देर आए दुरुस्त आए

बात कतई हैरत की नहीं कि कांग्रेस के छुटभैये नेता ही राहुल गाधी को पानी पीपी कर कोस रहे हैं. राहुल में समझ नहीं है, उन्हें राजनीति नहीं आती, वे जमीनी नेता नहीं हैं और राहुल की खामोशी कांग्रेस को ले डूबी जैसे दर्जनों वाक्य  सुनने में आ रहे हैं. सीधेसाधे कहा जाए तो यह है कि कांग्रेसियों को लोकसभा चुनाव की करारी हार के 4 महीने बाद होश आया है.

इसी समीकरण को उलट कर देखें तो हकीकत यह है कि 4 महीने बाद कांग्रेसियों में सच बोलने की हिम्मत आ रही है हालांकि यह भड़ास है पर देर से निकली कि जब कांग्रेस के हाथ में कुछ भी नहीं है. राहुल के साथ दिक्कत हमेशा से यह रही है कि उन्हें नहीं मालूम कि वे चाहते क्या हैं, अभी भी इस संकट से वे उबर नहीं पा रहे हैं. इसलिए यह कहा जा सकता है कि असमंजस भी गरीबी की तरह एक मानसिक अवस्था है.

लहर की खुरचन

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को करिश्माई कहने और प्रयोगवादी नेता मानने की एक वजह यह भी है कि वे जोखिम उठाने में भरोसा करते हैं. सितंबर के पहले हफ्ते उन्होंने मुंबई में बगैर किसी झिझक के मान लिया कि मोदी लहर धीरेधीरे कमजोर पड़ रही है. इस बयान के सियासी माने सभी अपने हिसाब से लगा रहे हैं पर यह संदेश जरूर अमित शाह ने दे दिया कि जरूरत पड़ने पर भाजपा मोदी की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा की खुरचन को भी दांव पर लगा सकती है यानी भुना सकती है. यह राजनीति की विचित्रता नहीं बल्कि उस का मूलभूत सिद्धांत है.

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