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बात ऐसे बनी

कुछ दिन पहले एक रिश्तेदार अपने बेटे की शादी का निमंत्रणकार्ड देने के लिए घर आए. रिश्तेदार महोदय कार्ड पकड़ाने के बाद तुरंत चलने के लिए तैयार हो गए. ससुरजी ने उन से बैठने और कुछ जलपान आदि ग्रहण करने के लिए अनुरोध किया. वे कहने लगे कि उन्हें अभी कई जगहों पर कार्ड देना है, उन के पास बिलकुल समय नहीं है. कई बार अनुरोध करने पर भी वे रुकने को तैयार नहीं हुए. उन का यह आचरण ससुरजी को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने रिश्तेदार महोदय को कार्ड पकड़ाते हुए कहा, ‘‘भैया, अगर आप को हमारे यहां के लिए 5 मिनट का समय नहीं है तो हमारे पास भी आप के यहां शादी में शामिल होने के लिए 2-4 घंटे देने का समय नहीं है. यह कार्ड पकडि़ए और आप को जल्दी है, आप निकलिए.’’ रिश्तेदार महोदय बुरी तरह झेंप गए और उन्होंने अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी और फिर जलपान करने के बाद ही गए.

अर्चना अग्रहरि, हावड़ा (प.बं.)

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मेरे दादाजी पड़ोसी से बहुत परेशान थे. उस ने 2 कुत्ते पाल रखे थे. टौयलेट के लिए वह उन्हें हमारे खेत में छोड़ देता था. खेत बटाई का था. बटाईदार बारबार हम से शिकायत करता. खेत की निराईगुड़ाई में उसे दिक्कत होती थी.

पड़ोसी अपनी करनी से बाज नहीं आया तो दादाजी एक प्लास्टिक की थैली में दालसब्जी के रस में भिगोई रोटी और उस में मड़वे का आटा मिला कर खेत के पास ले गए और बटाईदार से जोरजोर से बोले, ताकि पड़ोसी भी सुन सके, ‘‘अरे बिनयपाल, खेत में बहुत चूहे हो गए हैं. मैं रोटी को मीट के रस में भिगो कर, चूहामार दवा मिला कर लाया हूं. तू इस में से कुछ चूहे के बिल के पास रख दे, शेष को खेत में फैला दे,’’ यह कहते हुए उन्होंने उसे थैली सौंप दी. वह बोला, ‘‘बाबूजी, यह आप ने ठीक किया, इस से चूहे क्या बिल्लीकुत्ते भी मर जाएंगे.’’ उस ने रोटी खेत में बिखेर दी. पड़ोसी ने यह सब सुना तो जलभुन गया. दादाजी न तो उस से उलझना चाहते थे और न कुत्तों को कोई नुकसान पहुंचाना चाहते थे. इस तरकीब से पड़ोसी के कुत्तों का खेत में आना बंद हो गया.

वरुण मेहरा, नैनीताल (उत्तराखंड)

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मैं एक रिटायर्ड परमाणु वैज्ञानिक हूं. पत्नी का निधन हुआ तो रिश्तेदार, मित्रगण चिंता करने लगे कि वृद्धावस्था में अब कौन सेवा करेगा. मेरी केवल एक बेटी है. लेकिन मेरी बेटी ने समाज को दिखा दिया कि बेटी भी पिता की सेवा करने में समर्थ, सक्षम है. आज मैं अपनी इकलौती संतान अपनी बेटी के साथ रह रहा हूं और गौरवान्वित जीवन जी रहा हूं.

दिलीप भाटिया, कोटा (राजस्थान)

बच्चों के मुख से

हमारे बहुत ही खास पारिवारिक मित्र के बेटे की शादी थी. समीर के मम्मीपापा हमें खुद निमंत्रण दे गए थे. समीर की मेरे भांजे व भतीजों से खूब दोस्ती थी. वह खुद भी शादी में आने का आग्रह कर गया था. संयोग से जिस दिन समीर की शादी थी उसी दिन मम्मी की तबीयत एकदम खराब हो गई. उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. उसी परेशानी और अफरातफरी में समीर की शादी की बात ध्यान से निकल गई. कोई भी शादी में न जा सका. तीसरे दिन समीर मिठाई ले कर आया और खूब गिला करने लगा, ‘‘कोई भी मेरी शादी में नहीं आया, हम सब आप की कितनी राह देखते रहे.’’

मैं ने उसे सारी स्थिति बताई तो कहने लगा, ‘‘आप लोग नहीं आ सके, ठीक है पर आप ने बच्चों को तो भेज देना था.’’ इतना सुनते ही मेरा 5 साल का भतीजा मुन्नू बोल पड़ा, ‘‘कोई बात नहीं, समीर भाई, हम सब आप की अगली शादी में जरूर आएंगे.’’ इतना सुनना था कि सब जोर से हंस पड़े. मुन्नू को बात तो समझ में नहीं आई, पर वह भी सब के साथ हंसने लगा.

शकीला एस हुसैन, भोपाल (म.प्र.)

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मेरी आंटी का बेटा सुधांशु, जो नर्सरी में पढ़ता है, चंचल स्वभाव का है. एक दिन हम 11:30 बजे उन के घर गए. वह स्कूल से घर आ चुका था क्योंकि छोटी कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों की छुट्टी जल्दी हो जाती है. बातों ही बातों में जब उसे यह पता चला कि बड़े बच्चों की छुट्टी देर से होती है तो वह झट से बोला, ‘‘मम्मी, फिर तो मैं हमेशा नर्सरी में ही पढ़ता रहूंगा.’’ यह सुन कर हम सब हंसने को मजबूर हो गए.

शिवांगी, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

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काफी पुरानी बात है. तब हम पुणे में थे. मेरा 6 वर्षीय पुत्र शिखर तथा जेठ का बेटा प्रभाकर, जो ला स्टूडैंट था, मेरे साथ फुफेरे भाई के यहां राखी के पर्व पर राखी बांधने गए थे. भाई खड़कवासला हाइडल में डायरैक्टर थे, उन का पाश्चात्य ढंग से सुसज्जित बहुत बड़ा बंगला था. प्रभाकर घर में प्रवेश करते ही टौयलेट गया था. उस समय देश में प्रसाधनगृहों में टौयलेट पेपर का अधिक प्रचलन नहीं था परंतु भाई के यहां प्रयोग में लाया जाता था. शिखर प्रभाकर से अपने मामा के वैभव की शेखी बघार रहा था जिसे सुन कर प्रभाकर उस को चिढ़ाने के ढंग में बोला, ‘‘तुम फालतू की ऊंचीऊंची हांक रहे हो, तुम्हारे मामा के यहां शौच कर के कागज से पोंछ कर फेंक देते हैं. साफ करने के लिए पानी तक तो है नहीं.’’ बेटा खिसिया कर रोने लगा. शेष सभी लोग स्वयं भाईभाभी, बच्चे तथा हम जोरजोर से हंसने लगे.

मंजुला, महरौली (न.दि.)

सिंडिकेट बैंक के बुरे दिन

जिस घर का मुखिया ही भ्रष्ट हो अथवा उस की गतिविधियां संदेहास्पद हों तो उस घर की खुशहाली की कल्पना नहीं की जा सकती. सार्वजनिक क्षेत्र के सिंडिकेट बैंक की भी वही कहानी है. बैंक का मुख्य प्रबंध निदेशक एस के जैन, भूषण स्टील को ऋण देने के पहले रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया तो बैंकिंग क्षेत्र में भूचाल आ गया. वह 100 करोड़ रुपए के ऋण की अवधि बढ़ाने की स्वीकृति देने के बदले 50 लाख रुपए की रिश्वत ले रहा था. कंपनी पैसा नहीं लौटा पा रही थी और वह भुगतान के लिए समय मांग रही थी जिस की स्वीकृति जैन ही उसे प्रदान कर सकता था. जैन की गिरफ्तारी की खबर ने सब के कान खड़े कर दिए.

खबर फैलते ही सभी सतर्क हो गए, बाद में पता चला कि भूषण स्टील ने अन्य कई बैंकों से भी कर्ज ले रखा है. उन में भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नैशनल बैंक, आईडीबीआई के साथ ही 30 से अधिक सरकारी और निजी बैंक शामिल हैं. सिंडिकेट बैंक पहले से ही बहुत लाभकारी साबित नहीं हो रहा है और इस खुलासे से उस का संकट और गहरा गया है. वित्त मंत्रालय की योजना अब इस बैंक को और गहरे संकट में जाने से बचाने की है और इस के लिए वह उस के विलय की योजना बना रहा है.

सरकार कुछ बैंकों के विलय की योजना पर तो पहले ही काम कर रही थी लेकिन सिंडिकेट बैंक अब उस की नजर में चढ़ गया है और उसे ज्यादा देर तक उस के प्रबंध तंत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. बड़ा सवाल यह है कि बैंक जैसे प्रतिष्ठित संस्थान का शीर्ष अधिकारी इस तरह के अनैतिक काम में कैसे लग जाता है. वह एक सरकारी बैंक का मालिक सा था. उस पर सतर्कता विभाग की कड़ी निगाह होनी चाहिए थी. अच्छी बात यह है कि बैंकों ने बड़े ऋणधारकों पर इस घटना के सामने आने के बाद नजर रखनी शुरू कर दी है.

सूचकांक की उड़ान का नया मुकाम

शेयर बाजार की उड़ान नित नए रिकौर्ड कायम कर रही है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने और आम चुनाव में भाजपा की प्रचार कमान संभालने के बाद उन की आक्रामकता से बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई के सूचकांक को ऐसे पर लगे कि वह अब थम नहीं रहा है और पहले दिन के अपने रिकौर्ड को दूसरे दिन तोड़ कर ऊंचाई की नई छलांग लगा रहा है. इतिहास में पहली बार शेयर बाजार इस कदर आसमान की ऊंचाई को नाप रहा है. मोदी सरकार के 100 दिन पूरे होते ही बाजार ने पहली बार 27 हजार अंक क आंकड़ा पार किया. उस में कई शेयर थे जिन्होंने 52 सप्ताह में सर्वाधिक ऊंचाई हासिल की. 50 शेयर वाले नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी 8 हजार अंक को पार कर गया.

शेयर सूचकांक में यह उछाल पिछले 7 माह से लगातार देखने को मिल रहा है लेकिन पिछले 2 माह से बाजार लंबी छलांग लगा रहा है. 1 जुलाई को सूचकांक 25,576 अंक पर था, 2 सितंबर को यह 27,020 अंक पर पहुंच गया. इस अवधि में रुपए में मजबूती रही लेकिन यह मजबूती शेयर सूचकांक के मुकाबले धीमी गति पर रही. सरकार के 100 दिन पूरे होने पर सूचकांक तो उत्साहित रहा लेकिन रुपया जरूर कमजोर पड़ गया. डौलर के मुकाबले रुपए का उत्साह फीका क्यों रहा, यह सवाल उत्साहित निवेशकों को जरूर परेशान कर रहा है. सितंबर के पहले सप्ताह में बाजार लगातार 11वें सत्र में तेजी पर और रिकौर्ड ऊंचाई पर पहुंचा लेकिन कारोबार के आखिर में मामूली गिरावट पर बंद हुआ.

भारत भूमि युगे युगे

देर आए दुरुस्त आए

बात कतई हैरत की नहीं कि कांग्रेस के छुटभैये नेता ही राहुल गाधी को पानी पीपी कर कोस रहे हैं. राहुल में समझ नहीं है, उन्हें राजनीति नहीं आती, वे जमीनी नेता नहीं हैं और राहुल की खामोशी कांग्रेस को ले डूबी जैसे दर्जनों वाक्य  सुनने में आ रहे हैं. सीधेसाधे कहा जाए तो यह है कि कांग्रेसियों को लोकसभा चुनाव की करारी हार के 4 महीने बाद होश आया है.

इसी समीकरण को उलट कर देखें तो हकीकत यह है कि 4 महीने बाद कांग्रेसियों में सच बोलने की हिम्मत आ रही है हालांकि यह भड़ास है पर देर से निकली कि जब कांग्रेस के हाथ में कुछ भी नहीं है. राहुल के साथ दिक्कत हमेशा से यह रही है कि उन्हें नहीं मालूम कि वे चाहते क्या हैं, अभी भी इस संकट से वे उबर नहीं पा रहे हैं. इसलिए यह कहा जा सकता है कि असमंजस भी गरीबी की तरह एक मानसिक अवस्था है.

लहर की खुरचन

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को करिश्माई कहने और प्रयोगवादी नेता मानने की एक वजह यह भी है कि वे जोखिम उठाने में भरोसा करते हैं. सितंबर के पहले हफ्ते उन्होंने मुंबई में बगैर किसी झिझक के मान लिया कि मोदी लहर धीरेधीरे कमजोर पड़ रही है. इस बयान के सियासी माने सभी अपने हिसाब से लगा रहे हैं पर यह संदेश जरूर अमित शाह ने दे दिया कि जरूरत पड़ने पर भाजपा मोदी की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा की खुरचन को भी दांव पर लगा सकती है यानी भुना सकती है. यह राजनीति की विचित्रता नहीं बल्कि उस का मूलभूत सिद्धांत है.

दिल्ली का संकट

दिल्ली में सरकार कोई भी कैसे भी बनाए यह उतनी महत्त्वपूर्ण बात नहीं रही जितनी यह है कि अगर आप की जेब में ज्यादा नहीं सवा अरब रुपए भी हैं तो आप दिल्ली के शहंशाह बन सकते हैं. भाजपा, कांग्रेस और ‘आप’ के आरोपप्रत्यारोप और खरीदफरोख्त की बातें सुन लगता ऐसा ही है कि संकट संवैधानिक कम, आर्थिक ज्यादा है. लोकतंत्र में सरकार जनता चुनती है, यह बात भी गलत साबित हो रही है. अब न्यायपालिका दिल्ली संकट का हल ढूंढ़ रही है. दिल्ली के विधायकों को चिंता कैरियर, पगार और पैंशन की है, जनता की नहीं. जनता तो त्रिशंकु विधानसभा देने की अपनी गलती की सजा भुगत रही है.

झूम जीतन झूम

बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का ‘रोज पउवा भर शराब पीने में हर्ज नहीं’ वाला बयान दरअसल दलित तबके की व्यथा का चित्रण करता है जिस से होते हुए वे इस मुकाम तक आए हैं. राजनेताओं का सामाजिक जागृति से कोई सरोकार नहीं, यह तो मांझी की दारू वकालत से उजागर हुआ ही पर चिंता की बात उन का इस की हिमायत करना है. जिस तबके को ले कर उन्होंने यह बयान दिया है वह सदियों से हताशा की जिंदगी जी रहा है, शोषित है और समझौतावादी भी है. जरूरत उसे जगाने की है न कि यह मशवरा देने की कि गम भुलाने के लिए शाम को पाव भर शराब हलक के नीचे उतार कर सो जाओ. यह हल नहीं है बल्कि शराब जैसे ऐब के नाम पर वोट भुनाने की चालाकी है जिस के लिए जीतन राम मांझी को माफ नहीं किया जा सकता. 

रंगों की धारियों में उलझा कोलकाता

लगता है पश्चिम बंगाल में मोहम्मद बिन तुगलक का शासन लौट आया है. गुलाबी शहर जयपुर और नीले शहर जोधपुर की तर्ज पर कोलकाता का भी रंगरोगन कर उसे अलग पहचान देने की एक बार फिर से कवायद शुरू हो गई है. इस बार कोलकाता नगर निगम मैदान में उतरा है. आने वाले समय में हो सकता है पूरा कोलकाता आसमानी नीले और सफेद रंगों या इन रंगों की धारियों में रंगा हुआ नजर आए.

गौरतलब है कि कोलकाता नगर निगम ने हाल ही में यह घोषणा की है कि नगर निगम क्षेत्र में अगर मकान मालिक अपने मकानों को आसमानी नीले और सफेद रंग में रंग लेते हैं तो उन्हें निगम कर में छूट मिलेगी. बस फिर क्या था, इस घोषणा के साथ ही राज्य की राजनीति में तूफान खड़ा हो गया. एक तरफ राज्य की वामपंथी पार्टियां और भाजपा ने इस फैसले की नैतिकता पर सवाल उठाया है तो दूसरी ओर कोलकाता के 100 साल पुराने मकानों के मालिकों ने भी इस फैसले का विरोध किया है. इस के अलावा कुछ समय पहले हुई नीले व सफेद रंग से सरकारी संपत्तियों की रंगाईपुताई पर कैग यानी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी सवाल उठा दिया है. कैग ने निगम को पत्र लिख कर इस मद में अब तक हुए खर्च का ब्योरा मांगने के साथ जनता के पैसों को किस तरह खर्च किया गया है, इस बारे में जवाब तलब किया है.

चमक लौटाने की कोशिश

सवाल यह है कि महानगर के सौंदर्यीकरण के लिए सरकारी तौर पर नीली व सफेद धारियों को क्यों चुना गया है? इस के जवाब में राज्य के शहरी विकास मंत्री फिरहाद हकीम का कहना है कि वाम शासन के दौरान कोलकाता का नूर खो गया था. इस की चमक को लौटाने की जरूरत को देखते हुए यह फैसला किया गया है.

बहरहाल, विपक्ष के साथ ही साथ कैग को निगम के इस फैसले में भ्रष्टाचार की बू आ रही है. यही कारण है कि कैग ने निगम से जानना चाहा है कि महानगर के जिन ब्रिज, ओवरब्रिज को नीले व सफेद रंगों में रंगा गया है, क्या वे कोलकाता नगर निगम के अधीन हैं? या उन के रखरखाव का दायित्व उसे दिया गया है? और अगर ऐसा है तो निगम के किन नियमों के तहत ऐसा किया गया है? कैग ने इस संबंध में निगम को जारी की गई कानूनी नोटिफिकेशन की भी प्रति दिखाने को कहा है.

कोलकाता नगर निगम क्षेत्र में बहुत सारे ऐसे ब्रिज और ओवरब्रिज हैं जिन का मालिकाना हक राज्य सरकार के अधीन किसी सरकारी संस्थान के पास है. इन के रखरखाव के लिए बाकायदा सरकारी बजट में हर साल एक रकम मंजूर की जाती है. ऐेसे में सवाल उठना लाजिमी है कि इन ब्रिज, ओवरब्रिज की रंगाईपुताई का खर्च कोलकाता नगर निगम क्यों उठा रहा है?

वहीं, निगम के इस तुगलकी फैसले का वामपंथी पार्टियों के साथ प्रदेश भाजपा भी कड़ा विरोध कर रही है. लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद प्रदेश भाजपा कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गई है. भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राहुल सिन्हा के अनुसार, पार्टी अपने लीगल सैल से इस बारे में सलाहमशविरा कर रही है. पार्टी निगम के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की तैयारी भी कर रही है. वामपंथी पार्टियों ने नैतिकता का सवाल उठाते हुए कहा है कि अगर लोगों को अपने मकान के लिए रंग चुनने का भी अधिकार नहीं है तो यह कैसा लोकतंत्र है? माकपा ने आरोप लगाया है कि कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार और कोलकाता नगर निगम ने यह कवायद शुरू की है.

हालांकि कुछ मामलों में कोलकाता नगर निगम का यह फैसला किसी हद तक खुद इस नियम के खिलाफ है. कैसे? निगम के नियमानुसार कोलकाता के ‘ग्रेड वन’ हैरिटेज बिल्ंिडग में किसी तरह का बदलाव नहीं किया जा सकता. न तो इन की बनावट और न ही रंग में. डेढ़दो सौ साल पुराने कुछ राजबाड़ी भी हैरिटेज की श्रेणी में आते हैं. वहीं कोलकाता में कुछ जमींदार बाड़ी भी हैं. मसलन, यहां का लाहा परिवार कभी बड़ा जमींदार हुआ करता था. डेढ़दो सौ साल पुराने इन के ज्यादातर मकान पारंपरिक तौर पर सुर्ख लाल रंग के हुआ करते हैं. लाहा परिवार निगम के इस फैसले के खिलाफ है.

उत्तर कोलकाता के लाहाबाड़ी के एक सदस्य विश्वजीत लाहा के विशाल पैतृक मकान का सालाना कर लगभग 20 हजार रुपए है. लेकिन इस मकान को रंग करवाने का खर्च लगभग तीनगुना होगा. जाहिर है यह फैसला लाहा परिवार को मंजूर नहीं.

पसोपेश में लोग

बहरहाल, कोलकाता के 150-200 साल पुराने दूसरे मकानों के मालिकों का भी यही कहना है कि इस महंगाई में बैठेबिठाए इतना बड़ा खर्च भला वे क्यों वहन करें? मकानमालिकों को आशंका है कि 1 साल के कर में जितनी छूट मिलेगी, रंग करवाने में उस से कहीं अधिक खर्च होगा. वहीं, कोलकाता में मकानमालिक किराएदार कानून में गड़बड़ी के चलते पुराने किराएदारों को हटाना लगभग नामुमकिन है. बहुत सारे मकानों में आज भी किराएदार मकानमालिक को किराया नहीं देते. 20-25 साल से मामले अदालत में लंबित हैं. दोनों पक्ष पीढ़ी दर पीढ़ी अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं. जाहिर है ऐसे मकानों के मकान मालिक इन की मरम्मत से भी हाथ पीछे खींच चुके हैं. मकान की हालत जर्जर है. कभी भी ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर ढेर हो सकते हैं. मकानमालिक किसी तरह साल में कर चुकाते हैं. ऐसे में उन के मकान, उन पर किसी बोझ से कम नहीं हैं. स्वाभाविक है कि कर में छूट के लिए वे रंग करवाने से रहे.

सत्ता पर काबिज होते ही ममता बनर्जी ने जब महानगर की विभिन्न सड़कों की रेलिंगों, टै्रफिक आईलैंड, सड़कों के बीच डिवाइडरों, फ्लाईओवर, ब्रिजों, फुटब्रिजों और टै्रफिक पुलिस पोस्ट को नीले व सफेद रंग की धारियों में रंगवाया, तब से अर्जेंटाइना के सौकर खिलाड़ी के नाम पर मारादोना मार्का आसमानी नीले व सफेद रंग की धारियों पर ‘सरकारी रंग’ की मुहर लग गई है. यहां तक कि कोलकाता की सड़कों पर चलने वाली ‘कैब कारें’ भी नीले व सफेद रंग में रंग चुकी हैं और अब धीरेधीरे पूरे महानगर में जबरन ‘कलर कोड’ थोपा जा रहा है. जबकि फौरी नजर में इस कवायद से किसी को फायदा होने नहीं जा रहा. पहले से ही आर्थिक संकट झेल रही राज्य सरकार को निगम द्वारा दी जाने वाली कर छूट से राजस्व का भी बड़ा नुकसान होगा.

बंगलादेश खुशहाल पाकिस्तान बदहाल

उदारता देश की खुशहाली में बड़ी भूमिका अदा करती है. भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में 1 साल से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर और महिलाओं में प्रजनन दर को देखने से यह बात पूरी तरह से सही साबित होती है कि उदार बंगलादेश कट्टरवादी पाकिस्तान से ज्यादा खुशहाल है. पौपुलेशन रिफरैंस ब्यूरो यानी पीआरबी ने साल 2013 की पौपुलेशन डाटाशीट में विश्व के तमाम देशों के आर्थिक व सामाजिक हालात के तुलनात्मक  आंकडे़ पेश किए हैं. पाकिस्तान के मुकाबले बंगलादेश में राजनीतिक उथलपुथल कम होती है. वहां पर संसदीय प्रणाली सरकार चलाती है. उस को जातीय संसद कहते हैं. इस के 300 सदस्य चुन कर आते हैं. बहुमत के आधार पर वे प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं.

पाकिस्तान में संसदीय प्रणाली के बजाय ज्यादातर समय तक सेना का शासन रहा है जिस से लोकतंत्र प्रभावित हुआ. इन दिनों भी पाकिस्तान सियासी उथलपुथल का शिकार है. एक तरफ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन हो रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ इमरान खान और धर्मगुरु ताहिर उल कादरी की सियासी गतिविधियां भी पाकिस्तान के हालात बिगाड़ती दिख रही हैं. इधर भारत के साथ सीजफायर उल्लंघन को ले कर तल्खीभरे बयानों का सिलसिला जारी है. इस बीच, बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना तीस्ता जल समझौते को ले कर भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ाने के साथ आर्थिक विकास को मजबूत करने में जुटी हुई हैं.

पोल खोलती बच्चों की मृत्युदर

पाकिस्तान का जन्म 1947 में हुआ था. उस समय बंगलादेश पाकिस्तान का हिस्सा होता था और उसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था. बंगलादेश का उदय 1971 में हुआ. पाकिस्तान से अलग होने के बाद बंगलादेश ने ज्यादा तरक्की की. जनसंख्या के हिसाब से देखें तो बंगलादेश की आबादी करीब 16 करोड़ है जबकि पाकिस्तान की आबादी करीब 20 करोड़ है. पाकिस्तान देश की खुशहाली पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पा रहा है. वहां की स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल अवस्था में हैं. खुशहाल देश वही होता है जहां रहने वाले बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठा रहे हों.

पीआरबी 2013 की पौपुलेशन डाटाशीट देखने से पता चलता है कि बंगलादेश में 1 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर 35 प्रति हजार है. पाकिस्तान में यह मृत्युदर दोगुनी से ज्यादा 74 प्रति हजार है. बच्चों की बढ़ी हुई मृत्युदर से पता चलता है कि पाकिस्तान में स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. पाकिस्तान में डाक्टरों और अस्पतालों की कमी है. खराब स्वास्थ्य सेवाओं का बड़ा कारण वहां की धार्मिक कट्टरता है. बंगलादेश ने आजादी के बाद से स्वास्थ्य सेवाओं पर ज्यादा ध्यान दिया है जिस से बच्चों की मृत्युदर कम हुई है. औरतों को ज्यादा से ज्यादा गर्भनिरोधक साधनों का प्रयोग करने की छूट मिली है जिस से उन का स्वास्थ्य बेहतर रहता है. वे सेहतमंद बच्चों को जन्म देने में सक्षम होती हैं.

धार्मिक कट्टरता के चलते पाकिस्तान में रहने वाली महिलाएं गर्भवती होने के बाद डाक्टरों के संपर्क में नहीं रह पातीं. इसलिए जिस तरह से औरतों की सेहत की देखभाल होनी चाहिए वह नहीं हो पाती, औरतों की प्रजनन दर देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है. प्रजननदर की गणना एक औरत द्वारा अपने जीवनकाल में पैदा करने वाले बच्चे के आधार पर तय की जाती है. बंगलादेश में जहां एक औरत अपने जीवनकाल में 2 से 3 बच्चों को जन्म देती है वहीं पाकिस्तान की औरत 3 से 8 बच्चों को जन्म देती है. एक महिला द्वारा ज्यादा बच्चे पैदा करने का कारण यह है कि पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता के चलते औरतें गर्भनिरोधक साधनों का प्रयोग कम करती हैं.

कट्टरता से परेशान महिलाएं

पीआरबी की पौपुलेशन डाटाशीट बताती है कि बंगलादेश में 15 से 49 साल के आयुवर्ग के बीच की विवाहित महिलाओं द्वारा गर्भनिरोधक साधनों का बेहतर प्रयोग किया जाता है. आंकडे़ बताते हैं कि बंगलादेश में 61 फीसदी महिलाएं सभी तरह के गर्भनिरोधक साधनों का इस्तेमाल करती हैं. 52 फीसदी महिलाएं आधुनिक किस्म के गर्भनिरोधकों का प्रयोग करती हैं. पाकिस्तान में यही आंकडे़ बहुत खराब हालत में दिखते हैं. पाकिस्तान में केवल 35 फीसदी महिलाएं सभी तरह के गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करती हैं. आधुनिक किस्म के गर्भनिरोधक तो केवल 25 फीसदी महिलाएं ही प्रयोग करती हैं.

पाकिस्तान के इस्लामाबाद, कराची और लाहौर में हालात बेहतर हैं जबकि शेष पाकिस्तान में हालत खराब है. वहां औरतों का जीवनस्तर काफी खराब हालत में है. धर्म का हवाला दे कर औरतों को गर्भनिरोधक साधनों का इस्तेमाल करने से रोका जाता है.

आंकड़ों में भारत पाकिस्तान से बेहतर हालत और बंगलादेश से खराब हालत में दिखता है. इस का एक बड़ा कारण भारत पर बढ़ती आबादी का बोझ है. भारत आबादी के स्तर पर विश्व में चीन के बाद दूसरे नंबर पर आता था. आंकडे़ बताते हैं कि अगर भारत की आबादी इसी तरह से बढ़ती रही तो साल 2050 में यानी करीब 36 साल के बाद भारत आबादी के मामले में चीन से भी आगे निकल जाएगा. महिला सामाजिक कार्यकर्ता नाइश अहमद कहती हैं, ‘‘बंगलादेश में धार्मिक कट्टरता कम है. वहां की औरतें अपने फैसले खुद लेने का बेहतर अधिकार रखती हैं, चाहे बच्चा पैदा करने का मसला हो या फिर गर्भनिरोधक साधनों का इस्तेमाल करने का. यही नहीं, वहां की औरतों का लाइफस्टाइल भी पाकिस्तान की तुलना में अच्छा है. इस का असर उन की सोच पर पड़ता है.’’

महिला नेता रजिया नवाज कहती हैं, ‘‘पाकिस्तान के मुकाबले बंगलादेश के अपने पड़ोसी देश से रिश्ते बेहतर हैं. ऐसे में उसे अपनी विकास योजनाओं पर खर्च करने के लिए ज्यादा पैसा मिल जाता है. पाकिस्तान विकास के बजाय सेना और दूसरे मदों पर ज्यादा पैसा खर्च करता है.’’ अंगरेजों के चंगुल से आजाद होने के बाद भारत, बंटवारे के मद्देनजर बने पाकिस्तान और फिर पाकिस्तान के विभाजन से उभरे बंगलादेश में स्वास्थ्य सेवाएं संतोषजनक नहीं हैं. अंतर्राष्ट्रीय आंकड़ों के हिसाब से बंगलादेश अपने नागरिकों को फिर भी बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में कामयाब दिखता है. स्वास्थ्य के प्रति बंगलादेश की संजीदगी दोनों देशों, विशेषकर पाकिस्तान, के लिए एक सबक है.

प्रकृति के नीर में बहा कश्मीर

जम्मूकश्मीर में मुसीबतों का आलम थमने का नाम ही नहीं ले रहा. पहले ही आतंकवाद का जख्म नासूर बन कर इसे हलकान किए था, उस के बाद बाढ़ की तबाही ने इस को बुरी तरह तोड़ कर रख दिया है. सरकार और सेना बाढ़ त्रासदी की चपेट में आए लोगों को बचाने की मुहिम में रातदिन एक किए हुए हैं. सैकड़ों जानें जा चुकी हैं और हजारों जिंदगियां मदद की आस में जिंदगी और मौत के बीच झूल रही हैं. कश्मीर के 4 जिले–अनंतनाग, कुलगाम, शोपियां, पुलवामा में फैले दक्षिण कश्मीर के अधिकांश हिस्से सितंबर के शुरुआती दिनों में बाढ़ की चपेट में आए थे, वहीं श्रीनगर का 60 फीसदी हिस्सा 7 सितंबर को झेलम के रौद्र रूप का शिकार बना.

बीते 109 सालों की सब से भयावह प्राकृतिक मार झेल रहे कश्मीर में भले ही पानी घटने लगा हो लेकिन भूख की मार और महामारी के खतरे मंडराने लगे हैं. mआजादी के बाद आई सब से बड़ी त्रासदी से जूझ रहे कश्मीरियों का आम जीवन कब सामान्य व अमन के ट्रैक पर वापस आ पाएगा, यह सवाल उन की पथराई आंखों पर रहरह कर उभरता देखा जा सकता है. 

जीवन की मुसकान

हमारा परिवार उन्नाव में रहता था. मैं बीएससी की पढ़ाई कानपुर से कर रहा था. मेरे आवागमन का साधन ट्रेन थी. जनवरी का महीना था, कालेज में क्लास खत्म होने के बाद वापसी के लिए शाम की ट्रेन पकड़ी. भीड़ अधिक थी. मैं अभी दरवाजे का हैंडल पकड़ कर खड़ा ही हुआ था कि ट्रेन चल दी. दरवाजे के पास खड़े लोगों ने जानबूझ कर दरवाजा बंद कर लिया और हंसने लगे. मैं जोर से आवाजें दे रहा था. मेरे हाथ सर्दी से सुन्न हुए जा रहे थे. पलपल भारी लग रहा था. अगले स्टेशन के आने का इंतजार कर रहा था. तभी एक व्यक्ति ने दरवाजा खोल दिया. उस समय कुछ न बोल पाने की स्थिति में मानो उसे दिल से धन्यवाद दे रहा था, जिस ने मेरे चेहरे पर इस विषम स्थिति में मुसकान ला दी.

प्रमोद चंद्र, कानपुर (उ.प्र.)

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शिक्षिका होने के कारण मुझे अकसर बच्चों के अभिभावकों से मिलने का मौका प्राप्त होता है. इन में अधिकतर बच्चों के मातापिता अनपढ़ होते हैं, दिनभर घरों में काम कर अपनी जीविका चलाते हैं. एक दिन शिक्षकअभिभावक सम्मेलन में मुझे नया अनुभव प्राप्त हुआ. एक बच्चा, जो लगातार हर महीने मासिक परीक्षा में असफल होता था, अचानक अच्छे नंबरों से पास होने लगा. मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, लगा कि इस ने जरूर कोई गड़बड़ की होगी. लेकिन जब उस के अभिभावकों से बात की तो उन्होंने बताया कि जिन घरों में वे काम करते हैं, उन घरों के बुजुर्ग खाली समय में इसे पढ़ाते हैं. मुझे यह सुन कर बहुत खुशी हुई. घर के बुजुर्ग सदस्य अपना काफी समय पूजापाठ, सत्संग आदि में बिताते हैं, इस के बजाय वे अपना समय गरीब बच्चों को पढ़ाने में व्यतीत करें तो इस से अच्छा काम क्या होगा. साथ ही अन्य बच्चों की तरह भविष्य में उन्हें भी सफलता मिल सकेगी.

ज्योति सराफ, भोपाल (म.प्र.)

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यात्रा में एक सहयात्री महिला को चिंतित देख कर कारण पूछा तो पता चला कि उस के पति का अनजान शहर में औपरेशन होना था, खून की व्यवस्था नहीं हो पाने के कारण वह चिंतित थी. मैं नियमित रक्तदाता हूं. मैं ने अपना रक्तदाता कार्ड दे कर उस की चिंता दूर कर दी. 1 माह पश्चात मुझे डाक से एक राखी के साथ भावभीना पत्र मिला.

‘भाई साहब, आप के रक्तदान की सहायता के कारण ही आज मेरी कलाइयों में सुहाग की चूडि़यां हैं. आप की कलाई के लिए रक्षा का धागा भेज रही हूं. बहन-श्वेता.’ nनिस्वार्थ सहायता करने से आत्मीय स्नेह, प्यार मिलता ही है.

दिलीप, कोटा (राजस्थान)

महायोग : तीसरी किस्त

अब तक की कथा :

नील ने दिया को पसंद कर लिया था. दिया को भी नील अच्छा ही लगा था. दादी कन्यादान करने के बाद मोक्षप्राप्ति के परमसुख की कल्पना से बहुत प्रसन्न थीं. दिया की मां कामिनी शिक्षित तथा सुलझे हुए विचारों की होने के बावजूद दिया के पत्रकार बनने के सपने को बिखरते हुए देखती रह गईं. विवाह के पश्चात नील जल्दी ही लंदन लौट गया और दिया अनछुई कली, मंगलसूत्र गले में लटकाए ‘कन्यादान’ के अर्थ को समझने की नाकाम कोशिश में उलझी रह गई.

अब आगे…

उन दिनों दिया का दिमाग न जाने किन बातों में घूमता रहता. इस बीच एक और घटना घटित हो गई जिस ने दिया को भीतर तक हिला कर रख दिया. दिया की एक सहेली थी-प्राची. दिया की सभी सहेलियां लगभग हमउम्र थीं परंतु प्राची 3 वर्ष बड़ी थी दिया से. पढ़ने में बहुत तेज थी वह, लेकिन बचपन में कोई बड़ी बीमारी हो जाने के कारण उस के 3 वर्ष खराब हो गए थे. पिता की मृत्यु हो गई, मां काम करती थीं परंतु 3 बच्चों का पालनपोषण करने में ही उन की आर्थिक स्थिति डांवांडोल हो गई थी.

मध्यवर्गीय यह परिवार अपनों द्वारा ही सताया गया था. प्राची व उस की बहनें जब छोटी थीं तब ही उस के पिता किसी दुर्घटना में चल बसे. बड़े ताऊजी ने उन के हिस्से का व्यवसाय ऐसे हड़प लिया मानो वे अपने भाई के जाने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे. तभी प्राची बीमार पड़ी और सही इलाज न होने के कारण एक लंबे समय तक बीमारी का शिकार बनी रही. मां ने जवानी में पति खो दिया था, सो उन्हें 3 बच्चों का पालन करने के लिए नौकरी करनी पड़ी. प्राची घर में सब से बड़ी थी, उस के पीछे उस की 2 छोटी बहनें थीं. घरगृहस्थी की परेशानियों से जूझतेजूझते मां को बस अपनी बेटियों की चिंता बनी रहती. उन का सोचना था कि उन्होंने जिंदगी में सभी सगेसंबंधियों को अच्छी तरह परख लिया है. अब उन का स्वास्थ्य भी डांवांडोल ही रहता, सो उन को अपनी बेटियों के विवाह की चिंता सताती. प्राची की मां दिया के घर भी आयाजाया करती थीं. वे दिया की मां व दादी के पास बैठ कर अपने मन का बोझ हलका करतीं और बच्चियां दिया के साथ खेलतीं, गपशप मारतीं.

प्राची की मां की परेशानी से दिया के घर के सभी लोग वाकिफ थे. इसलिए  दादीजी ने अपने चहेते पंडितजी के कान में प्राची के लिए रिश्ता ढूंढ़ने की बात डाल रखी थी. पंडितजी प्राची के घर की स्थिति से वाकिफ थे. एक दिन पंडितजी एक रिश्ता ले कर आए थे. लड़के वाले भी साथ थे. लड़का व घर ठीकठाक ही था. प्राची की मां ने थोड़ीबहुत तैयारी तो कर ही रखी थी. प्राची ने कितने हाथपैर जोड़ कर मां को मनाना चाहा कि वे शादीवादी का चक्कर छोड़ेंऔर उसे नौकरी कर के हाथ बंटाने दें. परंतु मां अपना ढीला स्वास्थ्य देख कर बेटी की बात मानने के लिए तैयार ही नहीं हुईं.

खूबसूरत प्राची को देख कर लड़के वालों ने तुरंत हां कर दी. सब बातें साफ होने पर सगाई हो गई और तय हुआ कि सीधेसादे ढंग से विवाह संपन्न हो जाएगा. परंतु सगाई और विवाह के बीच स्थितियों में इतना बदलाव आया कि प्राची की मां ठगी रह गईं. सगाई और विवाह के बीच 4-5 माह का समय था. इस बीच न जाने पंडितजी ने लड़के वालों से मिल कर कितनी पूजा और अनुष्ठान करवा डाले कि प्राची की मां तो इसी सब में खाली होने लगीं. जब उन्होंने यह बात पंडितजी और लड़के वालों के समक्ष रखी तो पंडितजी ने कहा, ‘‘बहनजी, प्राची के ग्रह इस कदर भारी हैं कि ये सब अनुष्ठान और ग्रहपूजा आदि जरूरी हैं…’’

‘‘तो आप ने पहले क्यों नहीं ये सब देखा? अब जब हम लोग बीच भंवर में खड़े हैं तब…’’ हिचकिचाते हुए उन्होंने पंडितजी से पूछा.

‘‘आप ने तो जन्मपत्री दी नहीं थी. लड़के वालों ने भी उस समय मुझ से कुछ कहा नहीं पर सगाई के बाद जब लड़के के पिता को महीने में 4 बार बुखार आया तो उन का शक तो स्वाभाविक था न? उन्होंने मुझे ग्रह देखने को कहा. मैं ने… फिर आप को याद होगा, आप से जन्मपत्री मांगी. आप के पास मिली नहीं तो मैं ने आप से जन्म की तिथि और समय पूछ कर प्राची की जन्मपत्री बनवा कर मिलाई. तब पता चला उस के ग्रहों के बारे में. आप ही बताइए, कैसे कोई दूध में पड़ी मक्खी निगल ले?’’ पंडितजी ने अपने व्याख्यान से प्राची की मां को ही कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया.

प्राची की मां को बहुत सदमा पहुंचा. इधर तो पूजा के नाम पर पंडित उन से पैसे ऐंठने आ पहुंचता, उधर वह लड़का प्राची से मिलने हर दूसरेतीसरे दिन घर में आ धमकता. इस मामले में लड़कियां बड़ी संवेदनशील होती हैं. एक बार प्राची का मन उस लड़के की ओर आकर्षित हुआ तो वह उस की ओर झुकती चली गई. मां ने इस डर से पूरी बात प्राची को खोल कर नहीं बताई कि प्राची कहीं रिश्ते से ही मना न कर दे. वैसे भी यदि किसी की सगाई टूटती है तो समाज के ठेकेदार ढेरों सवाल ले कर सामने आ खड़े हो जाते हैं.

फिर भी, एक दिन उस ने पंडितजी से पूछ ही लिया, ‘‘पंडितजी, अगर परेशानी लड़के वालों को है तो वे कराएं न उस का इलाज, वे खर्च करें पैसा. मुझ पर क्यों बोझ डाल रहे हैं आप?’’

‘‘बहनजी, कमी तो अपनी बेटी में है. है कि नहीं? फिर हमें अपनी बेटी की खुशी के लिए कुछ करना होगा कि नहीं? सारी जिंदगी वहीं काटनी है उसे. बेकार के तानेमलाने न सुनने पड़ें उसे.’’

जब प्राची की मां ने ये सब बातें जा कर दिया की दादी को बताईं तो वे पंडित की बलैयां ही लेने लगीं, ‘‘कितना अच्छा पंडित है, प्राची को दूसरे घर जा कर कोई परेशानी न उठानी पड़े, इसलिए सारे उपाय कर रहा है. और कोई होता तो छोड़ देता. भई, आप जानो आप का काम जाने.’’

प्राची की मां ने अपना सिर पीट लिया. क्या करें अब वे? कामिनी ने भी यह सब सुना था और वे असहज हो गई थीं. 

कामिनी उस की चिंता से स्वयं परेशान हो रही थीं.

दिया भी अपनी मां की भांति ही बेचैनी के झूले में झूल रही थी. बड़ी शिद्दत से दिया सोच रही थी कि पंडितजी की ऐसी की तैसी कर डाले. उस का युवा मन यह बात मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं था कि इस कठिन परिस्थिति में प्राची की मां को इस प्रकार के अंधविश्वासों पर बेकार का खर्चा करना पड़े.

परंतु फिर वही हुआ जो होना था. कौन कुछ कर पाया? सामाजिक रीतिरिवाजों व परंपराओं में घिर कर प्राची की मां बिलकुल खाली हो गई थीं. उन्हें अपने इकलौते मकान को गिरवी रख कर प्राची के विवाह की व्यवस्था करनी पड़ी थी. दिया को जब इस का पता चला तब उस ने दादी से पूछा था, ‘‘दादीजी, पहली बात तो यह जो मेरे गले नहीं उतरती कि पंडितजी ने जो खर्च करवाया वह ठीक है. दूसरी, जब लड़के वालों को यह मालूम था कि प्राची की मम्मी बिलकुल अकेली व असहाय हैं और जब प्राची उन के घर की बहू बनने जा रही थी तो क्या उन का रिश्ता नहीं था प्राची के घर से? उन्हें पंडितजी से पता भी चल गया था कि प्राची की मां अपना घर गिरवी रख रही हैं तब भी वे लोग इन की कोई सहायता करने नहीं आए?’’

दादी मानो बड़ी बेबसी में बोली थीं, ‘‘क्या करें बेटा? बेटी को क्या घर में बिठा लेगी उस की मां? आगे और 2 बेटियां नहीं हैं क्या?’’

‘‘तो आप को तो सबकुछ मालूम था, आप ने उन को ऐसा रिश्ता क्यों बताया? ऊपर से पंडितजी के कर्मकांड. आप जानती हैं कितनी टूट गई हैं उस की मम्मी?’’

दिया को दादी पर क्रोध आ रहा था. ऐसे भी क्या कर्मकांड हैं कि एक विधवा स्त्री का जीवन ही कठिनाइयों के भंवर में फंसा दें. कर्मकांड जीवन को सही दिशा देने के लिए, जीवन को सुधारने के लिए होते हैं या बरबाद करने के लिए?

अगर प्राची की दोनों और बहनों को भी ऐसे ही घर मिल गए तो एक तो बेटियों की मां उस पर ये बेकार के दिखावे, क्या होगा उस की मां का? बेचारी बेमौत मर जाएगी. आखिर हम इस प्रकार के प्रपंच कर के दिखाते किस को हैं? समाज को? कौन से समाज को? जो कभी किसी की परेशानी या कमजोरी के समय में काम नहीं आता बल्कि खिल्ली उड़ाने में ही लगा रहता है? समाज तो हम से ही बनता है न? फिर हम क्यों समाज में परिवर्तन नहीं ला सकते? क्यों पुरानी लकीरों को ही पीटते रहते हैं?

दिया के मन में इस प्रकार के सैकड़ों सवाल उभरते रहते जिन का हल फिलहाल तो उसे सूझ नहीं रहा था. हां, उस के मन में कहीं कोई कठोर सी भावना पक्की होती जा रही थी कि उसे कैसे न कैसे इस सामाजिक व्यवस्था या फिर ओढ़ी हुई परंपराओं के आड़े आना है. अनमनी सी दिया घरभर में बेकार ही चक्कर लगाती हुई घूमती रहती. विवाह के बाद लड़कियों के पहननेओढ़ने, सजनेसंवर के चाव स्वत: ही बढ़ जाते हैं परंतु यहां उलटा ही हो रहा था. जिस पति के साथ वह एक रात भी नहीं रह पाई उसी के नाम का सिंदूर मांग में भर कर वह सब को दिखाती फिरे. यह क्या बात हुई. हां, यह सच है कि वह नील के प्रति आकर्षित हो गई थी परंतु आकर्षण मात्र से तो मन नहीं भर जाता.

एक और नई बात पता चली थी कि वास्तव में कम समय का तो बहाना बनाया गया था वरना यदि नील चाहता तो और भी एक सप्ताह उस के साथ बिता सकता था. यह बात स्वयं नील के मुंह से ही फोन पर सुन ली थी दिया ने. नील प्रतिदिन दिया को फोन करता था. लंदन पहुंचने के कुछ दिन बाद जब उस की नील से फोन पर बात हुई तब नील के मुंह से निकल गया कि वह 4 दिन बाद औफिस जौइन करेगा. तब दिया चौंकी थी, ‘नील, आप अभी तक घर पर ही हैं, फिर यहां से जल्दी क्यों चले गए थे?’ तब तक नील को लंदन वापस लौटे 25 दिन हो गए थे.

‘अरे, वो…मुझे वैसे तो जौइन तभी करना था, दिया, पर मेरे पैर में चोट लग गई थी तो हफ्तेभर की छुट्टी लेनी पड़ी मुझे,’ नील इतना हड़बड़ा कर बोले थे कि दिया का दिमाग ठनक गया था. कहीं न कहीं गड़बड़ तो जरूर है. बहाना भी नील ने पैर की चोट का बनाया. अगर नील को चोट लगी भी थी तो क्या इस घर में किसी को पता नहीं चलता? आखिर माजरा क्या है? फोन पर तो वह नील से ठीकठाक बात करती रही परंतु बात खत्म होते ही वह मां के पास जा पहुंची और बोली, ‘‘मम्मी, मुझे एक बात सचसच बताइए,’’ दिया ने कुछ ऐसे अंदाज में पूछा कि कामिनी भी असहज सी हो उठीं.

‘‘क्या बात है, बेटा? इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मम्मी, ये सब क्या है? क्या आप जानती हैं कि नील के पैर में चोट लगी है और उन्होंने अभी औफिस जौइन नहीं किया?’’

‘‘अरे, कैसे, कब?’’ कामिनी चौंकीं.

‘‘मैं कैसे बता सकती हूं, कैसे, कब?’’ दिया क्रोध व बेबसी से भर उठी.

अब तो कामिनी को भी यही महसूस होने लगा कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ है वरना यहां से इतनी जल्दबाजी कर के जाने वाले नील ने लंदन जा कर अभी तक औफिस जाना क्यों शुरू नहीं किया और पैर में कब चोट लग गई? नील की मां से तो दिया की दादी की लगभग हर रोज बात होती ही रहती है.

कामिनी सास के पास पहुंचीं तो, परंतु बात कैसे शुरू करें? कुछ समझ नहीं पा रही थीं.

‘‘क्या बात है, कामिनी बहू? कुछ कहना चाहती हो?’’

‘‘जी, मैं नील के बारे में पूछना चाहती हूं,’’ उस ने हिम्मत कर के सास के सामने मुंह खोल ही दिया.

‘‘नील के बारे में? क्या पूछना चाहती हो? दिया के पास फोन तो आते ही होंगे नील के?’’

‘‘जी, कभीकभी आते तो हैं. नील के पैर में चोट लग गई है और हमें किसी ने कुछ बताया भी नहीं. दिया काफी परेशान हो रही है.’’

‘‘पैर में चोट लग गई है? हमें नहीं मालूम. अरे, कल ही तो बात हुई है हमारी नील की मम्मी से…’’

‘‘आप को नहीं लगता यह बात कुछ अजीब सी है,’’ कामिनी से रहा नहीं गया.

‘‘हां, पर हो सकता है उन्होंने इसलिए कुछ न बताया हो कि हम लोग बेकार में ही चिंता करेंगे,’’ उन्होंने कह तो दिया पर भीतर से वे भी असहज सी हो उठी थीं.

‘‘नहीं, मां, उन का तरीका ठीक नहीं है. आप ही सोचिए, पहले जल्दबाजी कर के ब्याह करवाया फिर जल्दबाजी कर के वापस भी चले गए. अभी तक दिया को ले जाने की कोई कार्यवाही कर रहे हैं वे लोग, मुझे तो नहीं लगता, तब तो जल्दी पड़ी थी. अब बच्ची बिलकुल गुमसुम होती जा रही है,’’ कामिनी की आंखें भर आई थीं.

दादी के मुख पर भी चिंता की लकीरें पसर गईं. यह बात ठीक है कि उन के खुद के पंडितजी ने भी उन्हें यही सलाह दी थी कि दिया को अभी न भेजें. मुहूर्त में कुछ गड़बड़ है.

पंडितजी ने चुपके से उन से कह दिया था कि अभी दिया को ससुराल भेजने का उचित समय नहीं है और वे मान गईं. बहाना तो था ही कि नील को जल्दी पहुंचना है अपने औफिस और वहां जा कर वह जल्दी ही दिया को अपने पास बुलाने की कार्यवाही शुरू कर देगा.
-क्रमश:

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