाने के लिए चौड़ी सडक़े बन रही हैं, आलीशान हवाई अड्डे बन रहे हैं, नया संसद भवन बन रहा है, नएनए नामों से कार्यक्रम भेजे जा रहे हैं पर कुछ हो रहा है, ऐसा दिखता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट इस का उदाहरण है कि हर रोज उन्हें सरकारी वकीलों का फटकारने पड़ रहा है. आज मीडिया और विपक्ष की हिम्मत तो नहीं हो रही कि कुछ कह सके.

सरकार न किसानों के मामले को सुलझा पा रही है और न लोगों के फोन सुनने पर सफाई देने लायक बन पा रही है. सरकारी बंधन तो बेमतलब के होते हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबेलंबे भाषणों में प्रवचन ही देते हैं जो वैसे ही लोकल पंडितों से लोग सुनसुन कर थक चुके हैं.

उत्तर प्रदेश के चुनावों की आहट होने लगी है तो भारतीय जनता पार्टी के पिछड़ों का ख्याल आया है और रोजाना भाषाओं या कानूनों में पिछड़ों के हिमायती बनने का ढोंग रचा जाता है पर एक भी कायदे का पिछड़ा नेता पार्टी में उभर नहीं रहा, एक भी पिछड़े के पास अपने फैसले लेने लायक मंत्रालय है. दलितों व मुसलमानों को तो भाजपा गिनती ही नहीं है.

उस का ख्याल है जब तक 10 फीसदी ऊंची जातियों के और 50 फीसदी पिछड़े ओबीसी उन के साथ हैं. उन्हें अछूत दलितों और विधर्मी मुसलमानों की सोचने की जरूरत नहीं है. इन की हालत हर रोज खराब हो रही है. 80 करोड़ लोगों को तो अनाज देना पड़ रहा है ताकि वे मर न जाएं बाकि लोगों के वोटों से जीत का हिसाब किताब ही सुहाता है.

परेशानी यह है कि किसी भी देश की असली खुशहाली सब से नीचे के तबके से शुरू होती है. वह पढ़ेलिखे हुनर अपनाए, उस के हाथ में 4 पैसे आएं. वह ऊंचे सपने देखे तो ही देश चमकता है. अमेरिका एक जमाने में बंजर था पर पानी के जहाजों में जो भगोड़े यूरोप से गए उन्होंने जीजान से मेहनत की और देश आज 100 साल से खुशहाल है. चीन पिछले 20-25 सालों में गरीबी खत्म कर चुका है. यूरोप लड़ाइयों में सब कुछ जलवा कर भी आज सब के लिए अजूबा है.

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