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अफवाहों की राजनीति में उलझे राजनाथ

पुरानी कहावत है- ‘बिना आग के धुआं नहीं होता’. भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता में आए 100 दिन भी पूरे नहीं हुए थे कि उस के बडे़ नेताओं के खिलाफ अफवाहों का तूफान आ गया. अफवाहें भी ऐसी कि देश के प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को सामने आ कर सफाई देनी पड़ी. भाजपा कह रही है कि ये अफवाहें बेबुनियाद हैं. विरोधी दलों का कहना है कि भाजपा सत्ता में है, उसे अपने खिलाफ अफवाहें उड़ाने वाले का पता लगा कर दूध का दूध और पानी का पानी सामने कर देना चाहिए. भाजपा की हालत सांपछछूंदर वाली हो गई है. उसे न तो अफवाहों को उगलते बन रहा है न निगलते.  उलझे देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बारे में यह कहा जाता है कि उन का आत्मविश्वास कभी कमजोर नहीं पड़ता है. इस की अपनी वजह भी है. उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के भभौरा गांव में पैदा हुए राजनाथ सिंह स्कू लटीचर थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ कर वे उत्तर प्रदेश में मंत्री से ले कर मुख्यमंत्री तक की कुरसी पर पहुंच गए. भाजपा के संगठन में हर बडे़ पद पर वे आसीन रहे.

एक समय भाजपा में उन का नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए भी सब से आगे चल रहा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत मिला तो उन को प्रधानमंत्री के बाद की सब से ताकतवर मानी जाने वाली गृहमंत्री की कुरसी दी गई. 

भाजपा की सोच रही है कि गृहमंत्री के पद पर लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल जैसा नेता बैठना चाहिए. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो लालकृष्ण आडवाणी को गृहमंत्री की कुरसी दी गई थी. नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा ने केंद्र में अपनी सरकार बनाई तो राजनाथ सिंह को गृहमंत्री बनने का मौका दिया गया. राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद पद और गोपनीयता की शपथ ली. 

प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर जाते हैं तो सत्ता की कमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह के हाथ में सौंप कर जाते हैं. लोकसभा में डिप्टी लीडर का पद भी राजनाथ सिंह के पास है. ऐसे में आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनाथ सिंह कितने मजबूत कद के नेता हैं. गृहमंत्री के हाथ में देश के अंदर सुरक्षा का पूरा चक्र होता है. खुफिया एजेंसियों की पूरी कमान गृहमंत्री के हाथ में होती है. देश का ऐसा प्रमुख व्यक्ति जब तथाकथित अफवाहों के जाल में फंसता है तो कितना बेचारा नजर आता है, यह देखना हो तो राजनाथ सिंह को देखें.

गृहमंत्री की उदासी

28 अगस्त को राजनाथ सिंह अपने संसदीय क्षेत्र यानी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में थे. वे ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ का उद्घाटन करने के लिए लखनऊ में थे. हमेशा खुशदिल और बेबाक बातचीत करने वाले राजनाथ सिंह के मुख पर उदासी की छाया थी. उन की बौडी लैंग्वेज में पहले जैसा आत्मविश्वास और भरोसा भी नहीं दिख रहा था. इस की बड़ी वजह एक तथाकथित अफवाह थी जिस में राजनाथ सिंह के पुत्र और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव पंकज सिंह पर निशाना साधा गया था. 

बात कुछ यों है, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह पर आरोप लगा कि उन्होंने किसी बिजनैसमैन से काम कराने के बदले पैसा लिया था. इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंकज सिंह को बुलाया और पैसे लौटाने के लिए कहा. अफवाह फैली कि नरेंद्र मोदी ने कहा कि बगल के कमरे में वे लोग बैठे हैं. उन का एकएक पैसा वापस कर दो. इस अफवाह से नरेंद्र मोदी की उस बात को पुख्ता करने का काम किया गया जिस में उन्होंने कहा था कि उन की सरकार में भ्रष्टाचार बरदाश्त नहीं किया जाएगा. न वे खाएंगे, न खाने देंगे. 

यह बात पहले राजनीतिक गलियारों में चर्चा का बिंदु बनी. उस के बाद सोशल मीडिया में वायरल हो गई. हालात यहां तक पहुंच गए कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भाजपा की सब से बड़ी सत्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के सामने गुहार लगाई. इस के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की तरफ से ऐसी घटना का खंडन किया गया. दोनों ही जगहों से राजनाथ सिंह और उन के पुत्र पंकज सिंह के काम, व्यवहार और पार्टी के प्रति समर्पण की तारीफ भी हुई.

बेबसी पर उठे सवाल

सामान्यतौर पर देखें तो इस के बाद भाजपा में सबकुछ सहज हो जाना चाहिए था. हकीकत में वैसा हुआ नहीं. इस अफवाह के बाद से पार्टी के कामकाज में पंकज सिंह की सक्रियता बेहद कम दिखने लगी. गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी बुझेबुझे नजर आने लगे. 28 अगस्त को लखनऊ में मीडिया के बीच चहकने वाले राजनाथ सिंह बेबस नजर आए. उन के परिवार को ले कर फैली अफवाहों पर जब सवाल किया गया तो वे बड़े ही दार्शनिक अंदाज में हवा में हाथ हिलाते बोले, ‘विधाता सब देख रहा है.’ उन से अगला सवाल हुआ, ‘क्या आप को इस में कोई साजिश नजर आ रही है?’ राजनाथ सिंह ने फिर सवाल के बदले में सवाल करते कहा, ‘आप लोग खोजी पत्रकार हैं, खोज करिए.’  जिस नेता के हाथ में देश की सब से बड़ी खुफिया एजेंसी हो वह इस तरह से बेबस नजर आए, ऐसा पहली बार देखा गया. उन से एक सवाल और किया गया, ‘आप को तो साजिश करने वाले का नाम, पता मालूम हो गया होगा?’ इस पर राजनाथ सिंह कुछ नहीं बोले, बस मुसकरा कर रह गए.

अफवाहों का यह पहला मामला नहीं था. इस के पहले भाजपा के 2 और बड़े नेताओं को ले कर अफवाहों का दौर चल चुका था. सब से पहले भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के घर में जासूसी यंत्र लगाए जाने की बात फैलाई गई थी. अरुण जेटली के करीबी माने जाने वाले पैट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधानऔर सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी अफवाहों के बाजार में छाए रहे. इन सभी के खिलाफ हलकीफुलकी अफवाहें थीं. 

अफवाहों ने भाजपा में पार्टी नेताओं के बीच चुनावी दौर में बनी सहजता को तोड़ दिया है. अगर गंभीर आरोप केवल अफवाह है तो केंद्र सरकार को इस के पीछे हवा देने वाले लोगों का पता करना चाहिए, जिस से किसी दूसरे नेता के खिलाफ ऐसे शर्मनाक आरोप न लग सकें. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि राजनाथ सिंह को ले कर चली अफवाह के पीछे के सच को राजनाथ सिंह जानते हैं. इसी वजह से वे इस मामले को तूल नहीं देना चाहते. उन को लगता है कि छानबीन करने में जो सच दिखेगा उसे स्वीकार करना सरल नहीं होगा. ऐसे में जानबूझ कर भाजपा सरकार दूध के साथ मक्खी को भी निगल जाना चाहती है.

सत्ता संग्राम का नतीजा

भाजपा भले ही इन बातों को अफवाह मान रही हो, सवाल उठता है इन को फैलाने वालों को बेनकाब करने में उस की दिलचस्पी क्यों नहीं है? यही वह सवाल है जो भाजपा के सत्ता संग्राम को दिखाता है, जिस का लाभ उठा कर विरोधी पार्टी और नेता दोनों सरकार पर निशाना साध रहे हैं. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अगर यह काम किसी विरोधी दल का होता तो विपक्ष इन अफवाहों को हवा देने के लिए सामने आ जाता. अचंभे की बात यह है कि इन अफवाहों को फैलाने में किसी विरोधी दल की दिलचस्पी नहीं नजर आई. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने तो राजनाथ सिंह की तारीफ की और कहा कि वे ऐसे नेता नहीं हैं. भाजपा में एकदो नेताओं के अलावा किसी ने भी राजनाथ सिंह के समर्थन में आवाज नहीं उठाई. 

केंद्र में सरकार बनने के बाद से भाजपा में सत्ता का संघर्ष जारी है. अपनेअपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्थापित करने का दौर चल रहा है. ऐसे में इन अफवाहों को फैलाने के लिए जरूरी खाद और बीज मिल जाता है. भाजपा में नंबर 2 की रेस चल रही है. नंबर 2 की इस रेस में सब से आगे 2 नाम, राजनाथ सिंह और अरुण जेटली के हैं. देखा जाए तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दोनों को ही बराबर मानते हैं. उन की ओर से दोनों नेताओं को अलगअलग जिम्मेदारी दी गई है.

कई बार इन नेताओं के समर्थक आपस में ऐसी रेस को जन्म देते हैं जो नेताओें के बीच खाई गहरी करने का काम करती है. कई बार नेताओं को लाभ होता है तो कई बार इस का नुकसान भी उठाना पड़ता है. नेताओं के बीच गहराती खाई का लाभ नेता को हो भी जाए तो पार्टी को उस का नुकसान झेलना ही पड़ता है. भाजपा नेताओं के बीच तालमेल के बिगड़ने का प्रभाव चुनावों पर भी पड़ रहा है. उत्तराखंड के बाद बिहार के उपचुनावों में जिस तरह से पार्टी की हार हुई है उस में इन अफवाहों का बड़ा हाथ माना जा रहा है. ताजा उपचुनावों में भी भाजपा की करारी हार से राजनीतिक रूप से कोमा में चली गई विपक्षी पार्टियों को अब उठ खड़े होने का मौका भी मिल गया है.

फिलहाल अफवाहें विरोधी नेताओं को निबटाने का जरिया बन कर उभरी हैं. ऐसे में अफवाहों के वारपलटवार की पूरी गुंजाइश बनी हुई है. जब तक अफवाहों के पीछे के तत्त्वों को बेनकाब नहीं किया जाएगा तब तक अफवाह और इन के पीछे की रणनीति पर होने वाली चर्चाओं को विराम नहीं दिया जा सकता है.

ग्लोबल जिहाद

एक जमाना था जब नौजवान अपने देश के लिए लड़ते थे. अब ग्लोबलाइजेशन का जमाना है तो युद्ध भी ग्लोबल हो गए हैं और जिहाद भी. सीरिया और इराक में हो रहे शियासुन्नी गृहयुद्ध में लगभग 80 देशों से आए लड़ाके लड़ रहे हैं. इधर, भारत में ऐसा समझा जाता था कि यहां के मुसलमान अपनी समस्याओं में ऐसे उलझे हुए हैं कि उन का सीरिया या इराक के गृहयुद्ध से कोई लेनादेना क्यों होने लगा लेकिन अब यह सुदूर मध्यपूर्व का युद्ध नहीं रहा. वह हमारी देहरी लांघ कर अंदर आ पहुंचा है.

पहले खबर आई कि हमारे देश के 18 सुन्नी नौजवान इराक व सीरिया में सुन्नी जिहादियों की तरफ से लड़ रहे हैं. फिर खबर आई कि मुंबई के पास के कल्याण शहर के 4 मुसलिम युवा सुन्नी आतंकी संगठन आईएसआईएस की तरफ से लड़ने के लिए वहां पहुंच गए हैं. उन में से एक तो लड़ते हुए मारा गया. उस के बाद लड़ने के लिए इराक ले जाए जा रहे 4 युवाओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. तो दूसरी तरफ हजारों शिया करबला और नजफ शहरों में बने अपने धर्मस्थलों की रक्षा के लिए इराक जाने को तैयार हैं. वे इस बाबत एक फौर्म पर हस्ताक्षर भी कर चुके हैं.

भारत में इस का प्रभाव

इस तरह शिया और सुन्नी जो भारत में शांति के साथ रहते हैं वे इराक में जा कर मरनेमारने को उतारू हैं. कोई दावे के साथ अब यह नहीं कह सकता कि उन की दुश्मनी केवल इराक तक ही सीमित रहेगी और भारत में इस का प्रभाव नहीं पड़ेगा. गौरतलब है कि इसलामिक स्टेट इन इराक ऐंड सीरिया यानी आईएसआईएस एक खूंखार आतंकवादी संगठन है. इस के आतंकवादी सीरिया व इराक में वहां की सरकारों से लड़ रहे हैं. आईएसआईएस वहां कट्टरपंथी हुकूमत कायम करना चाहता है. उस के लड़ाके वहां के शिया मुसलमानों, ईसाइयों व दूसरे धर्मों के मानने वालों को सुन्नी मुसलमान बनने को मजबूर कर रहे हैं अगर वे इन की बात नहीं मानते हैं तो उन्हें मार डालते हैं.

भारत का आम मुसलिम समाज अमनपसंद है लेकिन सीरिया और इराक के गृहयुद्ध में तेजी के साथ उभरा जिहाद अब ग्लोबल हो गया है. यह ग्लोबल जिहाद भारत में भी अपना असर दिखाने लगा है. भारत के कुछ मुसलिम युवा विदेशों में जा कर मजहब के नाम पर लड़ना चाहते हैं.

नदवी की खतरनाक मंशा

बात केवल यहीं तक सीमित नहीं रही. हाल ही में इस में एक जानेमाने सुन्नी मौलाना भी कूद पड़े हैं. पिछले दिनों मौलाना सलमान नदवी की कुछ करतूतों से खलबली मच गई. उन्होंने इराक में नरसंहार करने वाले और स्वयं को खलीफा करार देने वाले आईएसआईएस के नेता अबूबकर अल बगदादी को न केवल मान्यता प्रदान की बल्कि 5 लाख सैनिकों को इराक भेजने की बात कह कर सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की भी कोशिश की. उन्होंने 7 जुलाई को यह बयान दिया था लेकिन अमनपसंद मुसलिमों के विरोध के बाद वे बयान से मुकर गए और सारा दोष मीडिया पर मढ़ दिया. उन्होंने भारतीय नौजवानों की फौज बनाने की सऊदी अरब से अपील भी की और सऊदी अरब सरकार को इस बारे में खत लिख डाला.

नदवी कोई छोटीमोटी हस्ती नहीं हैं. वे दारुल उलूम, नदवा, लखनऊ के शरीयत विभाग के डीन हैं जिस की ख्याति भी दारुल उलूम देवबंद की तरह ही है. इस के अलावा वे औल इंडिया पर्सनल ला बोर्ड और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के कोर्ट के सदस्य हैं. दरअसल, सऊदी अरब सरकार को लिखे पत्र में नदवी चाहते हैं कि वे अपनी व सऊदी अरब की सोच, जोकि एक ही है, वाले कट्टर मुसलमानों को संगठित करें और ऐसे मुसलमानों की एक वैश्विक इसलामी सेना भी हो. इस के लिए वे 5 लाख सैनिकों का योगदान देंगे.

उन्होंने लिखा है कि इराक के शियाओं से लड़ने के लिए दूसरे देशों के मुसलमानों की मदद की जरूरत है. ऐसे में यह सेना कारगर साबित होगी जिस के गठन की उन्होंने सऊदी अरब से अपील की है. विदित हो कि कोई संगठन दोदो देशों की सरकारों से अकेले नहीं लड़ सकता. आईएसआईएस को सऊदी अरब, कतर व अन्य कुछ देशों की तरफ से हर तरह की मदद मिल रही है. नदवी ने सऊदी अरब सरकार को यह भी लिखा है कि आईएसआईएस के लड़ाकों को दुनिया आतंकवादी न समझे, उन्हें जिहादी कहा जाए क्योंकि वे महान कार्य में लगे हुए हैं. उन्होंने अरब के सभी जिहादी संगठनों का महासंघ बनाने की अपील भी की ताकि वे अपने को एक शक्तिशाली वैश्विक शक्ति में तबदील कर सकें. इस के अलावा नदवी स्वयंभू खलीफा और आईएसआईएस के नेता अबूबकर अल बगदादी को शुभकामनाएं भेज चुके हैं.

इस तरह नदवी सारे एशिया के इकलौते मौलाना हैं जिन्होंने बगदादी की खिलाफत को मान्यता दी है. लेकिन उन के जिस बयान से मुसलिम समुदाय में खलबली मची है वह भारतीय लड़ाकुओं की विदेशों में लड़ने के लिए सेना खड़ी करने की बात है. यह मुसलिम युवाओं को उग्रवादी बनाने की कोशिश है जो अब तक तो ग्लोबल जिहाद से दूर ही थे.

शिकंजा क्यों नहीं

उधर, भड़काऊ और सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाले बयानों के बावजूद सरकार या खुफिया एजेंसियों ने सलमान नदवी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की है. जानकारों का मानना है कि उग्रवाद को बढ़ावा देने वाली इस कोशिश को कुचला नहीं गया तो यह एक बड़ी लहर बन सकती है. पिछले दिनों इस की एक झलक देखने को भी मिली जब लखनऊ में शिया समुदाय के लोगों ने उत्तर प्रदेश सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री आजम खान, जो सुन्नी समुदाय के हैं, के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किया और उन के सरकारी आवास को घेरने की कोशिश की. पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर लाठियां चलानी पड़ीं जिस में कई जख्मी हुए. इस के बाद आजम खां के खिलाफ शियाओं ने मोरचा खोल दिया. उन के इस्तीफे की मांग शुरू हो गई. वैसे तो लखनऊ में कई बार शिया सुन्नी दंगे हुए हैं लेकिन शियाओं में ऐसी उग्रता पहली बार दिखाई दी.

दरअसल, कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि मध्यपूर्व के युद्ध ने शिया और सुन्नी समुदायों की नफरत को इतना बढ़ा दिया है कि इस बार शियाओं ने बड़े पैमाने पर भाजपा को वोट डाले. इस से भी सुन्नी नेता नाराज हैं. उधर, महाराष्ट्र के 4 नौजवानों के अलावा तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र के कुछ सुन्नी युवकों के मोसुल और टिकरित में आईएसआईएस के साथ शियाओं के खिलाफ चल रहे युद्ध में शामिल होने की बात कही जा रही है. पहले उन के फंसे होने की बात कही जा रही थी. इस के अलावा एक अंगरेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रैस ने कुछ ऐसे भारतीय मुसलिम नौजवानों के नाम व फोटो छापे थे जो पाकिस्तानअफगानिस्तान सीमा पर लड़ रहे हैं.

सब से पहले सीरिया के भारत में रहे राजदूत ने जरूर एक बार टिप्पणी की थी कि भारतीय लड़ाके सीरिया में असद सरकार के खिलाफ जारी आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हैं और तब विदेश मंत्रालय ने उन्हें बुलाया था व उन के बयान के लिए उन्हें लताड़ लगाई थी. हाल ही में कश्मीर और तमिलनाडु में कई आईएसआईएस के प्रशंसक उस की टी शर्ट पहन कर घूमते देखे गए.

पिछले महीने आईएसआईएस के मुखिया और स्वयंभू खलीफा बगदादी ने मोसुल की ग्रांड मसजिद में अपने पहले भाषण में कहा कि खिलाफत ने भारतीय, शामी, चीनी, इराकी, यमनी, मिस्री, मगरिबी, मेरिकी, फ्रेंच, जरमन और आस्ट्रेलियायियों को इसलाम के दुश्मनों से बदला लेने के लिए एक झंडे तले इकट्ठा किया है. एक तरफ सुन्नी इराक जा कर आईएसआईएस की तरफ से लड़ना चाहते हैं तो दूसरी तरफ शिया इराक स्थित अपने धर्मस्थलों को सुन्नी हमलों से बचाने के लिए इराक जाना चाहते हैं.

दिल्ली स्थित शिया संगठन अंजुमन ए हैदरी ने उर्दू अखबारों में विज्ञापन दिया कि आतंकवादी हमलों के शिकार बेकुसूर इराकियों की मदद करने के लिए डाक्टर, नर्स, इंजीनियर के तौर पर इराक जाने के लिए अपने नाम दर्ज कराएं. विज्ञापन में भले ही बेकुसूरों की मदद करने के लिए वहां जाने की बात कही गई है मगर असल में वे शिया धर्मस्थलों की रक्षा करने जाना चाहते हैं. संगठन के नेताओं ने पहले दावा किया था कि 20 हजार लोगों ने अपने नाम दर्ज कराए हैं. उन में 25 प्रतिशत महिलाएं हैं.

दूसरी तरफ, 40 साल पुराने शिया संगठन, औल इंडिया शिया हुसैनी फंड ने लखनऊ और देश के दूसरे हिस्सों में लगाए पोस्टरों में घोषणा की है कि जो कोई आईएसआईएस के खलीफा, अल कायदा के सुप्रीमो अयमान अल जवाहिरी, जमाततुद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद, तालिबान के मुखिया मुल्ला उमर और हरकत अल मुजाहिदीन के नेता अजहर मसूद में से किसी का कटा हुआ सिर ले कर आएगा तो उसे करोड़ रुपए का ईनाम दिया जाएगा. संगठन के महासचिव हसन मेहंदी का कहना है, ‘ये लोग पाकिस्तान से सीरिया तक हजारों बेकुसूर शिया मुसलिम, हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों की हत्या कर मानवता के खिलाफ अपराध कर रहे हैं. इस के अलावा अल कायदा ने हाल ही में भारत की तबाही के लिए अलग इकाई बनाने की घोषणा की है. इसलिए इन लोगों को धरती से खत्म किया जाना जरूरी है.’

चपेट में कई देश

ग्लोबल जिहाद से केवल भारत का नेतृत्व ही चिंतित हो, ऐसा नहीं है. यह अब दुनिया के कई देशों की समस्या बनती जा रही है. अब तक कुछ मुसलमान उन स्थानों पर जा कर लड़ते थे जहां उन्हें लगता था कि मुसलिमों पर अत्याचार हो रहा है, जैसे चेचेन्या या अफगानिस्तान आदि. लेकिन अब बात इस से आगे बढ़ गई है. इराक और सीरिया में जिहाद के नाम पर सुन्नी से लड़ रहे हैं. वे दोनों मुल्कों में शियाओं की भी मार रहे हैं. अपनी रक्षा में शियाओं को भी उन से लड़ना पड़ रहा है. सुन्नी जिहादियों के साथ कई देशों के लड़ाके लड़ रहे हैं. लंदन के इंटरनैशनल सैंटर फौर स्टडी औफ रेडिकलाइजेशन ऐंड पौलिटिकल वायलैंस के मुताबिक, सीरिया में बशर अल असद की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए 74 देशों के 11 हजार विदेशी लड़ाके भी लड़ रहे थे. पहले इन में से ज्यादातर पड़ोसी देशों के थे लेकिन बाद में आईएसआईएस ने और देशों में भी भरती शुरू की जिस में वह सफल भी रहे.

बता दें कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद न तो शिया मुसलमान हैं न ही सुन्नी मुसलमान. वे नुसैरी मुसलमान हैं, उन्हें अलवी मुसलमान भी कहा जाता है. आईएसआईएस के लड़ाकों में पश्चिमी देशों के युवा भी बड़ी संख्या में हैं लेकिन इन में ज्यादा संख्या इन देशों के मुसलिम अप्रवासियों के नातीपोतों की है और थोड़ेबहुत धर्मांतरित सुन्नी मुसलमान हैं. फ्रांस के 320, आस्ट्रेलिया के 100 और ब्रिटेन के 500 लोग बताए जाते हैं. अमेरिका और कनाडा के युवा भी हैं लेकिन उन की सही संख्या का पता नहीं है.

जिहादियों में महिलाएं भी

इस के अलावा कई और देशों के युवा भी हैं. अब तो आईएसआईएस संगठन महिलाओं को भी जिहाद में योगदान करने के लिए बुला रहा है. कुछ देशों की महिलाएं वहां पहुंच भी गई हैं. इन देशों की अभी सब से बड़ी चिंता यह है कि ये जिहादी जब लौटेंगे तो अपने साथ उग्रवादी मानसिकता ले कर लौटेंगे जो समाज में अशांति फैलाएगी. उस से कैसे निबटा जाए. वैसे, फ्रांस ऐसा कानून बनाने वाला है जिस से लड़ने के लिए जाने वालों पर रोक लगे. वहीं ब्रिटेन उन लोगों के लौटने पर पाबंदी लगाने की सोच रहा है जो लड़ने गए हैं. जरमनी अपने युवाओं से संपर्क साध रहा है, वह उन की काउंसलिंग कराएगा और रोजगार मुहैया कराएगा. भारत अभी असमंजस में है कि ऐसे युवाओं का क्या करे. अभी उसे यह भी पता नहीं है कि कितने युवा वहां हैं.

आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल

आतंकी संगठन आईएसआईएस अपने सामाजिक और धार्मिक विचारों में भले ही पुरातनपंथी हो लेकिन तकनीक के मामले में पूरी तरह आधुनिक है. वह अपने प्रचारप्रसार के लिए न्यूमीडिया की तकनीक, औनलाइन, जिहादी वीडियो और यूट्यूब, इसलामी वैबसाइट का बखूबी इस्तेमाल करता है जिन को लाखों लोग देखते हैं. विदेशी मुसलिमों को आकर्षित करने के लिए अमेरिका और कनाडा के मुसलिम लड़ाकों ने इराक व सीरिया के अपने मिशन पर जाने से पहले औनलाइन संदेश डाले हैं जिस में वे दुनियाभर के मुसलिमों से अपील करते हैं कि भौतिकवाद की सुविधाओं को छोडि़ए, सीरिया और इराक में लड़ रहे जिहादियों के साथ सच्ची खुशी खोजिए.

दरअसल, जो 4 मुसलिम युवा घर से गायब हो कर लड़ने के लिए मोसुल गए थे वे मुल्लामौलवियों के उपदेशों से प्रभावित हो कर नहीं बल्कि आतंकी संगठनों के औनलाइन प्रचार से प्रभावित हो कर गए थे. उन्हें इस औनलाइन प्रचार को आत्मसात करते देर नहीं लगी कि मुसलिम अत्याचारों का शिकार हो रहे हैं और उन को काफिरों से बचाने के लिए शक्ति के इस्तेमाल की जरूरत है. वहीं, पिछले दिनों गाजा पर इसराईली हमले के जो फोटो पिं्रट में व औनलाइन मीडिया में प्रसारित हुए. उन से ग्लोबल जिहाद को बढ़ावा मिला है.

इन दिनों देश में ‘लव जिहाद’ की बड़ी चर्चा है लेकिन आतंकी जिहाद पर सरकार, विपक्ष और मीडिया सभी चुप्पी साधे हुए है क्योंकि इस से कोई राजनीतिक या स्वहित का फायदा नजर नहीं आ रहा. इराक और सीरिया के मामले में चौंकाने वाली बात यह है कि पहले इसलाम को बचाने के लिए या मुसलिमों को काफिरों के अत्याचार से बचाने के लिए जिहाद किया जाता था.  अब जिहाद और भी ज्यादा संकीर्ण हो गया है. लोग शिया और सुन्नियों के सांप्रदायिक युद्ध को भी जिहाद का नाम देने लगे हैं. शियाओं को सुन्नियों से बचाने और सुन्नियों को शियों से बचाने के लिए सुन्नी जिहाद और शिया जिहाद शब्द चल पड़े हैं. अब मुसलिमों को मुसलिम से बचाने का भी जिहाद कहा जाने लगा है. जिहाद शब्द का इस से बड़ा मजाक क्या हो सकता है. लेकिन धीरेधीरे यह साफ होने लगा है कि इस से भारत के शिया व सुन्नियों के बीच भी तनाव पैदा होने लगा है.

आप के पत्र

सरित प्रवाह, अगस्त (द्वितीय) 2014

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘राजनीति और न्यायपालिका’ निसंदेह एक अहम व चिंतनीय स्थिति को उजागर करती है क्योंकि जिस संदर्भ में यह प्रश्न उठाया गया है उस व्यवस्था पर न केवल जनसाधारण की एक अटूट आस्था ही निर्भर करती रही है बल्कि उस के वाहकों को हम तथाकथित ‘भगवान’ तक मान कर पूजते भी रहे हैं.

लेकिन शायद यह हमारी सामाजिक दिग्भ्रमितता ही कही जाएगी कि यहां भी हम गलत ही ठहरे जो इंसानों को भगवान रूप में उकेर कर अतिभ्रम के शिकार हो गए. वरना हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हमारे न्यायविद भी तो उसी समाज के अंग हैं जहां जर, जोरू और जमीन के भंवर में फंस कर सभी ‘गलतियों के पुतलों’ में तबदील होते नजर आए हैं. ऐसी शर्मनाक तथा कलुषित स्थिति के लिए हम किन्हीं को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं तो वे हमारी गंदली राजनीति, सत्तालोलुप प्रशासक तथा हमारी दोगली मानसिकता ही हैं.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

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‘राजनीति और न्यायपालिका’ संपादकीय पढ़ा. कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि हमारे देश में कई बड़े अधिकारी, न्यायाधीश व राजनीतिक हस्तियां अपने कार्यकाल में तो अपनी हैसियत, सत्ता और शक्ति का बिना उफ किए जम कर फायदा उठाते हैं परंतु रिटायर होने या सत्ता से हटने के बाद जब वे हाशिए पर आ जाते हैं तब नैतिकता का लबादा ओढ़ कर, बयानबाजी कर के या किताबें लिख कर व्यर्थ की सनसनी फैलाते हैं. कोई उन से पूछे कि जब आप की तूती बोलती थी तब ये सनसनीखेज बातें आप ने क्यों होने दीं और उसी समय क्यों नहीं सार्वजनिक कीं? तब आप का तथाकथित जमीर कहां सोया था? देखा जाए तो ऐसे लोगों की बातों को यदि मीडिया ज्यादा महत्त्व न दे तो इस प्रकार की घटनाएं बंद हो जाएंगी.

न्यायाधीशों की नियुक्तियों में जस्टिस काटजू द्वारा बताई गई कथित एक गड़बड़ से भूतकाल में हुई सभी असंख्य नियुक्तियों को संदिग्धता के दायरे में लाना तो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. फिर उन्होंने ऐसा कोई केस नहीं बताया जिस में उस कथितरूप से दागी जज साहब ने न्याय करने में कोई गलती की हो. ऐसे में जस्टिस काटजू के आरोप औचित्यहीन ही माने जाएंगे. अच्छा होता कि जस्टिस काटजू वर्तमान में विभिन्न कोटों में लंबे समय से पैंडिंग लाखों मुकदमों के शीघ्र निबटारे व भ्रष्टाचार रोकने के उपाय बताते.

बी डी शर्मा, यमुना विहार (दिल्ली)

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‘राजनीति और न्यायपालिका’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में आप के विचार पढ़े. निष्पक्ष एवं निडर सरिता के माध्यम से मैं कहना चाहूंगी कि कब तक नेतागण सस्ती लोकप्रियता हेतु करोड़ों के खर्च पर जबरदस्ती भीड़ इकट्ठी करते रहेंगे. रैलियों, सभाओं में अपने उबाऊ भाषण से अनपढ़, गंवार, दिग्भ्रमितों से तालियां पिटवा कर वाहवाही बटोरते रहेंगे. लाशों पर राजनीति करने वाले ये नेतागण अपनी रक्षा हेतु काफिलों में चल कर जनजीवन को अस्तव्यस्त करते रहेंगे. भाजपा के नेतागण से मेरी यही गुजारिश है कि वे गंगा, यमुना, सरस्वती अभियान को त्याग कर बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को युद्धस्तर पर चलाएं.

नेताओं ने 68 साल तक भाषणों के सिवा जनगण को दिया ही क्या है? जब तक वे देश को खुशहाल नहीं करते उन्हें कोई हक नहीं है कि वे शहीदों को श्रद्धांजलि दें, गांधीजी की समाधि पर जाएं या खून के आंसुओं से भीगी हिंद देश की धरती पर सुख, शांति व स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे को लहराएं.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

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संपादकीय टिप्पणी ‘टैक्नोलौजी की असलियत’ पढ़ी. यह सोलह आने सच है. टैक्नोलौजी क्रांति से जितना सुधार नहीं हुआ है उस से अधिक समस्याएं पैदा हो गई हैं. आज का युवावर्ग गैजेट्स का उपयोग कम, दुरुपयोग अधिक कर रहा है. साइबर क्राइम इस का जीताजागता उदाहरण है. पहले भी लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं होती थीं मगर तब कुछ लोग ही इसे जान पाते थे. जबकि आज बच्चेबच्चे की जबान पर चढ़ जाता है. सोशल मीडिया पर लाइक और शेयर करने की होड़ लग जाती है. तब कहा जाता है कि देश की जनता पीडि़ता के साथ है मगर यह सोचने वाली बात है कि जब लाखों लोग इसे कुकृत्य ठहरा रहे हैं तब साल में बलात्कारियों एवं अत्याचारियों की संख्या 70 हजार के पार कैसे चली गई? सच तो यह है कि जिस बात पर लाइक एवं शेयर करने में चंद सेकंड लगते हैं उसी बात को अपने जीवन में उतारने में एक जन्म कम पड़ जाता है. सोशल मीडिया पर लोग सच कम, झूठ ज्यादा बोलते हैं. हजारों रुपए टैक्नोलौजी पर खर्च करने वाले युवाओं के पास इतना समय नहीं होता कि वे अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दे सकें.

क्या कोई ऐसी टैक्नोलौजी नहीं ईजाद की जा सकती जो गरीबी दूर कर सके, जो आतंकवाद मिटा सके, जो बलात्कारियों को रोक सके, जो धर्म एवं जाति का भेदभाव मिटा सके, जो लोगों में इंसानियत पैदा कर सके? यदि हम ऐसे गैजेट्स बनाने में असमर्थ हैं तो फिर हमें कोई हक नहीं बनता टैक्नोलौजी क्रांति का दंभ भरने का. टैक्नोलौजी से जितनी दूरियां नहीं मिटी हैं उस से कहीं अधिक खाइयां बन गई हैं भविष्य के लिए टेक्नोलौजी के कदम इतने आगे बढ़ चुके हैं कि रास्ते कम पड़ते महसूस हो रहे हैं.

आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘टैक्नोलौजी की असलियत’ पढ़ कर ऐसा लगता है कि यही हाल रहा तो लोग विवाह करना, लिव इन रिलेशनशिप छोड़ कर सोशल साइट्स देख कर अकेले रहेंगे क्योंकि उन के लिए बीवी, बच्चे सिरदर्द बन रहे हैं. किसी दिन जापान की तरह यहां भी रबड़ की औरत बनेगी जिस के साथ आदमी यौन इच्छा पूरी करेगा. अकेले रहो, मोबाइल पर बात करो, सोशल साइट्स देखो और खुश रहो.

इंदर प्रकाश, अंबाला छावनी (हरियाणा)

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ढोंग है जन्मपत्री मिलान

लेख ‘दूसरी शादी जोखिम भी है’ अगस्त (द्वितीय) अंक में पढ़ा. भारत में जन्मपत्री मिला कर विवाह करने का रिवाज है लेकिन फिर भी शादियां टूट रही हैं. अमेरिका में साइकोलौजिस्ट से सलाह कर के विवाह हो रहे हैं. भारत में लोग अच्छा खानदान और पैसा देखते हैं. लेकिन यह सुखी होने की गारंटी नहीं है.

इंदर ‘अकेला’, करनाल (हरियाणा)

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उत्तम कार्य

सरिता का मैं बहुत पुराना पाठक हूं. अगस्त (द्वितीय) अंक पढ़ने के उपरांत फिर अनुभूति हुई कि आप समाज की विभिन्न अंधकुरीतियों को मिटाने की दिशा में उत्तम कार्य कर रहे हैं. आभारी हूं.

अभिराम जयशील, लाजपत नगर (न.दि.)

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प्रभावशाली अंक

अगस्त (द्वितीय) अंक बेहद प्रभावशाली था. लेख ‘एक शायर गुलजार’ के अंतर्गत गुलजार साहब के विषय में पढ़ना अच्छा लगा. कहानी ‘पिता का दर्द’ दिल को छू गई. जब बेटा अपना फर्ज भूल कर पिता को धोखा दे तो यह पूरे समाज के लिए शर्म की बात होती है. संभव हो तो कहानियों की संख्या बढ़ाने की कृपा करें.

सुमेंद्र कुमार श्रीवास्तव, बेतिया (बिहार)

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अगस्त (द्वितीय) अंक में कहानी ‘पिता का दर्द’ एकसाथ कई सवालों को ले कर चलती है. पहला, उन पिताओं के लिए सबक है जो सोचते हैं कि पुत्र नहीं होगा तो अरथी को कंधा कौन देगा, वंश को आगे कौन बढ़ाएगा. दूसरा, यह गलतफहमी कि पढ़ाई हो तो बस विदेश में हो चाहे अपने घर का सबकुछ ही क्यों न बेचना पड़ जाए. तीसरा, आज भी समाज में बेटों की चाह में बेटियों की अवहेलना जारी है. अब चाहे दिखावे के लिए लोग इन्हें एक जैसा मानने लगे हों, मगर 2 लड़कियों के बाद भी

लड़के की चाहत बनी रहती है. चौथे, आज के जमाने को देखते हुए भी अपना सबकुछ अपनी मृत्यु से पहले ही अपनी संतान को सौंप देना कहां की अक्लमंदी है.

कहानी में कई संदेश होने के बावजूद कहानी में दर्शाई गई समस्या का कोई ठोस समाधान न होने से लगता है कि एक पिता इतना समर्थ होने के बाद भी अपनी स्वार्थी संतान से हार गया, जो सही नहीं लगा. कहानी का कोई तार्किक अंत होना चाहिए था.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

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दिल छूती कहानियां

अगस्त (द्वितीय) अंक में छपी कहानी ‘टेसू के फूल’ और ‘अंतर्व्यथा’ बेजोड़ लगीं. पढ़ कर आंखों में आंसू आ गए.

आर के वर्मा, गुमला (झारखंड)

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मार्मिक कहानी

अगस्त (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कहानी ‘अंतर्व्यथा’ बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी लगी. लेखिका ने मां की व्यथा को बहुत ही सुंदर ढंग से दर्शाया है. मातापिता के गलत निर्णय के कारण मां और बच्चे की मानसिक व्यथा को बहुत ही खूबसूरती से पेश किया है. इस कथा से हमें सीख मिलती है कि पुरुष यदि किसी विधवा या तलाकशुदा स्त्री से शादी करता है तो उसे उस स्त्री को उस के बच्चे समेत स्वीकार करने की खुली विचारधारा रखनी चाहिए. संकीर्ण मानसिकता से वह 2 जानों पर अन्याय करेगा. साथ ही, मासूम जिंदगियों को दलदल में डालने जैसे घृणित कृत्य का भागीदार भी रहेगा.

मातापिता को भी पुत्री का पुनर्विवाह उस के अबोध बच्चे समेत ही करने का साहस करना चाहिए, जिस से उन दोनों को तनावमुक्त नई जिंदगी मिले और शिशु ममता की छांव में पलेबढ़े. मां को बच्चे से अलग करने से उत्पन्न मां की व्यथा  को बहुत सुंदर ढंग से लेखिका ने व्यक्त किया है.

मनीषा रायपूरे, मुंबई (महाराष्ट्र)

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निष्ठुर युवा पीढ़ी

अगस्त (प्रथम) अंक में लेख ‘मां बनी आया’ पढ़ कर आज की युवापीढ़ी पर बड़ा गुस्सा आता है कि जो मां अपने खून से सींच कर कलेजे के टुकड़े को पालपोस कर जीने की राह दिखाती है वही बेटा मां को भूख से बिलखते, बेसहारा छोड़ देता है.     

जीतेंद्र कुमार, रांची (झारखंड)

धर्म के नाम पर करोड़ों स्वाहा

पत्थरों में भगवान की मौजूदगी मान कर अपने देश में वर्षभर कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में भगवान की पूजा होती है. सार्वजनिक पूजा के नाम पर करोड़ों रुपए की बरबादी टीस पैदा करती है. पश्चिम बंगाल समेत देश के कई राज्यों में दुर्गा पूजा की प्रारंभिक तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. पूजापंडाल व आलोक सज्जा की रूपरेखा बनने लगी है. मूर्तिकार प्रतिमाएं गढ़ने में व्यस्त हैं. इस का दायरा महोत्सव से बढ़ कर एक प्रतियोगिता का रूप ले रहा है. सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही यदि दुर्गा पूजा पर होने वाले खर्च का आकलन किया जाए तो यह राशि कम से कम 200 करोड़ रुपए के आसपास पहुंचती है. क्या इस राशि को गरीबों के कल्याण पर खर्च करने की बाध्यता को लागू नहीं किया जा सकता. दुर्गोत्सव में सामाजिक व जनकल्याण कार्य भी किए जाते हैं लेकिन ये काफी कम होते हैं. ज्यादा जोर तामझाम और फुजूलखर्ची पर ही नजर आता है. दुर्गा पूजा के दौरान उत्सव में डूबे संभ्रांत व मध्यवर्गीय परिवारों की खुशी के बीच गरीबों की तंगहाली खासकर बच्चों की बेबसी सर्वत्र नजर आती है. समाज का एक वर्ग पूजापंडालों में गरीबों के बीच वस्त्र वितरण जैसे कार्यक्रम भी आयोजित कराता है लेकिन बदहाली के बावजूद जो सार्वजनिक मंचों पर जा कर सहायता लेना मंजूर नहीं कर सकें, उन का क्या? दुर्गा पूजा के दौरान सरकारी कर्मचारीवर्ग तो लंबी छुट्टियों की सौगात के साथ बोनस व एरियर के तौर पर मोटी रकम से भी लैस रहता है. जबकि सामान्य वर्ग को इस पर्व को मनाने के लिए पाईपाई जुटाने में ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है. इन्हीं वजहों से उत्सवों के दौरान आत्महत्या की घटनाएं बढ़ जाती हैं. पूजा को पूजा के तौर पर न ले कर मौजमस्ती के रूप में मनाने की प्रवृत्ति भी है. प्रतिमा विसर्जन के दौरान तड़कभड़क की दिनोंदिन बढ़ती प्रतियोगिता और युवकों का नशे में धुत्त हो कर नाचनेगाने का बेहूदा चलन भी है.

अमितेश कुमार ओझा, खड़गपुर (प.बं.)

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