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मिठाई बनाएं खास

मैल्टिंग मूवमैंट्स

सामग्री : 1/2 कप पिघली चौकलेट, 1/2 किलो प्लेन चौकलेट स्पंज केक, 100 ग्राम ताजी क्रीम, 1/2 अनन्नास के बारीक कटे टुकड़े, 1/2 कप बारीक कुटे मेवे.

कोटिंग के लिए : 1 बड़ा चम्मच सफेद भुने तिल, 1 बड़ा चम्मच नारियल का बुरादा, 1 बड़ा चम्मच बौर्नविटा, 1 बड़ा चम्मच बारीक कूटे व भुने ओट्स, 1 बड़ा चम्मच कूटे कौर्नफ्लैक्स और 10-15 चौकलेट किस सजाने के लिए.

विधि : लड्डू बनाने की सारी सामग्री को एकसाथ मिला कर अच्छी तरह से गूंथ लें. मनचाहे आकार के लड्डू बनाएं. कोटिंग की सभी सामग्रियों को अलगअलग छोटी प्लेटों में रखें. अब लड्डुओं को इन विभिन्न प्रकार की कोटिंग से सजाएं. ऊपर एकएक चौकलेट किस रखें. मुंह में घुल जाने वाले स्वादिष्ठ मैल्टिंग मूवमैंट्स तैयार हैं.

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सालसा चीज क्रैकर्स

सामग्री : 1/2 किलो चीज या पनीर, 1/4 छोटा चम्मच ड्राय बेसिल, 1 छोटा चम्मच औलिव औयल, 1/4 छोटा चम्मच ड्राय ओरगैनो, 1 चुटकी नमक, 15-20 क्रैकर्स, 1/2 कटोरी कसा हुआ चीज.

सौस के लिए : 1/2 कप टोमैटो कैचप, 1 बड़ा चम्मच हौट व सौर चिली सौस, 1/2 छोटा चम्मच सोया सौस, 1 बड़ा चम्मच बारीक कटी गाजर, 1 बड़ा चम्मच बारीक कटी बंदगोभी, 1-1 बड़ा चम्मच बारीक कटी पीली व हरी शिमलामिर्च.

विधि : चीज या पनीर के आयताकार 1/2-1/2 मोटे टुकड़े काट लें. फिर चीज पर नमक, औलिव औयल, बेसिल व ओरगैनो लगा कर उसे ग्रिल कर लें. बड़े बाउल में सौस की सारी सामग्री को मिला लें. अब एक डिश में नीचे सालसा सलाद बिछाएं, ऊपर चीज रखें, फिर क्रैकर्स पर चीज बुरक कर बेक कर लें.

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अंजीर व पान संदेश

सामग्री : 8-10 अंजीर, 5-6 पान के पत्ते, 750 ग्राम पनीर, 2 बड़े चम्मच पिसी चीनी, 1/4 छोटा चम्मच पिसी छोटी इलायची, 5-6 बड़े चम्मच गुलकंद, 2 बड़े चम्मच पिघली चौकलेट, 1 बड़ा चम्मच मक्खन, 1 बड़ा चम्मच बारीक कटे मेवे, सजाने के लिए ताजी गुलाब की पत्तियां, 1 छोटा चम्मच वनीला एसैंस.

विधि : पनीर, इलायची पाउडर और चीनी को मिला कर हथेलियों से अच्छी तरह मसलें. इतना मसलें कि यह मिश्रण मैदे के एक गूंथे हुए पेड़े जैसा हो जाए. अब इस मिश्रण की मनचाही आकार की टिक्कियां बना लें. अंजीर को 1 चम्मच चीनी तथा वनीला एसैंस मिले गरम पानी में कुछ देर भिगो कर रख दें. पिघली चौकलेट में मक्खन मिलाएं तथा कटे मेवे डाल दें. पान के पत्तों की लंबी पट्टियां काटें तथा इन्हें संदेश पर आड़ातिरछा कर के रख दें. ऊपर चौकलेट फैलाएं. 1 छोटे चम्मच में गुलकंद भर कर चौकलेट पर फैलाएं. ऊपर अंजीर रखें तथा चेरी या जैम्स से सजा कर फ्रिज में ठंडा होने को रख दें. फिर परोसें.

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डाइटिंग छोड़ें डाइट का मजा लें

दीवाली के आने का मतलब होता है ढेर सारा खानापीना, ढेर सारी मस्ती करना. ऐसे में अगर हम डाइटिंग के बारे में सोचने लगे तो मजा फीका होगा ही. इसलिए दीवाली पर नो डाइटिंग. एंजौय करने का जो भी मौका मिले उसे कभी भी डाइटिंग के कारण खराब नहीं करना चाहिए. आप ही सोचिए त्योहार क्या रोजरोज आता है, ऐसे में भी अगर हम हर बाइट के साथ मोटे होने की बात सोचेंगे तो न हम खाने का मजा ले पाएंगे और न ही फैस्टिवल को पूरी तरह एंजौय कर पाएंगे.

अगर हम सही डाइट प्लान बना कर चलें तो 4 दिन हैवी डाइट लेने पर हम मोटे या फिर बीमार नहीं होंगे. आप को सिर्फ इस बात का ध्यान रखना होगा कि आप को जितनी भूख हो उतना ही खाएं. जरूरत से ज्यादा खाना आप को बीमार कर सकता है.

खाएं और खिलाएं भी

फैस्टिवल मूड और घर में पकवान न बने, ऐसा तो हो ही नहीं सकता. दीवाली पर घर में दहीभल्ले, पूरी सब्जी, खीर, पकौड़े बनने लाजिमी हैं. ऐसे में हम पकवानों से भरी प्लेट सामने आते ही डाइटिंग की बात कहने लगें तो घर पर त्योहार जैसा माहौल नहीं बन पाएगा. ऐसे में यदि आप बाकी घर वालों के सामने डाइटिंग के चक्कर में सलाद ले कर बैठ जाएं तो आप ही सोचिए कि इस से आप को और बनाने वाले को कैसा लगेगा. इसलिए त्योहार के मौके पर आप के घर कोई आए तो उसे खूब खिलाएं.

खुशी मिलबैठ कर खाने में

आज की भागदौड़भरी जिंदगी में किसी के पास भी समय नहीं है कि वे साथ बैठ कर खाना खा सकें. सब के औफिस या व्यापारिक प्रतिष्ठान से आने का टाइम अलगअलग होता है. ऐसे में रोज साथ बैठ कर खाना खाना संभव नहीं हो पाता. सिर्फ त्योहार ही ऐसा मौका होता है जब घर में सभी की छुट्टी होती है. ऐसे में हम मिल कर खाना खा सकते हैं और मन को एक अलग ही खुशी मिलेगी. अगर आप औयली चीज देख कर ना कहने लगें तो सामने वाले आप को बोरिंग बोलने से भी नहीं चूकेंगे. इसलिए अपने कारण बाकी लोगों की खुशियों को फीका न करें बल्कि शामिल हो कर दीवाली को यादगार बनाएं.

चार दिन में कोई मोटा नहीं होता

जब आप यह सोच कर बाकी काम कर सकते हो कि 4 दिन अगर पढ़ाई नहीं की तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा या फिर अगर 4 दिन औफिस नहीं गए तो कौन सा वहां का काम रुक जाएगा तो ठीक इसी तरह यदि आप दीवाली पर खुल कर खा लोगे तो कोई मोटापा बढ़ने वाला नहीं है. मोटापा रोजरोज तली हुई चीजें खाने से बढ़ता है न कि कभीकभी खाने से. इसलिए मन से मोटापे का डर निकाल दें.

राष्ट्रीय राजधानी स्थित ईजी डाइट क्लीनिक की डाइटीशियन रेणु चांदवानी कहती हैं कि दीवाली जैसे त्योहार पर न चाहते हुए भी काफी कुछ खा लिया जाता है. ऐसे में हम दीवाली के बाद की डाइट को कंट्रोल कर के संतुलन बना सकते हैं. अगर आप को पूरे दिन में 3 बार मील लेना है तो आप सुबह टोंड दूध लेने के थोड़ी देर बाद फू्रट ले लें या फिर स्प्राउट्स लें. दिन में अगर आप ने एक दाल व एक सब्जी 2 रोटी के साथ ले ली हैं तो फिर रात को खाने में आप दाल व सलाद लें. इस से आप की डाइट बैलेंस रहेगी. आप कुछ दिनों तक उबली हुई सब्जियां खाएं, ऐक्सरसाइज का रुटीन बढ़ाएं. इस से आप को काफी सुधार महसूस होगा.

दीवाली के पर्व पर खूब खाएं पर इस बात का ध्यान रखें कि दीवाली के बाद 1-2 हफ्ते तक फास्टफूड और औयली चीजों को बिलकुल भी न लें. चौकलेट, चिप्स, तले हुए खाद्य पदार्थों को कुछ दिनों तक नजरअंदाज करें. यानी इस दीवाली पर फुल मस्ती. 

क्या करें दीवाली से पहले

पूरी नींद लें : फैस्टिवल पर फुल एंजौय करने के लिए समय पर सोएं व 7-8 घंटे की पूरी नींद लें जिस से आप को थकान महसूस न हो और आप सभी कार्यों को पूरे जोश के साथ कर सकें. जब तक आप की नींद पूरी नहीं होगी तब तक आप तरोताजा महसूस नहीं कर पाएंगे.

त्योहार के पहले ऐक्सरसाइज : दीवाली के 2 हफ्ते पहले से अगर आप रोजाना ऐक्सरसाइज का नियम बना लें तो आप खुद ही अपने में चेंज देखेंगे. इस से दीवाली पर कपड़े पहनने का भी अलग मजा आएगा. स्मार्ट दिखने के लिए अच्छा फिगर होना भी जरूरी है. 2 हफ्ते की ऐक्सरसाइज के बाद अगर आप ने 2-3 दिन खा भी लिया तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

ज्यादा चीनी न लें : उतनी ही चीनी लें जितनी जरूरी हो. ऐसा न करें कि अगर आप ने सुबह दूध में डाल कर 2 चम्मच चीनी ले ली है तो फिर दिन और शाम में भी चीनी वाली चाय या कौफी ले ली. इस से मोटापा बढ़ेगा. पूरे दिन में एक बार ही चीनी लें ताकि बैलेंस डाइट रहे ताकि आप दीवाली पर मिठाइयों का मजा उठा सकें.

कोल्डडिंक्स, फास्टफूड न खाएं : कोल्डडिंक्स व फास्टफूड में कैलोरीज ज्यादा होती है जो आप को बीमार कर सकती है इसलिए त्योहारों से पहले फास्टफूड को कहें बायबाय और हैल्दी फूड यानी फल, सब्जियों को ही अपनी डाइट में शामिल करें.

स्ट्रैस से दूर रहें : स्ट्रैस खुशी के मौके को फीका करता है. साथ ही, ज्यादा स्ट्रैस वजन भी बढ़ाता है क्योंकि जब आप कम सोएंगे तब आप को ज्यादा भूख का एहसास होगा. इसलिए स्ट्रैस से दूर रहें.

दीवाली के बाद

दीवाली के बाद उबली सब्जियां खाएं : दीवाली जैसे त्योहार पर खानेपीने को काफी चीजें हैं. दीवाली के बाद उसे कंट्रोल करने के लिए आप उबली हुई सब्जियां खा कर शरीर को थोड़ा आराम दें. इस से आप को अच्छा महसूस होगा.

ऐक्सरसाइज का टाइम बढ़ाएं : आप को अगर ऐसा लग रहा है कि आप ने दीवाली पर बहुत ज्यादा खा लिया है और शरीर भारीभारी लग रहा है तो ऐक्सरसाइज का टाइम बढ़ाएं. आप पहले आधा घंटा ऐक्सरसाइज करते थे तो उसे 1 घंटा कर दीजिए. इस से आप का शरीर थोड़े ही दिनों में पहले जैसा हो जाएगा.

तले हुए खाद्य पदार्थ से बचें : सब्जियों में ज्यादा घी, तेल न डालें, सिर्फ उतना ही डालें जितनी जरूरत हो. अगर आप दाल में ऊपर से घी डाल कर खाएंगे तो ये आप की सेहत से खिलवाड़ होगा.

उपासना सिंह से बातचीत

चटपटी बातों और लटकोंझटकों से सब को हंसाने वाली ‘कौमेडी नाइट्स विद कपिल’ टीवी कार्यक्रम में बूआ का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री उपासना सिंह 26 वर्षों से टैलीविजन सीरियल्स, बौलीवुड और पौलीवुड में अभिनय कर रही हैं. उन में सब से बड़ी खासीयत यह है कि चाहे वे कितनी भी व्यस्त हों, त्योहार अपने परिवार के साथ ही मनाती हैं. एक मुलाकात में उन्होंने बताया कि किस तरह से उन्होंने अपने अभिनय के लंबे सफर को तय किया और त्योहारों खासकर दीवाली में क्याक्या करती हैं खास.

कौमेडी का सफर कैसे शुरू हुआ?

राजस्थानी फिल्म करने के बाद कई और फिल्मों के औफर आए, मैं ने उन में अभिनय किया, सब में मुख्य भूमिका थी. वही नाचगाना, रोमांटिक भूमिका. लोग मुझे लेडी अमिताभ या फिर राजस्थान की मीना कुमारी कहा करते थे. ऐसे में डेविड धवन ने फिल्म ‘लोफर’ के लिए रोल औफर किया. मेरे कोस्टार शक्ति कपूर थे. मुझे अलग भूमिका निभानी थी. मैं ने हां कह दी. लोफर की कौमेडी सब को बेहद पसंद आई. हालांकि डेविड धवन और शक्ति कपूर ने काफी सहयोग दिया था. इस के बाद ‘जुदाई’ फिल्म मिली जिस में मेरा डबल रोल था-मां और बेटी का, जिस का डायलौग ‘अब्बा, डब्बा, जब्बा’ बहुत प्रसिद्ध हुआ.

मुंबई कैसे आना हुआ? कितना मुश्किल था नए शहर में ऐडजस्ट करना?

वैसे तो मैं पंजाब की हूं, पर मैं और मेरी बहन ने चंडीगढ़ होस्टल में रह कर पढ़ाई की है क्योंकि मेरी मां वहां जौब करती थीं. वहीं से मैं ने रेडियो और दूरदर्शन पर काम करना शुरू कर दिया था. 12 वर्ष की उम्र में मैं ने ‘चित्रलेखा’ नाटक किया. मैं ने ड्रामा में मास्टर्स की शिक्षा हासिल की है. मां चाहती थीं कि मैं डाक्टर बनूं पर मुझे अभिनेत्री बनना था. स्टडी के दौरान ही मैं ने राजस्थानी फिल्म की, जो हिट रही. जब काम मिलने लगा तो मुंबई आने की बात हुई. मां ने अपने जेवर बेच कर मिले पैसों से मुझे मुंबई में फ्लैट खरीद कर दिया. मेरी कामयाबी में मेरी मां और बहन का हाथ है. मेरे रिश्तेदार कहा करते थे कि फिल्म गंदी लाइन है, बेटी को मत भेजो पर मां का मुझ पर विश्वास था, मैं ने पढ़ाई और फिल्म दोनों साथसाथ की हैं.

टीवी, फिल्म और थिएटर में से किस में अधिक मजा आता है?

स्टेज सब से अच्छा लगता है. यही वजह है कि कौमेडी नाइट्स विद कपिल मुझे पसंद है. यहां स्टेज है, औडियंस है, 14 कैमरे लगे हुए हैं. एक टेक में शूट पूरा करना पड़ता है. बहुत अच्छा अनुभव होता है.

आजकल फिल्मों में लेडी कौमेडियन का काम कम रह गया है, इस की वजह क्या मानती हैं?

अभी पूरी फिल्म हीरो पर बनती है. नैगेटिव, कौमेडी, ऐक्शन सब वह ही करना चाहता है. पहले सबकुछ निर्देशक करता था, अब हीरो सब कहता और करता है. अभी मैं ने एक फिल्म का गाना शूट किया. हीरो को गाना पसंद आया. उस ने अपने ऊपर फिल्मा लिया. पहले कई कौमेडियन पूरी फिल्म को भी लीड करते थे, जिस में महमूद थे. अब सिर्फ चरित्र होता है.

कौमेडी के गिरते स्तर के बारे में क्या कहेंगी?

कौमेडी में आजकल वल्गेरिटी बहुत अधिक है. मेरे हिसाब से कौमेडी ऐसी होनी चाहिए कि आप अनायास ही हंसा दें. मैं आगे पंजाबी कौमेडी फिल्म बनाना चाहती हूं जिसे पूरा परिवार साथ बैठ कर देख सके. आज इतना स्ट्रैस है कि रिलैक्स होने के लिए कौमेडी से अच्छा कुछ और नहीं है.

कितना मुश्किल है कौमेडी करना?

कौमेडी में टाइमिंग को बनाए रखना कठिन होता है. अगर आप की टाइमिंग अच्छी है तो आप धीरेधीरे अपनेआप को निखार सकते हैं. यह कला नैचुरली कुछ लोगों के अंदर ही होती है. इसे क्रिएट नहीं किया जा सकता.

आप अपने पति नीरज भारद्वाज से कब व कैसे मिलीं? उन में ऐसा क्या खास दिखाई दिया?

मैं और नीरज दूरदर्शन के एक धारावाहिक में एक सीन के लिए मिले थे. जिस में मैं पुलिस इंस्पैक्टर बनी थी और विलेन बने नीरज को मुझे अरैस्ट करना था. वे रियल लाइफ में भी अरैस्ट हो गए. हमारा अफेयर नहीं था. मां की मौत के बाद मैं अकेली और मायूस हो चुकी थी. उसी दौरान एक दिन नीरज मेरे पास आए और बाहर घूमने के लिए जाने को कहा. मैं ने साफसाफ कह दिया कि मैं शादी करना चाहती हूं, उस के बाद कहीं जाऊंगी. क्या तुम मुझ से शादी करना चाहते हो? वे राजी हो गए और शादी हो गई. नीरज इंडस्ट्री से हैं. अच्छा गाना गाते हैं, शांत स्वभाव के हैं. मैं काम करूं या कभी लेट भी आऊं, वे कभी नहीं पूछते. यह बड़ी बात है कि पति आप को समझें और आप पर विश्वास करें.

दीवाली कैसे मनाती हैं?

बचपन में जब पंजाब में थी तो मम्मीपापा के साथ दीवाली बनाती थी. लेकिन हमेशा से मुझे बमपटाखों से डर लगता था. इन की आवाज मुझे कभी पसंद नहीं थी. फुलझड़ी, अनार, सांप वाले पटाखे पसंद थे. इस के अलावा घर पर मिठाई बनाना, रिश्तेदारों के घर से मिठाई आना बड़ा अच्छा लगता था. जब से मुंबई आई, शूटिंग में व्यस्तता बढ़ गई. लेकिन मेरी कोशिश यह रहती है कि दीवाली के दिन मैं अपने परिवार के साथ एंजौय करूं. इस दिन मैं पूरे घर की रंगबिरंगी लाइट्स से सजावट करती हूं. रंगोली बनाती हूं. हर साल घर को कुछ अलग तरीके से सजाने की कोशिश करती हूं.

दीवाली पर आप किस तरह के परिधान पहनती हैं?

मैं भारतीय परिधान पसंद करती हूं. अधिकतर मैं पंजाबी सूट पहनती हूं, कभीकभी साड़ी भी पहनती हूं. लेकिन सूट ज्यादा आरामदायक होते हैं, साथ ही पटाखे जलाने पर आग लगने का डर नहीं होता.

कितनी पहले से तैयारियां शुरू कर देती हैं?

शहरों में पहले से अधिक तैयारियां नहीं करनी पड़तीं. आजकल सबकुछ फोन से हो जाता है. मैं तो 4-5 दिन पहले से ही तैयारी करनी शुरू कर देती हूं. बचपन में मेरी मां महीनों पहले दीवाली की तैयारी में जुट जाती थीं, वे खूब मिठाइयां बनाती थीं. वह दौर एक अलग खुशी देता था.

दीवाली की कौन सी बात नापसंद है?

कानफोड़ू पटाखे पसंद नहीं करती. इस से ध्वनि प्रदूषण हो जाता है. दीवाली में कई जगह मिलावटी मिठाइयां बिकती हैं, जिस से लोग बीमार पड़ जाते हैं, ये सब अच्छा नहीं लगता. सरकार को इस पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए. लोगों को घर में घी या तेल के दीये जलाने चाहिए और शुद्ध घी से बनी मिठाइयां ही खानी चाहिए.

इस दिन घर पर किसे बुलाती हैं?

परिवार और दोस्त सभी आते हैं पर आजकल दीवाली में लोग मैसेज अधिक भेजते हैं क्योंकि लोगों के पास आनेजाने का समय नहीं है.

ताकि जिंदा रहे मुंबई फिल्म फैस्टिवल

फिल्म इंडस्ट्री के लिए फिल्म फैस्टिवल का आयोजन करना और उस से जुड़ना हमेशा फायदे का सौदा रहा है. फिल्म फैस्टिवल कई नई प्रतिभाओं को एक मंच देने की भूमिका अदा करते हैं लेकिन पिछले 15 सालों से मुंबई में हो रहे मुंबई फिल्म फैस्टिवल को आज बंद होने के कगार पर खड़ा पाया गया है. गौरतलब है कि इस बार स्पौंसर न मिलने की वजह से आयोजक हताश नजर आ रहे हैं. लिहाजा, उन्होंने इस बार आयोजन रद्द करने का फैसला किया. अच्छी खबर यह है कि इस फैस्टिवल को जिंदा रखने के लिए कई फिल्मी हस्तियां आगे आ रही हैं. अभिनेता आमिर खान ने 11 लाख की आर्थिक सहायता दी है. उम्मीद कर सकते हैं कि अब यह फैस्टिवल रद्द नहीं होगा.

दीवाली गिफ्ट की आकर्षक पैकिंग

साल का सब से बड़ा त्योहार दीवाली है, जिस का वर्षभर सब को इंतजार रहता है. दीवाली की तैयारियां कई दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं जिस में घर की साजसज्जा, घर में नई चीजों का आगमन, नए कपड़ों की शौपिंग के अलावा एक अन्य अहम चीज होती है उपहारों का लेनदेन. सब की चाहत होती है कुछ ऐसा उपहार देने की जो निराला हो. क्योंकि ये उपहार ही हैं जो त्योहार की खुशियों को दोगुना करते हैं व रिश्तों में अपनेपन की मिठास लाते हैं.

आप भी इस दीवाली पर अपनों को कुछ उपहार देने की तैयारी कर रहे होंगे. इस दीवाली पर आप अपनी इस तैयारी को दीजिए कुछ खास ट्विस्ट. हर बार की तरह साधारण तरीके से गिफ्ट पैकिंग करने के बजाय अपने उपहारों की पैकिंग कुछ हट कर खास अंदाज में कीजिए जिस से आप न केवल अपनों के बीच हिट हो जाएंगे बल्कि आप को एक अद्भुत खुशी का एहसास भी होगा.

उपहारों को सजाइए हट कर

दीवाली में उपहारों के तौर पर ट्रैडिशनल दीयों से ले कर, कैंडल्स, डिजाइनर दीये, कैंडल्स स्टैंड, क्रौकरी, होम फर्निशिंग, बच्चों के लिए चौकलेट्स, जूस, बड़ों के लिए ज्वैलरी, ड्राईफू्रट, पेंटिंग, आर्टिफैक्ट्स आदि वस्तुएं दी जाती हैं. जब उपहारों के चुनाव में इतनी मेहनत की जाती है तो फिर इन्हें प्रैजेंट आकर्षक तरीके से क्यों न किया जाए ताकि इन की खूबसूरती और महत्ता दोगुनी हो जाए. आइए जानें गिफ्ट पैकिंग एक्सपर्ट संगीता गोयल से उपहारों को खास अंदाज में पैक करने के कुछ तरीके :

चौकलेट पैकिंग

दीवाली पर चौकलेट बच्चों के साथसाथ बड़ों को भी बेहद पसंद आती हैं. आप हर बार बाजार से चौकलेट की पैकिंग खरीद कर गिफ्ट करते होंगे. लेकिन इस बार उन्हें गिफ्ट कीजिए खास आकर्षक अंदाज में.

चौकलेट को पैक करने के लिए केन या मैटल की टोकरी लें. उसे कलर्ड टिश्यू मैट या आजकल बाजार में उपलब्ध आई वुडन मल्टीकलर ग्रास को टोकरी पर बिछा दें व उस में आकर्षक पैकिंग वाली लूज चौकलेट रखें. ऊपर से आप टोकरी को कलर्ड सैलोफिन पेपर से ढक दें व बीच में रंगीन आर्टिफिशियल फ्लावर लगा दें. चौकलेट की यह आकर्षक पैकिंग सब को बहुत भाएगी.

दीये व कैंडल्स पैकिंग

बाजार से आकर्षक केन या ब्रास की ट्रे खरीदें. उस में कलर्ड कड़क नेट बिछाएं व मल्टीकलर्ड दीयों व डिजाइनर कैंडल्स को रखें व ऊपर से ट्रांसपैरेंट सैलोफीन शीट से टेप द्वारा सील कर दें. आप चाहें तो कार्डबोर्ड को दीये की शेप में भी काट कर उस में दीये सैट कर सकते हैं.

अपहोलस्ट्री

अगर आप अपने दोस्तों या रिश्तेदारों को कुशनकवर या बैडकवर उपहारस्वरूप देना चाहते हैं तो उसे थर्मोकोल की यूज ऐंड थ्रो ट्रे में आकर्षक आकार में फोल्ड कर के रखें व ऊपर से ट्रांसपैरेंट पेपर से ढक दें और बौक्स को मोरपंख या सूखी पत्तियों से सजाएं.

ईकोफ्रैंडली गिफ्ट

आजकल लोगों में ईकोफ्रैंडली गिफ्ट देने का भी प्रचलन है. वे अपने दोस्तों, रिश्तेदारों व जानकारों को बोनसाई प्लांट्स व फू्रट बुके भी गिफ्ट के तौर पर दे रहे हैं. इस के तहत आप बोनसाई प्लांट के पौट को आकर्षक ट्रे में रख कर दे सकते हैं. इसी तरह बाजार से फल खरीद कर उन का आकर्षक फू्रट बुके बना सकते हैं.

उपहारों में अनोखेपन व अपनेपन का एहसास लाने के लिए आप पैकिंग को दीजिए ये आकर्षक लुक.

फोटो का जादू

गिफ्ट पैकिंग में नजदीकी व अपनेपन का टच देने के लिए आप गिफ्ट पैक के ऊपर, जिसे गिफ्ट दे रहे हैं उस की आकर्षक फोटो लगा सकते हैं. गिफ्ट पैकिंग का यह अनोखा अंदाज उन्हें पुरानी यादों में ले जाएगा.

एथनिक लुक

अगर आप अपने उपहार की पैकिंग को एथनिक लुक देना चाहते हैं तो मीनाकारी व स्टोन वर्क वाला वुडन बौक्स लें. उस में अपने गिफ्ट को रख कर ऊपर से पतली मैटल शीट से कवर कर दें और बैल्स (घंटियों) से सजा कर उसे म्यूजिकल पैकिंग बनाएं. आप चाहें तो इस में फेब्रिक फ्लावर भी लगा सकते हैं.

पोटली पैकिंग

बाजार में अनेक रंग, डिजाइन व आकार की पोटलियां मौजूद हैं जिन में आप दीवाली के उपहार पैक कर सकते हैं. पोटलियों में आप ड्राई फू्रट्स, चांदी के सिक्के पैक कर सकते हैं. इन पोटलियों पर साटन के रिबन वाले फूल भी बांध सकते हैं.

क्रोशिया बैग

अगर आप अपने दोस्तोंरिश्तेदारों को अपनी हस्तकला से परिचित करवाना चाहती हैं तो अपने उपहार को अपने हाथ से बने क्रोशिए के बैग में भी पैक कर सकती हैं. बैग पर मोरपंख या सूखे फूलों व आकर्षक पत्तियों को लगा कर और स्टाइलिश लुक दे सकती हैं.

ऐलिगैंट व स्टाइलिश पैकिंग

आप इस दीवाली गिफ्ट पैकिंग को ऐलिगैंट लुक देने के लिए उपहार को अपनी पुरानी बनारसी या ब्रोकेड की सिल्क साड़ी या दुपट्टे के बौर्डर से बांध कर बो या फूल का आकार दे सकती हैं. सैंटर में लगा मैटल का ब्रोच आप के गिफ्ट पैक को और खूबसूरत बना देगा.

झंझट बनती झांकियां

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बैंच ने सख्ती दिखाते हुए निर्देश जारी किए हैं कि ऐसे आयोजनों (झांकी) पर यदि व्यापारी और रहवासी आपत्ति दर्ज कराते हैं तो पहले उन्हें सुना जाए, इस के बाद ही अनुमति देने पर विचार किया जाए.

एक निजी याचिका पर फैसला देते हुए जस्टिस पी सी शर्मा ने प्रशासन, नगर निगम और पुलिस विभाग को इस संबंध में निर्देश भी जारी किए थे. हुआ यों कि पिछले साल गणेशोत्सव के दौरान इंदौर का मूसाखेड़ी चौराहा पूरी तरह बंद कर दिया गया. 10 दिन तक यातायात तो प्रभावित रहा ही, झांकी के कारण 8 दुकानदारों को इस दौरान अपनी दुकानें भी बंद रखनी पड़ी थीं. इस पर एक व्यापारी ने एतराज जताते हुए अदालत की शरण ली तो 18 मई, 2014 को अदालत को सख्ती दिखाने के लिए मजबूर होना पड़ा. मामले में दिलचस्प बात यह थी कि झांकी निकालने वालों ने किसी से अनुमति लेने की जरूरत ही नहीं समझी थी.

बात कतई हैरानी की नहीं है क्योंकि यह समस्या इंदौर के एक चौराहे की नहीं बल्कि देशभर की सड़कों और चौराहों की है जिन पर इफरात से झांकियां निकलने लगी हैं. बीते 2 दशकों में झांकियों का कारोबार इस कदर बढ़ा है कि हर दूसरे चौराहे पर गणेश या देवी विराजे दिखते हैं.

क्यों बढ़ रही है तादाद

झांकियों की तेजी से बढ़ती संख्या के पीछे यह सोचना बेमानी है कि आस्था है. हकीकत यह है कि झांकियां अब पैसाकमाऊ धार्मिक कृत्य साबित होने लगी हैं. कई झांकियां तो इतनी हाईटैक, भव्य और खर्चीली होती हैं कि उन्हें देख कर लगता नहीं कि देश में गरीबी नाम की कोई चीज है.

पहले शहरों या कसबों में 1-2 झांकियां ही सड़कों पर देखने को मिलती थीं और ऊंची जाति वाले ही इन के कर्ताधर्ता होते थे लेकिन धीरेधीरे सालदरसाल दलित व पिछड़े भी अपनी अलग झांकियां निकालने लगे. अपने खूनपसीने की गाढ़ी कमाई इन लोगों ने झांकियों में लगानी शुरू की तो पंडों की चांदी हो आई. वजह, उन का तो अभियान यही है कि जितनी ज्यादा दुकानें उतनी ज्यादा दक्षिणा. झांकी कोई भी लगाए, सुबहशाम उस की पूजा पंडित से ही करवाने का विधान है, जिस के एवज में तगड़ा शुल्क यानी दक्षिणा उन्हें दी जाती है.

वहीं, शायद ही कोई ऐसी झांकी होगी जो बगैर चंदे के जाती हो. चंदे का धंधा बेवजह मशहूर नहीं है. यह कितनी बड़ी आफत है, यह तो वे लोग ही बेहतर समझ सकते हैं जिन से झांकी के दिनों में जबरिया चंदा वसूला जाता है. झांकी समिति के पदाधिकारी आमतौर पर रसूख वाले और जानेपहचाने चेहरे होते हैं जिन का पुलिस प्रशासन और राजनीति में खासा दखल होता है. लिहाजा, उन्हें चंदा देने से मना करने वाला एक दफा भगवान से चाहे न डरता हो लेकिन उन्हें मजबूर हो कर भी चंदा जरूर देता है.

चंदा वसूली का कारोबार इतना बढ़ गया है कि अकेले भोपाल शहर में ही 5 हजार से ज्यादा झांकियां लगने लगी हैं. हर साल इन की तादाद में 10 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की जाती है क्योंकि जैसेजैसे नई कालोनियां, कवर्ड कैंपस और अपार्टमैंट बढ़ रहे हैं उन में कोई दूसरी सुविधा हो न हो, झांकी की जरूर रहती है.  हालत यह है कि एक आदमी को अब कम से कम 4 से ले कर 6 झांकियों में चंदा देना पड़ता है. औसतन यह राशि 1 हजार रुपए तक होती है और झांकियों से होने वाली तरहतरह की परेशानियां उन्हें ब्याज में अलग से झेलनी पड़ती हैं.

दलित बस्तियों में झांकियां अनिवार्य हो जाती हैं. इन में तामझाम कम होता है पर दलित समुदाय के लोग औसतन 2 लाख रुपए इन में फूंक कर अपने ‘हिंदू दलित’ बने रहने का इंतजाम पुख्ता करते खुश होते रहते हैं. हर बड़े शैक्षणिक संस्थान में भी झांकी का चलन चिंतनीय हो चला है. इस से छात्रों की पढ़ाई पर बुरा असर पड़ता है. हालत इतनी दयनीय और चिंतनीय है कि छात्रावासों में भी झांकियां लगने लगी हैं जिन में सुबहशाम गणपति और देवी के आगे पास होने की भीख मांगते छात्र अपना आत्मविश्वास खोते अंधविश्वासी बनते जा रहे हैं.

और भी हैं नुकसान

लूटखसोट की बिना पर लगी झांकियों से एक नहीं, बल्कि कई नुकसान हैं.  झांकियों के दिनों में हर शहर की यातायात व्यवस्था चरमराई रहती है. सड़कों पर लंबे जाम दिखना आम बात है. भगदड़ और हादसों की आशंका बनी रहती है. झांकियों का प्रचारप्रसार अब व्यावसायिक तरीके से किया जाने लगा है.  महाराष्ट्र के गणपति और पश्चिम बंगाल की दुर्गा, काली देवियों की झांकियां पूरे देश में लगने लगी हैं. मुंबई की झांकियां तो फिल्मी सितारों और अंडरवर्ल्ड के डौन लोगों के नाम से जानी जाती हैं. इन पर करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया जाता है. छोटेमोटे फिल्मी और टीवी सितारे भी अब झांकियों की ब्रांडिंग करने लगे हैं.

चंदे के प्रताप से इन झांकियों में बेतहाशा सजावट की जाती है. उन में तरहतरह की लुभावनी दृश्यावलियां लगाई जाती हैं. भक्तों को आकर्षित करने के लिए नामी मंदिरों तिरुपति, वैष्णो देवी, शिरडी और पुरी के मौडल बनाए जाते हैं.  पैसा कमाने के लिए झांकी के आसपास की जमीनें ठेले, खोमचे वालों व दुकानदारों को किराए पर दी जाने लगी हैं जिस से आयोजकों की कमाई और बढ़ती है पर जेब आम जनता की कटती है. 

भोपाल के शिवाजी नगर इलाके की झांकी में चाय की दुकान लगाने वाले एक व्यक्ति का कहना है कि उसे 500 रुपए रोज देने पड़ते हैं जो अखरते इसलिए नहीं कि झांकी के दिनों में चाय खूब बिकती है जिस की कीमत वह डेढ़ गुनी कर देता है. उस

के अनुसार, ये 5 हजार रुपए घाटे का सौदा नहीं, पैसा तो भक्तों की जेब से ही निकालना पड़ता है.

इस बात की पुष्टि करते हुए एक चाट वाले का कहना है, ‘‘छोलेटिकियां हम झांकियों में 15 के बजाय 20 रुपए की बेचते हैं और गुणवत्ता या मात्रा से कोई सरोकार नहीं रखते. उलटे इन्हें कम कर देते हैं जिस से ज्यादा कमाई हो.’’ लूटखसोट और परेशानियों की दूसरी वजह शोर है. झांकी के दिनों में इतनी तेज आवाज में गाना बजाते हैं कि राह चलते लोगों के कान दुखने लगते हैं. कोई भक्त ध्वनिप्रदूषण की बात नहीं करता. आसपास रह रहे लोग भी विरोध नहीं करते क्योंकि मामला धर्म का है.

इस कड़वे सच की ज्यादती का सच क्या है? इस का जवाब वह झांकी है जिसे देखने के लिए लोग इस तरह उमड़ते हैं कि सड़कें कराहने लगती हैं. जहां 5 मिनट में पहुंच जाना चाहिए था वहां तक पहुंचने में 5 घंटे भी लग जाते हैं.  रास्ते में फंसे लोग झांकियों को कोसते रहते हैं पर हैरतअंगेज तरीके से अपने पहले दिन की परेशानी भूल दूसरे दिन खुद दर्शन के लिए लाइन में खड़े नजर आते हैं.

चंदे का धंधा

भोपाल के एक व्यस्ततम बाजार न्यू मार्केट की गणेश और दुर्गा झांकियां पैसों की बरबादी की मिसाल हैं. लाखों रुपए बिजली, सजावट, तंबू और दूसरे मदों पर खर्च किए जाते हैं. व्यापारी इन झांकियों में दिल खोल कर चंदा देते हैं. इस के पीछे उन की मंशा अपने बाजार में भीड़दर्शन ग्राहक बढ़ाने की भी होती है.

किसी भी झांकी के मुख्य कर्ताधर्ता 8-10 लोग ही होते हैं जो जानेपहचाने चेहरे राजनीति के होते हैं. एक झांकी की एक समिति होती है जो झांकी की रणनीति तय करती है कि कितना चंदा किया जाएगा, कहां खर्च किया जाएगा और कितना गोलमाल किया जाएगा. कभी झांकियों का हिसाबकिताब सार्वजनिक नहीं किया जाता. अब तो बड़ी नामी कंपनियां भी अपने उत्पाद का विज्ञापन करने के लिए इन समितियों को अलग से पैसा देने लगी हैं. चूंकि थोक में भीड़ उन्हें झांकी में मिलती है लिहाजा, दिए गए पैसे के एवज में वे होर्डिंग लगा सकते हैं, लैड स्क्रीन पर पट्टी चला सकते हैं और उद्घोषक भी बीचबीच में उन का नाम लेता रहता है. यानी, झांकियां अब आस्था की नहीं व्यवसाय का प्रतीक हो चली हैं जिन में पैसे सिर्फ पंडे बटोरते थे, अब हर कोई इस ध्ांधे में लग गया है.

हालत यह है कि झांकी की आड़ में असामाजिक तत्त्व भी चंदे के नाम पर खूब पैसा बटोरते हैं. भोपाल के पौश इलाके शिवाजी नगर में रहने वाले एक सरकारी कर्मचारी का कहना है, ‘‘जिसे देखो, दरवाजे की घंटी बजा देता है. खोलो तो बाहर चंदा मांगने वाला आंख दिखा रहा होता है कि पीछे वाली गली में झांकी लगा रहे हैं, 111 रुपए चाहिए.’’

इस गुंडागर्दी और दादागीरी का विरोध क्यों नहीं, इस पर शाश्वत जवाब यह मिलता है कि हम सुकून में रहना चाहते हैं और शिकायत कहां व किस से करें. हमारी तकलीफ तो वे चंद लोग होते हैं जो नशे में झूमते झांकी के चंदे की शक्ल में हफ्ता मांग रहे होते हैं. रोजमर्राई जिंदगी को दुश्वार बनाता धर्म और उस की झांकियां चंदे के धंधे की देन हैं जिस की कहीं सुनवाई नहीं होती. इसलिए इस का विरोध करने की हिम्मत भी आम लोग नहीं जुटा पाते. इस की दूसरी वजह, समाज में खत्म होता पड़ोसीपन भी है.

चांदी काटता मीडिया

झांकियों के इस कारोबार को चमकाने में मीडिया का रोल भी अहम है. झांकी के दिनों में टीवी के राष्ट्रीय चैनल बड़ी और भव्य झांकियों के दृश्य व उन की खूबियां दिखाया करते हैं. यह धर्म का ही प्रताप है कि 4-6 किलोमीटर तक लगा जाम भी उन्हें श्रद्धालुओं और भक्तों का सैलाब नजर आता है.

यही हाल क्षेत्रीय चैनलों व अखबारों का है. झांकियों के रंगबिरंगे दृश्य खूब दिखाए और छापे जाते हैं. उन की खूबियां गिनाते एंकर गला फाड़ कर चिल्लाते हैं तो उन की जिम्मेदारी और उस के पीछे छिपी व्यावसायिक मजबूरी पर तरस ही आता है. खुद बड़े मीडिया हाउस अपने परिसरों में झांकी लगाने लगें तो उन से क्या खा कर उम्मीद की जाए कि वे झांकियों के सच पर कुछ बोलेंगे या लिखेंगे कि जाम के कारण फलां बीमार वक्त पर अस्पताल नहीं पहुंच पाया या इतने लोगों की ट्रेन छूट गई जिस से उन्हें तरहतरह के नुकसान उठाने पड़े. झाकियों के दिनों में विज्ञापनों का कारोबार 10 गुना तक बढ़ जाता है, इसलिए मीडिया कई सच छिपाने को मजबूर व लाचार दिखता है.

मीडियाकर्मियों के लिए झांकी वाले अलग से इंतजाम करने लगे हैं. पत्रकारों और प्रैस फोटोग्राफर्स को लेने के लिए झांकी समिति का कोई सदस्य प्रवेशस्थल पर खड़ा होता है और उन्हें ला कर ससम्मान बैठाया जाता है तो मीडियाकर्मियों की छाती गर्व से चौड़ी हो जाती है. पत्रकारों व प्रैस फोटोग्राफर्स को चायनाश्ता भी कराया जाता है जिस से वे खबर और फोटो छापें. 

चमकती राजनीति

अधिकतर बड़ी झांकियों का पूजन कोई नेता या मंत्री करता है और 10 मिनट में जनता को जता देता है कि देखो, वह कितना बड़ा धर्मावलंबी है जो सारे कामकाज छोड़ कर पूजा करने आ गया. यह नजारा सब को दिखता है पर अंदर की राजनीति से

कम ही लोग वाकिफ होते हैं. मसलन, मध्य प्रदेश और केंद्र दोनों में भाजपा की सरकार है, इसलिए राज्य में झांकियां खूब चमक रही हैं. यह दीगर बात है कि रास्ते बंद कर देने से एक नहीं, हजारों व्यापारियों को परेशानी उठानी पड़ती है. करोड़ों की बिजली चोरी होती है, करोड़ों की मूर्तियों को पानी में बहा कर नदियों, तालाबों और समुद्र का पानी प्रदूषित किया जाता है. और फिर इस प्रदूषण को दूर करने के लिए अरबों रुपए का बजट में प्रावधान किया जाता है.

चूंकि नेताओं की दिलचस्पी रहती है, इसलिए इन छोटीमोटी बातों को मीडिया भी नजरअंदाज कर देता है. कितनों की जेब कटी, कितने झगड़े हुए, कितनी महिलाओं को भीड़भाड़ में छेड़ा गया, इन बातों से कोई वास्ता नहीं रखता. 

लाइलाज मर्ज

झांकियां, दरअसल, शुरू से ही गिरोहबद्ध तरीके से लगाई जाती रही हैं. मकसद पैसा कमाना और दक्षिणा बटोरना रहा है. पंडों के अलावा दूसरे लोग भी इस कारोबार में शामिल हो गए हैं तो इन का दायरा और कारोबार दोनों बढ़ने लगे हैं.  झांकी वालों के अच्छे दिन तो शुरू से ही रहे हैं, अब बहुत अच्छे दिन आ गए हैं और 9-10 दिन बड़ी व्यस्तता में कटते हैं, दौलत और शोहरत का सवाल जो है.

पिसता है तो आम आदमी जो जाम में फंसा घर पहुंचने को छटपटा रहा होता है जहां 5 रुपए का पैट्रोल लगना चाहिए वहां 40 रुपए धुएं में उड़ जाते हैं. उस से कोई नहीं पूछता कि भैया, आप पर क्या गुजर रही है पर लाइन में लगे भक्त के पास टीवी, अखबार वाले खड़े पूछ रहे होते हैं कि धन्य है आप की भक्ति और आस्था जो 8 घंटे से दर्शनों की लाइन में लगे अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं.  सड़कें, चौराहे घेरे जा रहे हैं, जाम लग रहे हैं, शोर बढ़ रहा है और खरबों रुपए मिट्टी में मिल रहे हैं. अंधभक्त लोगों के लिए यही धर्म है. ऐसे हालात में इंदौर हाईकोर्ट का फैसला झांकी कारोबार के सामने कारगर हो पाएगा, ऐसा लग नहीं रहा.

धार्मिक अराजकता के मारे बच्चे

अंधविश्वास में जकड़ा धर्म अब इस कदर अराजक होता जा रहा है कि इसे बीमारी और बच्चों की भी कोई चिंता नहीं रह गई. राजनीतिक व्यक्तियों की शह पर फलतीफूलती धार्मिक अराजकता ने मानवता को पैरों तले कुचल डाला है. पिछले दिनों अपने महल्ले के निकट स्थित 2 धार्मिक स्थलों पर विद्यालय समय में तेज लाउडस्पीकर बजते देख इन स्थलों पर गया. पुजारी से विद्यालय के निकट शोर पर आपत्ति जताई तो जवाब मिला, हम तो बस्ती में धर्म की ध्वनि फैला रहे हैं, आप इसे शोर कहते हैं.

पुजारी का जवाब सुन मैं दंग रह गया. कानफोड़ू धुनों पर तैयार किए गए धार्मिक गीतों से निकट के विद्यालयों को बाधा जरूर पहुंचती होगी किंतु धार्मिक दादाओं तथा माहौल बिगड़ने के डर से विद्यालय प्रबंधक चुप रह जाते होंगे. बात सिर्फ यहीं तक सीमित रहती तो गनीमत थी, दरअसल, स्वयं विद्यालय ही अराजकता के केंद्र बन गए हैं. सरकारी, गैरसरकारी विद्यालयों का इस्तेमाल बरातों, सभाओं, सम्मेलनों के लिए किया जाने लगा है.

उत्तर प्रदेश में झांसी जिले के प्रेमनगर क्षेत्र में 3 विद्यालयों के निकट ही धार्मिक स्थल है. इन में खाती बाबा क्षेत्र स्थित निर्मला कौन्वैंट कालेज के ठीक निकट नीमवाली माता मंदिर और कैथेड्रल कालेज के निकट गौडबाबा मंदिर है. दोनों विद्यालय ईसाई मिशन के हैं जबकि मंदिर रेलवे की भूमि पर धार्मिक दादागीरी के बल पर बना लिए गए हैं. मंदिरों को हटाने की रेलवे की मुहिम धार्मिक संगठनों के विरोध के चलते कई बार फेल हो चुकी है.

इन धार्मिक स्थलों से रेलवे ही नहीं, सैकड़ों स्कूली बच्चे भी अकसर परेशान रहते हैं. मंदिरों पर सर्वाधिक अराजकता कथाभागवत व नवदुर्गा उत्सव आदि के अवसर पर दिखाई देती है. मंदिर के शोरगुल के कारण चंद कदम दूर बने विद्यालय में परीक्षा कार्य में सीधी बाधा उत्पन्न होती है. हालांकि ईसाई मिशन के ये विद्यालय कई बार मंदिर के पुजारी तथा पुलिसप्रशासन से परीक्षा के दौरान शांति बनाए रखने की अपील कर चुके हैं लेकिन कोई फायदा नहीं. एक छात्र के अभिभावक ने मंदिर समिति से जब तेज आवाज में धार्मिक गीत बजाने से मना किया तो उसे हिंदू धर्म विरोधी तथा ईसाइयों व मुसलमानों का तरफदार कहा गया, जबकि वह हिंदू ही है.

धार्मिक अराजकता का सब से भयंकर रूप नवरात्रि या दीवाली पर देखा जाता है. पंडालों में कब्जा जमाए किशोर बीमारों, स्कूली बच्चों की कतई परवा न कर देररात तक डीजे पर पौपधुन वाले धार्मिक गीत बजाते रहते हैं.

विद्यालय के प्रबंधक धार्मिक हिंसा के भय से कड़ा विरोध नहीं करते. कुछ वर्ष पूर्व की बात है झांसी की ही बे्रन ट्यूमर से पीडि़त छात्रा ने महल्ले के देवी पंडाल के तेज डीजे साउंड तथा बरातों के डीजे के शोर से तंग आ कर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गृह सचिव कुंवर फतेह बहादुर सिंह से फोन पर शिकायत की थी. वहीं, छात्रा के पिता ने जिले के कंट्रोलरूम को बीमार पुत्री को धार्मिक व वैवाहिक शोरगुल से बचाने की गुहार की तो उसे हतप्रभ कर देने वाला जवाब मिला, ‘बरात निकलेगी तो शोरगुल होगा ही. आप बीमार बच्ची के कानों में रूई लगा कर भीतरी कमरे में लिटा दें.’ पुलिस ने गंभीर रूप से बीमार छात्रा की जायज मांग तथा सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन कर देर रात डीजे बजने पर कार्यवाही के बजाय ऐसा सुझाव दिया.

यह एक नगर या एक महल्ले या फिर एक बीमार छात्रा की ही पीड़ा नहीं है, समूचा देश ही धार्मिक अराजकता से पीडि़त है. नियमत: विद्यालयों के निकट लाउडस्पीकर पर कोई कार्यक्रम होना ही नहीं चाहिए क्योंकि कई विद्यालय आवासीय भी हैं. इन में अतिरिक्त कक्षाएं संचालित होती हैं. बच्चों के प्रति ऐसे अत्याचार के मद्देनजर विद्यालय प्रबंधक का खामोश रहना न्यायोचित नहीं है. समस्या का समाधान कान में रूई लगाने या दरवाजे बंद कर बैठने से नहीं हो सकता.

दिल्ली में सरकार

दिल्ली राज्य सरकार का गठन एक मखौल बनता जा रहा है. 29 विधायकों के साथ भारतीय जनता पार्टी जनवरी में आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल द्वारा खाली की गई कुरसी पर कब्जा जमाना चाहती है पर लाख कोशिशों के बावजूद वह सरकार बनाने के लिए आवश्यक 5 अतिरिक्त विधायकों का समर्थन नहीं जुटा पा रही. अरविंद केजरीवाल ने जनवरी में त्यागपत्र इसीलिए दिया था कि उन को कांगे्रस के समर्थन पर निर्भर रहना पड़ रहा था और उन्हें अप्रैलमई के लोकसभा चुनावों से बहुत उम्मीदें थीं.

अब अरविंद केजरीवाल को डर है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद उन को दिल्ली की जनता दोबारा चुनेगी या नहीं पर वे यह भी नहीं चाहते कि भारतीय जनता पार्टी बिना चुनावों की अग्नि परीक्षा दिए सत्ता हासिल कर ले. इसलिए वे उपराज्यपाल नजीब जंग के राष्ट्रपति को लिखे उस पत्र का विरोध कर रहे हैं जिस में सरकार के संभावित गठन के लिए भारतीय जनता पार्टी को सब से ज्यादा विधायकों वाली पार्टी होने के नाते बुलाए जा सकने की बात है. दिल्ली में राज्य सरकार बननी चाहिए और यदि बिना चुनावों के बन जाए तो अच्छा है क्योंकि फिलहाल भारतीय जनता पार्टी का पलड़ा भारी है. यह ठीक है कि जनता केंद्र सरकार के फैसलों से कोई बागबाग नहीं हो रही पर इतनी नाराज भी नहीं कि नईनवेली बहू को त्यागने का समय आ गया हो.

केंद्र की तरह दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने से एक वैधानिक जरूरत ही पूरी होगी. जनता के दुख दूर होंगे, इस की कोई गारंटी नहीं. दिल्ली का काम असल में नगर निकायों से चलता है और दिल्ली के चारों नगर निकायों में भाजपा की सत्ता है और दिल्ली गंदी, बदबूदार, बदहाल, टै्रफिक की मारी, अवैध निर्माणों की शिकार, भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के चंगुल में है. जब भाजपा के नगर निगम स्वर्ग उतार कर नहीं ला पाए तो दिल्ली में उस की संभावित सरकार कौन सा गड़ा खजाना ला देगी?

जनता का क्या, वह जानती है कि उस के पास सीमित पर्याय हैं. अब जब कांगे्रस और आम आदमी पार्टी यानी आप बिखरी नजर आ रही हैं तो भाजपा ही सही. रही बात विधायकों के खरीदफरोख्त की, तो उसे गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. असल खरीद तो जनता की मेहनत की हो रही है और वह भी सस्ते में, बेईमानी से. जब जनता उसे पचाने को मजबूर है तो विधायकों की क्या चिंता.

अफवाहों के भंवर में राजनाथ

पुरानी कहावत है- ‘बिना आग के धुआं नहीं होता’. भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता में आए 100 दिन भी पूरे नहीं हुए थे कि उस के बडे़ नेताओं के खिलाफ अफवाहों का तूफान आ गया. अफवाहें भी ऐसी कि देश के प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को सामने आ कर सफाई देनी पड़ी. भाजपा कह रही है कि ये अफवाहें बेबुनियाद हैं. विरोधी दलों का कहना है कि भाजपा सत्ता में है, उसे अपने खिलाफ अफवाहें उड़ाने वाले का पता लगा कर दूध का दूध और पानी का पानी सामने कर देना चाहिए. भाजपा की हालत सांपछछूंदर वाली हो गई है. उसे न तो अफवाहों को उगलते बन रहा है न निगलते.  उलझे

देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बारे में यह कहा जाता है कि उन का आत्मविश्वास कभी कमजोर नहीं पड़ता है. इस की अपनी वजह भी है. उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के भभौरा गांव में पैदा हुए राजनाथ सिंह स्कू लटीचर थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ कर वे उत्तर प्रदेश में मंत्री से ले कर मुख्यमंत्री तक की कुरसी पर पहुंच गए. भाजपा के संगठन में हर बडे़ पद पर वे आसीन रहे.

एक समय भाजपा में उन का नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए भी सब से आगे चल रहा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत मिला तो उन को प्रधानमंत्री के बाद की सब से ताकतवर मानी जाने वाली गृहमंत्री की कुरसी दी गई. 

भाजपा की सोच रही है कि गृहमंत्री के पद पर लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल जैसा नेता बैठना चाहिए. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो लालकृष्ण आडवाणी को गृहमंत्री की कुरसी दी गई थी. नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा ने केंद्र में अपनी सरकार बनाई तो राजनाथ सिंह को गृहमंत्री बनने का मौका दिया गया. राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद पद और गोपनीयता की शपथ ली. 

प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर जाते हैं तो सत्ता की कमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह के हाथ में सौंप कर जाते हैं. लोकसभा में डिप्टी लीडर का पद भी राजनाथ सिंह के पास है. ऐसे में आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनाथ सिंह कितने मजबूत कद के नेता हैं. गृहमंत्री के हाथ में देश के अंदर सुरक्षा का पूरा चक्र होता है. खुफिया एजेंसियों की पूरी कमान गृहमंत्री के हाथ में होती है. देश का ऐसा प्रमुख व्यक्ति जब तथाकथित अफवाहों के जाल में फंसता है तो कितना बेचारा नजर आता है, यह देखना हो तो राजनाथ सिंह को देखें.

गृहमंत्री की उदासी

28 अगस्त को राजनाथ सिंह अपने संसदीय क्षेत्र यानी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में थे. वे ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ का उद्घाटन करने के लिए लखनऊ में थे. हमेशा खुशदिल और बेबाक बातचीत करने वाले राजनाथ सिंह के मुख पर उदासी की छाया थी. उन की बौडी लैंग्वेज में पहले जैसा आत्मविश्वास और भरोसा भी नहीं दिख रहा था. इस की बड़ी वजह एक तथाकथित अफवाह थी जिस में राजनाथ सिंह के पुत्र और उत्तर प्रदेश भाजपा के महासचिव पंकज सिंह पर निशाना साधा गया था. 

बात कुछ यों है, राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह पर आरोप लगा कि उन्होंने किसी बिजनैसमैन से काम कराने के बदले पैसा लिया था. इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंकज सिंह को बुलाया और पैसे लौटाने के लिए कहा. अफवाह फैली कि नरेंद्र मोदी ने कहा कि बगल के कमरे में वे लोग बैठे हैं. उन का एकएक पैसा वापस कर दो. इस अफवाह से नरेंद्र मोदी की उस बात को पुख्ता करने का काम किया गया जिस में उन्होंने कहा था कि उन की सरकार में भ्रष्टाचार बरदाश्त नहीं किया जाएगा. न वे खाएंगे, न खाने देंगे. 

यह बात पहले राजनीतिक गलियारों में चर्चा का बिंदु बनी. उस के बाद सोशल मीडिया में वायरल हो गई. हालात यहां तक पहुंच गए कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भाजपा की सब से बड़ी सत्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के सामने गुहार लगाई. इस के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की तरफ से ऐसी घटना का खंडन किया गया. दोनों ही जगहों से राजनाथ सिंह और उन के पुत्र पंकज सिंह के काम, व्यवहार और पार्टी के प्रति समर्पण की तारीफ भी हुई.

बेबसी पर उठे सवाल

सामान्यतौर पर देखें तो इस के बाद भाजपा में सबकुछ सहज हो जाना चाहिए था. हकीकत में वैसा हुआ नहीं. इस अफवाह के बाद से पार्टी के कामकाज में पंकज सिंह की सक्रियता बेहद कम दिखने लगी. गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी बुझेबुझे नजर आने लगे. 28 अगस्त को लखनऊ में मीडिया के बीच चहकने वाले राजनाथ सिंह बेबस नजर आए. उन के परिवार को ले कर फैली अफवाहों पर जब सवाल किया गया तो वे बड़े ही दार्शनिक अंदाज में हवा में हाथ हिलाते बोले, ‘विधाता सब देख रहा है.’ उन से अगला सवाल हुआ, ‘क्या आप को इस में कोई साजिश नजर आ रही है?’ राजनाथ सिंह ने फिर सवाल के बदले में सवाल करते कहा, ‘आप लोग खोजी पत्रकार हैं, खोज करिए.’  जिस नेता के हाथ में देश की सब से बड़ी खुफिया एजेंसी हो वह इस तरह से बेबस नजर आए, ऐसा पहली बार देखा गया. उन से एक सवाल और किया गया, ‘आप को तो साजिश करने वाले का नाम, पता मालूम हो गया होगा?’ इस पर राजनाथ सिंह कुछ नहीं बोले, बस मुसकरा कर रह गए.

अफवाहों का यह पहला मामला नहीं था. इस के पहले भाजपा के 2 और बड़े नेताओं को ले कर अफवाहों का दौर चल चुका था. सब से पहले भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के घर में जासूसी यंत्र लगाए जाने की बात फैलाई गई थी. अरुण जेटली के करीबी माने जाने वाले पैट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधानऔर सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी अफवाहों के बाजार में छाए रहे. इन सभी के खिलाफ हलकीफुलकी अफवाहें थीं. 

अफवाहों ने भाजपा में पार्टी नेताओं के बीच चुनावी दौर में बनी सहजता को तोड़ दिया है. अगर गंभीर आरोप केवल अफवाह है तो केंद्र सरकार को इस के पीछे हवा देने वाले लोगों का पता करना चाहिए, जिस से किसी दूसरे नेता के खिलाफ ऐसे शर्मनाक आरोप न लग सकें. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि राजनाथ सिंह को ले कर चली अफवाह के पीछे के सच को राजनाथ सिंह जानते हैं. इसी वजह से वे इस मामले को तूल नहीं देना चाहते. उन को लगता है कि छानबीन करने में जो सच दिखेगा उसे स्वीकार करना सरल नहीं होगा. ऐसे में जानबूझ कर भाजपा सरकार दूध के साथ मक्खी को भी निगल जाना चाहती है.

सत्ता संग्राम का नतीजा

भाजपा भले ही इन बातों को अफवाह मान रही हो, सवाल उठता है इन को फैलाने वालों को बेनकाब करने में उस की दिलचस्पी क्यों नहीं है? यही वह सवाल है जो भाजपा के सत्ता संग्राम को दिखाता है, जिस का लाभ उठा कर विरोधी पार्टी और नेता दोनों सरकार पर निशाना साध रहे हैं. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अगर यह काम किसी विरोधी दल का होता तो विपक्ष इन अफवाहों को हवा देने के लिए सामने आ जाता. अचंभे की बात यह है कि इन अफवाहों को फैलाने में किसी विरोधी दल की दिलचस्पी नहीं नजर आई. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने तो राजनाथ सिंह की तारीफ की और कहा कि वे ऐसे नेता नहीं हैं. भाजपा में एकदो नेताओं के अलावा किसी ने भी राजनाथ सिंह के समर्थन में आवाज नहीं उठाई. 

केंद्र में सरकार बनने के बाद से भाजपा में सत्ता का संघर्ष जारी है. अपनेअपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्थापित करने का दौर चल रहा है. ऐसे में इन अफवाहों को फैलाने के लिए जरूरी खाद और बीज मिल जाता है. भाजपा में नंबर 2 की रेस चल रही है. नंबर 2 की इस रेस में सब से आगे 2 नाम, राजनाथ सिंह और अरुण जेटली के हैं. देखा जाए तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दोनों को ही बराबर मानते हैं. उन की ओर से दोनों नेताओं को अलगअलग जिम्मेदारी दी गई है.

कई बार इन नेताओं के समर्थक आपस में ऐसी रेस को जन्म देते हैं जो नेताओें के बीच खाई गहरी करने का काम करती है. कई बार नेताओं को लाभ होता है तो कई बार इस का नुकसान भी उठाना पड़ता है. नेताओं के बीच गहराती खाई का लाभ नेता को हो भी जाए तो पार्टी को उस का नुकसान झेलना ही पड़ता है. भाजपा नेताओं के बीच तालमेल के बिगड़ने का प्रभाव चुनावों पर भी पड़ रहा है. उत्तराखंड के बाद बिहार के उपचुनावों में जिस तरह से पार्टी की हार हुई है उस में इन अफवाहों का बड़ा हाथ माना जा रहा है. ताजा उपचुनावों में भी भाजपा की करारी हार से राजनीतिक रूप से कोमा में चली गई विपक्षी पार्टियों को अब उठ खड़े होने का मौका भी मिल गया है.

फिलहाल अफवाहें विरोधी नेताओं को निबटाने का जरिया बन कर उभरी हैं. ऐसे में अफवाहों के वारपलटवार की पूरी गुंजाइश बनी हुई है. जब तक अफवाहों के पीछे के तत्त्वों को बेनकाब नहीं किया जाएगा तब तक अफवाह और इन के पीछे की रणनीति पर होने वाली चर्चाओं को विराम नहीं दिया जा सकता है.

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